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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम पाक सेना से संवाद की जरूरत पीछे     आगे

डेविड कोलमैन हेडली के हालिया अदालती बयानों को लेकर पाकिस्तानी मीडिया की प्रतिक्रियाएँ बहुत ही ठंडी और लगभग अपेक्षित थीं। सभी राष्ट्रीय अख़बारों ने इस खबर को न सिर्फ दबाने की कोशिशें की बल्कि अंदर के पृष्ठों पर छपी ख़बरों में 26/11/2008 को मुंबई में हुए आतंकी हमलों में पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई. के रोल पर हेडली के कथन को लगभग उल्लेख की परिधि से बाहर रखा गया।

पाकिस्तानी मीडिया का यह व्यवहार किसी भी तरह से अनपेक्षित नहीं था। 26/11/2008 के मुंबई हमले के फौरन बाद पाकिस्तानी सरकार ने यह कहना शुरू कर दिया था कि अगर इस वारदात में किसी पाकिस्तानी का हाथ है भी तो वह नान स्टेट ऐक्टर होगा। यह हमला छत्तीस घंटे से अधिक चला था और हमलावर लगातार पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं से बात करते रहे थे इसलिए भारतीय एजेंसियों को मौका मिल गया कि वे इस बातचीत को रिकार्ड कर सके। बाद में यह रिकार्डिंग अमेरिकन अधिकारियों को भी सौपी गई जिसमें जीवित पकड़े गए क़स्साब और मृत आतंकियों को ज़की उर रहमान लखवी समेत दूसरे पाकिस्तानी हैंडलरों से बात करते हुए स्पष्ट सुना जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय दबाव में पाकिस्तान ने लखवी और हाफ़िज़ सईद को गिरफ्तार जरूर किया पर बेमन से चलाए गए मुकदमें में हाफ़िज़ जल्दी ही छूट गया और लखवी को भी सज़ा मिलने के आसार नजर नहीं आते।

मुंबई हमले में नया मोड़ तब आया जब एक अमेरिकी हवाई अड्डे पर हेडली पकड़ा गया और उसने अमेरिकन अधिकारियों के समक्ष जो बयान दिए उनसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. की मुंबई हमलों में संलिप्तता स्पष्ट हो गई थी पर पाकिस्तान ने कभी भी इसे स्वीकार नहीं किया। मुंबई अदालत के सामने वीडियो कांफ्रेंस के जरिए हेडली ने जो कुछ इक़बालिया बयान के रूप में कहा है उनमें कुछ भी नया नहीं है। वह न सिर्फ अमेरिका की एफ़.बी.आई. और सी.आई.ए. के समक्ष ये सभी बातें दोहरा चुका था बल्कि भारत की एन.आई.ए. को भी उसने यही सारी बातें भी बताई थी। इसलिए भारतीय मीडिया का हेडली के बयानों को बहुत तवज्जो देना या भारत सरकार द्वारा यह अपेक्षा करना कि इन पर पाकिस्तानी सरकार कोई कार्यवाही करेगी बहुत प्रासंगिक नहीं है।

ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करना चाहतीं। सच यह है कि यदि वे चाहें भी तो उन तत्वों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सकतीं जिन्हें स्वयं पाकिस्तानी सेना ने पाल-पोस कर बड़ा किया है। याद दिलाते चलें कि छब्बीस ग्यारह के हमले के बाद तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने आई.एस.आई. प्रमुख को भारत भेजने की घोषणा की थी किंतु दूसरे ही दिन यह स्पष्ट हो गया कि इस पर अमल नहीं होगा। उनका यह कथन भी कि यदि हमलावर पाकिस्तानी धरती से आए भी होंगे तो उनके पीछे नान स्टेट प्लेयर्स होंगे कोई मायने नहीं रखता। पाकिस्तानी राज्य और राजनीति में कुछ ऐसे विरोधाभास निहित हैं जिनसे स्टेट और नान स्टेट प्लेयर्स के बीच की महीन विभाजक रेखा में कौन किस पाले में खड़ा है, पता लगाना बड़ा मुश्किल है।

मेंमोगेट मसले में पाकिस्तानी रक्षा मंत्रालय ने सुप्रीमकोर्ट में हलफनामा दिया था कि फौज उसके नियंत्रण में नहीं है। यह आम तौर से मान लिया गया है कि भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका के संबंध में नीतियाँ सेना मुख्यालय में बनती हैं और सरकार उसे लागू करती है। पिछले तख्ता पलट ने नवाज शरीफ को इतना डरा दिया है कि इस बार सत्ता में वापसी के बाद उन्होंने हर मुठभेड़ के बाद सेना के सामने झुकना सीख लिया है। अपने पहले कार्य काल में शरिया कानून लागू करने के हामी नवाज शरीफ भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण विचार रखते थे पर मूलतः व्यापारी राजनेता को यह समझने में अधिक समय नहीं लगा कि दोनों देशों की खुशहाली उनकी मित्रता में निहित है पर सेना के आगे उनकी खास नहीं चली।

हेडली के बयान लगातार चार दिनों तक भारतीय अख़बारों की सुर्खियों में छाये रहे पर इस अवधि के पाकिस्तानी अख़बारों ने उन्‍हें कोई महत्व नहीं दिया। बड़ी उत्सुकता से इन दिनों के पाकिस्तान के राष्ट्रीय अख़बारों को उलटने-पुलटने के बाद मुझे निराशा ही हाथ लगी क्योंकि किसी ने इसे प्रमुख समाचारों में सम्मिलित करने लायक नहीं समझा था। खासतौर से सेना या आई.एस.आई. के अफसरों की भूमिका का जिक्र दबा दिया गया। अख़बारों के इस रवैये पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर जनता की चुनी हुई सरकार फौज से दबती है तो फिर प्रेस से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह सेना की नाराजगी मोल ले। कुछ ही दिन पहले देश का सबसे बड़ा मीडिया समूह जंग ग्रुप अपने चैनल जियो टी.वी. पर आई.एस.आई. प्रमुख के विरुद्ध खबर चलाने पर प्रतिबंधित हो चुका है।

भारतीय नीति निर्धारकों को पाकिस्तान के संबंध में नीति बनाते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि सेना पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के अधीन है भी और नहीं भी है। अमेरिका और अफगानिस्तान की तरह हमें भी दोनों से अलग अलग निपटना पड़ेगा। दुर्भाग्य से भारतीय विदेश नीति ने कभी भी पाकिस्तानी सेना मुख्यालय या जी.एच.क्यू. से सीधा संवाद कायम करने का प्रयास नहीं किया। इस्लामाबाद की चुनी हुई सरकारों ने जब जब बिना सेना को विश्वास में लिए, भारत से दोस्ती का प्रयास किया उन्हें मुँह की खानी पड़ी। मुंबई, कारगिल और पठानकोट ऐसे ही उदाहरण हैं।

भारत को इस संबंध में अफगानिस्तान या अमेरिका से सबक लेना चाहिए। दोनों पाकिस्तानी फौज के सताए हुए हैं। हक्कानी नेटवर्क और तालिबान दोनों को जी.एच.क्यू. संचालित करता है। उन्हें हथियार, प्रशिक्षण और शरण फौज देती है। हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान में अमेरिकी हितों पर सबसे घातक हमले किए हैं। इसी तरह तालिबान अफगानिस्तान सरकार को लगातार अस्थिर किए हुए हैं। दोनों सरकारें जानती हैं कि इन संगठनों के पीछे फौज है। उनके थिंक टैंक और कई बार आधिकारिक प्रवक्ता खुले आम शिकायत भी करते हैं कि आई.एस.आई. या पाक सेना वह सब नहीं कर रही जो उन्हें करना चाहिए या वह सब कर रहे हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए। इनके बावजूद दोनों सेना से संवाद के चैनल बंद नहीं करते।

यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तानी सेना के अस्तित्व का तर्क कश्मीर और भारत विरोध है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि दोनों देशों में दोस्ती है। पर इसी सेना ने अफगानिस्तान को लेकर स्ट्रेटिजिक डेफ्थ का सिद्धांत गढ़ा था पर आज अफगान राष्ट्रपति और पाक सेनाध्यक्ष सीधे बात करते हैं। अमेरिका भी जनरल राहिल शरीफ की हफ़्तों मेंजबानी करता है। भारत को भी लीक से हट कर सोचना होगा प्रधानमंत्री शरीफ के साथ जनरल शरीफ से संवाद करने के रास्ते तलाशना होगा।


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