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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना पीछे     आगे

उड़ी ब्रिगेड मुख्यालय पर 18 सितंबर की रात हुए हमले पर भारत की प्रतिक्रिया से कुछ संदेश भेजने के प्रयास हुए हैं। ये संदेश किसे भेजे गए? पाकिस्तान को, विश्व समुदाय को या भारतीय खासतौर से उत्तर प्रदेश और पंजाब के मतदाताओं को, जहाँ चुनाव होने वाले हैं? यदि ये संदेश पाकिस्तान के लिए थे तो निश्चित रूप से इसमें मोदी सरकार को कोई सफलता नहीं मिली। उम्मीद की जा रही थी कि घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप भारत की सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान डर जाएगा और सीमा पार से आने वाले आतंकियों पर रोक लगा देगा। पर ऐसा तो हुआ नहीं। जोर शोर से प्रचारित, 29/30 सितंबर की आधी रात को किए गए भारतीय हमले के दो दिनों के बाद ही उड़ी से सटे बारामुला में फौज और बी.एस.एफ. के साझा परिसर पर उड़ी जैसा ही हमला हुआ। यह अलग बात थी की इस बार ज्यादा सतर्क सैनिकों के कारण नुकसान बहुत कम हुआ। उड़ी में वैसे भी नुकसान आतंकियों की गोलाबारी से ज्यादा पेट्रोल/डीज़ल के भंडार में लगी आग के कारण हुआ था। पाकिस्तानी मीडिया में उड़ी के बाद चल रही बहसों को देखने, सुनने और पढ़ने के बाद कभी ऐसा नहीं लगा कि वहाँ के राजनैतिक और सैनिक नेतृत्व ने उस तरह के संदेश ग्रहण किए हैं जैसे मोदी सरकार की मंशा थी। इसलिए अगर मोदी सरकार सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए पाकिस्तान की सरकार या सेना को कोई संदेश देना चाहती थी तो उसमें वह बुरी तरह से असफल हुई है।

पहले तो यह समझें कि सर्जिकल स्ट्राइक होती क्या है? आम तौर से विश्वसनीय खुफिया सूचनाओं के साथ दुश्मन के असावधान ठिकानों पर एक निश्चित मकसद हासिल करने के लिए विद्युत गति से किए जाने वाले हमलों को सर्जिकल स्ट्राइक कहते हैं और साधारणतया इनमें हेलीकाप्टरों/हवाई जहाज़ों की मदद से पैरा ट्रुपर्स का इस्तेमाल होता है।

विश्व जनमत जरूर इस बार काफी हद तक भारत के साथ है पर इसके लिए सर्जिकल स्ट्राइक जैसा जोखिम उठाने की जरूरत नहीं थी। ऐसी स्थिति के लिए, जिसमें पाकिस्तान पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया है, खुद उसकी नीतियाँ जिम्मेदार हैं। सार्क देशों में जितना क्षोभ उसे लेकर भारत के मन में है उससे कम अफगानिस्तान और बांग्लादेश के मन में नहीं है। भारत से ज्यादा पाकिस्तान के पाले पोसे जिहादी अफगानिस्तान में तांडव कर रहे हैं। अमेरिका के लाख प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान अच्छे और बुरे तालिबानों के बीच फर्क करना नहीं छोड़ रहा है। उसके लिए आज भी अफगानिस्तान में कहर ढ़ाने वाले हक्कानी नेटवर्क और अलकायदा से जुड़े तालिबान 'अच्छे' हैं और पाकिस्तान में सक्रिय तहरीके तालिबान पाकिस्तान या टी.टी.पी. के तालिबान 'बुरे'। उसी तरह जैसे कि पाकिस्तान में प्रशिक्षित और वहाँ से सुसज्ज होकर कश्मीर आने वाले आतंकी स्वतंत्रता सेनानी हैं। उसके नीति निर्धारकों खासतौर से सेना के लिए ये ऐसे नान स्टेट ऐक्टर या गैर सरकारी खिलाड़ी हैं जो उसके राष्ट्रीय हितों के लिए जरूरी हैं, इसलिए विश्व समुदाय की मज़म्मत झेलते हुए भी वह इनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करता। ऐसे ही हाल में, बांग्लादेश की अदालतों द्वारा उन कट्टरपंथियों को फाँसी देने का भी पाकिस्तान खुले आम विरोध करता रहा है जिन्होंने 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान पूर्व पाकिस्तान में बुद्धिजीवियों, अवामी लीग के कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों का कत्लेआम किया था। हर फाँसी के बाद सार्वजनिक रूप से उसने बांग्लादेश की निंदा की है और इस तरह हर बार उससे अपनी दूरियाँ बढ़ाई ही है। अपनी इन्हीं नीतियों के कारण सार्क में वह लगभग अलग-थलग पड़ गया है और भारत के लिए उसे घेरना आसान हो गया है। सार्क से बाहर भी दुनिया भर में गैर सरकारी खिलाडियों के प्रति वितृष्णा बढ़ी ही है। दरअसल 9/11 के बाद पश्चिमी यूरोप, मध्य एशिया यहाँ तक कि अरब मुल्कों ने भी नान स्टेट ऐक्टर्स का तांडव झेला है और पूरी दुनिया में इनके खिलाफ कार्यवाही पर आम सहमति बनी है। ऐसे में पाकिस्तान संभवत: दुनिया का अकेला बड़ा राष्ट्र बच गया है जो अभी भी इनको पालता-पोसता रहता है। अत: यह बहुत स्वाभाविक ही है कि दुनिया भर में निःशस्त्र नागरिकों के खिलाफ जब भी कोई आतंकी घटना होती है, उसके तार किसी न किसी रूप में पाकिस्तान से जरूर जुड़ते हैं। घटना में लिप्त आतंकी या तो पाकिस्तानी मूल के होते हैं या उन्हें प्रशिक्षण पाकिस्तान में मिला हुआ होता है अथवा विचार और संसाधनों के रूप में पाकिस्तान स्थित जिहादी केंद्र उन्‍हें मदद करते दिखते हैं। इसलिए अगर उड़ी हमलों के बाद विश्व जनमत, जिसमें अमेरिका समेत पश्चिमी राष्ट्रों के अतिरिक्त रूस और सऊदी अरब या ईरान जैसे परस्पर विरोधी मुस्लिम देश भी शरीक हैं, पाकिस्तान के विरोध और भारत के समर्थन में खड़ा दिख रहा है तो इसमें मोदी सरकार द्वारा भेजे गए संदेश का कोई हाथ नहीं है। उसने तो सिर्फ आक्रामक राजनय द्वारा स्थिति का फायदा उठाया है।

फिर इस तथा कथित सर्जिकल स्ट्राइक के द्वारा किसे संदेश देने का प्रयास किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने के पहले हमें एक बार उस माहौल को समझने का प्रयास करना होगा जो 30 सितंबर को दिल्ली में सत्ता के गलियारों में था। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता और डी.जी.एम.ओ. (सेना मुख्यालय में सैन्य संचालन के महा निदेशक) को इसके पहले कारगिल युद्ध के दौरान ही एक साथ संवाददाता सम्मेलनों में देखा गया था। इस में भाग लेने वालों ने माहौल सूँघ कर जान लिया कि कोई बहुत महत्वपूर्ण सूचना दी जाने वाली है। खासतौर से उड़ी हमले के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएँ प्रधानमंत्री, रक्षा और गृह मंत्रियों की तरफ से आ रही थी या जैसा मुहतोड़ जवाब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सुरक्षा परिषद में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को दिया था उन्‍हें लेकर हर कोई आशंकित था। क्या युद्ध की घोषणा होने वाली है? डी.जी.एम.ओ. ने जो घोषणा की वह युद्ध तो नहीं पर उसमें उसी दिशा में बढ़ने के संकेत जरूर छिपे थे। डी.जी.एम.ओ. के अनुसार भारत ने बीती रात कई स्थानों पर नियंत्रण रेखा या एल.ओ.सी. पार कर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकियों के लांचिंग पैड्स या ऐसे ठिकानों पर हमले किए जहाँ भारतीय ठिकानो पर हमला करने के पहले उन्हें रखा जाता है। डी.जी.एम.ओ. के अनुसार इस सर्जिकल स्ट्राइक में दो पाकिस्तानी सैनिकों के अलावा कई दर्जन आतंकी भी मारे गए। उसी दिन प्रधानमंत्री ने स्वयं राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ब्रीफिंग की, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सोनिया गांधी से मिलने गईं और एक सर्वदलीय बैठक में सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों तथा अधिकारियों ने पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी। स्वाभाविक था कि देश की सुरक्षा के नाम पर सभी सरकार के साथ एक सफे पर दिखे।

दो तीन दिन बाद जब धुंध छँटनी शुरू हुई तब स्वाभाविक रूप से कुछ ऐसे प्रश्न खड़े हुए जिनका उत्तर मिले बिना पूरा घटनाक्रम अविश्वसनीय सा लगता है। यदि कई दर्जन आतंकी मरे थे तो उनके शव कहाँ गए? क्या ऐसा संभव है कि सीमा से सिर्फ एक से तीन किलोमीटर की दूरी पर पाकिस्तान लांचिंग पैड रखेगा? इतनी दूरी तक तो एम.एम.जी. और छोटे तोपखानों से नुकसान पहुँचाया जा सकता है और इन हथियारों का प्रयोग तो हर युद्ध विराम उल्लंघन में होता ही रहता है। फिर क्यों भारत हेलीकाप्टरों के इस्तेमाल का खतरा उठाएगा जिनके सीमा पास उड़ते ही पाकिस्तानी राडारों की पकड़ में आने का खतरा था।

घटना के फौरन बाद भाजपा के समर्थक भाष्यकारों ने जोर-शोर से घोषित करना शुरू किया कि पूरा घटनाक्रम आतंकी हमलों को लेकर की जाने वाली भारतीय प्रतिक्रिया में होने वाला एक आमूलचूल परिवर्तन या पैराडाइम शिफ्ट है। मोदी सरकार आने के बाद सेना ने इसके पहले म्यांमार के अंदर घुस कर कुछ नागा विद्रोहियों को मारा था और उसे भी जोर-शोर से पैराडाइम शिफ्ट के रूप में ही प्रचारित किया गया था। उस घटना से यह संदेश देने की भी कोशिश की गई थी कि अगर पाकिस्तान अपनी करतूतों से बाज न आया तो उसे भी उसके घर में घुस कर पीटा जाएगा। क्या 29/30 की रात भारत की सर्जिकल स्ट्राइक इसी श्रेणी में आती है?

इस बार यह बड़ा दिलचस्प था कि भारत नियंत्रण रेखा पार करने की बात कह रहा था और पाकिस्तान इसका खंडन। होना तो यह चाहिए था कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा पार करने का आरोप लगाता और भारत उसका खंडन करता। पाकिस्तान दो ऐसी जगहों पर अपने मीडियाकर्मियों को भी लेकर गया जहाँ भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की बात की थी। वहाँ के स्थानीय निवासियों ने किसी भी हमले से इनकार किया। अधिकतर विदेशी चैनल भी किसी तरह की सर्जिकल स्ट्राइक मानने से मना कर रहे हैं।

इसके पहले यू.पी.ए. सरकार के दौरान भी ऐसा होता रहा है कि भारतीय सेना के विशेष प्रशिक्षित दस्ते वक्त जरूरत नियंत्रण रेखा पार कर पाक अधिकृत कश्मीर में कुछ दूर अंदर जा कर उसके ठिकानों पर या उसके पेट्रोल पर घात लगा कर हमले कर और दुश्मन को नुकसान पहुँचा कर तेजी से वापसी करते रहे है। इस बार फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले अपने पाकिस्तानी समकक्ष को फोन कर और फिर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस में डी.जी.एम.ओ. ने इस हमले का ऐलान किया।

इस पूरे घटना क्रम में अगर कोई पैराडाइम शिफ्ट है तो यहीं है। मीडिया में उफनते देश प्रेम के ज्वार और कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़े पाकिस्तान ने मोदी सरकार को यह मौक़ा दिया है कि वह एक अर्ध सत्य को जोर शोर से पैराडाइम शिफ्ट के रूप में प्रचारित करे। पर यह संदेश किसे दिया जा रहा है? निश्चित रूप से पाकिस्तान ने तो इसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया और शेष दुनिया भी पूरी तरह से मुतमइन नहीं लग रही है। कही यह संदेश उत्तर प्रदेश और पंजाब के मतदाताओं के लिए तो नहीं था जहाँ अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं? जिस तरह 'देशभक्त' भारतीय चैनलों और अखबारों ने बढ़ चढ़ कर सरकारी दावों को स्वीकार किया है उससे तो यहीं लगता है कि भाजपा पहला दौर जीत गई है पर देखना है कि यह खुमार कब तक रहता है?


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