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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम फ़ौज और नवाज़ में तनाव की पहेली पीछे     आगे

पिछले दिनों भारत पाकिस्‍तान के बीच जो कुछ घट रहा था उसके शोर शराबे में प्रधानमंत्री कार्यालय इस्‍लामाबाद में हुई एक ऐसी बैठक पर भारतीय मीडिया का ध्‍यान कम गया है जिसके दूरगामी परिणाम निकल सकते हैं।

पाकिस्‍तान को करीब से देखने वाले जानते हैं कि वहाँ सत्ता के एक नहीं दो केंद्र हैं और अकसर दोनों विपरीत ध्रुव पर दिखते हैं। एक तरफ चुन कर आने वाले जन प्रतिनिधि हैं तो दूसरी तरफ फ़ौजी नेतृत्‍व है जिसने एक नैरेटिव गढ़ा है और इसके मुताबिक नागरिक प्रशासन भ्रष्‍ट, अक्षम और भाई-भतीजा वाद से ग्रस्‍त है। इस नैरेटिव के मुताबिक पाकिस्‍तान की अखंडता और खुशहाली की गारंटी सिर्फ उसकी फ़ौज दे सकती है। इसके निहितार्थ यहाँ तक जाते हैं कि पाकिस्‍तान की विदेशी और रक्षा नीतियों के संबंध में महत्‍वपूर्ण फैसले फौज ही करती है - खासतौर से तब जब उसका संबंध भारत, अफगानिस्‍तान और अमेरिका से हो। इस नैरेटिव के कारण कई बार बड़ी दिलचस्‍प स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं और एक राष्‍ट्र राज्‍य के रूप में पाकिस्‍तान पूरी दुनिया के सामने नक्‍कू बनाता है।

1980 के दशक से ही पाकिस्‍तानी सेना जिहादी आतंकी संगठनों को पाल-पोस रही है और स्‍वयं आश्‍वस्‍त होने के साथ-साथ उसने राजनैतिक नेतृत्‍व को भी काफी हद तक मुतमईन कर रखा है कि ये जिहादी कश्‍मीर और अफगानिस्‍तान में उसके हितों की रक्षा के लिए आवश्‍यक है। यह अलग बात है कि उसकी इन्‍हीं नीतियों ने लश्‍कर, जैशे मोहम्‍मद, तालिबान और हक्‍कानी नेटवर्क को खड़ा किया और जैसे-जैसे इन संगठनों की गतिविधियाँ बढ़ती गई विश्‍व जनमत पाकिस्‍तान के खिलाफ होता गया और वह वैश्विक परिदृश्‍य पर अकेला पड़ता गया। अपनी सेना की अवा‍स्‍तविक स्‍थापनाओं के कारण पाकिस्‍तान अमैत्रीपूर्ण पड़ोसियों से घिर गया है। पूर्वी सीमा पर भारत से उसके खराब संबंधों को विभाजन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में समझा जा सकता है पर पश्चिमी सीमा पर अफगानिस्‍तान और इरान से रिश्‍तों के बिगाड़ के पीछे तो पूरी तरह से सेना ही नीतियाँ है। यह भी बड़ा मजेदार तथ्‍य है कि अपनी हरकतों से पाकिस्‍तान को अलग-थलग करने वाला सैनिक नेतृत्‍व विदेशी नीति की असफलता का ठीकरा राजनैतिक नेतृत्‍व के सर पर फोड़ता है।

इस परिप्रेक्ष्‍य मे ही वह बैठक हुई जिसका मैंने ऊपर ज़ि‍क्र किया है और जिसके दूरगामी परिणाम अगले कुछ दिनों में दिख सकते हैं।

सोमवार, 3 अक्‍टूबर की सुबह प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के कार्यालय में सब कुछ सामान्‍य लग रहा था। राष्‍ट्रीय सुरक्षा को लेकर नागरिक और सैनिक नेतृत्‍व के बीच नियमित होने वाली बैठकों की तरह यह बैठक भी थोड़ी बहुत आतिशबाजी के साथ खत्‍म हो सकती थी यदि शुरू में ही प्रधानमंत्री ने विदेशी सचिव एजाज चौधरी को अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्‍य पर ब्रीफिंग के लिए न कहा होता। एजाज के शुरू करते ही सन्‍नाटा छा गया और जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए खामोशी और घनी होती गई। खासतौर से सेना के मुखिया जनरल राहिल शरीफ की अनुपस्थिति में सैनिक प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्‍व कर रहे आई.एस.आई. प्रमुख ले. जनरल रिज़वान अख्‍़तर और राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ले. जनरल (रिटायर्ड) नासिर जंजुआ के चेहरे पर तनाव साफ़ दिखने लगा था। यह तो बाद में स्‍पष्‍ट हो गया कि सब कुछ पहले से तय था और उस कमरे में मौजूद कुछ लोगों को उनके रोल रटा दिए गए थे और वे निर्धारित रणनीति के अनुरूप पूरी तरह से आक्रामक थे।

सबसे पहले एजाज चौधरी ने विस्‍तार से बताया कि जिहादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही न करने के कारण किस तरह से पाकिस्‍तान अलग-थलग पड़ गया है। हक्‍कानी नेटवर्क, तालिबान, लश्‍करे तायबा और जैशे मोहम्‍मद जैसे संगठनों के खिलाफ कार्यवाही न करने से पाकिस्‍तान दुनिया में पूरी तरह से अकेला पड़ गया। सात में से चार देशों के खुले विरोध के कारण इस्‍लामाबाद में होने वाला सार्क सम्‍मेलन रद्द हो गया। अमेरिका तो विरोध में था ही चीन जैसे दोस्‍त ने भी मसूद अज़हर के मामले में पाकिस्‍तान को अपने रवैये पर पुनर्विचार के लिए कहना शुरू कर दिया है। इस ब्रीफिंग के मुताबिक सउदी अरब और यू.ए.इ. जैसे मुस्लिम मुल्‍कों पर भी समर्थन के लिए पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता। विदेश नीति की इस बड़ी असफलता का कारण वे गैर सरकारी खिलाड़ी हैं जिन्‍हें पिछले कुछ दशकों में सेना ने पाल-पोस कर खड़ा किया था और जिनके कारण विश्‍व में पाकिस्‍तानी छवि एक आतंकी देश की बन रही हैा एजाज ने मसूद अजहर, हाफि़ज सईद, लखवी और हक्‍कानी बंधुओं का जिक्र किया जिनके खिलाफ कार्यवाही के लिए विश्‍व जनमत दबाव बढ़ा रहा है। इस उल्‍लेख पर तमक कर आई.एस.आई. प्रमुख ने तमक कर कहा कि नागरिक प्रशासन इनके खिलाफ कार्यवाही क्‍यों नहीं करता? कौन उसे रोकता है?

सवाल का जवाब उस व्‍यक्ति ने दिया जिससे सबसे कम उम्‍मीद थी। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाई और पंजाब के मुख्‍यमंत्री शहबाज शरीफ परिवार और सेना के बीच पुल का काम करते रहे हैं। जब कभी नवाज ने अपना आपा खोया शहबाज ने ही उनके और सेनाध्‍यक्ष के बीच सुलह कराई। उनके समझाने से ही प्रधानमंत्री ने अपने विश्‍वस्‍त सरताज अजीज को हटाकर सेनाध्‍यक्ष राहिल शरीफ के करीबी आसिफ जंजुआ को राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाया और उन्‍हीं के कहने पर एक लंबे गतिरोध के बाद नवाज शरीफ झुके और सेना मुख्‍यालय की पसंद एक रिटायर्ड लेफ्टिनेट जनरल को देश का रक्षा सचिव बनाया गया। इसलिए कमरे में बैठे किसी को विश्‍वास नहीं हुआ कि शहबाज ऊँची आवाज में जनरल अख्‍तर को बीच में ही काटकर उन सारी घटनाओं का बयान करने लगेंगे जिनमें किसी प्रमुख आतंकी को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर फ़ौज ने दबाव डालकर छुड़वा दिया था।

शहबाज शरीफ के हस्‍तक्षेप से यह स्‍पष्‍ट हो गया कि बैठक की पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी और फ़ौजियों के अतिरिक्‍त सभी पात्र अपना निर्धारित रोल बखूबी निभा रहे थे। हमेशा विदेशी नीति की असफलता के लिए नागरिक प्रशासन को कोसने वाला सैनिक नेतृत्‍व उस समय तो पूरी तरह से हक्‍काबक्‍का और रक्षात्‍मक हो गया पर अपनी आदत के मुताबिक जल्‍दी ही उसने पलट वार किया।

दूसरे दिन अंग्रेजी अख़बार डान में इस बैठक के विवरण लीक हुए। जाहिर था कि राजनैतिक नेतृत्‍व देश को यह बताने के लिए भी व्‍यग्र था कि असली हाकिम कौन है? चौबीस घंटे की शांति के बाद यह पता भी चल गया कि अभी भी सेना पूरे तंत्र पर हावी है। पनामा लीक में अपने परिवार के साथ घिरे नवाज और शहबाज ने बुद्धवार तक समर्पण कर दिया। सबसे पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से खंडन जारी हुआ कि डान न छपी खबर बेबुनियाद, मनगढ़ंत और अर्धसत्‍य है और उसके थोड़े देर बाद पंजाब के मुख्‍यमंत्री कार्यालय ने भी बयान जारी किया कि उनके और जनरल अख्‍तर के बीच किसी तरह की कोई झड़प नहीं हुई और वे आई.एस. आई. प्रमुख का पूरा सम्‍मान करते हैं।

नागरिक प्रशासन के फौरी समर्पण के बाद युद्धविराम दिखता जरूर है पर अपने इस कार्यकाल में पहली बार तनकर खड़े होने वाले शरीफ प्रशासन को क्‍या फ़ौज आसानी से छोड़ देगी, खासतौर से तब जब कि पाकिस्‍तानी इतिहास में अब तक के सबसे लोकप्रिय सेनाध्‍यक्ष राहिल शरीफ का कार्यकाल समाप्‍त होने वाला है? इस प्रश्‍न का उत्तर मिलना अभी बाकी है।


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