क़ौमों के इतिहास में कई बार ऐसे निर्णायक क्षण आते हैं जब यह कहा जा सकता है
कि उसके बाद वे वही नहीं रह गई जो उसके पहले थी। जीवन में उथल पुथल लाने वाले
ये क्षण अपने समाजों को आत्मान्वेषण का अवसर देते हैं, कई बार अपनी गलतियों से
सीख कर उसे संकट से उभरने का मौका भी देते हैं और बाज वक्त गलतियों से सबक
लेने में चूक जाने वाले समाजों को हमने नष्ट होते हुए भी देखा है। 16 दिसंबर
2014 ने पाकिस्तान को एक ऐसा ही अवसर दिया है। इस दिन सुबह सबेरे आर्मी पब्लिक
स्कूल पेशावर के 137 बच्चों को तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने निर्ममता के साथ
कत्ल कर दिया। इस नृशंस हत्याकांड से पूरा पाकिस्तान दहल उठा। किसी के लिए भी
यह विश्वास करना कठिन था कि जिन तालिबानों को पाकिस्तानी राज्य और फौज ने पैदा
किया और पाल-पोस कर बड़ा किया था वे ही अपने आकाओं के बच्चों को इतनी निर्ममता
से कत्ल करेंगे। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पाकिस्तानी इस्टेबलिशमेंट की इस
स्थापना को सार्वजनिक रूप से नकारना पड़ा कि तालिबानों में कुछ अच्छे तालिबान
हैं और कुछ बुरे। इस घटना के बाद पाकिस्तान में कई तरह की बहसें चलीं पर जल्दी
ही वे पुराने अंतर्विरोधों में खो गईं। जहाँ जनता का एक बड़ा हिस्सा तालिबानों
के पक्ष में कोई भी तर्क सुनने के लिए तैयार नहीं था वहीं धार्मिक कठमुल्लों
का प्रतिनिधित्व करने वाले कई तरह के बहाने तलाश रहे थे। मैंने बड़ी दिलचस्पी
के साथ ये बहसें पढ़ी और सुनी। मेरा पहली बार अपालजिस्ट शब्द से परिचय हुआ।
हिंदी में इसके लिए कोई सटीक शब्द न ढूढ़ पाने के कारण मैं अपालजिस्ट ही लिख
रहा हूँ। अपालजिस्ट वह व्यक्ति है जो आँख में उँगली डालकर सच दिखलाये जाने पर
भी उससे इनकार करता है। जमाते इस्लामी और जमाते उलमा-ए-पाकिस्तान जैसी मजहबी
पार्टियों को छोड़ भी दिया जाए तो भी पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी और मुख्यधारा की
राजनैतिक पार्टियों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें अपालजिस्ट की
श्रेणी में रखा जा सकता है। ये हर आतंकी हमले के पीछे अमरीकी, इसराईली या
भारतीय हाथ होने का ढोल पीटने लागतें हैं और कई बार तो इनके और आतंकवादियों के
बयानों से बड़ी दिलचस्प स्थिति पैदा हो जाती है। मसलन लाहौर में वाघा सीमा के
करीब 2 नवंबर 2014 को एक आत्मघाती हमला हुआ जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए।
पत्रकारिता, राजनीति या सिविल सोसाइटी में बैठे अपालजिस्ट ने फौरन यह शोर
मचाना शुरू कर दिया कि इसे भारत या अमेरिका ने कराया है। आतंकी गुटों में भी
इसका श्रेय लेने की होइ लग गई और एक से अधिक आतंकी गुटों ने इसकी जिम्मेदारी
ली। एक बड़े आतंकी गुट जमातुल अहरार, जो तहरीके तालिबान पाकिस्तान का ही एक
हिस्सा है, ने छुटभैयों को डपटते हुए चुप कराया और यह घोषित किया कि इतना बड़ा
काम तो वही कर सकता है। इस दावे के पक्ष में उसने आत्मघाती हमलावर 25 वर्षीय
हनीफुल्ला उर्फ हमजा का चित्र और उसका जीवनवृत्त अपने वेबसाइट पर पोस्ट भी कर
दिया। स्वाभाविक था कि अपालजिस्ट दाएँ-बाएँ झाँकने लगे। पेशावर हमले ने तो इस
अपालजिस्ट तबक़े को भी निरुत्तर कर दिया। हर संकट में तालिबान के साथ खड़े
इमरान खान जैसे व्यक्ति को कहना पड़ा कि अब इंतहा हो गई है और पूरे पाकिस्तानी
समाज को मिल कर दहशतगर्दो के खिलाफ लड़ना चाहिए। पर टी.वी. एंकर मुबस्सिर
लुक़मान, भूतपूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ और आई.एस.आई के पूर्व निदेशक जनरल
हमीद गुल सरीखे लोगों की अभी भी कमी नहीं है जो पेशावर घटना के पीछे भारतीय और
अफ़ग़ानी हाथ ढूँढ़ रहें हैं। इनमें लेफ्टिनेट जनरल (रिटायर्ड) हमीद गुल वह
व्यक्ति है जिसने तालिबानों को पालपोस कर बड़ा किया है। पेशावर की इस घटना को
लेकर लोगों में गुस्सा इतना जबरदस्त था कि उन्होंने कुछ अकल्पनीय भी कर डाला।
पाकिस्तानी सिविल सोसायटी के लोग इस्लामाबाद की उस लाल मस्जिद पर चढ़ दौड़े जिस
के खिलाफ बोलने की कुछ महीनों पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हुआ कुछ ऐसे
कि एक पाकिस्तानी चैनेल ने लाल मस्जिद के इमाम मौलाना अब्दुल अज़ीज़ से पेशावर
कांड पर उसकी प्रतिक्रिया पूछी तो न सिर्फ उसने तहरीके तालिबान पाकिस्तान के
हत्यारों की निंदा करने से मना कर दिया बल्कि वारदात में मारे गए मासूम बच्चों
को शहीद मानने भी से इंकार कर दिया। इस पर सबसे पहले पाकिस्तान की सिविल
सोसायटी के सिर्फ दो तीन सदस्यों ने लाल मस्जिद के सामने विरोध स्वरूप
मोमबत्तियाँ जलाईं और फेसबुक के माध्यम से लोगों को इसमें शरीक होने का न्योता
दिया। आश्चर्यजनक रूप से दो तीन दिनों में ही कई सौ लोगों की भीड़ वहाँ हर शाम
इकट्ठी होने लगी और लाल मस्जिद वालों की उनके खिलाफ हिंसा करने की चेतावनी भी
बेमानी हो गई। फलस्वरूप पाकिस्तानी हुक्मरानों को मौलाना अब्दुल अज़ीज़ के खिलाफ
एफ.आई.आर. दर्ज करानी पड़ी। अब तक मौलाना अज़ीज़ की गिरफ्तारी नहीं हुई है किंतु
इस जन उभार का नतीजा यह हुआ कि एक दिन लाल मस्जिद का नायब इमाम अपने
तालिबइल्मों के साथ आतंकवाद के खिलाफ सिविल सोसायटी के आंदोलन में शरीक हुआ और
वहाँ उसने बच्चों पर हमले की मज़म्मत की। इस दुर्भाग्य पूर्ण घटना के जो अच्छे
बुरे नतीजे निकले उनमें जहाँ एक तरफ शुरुआती दौर में धार्मिक कट्टरपंथियों के
खिलाफ पाकिस्तानी समाज एक जुट दिखाई दिया पर वहीं लोकतांत्रिक संस्थाएँ कमजोर
पड़ी और सेना की राज्य के मामलात में पेशावर की घटना के बहाने दखलंदाजी बढ़ती
हुई दिखी। अभी सब कुछ बहुत तरल अवस्था में है इसलिए आगे जाकर पाकिस्तानी
राष्ट्र और समाज का क्या बनेगा, कह पाना मुश्किल है।