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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम बम का तर्क पीछे     आगे

सेंट्रल असेंबली में बम फेंकते समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एक पर्चा बाँटा था जिसका शीर्षक था बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। पाकिस्तान ने पिछले दिनों इस शीर्षक में कुछ हेर-फेर कर इसको एक नया रूप दे दिया है। अब वहाँ का सत्ता प्रतिष्ठान भारत संबंधित अपने हर विमर्श की शुरुआत बम से करता है। दो तीन महीनों से भारत-पाक सीमा गर्म है और भारतीय रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, सेनाध्यक्ष और मंत्रिमंडल के छोटे-बड़े सदस्य पाकिस्तान को ललकार रहे हैं और उसे अल्पावधि या दीर्घ कालीन युद्ध की चेतावनी दे रहे हैं और इन सबका पाकिस्तानी नागरिक और सैन्य नेतृत्व के पास एक ही उत्तर है - आ जाओ हम तैयार हैं... हमारे पास बम हैं !

यह एक संयोग ही है कि बम का सबसे ज्यादा जिक्र 1965 के भारत- पाक युद्ध की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर हो रहा है। यह एक ऐसा युद्ध था जिसमें लड़ने वाले दोनों ने स्वयं को विजेता घोषित कर रखा है। दोनों सरकारों ने सालों-साल अपनी जनता को सिर्फ आधा सच बताया था और राष्ट्रभक्ति के नशे में दोनों देशों के नागरिक मानते भी रहे कि जीत उन्ही की हुई है। पाकिस्तान 6 सितंबर को अपने रक्षा दिवस के रूप में मनाता है, उसके अनुसार इस दिन उसकी सेना ने अपने से कई गुना बड़ी भारतीय सेना का लाहौर पर हमला विफल कर दिया था। रक्षा दिवस मनाने के लिए जरूरी है वह पाक नागरिकों से आपरेशन जिब्राल्टर (पाँच अगस्त 1965 से शुरू अभियान जिसमें पाँच हजार से अधिक सशत्र पाकिस्तानी सैनिक भारतीय कश्मीर में चुपचाप घुस गए थे इस उम्मीद के साथ कि कश्मीरी मुसलमान उन के साथ भारत के खिलाफ उठ खड़े होंगे) और आपरेशन ग्रैंड स्लैम (आपरेशन जिब्राल्टर की असफलता के बाद 1 सितंबर को पाकिस्तान सेना ने अखनूर-छंब सेक्टर पर हमला करके जम्मू को शेष भारत से काटने का प्रयास किया और वे उसमें काफी हद तक सफल भी हुए थे) के बारे में कम से कम सूचना दें जिस से अवाम यह समझे की भारत ने अकारण ही लाहौर पर हमला किया और उस के बहादुर जवानों ने कुर्बानियों देकर देश की रक्षा की थी। इसी तरह भारतीय नागरिकों को भी नहीं मालूम कि इस युद्ध में घाटी में स्थित कोर के अलावा लड़ाई में भाग लेने वाले शेष हर डिवीजन और कोर का प्रदर्शन निराशा जनक रहा था। खासतौर से सैनिक नेतृत्व ने देश को शर्मिंदा किया था। इसके बावजूद कि कई भूतपूर्व जनरलों और सैन्य विशेषज्ञों ने इस मुद्दे पर विस्तार से लिखा है भारत सरकार ने अपने नागरिकों से आधे अधूरे तथ्य साझा करते हुए युद्ध की पचासवीं सालगिरह को विजय दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया।

पाकिस्तान हर साल 6 सितंबर को अपना रक्षा दिवस मनाता है पर इस बार की विशेषता है कि उस का सैनिक और असैनिक नेतृत्व खुले आम बम की बात कर रहा है। जैसे ही भारतीय थल सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने सीमित युद्ध की बात की उनके पाकिस्तानी समकक्ष जनरल शरीफ ने परोक्ष रूप से उन्हें बम की याद दिला दी। इसके पहले पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज़ अज़ीज़ और रक्षामंत्री ख़्वाजा आसिफ धमकी दे चुके थे कि किसी दुस्साहस की स्थिति में भारत को अपूरणीय क्षति उठानी पड़ेगी। इशारा साफ था कि पाकिस्तान को बम से कोई गुरेज नहीं है। अपने अनुभवों से सीख कर दोनों देशों ने अपनी युद्ध नीति या वार डाक्ट्रिन में बुनियादी परिवर्तन किए हैं। संसद पर हमले के बाद भारत को पाकिस्तानी सीमा पर सेना तैनात करने में कई महीने लग गए थे। इस अनुभव ने उसे तेज और निर्णायक सीमित युद्ध की नीति बनाने के लिए प्रेरित किया है। उधर पाकिस्तान को भी समझ में आ गया है कि पारंपरिक हथियारों और रणनीति के युद्ध में वह कभी भारत से नहीं जीत सकता। 1971 और कारगिल में मिली शिकस्त उसे याद है। एक बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया है और इससे पारंपरिक युद्ध की दोनों की क्षमताओं में अंतर बढ़ता ही जा रहा है। इस फर्क को आणविक निषेध या न्यूक्लियर डेटेरेंस से ही पाटा जा सकता है और उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार परमाणु बमों की संख्या या उनके उपयोग करने की क्षमता के मामले में दोनों देश बराबर हैं। कई अंतरराष्ट्रीय वाच ग्रुप के अनुसार तो पाकिस्तान की क्षमता भारत से भी ज्यादा है।

इस तथ्य के साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सात घोषित परमाणु शक्ति संपन्‍न राष्ट्रों में सबसे गैर जिम्मेदार पाकिस्तान ही रहा है। केवल वहीं से परमाणु तकनीक चोरी होकर उत्तरी कोरिया जैसे राष्ट्र तक पहुँची हैं। उसके परमाणु जखीरे को कट्टरपंथियों से लगातार खतरा है। आज आंतरिक मजबूरियों के चलते फौज इस्लामी आतंकियों के खिलाफ कार्यवाही जरूर कर रही है पर कब तक यह सक्रियता बनी रहेगी, कहा नहीं जा सकता। आखिर ये कट्टरपंथी उसी के बनाए हुए हैं और आज भी उसका एक बड़ा हिस्सा इनके प्रति सहानुभूति रखता है। आज भी पाकिस्तानी फौज इन्हें अपनी कश्मीर नीति या अफगानिस्तान में स्ट्रेटिजिक डेफ्थ के लिए अपने विस्तार के तौर पर देखती है। इनका प्रभाव भी पाकिस्तानी सेना में उन तत्वों को बल देता है जो भारत से आर पार की लड़ाई लड़ना चाहते हैं।

भाजपा की सरकार आने के बाद से भारत की पाकिस्तान नीति में बुनियादी फर्क आया है। इसे सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि हुर्रियत नेताओं की पाकिस्तानी राजदूत से मुलाकात जैसे महत्वहीन मसले पर भारत ने विदेश सचिव स्तर की बैठक टाल दी। दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकारों की बीच वार्ता भी नहीं हो सकी। पचास वर्षों से हो रही इन मीटिंगो में कुछ होना जाना नहीं है पर मिलते रहने से युद्ध की संभावनाएँ कम होती जाती हैं। न मिलने से अंतरराष्ट्रीय समुदाय में गलत संदेश तो जाता ही है दोनों तरफ के कट्टरपंथियों को खाद मिलती है। सीमा पर फायरिंग भी दोनों कर रहे हैं और भारत सरकार और भारतीय मीडिया अपनी जनता को भले समझा ले कि गोलीबारी अकारण पाकिस्तानी कर रहे हैं पर दुनिया तो तभी इसे मानेगी जब कोई अंतरराष्ट्रीय एजेंसी इसकी पुष्टि कर दे। दिक्कत यह है की पाकिस्तान इसकी माँग कर रहा है और हम इसके लिए राज़ी नहीं है।

भाजपा नेतृत्व को समझना होगा कि पाकिस्तान के साथ युद्ध की बातें करना देशभक्ति नहीं है। देशभक्ति शांति की बातें करना है। एक कमजोर, खिसियाया और कट्टरपंथियों के चंगुल में फंसा पाकिस्तान इस बार पारंपरिक युद्ध नहीं लड़ेगा। इस बार पहली बार युद्ध में परमाणु बम का प्रयोग हो सकता है। इस युद्ध में बड़ी ताकत भारत पूरे पाकिस्तान को तबाह कर सकता है पर सेकेंड स्ट्राइक क्षमता वाला पाकिस्तान भी हमारे कुछ बड़े शहरों को बरबाद कर देगा।

बकौल शायर साहिर लुधियानवी :

गुजिस्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार...
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जाएँ।

पाकिस्तान के साथ बातचीत जारी रखकर हम कट्टरपंथियों को कमजोर और अलग-थलग कर सकते हैं और इससे वहाँ के समझदार तत्वों को मजबूती मिलेगी।


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