hindisamay head


अ+ अ-

वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम डूरंड रेखा के इस पार उस पार पीछे     आगे

इस सोमवार को आखिर अफ़ग़ानी राष्ट्रपति मोहम्मद अशरफ ग़नी का भी धैर्य टूट ही गया। पिछले सप्ताह अफ़गानिस्तान में विभिन्न स्थानों पर हुए आत्मघाती हमलों में सौ से अधिक लोग मारे गए। जिन स्थलों पर हमले हुए थे उनमें फ़ौजी और पुलिस ठिकाने भी शामिल हैं। ग़नी को यह कहना पड़ा कि इन सारे हमलों में पाकिस्तानी धरती पर प्रशिक्षित आतंकी शरीक हैं।

अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति करजई से भिन्न ग़नी सत्ता में आने के बाद से ही पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने में लगे हुए थे। जहाँ करजई के शासन काल के दौरान दोनों देशों के रिश्ते सबसे खराब दौर में पहुँच गए थे ग़नी ने इन्हें बेहतर बनाने का भरपूर प्रयास किया। इसी का नतीजा था कि न सिर्फ मीडिया से वे सारे विजुअल गायब हो गए जिनमें करजई अपने समकक्ष पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ जरदारी से खुले-आम गाली-गलौज करते दिखाई देते थे बल्कि संबंध इस स्तर तक सुधर गए कि अफगानिस्तान के फ़ौजी अफसर पाकिस्तानी मिलिट्री ट्रेनिंग अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाने लगे हैं।

पिछले दिसंबर में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल के बच्चों पर हुए तालिबानी हमले के दौरान दोनों देशों के बीच सहयोग अपने चरम पर पहुँच गया था और अफगानिस्तान ने बच्चों के हत्यारों को पकड़ने में इस हद तक सहयोग दिया कि कई बार पाकिस्तानी सुरक्षा बल अफ़गान भूमि से कार्यवाही करते दिखे। हाल की अपनी काबुल यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने घोषणा भी की कि अफगानिस्तान का शत्रु पाकिस्तान का शत्रु है, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रपति ग़नी को सख्त लहजे में कहना पड़ा कि अफ़गानिस्तान के सारे प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान से लगातार युद्ध के संदेश आ रहे हैं।

हालिया घटनाक्रम को समझने के लिए हमें पाकिस्तान-अफगानिस्तान के रिश्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। पाठकों को याद दिलाते चलें कि नया राष्ट्र बनने के बाद जब पाकिस्तान को संयुक्तराष्ट्र संघ की सदस्यता देने का सवाल उठा तो सिर्फ एक वोट इस प्रस्ताव के खिलाफ पड़ा था और यह वोट अफगानिस्तान का था। इसके पीछे वह डूरंड लाइन थी जिसे अँग्रेज शासकों ने 1893 में खीचा था और जिसकी वजह से बड़े पश्तून इलाके सौ वर्षों के लिए ब्रिटिश भारत में मिला दिए गए थे। इसके बनने के बाद पश्तून दो हिस्सों में बट गए और इसे अफगानिस्तान ने कभी स्वीकार नहीं किया।

अस्तित्व में आने के फौरन बाद से ही पाकिस्तानी सेना भारत केंद्रित होती चली गई और उसकी समूची वार डाक्ट्रिन भारत के साथ सम्भावित युद्ध पर आधारित है। इसी वार डाक्ट्रिन का एक भाग स्ट्रेटिजिक डेफ्थ का सिद्धांत भी है जिसमें बिना अफगानिस्तान की सहमति लिए उसे भी भारत विरोधी अभियान में शरीक कर लिया गया है। इसके मुताबिक भारत से युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान के विमानों और दूसरे युद्धक साजो सामानों को अफगानिस्तान की धरती पर सुरक्षित रखा जा सकता है।

स्ट्रेटिजिक डेफ्थ के लिए जरूरी है कि अफगानिस्तान में एक कठपुतली सरकार हो जो पाकिस्तानी फौज और सरकार के इशारे पर नाचती रहे। ऐसी एक आदर्श स्थिति सिर्फ पाँच वर्षों (1996-2001) तक रही जब काबुल पर तालिबान हुकूमत थी। तालिबान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस. आई .की निर्मिति थी और उसके इशारे पर किस तरह काम कर रही थी इसका अंदाज सिर्फ एक विजुअल से लगाया जा सकता है। 25 दिसंबर 1999 को अपहृत इंडियन एयरलाइंस के विमान को छोड़ने के एवज में रिहा मसूद अजहर को हवाई पट्टी पर जो व्यक्ति गले लगा रहा था वह मुल्ला उमर की मृत्यु की घोषणा के बाद तालिबान का नया बना अमीर मुल्ला अख्तर मंसूर था जो उस समय तालिबान सरकार का नागरिक उड्डयन मंत्री था। जाहिर है कि विमान का अपहरण आई.एस.आई. की शह पर तालिबान ने कराया था और बाद में इसी मसूद अजहर ने जैशे मोहम्मद नामक खतरनाक आतंकी संघटन को जन्म दिया था।

अब हालात बदल गए हैं। 9/11 के बाद अमेरिका ने तालिबान हुकूमत तहस नहस कर दी और इस बीच पाकिस्तान को भी अहसास हो गया है कि उसके द्वारा खड़े किए गए दहशत गर्द उसके अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गए हैं और यही कारण था कि पेशावर की घटना के बाद नवाज शरीफ को कहना पड़ा कि अच्छे और बुरे तालिबान नहीं होते अर्थात् तालिबान सिर्फ बुरे होते हैं।

शुरू में तो लगा कि शायद पाकिस्तानी तंत्र इसमें ईमानदारी से यकीन करता है पर जल्दी ही यह भ्रम टूट गया। शायद इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि यह तंत्र एक रैखिक नहीं है। इसके अंदर पेंच दर पेंच है। राजनैतिक और फ़ौजी नेतृत्व के बीच तो अंतर्विरोध है ही खुद फौज भी पूरी तरह से एक मत नहीं है। कश्मीर में खुद न लड़ कर जिहादियों का इस्तेमाल करने का मोह इतना बड़ा है कि अभी भी फौज के बड़े हिस्से को तालिबानों से विमुख कर पाना संभव नहीं लगता। ये जिहादी अफगानिस्तान और कश्मीर दोनों जगहों पर पाकिस्तानी फौज का एजेंडा आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।

यही कारण है कि अभी भी पाक धरती पर उनके शरणगाह मौजूद हैं और तभी अफ़ग़ान राष्ट्रपति को सारी राजनयिक मर्यादाएँ तोड़ते हुए यह कहना पड़ा कि पाकिस्तान बात तो शांति की कर रहा है पर वहाँ से आने वाले सारे संदेश युद्ध के हैं।


>>पीछे>> >>आगे>>