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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम पहचान का संकट पीछे     आगे

पाकिस्तान बनने के पचास साल पूरा होने पर बी.बी.सी. को दिए एक इंटरव्यू में बाबर अयाज ने जब यह कहा कि दो राष्ट्रों का सिद्धांत दरअसल मुसलिम उच्च वर्ग की उस खीज की उपज है जो उन्‍नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अँग्रेज महाप्रभुवों द्वारा भारत में आंशिक ही सही स्थानीय लोकतंत्र कायम करने की कोशिशों से उपजा था, तब उन्हें यह अहसास नहीं था की वे बर्र के छत्ते में हाथ डाल रहे है।1857 में भारत की हुकूमत से च्युत होने पर मुसलिम आभिजात्य को अचानक यह अहसास हुआ कि अब तलवार के बल पर नहीं वरन आबादी के अनुपात में शासन में भागीदारी मिलेगी। स्वाभाविक था कि हिंदुओं की बहुसंख्या होने के कारण उन्हें हिंदुओं के अधीन रहना पड़ता और इसीलिए मुसलिम अशराफ़ ने दो राष्ट्र के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। बाबर अयाज की इस स्थापना ने तत्कालीन पाकिस्तानी समाज में बहुत खलबली मचाई पर पहचान के संकट से जूझते राष्ट्र में एक नई बहस की शुरुआत भी की।

यह बहस पाकिस्तान के इतिहास को लेकर किस दिलचस्प मोड़ पर पहुँच गई है, इसका अहसास मुझे कराची विश्वविद्यालय के पाकिस्तान स्टडी सेंटर में जाकर हुआ। सेंटर के डायरेक्टर मध्यवय के सैयद जाफ़र अहमद एक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं और पाकिस्तान के प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े हुए हैं। उनसे बातें करके पाकिस्तानी समाज के इस संकट के कई अपरिचित पहलू सामने आए। मैं यह तो पढ़ता रहा था कि पाकिस्तान में इतिहास लेखन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसे शुरू कहाँ से किया जाए? सरकारी और इस्लामी इतिहासकारों का मानना है कि उनका इतिहास सिंध में मोहम्मद बिन कासिम की विजय और दाहर की पराजय से शुरू होता है। पर इसमें संकट यह है कि वे मोहन जोदाड़ो का क्या करें, तक्षशिला और गांधार कला को किस तरह से ख़ारिज किया जाए या सातवीं शताब्दी के पहले के समृद्ध साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य और जनता के मध्य प्रचलित वाचिक परंपरा से कैसे निपटा जाए। इतिहास लेखन की इस दुराग्रही परंपरा में पाठ्य पुस्तकों के साथ जो सलूक किया गया है उसे इतिहास का कत्ल तक कहा गया और उसके बारे में मुबारक अली जैसे इतिहासकार विस्तार से लिखते रहे हैं।

पाकिस्तान स्टडी सेंटर में जाकर इतिहास और भूगोल के दिलचस्प रिश्तों के बारे में भी पता चला। 1971 में बांग्लादेश बन जाने के बाद पूरे विश्वास के साथ यह कह पाना मुश्किल होने लगा की मुसलमान एक राष्ट्र हैं और पहचान का संकट ज्यादा गहराने लगा तो जुल्फिकार अली भुट्टो के करीबी इतिहासकारों ने पाकिस्तानी इतिहास की भौगोलिक चौहद्दी निर्धारित करने की कोशिश की। उनके अनुसार आज का पाकिस्तानी पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और अफगानिस्तान से कटा पख्तून इलाका एक साझा इतिहास का निर्माण करते हैं। यह स्थापना इस सच्चाई का इनकार है कि इस भूभाग में अनेक भाषिक और नस्ली राष्ट्रीयताएँ निवास करती हैं और उनके मध्य इतने अंतर्विरोध हैं की केवल एक उदार, सहिष्णु और समावेशी राजनीति ही पाकिस्तान को एक मजबूत राष्ट्र राज्य बना पाएगी। अगर ये गुण होते तो पाकिस्तान टूटता ही क्यों?

जाफ़र साहब और उनके सेंटर के सामने बड़ा संकट है कि उन्हें इतिहास का यही संस्करण अपने छात्रों को पढ़ाना है और इसके लिए पाठ्य सामग्री भी तैयार करानी है। दिक्कत यह है की उन्हें खुद इतिहास की इस समझ में यकीन नहीं है। इसलिए सेंटर के जर्नल में तमाम ऐसे उदार पाकिस्तानी और भारतीय विद्वानों के लेख छपते हैं जो पाकिस्तान के पहचान के संकट को और जटिल ही बनाते हैं, कम से कम सरकारी इतिहासकारों की तो कोई मदद नहीं करते। सेंटर से ही मुबारक अली जैसे इतिहासकारों की किताबें भी छपती हैं। यह अलग बात है की इन सब के लिए जाफ़र साहब और उनके सहयोगियों को तमाम भाषिक शीर्षासन करने पड़ते हैं। वे बातें अपनी कहते हैं सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान को संतुष्ट करने के लिए शीर्षक ऐसे रखते हैं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। मसलन गांधार कालीन बौद्ध कलाओं पर काम कराने के लिए शीर्षक बदलना पड़ा। उसमें इस्लाम जुड़ते ही सरकारी आपत्ति खत्म हो गई और अब शीर्षक हो गया "इस्लाम पूर्व कलाएँ"। ठहाकों के बीच इस तरह के बहुत से अनुभव वे हमसे बाँटते हैं। मुझे लगता है कि दोनों मुल्कों में नौकर शाही एक जैसी ही है - जड़, संवेदन शून्य और परिहास बोध से शून्य।

पहचान का यह संकट पाकिस्तान में हर जगह दिखता है। अल्ताफ हुसैन ने वर्षों पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि विभाजन इस उपमहाद्वीप के मुसलमानों के साथ सबसे बड़ा छलावा था। अविभाजित भारत में वे चालीस प्रतिशत के करीब होते। उनकी एक बात में तो दम लगता ही है - विभाजन न होता तो न तो भारत में हिंदुत्व की शक्तियाँ शासन में होतीं और न ही पाकिस्तान में फौज इतनी ताकतवर बन पाती। क्या होता और क्या नहीं होता, यह कह पाना तो मुश्किल है पर लगभग यू.पी. बिहार से आए हर परिवार के ड्राइंगरूम एक खास तरह की कसक तो महसूस ही हो रही थी। याद आया कि दस साल पहले जब सज्जाद जहीर की जन्म शताब्दी पर हम लोग कराची आए थे तो कई परिवारों में सुनने को मिला कि उनके पुरखे उन्‍हें भेड़ियों के आगे छोड़कर चले गए।


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