मैं तीस साल की हूँ, जितनी चीनी गणराज्य की उम्र है। किसी गणराज्य के लिए
हालाँकि तीस की उम्र तो जवानी की उम्र होती है, पर किसी लड़की के लिए तीस की
उम्र भरपूर दिखावे की होती है।
दरअसल शादी के लिए मैं बिलकुल सही लड़की हूँ। आपने कभी ग्रीक मूर्तिकार मायरन
का "डिस्कोबोलस" देखा है? किआओ लिन साक्षात उसी ग्रीक डिस्कस थ्रोअर सरीखा है।
उसकी देह ऐसी तराशी हुई है कि जब सर्दियों में वह एक के ऊपर एक कई गर्म कपड़े
डालता है तो भी उसकी एक एक मांसपेशी बाहर तक उभरी दिखाई देती हैं। काँसे के
रंग का, चौड़ा ललाट और बड़ी बड़ी आँखें... इनको देखते ही कौन लड़की न मर मिटे।
पर मैं उसके साथ शादी करने का मन नहीं बना पा रही हूँ। ...मेरे मन में यह भी
बहुत साफ नहीं है कि मुझे उसकी कौन सी चीज आकर्षित करती है, फिर उसको मेरी ओर।
मुझे बखूबी पता है कि मेरी पीठ पीछे लोग बाग हमारे बारे में कानाफूसी करते
हैं, "वह अपने आपको जाने समझती क्या है। ...हूर की परी, जो सब में इतनी
मीन-मेख निकालती रहती है।" उनको लगता है मैं निहायत मामूली चीज हूँ जिसको कोई
भी हासिल कर सकता है। मेरा अजीबोगरीब बरताव लोगों को खलता है।
मानती हूँ मुझे इतनी मीन-मेख की आदत छोड़ देनी चाहिए। आज के समाज में किसी भी
उत्पादन का जैसे व्यवसाय होता है उसी तरह शादी भी नफे मुनाफे का सौदा है।
मैं किआओ लिन को तकरीबन दो सालों से जानती हूँ, फिर भी अब तक यह गुत्थी नहीं
सुलझा पाई हूँ कि उसको बोलने बतियाने से जाती नफरत है... या कि उसके पास दरअसल
कहने को कुछ है ही नहीं। एक बार काम के सिलसिले में मैंने एक मामूली सा
इंटेलिजेंस टेस्ट कराया था और उस दौरान उसकी जितने मुद्दों पर राय पूछी उसने
बेहद संक्षिप्त सा उत्तर सिर्फ "अच्छा" या "बुरा" देकर पीछा छुड़ा लिया ...जैसे
जवाब किंडर गार्टन के बच्चे दिया करते हैं।
बेसबर होकर एक बार मैने पूछ ही लिया, "किआओ लिन, तुम मुझसे प्रेम क्यों करते
हो?" उसको इस छोटे से सवाल का जवाब ढूँढ़ने में जैसे युगों लगे। ...और वह भी
गंभीर चिंतन में लीन हो कर... आम तौर पर चिकने दिखने वाले उसके ललाट पर इतनी
रेखाएँ खिंच आईं कि सुंदर सलोना चेहरा बिलकुल बिगड़ गया। बाद में मुझे खुद शर्म
आई कि खामखा मैंने उसको इस संकट में डाल दिया।
काफी सोचने विचारने के बाद वह इतना कह पाया, "इसलिए कि तुम हो ही अच्छी।"
जवाब सुनकर मेरे मन में निराशा और सूनेपन का भाव बैठ गया।
क्या पति पत्नी की तरह जिम्मेदारी निभा पाएँगे? हो सकता है निभा लें, देश का
कानून और नैतिकता का तकाजा जो है। ...पर सिर्फ कानून और नैतिकता के दबाव में
ऐसा करना कितना दुखद होगा। क्या सचमुच इन दो कारणों के अतिरिक्त हम दोनों को
जोड़ने वाला और कुछ नहीं है?
जब मन में यह उहापोह चल रही थी तो अचानक मेरे मन में यह विचित्र सा भाव आया कि
जहाँ मुझे अपनी शादी के बारे में सोचना चाहिए, वहाँ मैं किसी उम्रदराज समाज
शास्त्री की मानिंद चिंतन में उलझ गई।
मुझे लगता है मैं सोचती और सोच सोच कर बिलावजह परेशान बहुत होती हूँ। जैसे
अधिकतर शादीशुदा लोग करते हैं हम भी बच्चों का लालन पालन करने में मसरूफ रह
सकते हैं... देश के कानून को मानते हुए। ताज्जुब है कि आज बीसवीं शताब्दी के
सत्तरवें दशक में रहते हुए भी लोग शादी विवाह के लाखों साल पुराने ढर्रे पर
चलते रहना चाहते हैं जिस से प्राचीन परिपाटी और जातीय पहचान अक्षुण्ण रहे...
ऐसा सोचते और शादी को अदला-बदली या व्यापारिक नफे-मुनाफे का साधन मानते हुए
जाहिर है प्यार और शादी दोनों एकदम जुदा चीजें बनी रहेंगी। अब जब दुनिया इसी
रास्ते पर चल रही है तो फिर हम भी प्यार को लेकर इतने गुणा भाग करें। ...क्यों
न शादी कर लें।
फिर भी मैं अपना मन इसके लिए पक्का नहीं बना पाई। बचपन में कई बार ऐसा होता था
कि मैं सारी सारी रात मैं रोते झींकते हुए गुजार देती थी, मेरे चक्कर में पूरा
परिवार जागने को मजबूर होता था..., पर इसकी कोई वजह नहीं होती थी। मेरी बूढ़ी
आया... निरक्षर पर बेहद शातिर... इस लड़की को बुरी हवा लग गई है। मुझे लगता है
वजह भले ही कुछ न रही हो पर उसकी बातों में कुछ सचाई तो थी ही... क्योंकि अब
तक बचपन की मेरी वह आदत मुझसे चिपकी हुई है। मैं अब भी बिना किसी खास बात के
अक्सर टंटा खड़ा कर डालती हूँ, मैं तो इस से परेशान होती ही हूँ आस पास के लोग
भी खामखा दुखी होते हैं। इनसान का स्वभाव इतनी आसानी से कहाँ बदल पाता है।
अपनी माँ के बारे में भी सोचती रहती हूँ... वह आज जीवित होती तो किआओ लिन के
प्रति मेरे झुकाव के बारे में पता चलने पर क्या सोचती। ...और जब यह पता चलता
कि मुझे वह पसंद तो है पर शादी को लेकर मेरे मन में उहापोह है, तब उसकी राय
क्या बनती? मेरा मन बार-बार माँ की ओर ही बढ़ जाता... इसलिए नहीं कि वह कोई ऐसी
बेहद सख्त गार्जियन थी और दुनिया से रुखसत हो जाने के बाद भी उसकी रूह मेरे
ऊपर कड़ी निगरानी रखती है। ऐसा बिलकुल नहीं है... दरअसल वह मेरी माँ तो थी ही,
पर उससे भी बढ़कर इस दुनिया में मेरी सबसे अंतरंग सखी भी थी। मैं उसको इस कदर
प्यार करती हूँ कि उसकी अनुपस्थिति की कल्पना मात्र से मेरा दिल डूबने लगता
है।
उसने कभी सामने बैठा कर लेक्चर दिया हो याद नहीं पड़ता - माँ ने सिर्फ यह किया
कि बड़े शांत मन से अपनी मर्दाना आवाज में सामने बिठा कर अपने जीवन के हासिल और
नाकामियों के बारे में मुझे बताया, वह भी इसलिए कि उसके तजुर्बों से मेरे जीवन
को सहारा और सुरक्षा मिल सके। दुर्भाग्य से उसके हिस्से सफलताओं की फेहरिस्त
नहीं आई... विफलताओं से भरा था उसका जीवन।
आखिरी दिनों में उसकी खूबसूरत और मुखर आँखें निरंतर मेरे आगे पीछे लगी रहतीं।
...जैसे इस चिंता में मगन हों कि उसके न रहने पर मेरा क्या बनेगा, क्या अकेले
मैं अपनी दिनचर्या ढंग से चला लूँगी? कभी कभी ऐसा लगता जैसे वह कोई खास मशवरा
मुझे देना चाहती हो पर कहने का साहस न बटोर पाती हो। इतना तो जरूर था कि उसको
मेरी नादान और फूहड़ प्रवृत्ति का पता था। एक दिन अचानक वह चीख पड़ी : शांशन,
यदि तुम्हें ठीक से यह नहीं समझ आता कि जीवन में तुम्हें किस चीज की दरकार है
तो मेहरबानी कर के शादी-ब्याह के चक्कर में मत पड़ो। ...बेहतर है अकेली ही रहो।
किसी तीसरे व्यक्ति के लिए माँ की अपनी सगी बेटी को दी गई यह सलाह जरूर अटपटी
लगेगी पर मेरे लिए इस मशवरे में सिर्फ और सिर्फ उनके अपने जीवन के कड़वे
तजुर्बों का निचोड़ दिखाई दे रहा था... और कुछ नहीं। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि
उनको मेरी शख्सियत या मेरे सयानेपन पर कभी कोई शक शुबहा हुआ हो... बात महज
इतनी थी कि उनको मुझसे बेइंतहाँ प्यार था और किसी भी सूरत में वे मुझे दुखी
नहीं होने देना चाहती थीं, बस।
"माँ, मैं शादी नहीं करना चाहती।" मैंने माँ से कहा, पर इसके पीछे मैं अपनी
माँ के बारे में सोचती हूँ। ...यदि आज वह जीवित होती तो किआओ लिन के प्रति
मेरी भावनाओं के बारे में उसकी क्या राय होती, शादी करने और न करने की मेरी
दुविधा के बारे में वह क्या सोचती? मेरा मन बार बार उसकी ओर ही चला जाता है,
पर इसलिए नहीं कि वह इतनी सख्त मिजाज माँ थी कि मौत के बाद वह सशरीर न भी
उपस्थित हो पर उसका प्रेत मेरे ऊपर पूरी नजर रखे हुए आस पास मँडराता रहता है।
दरअसल वह मेरी जितनी माँ थी उससे ज्यादा वह मेरी सबसे नजदीकी दोस्त थी। उसके
साथ मेरा इतना लगाव है कि उसके न रहने का ख्याल ही मेरे लिए बहुत भारी पड़ता है
- उससे बिछुड़ना मेरी कल्पना से परे है।
माँ ने जीवन में कभी भी मुझे उपदेश नहीं दिए, बड़े शांत मन से आम स्त्रियों से
इतर आवाज में सिर्फ अपनी कामयाबी और विफलताओं के बारे में बताया जिससे मैं
उसके तजुर्बों से कुछ सीख ले सकूँ। जाहिर है उसके जीवन में कामयाबियों की
गिनती बड़ी थोड़ी थी... उसका जीवन विफलताओं और चूकों का दस्तावेज था।
अपने आखिरी दिनों में वह अपनी खूबसूरत और भावपूर्ण आँखों से मेरे पीछे पीछे
चलती रहती... लगता जैसे हर पल यह नजर रख रही है कि मैं अपने आप कैसे जीवन जी
रही हूँ। ...मुझे यह भी लगता कि मेरे लिए उसके पास कहने को बहुत कुछ है पर
कहने में संकोच आड़े आ जाता है। उसको मेरे नादानी भरे और झटपट के तौर तरीकों को
लेकर शक शुबहा रहता हो सकता है। एकाध बार उसके मन के गुबार अचानक निकले भी,
"शांशांन, यदि तुम्हारे मन में अपने जीवन साथी को लेकर यह स्पष्ट नहीं है कि
उसमें क्या गुण होने चाहिए तो शादी के लिए जल्दी मत करो... इससे बेहतर होगा कि
अपने ढंग से अकेले ही जीवन जियो।"
कई लोगों को अपनी बेटी के लिए किसी माँ की यह सलाह बड़ी बेतुकी लग सकती है, पर
मुझे हमेशा उसमें उनके जीवन की कड़वी सच्चाइयाँ दिखाई दीं। मुझे एक बार भी यह
नहीं लगा कि उनको मेरे व्यक्तित्व पर या जीवन के बारे में मेरे ज्ञान पर भरोसा
नहीं था... बात सिर्फ यह थी कि उनको मुझसे बेहद प्यार था और वे किसी भी सूरत
में मुझे दुखी नहीं देखना चाहती थीं।
"माँ, मैं शादी नहीं करना चाहती!" मैंने उससे कहा पर इसकी वजह बड़बोलापन या
लज्जा नहीं थी... मुझे यह समझ भी नहीं आता कि किसी युवा स्त्री को शादी को
लेकर लज्जालु क्यों कर होना चाहिए। माँ ने शुरू से मुझसे लड़कियों के सयाने
होने के साथ पेश आने वाली बातों के बारे में बातें की हैं।
"शादी तभी करना जब तुम्हें उपयुक्त साथी मिल जाए... जल्दबाजी बिलकुल नहीं
दिखाना।"
"मुझे तो ऐसे किसी उपयुक्त नौजवान के इस दुनिया में मौजूद होने को लेकर ही
अंदेशा है।"
"तुम्हारा अंदेशा आधारहीन है बेटी... पर उसका मिल पाना मुश्किल जरूर है।
दुनिया इतनी बड़ी है कि तुम और वो एक साथ एक जगह एक समय पर मिल पाओ... संयोग की
बात है।"
माँ के लिए मेरी शादी या कुँआरापन उतना बड़ा मसला नहीं था - हाँ, शादी हो तो
ढंग और प्यार से चले।
"माँ, आप भी तो बगैर पति के इतना लंबा जीवन जी ही गईं ...सब ठीक ही तो रहा।"
"कौन कहता है? ...यह सच नहीं है।"
"मुझे तो लगता है आपका जीवन ठीक ही था।"
"मेरे पास कोई और रास्ता भी कहाँ था" वे भावुक हो गईं, थोड़ी देर कुछ सोचती हुई
गुमसुम बैठी रहीं।... उनके माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं। ...माथे की उन
रेखाओं को देख कर एकदम से मुझे किताब के पन्नों के अंदर दबाकर रखी हुई फूलों
की कोमल पंखुड़ियों की याद आ गई।
"पर क्यों नहीं था आपके पास और कोई रास्ता?"
"तुम बहुत सारे सवाल पूछती हो..." मुझे मालूम है कि उन्होंने मन की बातों को
मेरे साथ साझा करने से बचने की नीयत से ऐसा नहीं कहा बल्कि इसलिए टालमटोल करने
लगीं कि मैं उनको सुनकर ऐसे निष्कर्ष न निकाल लूँ जो वास्तविकता से परे हों।
और हर अदद इनसान कुछ राज ऐसे नितांत निजी रखना चाहता है जो उसके शरीर के साथ
सीधे कब्र में दफ्न हो जाएँ। सब समझते बूझते हुए भी मैं यह पूछने से खुद को
रोक नहीं पाई : "आप मेरे पापा को प्यार करती थीं?"
"नहीं, बिलकुल नहीं ...मैंने उनको कभी प्यार नहीं किया।"
"वे आपको प्यार करते थे?"
"नहीं, बिलकुल नहीं।"
"फिर आप दोनों ने शादी ही क्यों की?"
मेरा यह सवाल सुनकर वह इधर उधर ताकने लॉगिन जैसे उत्तर के लिए सही शब्दों को
ढूँढ़ रही हों। फिर आवाज में कड़वाहट लिए हुए बोलीं : "जब उम्र कम होती है सही
और गलत को परखने का तजुर्बा नहीं होता - यह भी बहुत स्पष्ट नहीं मालूम होता कि
हमें दरअसल चाहिए क्या, किस चीज की दरकार है। ऐसे में लड़कियों को शादी के बंधन
में बाँध दिया जाता है। ...जब आप बड़े होते हो और जीवन के तजुर्बों से रूबरू
होते हो तब आपको अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों की सही पहचान हो पाती है। ...पर तब
तक आप जीवन में इतनी सारी बेवकूफियाँ और भूलें कर चुके होते हैं कि सिर नोंचने
की नौबत आ जाती है। तब आपको बड़ी शिद्दत से लगता है कि दुबारा नए सिरे से जीवन
जीना शुरू करने के लिए जो भी जरूरी हो उसकी कुर्बानी की जा सकती है। ...जिससे
आप समझदारी और आनंद से भरपूर जीवन जी सकें। जो ऐसा कर सकते हैं उनके जीवन में
तमाम खुशियाँ लौट आएँगी। ...पर सबके हिस्से यह खुशी कहाँ, मेरे हिस्से तो
बिलकुल ही नहीं। "खुद पर तंज कस्ती हुई माँ बोलीं : "मैं एक अभागी आदर्शवादी
हूँ... अपने बारे में इस से ज्यादा और क्या कहूँ।"
मैं सोचने लगी, माँ के इतने कड़वे अनुभव के बाद मुझे क्या फिर उसी रास्ते जाना
चाहिए? क्या हम दोनों के जींस में बदकिस्मती के बीज समान रूप में मौजूद नहीं
हैं?
"आपने दुबारा शादी क्यों नहीं की?"
"मुझे इस उम्र में आ के भी अब तक पक्के तौर पर नहीं मालूम कि मेरे मन को दरअसल
किस चीज की इच्छा है।" जाहिर है वह अपने मन का पिटारा मेरे सामने खोलने से
बचने की भरपूर कोशिश कर रही थी।
मैं अपने मन पर कितना भी जोर डालूँ, मुझे अपने पिता का कोई स्मरण नहीं होता।
...मेरे बचपने में ही माँ और पिता अलग हो गए थे। मेरी स्मृति में माँ का यह
कहना हलके तौर पर दर्ज है कि वे खूबसूरत बाँके पुरुष थे। पर माँ जब जब उनकी
बात बतातीं तो यह कहना न भूलतीं कि शक्ल सूरत देख कर शादी का फैसला कर लेने
उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी और वे धोखा खा गई थीं।
"रातों में जब नींद नहीं आती तो मैं करवटें बदलते हुए उन तमाम भूलों और हादसों
को एक एक कर याद किया करती हूँ। ...यह सब करना मुझे इतनी शर्म और सदमे से भर
देता है कि मैं चद्दर से अपना मुँह ढक लेती हूँ - लगता इतने घने अँधेरे में भी
मेरे चेहरे की शर्मिंदगी किसी को दिखाई न पड़ जाए। पर चाहे यह कितना भी कसैला
अनुभव क्यों न हो, मुझे पछतावे के उन पलों में भी मजा आने लगा।"
मुझे इस बात का सचमुच अफसोस होता है कि माँ ने दुबारा शादी नहीं की... वे इतनी
लाजवाब स्त्री हैं कि अपनी पसंद से प्यार करने वाले इनसान से शादी करतीं तो
हमारा परिवार दुनिया का सबसे खुशनसीब परिवार होता। ऐसा बिलकुल नहीं था कि वे
कोई जन्नत की हूर थीं पर उनकी तुलना निश्चय ही करीने से बने किसी खूबसूरत
लैंडस्केप के साथ की जा सकती है। साथ साथ वे अच्छी लेखक भी थीं। उनको जानने
वाले एक बड़े लेखक माँ को छेड़ते हुए अक्सर कहा करते : "तुम्हारा लिखा साहित्य
पढ़ के ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम्हारे लिए मन में प्यार न उमड़े।"
यह सुनकर तुम हँसते हुए जवाब देतीं : "जब पाठक को यह पता चलेगा कि उसका प्यार
किसी खूबसूरत स्त्री के लिए नहीं बल्कि सफेद बालों वाली बूढ़ी औरत के लिए उमड़
रहा है तो खीझ में वह अपना सिर नोंच डालेगा।"
माँ कहें चाहे कुछ भी पर मुझे पक्का भरोसा था कि इस उम्र में उनको अपनी
ख्वाहिशों और पसंद के बारे में स्पष्ट तौर पर मालूम है... जो कुछ भी वे मुँह
से बोल रही थीं वह सब मुझे भरमाने के लिए था। बातों को घुमाना और बात की जड़ तक
सामने वाले को न पहुँचने देना, माँ के इस स्वभाव से मैं खूब वाकिफ थी।
अब इसी बात को लीजिए, जब भी माँ बीजिंग से बाहर जातीं अपने साथ चेखव की
कहानियों के सत्ताईस जिल्दों वाले संकलन में से एक जिल्द जरूर लेकर जातीं - ये
कहानियाँ 1950 और 1955 के दरम्यान लिखी गई थीं। जाते हुए मुझे हिदायत जरूर दे
जातीं : "मेरे न रहने पर इन किताबों को हाथ मत लगाना। ...यदि चेखव को पढ़ना ही
है तो उस सेट की किताबें पढ़ो जो मैंने तुम्हें खरीद कर दे रखी हैं।"
समझती मैं भी हूँ कि ऐसी हिदायत की कोई जरूरत नहीं थी... जब मेरे पास अपनी खुद
की किताबें हैं तो माँ की किताबों को भला हाथ क्यों लगाऊँगी? एक नहीं बार बार
उन्होंने मुझसे यह बात कही थी। ...वे अपने तईं सावधानी बरत रही थीं। जहाँ तक
किताबों की बात है माँ उनके सम्मोहन में बँधी हुई थीं।
अब आप समझ गए होंगे कि जहाँ तक चेखव की बात है हमारे घर में उनके दो संकलन
मौजूद थे। ऐसा सिर्फ इस लिए नहीं था कि हमें चेखव से बेइंतहाँ प्यार था बल्कि
इसलिए भी कि मेरे जैसे लोगों को माँ की किताबों से दूर रखा जा सके - जब भी कोई
माँ से उनकी कोई किताब माँगता तो वे अपनी नहीं बल्कि मेरी किताब उसको थमा
देतीं। एक बार ऐसा हुआ कि उनके किसी दोस्त ने उनकी गैरहाजिरी में कोई किताब
आलमारी से उठा ली, जैसे ही उनको इसका पता चला क्रोध से लाल उन्होंने बगैर एक
मिनट जाया किए मेरी आलमारी से वही किताब निकाली और आपस में अदला बदली कर ली।
मैंने जब से होश सँभाला है उनकी आलमारी में उतनी ही किताबें देख रही हूँ...
जहाँ तक चेखव का सवाल है वे मेरे सबसे पसंदीदा लेखक हैं, फिर भी मुझे समझ नहीं
आता कि बार बार चेखव की किताब खोल कर बैठ जाना माँ को थकाता नहीं है। ...कोई
अदद दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन वे चेखव को नहीं पढ़ती हैं, और वह भी पिछले बीस
सालों से - आखिर उन किताबों में ऐसा क्या है कि बिला नागा उनको हर दिन पढ़ा
जाए? कभी कभी ऐसा भी होता है कि लिखते लिखते वे थक जाती हैं तो अपने लिए
स्ट्रांग कॉफी बनाती हैं और प्याला हाथ में लिए हुए किताबों की आलमारी के
सामने बैठे बैठे किताबों को लगातार घंटों निहारती रहती हैं ...ऐसे में बिना
बताए जब भी मैं उनके कमरे में गई हूँ वे बेहद असहज हो जाती हैं - उनके हाथ में
पकड़े प्याले से कॉफी छलक कर फर्श पर गिर पड़ी है, या अचानक ऐसे देख लिए जाने पर
उनके चेहरे पर वैसी शर्म छा गई है जैसे किसी स्त्री को उसके प्रेमी के साथ
रँगे हाथों पकड़ लिया गया हो।
मुझे कई बार संदेह होता है कहीं उन्होंने चेखव के साथ तो प्रेम नहीं किया?
इतना तो पक्का है कि चेखव जिंदा होते तो मेरी माँ उनसे जरूर प्रेम करती।
आखिरी साँस लेने से पहले जब उनका मन यहाँ वहाँ बिचार रहा था तो उन्होंने मुझे
पास बुलाकर कहा : "चेखव का मेरा सेट" ...इतनी कमजोर हो गई थीं कि उनको बोलने
में दिक्कत हो रही थी। "...और वो डायरी... कोई प्यार कैसे भूल जाए ...मरने पर
मेरे साथ उनको भी जला देना।"
मैंने उनकी कही बात इतनी मानी कि चेखव की कहानियों का सेट माँ के मृत शरीर के
साथ आग के हवाले कर दिया पर डायरी के साथ ऐसा सलूक करना मुझे गवारा नहीं हुआ।
...मेरे मन में आया कि इनको यदि प्रकाशित किया जाए तो माँ की लिखी सर्वश्रेष्ठ
कृति दुनिया के सामने आ सकती है ...पर प्रकाशित करती तो कैसे... असंभव।
पहले तो मुझे लगा कि डायरी में जो कुछ दर्ज है वह उनकी रचनाओं के लिए एकत्र की
गई कच्ची सामग्री है... उनको पढ़ने पर वे न तो कहानी लगती थीं, न निबंध ...यहाँ
तक कि डायरी या चिट्ठी जैसी भी नहीं लगती थीं। सारी सामग्री पढ़ने के बाद मेरे
मन में धुँधली सी कुछ आकृतियाँ उभरनी शुरू हुईं और मैं अपनी स्मृतियों के
सहारे उन्हें एक सूत्र में जोड़ने की कोशिश करने लगी। जैसे जैसे उनकी गहराई में
उतरती गई मुझे स्पष्ट हो गया कि मेरे हाथ में जो सामग्री है वह कोई कपोल
कल्पित और निर्जीव पांडुलिपि नहीं है बल्कि लबालब प्रेम और गहरे संताप से भरा
हुआ दिल है। पूरे पूरे बीस साल एक इनसान ने उनके दिल पर राज किया, पर प्रकट
रूप में वह माँ का नहीं किसी और का होकर जिया। डायरी के इन पन्नों को अपने
सीने से लगाए लगाए माँ उस पुरुष की कमी पूरा करती रहीं - इसके सिवा क्या
विकल्प था उनके पास... दिन पर दिन, साल दर साल उनकी भावनाएँ इन पन्नों में
जज्ब होती रहीं ...दर्ज होती रहीं।
कोई ताज्जुब नहीं कि उन्होंने शादी के किसी प्रस्ताव को कभी तवज्जो नहीं दी -
जैसे बहरी हों - हालाँकि कुछ अच्छे लोगों ने भी आगे हाथ बढ़ाने की पहल की पर
माँ के लिए क्या अच्छा क्या बुरा प्रस्ताव। जहाँ तक दिल की बात है उनका दिल तो
प्रेम से हमेशा भरा भरा रहा और वहाँ किसी और के लिए तिनका भर भी जगह उपलब्ध
नहीं थी : "कोई झील कितनी बड़ी क्यों न हो सागर का मुकाबला नहीं कर सकती...
वैसे ही आसमान में कहीं कोई भी बादल हो माउंट वू की ऊँचाई नहीं छू सकता।"
इन पंक्तियों को याद करते हुए मुझे अक्सर उदास कर देने वाला एहसास होता कि
प्रेम की इस ऊँचाई को वास्तविक जीवन में उतारने वाला माँ के अलावा शायद ही कोई
और इनसान इस धरती पर होगा। ...मैं जितना अपने जीवन के बारे में सोचती उतना ही
यह विश्वास पक्का होता जाता कि मुझे ऐसे प्रेम करने वाला कोई कभी नहीं मिल
सकता।
धीरे धीरे चीजों को खँगालने पर मालूम हुआ कि तीस के दशक के आखिरी दिनों में
शंघाई में पार्टी का भूमिगत काम करते हुए वे एक प्राणघातक हमले में बाल बाल
बचे थे... पर उनको बचाने के लिए उनके एक साथी ने अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी
थी। इस हादसे ने साथी की बीवी और बेटी को अनाथ बना दिया, पर गहरे दायित्वबोध
और वर्ग हित का ध्यान रखते हुए उन्होंने मृत साथी की बेसहारा बेटी का हाथ
थामने का हौसला दिखाया। बाद के दिनों में प्रेम की खातिर शादी के बंधन में
बंधने वाले जोड़ों के प्रति पार्टी के आक्रामक रवैये ने शायद उनके मन को तसल्ली
ही दी होगी : "खुदा का शुक्र है... हमने भले ही प्रेम संबंधों के चलते शादी न
रचाई हो पर जिंदगी हमारी ठीक ठाक चल गई - एक दूसरे को हमने समझा और मदद में
हाथ बढ़ाते रहे।"
यह जोड़ी सालों साल कायम रही - सुख दुख दोनों स्थितियों में दोनों ने एक दूसरे
का साथ निभाया।
मैंने अनुमान लगाया कि वे मेरी माँ के कलीग होने चाहिए। बचपन में क्या मैं
उनसे कभी मिली हूँ? ऐसा भी हो सकता हो वे हमारे घर कभी न आए हों। कौन थे वो,
कैसे थे?
1962 की बात है माँ मुझे एक कंसर्ट में साथ ले कर गई थीं - घर के पास ही हॉल
था और मुझे अच्छी तरह याद है हम पैदल चल कर वहाँ पहुँचे थे। हम पहुँचने वाले
ही थे कि तभी काले रंग की एक बड़ी सी गाड़ी बगैर शोर किए हमारे बगल से गुजरी...
उसमें से काले रंग का सूट पहने सफेद बालों वाला एक बुजुर्ग व्यक्ति निकला।
कितने चमकते हुए झक सफेद बाल थे ...उस इनसान को देखते ही मेरे मन में पहला
इंप्रेशन जो आया वह बेहद सख्त, चौकस, विशिष्ट और निहायत पारदर्शितापूर्ण
ईमानदार व्यक्ति का आया। उनकी आँखों की छलकती चमक ऐसी थी जैसे आकाश में चमकती
बिजली की चमक... या आपस में टकराती तलवारों से निकलती चमक। अब मुझे समझ आता है
कि वह किसी स्त्री के लिए निस्सीम चाहत ही थी जो उन आँखों को कोमलता से भर रही
थी।
गाड़ी से निकल कर वे माँ के पास तक आए, बोले : "आप कैसी हैं, कॉमरेड ज़्होंग यू?
बहुत दिनों बाद आपको देख रहा हूँ।"
"आप कैसे हैं?" माँ मेरा हाथ पकड़ कर चल रही थीं सो मुझे एकदम से महसूस हुआ कि
माँ का हाथ बर्फ जैसा ठंडा ही नहीं पड़ गया है बल्कि तेजी से काँप भी रहा है।
कुछ पलों तक वे एक दूसरे की आँखों में ताके बगैर आमने सामने खड़े रहे - जाहिर
था कि असहज थे पर सहज और दृढ़ दिखने की भरपूर कोशिश भी कर रहे थे। माँ ने अपनी
नजरें सड़क किनारे खड़े पेड़ों पर टिका ली थीं। उन्होंने मुझे देख कर कहा :
"कितनी बड़ी हो गई ...खूब अच्छी, सुंदर ...तुम अपनी माँ का ख्याल रखना।"
मुझे लगा वे माँ से हाथ मिलाएँगे पर मैंने गौर किया कि हाथ उन्होंने मुझसे
मिलाया। ...उनके हाथ भी माँ के हाथ सरीखे बर्फ जैसे ठंडे थे, और काँप भी रहे
थे। हाथ मिलाते ही मुझे लगा जैसे बिजली का करेंट लग गया हो - और झटके से मेरा
हाथ झन्ना सा गया ...घबरा कर मैंने अपना हाथ खींच लिया और जोर जोर से रोने लगी
: "उनमें ऐसा क्या है - कुछ भी तो अच्छा नहीं है।"
"कैसी बात करती हो!" उनके चेहरे पर वैसे अचरज का भाव था जैसा बच्चो के मुँह से
साफ और खरी बातें सुनकर किसी बड़े के चेहरे पर आ जाता है।
मैंने अपनी नजरें माँ के चेहरे पर गड़ा दीं। और हताशा के स्वर में बोली :
"क्योंकि मेरी माँ सुंदर नहीं है।"
पहले तो वे हँस पड़े, फिर थोड़ा कटाक्ष करते हुए बोले : "कितनी बुरी बात है कि
किसी बच्चे को उसकी माँ सुंदर न लगे। ...जानती हो 1953 की बात है जब तुम्हारी
माँ बीजिंग में ट्रांसफर होकर आई थीं तो ड्यूटी ज्वाइन करने मिनिस्ट्री दफ्तर
में आई थीं। दफ्तर के अंदर तुम्हें लेकर नहीं आईं बल्कि बाहर बरामदे में
तुम्हें खेलने को छोड़ आई थीं। ...और तुम थीं कि बंदरिया की तरह जिधर भी सीढ़ी
दिखती उस पर चढ़ती धमकती रहीं ...दरवाजों की दरारों से अंदर झाँकतीं रहीं।
...मेरे दफ्तर के दरवाजे के बीच अपनी उँगली फँसा ली थी तुमने और गला फाड़ फाड़
कर रोना शुरू कर दिया था... - तुम्हारी चीख पुकार इतनी करुण और तेज थी कि मुझे
भाग कर आना पड़ा था ...तुम्हें गोद में उठाए उठाए मैंने तुम्हारी माँ को ढूँढ़ा
था।"
"मुझे कुछ भी याद नहीं।" मुझे बुरा लग रहा था कि वे उन दिनों का राग अलापने
लगे जब मैं नंग-धड़ंग घूमा करती थी।
"देखो हम बूढ़े लोगों की याददाश्त नौजवानों से कहीं अच्छी है" मुझसे यह कहते
कहते वे माँ की ओर मुखातिब हो गए : "मैंने तुम्हारी हाल के दिनों में छपी
पिछली कहानी पढ़ी। ...सच कहूँ तो उसमें उसकी एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी,
तुम्हें उसकी नायिका की इस तरह आलोचना नहीं करनी चाहिए थी - जब तक आपके किए से
किसी अन्य का जीवन तबाह न हो प्यार करना कोई गुनाह थोड़े है ...दरअसल नायक को
भी उसको प्रेम करना चाहिए था... ये तो तीसरे इनसान की खुशी थी जिसको बचाने के
लिए उनको अपने प्रेम की बलि चढ़ानी पड़ी।"
तभी एक पुलिसवाला आया और ड्राइवर से कार हटाने का हुक्म सुना गया। ड्राइवर ने
जब थोड़ी आनाकानी की तो उन्होंने गाड़ी में बैठ कर हम लोगों को विदा कहा और
पुलिसवाले को यह कह कर शांत किया कि गलती ड्राइवर की नहीं उनकी थी... और आगे
जाकर आँखों से ओझल हो गए।
मुझे बेहद ताज्जुब हुआ कि पार्टी का इतना वरिष्ठ काडर एक मामूली पुलिस वाले की
बात सिर झुका कर मान गया। जब मैंने माँ की तरफ थोड़ी तिरछी नजर से देखा तो लगा
वे किसी बेहद सख्त हेड मिस्ट्रेस के सामने एक प्राइमरी स्टूडेंट की तरह लुटी
पिटी सिर झुकाए खड़ी हैं। वैसी मुद्रा में उनको देखने वाला कोई भी यही सोचता कि
पुलिस वाला उनको फटकार कर गया है। कार के आगे जाने से उससे निकलता धुआँ कुछ
पलों को वहाँ ठहरा, फिर हवा उसको अपने साथ बहा ले गई - लगा जैसे कुछ हुआ ही न
हो। पर यह घटना मेरे मन में हमेशा के लिए बस गई।
इतने सालों के बाद अब जब उस घटना के बारे में सोचती हूँ तब मेरा मन कहता है हो
न हो वे वही व्यक्ति थे जिन्होंने अपने चरित्र के बल पर माँ का दिल जीत लिया
था ...और यह ताकत उनको मिली राजनैतिक निष्ठा, क्रांति के दौरान मौत के मुँह से
बच निकलने, तेज और सजग सक्रिय दिमाग तथा कर्तव्यपरायणता जैसे श्रेष्ठ गुणों
से। मुझे थोड़ा अटपटा लगता जब पता चलता कि उनकी और माँ की पसंद बहुतेरे मामलों
में एक समान थी। स्पष्ट था कि माँ उनको लगभग पूजती थीं... एक बार मुझसे कहा भी
था कि किसी इनसान को पूजे बगैर प्रेम भी कर सकती हैं यह उनके लिए असंभव बात
थी।
पर मैं फैसलाकुन होकर नहीं कह सकती कि वे माँ को वैसे ही प्रेम करते थे... फिर
असमंजस में पड़ जाती कि ऐसा न होता तो माँ की डायरी में ऐसी बातें क्यों दर्ज
होतीं।
"तुम्हारा दिया यह तोहफा नायाब है, किसी भी दूसरे तोहफे से ज्यादा महान। ...पर
तुम्हें यह कैसे पता चला कि चेखव मेरे सबसे पसंदीदा लेखक हैं?"
"तुमने ही तो बताया था"
"मुझे खुद याद नहीं कब बताया था।"
"मुझे अच्छी तरह याद है... एक बार जब तुम किसी के साथ बातें कर रही थीं तो
मैंने इस बारे में तुम्हारे मुँह से सुना था।"
अच्छा तो ये वो ही थे जिन्होंने माँ को चेखव की कहानियों का सेट दिया था। माँ
के लिए वह सेट किसी प्रेम पत्र जैसा था, या यूँ कहें कि उससे बढ़ कर था। हो
सकता है कि युवावस्था में प्रेम जैसे जजबात को महत्व न देने वाले उनको सिर के
बालों के पक कर सफेद होते होते यह एहसास होने लगा हो कि सालों साल से उनके मन
के अंदर बैठा हुआ स्थायी भाव और कुछ नहीं बल्कि प्रेम ही हो। प्रेम का वरण न
कर पाने के पड़ाव पर पहुँच कर उनको इस कटु सत्य का पता चला हो कि उनके मन में
जिसके लिए इतना प्रेम है उसका कद इतना ऊँचा है कि उसपर तो पूरा जीवन निछावर
किया जाना चाहिए था ...या उस से भी कहीं गहरी अनुभूति?
मैं उनके बारे में सिर्फ इतना भर याद कर पाती हूँ, और कुछ नहीं।
माँ के बारे में अब सोचती हूँ तो आभास होता है जिस इनसान को वे पूजती थीं उस
से इस तरह बिछुड़ जाने से वे किस कदर टूट गई होंगी। सिर्फ एक बार उनकी कार
नजरों के सामने से गुजर जाए... या उसके पीछे वाले शीशे में उनकी शक्ल की एक
झलक दिख जाए... दफ्तर जाने और लौटने का रास्ता जानने के लिए किस किस तरह के
जोड़ घटाव वे किया करती होंगी। जहाँ जहाँ भी उनके भाषण होने की उनको खबर मिलती
वे किसी न किसी तरह वहाँ जरूर पहुँचतीं, हॉल के सबसे पीछे की लाइन में बैठतीं
और सिगरेट के धुएँ और कमजोर लाइट के बीच से उनके चेहरे की एक एक रेखा पहचानने
के प्रयत्न करतीं। ऐसे मौकों पर उनकी आँखों से आँसुओं की बरसात होती रहती पर
बार बार पोंछते हुए वे दुनिया से उन्हें छुपाए रखने का भरपूर प्रयत्न करतीं।
मंच से बोलते बोलते कई बार उनको खाँसी उठती तो माँ एकदम तड़प जातीं - कोई उनको
इतनी सिगरेट पीने से रोकता क्यों नहीं। ...ऐसे तो उनका दमा दुबारा उखड़ जाएगा।
वे नजरों के जब इतने पास हैं... तो इतने दूर क्यों हैं?
वे भी माँ की एक झलक पाने को लालायित रहते, दफ्तर आते जाते कार का शीशा गिरा
कर साइकिलों के रेले में एक एक को निहारते रहते - काम पर समय पर पहुँचने की
ऐसी मारामारी रहती कि कोई न कोई धक्का खाकर नीचे गिर जाता, उनको हमेशा यह खटका
लगा रहता कि माँ को कोई कहीं कोई धक्का न मार दे। महीनों बाद कभी ऐसा होता कि
उनकी कहीं कोई मीटिंग नहीं होती, ऐसे दुर्लभ मौकों पर वे बाहर सैर को जिस
रास्ते निकलते उसमें हमारा घर भी पड़ता था। कितनी भी व्यस्तता हो कभी ऐसा नहीं
होता कि वे पत्र पत्रिकाओं के पन्ने पलट कर माँ की किसी नई रचना की पड़ताल न
करें। उनको कब क्या करना है इस जिम्मेदारी का आभास उनको हमेशा रहता था,
मुश्किल से मुश्किल हालातों में भी। पर अब जब उनका प्रेम इतनी स्पष्टता के साथ
सामने आ खड़ा हुआ तो वे किसी लाचार और अशक्त मेमने की तरह हो गए... बेहद ऊँचे
आदर्शों का जीवन जीने वाले की ऐसी दुर्दशा उपहास का विषय बन गई थी, वह भी इस
पकी उम्र में। जीवन उनके साथ आखिर ऐसा क्रूर बरताव क्यों कर रहा था?
जब कभी काम के सिलसिले में दोनों का आमना सामना हो जाता असहज होकर दोनों ऐसा
दिखाने की कोशिश करते जैसे उन्होंने एक दूसरे को देखा ही न हो। माँ घबराहट में
इन अवसरों पर आसपास के माहौल के प्रति एकदम गूँगी बहरी बन जाती। ...पर अचानक
का यह बदलाव इतना फूहड़ होता कि खूब जान पहचान वाले सहकर्मी वॉन्ग को गुओ कह के
संबोधित कर देतीं। ...या इतनी धीमे से लगभग फुसफुसाते हुए बोलतीं कि किसी को न
कुछ सुनाई पड़े न ही उनकी बात समझ आए।
पर जाहिर था उनके ऊपर इन असहज मुलाकातों का बहुत गहरा और प्रतिकूल असर पड़ रहा
था। इस बारे में उन्होंने लिखा :
"आपस में बातचीत करके हमने इस बात की शपथ ली थी कि एक दूसरे को भूल जाएँगे। पर
दरअसल मैंने तुम्हारे साथ धोखा किया। ...मैं तुम्हें कभी भूल नहीं पाई। जाने
मुझे क्यों लगता है कि तुम भी मुझे विस्मृत नहीं कर पाए। हम दोनों ने यह किया
कि एक दूसरे को भरम में रखा, बस। ...और अपनी अपनी लाचारियों पर पर्दा डालते
रहे। मैं अपना झूठ कबूल करती हूँ पर जान-बूझ कर मैं ऐसा कर ही नहीं सकती।
...शपथ निभाने की जितनी भी कोशिश कर सकती थी मैंने जी जान लगा कर की। बीजिंग
से जितनी देर बाहर रह सकती थी, रहती रही। ...और दिल को दिलासा देती रही कि समय
और स्थान का फासला मुझे ऐसा करने में मदद देगा। पर आखिर मैं भाग कर जाती भी
कहाँ। ...लौटते हुए जब ट्रेन स्टेशन के अंदर दाखिल होती तो मेरा माथा घूमने
लगता। ट्रेन से उतर कर मैं देर देर तक मैं प्लेटफॉर्म पर यूँ ही खड़ी रहती, इधर
उधर नजरें दौड़ाती लगता जैसे यहीं आसपास कोई मेरा रास्ता देख रहा है। ...और अभी
दो चार मिनट में वह मेरे सामने आ खड़ा होगा ...पर जाहिर है वहाँ मेरे लिए किसको
खड़ा होना था। तभी मेरा यह भरोसा पक्का होने लगा कि मैं लाख जतन कर लूँ स्मृति
से कुछ भी पोंछ डालना मेरे वश में नहीं। ...सब कुछ अब भी मेरी स्मृति में
ज्यों का त्यों तरोताजा है, एक एक पल। ...बिल्कुल वैसा का वैसा। मेरा प्यार
वास्तव में ऐसे दरख्त जैसा है जिसकी जड़ें साल दर साल और भी नीचे उतरती जाती
हैं, फैलती जाती हैं। ...और मुझे बिलकुल इल्म नहीं कि उन फैलती जड़ों को उखाड़ूँ
तो उखाड़ूँ कैसे...।
...धीरे धीरे यह नौबत आन पड़ी कि रात उतरते उतरते मुझे लगता जैसे कुछ बातें
मेरी स्मृति से फिसल रही हैं। ...सोए सोए मैं हड़बड़ा कर आधी रात बिस्तर से उठ
जाती। समझ नहीं आता आखिर हुआ क्या। ...जब चैतन्य होकर आस पास नजरें दौड़ाती तो
सब कुछ यथावत लगता, कुछ भी तो नहीं बदलता। देर तक ध्यान में लाने की कोशिश
करती तब समझ आता कि असल में मैं तुम्हें ढूँढ़ रही होती थी। सब कुछ आधा अधूरा
और उम्मीद से कमतर लगता। पर सारी मगजपच्ची के बाद भी इस कमी को पूरा कर पाने
का कोई रास्ता न सूझता।
अब हम दोनों अपने जीवन की सांध्य वेला में पहुँच गए हैं और इसका अवसान निकट है
- फिर ये बच्चों जैसी ललक और भावनाएँ क्यों? जीवन इनसानों के ऐसे निष्ठुर
इम्तिहान क्यों लेता है। ...कि अंत आते आते सालों साल बड़े जतन से दबा छुपा कर
रखा हुआ स्वप्न एकदम से अपने विशाल पंख फड़फड़ा कर खोल देता है? फिर अपने मन को
समझाती हूँ कि मैंने जीवन का सफर बड़े अल्हड़ पैन के साथ आँखें मूँद कर शुरू
किया था, शायद इसकी लिए गलत मोड़ पर मुड़ गई। ...और इतने बरसों बाद अब तो मेरे
और मेरे स्वप्न के दरमियान इतना बड़ा फासला है कि उसको पाट पाना मेरे जैसे
मामूली इनसान के बस की बात कहाँ।"
माँ जब भी काम के सिलसिले में बाहर जातीं तो लौटते हुए मुझे स्टेशन न आने का
सख्त फरमान सुना कर जातीं। ...गाड़ी से उतर कर देर तक स्टेशन पर अकेली खड़ी
रहतीं, उनको हमेशा लगता वे माँ से मिलने जरूर आ रहे होंगे ...क्या विडंबना कि
पकते बालों वाली बूढ़ी होती हुई माँ किसी अल्हड़ किशोरी सी यहाँ वहाँ निगाहें
डालते हुए मंत्रमुग्ध उनके आने की राह तकती।
डायरी में जो विवरण दर्ज थे उनमें उन दोनों के रोमांस का कोई आभास नहीं मिलता
था, ज्यादातर विवरण मामूली और गैरजरूरी बातों के थे जैसे कोई रचना संपादक ने
नहीं छापी तो अपनी लेखन क्षमता और योग्यता पर आशंका ...टिकट पर लिखे समय को
ठीक से न देख पाने पर एक शानदार नाटक देखने से वंचित रह जाना ...बाहर घूमते
हुए छतरी साथ न लेकर निकलने पर अचानक आई बारिश से भीग जाना आदि आदि। भावना के
स्तर पर दिन और रात माँ और वे निरंतर किसी विवाहित जोड़े की मानिंद साथ साथ
रहते... जबकि जमीनी हकीकत यह थी कि पूरे जीवन में कुल मिला कर वे चौबीस घंटे
भी कभी साथ नहीं रह पाए थे। मुझे लगता है साथ के इतने कम पलों में भी उन्होंने
खुशियों के जो साझा मुकाम हासिल किए वो आजीवन एक दूसरे के साथ रहने वालों को
भी शायद नसीब नहीं हो पाते। शेक्सपियर ने जूलिएट से कहलाया है न, "मैं कितनी
भी कोशिश कर लूँ, अपनी दौलत के आधे की गिनती भी नहीं कर सकती।" मुझे बार बार
एहसास होता है माँ भी ऐसा ही कोई भाव अपने मन में लिए आखिरी साँस लेने तक जीती
रहीं।
मुझे लगता है सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मची उथल-पुथल में उनको मौत के घाट
उतार डाला गया ...डायरी से इसका कुछ कुछ आभास तो मिलता है पर खुलासा नहीं हो
पाता। इसी दौरान माँ की लिखी रचनाओं को भी निर्मम आलोचनाओं का शिकार बनाया गया
और उन्होंने उनको छपने के लिए भेजने से तौबा कर लिया ...पर उस दौरान व्याप्त
हिंसा के माहौल में भी माँ डरीं नहीं, अपनी बातें निरंतर डायरी में दर्ज करती
रहीं। डायरी के इंदराजों को पढ़ते हुए मुझे लगता है कि वे उस समय शिखर पर रहे
पार्टी के "सिद्धांतकार" के निर्देशों को खुले आम "दक्षिणपंथी" करार देते थे।
...माँ की डायरी के अश्रुविगलित पन्ने इस बात की भरपूर गवाही देते हैं कि इस
बात के लिए पार्टी ने उन्हें तीव्र आलोचना का शिकार बनाया, पर वे उस पकी उम्र
में भी अपनी धुन और विचारों के पक्के साबित हुए। माँ की लिखावट से मुझे मालूम
हुआ कि मरते मरते उन्होंने यह बात दोहराई थी : "जब मैं मार्क्स से मिलूँगा तब
अपने सैद्धांतिक तर्क उनके सामने रखूँगा।"
अनुमानतः यह 1969 की सर्दियों की बात है क्योंकि मैंने एक रात में ही माँ के
सारे बालों को पकते हुए देखा था, हालाँकि तब उनकी उम्र पचास तक भी नहीं पहुँची
थी। वे अगले दिन से अपनी बाँह पर काले रंग का पट्टा बाँधने लगी थीं और इसके
लिए उनको चारों ओर से आलोचना सुननी पड़ी थी - किसी ने कहा देखो तो मातम मनाने
का क्या पुरातनपंथी ढंग है तो किसी ने उस व्यक्ति का नाम जानना चाहा जिसकी
मृत्यु का शोक वे मना रही थीं।
"किसके गम में आप ये काला पट्टा बाँध रही हो माँ?" उत्सुकतावश मैंने भी पूछ
लिया।
"अपने प्रेमी के" उन्होंने संक्षिप्त सा जवाब दिया पर फौरन सफाई भी दे दी :
"उनको तुम नहीं जानती बेटी। "
"तो मैं भी ऐसा ही पट्टा बाँध लूँ?" मेरा सवाल सुनकर बचपन में जैसा अक्सर किया
करती थीं, उन्होंने मेरे गाल थपथपाए... कई सालों बाद उन्होंने इस तरह मेरे
प्रति आपना स्नेह प्रदर्शित किया था। धीरे धीरे मुझे लगने लगा कि जैसे जैसे
उनकी उम्र बढ़ती जा रही है ...खास तौर पर उत्पीड़न और उपेक्षा के हालिया सालों
में ...उनके अंदर की सारी कोमलता सूख गई है, या यह भी हो सकता है कि वे कोमल
भावों को जबरन इस तरह अपने अंदर छुपा लेती हों कि स्त्री नहीं पुरुष की तरह
दिखें।
वे मुस्कुराईं पर चेहरे पर उदासी के गहरे भाव बुरी तरह हावी थे : "नहीं,
तुम्हें ये पट्टा बाँधने की जरूरत नहीं है।" यह कहते हुए मैंने उनके चेहरे की
ओर गौर किया तो लगा उनकी आँखें इतनी खुश्क हो गई हैं जैसे इनमें आँसू का एक
कतरा शेष न हो। मैं उनको थोड़ी राहत पहुँचाने की बहुतेरी कोशिशें करती रही पर
उन्होंने मुझे झटक कर परे कर दिया : "हटो जाओ।"
मैं बुरी तरह घबरा गई, लगा माँ ने मुझे अपने से परे कर दिया है। ...त्याग दिया
है। मैं बुरी तरह चीख पड़ी : "माँ..."
मेरी घबराहट और हताशा देख कर माँ ने मुलायम होकर दिलासा दिया : "घबराने की कोई
बात नहीं बेटी। ...बस मेरे पास से जाओ। ...मैं अभी अकेला रहना चाहती हूँ।"
मैं जो सोच रही थी, मेरे मन में आशंका थी सही निकली। माँ ने डायरी में लिखा :
"तुम चले गए। ...और मेरी आधी रूह भी तुम्हारे साथ उड़ गई। मेरे पास यह जान पाने
का कोई जरिया नहीं था कि अंतिम क्षणों में आखिर तुम्हारे साथ हुआ क्या, उन
पलों में नजर देख लेने का तो फिर सवाल ही क्या? तुम्हारे बारे में किसी से
पूछने का मेरा हक भी क्या था। ...मैं न तो तुम्हारी बीवी थी, न दोस्त। ...सो
चुपचाप हम दो हिस्सों में टूट कर बिखर गए, अलग अलग दिशाओं में। मुझे यह अफसोस
सालता रह गया कि जो यातना तुम्हें दी गई वह मुझे क्यों नहीं दे दी गई। ...मैं
भले ही मर जाती पर तुम तो इस दुनिया में बचे रहते। काश, तुम उस दिन के लिए
जिंदा रह पाते जब दोष मुक्ति का फरमान सुनाया गया। ...ऐसा होता तो जाहिर है
तुम अपने अधूरे छूटे कामों के सूत्र दुबारा पकड़ लेने पर संतोष का अनुभव कर
पाते... कम से कम उन सब की खातिर जो तुम्हें बेइंतहाँ प्यार करते हैं। मुझे
शुरू से मालूम था तुम कुछ भी कर दो क्रांति विरोधी कभी नहीं बन सकते। इस दौरान
जितने लोगों को मौत के घाट उतारा गया तुम उनके बीच सबसे चमकदार हीरा थे। ...और
यही कारण है कि मैं तुमसे इस कदर प्यार करती हूँ - इसको स्वीकार करने से नहीं
घबराती। ...बिलकुल नहीं डरती।
बाहर बर्फ की तेज झड़ी लगी हुई है। ...पाखंड देखो न्यायप्रिय खुदा का कि
तुम्हारे कत्ल और बहते लहू को बर्फ की सफेद चादर से ढाँपने की साजिश रच रहा है
ताकि कहीं कोई सबूत न बच पाए। मैंने अपने जीवन को कभी कोई तरतीब नहीं दी पर अब
इस बात का हर पल भरपूर ध्यान रखूँगी कि अनजाने में मुझसे कहीं कोई ऐसा काम न
हो जाए जिस से तुम्हें ठेस पहुँचे। ...या तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ जाएँ। मुझे
सामने तुम्हारी मिसाल रख कर पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ देश हित में काम
करना होगा।
समय हमेशा एक सा नहीं रहता ...और गुनाह करने वालों के दिन भी हमेशा वैसे ही
सुनहरे नहीं रहते, उनको भी एक दिन अपने किए की सजा मिलती ही है।
तारकोल वाली उस छोटी सी सड़क पर अक्सर मैं सैर करने निकलती हूँ, अकेले।
...हमारे साथ बिताए बेहद संक्षिप्त जीवन की वह इकलौती निशानी है जहाँ एक बार
हम साथ साथ थोड़ी दूर चले थे। गहन रात्रि में चलते हुए खुद अपने पैरों की आहट
सुनाई देती है। ...कभी छोटे तो कभी लंबे कदम से चलना बीते वर्षों में मैंने
खूब किया है, पर अब उसी सड़क पर पहला कदम रखते ही मन में जैसी उदासी और
मनहूसियत पसरने लगती है वैसा पहले नहीं होता था। यह भी है कि अकेला होते हुए
भी पहले मेरे मन के अंदर हमेशा यह एहसास बना रहता था कि भले ही तुम यहाँ मेरे
साथ सशरीर नहीं भी हो पर इस धरती पर जहाँ कहीं भी हो वहाँ रहते हुए भी मेरा
साथ दे रहे हो। ...मुझे सँभाले हुए हो। ...मेरे साथ साथ चल रहे हो। हालाँकि
मेरे लिए अब भी खुद को यकीन दिलाना दुश्वार है कि तुम अब इस दुनिया में कहीं
मौजूद नहीं हो। ...मैं निपट अकेली हूँ, तुम मुझे छोड़ कर प्रस्थान कर गए हो।
यह छोटी सी सड़क जहाँ खतम होती है वहाँ से मैं लौट लौट आती हूँ... फिर साहस
जुटा कर दुबारा कदम बढ़ाती हूँ। ...बार बार उम्मीद से भर कर पीछे मुड़ कर ताकती
हूँ कहीं दूर खड़े खड़े तुम हाथ उठा कर मुझे विदा तो नहीं कर रहे हो।
जब कभी ऐसा होता कि हम आमने सामने पड़ जाते तो पास से गुजरते हुए तुम हौले से
मुस्कुराते - कभी कभार राह चलते मिल जाने वाले आस पड़ोस के परिचितों की तरह।
...जिस से हमारे अमरणशील प्रेम की किसी को हवा न लगे।
मुझे शुरुआती बसंत की ठिठुरन भरीं अदद शाम खूब याद है जब बर्फीली हवाओं को बीच
से चीरते हुए हमने उलटी दिशाओं की ओर भारी होते कदम बढ़ा दिए थे। …कुछ कदम चलने
पर तुम्हारी पुरानी खाँसी उखड़ गई थी और घने कुहासे में शक्ल ओझल हो जाने के
बाद भी तुम्हारी खाँसी की आवाज देर तक सुनाई देती रही। मैं बेहद परेशान और
चिंतित कि तुमसे कहूँ इतनी तेज नहीं सुस्ताते हुए थोड़ा धीरे धीरे चलो। ...पर न
मुझसे कहा गया, कहती भी तो मेरी आवाज तुम तक पहुँच शायद न पाती। बिछुड़ते हुए
हम दोनों इतनी तेजी से अपनी अपनी दिशाओं में बढ़ते चले गए जैसे कि कोई बेहद
जरूरी काम हमारे बगैर छूटा जा रहा हो। साथ साथ अंजाम दी गई उस इकलौती सैर को
बाद के सालों में हम किसी बहुमूल्य तोहफे की तरह दिल से लगा कर रखते और हर पल
मन में यह अंदेशा बैठा रहता कि कहीं अपने ऊपर कस कर लगाया हुआ अंकुश ढ़ीला न पड
जाए। ...और हमारी जुबान से अचानक प्रेम को जाहिर कर देने वाला जुमला एकबारगी न
निकल जाए - आई लव यू। यूँ तो मुश्किल से तीन लफ्जों का जुमला था वह पर हमारे
जीवन को सूली पर टाँगें हुए था साल दर साल। इस भरी दुनिया में भला कौन यकीन
करेगा कि इतने बरसों के साथ के बावजूद हमने एक बार भी कभी एक दूसरे का हाथ तक
नहीं पकड़ा।"
नहीं माँ, दुनिया जो चाहे सोचे मैं आपकी बात पर पूरा पूरा यकीन करती हूँ।
...मैं दरअसल आपके मन की अतल गहराइयों में उतर कर अंदर की दुनिया देखना चाहती
हूँ।
वो तारकोल वाली छोटी सी सड़क, जाने उसमें कितनी अभिशप्त स्मृतियाँ दफ्न हैं।
दुनिया कोई कोई भी मामूली से मामूली जगह हो हमें उसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए
- मालूम नहीं कितनी सिसकियाँ और खुशियाँ इनके हृदय में समाई हों। कोई अचरज
नहीं कि लिखते लिखते जब माँ थक जाती होंगी तो हमारे घर के पिछवाड़े की इसी सड़क
पर धीरे धीरे चलती हुई आगे के लिए भरोसा जुटाती होंगी। ...अनींदी रात के बाद
छटकती भोर में, कभी अंधड़ वाली अँधेरी रात में। ...सर्दियों की उन रातों में भी
जब झंझा खिड़की के शीशों पर रेत और कंकड़ की बौछार करता रहता है। मैं उनको ऐसा
करते देखती तो समझती दिमाग पर बुढ़ापे में सनक सवार हो गई है, इसका जरा भी
एहसास नहीं था कि वे कल्पना में उनसे मिलने सड़क पर निकल गई हैं।
अक्सर माँ खिड़की से लग कर घंटों खड़ी भी रहती, नजरें तारकोल की उसी छोटी सी सड़क
पर टिकाए। एक बार मैंने उनको वहाँ खड़े देखा तो लगा उनकी कोई घनिष्ट सहेली आने
वाली है माँ उसकी बाट जोह रही हैं... दौड़ी दौड़ी मैं भी खिड़की से आ चिपकी,
सर्दियों की बात है ...बाहर बर्फीली हवा पेड़ों से पत्तियाँ नोंच नोंच कर
निर्जन सड़क पर उड़ा रही थी।
ऐसे समय में भी माँ थीं कि अपना दिल निकाल कर डायरी के पन्नों में उड़ेल रही
थीं जैसे वे जीवित सामने बैठे बैठे माँ की सारी बातें ध्यान से सुन रहे हों।
यह सिलसिला उस क्षण तक अनवरत चलता रहा जिस क्षण उनके हाथ से पेन छूट कर नीचे
नहीं गिर गई। ...डायरी में दर्ज आखिरी शब्द थे :
"वैसे मैं भौतिकवादी हूँ - मैटेरियलिस्ट ...फिर भी जाने क्यों बार बार मेरे मन
में खयाल आता काश कहीं स्वर्ग का अस्तित्व होता और मुझे चलते फिरते कहीं से
सुनाई देता कि तुम वहाँ विराजमान हो। ...और स्वर्ग के द्वार की ओर टकटकी लगाए
हुए सालों से मेरी प्रतीक्षा में खड़े हो तो मैं लंबे लंबे डग भरती हुई वहाँ
चली जाती, तुम्हारे साथ रहने की ख़्वाहिश लिए हुए... दिन साल के लिए नहीं, अनंत
काल के लिए। वहाँ हमें कोई जुदा नहीं कर पाएगा। ...अलग अलग नहीं रख पाएगा
...सिर्फ इस बिना पर कि हमारे साथ रहने से किसी अन्य का जीवन बर्बाद हो जाएगा।
मेरा इंतजार करना प्रिय। ...मैं तुम्हारे पास बस आ रही हूँ।"
मुझे जरा भी इल्म नहीं कैसे अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़े पड़े भी माँ इतना प्रेम
कर पाईं ...मुझे यह प्रेम नहीं बल्कि एक तरह की सनक, या यूँ कहें कि
पागलपन/उन्माद लगता है जो मृत्यु से भी ज्यादा आवेगपूर्ण था। यदि दुनिया में
सचमुच अनश्वर प्रेम का अस्तित्व है तो माँ उसकी पराकाष्ठा थीं। मृत्यु के पलों
में उनके चेहरे पर आनंद/संतुष्टि का भाव था ...उन्होंने वास्तविक प्रेम का
स्वाद जो चख लिया था। ...कोई मलाल माँ के मन में नहीं था।
अब इतने बरसों बाद दोनों बूढ़े लोगों की राख धरती में मिल कर विलीन हो चुकी है
पर मुझे पक्का भरोसा है कि चाहे जिस भी रूप में हो दोनों अब भी एक दूसरे को
प्रेम करते हैं, एक दूसरे के आस पास हैं। कड़वी सच्चाई ये है कि दुनियावी कायदे
कानूनों या नैतिकता के पैमानों पर वे दोनों एक दूसरे के प्रति कभी बँधे
नहीं... यहाँ तक कि जीवन में एक बार भी एक दूसरे का हाथ थामने का अवसर उनके
भाग्य में नहीं आया, पर दोनों भावनात्मक तौर पर एक दूजे के लिए जिए ...संपूर्ण
रूप में एक-दूसरे के होकर जिए। कोई भी शक्ति उनको एक दूसरे से अलग नहीं कर
पाई। आगे आने वाली अनेक शताब्दियों में भी जब कोई सफेद बादल का टुकड़ा ऐसे ही
दूसरे बादल के पीछे पीछे चलता दिखाई देगा ...दूब की दो नुकीली गर्वीली
पत्तियाँ आस पास उगती बढ़ती हुई दिखाई देंगी... दो लहरें एक दूसरे के साथ
अठखेलियाँ करती दिखाई देंगी, मेरा मन यही कहता रहेगा ये वे ही दोनों लोग हैं
कोई और प्रेम में इतना मगन हो ही नहीं सकता।
जितनी बार मैं माँ की डायरी "कोई प्यार कैसे भूल जाए" पढ़ती हूँ आँसुओं की झड़ी
रोकना मेरे वश में नहीं रहता ...जार जार रोती हूँ जैसे इस बदनसीब प्रेम का
शिकार माँ नहीं मैं ही रही हूँ। ...इसको याद कर के सहज रहा ही नहीं जा सकता...
बतौर साहित्य पढ़ने में यह चाहे कितना ईमानदार, खूबसूरत या मार्मिक लगे इस जनम
में क्या किसी भी जनम में मैं यह जीवन जीने का हौसला नहीं कर सकती ...बस,
नामुमकिन।
उन दोनों को मैं किसी पारंपरिक नैतिक पैमाने पर आँक नहीं सकती, ये पैमाने उनके
लिए बहुत छोटे हैं। मुझे उनके संदर्भ में जो बात सबसे ज्यादा अखरती है वो है
कि दोनों में से किसी ने भी "बिछुड़े हुए साथी" की सदा (पुकार) का इंतजार नहीं
किया। शादी की बात एक बार को परे हटा भी दें और प्रेमी बिछुड़े हुए साथी के
बुलाने का इंतजार करने का सब्र दिखाएँ तो जीवन के जाने कितने दुखांत अध्याय
लिखे जाने से रोके जा सकते हैं !
जब कम्युनिज्म स्थापित भी हो जाएगा तब क्या प्रेमविहीन विवाह का अस्तित्व खत्म
हो जाएगा? शायद ...इतनी बड़ी दुनिया में दो दिलों की सदा एक दूसरे तक पहुँच ही
जाए पक्का नहीं कहा जा सकता। पर कितनी अफसोसजनक बात है कि तब तक हम मूकदर्शक
बने हुए ऐसे हादसों को होते रहने दें? पर यह सब ख्याली पुलाव या अटकलबाजी ही
तो है...।
कौन जाने हम सब सामूहिक तौर पर ऐसे दुखांत हादसों के लिए उत्तरदायी हों? अतीत
के पुराने मूल्यों को ढोते रहने के लिए क्या हम अभिशप्त हैं? अब शादी को ही
लें, यदि कोई इसके बंधन को खुले तौर पर अस्वीकार कर दे तो क्या इसको पुराने
मूल्यों की चुनौती के रूप में देखा जाना चाहिए? आपको पागल/विक्षिप्त, अशुद्ध
आचरण वाला या राजनैतिक भूल/भटकाव का शिकार कह कर संबोधित किया जा सकता है।
...यहाँ तक कि पथभ्रष्ट या विधर्मी तक घोषित किया जा सकता है। लोग बाग तरह तरह
के भद्दे और आधारहीन आरोप लगा कर आपकी प्रतिष्ठा मटियामेट करने की कोशिश करते
रहेंगे ...यह दबाव इतना बढ़ जाएगा कि आपको उनके सामने हथियार डालना पड़ेगा।
...और बगैर सोचे समझे शादी का जुआ ओढ़ना पड़ेगा। पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि
एक बार तर्क और विवेक को परे रख कर शादी के फैसले पर मुहर लगवा लेने के बाद
जीवन भर उसके जुए तले पिसते ही रहना होगा - इस से बचाव का कोई रास्ता नहीं है।
मेरा मन चीख चीख कर सुनाने को हो रहा है : "आप अपना धंधा देखिए, हमारे मामले
में टाँग मत अड़ाइए। हम सब्र रख कर अपने साथियों का इंतजार कर रहे हैं। ...अधिक
से अधिक यही होगा कि हमारा इंतजार निष्फल जाएगा, फिर भी ये प्रेमरहित शादी से
लाख गुना बेहतर स्थिति है। अकेले रहना कोई डराने वाली दुर्घटना नहीं है। मुझे
तो लगता है यह स्थिति सांस्कृतिक और शैक्षिक प्रगति और जीवन की गुणवत्ता के
सुधार में एक चरण आगे बढ़ने जैसी हो सकती है।"