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लेख

राम बहादुर राय की संवाद शैली

कृपाशंकर चौबे


हिंदी की जनोन्मुख पत्रकारिता को पिछले चार दशकों के दौरान जिन्होंने बचाए रखा है, उसमें अन्यतम हैं राम बहादुर राय। राम बहादुर राय ने मुद्रित माध्यम की हर तरह की पत्रकारिता की। दैनिक जनसत्ता, दैनिक नवभारत टाइम्स और पाक्षिक प्रथम प्रवक्ता से कभी जुड़े रहे राय साहब का संपादकीय संस्पर्श इस समय साप्ताहिक युगवार्ता, पाक्षिक यथावत और मासिक नवोत्थान और देश की एकमात्र बहुभाषी समाचार एजेंसी हिंदुस्तान समाचार को मिल रहा है। राम बहादुर राय के व्यक्तित्व के कई रूप हैं। वे पत्रकार हैं, संपादक हैं, समूह संपादक हैं, स्तंभकार हैं, टिप्पणीकार हैं, राजनीतिक विश्लेषक हैं, जीवनीकार हैं, संस्कृति के अध्येता और भाष्यकार हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं। हर भूमिका में उनका संवादी रूप मुखर रहा है। राय साहब संवाद को कला मानते हैं और विज्ञान भी। उनके लिए संवाद इस अर्थ में कला है कि वह मनुष्य के सर्वोत्तम की अभिव्यक्ति है। विज्ञान इस रूप में है कि उसका अपना एक शास्त्र है। राम बहादुर राय खुले मन से संवाद करते हैं। किसी भी तरह की रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहाँ तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। राय साहब हमेशा उस संवाद के हिमायती रहे हैं जहाँ विचार व तर्क का आधार हो, जो जनहित में हो, समाज और राष्ट्र की परिस्थिति और प्रकृति को परिभाषित करता हो। इसी को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का अध्यक्ष बनने के बाद राय साहब ने संस्कृति पुरुषों से संवाद शृंखला आरंभ की। अब तक नौ संस्कृति पुरुषों से संवाद हो चुका है। इस शृंखला के पहले भी राय साहब कई राष्ट्रीय पुरुषों से संवाद करते रहे। जैसे दो-दो पूर्व प्रधानमंत्रियों चंद्रशेखर और विश्वनाथ प्रताप सिंह से उन्होंने लंबे-लंबे संवाद किए। संवाद (सवाल-जवाब) के जरिए जीवनी भी लिखी जा सकती है, इस विधा के प्रवर्तक होने का श्रेय भी राय साहब को ही जाता है। राम बहादुर राय की किताब 'चंद्रशेखर रहबरी के सवाल' प्रश्नोत्तर शैली में है। वह 35 वर्षों के कालखंड की चंद्रशेखर की जीवनी है। राजकमल प्रकाशन से 2005 में आई 337 पृष्ठों की उस किताब के पहले अध्याय का शीर्षक है : राजनीति के सोपान जिसमें समाजवादी समाज का सपना, कांग्रेस में, संपूर्ण क्रांति, जनता पार्टी, भारत यात्रा, जनता दल, प्रधानमंत्री काल और उत्तरार्द्ध सजपा किसी के पीछे चलने को तैयार उपशीर्षकों के तहत चंद्रशेखर से राम बहादुर राय ने बातचीत की है। दूसरे अध्याय में चौदहवीं लोकसभा और संसदीय प्रणाली पर बातचीत दर्ज है तो तीसरे अध्याय में यक्ष प्रश्नों पर चंद्रशेखर के जवाब हैं। यक्ष प्रश्न में स्वदेशी स्वराज, गठबंधन की राजनीति, आपातकाल, आंतरिक सुरक्षा, कश्मीर से लेकर नेपाल पर चंद्रशेखर खुलकर बोले हैं। चौथे अध्याय में गांधी, नेहरू, जेपी, इंदिरा और संघ-भाजपा पर चंद्रशेखर से राय साहब ने वार्ता की है। पाँचवाँ अध्याय अंतरंग बतकही है तो छठे अध्याय में चंद्रशेखर के चुनिंदा भाषण, लेख और पूर्व प्रधानमंत्रियों के बयान व तत्संबंधी टिप्पणियाँ संकलित हैं। कुल मिलाकर यह किताब चंद्रशेखर पर राजकमल से आईं सात किताबों से अलग है। इस किताब की भूमिका में प्रभाष जोशी ने बिलकुल सही लिखा है, "उन पर लिखी गई और 35 साल के कालखंड के आकलन पर बनाई गई किसी भी किताब में चंद्रशेखर वैसे निकलकर नहीं आए हैं जैसे इन सवालों के जरिए। राजनीति के गंभीर अध्येताओं के लिए पिछले 35 वर्षों को समझने और समझाने के लिए इसमें न सिर्फ प्रामाणिक जानकारी है, एक विश्वसनीय दृष्टिकोण भी है। विश्वसनीयता और प्रामाणिकता राम बहादुर राय की पत्रकारिता की जान है।" प्रभाष जोशी के ही शब्दों में यह किताब न सिर्फ बिहार आंदोलन और इमरजेंसी के बाद के राजनैतिक इतिहास को एक अलग नजरिए से देखती है, चंद्रशेखर के जीवन और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका को भी बहुत स्पष्टता से उभारती है।

'चंद्रशेखर रहबरी के सवाल' किताब कई रोचक तथ्य भी हमारे सामने लाती है। जैसे राम बहादुर राय ने प्रश्न किया कि क्या सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का त्याग किया है, इस पर चंद्रशेखर का जवाब है, "तेरह तारीख को जब 14वीं लोकसभा का परिणाम आया तब सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनने को तैयार थीं। 17 तारीख को जब यूपीए की लीडर चुनी गईं, तब भी प्रधानमंत्री बनने को तैयार थीं। 18 तारीख को राष्ट्रपति महोदय से मिलने के बाद क्या हो गया? मैं तो इसे करिश्मा ही समझता हूँ कि कलाम साहब (राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कमाल) के दर्शन मात्र से कोई व्यक्ति त्यागी हो जाता है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम सोचते कुछ और हैं, कहते दूसरी बात हैं। हमारी स्थिति यह है कि जिस काम को हम नहीं कर सकते, नहीं कह सकते। मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा था कि प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था? मुझे लगने लगा कि राजीव गांधी के साथ मिलकर सरकार नहीं चलाई जा सकती है। राजीव गांधी ने सौ लोगों से कहा कि हमने तो समर्थन वापस लिया नहीं है। राजीव गांधी का बयान तमाम अखबारों में छपा। राजीव गांधी ने मुझसे कहा कि आपके कहने से मैं पीएम ऑफिस में एक चपरासी भी सस्पेंड नहीं करा सकता। मैंने कहा कि अगर एक प्रधानमंत्री अपने पद पर बने रहने के लिए एक चपरासी के साथ अन्याय कर सकता है तो वह देश के साथ भी अन्याय कर सकता है। इसे कुछ लोग जज्बात कहेंगे, कुछ लोग बेवकूफी। सिस्टम में गड़बड़ी नहीं है। हम लोग गड़बड़ हो गए हैं। हम लोग मतलब, ऑपरेटर। एक-डेढ़ महीने में ही मनमोहन सरकार से लोगों का मोहभंग होने लगा है। किस आधार पर इतनी बड़ी आशा थी? कोई ऐसा विश्लेषण नहीं जो उनके लिए इस्तेमाल हुआ हो। वे योग्य व्यक्ति हैं। हमारे मित्र हैं। हमारे 75वें जन्मदिन पर अटल बिहारी वाजपेयी आए थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण में कहा कि चंद्रशेखर हमसे इस्तीफा माँगते हैं। फिर उन्होंने गुजरात का प्रसंग छेड़ दिया। मुझे भी मौका मिल गया। मैंने अटल बिहारी वाजपेयी से कहा कि कभी-कभी तो मन में आता है कि आपसे इस्तीफा माँगूँ। लेकिन आपके बाद जो सरकार आएगी, वह और भी बुरी होगी। आडवाणी भी बैठे थे। लोगों ने सोचा, मेरा इशारा आडवानी की तरफ है। मेरे दिमाग में सोनिया गांधी ही थीं। हम सेकुलरिज्म से प्रभावित होने वाले नहीं हैं। जो सेकुलरिज्म हमारे मित्र विश्वनाथ प्रताप सिंह, सोमनाथ चटर्जी और मधु दंडवते को प्रभावित करता है, उसका कोई मतलब नहीं है।"

राम बहादुर राय ने चंद्रशेखर से पूछा कि क्या आप मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी में आपसी राजनीतिक समझदारी थी? इसके जवाब में उन्होंने कहा, "जब तक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, हमसे छुपाकर कुछ भी करें, अटल बिहारी और सोनिया गांधी एक थे और आज भी सोनिया गांधी और अटल बिहारी एक हैं। सोनिया गांधी कभी इस हैसियत में तो नहीं रहीं कि अटल बिहारी वाजपेयी को डरा सकें, मगर जब सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी से कुछ कहा, उन्होंने उपकृत करने की पूरी कोशिश की और आज अटल बिहारी वाजपेयी की मर्जी के खिलाफ सोनिया गांधी नहीं जा सकतीं। पॉलिसी के स्तर पर तो दोनों एक ही हैं। कभी कोई अंतर नहीं रहा। पॉलिसी के लिहाज से दोनों अमेरिका के साथ हैं। देश में कोई ऐसी घटना नहीं जिसकी खबर हमें न हो। अगर कोई बात या गतिविधि होती है तो उसी सरकार का कोई आदमी हमें बता देता है। एक घटना सुनाता हूँ। एक बार सीताराम केसरी मेरे पास पहुँचे। कहने लगे, लोग आपकी बहुत शिकायत करते हैं। हमने पूछा कि कौन लोग कह रहे थे? उन्होंने नाम बताने से इनकार कर दिया। फिर मैंने कहा कि तुम नहीं बताओगे तो मैं ही बता देता हूँ। मैंने केसरी से कहा कि परसों तुम और तुम्हारे साथ दो आदमी बैठे थे। दो मिनट तो वह चुप बैठा रहा, फिर उठकर चला गया। दो दिन के बाद आया और पूछने लगा, आपसे किसने कहा? हमने केसरी से कहा कि जाकर इंदिरा गांधी से कह दो कि अगर अकेले में बात करती हैं तो समझ में आती है। लेकिन दो आदमी हैं तो उसमें एक आदमी हमारा है। वस्तुतः यह देश निष्कपट लोगों का देश है। घपला करने वाले ऊपर के कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि देश वे लोग चला रहे हैं।" राय साहब का प्रश्न था कि 14वीं लोकसभा में कई लोग हार गए, लेकिन तुरंत राज्यसभा में पहुँच गए। इसको आप किस रूप में देखते हैं? इसका उत्तर चंद्रशेखर ने इस तरह दिया है, "शायद उन्हें लगता हो कि उनके बिना देश नहीं चल सकता? वैसे यह कोई नई बात नहीं है। 1984 में बहुत लोग हार गए। बाद में राज्यसभा में पहुँच गए। मैं भी चुनाव हार गया था। एक सज्जन ने मुझसे कहा कि आप भी राज्यसभा में आ जाइए और हम भी आते हैं। हमने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा कि आप ही राज्यसभा में जाएँगे क्योंकि आपके बिना देश नहीं चल सकता। राजनीति में कोई व्यक्ति अपरिहार्य नहीं होता। कोई मर ही गया तो क्या हो जाएगा? यह तो मान ही लें कि हारना एक 'पॉलिटिकल डेथ' नहीं है।"

'चंद्रशेखर : रहबरी के सवाल' की भूमिका में प्रभाष जोशी ने लिखा था, "राम बहादुर राय ने चंद्रशेखर से सवाल पूछ-पूछकर यह किताब बना दी। इसी भूमिका में उन्होंने यह भी लिखा था कि सवालों के जरिए पुस्तकमाला की इसे पहली किताब होनी चाहिए।" राम बहादुर राय ने पुस्तकमाला की पहली किताब चंद्रशेखर पर तैयार की तो पुस्तकमाला की दूसरी पुस्तक विश्वनाथ प्रताप सिंह पर। रामबहादुर राय की प्रश्नोत्तर शैली में 'विश्वनाथ प्रताप सिंह : मंजिल से ज्यादा सफर' किताब 536 पृष्ठों की है। राजकमल प्रकाशन से वह 2006 में आई थी। पहले अध्याय में वीपी के बनने, दूसरे में उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी राजनीति, तीसरे में कदम दिल्ली की ओर, चौथे में राज्य की कमान, पाँचवें में व्यापार की राजनीति, छठे में दुष्टदलनी वित्त मंत्री, सातवें में पहला बवंडर, आठवें में मोर्चा दर मोर्चा, नौवें में लुटियन के टीले पर, दसवें में फिर मैदान में और ग्यारहवें अध्याय में मुद्दे की बात पर राम बहादुर राय ने वीपी सिंह से बातचीत दर्ज की है। हर अध्याय का परिचय टीप के रूप में दिया गया है। इस किताब में भी वीपी सिंह से कई रोचक संवाद है। उदाहरण के लिए राम बहादुर राय ने वीपी सिंह से पूछा कि वे अपनी छवि को अधिक सचेत रहते हैं तो श्री सिंह का जवाब था, "देखिए छवि की कमजोरी व्यक्ति की अंतिम कमजोरी है। मतलब कि अर्थ की कामना हो न हो, यश की कामना तो व्यक्ति में रहती है। यश की कमजोरी से छुटकारा साधु बनने पर भी संभव नहीं है। मैं साधुपन के उस स्तर पर नहीं पहुँच पाया हूँ। पूर्वजों का यह संदेश है कि बच्चा, तुम दुनिया में नाम करो। वे यह कहाँ कहते हैं कि अपने मुँह पर कालिख पोतकर चलो।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, कांग्रेस में क्या जाति आधारित गुटबाजी का चलन था? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "पूरी तरह जातिवादी गुट नहीं बने हुए थे। एक हद तक ही उन्हें जातिवादी गुट कहा जा सकता है। कुछ नेता हर जाति में अपना प्रभाव रखते थे। हेमवती नंदन बहुगुणा उन्हीं नेताओं में थे। कमलापति त्रिपाठी के इर्द गिर्द ब्राह्मण अधिक होते थे। लेकिन पं. कमलापति त्रिपाठी को जातिवादी नहीं कहा जा सकता। जाति की तरफ उनका झुकाव था लेकिन हेमवती नंदन बहुगुणा में वह भी नहीं था।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, जाति से परे जाकर देखें तो कांग्रेस में जो टकराव उस समय थे, उनकी जड़ें कहाँ-कहाँ थीं? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "एक टकराव आर्थिक माना जा सकता है। उत्तर प्रदेश में आजादी की लड़ाई में ब्राह्मणों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। उनके पास जमीन जायदाद कम थी। वह राजपूतों के पास थी। ज्यादातर जमींदार राजपूत थे। रियासतें भी उन्हीं के पास थी। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण रियासतें सिर्फ दो ही रही हैं। जमींदारों की दिलचस्पी आजादी की लड़ाई में कम थी। उनको अपनी जमींदारी चले जाने का खतरा दिखता था। कांग्रेस में यह तबका बाद में आया। लेकिन साधारण राजपूत तो शुरू से ही कांग्रेस में थे। ऐसे ही आजादी की लड़ाई में दलितों की प्रमुख भूमिका थी। कांग्रेस में जो सामाजिक ध्रुवीकरण बना था उसमें ब्राह्मण और दलित एक साथ थे। दलित और किसान की हिमायत में ब्राह्मण खड़े होते थे। इस कारण कांग्रेस के नेतृत्व समूह में ब्राह्मणों की प्रमुखता थी। उस समय जाति का बोलबाला वैसा नहीं था, वह बाद में आया।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के जनाधार खिसकने के खास कारण आप क्या देखते हैं? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था। दूसरे वर्ग दलित और मुस्लिम भी थे। जब स्वाभाविक नेतृत्व स्थापित हो जाता है तो वह चलता रहता है। उनका नए समूहों से कई बार टकराव भी होता है। नेतृत्व यह समझ नहीं पाता कि नए समूहों को किस तरह जगह दें और उनको कैसे शामिल करें। यही कठिनाई कांग्रेस की भी थी। जो जनाधार कांग्रेस का था उसे वापस लाने में कामयाब नहीं हो सके। राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, "पहले फेयर फैक्स, फिर पनडुब्बी और उसके बाद बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का सवाल उठा। उसकी जाँच की माँग कैसे उठी?" इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "अखबारों में दस्तावेज आदि छपने लगे। उस समय जाँच की माँग उठी। उसी समय छपा कि अजिताभ बच्चन का स्विट्जरलैंड में बंगला है। वे एक टूरिस्ट के रूप में वहाँ गए थे। फिर बंगला कैसे खरीद लिया? उस समय फेरा सख्ती से लागू होता था।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, क्या इसे आपने कहीं उठाया? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, मैं उस समय कांग्रेस में था। संसदीय पार्टी की बैठकों में जाता था। वहाँ इसे उठाया। मैंने कहा कि प्रधानमंत्री जी आपने कहा है कि सच्चाई सामने लाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। कृपया इस सच्चाई का पता करिए। इसकी जाँच होनी चाहिए। अगर यह सही नहीं है तो उस अखबार के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि जाँच करवाएँगे। राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, राजीव गांधी से सीधी भेंट उस समय आपकी कहाँ हुई? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "उन्होंने दो बार बुलाया। उन्होंने मुझसे पूछा कि यह क्या हो रहा है? उनके सवाल में यह छिपा हुआ था कि मैं विपक्ष से हाथ मिला रहा हूँ। मैंने कहा कि यह बातचीत राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप में हो रही है। इस भ्रम में मत रहिए कि हमारी बातचीत प्रधानमंत्री और मंत्री के बीच हो रही है। सीधी बात है कि अगर आप यह महसूस करते हैं कि मैं आपके साथ राजनीतिक खेल, खेल रहा हूँ तो इस बातचीत का कोई फायदा नहीं है। ऐसे ही अगर मेरे मन में यह है कि आप मेरे साथ राजनीति कर रहे हैं तो इस बातचीत से हम कहीं नहीं पहुँचेंगे। हममें यह विश्वास और भरोसा होना चाहिए कि राजनीति आड़े नहीं आएगी। अगली बात यह है कि केके तिवारी और कल्पनाथ राय मुझे सीआईए एजेंट कहते हैं। मैं जानता हूँ कि ये लोग लाउडस्पीकर हैं। माइक इस कमरे में लगा है जहाँ हम हैं। यहाँ से जो बोला जाता है वही लाउडस्पीकर पर बाहर सुनाई पड़ता है। उनकी हिम्मत कहाँ है कि वे मुझे सीआईए एजेंट कहें।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, राजीव गांधी ने क्या सफाई दी? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "उन्होंने कहा कि पार्टी आपसे बहुत नाराज है। वे लोग भी नाराज हैं। इसलिए बोल रहे हैं। मैं इनसे कहूँगा कि कम बोलें। मैंने उनसे कहा कि वे दस गाली दे रहे थे, अब दो गाली देंगे। कोई भ्रम न रहे इसलिए साफ-साफ कहा कि जो लोग गाली दे रहे हैं वे मेरी देशभक्ति पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं। जब देशप्रेम का सवाल आता है और जब भी आता है तो लोग जान की बाजी लगा देते हैं। अपना सिर कटा देते हैं और मैं भी अपनी देशभक्ति के लिए अंतिम दम तक ऐड़ी जमा कर लड़ूँगा।" राय साहब ने वीपी सिंह से पूछा, इस पर उन्होंने क्या कहा? इसके जवाब में श्री सिंह ने कहा, "राजीव गांधी ने कहा कि मैं इन लोगों को समझाऊँगा। मैंने उनसे कहा कि देखिए आपकी माँ के साथ काम करते हुए कांग्रेस नामक मशीन को हमने चलाया है। इसका एक-एक, नट-बोल्ट हम जानते हैं। मेरे जैसे सेकेंड रैंकर लोगों ने हेमवती नंदन बहुगुणा को भगा दिया क्योंकि वे यह चाहती थीं। वे नहीं बोलीं। हम लोगों ने ही यह काम किया।" विश्वनाथ प्रताप सिंह मंजिल से ज्यादा सफर की भूमिका में प्रभाष जोशी ने लिखा था, इस सफरनामे (किताब) में जो विश्वनाथ प्रताप सिंह निकलकर आते हैं, मैं दावा नहीं कर सकता कि उन्हें जानता था। किताब के छपते ही जब विवाद हुआ तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बयान दिया, "श्री राम बहादुर राय द्वारा लिखी गई पुस्तक मंजिल से ज्यादा सफर में जो कुछ मैंने कहा है, इतिहास के सामने साक्षी के रूप में कहा है, और उसके हर अक्षर की मैं पुष्टि करता हूँ।"

बातचीत के जरिए राजनीतिक जीवनी लिखने के दो सफल प्रयोग करने के बाद राम बहादुर राय ने जीवनी की पारंपरिक शैली में जीवतराम भगवानदास कृपलानी की जीवनी लिखी। 'शाश्वत विद्रोही राजनेता आचार्य जे.बी. कृपलानी' शीर्षक वह जीवनी नेशनल बुक ट्रस्ट से 2013 में आई थी। 339 पृष्ठों की वह किताब 36 अध्यायों में बँटी है। पहले अध्याय का शीर्षक है - बचपन। दूसरे का बेमन की पढ़ाई, तीसरे का एक पत्रिका ने जगाई अंतःचेतना। चौथे अध्याय में इतिहास पुरुष से पहली मुलाकात का विवरण है। शांतिनिकेतन में 1915 में गांधी से कृपलानी की पहली भेंट हुई। वहाँ गांधी की जिस बात ने कृपलानी पर अपनी छाप छोड़ी, वह यह थी कि एक हफ्ते में उन्होंने शांतिनिकेतन को बदल दिया। वहाँ लोग स्वयं की प्रेरणा से अपने काम करने लगे। पहले से ज्यादा सफाई रहने लगी और स्वावलंबन का परिवेश बना। शांतिनिकेतन में जे.बी. कृपलानी ने गांधी को खुला प्रस्ताव दिया कि वे भारत में दक्षिण अफ्रीका की तर्ज पर अगर कुछ करते हैं तो उसमें एक सहयोगी के रूप में उन्हें भी मानें। उसका अवसर 1917 में आया। तब जे.बी. कृपलानी मुजफ्फरपुर में प्रोफेसर थे। गांधी का तार आया कि वे ट्रेन से मुजफ्फरपुर पहुँच रहे हैं। पचीस छात्रों के साथ कृपलानी स्टेशन पहुँचे। 'कृपलानी के घर गांधी' शीर्षक अध्याय में राम बहादुर राय लिखते हैं, आधी रात को ट्रेन आई और छात्र व्याकुल होकर गांधी को खोजते रहे लेकिन वे कहीं नजर नहीं आए। वह तो गांधी की प्रत्युत्पन्नमति थी कि वे उन छात्रों को पहचान सके जो व्याकुल होकर प्लेटफार्म पर दौड़ रहे थे। गांधी जी का आरती कर छात्रों ने स्वागत किया। गांधी जी के ठहरने की व्यवस्था प्रो. एन.आर. मलकानी के यहाँ हुई। किताब बताती है कि सौ साल पहले गांधीजी ने चंपारन की यात्रा किस तरह की थी और जे.बी. कृपलानी कैसे उसी दौरान उनके निकट संपर्क में आए। वर्ष 1919-1920 में कृपलानी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी रहे और गांधीजी के असहयोग आंदोलन के समय वहाँ से हट गए। असहयोग आंदोलन आंरभ होने पर विद्यालयों का बहिष्कार करने वाले छात्रों के लिए गांधीजी की प्रेरणा से कई प्रदेशों में विद्यापीठ स्थापित हुए। जे.बी. कृपलानी 1920 से 1927 तक गुजरात विद्यापीठ के प्राचार्य रहे। 1927 के बाद आचार्य कृपलानी का जीवन पूर्ण रूप से स्वाधीनता संग्राम और गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में ही बीता। उन्होंने खादी और ग्राम उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए उत्तर प्रदेश में गांधी आश्रम की स्थापना भी की। हरिजनों के उद्धार के लिए गांधीजी की देशव्यापी यात्रा में वे बराबर उनके साथ रहे और इस दिशा में निरंतर अपने प्रयत्न जारी रखे। देश और समाज सेवा की उनकी निःस्वार्थ भावना ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया। वे 1935 से 1945 तक कांग्रेस के महासचिव रहे। वर्ष 1946 की मेरठ कांग्रेस के वे अध्यक्ष चुने गए थे। कई प्रश्नों पर पंडित जवाहरलाल नेहरू से मतभेद हो जाने कारण उन्होंने अध्यक्षता छोड़ दी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाकर विपक्ष में चले गए। किताब के एक अध्याय का शीर्षक है - विपक्ष की अगुवाई। एक अध्याय का शीर्षक है संसदीय जीवन। किताब के मुख्य भाग का अंतिम अध्याय है - महाप्रयाण। इसके अलावा परिशिष्ट में छह अध्याय हैं जिनमें राजनीति संबंधी अत्यंत मूल्यवान सामग्री है।

स्वातंत्र्योतर भारत में राजनीतिक व्यक्तियों पर जितना अध्ययन-अनुशीलन राम बहादुर राय ने किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं। राम बहादुर राय ने 'लोक नायक का नैतिक लोकतंत्र' पुस्तक में 37 पृष्ठों का लेख लिखा है : जेपी को जानिए। वह लेख जेपी की संक्षिप्त जीवनी है। राय साहब ने उसमें जेपी के जीवन संग्राम को विलक्षण ढंग से समेटा है। राय साहब ने लेख के आरंभ में ही लिखा है, "भारत के राजनीतिक आकाश पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण ध्रुवतारे की तरह बने रहेंगे। उनका राजनीतिक जीवन असाधारण था। वह अनेक अर्थों में लीक से हटकर था। लोग राजनीति में उतरते हैं और सत्ता की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। जयप्रकाश नारायण ने इस नियम को तोड़ा। वे अपनी जिंदगी के अंतिम क्षण तक राजनीति में रहे, लेकिन सत्ता को ठुकराया। वे चाहते तो सत्ता के शिखर पर आसानी से पहुँच जाते। कहना यह चाहिए कि सत्ता का शिखर उनको निमंत्रण दे-देकर थक गया। सत्ता रूपी अप्सरा उनको रिझा नहीं पाई। इन मायनों में वे अक्षत योगी और तपस्वी बने रहे।"

जिस गहरी संलग्नता और तन्मयता से राम बहादुर राय राजनीतिक व्यक्तियों पर लिखते हैं, उतनी ही तन्मयता से संस्कृति पुरुषों पर भी। 'नामवर सिंह सफर 90 साल का' पुस्तक में राम बहादुर राय लिखते हैं, "प्रोफेसर, साहित्यकार और समालोचक अनेक हुए हैं। भविष्य में भी होते रहेंगे। लेकिन नामवर सिंह अनूठे हैं। ऐसा महिमापूर्ण नाम खोजने पर भी अपने आस-पास कई दशकों में नहीं मिलता। वे एक के नहीं हैं, सबके हैं।" इसी टिप्पणी में राय साहब यह भी लिखते हैं, "देश का कोई विश्वविद्यालय नहीं है जहाँ उनकी शिष्य परंपरा का प्रवाह न बहता हो। इस अर्थ में वे एक राष्ट्रीय पुरुष हैं। लेकिन विश्वविद्यालय की चारदीवारी ऐसी ऊँचाई को प्राप्त नहीं है कि उन्हें अपने भीतर समा सके। वे उससे परे हैं। राजनीति का कोई भी रंग ऐसा नहीं है, जहाँ नामवर सिंह की सुगंध महसूस न की जा सके।" इसी तरह साहित्यकार कृष्णबिहारी मिश्र के बारे में राम बहादुर राय लिखते हैं, "वास्तव में कृष्णबिहारी मिश्र के लेखन में भारतवर्ष की शुचिता और नैतिक बोध प्रकट हुआ है। ऐसी दृष्टि भारतीय दर्शन की उदात्त भूमि से ही निर्मित होती है, जिसे संत तुकाराम, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, विनोबा भावे सरीखे महापुरुषों ने निर्मित करने में योगदान दिया है। इन नामों का उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि कृष्णबिहारी मिश्र ने अपनी लेखनी से इन प्रज्ञा पुरुषों का आकलन किया है। उनकी पुस्तक 'न मेधया' जो 'मांडूकक्योपनिषद' के मंत्र का एक भाग है जिसमें उपनिषदकार कहते हैं कि आत्मा न प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से प्राप्त होती है। बल्कि वह उस प्रज्ञा पुरुष को प्राप्त होती है जो उसका वरण करता है। तर्क और अर्थ से उपजी विश्व सभ्यता के सामने छाए संकट के समाधान का एक सूत्र उन्होंने इस मंत्र में खोजा है - "बुद्धि के तर्क-वितर्क से नहीं, हृदय से प्रवृत्त होने से ही समाधान संभव है।" साधना की इसी उच्चतर भाव भूमि पर कृष्णबिहारी मिश्र ने 'कल्पतरु की उत्सव लीला' नामक प्रसिद्ध पुस्तक का प्रणयन किया है। एक योगी की तरह समाधि की भाव दशा में उन्होंने इस पुस्तक की रचना की है। इसकी शैली एकालाप की नाटकीय शैली है। यानी पाठकों के सामने लेखक के रूप में नेपथ्य में जाकर उन्होंने रामकृष्ण परमहंस को बोलने दिया है।"

इसी टिप्पणी में राय साहब लिखते हैं, "कृष्णबिहारी मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य हैं। यह संयोग ही है कि दोनों के बीच कुछ अद्भुत समानताएँ मिलती हैं। बंगाल की शस्य श्यामला धरती ने दोनों रचनाकारों की सांस्कृतिक चेतना को गढ़ा था। एक का मन रवींद्रनाथ के भाव लोक में रमा, तो दूसरे का ठाकुर रामकृष्ण की कल्पतरु साधना में। कृष्णबिहारी मिश्र के युगांतरकारी रचनाशील व्यक्तित्व के निर्माण में हजारी प्रसाद द्विवेदी के अलावा आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, नंद दुलारे वाजपेयी, शांतिप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, चंद्रबली पांडेय, विद्यानिवास मिश्र जैसे शीर्षस्थ साहित्यकारों का योगदान रहा है। इसी तरह कृष्णबिहारी मिश्र का बलिया, कोलकाता, बनारस और सागर जैसे शहरों से अतरंग रिश्ता रहा है। वह अपने संस्मरणात्मक निबंधों में ख्यातिलब्ध चरित्रों की सुधि लेने के साथ-साथ इन शहरों के जीवन चित्र को भी उकेरते चलते हैं। वे एक बहुआयामी रचनाकार हैं। उनकी छह दशकों की समस्त सारस्वत साधना की तीन श्रेणियाँ बनाई जा सकती हैं। पहली श्रेणी है आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चिंतन की, दूसरी श्रेणी है उनके लालित्यपूर्ण निबंधों की। और तीसरी श्रेणी पत्रकारिता के अध्ययन की। इन सब के केंद्र में है अध्यापकीय वाग्मिता, जो उनकी आलोचनात्मकता और सृजनात्मकता के भी सेतु का काम करती है। सभ्यता और संस्कृति के चिंतन के रूप में कृष्णबिहारी मिश्र एक लोकचेतस मनीषी के रूप में उभरते हैं। संस्कृत की पांडित्य परंपरा के साथ-साथ लोक कंठ भी समानांतर रूप से उनमें उपस्थित है। वे अपने निबंधों में इस बात पर बल देते हैं कि कपड़े, बाहरी साज-सज्जा, भौतिक उपकरण, आधुनिकता के लक्षण नहीं हैं। वह भोग है। उनका भदेस मन उन "खास जिंदगी" को जीने वालों से बार-बार यह सवाल खड़ा करता है कि इस जिंदगी की कीमत क्या इतनी अधिक है जिसे अपने मूल्यों को तिलांजलि देकर चुकाया जाए? आखिरकार संस्कृति हमारी पहचान है और इस पहचान को निरंतर श्रम से अर्जित किया जाता है। उनके संस्कृति मूलक निबंधों में इसी पहचान को निखारने की प्रयत्न-साधना फलीभूत होती है।"

राम बहादुर राय को जीवनी लिखने में ही महारथ नहीं हासिल है, बल्कि जीवनी लिखवाने में भी महारथ हासिल है। राम बहादुर राय के निर्देशन में तैयार हुई रामाशंकर कुशवाहा की किताब 'लोक का प्रभाष' इसका प्रमाण है। यह शोधपरक जीवनी राजकमल से पिछले साल आई। प्रभाष जोशी के जीवन की यह कहानी उनके समय की भी कहानी है और समकालीन पत्रकारिता की भी कहानी है। समकालीन पत्रकारिता पर ही नहीं, पेड न्यूज जैसी पत्रकारिता की एक घातक प्रवृत्ति पर भी राय साहब की नजर रही है। पेड न्यूज पर ही केंद्रित है राम बहादुर राय की संपादित किताब 'काली खबरों की कहानी'। भारतीय प्रेस परिषद ने पेड न्यूज पर जो उप समिति बनाई थी, परंजय गुहाठाकुरता उसके अध्यक्ष थे। किताब का उप शीर्षक है - रिपोर्ट जो दबा दी गई। प्रेस परिषद की पेड न्यूज पर जो रिपोर्ट दबा दी गई, उसे राय साहब ने रे माधव से छपी इस किताब में प्रकाशित किया। उसका भाष्य भी किया। भाष्यकार के रूप में राय साहब अनूठे हैं। उनके भाष्य में अकाट्य तर्क और विचार होते हैं। उदाहरण के लिए 'यथावत' पत्रिका में समाचार एजेंसी की जरूरत पर लिखते हुए वे तर्क देते हैं कि उसकी जरूरत हर परिस्थिति में इसलिए बनी रहेगी, क्योंकि प्रामाणिक खबरों की ललक सबको रहती ही है। 'यथावत' में उनका कालम कहत कबीर छपता है। उसमें वे कभी नए रिवाज बनाते वेंकैया नायडू पर तो कभी राहुल गांधी की दोमुँही राजनीति पर तो कभी अन्ना हजारे के भ्रम पर तो कभी संविधान के साथ धोखाधड़ी पर तो कभी नदी बचाने की पहल पर तो कभी गांधी के 150वें वर्ष को बड़ा अवसर बनाने की संभावना पर। उनके यहाँ विषयों का बंधन नहीं है। 'यथावत' के पहले वे 'प्रथम प्रवक्ता' में जब सलाहकार संपादक थे तो वहाँ उनके स्तंभ का नाम यथावत था। 'प्रथम प्रवक्ता' में उन्होंने विजय दत्त श्रीधर की किताब भारतीय पत्रकारिता कोश के दोनों खंडों पर दो अंकों में तीक्षण समीक्षात्मक आलेख लिखे। उसमें उन्होंने लिखा था, "हिंदी में भारतीय पत्रकारिता का यह पहला संदर्भ ग्रंथ है। इसे पत्रकारिता का पुराण भी माना जा सकता है।" इसी तरह की उनकी अनेक टिप्पणियाँ पाठकों को अब भी याद हैं। जैसे बोफोर्स भंडाफोड़ हुआ तो सीबीआई के छापे मारने की खबर राय साहब ने ही 'जनसत्ता' में ब्रेक की थी। डीडीए द्वारा बिना नींव के बनाए गए 193 मकान की खबर भी उन्होंने ही ब्रेक की थी। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चेयरमैन के मारे जाने की खबर राय साहब ने ही सबसे पहले 'जनसत्ता' में दी थी। इसी तरह सहारनपुर दंगे पर 'नवभारत टाइम्स' में राय साहब की बाटम स्टोरी छपी थी जिसमें बताया गया था कि हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर कैसे गाँव में दंगा रोका। 'नवभारत टाइम्स' में विश्वनाथ प्रताप सिंह के अभियान पर कई खबरें राय साहब ने ही ब्रेक की। राय साहब की रचनात्मक सक्रियता हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों में अक्सर दिखती है। बेलाग टिप्पणी लिखने में राय साहब का कोई जवाब नहीं।

गाजीपुर के सोनाड़ी गाँव में 4 फरवरी 1946 को जन्मे राम बहादुर राय का बचपन मालदह में पिता के साथ रहते हुए बीता। उनकी पाँचवीं तक पढ़ाई मालदह में ही हुई। छठवीं से दसवीं गाजीपुर में हुई। सीपीआई नेता सरजू पांडे 1957 में गाजीपुर संसदीय सीट व विधानसभा के चुनाव में खड़े हुए तो उनका स्कूली छात्र राम बहादुर राय ने चुनाव प्रचार किया। राम बहादुर राय ग्यारहवीं में पढ़ने के लिए बनारस गए। इंटर करने के दौरान ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बीए, एमए और ला करने के दौरान विद्यार्थी परिषद के संगठन को मजबूत करने में लगे रहे। 1965 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदू शब्द हटाने के विरोध में राम बहादुर राय ने जोरदार आंदोलन चलाया। 1971 में वीसी कालूलाल श्रीमाली के खिलाफ आंदोलन छेड़ने पर 46 छात्र नेता निष्कासित कर दिए गए। निष्कासन वापसी की शर्त माफी माँगनी रखी गई। 44 नेताओं ने माफी माँग ली किंतु दो ने नहीं माँगी। उन दो में एक राम बहादुर राय थे, दूसरे मार्कंडेय सिंह। तब राम बहादुर राय अर्थशास्त्र में बीएचयू में पीएच.डी. कर रहे थे। राय साहब वर्धा जाकर विनोबा से मिले किंतु कोई लाभ न हुआ। शोध का काम अधर में लटक गया। 1971 में बनारस में जेपी के एक भाषण से प्रेरित होकर रामबहादुर राय पूर्वी बंगाल गए और वहाँ से लौटकर मुक्ति संग्राम का आँखों देखा हाल 'आज' अखबार के 5 मई 1971 के अंक में लिखा। उन दिनों बनारस में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सभा रखी गई। छात्र संघों पर रोक के खिलाफ विद्यार्थी परिषद ने उन्हें काला झंडा दिखाने का फैसला किया। इंदिरा जी की सभा में मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह भी आए थे। रामबहादुर राय ने काला झंडा दिखाया। गिरफ्तार किए गए। राम बाहदुर राय को विद्यार्थी परिषद का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया। बिहार में संगठन को मजबूत बनाने का दायित्व उन्हें दिया गया। राय साहब ने पूरे बिहार में घूम-घूम कर विद्यार्थी परिषद का संगठन खड़ा किया। एक वर्ष की कड़ी मेहनत रंग लाई। पटना छात्र संघ का चुनाव हुआ। लालू प्रसाद अध्यक्ष, सुशील मोदी महासचिव और रविशंकर प्रसाद सचिव चुने गए। 1974 में छात्र संघर्ष समिति बनी। विधानसभा घेराव का कार्यक्रम बना। राय साहब गिरफ्तार किए गए। मीसा में वह पहली गिरफ्तारी थी। दस महीने जेल में रहे। इमरजेंसी में भी राय साहब गिरफ्तार कर लिए गए और 16 महीने जेल में रहे। जेल से छूटे तो सक्रिय राजनीति के बजाय पत्रकारिता का चयन किया। उन्होंने 1979 में हिंदुस्तान समाचार एजेंसी से पत्रकारिता प्रारंभ की। 1983 में दिल्ली से 'जनसत्ता' शुरू हुआ तो उसके स्थापना काल से ही राम बहादुर राय जुड़ गए। सालभर बाद ही उन्हें चीफ रिपोर्टर बना दिया गया। उन्हीं दिनों राजेंद्र माथुर 'नवभारत टाइम्स' के संपादक बनकर दिल्ली आ गए थे। वे राय साहब को अपने यहाँ बुलाते रहे। 1986 में राय साहब 'नवभारत टाइम्स' में विशेष संवाददाता बनकर चले गए। राय साहब को प्रभाष जोशी बहुत मानते थे। इसलिए उनसे कहते रहते - 'जनसत्ता' में लौट आओ। तुम्हारा अखबार 'जनसत्ता' है। 1991 में राय साहब 'जनसत्ता' में लौट आए। 1994-95 तक 'जनसत्ता' के व्यूरो चीफ रहे। 1995 से 2004 तक वे 'जनसत्ता' के संपादक (समाचार सेवा) रहे। राय साहब ने अपनी समूची पत्रकारिता एक फकीर की तरह की। 'जनसत्ता' में संपादक समाचार सेवा रहते हुए राय साहब अपने पीए मनोहर को अपनी कुर्सी पर बैठा देते और खुद उसकी कुर्सी पर बैठकर उससे अपना लेख टाइप करने के लिए डिक्टेशन देते। राय साहब के साथ प्रभाष जी अक्सर कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए जाते थे और आपसी बातचीत में दोनों महाशय इतने खो जाते कि ट्रेन या हवाई जहाज छूट जाता। राय साहब को भाजपा ने लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए दो-दो बार प्रस्ताव दिया किंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया। उन्हें राज्यसभा में भी भेजने की पेशकश की गई, उसे भी उन्होंने ठुकरा दिया - संतन को कहा सीकरी सों काम।


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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ