रवि हुआ अस्त!
उन्नीस फरवरी की रात हिंदी समाज के लिए एक भारी और सचमुच काली रात थी। उस रात
ने हमसे हिंदी स्वाभिमान के एक आदमकद प्रतीक प्रोफेसर नामवर सिंह को सदा-सदा
के लिए छीन लिया। अब नामवर जी किसी को भी सशरीर नहीं मिलेंगे लेकिन नहीं भूलना
चाहिए कि वे सिर्फ काया नहीं बल्कि विचारों और स्वप्नों से भरी काया थे। वे
मनुष्यधर्मी विचारों के रूप में हजारों साल तक इस सृष्टि में बने और बसे
रहेंगे।
नामवर जी सही अर्थों में पूर्णकाम थे। उन्होंने समूचे समाज को अपना परिवार
माना था और अचेत होने से ठीक पहले तक उसी विस्तृत परिवार के कल्याण हेतु
सक्रिय और प्रतिबद्ध रहे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ने 'उर्वशी' में पुरुरवा के
लिए जो कहा था, वह नामवर जी के लिए भी कहा जा सकता है -
मर्त्य मानव की विजय का तुर्य हूँ मैं
उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
निःसंदेह नामवर जी हमारे समय के सूर्य थे। वे एक ऐसा सूर्य थे जो किसी ग्रहण
से कभी भयभीत नहीं हुआ। उसकी गरीबी भी ऐसी गर्वीली थी कि अब नई पीढ़ी को शायद
यकीन न आए। क्या कोई इस कदर भी स्वाभिमानी हो सकता है!
लेकिन नामवर जी तो ऐसे ही थे। वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्होंने नामवर सिंह को
देखा है। वे और भाग्यशाली हैं जिन्होंने उन्हें सुना है लेकिन उनके भाग्य का
क्या कहना जिन्होंने उनसे पढ़ा है और उनकी छाँव में खुद को गढ़ा है।
अध्यापन की आकाशधर्मिता
नामवर जी ने अध्यापन की एक सुदीर्घ यात्रा संपन्न की थी। काशी हिंदू
विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय - इन विश्वविद्यालयों को अपनी कर्मभूमि बनाकर उन्होंने अध्यापन
के जो प्रतिमान गढ़े, वे साहित्य में गढ़े गए उनके प्रतिमानों से किसी भी रूप
में उन्नीस नहीं हैं। उन्हें स्मरण करते हुए सबसे पहले वे पाठ्यक्रम याद आते
हैं जिन्होंने हिंदी विभागों के पाठ्यक्रमों का चरित्र ही बदल दिया। उनका
मानना था कि साहित्य के विद्यार्थियों को पुराने के साथ नया भी पढ़ना चाहिए।
इसके बिना चित्त का विस्तार और विरेचन संभव नहीं है। जब वे जोधपुर में थे,
उन्होंने राही मासूम रज़ा के उपन्यास 'आधा गाँव' को पाठ्यक्रम में लगाया था।
उनकी दृष्टि में वह उपन्यास विद्यार्थियों को अवश्य पढ़ना चाहिए था। विभाजन की
मार्मिकता और भारतीय समाज की संश्लिष्ट बुनावट को समझने के लिए वह उपन्यास एक
मार्गदर्शक की तरह है। लेकिन पाठ्यक्रम में लगते ही उस उपन्यास पर बवाल छिड़
गया। हिंदी समाज विभाजित हो गया। विरोधियों के कई तर्क थे जिनमें एक भाषा में
अश्लीलता का तर्क भी था। 'आधा गाँव' को पाठ्यक्रम से हटाना पड़ा। ऐसी स्थिति
में कोई दूसरा होता तो हार जाता लेकिन नामवर जी ने पाठ्यक्रमों में नवोन्मेष
की अपनी जिद को कायम रखा।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का परिवेश अन्य विश्वविद्यालयों से अलग है।
बिलकुल आरंभ से। इस विश्वविद्यालय में शिक्षकों के पास प्रयोग के असीमित अवसर
होते हैं। नामवर जी ने इस उदार और सही अर्थों में अग्रगामी परिवेश का जो उपयोग
किया वह पूरे भारत के विश्वविद्यालयों के लिए आदर्श हो सकता है। उन्होंने और
प्रो मुहम्मद हसन साहब ने मिलकर हिंदी और उर्दू के सम्मिलित विभाग को समावेशी
बनाया। भारतीय भाषा केंद्र नाम को सार्थक करता हुआ यह केंद्र आज के कई
महत्वपूर्ण बुद्धजीवियों की निर्माण स्थली बना। अब इस केंद्र में कुछ अन्य
भारतीय भाषाएँ भी जुड़ गई हैं। इस केंद्र की सबसे अनोखी बात यह थी कि हिंदी के
विद्यार्थियों को एक वर्ष उर्दू और उर्दू के विद्यार्थियों को एक वर्ष हिंदी
पढ़ना अनिवार्य था। समाज और राजनीति ने हिंदी और उर्दू के दो मुहल्ले बना दिए
हैं। इन मुहल्लों को एक करना संभव न था लेकिन इनमें आवाजाही तो संभव ही थी।
नामवर जी ने इस आत्मीय आवाजाही को संभव बनाने की सफल कोशिश की। यह उनकी दृष्टि
में भारतीयता का विस्तार था। एक ऐसे समय में जब भारतीयता के कई पाठ मौजूद हैं,
तब उनके इस कार्य का महत्व बहुत बढ़ जाता है।
नामवर सिंह को ठीक से न जानने वाले अक्सर यह दुष्प्रचार करते पाए जाते हैं कि
उन्होंने जे.एम.यू. में सिर्फ समकालीन साहित्य को ही पाठ्यक्रम का हिस्सा
बनाया। जबकि सत्य इसके बिलकुल उलट है। नामवर जी के समय में जे.एम.यू. में जो
पाठ्यक्रम बने थे, वे हर दृष्टि से मुकम्मल थे। नामवर जी स्वयं संस्कृत
काव्यशास्त्र पढ़ाते थे और सारे संदर्भ मूल ग्रंथों से देते थे। उनके जैसे
अध्यापक पिछली सदी में बहुत थोड़े हुए होंगे। इस सदी में होंगे, कहना मुश्किल
है। वे एक आदर्श शिक्षक थे। उन्होंने कभी कक्षाएँ नहीं छोड़ीं। किसी विद्यार्थी
को असंतुष्ट नहीं छोड़ा। हर कक्षा में पुनर्नवा रहे और पुनर्नवा किया।
आलोचना का सर्वथा नया विश्व
प्रोफेसर नामवर सिंह को बाबा नागार्जुन महामुनि कहते थे। क्यों कहते थे,
ठीक-ठीक नहीं जानता पर अनुमान लगा सकता हूँ। शायद नामवर जी की मेधा और विपुल
ज्ञान को देखते हुए ही उन्होंने ऐसा कहा होगा। नामवर जी ने अपनी मेधा और
तैयारी का परिचय एम.ए. के दिनों में ही दे दिया था। जिस उम्र में लोग दूसरों
की किताबों के सहारे किनारा पाने की कोशिश करते हैं, उसी उम्र में नामवर जी ने
सौ अंक के एक पर्चे के लिए अपभ्रंश पर जो लघु शोध-प्रबंध जमा किया, अब कई लोग
उस पर स्वंत्रत ग्रंथ लिख चुके हैं। परिमल के लोगों से बहस करते हुए उन्होंने
जो निबंध लिखे, उनका महत्व अब भी बना हुआ है। आलोचक बनने का स्वप्न देखने वाले
युवाओं और युवतियों को 'इतिहास और आलोचना' के निबंधों को किंचित अधिक गंभीरता
से पढ़ना चाहिए।
हिंदी में जब नई कहानी का दौर आया तो उसके सबसे विश्वसनीय आलोचक नामवर सिंह ही
हुए। उन्होंने निर्मल वर्मा की कहानी 'परिंदे' को नई कहानी की पहली कहानी
मानते हुए उसकी जो व्याख्या की, साठ वर्ष बाद भी उसकी तार्किकता और तरलता नए
से नए अध्येता को न सिर्फ आकर्षित करती है बल्कि बहुत कुछ सिखाती भी है। नई
कहानी की प्रतिभाशाली तिकड़ी के सदस्य जीवन भर नामवर जी की इस स्थापना से
संतप्त रहे। निर्मल जी ने जब अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि में आमूल-चूल
परिवर्तन कर लिया तब भी नामवर जी ने अपनी स्थापना में कोई परिवर्तन नहीं किया।
लोगों ने नामवर जी से कहा भी लेकिन उन्होंने मुस्कुराकर टाल दिया। हाँ, विष्णु
प्रभाकर के विषय में अपने लिखे पर उन्होंने अपना एक पछतावा जरूर व्यक्त किया
था। दिल्ली के हिंदी भवन में विष्णु जी पर बोलते हुए वे भावुक हो गए थे।
उन्होंने 'कहानी नयी कहानी' में संकलित विष्णु प्रभाकर की कहानी पर केंद्रित
अपने आलेख को अतिवादी दृष्टिकोण का परिणाम बताया था। इसी प्रकार अज्ञेय के
प्रति भी उनका दृष्टिकोण बदला था। बाद के दिनों में उन्होंने अज्ञेय को निराला
के बाद हिंदी का सबसे बड़ा कवि माना था। अभी पिछले दिनों नागपुर विश्वविद्यालय
के एक आयोजन में अज्ञेय साहित्य के मर्मज्ञ नंदकिशोर आचार्य ने नामवर जी को
याद करते हुए कहा कि अज्ञेय पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण शोधकार्य नामवर जी के
निर्देशन में ही हुए हैं। जे.एन.यू. का विद्यार्थी होने के नाते मैं भी इस
तथ्य से परिचित हूँ। महादेवी वर्मा के प्रति भी उन्होंने अपने विचारों में
पर्याप्त परिवर्तन किया। हालाँकि अपनी पूर्व पुस्तको में उन्होंने कोई
परिवर्तन नहीं किया। उनके व्याख्यानों में बाद के तथ्य सुरक्षित हैं।
उनकी पुस्तक' छायावाद' ने छायावाद को देखने की सर्वथा नई दृष्टि दी। एक तरह से
उन्होंने छायावाद की महान कविता को रहस्यवाद के बादलों से मुक्त किया। यह भी
स्मरणीय है कि यह उन्होंने उस समय किया जब छायावाद के आलोचक द्वय डॉ नंद
दुलारे वाजपेयी और डॉ नगेंद्र अपने उरूज पर थे। यह भी कि उन्हें एम.ए.
उत्तीर्ण किए बहुत दिन न हुए थे। आज आधी सदी बाद यह कहते हुए किसी को हिचक
नहीं है कि विद्वता और सहृदयता का जो रसायन नामवर जी के व्यक्तित्व में था, वह
उनके किसी समकालीन या परवर्ती में नहीं है।
निजी और सार्वजनिक संसार
नामवर जी से लगभग असहमत रहने वाले अशोक वाजपेयी ने एकाधिक बार यह स्वीकार किया
है कि उन्होंने नामवर जी के कारण ही आलोचना लिखनी शुरू की थी। ऐसी ईमानदार
स्वीकारोक्ति वाले सैकड़ों अन्य भी हैं जिनके लेखन को नामवर जी ने दिशा दी या
प्रभावित किया। उनके निंदकों की भी एक बड़ी जमात रही जो कि शिखर पर आसीन
व्यक्ति के संदर्भ में स्वाभाविक है। लेकिन शिखर का एक सत्य अकेलापन भी है।
नामवर जी शिखर पर अकेले और अकेलेपन के साथ रहे। उनके आसपास की भीड़ ने उनके
अकेलेपन को कितना कम किया, कहना मुश्किल है। उनके अंतिम वर्षों में उनके पुत्र
विजय जी ने, जो स्वयं सत्तर पार के हैं, उनकी बड़ी सेवा की।
नामवर जी के साथ मुझे भी कई यात्राओं का सुयोग मिला। उनके सानिध्य में बैठते
ही दुनिया जहान के दरवाजे खुल जाते थे। उनके पास हमेशा विश्व साहित्य की कोई
नई किताब होती थी। चिंतन के विश्व में नया क्या हो रहा है, उसे गहराई से जानने
की ललक उनमें हमेशा रही। उनके मन में परंपरा के प्रति गहरा सम्मान था। वे
परंपरा में शामिल मूर्खताओं और चालाकियों के आलोचक थे। भक्ति साहित्य उनके
चित्त के बहुत करीब था। वे हिंदी के पहले ऐसे आलोचक थे जिसे अखिल भारतीय
स्वीकृति मिली हुई थी। दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग भी नामवर जी को सुनने की
लालसा रखते थे। अब नामवर जी नहीं हैं लेकिन हैं भी.... बस देखने की दिशा बदलनी
होगी। केदार जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
जाऊँगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बदल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊँगा उनके संग।
नामवर जी थे, हैं और रहेंगे। बस उनसे मिलने का तरीका बदल जाएगा।