एक मिथक के आधार पर यह कहा जाता है कि शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैर की जगह
से अर्थात शरीर के निचले स्थान से हुआ है। अतः यह सामाजिक रूप से निचले स्थान
के भागी हैं। जहाँ एक तरफ मिथकों ने दलितों की वर्तमान स्थिति के लिए
पृष्ठभूमि को तैयार किया वहीं उनका वर्तमान यथार्थ उन मिथकों से ज्यादा
कष्टप्रद रहा। अपने इसी अपमानित जीवन को दलितों ने अपने संघर्ष का सबसे बड़ा
हथियार बनाया। जहाँ इनकी यथार्थ स्थितियाँ बहुत दयनीय है वहीं दूसरी तरफ इस
वर्ग के प्रति उपजी वैचारिकता इस आंदोलन को नई ऊर्जा प्रदान करती है। यह
आंदोलन इस वर्ग को न केवल सामाजिक रूप से दृढ़ करता है बल्कि साहित्यिक व
सांस्कृतिक रूप से भी दृढ़ता प्रदान करता है। इसके वैचारिकी का प्रभाव जब
साहित्य पर पड़ता है तो वह कथित तौर पर शिष्ट साहित्य के सामने उसके शिष्टता पर
प्रश्न खड़ा करता है कि क्या वह सही मायने शिष्ट साहित्य है। इस शिष्टता के
विरोधस्वरूप ही वह अपने नए सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण खोज लेता है और अपनी
व्यथा, करुणा, अपमानित स्थितियों को ही उत्सवधर्मिता में परिवर्तित कर लेता
है। यही कारण है कि उसके शिक्षा कि शुरुवात किसी उपनयन संस्कार से नहीं बल्कि
चिट्ठी पढ़ने की आवश्यकता को लेकर होती है, क्योंकि ब्राह्मण उनकी चिट्ठियों को
या तो पढ़ते नहीं थे या पढ़ते वक्त बहुत अपमानित करते थे। 'मुर्दहिया' के परिसर
में जीने वाले तुलसीराम जैसों की शिक्षा की शुरुवात वहाँ इसी तरह हो जाया करती
थी।
दलित आत्मकथाओं में 'मुर्दहिया' का अपना विशिष्ट स्थान है। इसका कारण यह है कि
यह अपने आप में 'लोकेल' होते हुए भी एक बड़े वितान की रचना करती है जिसमें दलित
समाज तो है ही, उसके साथ-साथ सवर्ण समाज भी है। गांधी-नेहरू भी हैं,
रूस-चीन-जापान भी, मार्क्स-बुद्ध-अंबेडकर हैं, माँ-दादी; माँ - नटिनिया है तो
वहीं राम चरन यादव - सुग्रीव सिंह - सनवारी राम जैसे लोग हैं। इतने सब कुछ के
होते हुए भी 'मुर्दहिया' की केंद्रीयता महत्वपूर्ण है। 'मुर्दहिया' धरमपुर के
दलितों की 'बहुद्देशीय कर्मस्थली' हैं। जहाँ मुर्दों को जलाया या दफनाया जाता।
मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालना, दलितों के पशुओं का चारागाह, इनके खेल का
मैदान आदि बहुत कुछ होता है। यह इस बात को द्योतित करता है कि समाज ने इस वर्ग
की यही नियति ही बना दी है। शहर भी जाने के लिए दलितों को 'मुर्दहिया' का ही
रास्ता चुनना पड़ता है। तुलसीराम जब घर छोड़कर भागते हैं तो भी यहीं से होकर
गुजरते हैं। दलित वर्ग ने कभी भी इसे अपने लिए मजबूरी नहीं बनने दिया बल्कि
इसे अपने जीवन और संस्कृति का अभिन्न अंग बना लिया। जो 'मुर्दहिया' लोगों के
जीवन को संपूर्ण रूप में नष्ट कर देती है वही इनके लिए जीवन जीने के सरोकारों
से संबंध स्थापित करती है। तुलसीराम स्वयं अपने सारे सुख-दुख को 'मुर्दहिया'
से जोड़कर देखते है। यह उनके दुख का कारण भी है और निवारण भी। लोग इसी के कारण
दुखित भी होते है और यही उनकी प्रसन्नता का एक मात्र कारण भी है। "चाहे जो भी
हो, उन दारुण दिनों में भी ग्रामीण जीवन के हर अंग में व्याप्त संगीतीय ध्वनि,
चाहे वह उस हिंगुहारे या पटहारेया चूड़िहारे की हो या फिर उन जोगी बाबाओं की
सारंगी या तुकबंदियों की या कि उस तुरमची बंकिया डोम के युद्धोन्मादी सिंघे
की, इन सबके सहारे हँसते हुए दरिद्रता की धज्जियाँ उड़ाने में हमें बड़ी राहत की
अनुभूति होती थी।" इसको पढ़ते हुए और इसके कारण-निवारण से संघर्ष करते हुए जो
चित्र हमारे सामने उभरकर आता है, उसकी कल्पना उस समाज से इतर के लोग कर भी
नहीं सकते हैं। डाँगर की बात से लेकर चमड़ा निकालने या फिर स्वयं लेखक की
शिक्षा प्रक्रिया के दृश्य हमें एक ऐसी ऐतिहासिकता का बोध कराते हैं जो कि
हमारी आम बात-चीत, किस्से-कहानियों व साहित्य के कभी भी हिस्से नहीं रहे। यह
वर्ग हमेशा से समाज व साहित्य दोनों में अपने हिस्सेदारी को लेकर संघर्षरत रहा
जिसका परिणाम 'मुर्दहिया' जैसी रचना के रूप में परिलक्षित होता है।
दलित संघर्ष की जमीन में शिक्षा महत्वपूर्ण कारक है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति
जहाँ खुद की स्थितियों से दूसरों की स्थितियों को तुलनात्मक रूप में देख सकता
है वहीं वह एक दूरगामी विजन को भी तैयार कर सकता है। 'मुर्दहिया' के अंतर्गत
यह प्रमुख कारक के रूप में उद्घाटित हुआ है। पूरा अंबेडकरवाद इसी शिक्षा और
संघर्ष की नीति का अनुसरण करता है। मार्क्स-बुद्ध-अंबेडकर तथा अन्य और भी
विचारक जिन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए प्रयास किया उन सभी का समेकित प्रभाव
हमें तुलसीराम पर दिखाई पड़ता है। यदि वे कहीं भी विजय प्राप्त करते हैं तो
अपनी शिक्षा के द्वारा ही, वह चाहे चिट्ठी पढ़ने का मामला हो, बारात में
प्रश्नोत्तरी हो या फिर हाईस्कूल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हो जाने
वाले उद्धरण हो। परंतु सामाजिक विडंबना की नियति के परिणामस्वरूप तुलसीराम
प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक में अपना लोहा मनवा लेने के बाद भी 'चमरा' ही
रह जाते है। अध्यापकों, सहपाठियों, गाँव वालों और यहाँ तक कि सगे-संबंधियों
में भी वे 'कनवा और चमरा' के संबोधन से निजात पाते नहीं दिखते। विद्यालय में
पानी पीने जैसी मूलभूत आवश्यकता के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था। "हम अँजुरी
मुँह से लगाए झुके रहते, और वे बहुत ऊपर से चबूतरे पर खड़े-खड़े पानी गिराते। वे
पानी बहुत कम पिलाते थे किंतु सर पर गिराते ज्यादा थे जिससे हम बुरी तरह भीग
जाते थे। ...पानी पीना वास्तव में एक विकट समस्या थी।" यह एक प्रकार की
सामाजिक कुंठा ही थी जिसको तुलसीराम को झेलना पड़ता था। एक वर्ग को यह कतई गले
से नहीं उतरता था कि एक दलित वर्ग का विद्यार्थी उनसे आगे निकल जाए। जिस कारण
से वे उसे 'पागल' घोषित करने पर लग गए और इसका अनुसरण सामंती मानसिकता के बोझ
तले स्वयं दलित वर्ग भी करता रहा। इन कारकों के बाद भी शिक्षा ही एक ऐसा
पर्याय थी जो लगातार तुलसीराम को मजबूती प्रदान किए जा रही थी। इस संबंध में
एक महत्वपूर्ण उद्धरण है कि जब पाँचवी की परीक्षा के लिए गाँव से दूर दूसरे
केंद्र पर जाना पड़ा तो वहाँ परीक्षा के ठीक पहले पोखरे में नहाने की घटना
जिसमें तुलसीराम को अपशब्द का प्रयोग करते हुए नहाने से मना कर दिया जाता है
और इससे उनकी मनःस्थिति विचलित हो जाती है। यह घटना इस बात को दर्शाती है कि
परीक्षा के पहले जो समान्यतः दबाव होता है और उसके बाद एक दलित के साथ हुए
व्यवहार का परीक्षा पर क्या परिणाम पड़ सकता है। इस घटना से हम दलितों के
शिक्षा में सहभागिता के विमर्श को भली-भाँति समझ सकते है, जिसको लेकर खुद
तुलसीराम कहते हैं "वैसी दुर्घटनाएँ बदले की भावना से नहीं बल्कि वैचारिक
चेतना से ही रोकी जा सकती है।" इसी प्रकार की घटना हाईस्कूल की परीक्षा के समय
होती है जिसमें कुछ सवर्ण उनको परीक्षा में न बैठने की धमकी देते हैं। शैक्षिक
परिसर में हो रहे व्यवहार के कई दृष्टांत 'मुर्दहिया' में समाहित हैं।
प्राइमरी की शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक इसका व्यवहार जातिगत और धर्मगत ही
होता रहा है। दलित वर्ग के विद्यार्थी को शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसे बहुत
सारे उपक्रम करने पड़ते हैं जिससे उसके शिक्षा प्राप्ति का कोई सरोकार नहीं है।
शिक्षा एक ऐसी ताकत है जो व्यक्ति की समझ को संपूर्णता प्रदान करती है।
तुलसीराम इसी प्रकार की वैचारिक शिक्षा के पक्षधर हैं। उनके इस आख्यान से
व्यवहारिक शिक्षा और शिक्षा के बाद उसके प्रयोग के बारे में पता चलता है।
बीच-बीच में बुद्ध से संबंधित उद्धरणों का आना इसी बात का घोतक है।
'मुर्दहिया' का लोक सबसे प्रभावकारी रहा है। तुलसीराम ने लोक को जीने में कोई
कसर नहीं छोड़ी। लोक का ऐसा चित्रण हमें प्रेमचंद के गाँव में भी देखने को नहीं
मिलता है। 'मुर्दहिया' का परिसर पूर्वी उत्तरप्रदेश की जमीनी हकीकत बयान करता
है, जिसमें उसकी संस्कृति और समाज विशेष रूप से समाहित है। इसमें मछली, सब्जी,
फूल आदि के दस-दस नाम बड़ी आसानी से देखे जा सकते है। ताल, झाड़-झंखाड़, कुएँ,
पोखरे आदि के दृश्य हमें बरबस गाँव के चित्रों का दर्शन करा देते हैं। लोक में
घटने वाली लगभग सभी घटनाओं का चित्रण हमें इसमें दिखाई पड़ता है। नृत्य,
गीत-संगीत, विवाह, मृत्यु-शोक आदि इससे संबंधित बहुत सी प्रवृत्तियाँ इसमें
देखने को मिलती है। तुलसीराम ने लोक की अवधारणा को बहुत ही स्पष्ट तरीके से
रचा है जिसमें ऐसे बहुत सारे विमर्श भी शामिल हैं जो लोक से संबंध रखते है।
यथा - लोक क्या है और किसके लिए है? सामान्य लोक और दलित परिवेश के लोक में
क्या अंतर है? वे यह बताते है कि लोक की बहुत सारी प्रवृत्तियाँ और शैलियाँ
दलितों-पिछड़ों के द्वारा बनाई गई और वही उसके रक्षक भी रहे। लोक एक ऐसा पर्याय
था जिसमें लोग शामिल होकर अपने दुख, नीरसता, अपमान और अवहेलना को भूल जाते थे।
वह लोक की ही प्रवृत्ति थी जिसमें 'सूअर-भात' का प्रचलन था, जिससे
उत्सवधर्मिता बनी रहती थी। यह अलग बात है कि 'सूअर-भात' का आयोजन नकारात्मक
प्रभाव के कारण किया जाता था। वहीं दूसरी तरफ तुलसीराम ने यह भी बताया कि दलित
लोक कैसा है व वह उसे कैसे जीता है? संघर्ष की स्थिति में दलितों का लोक ही
उनके लिए सकारात्मक कारक के रूप में दिखाई पड़ता है। यह चाहे उनके उत्सव हों,
देवी-देवता हों या खान-पान हो। यह उनका लोक ही था कि जब ब्राह्मणों से झगड़ा
होता तो उनके घर की स्त्रियाँ मरे हुए पशुओं की हड्डियाँ लेकर लड़ाई करती और
अशुद्ध होने के डर से ब्राह्मण पीछे हट जाते और इनकी विजय हो जाती। इसमें
वर्णित लोक जो एक नए सौंदर्यशास्त्र की रचना करता है जिसमें वे सारी चीजें
हमें सकारात्मक लगने लगती है जो सामान्यतः घृणित बताई गई हैं। इस लोक को रचने
में तुलसीराम ने लोक के शब्दों का प्रयोग बड़ी मात्रा में किया हैं। यथा -
भरूका, जोन्हरी, भहराकर, भोपू,चिखना आदि-आदि। इसमें चित्रित नटिनिया, बांकिया
डोम, बाईसकोप वाला, मदारी, हिंगुआरा, कपड़हारा, चूड़िहारा, पटहारा, जोगी बाबा,
पग्गल बाबा, दादी माँ आदि ऐसे लोक चरित्र हैं जो जीवन की संकटग्रस्तता के बाद
भी जीवन को भरपूर जीते है।
''मुर्दहिया'' एक पूरा समाज है, वह समाज जिसमें दो वर्गो के बीच की स्थितियाँ
बड़े ही स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है। जहाँ एक तरफ सवर्णों की संपन्नता है
जिसमें सोने, चाँदी, 22 जोड़े बैल, कई बीघे खेत, घोड़े हैं हाथियाँ हैं, तो वहीं
दलितों के पास मटर की फुनगी है, सत्तू है, लाटा है, डाँगर है और ठंडियों में
सोने के लिए पुवाल है। "वे दिन आज भी याद आते है तो मुझे लगता है कि मुर्दों
सा लेटे हुए हमारे नीचे पुवाल, ऊपर भी पुवाल और बीच में कफन ओढ़े हम सो नहीं
बल्कि रात भर अपनी-अपनी चिताओं के जलने का इंतजार कर रहे हैं।" 'मुर्दहिया' के
समाज का एक अन्य पहलू उसका सामंती होना भी है। यह समाज भी सामंती प्रवृत्तियों
से ओत-प्रोत था जिसका व्यवहार स्वयं तुलसीराम को झेलना पड़ता था। 22 गाँव के
चौधरी के रूप में तुलसीराम के चाचा और नग्गर चाचा का प्रकरण इस रूप में प्रमुख
है। जात-कुजात की प्रक्रिया इस समाज में भी शामिल थी। स्वयं को श्रेष्ठ मानना
और दूसरों के प्रति हीन दृष्टि रखना इस समाज में भी था। परंतु यह अकारण नहीं
था, इसके पीछे सवर्ण मानसिकता का अनुसरण करना था जो कि तत्कालीन समाज में
श्रेष्ठता का एकमात्र पैमाना था। लेकिन उसके बाद भी उसी समाज में मुन्नर चाचा,
सोनई और दढ़ियल जैदी चाचा जैसे लोग भी रहते थे। जिनकी तुलसीराम स्वयं के बनने
में महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में देखते हैं।
'मुर्दहिया' के तुलसीराम ने अपने 'अदने' स्वरूप को लेकर हमेशा प्रभावित किया
है। चाहे वह साहित्यकार के रूप में हो या फिर उस 'अदने' से बालक के रूप में जो
'कनवा' होते हुए भी दूरगामी स्थितियों को बहुत ही स्पष्ट रूप में देखता है। यह
आत्मकथा केवल एक साहित्यिक विधा न होते हुए रिपोर्ताज भी है, सूचनाओं का
दस्तावेजीकरण भी है और किस्सागो की प्रक्रिया बहुत ही स्पष्ट रूप में देखी जा
सकती है। अपनी संपूर्णता में 'मुर्दहिया' रुलाती है, चिरविलीन भी करती है और
उससे भी आगे एक स्थायी सुख या संतोष भी प्रदान करती है, जिससे जीवन को बेहतर
बनाने की प्रेरणा मिलती है। 'मुर्दहिया' केवल जीवन के अंत हो जाने का ही
द्योतक नहीं है बल्कि यह जीवन को इस समाज में संघर्ष के द्वारा बेहतर बनाने का
प्लेटफार्म है जहाँ से होकर सभी को गुजरना है।