hindisamay head


अ+ अ-

कविता

सागर स्नान

सुरेन्द्र स्निग्ध


एक

जाइए भाई, जाइए
सागर की लहरों को छू आइए एक बार
स्पर्श कर आइए एक बार
उसकी उमंगों की कोर
हम रोज-रोज तो आएँगे नहीं
लहरों के इतने पास

प्यारे भाई, देखिए,
वो देखिए
समुद्र के गर्भ से
फूटने ही वाला है मायावी शिशु
वो देखिए देखिए, एक अपूर्व दृश्य
कितना बड़ा लाल गुब्बारा
हवाओं के धागों के संग
धीरे-धीरे उठने लगा है ऊपर
ऊपर
धीरे-धीरे
और भी ऊपर (देखा न, मायावी
शिशु का कमाल
क्षण-क्षण कैसे बदल रहा है रूप! )
सागर की उत्ताल तरंगों पर
बिछ गई है विशाल लाल चादर
पुरी के इस विशाल
विस्तृत नीले अछोर तट तक

प्यारे भाई,
जल्दी-जल्दी छू आइए
लाल चादर की छोर
मायावी शिशु समेटने ही वाला है अपना खेल
माया का अबूझ जाल!

दो

आप आ गए नहाकर
आइए आ जाइए जरा नजदीक
और भी नजदीक
छू लूँ आपकी गीली देह
महसूस कर लूँ
सागर की विषाल लहरों की
अनगिन उमंगें
कोशिश करूँ
समझने को रहस्य/
भेदने को मायावी संसार

माफ कीजिएगा
सागर के खारे पानी ने
आपको थोड़ा और भी नमकीन बना दिया है
बहुत जरूरी है भाई, नमक
हमारे, आपके, उनके सबके जीवन के लिए।
सागर की लहरों की थाप को
झेला है आपने!
इसके संगीत को भर लिया है कंठ में?

और,
आकाश में उठे हुए लाल गुब्बारे
के धागे को
किसने तोड़ दिया है भाई? आपने?
नहीं-नहीं
लड़कियाँ बोल रही हैं साथ की,
ध्यान से सुनिए -
धागा तो स्निग्धजी ने ही तोड़ा है!

मजा आ गया
आ गया न मजा
सागर में नहाकर!


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में सुरेन्द्र स्निग्ध की रचनाएँ