साहित्य और भाषा का संबंध अटूट है। एक अच्छे साहित्य के निर्माण में भाषा की
महती भूमिका होती है। चाहे वह कलापक्ष के रूप में हो या विचार पक्ष के रूप
में। हम प्रारंभ से ही देखते आ रहे हैं कि हिंदी पत्रकारिता अपनी भाषाई
अस्मिता के प्रति हमेशा से सजग रही है। यदि हम गौर करें तो भारतेंदु काल में
ही साहित्य-सृजन के साथ ही भाषा की समस्या अत्यंत जटिल थी। इस दौर में ऐसे कई
आंदोलन हुए जिसमें उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने खुलकर भाग लिया। एक प्रकार से
कहें तो हिंदी पत्रकारिता ने हिंदी भाषा के विकास एवं उसकी अस्मिता से जुड़े
सवालों को समय-समय पर उठाने की पूरी कोशिश की है। डॉ. रमेश चंद्र त्रिपाठी के
शब्दों में कहें तो - ''साहित्य अभिरुचि तभी विकसित होती है जब लेखक सरल
शब्दों में अपने मानस की अनुभूतियों को सरल व सुस्पष्ट' भाषा में कहे, इसके
साथ ही यह भी आवश्यक है कि पाठक की संवदेना में लेखक द्वारा कहा गया सब कुछ
समा जाए। तात्पर्य यह है कि लेखक और पाठक दोनों के बीच संबंध बना रहे। यह तभी
संभव हो सकता है जब लेखक के पास प्रेषणीय क्षमता हो और पाठक के पास ग्राह्यिका
शक्ति।''
निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि 'कल्पना' पत्रिका ने अपने दौर में इन चीजों
को प्रमुखता दी है। 'कल्पना' का उद्भव ही भारतीय संस्कृति और साहित्य के
साथ-साथ हिंदी भाषा के विकास एवं आंदोलन के रूप में हुआ है। इस पत्रिका के
लगभग हर अंकों में कहीं न कहीं स्तंभ या कॉलम के रूप में हिंदी भाषा के विकास
को लेकर निरंतर चर्चाएँ होती रही हैं। 'कल्पना' की यह खास खूबी रही कि इसने न
सिर्फ भाषाई सवाल उठाए बल्कि भाषा के विकास के साथ-साथ साहित्य को भी एक गति
प्रदान की। इसने न सिर्फ भाषा को सरल, सुगम और सुबोध बनाया बल्कि पूर्णतः
व्याकरण अनुशासित करने का भी पुरजोर प्रयास किया। हिंदी भाषा की समृद्धि में
इस दौर की जितनी भी पत्रिकाएँ रही हैं उसमें 'कल्पना' का स्थान अग्रगण्य रहा
है। भाषा और व्याकरण के नियमों के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि कोई भी
जीवंत भाषा सतत प्रवाहमान रहती है और वह नए-नए शब्दों से स्वयं को समृद्ध करती
है। इस तरह की पूरी निरंतरता 'कल्पना' में आद्यांत बनी रही है। 'कल्पना' ने
जहाँ साहित्यिक अभिरुचि को प्रोत्साहित किया, नवचेतना का विकास किया वहीं
शिल्पगत क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है।
'कल्पना' के अप्रैल, 1950 की संपादकीय को देखने से हमें यह पता चल जाता है कि
इस पत्रिका का ध्यान न सिर्फ साहित्य का विकास करना था बल्कि उसका उससे कहीं
ज्यादा जोर व्याकरण एवं भाषा की शुद्धता पर भी रहा है - ''हिंदी के व्याकरण
हिंदी शब्दों के रूपों और उनके हिज्जों, वाक्य-रचना आदि से संबंधित बीसियों
बातें ऐसी हैं - जिनके विषय में अभी तक मतभेद अथवा संदेह बना हुआ है। विचारशील
लेखक और विद्वान समय-समय पर इस संबंध में लिखते रहे हैं और हिंदी के स्वरूप को
स्थिरता देने की चेष्टा करते रहे हैं, किंतु जैसी स्थिरता एवं नियमितता एक
सुविकसित भाषा में होनी चाहिए, वैसी हिंदी में अभी तक नहीं आ सकी है। इसका
कारण जो भी रहा हो, हिंदी को एक सुनिश्चित, व्यवस्थित रूप देने की आवश्यकता
अब, हिंदी के राष्ट्र भाषा स्वीकृत कर लिए जाने के बाद, पहले से कहीं अधिक बढ़
गई है। अब तक हिंदी केवल प्रांतीय भाषा थी, उसके स्वरूप को स्थिर करना या न
करना हिंदी भाषियों का अपना मामला, अपना धंधा था। किंतु अब हिंदी पूरे राष्ट्र
की चीज है, उसका स्वरूप क्या है? क्या नहीं? इससे अहिंदी भाषियों को भी उतना
ही प्रयोजन है, जितना हिंदी भाषियों को।''
एक प्रकार से देखें तो 'कल्पना' का हिंदी भाषा के प्रति रवैया हमेशा प्रगतिशील
ही रहा है। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ उसके सही-सही मूल्यांकन के
प्रति 'कल्पना' ने साहित्यकारों एवं पाठकों को हमेशा सजग करने की कोशिश की है।
अप्रैल 1952 का संपादकीय 'हिंदी के प्रति सही दृष्टिकोण की आवश्यकता' को देखें
तो यह बात और अधिक पुष्ट हो जाती है - ''हिंदी के प्रति हमारी नवविकसित चेतना
का तदुपयोग तभी हो सकेगा, जब हम हिंदी के प्रति अपना सही दृष्टिकोण बना
सकेंगे। यहाँ सही दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य हिंदी के संबंध में उस
राष्ट्रव्यापी सर्वमान्य विकार-रहित धारणा से है, जिसके द्वारा हिंदी और हिंदी
का व्यवहार करने वाले हम सभी के साथ उचित न्याय तथा राष्ट्र का योग्य मानसिक
विकास हो सके।''
इस लेख के अंत में निवेदन भी किया गया है कि - ''हिंदी भाषी हो, चाहे अहिंदी
भाषी, उत्तर भारतीय हो, चाहे दक्षिण भारतीय, नेता हो चाहे, जनता, साहित्यकार
हो, चाहे साहित्य प्रेमी हिंदी के सही मूल्यांकन के लिए सभी के दृष्टिकोण में
अब आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता है।''
इस प्रकार हम देखते हैं कि 'कल्पना' अपने पूरे दौर में हिंदी भाषा और उसके
सवालों को लेकर हमेशा जूझती रही है, इतना ही नहीं उसके इस प्रयास में उसे
अधिकाधिक सफलता भी मिली है। 'कल्पना' के तीसरे अंक के संपादकीय में भी हिंदी
के स्तर को ऊँचा उठाने की बात की गई है। इसमें मुख्य रूप से विभक्तियों को
अलग-अलग करने या एक ही में लिखने की लंबी बहस छिड़ी। 'कल्पना' का रुझान
विभक्तियों को अलग-अलग रखना ही रहा है। 'रामने', 'जलसे', 'डरने' आदि शब्दों का
उदाहरण प्रस्तुत करते हुए 'कल्पना' ने यह तर्क दिया कि इस तरह के शब्दों को
सीखने समझने में अहिंदी भाषी लोगों को असुविधा होगी इसलिए हम इसे जितना सरलता
से प्रस्तुत कर सकें, करें जिससे उतना ही अधिक सरलता से इसे गैर हिंदी प्रदेश
के लोग भी समझ सकें। 'कल्पना' पत्रिका की यह विशेषता रही है कि इसमें भाषा को
लेकर निरंतर कोई न कोई आंदोलन का रूप बना रहा है। चाहे वह व्याकरण को लेकर हो,
वर्तनी को लेकर या फिर भाषा से जुड़े अस्मिता को लेकर। विवेकी राय के शब्दों
में कहें तो - ''इसके प्रत्येक अंकों में सिर्फ संपादकीय ही भाषा से नहीं
जूझता बल्कि भीतर निबंधों में भी इसका सार्थक स्पर्श रहता है। प्रयोग और
वर्तनी आदि के विषय में 'कल्पना' की एक सुदृढ़ नीति रही और भाषा शुद्धता के
आंदोलन को लेकर वह उत्तरोत्तर अग्रसर होती गई। व्याकरण की समस्याओं को
रचनात्मक स्तर पर प्रभावशाली रूप में सामने प्रस्तुत करने की दिशा में उसका
मूल्यवान योगदान रहा है।''
हम देखते हैं कि स्वतंत्रता की समस्या हल हो जाने के बाद देश के सामने सबसे
बड़ी समस्या भाषा की ही थी इसलिए उस समय आवश्यकता इस बात की थी कि हिंदी को
शीघ्रातिशीघ्र भारतीय हृदय के विविध विचारों को व्यक्त करने में समर्थ बनाया
जाए तथा हिंदी भाषा के स्वरूप को स्थिरता प्रदान की जाए। 'कल्पना' उस दौर में
इस काम को लेकर काफी अग्रसर थी। फरवरी, 1952 में सरस्वती प्रसाद चतुर्वेदी का
एक लेख 'व्याकरण संसोधन' प्रकाशित हुआ जिनमें हिंदी भाषा से जुड़े सवालों,
व्याकरण आदि पर काफी जोर दिया गया। उनके लेख में एक चीज बड़ी प्रमुखता से
सामने आई वह यह है कि - ''भारतीय राष्ट्रभाषा का स्वरूप, भारत की विभिन्न
भाषाओं का मिश्रण होना चाहिए।''
उन्होंने हिंदी भाषा के संबंध में यह लिखा है - ''यहाँ हमें स्पष्ट रूप से समझ
लेना चाहिए कि हिंदी के स्वरूप को स्थिर करने का यह अर्थ नहीं कि हम उसे इस
प्रकार जकड़ दें कि उसका स्वाभाविक विकास ही रुक जाए। संस्कृत भाषा के संबंध
में पाणिनि के अनुयायियों ने यही किया था, इसी से संस्कृत भाषा आगे चलकर
शास्त्र भाषा या शिष्ट भाषा ही रही, जन भाषा नहीं। हिंदी को तो समस्त देश के
निवासियों की व्यवहार भाषा बनना है। अतः उसके विकास का मार्ग खुला रखना
चाहिए।'' उसी दौर में शब्द - रूपों के निश्चितता के संदर्भ में कई सवाल उठे।
हिंदी के कुछ शब्दों को देखा जाए जैसे - 'लिये', 'लिए', 'चाहिये', 'चाहिए',
'अँगुली', उँगली', 'रेडिओ', 'रेडियो' के संदर्भ में, इनकी निश्चितता एवं
स्थायित्व' का सवाल भी उस दौर के प्रमुख प्रश्न थे।
नवंबर 1952 में भाषा एवं व्याकरण से जुड़े सवालों के संदर्भ में श्रीलाल जैन
के आलेख 'हिंदी में दोहरे रूप' को 'कल्पना' ने प्रमुख स्थान दिया। इसमें
उन्होंने उक्त सवालों के संदर्भ में लिखा है - ''हिंदी में क्रियाओं के दोहरे
रूप चलते हैं - आयी-आई, आयेगा-आएगा, गयी-गई, गये-गए, हुये-हुए। इनमें पहले रूप
तो व्याकरण सम्मत हैं... और दूसरा रूप उच्चारण के अनुसार हैं। हिंदी की यह
विशेषता है कि वह उच्चारण के अनुसार लिखी जाती है। इस दृष्टि से शब्दों के
दूसरे रूप हुए - आई, गई, आएगा, गए, हुए जो व्याकरण के पक्षपाती हैं वे पहला
रूप ठीक समझते हैं और जो उच्चारण के अनुयायी हैं वे दूसरा। वास्तव में ध्वनि
प्रधान भाषा में दूसरा रूप ही ठीक है। अत्यधिक प्रचलित होने पर व्याकरण को भी
वह रूप ठीक मानना पड़ेगा, क्योंकि व्याकरण का मुख्य आधार भाषा का लिखित रूप ही
है।''
'कल्पना' ने साहित्य को जितना महत्व दिया है उतना ही भाषा को भी, क्योंकि
बगैर भाषा के निर्माण के बिना साहित्य का विकास असंभव था। इस मायने में
'कल्पना' अपने दौर की अन्य पत्रिकाओं से अलग भी खड़ी होती है। 'कल्पना' के
दूसरे वर्ष 'हिंदी की तात्कालिक आवश्यकताएँ' शीर्षक से टिप्पणी कई-कई महीनों
तक चलती रही। जिसने अपने समय के कई महत्वपूर्ण सवालों से टकराने की कोशिश भी
की। इसमें पाठकों एवं संपादक के बीच एक लंबी बहस भी चली। दिसंबर, 1954 में
हिंदी व्याकरण की समस्या को 'कल्पना' ने गंभीरता से लिया। इस वर्ष
अक्टूबर-नवंबर में भी इन सवालों को उठाया गया। नवंबर, 1957 में 'यह बेचारी
हिंदी' नाम से एक महत्वपूर्ण स्तंभ की शुरुआत हुई, इसके लेखक कात्यायन थे।
इसमें इन्होंने हिंदी व्याकरण, वर्तनी एवं शब्दगत त्रुटियों को लेकर एक लंबी
बहस छेड़ी तथा सुधार एवं सुझाव संबंधित अनेक टिप्पणियाँ भी की। इस स्तंभ ने न
सिर्फ हिंदी भाषा के परिमार्जन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि हिंदी भाषा
के विकास में भी विशेष योगदान दिया। वास्तव में इस पत्रिका ने जिस प्रकार से
भाषा के विकास में अपना योगदान दिया है, वह अविस्मरणीय है।