न त्वंह कामये राज्यं न स्वर्गं नाऽपुनर्भवम् ।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ।।
न मुझे राज्य की कामना है, न ही स्वर्ग और न ही पुनर्जन्म की। मैं तो दु:खसंतप्त प्राणियों की पीड़ा समाप्त करना चाहता हूँ।
हिताय सर्वलोकानां निग्रहाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय प्रणम्य परमेश्वरम् ।।१।।
ग्रामे ग्रामे सभा कार्या ग्रामे ग्रामे कथा शुभा।
पाठशाला मल्लशाला प्रतिपर्व महोत्सव: ।।२।।
परमेश्वर को प्रणाम कर, सब प्राणियों के उपकार के लिए, बुराई करने वालों को दबाने और दण्ड देने के लिए, धर्म संस्थापना के लिए, धर्म के अनुसार संगठन-मिलाप कर गाँव-गाँव में सभा करनी चाहिए। गाँव-गाँव में कथा बिठानी चाहिए। गाँव-गाँव में पाठशाला और अखाड़ा खोलना चाहिए। पर्व-पर्व पर मिल कर महोत्सव मनाना चाहिए ।।1-2।।
अनाथा: विधवा: रक्ष्या: मन्दिराणि तथा च गौ:।
धर्म्यं सङघटनं कृत्वा देयं दानं च तद्धितम् ।। 3।।
सब भाइयों को मिलकर, अनाथों की, विधवाओं की, मंदिरों की और गौ माता की रक्षा करनी चाहिए और इन सब कामों के लिए दान देना चाहिए।।3।।
स्त्रीणां समादर: कार्यो दु:खितेषु दया तथा।
अहिंसका न हन्तव्या आततायी वधार्हण: ।। 4।।
स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए। दु:खियों पर दया करनी चाहिए। उन जीवों को नहीं मारना चाहिए जो किसी पर चोट नहीं करते। मारना उनको चाहिए जो आततायी हों; अर्थात् जो स्त्रियों पर या किसी दूसरे के धन, धर्म या प्राण पर वार करते हों, या जो किसी के घर में आग लगाते हों। यदि ऐसे लोगों को मारे बिना, अपना या दूसरों का धर्म, प्राण या धन न बच सके तो उनको मारना धर्म है।।4।।
अभयं सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं धृति: क्षमा।
सेव्यं सदाऽमृतमिव स्त्रीभिच्श्र पुरूषैस्तथा ।। 5।।
स्त्रियों को भी तथा पुरूषों को भी निडरपन, सच्चाई, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य, धीरज और क्षमा का अमृत के समान सदा सेवन करना चाहिए ।।5।।
कर्मणां फलमस्तीति विस्मर्तव्यं न जातुचित् ।
भवेत्पुन: पुनर्जन्म मोक्षस्तदनुसारत: ।। 6।।
इस बात को कभी न भूलना चाहिए कि भले कर्मों का फल भला और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है और कर्मों के अनुसार ही प्राणी को बार-बार जन्म लेना पड़ता है, या मोक्ष मिलता है ।।6।।
स्मर्तव्य: सततं विष्णु: सर्वभूतेष्ववस्थित:।
एक एवाऽद्वितीयो य: शोकपापहर: शिव: ।। 7।।
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
दैवतं देवतानां च लोकानां योऽव्यय: पिता ।। 8।।
घट-घट में बसने वाले भगवान विष्णु का, सर्वव्यापी ईश्वर की, जिनके समान दूसरा कोई नहीं, जो कि एक ही अद्वितीय हैं; अर्थात् जिनके कारण कोई दूसरा नहीं और जो दु:ख और पाप के हरने वाले शिव स्वरूप हैं, जो सब पवित्र वस्तुओं से अधिक पवित्र, जो सब मंगल कर्मों के मंगल स्वरूप हैं, जो सब देवताओं के देवता हैं और जो समस्त संसार के आदि, सनातन, अजन्मा, अविनाशी पिता हैं, सदा सुमिरन करना चाहिए।।7-8।।
सनातनीया: सामाजा: सिक्खा: जैनाश्च सौगता:।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरता: भावयेयु: परस्परम् ।। 9।।
सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, सिक्ख, जैन और बौद्ध आदि सब हिंदुओं को चाहिए कि अपने-अपने विशेष धर्म का पालन करते हुए एक दूसरे के साथ प्रेम और आदर से बरतें ।।9।।
विश्वासे दृढ़ता स्वीये परनिन्दाविवर्जनम् ।
तितिक्षा मतभेदेषु प्राणिमात्रेषु मित्रता ।। 10।।
अपने विश्वास में दृढ़ता, दूसरे की निंदा का त्याग, मतभेद में (चाहे वह धर्म संबंधी हो या लोक संबंधी) सहनशीलता और प्राणिमात्र से मित्रता रखनी चाहिए ।।10।।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। 11।।
सुनो ! धर्म के सर्वस्व को और सुनकर इनके अनुसार आचरण करो ! जो काम अपने को बुरा या दु:खदायी जान पड़े उसको दूसरे के साथ नहीं करना।।11।।
यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मन: कर्म पूरूष:।
न तत्परस्य कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मन: ।। 12 ।।
मनुष्य को चाहिए कि जिस काम को वह नहीं चाहता है कि कोई दूसरा उसके साथ करे, उस काम को वह भी किसी दूसरे के प्रति न करे, क्योंकि वह जानता है कि यदि उसके साथ कोई ऐसी बात करता है, जो उसको प्रिय नहीं हैं, तो उसकी कैसी पीड़ा पहुँचती है।।12।।
जीवितं य: स्वयं चेच्छेत्कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् ।
यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।। 13 ।।
जो चाहता है कि मैं जीऊँ, वह कैसे दूसरे का प्राण हरने का मन करे? जो-जो बात मनुष्य अपने लिए चाहता है, वही-वही औरों के लिए भी सोचनी है ।।13।।
न कदाचिद् बिभेत्वन्यान्न कत्र्चन बिभीषयेत् ।
आर्यवृत्तिं समालम्ब्य जीवेत्सज्जनजीवनम् ।।14।।
मनुष्य को चाहिए कि न कोई किसी से डरे, न किसी को डर पहुँचाए। श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के अनुसार आर्य अर्थात श्रेष्ठ पुरूषों की वृत्ति में दृढ़ रहते हुए ऐसा जीवन जीवे जैसा सज्जन को जीना चाहिए ।।14।।
सर्वे च सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्र्चिद् दु:खभाग् भवेत् ।।15।।
इत्युक्तलक्षणा प्राणिदु:खध्वंसनतत्परा।
दया बलवतां शोभा न त्याज्या धर्मचारिभि: ।।16।।
हर एक को उचित है कि वह चाहे कि सब लोग सुखी रहें, सब निरोग रहें, सब का भला हो। कोई दु:ख न पावे। प्राणियों के दु:ख को दूर करने में तत्पर यह दया बलवानों की शोभा है। धर्म के अनुसार चलने वालों को कभी इसका त्याग नहीं करना चाहिए।।15-16।।
पारसीयैर्मुसल्मानैरीसाईयैर्यहूदिभि: ।
देशभक्तैर्मिलित्वा च कार्या देशसमुन्नति: ।।17।।
देश की उन्नति के कामों में जो पारसी, मुसलमान, ईसाई, यहूदी देशभक्त हों, उनके साथ मिलकर भी काम करना चाहिए।।17।।
पुण्योऽयं भारतो वर्षो हिन्दुस्थान: प्रकीर्तित:।
वरिष्ठ: सर्वदेशानां धनधर्मसुखप्रद: ।।18।।
यह भारतवर्ष जो हिन्दुस्तान के नाम से प्रसिद्ध है, बड़ा पवित्र देश है। धन, धर्म और सुख का देने वाला यह देश सब देशों से उत्तम है ।।18।।
गायन्ति देवा: किल गीतकानि ,
धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते ,
भवन्ति भूय: पुरूषा: सुरत्वात् ।।19।।
कहते हैं कि देवता लोग यह गीत गाते हैं कि वे लोग धन्य हैं, जिनका जन्म इस भारत-भूमि में होता है। जिसमें जन्म लेकर मनुष्य स्वर्ग का सुख और मोक्ष दोनों को पा सकता है।।१९।।
मातृभूमि: पितृभूमि: कर्मभूमि: सुजन्मनाम् ।
भक्तिमर्हति देशोऽयं सेव्य: प्राणैर्धनैरपि ।।20।।
यह हमारी मातृ-भूमि है, यह हमारी पितृ-भूमि है। जो लोग सुजन्मा हैं, जिनके जीवन बहुत अच्छे हुए हैं: राम, कृष्ण, बुद्ध आदि; महापुरूषों के, आचार्यों के, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के, गुरूओं के, धर्मवीरों के, शूरवीरों के, दानवीरों के, स्वतन्त्रता के प्रेमी देशभक्तों के उज्ज्वल कामों की यह कर्म-भूमि है। इस देश में हमको परम भक्ति करना चाहिए और प्राणों से और धन से भी इसकी सेवा करनी चाहिए।।20।।
चातुर्वर्ण्यं यत्र सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
चत्वार आश्रमा: पुण्याश्चतुर्वर्गस्य साधका:।।21।।
उत्तम: सर्वधर्माणां हिन्दूधर्मोऽयमुच्यते।
रक्ष्य: प्रचारणीयश्च सर्वलोकहितैषिभि:।।22।।
जिस धर्म में परमात्मा ने गुण और कर्म के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-ये चार वर्ण उपजाए और जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरूषार्थों के साधन में सहायक मनुष्य का जीवन पवित्र बनाने वाले ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-ये चार आश्रम स्थापित हैं, सब धर्मों से उत्तम, इसी धर्म को हिन्दू धर्म कहते हैं। जो लोग सारे संसार का उपकार चाहते हैं उनको उचित है कि इस धर्म की रक्षा और इसका प्रचार करें।।21-22।।
सब देवन के देव *
सब देवन के देव प्रभु सब जग के आधार।
दृढ़ राखौ मोंहि धर्म में बिनवौं बारम्बार।।
चन्दा सूरज तुम रचे रचे सकल संसार।
दृढ़ राखौ मोंहि सत्य में बिनवौं बारम्बार।।
घट घट तुम प्रभु एक अज अविनाशी अविकार।
अभय-दान मोंहि दीजिये बिनवौं बारम्बार।।
मेरे मन मन्दिर बसौ करौ ताहि उँजियार।
ज्ञान भक्ति प्रभु दीजिये बिनवौं बारम्बार।।
सत चित आनन्द घन प्रभू सर्व शक्ति आधार।
धनबल जनबल धर्मबल दीजे सुख संसार।।
पतित उधारन दु:ख हरन दीन बन्धु करतार।
हरहु अशुभ शुभ दृढ़ करहु बिनवौं बारम्बार।।
जिमि राखै प्रह्लाद को लै नृसिंह अवतार।
तिमि राखो अशरण शरण बिनवौं बारम्बार।।
पाप दीनता दरिद्रता और दासता पाप।
प्रभु दीजे स्वाधीनता मिटै सकल संताप।।
नहिं लालच बस लोभ बस नाहीं डर बस नाथ।
तजौं धरम, वर दीजिये रहिय सदा मम साथ।।
जाके मन प्रभु तुम बसौ सो डर कासौ खाय।
सिर जावै तो जाय प्रभु मेरो धरम न जाय।।
उठौं धर्म के काम में उठौं देश के काज।
दीन बन्धु तव नाम लै नाथ राखियो लाज।।
घट घट व्यापक राम जप रे !
मत कर बैर, झूठ मत भाखै।
मत परधन हर, मत मद चाखै।।
जीव मत मार, जुआ मत खेलै।
मत परतिय लख, यहि तेरो तप रे !!
घट घट व्यापक राम जप रे !