न्यायालयों की भाषा
	जिस देश की जो भाषा है उसी भाषा में वास्तव में उस देश के न्याय, कानून,
	राजकाज, कौंसिल इत्यादि का कार्य होना चाहिए। हमारे यहाँ की परिस्थिति
	बिल्कुल इससे विपरीत है। जिस भाषा का हमारे भाइयों को कुछ भी परिचय नहीं है,
	उस भाषा में हमारे यहाँ के सब काम-काज होते हैं। हमारे देश के भाइयों के
	मरने-जीने का न्याय हो, पर हो वह दूसरी भाषा में, यह कैसे आश्चर्य की बात है?
	वास्तव में न्याय उस भाषा में होना चाहिए, जिसका एक-एक शब्द उसकी समझ में
	आता हो, जिसका कि न्याय हो रहा है। कानून और न्याय के नियम सब देश-भाषा में
	ही बनने चाहिए। अभी जिस भाषा में इसकी सृष्टि होती है उसे बहुत ही थोड़े लोग
	समझते हैं। यह अप्राकृतिक है। इंग्लैण्ड में पार्लियामेंट का सब काम उसी
	भाषा में होता है जिसे गाड़ीवान और भंगी तक सब समझ सकते हैं। हमारे यहाँ उसे
	मुट्ठी भर लोग समझते हैं। संपादक और विद्वान् लोग विदेशी भाषा में बने हुए उन
	नियमों को, जो वह भाषा बिल्कुल नहीं जानते, उन्हें कहाँ तक समझाएँ? (सन्
	1919 में नवम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष-पद के भाषण से)
	विद्यार्थी और राजनीति
	विद्यार्थी अपने नियत अध्ययन से जो समय बचा सकें, उसको अपने देश का इतिहास,
	अपने धर्म का इतिहास, अपने पूर्वजों के चरित्र, अपने देश की विगत और वर्तमान
	अवस्था, दूसरे देशों के इतिहास के ग्रंथ, समाचार पत्र, मैगजीनों को पढ़ने और
	विचारने में लगाए और अपने विद्याभ्यास को हानि न पहुँचा कर समय पाएं तो सभा
	समाजों में विद्वानों के व्याख्यानों को भी सुनें। यह हम नौजवानों की शिक्षा
	का अंग समझते हैं। इससे उनको बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होगा, जो उनको होना
	चाहिए और जो उनको आगे चलकर स्वतंत्र और प्रतिष्ठित नागरिक होने में बहुत
	सहायक होगा। हमारी राय में इससे आगे जाकर विद्यार्थियों का राजनैतिक आंदोलन
	में शामिल होना, राजनैतिक सभा कमेटी कर राजनैतिक बातों में मत प्रकाश करना या
	और किसी रीति से राजनैतिक बातों में हाथ डालना अथवा सामाजिक या धर्म संबंध या
	व्यापार संबंधी सुधार या उन्नति के लिये उद्योग करना उनके स्वाध्याय का
	विरोधी है और उनके तथा देश के लिये अहितकर है। यदि विद्यार्थी लोग अपना
	विद्याध्ययन धर्म छोड़कर शक्ति को अन्य कामों में लगावेंगे, तो जब वे इन
	औरों की अवस्था को पहुँचेंगे, तब अपने उस अवस्था के धर्म करने में अपने को
	सर्वथा योग्य न पाएंगे और अपने देश की पूरी सेवा करने का सुख और सौभाग्य न
	पा सकेंगे।
	कलाओं की जन्मभूमि
	यूरोप के विद्वान् अब यह भी मानते हैं कि चित्रकर्म, मूर्ति-निर्माण,
	वस्त्र-निर्माण, आभूषण रचना, संगीत, नाटय इत्यादिक शिल्प और कला भारतवर्ष
	में उन समयों में उच्चकोटि को पहुँचे हुए थे, जब यूरोप में विद्याओं और कलाओं
	का आरंभ भी नहीं हुआ था। बम्बई हाईकोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश सर जार्ज
	बर्डवुड ने एक पत्र में लिखा है कि लोहा, ताँबा इत्यादिक धातुएँ बहुत प्राचीन
	समयों में कहीं नहीं थीं, उनको बनाने की विधि का आविष्कार उन आर्य लोगों ने
	किया, जिनकी कुल-परम्परा में भारत के ऋषि और आचार्य हुए।
	देवनागरी
	पूज्य मालवीय जी द्वारा प्रस्तुत 'अभ्यर्थना' लेख से निम्न अंश उद्धृत
	किया जाता है जिसे उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर को अदालतों में
	देवनागरी लिपि के प्रचलन के संबंध में सन् 1889 ई. में लिखा था-
	सर आइजक पिटमैन ने कहा है कि ''संसार में यदि कोई सर्वांगपूर्ण अक्षर हैं तो
	नागरी के हैं। बम्बई सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सर अर्सकिन पेटी ने 'नोट्स
	टु ओरियंटल केसेज' की भूमिका में लिखा है कि एक लिखित लिपि की सर्वांगपूर्णता
	इसी से जान पड़ती है कि प्रत्येक शब्द का उच्चारण उसके देखने से ही ज्ञात
	हो जाय और यह गुण भारतवर्ष के अन्य अक्षरों की अपेक्षा देवनागरी अक्षरों में
	अधिक पाया जाता है, जिसमें संस्कृत लिखी जाती है। इस गुण से लाभ यह है कि
	बालकों ने यहाँ अक्षर पहचान लिये कि वे सुगमता से तथा बिना रुकावट के देवनागरी
	लिपि पढ़ने लग जाते हैं। यह भारतवर्ष में बहुधा तीन मास में ही आ जाते हैं।
	नागरी अक्षर मंदगति से लिखे जाते हैं किंतु जब वह एक बार लिख जाते हैं, तो वह
	छपे हुए के समान हो जाते हैं, यहाँ तक कि उसमें छपे हुए शब्द को उसका अर्थ न
	जानने वाला व्यक्ति भी शुद्धतापूर्वक पढ़ लेगा।
	देवनागरी लिपि
	बंगाल के सुप्रसिद्ध डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने सन् 1864 ई. में बंगाल
	एशियाटिक सोसाइटी के जरनल में देवनागरी लिपि के संबंध में 'हिन्दी भाषा की
	उत्पत्ति और उर्दू बोली से उसका संबंध' शीर्षक एक विद्वतापूर्ण लेख में लिखा
	था-
	भारतवर्ष की देश भाषाओं में हिंदी सबसे प्रधान है। बिहार से सुलेमान पहाड़ तक
	और विंध्याचल से हिमालय की तराई तक सभ्य हिंदू जाति की यही मातृभाषा है।
	गोरखा जाति ने इसका कुमाऊँ और नेपाल में भी प्रचार किया है। यह भाषा पेशावर से
	आसाम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी के सब स्थानों में भलीभाँति समझी जा सकती
	है। (पूज्य मालवीय द्वारा प्रस्तुत 'अभ्यर्थना' लेख का एक अंश, जिसे
	उन्होंने अदालतों में देवनागरी लिपि के प्रयोग किए जाने के लिए सरकार को लिखा
	था।)
	शब्द-अर्थ-परिवर्तन
	समय के हेर-फेर से जहाँ हमारे देश में धर्म, राजनीति, इतिहास प्रभृति विषयों
	में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं, वहाँ शब्दों के अर्थ और उनके आभ्यंतरिक
	भावों में भी ऐसी तब्दीली हुई कि जिसने हमारे विचारों, चरित्रों, रीतियों और
	व्यवहारों को कुछ का कुछ बना दिया है और इसके कारण हमारे जातीय जीवन की काया
	ऐसी पलटी है कि जब तक उन शब्दों के वास्तविक तात्पर्य और अर्थ को हिंदू
	जाति के सम्मुख दुबारा पूर्ण रूप से न रखा जायगा और उन शब्दों के साथ
	श्रेष्ठ और उच्चभावों और विचारों से संबंध न पैदा किया जायगा, तब तक हमारे
	सामाजिक व्यवहार और नीति-रीति का सुधार होना बहुत कठिन है।
	देशभक्ति का सच्चा धर्म
	यह सच्चा धर्म देशभक्ति द्वारा प्राप्त है। देशभक्ति का संचार हमारे हृदय से
	स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की
	तरह ऐसे कार्य कदापि न करेंगे जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुँचे, बल्कि
	दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भाँति, असंख्यों
	कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो। निर्धन, धनवान्,
	निर्बल और मूर्ख भी बुद्धिमान् हो जाएँ, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दु:ख
	मिटें और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियाँ दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को
	सुख पहुँचे। देशभक्ति द्वारा इतने धर्मों का संपादन होता हुआ देखकर भी यदि कोई
	धर्म के आगे देशभक्त्िा को कुछ नहीं समझता, उस पुरूष को जान लीजिए कि वह धर्म
	के तत्त्व ही को नहीं पहचानता। वह 'धर्म-धर्म' शब्द गा रहा है, परन्तु यह
	नहीं जानता कि धर्म क्या वस्तु है। प्राय: हमारे देश भाईयों का विचार है कि
	ईश्वर का भजन और उपासना करनी चाहिए, जिससे परलोक संभले और झगड़ों में क्या
	रखा है। वास्तव में झगड़ों में कुछ नहीं रखा है, परंतु देशभक्ति उन झगड़ों
	में शामिल नहीं है। यह धर्म का एक साधन है और जैसे कि गृहस्थाश्रम का पालन
	किए बिना वैराग्य ग्रहण करना अधर्म है, उसी प्रकार बिना देश-भक्ति किए हुए
	मत-मतान्तरों में पड़े रहना अधर्म समझना चाहिए।
	
	
	मधुकण
	· हमारे समक्ष एवं इर्द-गिर्द जो भी वस्तु है वह ईश्वर के अस्तित्व का
	ढिंढोरा पीटती है। ईश्वर संसार की प्रत्येक वस्तु में है। संसार में वही
	वास्तविक सत्य है। उससे परिचित होना जीवन का सर्वोच्च सुख है।
	· दूसरों के साथ आप ऐसा व्यवहार न करें, जो कि आप दूसरों को अपने प्रति करने
	देना नहीं चाहते हैं- यही सनातनधर्म की प्रधान शिक्षा है।
	- 
		वेदों ने युग-युग से जो घोषणा की है वह यह है कि ईश्वर केवल एक है।
	
 
	· आप निद्रा त्याग कर उठ खड़े हों और साहस के साथ अपने कामों में जुट जाएँ,
	हृदय में यह दृढ़-विश्वास रखते हुए कि हमें अपने प्रयास में विजय अवश्य
	प्राप्त होगी।
	· 'अपने देश में अपना राज'।
	देशी भाषा
	साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा के द्वारा हो सकती है। हाँ, यह
	सच है कि अंग्रेजी का भण्डार बहुत बड़ा है। उसमें राजनीतिक भाव बहुत अच्छे
	हैं। आधुनिक विज्ञान का परिचय भी हमको उसी भाषा के द्वारा हुआ है। अब यह लाभ
	देशव्यापी करना है। यह कार्य देशी भाषा के द्वारा हो सकता है। बिजली की रोशनी
	से रात्रि का अंधकार दूर हो सकता है किंतु सूर्य का काम बिजली नहीं कर सकती
	है। इसी भाँति विदेशी भाषा के द्वारा सूर्य का प्रकाश नहीं कर सकते। अंग्रेजी
	के द्वारा जो बात जानी गई है उसे अब देशी भाषा के द्वारा सारे देश में फैलाना
	चाहिए। सार्वजनिक रूप से यहा कार्य हिंदी ही के द्वारा हो सकता है। हम यह नहीं
	कहते कि देश भर में एक ही भाषा रहे, नहीं, सब प्रांतों में अपने-अपने प्रांत
	की भाषा की उन्नति हो। इन सबके रहते हुए हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा के तौर पर
	प्रयुक्त हो। अभी तक जो कार्य अंग्रेजी के द्वारा होता आया है वह अब हिन्दी
	के द्वारा होना चाहिए।
	(सन् 1919 ई. में नवम हिन्दू साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण से)
	देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा-प्रचार
	
	हमें दो बातों की ओर ध्यान देना चाहिए। एक तो हिन्दी भाषा की उन्नति की जाए
	दूसरे इसी भाषा के द्वारा उच्चशिक्षा का प्रचार किया जाए। सभी प्रांतीय
	भाषाओं की उन्नति हो रही है। सभी प्रांतों के निवासी अपनी-अपनी भाषा में
	उच्चशिक्षा देने-दिलाने का प्रबंध कर रहे हैं। कुछ लोगों का विचार है कि देशी
	भाषा उच्च शिक्षा के लिए उपयुक्त नहीं है। वे कहते हैं कि देशी भाषा घर,
	बाजार पत्र-व्यवहार और समाचार-पत्रों के लिये तो उपयुक्त है किंतु कॉलेजों
	के लिए अनुपयुक्त है। यह बात शोचनीय है। प्रत्येक देश में देशी भाषा द्वारा
	विद्या का प्रचार होता है। राजकाज, व्यापार इत्यादि सब उन्नति के कार्य
	देशी भाषा ही के द्वारा उत्तम रीति से हो सकते हैं। जब हम अपने देश के प्राचीन
	काल की ओर दृष्टि डालते हैं तब भी मालूम होता है कि उस समय भी यहाँ पर
	संस्कृत और प्राकृत भाषा में शिक्षा-प्रचार तथा देशोन्नति के सब काम होते
	थे। अनेक राज्यक्रांतियों के कारण शुद्ध संस्कृत वाणी घिसती तथा बदलती हुई
	पहले प्राकृत, फिर गाथा और फिर अपभ्रंश के रूप में बदलती गई। जिस काल में जो
	भाषा प्रचलित हुई उसी में सब कार्य होते रहे। बौद्धकाल में, अशोक के जमाने
	में, पाली भाषा के द्वारा सब काम संपन्न होते थे। मुसलमानों के जमाने में भी
	देशी भाषा के ही द्वारा सब कार्य होते थे। उसी समय के लगभग प्राकृत से
	रूपान्तर होकर हिन्दी बनी।
	(सन् १९१९ ई. में नवम हिन्दू साहित्य सम्मेलन के सभापति-पद से दिए गए भाषण
	से)