राजकोट आठ अंगों में विभक्त है। पहला है यम-अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्यचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम-अर्थात् शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रपाठ) और ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्म-समर्पण। तीसरा है आसन-अर्थात् बैठने की प्रणाली। चौथा है प्राणायाम-अर्थात् प्राण का संयम। पाँचवाँ है प्रत्याहार-अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उेस अन्तर्मुखी करना। छठा है धारणा-अर्थात् किसी स्थल पर मन का धारण। सातवाँ है ध्यान। और आठवाँ है समाधि-अर्थात् अतिचेतन अवस्था। हम देख रहे हैं, यम और नियम चरित्र-निर्माण के साधन हैं। इनको नीव बनाये बिना किसी तरह की योग-साधना सिद्ध न होगी। यम और नियम के दृढ़ प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। योगी को चाहिए कि वे तन-मन-वचन के किसी के विरूद्ध हिंसाचरण न करें। दया मनुष्य-जाति में ही आबद्ध न रहे, वरन् उसके परे भी वह जायगी और सारे संचार का आलिंग्न कर लेगी।
यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अव्यवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससे दीर्घ काल तक एक भाव से बैठा जा सकें, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है, परन्तु दूसरे के लिए, सम्भव है, वह बहुत कठिन जान पड़े। हम बाद में देखेंग कि योग-साधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं। स्नायविक शक्ति-प्रवाह की गति को फेरकर उसे नये रास्ते से दौड़ाना होगा; तब शरीर में नये प्रकार के स्पन्दन या क्रिया शुरू होगी; सारा शरीर मानो नये रूप से गठिन हो जायगा। इस क्रिया का अधिकांश मेरूदण्ड के भीतर होगा; इसलिए आसन के संबंध में इतना समझ लेना होगा कि मेरूदण्ड को सहज भाव से रखना आवश्यक है- ठीक सीधा बैठना होगा- वृक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़ें। यह तुम सहज ही समझ सकोंगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिन्तन करना सम्भव नहीं। राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। हठयोग केवल स्थूल देह की लेकर व्यस्त रहता है। इकसा उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। हठयोग के संबंध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिण हैं। एक दिन में उसकी शिक्षा भी सम्भव नहीं। फिर, उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती। डेलसर्ट और अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने की मिलते हैं। उन लोगों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश को मिलते हैं। उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न-भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है। हठ योग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है, आध्यात्मिक नहीं। शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं, जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सके। हृदय-यंत्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया जा सकता है- शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है।
मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यह दृढ़ संकल्प है कि हम अस्वस्थ न हों। और इस दृढ़ संकल्प के बल से वें कभी अस्वस्थ होते भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी 150 वर्ष की आयु हो जाने पर भी, देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज हैं, उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ, किंतु इसका फल बस, यहीं तक है। वटवृक्ष भी कभी-कभी 5000 वर्ष जीवित रहता है, किंतु वह वटवृक्ष ही बना रहता है। फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए, तो उससे क्या? वे बस, एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं। हठयोगियों के दो-एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं। सिर की पीड़ा होने पर, शय्या-त्याग करते ही नाक से शीतल जल पियो, इससे सारा दिन मस्तिष्क ठीक और शान्त रहेगा और कभी सदीं न होगी। नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं, बड़ा सरल है। नाक को पानी के भीतर डुबाकर गले में पानी खींचते रहो। पानी अपने आप ही धीरे-धीरे भीतर जाने लगेगा।
आसन सिद्ध होने पर, किसी किसी सम्प्रदाय के मतानुसार नाड़ी-शुद्धि करनी पड़ती है। बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अन्तर्गत नहीं है, इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते। परन्तु जब शंकराचार्य जैसे भाष्यकार ने इसका विधान किया है, तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पड़ता है। मैं श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उकने भाष्य [1] से इस संबंध में उनका मत उद्धृत करूँगा- 'प्राणयाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्य में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ी-शुद्धि करनी पड़ती है, तभी प्राणयाम करने की शक्ति आती है। अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अन्दर खींचों, फिर बीच में तनिक देर भी विधान किये बिना बायाँ नथूना बन्द करके दाहिने नथुने से वायु निकालो। फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बायें से निकालो। दिन भर में चार-बार अर्थात् उषा, मध्याह्र, सायाह्र और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ी-शुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा।'
सदा अभ्यास है। तुम रोज देर तक बैठे हुए मेरी बात सुन सकते हो, परन्तु अभ्यास किये बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सब कुछ साधना पर निर्भर है। प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्त्व कुछ भी समझ में नहीं आते। स्वयं अनुभव करना होगा, केवल व्याख्या और मत सुनने से न होगा। फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। शरीर स्वस्थ न रहे, तो साधना में बाधा पड़ती है। अत: शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवन-यापन करना होगा, इन बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा।
[1] प्राणायामक्षयितमनोमलस्य चित्तं ब्रह्यणि स्थितं भवतीति प्राणायामी निर्दिश्यते। प्रथमं नाडीशोधनं कर्तव्यम्। तत : प्राणायामे s धिकार : । दक्षिण नासिकापुटमंगुल्यावष्टभ्य वामेन वायुं पूरयेत् यथाशक्ति। ततो s नन्तरमृत्सृज्यैंवं दक्षिणेन पुटेन यथाशक्ति। ततो s नन्तरमृत्सृज्यैंवं दक्षिण पुटेन समृत्सृजेत। सव्यमपित धारयेत्। पुनर्दक्षिणेन पूरयित्वा सब्येन समुत्सृजेत् यथाशक्ति। त्रि : पंचकृत्वो वा एवं अभ्यस्यत : सवनचतुष्टयमपररात्रे मध्याह्रे पूर्वरात्रे s र्धरात्रे च पक्षान्मासात् विशुद्धिर्भवति।
- श्वेताश्वतरोपनिषद् शांकरभाष्य ।।2।8 ।।
मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो-जैसा कि यहाँ के क्रिश्चियन साइन्स [1] मतावलम्बी करते हैं। बस, शरीर के लिए फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं। यह हम कभी न भूलें कि स्वास्थ्य उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है। यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता, तो हम तो पशुतुल्य हो गये होते। पशु प्राय: अस्वस्थ नहीं होते।
दूसरा विघ्न है सन्देह। हम जो कुछ नहीं देख पातें, उसके संबंध में संदिग्ध हो जाते हैं। मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करें, यह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के संबंध में सन्देह उपस्थित हो जाता है। यह सन्देह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है। परन्तु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ-कुछ अलौकिक व्यापार देखने की मिलेंगे, और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जायगा। योगशास्त्र के एक भाष्यकार ने कहा भी है, ''योगाशास्त्र की सत्यता के संबंध में यदि एक बिल्कुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाय, तो उतने से ही सम्पूर्ण योगाशास्त्रपर विश्वास हो जाएगा।'' उदाहरणस्वरूप तुम देखीगे कि कुछ महीनों की साधना के बाद दूसरों का मनोभाव समझ सक रहे हो; वे तुम्हारे पास तस्वीर के रूप में आयेंगे; यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो, तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे। पहले-पहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा थोड़ा करके दिखेंगे। परन्तु उसीसे तुम्हारा विश्वास, बल और आशा बढ़ती रहेगी। मान लो, नासिका के अग्र भाग में तुम चित्त का संयम करने लगे, तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगन्ध मिलने लगेगी; इसीसे तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी कभी वस्तु के प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेना है। पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं; वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन के कुछ सहायता मात्र करती है। हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र उद्देश्य 'आत्मा की मुक्ति' है। प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता। हम अवश्य ही प्रकृति के स्वामी होंगे, प्रकृति के गुलाम नहीं। शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि 'शरीर हमारा है' - 'हम शरीर के नहीं।'
एक देवता और एक असुर किसी महापुरूष के पास आत्मजिज्ञासु होकर गये। उन्होंने उन महापुरूष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिन बाद उन महापुरूष ने उनसे कहा, ''तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम्हीं हो।'' उन लोगों ने सोचा, ''तो देह ही आत्मा है।'' फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, सन्तुष्ट चित्त से अपनी अपनी जगह को प्रस्थान किया। उन लोगों ने जाकर अपने-अपने आत्मीय जनों से कहा, ''जो कुछ सीखना था, सब सीख आये। अब आओ, भोजन, पान और आनन्द में दिन बितायें-हमीं वह आत्मा है; इसके सिवा और कोई वस्तु नहीं।'' उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझाकर वह पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गया; उसने 'आत्मा' शब्द से देह समझा। परन्तु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। वे भी पहले इस भ्रम में पड़े थे कि 'मैं' का अर्थ यह शरीर है;
[1] क्रिश्चियन साइन्स (Christian Science) यह सम्प्रदाय श्रीमती एडी नामक एक अमेरिकन महिला द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है। इनके मतानुसार सचमुच जड़ नामक कोई पदार्थ नहीं , वह हमारे मन को केवल भ्रम है। विश्वास करना होगा - ' हमें कोई रोग नही ', तो हम उसी समय रोगमुक्त हो जायेंगे। इसका ' क्रिश्चियन साइन्स ' नाम पड़ने का कारण यह है कि इसके मतावलम्बी कहते है , '' हम ईसा का ठीक - ठीक पदानुसरण कर रहे हैं। ईसा ने जो अद्भुत क्रियाएँ की थीं , हम भी वैसा करने में समर्थ हैं , और इस प्रकार से दोषशुन्य जीवन - यापन करना हमारा उद्देश्य हैं। '
यह देह ही ब्रह्य है, इसलिए इसे स्वस्थ्य और सबल रखना, सुन्दर वस्त्रादि
पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है। परन्तु कुछ
दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो
सकता कि देह ही आत्मा है; वरन् देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। तब
उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, ''गुरो, आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य
है कि देह ही आत्मा है? परन्तु यह कैसे हो सकता है? सभी शरीर तो नष्ट होते
हैं, पर आत्मा का तो नाश नहीं।'' आचार्य ने कहा, ''तुम स्वयं इसका निर्णय
करो, तुम वही हो-तत्त्वमसि।'' तब शिष्य ने सोचा, शरीर में क्रियाशील जो प्राण
हैं, शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गए।
परंतु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने
पर मुरझाने लगते हैं। तब वे पुन: गुरु के पास आए और कहा, ''स्वयं तुम इसका
निर्णय करो, तुम वही हो।'' उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर
सोचा, ''तो शायद मन ही आत्मा हो।'' परंतु वे शीघ्र ही समझ गये कि
मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं; मन में कभी सद्धूत्ति, तो असद्धूत्ति उठती है;
अत: मन इतना परिवर्तनशील हैं कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। तब फिर से गुरु
के पास आकर उन्होंने कहा, ''मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने
क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?'' गुरु ने कहा, ''नहीं, तुम्हीं वह हो, तुम
स्वयं इसका निर्णय करो।'' वे देवपुंगव फिर लौट गये; तब उनको यह ज्ञान हुआ,
''मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं,
मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा
सकती, जल नहीं गला सकता, मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ,
सर्वशक्तिमान पुरूष हूँ। आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सबके परे हैं।'' इस
प्रकार वे देवता ज्ञानप्रसूत आनंद से तृप्त हो गए। पर उस असुर बेचारे को
सत्य-लाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी।
इस जगत् में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग है; फिर भी देवता-प्रकृति वाले
बिल्कुल ही न हों, ऐसा नहीं। यदि कोई कहे, ''आओं तुम लेागों को मैं एक ऐसी
विद्या सिखाऊँगा, जिससे तुम्हारा इन्द्रिय-सुख अनन्त गुना बढ़ जाएगा'', तो
अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे। परंतु यदि कोई कहे, ''आओ, मैं तुम लोगों को
तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखाऊँगा'', तो शायद उनकी
बात की कोई परवाह भी न करेगा। ऊँचे तत्त्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम
लोगों में देखने की मिलती है; सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील
लोगों की संख्या तो और भी बिरली है। पर संसार में ऐसे महापुरूष भी हैं, जिनकी
यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में
परिणाम एक ही होगा। जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह
न रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ
नहीं हो सकता। शरीर और है क्या? वह कुछ सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि
मात्र है। नदी के दृष्टान्त से यह तत्त्व सहज बोधगम्य हो सकता हो। तुम अपने
सामने नदी में जलराशि देख रहे हो; वह देखो, पल भर में वह चली गई और उसकी जगह
एक नई जलराशि आ गई। जो जलराशि आई, वह संपूर्ण नई है, परंतु देखने में पहली ही
जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक इसी तरह सतत परिवर्तनशील है। उसके इस प्रकार
परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि
शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। यही हमारे पास
सर्वोदय साधन है।
सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम
जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से- यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ
है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए
मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है,
यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत
और अन्य समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के
बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रमाण और अभिनन्दन कर आने के लिए कहा।
इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिप्राय दे
दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि
संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर
सृष्टि-पशु आदि मंदबुद्धि की है, कि यह प्रधानत: तुम से निर्मित हुई है। पशु
किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिए
बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। इसी तरह मनुष्य-समाज में भी अत्यधिक धन अथवा
अत्यधिक दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान बाधक है। संसार में
जितने महात्मा पैदा हुए हैं, सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे। मध्यम
वर्गवालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और संतुलित रहती है।
अब हम अपने विषय पर आयें। हमें अब प्राणायाम-श्वास-प्रश्वास के नियमन के
संबंध में आलोचना करनी चाहिए। चित्तवृत्तियों के निरोग से प्राणायाम का क्या
सम्बन्ध है? श्वास-प्रश्वास मानो देह-यंत्र का गतिनियामक प्रचक (fly-wheel)
है। एक वृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि पहले प्रचक्र घूम रहा हैं और
उस चक्र की गति क्रमश: सूक्ष्म के सूक्ष्मतर यंत्रों में संचालित होती है।
इस प्रकार उस इंजन के अत्यंत सूक्ष्मतम यंत्र तक गतिशील हो जाते हैं।
श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक्र है। वही इस शरीर के सब
अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है
और उस प्रेरक-शक्ति को नियमित भी कर रहा है।
एक राजा के एक मंत्री था। किसी कारण से राजा उस नाराज हो गया। राजा ने उसे एक
बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में कैद कर रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन
किया गया। मन्त्री भी वहाँ कैद होकर मौत की राह देखने लगा। मन्त्री के एक
पतिव्रता पली थी। रात को उस मीनार के नीचे आकर उसने चोटी पर कैद हुए पति को
पुकारकर पूछा, ''मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?" मंत्री ने कहा, ''अगली
रात को एक लंबा मोटा रस्सा, मजबूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक
भृंग और थोड़ा सा शहद लेती आना।'' उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत
आश्चर्यचकित हो गयी। जो हो, वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले
गयी। मंत्री ने उससे कहा, ''रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो,
उसकी उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे
मीनार की दीवार पर छोड़ दो।'' पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। तब उस
कीड़े ने अपना लंबा रास्ता पार करना शुरू किया। सामने शहद की महक पाकर मधु के
लोभ से वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा और अन्त में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा।
मन्त्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी। इसके बाद अपनी
स्त्री से कहा, ''बंडल में जो सूत है, उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो।''
इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी
पकड़ लिया। अब कोई कठिन काम न रह गया। रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग
खड़ा हुआ। हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है। इसके
धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्ति-प्रवाह रूप (nerve currents) सूत
का बंडल, फिर मनोवृत्ति रूप डोरी और अन्त में प्राण रूप रस्से को पकड़ सकते
हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है।
हम अपने शरीर के संबंध में बड़े अज्ञ हैं, कुछ जानकारी रखना भी हमें सम्भव
नहीं मालूम पड़ता। बहुत हुआ, तो हम मृत देह को चीर-फाड़कर देख सकते हैं कि
उसके भीतर क्या है और क्या नहीं; और कोई कोई इसके लिए किसी जीवित पशु की देह
ले सकते हैं। पर इससे हमारे अपने शरीर का कोई संबंध नहीं। हम अपने शरीर के
संबंध में बहुत कम जानते हैं। इसका कारण क्या है? यह कि हम मन को उतनी दूर तक
एकाग्र नहीं कर सकते, जिससे हम शरीर के भीतर की अति सूक्ष्म गतियों तक को समझ
सकें। मन जब बाह्य विषयों का परित्याग कर देह के भीतर प्रविष्ट है और
अत्यन्त सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते
हैं। इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूति संपन्न प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों
को जान सकते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूति संपन्न होने के लिए हमें पहले
स्थूल से आरंभ करना होगा। देखना होगा, सारे शरीर-यंत्र को चलाता कौन है, और
उसे अपने वश में लाना होगा। वह प्राण है, इसमें कोई संदेह नहीं।
श्वास-प्रश्वास ही उस प्राण-शक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। अब,
श्वास-प्रश्वास के साथ धीरे शरीर प्रवेश करना होगा। इसी से हम देह के भीतर
की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और
समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्ति-प्रवाह किस तरह शरीर में सर्वत्र भ्रमण कर रहे
हैं। और अब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे, तब उन्हें, और उनके साथ देह को
भी हमारे अधिकार में लाने के लिए हम प्रारम्भ करेंगे। मन भी इन सब स्नायविक
शक्ति-प्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है। इसीलिए उन पर विजय पाने से मने और
शरीर, दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं, हमारे दास बन जाते हैं। ज्ञान ही
शक्त्िा है, और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए हमें
प्राणायाम-प्राण के नियमन-से प्रारम्भ करना होगा। इस प्राणायाम-तत्त्व की
विशेष आलोचना के लिए दीर्घ समय की आवश्यकता है- इसको अच्छी तरह समझाते बहुत
दिन लगेंगे। हम उसका एक एक अंश लेकर चर्चा करेंगे।
हम क्रमश: समझ सकेंगे कि प्राणायाम के साधन में जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनका
हेतु क्या है और प्रत्येक क्रिया से देह के भीतर किस प्रकार की शक्ति
प्रवाहित होती हैं। क्रमश: यह सच हमें बोधगम्य हो जाएगा। परंतु इसके लिए
निरंतर साधना आवश्यक है। साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण
मिलेगा। मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ, पर
तुम्हारे लिए वे प्रमान नहीं होंगी, जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे।
जब देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे, तभी
सारे संशय दूर होंगे। परंतु इसके अनुभव के लिए प्रत्यह कठोर अभ्यास आवश्यक
है। प्रतिदिन कम से कम दो बार अभ्यास करना चाहिए, और उस अभ्यास का उपयुक्त
समय है प्रात: और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और
रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है।
ब्रह्ममुहूर्त और गोधूलि, ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं। इन
दोनों समयों में शरीर बहुत कुछ शान्त रहता है। इस समय साधना करने से प्रकृति
हमारी काफी सहायता करेगी, इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करनी आवश्यक है।
यह नियम बना लो, कि साधना समाप्त किये बिना भोजन न करोगे। ऐसा नियम बना लेने
पर भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्टकर देगा। भारतवर्ष में बालक यही
शिक्षा पाते हैं कि स्नान-पूजा और साधना किए बिना भोजन नहीं करना चाहिए।
कालान्तर में यह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है; उनकी जब तक स्नान-पूजा और
साधना समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें भूख नहीं लगती।
तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना के लिए यदि एक स्वतंत्र कमरा रख सकें,
तो अच्छा हो। इस कमरे को सोने के काम में न लाओ। इसे पवित्र रखो। बिना स्नान
किए और शरीर-मन को बिना शुद्ध किए इस कमरे में प्रवेश न करो। इस कमरे में सदा
पुष्प और हृदय को आनन्द देने वाले चित्र रखो। योगी के लिए ऐसे वातावरण में
रहना बहुत उत्तम है। सुबह और शाम वहाँ धूप और चंदन चूर्ण आदि जलाओ। उस कमरे
में किसी प्रकार का क्रोध, कलह और अपवित्र चिंतन न किया जाए। तुम्हारे साथ
जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो। ऐसा करने
पर शीघ्र वह कमरा सत्त्वगुण से पूर्ण हो जायगा; यहाँ तक कि, जब किसी प्रकार का
दु:ख या संशय आये अथवा मन चंचल हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही
तुम्हारा मन शांत हो जाएगा। मंदिर, गिरजाघर आदि के निर्माण का सच्चा
उद्देश्य यही था। अब भी बहुत से मंदिरों और गिरजाघरों में यह भाव देखने को
मिलता है; परंतु अधिकतर स्थलों में लोग इनका उद्देश्य भूल गये हैं। चारों ओर
पवित्र चिंतन के परमाणु सदा स्पंदित होते रहने के कारण वह स्थान पवित्र
ज्योति से भरा रहता है। जो इस प्रकार के स्वतंत्र कमरे की व्यवस्था नहीं कर
सकते, वे जहाँ इच्छा हो, वहीं बैठकर साधना कर सकते हैं। शरीर को सीधा रखकर
बैठो। संसार में पवित्र चिंतन का एक स्रोत बहा दो। मन ही मन कहो, ''संसार में
सभी सुखी हों, सभी शान्ति लाभ करें, सभी आनंद पायें।'' इस प्रकार पूर्व,
पश्चिम उत्तर, दक्षिण चारों ओर पवित्र चिंतन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे,
उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे। बाद में देखोगे, ''दूसरे सब लोग
स्वस्थ हों'', यह चिंतन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है। 'दूसरे लोग
सुखी हों', 'ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है। इसके बाद जो लोग
ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें- अर्थ,
स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञात और सत्-तत्त्व
के उन्मेष के लिए। इसको छोड़ बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थ भरी हैं। इसके बाद
भावना करनी होगी, 'मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़, सबल और स्वस्थ है। यह देह ही
मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवन-समुद्र पर कर
लूँगा। जो दुर्बल है, वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता। समस्त दुर्बलताओं का
त्याग करो। देह से कहो, 'तुम खूब बलिष्ठ हो।' मन से कहो, 'तुम अनन्त
शक्तिधर हो', और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो ।