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आलोचना

नंददुलारे वाजपेई : आलोचना के मानकों में उलटफेर

मृत्युंजय


नंददुलारे वाजपेई ने आलोचना के पटल पर आते ही कैननों में उलटफेर दिखने लगते हैं। जैसा कि पीछे हम देख आए हैं, शुक्ल जी द्वारा स्थापित कैननों को समकालीनता की कसौटी पर परखने का काम उनके ही शिष्य आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने किया। नंददुलारे जी ने काम तो सूर पर भी किया, सूर पर पूरी एक पुस्तक ही लिखी और तुलसी के रामचरित मानस का गीता प्रेस, गोरखपुर के लिए संपादन भी किया पर उनकी ताकत और नयापन अपनी समकालीन रचनाशीलता और पूर्ववर्ती आलोचना से जिरह में थी। इसीलिए कैनन निर्माण के लिहाज से उनकी पुस्तक 'हिंदी आलोचना: बीसवीं सदी' विशेष महत्त्वपूर्ण है।

यह पुस्तक हमारे अध्ययन के लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ कैनन बहुत स्पष्ट हैं। इस पुस्तक में वाजपेई जी ने कुल सोलह रचनाकारों को अपने कैनन में शामिल किया है। इनमें द्विवेदी युग, छायावाद के सभी बड़े कवि और परवर्ती प्रगति-प्रयोगवाद के कवि रचनाकार शामिल किए गए हैं। इनके अलावा पुस्तक की विज्ञप्ति में अन्यान्य रचनाकारों का भी जिक्र किया गया है। परंतु वाजपेई जी मूलत: द्विवेदी युग से छायावाद के विकास की प्रक्रिया को चिन्हित करने वाले आलोचक हैं। इस लिहाज से उन्हें छायावाद का हरावल आलोचक ठीक ही कहा जाता है। वे अपनी आलोचना में कैनन गढ़ते हुए द्विवेदीयुगीन प्रतिमानों से टक्कर लेते हैं, छायावाद को स्थापित करते हैं और प्रगतिवाद के प्रति कुछ 'आ-विकर्षण' भाव रखते हैं। कैनन निर्माण के लिहाज से आचार्य शुक्ल और जयशंकर प्रसाद पर किए गए उनके काम महत्त्वपूर्ण हैं।

जब आचार्य वाजपेई आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हुए तो आचार्य शुक्ल उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती थे। उनके द्वारा स्थापित किए गए कैननों की आधार विचारणाओं से जूझे बिना आलोचना में नए कैननों को स्थापित करना न सिर्फ कठिन था बल्कि उसके सम्यक होने पर भी अविश्वास किया जाता। गरज यह कि वाजपेई जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया और आचार्य शुक्ल पर उन्होंने तीन निबंध, क्रमश: 1931, 1940 और 1941 में लिखे। ये तीनों निबंध उनकी आलोचनात्मक मेधा का सबूत होने के साथ ही कैनन निर्माण की प्रक्रिया में उनके योग को भी भलीभाँति दिखाते हैं। शुक्ल जी आलोचनात्मक विवेक की रीढ़ लोकमंगल है और इस लोकमंगल को शुक्ल जी रस सिद्धांत में फेरबदल करके, उसे समयानुकूल बनाकर प्राप्त करते हैं। वाजपेई जी ने अपने सन 1931 वाले पहले ही लेख में रस और उससे उद्भूत लोकमंगल को प्रश्नांकित किया। वे रस के आधार पर कविता, खासकर आधुनिक कविता की व्याख्या को असंगत मानते हैं। रस की परंपरा को चिन्हित करते हुए वाजपेई जी उसे अन्य संप्रदायों कर तरह ही रीतिवादी धारणा के करीब पाते हैं। जैसे अन्यान्य संप्रदायों ने कविता को रीतिवाद में धकेल दिया, वैसा ही रस-संप्रदाय ने भी किया।

शुक्ल जी ने रस-सिद्धांत में फेर-बदल किए थे और उसे लोकमंगल के उच्च स्तर तक पहुँचाया था। वाजपेई जी इससे संतुष्ट नहीं हैं। वे आधुनिक काल की रचनाशीलता के लिए नए तरह की आलोचना का विचार रखते हुए शुक्ल जी के सिद्धांत को अपुष्ट बताते हैं। उन्होंने लिखा- "आधुनिक युग में कवि के मस्तिष्क एवं कला का क्रमबद्ध विकास जानने की, उसके व्यक्तित्व एवं परिस्थितियों से परिचित होने की और उसकी कृति का एक संश्लिष्ट चित्र खींचने की चेष्टा की जाती है। काव्य समीक्षा के दृढ सिद्धांतों की प्रतिष्ठा की गर्इ है और समीक्षा विज्ञान की भी सृष्टि हो रही है।... मनोविश्लेषणशास्त्र ज्यों-ज्यों प्रौढ़ होता जा रहा है, त्यों-त्यों वह काव्य विवेचन में अधिक उपयोगी प्रामाणिक हो रहा है। रस-पद्धति की विश्लेषण क्रिया से आधुनिक समीक्षाकार अधिक लाभ नहीं उठा सकता।... प्राचीन सिद्धांत के साथ 'लोकधर्म' का साहचर्य कराकर शुक्ल जी ने उसे परिमार्जित स्वरूप अवश्य दिया है, पर उसे कलात्मक, मनोवैज्ञानिक और प्रगतिशील आधार पर प्रतिष्ठित करने में शुक्ल जी समर्थ नहीं हुए हैं। उन्होंने एक सिद्धांत के पीछे काव्य के निर्णयात्मक उपकरणों, मानसिक अवयवों और सामाजिक चेतना की उपेक्षा की है। 'लोकधर्म' भी उनका एक गतिहीन निरूपण ही सिद्ध हुआ" इस तरह वाजपेई जी, शुक्ल जी के रस सिद्धांत को कटघरे में खड़ा करते हैं।

हम जानते हैं कि आचार्य शुक्ल के अनुसार आलंबनत्व धर्म के साधारणीकरण के द्वारा काव्य मनुष्य को भावक्षेत्र से कर्मक्षेत्र की ओर प्रवृत्त करता है। यही उनके लोकमंगल की आधारभूमि है। आचार्य वाजपेई की आपत्ति यह है कि यह लोकमंगल का विशाल ढाँचा सिर्फ प्रबंधों के आधार पर खड़ा हो सकता है। गीतों और छोटी काव्य रचनाओं में इस विशाल विचार को वैसे नहीं लागू किया जा सकता जैसे कि प्रबंधकाव्य में। वे इसकी सफलता का कारण खोजते हुए बताते हैं कि आचार्य शुक्ल के आलोचना वृत्त के अंदर मुख्य रूप से भक्तिकालीन प्रबंध कवि हैं, इसलिए उनका यह सिद्धांत वहाँ चल जाता है लेकिन जब शुक्ल जी इन्हीं प्रतिमानों के साथ आधुनिक रचनाधर्म का मूल्यांकन करते हैं तो गड़बड़ियाँ होती हैं। टैगोर की तुलना में डी.एल.राय को महत्त्व देना इसी विसंगति का उदाहरण है और छायावादी काव्य का मूल्यांकन भी इसी कारण समुचित नहीं हो पाता। आचार्य शुक्ल पर टिप्पणी करते हुए वह दूसरा तर्क देते हैं कि उन्होंने 'अभिव्यंजनावाद' को एकांगी तौर पर लिया और व्याख्यायित किया। काव्य के मानसिक संसार पर बल देने की आवश्यकता को चिन्हित करते हुए वे कहते हैं- "शुक्ल जी का 'लोकधर्म' भी जीवन के प्रगतिशील स्वरूपों का अध्ययन नहीं करता। वह रूढ़िबद्ध होकर श्रेष्ठ काव्य की पहचान में असफल सिद्ध हुआ है। उसका कारण यही है कि इस सिद्धांत के पीछे शुक्ल जी ने काव्य के निर्णयात्मक और मानसिक उपकरणों की पूरी तरह अवहेलना की है। साथ ही समय अथवा युग-विकास की ओर उनका ध्यान नहीं था।"

वाजपेई जी की तीसरी आपत्ति है कि 'गोचर' और 'प्रत्यक्ष' के शुक्ल जी के प्रत्यय व्यवहार में आने पर लघुचित्रवाद में परिणत हो जाते हैं। ऐसे में यहाँ एकता की भावनाओं के प्रसार का कोर्इ साधन नहीं रह जाता है। तात्पर्य यह कि शुक्ल जी के विवेचन में मनस की विराट भावनाओं के लिए कम जगह है। इस बिंदु पर वाजपेई जी अभिव्यक्ति के स्थान पर कल्पना का प्रयोग करते हैं और प्रसाद के साहित्य से उदाहरण देते हुए कहते हैं कि आधुनिक युग विराट भावनाओं का युग है। इसलिए विश्व बंधुत्व, विश्व ऐक्य आदि भावों के वर्णन के लिए प्रत्यक्ष और गोचर से आगे जाना होगा। पर प्रत्यक्ष और गोचर का कोर्इ संबंध क्या यथार्थवाद से है? वाजपेई जी स्वयं प्रसाद के 'कंकाल' की समीक्षा में उसमें निहित-वर्णित यथार्थ को उद्घाटित करते हैं। तो क्या शुक्ल जी के प्रत्यक्ष ओर गोचर का कोर्इ संबंध प्रसाद के 'कंकाल' के प्रत्यक्ष और गोचर से बनता है? आचार्य वाजपेई के लिए पहली मुश्किल यह है कि कविता में प्रसाद और कथा में प्रसाद के लिए वे अलग-अलग मानों का प्रयोग करते हैं। लेकिन अगर सहानुभूतिपूर्वक देखा जाए तो वे आचार्य शुक्ल के प्रत्यक्ष और गोचर को विकसित करने की कोशिश करते हैं। यह सही है कि इस प्रयत्न में कर्इ बार वे मनोविश्लेषण आदि की ओर अधिक झुक जाते हैं। दूसरे यह अंतविर्रोध भी असाध्य ही रह जाता है कि एक तरफ तो शुक्ल जी द्विवेदीयुगीन आदर्श के वाहक हैं और दूसरी ओर वे प्रत्यक्ष गोचर को काव्य में इतना महत्त्व देते हैं। आदर्श और प्रत्यक्ष की इस गुत्थी को वापेर्इ जी ने अनसुलझा ही छोड़ दिया।

संदर्भत: वाजपेई जी बताते हैं कि शुक्ल जी का प्रत्यक्ष-गोचर-अभिव्यक्तिवाद, जिसमें नैतिक तत्त्व जोड़कर लोकमंगल की धारणा बनती है, वस्तुत: काव्य को दार्शनिक और व्यक्तिगत आग्रहों में संकुचित कर देता है। तो क्या नीतिमूलक आग्रह काव्य विश्लेषण में नहीं प्रयुक्त होने चाहिए? तब 'हिंदी साहित्य: बीसवीं सदी' की विज्ञप्ति के उस सातवें सूत्र का क्या तात्पर्य है जिसके मुताबिक आलोचना काव्य के जीवन संबंधी सामंजस्य और संदेश का अध्ययन करे?

जो हो, अपने दूसरे लेख में भी आचार्य वाजपेई रस का जिक्र करते हैं और अबकी उनका जोर शुक्ल जी की रस व्याख्या में व्यक्तिवत्ता और निर्दिष्ट आदर्शवाद पर अधिक है। यहीं वे उनकी राजनैतिक-सामाजिक विचारधारा के आधार रूप को वर्णाश्रम में चिन्हित करते हैं। शुक्ल जी की रचनाशीलता का संबंध उनके समय-समाज से निबद्ध करते हुए उन्होंने लिखा- "शुक्ल जी की सारी विचारणा द्विवेदी युग की व्यक्तिगत, भावात्मक और आदर्शोन्मुख नीतिमत्ता पर स्थित है। समाजशास्त्र, संस्कृति और मनोविज्ञान की वस्तून्मुखी मीमांसा उन्होंने नहीं की है।" यहाँ बहुत साफ शब्दों में द्विवेदी जी व्यक्तिगत नीतिमत्ता के विरुद्ध हैं। पर यही वाजपेई जी जब प्रसाद के रचनाकर्म के दार्शनिक आधारों की व्याख्या करते हैं तो उन्हें मिल की तरह का व्यक्तिवादी बताते हैं और इसे लिबरलिज्म से जोड़ते हैं। वे इस संदर्भ में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के नारे का भी जिक्र करते हैं। हम जानते हैं कि औद्योगिक क्रान्ति का यह नारा व्यक्तिवाद के साथ ही आया। वाजपेई जी इसे वस्तून्मुखी बताते हैं। अर्थात द्विवेदीयुगीन व्यक्तिवत्ता से वे प्रसाद की व्यक्तिवत्ता को श्रेष्ठ मानते हैं। जहाँ तक आदर्शवाद का प्रश्न है, हमें हंस के आत्मकथा अंक के प्रकाशन के पूर्व प्रेमचंद के साथ वाजपेई जी की बहस को याद करना चाहिए। आत्मकथा अंक के प्रकाशन को लेकर वाजपेई जी जो टिप्पणी करते हैं, उसका स्वर कुछ कम आदर्शवादी है क्या? वे लिखते हैं- "साहित्य तो एक सात्विक जीवन है।... जहाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व के कोर्इ स्वतंत्र विषय नहीं रह जाते, उच्च साहित्य की वह भावभूमि है। वहाँ अपरिग्रह का साम्राज्य है, फोटो नहीं छापे जाते।" अगर यह सही है तब 'आँसू' की व्याख्या करते हुए व्यक्तित्व की गहरी छवियों तक आलोचक को पहुँचने में मुश्किल होगी। निराला की 'मैंने मैं शैली अपनार्इ' की व्याख्या समुचित नहीं हो सकेगी। साहित्य में व्यक्ति की व्यक्तिवत्ता को हटाकर उसे आदर्श की उच्च भूमि पर प्रतिष्ठित करने पर क्या वही द्विवेदीयुगीन उपदेशात्मकता हाथ नहीं लगेगी, जिसका वाजपेई जी इतना विरोध करते हैं।

शुक्ल जी पर लिखे अपने दूसरे लेख में विवेचना के विषय रस आदि के साथ तुलसीदास भी हैं। यहाँ वाजपेई जी उन तीन बिंदुओं को चिन्हित करते हैं जिनके आधार पर आचार्य शुक्ल ने तुलसी को अपने कैनन में शामिल किया- '(क) जगत अव्यक्त की अभिव्यक्ति है और काव्य उस अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति। (ख) जीवन की विस्तृत व्यवहार दशाओं में कला का पूर्ण प्रस्फुटन और (ग) प्रवृत्ति और निवृत्ति का सिद्धांत।' वे क्रमश: इनकी आलोचना करते हैं। वे मानते हैं कि अव्यक्त की अभिव्यक्ति भी श्रेष्ठ काव्य की उत्पादक भूमि हो सकती है, अर्थात रहस्य और अलौकिकता द्वारा भी सुंदर काव्य का प्रणयन हो सकता है। दूसरे जीवन की विस्तृत भाव दशाएँ सिर्फ महाकाव्यों में ही वर्णित की जा सकती हैं और कोर्इ जरूरी नहीं कि इनसे अलग अन्य छोटे काव्य रूपों में बड़ी कविता न रची जाए। जैसे नायकों की वह परिभाषा बदल चुकी है जिसके अनुसार नायक में शक्ति, शील और सौंदर्य होना चाहिए। तीसरे वे प्रवृत्ति और निवृत्ति के द्वंद्व को शुक्ल जी द्वारा बढ़ाया-चढ़ाया गया मानते हैं।

शुक्ल जी की इस आलोचना में धार वाजपेई जी के समकालीन रचनात्मक परिवेश, छायावाद और छायावादोत्तर रचनात्मकता से आ रही थी। वाजपेई जी यह महसूस कर रहे थे कि छायावादी कविता ने काव्य के नए धारातल विकसित कर लिए हैं और आलोचना का आधार अभी भी मुख्यत: भक्तिकाल को केंद्र में रखकर बनाया जा रहा है। इस विसंगति को उन्होंने अपने आलोचनाकर्म से पाटने की कोशिश की। अपनी उपरोक्त पुस्तक में ही विज्ञप्ति लिखते हुए उन्होंने आलोचना के सात सूत्र रेखांकित किए जो निम्न हैं- (क) रचना में कवि की अंतर्दृष्टि (ख) कलात्मक सौष्ठव (ग) रचना के वाह्यअंगों का अध्ययन (घ) समय-समाज की प्रेरणाएं (ड.) कवि का मानस विश्लेषण (च) कवि के दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक विचार और (छ) काव्य के जीवन संबंधी सामंजस्य और संदेश का अध्ययन। प्रश्न यह है कि आचार्य शुक्ल के रचनाकर्म में इन सात बिंदुओं में क्या नहीं है? मानस-विश्लेषण और कवि की अंतर्दृष्टि, अधिक से अधिक कोर्इ शुक्ल जी के आलोचनाकर्म में इन्हीं दो बिंदुओं पर कमोबेश टिप्पणी की जा सकती है। यह अवश्य है कि इनमें से कुछ बिंदुओं पर शुक्ल जी का जोर अधिक था और कुछ पर कम पर स्वयं आचार्य वाजपेई ने भी यही किया। इनमें से कुछ पर अपना जोर बढ़ाकर वे शुक्ल जी की आलोचना करते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि शुक्ल जी की आलोचना में प्रवृत होने पर वाजपेई जी परंपरा से आ रहे आलोचना-बोध से अपने को अलगाने की कोशिश करते हैं, सवाल उठाते हैं पर जब सैद्धांतिक निरूपण और आलोचना को सूत्रबद्ध करने की चुनौती सामने आती है तो वे इस अलगाव को ठीक-ठीक विकसित नहीं करते।

वाजपेई जी जिस तरह शुक्ल जी के आलोचना सिद्धांतों को द्विवेदी युग के वातावरण की देन बताते हैं, ठीक उसी तरह उनके सिद्धांत भी छायावादी रचनाशीलता के परिक्षेत्र में ही विकसित होते हैं। छायावाद संबंधी शुक्ल जी के विश्लेषण की मूल बात, रहस्यवाद को वे प्रश्न के दायरे में लाते हैं। वे रहस्यवाद को काव्य के लिए घातक नहीं मानते। नंददुलारे जी के अनुसार छायावादी कवियों ने अपनी कल्पना शक्ति से जो विधान किया है, वह एक सूक्ष्म सृष्टि है। उसमें स्थूल द्विवेदीयुगीन वृत्ति देखने की जरूरत नहीं। वे रहस्यवाद को जीवन से दूर ले जाने वाला न मानकर उसे मनुष्य के गहरे मनोजगत का उद्घाटन करने वाला मानते हैं। इस बहस में वे पीछे तक जाते हैं और भक्तिकालीन कवियों की कविता में व्याप्त रहस्यवाद को भी सराहते हैं। उनके अनुसार शुक्ल जी का रहस्यवाद विरोध वैसे ही है जैसे राजा रवि वर्मा की चित्रकारी। पर एक मामले में शुक्ल जी और वाजपेई जी एक ही जगह हैं। रहस्यवाद की आध्यात्मिक समझ दोनों में एक ही है। अपने लोकमंगल के आधार पर खड़े होकर इसी के नाते छायावाद का विरोध करते हैं और वाजपेई जी मनोजगत की छवियाँ देखते हुए छायावाद का समर्थन। पर वाजपेई जी ने इस 'रहस्य' की थाह लेने का यत्न नहीं किया और आगे के छायावाद समर्थक आलोचकों ने भी यही राह अपनार्इ। नामवर जी ने 'छायावाद' पुस्तक में छायावाद संबंधी आलोचकों की बहसों के बीच छुपी एकतानता को इन शब्दों में व्यक्त किया- "सुशील कुमार की अस्पष्टता, मुकुटधर पाण्डेय की आध्यात्मिकता, आचार्य द्विवेदी का रहस्य, शुक्ल जी का आध्यात्मिक छायाभास, वाजपेई जी का 'आध्यात्मिक छाया का भान', और नगेंद्र का 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' सब एक से ही चिंतन क्रम में हैं।" नामवर जी इस रहस्यवाद को सामाजिक आयामों में अवस्थित करते हुए इसे छायावादियों के आत्म-विस्तार से उद्भूत बताते हैं, व्यक्तिवाद से जोड़ देते हैं।

पर यहाँ देखा जाना चाहिए कि वाजपेई जी के छायावाद संबंधी विचारों का कितना असर बाद की आलोचना पर पड़ा। छायावाद के गीतिकाव्य की ओर इंगित करते हुए वे प्रबंध और गीतिकाव्य के अंतविर्रोध को नए सिरे से देखते हैं। वे मानते हैं कि गीतिकाव्य सिर्फ आंतरिक अनुभूतियों तक सीमित नहीं है। प्रसाद के गीतिकाव्य की प्रशंसा करते हुए वे बताते हैं कि इनमें प्रसाद ने गहरे मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन किया है। क्या यही वह सूत्र नहीं है जहाँ से छायावाद की व्यक्तिवत्ता की पहचान की जा सकती है? उन्होंने प्रसाद पर लिखते हुए कहा- "सामाजिक विचारणा में वे मिल की भाँति व्यक्तिवादी हैं और सामूहिक प्रगति संबंधी उन आदर्शों से अनुप्रेरित हैं, जो मध्यवर्ग के बौद्धिक एवं औद्योगिक उत्थान के फलस्वरूप उत्पन्न हुए थे।" दूसरे वाजपेई जी प्रकृति चित्रण की छायावादी विशेषता को चिन्हित करते हुए उसे जिज्ञासा से जोड़कर देखते हैं। बाद में नामवर जी ने भी इस जिज्ञासा को छायावादी कविता के आधारों में चिन्हित किया।

द्विवेदीयुगीन 'राष्ट्रवादी' काव्य से तुलना करते हुए, छायावादी 'मानवऐक्य' वाले काव्य के वैशिष्टय का उद्घाटन करते हुए नंददुलारे जी ने लिखा- "...मैथिलीशरण जी की 'निलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर है' वाली सुंदर कविता में देश की एक स्थूल चौहद्दी कायम करके उसी की विशेषताओं का अधिक आग्रह के साथ उल्लेख है। प्रसाद में कुछ स्थानों पर चौहद्दी भी है पर अधिकतर स्थानों पर ऐसे वर्णन हैं- 'उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा, अरुण यह मधुमय देश हमारा' जिन्हें कोर्इ भी देशप्रेमी अपने देश के संबंध में गा सकता है।... निराला जी के 'भारति जय विजय करे' गीत को देखिए तो प्रकट होगा कि इसमें और भी प्रादेशिकता का अभाव है।... पंक्तियाँ प्राकृतिक और ज्ञानजन्य मानवऐक्य का निर्देश करती हैं, वे स्थूल देशप्रेम से बाहर जा पड़ी हैं। गुप्त जी की सारी रचनाएँ राष्ट्रीय और मानवीय आदर्शों पर आधारित होती हुर्इ भी आराधनात्मक ही रहीं, जबकि परवर्ती रचनाएँ जीवन की वास्तविक सीमा के अंतर्गत आ गर्इं।" अब नामवर जी के इस विश्लेषण के साथ इसकी तुलना करनी चाहिए- "छायावादी कवि हर तरह के जाति-भेद और देश-भेद के विरुद्ध था। इसलिए उसने जब सुना कि इंग्लैंड के सम्राट अष्टम एडवर्ड ने अमरीका की एक सामान्य स्थिति की विधवा स्त्री के प्रेम के लिए सिंहासन छोड़ दिया तो केवल इसीलिए उसका गौरव-गान किया कि उसने धन के, मान के जर्जर बांध पर प्रहार करके मानवता का संदेश सुनाया था।" इन उद्धरणों को आमने-सामने रखकर देखने पर कहना न होगा कि यहाँ वाजपेई जी की ही बात का विस्तार नामवर सिंह कर रहे हैं। रहस्यवाद को छायावादी कविता की रीढ़ घोषित करते हुए जब आचार्य वाजपेई महादेवी की तुलना मीरा से करते हैं तो वे प्रकारांतर से उसी सामाजिक स्थिति के काव्य निरूपण तक पहुँचने की कोशिश कर रहे होते हैं जिसका बेहद महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक भाष्य नामवर जी ने 'देवि, माँ, सहचरि, प्राण' वाले अध्याय में किया है।

बेशक, वाजपेई जी के अपने सिद्धांतों में अन्तविर्रोध काफी है। उदाहरण के लिए यथार्थवाद का प्रश्न उनके लिए अनसुलझा प्रश्न रह गया। 'कंकाल' और 'कामायनी' के यथार्थवाद में फर्क करने में वाजपेई जी के सिद्धांत लड़खड़ाने लगते हैं। दूसरे प्रेमचंद को लेकर उनका रुख संगत नहीं है। वे उन्हें महत्त्वपूर्ण मानने के बाद भी उनके 'प्रोपगैंडा' को पचा नहीं पाते। उन्हें 'गोदान' से अधिक महत्त्वपूर्ण 'कंकाल' लगता है। इस तरफ इशारा करते हुए निर्मला जैन ने लिखा- "इस प्रकार मन में अनेक मान्यताएँ लेकर काव्य समीक्षा में प्रवृत्त होने के कारण वाजपेई जी ने दुहरे मानदंडों का प्रयोग किया। वे शुक्ल जी की आलोचना को पांडित्यपूर्ण किंतु वैयक्तिक रुचि का द्योतक मानते हुए उस पर 'वस्तुगत' और 'वैज्ञानिक' न होने का आरोप लगाते थे। सवाल यह है कि क्या वाजपेई जी स्वयं इस आक्षेप से बरी हैं? क्या वाजपेई जी, जो प्रसाद के उपन्यास 'कंकाल' के यथार्थवाद के कारण उसकी प्रशंसा करते हैं, अकेले इसी गुण के आधार पर प्रेमचंद के साहित्य की उत्कृष्टता को देख पाने में असमर्थ हैं?..."

निष्कर्ष रूप में वाजपेई जी की जो बात छायावादी कवियों पर लागू होती है वही स्वयं उनके आलोचना कर्म पर भी। राष्ट्र के आधार पर बनी चौहद्दियों को विस्तृत करने, उसके नए क्षितिज खोलने का जो काम छायावादियों ने किया, वाजपेई जी भी उसी दिशा में प्रयासरत थे। यही उनके आलोचनाकर्म का केंद्र है। इसीलिए परवर्ती प्रयोगवाद आदि पर उन्होंने जो बहसें कीं, इसी आधारभूमि पर खड़े होकर कीं। आचार्य शुक्ल से टकराकर और छायावादी काव्य की आशंसा करके वे हिंदी आलोचना में बदलती-बढ़ती मध्यवर्गीय रुचियों को अभिव्यक्त कर रहे थे।


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हिंदी समय में मृत्युंजय की रचनाएँ