हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्व का विषय है, धार्मिक चिंतन--आत्मा, परमात्मा तथा धर्म से संबंध रखनेवाला सब कुछ। हम संहिताओं को लेंगे। ये ऋचाओं के संग्रह हैं और मानो प्राचीनतम आर्य साहित्य हैं, वस्तुतः ये संसार के सबसे पुरातन, साहित्य हैं। इनसे भी प्राचीनतर साहित्य के कुछ छोटे-मोटे अंश यहाँ-वहाँ भले ही रहे हों, पर उन्हें यथार्थतः ग्रंथ या साहित्य नहीं कहा जा सकता। संकलित ग्रंथ के रूप में ये ही संसार में प्राचीनतम हैं और इनमें आर्यों की आदिकालीन भावनाएँ, उनकी आकांक्षाएँ तथा उनकी रीति-नीति के संबंध में उठनेवाले प्रश्न आदि चित्रित हैं। प्रारंभ में ही हमें एक बड़ी विचित्र कल्पना मिलती है। इन ऋचाओं में भिन्न-भिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। इन देवताओं को देव या द्युतिमान कहा गया है। ये देव अनेक हैं। एक हैं इंद्र, दूसरे वरुण, मित्र, पर्जन्य आदि-आदिएक के बाद एक, पौराणिक और रूपक-कथाओं के विभिन्न पात्र क्रमशः हमारे सामने आते हैं। उदाहरणार्थ--वज्रधारी इंद्र मनुष्य-लोक में वर्षा को रोकनेवाले सर्प पर वज्र का आघात करते दिखते हैं। वे अपने वज्र को फेंकते हैं, सर्प मर जाता है और वर्षा की झड़ी लग जाती है। लोगों में प्रसन्नता छा जाती है और वे यज्ञ द्वारा इंद्र की पूजा करते हैं। वे यज्ञवेदी बनाते हैं, पशु की बलि देकर उसके पके मांस का नैवेद्य इंद्र को अर्पण करते हैं। सोमलता उनकी एक प्यारी वनस्पति थी। वह लता क्या थी, यह आज कोई नहीं जानता; उसका अब बिल्कुल लोप हो गया है। पर ग्रंथों से मालूम होता है कि उसे कुचलने से दूधिया जैसा एक रस निकलता था; उसमें खमीर उठाया जाता था और यह भी पता लगता है कि ऐसा सोमरस नशीला होता था। इसे भी वे इंद्र एवं अन्यान्य देवताओं को अर्पित करते थे और स्वयं भी पीते थे। कभी कभी वे इसे कुछ अधिक पी लेते और इसी तरह देवता लोग भी। कभी कभी इंद्र नशे में चूर हो जाते थे। कुछ ऋचाएँ ऐसी भी मिलती हैं कि इंद्र एक बार यह सोमरस इतना अधिक पी गए कि असंबद्ध बातें करने लगे। वैसा ही वरुण के संबंध में है। ये एक दूसरे महाशक्तिसंपन्न देवता हैं और उसी प्रकार अपने भक्तों की रक्षा करते हैं तथा वे भक्त सोमरस अपित कर उनका जयगान करते हैं। रण देवता आदि की भी यही बात है। पर अन्य पौराणिक कथाओं की अपेक्षा संहिता की कथाओं में वैशिष्ट्य लानेवाली एक मुख्य बात यह है कि इन देवताओं में से प्रत्येक के साथ अनंतत्व की कल्पना संबद्ध है। यह अनंत केवल भावरूप है और कभी कभी वह 'आदित्य' नाम से वर्णित किया गया है। अन्य स्थानों में वह दूसरे देवताओं से संबद्ध कर दिया गया है। उदाहरणार्थ, इंद्र को लो। किसी किसी सूक्त में तुम देखोगे कि इंद्र देहधारी हैं, अत्यंत शक्तिशाली हैं, कभी कभी स्वर्णकवच पहनते हैं और नीचे उतरकर अपने भक्तों के साथ रहते हैं, भोजनादि करते हैं, असुरों से और सर्पो से लड़ते हैं, इत्यादि। फिर और एक दूसरे सूक्त में इंद्र को बहुत उच्च पद दिया गया है। वे सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वान्त यामी आदि गुणों से मण्डित किएगए हैं। ऐसा ही वरुण के संबंध में है। ये वरुण वायुदेवता हैं और जल पर इनका अधिकार है, जैसे पहले इंद्र का था; अकस्मात् हम देखते हैं कि ये उच्च पद पर बिठा दिएगए हैं और इन्हें भी सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। वरुणदेव के इस सर्वोच्च स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाला एक सूक्त [2] मैं पढूँगा, जिससे तुम मेरा अभिप्राय समझ जाओगे। इस सूक्त का अनुवाद अंग्रेजी कविता में भी हो गया है। इसका अर्थ यह है :
'यह शक्तिसंपन्न प्रभु स्वर्ग से हमारे कार्यों को अपनी आँखों के सामने होता हुआ सा देखता है। देवतागण मनुष्यों के कार्यों को जानते हैं, यद्यपि मनुष्य चाहते हैं कि अपने कार्य छिपाकर करें। कोई खड़ा हो, चलता हो, चुपके से एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता हो, या अपनी निभृत गुफा में बैठा हो--उसके सभी हाल-चाल का पता देवतागण पा जाते हैं। जब कभी दो मनुष्य गुप्त मंत्रणा करते हैं और सोचते हैं कि हम अकेले हैं, तो वहाँ तीसरे राजा वरुण भी होते हैं और उनकी सभी योजनाओं को जान जाते हैं। यह वसुधा उनकी है, यह विस्तीर्ण अनंत आकाश भी उन्हीं का है, दोनों सागर उन्हीं में स्थित हैं, तथापि वे उस छोटे से जलाशय में ही वास करते हैं। यदि कोई गगनमंडल के उस पार भी उड़कर जाना चाहे, तो वहाँ भी वह राजा वरुण के पंजे से नहीं बच सकता। उनके गुप्तचर आकाश से उतरकर संसार में सब ओर विचरते रहते हैं और उनके सहस्त्र नेत्र, जो अतिशय सूक्ष्म अवलोकन करते रहते हैं, पृथ्वी की सुदूर सीमा तक अपनी दृष्टि फैलाये रहते हैं।'
इसी प्रकार हम अन्य देवताओं के विषय में भी अनेक उदाहरण दे सकते हैं। वे सभी एक के बाद एक उसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आते हैं--पहले वे देवताओं के रूप में दिखते हैं और उसके बाद उन्हें ऊपर उठाकर उनके विषय में यह धारणा उपस्थित की जाती है कि वे ऐसे 'पुरुष' हैं, जिनमें सारा ब्रह्माण्ड अवस्थित है, जो प्रत्येक हृदय को देखनेवाले साक्षी हैं और विश्व के शासनकर्ता हैं। वरुणदेव के संबंध में एक दूसरा भाव भी है, और उस भाव का केवल अंकुर ही फूट पाया था कि आर्य-मन ने उसे वहीं कुचल डाला; वह है भय का भाव। एक अन्य स्थान पर हम पड़ते हैं कि उन्हें अपने किए हुए पाप के कारण भय लगता है और वे वरुण से क्षमा मांगते हैं। भारत में भय और पाप, इन दो भावों को बढ़ने नहीं दिया गया; इसका कारण तुम बाद में समझ जाओगे, तथापि इनके अंकुर तो फूटने को ही थे। इसीको, जैसा कि तुम सब जानते हो, एकेश्वरवाद कहते हैं। इस एकेश्वरवाद का उदय भारत में अति प्राचीनकाल में ही हुआ था। संपूर्ण संहिताओं में, उनके प्रथम एव प्राचीनतम भाग में इस एकेश्वरवाद संबंधी विचार का ही प्राधान्य है। पर हम देखेंगे कि आर्यों के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं जंचा। उन्होंने उसे बिल्कुल ही एक आदिम प्रकार की धारणा समझ मानो एक ओर फेंक दिया और आगे बढ़ गए। हम हिंदुओं की ऐसी ही धारणा है। अवश्य जब कोई हिंदू पाश्चात्य विद्वान् पण्डितों द्वारा लिखित वेद संबंधी पुस्तकों और टीका-टिप्पणियों में यह पढ़ता है कि हमारे ग्रंथकर्ताओं के लेखों में केवल यही उपर्युक्त शिक्षा भरी है, तब तो उसे हँसी आए बिना नहीं रहती। जिन्होंने बचपन से ही मानो अपनी माँ के दूध के साथ इस विचार का पान किया है कि एक सगुण ईश्वर का भाव ही ईश्वर संबंधी उच्चतम आदर्श है, अतः जब वे देखते हैं कि संहिता के बाद ही एकेश्वरवाद की कल्पना, जिससे संहिता भरी हुई है, आर्यों द्वारा निरर्थक पाईगई, तत्त्ववेत्ताओं और दार्शनिकों के लिए अनुपयुक्त समझी गई और इसलिए वे आर्य अधिक तात्त्विक एवं इंद्रियाँतीत सत्य की खोज में विशेष प्रयत्नशील हुए, तब वे स्वभावतः ही भारत के इन प्राचीन मनीषियों के समान विचार करने का साहस नहीं कर सकते। आर्यों की दृष्टि में एकेश्वरवाद अत्यंत मानुषिक प्रतीत हुआ, यद्यपि उन्होंने उसके वर्णन में 'संपूर्ण विश्व उसीमें भ्रमण करता हैं', 'तू ही सभी के अंतःकरणों का नियामक है' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग किया। हिंदू लोग साहसी थे और उन्हें इस बात का श्रेय देना चाहिए कि वे अपने सभी विचारों को बड़े साहस के साथ सोचते थे--इतने साहस के साथ कि उनके विचार की एक चिनगारी मात्र से पश्चिम के तथाकथित साहसी तत्त्ववेत्ता डर जाते हैं! इन आर्य मनीषियों के संबंध में प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने यह ठीक ही कहा है कि ये लोग इतनी अधिक ऊँचाई तक चढ़े, जहाँ केवल उनके ही फेफड़े साँस ले सकते थे, दूसरों के फेफड़े तो इतनी ऊँचाई में फट गए होते! जहाँ भी बुद्धि ले गई, इन धीर पुरुषों ने उसका अनुरागपूर्वक अनुसरण किया--उसके लिए कोई त्याग उठा न रखा। संभव था कि इससे उनके हृदय के चिरपोषित अंधविश्वास चूर चूर हो जाते, पर उन्होंने इसकी परवाह न की; यह भी परवाह न की कि समाज उनके संबंध में क्या सोचेगा, क्या कहेगा! वे तो साहसी थे। उन्होंने जिसे ठीक और सत्य समझा, उसीकी चर्चा को और प्रचार किया।
प्राचीन वैदिक ऋषियों के संबंध में इस प्रकार विचार करने के पूर्व हम यहाँ पर वेदों में से एक-दो विशिष्ट बातों का उल्लेख करेंगे। हम देखते हैं कि वहाँ एक के बाद दूसरे देवता लिएगए हैं, उन्हें ऊपर उठाया गया है, उनकी महिमा और प्रभुता की क्रमशः वृद्धि की गई है और अंत में उनमें से प्रत्येक को विश्व के उस अनंत सगुण ईश्वर की पदवी पर बिठा दिया गया है । यह एक विशिष्ट बात है, जिसका स्पष्टीकरण होना आवश्यक है। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर इसके लिए एक नए नाम की रचना करते हैं; वे कहते हैं कि यह हिंदुओं को विशेषता है; वे इसे 'हेनोथिज्म' [3] नाम से पुकारते हैं। इसे समझने के लिए हमें दूर जाने को आवश्यकता नहीं। इसकी यथार्थ मीमांसा तो उन वेदों में ही है। वेदों में जहा पर इन देवताओं का वर्णन है, उन्हें ऊपर उठाया गया है, उनकी महिमा और प्रभुता की क्रमशः वृद्धि की गई है, बस, उसके कुछ आगे ही हमें इसका समाधान भी मिलता है। प्रश्न यह उठता है कि हिंदुओं को पौराणिक कथाएँ अन्य जातियों की ऐसी कथाओं की अपेक्षा इतनी वैशिष्टयपूर्ण तथा भिन्न क्यों हैं? बेबिलोनी या यूनानी पौराणिक कथाओं में हम देखते हैं कि एक देवता आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है और एक उच्च अवस्था में पहुँचकर वहीं जम जाता है तथा दूसरे देवता लुप्त हो जाते हैं। मोलोकों में जिहोवा सबसे श्रेष्ठ बन जाता है और अन्य सब मोलोकों को भुला दिया जाता है, सदा के लिए लुप्त हो जाते हैं; 'जिहोवा' देवाधिदेव के आसन पर विराजमान हो जाता है। इसी तरह यूनानी देवताओं में 'जीसस' नामक देवता प्राधान्य लाभ करता है और उत्तरोत्तर अधि काधिक महिमान्वित होता हुआ अंत में विश्वविधाता के सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता है; अन्य सभी देवता क्षीणप्रभ होकर साधारण देवदूतों की श्रेणी में समाविष्ट हो जाते हैं। इस घटना की पुनरावृत्ति उत्तरकालीन इतिहास में भी पाई जाती है। बौद्ध और जैन लोगों ने अपने एक धर्म-प्रचारक को ईश्वर का स्थान दे दिया और अन्य देवताओं को उस 'बुद्ध' या 'जिन' के अधीन माना। यही प्रणाली समस्त संसार के धर्मेतिहास में प्रचलित है, परंतु वेदों में हम मानो इसका अपवाद पाते हैं। वहाँ किसी एक देवता की स्तुति की जाती है और उस समय तक यह कहा जाता है कि अन्य सब देवता उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं; और जिस देवता के वरुण द्वारा बढ़ाये जाने की बात कही गई है, वह स्वयं ही दूसरे मंडल में सर्वोच्च पद पर पहुँचा दिया जाता है। बारी बारी से ये देवता सगुण ईश्वर के पद पर स्थापित होते हैं। पर इसकी व्याख्या तो उसी ग्रंथ में पाई जाती है और वह सचमुच अद्भुत व्याख्या है। वह भारत में समस्त उत्तर कालीन विचारों का विषय रही है और वही सारे संसार के धार्मिक क्षेत्र में आध्यात्मिक विचारधारा का विषय रहेगी; वह है, एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। --'सत्ता एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। इन सभी स्तोत्रों में, जहाँ इन विभिन्न देवताओं की महिमा गायी गई है, जिस परम पुरुष के दर्शन होते हैं, वह एक ही है; अंतर केवल दर्शन करनेवाले में है। स्तोत्रगायक, ऋषि और कवि उसी एक परम पुरुष का गुणगान विभिन्न वाणियों और भिन्न-भिन्न छंदों में करते हैं। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति--'सत्ता एक ही है, ऋषियों ने उसके भिन्न-भिन्न नाम दिए हैं।' इस एक मंत्र से बहुत से महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले हैं। संभवतः तुम लोगों में से कुछ को यह सुनकर आश्चर्य होता होगा कि भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ विधर्मियों पर अत्याचार कभी नहीं हुआ और जहाँ किसी मनुष्य को उसके धार्मिक विश्वास के कारण उत्पीड़ित नहीं किया गया। आस्तिक, नास्तिक, अद्वैतवादी, द्वैतवादी, एकेश्वरवादी--सभी वहाँ वास करते हैं और एक साथ बिना द्वेषभाव के रहते हैं। जड़वादी चार्वाकों ने ब्राह्मणों के मंदिरों की सीढ़ियों पर से देवताओं के विरुद्ध, यहाँ तक कि स्वयं परमेश्वर के विरुद्ध भी प्रचार किया; वे देश भर में यह उपदेश देते फिरे कि ईश्वर को मानना निरा अंधविश्वास है; देव-देवता, वेद और धर्म आदि की बातें निरी कपोल-कल्पनाएँ हैं, जिन्हें पुरोहितों ने अपने स्वार्थ और लाभ के लिए गढ़ा है। पर बिना उत्पीड़ित किए उन्हें ऐसे प्रचार की भी अनुमति मिल गई। बुद्धदेव जहाँ कहीं गए, उन्होंने हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जानेवाली सभी पुरातन बातों को मिट्टी में मिला देने का प्रयत्न किया, पर उनके विरुद्ध एक आवाज तक न उठाईगई और उन्होंने परिपक्व वृद्धावस्था में अपने शरीर का त्याग किया। ऐसा ही जैनियों के संबंध में हुआ, जो ईश्वर संबंधी धारणा की हँसी उड़ाते थे। उनका कहना था, "ईश्वर हो ही कैसे सकता है? ईश्वर की कल्पना तो केवल अंधविश्वास है।" इसी प्रकार अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं। जब तक इस्लाम धर्म की लहर भारत में नहीं आई थी, तब तक वहाँ के लोग यह जानते तक न थे कि धार्मिक अत्याचार किसे कहते हैं। जब विधर्मी विदेशियों द्वारा हिंदुओं पर यह अत्याचार हुआ, तभी उन्होंने इसे प्रथम बार अनुभव किया। आज भी यह बात सर्वविदित है कि ईसाइयों के गिरजाघर बनाने में हिंदुओं ने कितनी सहायता दी है और उन्हें सहायता देने के लिए वे किस तरह सदैव तत्पर रहते हैं। वहाँ धर्म के नाम पर रक्तपात कभी नहीं किया गया। यहाँ तक कि वेदों में विश्वास न करनेवाले वे धर्म भी, जो भारत की भूमि में उपजे और फले फूले हैं, उसी प्रकार प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए बौद्ध धर्म को लिया जा सकता है। बौद्ध धर्म कुछ बातों में एक महान धर्म है, पर बौद्ध धर्म और वेदांत को समान समझना भूल है। उन दोनों का अंतर उसी प्रकार स्पष्ट है, जैसे कि ईसाई धर्म और उद्धार-दल (Salvation Army) का। बौद्ध धर्म में महान और अच्छी बातें हैं, पर ये बातें ऐसे मनुष्यों के हाथ पड़ गयीं, जो उन्हें सुरक्षित रखने में असमर्थ थे। तत्त्वज्ञानियों के दिए हुए रत्न सर्वसाधारण जन-समूह के हाथों में आ पड़े और जनता मे उनके विचारों को ग्रहण किया। उनमें काफी उत्साह था, उनके पास कुछ अपूर्व भाव थे--महान और लोकहितकारी भाव; पर तो भी ऐसी बातों को सुरक्षित रखने के लिए कुछ दूसरी वस्तु की आवश्यकता हुआ करती है-वह है बुद्धि और विचार। तुम देखोगे कि जहाँ कहीं उच्च लोकहितकारी आदर्श जनसाधारण के हाथों पड़े हैं, वहाँ उसका प्रथम परिणाम अधःपतन ही हुआ है। वास्तव में विद्या और बुद्धि इन बातों को सुरक्षित रखती है। संसार के सामने प्रचारक-धर्म के रूप में सर्वप्रथम बौद्ध धर्म ही आया और उस युग की सारी सभ्य जातियों में उसका प्रचार किया गया, पर उस धर्म के नाम पर कहीं एक बूंद भी रक्त नहीं गिराया गया। हम इतिहास में देखते हैं कि किस प्रकार चीन देश में बौद्ध प्रचारकों पर अत्याचार किया गया, किस प्रकार सहस्रों बौद्ध प्रचारक लगातार दो-तीन सम्राटों द्वारा मौत के घाट उतार दिएगए। पर उसके बाद अंत में बौद्धों का भाग्य चमका। एक सम्राट ने उन अत्याचारियों से बदला लेना चाहा, पर बौद्ध प्रचारकों ने इंकार कर दिया। इस सबके लिए हम इस निम्नोक्त मंत्र के ऋणी हैं। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम इस मंत्र को याद रखो--'जिसे लोग इंद्र, मित्र, वरुण कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।' [4]
आधुनिक विद्वान् चाहे जो कहें, पर यह कोई नहीं जानता कि यह मंत्र कब लिखा गया था--कौन जाने, वह ८००० वर्ष पूर्व लिखा गया हो, या ९००० वर्ष पूर्व। इनमें से कोई भी धार्मिक विचार आधुनिक नहीं है, पर तो भी ये आज भी उतने ही नवीन हैं, जितने कि वे लिखने के समय थे। यही क्यों, आज तो वे अधिक नवीन हैं; क्योंकि उस प्राचीन युग में मनुष्य उतना सभ्य नहीं था, जितना कि हम आज उसे समझते हैं! तब उसने यह नहीं सीखा था कि वह इसलिए अपने भाई का गला काट ले कि वह उससे कुछ अलग विचार रखता है; उसने संसार को रक्त से नहीं नहलाया था, वह अपने भाई के लिए राक्षस नहीं बना था। तब वह मानवता के नाम पर सारी मानव-जाति का वध नहीं करता था। इसीलिए एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति, ये शब्द आज हमारे सामने अधिक नवीन रूप से आते हैं, महान प्रेरणा और संजीवनी लेकर आते हैं, उससे अधिक तरो ताजा होकर आते हैं, जितना कि वे लिखने के समय थे। हमें आज भी यह सीखना शेष है कि सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है, चाहे वे धर्म हिंदू, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई आदि भिन्न-भिन्न नामवाले क्यों न हों; और जो इनमें से किसीकी भी निंदा करता है, वह अपने ही ईश्वर की निंदा करता है।
यही वह समाधान था, जिस पर वे पहुँचे थे। पर जैसा मैंने कहा, हिंदू मन को इस प्राचीन एकेश्वरवाद की धारणा से संतोष नहीं हुआ। वह धारणा अधिक दूर तक नहीं जा सकी, उससे दृश्य-जगत की घटनाओं का समाधान नहीं हुआ। जगत का एक शासनकर्ता ईश्वर मान लेने से जगत का स्वरूप ठीक-ठीकसमझ में नहीं आता कभी नहीं आता। विश्व का एक विधाता मान लेने से विश्व-व्यापार का समाधान नहीं होता, और यदि वह विधाता विश्व के बाहर हो, तब तो बात और भी जटिल हो जाती है। ऐसा विधाता भले ही नैतिक पथ प्रदर्शक हो, सर्वशक्तिमान हो, पर वह इस विश्व-पहेली का हल नहीं हो सकता।
अब हम विश्व के संबंध में उस प्रथम प्रश्न को उठते हुए देखते हैं, जो उत्तरोत्तर गंभीर होता जाता है और पूछता है--"यह विश्व कहाँ से आया? कैसे आया? यह कैसे स्थित है? " इस प्रश्न से संबंधित हमें कई सूक्त मिलते हैं। इस प्रदन को सुसंबद्ध रूप देने के लिए कठिन प्रयास हो रहा है और इसका वर्णन निम्नोक्त सूक्त में जिस प्रकार किया गया है, उससे अधिक काव्यमय और अद्भुत वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं
नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्
अम्भः किमासीत् गहनं गभीरम् ॥
न मृत्युरासीत् अमृतं न तर्हि
न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
-'उस समय न सत् था, न असत्, न वायु थी, न आकाश, न अन्य कुछ ही। यह सब किससे ढका था? सब किसके आधार पर स्थित था? तब मृत्यु नहीं थी, न अमरत्व ही, और न रात्रि और दिन का परिवर्तन ही था। [5] अनुवाद करने से कविता का अधिकांश सौंदर्य नष्ट हो जाता है। न मृत्युरासीत् अमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः--देखो, संस्कृत शब्दों की ध्वनि ही कैसी संगीतमयी है! आनीदवातं स्वधया तदेकं, तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास।--'वह सत्ता, वह प्राण ही मानो आवरण के रूप में ईश्वर को ढके हुए था और उसका चलायमान होना प्रारंभ नहीं हुआ था।' [6] इस एक भाव को स्मरण रखना ठीक होगा कि वह सत्ता क्रियारहित होकर स्थित थी; क्योंकि आगे चलकर हम देखेंगे कि सृष्टिसर्ग के संबंध में इस भाव का ब्रह्मांडविज्ञान में किस प्रकार विकास हुआ है। हम यह भी देखेंगे कि हिंदू तत्त्वज्ञान और दर्शनशास्त्र के अनुसार यह संपूर्ण विश्व किस प्रकार क्रियाशील स्पंदनों की मानो समष्टि गति है और कई काल ऐसे हुआ करते हैं, जब यह समस्त गति शांत हो जाती है और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनकर कुछ काल तक उसी अवस्था में रहती है। इसी अवस्था का वर्णन इस सूक्त में किया गया है। वह सत्ता अक्रिय थी, अचल थी, स्पंदनरहित थी और जब सृष्टि का आरंभ हुआ, तब वह स्पंदित होने लगी और उसी शांत, आत्मविधृत, अद्वितीय सत्ता से यह सृष्टि बाहर निकल आई, उसके परे कुछ नहीं है।
तम आसीत् तमसा गूढमग्रे --अंधकार पहले था। इस वर्णन की महिमा तुम लोगों में से वे ही समझ सकेंगे, जो भारत या किसी अन्य उष्ण देश को गए हैं और वर्षा ऋतु का आरंभ देखा है। इस दृश्य के वर्णन का प्रयत्ल तीन कवियों ने जिस प्रकार किया है, वह मुझे याद आता है। मिल्टन कहते हैं--"प्रकाश नहीं था,अंधकार ही दिखाई देता था।" [7] कालिदास कहते हैं--"ऐसा अंधकार, जिसका सुई से भेदन किया जा सकता है।" पर 'अंधकार में छिपा हुआ अंधकार'--इस वैदिक वर्णन को कोई नहीं पाता। प्रत्येक वस्तु सूख रही है, झुलस रही है। सारी सृष्टि मानो जल रही है और कई दिनों से ऐसा हो रहा है। इतने में एक दिन अपराह्न में आकाश के एक कोने में एक छोटा सा बादल का टुकड़ा दिखाई देता है और आध घंटे के अंदर ही वह सारी पृथ्वी को छा लेता है--बादल पर बादल छा जाते हैं और फिर प्रलयकारी घनघोर वर्षा होने लगती है। सृष्टि का कारण 'इच्छा' बतायी गई। जो सबसे पहले अस्तित्व में था, वही 'इच्छा' में परिणत हो गया और वह इच्छा कामना के रूप में प्रकट होने लगी। यह भी हमें स्मरण रखना चाहिए; क्योंकि हम देखते हैं कि यह कामना ही सारी सृष्टि का कारण बतलायी गई है। यह 'इच्छा' ही बौद्ध और वेदांत दर्शनों में अत्यंत महत्त्व की कल्पना रही है और यही आगे चलकर जर्मन दर्शन में प्रविष्ट हो, शॉपेनहावर के दर्शन की भित्तिस्वरूप बन गई है। हम सर्वप्रथम यहाँ उसके विषय में सुनते हैं--
कामस्तदग्रे समवर्तताधि
मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्
हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा।
--'अब पहले इच्छा की उत्पत्ति हुई, जो मन का प्रथम बीज है। ऋषियों ने अपने हृदय में प्रज्ञा द्वारा खोजते खोजते सत् और असत् के बीच के संबंध का पता लगाया। [8]
यह बड़ा विचित्र वर्णन है; ऋषि अंत में कहते हैं, सो अंग वेद यदि वा न वेद--'कदाचित् वह (ईश्वर) भी इसे नहीं जानता!' कवित्व की विशेषताओं को अलग रखते हुए, हम इस सूक्त में यह पाते हैं कि जगत संबंधी प्रश्न एक निश्चित रूप प्राप्त कर चुका है और यह भी प्रतीत होता है कि ऋषियों के मन अवश्य एक ऐसी उन्नत अवस्था में पहुँच गए हैं, जहाँ किसी प्रकार के साधारण उत्तरों से उनका समाधान नहीं हो सकता। हम यह देखते हैं कि उपरिस्थित 'जगन्नियन्ता' की कल्पना से भी उन्हें संतोष न हुआ। कई अन्य सूक्तों में भी इस सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में यही भाव पाया जाता है। और जैसा हम पहले देख चुके हैं कि जब वे विश्व के एक नियंता, एक सगुण ईश्वर की खोज में लगे हुए थे, तब वे एक के बाद दूसरे देवता को लेकर उसे उस उच्चतम पद तक उठा देते थे, उसी तरह अब हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न स्तोत्रों में एक या दूसरे भाव को लिया गया है, उसका अनंत विस्तार किया गया है और उसे विश्व की सभी वस्तुओं की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। एक विशिष्ट भाव को आधार के रूप में लिया गया है, जिसमें सब कुछ आश्रित और स्थित है, और वही आधार यह सब बन गया है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न भावों के संबंध में भी किया गया है। उन्होंने इस प्रणाली का प्रयोग 'प्राण'-रूपी जीवन-तत्त्व पर किया। उन्होंने प्राण-तत्त्व के इस भाव का इतना विकास किया कि अंत में वह विश्वव्यापी और अनंत बन गया। यह प्राण-तत्त्व ही सबको धारण करता है। वह केवल मानव शरीर की ही नहीं, वरन् सूर्य और चंद्रमा की भी ज्योति है; वही प्रत्येक वस्तु को चलानेवाली शक्ति है, वही विश्व-संचालिनी शक्ति है। इनमें से कई वर्णन तो बड़े ही सुंदर, बड़े ही काव्यमय हैं। उनकी चित्रांकन की शैली बड़ी ही रम्य और अपूर्व काव्यमयी है। उदाहरणार्थ देखो, यत्राधि सूर उदितो विभाति--'जिस प्रजापतिरूपी आधार से उदय को प्राप्त हो सूर्य प्राची में लाली बिखेरता हुआ प्रकाशमान होता है।' अस्तु। तत्पश्चात् उस 'इच्छा' का, जो, हमने अभी ही पढ़ा, सृष्टि के अव्यक्त बीज के रूप से उठी, यहाँ तक विस्तार किया गया कि अंत में उसने विश्वेश्वर का स्थान प्राप्त कर लिया। पर इन विचारों में से कोई भी उन्हें संतुष्ट नहीं कर सका।
यहाँ पर यह कल्पना अत्यंत उदात्त रूप धारण कर लेती है और अंत में वह आदि पुरुष की कल्पना में परिणत हो जाती है--
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः।
--'सृजन के पूर्व उसी एक का अस्तित्व था। वही सब पदार्थों का एकमात्र अधीश्वर है, वही इस विश्व का आधार है। वही, जो जीव-सृष्टि का जनक है, समस्त शक्ति का मूल है, समस्त देव-देवता जिसकी पूजा करते हैं, जीवन जिसकी छाया है, मृत्यु जिसकी छाया है, उसको छोड़ और किसकी पूजा करें? हिमगिरि के तुषारमंडित उत्तुंग शिखर जिसकी महिमा का उद्गान करते हैं, समुद्र अपने अगाध जलसंभार के द्वारा जिसकी महिमा की घोषणा करते हैं। [9] पर, जैसा मैंने अभी ही कहा, इस विचार से उनका समाधान न हो सका।
अंततोगत्वा हम एक बड़ी ही विचित्र अवस्था पाते हैं। आर्य ऋषियों का मन अभी तक बाह्य प्रकृति में ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ रहा था। सूर्य, चंद्रमा, तारागण आदि जो जो वस्तुएँ उन्हें दिखाई दी, उन सबमें उन्होंने इसका समाधान ढूंढा और इस प्रकार से जो कुछ उन्हें मिल सकता था, उस सबकी प्राप्ति की। संपूर्ण प्रकृति अधिक से अधिक उन्हें केवल इतनी ही शिक्षा दे सकी कि इस विश्व का नियंता एक व्यक्तिविशेष है। इससे अधिक वे बाह्य प्रकृति से और कुछ न सीख सके। संक्षेप में, बाह्य विश्व से हमें केवल एक शिल्पी की कल्पना ही प्राप्त हो सकती है, जिसे सृष्टि-रचनावाद का सिद्धांत (Design theory) कहते हैं। हम जानते ही हैं कि यह सिद्धांत कुछ विशेष तर्कसंगत नहीं है। उसमें कुछ अबोधता का आभास है; तथापि बाह्य जगत से तो हम परमेश्वर के संबंध में बस, इतना ही जान सकते हैं कि इस जगत का बनानेवाला कोई होना चाहिए। किंतु सृष्टिविषयक समस्या इससे हल नहीं होती। इस कल्पना में कि इस जगत के उपादान ईश्वर के सामने थे तथा सृजन के लिए उस ईश्वर को इन उपादानों की आवश्यकता थी, सबसे अधिक आपत्तिजनक बात तो यह है कि ईश्वर इस उपादान-कारण से मर्यादित हो जाता है, क्योंकि इस उपादान की मर्यादा के भीतर ही वह कार्य कर सकता है। कारीगर सामग्रियों के बिना मकान नहीं बना सकता; अत: वह उस सामग्री की मर्यादा से मर्यादित है। जिस वस्तु के बनाने योग्य सामग्री उसके पास है, वही तो वह बना सकता है। अतः सृष्टि-रचनावाद के सिद्धांत से जो ईश्वर हमें प्राप्त होता है, वह तो अधिक से अधिक एक कारीगर मात्र है, इस जगत का एक समर्याद शिल्पी है। वह उपादान-परतंत्र है, उपादानों से मर्यादित है। तब वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है? आर्य ऋषि यह सत्य पहले ही जान चके थे। बहुतेरे अन्य लोग तो वहीं रुक गए होते। अन्य देशों में यही हुआ; मानव-मन तो वहीं पर पहुँचकर न रुक सका; विचारशील और मेधावी मन उससे आगे जाना चाहते थे; पर जो विचार-शक्ति में उनसे पिछड़े हुए लोग थे, उन्होंने उन्हें पकड़ रखा और आगे न बढ़ने दिया। किंतु सौभाग्यवश ये हिंदू ऋषिगण ऐसे नहीं थे, जिनकी प्रगति कोई रोक सके--वे तो समस्या को हल करना ही चाहते थे। इसलिए अब हम देखते हैं कि वे बाह्य जगत को छोड़ अंतर्जगत् की ओर मुड़ते हैं। सबसे पहले जो बात उनके ध्यान में आई, वह यह थी कि बाह्य जगत का अनुभव तथा धर्मविषयक कोई भी प्रतीति हमें नेत्र अथवा अन्य इंद्रियों द्वारा नहीं होती। अतः पहली समस्या जो उठी, वह थी उस कमी की खोज। और हम देखेंगे, वह कमी भौतिक और नैतिक, दोनों थी। एक ऋषि कहते हैं कि तुम इस विश्व का कारण नहीं जानते; तुम्हारे और मेरे बीच में बड़ा भारी अंतर उत्पन्न हो गया है। ऐसा क्यों? इसलिए कि तुम इंद्रियपरक बातों की चर्चा करते रहते हो और इंद्रिय-विषयों तथा केवल धार्मिक विधि-अनुष्ठानों से संतोष मान लेते हो, जबकि मैंने उस द्वंद्वातीतपुरुष को जान लिया है।
मैं तुम्हारे सामने आध्यात्मिक विचारों की जिस प्रगति का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न कर रहा हूँ, उसके साथ साथ मैं उस प्रगति के एक और अंग की ओर कुछ संकेत मात्र कर सकता हूँ; पर उसका हमारे विषय से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। इसलिए मैं उस पर अधिक कहना आवश्यक नहीं समझता। वह है--कर्मकांड की प्रगति। जहाँ आध्यात्मिक विचारों की गणितीय क्रम से प्रगति हुई, वहाँ कर्मकांड के विधि-विधान संबंधी विचार ज्यामितीय क्रम से बढ़ते गए। पुराने अंधविश्वास इस समय तक बढ़कर विधि-विधानों की एक प्रचंड राशि में परिणत हो गए थे और यह राशि उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई; यहाँ तक कि अंत में उसने हिंदू जीवन को कुचल सा डाला। वह आज भी विद्यमान है और हमें अच्छी तरह से जकड़े हुए है तथा हमारे जीवन के प्रत्येक अंग में ओत प्रोत होकर उसने हमें जन्म से ही गुलाम बना रखा है। फिर भी, हम साथ ही साथ, अत्यंत प्राचीन काल से ही, इस कर्मकांड की प्रगति के विरोध में आवाजें उठती पाते हैं। वहाँ इस कर्मकांड के विरोध में एक बड़ी भारी आपत्ति यह उठाईगई है कि विधि-अनुष्ठानों में रुचि, विशिष्ट समय में विशिष्ट वस्त्र का परिधान, विशिष्ट प्रकार से भोजन करने की रीति तथा इसी प्रकार के धार्मिक स्वाँग और आडंबर धर्म के केवल बाहरी रूप हैं; क्योंकि तुम इंद्रियों में ही संतोष मान लेते हो और उनके परे जाना नहीं चाहते। हमारे तथा प्रत्येक मनुष्य के लिए, यही तो भारी काठनाई है! जब हम, आध्यात्मिक विषयों की चर्चा सुनते हैं, तब हम अधिक से अधिक क्या करते हैं? इंद्रियों के वृत्त में ही हमारा आदर्श सीमित रहता है और उसी के मानदंड से हम उन सबकी नाप-जोख करते हैं। एक व्यक्ति वेदांत, ईश्वर और इंद्रियाँतीत विषयों के संबंध में श्रवण करता है और कई दिनों तक सुनने के पश्चात् पूछता यह है कि आखिर इन सबसे धन कितना मिलेगा, इंद्रिय-सुख कितना मिलेगा? कारण, स्वाभाविक ही उसका सुख-भोग केवल इंद्रियों में रहता है। पर हमारे ऋषि तो यह कहते हैं कि इंद्रियजन्य सुख में ही तृप्त रहना उन कारणों में से एक है, जिन्होंने सत्य और हमारे बीच एक परदा सा डाल दिया है। कर्मकांड में रुचि, इंद्रियों में तृप्ति तथा विविध मत-मतांतरों की कल्पनाओं ने हमारे और सत्य के बीच एक आवरण डाल रखा है। हिंदुओं के आध्यात्मिक विचारों की प्रगति में यह दूसरी महान घटना है। हमें इस आदर्श का पता अंत तक लगाना होगा और देखना होगा कि आगे चलकर वेदांत के अंतर्गत माया के अद्भुत सिद्धांत में उसका किस प्रकार विकास हुआ, किस तरह इस आवरण के सिद्धांतने वेदांत की यथार्थ मीमांसा हमारे सामने रखी और किस प्रकार यह जाना गया कि सत्य तो चिरकाल से ही विद्यमान था, केवल इस आवरण ने ही उसे ढाँक रखा था।
इस तरह हम देखते हैं कि इन प्राचीन आर्य मनीषियों की विचारधारा ने एक नया विषय पकड़ा। वे जान गए कि उनके प्रश्न का यथोचित समाधान बाह्य जगत में किसी भी खोज से नहीं मिल सकता। वे चाहे युगों तक बाहरी जगत में ढूंढते रहें, पर उनके प्रश्नों का उत्तर उससे नहीं मिल सकता। इसीलिए उन्होंने इस दूसरे उपाय का अवलंबन किया। इससे उन्होंने यह सीखा कि विषय-भोग की इन इच्छाओं ने तथा विधि-अनुष्ठानों की इन कामनाओं एवं धर्म के बाह्य आडंबरों ने उनके और सत्य के बीच में आवरण डाल दिया है, और यह आवरण किसी कर्मानुष्ठान द्वारा हटाया नहीं जा सकता। तव तो उन्हें अपने ही मन की ओर लौटना पड़ा और अपने में सत्य की खोज करने के लिए अपने मन का ही विश्लेषण करना पड़ा। बहिर्जगत् अक्षम रहा, इसलिए वे अंतर्जगत् की ओर झुके और तभी वेदांत का सच्चा तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुआ। यहीं से वेदांत के तत्त्वज्ञान का आरंभ होता है। यही वेदांत दर्शन की नींव है। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, वैसे वैसे हम देखते हैं कि उसका संपूर्ण अनुसंधान अंतर्जगत् में है। बिल्कुल प्रारंभ से ही वे यह घोषित करते से दीखते हैं कि सत्य को किसी धर्मविशेष में मत खोजो, वह तो यहीं, मनुष्य की आत्मा में ही है; यह आत्मा अत्यद्भुत है, समस्त ज्ञान का भंडार है, संपूर्ण सत्ता की खानि है--इस चित्स्वरूप, सत्स्वरूप आत्मा में ही उस सत्य की खोज करो; जो यहाँ नहीं है, वह वहाँ (बाह्य जगत में) हो ही नहीं सकता। क्रमशः उन्होंने यह ढूंढ़ निकाला कि जो कुछ बाहर है, वह भीतरी वस्तु का, बहुत हुआ तो, एक अस्पष्ट प्रतिबिंब मात्र है। हम देखेंगे कि किस प्रकार ईश्वर संबंधी उस पुरानी कल्पना को लेकर उन्होंने उसका संस्कार किया--किस प्रकार वे विश्व के बाहर रहने वाले विश्व के उस नियामक को मानो पकड़कर पहले विश्व के भीतर ले आए। वह ईश्वर जगत के बाहर नहीं है, वरन् उसके अंदर ही है; और वहाँ से वे उसे अपने हृदय में ले गए। वह यहाँ, मनुष्य के हृदय में विराजमान है--वह हमारी आत्मा की भी आत्मा है, हमारी वास्तविक सत्ता है।
वेदांत दर्शन के यथार्थ स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण विचारों को समझना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि वह उस अर्थ में दर्शन नहीं है, जिस अर्थ में हम कांट (Kant) और हेगेल (Hegel) के दर्शन की चर्चा करते हैं। वह न तो एक ग्रंथ है और न किसी एक व्यक्ति की कृति ही। विभिन्न कालों में लिखित ग्रंथों की एक श्रेणी का नाम वेदांत है। कभी कभी तो इनमें से एक में ही पचासों भिन्न-भिन्न विषय दिखाई देंगे। वे क्रमबद्ध रूप में संकलित भी नहीं हैं ; मानो विचारों की टिप्पणियाँ टाँक ली गई हों। कहीं कहीं तो बहुत से अन्य विषयों के बीच में हम कोई अद्भुत विचार पा जाते हैं। पर एक बात उल्लेखनीय है कि उपनिषदों के ये विचार सदा प्रगतिशील पाए जाते हैं। उस पुरानी अनगढ़ भाषा में, प्रत्येक ऋषि के मन की विचार-क्रियाएँ जैसी जैसी होती गयीं, उसी क्रम से उसी समय मानो चित्रित कर दी गई हों। पहले तो ये विचार बहुत ही अनगढ़ रहते हैं और तत्पश्चात् क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होते हुए अंत में वेदांत के लक्ष्य को पहुँच जाते हैं और इस परिणति को दार्शनिक स्वरूप प्राप्त हो जाता है। प्रारंभ में वह द्युतिमान देवों की खोज रही, फिर विश्व के आदि कारण की खोज की गईऔर फिर उसी खोज को सब वस्तुओं के उस एकत्वरूप शोध का अधिक तात्त्विक एवं स्पष्ट स्वरूप प्राप्त हो जाता है, जिसके 'ज्ञान से अन्य समस्त वस्तुएँ ज्ञात हो जाती हैं।' [10]