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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

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(न्‍यूयार्क में स्‍वामी विवेकानंद के एक कक्षालय के खंडित नोटों के आधार पर)

ऐंद्रिक प्रत्‍यक्ष के दो युग्‍म तथ्‍य, जिनसे हम कभी छुटकारा नहीं पा सकते, सुख और दु:ख हैं-जो वस्‍तुएँ हमें कष्‍ट देती हैं, वे सुख भी लाती हैं। हमारा संसार इन दोनों से बना हैं। हम उनसे छुटकारा नहीं पा सकते; जीवन की प्रत्‍येक धड़कन के साथ वे विद्यमान हैं। संसार इन दो विरोधियों के समन्‍वय के प्रयत्‍न में लगा हुआ हैं, ऋषि विरोधियों के इस सम्मिलन का समाधान खोज रहे हैं। कष्‍ट की दाहक ऊष्‍मा विरोधियों के इस सम्मिलन का समाधान खोज रहे हैं। कष्‍ट की दाहक ऊष्‍मा बीच बीच में विश्रांति की झलकों से खंडित होती रहती है, प्रकाश की चमक थोड़े थोड़े समय बाद कौंधकर केवल तमिस्‍त्रा को अधिक गहन करने के लिए ही अंधकार को भंग करती है।

बालक जन्‍मजाता आशावादी होते हैं, पर जीवन का शेषांश एक अविच्छिन्‍न स्‍वप्‍नभंग होता है; एक भी आदर्श पूर्णतया प्राप्‍त नहीं किया जा सकता, एक भी प्‍यास नहीं बुझायी जा सकती। इस प्रकार वे इस पहेली को हल करने का प्रयत्‍न करते रहते हैं, और धर्म ने यह काम सँभाल लिया है।

द्वैतवादी धर्मों में, पारसियों में, एक ईश्‍वर होता है और एक शैतान। यह यहूदियों के द्वारा समस्‍त यूरोप ओर अमेरिका में फैल गया है। यह हज़ारों वर्ष पहले की एक कामचलाऊ परिकल्‍पना थी, पर अब हम जानते हैं कि यह निराधार है। विशुद्ध शुभ अथवा अशुभ जैसी कोई वस्‍तु नहीं है; जो एक के लिए शुभ है, वही दूसरे के लिए अशुभ, आज बुरा है, कल भला और इसके विपरीत।...

ईश्‍वर वास्‍तव में पहले एक क़बीले का देवता था, बाद में वह देवताओं का ईश्‍वर बना। प्राचीन मिस्त्रियों और बेबिलोनियनों ने इस विचार (एक द्वैत ईश्‍वर और शैतान का) को बहुत व्‍यावहारिक रूप से कार्यान्वित किया। उनका मोलोक देवताओं का ईश्‍वर बन गया और बंदी देवता उसके मंदिर में सिर झुकाने को बाध्‍य किए गए।

फिर भी पहेली बनी ही हुई है: इस अशुभ की अध्‍यक्षता कौन करता है? बहुत से लोग आशा का कोई आधार न होने पर भी आशा लगाए बैठे हैं कि संसार में सब भला है ओर यह कि गलती हमारे न समझ पाने की है। हम तिनके का सहारा ले रहे हैं, अपने सिर रेत में धसा रहे हैं। फिर भी हम सब नैतिकता का पालन करते हैं और नैतिकता का सार है बलिदान-'मैं नहीं, तू'। फिर भी यह विश्‍व के महान भले ईश्‍वर से कैसा भिड़ जाता है? वह (ईश्‍वर) अत्यंत स्‍वार्थी है, घोर प्रतिहिंसक व्‍यक्ति-जिसे हम जानते हैं, प्‍लेग, अकाल, युद्ध भेजने वाला!

हम सबको इस जीवन में अनुभव प्राप्‍त करने पड़ते हैं। हम कटु अनुभवों से भागने का प्रयत्‍न कर सकते हैं, पर देर-सबेर वे हमें पकड़ ही लेते हैं। और मुझे उस मनुष्‍य पर दया आती है, जो सारी चीज़ का सामना नहीं कर पाता।

वेदों के मनुदेव का रूपांतर ईरान में अहिर्मन में हो गया। इस प्रकार इस प्रश्‍न की पौराणिक व्‍याख्‍या समाप्‍त हो गई; पर प्रश्‍न बना रहा, ओर इसका कोई उत्तर नहीं था, कोई हल नहीं था।

पर देवी के प्रति प्राचीन वैदिक स्‍तुति में एक दूसरा भाव था: 'मैं प्रकाश हूँ। मैं सूर्य और चंद्र की ज्‍योति हूँ; मैं वायु हूँ, जो सब प्राणियों में जीवन फूँकती है।' यह वह अंकुर है, जो बाद में मातृ-पूजा के रूप में विकसित होता है। मातृ पूजा का उद्देश्‍य पिता और माता के बीच भेद करना नहीं है। इसके द्वारा व्‍यक्‍त प्रथम विचार, शक्ति का विचार है-मैं वह शक्ति हूँ, जो सब जीवों में है।

शिशु नाड़ी प्रधान मनुष्‍य है। वह बढ़ता रहता है और अंत में शक्ति प्रधान मनुष्‍य हो जाता है। शुभ और अशुभ की धारणा आरंभ में विभेदीकृत और विकसित नहीं थी। वृद्धिमान चेतना ने शक्ति को ही आदि विचार के रूप में दर्शाया। प्रत्‍येक पग पर प्रतिरोध और संघर्ष होना नियम है। हम दो के परिणाम हैं-ऊर्जा और प्रतिरोध के, अंत: और बाह्य बल के। प्रत्‍येक परमाणु कार्य कर रहा है और मनके प्रत्‍येक विचार का प्रतिरोध कर रहा है। हम जिन वस्‍तुओं को देखते और जानते हैं, वह सभी इन दोनों शक्तियों का परिणाम है।

ईश्‍वर का यह विचार एक नयी वस्‍तु है। वैदिक स्‍तुतियों में वरुण और इंद्र भक्‍तों पर सर्वोत्‍तम वरदानों और आशीषों की वर्षा करते हैं-एक बहुत मानवीय कल्‍पना, स्वयं मनुष्‍य से भी अधिक मानवीय।

यह एक नया सिद्धांत है। सब घटनाओं के पीछे एक शक्ति है। शक्ति, सर्वत्र शक्ति ही है, चाहे वह अशुभ के रूप में हो, चाहे संसार के त्राता के रूप में। इस प्रकार, यह एक नवीन कल्‍पना है; पुरानी कल्‍पना नर-ईश्‍वर की थी। यहाँ एक सर्वव्‍यापी शक्ति की कल्‍पना का प्रथम उदय है।

'जब वह अशुभ का विनाश करना चाहता है, तब मैं रूद्र के धनुष को चढ़ाती हूँ।'

बहुत शीघ्र ही गीता में हम पाते हैं: 'हे अर्जुन, मैं सत् हूँ और मैं असत् हूँ, मैं शुभ हूँ, और मैं अशुभ हूँ, मैं संतों की शक्ति हूँ, मैं खलों की शक्ति हूँ।' पर शीघ्र ही वक्‍तासत्‍य में जोड़-गाँठ कर देता है और यह विचार सुप्‍त हो जाता है। मैं तभी तक शुभ की शक्ति हूँ, जब तक वह शुभ करती रहती है।

ईरान के धर्म में शैतान की कल्‍पना थी; पर भारत में शैतान की धारणा नहीं थी। परवर्ती पुस्‍तकों ने इस नए विचार को अपनाना आरंभ किया। अशुभ का अस्तित्‍व है, और इस तथ्‍य को मान लेना होगा। विश्‍व एक तथ्‍य है; और यदि यह तथ्‍य है, तो वह शुभ और अशुभ का विशाल संघात है। जो शासन करता है, वह शुभ और अशुभ पर शासन करता है। यदि यह शक्ति हमारे जीवन का कारण है, तो वह हमारी मृत्‍यु का कारण भी है। हँसी और आँसू बंधु हैं और इस संसार में हँसी की अपेक्षा आँसू अधिक हैं। फूल किसने बनाये, हिमालय किसने बनाये? एक बहुत अच्‍छे ईश्‍वर ने। मेरे पापों और मेरी दुर्बलताओं को किसने बनाया? कर्म ने, शैतान ने, अहं ने। फल हुआ लँगड़ा, एक टाँग का विश्‍व, और स्‍वभावत: इस विश्‍व का ईश्‍वर भी एक टाँग का ईश्‍वर है।

शुभ और अशुभ को दो नितांत पृथक् सत्‍ताओं के रूप में देखना हमें निर्मम ह्दयहीन पशु बनाता है। एक भली नारी वेश्‍या से बिदक जाती है। क्‍यों? कुछ बातों में वह तुमसे अनंत गुना अच्‍छा हो सकती है। यह दृष्टिकोण संसार में स्‍थायी ईर्ष्‍या और घृणा, मनुष्‍य और मनुष्‍य के, भले मनुष्‍य और अपेक्षाकृत कम भले अथवा बुरे मनुष्‍य के बीच स्‍थायी व्‍यवधान उत्‍पन्‍न करता है। ऐसा पाशविक दृष्टिकोण केवल बुराई है, स्‍वयं बुराई से भी अधिक बुरी। शुभ और अशुभ पृथक् सत्‍ताएँ नहीं हैं। वरन् शुभ का विकास होता है, जो कम शुभ होता है, उसे हम अशुभ कहते हैं। कुछ संत हैं और कुछ पापी। सूर्य भले और बुरे, दोनों पर एक समान चमकता है। क्‍या वह उनके बीच भेद करता है?

ईश्‍वर के पितृत्‍व का पुरातन विचार सुख की अध्‍यक्षता करने वाले ईश्‍वर की मधुर कल्‍पना से संबद्ध है। हम तथ्‍यों को अस्‍वीकार करना चाहते हैं। अशुभ का अस्तित्‍व नहीं है, वह शून्‍य है। 'मैं' बुराई है। और 'मैं' का अस्तित्‍व आवश्‍यकता से अधिक है। क्‍या मैं शून्‍य हूँ? मैं नित्‍य अपने को इस रूप में देखने का प्रयास करता हूँ और असफल रहता हूँ।

ये सभी विचार अशुभ से भागने के प्रयत्‍न हैं। पर हमें इसका सामना करना है। संपूर्ण का सामना करो! क्‍या मेरे ऊपर किसी का बंधन है कि मैं केवल सुख और शुभ में ही ईश्‍वर को अपना आंशिक प्रेम दूँ और दु:ख तथा अशुभ में नहीं?

वह दीपक, जिसकी ज्‍योति में एक मनुष्‍य जाली हस्‍ताक्षर बनाता है ओर दूसरा अकाल-निवारण के लिए हज़ार ड़ॉलर का चेक लिखता है, दोनों पर प्रकाश डालता है, वह उनमें भेद नहीं करता। प्रकाश अशुभ को नहीं जानता; तुम और मैं उसे बुरा अथवा भला बनाते हैं।

इस विचार के लिए एक नया नाम चाहिए। इसे माँ कहते हैं, क्‍योंकि शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति की दृष्टि से उसका आरंभ एक नारी कवि से हुआ, जिसे देवी का पद दिया गया था। इसके बाद सांख्‍य आया, और उसके अनुसार सब शक्ति स्‍त्री है। चुंबक निश्चेष्‍ट है और लोहे के कण दौड़ रहे हैं।

भारत में सब स्‍त्री-प्रक़ारों में माँ सबसे ऊँची है, पत्‍नी से भी ऊँची। पत्‍नी और संतान मनुष्‍य को त्‍याग सकते हैं, पर उसकी माँ कभी नहीं त्‍यागती। माँ सदा वैसी ही रहती है, अथवा अपने बच्‍चे को कदाचित् तनिक अधिक प्‍यार करती है। माँ वह उज्‍ज्‍वल प्रेम दर्शाती है, जिसमें सौदा नहीं होता, वह प्रेम जो कभी नहीं मरता। ऐसा प्रेम किसमें हो सकता है? केवल माँ में, पुत्र में नहीं, पुत्री में नहीं, पत्‍नी में नहीं।

"मैं वह शक्ति हूँ, जो सर्वत्र व्‍यक्‍त होती है," माँ कहती है-वह जो इस विश्‍व को जन्‍म दे रही है, और जो आगे आने वाले उसके विनाश को उत्‍पन्‍न कर रही है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि विनाश सृष्टि का आरंभ मात्र है। पर्व़त की चोटी घाटी का आरंभ मात्र है। निर्भीक बनो, तथ्‍यों का सामना तथ्‍यों की भाँति करो। अशुभ के भय से विश्‍व में इधन-उधर न भागो। अशुभ अशुभ है। उससे क्‍या?

अंतत:, यह केवल माँ की लीला है। कोई बड़ी गंभीर बात नहीं है। सर्वशक्तिमान को क्‍या हिला सकता है? वह क्‍या है, जिसने माँ को विश्‍व-निर्माण के लिए प्रेरित किया? उनका कोई लक्ष्‍य नहीं हो सकता। क्‍यों? क्‍योंकि लक्ष्‍य वह होता है, जिसकी अभी प्राप्ति न हुई हो। यह सृष्टि किसलिए है? केवल लीला। हम इसे भूल जाते हैं, और झगड़ने लगते हैं और दु:ख भोगते हैं। हम माँ के लीलासखा हैं।

उस कष्‍ट को देखो, जो माँ शिशु के पालने में उठाती है। क्‍या उसे इसमें आनंद आता है? निश्‍चय ही। वह उपवास करती है, प्रार्थना करती है, नज़र रखती है। वह इसे सबसे अधिक प्रेम करती है। क्‍यों? इसलिए कि इसमें कोई स्‍वार्थ नहीं है।

सुख आएगा-बहुत ठीक: कौन रोकता है? दु:ख आएगा: उसका भी स्‍वागत है। एक मच्‍छर एक बैल के सींग पर बैठा था; अचानक उसमें पश्‍चाताप उत्‍पन्‍न हुआ और वह बोला, "बैल महोदय, मैं बहुत देर से यहाँ बैठा हुआ हूँ। शायद आपको कष्‍ट हो रहा है। मुझे खेद है, मैं चला जाऊँगा।" बैल ने उत्तर दिया, "अरे नहीं,बिल्‍कुल नहीं! अपने पूरे परिवार को ले आओ और मेरे सींग पर निवास करो: तुमसे मुझे क्‍या कष्‍ट होगा?"

हम दु:ख से यही क्‍यों नही कह सकते? बीर होने का अर्थ है, माँ में विश्‍वास रखना!

'मैं जीवन हूँ, मैं मृत्‍यु हूँ!' यह माँ है, जिसकी छाया जीवन और मृत्‍यु है। सब सुखों का सुख वही है। सब दु:खों में दु:ख वही है। यदि जीवन आता है, तो वह माँ है, यदि मृत्‍यु आती है, आत वह माँ है। यदि स्‍वर्ग आता है, तो वह वही है। यदि नरक आता है, तो वहाँ माँ है; ग़ोता लगाओ। हममें विश्‍वास नहीं है, हममें यह देखने का धैर्य नहीं है। हम ऐरे-ग़ैरे पर विश्‍वास कर लेते हैं, पर विश्‍व में एक ही है, जिस पर हम कभी विश्‍वास नहीं करते और वह है ईश्‍वर। जब वह हमारे मन की करता है, तो हम उस पर भरोसा करते हैं। पर समय आएगा, जब चोट पर चोट खाकर यह स्‍वयं पर्याप्‍त मन मर जाएगा। हम जो कुछ करते हैं, उसमें अहं का सर्प अपना फन उठाये रहता है। हम प्रसन्‍न हैं कि मार्ग में इतने अधिक काँटे हैं। वे सर्प के फन में आघात करते हैं।

सबके अंत में आएगा: आत्‍म-समर्पण। तब हम अपने का माँ के प्रति अर्पित कर सकेंगे। यदि दु:ख आता है, स्‍वागत है; यदि सुख आता है, स्‍वागत है। जब हम प्रेम की इस सीमा तक पहुँच जाएंगे, तो सारी टेढ़ी वस्‍तुएँ सीधी हो जाएंगी। ब्राह्राण, चांडाल और कुत्‍ते के लिए एक ही दृष्टि होगी। जब तक हम विश्‍व को एक दृष्टि से, निष्‍पक्ष, अमर प्रेम नहीं करते, हम बार-बार चूकते रहते हैं। पर तब, सब अंतर्हित हो चुकेगा और हमें सबमें उसी अनंत अनादि माँ के दर्शन होंगे।


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