यदि सभी मनुष्य एक ही धर्म, उपासना की एक ही सार्वजनीन पद्धति और नैतिकता के
एक ही आदर्श को स्वीकार कर लें, तो संसार के लिए यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात
होगी। इससे सभी धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति को प्राणांतक आघात पहुँचेगा।
अत: हमें चाहिए कि अच्छे या बुरे उपायों द्वारा दूसरों को अपने धर्म और सत्य
के उच्चतम आदर्श पर लाने की चेष्टा करने के बदले, हम उनकी वे सब बाधाएँ हटा
देने का प्रयत्न करें, जो उनके निजी धर्म के उच्चतम आदर्श के अनुसार विकास
में रोड़े अटकाती हैं, और इस तरह उन लोगों की चेष्टाएँ विफल कर दें, जो एक
सार्वजनीन धर्म की स्थापना का प्रयत्न करते हैं।
समस्त मानव जाति का, समस्त धर्मों का चरम लक्ष्य एक ही है, और वह है भगवान
से पुनर्मिलन, अथवा दूसरे शब्दों में उस ईश्वरीय स्वरूप की प्राप्ति, जो
प्रत्येक मनुष्य का प्रकृत स्वभाव है। यद्यपि लक्ष्य एक ही है, तो भी
लोगों के विभिन्न स्वभावों के अनुसार उसकी प्राप्ति के साधन भिन्न-भिन्न हो
सकते हैं।
लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के साधनों-इन दोनों को मिलाकर 'योग' कहा जाता है।
'योग' शब्द संस्कृत से उसी धातु से व्युत्पन्न हुआ है, जिससे अंग्रेज़ी
शब्द 'योक' (yoke)-जिसका अर्थ है 'जोड़ना' अर्थात अपने को उस परमात्मा से
जोड़ना, जो कि हमारा प्रकृत स्वरूप है। इस प्रकार के योग अथवा मिलन के साधन
कई हैं, पर उनमें मुख्य हैं कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग।
प्रत्येक मनुष्य का विकास उसके अपने स्वभावानुसार ही होना चाहिए। जिस प्रकार
हर एक विज्ञानशास्त्र के अपने अलग-अलग तरीक़े होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक
धर्म में भी है। धर्म के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के तरीक़ों या साधनों को हम
योग कहते हैं। विभिन्न प्रकृतियों और स्वभावों के अनुसार योग के भी विभिन्न
प्रकार हैं। उनके निम्नलिखित चार विभाग हैं -
१. कर्मयोग-इसके अनुसार मनुष्य कर्म और कर्तव्य के द्वारा अपने ईश्वरीय
स्वरूप की अनुभूति करता है।
२. भक्तियोग-इसके अनुसार अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति सगुण ईश्वर के
प्रति भक्ति और प्रेम के द्वारा होती है।
३. राजयोग-इसके अनुसार मनुष्य अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति मन:संयम के
द्वारा करता है।
४. ज्ञानयोग-इसके अनुसार अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति ज्ञान के द्वारा
होती है।
४.ये सब एक ही केंद्र-भगवान-की ओर ले जानेवाले विभिन्न मार्ग हैं। वास्तव
में, धर्म-मतों की विभिन्नता लाभदायक है, क्योंकि मनुष्य को धार्मिक जीवन
व्यतीत करने की प्रेरणा वे सभी देते हैं ओर इस कारण सभी अच्छे हैं। जितने ही
अधिक संप्रदाय होते हैं, मनुष्य की भगवद्भावना को सफलतापूर्वक जागृत करने के
उतने ही अधिक सुयोग मिलते हैं।
'ओक बीच क्रिश्चियन यूनिटी' (Oak Beach Christian Unity) के सामने सार्वभौम
एकता पर भाषण देते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा- मूल में सभी धर्म समान हैं।
सत्य तो यही है, यद्यपि ईसाई मत (Christian Church) आख्यायिका में वर्णित
'फ़ैरिसी' की तरह, ईश्वर को धन्यवाद देता है कि केवल उसी का धर्म सत्य है,
और सोचता है कि अन्य सब धर्म असत्य है तथा उन्हें ईसाईयों से ज्ञान
प्राप्त करने की आवश्यकता है। इससे पहले कि संसार ईसाई मत के साथ
उदारतापूर्वक सहयोग करे, ईसाई मत को सहिष्णु होना पड़ेगा। ईश्वर प्रत्येक
ह्दय में साक्षी के रूप में विद्यमान है, और लोगों को, विशेषत: ईसा मसीह के
अनुयायियों को, तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। वास्तव में ईसा मसीह तो
प्रत्येक अच्छे मनुष्य को भगवान के परिवार में सम्मिलित कर लेना चाहते थे।
मनुष्य किसी विशेष बात पर विश्वास करने से ही भला नहीं बन जाता, पर स्वर्ग
स्थित परम पिता की इच्छा की पूर्ति करने से भला बनता है। भला बनना और भला
करना-इसी आधार पर संसार में एकता स्थापित हो सकती है।