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व्याख्यान

भक्ति

स्वामी विवेकानंद

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नारद-भक्ति सूत्र

(अमेरिका में स्‍वामी जी द्वारा लिखाया हुआ मुक्‍त अनुवाद)

अध्‍याय 1 [1]

१. भक्ति ईश्‍वर के प्रति तीव्र अनुराग है।

२. यह प्रेम का अमृत है;

३. इसे पाकर मनुष्‍य पूर्ण, अमर, और सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है;

४. इसे पाकर मनुष्‍य में इच्‍छाएँ नहीं रह जातीं, वह किसी से ईर्ष्‍या नहीं करता, उसे दिखावे में आनंद नहीं आता:

५. इसे जानकर मनुष्‍य आध्‍यात्मिकता से भर जाता है, शांत हो जाता है और केवल ईश्‍वर में आनंद पाता है।

६. इसका किसी इच्‍छा की पूर्ति के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता, स्‍वयं सब इच्‍छाओं का निरोध करती है।

७. संन्‍यास उपासना के लौकिक और शास्‍त्रीय रूपों का परित्‍याग है।

८. भक्‍त-संन्‍यासी वह है, जिसकी संपूर्ण आत्‍मा ईश्‍वर को अर्पित हो जाती है, और जो ईश्‍वर-प्रेम में बाधक होता है, उसे वह त्‍याग देता है।

९. सब अन्‍य शरणों को छोड़कर, वह ईश्‍वर में शरण लेता है।

१०. शास्‍त्रों का अनुसरण उसी समय तक विहित है, जब तक जीवन में दृढ़ता न आयी हो।

११. नहीं तो मुक्ति के नाम पर अशुभ किए जाने की आशंका रहती है।

१२. जब प्रेम दृढ़ हो जाता है, तो जीवन धारण करने के लिए आवश्‍यक सामाजिक व्‍यवस्‍था बंधनों के अतिरिक्‍त, शेष सब सामाजिक रूप से भी त्‍याग दिए जाते हैं।

१३. प्रेम की बहुत सी परिभाषाएँ दी गई हैं, पर नारद जिन्‍हें प्रेम का चिन्‍ह्र बताते हैं, वे हैं: जब मन, वचन और कर्म, सब ईश्‍वरार्पित कर दिए जाते हैं और जब तनिक देर के लिए ईश्‍वर का बिसरना भी मनुष्‍य को अत्‍यंत दु:खी कर देता है, तो प्रेम आरंभ हो गया है।

१४. जैसा कि गोपियों को हुआ था -

१५. इसलिए कि यद्यपि वे ईश्‍वर को अपने प्रेमी की भाँति पूजती थीं,वे कभी उसके ईश्‍वर-रूप को नहीं भूलीं।

१६. ऐसा करतीं, तो वे व्‍यभिचार की दोषी होतीं।

१७. यह प्रेम का उच्‍चतम रूप हैं, क्‍योंकि इसमें प्रतिदान प्राप्ति की इच्‍छा नहीं होती, जो समस्‍त मानवीय प्रेम में पायी जाती है।

अध्‍याय 2

१ भक्ति कर्म से ऊँची है, ज्ञान से ऊँची है, योग (राजयोग) से ऊँची है, क्‍योंकि भक्ति स्‍वयं अपना फल है, भक्ति साधन और साध्‍य (फल), दोनों है।

२ जिस प्रकार मनुष्‍य अपनी भूख केवल भोजन के ज्ञान अथवा दर्शन मात्र से नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार जब तक प्रेम नहीं होता, मनुष्‍य ईश्‍वर के ज्ञान के अथवा उसकी अनुभूति से भी, संतुष्ट नहीं हो सकता, इसलिए प्रेम सर्वोपरि है।

अध्‍याय 3 [2]

१. आचार्यों ने, फिर भी, भक्ति के विषय में ये बातें कही हैं:

२. जो इस भक्ति को चाहता है, उसे इंद्रियग्रस्त -भोग और लोगों का संसर्ग भी त्‍याग देना चाहिए।

३. दिन-रात उसे भक्ति के विषय में सोचना चाहिए, अन्‍य किसी विषय में नहीं।

४. जहाँ लोग ईश्‍वर का कीर्तन करते या उसकी चर्चा करते हैं, उसे वहाँ (जाना चाहिए।)

५. भक्ति का मुख्‍य कारण किसी महान (अथवा मुक्‍त) आत्‍मा की कृपा होती है।

६. महात्‍मा की संगति पाना कठिन है, और उससे सदा आत्‍मा का उद्धार होता है।

७. ईश्‍वर की अनुकंपा से हमें ऐसे गुरु प्राप्‍त होते हैं।

८. ईश्‍वर और भक्‍तों के बीच कोई भेद नहीं रहता।

९. अत: इसकी खोज करो।

१०. कुसंग से सदा दूर रहना चाहिए;

११. क्‍योंकि इससे वासना और क्रोध, भ्रम, ध्‍येय की विस्‍मृति, इच्‍छा-शक्ति की हीनता (लगन का अभाव) और सब कुछ का विनाश उत्‍पन्‍न होता है।

१२. ये व्‍याघात आरंभ में लघु लहरियों के समान हो सकते हैं, पर कुसंग अंत में उन्हें सागर के समान बना देता है।

१३. वह माया को पार कर लेता है, जो सब छोड़ देता हे, महात्‍माओं की सेवा करता हे, एकांत वास करता है, संसार की बेडि़याँ काटता है, प्रकृति के गुणों से अतीत हो जाता है, और अपनी जीविका के लिए भी ईश्‍वर पर निर्भर होता है।

१४. वह, जो कर्म के फलों को त्‍यागता है, जो सब कर्मों को और दु:ख तथा सुख के द्वंद्व को त्‍याग देता है, जो धर्मशास्‍त्रों को भी त्‍यागता है, वह ईश्‍वर का अखंड प्रेम प्राप्‍त करता है।

१५. वह इस नदी को पार कर लेता है और दूसरों को भी पार जाने में सहायता देता है।

अध्‍याय 4 [3]

१. भक्ति का स्‍वरूप अनिर्वचनीय है।

२. जिस प्रकार गूँगा मनुष्‍य अपने स्‍वाद का वर्णन नहीं कर सकता, पर उसकी चेष्‍टाएँ उसके भावों को दर्शाती हैं, उसी प्रकार मनुष्‍य वाणी से प्रेम का वर्णन नहीं कर सकता, पर उसकी क्रियाएँ उसे प्रकट करती हैं।

३. कुछ बिरले मनुष्‍यों में इसकी अभिव्‍यक्ति होती है।

४. सब गुणों, सब इच्‍छाओं से परे, सदैव वृद्धिमान, अखंड, सर्वोत्‍तम अनुभूति प्रेम है।

५. जब मनुष्‍य को यह प्रेम प्राप्‍त होता है, तो वह सर्वत्र प्रेम देखता है, सब जगह प्रेम सुनता है, सब जगह प्रेममय होकर बोलता है और चिंतन करता है।

६. गुणों और अवस्‍थाओं के अनुसार यह प्रेम अपने को विभिन्‍न रूपों में व्‍यक्‍त करता है।

७. गुण हैं: तमस् (मंदता, भारीपन), रजस् (अशांति, क्रियाशीलता), सत्‍त्‍व (निर्दोषता, शुद्धता); और अवस्‍थाएँ हैं: आर्त (दु:खी), अर्थार्थी (याचक), जिज्ञासु (सत्‍यान्‍वेषी), ज्ञानी (ज्ञाता)।

८. इनमें परवर्ती अपने पूर्ववर्तियों से उच्‍चतर हैं।

९. भक्ति उपासना का सरलतम मार्ग है।

१०. यह स्‍वयं अपना प्रमाण है, इसे दूसरे की आवश्‍यकता नहीं है।

११. इसकी प्रकृति शांत और पूर्णानंदमय है।

१२. भक्ति कभी किसी को अथवा किसी वस्‍तु को हानि नहीं पहुँचाना चाहती, पूजा की लोक-विधियों को भी नहीं।

१३. विषय-भोग के विषय में वार्तालाप, अथवा ईश्‍वर पर संदेह अथवा अपने शत्रुओं द्वारा आलोचना की ओर ध्‍यान नहीं देना चाहिए।

१४. अहंकार, गर्व इत्‍यादि को त्‍याग देना चाहिए।

१५. यदि इन भावों का नियंत्रण नहीं किया जा सकता, तो उन्‍हें ईश्‍वर को अर्पित कर दो और अपने सब कर्म उसे सौंप दो।

१६. प्रेम, प्रेमी और प्रेम-पात्र की त्रिमूर्ति का विलयन कर, उसके चिरंतन दास के रूप में, उसकी चिरंतन दुलहन की भाँति ईश्‍वर की उपासना करनी चाहिए-इस प्रकार ईश्‍वर से प्रेम किया जाता है।

अध्‍याय 5 [4]

१. वह प्रेम सर्वोपरि है, जो ईश्‍वर में केंद्रित होता है।

२. जब ऐसे लोग ईश्‍वर की बात करते हैं, तो उनकी वाणी रुंध जाती है, वे सिसकते और रोते हैं; ऐसे लोग हैं,जो पवित्र स्‍थानों को उनकी पवित्रता देते हैं; वे शुभ कार्यों को शुभता और सुंदर पुस्‍तकों को सुंदरतर करते हैं, क्‍योंकि वे ईश्‍वर से परिव्‍याप्‍त होते हैं।

३. जब कोई मनुष्‍य ईश्‍वर को इतना प्रेम करता है, तो उसके पितर हर्ष मनाते हैं, देवता नृत्‍य करते हैं और पृथ्‍वी को एक गुरु प्राप्‍त होता है!

४. ऐसे प्रेमियों के लिए जाति, लिंग, ज्ञान, रूप, जन्‍म, अथवा संपत्ति का भेद नहीं रहता;

५. क्‍योंकि वे सब ईश्‍वर की हैं।

६. विवादों से दूर रहना चाहिए;

७. क्‍योंकि उनका कहीं अंत नहीं है, और वे किसी संतोषजनक परिणाम पर नहीं पहुँचाते।

८. इस प्रेम का विवरण देनेवाली पुस्‍तकें पढ़ो और ऐसे कार्य करो,जो इसमें वृद्धि करते हैं।

९. सुख और दु:ख लाभ और हानि की सब इच्‍छाओं को छोड़कर दिन-रात ईश्‍वर की उपासना करो। एक क्षण भी व्‍यर्थ न गँवाओं।

१०. अहिंसा, सत्‍य, शुद्धता, दया और दैवी संपद् का सदा पालन करो।

११. अन्‍य सब विचारों को त्‍यागो, पूर्ण मन से दिन-रात ईश्‍वर की उपासना करो। इस प्रकार दिन और रात पूजित होकर वह अपने को प्रकट करता है और अपने उपासकों को अपनी अनुभूति कराता है।

१२. भूत, वर्तमान और भविष्‍य में प्रेम ही सर्वोपरि है!

इस प्रकार प्राचीन ऋृषियों के अनुसार, हमने संसार के व्‍यंग्यों से निर्भीक होकर, प्रेम के सिद्धांत के प्रचार का साहस किया है।



1 अथातो भक्तिं व्‍याख्‍यास्‍याम: । सा त्‍वस्मिन् पर (म) प्रेमरूपा । अमृत-स्‍वरूपा च । यल्‍लब्‍ध्‍वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्‍तो भवति । यत्‍प्राप्‍य न किंचिद् वांछति, न शोचति, न द्वेष्टि, न रमते, नोत्‍साही भवति । यत् ज्ञात्‍वा मत्‍तो भवति, स्‍तब्‍धो भवति, आत्‍मारामो भवति । सा न कायममाना, निराध-रूपत्‍वात् । निरोधस्‍तु लोकवेदव्‍यापारन्‍यास: । तस्मिन्‍ननन्‍यता तद्विरोधिषूदासीनता च । अन्‍याश्रयाणां त्‍यागोऽनन्‍यता । लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता । भवतु निश्‍चयदाढ्र्यादूर्ध्‍व शास्‍त्ररक्षणम् । अन्‍यथा पातित्‍य शंकया । लोकोऽपितावदेव ; भोजनादिव्‍यापारस्‍त्‍वाशरीरधारणावधि । तल्‍लक्षणानि वाच्‍यन्‍ते नानामतभेदात् । पूजादिष्‍वनुराग इति पाराशर्य: । कथादिष्विति गर्ग: । आत्‍मरत्‍यविरोधे‍नेति शाण्डिल्‍य: । नारदस्‍तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्‍मरणे परमव्‍याकुलतेति (च) । अस्‍त्‍येवमेवम् । यथा व्रजगोपिकानाम । तत्रापि न महात्‍म्‍यज्ञान विस्‍मृत्‍यपवाद: । तद्विहीनं जाराणामिव । नास्‍त्‍येव तत्‍सुखसुखित्‍वम् ।

[2] तस्‍या: साधनानिगायन्‍त्‍याचार्या:। तत्‍तुविषयत्‍यागात् संगत्‍यागात् च। अव्‍यावृत्‍त (त) भजनात्। लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात् । मुख्‍यतस्‍तु महत्‍कृपयैव भगवत्‍कृपालेशाद् वा । महत्‍संगस्‍तु दुर्लभोऽगम्‍योऽमोघश्‍च। लभ्‍यतेपिऽ तत्‍कृपयैव। तस्मिस्‍तज्‍जने भेदाभावात् तदेव साध्‍यतां तदेव साध्‍यताम्। दुस्‍संग: सर्वथैव त्‍याज्‍य:। कामक्रोधमोहस्‍मृतिभ्रंशबुद्धिनाश (सर्वनाश) कारणत्‍वात। तरंगायिता अपीमे संगात् समुद्रायन्‍ते (न्ति)। कस्‍तरति कस्‍तरति मायाम्? य: संगं (गान्) त्‍यजति,कर्माणि संन्‍यस्‍यति, ततो निर्द्वन्‍द्वो भवति। (यो) वैदानपि संन्‍यस्‍यति; केवलमविच्छिन्‍नानुरागं लभते। स तरति स तरति, स लोकांस्‍तारयति।

[3] अनिर्वचनीयं प्रेमस्‍वरूपम्। मूकास्‍वादनवत्। प्रकाश (श्‍य) ते क्‍यापि पात्रे। गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं अविच्छिन्‍नं सूक्ष्‍मतरं अनुभवरूपम्। तत् प्राप्‍य तदेवावलोकयति, तदेव श्रृणोति, (तदेव भाषयति), तदेव चिन्‍तयति। गौणी त्रिधा, गुणभेदाद् आर्तादिभेदाद् वा। उत्‍तरस्‍मादुत्‍तरस्‍मात् पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति। अन्‍यस्‍मात् सौलभ्‍यं भक्‍तौ। प्रमाणान्‍तरस्‍यानपेक्षत्‍वात् स्‍वयं प्रमाणत्‍वात् (च)। शान्तिरूपात् परमानन्‍दरूपाच्‍च। लोकहानौ चिन्‍ता न कार्या; निवेदितात्‍मलोकवेद (शील) त्‍वात्। न त (व) त्सिद्धौ लोकव्‍यवहारो हेय:; किं तु फलत्‍याग: तत्‍साधनं च (कार्यमेव)। स्त्रीधननास्तिक (वैरि) चरित्रं न श्रवणीयम्। अभिमानदम्‍भादिकं त्‍याज्‍यम्। तदर्पिताखिलाचार: सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्‍नेव करणीयम्। त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्‍यदास्‍य (स) नित्‍यकान्‍ताभजनात्‍मकं प्रेम कार्यं प्रेमैव कार्यम्।

[4] भक्‍ताएकान्तिनो मुख्‍या:। कण्‍ठावरोधरोमांचाश्रुभि: परस्‍परं लपमान: पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि, सूकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि, सच्‍छास्‍त्रीकुर्वन्ति शास्‍त्राणि। तन्‍मया:। मोदन्‍ते पितरो, नृत्‍यन्ति देवता:, सनाथा चेयं भूर्भवति। नास्ति तुषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेद:। यतस्‍तदीया:। वादो नावलम्‍ब्‍य:। बाहुल्‍यावकाशत्‍वाद् अनिय (न्त्रि) तत्‍वाच्‍च। भक्तिशास्‍त्रणि मननीयनि त (दु) द्वोधककर्माणि करणीयानि। सुख-दु:खेच्‍छालाभादित्‍येक्‍त्‍ेा काले प्रती (क्ष्‍य)क्षमाणे क्षणार्धमपि व्‍यर्थ न नेयम्। अहिंसासत्‍यशौचदयास्तिक्‍यादिचारित्र्याणि परिपालनीयानि। सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्‍तै:(न्तितै:) भगवानेव भजनीय:। स कीर्त्‍यमान: (कीर्तनीय:) शीघ्रमेवाविर्भवत्‍यनुभावयति (च) भक्‍तान्। त्रिसत्‍यस्‍य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी। गुणमाहात्‍म्‍यासक्ति - रूपासक्ति - पूजासक्ति - स्‍मरणासक्ति - दास्‍यासक्ति - सख्‍यासक्ति - वात्‍सल्‍यासक्ति - कान्‍तासक्ति - आत्‍मनिवेदनासक्ति - तन्‍मयतासक्ति - परमविरहासक्तिरूपा एकधा अपि एकादशधा भवति। इत्‍येंव वदन्ति जनजल्‍पनिर्भया: एकमता: कुमार-व्‍यास-शुक-शाण्डिल्‍य-गर्ग-विष्‍णु-कौण्डिन्‍य-शेषोद्धवारूणि-बलि-हनुमद्-विभीषणादयो भक्‍त्‍याचार्या:।


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