hindisamay head


अ+ अ-

लेख

स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम दिव्य प्रज्ञा का सन्देश पीछे     आगे

(अधोलिखित तीन अध्याय स्वामी विवेकानन्द के कागजों में प्राप्त हुए थे। स्पष्टत: स्वामी जी एक ग्रंथ लिखना चाहते थे और उसके लिए कुछ टिप्पणियाँ लिखी थीं।)

  1. बंधन २ विधान ३ परब्रह्म (परात्पर ) और मुक्ति-प्राप्ति

बंधन

  1. कामना असीम है, उसकी पूर्ति सीमित। कामना प्रत्येक व्यक्ति में असीम है; पर उसकी पूर्ति की शक्ति भिन्न है। इस प्रकार जीवन में कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा अधिक सफल होते हैं।
  2. यह सीमा-असमर्थता ही वह बंधन है, जिसके विरुद्ध हम आजीवन संघर्ष करते हैं।
  3. हम केवल सुखद की कामना करते हैं, दु:खद की नहीं।
  4. पर हमारी कामना के सभी लक्ष्य मिश्रित होते हैं-सुखद और दु:खद मिले हुए।
  5. लक्ष्यों के दु:खद अंशों को हम देखते नहीं अथवा देख नहीं सकते, केवल सुखद अशों पर ही हम मुग्ध होते हैं; और इस प्रकार सुखद को सहेजने में हम अनजाने ही दु:खद को भी समेट लेते हैं।
  6. कभी कभी हम झूठी आशा करते हैं कि हमारे पल्ले केवल सुखद अंश ही आएगा और दु:खद अंश छूट जाएगा, जो कभी नहीं होता।
  7. हमारी कामनाएँ भी सतत परिवर्तनशील हैं-जिसे आज हम बहुमूल्य मानते हैं, कल उसी को ठुकरा देते हैं। वर्तमान का सुख भविष्य का दु:ख बन जाएगा। जो आज का प्रेमास्पद है, कल घृणास्पद हो जाएगा-इत्यादि।
  8. हम एक झूठी आशा यह भी करते हैं कि हम भावी जीवन में दु:खद को वर्जित कर केवल सुख देने वाले को ही संजो लेंगे।
  9. पर भविष्य तो वर्तमान का ही विस्तार है। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता !
  10. जो कोई भी पदार्थों में सुख की खोज करता है सुख उसे मिलेगा; पर उसे साथ में दु:ख भी स्वीकार करने होंगे।
  11. समस्त पदार्थमूलक सुख अंततोगत्वा दु:ख लाता है, और इसका कारण है परिवर्तन या मृत्यु।
  12. समस्त पदार्थों का लक्ष्य है मृत्यु; समस्त पार्थिव वस्तुओं की प्रकृति है परिवर्तन !
  13. जैसे कामना बढ़ती है, वैसे ही दुख की शक्ति बढ़ती है और उसी के अनुरूप दु:ख की शक्ति भी !
  14. जितनी ही सूक्ष्मतर जीव-रचना, जितनी ही उच्च संस्कृति-उतनी ही प्रबल सुख-भोग की शक्ति और उतनी ही तीक्ष्ण व्यथा वेदना !!
  15. मानसिक सुख शारीरिक यातनाओं से कहीं अधिक मर्मवेधी !
  16. सुदूर भविष्य में देख सकने की विचार-शक्ति और वर्तमान में अतीत पुन: प्रस्तुत कर सकने वाली स्मरण-शक्ति हमारे लिए सर्वाधिक जीवन सुलभ बना देती है; वही हमें नरक का जीवन बिताने को भी विवश कर देती है ।
  17. अपने इर्द-गिर्द सुखद पदार्थों को महत्तम परिमाण में संग्रहीत कर सकने वाला व्यक्ति अपवाद रूप से इतना कल्पना शून्य होता है कि वह उनका उपभोग नहीं कर पाता। प्रचुर कल्पना से युक्त व्यक्ति हानि की गहन भावना से, या हानि के भय से अथवा दोष-दर्शन से ही अभिभूत रहता है।
  18. पीड़ा पर विजय पाने के लिए हम धीरे संघर्ष करते है ; प्रयास में सफल होते हैं; और साथ ही नई पीड़ाओं की सृष्टि करते हैं।
  19. हम सफलता पाते हैं, और असफलता से पराभूत होते हैं; हम सुख के पीछे दौड़ते हैं और दु:ख हमारा पीछा करता है।
  20. हम कहते हैं, 'हम करते हैं' पर हमसे, कर्म कराया जाता है। हम कहते हैं कि हम काम करते हैं पर हमसे मजदूरी करायी जाती है। हम कहते हैं 'हम जीते हैं' पर हमें प्रतिक्षण मरते रहने के लिए विवश किया जाता है। हम तो भीड़ में हैं, पर हमें प्रतिक्षण मरते रहने के लिए विवश किया जाता है। हम तो भीड़ में हैं, रुक नहीं सकते, चलते ही जाना है;-इसमें शाबाशी की क्या बात है ? यदि ऐसा न होता तो आनंद के एक कण के लिए-जो, अफसोस !-अधिकांश के लिए आशा बनकर ही रह जाता है-कितनी भी शाबाशी हमसे वेदना और दैन्य का यह बोझ उठवा न पाती !
  21. हमारा निराशावाद एक भयानक सत्य है; हमारी आशावादिता एक क्षीण जयध्वनि-रपट पड़े की हर गंगा !

२.

नियम

  1. नियम कभी घटनाचक्र से, सिद्धांत कभी व्यक्ति से, भिन्न नहीं होता।
  2. अपनी सीमा के भीतर, प्रत्येक पृथक् पदार्थ की, क्रिया अथवा निष्क्रिय सम स्थिति की विधि ही नियम कही जाती है ।
  3. नियम का ज्ञान हमें घटित होने वाले परिवर्तनों के समुच्चय और संधान में मिलता है। इन परिवर्तनों से परे नियम हमें नहीं दिखाई देता। घटनाओं से पृथक् नियम की अवधारणा तो एक मानसिक अमूर्तन मात्र है-शब्दों का सुकर प्रयोग, और कुछ नहीं। नियम अपनी सीमा में होने वाले प्रत्येक परिवर्तन का अंग और अपने से शासित होने वाले पदार्थों में निहित पद्धति है। पदार्थों में निहित शक्ति, प्रत्येक पदार्थ की हमारी अवधारणा का, एक अंग है-अन्य किसी पदार्थ पर उस शक्ति की क्रिया एक विशिष्ट प्रकार से होती है-यही हमारा नियम है।
  4. नियम पदार्थों की यथास्थिति में है-इस विधि से कि पदार्थ एक दूसरे के प्रति कैसे क्रियामाण होते हैं;न कि कैसे उन्हें होना चाहिए। अच्छा होता यदि अग्नि जलाती नहीं और जल भिगोता नही; किंतु वे ऐसा करते हैं, यही नियम है, तो वह अग्नि जो जलाती नहीं और वह जल जो भिगोता नहीं, न अग्नि है, न जल ।
  1. आध्यात्मिक नियम, नैतिक नियम, सामाजिक नियम, राष्ट्रीय नियम-तभी नियम हैं जब वे प्रस्तुत आत्मिक और मानव-इकाइयों के अंग हों और इन नियमों से शासित मानी जाने वाली प्रत्येक इकाई के कर्म की अनिवार्य अनुभूति हों।
  2. हमारा निर्माण नियम द्वारा और हमारे द्वारा नियम का निर्माण-यह चक्र चलता है। कुछ विशिष्ट परिस्थियों में मनुष्य अनिवार्यत: क्या करता है, इस संबंध में सामान्य निष्कर्ष -एक उन परिस्थितियों के सम्बंन्ध में मनुष्य पर लागू होने वाला नियम है। अचल, सार्वभौम, मानवीय व्यापार ही मनुष्य का नियम है, जिससे कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता-किंतु यह भी सत्य हैं कि अलग अलग व्यक्तियों के कार्यों का योग ही सार्वभौम नियम है। पूर्ण योग, या सार्वभौम अथवा आसीम ही व्यक्ति का निर्माण कर रहा है। और व्यक्ति अपनी क्रिया से उस विधान को सजीव बनाए हुए है। इस अर्थ में नियम सार्वभौम का ही दूसरा नाम है। सार्वभौम व्यक्ति पर निर्भर है। यह अनंत शांत अंशों से निर्मित है, संख्यामूलक अनंत-यद्यपि शांत अंशों के योग से अनंत के निर्माण की कठिनाई है-फिर भी व्यावहारिक स्तर पर यह तथ्य हमारे समक्ष विद्यमान है। और, क्योंकि नियम, अथवा पूर्ण, अथवा अनंत नष्ट नहीं किया जा सकता-और अनंत के एक अंश का विनाश असंभव है; क्योंकि हम अनंत में न कुछ जोड़ सकते हैं और न घटा सकते हैं [1] - अत: प्रत्येक अंश सर्वकाल स्थायी है।
  3. मानव-शरीर जिन पदार्थों से निर्मित है, उनसे संबंधित नियम खोज निकाले गए हैं और काल-प्रवाह में इन पदार्थों का स्थायित्व भी सिद्ध कर दिया गया है। शत सहस्त्राब्द पूर्व जिन तत्वों से मानव- शरीर निर्मित हुआ था; उनका कहीं न कहीं आज भी अस्तित्व है, यह सिद्ध किया जा चुका है। जो विचार प्रक्षिप्त किए जा चुके हैं, वे भी अन्य मष्तिष्क में जीवित है।
  4. पर कठिनाई तो है, शरीर से परे, मानव के संबंध में नियम खोजने की।
  5. आध्यात्मिक और नौतिक और राष्ट्रीय नियमों के पालन की अपेक्षा उनका उल्लघंन ही अधिक किया जाता है। यदि से सब नियम होते , तो भंग कैसे किए जा सकते ?
  6. प्रकृति के नियमों के विपरीत जाने की सामर्थ्य किसी भी व्यक्ति में नहीं है। कि हम सर्वदा मनुष्य द्वारा नैतिक और राष्ट्रीय नियमों के भंग किए जाने की शिकायत सुनते हैं ?
  7. राष्ट्रीय नियम, अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में, राष्ट्र के बहुमत की इच्छा के मूर्त रूप हैं-सर्वदा एक काम्य स्थिति, न कि यथार्थ स्थिति !
  8. आदर्श नियम तो यह हो सकता है कि कोई भी व्यक्ति दूसरे की संपत्ति का लोलुप न हो; पर यथार्थ नियम यह है कि बहुत से लोग लोलुप होते हैं।
  9. इस प्रकार प्राकृतिक नियमों के संबंध में प्रयुक्त 'नियम' शब्द का अर्थ सामान्यत: नीतिशास्त्र और मानव-क्रियाओं की भूमिका में बहुत बदल जाता है।
  1. संसार के नैतिक नियमों का विश्लेषण करने पर और यथार्थ स्थिति से उनकी तुलना करने पर दो नियम सर्वोपरि ठहरते हैं । एक है अपने से प्रत्येक वस्तु के विकर्षण का नियम-हर व्यक्ति से अपने की पृथक करना-जिसका परिणाम होता है, अंतत: दूसरों की सुख- सुविधा को बलि देकर भी अपने अभ्युदय की सिद्धि ! दूसरा है आत्म-बलिदान का विधान-अपनी चिंता से सर्वथा मुक्ति-सर्वदा केवल दूसरों का ध्यान करना रखना। दोनों ही की उत्पत्ति सुख का खोज से होती है-एक दूसरों की क्षति पहुँचाने में सुख की खोज से; केवल अपनी इंद्रियों में ही उस सुख की अनुभूति की क्षमता में सुख की खोज है। दूसरा औरों की मंगलसाधना में सुख की खोज से-दूसरों की इंद्रियों के माध्यम से सुखानुभूति की क्षमता प्रबल होती है। फिर भी ये दोनों शक्तियाँ साथ साथ संयुक्त रूप से काम कर रही हैं; प्राय: प्रत्येक व्यक्ति में वह मिली हुई पाई जाती हैं, एक या दूसरी प्रमुख होती है। चोर- चोरी करता है; पर, शायद, किसी दूसरे के लिए जिसे वह प्यार करता है।

.

ब्रह्म (परात्पर) और मुक्ति - प्राप्ति

  1. ऊँ तत्सत्-वह सत् चित्‍ आनंद ।

(क) एकमात्र सत्सता, केवल उसी का अस्तित्व है-अन्य हर एक पदार्थ का अस्तित्व उसी मात्रा में है, जिस मात्रा में वह इस सत्सत्ता को प्रतिभासित करता है।

(ख) वही एक मात्र ज्ञाता है-एक मात्र स्वयं प्रकाश-चेतना की ज्योति ! अन्य प्रत्येक पदार्थ उसी से प्राप्त, उधार ली हुई ज्योतित है। अन्य हर पदार्थ उतना ही ज्ञान प्राप्त कर पाता है, जितना वह उस सत् के ज्ञान को प्रतिबिंबित करता है।

(ग) वही एकमात्र आनंद है-क्योंकि उसमें कोई अभाव नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है-सबका सार तत्त्व है।

(घ) वह अविकल है, गुणातीत है, सुख-दु:ख विनिर्मुक्त है; न वह जड़ है, न चेतन ! वह सर्वोपरि है, अनंत है, निर्गुण आत्मा हर वस्तु में व्याप्त है, विश्व की अनंत आत्मा है।

(ङ) मुझमें, आपमें और प्रत्येक पदार्थं में जो कुछ सत्य है, वही है ; अत: 'तुम वही हो'-तत्वमसि।

  1. बुद्धि उसी निर्गुण की अवधारणा इस विश्व के स्रष्टा, पालनकर्ता शासक और संहारक के रूप में-उसके उपादान और निमित्त कारण के रूप में, परम शासक के रूप में जीवनमय, प्रेममय, परम सौंदर्यमय के रूप में करती है।

(क) परम सत्‍ की सर्वोपरि अभिव्यक्ति ईश्वर अथवा सर्वोच्च शासक के रूप में, सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान जीवन या ऊर्जा के रूप में हुई है।

(ख) परम ज्ञान अपनी सर्वोच्च अभिव्यक्ति परम प्रभु के प्रति अनंत प्रेम में कर रहा है।

(ग) परम आनंद की अभिव्यक्ति परम प्रभु में अनंत सौदर्यं के रूप में होती है। आत्मा का सर्वोपरि आकर्षण वही है।

सत्यम् शिवम् सुंन्दरम् ।

वह परात्पर या ब्रह्म, वह सच्चिदानन्द निर्गुण और यथार्थ अनंत है।

उच्चतम से लेकर निम्नतम प्रत्येक सत्ता अपनी अपनी कोटि के अनुरूप ऊर्जा (उच्चतर जीवन में), आकर्षण (उच्चतर प्रेम में) और साम्यावस्था के लिए संघर्ष की (उच्चतर आनंद में) अभिव्यक्ति करता है। पर परम ऊर्जा-प्रेम-सौर्न्दंय (सत्य ‍शिव सुंन्दरम) एक शरीरी है, व्यक्ति है-इस विश्व की अनंत जननी है-देवाधिदेव-परम प्रभु सर्वव्यापी फिर भी विश्व से पृथक परम आत्मा, फिर भी प्रत्येक आत्मा से पृथक्-इस विश्व की जननी, क्योंकि उसी ने इसे उत्पन्न किया है, विश्व-नियंत्रिका, क्योंकि वही इसकी परम प्रेममय, निर्देशिका और अंतत: हर वस्तु को स्वयं में पुन: ले आने वाली है। उसी के आदेश से सूर्य-चंद्र प्रकाशमान है, मेघ बरसते हैं और मृत्यु धरती पर अदृश्य विचरण करती है ।

यही महाशक्ति समस्त कारण-श्रृंखला में निहित बल है। प्रत्येक कारण को निश्चयपूर्वक परिणाम उत्पन्न करने की ऊर्जा वही प्रदान करती है। उसकी इच्छा ही एकमात्र नियम है और, क्योंकि उससे कभी चूक हो नहीं सकती, अत: प्रकृति के नियम उसकी इच्छा-कभी बदली नहीं जा सकतीं। कर्म-विधान अथवा कारण-विधान का प्राण वही है। प्रत्येक कर्म को फलप्रद बनाने वाली वही है। उसीके निर्देशन में हम अपने कर्मों द्वारा अपने जीवनों का निर्माण कर रहे हैं ।

मुक्ति ही इस विश्व की प्रेरक है और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम ऐसी पद्धतियाँ हैं, जिनके द्वारा हम जगदंबा के निर्देशन में, उस मुक्ति तक पहुँचने का संर्घष करते हैं। मुक्ति के लिए इस विश्वव्यापी संघर्ष की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में मुक्त होने की सजग अभिलाषा के रूप में होती है।

यह मुक्ति तीन प्रकार से प्राप्त होती है-कर्म, उपासना और ज्ञान से ।

(क) कर्म-दूसरों की सहायता करने और दूसरों को प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न।

(ख) उपासना-प्रार्थना, वंदना, गुणगान और ध्यान।

(ग) ज्ञान-जो ध्यान से उत्पन्न होता है।


>>पीछे>> >>आगे>>