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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 5

दत्तोपंत ठेंगड़ी


दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

खंड-5

अनुक्रमणिका

क्र. विषय पृष्‍ठ सं.

सोपान -1 (राज्‍यसभा में भाषण)

  1. मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के सांसद निर्वाचित घोषित किए जाने पर निर्वाचन अधिकारी का प्रमाणपत्र
  2. राज्‍यसभा सत्र - 47 वित्त विधेयक (फाइनैन्‍स बिल) (24-4-1964)
  3. राज्‍यसभा सत्र - 47 संसद सदस्‍यों के वेतन भत्तों में बढ़ोतरी (8-5-1964)
  4. राज्‍यसभा सत्र - 48 औद्योगिक विवाद (3-6-1964)
  5. राज्‍यसभा सत्र -49 कृषि सहाकारी संस्‍थाएँ (11-9-1964)
  6. राज्‍यसभा सत्र - 51 रेलवे बजट (23 - 2 - 1965)
  7. राज्‍यसभा सत्र - 51 आम बजट (10-3-1965)
  8. राज्‍यसभा सत्र - 53 पेमेंट ऑफ बोनस बिल (20-9-1965)
  9. राज्‍यसभा सत्र - 57 अनुसूचित जाति- जनजाति आयुक्‍त की रिपोर्ट (16-8-1966)
  10. राज्‍यसभा सत्र - 61 पाकिस्‍तान को अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति (28-8-1967)
  11. राज्‍यसभा सत्र - 62 वस्‍त्रोद्योग (11-12-1967)
  12. राज्‍यसभा सत्र - 63 पब्लिक सेक्‍टर (15-3-1969)
  13. राज्‍यसभा सत्र - 67 पब्लिक सेक्‍टर (15-3-1969)
  14. राज्‍यसभा सत्र - 72 भेल हरिद्वार में स्‍ट्राइक (15-5-1970)
  15. राज्‍यसभा सत्र - 77 वित्त विधेयक (4-8-1971)
  16. राज्‍यसभा सत्र -81 ग्रेच्‍युटी बिल (7-8-1972)
  17. राज्‍यसभा सत्र - 81 सीमेंट उद्योग (12-8-1972)
  18. राज्‍यसभा सत्र - 86 रेलवे सिग्‍नल स्‍टाफ आंदोलन (29-11-1973)

सोपान - 2 (विदेश में भेंट वार्ताएँ-कार्यक्रम)

1. विश्‍व प्रवास-अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल, केन्‍या, दक्षिण अफ्रीका तथा मारिशस में सामाजिक, सांस्‍कृतिक कार्यक्रम व श्रमिक क्षेत्र के लोगों से भेंट वार्ताएँ और उद्बोधन।

2. वेस्‍टइंडीज द्वीप समूह-गुआना में कार्यक्रम

3. सूरीनाम में तुलसीदास रूप में दत्तोपंत जी का स्‍वागत

4. ट्रिनीडाड-टोबैगो के प्रधानमंत्री से भेंटवार्ता

5. आप नीड (आवश्‍यकता) पूरी कर सकते हैं - ग्रीड (लालच) नहीं, ट्रिनीडाड के मजदूरों के समक्ष भाषण।

6. बारबेडोस देश में भ्रमण-सन्‍देश

7. रूस प्रवास- हिंदू अर्थशास्‍त्र

8. उत्तरी ध्रुव - आइसलैंड में भगवाध्‍वज

9. डरवन (दक्षिण अफ्रीका प्रवास)

सोपान-3 (लेख , प्रस्‍तावना)

1. पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण- दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. देशाभिमानयुक्‍त लोकतंत्र-दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. 'को-वैदिस (Quo Vadis) शीर्षक से डॉ. एम. जी. बोकरे के ग्रंथ 'हिंदू इकोनामिक्‍स' की प्रस्‍तावना......दत्तोपंत ठेंगड़ी

4. असफल मार्क्‍स से सफल ठेंगड़ी जी तक-दो भिन्‍न विचार दर्शनों का विवेचन- (From Failed Marx to Successful Thengadi Ji - A Travel Through two Paradigms)…… Saji Narayanan C.K

सोपान-4 (संस्‍मरण)

1. राजकृष्‍ण भक्‍त

2. राजनाथ सिंह सूर्य

3. एस.आर. कुलकर्णी

4. नित्‍यानंद स्‍वामी

5. परमानंद रेड्डी

6. From Failed Marx to Successful Thengadiji - (Original in English)

7. QUO VADIS (Original in English)

8. सोपानश: मुख्‍य बिंदु

9. शब्‍द संकेत

10. Index

11. लेखक परिचय

खंड - 5 सोपान-1

सोपान-1 (राज्‍यसभा में भाषण)

1. राज्‍यसभा सत्र - 47 वित्त विधेयक (फाइनैन्‍स बिल) (24-4-1964)

2. राज्‍यसभा सत्र - 47 संसद सदस्‍यों के वेतन भत्तों में बढ़ोतरी (8-5-1964)

3. राज्‍यसभा सत्र - 48 औद्योगिक विवाद (3-6-1964)

4. राज्‍यसभा सत्र - 49 कृषि सहकारी संस्‍थाएँ (11-9-1964)

5. राज्‍यसभा सत्र - 51 रेलवे बजट (23-2-1965)

6. राज्‍यसभा सत्र - 51 आम बजट (10-3-1965)

7. राज्‍यसभा सत्र - 53 पेमेंट ऑफ बोनस बिल (20-9-1965)

8. राज्‍यसभा सत्र - 57 अनुसूचित जाति- जनजाति आयुक्‍त की रिपोर्ट (16-8-1966)

9. राज्‍यसभा सत्र - 61 पाकिस्‍तान को अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति (28-8-1967)

10. राज्‍यसभा सत्र - 62 रेलवे बजट (11-12-1967)

11. राज्‍यसभा सत्र - 63 रेलवे बजट (7-3-1969)

12. राज्‍यसभा सत्र - 67 पब्लिक सेक्‍टर (15-3-1969)

13. राज्‍यसभा सत्र - 72 भेल हरिद्वार में स्‍ट्राइक (15-5-1970)

14. राज्‍यसभा सत्र - 77 वित्त विधेयक (4-8-1971)

15. राज्‍यसभा सत्र - 81 ग्रेच्‍युटी बिल (7-8-1972)

16. राज्‍यसभा सत्र - 81 सीमेंट उद्योग (12-8-1972)

17. राज्‍यसभा सत्र- 86 रेलवे सिग्‍नल स्‍टाफ आंदोलन (29-11-1973)


खंड - 5

सोपान - 1

संसद (राज्‍यसभा) में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का प्रथम कार्यकाल

(3 अप्रैल 1964 से 2 अप्रैल 1970)

राज्‍यसभा सत्र : 47

चर्चा का विषय: वित्त विधेयक (फाइनैन्‍स बिल)

24 अप्रैल 1964

(राज्‍यसभा के 47वें सत्र में नए सदस्‍यों को शपथ ग्रहण तथा रजिस्‍टर पर हस्‍ताक्षरों के पश्‍चात् वित्त विधेयक पर चर्चा चली जिसमें ठेंगड़ी जी ने भी भाग लिया । उनके 12 वर्षों के संसदीय कार्यकाल को देखने से विदित होता है कि वे संसद में जिस किसी विषय पर बोल रहे हों उस विषय का गहन अध्‍ययन तथा पूरी तैयारी (Home Work) करके सदन में आते थे । उनके भाषण, वक्तव्य तथा टिप्‍पणियों और सुझावों को पूरा सदन गंभीरतापूर्वक सुनता था । प्रत्‍येक विषय में वे कुछ नए तथ्‍य खोजकर प्रस्‍तुत करते थे । विशेषकर श्रमिक क्षेत्र से संबंधित विषयों पर उनके विचारों की स्‍पष्‍टता से सभी प्रभावित होते थे ।

श्रमिक क्षेत्र के साथ ही देश की सुरक्षा, सामाजिक एकता, सभ्‍यता संस्‍कृति व महंगाई बेरोजगारी आदि ऐसे विषय थे जिन पर उन्‍हें विशेषज्ञता प्राप्‍त थी । संसद में वे देश के दबे, कुचले, पिछड़े, शोषित, पीड़ित, वंचित तथा उपेक्षित वर्गों की सशक्‍त आवाज थे । राष्‍ट्रवादी विचार तथा राष्‍ट्रहित के अंतर्गत मजदूर हित के सजग प्रहरी थे । उनके अधिकांश भाषण अंग्रेजी भाषा में हैं जिनका हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्‍तुत किया है । स्‍थानाभाव की हमारी बाध्‍यता के दृष्टिगत यहाँ उनके अनेक भाषणों में से केवल कुछ ही भाषणों के केंद्रांश मात्र ही दिए जा रहे हैं)

''-----जहाँ तक फाइनेंस बिल का प्रश्‍न है मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस बिल का उपभोक्‍ता और विशेषकर श्रमिकों द्वारा स्‍वागत नहीं किया जा सकता क्‍योंकि इसमें महंगाई घटाने या श्रमिकों की वेतन वृद्धि अथवा रोजगार के अवसर बढ़ाने का कोई प्रावधान नहीं है । यह सही है कि इसमें कर (Tax) चोरी के विरुद्ध कार्रवाई करने की बात कही गई है । वह अच्‍छी बात है किंतु यह पर्याप्‍त नहीं है । श्रमिकों को यह आश्‍वासन दिया जाना चाहिए कि टैक्‍स चोरी करने वालों से जो धनराशि वसूल की जाएगी वह श्रमिकों को दी जाएगी । मेरा सुझाव यह है कि उद्योगपतियों से टैक्‍स चोरी के जुर्माने के रूप में या टैक्‍स रिटर्न के दोबारा आकलन से जो धनराशि प्राप्‍त की जाएगी उसे उन उद्योगपतियों के कारखानों में कार्यरत उन श्रमिकों को जीवन योग्‍य वेतन और वास्‍तविक वेतन के मध्‍य जो खाई विद्यमान् है उसकी पूर्ति हेतु उक्‍त धनराशि का उपयोग किया जाएगा ।

इस वित्त विधेयक के द्वारा अब टैक्‍स अधिकारियों को व्यापक अधिकार दिए जाने का प्रावधान है । टैक्‍स अधिकारी टैक्‍स चोरों को पकड़ें और सजा दें यही हम भी चाहते हैं । किंतु अपने अति उत्‍साह में एक बुराई को नियंत्रित करने के चक्‍कर में कहीं हम दूसरा फ्रैंकस्‍टीन तो पैदा नहीं कर देंगे । मेरा वित्त मंत्री जी से निवेदन है कि वह यह देखें कि टैक्‍स अधिकारी प्रामाणिकता और सच्‍चरित्रतापूर्वक इस विधेयक द्वारा प्रदत्त नए अधिकारों का उपयोग करेंगे और इनका कहीं कोई दुरुपयोग नहीं होगा । इस संदर्भ में हम श्रमिकों का अनुभव अच्‍छा नहीं है । हमारे अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि टैक्‍स अधिकारी अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं । वे जब भी किसी उद्योगपति से टैक्‍स चोरी का कोई षड्यंत्र रचते हैं अथवा अपवित्र गठजोड़ करते हैं तो उन दोनों के गठजोड़ का खमियाजा बेकसूर श्रमिकों को भुगतना पड़ता है । उनकी जायज देय धनराशि से उन्‍हें वंचित कर दिया जाता है । इस परिप्रेक्ष्‍य में मुंबई स्थित एडवर्ड मिल्‍स का मैं उदाहरण देना चाहता हूँ । वहाँ के कर्मचारी विगत चार महीनों से लगातार खुलेआम कारखाना प्रबंधन पर यह इल्‍जाम लगा रहे हैं कि टैक्‍स अधिकारी कारखाना प्रबंधन से मिलकर हिसाब-किताब में गड़बड़ कर रहे हैं । मैं भारत सरकार से माँग करता हूँ कि उक्‍त मामले की तत्‍काल निष्‍पक्ष जाँच करवाई जाए । अब जरा देश की सामान्‍य आर्थिक स्थिति की ओर देखें । जिसके कुछ पहलुओं पर यहाँ चर्चा हो रही है ।

सार्वजनिक क्षेत्र के विस्‍तार की संभावनाओं पर बात हो रही है । देश की समृद्धि उत्‍पादकों द्वारा उत्‍साहपूर्वक अधिकाधिक उत्‍पादन वृद्धि से जुड़ी है किंतु उत्‍पादकों के अधिकतम काम करने के उत्‍साह में वृद्धि कैसे होगी । जब उन्‍हें स्‍पष्‍ट रूप से दिख रहा है कि उनके सामने केवल दो बुराइयों में किसी एक को चुनने का विकल्‍प है । एक है नि‍जी पूँजीवाद (Private Capitalism) और दूसरी राष्‍ट्रवाद के नाम पर राज्‍य का पूँजीवाद (State Capitalism) । श्रमिकों के समाने कुएं और खाई में से किसी एक को चुनने का विकल्‍प खुला हुआ है याने वह आग या उस पर रखे तपते हुए तवे में से किसी एक को चुन ले । श्रमिक ऐसे किसी तीसरे विकल्‍प की तलाश में है जो उन्‍हें निजी पूँजीवाद अथवा सरकारी पूँजीवाद दोनों के दुष्‍प्रभावों से बचा सके । यह मान लेना कि उद्योंगों के स्‍वामित्‍व का कोई विशेष नमूना ही रामबाण दवा है ऐसा मानना उचित नहीं होगा । अलग-अलग उद्योगों की अलग रचना व विशिष्‍टताएँ हैं जिनके लिए स्‍वामित्‍व के विभिन्‍न नमूने हो सकते हैं । जहाँ कहीं भी निजी स्‍वामित्‍व को समाप्‍त करके राष्‍ट्रीयकरण (सरकारीकरण) की बात आए तो सरकारी आँकड़ों के बजाए उस उद्योग के कर्मचारियों की आवाज पर ध्‍यान दिया जाना चाहिए और सहभागिता तथा को-आपरेटिव स्‍कीमों के अंतर्गत उद्योगों के श्रमिकीकरण सहभागिता तथा को-आपरेटिव स्‍कीमों के अंतर्गत उद्योगों के श्रमिकीकरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। रक्षा से संबंधित और कुछ इसी प्रकार को आधारभूत उद्योगों को छोड़कर राष्‍ट्रीयकरण के प्रयोग को अंधाधुंध प्रयोग में न लाया जाए । मेरा सरकार से अनुरोध है कि स्‍वामित्‍व के अन्‍य पैटर्नो पर भी विचार किया जा सकता है जिनसे श्रमिकों के मन में अधिकाधिक उत्‍पादन का स्‍वाभाविक उत्‍साह जगे । जहाँ तक वित्त विधेयक का संबंध है मैं समझता हूँ जनता के अधिसंख्‍य निर्धन, निर्बल जन समुदाय की ओर से मैंने कुछ विचार रखे हैं जो इस समय के लिहाज से पर्याप्त हैं ।

राज्‍यसभा सत्र : 47

संसद सदस्‍यों के वेतन भत्तों में बढ़ोत्तरी-सरकारी (संशोधन) विधेयक 1964

8 मई 1964

''-मैडम उप सभापति जी ! मैं प्रस्‍तावक श्री भार्गव जी की कुछ दलीलों से सहमत हूँ । मैं ईमानदारी से महसूस करता हूँ कि यह जो तरीका है यह घोड़े के सम्‍मुख घोड़ागाड़ी लगाने जैसा है । यह सही है कि यह केवल सांसदों के लिए ही नहीं अपितु इससे सभी जन त्रस्‍त हैं तो फिर केवल सांसदों ही के वेतन भत्तों में बढ़ोत्तरी की बात कैसे सोची जा सकती है । होना तो यह चाहिए कि महँगाई को नियंत्रण में लाया जाए । कुछ ऐसे प्रभावकारी कदम उठाए जाएँ कि महँगाई रुके और उसमें कमी आए पर वैसा कुछ विचार नहीं करते हुए हम अपने ही वेतन भत्ते बढ़ाने की बात सोच रहे हैं ।

बढ़ती महँगाई के दृष्टिगत हमें अपने वेतन भत्तों में बढ़ोत्तरी की जरूरत महसूस हो रही है । किंतु जरा उनकी सोचें जो संसद के बाहर हैं । वह महँगाई की मार इमसे कहीं अधिक झेल रहे हैं । यह सही है कि महँगाई की बीमारी से सारा विश्‍व ग्रस्‍त है । उसका उपचार भी उसी स्‍तर पर उसी प्रकार के उपाय करने से होगा । वह न करके हमारे अपने वेतन भत्ते बढ़ा लेने से क्‍या होगा । वह जो बाहर है जिन्‍होंने हमें चुनकर इस सदन में भेजा है वे हमारे स्‍वामी हैं और जब वे यह सुनेंगे कि उनकी परवाह किए बिना हमने स्‍वयं के वेतन भत्ते बढ़ा लिए हैं, अपनी आर्थिक स्थिति सुधार ली है तो वे क्‍या सोचेंगे । जरा विचार करें कि इस स्थिति में क्‍या हमें यह वित्त विधेयक पारित करना चाहिए ।

मैं एक उदाहरण देना चाहता हूँ । हमारे बम्‍बई के वस्‍त्रोद्योग के कर्मचारी वर्ष 1939 में रुपया 30/- मासिक वेतन पाते थे । अब महँगाई पाँच गुणा बढ़ गई है ऐसा कहा जा रहा है और अधिकारी यह भी मानते हैं कि वर्ष 1951 से 1958 के मध्‍य उत्‍पादन वृद्धि की दर 25% बढ़ी है । अत: श्रमिक वर्ष 1939 के मुकाबले में उनके वेतनमान में छह गुणा वृद्धि की जो माँग आज कर रहे हैं वह न्‍यायसंगत है ।

इस तर्क के आधार पर उन कर्मचारियों का राष्‍ट्रीय स्‍तर पर आज मासिक वेतन रुपया 180/-निर्धारित किया जाना पूर्णतया न्‍यायोचित होगा । अब उन कर्मचारियों का वेतन बढ़ाना हमें व्‍यवहारिक नहीं लगता किंतु हम अपने वेतन बढ़ाने की चिंता और उपाय कर रहे हैं । एक बार पुन: विचारें कि संसद के बाहर आम जन और हमारे वे स्‍वामी जिन्‍होंने हमें यहाँ उनके प्रतिनिधित्‍व के लिए भेजा है वह जब यह सुनेंगे तो हमारे बारे में क्‍या सोचेंगे । मैं श्रीमान् भार्गव जी ने विधेयक प्रस्‍तुत करते हुए जो जोरदार तर्क दिए हैं उन सभी का खंडन नहीं कर रहा हूँ । इतना कह सकता हूँ कि इस विषय के दोनों पक्ष अपने अपने स्‍थान पर मजबूत हैं जैसा कि सर कोगिर डी. करवले ने कहा है कि दोनों पक्षों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है (Much can be said on both sides).

मैं यह कहना चाहता हूँ कि हम दूसरों से संबंधित अन्‍य विषयों पर विचार-विमर्श करते हैं । किंतु आज हम अपने ही से संबंधित विषय पर विचार कर रहे हैं । यह एक अद्वितीय ओर नाजुक मसला है । सही है कि इसके दोनों पक्ष सबल हैं किंतु हम जल्‍दबाजी न करें और बहुमत के आधार पर इसे पारित न करें । मैं माननीय सभापति जी से अनुरोध करना चाहूँगा कि इस विषय पर सभी सं‍बंधित ग्रुप नेताओं को आमंत्रित करके उनसे सलाह मशविरा करते हुए किसी सर्वसम्‍मत निर्णय पर पहुँचने का का प्रयास किया जाए क्‍योंकि जिम्‍मेदार नागरिकों की राय के साथ जो सर्वसम्‍मत निर्णय किया जाएगा वह वास्‍तव में सबको स्‍वीकार होगा ।

धन्‍यवाद।''

राज्‍यसभा सत्र:48

औद्योगिक विवाद (संशोधन) विधेयक , 1963

: यूनियनों को मान्‍यता

3 जून 1964

(श्रम मंत्रालय द्वारा प्रस्‍तावित उक्‍त विधेयक पर श्री ठेंगड़ी जी ने श्रम कानूनों के जानकार होने के नाते प्रभावशाली ढंग से अपने विचार रखे हैं। ऐसे आधारभूत श्रम कानूनों में किसी भी संशोधन जो श्रमिकों के हित मे न हो उसे निरस्‍त करवाने और श्रमिकों को सुरक्षा तथ शक्ति प्रदान करने वाले प्रावधान विधेयक में जुड़वाए हैं । यहां यूनियनों को मान्‍यता प्रदान किए जाने संबंधी कार्यविधि पर उक्‍त भाषण के केवल कुछ अंशमात्र दिए जा रहे हैं।)

''……मैं यह सुझाव देना चाहूँगा कि श्रमिकों की कौन सी यूनियन बहुमत में है। उसके लिए यह जो गुप्‍त मतदान का तरीका है वह उपयुक्‍त है और उसे ही अपनाया जाना चाहिए । देशभक्‍त होने के नाते हम भी औद्योगिक शांति चाहते हैं और मैं कहूँगा कि राष्‍ट्रभक्ति किसी एक विशेष संगठन की बपौती नहीं है । मैं सभी देशभक्‍तों का आदर करता हूँ किंतु उनमें से कुछ जब यह जताने लगते हैं कि केवल वही अकेले देशभक्‍त हैं तो उससे हम असहमत हैं । अत: राष्‍ट्रभक्ति को पूँजीवाद से जोड़ने की बजाए हम भेड़ को स्‍पष्‍टतया भेड़ कहें और राष्‍ट्रभक्ति के इस विषय के बीच में न लाते हुए स्‍पष्‍ट रूप से ऐसा विधेयक बनाएँ जिससे श्रमिकों को न्‍याय मिले । दिलाने की इस प्रक्रिया में सरकार यह सुनिश्चित करे कि किसी भी यूनियन के साथ भेदभाव नहीं होगा और किसी भी विशेष केंद्रीय श्रमिक संगठन को कोई रियायत या उसका पक्ष पोषण नहीं किया जाएगा । मेरा इंगित इंटक की ओर है । अब यह सिद्ध किया जा सकता है कि अक्‍सर सरकार इंटक की माँग को समर्थन देने के लिए मर्यादा से भी बाहर चुनी जाती है । हम यह अच्‍छी तरह समझ रहे हैं कि पक्षपात किया रहा है तो फिर ईमानदारी से यह किया जाए कि एक ऐसा विधेयक पारित किया जाए कि इंटक को छोड़कर किसी भी दूसरे केंद्रीय श्रम संगठन का अस्तित्‍व नहीं रहेगा । ऐसा करना ईमानदारी का काम होगा ।

इसलिए हमारा कहना है कि गुप्‍त मतदान पद्धति द्वारा यूनियन को मान्‍यता के तरीके से आपको कोई मतभेद नहीं होना चाहिए । आप गुप्‍त मतदान ( Secrer ballot) करवाइए और आपको पता चलेगा कि इंटक की जो यूनियनें आज मान्‍यता प्राप्‍त हैं उनमें से 95% यूनियनों की मान्‍यता समाप्‍त हो जाएगी । ऐसा मैं दावे से कह सकता हूँ ।

राज्‍यसभा सत्र:49

कृषि सहकारी संस्‍थाओं के सशक्तिकरण के लिए

संसदीय समिति का पुनर्गठन ।

11 सितंबर 1964

''---इसलिए ग्रामीण जन जीवन को एकात्‍म भाव से देखना चाहिए । इस प्रस्‍ताव के प्रस्‍तावक महोदय की भावना से मैं सहमत हूँ किंतु ग्रामीण जीवन को अलग-अलग टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता । ग्रामीण जीवन के विभिन्‍न पहलू आपस में जुड़े हुए हैं जिन्‍हें अलग नहीं किया जा सकता । प्रस्‍तावक जब यह कहते हैं कि ग्रामीण जीवन के तीन जर (पूंजी) जमीन (भूमि) और श्रमिक पहलू हैं और कृषि सहकारी संगठन केवल पूँजी को श्रमिक से अलग करके कैसे देख सकते हैं । हमारे देश में लाखों लाख भूमिहान श्रमिक हैं और हमें उनकी कठिनाइयों का पता है किंतु उनकी आपदाओं और विपत्तियों का आज तक कारगर समाधान निकाला नहीं जा सका है । ऐसा मेरा व्‍यक्तिगत अनुभव है।

कृषि श्रमिकों को राहत मिले । इसलिए हमने न्‍यूतम वेतन अधिनियम तथा कुछ और तत्संबंधी अधिनियम लागू करवाने का प्रयास किया है किंतु उनसे भूमिहीन श्रमिकों को उचित राहत नहीं मिल पाई है । तो अब उन्‍हें क्‍या अपने (भूमिहीन श्रमिकों को ) सहकारी संगठन अथवा श्रम संगठन (ट्रेड यूनियन) निर्माण करने चाहिए या फिर ग्रामीण अंचलों में आर्थिक सहायता (Subsidy) देकर कुछ उद्योग खड़े किए जाएँ जिससे उन्‍हें लाभ हो सके । यह सब व्‍यापक जन जीवन की आपस में जुड़ी हुई समस्‍याएँ हैं जिन्‍हें किसी एक नजरिए से अलग-अलग करके देखना इससे एकात्‍म ग्रामीण जीवन के साथ न्‍याय नहीं होगा ।

राज्‍यसभा सत्र :51

विषय: रेलवे बजट 1965-66

23 फरवरी 1965

(तत्‍कालीन रेलमंत्री श्री रामसुभग सिंह की उपस्थिति में रेल बजट पर श्री ठेंगड़ी जी का अत्यंत प्रभावशाली और तर्कसंगत यह भाषण है। ऐसा लगता है कि ठेंगड़ी जी ने रेलवे से संबंधित सभी पहलुओं का विशेषकर रेल कर्मचारियों से संबंधित अनेकानेक समस्‍याओं का वर्णन किया है । उस प्रदीर्घ भाषण के केवल मात्र वह अंश जो कर्मचारियों से संबंधित हैं, स्‍थानाभाव के कारण केवल उन्‍हें ही यहाँ प्रस्‍तुत किया जा रहा है।)

'' ---इस बजट के बारे में आम भावना यह है कि इससे गरीब रेल यात्रियों पर अतिरिक्‍त भार डाल दिया गया है जिसे अविलंब वापस लिया जाना चाहिए । यह सही है कि वर्ष 1939 के मुकाबले महँगाई में पाँच गुणा वृद्धि हो चुकी है किंतु उसी दर से आमदनी में तो वृद्धि नहीं हुई है। वृद्धि की तो बात छोड़िए उलटे पगार (वेतन) जो है उसमें घटोतरी हुई है। रेल बजट में अत: किराए भाड़े और अन्‍य बढ़ोत्तरी के प्रावधान किए गए हैं वे अनुचित और अन्‍यायकारक हैं जिन्‍हें वापस लिया जाना चाहिए ।

आकस्मिक श्रमिक (कैजुअल वर्कर्स) का जिक्र किया गया है । यह ''कैजुअल'' शब्‍द के साथ मजाक है क्‍योंकि जिन्‍हें कैजुअल कहा जा रहा है वे श्रमिक तो अनेक वर्षों से लगातार कार्यरत हैं। उन्‍हें छह मास की नियमित सेवा के उपरांत स्‍थाई करने के साथ ही मूल्‍य-सूचकांक के आधार पर उनकी पेमेंट की दरों में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए ।

वर्ष 1931 में जे. ए. बेल समिति की अनुशंसाओं के अनुसार बारह गैंगमैन तीन मील की लंबाई की देख रेख के लिए जिम्‍मेदार होते थे जिसे बढ़ाकर चार मील और गैंगमैन की संख्‍या बारह से घटाकर नौ कर देने की बात कही गई। इसी अवधि में ट्रैफिक (यातायात) में बीस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई । अत: इसे ध्‍यान में रखते हुए गैंगमैन की संख्‍या में वृद्धि की जानी चाहिए अथवा कम से कम वर्ष 1931 के आधार पर ही गैंगमैन की संख्‍या रखी जाए ।

प्रत्‍येक रेल कर्मचारी को आवास दिया जाना चाहिए । चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को दो कमारों का फ्लैट कम से कम 12´8 फीट लंबाई चौड़ाई का जिसके आगे 5 फीट का खुला छज्‍जा हो ऐसा फ्लैट दिया जाना चाहिए ।

रेल कर्मचारियों के लिए अविलंब 'वेज बोर्ड' की नियुक्ति की जानी चाहिए जो कर्मचारियों के वेतन भत्तों व अन्‍य संबंधित बातों पर विचार करे । वेतन बोर्ड ने सेवानिवृत्त कर्मचारियों के बारे में भी विचार करना चाहिए । सेवानिवृत्त कर्मचारियों का यह दुर्भाग्य है कि उनकी अपनी कोई ट्रेड यूनियन नहीं है जो सेवारत कर्मचारियों की भाँति उनकी माँगे उठा सकें और इसलिए वे सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति से वंचित हैं और उनकी परवाह करने वाला कोई नहीं है ।

रेल कर्मचारियों को बोनस के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता । बोनस को सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को भी दिया जाना चाहिए । रेल अधिकारियों से मैं कहना चाहूँगा कि औद्योगिक अधिनियम-1947 के अंतर्गत प्रदान की गई सुरक्षा इन कर्मचारियों को भी प्रदान की जानी चाहिए ।

रेल कर्मचारियों को वही अधिकार और सुविधाएँ दी जानी चाहिए जो ग्रेट ब्रिटेन व अन्‍य सभ्‍य देशों के कर्मचारियों को उपलब्‍ध हैं । यह दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि हमारे यहाँ एक बार रेल की नौकरी कर ली तो मानो गुलाम हो गए । उसके सामाजिक व राजनीतिक अधिकार सुरक्षित रहने चाहिए ।

जहाँ तक महँगाई भत्ते का प्रश्‍न है इसमें कर्मचारियों में भेदभाव किया जाता है। कम वेतन या अधिक वेतन पाने वाले सभी पर दास कमीशन की अनुशंसाओं के अनुरूप व्‍यवहार किया जाना चाहिए । हमारा यह सुविचारित निष्कर्ष है कि महँगाई भत्ते की संरचना विश्‍व युद्ध के समय एक अस्‍थाई व्‍यवस्‍था के रूप में की गई थी । जिससे कि कर्मचारियों को उनके बोनस, ग्रैच्‍युटी, भविष्‍यनिधि और पेंशन आदि वास्‍तविक अधिकार से वंचित रखा जा सके । इस व्‍यवस्‍था के चलते काफी समय हो गया है और इसने एक स्‍थाई रूप ले लिया है जो कि एक अस्‍थाई व्‍यवस्‍था के रूप में चालू की गई थी । अब समय आ समय आ गया है कि महँगाई भत्ते को शत प्रतिशत मूल वेतन में समाहित (Merge) करके समूचे वेतन को मूल्‍य सूचकांक से जोड़ा जाए ।

रेलवे के सभी जोनों (Zones) पर सभी कर्मचारियों को एक समान सुरक्षा, सुविधाएँ व सेवा शर्तें होनीं चाहिए । सेवा निवृत्ति के पश्‍चात् चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को भी फ्री रेलवे पास, पीटीओ वगैरह की वह तमाम सुविधाएँ मिलनीं चाहिए जो कि तृतीय श्रेणी के कर्मचारी को मिलती है । केंद्रीय वेतन आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप पेंशन नियमों में सुधार किया जाना चाहिए ।

बहुत सोच विचार के उपरांत मैं एक सुझाव देना चाहता हूँ कि रेलवे वास्‍तव में स्‍वायत्त निगम के रूप में प्रबंधन बोर्ड का गठन यात्री उपभोक्‍ता तथा कर्मचारियों में से श्रेष्‍ठ जानकार ऐसे प्रतिनिधि लेकर किया जाना चाहिए और इस प्रकार गठित यह नियम नकली दिखावे का नहीं अपितु असली होना चाहिए ।

राज्‍यसभा सत्र : 51

विषय: आम बजट 1965-66

10 मार्च 1965

(आम बजट पर अपने विचार रखते हुए श्री ठेंगड़ी जी ने भारतीय अर्थ व्‍यवस्‍था, मूल्‍य वृद्धि, उत्‍पादन, टैक्‍सैशन, वेतन वृद्धि के साथ मूल्‍य वृद्धि को जोड़ने की अनुचित मनोवृत्ति, कृषि, जंगल, उपभोक्‍ता, दैनिक आमदनी, निर्धनता आदि अनेक विषयों पर सटीक विचार प्रस्‍तुत किए हैं । बजट पर श्री ठेंगड़ी जी के विचार उनके आर्थिक चिंतन का निचोड़ ही हैं । किंतु स्‍थानाभाव के कारण उक्‍त भाषण को अविरल आद्योपांत प्रकाशित करना संभव नहीं है । सो केवल वही प्रमुख अंश यहाँ दिए जा रहे हैं जो कि श्रमिकों से संबंधित हैं।)

''जहाँ तक कामगारों का संबंध है मैं कहना चाहूँगा कि यह 'वर्कर्स बजट' नहीं है। श्रमिक उपभोक्‍ता वर्ग का एक बड़ा हिस्‍सा है और प्रत्‍येक बजट से उपभोक्‍ता उन्‍मुख होने की अपेक्षा व आशा की जाती है और इस दृष्टिकोण से मैं कहूँगा कि इस बजट ने उपभोक्‍ताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया है ।

हम आशा कर रहे हैं कि बजट में श्रमिकों, उद्योगों, कृषि, वनों, खेतिहर मजदूरों के लिए अधिक फंड दिए जाएँगे । किंतु इस बजट में वैसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है । देश में 21 मिलियन केंद्रीय कर्मी हैं जिन्‍हें बिल्‍कुल नजरअंदाज कर दिया गया है । दास कमीशन की सिफारिशों को पूरी तरह माना नहीं गया है और महँगाई भत्ते को मूल वेतन में मिलाया नहीं गया है । कृषि मजदूरों की अनदेखी की गई है । यह मजदूर 60 पैसे रोजाना मजदूरी पाते हैं । इस ओर ध्‍यान ही नहीं दिया गया है । श्रमिकों के लिए गठन की माँग थी जिसे स्‍वीकार नहीं किया गया है । अत: इस बजट से कर्मचारियों को निराशा हुई है ।

अब मैं भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की कुछ प्रमुख समस्‍याओं की ओर आपका ध्‍यान आकर्षित करना चाहता हूँ । वेतन बढ़ते हैं तो कीमतें बढ़ जाती हैं । इस बारे में बहुत कहा जाता है । मेरा मानना है कि उपभोक्‍ता का तब तक भला नहीं हो सकता जब तक कि तीन लक्ष्‍य प्राप्‍त नहीं कर लिए जाते और वे तीन लक्ष्‍य हैं :-

1. पूर्ण रोजगार,

2. राष्‍ट्रीय वेतन नीति का विकास और

3. राष्‍ट्रीय मूल्‍य नीति का विकास ।

हमें इस बात का विश्‍लेषण करना चाहिए कि आखिर मूल्‍य वृद्धि के पीछे ऐसे कौन से कारण हैं जो मूल्‍य बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं । मुख्‍यतया तीन कारण हैं जो पर्दे के पीछे मूल्‍य वृद्धि के लिए जिम्‍मेदार होते हैं और वे हैं :-

i. कमी (scarcity)

ii. मुद्रास्‍फीति (Inflation)

iii. मुनाफाखोरी । (Profiteering)

हमें अपने मूल्‍य सूचकांक को सुधारने की आवश्‍यकता है और उसके लिए आँकड़े एकत्रित करने के उद्देश्‍य से मध्‍य और निम्‍न तथा निम्‍नमध्‍य के साथ कृषि आधारित जीवन-यापन करने वाले वर्गों के बीच जाना चाहिए।

राज्‍यसभा सत्र : 53

विषय: पेमेंट ऑफ बोनस बिल 1965

20 सितंबर 1965

(बोनस बिल पर श्री ठेंगड़ी जी का अत्‍यंत सारगर्भित विचारोत्तेजक लंबा भाषण है । बोनस की अवधारणा, उसकी राशि, उद्देश्‍य, किन लोंगों की उसे पाने की पात्रता आदि अनेक ऐसे बिंदु हैं जिन पर श्री ठेंगड़ी जी ने विस्‍तृत चर्चा की है । सरकार द्वारा प्रस्‍तुत बिल में उन्‍होंने अनेक त्रुटियाँ उजागर की हैं तथा अनेक संशोधन व सार्थक सुझाव भी दिए हैं । उस भाषण की केवल एक वानगी के रूप में और जो महत्वपूर्ण हैं ऐसे उनके भाषण के अंतिम पैरा को यहाँ प्रस्‍तुत किया जा रहा है। )

''एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर मैं ध्‍यान आकर्षित करना चाहता हूँ और वह यह कि इस विधेयक में बोनस की अवधारणा की व्‍याख्‍या की जानी चाहिए । यह प्रावधान कि चार प्रतिशत अ‍थवा रुपया 40/- जो भी अधिक हो यानि न्‍यूनतम बोनस संबंधी नियम को बनाते समय सरकार के मन में इस बात को लेकर आधा अधूरा विचार था कि 'बोनस विलंबित वेतन' है । (Bonus is a deferred wage) को मानना अथवा नहीं मानना और अंतत: सरकार ने इस अवधारणा को नहीं माना ।

अब जबकि सरकार ने बोनस को बिलंबित वेतन नहीं माना है और उसकी कोई दूसरी स्पष्ट व्याख्या भी नहीं की है तो बोनस के बारे में कोई नियम बनाना कठिन है । मेरा सुझाव है कि बोनस एक बिलंबित वेतन है कि अवधारणा को इस विधेयक में सम्मिलित किया जाना चाहिए था । धन्यवाद ।

राज्‍यसभा सत्र: 57

अनुसूचित जाति जनजाति आयुक्‍त की रिपोर्ट वर्ष 1962-63 , 63-64 पर चर्चा ।

16 अगस्‍त 1966

(सरकार की दिखावे की नीतियों और बनावटी सहानुभूति तथा गलत आँकड़ों के प्रस्‍तुतिकरण पर श्री ठेंगड़ी जी ने जम कर प्रहार किए हैं । अनुसूचित जातियों, जनजातियों के सामाजिक पक्ष और कुरीतियों पर बोलते हुए उन्‍होंने अनेक उदाहरण और सुझाव भी दिए हैं । उक्‍त संदर्भ में श्री ठेंगड़ी जी के भावपूर्ण भाषण के केवल कुछ अंश यहाँ प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं ।)

''खानाबदोश (घुमंतू) जातियों और आधारित वृत्ति वाली जातियों की क्‍या बात करें आपने (सरकार ने) तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए भी आज तक जुबानी सहानुभूति के अतिरिक्‍त उक्‍त जातियों को वास्‍तव में न्‍याय प्राप्‍त हो गया है ऐसा आपने कुछ भी नहीं किया है । इस बारे में राज्‍य सरकारों ने भी कुछ नहीं किया है । बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं किंतु वास्‍तविकता यह है कि यथार्थ में कुछ हुआ ही नहीं है ।

उदाहरणार्थ जो धनराशि इस कार्य के लिए आवंटित की गई थी उसे पूरी तरह खर्च ही नहीं किया गया । वह राशि बिना खर्च किए वैसे ही पड़ी हुई है । मूल आवंटन और वास्‍तविक खर्च में भारी अंतर है । उदाहरण के लिए प्रथम तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं में क्रमश: 32 करोड़ तथा 79 करोड़ की धनराशि रखी गई थी । जनकल्‍याण की योजना पर केवल 27 तथा 67 करोड़ ही खर्च किया गया । जनकल्‍याण की किन योजनाओं पर कितनी धन राशि व्‍यय की गई इस बारे में राज्‍यों व केंद्र शासित प्रदेशों से समय पर रिपोर्ट केंद्र को प्राप्‍त नहीं हुई और अगर मिली भी तो वह आधी अधूरी है । कानूनी सहायता की योजनाएँ जिसकी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों को अत्‍यधिक आवश्‍यकता होती है ऐसी योजनाएँ जितनी उदार होनी चाहिए उतनी उदार नहीं हैं । इन लोगों को कहाँ कहाँ और किन मुद्दों पर कानूनी सहायता उपलब्‍ध है इसे ठीक से प्रचारित ही नहीं किया जाता और इसलिए लोग प्रताड़ना से दो चार होते हैं और अपना बचाव नहीं कर पाते । सामुदायिक विकास और पंचायती राज की व्‍यवस्‍था इस संबंध में अपनी जिम्‍मेदारी का निर्वहन ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं । ग्राम पंचायत, पंचायत समिति तथा जिला परिषदें स्‍वयं अनुसूचित जातियां जनजातियों के साथ भेदभाव का व्‍यवहार करती हैं । विभिन्‍न समितियों में उन्‍हें उचित प्रतिनिधित्‍व नहीं दिया जाता और यहाँ तक कि बैठने की भी अलग व्‍यवस्‍था की जाती है ।

इन कार्यों का मूल्‍यांकन व प्रगति जाँचने व तालमेल बिठाने वाले कोष्‍ठ (Cells) जिस कार्य के लिए उनका गठन किया गया है उस कार्य को वह उचित ढंग से नहीं करते । केंद्रीय कोआर्डीनेशन और राज्‍य समितियों की निर्धारित समय अवधि के भीतर बैठकें नहीं होती । क्षेत्रीय स्‍तर पर अन्वेषक जाँच अधिकारी ही नहीं हैं ।

सामाजिक स्‍तर पर इनकी स्थिति निहायत चिंताजनक है । स्‍वतंत्रता के उन्‍नीस वर्ष के उपरांत भी स्थिति शोचनीय बनी हुई है । ग्रामीण क्षेत्रों में छुआछूत आज भी उतनी ही मजबूत है जितनी कि 1947 के पूर्व थी । जहाँ तक शहरी क्षेत्रों का प्रश्‍न है वहाँ भी इसे पूरी तरह समाप्‍त नहीं किया जा सका है । इन जातियों में कुछ जातियाँ जैसे दिल्‍ली और आसपास वाल्‍मीकि, बिहार में डोम, देश-भर में भंगी, महाराष्‍ट्र में मंग, लोवार हिमाचल में तथा इसी प्रकार अन्‍य जातियाँ अनुसूचित जाति में विशेषकर घृणा और तिरस्‍कार का शिकार होती हैं । जहाँ तक कि अनुसूचित जातियों के अंतर्गत एक दूसरी जाति के विरुद्ध छूआछूत चलती है । वह एक साथ न तो भोजन करते हैं न एक दूसरे के कुएं से पानी भरने देते हैं । नाई उनके केश (हजामत) नहीं काटते । उन्‍हें देवस्‍थानों और होटलों में प्रवेश की अनुमति नहीं है । छूआछूत के बारे में बनाया गया कानून याने 'छूआछूत (अपराध) एक्‍ट 1955 का समुचित प्रचार नहीं किया गया है और जिनके लिए यह बनाया गया है वे इससे अनभिज्ञ हैं । इसलिए इस एक्‍ट के अंतर्गत दायर किए जाने वाले केसों (Cases) की संख्‍या घट रही है । जहाँ यह केस दायर भी हैं तो वहाँ इनके निपटारे की गति बहुत धीमी है । विज्ञापन निदेशालय ने इस बारे में प्रचार कार्य बंद कर दिया है ।

इन जातियों को सरकार की ओर से दिया जाने वाला ब्‍याज मुक्‍त कर्ज नहीं मिलता । अन्‍य अनेक ऐसी सहुलियतें हैं जिनका इन्‍हें पता ही नहीं है और फलस्‍वरूप यह उन सभी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं । सरकार ने शहरी क्षेत्रों में आवास योजना चला रखी है कि ग्रामीण क्षेत्रों में इनका विस्‍तार नहीं किया गया है । स्‍लम बस्‍ती तथा गाँव आवास प्रकल्प अपर्याप्‍त हैं । जनजातियों के लिए भी आज तक जुबानी सहानुभूति के अतिरिक्‍त उक्‍त जातियों को वास्‍तव में न्‍याय प्राप्‍त हो गया है ऐसा आपने कुछ भी नहीं किया है । राज्‍य अनुसूचित जाति के लोग वास्तव में छूआछूत एक्ट और अन्य सुविधाओं का लाभ उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं और सरकारी संसाधन उन्हीं लोगों के हाथ में हैं जो उच्च जातियों से आते हैं। अब इन उच्च जाति वालों से अपने अधिकारों के लिए कैसे लड़ा जाए इसके लिए उनमें असमंजस की स्थिति है। जब तक इन जातियों को आर्थिक स्वतंत्रता अथवा आर्थिक स्वावलंबन की स्थिति प्राप्त नहीं करवाई जाती तब तक अपनी स्थिति को स्वयं मजबूत बना पाना उनके लिए कठिन है।

तथाकथित उच्च जातियों की पूर्वाग्रह ग्रसित मानसिकता, जानकारी का अभाव तथा अनुसूचित जातियों का आर्थिक परालम्बन के साथ सरकारी तंत्र द्वारा उन्हें समुचित संरक्षण दे पाने की अक्षमता और सरकारी अधिकारियों की पक्के इरादे से इनके प्रति समर्पण की कमी कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने इन जातियों के कष्टों को और बढ़ा दिया है। किंतु मैं सरकारी तंत्र और सरकारी अधिकारियों को असफल बताकर अपनी बात समाप्त नहीं करना चाहता, मैं पूरे सामाजिक ताने बाने और समाज की मानसिकता में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने पर जोर दूंगा। सरकार का इस बारे में दृष्टिकोण ही गलत है। महज एक्ट बना देने या सरकारी तंत्र द्वारा यदा-कदा अभियान ले लेने से इस समस्या का हल निकलने वाला नहीं है।

अन्य देशों और अपने देश में भी अनेक महापुरुषों ने स्वयं को इस सामाजिक समस्या के समाधान के लिए समर्पित किया है। आजादी के पूर्व राजाराम मोहनराय, महात्मा फुले ने अपने घर के दरवाजे सामाजिक बहिष्कार की धमकी की परवाह नहीं करते हुए भी अनुसूचित जाति के लोगों के लिए खोल दिए थे। नागपुर में शाहू छत्रपति ने दिसम्बर 1920 को अपने अध्यक्षीय संबोधन में उच्च वर्गीय हिंदुओं से मार्मिक अपील करते हुए कहा था कि अनुसूचित जाति के लोगों को अपने ही हाड़-मांस और रक्त का भाग मानें। केरल के श्री नारायण गुरु के 'उरु जाति उरु मतम-उरु देवम अर्थात एक जाति, एक पंथ और एक देव (भगवान) के अभियान द्वारा इस समस्या का समाधान निकालने का अनूठा प्रयास किया । डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने बुकर टी. वार्शिगटन की भाँति अपना संपूर्ण जीवन इन जातियों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने इसके समाधान के लिए एक नई रणनीति-नई जाति, नया पंथ तथा नया देव (भगवान) यह रास्ता दिखाया। रा.स्व. संघ निर्माता डा. हेडगेवार ने इस समस्या और भेदभाव को तूल देने की बजाए समूचे हिंदू समाज के एकात्म रूप पर बल दिया। महात्मा गांधी ने इस समस्या के समाधान को अपना 'लाइफ मिशन' जीवन का लक्ष्य ही बना दिया।

मैं कहना चाहूँगा कि डेविड लिविंगस्टोन, फ्लोरेन्स नाईटिंगेल, फादर डैनियल जो भी इस सूची के शिखर पर रहे हैं अथवा मानव की संतान (Son of Man) किसी विधेयक या सरकारी प्रस्ताव पास कर दिए जाने के कारण अस्तित्व में नहीं आए थे। यह काम सामाजिक चेतना से होगा अतः मेरा सरकार से इतना ही निवेदन है कि सरकार देश में समाज में मनोवैज्ञानिक क्रांतिकारी भाव जगाने का कार्य करे जिससे कि राजा राममोहनराय, महात्मा फुले, स्वामी विवेकानन्द, श्री नारायण गुरु, डा. बाबासाहेब अम्बेडकर, डा. हेडगेवार, कर्मवीर शिन्दे तथा महात्मा गांधी की भावनाओं के पुनर्जागरण का कार्य किया जा सके।"

राज्यसभा सत्र: 61

पाकिस्तान को अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति

28 जुलाई 1967

"मैडम! जब भी विदेश मंत्रालय से जुड़ी किसी घटना पर हम चर्चा करते हैं तो दुर्भाग्यवश हमारी सूचना का आधार हमारे अपने स्रोत नहीं अपितु कोई दूसरे होते हैं। हमारे जो राजनयिक विदेशों में तैनात हैं वह आखिर करते क्या हैं। उन्हें उन घटनाओं के बारे में क्या सचेत नहीं रहना चाहिए जो भारत के हितों के विरुद्ध घटती हैं और क्‍या इन्‍हें इन घटनाओं के बारे में भारत सरकार को सूचित नहीं करना चाहिए । हर बार हमें अपने नहीं बाहर के स्रोतों से सूचना मिलती है ।

एक उदाहरण देखें कि क्‍या अमेरिका वेस्‍ट जर्मनी पर अमेरिका निर्मित हथियारों को पाकिस्‍तान की आपूर्ति करने से रोक सकता है । अमेरिका ऐसा क्‍यों करेगा क्‍योंकि अमेरिका स्‍वयं जर्मनी द्वारा अमेरिका की बकाया देनदारियों के एवज में उसे हथियार खरीदने की सलाह दे रहा है । अमेरिका का पास क्‍या कोई ऐसा अधिकार है कि वह जर्मनी को इन हथियारों को पाकिस्‍तान को देने से रोक सके । यह मैं मंत्री महोदय से जानना चाहूँगा ।

उसी प्रकार ईरान की स्थिति की स्‍पष्‍ट नहीं है । यह कहा गया है कि ईरान पा‍किस्‍तान को हथियारों की आपूर्ति तभी करेगा अगर भारत पाकिस्‍तान पर आक्रमण करेगा । अब यह बताना और तय करना कि कौन देश आक्रमणकारी है और यह बिना निश्चित किए भी ईरान पा‍किस्‍तान को हथियारों की आपूर्ति करते रह सकता है । मैं मंत्री जी से जानना चाहूँगा कि हमारे देश के पास अपार स्रोत हैं । विशाल जनशक्ति है हम क्‍यों ऐसी शक्तिशाली सेना से युक्‍त देश नहीं बन सकते । लगता है सरकार में दृढ़ संकल्‍प शक्ति का अभाव है । भारत शांति प्रिय देश है और रहेगा किंतु हमें न्‍यूक्लियर शक्ति बनने से कौन रोक रहा है । हमारा न्‍यूक्लियर शक्ति बनने का अर्थ विश्‍व शांति की गारंटी है । विश्‍व इस गारंटी से वंचित क्‍यों रहना चाहता है । दूसरे हम विश्‍व के सारे देशों को यह क्‍यों नहीं बताते कि पाकिस्‍तान को हथियारों की आपूर्ति भारत के प्रति गैर-दोस्‍ताना कार्यवाही है । इन बातों में ऐसा दिखाई देता है कि हमारा विदेश मंत्रालय अभी घुटनों के बल चल रहा है ।

आज अमेरिका ने यह भूमिका ली हुई है कि भारत और पाकिस्‍तान में अस्‍त्र शस्‍त्रों की मात्रा का क्‍या अनुपात रहे और तथाकथित दक्षिण उप महाद्वीप का मानो वह सूत्रधार बन गया है । यह सब हमारी अपनी दुर्बलता के कारण है इसलिए हम अपनी विदेश नीति का पुनर्निर्धारण करने पर विचार करें । हम स्‍वयं महाशक्ति बनें जिससे कि वाशिंगटन, मास्‍को अथवा चीन पर निर्भर रहने की हमारी कमजोरी को समाप्‍त किया जा सके ।

राज्‍यसभा सत्र : 62

वस्‍त्रोद्योग का प्रबंधन , कारखाना बंदी और पुनर्गठन बिल 1967

11 दिसंबर 1967

''अच्‍छे उद्देश्‍यों को ध्‍यान में रखते हुए खराब बिल किस प्रकार बनाया जा सकता है, उसका उदाहरण इस बिल के रूप में हमारे सामने आता है । एक तो जो समस्‍या है, उसका अच्‍छी तरह से सर्वकष विचार करते हुए यह बिल बनाना चाहिए था वह सर्वकष विचार नहीं हुआ । जैसे वैद्यक शास्‍त्र में एक सर्वकष व्‍यवस्‍था का, जो एक तरह से इंटीग्रेटेड सिस्‍टम ऑफ मेडिसिन है और बीमारी को दुरुस्‍त करने के पहले प्रिवेन्टिव मेडिसिन की तरह उपयोग होता है, वैसे ही कोई प्रिवेन्टिव मेडिसिन और भी कोई विचार किया जा सकता था, टैक्‍सटाइल जैसे उद्योग में प्रिवेन्टिव मेजर का पहले ही विचार करना चाहिए था, लेकिन वह नहीं होकर एक हैप हैजार्ड मेजर हमारे सामने लाया गया है । यहाँ बीमारी क्‍या है, इसका यदि हम विचार करें तो हमें देखना होगा कि मिलें ''लास'' में जा रही हैं, यह बात कहाँ तक सही है ? इस तथ्‍य को हम भूला नहीं सकते कि दूसरे महायुद्ध के पश्‍चात् तमाम मुनाफा कमाया गया । जिससे मुनाफे में न मजदूरों को शामिल किया गया न उपभोक्‍ताओं को और अब प्राफिट कुछ कम होने लगा है तो ''लास'' का नाम लेकर मिलें यहाँ बंद होती हैं । तो मीठा मीठा गप्प कडुवा थू वाली बात है इसलिए यदि हिसाब करना है तो 1939 से हिसाब करना चाहिए ।

दूसरी बात यह कि इस तरह से यदि बिल पेश किया गया तो मालिकों को खुली छूट मिल जाएगी , क्‍योंकि हम जानते हैं कि बम्‍बई में, दक्षिण में, इस तरह की बातें नोटिस में आई हुई है कि टेक्‍सटाइल इंडस्‍ट्रीज से मुनाफा प्राप्‍त किया जाता है, वह अपने निजी स्‍वार्थ के लिए दूसरी तरफ लगाया जाता है और इस तरह से मजदूर और उपभोक्‍ता दोनों को धोखा दिया जाता है । इस तरह के अलग-अलग उदाहरण हमारी दृष्टि में आए हैं, सरकार की नोटिस में भी आए हैं । यदि यह बिल पास होता है तो इसका मतलब यह होगा कि कोई भी मालिक फ्राड्यूलेंट अफेयर्स अपने चलाते जाएगा और जो अच्‍छा बिल है उसको खराब करते हुए, अपने मिल को सिक मिल करते हुए फिर सरकार की गोद में रख देगा और इस तरह से फ्राड्यूलेंट अफेयर्स को ठीक ढंग से चलाने का एक जरिया य‍ह बिल जाएगा, इसमें मुझे संदेह नहीं ।

इस दृष्टि से मैं सरकार के सामने एक सुझाव देना चाहता हूँ कि पिछले महायुद्ध के पश्‍चात् ग्रेट ब्रिटेन में जब यह एक समस्‍या खड़ी हुई कि विभिन्‍न उद्योगों की कमाडिटीज की कीमतें नहीं बढ़नी चाहिए तो उन्‍होंने एक बहुत ही अच्‍छा तरीका अपनाया जो टैक्‍सटाइल उद्योग के बारे में था, वह बाकी उद्योगों के बारे में भी अपनाना शुरू किया; में समझाता हूँ उन्‍होंने यह तरीका अपनाया जिसको कहा जाता है ''कांटीन्‍यूअस एफिशियेंसी आडिट'' इसका मतलब यह है कि टैक्‍सटाइल इंडस्ट्री में केवल जो लासेज में चल रही हैं वह मिलें नहीं, अच्‍छी मिलें, लासेज में चलने वाली अच्‍छी ''मिलें'' हर एक मिल का एफीशियेंसी आडिट के कां‍टीन्यूअसली चाहिए । ग्रेट ब्रिटेन में इसलिए कांटीन्‍यूअस एफिशियेंसी आडिट के कारण जहाँ-जहाँ उनकी फैक्‍ट्रीज गलत ढंग से चल रही हैं और उसके कारण कीमतें बढ़ने की बात आई हो तो ऐसे मामले में वहां सरकार की ओर से ''अर्ली वार्निग सिस्‍टम'' लागू था, अर्थात सरकार की ओर से पहले ही वार्निग दी जाती थी कि गलत ढंग से काम चल रहा है, तुम्‍हारी कीमतें बढ़ने वाली हैं, इसको दुरुस्‍त करना चाहिए इस दृष्टि से खराब मिलों के लिए ही नहीं अपितु जो प्राफिट में चलती हैं, हर एक यूनिट के बारे में इफिशियेंसी आडिट होना चाहिए, कांटीन्‍यूअस आडिट होना चाहिए और उस तरह का अर्ली वार्निग सिस्‍टम हमारे यहाँ इन्‍ट्रोडयूस करना चाहिए तब तो सारे लोग ठीक रास्ते पर चल सकते हैं । इस बिल के माध्‍यम से हम मालिकों को करप्‍सन के लिए छूट देंगे ऐसा हम स्‍पष्‍ट रूप से सोचते हैं क्‍योंकि मालिकों की जो लाएबिलिटी है यह अनलिमिटेड है और अनलि‍मिटेड लाएबिलिटी होने के कारण इस तरह की गड़बड़ करने के लिए उनको काफी गुंजायश होती है । यह एक बात, एक सर्वकष विचार हम स्‍पष्‍ट रूप से सरकार के सामने रखना चाहते हैं ।

दूसरा इसमें ''टेकओवर'' या ''लिक्विडेशन'' का विचार है । लिक्विडेशन के बारे में सब लोग जानते हैं कि लिक्विडेशन प्रोसीडिंग शुरू होने के बाद कब शुरू होगा इसका भरोसा नहीं रहता, टेकओवर का भी झंझट है, उसमें काफी समय लगता है हालाँकि लिक्विडेशन में ज्‍यादा समय लगता है और तब तक मिलं बंद हो जाती हैं । जैसा कि बिल के उद्देश्‍य में कहा गया है कि प्रोडक्‍शन एन्‍ड इम्‍प्लायमेंट दोनों की आवश्‍यकता के लिए यह बिल है, मिलें यदि बंद हो जाती हैं तो लिक्विडेशन प्रोसेसिंग लंबा हो जाता है, टेकओवर में देर होती है और प्रोडक्‍शन रुकने के नाते बेरोजागारी भी बढ़ जाती है । इससे स्‍पष्‍ट है कि इससे बेरोजगारी बढ़ने वाली है, पैदावार को हानि होगी क्‍योंकि काफी लंबा प्रोसेस है, बीच में कोई कोर्ट भी लाया गया है । तो हर चीज में देर करने वाला मामला इस बिल में दिखायी देता है । इससे देर बहुत होने वाली है ।

इसके बाद यहाँ जो इस बिल में कान्‍टेम्‍प्‍लेट किया गया है जैसा हमारे सम्‍माननीय मित्र ने कहा, किसी को किसके बारे में नियुक्‍त किया जाए इसकी कोई सूचना या संकेत इसमें नहीं है । बोर्ड ऑफ डायरेक्‍टर्स सरकार बनाएगी लेकिन बोर्ड ऑफ डायरेक्‍टर्स में बैक डोर से वही लोग क्‍या नहीं लाए जाएंगे जो कि बदनाम हो चुके हैं, जिन्‍होंने इंडस्ट्रीज को बर्बाद किया है । इसकी कोई गारंटी इसमें नहीं दी गयी है । इसके अलावा जिस इंडस्ट्री के लिए, जिस मिल के लिए यह बोर्ड ऑफ डाइरेक्‍टर होगा, उस मिल के मजदूरों को बोर्ड ऑफ डायरेक्‍टर्स में बढ़ावा दिया जाएगा, किसी भी प्रक्रिया से क्‍यों न हो । कितना बोर्ड ऑफ डायरेक्‍टर्स में मजदूरों को बढ़ावा दिया जाएगा, इस तरह की भी कोई गारंटी इसमें शामिल नहीं । साथ ही साथ जहाँ मजदूरों का सवाल है, यह कहना बिल्‍कुल गलत है कि मजदूरों का डियरनेस अलाउंस समय-समय पर बढ़ाने के कारण ही और मिलें घाटे में चल रही हैं । मिलों के घाटे पर चलने के 100 कारण हो सकते हैं, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि जो टोटल कास्‍ट ऑफ प्रोडक्‍शन 10 साल पहले थी, पाँच साल पहले भी, उसके साथ ही टोटल वेज बिल टैक्‍सटाइल इंडस्ट्री में जो है, वह उस टोटल ऑफ कास्‍ट प्रोडक्‍शन के अनुपात में नहीं है । यह कहना कि वेजेज के कारण मिलें घाटे में जाती है, यह कहना बिल्‍कुल गलत होगा ।

मजदूरों की सुरक्षा के बारे में जो व्‍यवस्‍था इस बिल में की गई है उसके संबंध में, मैं यह कहना चाहूँगा कि इसमें तीन तरह के मजदूरों का वर्गीकरण किया गया है । एक तो वे मजदूर हैं जिनके ऊपर सरकार या मैनेजमेंट बाडी अपने सर्विस कंडीशन लगाने वाली है । दूसरे वे हैं जिनको वे निकालने वाली हैं और तीसरे वे हैं जो चाहे निकल सकते हैं । जहाँ तक तीसरे का संबंध है, उनके संबंध में मैं यह कहना चाहता हूँ कि उनके लिए तो स्‍पष्‍ट है कि उनके ऊपर तरह तरह के दबाव डाले जाएंगे और उन्‍हें सर्विस से हटाने के लिए बाध्‍य किया जाएगा और उन्‍हें हर तरह से हैरान किया जाएगा । यह तो एक युनिवर्सल प्रैक्टिस है और सरकार इस हालत को अच्‍छी तरह से जानती है । किंतु इसके अलावा भी जब सरकार किसी इंडस्ट्री को टेकओवर करती है तो जो पुराने सर्विस कंडीशन्स होते हैं, जो पुराने पे स्‍केल्‍स होते हैं, पुराने प्राविडेंट फंड, एंप्लायर्स एश्‍योरेंस होता है तथा इस तरह के जो भी बेनिफिट्स होते हैं, उन्‍हें सरकार को पूरी तरह से सुरक्षित रखना चाहिए और उसमें किसी भी तरह की कटौती नहीं की जानी चाहिए । अगर इस चीज में सरकार की ओर से कटौती की जाएगी तो मजदूरों की ओर से डटकर विरोध किया जाएगा, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है । जहाँ तक पे स्‍केल्‍स, बेनिफिट्स प्रोविडेंट फंड और इंश्‍योरेंस का सवाल है, जब सरकार टेकओवर करती है तो उसके साथ ही उसको इस बात का कैटिगरिकल एश्‍योरेंस भी देना चाहिए कि ये सब चीजें सुरक्षित रहेंगी । इस तरह का ऐलान सरकार की ओर से आने की आवश्‍यकता है, ऐसा मैं समझता हूँ ।

और एक बात है । निजी क्षेत्र में, प्राइवेट उद्योगपतियों के हाथ में मजदूरों और उपभोक्‍ताओं दोनों की पिटाई होती है, यह बात स्‍पष्‍ट है । किंतु साथ ही साथ केवल उसको नेशनलाइज करने से सभी बाते ठीक हो जाएंगी, इस विचार से मैं सहमत नहीं हूँ । मैं नेशनलाइजेशन को सभी बीमारियों का एक रामबाण इलाज नहीं मानता बल्कि हमारा यह अनुभव है कि जिन-जिन उद्योगों को सरकार अपने हाथों में ले लेती है, वहाँ वहाँ मजदूरों की इस तरह से पिटाई होती है, जैसे कि निजी क्षेत्र में होता है । ग्रेट ब्रिटेन में भी इसी तरह का हुआ था । 1953 में ब्रिटिश ट्रेड यूनियन की एक कमेटी नियुक्‍त की गई थी जो इस बात का पता लगाए कि पब्लिक और प्राइवेट सेक्‍टर में मालिक मजदूरों के संबंध किस तरह के हैं । उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह स्‍पष्‍ट कहा है :- "The nature of employer-employee relationship in the public sector is as good, bad or indifferent ad that in the private sector".

यहाँ भी वहाँ का अनुभव आ रहा है । जो नौकरशाही लोग इन बिजनेसों में काम करते हैं, वे इस बिजनेस को नहीं जानते हैं, न इंडस्ट्री को जानते हैं और न ही इंडस्ट्रियल साइकोलोजी को जानते हैं । उनके हाथ में कारोबार देने से पब्लिक सेक्‍टर में जगह हड़ताल देखने को मिल रही है इसलिए इस दृष्टि से हम इस क्षेत्र में नौकरशाही का स्‍वागत नहीं कर सकते हैं । यदि सरकार को सिक मिलों को अपने हाथ में लेना है तो पहली बात जो मैंने कही, वह सरकार को करनी चाहिए । कान्‍टीन्यूअस एफिशियेंसी, आडिट सिस्‍टम, अर्ली वार्निग सिस्‍टम पहले आना चाहिए जिससे हम फाइनेंशियल डिसिप्लिन को अच्‍छी तरह से कायम कर सकें । हमें यह बात सबसे पहले करने की आवश्‍यकता है और उसके बाद इस तरह की मिलों को अपने हाथ में लेने का सवाल आता है परंतु मैं फिर कहना चाहूँगा कि नौकरशाही के हाथ में इस तरह की मिलों को नहीं दिया जाना चाहिए और जो उसमें काम करने वाले मजदूर और मैनेजमेंट करने वाले हैं, उनके हाथ में इस तरह की मिलों को नहीं दिया जाना चाहिए और जो उसमें काम करने वाले मजदूर और मैनेजमेंट करने वाले हैं, उनके हाथ में उसका कारोबार दिया जाना चाहिए । जब सरकार इस तरह की बात सोचे तभी उसे बीमार मिलों को अपने हाथ में लेना चाहिए ।

अब सरकार पब्लिक सेक्टर को टेक्‍नोलाजी और आर्थिक सहायता देती है और अगर यही चीज मजदूरों को दी जाए तो वे उस मिल का कारोबार ठीक ढंग से चलाएंगे, ऐसा हमारा भरोसा है । इसलिए जहाँ तक कि मैं इस उद्देश्‍य से सहमत हूँ कि हमारे प्रोडक्‍शन में किसी तरह की कमी नहीं होनी चाहिए वहाँ मैं स्‍पष्‍ट रूप से कहना चाहता हूँ यह एक सेल्‍फ डिफीटिंग बिल है, इस दृष्टि से मैं इस बिल का स्‍वागत नहीं कर सकता हूँ ।

राज्‍यसभा सत्र: 63

रेलवे बजट 1968-69

7 मार्च 1968

मैडम जब मैं रेलवे का कारोबार देखता हूँ तो मुझे एक किताब की याद आती है जिसका नाम 'मैनेजेरियल स्‍टेट' है, जो बर्नहम की लिखी हुई है । उस किताब में उन्‍होंने यह कहा है कि हम ऐसी अर्थ नीति की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें उद्योग के ऊपर वास्‍तव में प्रभुत्‍व रहेगा न इंप्लायर्स का न इंप्लाइज का, न कंज्यूमर्स का और न टेक्निशियंस का बल्कि मैनेजर्स का जो क्‍लास है वही वर्चुअली अपना प्रभुत्‍व उद्योगों पर चलाएगा । इसकी ज्‍वलंत मिसाल हमारी रेलवे है ऐसा मैं समझता हूँ ।

रेलवे बोर्ड के कारोबार के बारे में अधिक न कहते हुए मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि एक तरह की उद्दंडता जो नौकरशाही में आ जाती है वह हम रेलवे बोर्ड में देखते हैं यानी यहाँ के मंत्री जाएँगे लेकिन हम तो पर्मानेंट हैं इस तरह की एक भावना हम देखते हैं । इस दृष्टि से मेरा पहला तो सुझाव यह है कि रेलवे बोर्ड को खत्‍म करना चाहिए और उसके स्‍थान पर एक स्‍वायत्त निगम (Autonomous Corporation) रेलवे के कारोबार को देखने के लिए मुकर्रर करना चाहिए । इस Autonomous Corporation के बोर्ड आफ मैनेजमेंट में मेरा यह सुझाव है कि पैसेंजर्स, कामर्शियल इंटरेस्‍ट्स और पार्लियामेंट और इंप्लाइज के प्रतिनिधि हों और फिर उनको टेक्निकल एड जो भी लेनी हो वह सारी उनको उपलब्‍ध कराई जा सकती है । तो इस तरह से रेलवे का आटोनोमस कारपोरेशन बनना चाहिए क्‍योंकि यह रेलवे बोर्ड जब तक है तब तक न पैसेंजर्स, न कर्मशियल इंटररेस्‍ट्स और न इंप्लाइज को कोई न्‍याय मिल सकता है । ऐसी हमारी धारणा है । जब तक ये आटोनोमस कारपोरेशन का सुझाव कार्यान्वित नहीं होता तब तक आज की ही अव्‍यवस्‍था विद्यमान रहेगी ।

उधर रेलवे में जहाँ तक कर्मचारियों का संबंध है मैं समझता हूँ कि प्रारंभ से जितनी गलतियाँ चलती आई हैं उनको वैसे ही आगे चलाने का निश्‍चय रेलवे बोर्ड ने किया हुआ है । सर्वसाधारण बात है कि कांट्रेक्‍ट लेबर सिस्‍टम समाप्‍त (Abolish) करना चाहिए यह सरकार की नीति बताई जाती है। रेलवे एक सरकारी महकमा होते हुए भी उसमें कांट्रेक्‍ट सिस्‍टम है और वहाँ अभी तक कांट्रेक्‍ट लेबर के वेतनों के लिए इमाल्‍यूमेन्‍टस के लिए सर्विस कंडीशंस के लिए प्रिंसिपल इंप्लायर, यानी रेलवे जिम्‍मेदार रहेगी । लेकिन इसके लिए कानून अभी तक नहीं बनाया गया है । कैजुअल लेबर कम से कम तीन लाख की संख्‍या में हमारे देश में हैं । महोदया, आपको आश्‍चर्य होगा कि रेलवे में हजारों कर्मचारी कैजुअल लेबर के नाते हैं, हजारों कर्मचारी टेम्‍पोरेरी के नाते है और कई साल हो गए हैं फिर भी उनको वैसे ही चलाया जा रहा है । डिकैजुलाइजेशन प्रक्रिया प्रोसेस वैसे प्रेस्‍क्राइब्‍ड है, कैसे होना चाहिए, यह सब लिखा हुआ है, किंतु लोगों का कैजुअल के नाते चलाया जाता है । जिस काम पर लगाया जाता है जो कंस्‍ट्रक्‍शन का काम है । मैं यह नहीं समझ पाता कि एक विशेष स्‍थान पर जो कंस्‍ट्रक्‍शन करना है वह एक टेम्‍पोरेरी काम हो सकता है लेकिन रेलवे एक आल इंडिया महकमा है, आज यहाँ कंस्‍ट्रक्‍शन खत्‍म हुआ ता कल कोई दूसरा कंस्‍ट्रक्‍शन रेलवे को करना पड़ता है ।

Construction sa such is a permanent work, though construction at a particular place may be. temporary.

तो इस दृष्टि से कैजुअल को परमानेंट और टैंपोरेरी इस प्रक्रिया में डालने में कौन सी आपत्ति है । डिकैजुअलाइजेशन के बारे में मैं आग्रह करना चाहूँगा । वही बात टेम्पोरेरी के लिए है । सालों साल लोगों को कंफर्म नहीं किया जाता । आपको आश्‍चर्य होगा कि जहाँ क्‍लास फोर कर्मचारियों का संबंध है । ऐसे उदाहरण दे सकता हूँ कि 18-20 साल तक वे काम करते हैं टेम्‍पोरेरी के नाते और 80 रुपये तक उनकी तनख्‍वाह है । ऐसे उदाहरण हमें वहाँ प्राप्‍त होते हैं ।

आज रेलवे के कर्मचारियों के सामने एक बड़ी भारी कठिन समस्‍या उनके वेतन और एलाउंसेस की है । आश्‍चर्य की बात है कि एमेलगेमेशन के बाद इतने साल हो गए सर्विस कंडीशंस में जिस प्रकार की एकरूपता आनी चाहिए वह अभी तक नहीं आ पाई । मुझे स्‍मरण है कि मैं एक जोन से पास कर रहा था कि मुझे एक अच्‍छे पढ़े लिखे एंप्लाई ने यह बताया कि एक डिवीजन में यूनिफार्म दिया जाता है दूसरे डिवीजन में बिल्‍कुल नहीं दिया जाता है और उसने अंग्रेजी में बताया-There is no uniformity in the Railways even about uniforms.

तो सर्विस कंडीशंस में एकरूपता नहीं है । बड़े आश्‍चर्य की बात है । दूसरी बात ज‍बकि सबका एकत्रिकरण हो चुका है और उनकी वेतन श्रेणियों के बारे में कोई अच्‍छी व्‍यवस्‍था आज भी नहीं हुई, किसको कितनी तनख्‍वाह इसका आधार क्‍या, आरबीट्रेरी आधार पर सब तनख्‍वाहें रखी जाएँ तो उसको न्‍याय नहीं कहा जा सकता । वैसे भी रेलवे में इतनी ज्‍यादा केटेगरीज हैं कि सभी केंद्रीय कर्मचारियों के [1] लिए एक ही पे-कमीशन नियुक्‍त किया जाए और उसके अधीन रेलवे कर्मचारियों का सवाल रखा जाए तो मैं समझता हूँ की संपूर्ण सदिच्‍छाओं के बावजूद वह पे-कमीशन रेलवे कर्मचारियों से न्‍याय नही कर स‍कता । फिर सेकेन्‍ड पे-कमीशन के सामने विभिन्‍न केटेगरीज की ओर से जिस तरह का रिप्रेजेंटेशन होना चाहिए था वह नहीं हुआ । इसके कारण एक असंतोष फैल गया । फिर सेकेन्‍ड पे-कमीशन की मियाद खत्‍म हो गई और बीच में जो वे महँगाई भत्ते के बारे में थे और आज जो उनकी तनख्‍वाह है उसके लिए कोई भी शास्‍त्रीय आधार नहीं । शास्‍त्रीय आधार से मेरा यह मतलब है कि रेलवे में जितनी केटेगरीज हैं सब केटेगरीज का जॉब इवेल्‍यूएशन होना चाहिए और इसके आधार पर उनके वेज-डिफरेन्शियल्‍स तय होने चाहिए और इस तरह से हम सारे ग्रेड्स तय करें, तभी शास्‍त्रीय आधार पर वेजेज तय होंगी । यह कने के लिए वेज बोर्ड की आवश्‍यकता है । आज जो वेतन श्रेणियाँ हैं उनमें इतनी एनोमेलीज हैं कि एक ही टेबल या एक ही कारखाने में काम करने वाले एक सीनियर और एक जूनियर..।

Shri D. Thengadi: It will not, we will see to it.

Shri L.N. Mishra: There is that obligation also.

Shri D. Thengadi: It has various aspects.

Shri L.N. Mishra: All right go ahead.

तो वेतन श्रेणियों में इतनी एनोमेलीज के रहते हुए वेज बोर्ड की नियुक्ति करने में क्‍यों देर की जाती है, यह आश्‍चर्य की बात है । अभी- अभी इन एनोमेलीज के बारे में दो हाई कोर्टों ने अपना अभिप्राय प्रगट किया है । मद्रास हाई कोर्ट ने Assistant Surgeons in the Railway Medical Services with L.M.P. Qualification के बारे में जो रेलवे बोर्ड का आर्डर था उसको क्‍वेश कर दिया । जस्टिस वेंकटचारी ने कहा है-''lt was discriminatory and violative of Article 14 and 16 (1) of the Constitution.''

6 फरवरी को आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने रेलवे एडमिनिस्‍ट्रेशन जिसको न्‍यू डील कहता है यानी 1956 से जो पे-स्‍ट्रक्‍चर आया है उसके बारे में कहा है कि वह डिसक्रिमिनेटरी है-

Andhra High Court.

''Discrininatory and violative of Articles 14 and 16 of the Constituion.

इस तरह से दोनों जजों के जजमेंट से यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि इतनी एनोमेलीज रेलवे में हैं कि The Ministry of Railways can be described as the Ministry of anomalies. इस दृष्टि से मैं यह समझता हूँ कि नए वेज बोर्ड की नियुक्ति आवश्‍यक हो जाती है ।

यहाँ वजेज के बारे में हमारा यह सवाल है, वहाँ दूसरी बात हम यह नहीं समझ पाए कि दो-ढाई साल पहले उस समय के मंत्री महोदय ने जब बोनस का बिल यहाँ पेश किया था तब बड़े अभिमान से यह कहा था कि 45 लाख ज्‍यादा लोगों को हम यह बेनिफिट एक्‍सटेंड कर रहे हैं, फिर हमारे रेलवे कर्मचारियों को बोनस के अधिकार से क्‍यों वंचित किया जाए । बोनस प्रोफिट शेयरिंग नहीं कहा जा सकता देर से दिया हुआ वेतन डिफर्ड वेज यह उसका स्‍वरूप है। आज जो हमारा प्रत्‍यक्ष वेतन है लिविंग वेज से बहुत नीचा है। जब तक जीवन और प्रत्‍यक्ष वेतन में खाई है तब तक डिफर्ड वेज विलंबित वेतन के नाते बोनस का अधिकार मिलना ही चाहिए ।

अभी हमारे मंत्री महोदय ने कहा था कि बड़ी तेजी से आगे कर्मचारियों की छँटनी हो रही है । डिकेजुलाइजेशन के फलस्‍वरूप ड्राइवर्स, कन्‍डक्‍टर्स का प्रमोशन रुक गया है । फोरमैन, फिटर्स और यार्ड खलासीज को बड़ी संख्‍या में सरप्‍लस घोषित किया गया है और उनका रिवर्शन भी किया गया है । 5 साल की ऊपर की श्रेणी में काम करने वाले लोग भी इसमें रिवर्ट किए गए हैं । आटोमेटिक सिग्नलिंग का ठीक यही परिणाम पाइन्‍ट्समैन के ऊपर हुआ है फ मित्‍शा मशीन जो आप ला रहे हैं उसके कारण क्‍लास फोर के गैंगमैंनों की बहुत बड़ी संख्‍या में छटनी हो रही है। यह जो वन इंजन ओनली सिस्‍टम जो छोटे सेक्‍शनों पर चल रहा है उसके कारण ए.एस.एम. कामर्शियल क्‍लर्क्‍स वगैरह सरप्‍लस हो रहे हैं और होंगे। फिर जो नया पेमेंट का प्रोसीजर है उसके कारण पे-क्‍लर्क्‍स की संख्‍या भी आप घटा रहे हैं ।

इंटेंसिव स्‍कीम लाने के कारण वर्कशाप में हजारों पोस्‍ट पहले ही सरप्‍लस घोषित हो चुकी हैं और यह जो सरप्‍लस स्‍टाफ है इसको दूसरी तरफ एबजार्ब भी किया जाता है तो उनकी जो सीनियरिटी है, ग्रेड है, उसका प्रोटेक्‍शन आफ पे है, यह सारा देखा नहीं जाता है। घोर असंतोष फैल रहा है और इसी के कारण कई आर्टिजन ओर सुपरवाइजर्स की तरक्‍की रुक गई है। एकाउंटस डिपार्टमेंट में जो आप सिम्‍पलीफिकेशन और मैकालाइजेशन लाए हैं इसके कारण भी सरप्‍लस स्‍टाफ की संख्‍या बढ़ रही है। फिर आटोमेशन है, मैं समझता हूँ कि उसके विरोध में बहुत विस्‍तृत वर्णन करना चाहिए किंतु संक्षेप में कहना होगा तो कहूँगा कि आटोमेशन के कारण एक तरफ तो बहुत बड़ी संख्‍या में छटनी होगी और दूसरी ओर हमारे औद्योगिक प्रगति की आज की जो अवस्‍था है उस अवस्‍था में हम आटोमेशन के फलस्‍वरूप आने वाले कंप्यूटर्स का पूरा उपयोग भी नहीं कर सकते और इसके कारण दूसरे देश के आर्थिक साम्राज्‍य के चंगुल में भी फँस जाएंगे। खैर यह तीसरा कंसीडरेशन अलग है लेकिन यह निश्चित है कि इसके कारण बहुत बड़ी संख्‍या में छटनी और होने वाली है । जो अच्‍छे एडवांस्ड कंट्रीज हैं उन्‍हें भी आटोमेशन का डोज बरदाश्‍त नहीं हो रहा है। तो हमें कहाँ तक इसको स्‍वीकार करना चाहिए । इस पर पुनर्विचार करने की गंभीरता से आवश्‍यकता है।

अब इकानॉमी के नाम पर ये सारी बातें की जाती हैं । क्‍लास थ्री और क्‍लास फोर के कर्मचारियों की छटनी इकानॉमी के लिए होती है लेकिन इधर क्‍लास वन के आफिसर्स की संख्‍या बढ़ाई जाती है और इस दृष्टि से जहाँ जहाँ इकोनोमी के लिए गुंजाइश है वहाँ एकानामी नहीं की जाती, जैसे कि कंट्राक्‍शन के बारे में है, इंजिन एंड वैगन यूजेज के बारे में, लाईन कैपेसिटी के बारे में, स्‍टोर्स के यूटिलाइजेशन के बारे में है कि वहाँ काफी वेस्‍टेज होता है और उधर ध्‍यान नहीं दिया जाता । तो मैं तो यही कहूँगा कि जहाँ क्‍लास वन और क्‍लास टू आफिसर्स की संख्‍या बढ़ाने की आवश्‍यकता है ? यदि वास्‍तव में रैशनलाइजेशन करना है तो हम सुझाव दे सकते है कि बड़ी तनख्‍वाह पाने वाले अफसरों की भी बराबर छटनी होनी चाहिए और उनको भी कहीं दूसरी जगह एबजार्ब करना चाहिए । वैसे हम बहुत से उदाहरण दे सकते हैं लेकिन एक उदाहरण देता हूँ कि जैसे ए. डी. जी. एम. की पोस्‍ट है, उसका काम एकोमोडेशन का है वह जेनरल मैनेजर के असिस्‍टेंट सेक्रेटरी के जिम्‍में दें तो वह बराबर कर सकते हैं। इसी तरह से हेडक्‍वाटर्स में आफिस सुपरिटेंडेंट और असिसटेंट सेक्रेटरी का काम इकठ्ठा किया जा सकता है। किसी तरह विजिलेंस में कई उच्‍च अधिकारियों को कम करने से एफिशिएंसी कम नहीं होगी । तो इस तरह से जहाँ क्‍लास थ्री और क्‍लास फोर की छटनी का विचार कर रहे हैं । वहाँ क्‍लास वन के आफिसर्स के लिए भी विचार करें जो वेस्‍टेज हो रहा है उसको रोकें और यह भी सोच लें कि किसी भी देश की अर्थनीति में जहाँ हम कैपिटल फारमेशन की बात करते हैं वहाँ कैपिटल की परिभाषा में न केवल मनी एंड मैटेरियल, मशीन एंड मैटैरियल ही नहीं, मनी है बल्कि जो हमारी मैन-पावर है वह भी कैपिटल है उसकी फुलेस्‍ट यूटीलि‍टी होनी चाहिए । यह विचार करें तो हम लोगों को कुछ अलग नीति अपनानी पड़ेगी, यह स्‍पष्‍ट है ।

फिर यह निवदेन है कि जिनको आप सरप्‍लस घोषित करते हैं । उनको दूसरी जगह एबजार्ब तो करते हैं । दूसरी ओर उनको ले जाते हैं लेकिन होता यह है कि एक तो उनको रिबर्ट किया जाता है और उनका प्रोमोशन ब्‍लाक्‍ड हो जाता है और दूसरे उन्‍हें ऐसे काम पर भी लगाया जाता है जहाँ उनका जो पुराना कौशल, स्किल थी उसका उपयोग नहीं हो पाता और नए काम के लिए जो आवश्‍यकता स्किल है उसके लिए उसको ट्रेनिंग नहीं दी जाती तो इस तरह से उसकी पिटाई होती है । इस बात को भी ख्‍याल में रखने की आवश्‍यकता है ।

फिर हम यह बताएंगे कि जहाँ एक ओर एकानामी के नाम पर छटनी हो रही है, वहाँ आश्‍चर्य की बात है कि दूसरी ओर लोगों का काम का बोझ भी बढ़ रहा है । 1951 ई. के फेडरल फाइनेंशल इंटेगरेशन के पश्‍चात् आज तक रूट किलोमी‍ट्रेज, नंबर आफ गुड्स एंड पैसेंजर्स, ट्रैफिक एंड रोलिंग स्‍टाक इन सब में कई गुणा वृद्धि हुई है । किंतु उस मात्रा में कर्मचारियों की वृद्धि नहीं हुई है । अत: सब कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ गया है । जो ड्यूटी रोस्‍टर है उनमें हावर्स आफ इम्‍प्‍लायमेंट रोस्‍टर के अनुसार कुछ नहीं चलता है ओर विभिन्‍न आपरेशंस के लिए जो टाइम शिड्यूल निश्चित किया गया है, वह भी बहुत पुराना है, 30 साल का पुराना है । और अब 20 गुणा ज्‍यादा ट्राफिक बढ़ गया है । उसके कारण अगर पुराने ट्राफिक शिड्यूल के मुताबिक बराबर काम हो तो 24 घंटे में रेल का काम नहीं चल पाए । अगर वर्क टू रूल प्रोग्राम आ जाए तो किसी भी केटेगरी में काम नहीं हो पाए और रेलवे को बहुत अधिक धक्‍का पहुँचे । वास्‍तव में आनंद होता है कि कर्मचारी बेचारे ऐसा नहीं करते, यू एकार्डिग टू रूल्‍स वह करे तो 'This should be a matter of satisfaction but they are working.'' तो ये जो टाईम शिड्यूल रूल्‍स हैं ये बड़े डिफेक्टिव हैं । तो इस दृष्टि से भी इन सब बातों को देखते हुए और बढ़ते हुए ट्रैफिक को ख्‍याल में रखते हुए इसमें कुछ परिवर्तन करने की आवश्‍यकता है, खासकर यह देखने की आवश्‍यकता है कि काम का बोझ ज्‍यादा न पड़े । रेलवे को' नुकसान आर्थिक दृष्टि से भी होता है ।

The Deputy Chairman: You have taken twenty minutes.

D. Thengadi: Three four minutes more.

Shri A. D. Mani: He is making very good points.

रेलवे को भी नुकसान होता है जैसे कि मैं कहूँगा कि क्‍लेम्‍स के बारे में है । पहली बात तो मैं यह स्‍पष्‍ट करना चाहता हूँ कि गुड्स ट्रैफिक के बारे में रेलवे और रोड के कंपटिशन को यह समझकर विचार किया जाता है कि वह ठीक नहीं है, तो वह हमारे लिए घातक होगा । रेल, रोड और इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट इन तीनों का कोआर्डिनेशन किस तरह से हो सकता है इसकी कुछ प्रक्रिया होनी चाहिए क्‍योंकि जब तक यह कंपटीशन है तब तक और अच्‍छा है । मैं यह सोचता हूँ कि हमारे सम्‍मानित मंत्री महोदय ने कहा कि रोड से बहुत ट्रैफिक इधर डाइवर्ट किया है, बड़े आनंद की बात है, लेकिन यह इससे भी इफेक्टिव हो सकता है कि हम दूसरी तरफ भी ध्‍यान दें । जैसे हम देखें कि क्‍लेम्‍स आफिस में जो आज नहीं के बराबर होता है, जो यहाँ विलंब होता है उसी वजह से भी रेलवे को रोड की ओर बहुत अधिक ट्रैफिक हो जाता है । ऐसे कई आफिसेज हैं, कंपनसेशन क्‍लेम्‍स आफिसेज हैं जहाँ के सुपरिटेंडेंटस ने चीफ कमर्शियल सुपरिटेंडेंटस से कई बार माँग की है कि यहाँ नई पोस्‍टों की भर्ती होनी चाहिए । उदाहरण के लिए मैं यहाँ कि एक बात कहूँगा कि कश्‍मीरी गेट कंपनसेशन क्‍लेम्‍स आफिस में 72 पोस्‍ट्स सैंक्‍शन हो गई, इनको कई साल हो गए अभी तक इनकी भर्ती नहीं हुई, इसके कारण यहाँ इनएफिशिएंसी आ जाती है और डीलें हो जाती हैं । फिर जो एक नई पद्धति जो इंट्रोड्यूस की है, आफ्टर सेल्‍स सर्विस टु सेलेक्‍ट कस्‍टमर्स । इसके अंतर्गत यह कहा गया है कि जो पार्टीज मार्केटिंग और सेल्‍स आर्गेनाइजेशन जो आपका है इसके द्वारा मिनिमम गुड्स ट्रैफिक की गारंटी देगी उनके क्‍लेम्‍स तुरंत सेटिल किए जाएंगे । अब अवश्‍य ही इसमें रेलवे का ज्‍यादा खर्चा आएगा लेकिन अगर इतना ही किया जाए कि जो पोस्‍टें खाली हैं तो उनको भरा जाए तो कम खर्चा आएगा और इससे ज्‍यादा लोगों को काम मिलेगा और साथ ही साथ आपका काम भी अविलंब हो जाएगा । तो इस तरह से जो काम का बोझ पड़ता है उसके बारे में कोई रेशनल एटीट्यूड लेने की नेशनल व्‍यू लेने की आवश्‍यकता है और यह भी देखना है कि रेलवे को नुकसान भी न हो । तो यह हम चाहते हैं ।

अब सबसे इंपोर्टेंट प्राब्‍लम जो है यह क्‍वाटर्स का है । हम जानते हैं कि एक तो क्‍वाटर्स की रिपेयरिंग क्‍लास थ्री और फोर स्‍टाफ की होती नहीं और दूसरी ओर क्‍लास वन के रिपेयर पर काफी खर्च किया जाता है । खैर, हम यहाँ उसकी शिकायत नहीं करेंगे लेकिन क्‍वार्टर्स के बारे में कोई एक ठीक व्‍यवस्‍था होनी चाहिए । हम चाहेंगे कि जिस तरह से सी.पी.डब्‍ल्‍यू.डी. में (That is Central Estate Office) यह पद्धति है कि डेट आफ एप्‍वाइंटमेंट से ही कर्मचारियों का क्‍लेम क्‍वार्टर के लिए रजिस्‍टर होता है लेकिन रेलवे में डेट आफ दी एपलिकेशन से क्‍लेम रजिस्‍टर होता है । इस कारण से जिसका ट्रांसफर हो जाता है उन्‍हें काफी नुकसान होता है तो ऐसे ट्रांसफर होने वाले कर्मचारियों को डेट ऑफ एप्‍वाइंटमेंट से रजिस्‍ट्री क्‍वाटर्स के लिए होनी चाहिए और सभी केंद्रीय कर्मचारियों के लिए यह बात होनी चाहिए, यह सिर्फ रेलवे की ही बात नहीं है । क्‍वाटर्स की दृष्टि से सबका एक ही कामन पूल हो सके, एक ही कामन एजेंसी हो सके और एक ही कामन प्रोसीजर रह सके तो मैं समझ सकता हूँ कि उसके कारण सब के साथ एक न्‍याय मिल सकता है ।

मैं एक छोटी सी बात बताकर समाप्‍त कर दूंगा । मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि दक्षिण रेलवे के नाम से जो एक नए जोन का निर्माण हुआ है उसकी कई प्राब्‍लम्‍स हैं ओर उसकी ओर विशेष रूप से ध्‍यान देना होगा । इसमें आप्‍टोज का झमेला खड़ा हुआ है उसको मंत्री महोदय अच्‍छी तरह से जानते है, जोनल और डिवीजन आफिस में स्‍थान की कमी है । पोस्टिंग एंड प्रोमोशन के बारे में इररेगुलैरिटीज की शिकायतें हैं । रेलवे बोर्ड का जो पत्रक है न. 621 डी एस डी ए डेटेड 6-12-1966, उसको मैं यहाँ पढ़ना नहीं चाहता हूँ कि वहाँ उसको इंप्लीमेंट नहीं किया गया है जो मैं यह आपको जानकारी कराना चाहता हूँ । फिर वहाँ क्‍वार्टर्स के सब जगह निर्माण होने की आवश्‍यकता है । फिर एम.एस. रेलवे की सेवा की शर्त के बारे में, जिन कर्मचारियों को लिया था उनके प्रोमोशंस के बारे में और रिवाइज्‍ड पे स्‍केल्‍स वगैरह के बारे में कठिनाई है, तो इन सब पर ध्‍यान देने की आवश्‍यकता है ।

अब आम हड़ताल के फलस्‍वरूप डिसमिस होने वाले कर्मचारियों को दूसरी जगह काम पर लगाया गया और कई कर्मचारियों को नहीं लिया गया और सस्‍पेंड किए हुए कर्मचारियों का सस्‍पेंशन पीरियड रेगुलराइज नहीं किया गया, तो यह भी तुरंत होने की आवश्‍यकता है ।

तीसरी बात रेलवे के हित की दृष्टि से भी कहना चाहता हूँ कि लालगुड्डा वर्कशाप का विस्‍तार होना चाहिए, सिकंदराबाद रेलवे प्रिंटिंग प्रेस का भी विस्‍तार होना चाहिए, बाक्‍स वैगन इसटैबलिशमेंट का वहाँ पुनर्निर्माण होना चाहिए क्‍योंकि इस प्रकार के वैगन्‍स की माँग हंगरी और साउथ कोरिया में ज्‍यादा बढ़ी है । यह नया जोन होने के कारण इसकी सुविधा के बारे में विशेष रूप से विचार होना चाहिए । शेष में, मैं केवल एक ही प्रार्थना करता हूँ । श्री ए.सी. गिलबर्ट : डैफिशिट दूर करने के बारे में आपने नहीं बताया ।

श्री विमल कुमार मन्‍नालाल चौराड़िया: चैम्‍बर में मिलिए ।

आखिर में मैं मंत्री जी से इतनी ही प्रार्थना करूँगा कि आने वाले समय में हम यह देखना चाहते हैं कि रेलवे का कारोबार मंत्री महोदय की इच्‍छा के और डिस्‍क्रीशन के अनुसार चलता है न कि रेलवे बोर्ड के ब्‍यूरोक्रेटस के अनुसार-इतना ही हमें एश्‍योरेन्‍स मिलेगा तो भी बहुत कुछ कार्य हुआ है, ऐसा हम मानेंगे । धन्‍यवाद ।

राज्‍यसभा सत्र : 67

गवर्नमैंट इम्‍प्‍लायमैंट पालिनी इन पब्लिक सैक्‍टर उद्यम

15 मार्च 1969

सर्वप्रथम स्‍थानीय निवासी की भर्ती के प्रश्‍न पर मैं कहूँगा कि सार्वजनिक उद्यमों में अकुशल व अर्ध कुशल कामगारों की रिक्‍तियाँ वहाँ के निवासियों से ही भरी जानी चाहिए किंतु जहाँ तक कुशल कर्मचारी की भर्ती का प्रश्‍न है तो उसके लिए तकनीकी तौर पर प्रशिक्षित कर्मचारी चाहिए । अत: इनका चयन अखिल भारतीय साक्षात्‍कार द्वारा किया जाना चाहिए । दूसरी बात यह है कि अनुसूचित जाति जनजाति के साथ घूमंतू जातियों के आरक्षण की पक्‍की व्‍यवस्‍था होनी चाहिए । कुछ आपराधिक जातियाँ हैं उनमें से पूर्व अपराधी उन्‍हें प्रशिक्षण देकर नौकरी दी जानी चाहिए । उनके साथ कुछ पिछड़ी जातियाँ हैं उनके उत्‍थान और प्रोत्‍साहन के लिए उन्‍हें भी भर्तियों में स्‍थान दिया जाना चाहिए । केवल आरक्षण ही नहीं उन्‍हें विशेष प्रशिक्षण देकर सेवा में लिया जाना चाहिए । जिससे कि उन्‍हें दूसरों के समकक्ष लाया जा सके ।

वर्कलोड की बराबर समीक्षा होनी चाहिए । काम अधिक है किंतु स्‍टाफ कम है और कहीं स्‍टाफ अधिक है और काम कम है । सो ओवर स्‍टाफिंग और अंडर स्‍टाफिंग में तालमेल बिठाया जाना चाहिए । फिर एक विभाग से दूसरे विभागों में काम की समीक्षा होनी चाहिए । केवल ओवर स्‍टाफिंग है इसलिए रिट्रेन्‍वमैंट का तरीका सही नहीं है । ओवर स्‍टाफिंग अधिकारियों के गलत एस्‍टीमेट के कारण होता है इसलिए उसकी सजा कर्मचारी क्‍यों भुगतें ।

हमारी उन्‍नत तकनीक के द्वारा विदेशी तकनीक से हमें धीरे-धीरे छुट्टी लेनी चाहिए । यह तभी संभव है जब हम विदेशी कालेबोरेशन का एग्रीमेंट करते हैं । तो उस समय इस बात का ध्‍यान रखा जाना चाहिए । हमें अपनी स्‍वदेशी तकनीक विकसित करनी चाहिए । यह तो ध्‍यान में रखना होगा कि अधिकारी वर्ग की रिक्तियाँ कर्मचारियों से ही प्रोन्‍नति देकर भरी जानी चाहिए । सीधे बाहर से भर्ती करने से कर्मचारियों में दु:ख और निराशा की भावना पनपती है ।

जहाँ तक उच्‍च पदों का प्रश्‍न है उन पदों पर सेवानिवृत्त ब्‍यूरोक्रेटस को लाकर बिठाना उचित नहीं है । यह बिजनेस व्‍यवसाय का क्षेत्र है और ब्‍यूरोक्रेटस को इसका कोई अनुभव नहीं होता सो ऐसे उच्‍च पदों पर उद्यम में कार्यरत वरिष्‍ठ और योग्‍य अधिकारियों को ही प्रोन्‍नत कर के नियुक्‍त करना चाहिए । अन्‍यथा कर्मचारी-अधिकारी संबंध भी बिगड़ेंगे और कंपनी लाभ कमाने के स्‍थान पर घाटे की ओर जाने लगेगी।

राज्‍यसभा सत्र: 72

विषय (चर्चा) ध्‍यानाकर्षण: भेल हरिद्वार में स्‍ट्राइक

15 मई 1970

''साफ तौर पर दिखाई देता है कि मंत्री महोदय को स्‍थानीय प्रबंधन ने गलत सूचनाएँ दी हैं । मैं विस्‍तार में नहीं जाऊंगा किंतु भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध स्‍थानीय यूनियन गैर पंजीकृत है यह कहना सही नहीं है । प्रोजेक्‍ट एलाउंस में कमी की जो कार्यविधि त्रिची में अपनाई गई वह कार्यविधि हरिद्वार में अपनाई नहीं गई है । आप इस बात का पता लगा लें । यह औद्योगिक अधिनियम की धारा 4 (1) का उल्‍लंघन है ।''

अब जबकि सरकार इस झगड़े का समाधान करना चाहती है तो मैं कहूँगा कि स्ट्राइकिंग कर्मचारियों का उत्‍पीड़न न किया जाए । दूसरे वार्तालाप हरिद्वार में किया जाए जिससे स्‍थानीय कर्मचारी नेताओं को शेष कर्मचारियों से सलाह मशविरा करने का अवसर मिल सके । तीसरे स्‍थानीय नेताओं और स्‍थानीय अधिकारियों के मध्‍य इस समय जो तनातनी व्‍याप्‍त है उसके दृष्टिगत यह उचित होगा कि समझौता वार्ता के लिए किसी दूसरे स्‍थान से निष्‍पक्ष अधिकारी को भेजा जाए जिससे कि एक सर्वमान्‍य अच्‍छा समझौता हो सके । एक बार मैं फिर कहूँगा कि कर्मचारियों को प्रताड़ित न किया जाए । यह सरकार से अपेक्षित है कि वह इसे प्रतिष्‍ठा का प्रश्‍न नहीं बनाएगी और श्रेष्‍ठ व्‍यवहार के अंतर्गत एक अच्‍छे सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्मित कर कर्मचारियों का उत्‍पीड़न (विक्‍टैमाईजेशन) नहीं करेगी ।

राज्‍यसभा सत्र: 77

वित्त विधेयक

4 अगस्‍त 1971

''मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार ने अभी तक श्रमिकों की न्‍यायोचित तथा चिरप्रतीक्षित माँगों पर ध्‍यान नहीं दिया है । जबकि सरकार श्रमिकों से और अधिक मेहनत से काम करने की अपेक्षा करती है जिससे देश में समृद्धि लाई जा सके । श्रमिकों की मुख्‍य माँग है क्‍या ? वह है काम का अधिकार जिसे संविधान के मूल अधिकारों की सूची में सम्मिलित किया जाना चाहिए । कामगारों को काम की सुरक्षा (Job Security) तथा आवश्‍यकता आधारित न्‍यूनतम वेतन और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अथवा अकुशल कामगार के प्रारंभिक वेतन का निर्धारण कार्य के वैज्ञानिक विश्‍लेषण के आधार पर तथा कर्मचारी को वेतन को जीवन मूल्‍य सूचकांक के साथ जोड़ना चाहिए ।''

वेजबोर्ड त्रिपक्षीय मंचों में परिवर्तित कर दिए जाने चाहिए और बोनस को तब तक विलंबित वेतन अथवा तेरहवीं तनख्‍वाह माना जाना चाहिए जब तक लिविंग वेतन और एक्‍चुअल वेतन के मध्‍य के अंतर को समाप्‍त नहीं कर दिया जाता । महँगाई पर तो रोक लगाने में सरकार असमर्थ सिद्ध हुई है इसलिए वेतन भोगियों के लिए सरकार ने उचित मूल्‍य (Fair Price) दुकानों के खोलने की व्‍यवस्‍था करनी चाहिए ।

चालीस घंटे सप्‍ताह कार्य और ग्रेच्‍युटी के बारे में विधेयक लाना और बेरोजगारी बीमा तथा एकात्‍म सामाजिक सुरक्षा की समुचित समग्र योजना के साथ औद्योगिक आवास निवास योजना का युद्ध स्‍तर पर कार्य प्रारंभ करना चाहिए । श्रमिकों की सहकारी संस्‍थाओं को प्रोत्‍साहित किया जाना चाहिए और जो मालिक अपने कर्मचारियों के जिए आवास व्‍यवस्‍था करने में अनिच्‍छुक हैं, उन पर विशेष हाउसिंग टैक्‍स लगाया जाना चाहिए और इस टैक्‍स से जो धनराशि प्राप्‍त हो उसे श्रमिकों की हाउसिंग सहकारी समिति को दे दिया जाना चाहिए । इस समय वस्‍त्रोद्योग, तथा शुगर उद्योग घोर संकट में हैं । इनको एक्‍साईज ड्यूटी में रियायत देकर राहत प्रदान की जानी चाहिए ।

हमने यह भी माँग की है कि प्रत्‍येक क्षेत्र वह निजी, सार्वजनिक या सहकारी हो वहाँ प्रगतिशील श्रमिकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की जानी चाहिए । श्रमिकीकरण से मेरा तात्‍पर्य यह है कि प्रत्‍येक श्रमिक के परिश्रम का मूल्‍यांकन एक शेयर के रूप में किया जाना चाहिए और इस प्रकार उस उद्योग का श्रमिक को शेयर होल्‍डर बनाना चाहिए। इस अधिकार के कारण उसे निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना चाहिए । यहाँ तक कि पूँजी को कहाँ लगाया जाए उस प्रकार निर्णय लिए जाने में भी श्रमिक की भागीदारी रहनी चाहिए और इस प्रकार उसमें यह भावना और विश्‍वास पैदा किया जाना चाहिए कि वह भी उद्योग का स्‍वामी है और उद्योगहित में उसके स्‍वयं का निहित हित (Vested Interest) भी उसी प्रकार संरक्षित है जिस प्रकार उद्योगपति अथवा सरकार का हित संरक्षित है ।

किसी भी उद्योग के स्‍वामित्‍व के अनेक प्रकार हो सकते हैं । नियंत्रित निजी पूँजीवाद, नियंत्रित सरकारी पूँजीवाद या सहकारी क्षेत्र या फिर निगमीकरण अथवा संयुक्‍त क्षेत्र या फिर जैसे जर्मनी ने किया है उस प्रकार से उद्योगों का लोकतंत्रीकरण ।

उसी प्रकार कृषि मजदूरों के लिए न्‍यूनतम वेतन अधिनियम का विस्‍तार किया जाना चाहिए । ग्रामीण हस्‍त शिल्पियों की सहकारी संगठन निर्माण करके उनके मार्केटिंग के लिए उन्‍हें सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए ।

मैंने सरकार के ध्‍यान के लिए मजदूरों की कुछ माँगों का जिक्र किया है । अगर मुझे ठीक से स्‍मरण है तो एक स्‍थान पर एम.एन. राय ने कहा है कि ''जहाँ कहीं क्रांति हुई हैं- क्रांति के पश्‍चात् क्रांतिकारियों के कैडर विशेष अथवा वांछित् परिणाम् प्राप्‍त कर लेने पर अपने को राष्‍ट्र निर्माण कार्य के लिए समर्पित कर देते हैं ।'' हमारे यहाँ उस प्रकार राष्‍ट्र निर्माण कार्य के लिए आगे आने वाले कार्यकर्ताओं का स्‍पष्‍ट अभाव दिखता है और जब तक राष्‍ट्रभक्ति से उत्‍प्रेरित उस प्रकार के कार्यकर्ता आगे नहीं आते हैं । तब तक राष्‍ट्र पुनर्निर्माण की गति प्रदान करना संभव नहीं है । यह विषय कोई वित्त मंत्रालय ही की परिधि के अंतर्गत नहीं अपितु दलगत राजनीति से उपर सभी देशभक्तों के विचार का विषय होना चाहिए-धन्‍यवाद ।

राज्‍यसभा सत्र: 81

ग्रेच्‍युटी बिल 1972

1 अगस्‍त 1972

''- -'श्रमिक' शब्‍द की परिभाषा करने के बारे मे सरकार सोच रही है अथवा उसका विस्‍तार करना चाहती है और ऐसा करते हुए होटल तथा शिक्षण संस्‍थानों के कर्मचारियों को भी 'श्रमिक' परिभाषा के अंतर्गत लाना चाहती है तो हम इसका स्‍वागत करते हैं । किंतु हमारा कहना है कि 'इंडस्ट्री' को भी परिभाषित कीजिए । ऐसी तमाम गतिविधियाँ या कार्य जहाँ 'मालिक-नौकर' (Employer-Employee) का संबंध होता है वे तमाम कार्य इंडस्ट्री के अंतर्गत आते हैं अत: 'इंडस्ट्री' शब्‍द को भी पुनर्भाषित विस्‍तारित किया जाए ।

सर ! 'ग्रेच्‍युटी' को भी परिभाषित किया जाए । यह स्‍पष्‍ट कहा जाए कि ग्रेच्‍युटी विगत सेवाकाल के लिए है तो फिर धारा (4) की उपधारा (6) का वहाँ प्रावधान नहीं होना चाहिए । किसी हिंसात्‍मक कार्यवाही अथवा नैतिक आचरण के आधार पर ज‍बकि उसके लिए अलग से कार्यवाही या मुकदमा चल रहा है अत: ग्रेच्‍युटी को निरस्‍त नहीं किया जाना चाहिए ।

किसी एक ही अपराध या दोष के लिए यह कुदरती न्‍याय की माँग है कि दो बार सजा नहीं दो जानी चाहिए । ग्रेच्‍युटी 15 दिन के बजाय 30 दिन की दी जानी चाहिए । ग्रेच्‍युटी पर कोई सीलिंग नहीं लगाई जानी चाहिए और 20 महीनों की सीलिंग हटाई जानी चाहिए । इस एक्‍ट के प्रशासनिक संचालन के लिए प्रशासनिक व्‍यवस्‍था में श्रमिकों के प्रतिनि‍धि को भी स्‍थान दिया जाना चाहिए । सरकार को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं अपितु सामाजिक सुरक्षा के लिए कंपरिहैंसिव बिल लेकर आगे आना चाहिए ।

राज्‍यसभा सत्र: 81

विषय (प्रश्‍न): सीमेंट उद्योग के 75 ,000 श्रमिकों द्वारा हड़ताल

12 अगस्‍त 1972

''इस हड़ताल के कारण संक्षेप में कितनी आर्थिक हानि हुई है? मंत्री महोदय उपभोक्‍ता हित में बात कह रहे हैं । यह ठीक है किंतु मालिक सीमेंट उद्योग का मूल्‍य बढ़ाए बिना उद्योग चलाने को तैयार नहीं है । अब कीमत बढ़ाए बिना मालिक उद्योग चलाने को तैयार नहीं है । अब कीमत बढ़ाए बिना मालिक उद्योग चलाने को तैयार नहीं है । तो कुछ यूनिटों में श्रमिक बिना मूल्‍य वृद्धि के उद्योग चलाने को तैयार हैं । क्‍या सरकार इन श्रमिकों की मदद करेगी । ताकि वह ऐसे उद्योग जहाँ मालिक जिद्द पकड़े हुए हैं वहाँ सीमेंट कारखाने चला सकें- ?

राज्‍यसभा सत्र: 86

वर्क-टू-रूल: रेलवे सिग्‍नल स्‍टाफ द्वारा आंदोलन के कारण ट्रेनों का देरी से चलना

29 नवंबर 1973

''- -सर! इस सच्‍चाई के कारण कि मान्‍यता प्रदान किए जाने का आज जो सिस्‍टम है वह भी औद्योगिक अशांति की एक बड़ी वजह है । क्‍या मंत्री महोदय को जानकारी है कि सार्वजनिक क्षेत्र कर्मियों के गत दिसंबर मास में संपन्‍न हुए सेमिनार तथा विगत फरवरी मास में इसी क्षेत्र के प्रशासनिक तथा कर्मचारियों की कार्यशाला का यह सर्वसम्‍मत निष्‍कर्ष था कि 'एक उद्योग-एक यूनियन' (One Industry-One Union) का सिद्धांत कितना भी प्रशंसनीय क्‍यों न हो पर यथार्थ में इस उद्देश्‍य की प्राप्ति निकट भविष्‍य में होगी तो ऐसा होने वाला नहीं है । हमें बहु-संख्‍य ट्रेड-यूनियन (Multiplicity of Trade Union) की सच्‍चाई के साथ रहना सीख लेना चाहिए । अब इसके लिए बार्गेनिंग एजेंसी को मान्‍यता प्रदान करने का जो आज सिस्‍टम है उसे बदलना और सुधारना होगा । क्‍या मंत्री महादेय की जानकारी में यह भी है कि कैसे शोलापुर डिवीजन व अन्‍य स्‍थानों पर लोकोमैंज की हड़ताल ने मान्‍यता प्रदान करने वाले आज विद्यमान सिस्‍टम को नकारा कर दिया है ।

क्‍या सरकार मान्‍यता प्रदान करने के तरीके पर पुनर्विचार करेगा ? वह कर्मचारियों की श्रेणीश: (Categor-wise) एसोशिएसनों ही नहीं बल्कि आम (General) महासंघ 'भारतीय रेलवे मजदूर महासंघ' जो अब उभरकर ऊपर आया है और जिसकी शक्ति, संख्‍या और प्रभाव अधिकांश डिवीजनों में बढ़ा है । जहाँ तक कि कुछ डिवीजनों में आज जिस मान्‍यता प्राप्‍त महासंघ से संबद्ध यूनियनें कार्यरत हैं वहाँ उनके मुकाबले बी.आर.एम.एस. की यूनियनें अधिक शक्तिशाली हैं किंतु माननीय मंत्री महोदय का अड़ियल और दुराग्रहपूर्ण रवैय्या जो यथार्थ और सच्‍चाई को सामने देखकर भी स्‍वीकार नहीं कर रहे हैं । इससे रेल में शांति स्‍थापना में हमारे प्रयासों में बाधा उत्‍पन्न हो रही है । यह इसलिए कि सरकार भावनात्‍मक रूप में किसी और से जुड़ी हुई है और मान्‍यता की पुरानी कार्यविधि से चिपकी हुई है जबकि कर्मचारियों में शक्ति संतुलन अब बदल चुका है ।

अत: क्‍या मैं मंत्री महोदय जी से उम्‍मीद करूँ कि जब तक उनका 'एक उद्योग-एक यूनियन' का प्‍यारा सपना यथार्थ में परिवर्तित नहीं हो जाता और जिसके चरितार्थ होने में कदाचित अगली दशाब्दियाँ लग जाएँ और इसलिए समस्‍याओं के तात्‍कालिक समाधान के‍ लिए क्‍या सरकार मान्‍यता प्रदान करने के तरीके पर पुनर्विचार करेगी और बहुसंख्‍य कर्मचारियों को विश्‍वास में लेकर चलेगी-एक नई बारगेनिंग एजेंसी को विकसित करेगी ।

सोपान-2

सोपान-2 (विदेश में भेंट वार्ताएँ-कार्यक्रम)

1. विश्‍व प्रवास- अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल, केन्‍या, दक्षिण अफ्रीका तथा मारिशस में सामाजिक, सांस्‍कृतिक कार्यक्रम व श्रमिक क्षेत्र के लोगों से भेंट वार्ताएँ और उद्बोधन

2. वेस्‍टइंडीज द्वीप समूह-गुआना में कार्यक्रम

3. सूरीनाम में तुलसीदास के रूप में दत्तोपंत जी का स्‍वागत

4. ट्रिनीडाड-टोबैगो के प्रधानमंत्री से भेंटवार्ता

5. आप नीड (आवश्‍यकता) पूरी कर सकते हैं - ग्रीड (लालच) नहीं, ट्रिनीडाड के मजदूरों के समक्ष भाषण

6. बारबेडोस देश में भ्रमण-संदेश

7. रूस प्रवास- हिंदू अर्थशास्‍त्र

8. उत्तरी ध्रुव- आइसलैंड में भगवाध्‍वज

9. डरवन (दक्षिण अफ्रीका प्रवास)

सोपान-2

विश्‍व प्रवास: अमेरिका , इंग्लैंड, इजरायल व अफ्रीकन देश

(उक्‍त देशों में मा. ठेंगड़ी जी के प्रवास का डा. शंकर तत्‍ववादी जी ने संक्षिप्‍त किंतु सटीक विवरण लिखा है जिसे यहाँ प्रस्‍तुत किया जा रहा है।)

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी संघ परिवार के एक श्रेष्‍ठ प्रचारक और श्रेष्‍ठ विचारक थे । श्रमिक क्षेत्र की संस्‍थाएं अर्थात भारतीय मजदूर संघ के संदर्भ में उनका अनेक स्‍थानों पर देश और विदेशों में प्रवास होता रहा तथापि परिवार के अन्‍य संस्‍थाओं के साथ उनके निकट के संबंध थे और उनके कार्यकर्ता भी ठेंगड़ी जी के पास मार्ग दर्शन और परामर्श हेतु आते थे । अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, भारतीय किसान संघ, संस्‍कार भारती, स्‍वदेशी जागरण मंच और राजकीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को भी उनके मार्गदर्शन का लाभ मिलता था । भिन्‍न-भिन्‍न संघ शिक्षार्थियों में नियमित रूप से उनका जाना होता था और मूलगामी व्‍यक्तित्‍व के विचारकों के साथ ही आदर्श कार्यकर्ताओं के गुण और व्‍यवहार के संबंध में वे साधिकार चर्चा कर सकते थे । 'कार्यकर्ता' उनकी पुस्‍तक को संघोपनिषद् कहकर मा. माधव वैद्य जी वरिष्‍ठ पत्रकार ने प्रशंसा की है । यह सर्व ज्ञात ही है ।

विदेशों का यह प्रवास यानि विदेशस्‍थ हिंदू समाज को उनका वैचारिक प्रबोध नहीं था । श्रमिक क्षेत्र के संबंध में जिनेवा (स्विटजरलैंड) और चीन जाकर आए थे । चीन सरीखे साम्‍यवादी देश में उन्‍होंने जो विचार प्रस्‍तुत किए उस कारण देशीय चीनी विचारक बहुत प्रभावित हुए थे । श्रमिक क्षेत्र संबंधी उनके मूलगामी विचारों का चीन में प्रक्षेपण भी हुआ था । यह हम जानते ही हैं ।

श्रमिक क्षेत्र संबंधी प्रश्‍नों को लेकर मा. ठेंगड़ी जी का विदेशों में कई स्‍थानों पर जो प्रवास हुआ उसकी सामान्‍यत: जानकारी अन्‍यत्र आ चुकी है । अन्‍य कारणों से भी उनका प्रवास विदेशों में कई स्‍थानों पर हुआ । हिंदू स्‍वयंसेवक संघ और विश्‍व हिंदू परिषद के तत्‍वावधान में तथा अन्‍य कुछ विशेष अवसरों पर भी ठेंगड़ी जी ने भारत के बाहर कई देशों में प्रवास किया । उपलब्‍ध जानकारी के आधार पर कुछ विवरण इस प्रकार हैं :-सन् 1979 में अगस्‍त से अक्टूबर तक अमेरिका में हिंदू स्‍वयंसेवक संघ और विश्‍व हिंदू परिषद् के निमंत्रण पर प्रवास, इस प्रवास के अंतर्गत उनके निम्‍नलिखित कार्यक्रम हुए:-

सोमवार 20 अगस्‍त 1979 में बोस्‍टन के पास एम. आई. टी. परिसर में तथा बुधवार 22 अगस्‍त को न्‍यूयार्क में उनकी भारतीय बंधुओं से वार्ता हुई । साधारणत: 35-40 की उपस्थिति रही ।

गुरुवार 23 अगस्‍त को ठेंगड़ी जी का न्‍यूयार्क भ्रमण का कार्यक्रम हुआ । अमेरिका के एक कायर्कर्ता श्री शेखर तिवारी के साथ भ्रमण उन्‍हीं के घर पर भोजन और बाद में श्री राम लाल अरोड़ा इन संघ कार्यकर्ता के घर पर जो न्‍यूजर्सी रहते थे संघ के कार्यकर्ताओं की एक छोटी सी बैठक हुई ।

बुधवार 29 अगस्‍त को वे विश्‍व हिंदू परिषद् के द्वारा आयोजित प्रथम बाल शिविरों में Rhode-Island के Camp Hoffman में पधारे । यहाँ लगभग 40 किशोर आयु वर्ग के स्‍वयंसेवक और सेविकाओं का शिविर था । शिविरों में उनकी दो बैठकें हुई ।

1. बड़ी आयु के विद्यार्थी और 2. छोटी आयु के विद्यार्थी । प्रथम बैठक उनके विषय में उन्‍होंने बताया कि हमारे यहाँ धन संपत्ति का संचय करने वालों को कभी महत्ता प्राप्‍त नहीं हुई । अपितु धन संपत्ति का त्‍याग करने वाले ही प्रेरणा पुरुष बने थे । आत्‍म विश्‍वास और दृढ निश्‍चय के आधार पर व्‍यक्ति जीवन में श्रेष्‍ठत्व प्राप्‍त कर सकता है । यह उनकी दूसरी बैठक का विषय था । उस दिन सायंकाल उनका भोजन श्रीमती दीक्षित के घर हुआ जो तत्‍कालीन उत्तर प्रदेश के संघ चालक वैद्य विशारद डा. पुरंग की कन्‍या थी ।

शुक्रवार 31 अगस्‍त को बोस्‍टन के प्रमुख संघ कार्यकर्ताओं की बैठक हुई जिसमें मा. लक्ष्‍मण राव भिडे, डा. मनोहर शिंदे, डॉ. महेश मेहता, डॉ. वेद प्रकाश नंदा, श्री मधु उपाध्‍ययाय, श्री सुभाष मेहता, डॉ. मुकुन्‍द मोदी, श्री जिनेन्‍द्र कुमार आदि कार्यकर्ता उप‍स्थित थे । विदेश में हिंदू स्‍वयंसेवक संघ, विश्‍व हिंदू परिषद् Friends of India Society International ऐसी संघ प्रेरित संस्‍थाएं कार्य करती हैं । व्‍यक्ति की रुचि और क्षमता के आधार पर उन्‍हें उचित कार्य में सहभाग करना चाहिए-ऐसा विचार मा. ठेंगड़ी जी ने यहाँ रखा । शनिवार 1 सितंबर और रविवार 2 सितंबर को मिलाकर यू.एस. के सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक विस्‍तृत बैठक न्‍यूयार्क में स्‍टेटन आइलैंड में डा. मुकुन्‍द मोदी के निवास स्‍थान पर हुई जिनमें मा. ठेंगड़ी जी और मा. भिड़े जी का मार्गदर्शन प्राप्‍त हुआ । इस बैठक में लगभग 40 उपस्थिति थी और अमेरिका के कई प्रमुख स्‍थानों से कार्यकर्ता इसमें पधारे थे ।

इसके पश्‍चात् लगभग 1 माह तक मा. ठेंगड़ी जी का यू. एस. के अन्‍य स्‍थानों पर प्रवास हुआ जिसमें संघ के अलावा अन्‍य क्षेत्र के कुछ बंधुओं से उनका मिलना हुआ । श्रमिक क्षेत्र के विषयों को लेकर ये प्रवास हुआ । Paul Barnett यह‍ अमेरिकन व्‍यक्ति इस प्रवास में श्री ठेंगड़ी जी का सहायक था ।

अक्‍तूबर 1977 में पूर्व और वर्तमान संघ प्रचारकों की बैठक नागपुर में रेड विभाग में हुई । वर्ष 1989 पू. डॉक्‍टर जी का जन्‍म शताब्‍दी वर्ष है यह सब जानते हैं, उसी उपलक्ष्‍य में यह एकत्रीकरण हुआ था । विविध क्षेत्रों में कार्य करने वाले बंधुओं के बीच मा. ठेंगड़ी जी ने आर्थिक क्षेत्र की चर्चा की थी ।

भारतीय मजदूर संघ, किसान संघ, और ग्राहक पंचायत और सहकार भारती इनके सांस्‍कृतिक अधिष्‍ठान की चर्चा मा. ठेंगड़ी जी ने की और कहा कि 1972 के थाने बैठक में पू. गुरुजी ने जो मार्गदर्शक सिद्धांत कहे थे वही आज भी महत्‍व के हैं । उस समय के कुछ बातों की स्‍पष्‍टता युगोस्‍लाविया सरीखे देशों के अध्‍ययन से और सामने आयी है । अपने कई विचारों की स्‍वीकृति विदेशों में भी दिखाई पड़ती है जैसे Household Industries Act जो हमने पारित किया यह चीन और हंगरी ने भी पारित किया है- हिंदू सिद्धांतों की विजय हो रही है और हिंदू सनातन विचार के अंतर्निहित शक्ति का ही यह श्रेय है ।

अंत में मा. ठेंगड़ी जी ने कहा कि नवीन शताब्‍दी के आरंभ होते ही साम्‍यवादी लालरंग के साथ ही अन्‍य सब रंग सनातन भगवे रंग में निश्चित ही विलीन हो जाएंगे । 1992 में जर्मनी में फ्रेंकफर्ट में यूरोप विश्‍व हिंदू परिषद के द्वारा हिंदू सम्‍मेलन का आयोजन हुआ । डा. मुरली मनोहर जोशी, मा. अशोक सिंहल इनके साथ ही मा. ठेंगड़ी जी भी इसमें निमंत्रित थे ।

वे जहाँ-जहाँ जाते थे वहाँ स्‍वदेशीय स्‍थानीय व्‍यक्तियों के संबंध में अवश्‍य चर्चा करते थे और विशेषत: ऐसे व्‍यक्तियों के विषय में अवश्‍य पूछते थे कि जो हिंदू विचार से प्रभावित थे और उनके जीवन में उस विचार का आविष्‍कार हुआ है । उनका उल्‍लेख वे अपने उद्बोधन में करते थे और इसी कारण स्‍थानीय कार्यकर्ता वर्ग और हिंदू प्रेमी अन्‍य सज्जन इनके साथ भी उनकी निकटता बनती थी ।

फ्रेंकफर्ट के विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यक्रम के उपरांत मा. ठेंगड़ी जी सहित 9 कार्यकर्ता महर्षि महेश योगी जी से मिलने के लिए जर्मनी और नीदरलैंड के सीमा पर स्थित उनके आश्रम में गए थे । इनमें ठेंगड़ी जी के साथ ही मा. अशोक सिंहल मा. मुरली मनोहर जोशी, मा. गिरिराज किशोर जी, अश्‍वनी जी, श्री ब्रह्मदेव उपाध्‍याय आदि सम्मिलित थे । इस प्रकार महर्षि जी के साथ जिनकी अलग से व्‍यक्तिगत वार्ता हुई उनमें मा. ठेंगड़ी जी थे ।

1999 में वाशिंगटन में विश्‍व हिंदू परिषद के द्वारा स्‍वामी विवेकानन्‍द वक्‍तृता शताब्‍दी वर्ष में बड़ा आयोजन हुआ था वहाँ भी मा. ठेंगड़ी जी उपस्थित थे उसी समय शिकागो में भी उनका आगमन और भाषण हुआ था ।

1993 में यू. के. प्रतिवर्षानुसार हिंदू मेराथन का कार्यक्रम हुआ था यह कार्यक्रम रविवार 11 जुलाई को लंदन के Kingsbury High School में हुआ और लगभग 4000 की संख्‍या में हिंदू महिला-पुरुषों ने इसमें भाग लिया था इसमें मा. ठेंगड़ी जी मुख्‍य अतिथि थे ।

मेराथन के उपरांत लंदन के सुप्रसिद्ध स्‍वामीनारायण मंदिर में ठेंगड़ी जी का ''भक्ति'' इस विषय पर प्रवचन हुआ । 12 जुलाई को ठेंगड़ी जी की Duties of British Jews की एक बैठक थी जिसमें Mr. Mcke Whine, Percy George और अन्‍य 5 नए बंधु थे । ठेंगड़ी जी के साथ मा. सत्‍यनारायण जी (यू. के. संघ चालक), श्री रमेश देसाई और जयंति भाई पटेल (दोनों Friends of India Society के कार्यकर्ता) और मैं (शंकर तत्‍ववादी) ऐसे 4 बंधु थे उसके बाद D Iford के हिंदू सेंटर में ठेंगड़ी जी का 'आर्थिक विषय' को लेकर भाषण हुआ-जिसमें लगभग 70 उपस्थिति रही ।

मंगलवार दिनांक 23 जुलाई को BBC के World Service में मा. ठेंगड़ी जीका साक्षात्‍कार था जो श्री विष्‍णुशंकर सहाय जीने लिया था । साक्षात्‍कार के बाद Trade Union Congress की बैठक को ठेंगड़ी जी ने संबोधित किया । सायंकाल उनकी भारत के उच्‍चायुक्‍त श्री सिंघवी जी से भेंट हुई और उसके बाद Norbury Winterbourne School में उनका एक भाषण हुआ जिसमें लगभग 60 संख्‍या थी ।

मा. ठेंगड़ी जी का 16 जुलाई शुक्रवार से मंगलवार 20 जुलाई तक इजरायल में प्रवास हुआ । वे 16 जुलाई को प्रात: 5 बजे से तेल अवीव पहुँचे इसके दो दिन पूर्व ही न्‍यूयार्क से डा. मुकुन्‍द मोदी और उनकी पत्‍नी डा. कोमिला मोदी जेरूसलम के Hotel Mount Zeon में आए थे । 15 जुलाई को मैं (डा. शंकर तत्‍ववादी) तेल अवीव आए और फिर जेरूसलम के इस संगठन ने निमंत्रित किया था । श्री Randalve और Hezal नामक Histadrut के प्रतिनिधियों ने ठेंगड़ी जो का स्‍वागत किया और सभी लोग Hotel Mount Zeon में आए । चाय पान के समय प्रात: 8 बजे श्री Samson (अभिराम) और श्रीमती Samson (आजी) मिलने के लिए आए । स्‍नान और विश्राम के बाद 1 बजे दोपहर को एक कार में हम पाँच लोग (मा. ठेंगड़ी जी. डा. मुकुन्‍द मोदी, डा. कोकिला मोदी, मैं (डा. शंकर तत्‍ववादी) और चालक मरवान भ्रमण के लिए निकले ।

आरंभ में "Massada" में मृत समुद्र देखने गए - यहाँ का पानी इतना भारी है कि व्‍यक्ति पानी के ऊपर आराम से बैठ सकता है, समुद्र में छार की मात्रा अत्‍यधिक होने के कारण ऐसा हुआ है पानी अत्‍यंत मटमैला और शैलयुक्‍त है और स्‍नान के लायक नहीं है । मृत समुद्र (Dead Sea) के इस स्‍वरूप को देखने के बाद रज्‍जु मार्ग से निकट का एक Fortress देखने गए । किसी ऐतिहासिक घटनाओं से वह संबद्ध था कैसे आक्रमणकारियों के साथ लोहा लेते हुए उस दुर्गनुमा स्‍थान में प्रतिकार हुआ था । इसकी कहानी वहाँ बतायी जाती है । लौटते हुए हम सब लोग Bethlehem में यीशु के जन्‍म स्‍थान पर निर्मित चर्च को देखने गए और निकट के Weeping Wall अर्थात रुदन करती दीवाल को देखा । सैकड़ों की संख्‍या में ज्‍यू पुरुष वहाँ आ जा रहे थे ।

17 तारीख को सबेरे 8 बजे हम लोग एक बड़े वाहन मे उत्तर इजरायल के प्रवास में गए । जामिन याकून नामक व्‍यक्तियों Natanya को साथ लिया और नवगांवकर नामक एक मराठी ज्‍यू को भी लिया । झारेथ यह यीशु का ननिहाल कहा जाता है । वहाँ के चर्च को देखा । Kibbut यह एक सामूहिक वसाहत रहती है । उसमें दिधोरीकर नामक दूसरे मराठी ज्‍यू परिवार में लंच किया ।

सीरिया के सीमा रेखा के निकट Golden Heights पहाड़ी है । सामान्‍यत: वहाँ नागरिकों या प्रवासियों को जाने की अनुमति नहीं रहती क्‍योंकि वह टरटैरी निर्बंध है किंतु विशेष अनुमति से हम लोग वहाँ जा सके । टरटैरी दृष्टिकोण से यह स्‍थान अत्‍यंत महत्व का है और जिसका इस पर कब्‍जा है वह देश निकट के भू-भाग पर सरलता से नियंत्रण कर सकता है ।

गोल्‍डन हाइट्स को भेंट देने के पश्‍चात् हम लोग श्री नवगाँवकर के यहाँ जलपान करने गए और बाद में Indian Jewish Community Center को हमने भेंट दी । श्री चिंचोवकर सालकर रूश ऐसे अनेक मराठी भाषी ज्‍यू से संपर्क हुआ । कुछ अन्‍य ज्‍यू बंधुओं से भी वहाँ भेंट हुई । 18 जुलाई को सबेरे 9.30 बजे East Jerusalem Labour Council को भेंट दी और वहाँ ठेंगड़ी जी की Council के Director और Deputy Director से भेंट हुई ।

उसके बाद Kupot Holim में शेख जर्रा इस Medical Centre को देखने हम लोग गए । 12 बजे Holocaust Museum को भेंट देने का कार्यक्रम था किस प्रकार ज्‍यू लोगों को यूरोप के भिन्‍न भिन्‍न देशों से बलपूर्वक भगाया गया । इसका हृदयविदारक चित्र उन Museum को देखने के बाद मिलता है । जेरूसलम Labour Council के सेक्रेटरी के साथ लंच हुआ और वहीं पर मा. ठेंगड़ी जी का सत्‍कार होकर कुछ पुस्‍तकें उन्‍हें भेंट दी गयीं । Chairman of the Department of Culture and Education के साथ वार्ता के पश्‍चात् हम लोग Israel का Parliament देखने फिर Samson & Samson के घर भोजन और कुछ ज्‍यू परिवारों से मिलना हुआ। 19 जुलाई प्रात: हम लोग उस स्‍थान पर गए जहाँ यीशु को सूली पर चढ़ाया गया था । जिस पर उसे मौत की सजा हुई । उस स्‍थान से बध स्‍थल तक अपने कंधे पर सूली लेकर गिरते पड़ते यीशु पहुँचे थे, उनकी मृत्‍यु के पश्‍चात् उनको नहलाया गया था वह स्‍थान और Resurrection का स्‍थल भी देखने को मिला । फिर निम्‍नलिखित महानुभावों से भेंट हुई :-

1. Acting Chairman, Trade Union Deptt.

2. Dr. Ran Kochar-Member of Exeutive,

3. Mr. Motke Sassor-Chairman Administrative Deptt.

4. Grish Aloe Aelosen

5. Diaspora Museum देखा

6. Tel Aviv से प्रस्‍थान

20 जुलाई, मंगलवार, इजरायल यात्रा का अंतिम दिन था । इस दिन निम्‍नलिखित कार्यक्रम हुए :-

1. वीर सेवा राव को भेंट-श्री इचेक से भेंट और जलपान

2. भेंट-श्री मोशाव नेविताव

3. Ben Surion's home-Kiddutz में

4. Solar Energy Research Center भेंट

5. Bedouin Encamo बेदुइन प्रमुख के साथ भोजन

रात्रि होटल में बेंजामिन नाम के व्‍यक्ति से भेंट और माणेक बाई नामक महिला से भेंट हुई जो ''मायबोली'' इस मराठी मासिक पत्रिका की संचालिका थी । उसी रात्रि में Tel Aviv के Ben Guvion Airport से अमस्‍टर्डम होते हुए लंदन के लिए प्रस्‍थान किया । इजरायल में भारत से गए हुए लगभग 50,000 ज्‍यू हैं जो अधिकांशत: मराठी भाषी और कुछ कोचीन के हैं । मा. ठेंगड़ी जी को केरल की मलयालम भाषा अवगत थी और मराठी तो उनकी मातृभाषा ही थी इसलिए भारत से गए हुए इजरायल के प्रत्‍येक ज्‍यू के साथ वे उनकी मातृभाषा में बात कर सकते थे और इसी कारण से वे सबको अपने आत्‍मीय ही लगते थे । इजरायल के वरिष्‍ठ राजनयिकों के साथ उनकी अच्‍छी मित्रता हुई और इजरायल तथा भारत के बीच सौहार्द की वे कड़ी बन गए । 29 जुलाई को लंदन से लौटने के पश्‍चात् दोपहर उनकी आचार्य श्री गिरिराज किशोर जी के साथ भेंट हुई जो उसी दिन भारत से वहाँ आए थे । उनसे मिलने के बाद मा. ठेंगड़ी जी 'कान्‍हेंट्री' में श्री मोरारी बापू से मिलने गए थे ।

मा. ठेंगड़ी जी का वाशिंगटन अमेरिका में 5 अगस्‍त को पदार्पण हुआ था, विश्‍व हिंदू परिषद के तत्‍वावधान में वाशिंगटन Hilton Hotel में स्‍वामी विवेकानन्‍द जी के शिकागो शताब्‍दी समारोह में एक प्रभावी आयोजन हुआ था । उसमें मा. ठेंगड़ी जी का साथ ही मा. सुदर्शन जी भी उपस्थित थे जो उस समय संघ के सह-सरकार्यवाह थे । कैपिटल सेंटर में भव्‍य कार्यक्रम हुआ उसमें लगभग 8000 की उपस्थिति थी । इसमें युवा सम्‍मेलन, संत सम्‍मेलन और प्रभावी सांस्‍कृतिक कार्यक्रम हुए । मा. ठेंगड़ी जी का भी इस वाशिंगटन के समारोह में अच्‍छा सहभाग रहा । 8 अगस्‍त को यह सम्‍मेलन समाप्‍त हुआ ।

सन् 1995 में जून/जुलाई (30 जून-24 जुलाई) में मा. ठेंगड़ी जी का मॉरिशस दक्षिण अफ्रीका और केन्‍या का प्रवास हुआ । शुक्रवार 30 जून को प्रात: काल वे भारत से मॉरिशस पहुँचे थे । उन्‍हें लेने मेरे साथ श्री विजय मधु (Director General of Mauritius Broadcasting) हवाई अड्डे पर आए थे । सायंकाल 5 बजे उनका Indira Gandhi Centre for Indian Culture में भाषण का कार्यक्रम था जिसमें भारत के High Commissioner और Deputy High Commissioner उपस्थित थे । श्री रामकृष्‍ण जीता ने कार्यक्रम का संचालन किया । भाषण का विषय था "Third Way" ! दूसरे दिन अर्थात 1 जुलाई को ठेंगड़ी जी का महात्‍मा गांधी इंस्टीट्यूट में भाषण था जिसका विषय था Hinduism-Vision 2000 भाषण के पश्‍चात् श्री धर्मागोविन्‍द और डा. रामदास के साथ ''गंगा तालाब'' देखने गए । दोपहर 9 बजे उनका चिन्‍मय मिशन में भोजन हुआ वहीं पर सायं 4:30 बजे एक आग्रह सभा में उनका भाषण हुआ जिसमें लगभग 200 लोग उपस्थित थे ।

रविवार 2 जुलाई को प्रात: काल मॉरिशस में शाखा और अभ्‍यासवर्ग था उसमें ठेंगड़ी जी का बौद्धिक हुआ लगभग 50 संख्‍या थी जिसमें 20 महिलाएं थीं । 3 जुलाई सोमवार को प्रात: काल मा. ठेंगड़ी जी उच्‍चायुक्‍त श्री श्‍यामसरन् जी से मिलने गए । सायं काल 4 बजे मॉरिशस यूनिवर्सिटी Management (प्रबंधन) के लोगों के सामने भाषण हुआ ।

रात्रि में श्री विजय मधु के घर पर एक भोज का कार्यक्रम हुआ जिसमें मा. ठेंगड़ी जी के साथ डा. मुरली मनोहर जोशी और परिवार, श्री भानुप्रताप जी शुक्‍ल, श्री अश्विनी जी, श्री धनदेव बहादुर ऐसे लगभग 20 लोगों की उपस्थिति थी ।

4 जुलाई (मंगलवार) को 1 बजे वे श्री राजेन्‍द्र अरुण के साथ Mauritius Labour Congress कार्यक्रम में गए जहाँ यूनियन के अध्‍यक्ष और सचिव उपस्थित थे । मॉरिशस में मा. ठेंगेड़ी जी का निवास स्‍वामी पूर्णानन्‍द जी के शिवालय आश्रम में था । 5 जुलाई को प्रात: श्री उत्‍तम कुबेर के घर पर जलपान कर और स्‍वामी जी के साथ में हवाई अड्डे पर रवाना हुए तथा 1 बजे डरबन के लिए प्रस्‍थान किया ।

डरबन में अफ्रीका के प्रथम हिंदू सम्‍मेलन का आयोजन था जिसमें मुख्‍य अतिथि के रूप में श्री नेल्‍सन मंडेला पधारे थे । स्‍वामी सहजानंद जी के आश्रम में अतिथि संतों के निवास की व्‍यवस्‍था थी जिसमें उनके ज्ञान जगत जी, साधु रंगराजन्, गिरिराज किशोर जी सहित अनेक संत उपस्थित थे । संतों के प्रथम बैठक में स्‍वामी सहजानंद, आचार्य गिरिराज जी, मा. ठेंगड़ी जी और साधु रंगराजन जी बोले और दूसरी बैठक में अन्‍य संत बोले थे ।

शनिवार 8 जुलाई के उद्घाटन कार्यक्रम में मा. ठेंगड़ी जी, श्री शेषागिरी राव और श्री वेंकटाचलम् के मुख्‍य भाषण हुए । दूसरे दिन Chatsworth Stadium में लगभग 40,000 की संख्‍या में सम्‍मेलन हुआ जिसमें नेल्‍सन मंडेला का प्रमुख अतिथि के रूप में भाषण हुआ । फिर अन्‍य लगभग 30 वक्‍ताओं के भी भाषण हुए । जिनमें मा. ठेंगड़ी जी भी बोले थे । रात्रि में श्री हृदयनाथ मंगेशकर समूह के द्वारा भजन और गीतों का कार्यक्रम हुआ । सम्‍मेलन में डा. मुरली मनोहर जोशी, महेश मेहता, आचार्य गिरिराज किशोर जी, साधु रंगराजन आदि वक्‍ताओं के भी भाषण हुए 11 तारीख को सम्‍मेलन समाप्‍त हुआ । दक्षिण अफ्रीका में इतनी विशाल सभाएं होने वाला यह प्रथम ही हिंदुत्‍व में व्‍यवस्‍था हिंदू समाज का आत्‍मविश्‍वास बढ़ाने की दृष्टि से इस सम्‍मेलन का बड़ा महत्‍व था ।

11 जुलाई का मा. ठेंगड़ी जी की Tongot और Umhlah इन स्‍थानों पर धनेश्‍वर महाराज परिवार और नंद लाल परिवार से भेंट हुई । सायंकाल दक्षिण अफ्रीका के आर्य समाज के 70 वीं वर्षगांठ और उसके आधारशाल श्री रामभरोसे जी के 75वीं वर्षगांठ के कार्यक्रम में गए , 12 जुलाई को उन्‍होंने Zulu लोगों के वसाहत को भेंट दी । वे Pietermaritzburg नामक स्‍थान को भी देखने गए जहाँ महात्‍मा गांधी को रेल से बाहर फैंक दिया गया था ।

उसी दिन सायंकाल ठेंगड़ी जी स्‍वामी सहजानंद जी के La Mercy स्थित आश्रम में हुए गुरु पूर्णिमा के कार्यक्रम में सम्मिलित हुए और 4000 भक्‍तों के समक्ष उनका उद्बोधन हुआ । 13 जुलाई को श्री अमित महाराज के निवास स्‍थान पर सबका भोजन हुआ जिसमें ठेंगड़ी जी के साथ डा. यशवंत पाठक, डा. रवीन्‍द्र रामदास मेधागदे, नागपुर के श्री भैय्या घटाटे और उनकी धर्मपत्‍नी उपस्थित थीं ।

14 जुलाई शुक्रवार को मा. ठेंगड़ी जी डरबन से जोहान्‍सबर्ग और यहाँ से केन्या में नैरोबी के लिए रवाना हुए-डरबन कार्यक्रम में आए अनेक लोग इस समय साथ में थे । नैरोबी में श्री चुनिभाई हरिया के घर पर ठेंगड़ी जी का निवास था । संयोग से इसी दिन नैरोबी में गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया गया। Centurion Hotel में 60 गणमाण्य लोगों के साथ ठेंगड़ी जी का भोजन हुआ और भाषण भी ।

दिनांक 15 जुलाई को श्री नरेन्द्र शाह और श्री विद्याधर पटेल जी के साथ हम (मा. ठेंगड़ी जी और मैं) किसुमु गए । रास्ते में किरिचो में लंच हुआ । किसुमु में स्वयंसेवकों की एक बैठक हुई-विषय था कि स्वयंसेवक ही अपने कार्य को या तो बचा सकते हैं या नुकसान पहुंचा सकते हैं ।

रविवार 16 जुलाई नकुरू में गुरु पूर्णिमा का उत्सव था-वहीं पर शाखा की एक बैठक हुई । वहाँ 40 की संख्या थी जिसमें अधिकांश बाल थे । श्री टी. के. पटेल इन सज्जन से नकुरू में भेंट हुई । सायं काल नैरोबी में पहुँचने के पश्चात् ठेंगड़ी जी श्री मगन भाई चंदारिया के यहाँ भोजन के लिए गए थे वहाँ उपस्थित लोगों के साथ उनकी अनौपचारिक बातचीत हुई ।

दिनांक 17 जुलाई को ठेंगड़ी जी की भेंट श्री एस. नचाई मंत्री के साथ हुई जो Agriculture Sire Stock Deptt. और Marketing के मंत्री थे । वार्ता में इजरायल की चर्चा हुई और GATT के संबंध में बोलते हुए Intellectual property right की भी चर्चा हुई । दोपहर को COTU अर्थात Central Organization of Trade Unions के प्रतिनिधियों के साथ उनकी बातचीत हुई । सांयकाल नौरोबी में दीनदयाल भवन अर्थात संघ कार्यालय में स्थानीय श्रेष्ठ अधिकारियों के साथ ठेंगड़ी जी की बैठक हुई । "Will of the people will of the Govt". ऐसा वार्ता का विषय था ।

दिनांक 17 जुलाई को Ministry of Human Resources के श्री फिलिप मिलिंदे के साथ ठेंगड़ी जी की भेंट हुई । फिर दोपहर को Rotary Club-South में मा. ठेंगड़ी जी का संक्षिप्त भाषण हुआ जिसमें उन्होंने USA का प्रत्यक्ष नाम न लेते हुए भी उसकी Hegemony सर्वत्र हो रही है उसका उल्लेख किया । सायंकाल वे हरेकृष्ण मंदिर में दर्शनार्थ गए और फिर Hindu Council के कार्यकर्ताओं के सामने उनका भाषण हुआ । Members should have antinomy (not to the extent of licentiousness). They should have discipline (not to the extent of regimentation) ऐसा विषय उन्होंने रखा ।

19 जुलाई को Unit of Nairobi में Pro-Vice-Chanceller प्रो. मलावु और Religious Education Deptt. की महिला Chairperson श्रीमती किन्नोटी के साथ उनकी अच्छी चर्चा हुई जिसके कारण प्रो. मलावु बहुत प्रसन्न थे । इसी के साथ Deptt. of Economics में भी ठेंगड़ी जी का एक छोटा भाषण हुआ जिसमें लगभग 20 हजार उपस्थिति थी । सायं काल Kenya Broadcasting Corporation के Membo Leo के साथ उनकी भेंट हुई थी । रात्रि में महावीर और विक्रम प्रभात के स्वयंसेवकों के साथ चर्चा हुई ।

20 जुलाई (गुरुवार) की प्रातः ठेंगड़ी जी नैरोबी से मोंबासा गए -दोपहर को वहाँ Rotary Club में उन्होंने धर्म, Nation, Sovereignty, Multina-tionals-ऐसे विषयों को स्पर्श किया । सायंकाल 6 बजे Pandya's Hospital Auditorium में कुछ व्यवसायियों (Professionals) के सामने उनका भाषण हुआ जिसमें Aptitude और साधना ऐसे विषयों को उन्होंने स्पर्श किया । रात्रि 10 से 11 बजे तक उनकी संघ के अधिकारियों के साथ बैठक हुई जिसमें "सुख की कल्पना" इस विषय पर उन्होंने विचार रखे ।

शुकवार दिनांक 21 जुलाई को श्री सोमचंद (मामा) के साथ निकट के गणेश मंदिर दर्शनार्थ गए - सायंकाल इसी प्रकार मोंबासा के शिव मंदिर और जैन मंदिर को उन्होंने भेंट दी और नवनाथ हॉल में एक प्रगट सभा को संबोधित किया जिसमें लगभग 40 की उपस्थिति थी । रात्रि में भी संघ परिवार की बैठक में लगभग उतनी ही संख्या थी ।

22 तारीख को ठेंगड़ी जी मोंबासा से नैरोबी वापस आए । सभी संघ चालकों के साथ श्री रमेश शर्मा जी के घर उनका भोजन हुआ और सायंकाल दीनदयाल भवन में ही एक वृहत् सभा का आयोजन हुआ । इसमें लगभग 300 उपस्थिति थी । "Happiness in life" ऐसा वह भाषण का विषय था ।

रविवार 23 जुलाई को प्रातः शाख्यकत्रता में लगभग 270 संख्या थी जहाँ वे "ध्येयवादिता और डाक्टर" इस विषय पर बोले, 11 बजे "परिवार और पारिवारिक भाव" इस विषय पर उन्होंने विचार प्रकट किए ।

मा. ठेंगड़ी जी का अध्यात्म विषयक अधिकार भी बहुत बड़ा था । रात्रि में उस विषय पर बोलते समय साधना, नेम, भागवत, आर्तता भेद कुछ विषयों को बहुत सरलता से उन्होंने समझाया । सायंकाल युवा कार्यकर्ताओं के सामने "इच्छाशक्ति और साधना" इस विषय पर वे बोले । 24 जुलाई को उनका भारत प्रस्थान था । उनका पौर्वात्य और विचारकों का गहन अध्ययन था और उन विचार की तुलना वे प्रस्‍तुत करते थे । दर्शनशास्त्र तथा धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों भी वे साधिकार विवेचन कर सकते थे और लोग भी उनसे वैसी ही अपेक्षा करते थे और श्रोता वर्ग की आवश्यकता और अपेक्षानुसार विदेशों में उन्होंने अनेक विषयों को स्पर्श किया था । भारतीय विचार और जीवन दृष्टि की उपादेयता, धर्म शब्द का विवेचन, हिंदू धर्म और सेमेटिक विचारों का भविष्य, एकात्म मानव दर्शन, वर्तमान में हिंदू विचार अर्थात "Third way" की उपादेयता और अनिवार्यता और साथ ही श्रमिक क्षेत्र संबंधी और समस्याओं के संदर्भ में प्रबोधन, ऐसे अनेक विषय उनकी चर्चा में आते हैं ।

इंग्लैंड के प्रवास के समय उनकी "Third Way" यह पुस्तिका प्रकाशित हो चुकी थी । उसका उस प्रवास में विमोचन भी हुआ था और अनेक प्रबुद्ध जनों को वह पुस्तक भेंट दी गयी थी ।

उन्हें चाय बहुत प्रिय थी । भारतीय आहार सभी जगह उपलब्ध था । दिन में अनेक बार चाय का प्रयोग होता था। परिवार के छोटे बड़े व्यक्ति और माता भगिनियों के साथ उनकी अनौपचारिक बातचीत और हँसी मजाक भी चलती थी ।

केन्या मॉरिशस के प्रवास में जाने के पूर्व ही उनकी भारत में शल्यक्रिया हुई थी और उसी के तुरंत पश्चात् उनका प्रवास हुआ था । प्रवास में इसका कई बार उन्हें कष्ट भी हुआ परंतु पूर्वनियोजित कार्यक्रम को उन्होंने भली भाँति निभाया । अत्यधिक परिश्रम के बावजूद भी वे सदा प्रसन्न और हँसमुख ही रहते थे । अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका और एशिया महाद्वीपों में उनका प्रवास हुआ । आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के कार्यकर्ता भी उनको उन देशों में चाहते थे परंतु वह हो नहीं सका ।

विदेशस्थ हिंदू बंधुओं के लिए वर्ष में 20 दिनों का संघ शिक्षा वर्ग कुछ चयनित युवाओं के लिए होता है । प्रति 5 वर्षों में एक बार सभी के लिए विश्व संघ शिविर का भी आयोजन होता है । उनके जीवन के लिए 1992, 1997, 2000 और 2004 में शिक्षा वर्ग हुए तथा 1990, 1995 व 2000 में विश्व संघ शिविर के कार्यक्रम हुए ।

प्रायः हम सभी जगह उनके मार्ग दर्शन का लाभ कार्यकर्ताओं को मिल चुका था । विदेश के उनके प्रवास के संबंध में अंग्रेजी उक्ति का उपयोग करते हुए एक ही वाक्य कहा जा सकता है कि He came, he saw and he conquered अर्थात वे आए- देखा/सुना/बोला और सभी का मन जीत लिया । मा. ठेंगड़ी जी की एक लघु यात्रा मास्को और आइसलैंड में हुई थी । इस यात्रा में उनके साथ मा0 अशोक सिंहल और श्री ब्रह्मदेव जी उपाध्याय थे । संभवतः ब्रह्मदेव जी ने इस यात्रा का विवरण अन्यत्र दिया है । विदेश के प्रवास में माननीय ठेंगड़ी जी औपचारिक कार्यक्रमों में फुल पैंट और मनिला (बुशर्ट) का प्रयोग करते थे परंतु अनौपचारिक कार्यक्रमों में धोती और झब्बे में उन्हें अधिक सहजता लगती थी ।

श्रोताओं की आवश्यकतानुसार औपचारिक कार्यक्रमों में वे प्रायः अंग्रेजी या हिंदी का प्रयोग करते थे । परंतु अनौपचारिक बातचीत प्रायः हिंदी या मराठी में होती थी । कभी-कभी बांग्लाभाषी या केरलीय व्यक्ति से मिलने पर वे बांग्ला या मलयालम का भी प्रयोग करते थे । विदेश में अधिकांश प्रवास में उनके साथ एक सह प्रवासी के रूप में मैं रहा और एक संगठक कार्यकर्ता और विचारक के साथ ही कुटुंब वत्सल व्यक्ति के रूप में उनको निकट से देखने का भी सौभाग्य मुझे मिला था ।

(डा. शंकर तत्ववादी द्वारा लिखित वृत्त पर आधारित)

वेस्टइंडीज द्वीप समूह - गुआना में कार्यक्रम

(अमेरिका, ब्रिटेन, व इजरायल के पश्चात् मा. ठेंगड़ी जी वेस्ट इंडीज द्वीपसमूह के गुआना, त्रिनीडाड, सूरीनाम, बारबेडोस आदि देशों के प्रवास पर थे । इस प्रवास में उन्होंने गुआना के राष्ट्रपति, सूरीनाम-टोबैगो के प्रधानमंत्री, प्रांतीय अधिकारियों, सामाजिक नेताओं, श्रम संघों के कार्यकर्ताओं तथा प्रवासी भारतीयों से आत्मीयतापूर्ण संवाद स्थापिच किया-भेंटवार्ताएं कीं एवं अर्थनीति, श्रम संघ व श्रमिक समस्याओं पर प्रवचन दिए । विश्व के साठ से अधिक देशों में भारतीय ज्ञान विज्ञान के प्रचार हेतु सतत भ्रमण करने वाले ऐसे प्रज्ञावान श्री ब्रह्मदेव जी महाराज उक्त देशों के प्रवास में दत्तोपंत जी के साथ रहे । इन देशों के पश्चात् ठेंगड़ी जी का रूस तथा आईसलैंड (उत्तरी ध्रुव) का प्रवास हुआ । इन सब देशों के प्रवास का वृत्त श्री ब्रह्मभिक्षु ने लिखित में तैयार किया है जिसके कुछ संपादित अंश यहाँ प्रकाशित किए जा रहे हैं । ठेंगड़ी जी ने अपने जीवन काल में तीन दर्जन से अधिक देशों की यात्राएँ की हैं । उनके विदेश प्रवास में किस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे और प्रवास का उद्देश्य क्या रहता था वह यहाँ प्रकाशित किए जा रहे वृत्त से स्पष्ट होता है। )

वेस्टइंडीज के द्वीपों की शोभा मुझे खींचती है । समय मिलते ही प्रवास पर जाना चाहता हूँ । हम तीन सप्ताह से इस क्षेत्र में घूम रहे हैं । करीब 7 सप्ताह तक और घूमना होगा । इस क्षेत्र के निवासियों से संपर्क, सत्संग एवं संगठन यही मेरे उद्देश्य हैं । अत्याधिक लोगों से मिलन, हिंदू संगठन में लगन तथा अपने में मनन यही मेरे भ्रमण का स्वभाव है । इसी बीच भारत विश्व निकेतन दिल्ली से समाचार प्राप्त हुआ । हर्षित हो उठा । हम जिन व्यक्तियों के विचारों से प्रभावित हैं- उनमें स्वामी रामतीर्थ के भाषण, स्‍वामी विवेकानंद जी के वचन, आचार्य विनोबा भावे के भ्रमण, श्री गुरुजी गोलवलकर का जीवन तथा श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के चिंतन प्रमुख हैं । ये सभी मेरे भाव जगत में जीवित-जाग्रत होकर प्रेरणा देते रहते हैं । पर श्री दत्तोपंत जी भाव जगत के साथ भौतिक जगत में मूर्तिमंत हैं-'वे इसी समय वेस्‍टइंडीज क्षेत्र में प्रवास पर आ रहे हैं' इस समाचार ने मुझे भाव विभोर कर दिया । मन मयूर क्‍यों न नाचता ? गिनते ही 11 जुलाई उपस्थित । आधी रात के समय गुआना के 'अंतरराष्‍ट्रीय हवाई अड्डे तिमेरी' (अब इसका नाम छेदी जगन एअरपोर्ट हुआ है) पर श्री दत्तोपंत जी तथा अमेरिका के संघ प्रचारक श्रीकांत जी उतरे । हवाई अड्डे पर स्‍वागतार्थ गुआना निवासी स्‍वामी अक्षरानन्‍द जी अपने क्षेत्र के भक्‍तों के साथ उपस्थित। स्‍वागत के बाद एक गाँव में स्‍थापित आश्रम के पास रात्रि विश्राम। प्रात: कार्यक्रमों की दौड़ धूप ।

गुआना के राष्‍ट्रपति तथा नागरिकों से भेंटवार्ता

दूसरे दिन गाँव में स्थित आश्रम में भाव-भक्ति में भीगी जनता श्री दत्तोपंत जी के भाषण को तल्‍लीनता से सुनती रही- ''हमारे पूर्वज भारत से आकर यहाँ संघर्षों एवं विषय संकटों में भी अपनी संस्‍कृति धर्म, समाज के प्रति सचेत-सचेत रहे, तो आज की सम-परिस्थिति में भी अति आग्रह से सजग रहने की आवश्‍यकता है ।'' एक घंटे के भाषण में श्री दत्तोपंत जी ने हिंदू इतिहास की प्रगति को विस्‍तार से रखा । मंदिर के प्रांगण में जनता चुपचाप विचारों से प्रभावित होकर प्रश्‍न प्रतिप्रश्‍न करती रही । हिंदू जीवन के लिए एक निश्चित दिशा प्राप्‍त करती रही क्‍योंकि अफ्रो-समाज के राजनेताओं ने हिंदू संस्‍कृति समाज पर प्रहार ही किया है । हिंदू समाज के नेतागण रूस के कम्‍युनिज्‍म को, झंडे को लाल सलाम करते हुए हिंदू धर्म पर आक्रमण ही करते रहे ।

गुआना की हिंदू जनता दिशाहीन तथा भ्रमित हो रही थी पर श्री छेदी जगन-भूतपूर्व राष्‍ट्रपति का मोह कम्युनिज्‍म से तब टूटा जब रूस टूटता-टूटता टुकड़े-टुकड़े हो गया । श्री छेदी जगन की भाषा एवं कार्यशैली बदल गई । हिंदू समाज से श्रद्धा बन गयी । इसी को आधार बनाकर राजनीतिक सफलता प्राप्त की । हिंदू, अफ्रीकी के प्रहार एवं कम्यूनों की मार से बच गए । अब श्री छेदी जगन 6 मार्च 1997 को शरीर छोड़ गए । पुनः हिंदू जनता के बीच रिक्तता बन गई है ।

आज श्री दत्तोपंत जी अपने भाषण के बीच इस शून्यता को भर रहे थे- "इतिहास में हम कई बार अंधेरे के घेरे में रहे हैं । पर काल देवता ने सहायता की है । हम संकट से उबरे हैं । आज गुआना के साथ भारत के हिंदू भी हैं । यही उद्धारक भी । श्री राम एवं श्रीकृष्ण हमें प्रेरणा दे रहे हैं । निराशा के बादल छँट चुके हैं । अब तो विजय हमारे पक्ष में है ।" सारी जनता की आँखें चमक रही थीं ।

आशा एवं उल्लास से दिन में गुआना के वर्तमान राष्ट्रपति एस. हिन्द (श्री छेदी जगन के बाद निर्वाचित हुए हैं) से मिलने गए । दोनों की 45 मिनट की वार्ता में अर्थशास्त्र के नए सिद्धांत, श्री दत्तोपंत जी की लिखित पुस्तक 'थर्ड वे' एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का राष्ट्रीय जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर दोनों सहमत होकर एकमत थे ।

13 जुलाई को गुआना के पूर्वी क्षेत्र (ईस्ट कोस्ट) के बारबीस प्रांत के 'स्प्रिंगलैंड' शहर में एक सेमिनार आयोजित था जिसमें गुआना के बुद्धिजीवी, समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, चिकित्सक आदि उपस्थित थे । इसका विषय था- "आत्महत्या कारण और निदान" । वर्तमान समाज के युवावर्ग में बढ़ती आत्महत्या से सभी चिंतित थे । श्री दत्तोपंत जी ने युवा वर्ग को अभावग्रस्त बताकर समर्पण हेतु ध्यान देने के लिए सभी का आह्वान किया । उन्होंने कहा- "आज का वातावरण सफलता के लिए अपहरण सिखाता है समर्पण नहीं । अतः सबके भीतर का सात्विक मन काटता है । जो जीवन ध्येय के लिए समर्पित होता है वह आत्म हनन ही चुक रहा है ।" इनका भाषण अंग्रजी में था । सभी बुद्धिजीवियों ने में बहुत सराहा ।

सूरीनाम में तुलसीदास के रूप में दत्तोपंत जी का स्वागत

14 जुलाई को गुआना से 'सूरीनाम एअरवेज' से सूरीनाम के अंतरराष्‍ट्रीय हवाई अड्डे ए. पोंगल पर सायं श्री दत्तोपंत जी पहुँचे । हवाई अड्डे पर श्री सूर्यबली, श्री अनूप एवं श्री ब्रह्मदेव जी महाराज स्वागतार्थ उपस्थित थे । सभी सूरीनाम की राजधानी पारामारिबों के श्री सत्य साई बाबा आश्रम आए । वहाँ अनेक प्रतिष्ठित लोगों ने सम्मान किया । शांति विश्राम के बाद दूसरे दिन प्रातः काल कार से सूरीनाम के उत्तर दिशा के अंतिम छोर पर स्थित 'निकेरी' प्रांत के न्यू निकेरी शहर पहुँचे । यह करीब 300 किलोमीटर की दूरी 4 घंटे में तय हुई । रास्ते में विशाल जंगल एवं करोनी नदी का तेज प्रवाह पार करते हुए प्रकृति की सुंदरता के बीच अति आनंद आया । रास्ते में चलते हुए कार में ही दत्तोपंत जी की अति गंभीर वार्ता एवं बीच-बीच में अति हास्य भरी जीवन की घटनाएँ सुनते सुनते ही 4 घंटे की यात्रा सहज ही कट गई । वास्तव में उनके पास जीवन निर्माण एवं प्रेरणा योग्य जीवंत घटनाओं का अपार भंडार है । यदि यह लिपिबद्ध हो सकेंगे तो वर्तमान तथा भावी पीढ़ी के लिए एक महान संपत्ति प्राप्त होगी ।

रामायण पुत्रों की संतान

निकेरी प्रांत के बहु प्रतिष्ठित श्री हरि चन्द के घर निवास की व्यवस्था थी । पास में एक विशाल प्रांगण । इसी में रात्रि कार्यक्रम निश्चित था । प्रांगण के द्वार से ही सूरीनाम प्रांत की पारम्परिक शैली में नगाड़े एवं तासे की ध्वनि एवं थिरकन के साथ दत्तोपंत जी का अभिनन्दन एवं माल्यार्पण हुआ एवं अपार भीड़ प्रायः अध्यापक, प्रशासक, मजदूर एवं किसान थे । इस प्रांत का प्रमुख आकाशवाणी केंद्र 'रसोनोक' 2 दिन से श्री दत्तोपंत जी के कार्यक्रम की घोषणा कर रहा था । सभी श्रोता दर्शक उनके भाषण हेतु अति उत्सुक थे । कार्यक्रम की अध्यक्षता निकेरी प्रांत के वरिष्ठ प्रशासक श्री जे. तिवारी जी कर रहे थे । कार्य का संचालन 'सूरीनाम टी. वी.' के निदेशक श्री राम सुख जी ने की । आकाशवाणी रसोनोक की संगीत मंडली द्वारा मधुर संगीत के बाद श्री ब्रह्मदेव जी महाराज ने परिचय कराया ।

यह कार्यक्रम संत तुलसीदास जी की 500 वीं जन्म जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित था । श्री दत्तोपंत जी ने संत तुलसीदास जी की कृतियों की चर्चा करते हुए कहा "हमारे पूर्वज भारत में समुद्री जहाजों में भरकर विदेशियों द्वारा इन देशों में लाए जा रहे थे तब वे असमंजस दुविधा एवं संकट के अंधेरे से घिरे थे पर जैसे-जैसे जहाज इन देशों की ओर बढ़ने लगा वे उत्साह, शांति, शक्ति, उमंग आत्म विश्वास से भरने लगे । ऐसा कैसे-क्यों हुआ ? रात्रि में जहाज में न तो ठीक से भोजन मिलता, न आराम विश्राम । वे थके हारे अनिश्चित भविष्य के अंधेरे में चले जा रहे थे- किसी दूसरे देश के मालिकों के मजदूर बनकर अपनी ऊर्जा का प्रयोग करने । अति घोर निराशा की अमावस्या थी पर उनके बीच कोई एक अपने पास अपनी गठरी में संत तुलसीदास जी की रामायण की श्री रामचरित मानस रखे हुए था- उसे निकाला । पाठ शुरू किया । सभी पास बैठ गए । एक पाठ करता । सभी सुनते-राम कथा-राम वनवास जो उन्हीं की तरह अयोध्या छोड़कर 14 वर्ष के लिए जंगल गए- भूख के लिए भोजन नहीं, शयन के लिए शैय्या नहीं- वे कथा सुनते श्रीराम की- तुलना करते अपनी । श्रीराम का वनवास-आज हम सब का वनवास-बस प्रकाश चमका-विश्वास की किरण फूट पड़ी-राम-भरत मिलन भाई भाई का प्रेम । अतः सभी मातृत्व के सूत्र में बंध पड़े-सभी जहाजी भाई बन गए।

रावण पर विजय प्राप्त कर श्रीराम लौटे थे, अतः हम सब भी एक दिन अवश्‍य लौटेंगे । अपनी मातृभूमि की गोदी में-भारत माता की धूल में । रामायण के श्री राम संबल-सहायक सहारा बन गए । विषम परिस्थिति में भी खड़े अड़े रहने का बल रामायण ने दिया । अब पूर्वजों में परिवर्तित-रूपांतरित मानव का जन्म हो चुका है । आप सब उस रामायण पुत्रों की संतान हैं- अत: आप सबको प्रणाम करता हूँ ।

इस लम्बे भाषण को सभी श्रोताओं ने ताली बजाकर पुनः स्वागत किया । एक श्रोता ने विह्वलता में कहा- "हम सब को लगा कि पुनः सभी सुख वैभव में जीती हुई इस वर्तमान पीढ़ी की जड़ता को तोड़ने के लिए श्री दत्तोपंत संत तुलसी के रूप में आ गए हैं ।"

माई-बाप की मूर्ति के सम्मुख दत्तोपंत जी हुए भाव विह्वल

16 जुलाई को हम सब निकेरी प्रांत में प्रातः काल धान के खेत देखने यहाँ के भारतीय किसानों के पास 5 से 15 हजार एकड़ जमीन है जो ट्रैक्टर एवं हेलिकाप्टर से खेती करते हैं । इस प्रांत में 70 प्रतिशत हिंदू रहते हैं, 20 मंदिरों में रामायण भागवत कथा- पूजा पाठ होता रहता है । प्रतिवर्ष श्री ब्रह्मदेव जी महाराज का एक-एक महीने की कथा का आयोजन विभिन्न जगह पर होता है, जिसमें दो हजार से 5 हजार तक लोग कथा का श्रवण करते हैं । हिंदू स्वयं सेवक संघ का कार्य अभी प्रारंभ हुआ है । दो वर्ष से रामलीला पुनः प्रारंभ हुई है । प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन विशाल गंगा मेला लगता है । सभी अटलांटिक समुद्र को गंगा मानकर पूजते हैं ।

इस प्रांत में धान, केला एवं संतरे की बहुत बड़ी खेती होती है जो सभी भारतीय मूल के ही लोग करते हैं । इसी दिन रासोनिक रेडियो पर 'हिंदू धर्म की महानता' विषय पर ठेंगड़ी जी 45 मिनट बोले ।

दोपहर के बाद हम सब निकेरी से कार द्वारा पारामारिबो आए । रात को 'आत्म ज्योति संस्था' द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दत्तोपंत जी प्रेरणा देते हुए कह रहे थे- "आप सब प्रतिवर्ष भारतीय आगमन दिवस मनाते हैं- अतः इसी दिन को 'रामायण दिवस' के रूप में भी मनाइए । हमारे पूर्वज भारत से आते समय 'श्री हनुमान चालीसा' 'श्री सत्य नारायण की पोथी' के साथ 'श्रीरामचरित मानस' रामायण लाए थे । उसी ने विश्वास की ज्योति जगाकर नया जीवन दिया ।" अंत में सूरीनाम के प्रसिद्ध समाजसेवी एवं हिंदी प्रचारक श्री महातम सिंह जी ने धन्यवाद दिया ।

17 जुलाई को प्रातः पारामारीबो में उस स्थल को देखने गए जहाँ पर भारत से आए हुए प्रथम जहाज से उतरकर हमारे पूर्वजों ने पहला पड़ाव डाला था । वहाँ पर 'माई-बाप' नाम से एक मूर्ति स्थापित की गई है । यह मूर्ति देखकर श्री दत्तोपंत जी किसी भाव सागर में डूब गए । शांत-चुप-मौन । बहुत देर तक कुछ भी नहीं बोले । वे क्या सोचते रहे? वहीं से दोपहर के बाद हम सब 'सूरीनाम एअर लाईन' से गुआना होते हुए ट्रिनीडाड-टोबैगो के अंतरराष्‍ट्रीय पीआरको हवाई अड्डे पर उतरे ।

ट्रिनीडाड-टोबैगो के प्रधानमंत्री से भेंटवार्ता

पीआरको हवाई अड्डे पर उतरते ही बी.आई.सी. लॉज में हम सब गए । वहाँ ट्रिनीडाड-टोबैगो देश की सभी यूनियन के प्रतिनिधि एवं सभी समाचार पत्रों के पत्रकार उपस्थित थे । श्री रवि जी महाराज प्रमुख संयोजन कैरेबियन हिंदू परिषद् एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती सुजाता, प्रो. देवनाथ शाह, श्री होनी परसन, कुमारी पवित्रा जयमंगल तथा कुमारी मापा आदि प्रमुख कार्यकर्ता व्‍यवस्‍था में लग गए । सभी ने माल्‍यार्पण एवं आरती द्वारा श्री दत्तोपंत एवं श्री ब्रह्मदेव जी महाराज का स्‍वागत किया, वर्तमान सरकार की सांस्‍कृतिक मंत्री महाराज का स्‍वागत किया, वर्तमान सरकार की सांस्‍कृतिक मंत्री श्रीमती डाफनीफिलिप्‍स अपने पति के साथ उपस्थित होकर मजदूर प्रतिनिधियों के साथ श्री दत्तोपंत जी का अभिनंदन करके वार्ता में व्‍यस्‍त हो गई ।

श्री दत्तोपंत जी सभी प्रतिनिधियों से गले मिलकर अभिनंदन का उत्तर दे रहे थे । भारत के एक महान मजदूर नेता एवं ट्रिनीडाड के मजदूर प्रतिनिधियों एवं नेताओं का यह मिलन अभूतपूर्व दृश्‍य उपस्थित कर रहा था । लगता था कि कई वर्षों के बाद बिछुड़े भाई-भाई गले मिलकर भूखे प्रेम का परस्‍पर आदान-प्रदान कर रहे थे । कार्यक्रम के बाद हम सब श्री रवि जी के घर पहुँचे । श्री रवि जी इस देश के एक प्रसिद्ध पत्रकार, समाजसेवक एवं चिंतक हैं जो हिंदू समाज के लिएउ सतत जागरूक हैं । इन्‍हीं के घर पर आवास की व्‍यवस्‍था थी ।

श्रमर्षि-राजर्षि का प्रेम मिलन: प्रधानमंत्री से भेंटवार्ता

18 जुलाई को इस देश के प्रधानमंत्री श्री वासुदेव पाण्‍डेय से भेंट करने का 10 बजे प्रात: समय निश्चित था । समय पर कार्यालय पहुँचे । एक कक्ष में बैठते ही प्रधानमंत्री ने मुस्‍कराते हुए सबका स्‍वागत किया । उसी क्षण सभी समाचारपत्रों के संवाददाता कैमरे से क्लिक-क्लिक करके छाया चित्र लेने लगे । काफी देर तक प्रधानमंत्री अपने मुख्‍य अतिथि दत्‍तोपंत जी का हाथ थामे खड़े रहे । बैठते ही सीधे विश्‍व की आर्थिक नीति स्थिति पर वार्ता प्रारंभ हो गई । एक गोलमेज पर प्रधानमंत्री के सचिव के साथ श्री रवि जी, श्री ब्रह्मदेव जी महाराज, श्री कान्‍त जी बैठे । धीरे-धीरे दोनों की वार्ता गंभीरतम होती गई ।

वसुधैव कुटुंबकम-वसुधैव मारकेटिंगम

चर्चा प्रारंभ होने पर दत्तोपंत जी ने कहा कि वसुधैव कुटुंबकम की बहुत बात हो गई अब वसुधैव मारकेटिंगम की बात होनी चाहिए ।

'वसुधैव कुटुंबकम' के बाद- 'वसुधैव मारकेटिंगम' शब्‍द का प्रयोग होते ही प्रधानमंत्री ठहाका लगाकर हँसे । दत्तोपंत जी का हाथ पकड़कर कहते हैं- ''आपने चिंतन-सूत्र दे दिया । मुझे सोचने बोलने का एक नया आयाम दे दिया।'' सारी बातें अंग्रेजी में हुई । वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था एवं राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था के तालमेल में दुर्व्‍यवस्‍था पारिवारिक-समाजिक विश्रृंखलता, राष्‍ट्रीय राजनेताओं पर बड़े देशों का दबाव, हर देश की राजनीति में विकसित देशों की दखलंदाजी, विज्ञापन द्वारा श्रेष्‍ठ प्राप्‍त वस्‍तुओं का बाजार आदि विषयों पर वार्ता होती रही । प्रधानमंत्री ने कैरेबियन एवं दक्षिण अमेरिका की अर्थव्‍यवस्‍था पर जानकारी देते हुए बताया कि इस क्षेत्र में ब्राजील देश हम सब का नेतृत्‍व कर रहा है ।

दत्तोपंत जी भारत के मजदूर आंदोलन के पूरे इतिहास एवं कार्यक्रम को विस्‍तार से बताते हुए राजनीति-मजदूर नीति का विवेचन कर रहे थे तो प्रधानमंत्री तल्‍लीनता से गालों पर हाथ रखे सुनते जा रहे थे । यह ऐसा लग रहा था जैसे कोई छात्र अपने शिक्षक के सामने होमवर्क के लिए 'लेसन' (पाठ) ले रहा हो । वार्ता में संयुक्‍त राष्‍ट्र एवं विश्‍व बैंक की नीतियों पर चर्चा करते हुए जैसे उनको राष्‍ट्रीय नीतियों के लिए अमंगलकारी भी बताया तो प्रधानमंत्री आपनी कुर्सी पर सीधे बैठकर हाथ जोड़कर एक हाथ पर दूसरा हाथ पीटते हुए बोल पड़े- ''अरे आज कई दिनों से पहली बार यह आशंका मेरे मन में उठ रही है । हम तो अपने देश की जनता के सामने खड़े हैं । हम जनता को अंधेरे में नही रख सकते पर हमें लगता है कि कई देशों के शासनाध्‍यक्ष पर विश्‍व की आर्थिक नीतियों का दबाव है- उससे उनके देश की जनता अपरिचित एवं अनभिज्ञ है । ऐसा नहीं होना चाहिए ।''

प्रधानमंत्री भावुक हृदय से बोल रहे थे-''हम गुट निरपेक्ष आंदोलन में उपस्थित होंगे-इस पर विकासमान देशों को खुलकर वार्ता करनी चाहिए।'' अन्‍य वार्ताओं में विश्‍व के दो पुराने गुटों का संघर्ष-समाप्ति के बाद अन्‍य गुटों का बनना, बहुजातीय बहुधर्मीय समाज की समस्‍याएँ बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की चतुरता, एन.जी.ओ. की कार्यवाही के पीछे कुछ देशों की चालाकी, मजदूर यूनियन की रचना, दिसंबर 1996 में सिंगापुर में विश्‍व बैंक की अध्‍यक्षता में आर्थिक वार्ता एवं समझौते का कुप्रभाव, पूरे विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था पर एक लाख 30 हजार बड़े लोगों का आधिपत्‍य आदि विषयों पर विचार का आदान-प्रदान होता रहा । हमारे लिए तो सभी एकदम नए विषय थे ।

अंत में मजदूर आंदोलन के संबंध में पुन: वार्ता प्रारंभ हुई । प्रधानमंत्री स्‍वयं गन्‍ने के 'खेतीहर मजदूर यूनियन' के नेतृत्‍व से आज राष्‍ट्र का नेतृत्‍व कर रहे हैं । उनकी पार्टी 'यूनाइटेड नेशनल कांग्रेस' बराबर प्रमुख विरोधी पार्टी रही है, पिछले चुनाव में इसने बहुमत में आकर सत्ता संभाली है । प्रधानमंत्री ने पद शपथ श्री रामचरितमानस पर हाथ रखकर ही पूर्ण की । रक्षाबंधन को संसद में मनाया। हिंदुत्‍व रग-रग में भरा है । अत: दोनों मजदूर नेताओं की वार्ता में हिंदूभाव छलकता रहा ।

मजदूर यूनियनों का राजनीति से गठबंधन नहीं

वार्ता के बीच दत्तोपंत जी ने कहा कि मजदूर यूनियनों का राजनीति से गठबंधन नहीं होना चाहिए । यह बात सुनते ही प्रधानमंत्री बोल पड़े- "तो यूनियन का कार्य क्यों करेगा ? दत्तोपंत जी ने तुरंत उत्तर दिया "यूनियन का कार्य ध्येय मात्र मजदूर सेवा ही होना चाहिए । राजनीति में सफलता नहीं" । इसको बड़ी गंभीरता से लें ।

इस देश के किसी क्षेत्र में कम्युनिस्ट यूनियन नहीं है और उनके नाम का कोई नाम लेवा भी नहीं । 'कम्युनिज्म' शब्द पुरानी पीढ़ी तथा नई पीढ़ी की जीभ पर कभी सुनने को नहीं मिला । हम 11 वर्ष से इस देश में आते रहे हैं । हर वर्ग में बैठने-बोलने का समय मिलता रहा है पर कहीं, हमने कम्युनिज्म का नाम भी लिया तो उनके लिए कोई माने नहीं पर भारत में कम्युनिस्ट अभी तक अपने प्रभाव विस्तार की बातें करते रहते हैं । पर इनका कहीं भी भविष्य नहीं-श्री ब्रह्मदेव जी महाराज ने कहा । यह बैठक आधे घंटे के लिए निर्धारित थी, पर जब घड़ी देखी गई तो एक घंटे 10 मिनट हो चुके थे पर प्रधानमंत्री अपनी कुर्सी से नहीं उठे । हाँ रवि जी के कहने पर दत्तोपंत जी उठ खड़े हुए तो सभी ने विदाई ली ।

सारा विश्‍व एक बाजार बन गया है

प्रधानमंत्री कार्यालय से निकलकर हम सब 'सीमैन एंड स्टील वर्कर यूनियन' के हाल में पहुँचे । वहाँ 'स्टील वर्कर यूनियन' के अध्यक्ष मि. एल. लायल ने श्री दत्तोपंत जी की अगवानी की । साथ में 'बैंक यूनियन' के अध्यक्ष मि. विलियम कालोश, 'आयल फील्ड वर्कर यूनियन' के अध्यक्ष मि. ए. मालकोरा उपस्थित थे । पास के 'डॉकर यूनियन' के प्रांगण में 2 घंटे का कार्यक्रम सभी यूनियन नेताओं के साथ देश के श्रम मंत्री श्री हरीप्रताप की अध्यक्षता में आयोजित हुआ ।

प्रारंभ में 'नेशनल ट्रेड यूनियन' के राष्ट्रीय अध्यक्ष नेता मि.ई.के. मेकलियोड ने जो आस्ट्रेलिया में आयोजित अंतरराष्‍ट्रीय आयल फील्ड सम्मेलन से अभी लौटे थे, स्वागत किया और श्रम मंत्री श्री हरीप्रताप जी ने अभिनंदन करते हुए कहा- "प्रधानमंत्री वासुदेव पाण्डेय जी ने इस देश में ट्रेड यूनियन आंदोलन को एक दिशा दी । राजनीतिक एवं औद्योगिक संघर्ष को तेज किया । हम श्री दत्तोपंत जी का स्वागत करके अपनी अति प्रसन्नता प्रकट नहीं कर पा रहे हैं । हमारी सरकार मजदूरों को अधिकतम सेवाएँ अर्पित करते हुए औद्योगिक शांति की स्थापना का प्रयास कर रही है ।''

अंत में श्री दत्तोपंत जी नेताओं द्वारा स्वागत को स्वीकारते हुए बोले- "ट्रेड यूनियन शक्तिशाली हो- यही मेरी कामना है । आज विश्‍व, परिवर्तन के कारण ट्रेड यूनियन की भूमिका विकसित देश तथा विकासमान देशों में अलग-अलग होगी । ट्रेड यूनियन नेताओं को औद्योगिक संघर्ष राजनीतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि मजदूरों के लाभ के लिए करना होगा । तभी यूनियन के उद्देश्य सफल होंगे ।'' उनके इस वक्तव्य सुनते ही सभी नेता बड़ी उत्सुकता से आगे की वार्ता के लिए सावधान की मुद्रा में बैठे।

दत्तोपंत जी में भावी द्रष्टा का स्वर फूट पड़ा- "मजदूर यूनियन के नेताओं के अर्थ के वैश्‍वीकरण के स्वभाव पर ध्यान रखना होगा क्योंकि आज सारा विश्‍व एक बाजार बन गया है, जिसमें उपभोक्ता, मजदूर, उत्पादक, सरकारें भी संकट में हैं । विश्‍व का बाजार बड़े हाथों में आकर सब कुछ कंप्यूटराइज्ड केंद्रित हो रहा है । इसके लिए विकासशील देशों के ट्रेड यूनियनों को एकजुट होना पड़ेगा तभी मजदूरों का भला होगा । अपने देश की सरकारों को भी बचा पाएंगे । नहीं तो देश की सरकारें विश्व दबाव के सामने झुककर देश की जनता को अंधकार में रखकर सौदेबाजी करेंगी तथा नेता भ्रष्ट बनने-बनाने तथा न झुकने पर सत्ताच्युत करने या सदा के लिए मिटाने की कोशिश की जाएगी। अतः आधुनिक विश्‍व में ट्रेड यूनियनों की सारी पृष्ठभूमि बदल गई है । विकासशील देशों के ट्रेड यूनियनों की एक समन्वय समिति की स्थापना आवश्यक है ।"

भाषण समाप्त होते ही श्रम मंत्री के साथ सभी नेताओं ने खड़े होकर वक्ता का स्वागत किया तुरंत ही यूनियन हाल में शाकाहारी भोजन की सारी व्यवस्था थी । नेताओं ने कहा कि हम सब पहली बार यहाँ यह 'देव भोजन' ग्रहण कर रहे हैं जिसमें प्याज-लहसुन भी नहीं है ।

सायं यहाँ से निकलकर हम सब 'सुगर केन फैक्ट्री लिमिटेड' के अधिकारी वर्ग की बैठक में पहुँचे । इस फैक्ट्री के इतिहास को दत्तोपंत जी के सामने रखा । यहाँ के विवरण के अनुसार गन्ने के मजदूर यूनियन में 80 प्रतिशत भारतीय मूल के मजदूर हैं । 1914 में गन्ने के मजदूरों की पहली यूनियन मान्य हुई । चीनी उत्पादन का 70, 000 टन यूरोप, 20, 000 टन अमेरिका तथा 30, 000 टन इस 14,000 सदस्य हैं ।

रोटी कपड़ा मकान और मिलिटेन्‍सी

अगला कार्यक्रम नेशनल यूनियन ऑफ सुगर केन वर्कर के विशाल हाल में था । वहाँ यूनियन के महामंत्री श्री श्‍याम जी महाराज ने अपने सभी पदाधिकारियों के साथ स्वागत-परिचय कराया । उन्होंने बताया- 'इस यूनियन के साथ 40 कंपनी के वर्कर जुड़े हैं । होटल यूनियन, निर्माण यूनियन, आदि प्रमुख हैं । 1975 तक एक मजदूर को 5 डालर मजदूरी मिलती थी, अब वासुदेव पाण्डेय के प्रधानमंत्री बनते ही 99 डालर मिलती है । यूनियन प्रौढ़ शिक्षा, नैतिक शिक्षा, शराबबंदी तथा संपूर्ण विकास के अनेक कार्यक्रम चलाती है । वे आगे बोले- ''पहले यूनियन सदस्‍यों की 'सदस्‍यता शुल्‍क घर-घर जाकर लेना पड़ता था पर अब उनकी तनख्‍वाह से स्‍वयं कटकर यूनियन के खाते में आ जाता है ।'' इस समय हर वर्कर के पास रोटी कपड़ा-मकान है ।'' दत्तोपंत जी ने पूछा-''मजदूर पहले ज्‍यादा मिलिटेंट (संघर्षशील) था या सभी सुविधा प्राप्‍त करने के बाद है ।'' सभी मजदूर नेता एक साथ हँसे और बोल पड़े- ''अब मिलिटेंसी रह ही नहीं गई । पहले मजदूर आंदोलन में परिवार के सभी स्‍त्री-बच्‍चे भाग लेते थे पर अब तो बच्‍चे जो लिख-पढ़ लिए हैं वे कहते हैं-कि यह तो पिताजी का अपना काम है । हमें क्‍या लेना-देना है ? अब तो मजदूर महँगी शराब भी पीने लगे हैं ।'' यह सुनते ही दत्तोपंत जी की दार्शनिक मुद्रा देखने लायक थी ।

आप नीड (आवश्यकता) पूरी कर सकते हैं ग्रीड (लालच) नहीं - ट्रिनीडाड के मजदूरों के समक्ष भाषण

ऐसे लगा जैसे श्रमर्षि (श्रम-ऋषि) ट्रिनीडाड के इन मजदूर नेताओं के माध्यम से एक विश्‍व-संदेश दे रहे हैं- "अतः मजदूर यूनियन के अपने आंदोलन के साथ इन मजदूरों को 'कुछ और (समथिंग मोर) देना है, जो 'कुछ और' देना है उसे 'संघर्ष का मूल्य' तथा 'जीवन का मूल्य' कहते हैं । इसी 'जीवन मूल्यों' के समूह का नाम ही 'धर्म' है । आगे विचार बहता गया-भाव बढ़ता गया- "आप आवश्यकता (नीड) पूरी कर सकते हैं आकाँक्षा (ग्रीड) नहीं । आप सब की फैक्ट्री की टेक्नोलाजी एवं उत्पादन 'मूल्य को परिवर्तित' कर सकती है लेकिन 'मूल्य' नहीं दे सकते । मशीन तो सप्लीमेंटरी सहायक है । सब्सटीट्यूट-पूरक नहीं ।

सौ हाथों से पैदा और हजार हाथों से बाँटो

आप सब जानते होंगे कि पूरे विश्व की आमदनी का उपयोग लगभग 40 प्रतिशत लोग कर रहे हैं जिसमें पूरी आबादी के 3 प्रतिशत लोग काम कर रहे हैं । हमें औद्योगिक क्रांति एवं व्यापार क्रांति के साथ वातावरण एवं मूल्यों का प्रदूषण मिला है तथा आज भी अधिकतम उत्पादन के बाद एक अरब लोग भूखे हैं । अतः मजदूर यूनियन के नेताओं एवं चिंतकों को सारी सुविधा प्राप्ति के साथ इन मूल्यों एवं प्रेरणाओं पर विचार करना होगा । भारत में भारतीय मजदूर संघ इसी दिशा में कार्य कर रहा है । मूल उद्देश्य है-सौ हाथों से पैदा करो और हजार हाथों से बाँटो ।" इस विचार के बाद सभी की आँखें चमक रही थीं । सभी को भारतीय मजदूर संघ की कार्यप्रणाली एवं चिंतन शैली को जानने की उत्सुकता भी थी ।

मेरा मन बोल पड़ा- "बहुत काल मैं कीन्ही मजूरी ।

आज दीन्ही विधि बनि भलि भूरी ।"

इसके बाद रात्रि का भोजन करके हम सब लौटे ।

भारत माँ की आशाएँ: अपनी संतानों से

19 जुलाई को भारत द्वारा 'स्थापित इस्पात कंपनी' हाल में आयोजित रात्रि के कार्यक्रम में प्रबंधक श्री राम जी मिश्र के स्वागत भाषण तथा श्री ब्रह्मदेव जी महाराज के आशीर्वचन के बाद श्री रविजी ने श्री दत्तोपंत जी का परिचय दिया । श्री दत्तोपंत जी को बोलने के लिए विषय निर्धारित था- "भारत माता की आशाएँ-अपने बच्चों से" वे अपने भाषण में संपूर्ण विकास' पर बल देते हुए बोले-''अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, पुरुषार्थ से सर्वांगीण विकास हो सकता है- यही समन्वय विकास है । हम 'भारत माता' कहकर पुकारते हैं । यह हिंदू ही है- अत: उसके कंधे पर बोझ-भार आता है हमें 'धर्म संस्‍थापनार्थाय' ही कार्य करने हैं । हमारा उद्देश्‍य 'आत्‍मनो मोक्षार्थ जगत्हिताय' ही होगा । यही हमारा धर्म-कर्म है।'' भाषण के बाद सांस्‍कृतिक कार्यक्रम आयोजित थे । 20 जुलाई को युवकों के बीच प्रश्‍नोत्तर कार्यक्रम तथा कुछ चुने हुए बुद्धिजीवियों के बीच 'एकात्म मानववाद' की व्याख्या प्रस्तुत की गई । इसके बाद पिछले वर्ष प्रतिष्ठित गंगाधारा स्नान हेतु पूरा काफिला चला ।

दत्तोपंत जी के गले मिल 'भारत माता' का नाम लेकर रो पड़े अतिवृद्ध सुन्दर लाल

ट्रिनीडाड के लिए भारत से आने वाले अंतिम जहाज के 4 भारतीय व्यक्ति अभी जीवित हैं । उनमें से एक से मिलने के लिए रास्ते में सभी रुके । उनका नाम सुन्दर लाल है । आने वाले जहाज का नाम गाँधी था । ये अपने को कानपुर का बताते हैं । इस बूढ़े व्यक्ति में भारत तथा हिंदू के प्रति अगाध श्रद्धा है । दोहे-चौपाई गा-गाकर सुनाते थे । श्री दत्तोपंत जी के साथ गले मिलकर भारत माता का नाम लेकर रो पड़े ।

सकल लोक जग पावनि गंगा

यहाँ से गंगाधारा की ओर बढ़े । वहाँ पहुँचकर त्रिनिनादेश्वर महादेव का श्री ब्रह्मदेव जी महाराज ने पुरोहित के रूप में श्री दत्तोपंत जी से पूजन कराया । गंगा पूजन हुआ । श्री दत्तोपंत जी इस धारा के किनारे बैठकर विचारमग्न हो गए । काफी देर के बाद मुखर हुए तो बोले- "इस क्षेत्र में हिंदुत्‍व की रक्षा हो जाएगी । पर पड़ोस के देश में इसी तरह प्रवेश करना होगा ।'' श्री ब्रह्मदेव जी का हाथ पकड़े गंगा की धारा चलते-चलते पूरे विश्‍व में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार की योजना पर वार्ता करते रहे ।

गुरु पूर्णिमा का कार्यक्रम

हिंदू प्रचार का प्रांगण अपार भीड़ से भरा है । श्री दत्तोपंत जी के प्रवेश करते ही 'जय श्री राम' के नारे लगे । 'जय तुलसी'- 'जय गुरु महाराज' की ध्वनि उठती रही । श्री ब्रह्मदेव जी द्वारा गुरु वंदना के बाद श्री रवि जी का भाषण तथा अंत में श्री दत्तोपंत जी की ऋषि वाणी- "संत तुलसी दास सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे । आज सांस्कृतिक आक्रमण तेज है । अतः संत तुलसीदास के 500 वीं जयंती के समय यह आज की गुरुपूर्णिमा संदेश देती है कि सजग सतेज साग्रज होकर अपनी संस्कृति को बचाएँ । इसमें संत तुलसीदास जी की रामायण सहायक होगी । राम-रावण युद्ध यह प्राकृतिक प्रक्रिया-'नेचुरल फिनामन' है यह सदैव रहा है, रहेगा।'' अंत में गुरु पूर्णिमा पर सबको दिव्‍य जीवन जीने के लिए प्रेरणा व बधाई दी ।

21 जुलाई का प्रात्‍: आकाशवाणी केंद्र ट्रिनीडाड से श्री ठेंगड़ी जी के एक घंटे के कार्यक्रम में विचार देने के बाद प्रश्‍नोत्तर हुए । सभी ने इस कार्यक्रम की प्रशंसा की ।

आर्थिक उन्‍नति के साथ जीवन मूल्‍यों की उन्‍नति ही धर्म है

दोपहर को वेस्‍टइंडीज यूनिवर्सिटी के 'अर्थशास्‍त्र विभाग' (एग्रोइकोनोमिक विभाग) द्वारा आयोजित प्राध्‍यापक एवं छात्रों के बीच 'थर्ड वे' पर एक घंटे का भाषण दिया । अंत में दत्तोपंत जी ने प्रश्‍नोत्तर में भाग लिया । अपने गंभीर एवं तात्विक भाषण में उन्‍होंने पूँजीवाद, समाजवाद-साम्यवाद पर बोलते हुए वर्तमान आर्थिक समाजिक मूल्‍यों का विस्‍तार से विवेचन किया । इस भाषण का हिंदी अनुवाद पाञ्चजन्‍य के किसी अंक में जरूर पढ़ने को पाठकों को मिलेगा । ''आर्थिक उन्‍नति के साथ जीवन मूल्‍यों की उन्‍नति ही धर्म है' इस उक्ति ने वेस्‍टइंडीज विश्‍वविद्यालय के सभी बुद्धिजीवियों को बहुत स्‍पर्श किया । आज तक वे इस भाषण की चर्चा करते हैं ।

आदर्श हिंदू जीवन: धरती का स्‍वर्गीकरण

इसी दिन रात्रि को 'गासपारिलो' शहर के 'करनाल गाँग' में कार्यक्रम आयोजित था भारतीय मूल के पूरे गाँववासियों ने श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का नगाड़े, तासे तथा शंख बजाकर एवं पुष्‍प वृष्टि द्वारा अभिनंदन किया । गाँव का मुख्‍य मार्ग फूलों से बिछा था, पुरुष, स्‍त्री-बच्‍चे सभी मिलकर जयकार करते मंच पर ले आए । पूरे गाँव की तरफ से श्री ब्रह्मदेव जी महाराज ने माल्यार्पण किया । यह पूरा गांव ही ब्रह्मदेव जी का भक्त है । इसी तरह ट्रिनीडाड के दस गाँव हिंदू जीवन-यापन करते हैं । विशाल सुशोभित मंच पर विराजमान संत तुलसीदास जी की प्रतिमा पर श्री दत्तोपंत जी ने माल्‍यार्पण किया ।

अंत में रामायण एवं संत तुलसीदास की विश्‍व-भूमिका पर एक उद्घोष किया- ''विश्‍व में हिंदुत्‍व की रक्षा में रामचरितमानस एक कवच है। विश्‍व हिंदू परिषद पूरे विश्‍व में हिंदुत्‍व के संवर्धन हेतु जो कार्य कर रहा है उसमें संत तुलसीदास जी का रामचरितमानस हिंदुत्व का विश्वकोष है । विश्‍व हिंदू परिषद अपने ध्‍येय की प्राप्ति इसी रामायण के जीवन आदर्शों से ही कर सकता है ।'' विश्‍व धर्म की स्‍थापना, धरती का स्‍वर्गीकरण, धरती पर शांति, प्रेम की प्रतिष्‍ठा श्री रामचरितमानस द्वारा ही साकार होगी।' अंत में ट्रिनीडाड के सर्वप्र‍थम वानप्रस्‍थी श्री देवनाथ साह ने सबको धन्‍यवाद ज्ञापित किया । इस कार्यक्रम की सफलता का श्रेय श्री सोनी परसन परिवार को है ।

भ्रमण संदेश

बारबेडोस देश में

22 जुलाई को सायंकाल श्री दत्तोपंत जी के साथ श्री ब्रह्मदेव महाराज, श्रीकांत जी एवं श्री सोनी परसन ट्रिनीडाड से बारबेडोस पहुँचे । वहाँ पर 'लियाट एअरलाइन' के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री कर्ण महाराज के घर पर आराम किया । रात्रि को 'हिंदू मंदिर ब्रीजटाउन' मंदिर के विशाल आंगन के कार्यक्रम में श्री दत्तोपंत जी ने 'हिंदुत्व की आवश्‍यकता पूरे विश्‍व को' विषय पर बोले । मंदिर के पुजारी श्री पुरुषोत्तम त्रिपाठी जी ने सबको धन्‍यवाद किया ।

दूसरे दिन प्रात:काल हम सब यहाँ की प्रसिद्ध गुफा 'हरीसन केव' देखने गए । पूरे कैरेबियन में विचित्रताओं से भरी ऐसी विशाल गुफा एकमात्र है जिसे देखने के लिए विश्‍व भर से लोग आते हैं । श्री ख्‍याल क्षत्राणी ने गुफा दर्शन की सारी व्‍यवस्‍था की । दोपहर को ब्रीज टाउन एअर पोर्ट अमेरिका एअरलाइन द्वारा न्‍यूयार्क होते हुए भारत के लिए प्रस्‍थान किया ।

श्री दत्तोपंत जी के साथ बिताए गए यह 12 दिन मेरे जीवन का एक अविस्‍मरणीय अध्‍याय बन गया है । पग-पग पर अपने विचारों से देते हुए आलोक, अनुमत के बीच में वार्ता का आनंद एवं उनके ज्ञान का अमृत मेरे 'विचारों की परिधि' को बड़ा बना गया । हिंदू समाज के कार्य में संलग्‍न मेरे ऐसे कार्यकर्ताओं का 'केंद्रबिंदु' दृढ़ किया तथा हिंदू समाज को आदेशों की परिधि में घूमते हुए अपनी संस्‍कृति की मर्यादा में जीवन-जीने की प्रेरणा उमंग व उत्‍साह दिया, जिसमें कई लोगों के जीवन में परिवर्तन, रूपांतरण एवं क्रांति हुई है । श्री दत्तोपंत जी की वेस्‍टइंडीज की इस यात्रा ने हिंदू समाज के प्रवहमान इतिहास को मील का पत्‍थर बना दिया ।

रूस प्रवास: हिंदू अर्थशास्‍त्र

(मा. दत्तोपंत जी वर्ष 1968 में एक संसदीय दल के सदस्‍य के रूप में रूस की सरकारी यात्रा पर गए थे जिसका संक्षिप्‍त वृत्त 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' के प्रथम खंड (सोवियत संघ प्रवास-रोचक प्रसंग शीर्षक से) समाहित किया गया है । उक्‍त यात्रा के लगभग तीस वर्ष के अंतराल पश्‍चात मा. ठेंगड़ी जी, मा. अशोक सिंहल जी के साथ एक गैर सरकारी दौर पर पुन: रूस गए ।

यह वही रूस है जो साम्‍यवाद की कभी धुरी और भारतीय साम्‍यवादियों का मक्‍का मदीना हुआ करता था । दत्तोपंत जी ने वर्ष 1970 में यह भविष्‍यवाणी की थी कि साम्‍यवाद अपने ही अंतर्निहित विरोधाभासों के कारण समाप्‍त चरमरा कर टूट जाएगी तथा रूस बिखर जाएगा । इस प्रवास में अपनी भविष्‍यवाणी को चरितार्थ हुए प्रत्‍यक्ष देखकर ठेंगड़ी जी को कैसा लगा होगा । किंतु वे जानते थे कि कम्‍युनिज्‍म की अंतिम परिणति यही है अत: उनके भाषण, संवाद, प्रश्‍नोत्तर पूर्ववत् सदा की भाँति बोधगम्‍य, संयत व शालीन और अपने हिंदू जीवन दर्शन के अनुरूप ही रहे । श्री ब्रह्मभिक्षु जो वेस्‍टइंडीज के प्रवास में ठेंगड़ी जी के साथ थे, वे रूस में भी ठेंगड़ी जी के साथ रहे और उन्‍होंने ही इस रूस प्रवास का रोमाचंक वृत्तांत लिखा है जिसे पढ़कर नई जानकारियों से पाठक अवगत होंगे।)

भग्‍न साम्‍यवाद के भग्‍नावशेष

भारत में साम्‍यवादियों ने रूस यानी कम्‍युनिस्‍ट देश के संबंध मं कितनी मनमोहक कल्पनाएँ भर दी थीं कि लगता था कि रूस ही स्‍वर्ग है । साम्‍यवाद के रास्‍ते ही पृथ्‍वी पर स्‍वर्ग उतरेगा । ''हाय ! कामरेडों ! तेरा कितना बुरा हाल हो सकता है । जरा आज के वर्तमान रूस को क्‍यों नहीं देखते ?''

भारत के साम्यवादी तो अत्‍यंत बुर्जुआ हो चुके हैं । 'भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी-न तो भारतीय है और न कम्‍युनिस्‍ट ही और अब तो पार्टी भी रह पाएगी ? यह कहना मुश्किल है । रही- मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी वह 'मार्क्‍सवादी' कहे तो उसे रूस से शिक्षा लेनी चाहिए या क्‍यूबा के फिदेल कास्‍त्रो से । श्री कास्‍त्रो टूटने के कगार पर खड़े हैं- झुक तो पहले ही गए। पर मार्क्‍सवादी कम्‍युनिष्‍ट पार्टी इतनी बुर्जुआ, प्रगति विरोधी होगी-मुझे कल्‍पना भी नहीं थी । वे तो मरी हुई बच्‍ची को बंदरिया की तरह सीने से चिपकाने में शान एवं प्रगति समझा रहे हैं । भगवान इनका भला करे! इन्‍हें सदबुद्धि दे तो भारत का हित होगा और इनकी पार्टी का उद्धार भी ।

भारत के महान विचारक भारतीय मजदूर संघ के संस्‍थापक श्री दत्तोपंत्त जी एवं हिंदू जागरण के अग्रदूत श्री अशोक सिंहल जी साथ ही साथ इस बार मास्‍को पधारे । रूस की विश्‍व हिंदू परिषद ने यह सारा कार्यक्रम आयोजित किया था । विश्‍व हिंदू परिषद यूरोप के अध्‍यक्ष श्री रमेश जैन एवं आचार्य ब्रह्मदेव उपाध्‍याय ने दो वर्ष से पूरा समय देकर यहाँ खड़ा किया । आज पूरे रूस के मुख्‍य शहरों में परिषद के कार्यकर्ता हिंदुत्व कार्य में संलग्‍न हैं ।

दत्तोपंत जी की भविष्‍यवाणी और धराशायी कम्‍युनिज्‍म

श्री दत्तोपंत जी ने बहुत वर्ष पहले घोषणा की थी कि कम्‍युनिज्‍म का सूरज डूब रहा है और हिंदुत्व का ध्‍वज आकाश में ऊँचा उठता जा रहा है तो लोगों ने हँसी उड़ाई थी । पर आज श्री दत्तोपंत जी अपनी घोषणा की वास्‍तविकता देखने स्‍वयं रूस में पधारे हैं । श्री अशोक सिंहल, श्री दत्तोपंत जी के साथ आचार्य ब्रह्मदेव आइसलैंड से स्वीडन में स्‍टाकहोम उतरे । यहाँ से उसी दिन मास्‍को के लिए रवाना हुए । मास्‍को हवाई अड्डे पर अपना हवाई जहाज हवाई पट्टी पर दौड़ रहा है । हम कई देशों से होकर आए हैं । पर कहीं भी हवाई पट्टी यह 'जोड़युक्‍त' नहीं है पर आज रूस की हवाई पट्टी पर 'पैच वर्क' (जोड़) हैं । विशाल हवाई अड्डे पर इक्‍के-दुक्‍के जहाज खड़े हैं क्‍योंकि कम्‍युनिस्‍टों के काल्‍पनिक स्‍वर्ग रूस-मास्‍को को देखने लगी है । 'तीर्थ यात्री' की तरह आते थे । पर अब वास्‍तविक रूप का पता लग गया तब इनके भ्रम अहंकार से बनी 'लौह दीवाल' गिरने लगी है तो देखने को क्‍या रहा ? भुखमरी, माफिया का शासन, गिरती हुई अर्थव्‍यवस्‍था, 1917 के पूर्व का रूस, जार शासन से बदतर और भी बदतर दुर्व्‍यवस्‍था तो यात्री कम हुए । कई एअरलाइनों ने अपनी उड़ानें बंद कर दी । हैं । पहले तो गरीबों के पैसे से छपती रंग-बिरंगी पत्र पत्रिकाओं में चित्ताकर्षक चित्र लोगों को रूस की ओर खींचते थे पर वह सब बंद है ।

जब पिछली यात्रा में मैं बंगाल में था तो एक कम्‍युनिस्‍ट ने तर्क दिया-''रशियनिज्‍म हारा है कम्‍युनिज्‍म नहीं । कम्‍युनिज्‍म कभी हार नहीं सकता ।'' मुझे यह तर्क हास्‍यवाद लगा- 'रावण के भाई-बेटे सब एक एक कर मरते गए पर वह अपनी विजय की आस-विश्‍वास अंत तक सबको देता रहा ।' इन कम्‍युनिस्‍टों को सोवियत भूमि से ज्‍यादा हिंदुत्व का मानवीय मूल्‍य, त्‍याग-सेवाभाव जीवन आदर्श ही काटने दौड़ता है । अत: हिंदुत्व की बात करने वाले सभी संगठनों पर ही रूस के पतन की अपनी खीज निकाल रहे हैं । हम सब हवाई जहाज से उतरकर वी.आई.पी. लॉज में आए । परिषद के अपने कार्यकर्ता उपस्थित थे । हम सब श्री शिव बाहेती के घर गए । चाय पान एवं रात्रि भोज के बाद विश्राम किया ।

रूसी हिंदू भाई भाई

दूसरे दिन उप प्रधानमंत्री श्री अरनेस्‍ट बाकीरोब से भेंट हुई और उनके कार्यालय में डेढ़ घंटे तक वार्ता करते रहे । वार्ता में मास्‍को के संबंध में उन्‍होंने एक संक्षिप्‍त विवरण दिया । वार्ता दुभाषिया के माध्‍यम से हो रही थी । यहाँ कोई भी मंत्री या किसी कार्यालय का बड़ा अधिकारी भी रूसी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी या अन्‍य भाषा में वार्तालाप नहीं करता । यदि भारत के कम्‍युनिस्‍ट टूटते-गिरते बूढ़े रूसी कम्‍युनिस्‍ट देश से अपनी भाषा का सम्‍मान करना सीख जाते तो हम 'भारतीय कम्‍युनिस्‍टों' को धन्‍यवाद देते । 'चेको रिपब्लिक' की राजधानी प्राग की सर्वश्रेष्‍ठ लेखिका श्रीमती सारका वनोभा ने एक सम्‍मेलन में मुझसे कहा ''कम्‍युनिस्‍ट जिस देश में गए वहाँ की संस्‍कृति, इतिहास, भाषा, धर्म को पूर्णतया विकृत किया है । इसी पाप से ही पूरे विश्‍व से कम्‍युनिज्‍म नष्‍ट हो जाएगा क्‍योंकि यह नई पीढ़ी को 'गौरव बोध' का कोई आधार नहीं दे सका जिससे इन पूर्वी यूरोप के सभी देशों की युवा पीढ़ी पंगु बन गई है । ''

उप-प्रधानमंत्री श्री अरनेस्‍ट बाकीरोव ने अपने संसद भवन में वार्ता करते हुए भावुकता में कहा-''हम आप से एक भाई की तरह मिल रहे हैं ।'' श्री अशोक सिंहल ने कहा- ''हाँ! एक सगे भाई की तरह'' । उन्‍होंने पुन: कहा ''रूसी-हिंदू-भाई भाई।'' उनके मुँह से रूसी-हिंदू भाई-भाई की आवाज सुनकर हम रोमांचित हो उठे। वार्ता को आगे बढ़ाते हुए उन्‍होंने कहा-''हम एक दूसरे के लिए विदेशी नहीं । हमारा आपका 300 वर्ष से गाढ़ा नाता है । यह नाता कभी नहीं टूटेगा । अब तो भारत के लिए पूरा दरवाजा खुला है ।'' रूस के परिवर्तन की चर्चा करते हुए कहा-''पूरा देश तथा रूस देश की चारों सीमाएँ बदल गई हैं पर मास्‍को में सभी धर्मों के लोग मिलकर रहते हैं । यहाँ कभी धर्म के नाम पर झगड़े नहीं हुए । यहाँ 50 प्रकार के धार्मिक संगठन हैं । सभी धर्मों के केंद्र हैं । आप भी अपनी संस्‍था का संगठन एवं केंद्र खोलें । हम हर प्रकार का सहयोग देंगे ।''

श्री अशोक सिंहल जी ने कहा-''हम भारत में सभी धर्मों के साथ शांति से रहना चाहते हैं पर कभी-कभी धर्म के नाम पर संघर्ष हो जाता है ।'' यह सुनते ही उप प्रधानमंत्री ने तुरंत कहा-''चेचन्‍या और कश्‍मीर की समस्‍या एक सी है । भारत तथा चेचन्‍या में मुसलमानों से समस्‍या है । रूसी सरकार शांतिवार्ता करती है, उनकी माँगे पूरी करती है- पर वे सदैव नई माँगे रखते जाते हैं जिससे शांति का वातावरण नहीं बन पा रहा है ।'' दत्तोपंत जी ने परिषद् के कार्यों की जानकारी देना शुरू किया तो उप प्रधानमंत्री ने पूछा-''हिंदुइज्‍म क्‍या है ?'' श्री दत्तोपंत जी ने लगातार 20 मिनट तक युक्तिपूर्वक 'हिंदुत्व क्‍या है ? इज्‍म क्‍या है ? पूरे विश्‍व में हिंदू क्‍या करना चाहता है ? भारत में ही कौन कौन सी बाधाएँ हैं ? तिस पर भी विश्‍व हिंदू परिषद कैसे इस कार्य को पूरे विश्‍व में कर रहा है ? इस पर पूर्ण समाधान दिया । उप प्रधानमंत्री अपने तीन सचिवों के साथ वार्ता में बैठे थे । वार्ता होने के बाद चित्र खींचे गए दोनों तरफ और सब लोग हँसते-हँसते विदा हुए ।

हिंदुइज्‍म व ह्युमैनिज्‍म पर्यायवाची हैं

इसके बाद हम सब रूस के राष्‍ट्रपति येल्‍तसिन के राजनैतिक धार्मिक सलाहकार समिति के अध्‍यक्ष एवं राष्‍ट्रपति के द्वितीय सचिव श्री अलेक्‍सान्‍दर तीखोनोव से मिलने श्री अशोक सिंहल, श्री दत्तोपंत जी के साथ आचार्य ब्रह्मदेव एवं श्री शिव बाहती एवं परिषद के मुख्‍य कार्यकर्ता उनके कार्यालय में गए । पहले से ही दूरदर्शन की पूरी टीम भी वहाँ उपस्थित थी। इस सारी वार्ता का सीधा प्रसारण करने की पूर्ण योजना थी । सर्वप्रथम परिचय होने के बाद ही श्री अलेक्‍जेंडर तीखानोव ने तुरंत पूछा-''हिंदू धर्म क्‍या है ?'' इस पर दत्तोपंत जी करीब 25 मिनट तक हिंदू, भारत, राष्‍ट्रीयता, देश प्रेम, मानवता आदि के संदर्भ में संक्षेप में समझाते रहे । श्री तीखानोव एक विद्यालय के छात्र की तरह गाल पर हाथ रखकर सुनते रहे । मुझे बहुत अच्‍छा लगा । इनके साथ इनके दो निजी सचिव थे । उन्‍होंने सुनते एकाध प्रश्‍न भी पूछे । श्री दत्तोपंत जी ने समझाते हुए कहा- ''हिंदू रिलीजन नहीं है पर जीवन की दिशा-दशा है ।'' भारतीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निर्णय को पढ़ते हुए कहा-''हिंदुइज्‍म और ह्यूमैनिज्‍म (मानवतावाद) पर्यायवाची हैं ।''

मोक्ष से मास्‍को-ऋषि से रशिया-शिविर से साइबेरिया

इसी दिन हम सब सायं 'ओरियंटल स्‍टडी सेंटर' गए । वहाँ पर इस इंस्टीटयूट के अध्‍यक्ष डॉ. प्रो. एन्‍टोली अपने पूरे स्‍टाफ के साथ उपस्थित थे । यह भारतीय प्राच्‍य विद्या संस्‍थान है । जो भारतीय साहित्‍य-दर्शन, भाषा-धर्म, पर शोध कार्य करता है । उसने उपनिषद, रामायण, दर्शन आदि का रूसी अनुवाद किया है । इन लोगों का ज्ञान भारत के हर प्रांत एवं भाषा भाषा साहित्य के संबंध में अपार है । इतिहास के संबंध में विश्लेषणात्मक ज्ञान भी है । भारतीय विद्वानों-साहित्यकारों जैसे मुंशी प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ टैगोर की अनेक पुस्तकें इन लोंगो के कारण रूस में बहुचर्चित हुई हैं । प्रो. एन्टोली ने बड़ी प्रसन्नता से मुस्कराते हुए श्री दत्तोपंत जी से पूछा- "रशिया और मास्को' का अर्थ जानते हैं ? इस प्रश्‍न पर सभी लोग उत्तर के लिए उन्हीं की ओर देखने लगे तो स्वतः सहज ही समझाने लगे-मास्को को रूसी भाषा में 'मोस्क्वा' कहते हैं और लिखते भी हैं । 'मोस्कवा' रूसी शब्द-'मोक्ष' संस्कृत शब्द का रूसी संस्करण है । इसी समय रूसीया-रूस-रोस-रूऊस-रीसी-रीसीया रोसीया-ऋषि" से बनता है । अतः "ऋषि" शब्द बिगड़ते बिगड़ते 'रूस' बन गया है । 'रूसिया' को 'उदसलैंड' कहते हैं । यही रउसलैंड-रीसीलैंड "ऋषि लैंड" ही है । इसी तरह 'साइबेरिया'-संस्कृत शब्द 'शिविर' 'शिविरिया' से रूसी भाषा में 'साइबेरिया' बन गया है । "प्रो. एन्टोली की इस व्याख्या से हम सब बहुत प्रभावित एवं प्रसन्न हुए कि रूसी भारतीय विद्वान स्वयं अपने मुख से पारंपरिक व्याख्या कर रहा है ।

कम्युनिज्म इज ए रिलीजन आफ इर्रिलिजियस पीपुल्सः

(कम्युनिज्म अधार्मिक लोगों का धर्म है: हिंदू धर्म रिलीजन का कामनवेल्थ है ।)

श्री दत्तोपंत जी से हिंदू धर्म दर्शन के विषयों पर वार्ता होने लगी तो उन्होंने स्पष्ट किया-"हिंदू धर्म रिलीजन का कामनवेल्थ है । पर इस्लाम एवं ईसाई ये 'जियोपोलिटीकल रिलीजन हैं ।" तभी इसमें एक महिला श्रीमती ओ. लीसटोसोवा-वह सुनते ही बोल पड़ी- "अब अपना भी विचार बनता जा रहा है कि इस्लाम 'धर्म' नहीं बल्कि एक 'राजनीतिक पार्टी' है जो चुनाव के बाद बहुमत से सरकार बनाने पर 'इस्लामिक कानून' का ही शासन सब पर लादने की कोशिश करती है । 'शरीयत' यह तो इस्लाम का घोषणा पत्र (मेनीफेस्टो) है ।" श्री दत्तोपंत जी से वार्ता के बीच कम्युनिस्टों के विभिन्न गुटों के नाम आए जो रूस में फैले हैं- प्रो-कम्युनिस्ट, पो-कम्‍युनिस्ट, प्रजेन्‍ट-कम्‍युनिस्‍ट, प्‍वाइजनस कम्‍युनिस्‍ट आदि विशेषण आए । उन्होंने कहा-'' धर्म अगल-अलग हो सकते हैं पर संस्‍कृति सब की एक हो-तो राष्‍ट्रीय एकता बनी रह सकती है ।" अगले दिन सभी संगठनों के प्रमुख लोगों की बैठक भारतीय दूतावास के सांस्‍कृतिक हाल में संपन्‍न हुई एवं विश्‍व हिंदू परिषद की एक तदर्थ समिति का गठन हुआ ।

सांस्कृतिक कार्यक्रमः भारतीय संस्कृति की छटा

इस कार्यक्रम में सर्वप्रथम श्री शारदा जी ने सबका स्वागत किया । तत्‍पश्‍चात् आचार्य ब्रह्मदेव ने पूरे यूरोप के साथ पूरे विश्‍व में विश्‍व हिंदू परिषद के संगठन एवं कार्यक्रमों की पूर्ण जानकारी दी । इसके बाद श्री दत्तोपंत जी ने 'हिंदू धर्म 21 वीं शताब्दी के लिए' विषय पर बड़ा प्रेरणादायी सारगर्भित भाषण प्रस्तुत किया । तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंजता रहा । अंत में श्री अशोक सिंहल के साथ हिंदू एकता, हिंदू संगठन, मंदिर सुरक्षा, अयोध्या, काशी के मंदिर, सेवा प्रकल्प, वानप्रस्थी जीवन, हिंदू एवं बौद्ध की एकता, छुआछूत-जाति पाति का उन्मूलन, धर्म परिवर्तन, कश्मीर आसामांचल समस्या, हिंदू मुस्लिम एकता, सिख संगठन, भारत द्वारा परमाणु परीक्षण, नेपाल की समस्या आदि विषयों पर प्रश्‍न-प्रतिप्रश्‍न एवं प्रश्‍नोतर करीब 2 घंटे का लंबा कार्यक्रम चला । बीच-बीच में 'जय श्री राम' के नारों से हॉल गूंज उठता था । इस कार्यक्रम में श्रीमती निरुपमा राव भारतीय दूतावास की प्रथम सचिव, श्री गोपाल बागले-सचिव राजनीतिक, डॉ. राजेश कुमार-हिंदी प्रवक्ता एवं भारतीय समाज के सभी व्यापारी डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति भी उपस्थित थे । दूसरे दिन से भारत के महान संत श्री मोरारी बापू की रामकथा का आयोजन मास्को शहर के गुबकीन अकादमी के हाल में आयोजित था-इसकी घोषणा करने श्री अशोक सिंहल ने इस कार्यक्रम में उपस्थित होने के लिए सबका आह्वान किया ।


वृद्धजीवन: वानप्रस्‍थी जीवन-आदर्श जीवन

इस प्रवास के चौथे दिन हम सब एक अनाथालय एव वृद्धाश्रम वासियों के सम्मिलित कार्यक्रम में गए । एक विशाल भवन जिसमें लगभग 400 बूढ़े रहते हैं तथा दूसरे भवन में 120 अनाथ अच्‍चे रहते हैं जिनके माता-पिता नहीं हैं । गरीब घरों से आए हैं । इनकी आवश्यकताओं को देखते हुए मास्को के भारतीय समाज ने विपुल धन एकत्रित करके इन लोगों की सहायता हेतु वस्‍त्र-भोजन दवा एवं शिक्षा का सब खर्च उठाने का निर्णय लिया है । श्री शिव बाहती, श्री मुरारी जालान, श्री मोदी रविन्द्र चामड़िया, श्री विजय तुलसीयान एवं श्री मोलिका आदि के सम्मिलित प्रयास से यह योजना विश्‍व हिंदू परिषद ने हाथ में ली है । इसके लिए यह निर्णय हुआ कि श्री अशोक सिंहल जी के हाथों इन 'गरीबों की सहायता' का उद्घाटन किया जाए ।

हाल में पहुँचते ही वहाँ उपस्थित 300 वृद्ध पुरुष-महिलाओं ने ताली बजाकर स्वागत किया । वहाँ की सह-निदेशिका 'श्रीमती जुलिया' ने रूस का एक सुमधुर शास्त्रीय संगीत प्रस्तुत किया । सारे कार्यक्रम में इस केंद्र की प्रमुख संचालिका 'श्रीमती पोदमोकी इवोचारा' अति उत्साहित थीं । आचार्य ब्रह्मदेव ने सबकी कुशल हेतु वैदिक मंत्रों से स्वस्तिवाचन किया । इसके बाद श्री दत्तोपंत जी 'वृद्धजीवन' को कैसे उपयोगी बना सकते हैं ? इस विषय पर बहुत ही सुंदर बोले । अंत में श्री अशोक सिंहल बोलने को खड़े हुए तो एक ने कहा कि हम सब हिंदू गीत सुनना चाहते हैं । श्री अशोक जी ने सस्वर 'यह मातृभूमि मेरी' 'यह पितृभूमि मेरी'-संघ गीत सुनाया । लोगों ने अंत में खड़े होकर ताली बजाकर धन्यवाद दिया । तब 'वानप्रस्थी जीवन' के आदर्श को समझते हुए उनके चेहरों पर स्पष्टता की झलक साफ दिखाई पड़ती थी ।

मेरा मन वैभवशाली रूस के इतिहास पर चला गया । यही रूस 'सुपर पावर' था । विश्‍व में इसका दबदबा था । इनकी टेक्‍नोलॉजी एवं विज्ञान प्रशंसनीय-अनुकरणीय थी। भारत इनका सहारा खोजता था । 'इतिहास चक्र' कितना क्रूर होता है । आज भारत के दो महापुरुषों द्वारा रूस के गरीबों एवं अनाथों के लिए सहायोग राशि तथा 'कपड़ा-भोजन-निवास' की व्‍यवस्‍था की जा रही है । भारत तो अपने देश की समस्‍या से जूझ रहा है, पर 'रोटी-कपड़ा-मकान' का नारा देने वाला कम्युनिज्‍म यह जीवन की आवश्‍यकताओं को भी देने में असफल होगा- ऐसी धारणा मेरी कल्पना में नहीं थी। रूस के गाँवो-कस्बों में सर्वत्र गरीबी के दर्शन हो रहे हैं । हाँ ! मास्को के बड़े-बड़े ऊँचे मकान एवं मेट्रो की लंबाई-चौड़ाई देखकर लगता है कि रूस ने कितनी उन्नति की थी, पर उन ऊँचे मकानों में रहने वाला व्यक्ति गरीबी के बोझ से ऐसा दबा होगा- अकल्पनीय ।

रूस की दुर्दशा का कारण कम्युनिज्म है

रूस विकास करके चाँद पर भी पहुँचा, पर आज तक रूस के पास 'टेलीफोन बुक' नहीं छपा । उस समय 'टेलीफोन बुक' न छपाना उसकी रणनीति का हिस्सा रहा होगा । पर आज 'टेलीफोन बुक' न छपाने के पीछे अर्थाभाव है, ये भारत के कम्युनिस्ट, भारतवासियों को क्यों नहीं बताते कि रूस की तरह ही हम भी रोटी-कपड़ा-मकान देने में असमर्थ हैं । कब तक स्वाभिमानी भारत को झूठ-धोखे में डालोगे । चीन ने तो पहले ही पूँजीवादी राह पर चलकर समझदारी की है । पिछले वर्ष चीन भी देखकर आया हूँ-गाँव वही गरीबी में जी रहे हैं । हे कम्युनिस्टों ! कम्युनिज्म के नारे को छोड़कर भारत माता की 'सच्ची संतान बनकर' भारत की धरोहर समेटकर ही भारत को महान बना सकते हो।

हम सब के रहते एक अमेरिकन डालर 6000 रूबल के बराबर आज यह लिखते-लिखते डालर 20, 000 रूबल के बराबर हो गया है । शुरू में रूस के लिए रोना आता था अब तो बेचारे रूस एवं रूस के कम्युनिस्टों के लिए हमारे पास आँसू भी नहीं बचे ।

यदि रूस के बचे हुए कम्युनिस्ट नेता जो वहाँ की डयूम संसद में हैं- रूस के राष्ट्रपति का साथ देते तो रूस आर्थिक संकट से उबर जाता । रूस की दुर्दशा का कारण 'कम्युनिज्म' है और वर्तमान में आर्थिक-राजनीतिक दुर्दशा के कारण रूसी संसद के 'कम्युनिस्ट' हैं । वे न संसद में सरकार को सहायता दे रहे हैं और न देश में रूसी जनता को दिशा । 'रूस के कम्युनिस्ट' रूसी जनता के आत्मबल-आत्मविश्वास को भी नहीं जगा पा रहे हैं ।

उत्तरी ध्रुव-आइसलैंड में भगवाध्वज

हम डेनमार्क से 'आइसलैंड एअर लाइन' द्वारा आइसलैंड की राजधानी 'रैकवैक' अंतरराष्‍ट्रीय एअरपोर्ट पहुंचे । श्री दत्तोपंत जी, श्री अशोक सिंहल, श्री रतेश जैन (जर्मनी) एवं आचार्य ब्रह्मदेव (हॉलैंड) साथ ही थे । कोपेनहेगन से रैकवैक की दूरी 2150 किलोमीटर लगभग 2 घंटे में पूरी की । एअरपोर्ट पर आचार्य ब्रह्मदेव का एक भक्त श्री शिवा (इस्कील-डेनमार्क) उपस्थित था तथा भारतीय उच्चायुक्त श्री अर्नाल्ड का चालक भी एक कार लेकर आया था ।

बाहर आते ही एक 'ब्लू लैगुन' नाम की जगह पर रुकने का निर्णय लिया । यह देश प्राकृतिक संपदा एवं सौंदर्य का भंडार है । बादलों से घिरा आसमान, बीच-बीच में रुक-रुक कर चमक उठता सूर्य, ठंडी हवा, ऊँची नीची पहाड़ियाँ, घाटियाँ मन मोह रही थी ।

'ब्लू लैगुन' एक गर्म पानी का विश्वविख्यात तालाब है । खारे पानी में अनेक खनिज पदार्थ हैं जो चर्म रोगों को दूर करते हैं । यह एक बड़ा सा तालाब है । जिसमें धरती के नीचे से अनेक गरम स्रोत स्वतः बहते रहते हैं जिसमें विश्‍व भर के लोग आकर यहाँ स्नान करते हैं । इसी पानी से बिजली बनाई जाती है । इसी पानी को स्वच्छ करके घर-घर पीने के लिए आपूर्ति की जाती है।

हवाई अड्डे से शहर की ओर जाते हुए बीच रास्ते में हम सब रुके । 'ब्लू लैगून' के पास पहुँचकर स्नान के लिए बढ़े तो श्री अशोक सिंहल जी मेरे बहुत कहने पर आगे चले । अंत में इस गरम पानी में अति आराम-आनंद मिला । स्नान करते ही थकावट दूर हुई । ऊपर खुला हुआ आकाश, चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा, गरम पानी के बहते हुए प्राकृतिक फव्वारे, दूर त‍क दिखते हुए लावा की चट्टानें, छोटे-छोटे वृक्ष चित्ताकर्षक दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे । हम सबने एक घंटे तक इस गरम पानी में स्नान का आनंद लिया ।

यहाँ से हम सब 'रैकवैक' शहर आए । यहाँ एक निवास स्थल निश्चित् था । यहाँ के 'भारतीय परिषद' के आइसलैंड के अध्‍यक्ष श्री विष्णु कुमार अमीन तथा श्रीमती हरया अमीन ने सारी व्‍यवस्‍था की थी । इस देश में 100 हिंदू रहते हैं । ये भारत तथा केन्या एवं युगांडा से आए हैं । भारत से दिल्‍ली एवं उत्तर प्रदेश के कई लोग हैं । सभी परिवार के साथ रहते हैं । मुझे तो आश्‍चर्य लगा कि भारत से इतनी दूर इस बर्फीले देश में क्‍यों आकर बस गए ? ज्‍यादातर इंजीनियर एवं व्‍यापारी हैं ।

पहले यह एक मानव रहित, बर्फीला, ज्वालामुखी आग-लावा से भरपूर निर्जन देश था । सर्वप्रथम 874 ई. में नार्वे एवं ब्रिटिश द्वीप से आकर बसना शुरू किया । यहाँ 70 प्रतिशत स्केन्डेनेविया एवं 30 प्रतिशत ब्रिटिश आइसलैंड के लोग रहते हैं । नार्वे का प्रथम आदमी 'श्री इनगोलफर अरनारसन' यहाँ की ओक्सरा नदी के किनारे बसा । 830 ई. में विश्‍व की प्रथम संसद भवन की स्थापना हुई-ऐसी यूरोपीय देशों की मान्यता है । यहाँ के लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि विश्‍व में आइसलैंड ने ही सर्व प्रथम संसद की स्थापना की । हमें तो 'रामराज्य' की स्थापना की बात ही याद आने लगी । आचार्य ब्रह्मदेव रामराज्य के 'दैविक दैहिक तापा' की चौपाई गुनगुनाने लगे । पर भारत की राजनीतिक पार्टियों में भारतीय मूल्‍यों की महिमा को भुलाने एवं नकली मान्‍यताओं एवं मानदंडों की स्थापना की होड़ भारत में लगी है । इससे भारत के बाहर रहने वाले भारतीयों को अतिशय पीड़ा होती है ।

उपनिषद, पांतजलि योग, नारद भक्ति सूत्र का आइसलैंड की भाषा में अनुवाद अंग्रेजी के माध्यम से हो चुका है । मुंशी प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों का संग्रह आइसलैंडिक भाषा में अनुवाद उपलब्ध है । श्री मद्भगवत् गीता का अनुवाद अभी पूर्ण हुआ है । 'हरे कृष्‍ण हरे रामा' (इस्कान), 'श्री सत्य साई बाबा' के अतिरिक्त भारत की कोई संस्‍था नहीं है । योग-ध्‍यान की कक्षाएँ एव स्‍वामी शिवानंद की पुस्‍तकें एवं अंग्रेजी में रामकृष्‍ण वेदांत की पुस्‍तकें हर बड़ी दुकानों पर उपलब्ध हैं । यहाँ की 'ब्यूटी पार्लर' की दुकानों का नाम 'सिंदूर सुहाग' ऐसे भारतीय शब्दों से मिलते नाम हैं । यहाँ के मुख्य थियेटर हाल का नाम 'श्याम विओइन' है । 'श्याम' शब्द यहीं की भाषा का नाम है । म्यूजिक दुकानों के नाम 'झंकार' एवं 'स्‍वाली' हैं । इस देश की राजधानी 'रैकवैक' है । जिसे यहाँ की भाषा में 'रिइक वैएक' कहते हैं । वहाँ के लेखक विद्वान 'श्री सिगुर दर' ने कहा कि इस नाम का अर्थ है-'एक ऋषि यहाँ' यानी यह ऋषियों का देश है । श्री सिगुर ने आइसलैंड की भाषा में भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति पर 60 छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी हैं । श्री दत्तोपंत जी ने इन्हें 'थर्ड वे' पुस्तक भेंट में दी ।

आधुनिक युग में हिंदू जीवन शैली सर्वाधिक उपयुक्त

दूसरे दिन हम सब भारत परिषद् द्वारा आयोजित कार्यक्रम में गए । इस कार्यक्रम में समस्त भारतवासी जो आइसलैंड द्वीप में रहते हैं- पूरे परिवार के साथ उपस्थित हुए । भारतीय उच्चायुक्त श्री अर्नाल्ड अपनी पत्नी के साथ उपस्थित थे । कार्यक्रम का आयोजन श्री विष्णु कुमार जी अमीन ने किया था । श्री अशोक जी सिंहल सबके परिचय के बाद प्रेरणा देते हुए बोले- "आज विश्व के हर कोने में हमारे भारतवासी उपस्थित हैं । अतः हर जगह हमारी संस्कृति, धर्म, भाषा एवं जीवन शैली का प्रयोग हर वातावरण में होना आवश्यक है क्योंकि अपनी हिंदू संस्कृति एक नई कैसे सभी लोगों ने बड़ी शांति से उनकी बातें सुनीं । कई लोगों ने पूछा कि भारत से कोई भी नेता, साधु-संत, विद्वान यहाँ नहीं आता, आप सब कैसे और क्‍यों आए ? श्री दत्तोपंत जी ने समाधान देते हुए कहा- ''हर जाति-हर समाज अपनी जड़ को खोजने में संलग्‍न है, अत: आप सब अपनी संस्‍कृति के रूट (जड़) और फ्रुट (फल) को खोजने का प्रयास करें यही अपनी यात्रा का उद्देश्‍य है ।'' अंत में सभी प्रश्‍नों का उत्तर श्री दत्तोपंत जी ने दिया । श्री रमेश जैन ने सभी का परिचय दिया । आचार्य ब्रह्मदेव ने हिंदू जागरण में विश्‍व हिंदू परिषद का परिचय एवं कार्यक्रम को विस्‍तार से रखा । श्री रमेश जैन ने सबको धन्‍यवाद दिया और विश्‍व हिंदू परिषद् की ईकाई की घोषणा की ।

यहाँ से ग्रीनलैंड पास में है । हम सबने दूसरे दिन वहाँ जाने का विचार किया पर जहाज में जगह न मिलने से जाना संभव नहीं हुआ । ग्रीनलैंड की खोज आइसलैंड के लोग 985-986 ई. में किए थे । यहाँ से प्रातः जहाज जाकर सायं लौट आता है ।

आइसलैंड में 90 प्रतिशत लूथर ईसाई हैं । आज से एक हजार वर्ष पूर्व ही यहाँ ईसाइयत का प्रवेश हो गया था । तभी से ईसाइयत राजधर्म है । इसी से यहाँ की संसद (जिसे यहाँ की भाषा 'आसलथीन्गी' कहते हैं ) अधिवेशन के पूर्व सभी संसद सदस्य पहले चर्च में जाकर प्रार्थना करते हैं । तब संसद भवन में आकर कार्य करते हैं । हर सत्र में सभी संसद भवन में आकर कार्य करते हैं । हर सत्र में सभी संसद सदस्य एक जुलूस के साथ चर्च में जाते और जुलूस के साथ संसद भवन में प्रवेश करते हैं । तब भी यह देश धर्मनिरपेक्ष है । भारत की धर्म निरपेक्षता ने हिंदू विरोध में ही अपना अर्थ खोज लिया है । वास्‍तव में एक बार भारतीय संसद में हैं इस पर बहस होनी चाहिए तब हिंदुत्व में धर्मनिरपेक्षता का गुण है कि नहीं इस पर विचार-विमर्श हो । हमें तो पूरे यूरोप एवं दक्षिण अमेरिका भाव मिला है- पर भारत में 'छद्म धर्म निरपेक्षता' नहीं 'व्‍यर्थ धर्मनिरपेक्षता' या 'नाशात्‍मक धर्म निरपेक्षता' है- ऐसी मेरी धारणा बनती जा रही है करीब 50 देशों में घूमने के बाद ।

आइसलैंड में 1026 में श्री आइसगीसर सन 'प्रथम विशप' बने । 1030-1130 तक पूरे देश में ईसाइयत फैला। 1097 में 'ईसाइयत टैक्स' लागू हुआ जो आज तक है । हर व्यक्ति को इस देश में वह नौकरी या व्‍यापार करता है चाहे वह ईसाई के अलावा मुसलमान, पारसी, हिंदू यहूदी ही क्यों न हो उसको यह टैक्स देना पड़ता है । 1540 में न्यू टेस्‍टामेंट यहाँ की भाषा में छपा । 2000 वर्ष में आइसलैंड के ईसाई अपना सहस्राब्‍दी (एक हजार वर्ष) मनाने जा रहे हैं । वे अभी से तैयारी कर रहे हैं । कहीं-कहीं पोस्‍टर भी लगे हुए हैं ।

यहाँ की अर्थव्यवस्था 'मछली उत्पादन' एवं 'टूरिस्ट' पर निर्भर है । साग सब्जी पैदा कर लेते हैं । अन्य खेती नहीं । ग्रीष्मकाल में रात नहीं होती । दिन में ही लोग सोते हैं । दिन में ही उठते हैं । सोते समय काले परदे गिरा कमरे में रात बनाते हैं तो सोना होता है । पर यहाँ के लोगों की आदत बन गई है । शीतकाल में तो सब समय अंधेरा ही रहता है । यह उत्तरी ध्रुव के पास का देश है । इसके उत्तर में अन्य कोई देश नहीं है । अतः सुदूर उत्तर में उत्तरी ध्रुव के पास 'विश्‍व हिंदू परिषद' का गठन एवं 'गैरिक झंडे' को श्री अशोक सिंहल एवं श्री दत्तोपंत जी की उपस्थिति में फहरा कर मन-मंदिर में महान हर्ष है । यह भारत के अनन्य ऋषियों की साधना का फल है और अंतर्मन में विश्‍वास जगाता है कि पूरे विश्‍व में हिंदू धर्म की ऊँची पताका फहराने का सुअवसर अपनी पीढ़ी को अवश्य मिलेगा । यह भारत के 50 वें वर्ष की आजादी के स्वर्णिम महोत्सव की विशेष उपलब्धि रही । (स्वामी ब्रह्मदेव जी महाराज द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से साभार)

डरबन (दक्षिण अफ्रीका) का प्रवास

गत 7 जुलाई से 10 जुलाई (1995) तक दक्षिण अफ्रीकी समुद्र के किनारे से खूबसूरत शहर डरबन में विश्‍व हिंदू सम्‍मेलन हुआ जिसमें 31 देशों के लगभग 2 हजार प्रतिनिधियों ने हिस्‍सा लिया । 7 जुलाई को 'विश्‍व शांति के लिए हिंदू एकता' पर श्री राम भरोसे (दक्षिण अफ्रीका), श्री नमः शिवाय (श्री लंका), श्री ब्रह्मदेव उपाध्याय (हालैण्ड), श्री रमेश रामअवतार सिंह (सूरीनाम) ने विचार व्यक्त किए । धन्यवाद ज्ञापन के पूर्व इंग्लैंड के हरे कृष्ण मंदिर की रक्षा, विश्‍व के हिंदुओं की सुरक्षा, तथा धर्म परिवर्तन को रोकने के संबंध में प्रस्ताव पारित हुए । बैठक में विश्‍व हिंदू केंद्र की स्थापना पर भी बल दिया गया ।

8 जुलाई को डरबन विश्वविद्यालय वेस्तविलि के विशाल सभागार में कार्यक्रम आरंभ हुआ । जिसमें विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । डरबन विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभागाध्यक्ष डा. सीता राम ने सभी उपस्थित प्रतिनिधियों का स्वागत किया । इस कार्यक्रम में अमरीका से प्रो. शेषगिरी तथा भारत से सर्वश्री आचार्य गिरिराज किशोर, डा. मुरली मनोहर जोशी, दत्तोपंत ठेंगड़ी एवं प्रो. वेंकटाचलम ने भाग लिया ।

प्रो. शेषगिरी जो 'हिंदू धर्म-विश्वकोष' के संपादक हैं, ने उद्घाटन भाषण में कहा कि हिंदू धर्म वैश्विक संस्कृति है । दुनिया भर में आज 85 करोड़ हिंदू हैं । दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गाँधी का आदर्श प्रयोग एवं स्वामी विवेकानन्द द्वारा उत्तरी अमरीका में हिंदू शक्ति का जो गर्जन हुआ, उसी का परिणाम आज विश्‍व हिंदू सम्‍मेलन है ।

भारत के प्रख्यात विद्वान, मौलिक चिंतक एवं भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने एकात्म मानववाद के दर्शन पर आधारित 'तीसरा मार्ग-एक नए विकल्प की खोज' विषय पर अत्यंत सारगर्भित भाषण दिया, जिसे सुनकर उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध रह गए । उन्होंने कहा कि यह एक वैज्ञानिक दर्शन है । व्यक्ति का विस्तार ही ब्रह्मांड है । व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, मानवता एवं ब्रह्मांड-यह व्यक्ति-बिंदु का ही चक्रीय विस्तार है । (पाञ्चजन्य 23 जुलाई, 1995 अंक से साभार)



The Minister of State (Defence Production) in the Ministry of Defence

(Shri L.N. Mishra): If therr is job evaluation, it might result in retrenchment alslo.

खण्ड - 5

सोपान - 3

सोपान - 3 (लेख)

1. पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण- दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. देशाभिमानयुक्त लोकतंत्र-दत्तोपंत ठेंगड़ी'

3. 'को-वैदिस (Quo Vadis) शीर्षक से डॉ . एम . जी . बोकरे के ग्रंथ 'हिंदू इकोनामिक्स' की प्रस्तावना ....... दत्तोपंत ठेंगड़ी

4. असफल मार्क्स से सफल ठेंगड़ी जी तक दो भिन्न विचार दर्शनों का विवेचन- (From Failed Marx to Successful Thengadi ji-A Travel Through two Paradigms) ...... Saji Narayanan C.K

सोपान - 3

पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण

-दत्तोपंत ठेंगड़ी

इस देश के लोग सहज रूप से यह अनुभव करते हैं कि हम जिस सांस्कृतिक सम्पदा के प्राकृतिक उत्तराधिकारी हैं, वह समूची मानव जाति की धरोहर है और भारत का यह दायित्व है कि वह अपनी अद्वितीय संस्कृति के लाभ दूसरों को सुलभ कराये तथा उनके सर्वोत्तम तत्त्वों को स्वयं ग्रहण करे । हमने अन्य संस्कृतियों की स्वास्थ्यकर प्रवृत्तियों का सदैव स्वागत किया है । हम निरन्तर 'अन्य जातियों के साथ हितकर आदान-प्रदान' करते रहे हैं । हम सदैव 'एक सभ्यता की व्याख्या दूसरी सभ्यता के सम्मुख प्रस्तुत' करते रहे हैं और उनके बीच समान तत्वों को ढूँढने का प्रयास करते रहे हैं । हिंदुओं ने अपने अवचेतन मन में सदैव यह अनुभव किया है कि विश्‍व में कहीं भी किसी को होने वाला कष्ट समूची मानव जाति की सुख-शांति के लिए भयकारी है ।

भारतीय स्वाभाविक रूप से अंतरराष्ट्रीयतावादी है

हम लोग कभी भी पृथकतावादी नहीं रहे । प्राचीनतम काल से हम विभिन्न जातियों के लोगों से संपर्क स्थापित करते रहे हैं और उनके साथ सद्भावना एवं मित्रता के सेतुओं का निर्माण करने का प्रयत्न करते रहे हैं । बिल्कुल निकट भूत में भी, भारत ने अपने संतों, विद्वानों, सैनिकों वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, कलाकारों, शिल्पियों, व्यवसायियों-व्यापारियों, उद्योगपतियों और श्रमिकों को विदेशों में भेजा है, जो इसी उद्देश्य को सामने रखकर हमारे अनौपचारिक, सांस्कृतिक राजदूतों के रूप में निष्ठापूर्वक काम करते रहे हैं । हमलोग स्वभाव से ही अंतरराष्ट्रीयवादी हैं । हमारे राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता के बीच कोई परस्पर-विरोध नहीं है । मानव-चेतना की प्रगति के मार्ग में राष्ट्रवाद आदिम जातिवाद और मानववाद के बीच का सेतु है और स्वयं मानववाद विश्‍वजनीनता (यूनीवर्सलिज्‍म) की दिशा में एक बड़ा पग है।

विदेशी राष्‍ट्रवाद नहीं

किंतु इस विश्वजनीनता को अथवा धरती के यथार्थ पर उतरकर कहें तो अंतरराष्ट्रवाद को विदेशी राष्ट्रवाद से अर्थात विदेशों और विदेशी संस्‍कृति के प्रति दास भाव, राष्‍ट्रीय-आत्‍म-विस्तृति एवं मानसिक दासता से स्‍पष्‍ट भेद करके देखा जाना चाहिए ।

बुद्धिजीवियों की पूर्व-धारणाएँ

हमें भली-भाँति ज्ञात है कि हमारे बुद्धिजीवी पश्चिम पर किस प्रकार आसक्त हैं । उनके लिए पश्चिम की प्रत्येक वस्तु एक मानदंड है. हिंदुओं की कोई वस्‍तु मानक नहीं । उनके लिए शेक्‍सपियर ग्रेट ब्रिटेन का कालिदास नहीं है, न ही नेपोलियन यूरोप का समुद्रगुप्‍त है, किंतु सरदार पटेल भारत का बिस्मार्क है । 'गीता' को एक महान ग्रंथ होना ही चाहिए, क्योंकि एमर्सन ने ऐसा कहा है । शाक्त और तंत्र मत तिरस्करणीय नहीं होंगे, क्योंकि सर जान वुडरोफ उनका पक्ष पोषण करते हैं । नरेन्द्र और रवीन्द्र हमसे मान्यता कैसे प्राप्त कर सकते हैं, जब तक कि पहले पश्चिम के अधिकारी विद्वान उनकी योग्यता को स्वीकार न कर लें ? अन्य जातियों पर श्वेत जातियों के प्रभुत्व को उनकी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का निर्णायक प्रमाण माना जाना चाहिए । गुप्त राजाओं के शासन काल अथवा दक्षिण पूर्व एशिया में चीनी विस्तारवाद के विरुद्ध सात शताब्दियों तक एक सुदृढ़ प्राचीर के रूप में खड़े रहने वाले शैलेन्द्र साम्राज्य से संबंधित हिंदू इतिहास के स्वर्णयुगों का गुण-गान कौन करता है ? यह सब कोरी बकवास है-शेख चिल्ली की कहानियाँ हैं ये । अमेरिका के तट पर पहुँचने वाले हिंदू नहीं यूरोपीय थे । अतीत में हिंदू विज्ञान की प्रगति की सभी बातें मूर्खतापूर्ण हैं । यूराल के पूर्व में विज्ञान कैसे पनप सकता है ? यूरोपीय पुनर्जागरण के समय तक इतिहास रुका खड़ा रहा । संस्‍कृत मृत भाषा है; लेटिन समूचे ज्ञान का श्रोत है । भारतबर्ष के मूल निवासी आर्य जाति और भारतीय इतिहास के कालानुक्रम के बारे में पश्चिम सिद्धांत चाहे नितान्‍त काल्‍पनिक ही हो, किंतु उनकी सत्‍यता को कोई चुनौती नहीं दे सकता, क्‍योंकि उनकी उद्दघोषणा पश्चिमी विद्वानों द्वारा की गयी है । आप कौटिल्‍य की तुलना मैकियावेली से और हिंदू वि‍धि-निर्माताओं की तुलना पश्चिम के संविधान-विशेषज्ञों से कैसे कर सकते हैं ? यह दावा करना बेतुका है कि पतंजलि की अंतर्दृष्टि फ्रायड, जुंग और एडलर-तीनों की संयुक्त प्रज्ञा से श्रेष्ठ थी । यह कल्पनातीत है कि एक सामाजिक तत्त्ववेत्ता के रूप में समर्थ रामदास अपने यूरोपीय समकालीन विचारकों-जैसे हाब्स, लॉक, डेकार्ट, लाइब्नीज और स्प्निोजा-से कहीं आगे थे । सभी व्याधियों की औषधि केवल पश्चिम उपलब्ध करा सकता है । हमारी सामाजिक-आर्थिक अथवा राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए हमारे बुद्धिजीवी पश्चिमी सिद्धांतों से सहायता पाने के लिए भागते हैं । उन्हें अपनी स्वयं की संस्कृति से कुछ सीखना नहीं है; अपनी स्वयं की बुद्धि की प्रखरता पर वे भरोसा नहीं कर सकते । कोई सिद्धांत सत्य नहीं हो सकता, जबकि कोई पश्चिमी विद्वान ऐसा होने का प्रमाणपत्र न दे दे । यदि वे किसी पश्चिमी सिद्धांत से निराश हो जाएंगे तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करने के स्थान पर किसी अन्य पश्चिमी को ढूँढने चल पड़ेंगे । वे संभवतः यह तो मान ही सकते हैं कि मार्क्स, एडम स्मिथ, जे. एस. मिल, रिकार्डो और माल्थस पुराने पड़ चुके हैं, उन्हें वर्तमान परिस्थितियों में एल्फ्रेड मार्शल, विकेल, गुन्नार मिरडल और कीन्स की प्रासंगिकता पर भी संशय हो सकता है किंतु अपने राष्ट्रीय आवश्यकताओं के संदर्भ में स्वतंत्र चिंतन मनन न करने पर तो वे अडिग हैं । इसके स्थान पर वे प्रोफेसर रोस्टोव द्वारा प्रतिपादित आर्थिक विकास की पाँच अवस्थाओं के साथ अधिक अपनत्व

'अनुभव करेंगे और यह चर्चा करने में व्‍यस्‍त हो जाएंगे कि क्‍या हम तीसरी 'उड़ान की अवस्‍था' में पहुँच, जिससे उसके बाद 'परिपक्‍वता की ओर' की चौथी अवस्‍था को पार करके 'बहुमात्रा-उपभोग' की अवस्था में पहुंचा जा सके । यह प्रवृत्ति उनकी इस पूर्व-धारणा का स्वाभाविक परिणाम है कि 'पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण' है ।

औचित्‍य

अब इस पूर्व धारणा की प्रामाणिकता की परख करने का समय आ गया है ।

इसलिए "पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण' 'पर विचार करने के लिए इस गोष्ठी का आयोजन उचित ही है ।

"शब्द मार डालता है"

किंतु विषय पर चर्चा करने के पूर्व 'आधुनिकीकरण' और 'पश्चिमीकरण' शब्दों के अर्थ का स्पष्ट निर्धारण करना आवश्यक है । वाल्टेयर ने कहा था, "यदि तुम मुझसे वार्तालाप करना चाहते हो तो अपने शब्दों की परिभाषा दो" । किसी भी सार्थक वार्तालाप के लिए यह अत्यावश्यक है- विशेष रूप से उस समय, जब विचाराधीन विषय शास्त्रीय (Technical) हो और लोगों को शब्दों का प्रयोग अयथार्थ रूप में करने की आदत हो । सही चिंतन के लिए लोक-प्रचलित शब्दों के अत्याचार से मुक्त होना बहुत आवश्यक है, जिनका प्रयोग बड़े अस्पष्ट रूप में किया जाता है । अंग्रेजी भाषा के शब्द 'रेलिजन' का भारतीय भाषाओं में 'धर्म' अनुवाद करने से जो अनर्थ हुआ है, वह इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है । 'कम्युनिज्म' का अनुवाद 'साम्यवाद' किया जाता है, यद्यपि 'साम्यवाद' शब्द में कहीं भी 'कम्यून' का अर्थ प्रकट करने वाला कुछ नहीं है और 'कम्युनिज्म' में 'साम्य' का कोई भाव नहीं है । 'आस्तिक' और 'नास्तिक' शब्दों का अंग्रेजी के 'थीइस्ट' और 'ऐथीइस्‍ट' शब्‍दों में अनुवाद भी इसी श्रेणी में आता है । इस संस्‍कृत शब्‍दों का अर्थ है - श्रुतियों और स्‍मृतियों में विश्‍वास करने वाला या विश्‍वास न करने वाला व्‍यक्ति; इनका ईश्‍वर में विश्‍वास या अविश्‍वास से कोई संबंध नहीं है । 'माया' और 'मिथ्‍या' शब्‍दों का 'इलूजन' के रूप में त्रुटिपूर्ण अनुवाद इस प्रकार का एक अन्य सुपरिचित उदाहरण है । कालांतर में हम यह अवश्य अनुभव करेंगे कि 'हिंदुत्व' का सही अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द 'हिंदूनेस' है । अभी इन्हीं दिनों पंजाब के बारे में चल रहे सार्वजनिक विवाद में उर्दू शब्द 'कौम' को दो सर्वथा भिन्न अर्थ प्रदान किए गए हैं । आजकल भारत में प्रयुक्त हो रहा 'सेकुलर' का अर्थ है- 'इस संसार से संबंधित, लौकिक, जो पावन न हो, जो मठीय (मोनैस्टिक) न हो, जो पुरोहितों आदि से संबंधित न हो अनित्य, पार्थिव, साधारण।' सामाजिक विज्ञानों के विश्व कोष में कहा गया है, "दर्शन के क्षेत्र में सेकुलरिज्म को ईश्वरीय विद्या के और अंततोगत्वा तत्त्वमीमांसा के परम एवं सर्वव्यापक तत्त्व के विरुद्ध विद्रोह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है । राजनीतिक क्षेत्र में इसका अर्थ यह हो गया है कि कोई भी सांसारिक शासक स्वतः अपने अधिकार से शक्तियों का प्रयोग कर सकता है ।' दूसरे शब्दों में यह यीशुमसीह द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत का द्योतक है- "जो भगवान का है, वह भगवान को अर्पित करो और जो सीजर (शासक) का है, वह सीजर को दो" । इस प्रकार पंडित नेहरू 'सेकुलर' शब्द के प्रयोग से जो भाव व्यक्त करना चाहते थे, वह उस अर्थ से कुछ भिन्न था, जो संपूर्ण संसार में इस शब्द से सामान्यतः जाना जाता है । 'सेकुलर राज्य' होगा यद्यपि मैं इस शब्द का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ, और यदि किसी शास्त्रीय विषय पर सार्वजनिक वाद-विवाद में प्रयुक्त मुख्य शब्दों की स्पष्ट परिभाषा पहले से ही न कर दी जाए तो बात और भी अधिक उलझ जाती है ।

'आधुनिकीकरण'

क्या हम 'आधुनिकीकरण' की परिभाषा कर सकते हैं ? 'आधुनिक' का अर्थ है-'वर्तमान और अभिनव काल का' अथवा 'वर्तमान या अभिनव काल की विशेषताओं वाला' ।

रूढ़िगत रूप में, 'आधुनिकतावाद' शब्द का आशय है आधुनिक विचार अथवा पद्धति; धार्मिक विश्वासों के संबंध में, आधुनिक विचारों, शब्दों अथवा अभिव्यक्तियों के साथ परम्परा का सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति । दूसरे शब्दों में, इसका अभिप्राय है आधुनिक व्यवहार, अभिव्‍यक्ति अथवा विशेषता, आधुनिक मनोवृत्ति या स्‍वभाव; ईसाई मत के सिद्धांतों को विज्ञान के परिणामों और आलोचनाओं के अनुरूप समायोजित करने की प्रवृत्ति । आधुनिकीकरण का अर्थ वर्तमान समय, परिस्थितियों, आवश्‍यकताओं, भाषा, अथवा वर्ण-विन्‍यास के अनुसार ढलना, आधुनिक रीतियों को अपनाना ।

स्‍पष्‍टत: यह अर्थ यूरोप की विशिष्‍ट ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि का स्‍वाभाविक परिणाम् है । यह उस देश के संदर्भ में अप्रासंगिक हो जाता है, जहाँ कोई चर्च नहीं था, कोई संगठित पुरोहित वर्ग नहीं था, कोई धर्म-संप्रदायगत उत्‍पीड़न नहीं था और धार्मिक संप्रदायों तथा विज्ञानों के बीच कोई परस्‍पर विरोध नहीं था । इसलिए इतर-यूरोपीय देशों के लिए 'आधुनिकीकरण' का अर्थ केवल 'भविष्य में सर्वांगीण प्रगति की सुनिश्चित व्यवस्था करने के उद्देश्य से आधुनिक काल की समस्याओं को हल करने और चुनौतियों का सामना करने का साधन' होना चाहिए ।

पश्चिमीकरण की परिभाषा और 'पश्चिमीकरण' क्या है ?

मोटे रूप से इसका अर्थ है "पूर्वी लोगों अथवा देशों द्वारा पाश्चात्य जीवन के विचारों, आदर्शों, संस्थाओं, प्रणालियों, संरचनाओं, जीवन-यापन के मानदंडों और जीवन-मूल्यों को अपनाया जाना ।"

पश्चिमी अथवा पूर्वी

किंतु यह निर्धारित करना सरल नहीं है कि वस्तुत: 'पश्चिमी' क्या है । जहाँ तक मानवीय ज्ञान की निरंतर बढ़ती हुई सीमाओं का संबंध है, यह उल्‍लेखनीय है कि 'सत्‍य' की कोई जाति, कोई समुदाय, कोई दल कोई वर्ग, कोई राष्ट्र नहीं है । सत्य सदैव सार्वभौम होता है, यद्यपि यह हो सकता है कि ऐसे 'सत्य' को सर्वप्रथम प्राप्त करने वाले या उसका बोध करने वाले व्‍यक्ति किसी राष्‍ट्र-विशेष, या क्षेत्र विशेष के हों । उदाहरणार्थ, क्या कोई बता सकता है कि निम्नलिखित तत्त्व पश्चिम के हैं या पूर्व के ?

1. पाइथागोरस- जिसका उल्लेख अलेक्जेंड्रिया के राजा क्लीमेंट ने उस 'एक ब्राह्मण का शिष्य' बताकर किया था- का सुप्रसिद्ध प्रमेय ।

2. पश्चिम का परमाणु-सिद्धांत, जिसकी पूर्व-धारणा सहस्त्रों वर्ष पूर्व कणाद के परमाणुवाद में की गयी थी ।

3. हेगेल और मार्क्स का द्वंद्ववाद, जिसकी परिकल्पना सर्वप्रथम कपिल मुनि द्वारा की गयी थी, जिन्होंने इसे दर्शन के रूप में सूत्रबद्ध किया था ।

4. यह तथ्य की पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, सूर्य पृथ्वी के चारों ओर नहीं, जिसे कापरनिकस ने और कापरनिकस से एक सहस्र वर्ष से भी अधिक समय पूर्व आर्यभट्ट ने सिद्ध किया था ।

5. डेमाक्रेटस का भौतिकवाद, जिसका सर्वप्रथम सूत्र (असतो सत् अजायत्- असत् से सत् उत्पन्न हुआ) शताब्दियों पूर्व बृहस्पति द्वारा लिखा गया था ।

6. दिक्काल की वैज्ञानिक संकल्पनाएँ जिनकी व्याख्या आइंस्टाइन द्वारा की गयी और जिनका निरूपण सर्वप्रथम वेदांती दार्शनिकों द्वारा किया गया था ।

7. द्रव्य की वैज्ञानिक परिभाषा, जो आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम हाइजनबर्ग द्वारा और हिंदुओं को पतंजलि द्वारा दी गयी ।

8. दिक्-काल की सापेक्षता, ब्रह्मांड की एकता, दिक्काल का था और जिन्हें प्रमाणित इस शताब्दी में आइंस्टाइन द्वारा किया गया ।

9. वैज्ञानिक- दार्शनिक चिंतन की प्रक्रिया, जो नारदीय सूक्त के परमेष्ठि प्रजापति द्वारा प्रारम्भ की गयी और जिसे आइंस्टाइन द्वारा शिखर तक पहुँचाया गया ।

जैसा कि एच. जे. चेर्निशेवस्की ने कहा है, "आधुनिक विज्ञान की शाखाओं द्वारा जिन सिद्धांतों की व्याख्या की गयी है और जिन्हें सिद्ध किया गया उन्हें पहले ही यूनानी दार्शनिकों ने और उनसे भी बहुत पहले भारतीय मनीषियों ने प्राप्त करके सही मान लिया था ।"

सारा ज्ञान सार्वभौम है

सारांश यह किः समूचा ज्ञान सार्वभौम है; यह न पाश्चात्य है, न पौर्वात्य ।

विज्ञान की सभी शाखाओं और प्रौद्योगिकी पर भी यही बात लागू होती है । यह सच है कि पश्चिम में इस दिशा में प्रगति यूरोपीय पुनर्जागरण के बाद प्रारंभ हुई और इस समूचे मध्यवर्ती कालखंड में हम सामान्य गति से आगे नहीं बढ़ सके, जिसका एकमेव कारण यह है कि एक राष्ट्र के रूप में हम इस संपूर्ण अवधि में जीवन-मरण के संघर्ष में जूझ रहे थे; किंतु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि यूरोपीय पुनर्जागरण से पूर्व, जब यूरोप में अंधकार का युग था, हिंदू विज्ञान और हिंदू कलाएँ अरब देशों और फारस के मार्ग से यूनान पहुँची थीं । न्यूटन ने एक बार कहा था, "यदि मैं दूसरों से आगे देख सका हूँ तो इसका कारण यह था कि मैं महामानवों के कंधों पर खड़ा था ।

जो बात व्‍यक्ति के बारे में सत्‍य है वह राष्‍ट्र के बारे में भी उतनी सत्य हो सकती है । आज यूरोपीय महानायकों के कंधों पर खड़े होने के आकाँक्षी हैं; किंतु पश्चिम इन महामानवों को जन्‍म ही इस कारण दे सका था कि पुनजार्गरण-काल में यूरोप का समूचा बुद्धिजीवी वर्ग हिंदू महामानवों के कंधों पर खड़ा था इसलिए ज्ञान की किसी शाखा को 'पश्चिमी' अथवा 'पूर्वी' कहना अवास्‍तविक होगा । ज्ञान संपूर्ण रूप से सार्वभौम है ।

भ्रामक विभेद

इसी प्रकार पूर्व और पश्चिम के बीच के अंतर का वर्णन आस्था और अनास्था अथवा आस्तिकता और नास्तिकता के रूप में करना भी वास्तविकतापूर्ण नहीं होगा, यद्यपि यह सच है कि पश्चिम प्रधानतः भौतिकवादी है । भारत के आस्तिकों का पश्चिम के नास्तिकों से कोई झगड़ा नहीं है, क्योंकि उत्तरोक्त जन जिस ईश्वर की निंदा करते हैं वह उस ईश्‍वर से भिन्‍न है, जिसकी पूर्वोक्‍त जन उपासना करते हैं । उनका ईश्‍वर वैयक्तिक ईश्वर है, हमारा ईश्‍वर अवैयक्तिक, अनाम और निराकार है । चूँकि वह निराकार है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति की रुचि, प्रवृत्ति, आवश्यकता, मानसिक पृष्ठभूमि और बौद्धिक धरातल के अनुसार कोई भी आकार धारण करने अथवा न करने में वह असमर्थ है । अनाम है, इसलिए कोई भी नाम धारण करने या न करने में सक्षम है । अतएव, ईश्वर की धारणा पर उनके प्रहार से चिंतित होने की यहाँ कोई आवश्यकता ही नहीं है ।

इसके विपरीत, भौतिकवादी, दर्शन की इस घोषणा के बाद की चेतना भौतिक पदार्थ का चरम विकसित रूप है, और अभौतिक के बीच की सीमा-रेखा क्षीण से क्षीणतर और अब तो लगभग लुप्त होती जा रही है । हेनरी ग्रिस और विलियम डिक द्वारा लिखित 'द न्यू सोवियत साइकिक डिस्कवरीज' से भी इसी तथ्य का संकेत मिलता है । विशुद्ध भौतिक प्रकृति से प्रारम्भ करके नैसर्गिक प्रवृत्तियों, सहज बुद्धि और मनोवेगों सहित जैव विकास के माध्यम से मस्तिष्क के विकास, मेधा, तर्क और बुद्धिवाद तक या कि अतीन्द्रिय ज्ञान तक की वैचारिक यात्रा तथ्यात्मक हो या न हो, किंतु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पदार्थ और ऊर्जा की परस्पर-रूपांतरणीयता से पदार्थ अपनी आधारभूत प्रकृति को खो बैठा है और अब वह सदा वर्द्धनीय ब्रह्म के सैद्धांतिक आक्रमण का विषय बन गया है । इस पृष्ठभूमि में, यह सोचने की बात है कि क्या आस्तिकता और नास्तिकता के बीच की लड़ाई अब वस्‍तुत: उस खोखले शब्‍दों के ऊपर होने वाली लड़ाई नहीं है जो अपनी मूल अर्थवत्ता खो बैठे हैं ?

इसलिए, कुछ संप्रदाय-विशेषज्ञों द्वारा जो भेद दर्शाने का प्रयत्न किया जा रहा है, वह तर्क की कसौटी पर सही नहीं उतरता ।

मूलत: 'मानवीय'

नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ, मनोवेग, लालसाएँ, मनोभाव और अंतर्ज्ञान-मूलत: 'मानवीय' गुणधर्म हैं और इन्हें 'पश्चिमी' अथवा 'पूर्वी नहीं कहा जा सकता ।

तो यथार्थ में 'पश्चिमी' क्या है ?

संस्कृतियाँ भिन्न हैं

यद्यपि मानव-मन हर स्थान पर मूलतः एक जैसा ही है. फिर भी इस से इंकार करना अवास्तविक होगा कि अतीत में विभिन्न समाज भिन्न-भिन्न स्थितियों, ऐतिहासिक घटनाच्रकों से होकर आए हैं और इन बातों ने प्रत्येक समाज की सामूहिक चेतना पर गहरी छाप छोड़ी है । भूगोल और इतिहास इस अंतर के मुख्य कारण हैं ।

उदाहरणार्थ, भारत के बारे में विन्सेंट स्मिथ का कथन है कि "भारत जिस प्रकार समुद्रों और पर्वतों से घिरा हुआ है उससे यह निर्विवाद सत्य रूप से एक भौगौलिक इकाई है और इस प्रकार इसे एक ही नाम से पुकारना सर्वथा उचित है । उसकी सभ्यता की भी ऐसी बहुत-सी विशेषताएँ हैं जो उसे विश्व के अन्य सभी क्षेत्रों से भिन्न बनाती हैं; जबकि समूचे देश में ये विशेषताएँ इस सीमा तक समान रूप से विद्यमान हैं कि उसे मानव जाति के सामाजिक, धार्मिक और बौद्धिक विकास के इतिहास में एक इकाई मानने का पर्याप्‍त औचित्‍य है ।'' अन्‍य बातों के साथ-साथ, भौगोलिक-राजनीतिक कारणों से इन अंतरों के निर्माण में पर्याप्‍त योगदान मिलता है । इन सभी विशिष्ट कारणों से विभिन्न संस्कृतियों का निर्माण होता है ।

'संस्कृति' की परिभाषा

'संस्कृति' शब्द का अर्थ है किसी समाज के मानस पर पड़े प्रभावों की प्रवृत्ति जो उसकी अपनी विशेषता होती है और जो उसके संपूर्ण इतिहास में उसके मनोवेगों, मनोभावों, विचारों, वाणी और कार्यों का सम्मिलित परिणाम होती है । उदाहरणार्थ प्रभावों की यह प्रवृत्ति अरब मरुस्थल और गंगा के मैदानों के समाजों में, या जर्मनी में जो एक खुले मैदान में लगे शिविर के समान है, और इटली में, या एकाकी ग्रेट ब्रिटेन, आधुनिक अमरीका और प्राचीन भारत में समान नहीं हो सकती ।

निजी विशेषताएँ

आधुनिक पश्चिमी देशों की भी अपनी कतिपय सुनिश्चित विशेषताएँ । उदाहरण के लिए, प्रधानतः भौतिकवादी होने के कारण इन्होंने एक मूल्य-प्रणाली विकसित की है, जिसकी धुरी है उपभोगवाद और जिसकी सहज परिणति है स्वेच्छाचार ।

संस्कार -एक ऊपरी वस्तु ।

पश्चिम पर अभी एक न्यूटन युग के विज्ञान का प्रभाव है, इसलिए वह इस मिथ्या धारणा से चिपटा हुआ है कि मन पदार्थ के ऊपर की एक वाह्य संरचना है और आधारभूत वस्तु ही है । इस कारण, सामाजिक-आर्थिक संरचना ही वह आधारभूत वस्तु है, जिसकी ओर हमें अनन्य रूप से ध्यान देना चाहिए । सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में उपयुक्त परिवर्तन हो जाने पर धर्म, संस्कृति, नैतिकता, साहित्य, कलाओं, आदि में जो ऊपरी संरचनाएँ मात्र हैं, स्‍वयंमेव तदनुरूप समुचित परिवर्तन हो जाएंगे । मन की ओर विशेष रूप से ध्‍यान देने की आवश्‍यकता नही है; संस्‍कार ऊपरी वस्‍तु है । आधुनिक पश्चिमी विचार-प‍द्धति की एकमेव चिंता का विषय है-सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण; उनके पास मनोवैज्ञानिक परिवर्तन के विषय पर विचार करने का समय नहीं है, क्‍योंकि उनकी मान्‍यता है कि नयी सामाजिक व्‍यवस्‍था के अस्तित्‍व में आ जाने पर मानसिक परिवर्तन अपने-आप हो जाएगा।

मानव केंद्रवाद

मानव केंद्रवाद पश्चिम की एक अन्य विशेषता है । निस्संदेह, मानववाद स्‍वार्थ-केंद्रित व्यक्तिवाद से श्रेष्ठ है । प्रोटैगोरस ने घोषणा की कि "मनुष्य सभी वस्‍तुओं का मानदंड है ।'' मार्क्‍स का कथन था कि ''मनुष्‍य मानवता का मूल है ।" राय ने आध्यात्मिक रूप से स्वाधीन, नैतिक मनुष्यों के सामूहिक प्रयास द्वारा विश्व को स्वतंत्र मनुष्यों के संयुक्त समाज एवं बांधवता के रूप में पुनर्निर्मित करने का समर्थन किया था । यह सब कुछ प्रशंसनीय है । किंतु इसमें हमारी मानव जाति को संपूर्ण सृष्टि का केंद्र मान लिया गया है, तो कि सृष्टि की अन्‍य सभी मानवेतर जातियों और घटकों के प्रति अन्‍याय है । मानव केंद्रवाद को मैक्सिम गोर्की के नाटक 'द लोअर डेप्‍थस' में एक पात्र द्वारा यह कहकर यथार्थ अभिव्‍यक्ति दी गयी है कि ''सभी वस्‍तुएँ मनुष्‍य का अंश हैं; सभी वस्‍तुएं मनुष्‍य के लिए हैं ।'' ''मुनष्‍य ही सत्‍य है ।'' मनुष्‍य द्वारा मनुष्‍य का शोषण सहन नहीं किया जा सकता । हमने कुछ ही समय पूर्व 'मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र' तैयार किया है, परंतु मानवेतर प्राणियों के कोई अधिकार नहीं हैं । कहते क्‍या हैं कि हम जो कुछ है वह 'संस्‍कृति' है, और जो कुछ हमारे पास है वह 'सभ्‍यता' है ।

पश्चिमी मानववाद-पर्याप्त मानवीय नहीं

अपने विशिष्ट जीवन-मूल्यों के कारण, पश्चिम का मानववाद भी पर्याप्त रूप से मानवीय नहीं बन सका । पहली बात तो यह है कि यह ईश्वर-विरोधी और मानव-केंद्रित है और दूसरी बात यह कि एक ऐसे वातावरण का निर्माण यह नहीं कर सका, जो मनुष्यों में आपसी मेल-मिलाप को बढ़ाने में सहायक हो । द्वितीय विश्व-युद्ध से पूर्व कोई यह कल्पना नहीं कर सकता था कि मानव-अधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्र जैसा कोई प्रलेख कभी तैयार भी किया जा सकता है । संयुक्त राष्ट्रसंघ और मानव-अधिकारों संबंधी अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विभिन्न प्रतिज्ञापत्र एवं संकल्प अंतरराष्‍ट्रीय विधि के आधार पर हैं, जिसका स्वरूप, सच पूछा जाय तो, पूर्णतः विधिक होने की अपेक्षा नैतिक ही अधिक है । किंतु इस प्रयोजन से संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के संस्‍थापक ढाँचे के होते हुए भी सामान्‍यत: यह अनुभव किया जाता है कि मानव-अधिकारों, नागरिक-स्‍वतंत्रताओं और मूलभूत स्‍वाधीनतओं के स्‍तर में, और अंतरराष्‍ट्रीय सद्भावना के ठोस आधार पर लोगों के परस्‍पर-संबंधों में निहित है । और वांछित लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिए पश्चिमी रीति से केवल अधिकारों की बात करना भी पर्याप्‍त नहीं है । जॉन क्‍लीनिंग ने ठीक ही कहा है कि ''जब तक मानव अधिकारों के मान्‍यता के साथ-साथ, अन्‍य लोगों के प्रति, व्‍यक्तियों के रूप में प्रेम, सहानुभूति और चिंता नहीं होगी, तब तक अंतरराष्‍ट्रीय संबंधों में नैतिक अभाव बना रहेगा । किसी दूसरे के लिए केवल इसलिए कुछ करना कि यह उसका प्राप्तव्य है, नैतिक रूप से कुछ अपर्याप्त है । अन्य व्यक्तियों के अधिकारों से प्रेरित कार्य अनाम अथवा अवैयक्तिक बने रहते हैं; किंतु यदि ये कार्य दूसरे के प्रति प्रेम, सहानुभूति अथवा चिंता से प्रेरित होकर किए जाएंगे तो उनका केंद्रबिंदु दूसरे व्यक्ति-विशेष पर होगा । इस परवर्ती प्रकार के संबंध ही नैतिक रूप से पर्याप्त कहे जा सकते हैं । ये व्यक्ति-विशेष से संबंधित होते हैं, जबकि अधिकार जातिगत होते हैं ।" केवल 'अधिकारों' पर बल देना, पश्चिमी मूल्‍य-प्रणाली की अपनी विशेषता है ।

विखंडित दृष्टिकोण

इसके अतिरिक्त, पश्चिमी की चिंतन-प्रणाली सदैव खंडग्राही और उसकी कार्य-प्रणाली विखंडनकारी रही है । (द्वितीय विश्‍व-युद्ध के समय ही पश्चिमी वैज्ञानिकों ने अंतरराष्‍ट्रीय दृष्टिकोण की उपादेयता को अनुभव किया)। उन्‍होंने सभी घटनाओं के परस्‍पर संबंधों और अन्‍योन्‍याश्रय को नहीं समझा । इस परस्‍पर-संबंधित संसार में सभी भौतिक, जैविकी, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा पर्यावरणिक घटनाएँ परस्पर-निर्भर हैं । मानव-जाति के सम्मुख अनेक विविध समस्याएँ उपस्थित हैं, किंतु वे एक ही संकट के विभिन्न पक्ष हैं । जैसाकि एक विद्वान लेखक ने कहा है चाहे हम कैंसर, अपराध या प्रदूषण के बारे में बात करें अथवा नाभकीय ऊर्जा, मुद्रा-स्फीति और ऊर्जा की कमी के बारे में बात करें इन सभी समस्याओं में अंतर्निहित गति विज्ञान एक ही है । पश्चिम ने अभी तक इस आधारभूत तथ्य को हृदयंगम नहीं किया है उदाहरणार्थ, पश्चिमवासी अर्थ-शास्त्र को एक स्वतंत्र, स्वायत्त और शेष समष्टि से पृथक विषय मानते हैं । वे अपने परिमाणात्मक आर्थिक विश्लेषण को आर्थिक क्रिया-कलापों के पारिस्थितिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्षों को समझने में सहायक गुणात्मक तत्वों के साथ तथा आय-उपार्जकों, उपभोक्ताओं एवं निवेशकर्ताओं के रूप में लोगों के व्यवहार पर किए गए अभिनव मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के निष्कर्षों के साथ समाकलित नहीं कर पाते । अन्यान्य प्रकार के विकासों के संदर्भ और प्रकाश में विकास की अवधारणा को परिभाषित किए बिना 'विकास' के साथ उनका जो मोह है, उसके कारण अर्थशास्त्र संबंधी सभी पश्चिमी विचारधाराएँ अयथार्थवादी और अप्रासंगिक हो गयी हैं । जब शूमेकर ने नितांत भिन्न मूल्यों और लक्ष्यों पर आधारित दो आर्थिक व्यवस्थाओं की तुलना करके अर्थशास्त्र की मूल्य निर्भरता को सिद्ध किया था, तो इन अर्थशास्त्रियों को अवश्य धक्का लगा होगा । एक है पश्चिमी भौतिकवादी व्यवस्था, जिसमें 'जीवन-यापन-स्तर' को वार्षिक उपभोग की मात्रा से मापा जाता है और इसलिए जो उत्पादन अनुकूलतम पद्धति के साथ अधिकतम उपभोग प्राप्त करने का प्रयास करती है । दूसरी बौद्ध अर्थव्‍यवस्‍था है जो ''सम्‍यक् आजीव'' और ''मध्‍यम मार्ग'' की धारणा पर आधारित है और जिसका उद्देश्‍य उपभोग की इष्‍टतम पद्धति के साथ अधिकतम मानव-कल्‍याण करना है । यद्यपि पश्चिम विभिन्‍न भौतिक कारकों को निर्देशकों की कल्‍पना कर सका है, किंतु क्‍या वह मानवीय सुख-शांति और अन्‍य समाजिक या मनोवैज्ञानिक कारकों के निर्देशक तैयार करने में समर्थ हो सकेगा ? समस्त नहीं, केवल निदर्शनात्‍मक । ऊपर जिन बिंदुओं का उल्लेख किया गया है, वे उदाहरण मात्र हैं, समस्‍त नहीं । किंतु वे यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि पश्चिम की भी अपनी विशिष्‍टताएँ हैं ।

अव्यावहारिक

क्या 'पश्चिमीकरण' का अर्थ इन सभी विशिष्ट बातों में पश्चिम का अंधानुकरण करना है ?

और यदि हम संपूर्ण गंभीरता से पश्चिम का अंधानुकरण करना भी चाहें तो क्या यह हमारे लिए व्यावहारिक होगा?

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने, जिन्होंने एक बार कहा था, "अपनी वस्तु को ठुकराकर विदेशी वस्तु की याचना करना निरर्थक भिक्षावृत्ति है" और साथ ही यह भी कहा कि "विदेशी को अस्वीकार करके अपने आपको बौना बताना घोर दरिद्रता है", भारत द्वारा पश्चिम का अनुकरण किए जाने की निंदा की थी । उन्होंने कहा था कि "परानुकरण अपने अस्थि-पंजर पर दूसरे की त्वचा चढ़ाने के समान है, जिससे त्वचा और अस्थियों के बीच निरंतर कलह होता रहेगा ।'' यह अव्यावहारिक भी होगा और असहनीय भी ।

यथास्थितिवाद ?

जैसे ही कोई व्‍यक्ति ऐसे विचार प्रकट करता है, तो हितबद्ध पक्षों द्वारा उसकी निन्‍दा यथास्थितिवादी कहकर की जाती है । यह नहीं अनुभव किया जाता कि हमारे अधिकांश समाज-सुधारक उत्‍कट देशभक्‍त थे और वे पश्चिमीकरण के बिल्‍कुल पक्ष में नहीं थे । पश्चिम का अनुकरण किए बिना भी प्रगतिवादी हुआ जा सकता है । ये दो भिन्‍न-भिन्‍न प्रक्रियाएँ हैं जो कभी-कभी परस्‍पर-व्‍यापी हो जाती हैं । उदाहरण के लिए, सऊदी अरब के शाह फहद ने, जो मक्का और मदीना में स्थित इस्लाम के पवित्र स्थानों के संरक्षक हैं, 7 जून, 1983 को कहा था कि इस्लामी विधानों (शरियत) को समयानुकूल बनाने के लिए उन्‍हें संशोधित किया जाना चाहिए । मक्‍का में इस्‍लामी पंथ-गुरुओं के अंतरराष्‍ट्रीय सम्‍मेलन के खुले अधिवेशन में उन्‍होंने जो सुझाव दिया था वह क्रांतिकारी था, किंतु वह उनके सामने अफगानिस्‍तान के शासक अमानुल्‍ला, ईरान के शाह अथवा तुर्की के गाजी मुस्‍तफा कमाल पाशा के उदहारा प्रस्‍तुत नहीं कर रहे थे । भारत में आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, सत्‍यशोधक समाज, हरिजन सेवक संघ, भारतीय आदिम जाति संघ, द्रविड़ कड़गम, नेशनल चर्च मूवमेंट, अनुसूचित जाति संघ, एम.एन.डी.पी. अथवा मुस्लिम सत्‍य शोधक समाज को पाश्‍चात्‍य के बिना क्रांतिकारी सुधारवाद के ज्‍वलंत उदाहरण के रूप में प्रस्‍तुत किया जा सकता है ।

शुतुरमुर्ग की भाँति का पृथक्तावाद ?

अनुकरण करने से इंकार करने पर एक अन्य कारण से भी आपत्ति की जा सकती है और भ्रम पैदा हो सकता है । इसका भ्रांत अर्थ शुतुरमुर्ग की भाँति का पृथक्तावाद अथवा पश्चिम के विरुद्ध अयुक्तिसंगत पूर्वाग्रह लगाया जा सकता है । इस तथ्य को देखते हुए इस बात की संभावना और भी अधिक है, जैसा कि गुन्नार मिरडल ने अपनी पुस्तक 'एशियन ड्रामा' में कहा है, "स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् भूतपूर्व औपनिवेशिक देशों के साथ निकट संबंधों की रक्षा की गयी और कुछ दृष्टियों से उनमें और प्रखरता लायी गयी ।'' किंतु, वास्तव में, यह भ्रम निराधार है । हमें पश्चिमी लोगों के प्रति द्वेष नहीं है । हम एनी बेसेन्‍ट, भगिनी निवेदिता, रोमां रोलां, अरविंद आश्रम की 'श्री माँ', मीरा बेन, फेन्‍नर ब्रॉकवे, अरुंडेल, एल्विन आरनोल्‍ड टायनबी, लुई फिशर, अल्‍बर्ट श्‍वाइट्जर, मैक्समूलर, शॉपेनहावर, गारबे, विंटरनिट्ज और अन्य ऐसे बहुत से लब्ध -प्रतिष्‍ठ व्‍यक्तियों के नामों को अति कृतज्ञता के साथ स्‍मरण करते हैं, जिनका भारत और उसकी संस्‍क‍ृति के प्रति प्रेम हमारी परीक्षा और कठिनाई की घड़ी में हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है । दलित राष्‍ट्रों के कुछ यशस्‍वी नेता, जैसे जोमो केन्‍याता, सीजर स्‍कैवेज, मार्टिन लूथर किंग, सिसली के गाँधी के रूप में अभी-अभी विख्‍यात हुए डैनिलो डोलनी और फिलीपीन के बेनिग्‍नों 'निनोय'-एक्विनी गाँधीवादी विचाराधारा और कार्य-प्रणाली के प्रति अपनी आस्‍था के कारण भारत की जनता के प्रीति भाजन बन गए हैं तो यह एक सर्वथा अलग बात है । इसका पश्चिम के अंधानुकरण की समस्‍या से कोई संबंध नहीं है । किंतु क्‍या 'पश्चिमीकरण' शब्‍द का निहितार्थ ऐसा अनुकरण है ? अथवा इसका आशय कुछ भिन्‍न है ? कभी-कभी विशिष्‍ट संदर्भो या स्थि‍तियों में कुछ अर्थ विकसित हो जाते हैं ।

आशय

द्वितीय-विश्वयुद्ध के बाद के अंतरराष्‍ट्रीय घटनाचक और विकसित तथा विकासशील देशों के पारस्परिक संबंधों की समस्याओं के कारण 'पश्चिमीकरण' शब्द को एक विशिष्ट रंगत प्राप्त हो गयी है, उस पर एक विशिष्ट अर्थ आरूढ़ हो गया है । अब यह मात्र एक पुस्तकीय शब्द नहीं रहा है, वरन् इसके तात्कालिक व्यावहारिक फलितार्थ हैं ।

'पश्चिमीकरण'

जब 'पाश्चात्यवाद' शब्द का प्रयोग किया जाता है तो अभिप्राय होता है पश्चिमी संस्कृतियाँ और पश्चिमी प्रतिमान तथा जब हम 'पाश्चात्यकरण' के साथ, अथवा उसके बिना, 'आधुनिकीकरण' की बात करते हैं, तो हम वास्तव में यह प्रश्न उठाते हैं कि पश्चिमी प्रतिमान (पैराडाइम) को प्रगति और विकास का सार्वभौम आदर्श (माडल) स्वीकार किया जाना चाहिए अथवा नहीं।

'होमो फेवर' की भाषा में, क्‍या हमें आधुनिकता के आदर्शों और आधुनिकीकरण की प्रक्रियाओं एवं अनुक्रमों को पश्चिमी राष्ट्रों के अनुभव तक सीमि‍त रखना चाहिए? क्‍या हमें विस्‍तृत और विविध समाजों को एक ही ऐतिहासिक साँचे में संकुचित कर देना चाहिए ? हो सकता है कि भावी इतिहास भी अतीत के अनुसार ही घटित हो, किंतु क्या आवश्‍यक है कि वह पश्चिम के अतीत के अनुसार घटे ? अधिक हितकर विज्ञान के प्रयोजन से भी, क्‍या यह सर्वोत्तम नहीं होगा कि सामाजिक और समाज-शास्‍त्रीय कल्‍पनाओं की कोई सीमाएँ निर्धारित न की जाएं ? अत: 'पश्चिमीकरण' का आशय है, पश्चिमी प्रतिमान को प्रगति का सार्वभौम आदर्श स्वीकार करना । जिस प्रकार सही निदान अथवा उपचार होता है, उसी प्रकार प्रश्न की उपयुक्त रचना से उत्तर ढूँढने में पर्याप्त सहायता मिलती है ।

प्रासंगिकता

हममें से कुछ संभवतः यह सोच रहे होंगे कि हिंदुओं के इस देश में, जिनके पूर्वजों ने सभी दिशाओं से सद्विचारों का स्वागत किया था और 'पृथिव्यैः समुद्रपर्यंताम् एकराष्ट्र' की घोषणा की थी, यह सारी चर्चा अप्रासंगिक है। हिंदुत्व की, जो इसके अनुयायियों को शेष मानव-जाति से अलग बनाता है, कतिपय विलक्षण और अद्वितीय विशेषताएँ भारत ने सदैव अंतरराष्‍ट्रीयतावाद का समर्थन किया है । आधुनिक विश्व में अंतरराष्‍ट्रीयतावाद के सही स्वरूप समझना उत्तरोत्तर कठिन होता जा रहा है, क्योंकि विभिन्न प्रकार की परा-राष्ट्रीय मतांधताएँ और सांप्रदायिकताएँ अंतरराष्ट्रीयतावाद के वेश में विश्व-मंच पर बार-बार प्रकट हो रही हैं । वस्‍तुत: विश्‍ववाद हिंदुत्व की एक सुस्‍पष्‍ट विशेषता है । इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर की रचना 'प्रवासी' सहज स्‍मरण हो आती है, जिसमें उन्‍होंने कहा था- ''मेरा घर सर्वत्र सभी स्‍थानों पर, लक्ष्‍य वही है मेरे अन्‍वेषण का । मेरा देश सभी देशों में, मुझको करना है संघर्ष उसे पाने का ।।''

(प्रसंगवश एक उल्‍लेख कर दूँ-युवा पीढ़ी को कदाचित् यह विदित न हो कि मानव-अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के संकल्‍प से पर्याप्‍त पूर्व 1921 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर और रोमां रोलां ने एक संयुक्त वक्तव्य प्रकाशित किया था, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के इस प्रलेख का अग्रज था ।)

जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है, "भारत का उद्देश्य अनेकता में एकता को ढूँढना रहा है, परंतु (विशेषतासूचक) भेदों को मिटाकर नहीं, वरन् (उन) भेदों को बनाए रखते हुए और उनमें समन्वय स्थापित करके । अनेकों में एक का दर्शन करना और विविधता में एकता स्‍थापित करना इसका आधारभूत प्रयोजन रहा है । अनेकता में एकता देखने के अभ्‍यस्‍त होने के कारण, हिंदू किसी भी क्षेत्र के नए विचारों और संरचनाओं को अपने अनुकूल ढालने में तथा उन्‍हें अपने राष्‍ट्र-जीवन में आत्‍मसात् करने में सिद्धहस्‍त है । उन्‍होंने यह अनुभव कर लिया था कि भव्‍यता से जीवित रहने का मूल्‍य है निरंतर आत्‍मनवीनीकरण । सृष्टि के शाश्‍वत नियमों के प्रकाश में, अब से ग्‍यारह शताब्‍दी पूर्व तक उनकी सामाजिक व्‍यवस्‍था निरंतर परिवर्तनशील रही । नीतिकारों द्वारा रचित विभिन्‍न स्‍मृतियों के माध्‍यम से, संश्‍लेषण की प्रक्रिया द्वारा पुरानी व्‍यवस्‍था में समय-समय पर परिवर्तन होता रहा और नयी व्‍यवस्‍था पुरानी व्‍यवस्‍था में स्‍थान लेती रही । वैलेण्‍टीन किरोल तक ने कहा कि हिंदू धर्म सदैव असाधारण रूप से तरल बना रहा और ''इससे इसके अंतर्गत परस्‍पर न्‍यूनतम से अधिकतम तक अंतरों वाले भिन्‍न-भिन्‍न मत मतांतरों को पनपने में सहायता मिली, जिनमें से कुछ विशुद्ध रूप से ईश्‍वरवादी थे तो कुछ घोर अनीश्‍वरवादी, किंतु प्राय: ही उनकी परिणति सर्वेश्‍वरवाद (यूनिवर्सल पैन्थिइज्‍म) में हुई । इसी विशेषता के कारण मैक्‍समूलर को यह कहने की प्रेरणा मिली: ''यदि मुझसे पूछा जाए कि मानव मन ने किस आकाश के नीचे अपने सर्वोतम गुणों का सर्वाधिक विकास किया है, जीवन की सबसे बड़ी समस्‍याओं पर पूर्ण चिंतन-मनन किया है और उनमें से कुछ का समाधान पर लिया है, जो उन व्‍यक्तियों के ध्‍यान के भी पात्र हैं, जिन्‍होंने प्‍लेटो और कांट के दर्शन का अध्‍ययन किया है, तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा । यदि मैं अपने आप से पूछूं कि हम यूरोपवासी किस साहित्य से ऐसी शिक्षा ले सकते हैं, जो हमारे जीवन को अधिक पूर्ण, अधिक विश्‍वजनीन और वस्‍तुत: अधिक मानवीय बनाने के लिए सर्वाधिक आवश्यक है तो मैं पुनः भारत की ओर संकेत करूँगा ।'' हिंदुओं का, जिनका देश, मैक्‍समूलर के अनुसार यूरोपीय भाषाओं और यूरोपीय धार्मिक संप्रदायों का आदि स्रोत रहा है और उनके चिंतन-मनीषी 'इस्‍लामी शरीर में हिंदू आत्‍मा' अथवा 'भारतीय आत्‍मा और पश्चिमी द्रव्‍य के संश्‍लेषण' की बात कर सकते हैं, पश्चिम की किसी वस्‍तु को अंगीकार करने में भला घबराहट क्‍यों होगी ? क्‍या हमारे आधुनिक द्रष्‍टा ने यह नहीं कहा है, ''उच्‍चतम ओर महत्तम लक्ष्‍य की प्राप्ति में पूर्व और पश्चिम का समन्‍वय किया जा सकता है; आत्‍मा भौतिक तत्‍व को अंगीकार करे और भौतिक तत्‍व अपनी सच्‍ची और प्रच्‍छन्‍नन वास्‍तविकता को आत्‍मा में ढूंढे'' ?

न सरल है न निर्दोष

हमें स्पष्ट रूप से यह समझ लेना चाहिए कि पाश्चात्यकरण की प्रक्रिया न इतनी सरल है और न ही निर्दोष । अतीत में हमने विदेशी संस्कृतियों, संरचनाओं और प्रणालियों में जो कुछ अच्छा देखा उसे अपने अनुकूल ढालकर और आत्मसात करके अपने सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय व्यक्तित्व को सदैव समृद्ध किया और सुदृढ़ बनाया है । किंतु हर बार यह प्रक्रिया आत्मसात् करने की प्रक्रिया रही है । इसके विपरीत, 'पश्चिमीकरण' की अवधारणा का निहितार्थ है अपनी सांस्कृतिक अस्मिता और राष्ट्रीयता व्यक्तित्‍व को खो बैठना; इसका अभिप्राय है विदेशी संस्‍कृति द्वारा हमें आत्‍मसात् कर लिया जाना और उसमें हमारा विलीन हो जाना । यदि पश्चिम के पास कोई अच्‍छी वस्‍तु हमें बेचने के लिए हो भी, तो क्‍या हमें अपने व्‍यक्तित्‍व का मूल्य चुकाकर उसे खरीदना चाहिए ? यीशु मसीह ने पूछा था, ''यदि तुम्‍हें पृथ्‍वी का शासन मिल जाए, पर उस व्‍यापार में तुम अपनी आत्‍मा खो बैठो, तो उसका क्‍या लाभ ?'' वर्तमान संदर्भ में भी यह प्रश्‍न उतना ही संगत है । आत्मसात्करण ? स्वीकार है । पर व्यक्तित्व गँवाना ? स्वीकार नहीं । किंतु 'आत्‍मसात्करण' 'पाश्‍चात्‍यकरण' की प्रक्रिया को नकारता है । हमारी चर्चा का केंद्र-बिंदु है 'पाश्‍चात्‍यकरण' की समस्‍या ।

व्‍युत्‍पत्ति

इस सबकी व्युत्पत्ति क्या है ?

इतिहास ने अनेक साम्राज्यों का उत्थान और पतन देखा है । प्रत्येक साम्राज्य के चरमोत्कर्ष के समय उसकी सभ्यता उसके अधीनस्थ राज्यों द्वारा आदर्श मानी जाती थी । उसके पतन के बाद उसकी सभ्यता कुछ दशकों में अपनी चमक-दमक खो बैठी थी । पर श्वेत जातियों के साम्राज्यवाद की समाप्ति की विशेषताएँ ये हैं: (1) इसके भूतपूर्व उपनिवेशों में बौद्धिक एवं वैचारिक क्षेत्र पर इसकी पकड़ बनी रही है, जो साम्राज्य के दिनों में मस्तिष्क-प्रक्षालन के लिए किए गए प्रचार का स्वाभाविक परिणाम है और (2) साम्राज्यवादी देशों द्वारा इन देशों की अर्थ-व्यवस्थाओं को अपने पाश में जकड़े रखने तथा उसे और सुदृढ़ करने के लिए दृढ़ निश्चयपूर्वक प्रयत्न किया जाना, जिसके कारण उत्तरी श्वेत देशों और दक्षिणी अश्वेत देशों के बीच, जो गुट-निरपेक्ष आदोलन के अंग हैं, एक प्रकार की रस्साकशी प्रारंभ हो गयी है ।

मैकाले की सफलता

भारत में 'श्वेत मानव के दायित्त्व-भार' का विचार हिंदू बुद्धिजीवियों से मनवाने, उनके मन में हीनता की भावना पैदा करने और उनसे यह स्वीकार कराने में मैकाले के प्रयास सफल हो गए कि यूरोपीय सभ्यता ही उच्‍च स्‍तरीय और आदर्श सभ्‍यता है । हमें यह बताया गया कि विश्‍व के प्रत्‍येक समाज या जाति के लिए विकास की उन अवस्‍थाओं में से पार होना आवश्‍यक और अनिवार्य है, जो यूरोपीय इतिहास की विशेषताएं हैं । प्रत्‍येक भारतीय स्थिति को यूरो‍पीय मानदंडों से मापा जाना चाहिए, इसमें कोई परित्राण नहीं है, क्‍योंकि, हमें बताया गया, यूरोपीय प्रतिमान की प्र‍गति और विकास का सार्वभौम आदर्श है ।

बढ़ता हुआ संशय

अब तो यह भी संदेहास्पद है कि पश्चिमी प्रतिमान से पश्चिमीवासियों को अपने चिरवांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सहायता मिल सकती है या नहीं अपने प्रतिमान की उपादेयता के बारे में पश्चिम में भी संशय बढ़ता जा रहा है । अब वे लोग अनुभव कर रहे हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की चकाचौंधपूर्ण उन्नति वस्तुतः एक अमिश्रित वरदान नहीं है । पारिस्थितिकीय तत्त्वों या भावी पीढ़ियों की नियति पर ध्यान दिए बिना, प्रकृति के साथ जो बलात्‍कार किया जा रहा है, वह अब उल्‍टा परिणाम दिखाने लगा है । अब उन्हें आशंका होने लगी है कि तदनुरूप सांस्‍कृतिक उत्‍थान के बिना औद्योगिक विकास मानवजीवन को संपूर्ण विनाश की ओर ले जा सकती है ।

रोग

इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने उन सभी व्याधियों-विकारों को पहचान लिया है, जिनसे उनके समाज पीड़ित हैं । दीर्घकालिक और क्षयकारक 'सभ्यता के रोग', जैसे-हृदय-रोग, रक्त-चाप, कैंसर, एस.टी.डी. आदि; घोर अवसाद, उन्माद रोग और अन्य मानसिक विकार; हिंसक अपराधों, आत्महत्याओं, दुर्घटनाओं, मद्यपान, और अन्य मादक वस्तुओं के व्यसन में वृद्धि; ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कोयले, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, धातुओं, वनों, मीन-भंडारों, आक्सीजन, ओजोन आदि की तीव्र गति से समाप्ति; प्राकृतिक पर्यावरण का नष्ट होना, जिससे न केवल मनुष्यों पर अपितु पौधों, पारिस्थितिकीय प्रणालियों तथा विश्व की जलवायु पर कुप्रभाव पड़ रहा है और फलतः समूचे भू-मंडल पर 'प्रदूषित वायु का मलिन आवरण' छा गया है; मुद्रास्फीति की ऊँची दर, व्यापक बेकारी और धन का कुवितरण; लाखों नाभिकीय शस्त्रास्त्रों का संग्रह, जिस पर संसार का एक अरब डालर प्रतिदिन से भी अधिक व्‍यय हो रहा है-ये सब वे विकार हैं ।

'प्रौद्योगिकीय लोकायोग ' (औम्बड्समैन)

कुछ पश्चिमी वैज्ञानिकों का सुझाव है कि पश्चिम में प्रौद्योगिकी के और आगे विकास को नियंत्रित करने, उसके बारे में मार्ग-दर्शन प्रदान करने और निर्देश देने के लिए 'प्रौद्योगिकीय लोकायोग' की स्थापना की जानी चाहिए, जिसमें उच्च सांस्कृतिक स्तर के व्यक्ति सम्मिलित किए जाएं ।

अग्राह्य मूल्य

इस तथ्य की उपेक्षा करते हुए कि पश्चिम में अभी हर वस्तु प्रयोग की अवस्था में है और अभी समय की कसौटी पर उसका परीक्षण नहीं हुआ है, हमने उनके जीवन-मूल्यों की, जो भौतिकवाद, उपभोक्तावाद (यदि वस्तुतः भोगवाद नहीं), मानव केंद्रवाद और विशुद्ध व्यक्तिवाद पर आधारित हैं, सराहना और प्रशंसा करने की शीघ्रता की । अब यह अनुभव किया जा रहा है कि ये वही जीवन-मूल्य हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका में, जहाँ एकांकी और आत्म-विमुख व्यक्तियों की भारी भीड़ है, व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन के विघटन एवं छिन्न-भिन्न होने के लिए उत्तरदायी हैं । उनकी जीवन-प्रणाली में क्षय और गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे हैं ।

पूँजीवाद का सुखाभ्यास

'द वेल्थ ऑफ नेशन्स' पूँजीवाद के नए युग के सुखाभ्यास का द्योतक है । पूँजीवाद के एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरक्षक, जॉन मेनार्ड कीन्स, अब कहने लगे हैं, ह्रासमान अंतरराष्ट्रीय किंतु व्यक्तिवादी पूँजीवाद, जिसके हाथों में हमने अपने-आपको युद्ध (प्रथम विश्वयुद्ध) पश्चात् पाया, सफल नहीं हुआ । यह बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं, यह न्यायसंगत नहीं, यह सद्गुणयुक्‍त नहीं-और इससे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । संक्षेप यह है कि हमें इससे अरुचि है और हमने इसका तिरस्‍कार करना प्रारंभ कर दिया है ।"

पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र

पश्चिम संसदीय लोकतंत्र की विफलता स्‍पष्‍ट है । अलेक्जेडर सोल्जेनित्सिन ने ठीक ही कहा है कि" आज पश्चिमी लोकतांत्रिक देश राजनीतिक संकट और आध्यात्मिक विभ्रम की अवस्‍था में हैं । दलीय प्रणाली के संबंध में उनकी निराशाजनक टिप्पणी उनके इस सुसंगत प्रश्‍न में व्यक्त होती है- "क्या राष्ट्रीय विकास का कोई राष्ट्रीय रूप दल-वाह्य अथवा नितांत-दल-विहीन मार्ग नहीं है ?

हमारे देश में महात्मा गाँधी, श्रद्धेय श्रीगुरुजी, आचार्य विनोबा जी, लोकनायक जयप्रकाश जी और अन्य महान् विचारक पहले ही इस पश्चिमी प्रणाली के प्रति अपना संशय प्रकट कर चुके हैं । श्री मानवेन्द्रनाथ राय, जो सभी पश्चिमी संस्थाओं के अधिकारी विद्वान् थे, अपने 22वें शोध-प्रबंध और घोषणा-पत्र में प्रतिपादित सिद्धांतों के प्रकाश में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि दलीय राजनीति लोकतंत्र के आदर्शों के अनुरूप नहीं है और इसके सत्ता-राजनीति के रूप में भ्रष्ट हो जाने की संभावना रहती है । परमाण्वीकृत निर्वाचक-गुणों पर आधारित औपचारिक संसद वाद की सीमाओं के अंदर नागरिकों को व्यक्ति के रूप में पूर्ण गरिमा के साथ खड़े होने की शक्ति नहीं प्रदान की जाती । श्री राय की मान्यता थी कि वैसा तभी किया जा सकता है, जब राज्य की पिरामिडीय संरचना सुसंगठित स्थानीय लोकतंत्र की नींव पर खड़ी की जाए और राज्य का संपूर्ण समाज के साथ तादात्म्य हो । पश्चिम के निष्पक्ष विचारक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं ।

समाजवाद की सफलता ?

यह बताना कठिन है कि पश्चिम में समाजवाद कहाँ पर और किस रूप में सफल हुआ है । जैसा कि सी.ई.एम. जोड ने कहा था, समाजवाद एक ऐसा टोप (हैट) है जो अपना स्‍वरूप खो बैठा है, क्योंकि हर व्यक्ति इसे पहनता है और तो और, पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र और श्रमिक संघवाद के पालने (शिशु-शय्या) में भी, समाजवाद ने जन-मानस में अपना आकर्षण और पकड़ खो दी है, यह श्रीमती थेचर की गत दिनों की विजय से स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त, 'वैज्ञानिक समाजवादियों' के अनुसार तीसरे विश्‍व के देशों के लिए समाजवाद अप्रासंगिक है, क्‍योंकि आर्थिक बाहुल्‍य समाजवाद की एक आवश्‍यक पूर्व-शर्त है । मार्क्‍स ने 'जर्मन आइडियोलोजी' में लिखा था, '' (समाजवाद के लिए) व्‍यावहारिक आधार के रूप में उत्‍पादक शक्तियों का विकसित होना नितांत आवश्‍यक है ।'' और सर्वाधिक आर्थिक बाहुल्‍य वाले देश संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में समाजवादियों की कुल संख्‍या 10,000 से अधिक नहीं है ।

कम्युनिज्म की विफलता

कम्युनिज्म भी, जो स्वयं को एक श्रेष्ठ विकास के रूप में प्रस्तुत करके सामने आया था, बुरी तरह से विफल रहा है । हम यह केवल इसलिए नहीं कह रहे हैं कि मार्क्स की कुछ भविष्यवाणियाँ सच सिद्ध नहीं हुई हैं । हम जानते हैं कि किसी सिद्धांत की तर्क-संगति का निर्धारण करने की एकमेव कसौटी भविष्यवाणियों का सच होना या न होना नहीं है । हम एण्टोनियो ग्रामस्की, जीओर्जी लूकास और माओत्से तुंग की इस बात से सहमत हैं कि भविष्य का पूर्वानुमान ठीक न लगा पाने से मार्क्सवाद की तर्कसंगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । हम इस तर्कसंगति का मूल्यांकन इसके गुण-दोषों के आधार पर कर सकते हैं ।

1948 में युगोस्लाविया की निंदा; पूर्वी जर्मनी (1953), हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया (1968), और अफगानिस्तान (1979) में रूसी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन; पोल्लिट, गोल्लन, तोग्लियात्ती, लोंगो, बरलिंगुएर, कैरिल्लो और यूरो-कम्युनिज्म के अन्य नेताओं द्वारा विश्व की स्थिति का नए परिप्रेक्ष्य में अवलोकन; एक-केंद्रीय कम्युनिस्ट विश्व के स्‍वप्‍न का भंग होना; सत्‍ताधारी कम्‍युनिस्‍ट दलों द्वारा मार्क्स के आधारभूत सिद्धांतों से विचलन; कोस्‍टलर, जिलास, राय डेब्रे और अन्‍य आदर्शवादियों द्वारा कम्‍युनिस्‍ट विचारधारा का त्‍याग; पोलैंड और अन्‍य पूर्व-यूरोपीय (कम्युनिस्ट) देशों में श्रमिकों का विद्रोह; इटली और स्पेन के कम्युनिस्ट दलों के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रकट निराशा तथा दुविधाग्रस्त नव-वामपंथियों का प्रतिक्रियावादी उदय-ये सभी कम्युनिज्म के क्षय के सुस्‍पष्‍ट संकेत हैं, यद्यपि जिस भवन के बनने में डेढ़ सौ वर्ष लगे हैं, उसके पूर्णत: धराशायी होने में कुछ और समय लगेगा ।

अन्‍वेषण

पश्चिम के थोड़े से, किंतु अधिक विवेकशील व्‍यक्ति पहले से ही एक नए मार्ग, एक नई मूल्‍य-प्रणाली, एक नई संस्‍कृति और एक नए प्रतिमान की खोज कर रहे हैं ।

जिस लक्ष्‍य या उद्देश्‍य से पश्चिम का हितसाधन नहीं हुआ, वह पूर्व के लिए सहायक सिद्ध नहीं हो सकता ।

कल्पना का निर्मूल सिद्ध होना

यूरोपीय अनुभव की सार्वभौमिकता की कल्पना भी निर्मूल सिद्ध हुई है । इतिहासकार मुहम्मद कुतुब ने ठीक ही कहा है कि, "आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में साम्यवादी समाज और दासता, पूँजीवाद और तब अंतिम साम्यवाद अर्थात् अंतिम साम्यवादी समाज को परिकल्पना की गयी है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का वर्णन मानव-जाति के इतिहास की साझी घटना के रूप में किया जाता है, जबकि वास्तव में यूरोपीय इतिहास के बाहर इसका कोई अस्तित्व नहीं है । यूरोप से बाहर की किसी जाति के लोग इन अवस्थाओं में से होकर कभी नहीं निकले ।"

स्वावलंबन अनिवार्य है

प्राचीन हिंदू राष्ट्र के संबंध में उपयुक्त टिप्पणी अधिक संगत महत्वपूर्ण है । इस संदेह के लिए पर्याप्त आधार है कि राजनीतिक साम्राज्य की समाप्ति के बाद भी आर्थिक और वैचारिक साम्राज्‍यवाद को रखने के धूर्ततापूर्ण कुटिल उद्देश्य से प्रेरित होकर ही सार्वभौमिकता की उपर्युक्त मिथ्या धारणा का प्रचार किया गया है । तृतीय विश्व के देश उत्तर-दक्षिण वार्ता की निरर्थकता और स्वावलंबन के लक्ष्य की अनिवार्यता को अधिकाधिक अनुभव करने लगे हैं । इस लक्ष्य के कारण विकास के आदर्श में परिवर्तन करना भी आवश्यक हो गया है ।

व्यर्थ प्रयास

क्योंकि दुर्भाग्यवश, तृतीय विश्‍व के देशों के लिए इतिहास अपने-आपको बिल्कुल उसी ढंग से दोहराएगा । कुछ शुभ संयोग, जिनके सामूहिक परिणामों से औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, ये थे- वायुयान युग से पूर्व युग में समुद्री-मार्गों के भौगोलिक राजनीतिक महत्व में हुई नयी वृद्धि; प्रचुर कच्ची सामग्री और विपणन की संभावनाओं वाले देशों पर शासन करने वाली शक्तियों की अपने देशों के विकास-कार्यो में तन्मयता; नौसैनिक प्राप्त देशों के लिए साम्राज्य-निर्माण की परिस्थितियों का अनुकूल होना; उपनिवेशों के शोषण के आधार पर स्वदेशी अर्थव्यवस्था का पोषण करने के व्यावहारिक अवसर उपलब्ध होना । ये सभी परिस्थितियाँ तृतीय विश्व के देशों के लिए फिर से उत्पन्न नहीं होंगी । श्वेत राष्ट्रों की समृद्धि का निर्माण जिन नींवों पर किया गया था, वे अब अश्वेत देशों को उपलब्ध नहीं होंगी । इसलिए पश्चिमी उदाहरण का अनुकरण करना तथा पश्चिमी प्रतिमान को आदर्श के रूप में स्वीकार करना निरर्थक है ।

नए लक्ष्य की आवश्यकता

पश्चिम प्रतिमान की निष्फलता और ऐतिहासिक घटना-चक्रों में महत्वपूर्ण अंतर को देखते हुए, दक्षिणी देशों के सभी राष्ट्रीय संघर्षों के लिए नया लक्ष्य अथवा उद्देश्य निर्धारित करना आवश्यक है । हम सब हिंदू जीवन-लक्ष्य और उसे प्राप्त करने की पद्धतियों से सुपरिचित हैं । इसलिए मुझे उस सुपरिचित भूमिका को फिर से दोहराकर आपका बहुमूल्य समय नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है ।

अनन्य विशेषताएँ

इस चर्चा के प्रयोजन की दृष्टि से इस बात का कोई महत्व नहीं है कि कोई हिंदुओं की सांस्कृतिक श्रेष्ठता को स्वीकार करता है या नहीं । किंतु सब लोग सर्वसम्मति से यह स्वीकार करते हैं कि हिंदू संस्कृति की अपनी सुनिश्चित विशेषताएँ हैं । हम भली-भाँति जानते हैं कि विश्व के सभी भागों के प्रबुद्ध मानवतावादी, चाहे वह हेनरी फोर्ड का पोता हो या स्‍टालिन की बेटी, भारत की यात्रा को एक तीर्थ-यात्रा मानते हैं । मैं दार्शनिक चर्चा में उलझ जाऊँगा, यदि मैं हिंदू लक्ष्‍य, दृष्टिकोण और आदर्श हिंदू जीवन-पद्धति का वर्णन करने की चेष्‍टा करूँ किंतु उसकी यहाँ आवश्‍यकता भी नहीं है ।

अपना स्वकीय आदर्श

अतः मैं सीधे यह आग्रह करूँगा कि हमें अपनी संस्कृति, अपनी प्राचीन परम्पराओं के प्रकाश में, प्रगति और विकास का अपना स्वयं का आदर्श प्रतिमान तैयार करना चाहिए । हमें पश्चिम के प्रतिमान का गहराई से अध्ययन करना चाहिए और जहाँ सम्भव हो वहाँ उससे लाभ उठाना चाहिए । आपमें से कुछ को यह दृष्टिकोण पुस्तकीय (यदि लोकोत्तर नहीं) और आवेगजन्य (यदि भावुकतापूर्ण नहीं) लगेगा । जो लोग सुरक्षित होकर चलने के और संकट न उठाने के अभ्यस्त हैं उन्हें यह बात अंधेरे में लगायी जाने वाली छलाँग- किसी अज्ञात समुद्र अथवा अपरिचित मार्ग पर उठाया जाने वाला विवेक शून्य पग लगेगी । किंतु ऐसी कोई बात नहीं है । हमारी अपनी सांस्कृतिक परम्परा और विपुल ऐतिहासिक अनुभवों के अतिरिक्त, कुछ अश्वेत देशों, जैसे जापान और माओ के चीन के उदाहरण और अनुभव हमारे सामने हैं । हमें विदित है कि जापान ने चयनात्मक रूप से पश्चिमी प्रौद्योगिकी को अपनाकर भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा है और माओ में, जिसे मार्क्‍सवाद के चीनीकरण का श्रेय दिया जाता है, यह घोषणा करने का साहस रहा है कि ''आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण नहीं है ।''

प्रौद्योगिकीविदों को निर्देश

दक्षिणी देश यदि अपनी हीन भावना त्याग दें और परस्पर सहयोग के लिए प्रतिबद्ध हो जाएं तो वे अपने-आपको उससे कहीं अधिक समर्थ पाएंगे , जितना उत्तरी देश चाहते हैं कि वे (दक्षिण देश) स्वयं को मानें । उन्हें छोटे-से बिआफ्रा के अनुभव से प्रेरणा मिलनी चाहिए । मानव तथा सामग्री संबंधी उनके संसाधनों का स्तर कुछ भी हो, वे निश्चित रूप से अपनी स्वकीय औद्योगिक कार्य-नीति चुन सकते हैं और अपना औद्योगिक मानचित्र बना सकते हैं । वे कार्य कुशलता का आजीविका के साथ सामंजस्य स्थापित करके 'जन-शक्ति द्वारा उत्पादन' के आदर्श-वाक्य का पालन कर सकते हैं और जहाँ तक संभव हो, डॉ . शूमेकर की मध्यवर्ती अथवा उपयुक्त प्रौद्योगिकी अपना सकते हैं । इस क्षेत्र में नए प्रवेशकर्ता होने के कारण, वे आरंभ से ही पारिस्थितिकी, अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र के बारे में समेकित दृष्टि अपना सकते हैं । उनके स्वदेशी प्रौद्योगिकी-विदों से, चाहे उनकी संख्या कितनी भी हो, यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे-समूचे विश्व-भर की औद्योगिक प्रौद्योगिकी का गहराई से अध्ययन करें और उसे आत्मसात् करें; विदेशी प्रौद्योगिकी के जो अंश स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हों, उनका पता लगाएं और उन्हें अपनाएं; शिल्पियों के लाभ के लिए उत्पादन की परंपरागत प्राविधियों में युक्ति-संगत रूप से अपनाए जा सकने वाले परिवर्तन करें और ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखें कि श्रमिकों की बेकारी न बढ़े, उपलब्ध प्रबंधकीय और प्राविधिक कौशल व्यर्थ न जाए और उत्पादन के वर्तमान साधनों का पूर्ण विपूँजीकरण न हो तथा विद्युत शक्ति की सहायता से, उत्पादन की प्रक्रियाओं के विकेंद्रीकरण पर भारी बल देते हुए, स्वदेशी प्रौद्योगिकी विकसित करें, जिसमें उत्पादन का केंद्र कारखाने के स्थान पर घर हो ।

नए मूल्य अंगीकार करें

इसके अतिरिक्त, उन्हें पश्चिमी जीवन-मूल्यों का परित्याग करना होगा और (1) वेतन-विभेदकों की एक समन्वित प्रणाली विकसित करनी होगी, जिससे समानता का प्रोत्साहन के साथ तालमेल इस तथ्य को देखते हुए बिठाया जा सके कि यदि जीवन के मूल्य विशुद्धतः आर्थिक अथवा भौतिकवादी होंगे तो धन के न्यायोचित वितरण तथा सर्वोच्च व्यक्तिगत विकास के लिए प्रोत्साहन के बीच असंगति बनी रहेगी, (2) तदनुसार ऐसा मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक वातावरण तैयार करना होगा, जिसमें समाजिक स्‍तर और व्‍यक्तिगत धन के बीच का अनुपात सदैव उल्‍टा हो ।

नव-विज्ञान आंदोलन

यह उत्साहवर्धक है कि भारत में आधुनिक विज्ञान का संस्कृति के साथ संबंध-विच्छेद करने के विदेशियों द्वारा प्रेरित प्रयत्नों का कुछ सुप्रतिष्ठित वैज्ञानिकों द्वारा विरोध किया जा रहा है । कुछ समय पूर्व परमाणु-ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. राजा रमन्ना ने इस तर्क का खोखलापन दर्शाया है कि विज्ञान और आध्यात्मिकता के संश्लेषण की बात करना केवल रूढ़िवादिता तथा पुनरुत्थानवाद मात्र है । भारतीय विचार केंद्र द्वारा कुछ अन्य संस्थाओं के सहयोग से 24 जून, 1983 को त्रिवेंद्रम में आयोजित संवाद-गोष्ठी में पढ़े गए एक निबंध में, बंगलोर के एक भारतीय विज्ञान संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस) के श्री के. आई. बसु ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की । उन्होंने अपने द्वारा आरंभ किए गए 'स्वदेशी विज्ञान आंदोलन' के दर्शन की व्याख्या की । अपने वक्तव्य के अंतिम परिच्छेद में, उन्होंने कहा, "इस अभियान में वैज्ञानिक अनुसंधान, विकास और शिक्षा संबंधी राष्‍ट्रीय प्राथमिकताओं के पुनर्निर्धारण की अविलंब आवश्यकता है । इसके लिए राष्‍ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति तथा राष्‍ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी योजना तैयार करना आवश्‍यक है । ऐसी नीति और योजना का आवश्‍यक तत्‍व यह होगा कि यह आत्मा और कार्यान्वयन-दोनों ही दृष्टियों से पूर्णतः स्वदेशी हो । केवल ऐसे स्वदेशी विज्ञान आंदोलन से ही हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकती है, हमारी ग्रामीण व्यवस्था सुरक्षित रह सकती है, हमारी संस्कृति की रक्षा हो सकती है तथा संपूर्ण विश्व की सेवा हो सकती है ।

स्वदेशी प्रौद्योगिकी आंदोलन

इसी प्रकार क्लाड एल्वरेस और धर्मपाल स्वदेशी प्रौद्योगिकी आंदोलन चलाने के लिए भारी प्रयत्न कर रहे हैं, यद्यपि अभी तक उन्होंने इसका नामकरण नहीं किया है । क्लाड एल्वरेस का विश्वास है कि प्रगति के लिए हर संस्कृति अपना प्रतिमान और आदर्श होता है तथा प्रौद्योगिकी का विकास उस प्रतिमान और आदर्श की विशेषताओं के अनुरूप होना चाहिए । भारत में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा वैज्ञानिक समूह है । उचित रूप से प्रेरित किए जाने पर, हमारे वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीविद् निश्चय ही इस कार्य को पूरा कर सकते हैं ।

राष्ट्रीय संकल्प का अभाव

ईश्वर की कृपा से हमें वे सारे साधन उपलब्ध हैं, जिनसे कोई देश महान बन सकता है । मानवीय, भौतिक और बौद्धिक साधनों में हम किसी से पीछे नहीं हैं । जिस वस्तु का अभाव है वह है राष्ट्रीय संकल्प, जिससे राष्ट्रीय एकता का आविर्भाव होता है । स्मरण रखें कि यहाँ क्षमता का नहीं, केवल संकल्प और एकता का अभाव है ।

नयी व्यवस्था के बारे में श्री गुरुजी के विचार

इसी बात पर बल देते हुए श्रद्धेय श्री गुरुजी ने कहा था, "जब एक बार एकता की जीवन-धारा हमारे राष्ट्र-पुरुष की सभी धमनियों से निर्बाध रूप से प्रवाहित होनी प्रारंभ हो जाएगी , तो हमारे राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न अंग स्वयंमेव सक्रिय होकर समन्वित रूप से समूचे राष्ट्र के कल्याण के लिए काम करने लगेंगे । इस प्रकार का जीवंत और वर्तमान समाज अपनी अनेकानेक व्‍यवस्‍थाओं और पद्धतियों में से, जो अंश उसकी प्रगति के लिए आवश्यक एव सहायक होगा, उसका संरक्षण करेगा और जिन बातों की उपयोगिता समाप्‍त हो गयी है, उन्‍हें त्याग देगा तथा उनके स्‍थान पर नई प्रणालियां विकसित करेगा । पुरानी व्‍यवस्‍था के जाने पर आंसू बहाने की और नयी व्‍यवस्‍था के आगमन का स्‍वागत करने में संकोच करने की कोई आवश्‍यकता नहीं है । सभी जीवित एवं बुद्धिशील प्राणियों की यही प्रकृति है। जेसे एक पेड़ बढ़ता है, सूखे पत्ते और सूखी टहनियां झड़ जाते हैं तथा नए नवेले पत्तों के लिए स्‍थान बन जाता है । ध्‍यान में रखने की मुख्‍य बात यह है कि एकात्‍मकता के जीवन-रस का संचार हमारे सामाजिक ढांचे के सभी अंगों में होता रहना चाहिए । प्रत्‍येक व्यवस्‍था या पद्धति का जीवित रहना, परिवर्तित हो जाना अथवा उसका पूर्णत: लोप हो जाना इस बात पर निर्भर है कि उससे उस जीवन-रस का पोषण हो रहा है अथवा नहीं । इसलिए वर्तमान सामाजिक संदर्भ में ऐसी सभी व्‍यवस्‍थाओं के भविषय पर चर्चा करना व्‍यर्थ है । समय की सर्वोपरि मांग अंतर्निहित एकता की भावना को पुनरुज्‍जीवित करना और हमारी समाज में उसके जीवन-लक्ष्‍य के प्रति जागरूकता पैदा करना है, शेष सभी बातें अपने आप ठीक हो जाएंगी ।''

सदा एक , पर नित्य नवीन

'द सेक्रेट थ्रेड' में जे. एल. ब्रोंकिग्टन ने भी यही विचार व्यक्त किया है, जब उन्होंने कहा कि, "परम्परा (हिंदुओं के लिए) सदैव वही नहीं है जो दिखाई देती है, वरन् नई जानकारियों और परिवर्तित परिस्थितियों को स्थान देने के लिए पुनर्भाष्य होता रहा है । नवीनता परंपरा की शत्रु नहीं है, वरन् इसी के द्वारा परंपरा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती है । हिंदुत्व नए के समर्थन में पुराने का बहिष्कार नहीं करता वरन् नयी दुविधाओं और नए प्रश्नों को परंपरागत भाषा में अभिव्यक्त करते हुए तथा सुस्थापित दृष्टिकोणों को नयी अंतर्दृष्टि प्रदान करते हुए दोनों का सम्मिश्रण करता है । अपने आपको बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेने का सामर्थ्य अपने सारे इतिहास में हिंदुत्व की विशेषता रही है और उसके विविध सूत्रों को एक सूत्र में बाँधने वाला कारक है । इस प्रकार परंपरा और परिवर्तन के ताने-बाने की इस अद्भुत बुनाई में सन्निहित उनका साँझा इतिहास । हिंदुत्व सदा एक है फिर भी नित्य नवीन बनता रहा है ।"

अभूतपूर्व संकट

राष्ट्रीय संकल्प का जागरण न केवल राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्य के लिए, अपितु श्री गुरुजी द्वारा परिकल्पित हिंदू राष्ट्र के विश्वजनीन लक्ष्य को पूरा करने के लिए भी आवश्यक है । उनके देहांत के बाद विश्व की स्थिति तीव्रता से बिगड़ती गयी है । पश्चिमी बुद्धिजीवियों को उत्तरोतर यह बोध हो रहा है कि, अपनी इस शताब्दी के अंतिम दो दशकों के आरंभ में हम अपने आपको एक गंभीर, विश्वव्यापी, जटिल, बहु-आयामी संकट में घिरा पाते हैं, जिससे हमारे जीवन के सभी पक्ष-हमारा स्वास्थ्य और हमारी आजीविका, हमारे पर्यावरण और सामाजिक संबंधों की गुणवत्ता, हमारी अर्थ-व्यवस्था, प्रौद्योगिकी और राजनीति प्रभावित हुए हैं । यह एक ऐसा संकट है, जिसके बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक आयाम हैं; यह एक ऐसा संकट है, जिसका आकार तथा महत्व अभिलेखबद्ध मानव इतिहास में अभूतपूर्व है । प्रथम बार हमारे समक्ष इस ग्रह से मानव-शांति तथा संपूर्ण जीवन के विनाश का वास्तविक संकट उपस्थित हुआ है ।"

दाँते तथा आधुनिक समाज की एक सर्वोत्तम टीकाकार डोरोथी सेयर्स ने कहा है-"हर व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि नरक पाप और भ्रष्टाचार में डूबे मानव समाज का चित्र है, और आज जब हम पर्याप्त रूप से यह स्वीकार करते हैं कि समाज की स्थिति शोचनीय है और वह श्रेष्ठता की ओर नहीं बढ़ रहा है तो हम सरलता से यह जान सकते हैं कि भ्रष्टाचार की ओर पहुंचने के मार्ग कौन से हैं । निरर्थकता की भावना; जीवंत आस्‍था का अभाव; लंपटता; लालचपूर्ण उपभोग; वित्‍तीय अनुत्तरदायित्‍व; अनियंत्रित क्रोध, दुराग्रही और हठपूर्ण व्‍यक्तिवाद हिंसा, असफलता की भावना; जीवन और संपत्ति के प्रति, जिसमें अपना जीवन और संपत्ति भी सम्मिलित है, अनादर की भावना; यौन भावना का दुरुपयोग, विज्ञापन और प्रचार द्वारा भाषा को दूषित करना, धर्म का वाणिज्‍यीकरण, अंधविश्‍वासों का पोषण और सभी प्रकार के जन-उन्‍माद तथा 'वशीकरण' द्वारा लोगों के मन का अनुबंधन; सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और जोड़-तोड़, पाखंड, भौतिक वस्तुओं में भ्रष्टाचार, बौद्धिक भ्रष्टाचार, अपना स्वार्थ साधने के लिए फूट डालना । (वर्गों के बीच और राष्ट्रों के बीच); संचार साधनों का दुरुपयोग और विनाश; घटिया तथा मूर्खतापूर्ण जन-भावनाओं का अनुचित लाभ उठाना; सगे संबंधियों, देश, मित्र तथा ली गयी निष्ठा की शपथ के साथ विश्वासघात; ये वे सर्वविदित अवस्थाएँ हैं जो समाज को मृत्यु की ओर धकेलती हैं और सभी सभ्य संबंधों को समाप्त कर देती हैं ।"

ख्यातिप्राप्त आधुनिक चिंतक कापरा का मत है कि पश्चिमवासी अब तक अंतर्ज्ञान की अपेक्षा तर्कसंगत ज्ञान का, धर्म की अपेक्षा विज्ञान का, सहयोग की अपेक्षा प्रतियोगिता का, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की अपेक्षा उनके शोषण का पक्ष लेते रहे हैं और अन्य बातों के साथ-साथ इन कारणों से एक गंभीर सांस्कृतिक असंतुलन उत्पन्न हो गया है, जो हमारे वर्तमान संकट का मूल है-हमारे विचारों और अनुभूतियों, हमारे मूल्‍यों और मनोवृत्तियों तथा हमारे सामाजिक और राजनीतिक ढाँचों में असंतुलन का मूल । वे कहते हैं कि, ''वर्तमान संकट संवेदनशील सांस्‍कृतिक से संक्रमित है । व्‍यक्तियों, समाज, सभ्‍यता और भू-मंडलीय परिस्थितिकीय व्‍यवस्‍था के रूप में हम एक मोड़ पर पहुंच रहे हैं ।

पश्चिमी प्रतिमान अपर्याप्त है

क्या पश्चिमी प्रतिमान इस 'मोड़' पर असमंजस से ग्रस्त मानव-समाज की सहायता कर सकता है ?

विद्वान लेखक कहता है, "आज हमें जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है एक नया 'प्रतिमान'-वास्तविकता के प्रति एक नयी दृष्टि; हमारे विचारों, बोधों और मूल्यों में एक मूलभूत परिवर्तन ।" क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मानव-इतिहास में आए इस अभूतपूर्व संकट के समाधान के लिए पश्चिमी प्रतिमान नितांत अपर्याप्त साधन है ? यह उन सभी के लिए चेतावनी और एक सीख है जो बड़े चाव से आशा और विश्वास करते हैं कि पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण है ।

विद्वानों का मत

इस संदर्भ में हिंदू संस्कृति के विद्वानों द्वारा व्यक्त विचार विशेष ध्यान देने योग्य है ।

टायनबी

यह कहा जा रहा है कि आज भारत के सामने ऐसी हर प्रकार की समस्याएँ उपस्थित हैं, जिनका सामना मनुष्य-जाति को करना पड़ रहा है किंतु इन सभी देशों में से केवल भारत ही अनेकता में एकता का दर्शन करने की अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण इन कठिनाइयों पर विजय पाने का सामर्थ्य रखता है । परिणामतः केवल भारत ही विपदाग्रस्त विश्व को नया और सही मार्ग दिखा सकता है । ऐसी आरनोल्ड टायनबी की मान्यता है ।

वुडरोफ

सर जॉन वुडरोफ को विश्वास है कि हिंदुओं के सांस्कृतिक विचार पश्चिम में फैलेंगे, उनकी प्राचीन संस्कृति की भावना जीवित रहेगी, भले ही उस जाति को, जिसने इन विचारों को जन्म दिया है, भविष्य में कुछ भी हो जाए । इसमें संदेह नहीं कि भारत में कुछ ऐसे लोग हैं जो ''इस संक्रमणकाल में और विदेशी प्रभाव से उत्‍पन्‍न संशय के कारण ऐसी किसी बात में विश्‍वास नहीं करते और जो किसी भी पश्चिमवासी के समान ही भौतिकवादी हैं, यद्यपि प्रायः उनसे कम उपयोगी रूप में ।" किंतु भारत अपनी रक्षा करने के लिए अपनी सांस्कृतिक परंपरा के अतिरिक्त और कहाँ से बल प्राप्त कर सकता है ? संसार के सभी राष्ट्रों द्वारा भारत की आध्यात्मिक सभ्यता के उदात्त और मूल सिद्धांतों का समर्थन किए जाने तथा उन्हें अंगीकार किए जाने से विश्व शांति की स्थापना होगी ।"

श्री अरविंद

श्री अरविंद ने आसन्न विश्व-संकट की प्रकृति की स्पष्ट रूप से पूर्व-कल्पना कर ली थी और उन्होंने विश्वासपूर्वक घोषणा की थी कि "वह (भारत) यदि इच्छा करे तो उन समस्याओं को, जिनसे समूची मनुष्य-जाति आक्रांत है और लड़खड़ा रही है, एक नया और निर्णायक मोड़ दे सकता है, क्योंकि उनके समाधान का सूत्र उसके प्राचीन ज्ञान में निहित है ।"

श्री गुरुजी

श्री गुरुजी ने कहा था, हिंदुओं का समग्र विश्व को एक सूत्र बाँधने वाला महान् विचार ही मानवीय भाईचारे को स्थायी आधार प्रदान कर सकता है, अंतरात्मा का वह ज्ञान मानव-मन में मनुष्य-जाति के कल्याण क लिए जूझने की उदात्त भावना का संचार कर सकता है और इसके साथ-साथ इस भू-तल के प्रत्येक लघु जीव को अपनी पूर्णता के साथ विकसित होने का पूर्ण और निर्बाध अवसर प्रदान कर सकता हैं।''

साधन और साध्य

आज मानव-जाति के समक्ष मुख्य अथवा अधिक संगत प्रश्‍न आधुनिक बनने या न बनने का नहीं है । आधुनिकीकरण केवल एक साधन है, स्‍वयं साध्‍य नहीं । साध्‍य-चरम लक्ष्‍य-क्‍या है ? धर्म के अनुसार यह लक्ष्‍य है सबका संपूर्ण ठोस निरंतर और शाश्‍वत सुख । जिस सीमा तक आधुनिकीकरण इस प्रयोजन की पूर्ति से सहायक है, वहां तक उसका स्‍वागत है । किंतु इस सर्वोच्‍च लक्ष्‍य को यदि आधुनिकीकरण के साधन से प्राप्‍त किया जाता है तो हमें इसे पश्चिमीकरण के समरूप समझना बंद कर देना चाहिए ।

''देशाभियान युक्‍त लोकतंत्र''

प्रेम यह मैग्‍नीफाईंग ग्‍लास

आज के इस अवसर पर क्‍या बोलना चाहिए, क्‍या नहीं बोलना चाहिए, यह मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ । हमेशा सभायें होती हैं, हम भाषण भी देते हैं किंतु आज का अवसर कुछ दूसरे ढंग का है, जिसमें आप लोग मेरा सत्‍कार कर रहे हैं । ऐसे सत्‍कार सभी में क्‍या बोलना चाहिए, इसका मुझे पता नहीं क्‍योंकि जिस अखाड़े से मैं आया हूं उस अखाड़े में कोई किसी का सत्‍कार करता ही नहीं, सभी लोग कार्य करते जा रहे हैं- 20 साल, 40 साल, 50 साल- लेकिन कोई किसी का सत्‍कार नहीं करता । इसके कारण ऐसे अवसर पर किस ढंग से बोलना चाहिए-इस असमंजस में मैं हूं । दूसरी बात मेरे विषय में कुछ अच्‍छे शब्‍द कहे गए हैं । यह तो हमारे साथियों का प्रेम है । प्रेम यह मैग्निफाइंग (बढ़ाकर बताने वाला) ग्‍लास के समान होता है । मैग्निफाइंग ग्‍लास में छोटी सी चीज बहुत बड़ी दिखाई देती है । वैसे ही प्रेम के कारण मेरे सहकारियों को मेरा छोटा काम भी बहुत बड़ा मालूम होता है । भारतीय मजदूर संघ आज एक विशाल स्‍वरूप धारण कर चुका है । यह बात ठीक है, लेकिन यह मेरे कारण है यह कहना केवल अतिश्योक्ति ही नहीं तो यह गलत होगा । मैं कई नेताओं से, सार्वजनिक जीवन में यह शिकायत सुनते रहता हूं कि जनता कृतघ्‍न है-हम देश के लिए कितने बर्बाद हुए हैं लेकिन जनता ने उसका कुछ भी महत्‍व नहीं माना-ऐसी शिकायत मैं सुनते रहता हूं । लेकिन मेरे विषय में कुछ उल्टा ही मामला मालूम होता है । मेरी जन्‍म-पत्री में शनि व मंगल ऐसे स्‍थान पर बैठे हैं कि काम तो मेरे सहकारी करते रहते हैं और काम में यदि यश प्राप्‍त हुआ तो श्रेय वे मेरी ओर खिसका देते हैं । काम में यदि असफलता हुई तो उसका अपयश वे स्वयं लेते हैं । इसके कारण जो मेरा बैंक एकाउंट देखता है उसको केवल श्रेय ही श्रेय दिखाई देता है, लेकिन यह हमारे द्वारा जमा किया हुआ श्रेय नहीं है । हमारे साथियों द्वारा जमा किया हुआ यश है । लेकिन इसके कारण एक आभास होता है कि मैंने कुछ बहुत बड़ा काम किया है ।

यह व्यक्ति का नहीं सिद्धांत का सम्मान है

वैसे अपने देश में यह एक पद्धति है कि प्रेम के कारण किसी को भी अति श्रेष्ठ बताना, जो वास्तव में वास्तविकता से दूर है । एक छोटा-सा प्रसंग याद आता है-पूज्य महात्मा जी गुरुदेव के निमंत्रण पर शांति निकेतन कुछ दिन के लिए गए थे । तो एक विदेशी पत्रकार ने कुछ प्रश्न दोनों को अलग पूछे । उनमें से एक प्रश्न यह था कि आज का सर्वश्रेष्ठ कवि कौन है ? पहले महात्मा जी से पूछा । महात्मा जी ने जबाब दिया- मैं और किसी को नहीं जानता- गुरुदेव के अतिरिक्त । यानि सबसे श्रेष्ठ कवि गुरुदेव हैं । वही प्रश्न गुरुदेव से पूछा । उन्होंने जो उत्तर दिया वह ध्यान में रखने लायक है । उन्होंने कहा कि निसर्ग को सर्वश्रेष्ठ मान्य नहीं है-कोई श्रेष्ठ हो सकता है । किंतु सर्वश्रेष्ठ नहीं । तो प्रेम के कारण, एक पद्धति के कारण अपने प्रिय व्यक्ति के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है लेकिन उसमें सच्चाई कितनी है-यह भी ध्यान में रखना चाहिए ।

हम ही किसी पत्थर को सिंदूर लगा देते हैं, फिर कहते हैं कि यह हनुमान जी हैं और उनके सामने हम ही प्रणाम करते हैं । ऐसा ही कार्यकर्ताओं द्वारा कुछ इस अवसर पर हो रहा है, ऐसा मुझे लगता है । यह जो सारा उपक्रम हुआ है इसमें कई लोगों ने सहयोग दिया । भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं ने तो काम किया ही है, उसके अलावा भी जिसका मजदूर क्षेत्र से सीधा संबंध नहीं लेकिन जिनके मन में यह विश्वास है कि भारतीय मजदूर संघ केवल ट्रेड यूनियन नहीं है तो राष्ट्र निर्माण के प्रमुख माध्यमों में से एक माध्यम यह भारतीय मजदूर संघ है । ऐसा विश्वास जिसके मन में है ऐसे देशभक्त नागरिक बंधुओं ने भी इसमें सहयोग दिया है । मैं हृदयपूर्वक आप सब बंधुओं का धन्यवाद करता हूँ- आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं । यह व्यक्ति का सम्मान नहीं है तो एक संगठन और एक सिद्धांत-एक आदर्श-इसके प्रतिनिधि के रूप में ही यह सम्मान हो रहा है । अत: सभी बंधुओं का जिन्होंने इस कार्य में 'पत्रम पुष्पम् फलम् तोयम्' सहयोग दिया है-सभी के प्रति अपनी ओर और अपने संगठन की ओर से कृतज्ञता प्रकट करता हूं ।

श्रमिक जगत पर कुठाराघात

वैसे देखा जाए तो सत्कार समारोह यह आनन्द का ही विषय होना चाहिए । लेकिन जो परिस्थियाँ आज देश में और मजदूर क्षेत्र में हैं, उनको देखते हुए किसी को भी आनंद होना, बड़ा कठिन काम है । देश की स्थिति, मजदूरों की भी स्थिति आज बहुत ही शोचनीय है । जहाँ तक मजदूर क्षेत्र का संबंध है । हम सब लोग जानते हैं कि इस समय सरकार ने एक बहुत बड़ा हमला मजदूर आंदोलन पर किया हुआ है । अभी जो आवश्यक सेवा अनुरक्षण कानून पास हुआ, वह मजदूरों के अधिकार को छीनने वाला है और इस तरह एक कुठाराघात मजदूर आंदोलन पर सरकार ने किया है । इतना बड़ा आघात करने की आवश्यकता क्या थी, इसका विचार आप सब ने किया तो आपको आश्चर्य होगा कि पिछले दो साल में कोई भी ऐसी अभूतपूर्व अनोखी घटना नहीं हुई थी कि जिसके कारण यह अभूतपूर्व अनोखा कदम उठाने की आवश्यकता किसी भी समझदार सरकार को प्रतीत हो ।

पिछले दो साल में उत्पादन की मात्रा वही रही जो हमेशा रहती थी । नष्ट हुए श्रम-दिनों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं थी, हड़तालों की संख्या उतनी ही थी जितनी हमेशा रहती है, कोई भी अनोखी बात नहीं हुई थी जिसके कारण यह हमला करना उचित था तो भी यह हमला हुआ है । इस तरह के हमला करने की हिम्‍मत सरकार को क्‍यों हुई-इसका गंभीरता से सभी लोगों ने विचार करना आवश्‍यक है ।

सरकारी कुप्रचार

पहली बात यह ख्याल में आती है कि पिछले 34 साल में सरकार मजदूरों के विषय में तरह-तरह की गलतफहमी रखती है । गलत प्रचार तो तरह-तरह का है किंतु केवल 1-2 उदाहरण मैं आपको दूंगा । जैसे आमतौर पर, कहा जाता है कि भाई मजदूर गैर-जिम्मेवार है । वास्तव में उसी समय सरकार यह भी कहती है कि इस वर्ष उत्पादन में वृद्धि हुई है । अरे ! मजदूर अगर गैर-जिम्मेदार है तो उत्पादन में वृद्धि कैसे होगी ? दो परस्पर विरोधी वक्तव्य सरकार के लोग एक ही समय में करते रहते हैं । फिर भी लोगों में एक बात फैल गई है कि मजदूर गैर जिम्मेदार है ।

वायुमंडल का संपूर्ण समाज पर स्वाभाविक परिणाम

कभी-कभी बात करने का मौका आता है, किसी ने कहा कि तुम्हारे मजदूर बड़े गैर जिम्मेदार हैं । हमने प्रति प्रश्न किया कि हमारे देश में ऐसे और कितने हैं जो लोग गैर जिम्मेवार नहीं हैं इसकी सूची दीजिए । वास्तव में मजदूर क्षेत्र-यह समाज से कटा हुआ क्षेत्र नहीं है । संपूर्ण समाज में जो वायुमंडल होगा उसका स्वाभाविक परिणाम् मजदूर क्षेत्र पर भी होता है, हर क्षेत्र पर होता है । संपूर्ण समाज में वायुमंडल यदि स्वार्थ का, गैर जिम्मेवारी का, राष्ट्रभक्ति-विहीनता का होगा तो एक केवल किसी क्षेत्र में-यह चाहे मजदूर क्षेत्र ही क्यों न हो, दूसरा वायुमंडल मिलना चाहिए । ऐसी अपेक्षा रखना एक अवास्तविक बात है । आज समाज का वायुमंडल क्या है यह देखना चाहिए । किसी भी समाज में जो मनोवैज्ञानिक वायुमंडल बनता है, उसमें पहल करने का काम हमेशा नेताओं का हुआ करता है क्‍योंकि नेताओं का जैसा व्‍यवहार रहेगा उसी का अनुकरण बाकी लोग करते हैं ।

आज जिनको देश का शीर्षस्थ नेता माना गया है, वे लोग इस देश के सर्वोच्‍च मंच-पार्लियामेंट में-एक दूसरे को गाली-गलौज कर रहे है, एक दूसरे पर उछल रहे-जो ज्‍यादा प्रगतिशील व क्रांतिकारी हैं वे एक दूसरे पर जूते भी निकाल रहे हैं-यह समाचार अगर हमारे मजदूर व विद्यार्थी हर दिन समाचार में पढ़ते हैं-और फिर उनसे यह अपेक्षा की जाए कि नेता तो अनुशासन विहीन रहें और बाकी लोगों को अनुशासन का पालन करना चाहिए-तो यह गलत बात होगी ।

गैर जिम्मेवार वायुमंडल के लिए नेता दोषी हैं

यह ठीक है कि हम राष्ट्रभक्त हैं हम उत्पादन में बाधा डालना नहीं चाहते, अनुशासन से रहना चाहिए ऐसी हमारी इच्छा है । जिम्मेवारी को भावना का प्रचार हम पूरी ताकत के साथ कर रहे हैं लेकिन उसको सीमित यश प्राप्त होता है क्योंकि समाज में फैला हुआ अनुशासनहीनता का व गैर जिम्मेवारी का वायुमंडल है, जिसके लिए वास्तव में जिम्मेवार नेता हैं । इसके लिए यदि कोई उपाय-योजना होगी । वह यही हो सकती है कि आज जिनको समाज का नेता माना जाता है कि उनका व्यवहार आदर्श रहना चाहिए या जिनका व्यवहार आदर्श है ऐसे लोगों को नेता मानने की आदत समाज को लगनी चाहिए । दोनों में से एक बात जब तक नहीं होती तब तक यह वायुमंडल दुरुस्त नहीं हो सकता । इतना खराब वायुमंडल होते हुए भी हिंदुस्तान का मजदूर उत्पादन बढ़ा रहा है, काम बराबर कर रहा है, और इतना ही नहीं तो जब कभी देश पर संकट आता है- 1962 में चीन के आक्रमण के समय, 65 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय, 71 में बांग्लादेश की लड़ाई के समय, मजदूरों ने ज्यादा घंटों काम किया है । अतिरिक्त भत्ता न लेते हुए, स्वयं गरीब रहते हुए सुरक्षा कोष में पैसा दिया । स्वयं दुबले-पतले रहते हुए ब्लडबैंक में अपना खून जमा किया है, जवान के नाते लड़ने के लिए अपने नाम दिए हैं और इतना ही नहीं तो हम गौरव के साथ कह सकते हैं कि 1965 की लड़ाई के समय, हमारे कुछ कार्यकर्ताओं ने, पाकिस्तान सीमा पर युद्ध-सामग्री बचाने के लिए हमारे कुछ रेल कर्मचारी बंधुओं ने अपनी जान भी कुर्बान की है । यह सारा होते हुए भी आज आम आदमी के दिमाग में यह बात बैठी है कि सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदार मजदूर है तो इसका कारण एक ही है कि सरकार की ओर से लगातार यह प्रचार हो रहा है । इस तरह क गलत प्रचार के प्रतिवाद करने का काम, आम जनता विश्‍वास में लेकर मजदूरों की बात उनको समझाने का काम भारतीय मजदूर संघ के पूर्व काम करने वाले किसी भी यूनियन ने नहीं किया, इसी के कारण यह सारा गलत प्रचार बड़ा ही प्रभावी हुआ है ।

उत्पादन दिन की कमी के अनेक कारण

दूसरा उदाहरण आपके सामने देता हूँ । सरकार ने निरंतर यह प्रचार किया कि उत्पादन में जो कुछ भी कमी होती है उसका प्रमुख कारण मजदूरों की हड़तालें हैं और दूसरा प्रचार किया कि मजदूरों का पैसा बढ़ने के कारण, महंगाई बढ़ती है । भारतीय मजदूर संघ ने इन दोनों बातों के विषय में प्रारंभ से ही जनता को सुशिक्षित करने का प्रयास किया था कि यह दोनों आरोप गलत हैं । आज सौभाग्य से एक निष्पक्ष संस्था जिसका नाम है Indian Institute of Public Administration जिसने पहले जुलाई-अगस्त महीने में, इन्हीं दोनों विषयों का अध्ययन व सर्वेक्षण किया और उन्होंने अपने निष्पक्ष निष्कर्ष प्रकाशित किए हैं । हमारे लिए यह आनंद का विषय है कि भारतीय मजदूर संघ ने प्रारंभ से जो प्रतिपादन किया था वह और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निष्कर्ष दोनों ही एक जैसे हैं । इंस्टीट्यूट ने स्पष्ट कहा है कि उत्पादन में जो घट होती है उसके लिए मजदूरों की हड़तालें तो एक नगण्य कारण है, वास्तव में उत्पादन में घट आने के और भी बड़े कारण हैं । वे कारण उन्होंने बताए कि अव्यवस्था, कच्चा माल समय पर न मिलना, मशीनरी का खराब हो जाना, बिजली की कमी व उसकी रुकावट, बाजार की गलत पॉलिसी रहना, निर्यात की सुविधाएं उपलब्ध न होना-यह बड़े कारण हैं ।

महँगाई बढ़ने के तीन कारण

मँहगाई बढ़ने के तीन प्रमुख कारण उन्होंने स्पष्ट रूप से कहे एक घाटे की अर्थव्यवस्था, दूसरा काला पैसा और तीसरा अनियंत्रित लाभांश और ब्‍यास । हम सब लोग जानते हैं कि घाटे की अर्थव्‍यवस्‍था सरकार के हाथ में है और डेफिसिट फाइनेसिंग की मात्रा निरंतर बढ़ाने का काम स्वयं सरकार करती है । जो काला पैसा कमाते हैं उनको नजदीक के खंभे पर फाँसी दी जाएगी ऐसा स्व. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था लेकिन अभी पिछले साल काला पैसा कमाने वाले को सरकार ने अच्छे चरित्र का प्रमाणपत्र दिया है । धारक बांड स्‍कीम निकालकर उनको कहा है कि और काला पैसा कमाओ । हमें कोई आपत्ति नहीं । आप काला पैसा कमाते जाइए उसको सफेद करने का काम भारत सरकार करती रहेगी; इस तरह का आश्‍वासन उनको दिया है उनकी पीठ थपथपाई है । लाभांश व ब्‍याज का नियंत्रण करने की हिम्‍मत भारत सरकार की नहीं है, यह बात तो साफ है । याने जो प्रमुख कारण महँगाई बढ़ने के लिए हैं, उनके लिए जिम्‍मेवार स्‍वयं सरकार है लेकिन बलि का बकरा मजदूरों को बनाया जाता है । हालाँकि इंस्‍टीट्यूट के निष्‍कर्ष के अनुसार मजदूरों का बढ़ा हुआ पैसा जिसका बहुत थोड़ा असर नगण्‍य प्रभाव महँगाई पर होता हैं ।

एक गलतफहमी

सरकार के गलत प्रचार के कारण, अखंड प्रचार के कारण सुशिक्षित लोगों के मन में भी ये दोनों गलतफहमियाँ जमकर बैठ गयी हैं । इसका परिणाम क्या होगा ? ट्रेड यूनियन आंदोलन ने जिस तरह समाज से संपर्क रखना चाहिए था उस तरह नहीं रखा । इसके कारण, जब कभी सरकार के साथ संघर्ष होता है, मजदूरों की बात आम जनता के ख्याल में नहीं आती । वास्तव में दृश्य तो ऐसा उपस्थित होना चाहिए कि मजदूर आम जनता एक तरफ, अकेली सरकार एक तरफ । किंतु ऐसा दृश्य और उपस्थित होता है कि मजदूर अकेला एक तरफ और आम जनता सरकार के साथ खड़ी है । मजदूर अकेला पड़ाता है सरकार अकेली नहीं पड़ती । आम जनता को विश्‍वास में लेकर खुद से अपनी बात समझाने का काम भारतीय मजदूर संघ के पूर्व यूनियनों ने नहीं किया । इसके कारण सरकार का हौसला बढ़ गया है । दूसरी बात जिस देश में मजदूर एकता कायम हुई है, वहाँ मजदूरों की ताकत इतनी बढ़ जाती है कि सरकार को कहने के अनुसार विचार करना पड़ता है । उनका प्रभाव रहता है । पोलिटिकल यूनियनिज्म के कारण, एक एक कारखाने में, एक-एक उद्योग में चार-चार पाँच-पाँच मजदूर संघ खड़े हो जाते हैं । आज भी हमारे देश में, हर जगह चार, पाँच, छह यूनियनें खड़ी हम देखते हैं इसका कारण यही है, पोलिटिकल यूनियनिज्‍म । यदि राजनैतिक मजदूर संघों के सिद्धांत को स्‍वीकार किया, तो हर एक कारखाने में, उतनी यूनियनें बनने की गुंजाइश हो जाएगी जितनी राजनैतिक पार्टियां हिंदुस्‍तान में हैं । इससे मजदूर बँट जाता है उसकी सामूहिक सौदे की ताकत और संघर्ष करने की शक्ति घट जाती है । इसका लाभ सरकार उठा सकती है ।

गैर राजनीतिक आधार पर मजदूर संगठन आवश्यक

दुनिया का अनुभव यदि हम देखें, कई देशों में राजनैतिक मजदूर संघवाद चल रहा है । यह सिद्धांत कम्युनिस्टों का है, लेकिन बाकी लोगों ने भी उनका अंधानुकरण किया है । पश्चिम में जैसे इटली, फ्रांस, जर्मनी में पोलिटिकल यूनियनिज्म के कारण मजदूर बँट गया और इसके कारण वहाँ मजदूरों की वास्तव में जितनी शक्ति है उसका सरकार पर प्रभाव नहीं है । इसके उलट जिस देश को पूँजीवाद का अड्डा माना गया है, जहाँ कैपिटलिस्टों की ताकत बहुत ज्यादा है, वहाँ ऐसा नहीं है । अमेरिका में भारतीय मजदूर संघ के ही समान गैर राजनीतिक विशुद्ध मजदूर यूनियन के आधार पर मजदूरों के संगठन खड़े हैं । इसके कारण एक उद्योग में एक ही यूनियन है । यह बात ठीक है कि हर एक मजदूर जैसे मजदूर है, वैसे नागरिक भी है । और नागरिक के नाते किसी भी पार्टी में काम करना या न करना उसका अधिकार है लेकिन जहाँ तक यूनियन का सबाल है, उसे राजनीति में न लाया जाए । अलग राजनीतिक दल में होते हुए भी सभी मजदूर अपने हित के लिए एक यूनियन मंच पर काम करते हैं । इस तरह की यूनियन अमेरिका में है और इसके कारण हरेक उद्योग में एक ही यूनियन है और अपनी एक-एक यूनियन को लेकर अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर बना है । अपनी एकता के कारण जो देश वास्‍तव में पूँजीवाद का गढ़ माना जाता है उस अमेरिका में मजदूरों की ताकत इतनी बढ़ी हुई है कि अमेरिका के राष्ट्रपति को भी, जिसकी बहुत ज्यादा शक्तियाँ हुआ करती हैं, कोई भी नीति तय करते समय, केवल औद्योगिक और मजदूरों की नीति ही नहीं तो विदेश नीति तय करते समय भी, एक बार सोचना पड़ता है कि इस नीति के बारे में अमेरिका के मजदूरों की प्रतिक्रिया क्या होगी ? इसका प्रभाव विशुद्ध ट्रेड यूनियनिज्म के कारण पूँजीवाद के अड्डे में मजदूरों ने निर्माण की है ।

जैसे पूँजीवादी देश का मैंने उदाहरण दिया हम साम्यवादी देशों का भी विचार करें । राजनैतिक यूनियनिज्म कम्युनिस्टों का ही सिद्धांत है । लेकिन जहाँ-जहाँ कम्युनिस्टों का शासन आया, वहाँ मजदूरों ने इस सिद्धांत का विरोध किया है । रूस में भी हड़तालें होती रही हैं, पिछले साल भी हुई । हम जानते हैं कि किस तरह 1953 में पूर्वी जर्मनी में, 1956 में, 1968 में चेकोस्लोवाकिया में, वहाँ के मजदूरों ने राजनैतिक यूनियनिज्म का विरोध करते हुए कम्युनिस्ट सरकार के विरोध में बगावत की थी, यह इतिहास हमारे सामने है । अभी डेढ़ साल पहले दूसरा एक कम्युनिस्ट शासित देश पोलैंड वहाँ के मजदूरों ने कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ विद्रोह किया है और विद्रोह करते समय उनकी सर्वप्रथम माँग यह थी कि हमें स्वतंत्र गैर-राजनैतिक मजदूर संघ बनाने का अधिकार होना चाहिए । वहां इस लड़ाई में सारे मजदूर एक हैं । वहाँ तानाशाही है तो भी इस संघर्ष में, मजदूरों की विजय हुई, सरकार की हार हुई और पोलैंड के अन्दर मजदूर इतना प्रभावी हो चुका है कि आज आपने अख़बार में यह पढ़ा होगा कि लोग अपनी मांगो को लेकर जब खड़े हुए तो सरकार को वहाँ मार्शल-ला लाना पड़ा । याने बहुत बड़ी ताकत वहाँ खड़ी हुई है । इतनी सख्‍ती करने पर भी कम्‍युनिस्‍टों की नहीं चल रही थी । वहाँ भी स्वतंत्र ट्रेड यूनियन के आधार पर मजदूरों ने इतनी बड़ी ताकत खड़ी की है इसलिए भारतीय मजदूर संघ का सिद्धांत विशुद्ध, गैर-राजनीतिक ट्रेड यूनियनिज्म किस तरह से मजदूरों को प्रबल बना सकता है । यह बात हमें ख्याल में आ सकती है । दुर्भाग्य से, हमारे यहाँ राजनैतिक यूनियनिज्म चल रहा है, मजदूर बँट गया है, संघर्ष की उसकी ताकत कम हो गई है और इसके कारण उन पर हमला करने में सरकार को संकोच नहीं होता ।

राष्ट्र-हित की चौखट में मजदूर-हित-यह ध्येय

आज की जो परिस्थिति आयी इसमें यह तो आनंद की बात है कि यह इतना भीषण संकट है यह समझकर आज हिंदुस्तान की सभी ट्रेड यूनियनें केवल इंटक को छोड़कर, एक मंच पर आ गई हैं । नेशनल कैंपेन कमिटी के नाम से उन्होंने एक संयुक्त मोर्चा बनाया है । उस संयुक्त मोर्चा के तत्वावधान में देश में जगह-जगह तरह-तरह के कार्यक्रम हुए । पिछले 23 नवम्बर को दिल्ली में मजदूरों का एक विशाल प्रदर्शन पार्लियामेंट के सामने हुआ जिसमें 15 लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया था और आने वाली 19 जनवरी को अपना निषेध प्रकट करने के लिए, हिंदुस्तान के सभी मजदूर एक दिन सांकेतिक हड़ताल पर जाने वाले हैं । यह एकता का दृश्य निर्माण हुआ, यह तो आनंद की बात है । किंतु इसी अवसर पर अन्य ट्रेड यूनियन के नेताओं व कार्यकर्ताओं को मैं यह प्रार्थना करना चाहता हूँ कि आपको यह सोचना चाहिए कि वास्तव में यदि हम एकता चाहते हैं तो राजनैतिक यूनियनिज्म को छोड़कर जनरल ट्रेड यूनियन कहना उचित होगा या नहीं होगा, इस बारे में पुनः विचार करना चाहिए और यदि पुनः विचार करते हुए सभी केंद्रीय मजदूर संगठन यह निश्चय करते हैं कि राजनैतिक यूनियनिज्म को छोड़ देंगे और किसी राजनैतिक दल के निमित्त काम नहीं करेंगे, केवल मजदूरों का ही हित, राष्ट्रहित के चौखट के अंतर्गत मजदूरों का हित, यह एक ही ध्येय रखते हुए काम करेंगे, ऐसा यदि पाँचों संगठन निश्चय करते हैं तो मैं यहाँ घोषणा करना चाहता हूँ कि उस अवस्था में, सबसे प्रथम भारतीय मजदूर संघ स्वयं अपने को समाप्त करने के लिए तत्पर है क्योंकि हम संस्थागत हित को लेकर कार्य नहीं कर रहे हैं । राष्ट्र और मजदूरों के हित के लिए हमारा काम हैं और इस दृष्टि से हम विसर्जित होने के लिए तत्पर रहेंगे यह आश्‍वासन मैं इस समय दे सकता हूँ ।

आर्थिक क्षेत्र की सभी घटनाओं के पीटे सूत्र एक

लेकिन यह देखना चाहिए कि इसी समय यह हमला क्यों ? जैसे मैंने पहले कहा कि पिछले दो साल में कोई अभूतपूर्व घटना नहीं हुई जिसके कारण इसकी आवश्यकता थी । फिर भी यह हमला क्यों हुआ ? यह देखने की आवश्‍यकता है । वैसे तो हमारे देश में दुर्भाग्‍य से जनता को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया ही बंद है । जब कोई एकाध घटना हो जाती है तो उसके ऊपर नेताओं के वक्‍तव्‍य आ जाते हैं । मूल में क्‍या है, यह खोजने की कोशिश नहीं होती। आर्थिक क्षेत्र में तरह-तरह की घटनाएं होती हैं । एक घटना हो गई एक वक्‍तव्‍य आ गया । उदाहरण के लिए हिंदुस्‍तान में पिछले साल 36.9 लाख टन गेहूं क्‍यों मँगाया गया । एक अलग घटना समझकर 10-5 नेताओं ने वक्‍तव्‍य दे दिए । सारी दुनिया में पेट्रो प्रोडक्टस की कीमत जब गिरती जा रही थी उसी समय हिंदुस्तान में पेट्रो प्रोडक्टस की कीमत बढ़ाई गई जिसमें मिट्टी का तेल, जो गरीब आदमी का है-वह भी शामिल है । एक केवल वक्तव्य आ गया कि यह नहीं बढ़ाना चाहिए था, 10-5 नेताओं ने वक्तव्य दे दिए, वास्तव में जितनी घटनाएं आर्थिक क्षेत्र की हैं यह देखने में अलग दिखती होंगी लेकिन इन सबके पीछे एक सूत्र है । जैसे किसी को बार-बार फोड़ा, फुंसी होती है, एक जगह फोड़े की मलहम पट्टी की, वह अच्छा नहीं दूसरी जगह फिर फोड़ा होता है तो मूल में जाने की आवश्‍यकता है कि कहीं खून की खराबी तो नहीं है । अगर खून की खराबी है तो खून कैसे ठीक किया जा सकता है इसकी दवा देने की आवश्‍यकता है । केवल मरहम पट्टी से काम निकलने वाला नहीं है । वैसे ही जो अलग घटनाएं दिखाई देती हैं । उस सब के पीछे कोई सूत्र है यह देखने की आवश्‍यकता है । वरना हम एक-एक घटना का विरोध करते रहेंगे, इसका कोई अंत नहीं होगा ।

दो परिस्थितियाँ

जब हम ऐसा देखते हैं तो दिखेगा कि दो परिस्थितियों के संयोग के कारण आज की आर्थिक दुरावस्था निर्माण हुई है । यह दो परिस्थितियाँ क्या हैं ? एक वाह्य परिस्थिति है, एक आंतरिक परिस्थिति है ।

साम्राज्यवादी देशों के मंसूबे

वाह्य परिस्थिति क्या है ? 1947 में हमें स्वातंत्र्य मिला किंतु केवल अकेले हिंदुस्तान को ही स्वातंत्र्य मिला ऐसी बात नहीं । दूसरे महायुद्ध के पश्चात् अंतरराष्‍ट्रीय परिस्थिति के दबाव के कारण उस समय के सफेद साम्राज्यवादी देशों को बाध्य होकर अपने-अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देनी पड़ी, लेकिन यह तो सारे सफेद साम्राज्यवादी देश थे, उनका अपने-अपने देश का आर्थिक ढाँचा स्वावलंबी नहीं था । वे देश बहुत समृद्ध हैं । ऐसा केवल ख्याल ही है । वास्तव में उनकी समृद्धि का आधार उपनिवेशों का शोषण था । जैसे हिंदुस्तान से सस्ता कच्चा माल इंग्लैंड ले जाना, वहाँ पक्का माल निर्माण कर हिंदुस्तान में निर्मित माल ज्यादा रेट में बेचना । हिंदुस्तान उनकी कॉलोनी होने के कारण रेडी मार्केट के रूप में उनके लिए उपलब्ध था । जैसे इंग्लैंड हमारा शोषण करता था वैसे ही सफेद साम्राज्यवादी देश थे, उनका अपने-अपने देश का आर्थिक ढाँचा स्‍वावलंबी नहीं था । वे देश बहुत समृद्ध हैं । ऐसा केवल ख्‍याल ही है । वास्‍तव में उनकी समृद्धि का आधार उपनिवेशों का शोषण था । जैसे हिंदुस्तान से सस्‍ता कच्‍चा माल ज्‍यादा रेट में बेचना । हिंदुस्तान उनकी कॉलोनी होने के कारण रेडी मार्केट के रूप में उनके लिए उपलब्‍ध था । जैसे इंग्लैंड हमारा शोषण करता था वैसे ही सफेद साम्राज्‍यवादी देश अपनी कॉलोनियों का आर्थिक शोषण कर रहे थे । अब परिस्थिति के दबाव के कारण स्वतंत्रता तो देनी पड़ी लेकिन उनका आर्थिक ढाँचा तो परावलंबी था । अब अगर यह आर्थिक शोषण अन्य देशों का बंद हो जाता है तो उनका आर्थिक ढाँचा टूट जाएगा । ऐसी परिस्थिति है, इसके कारण वे इस फिक्र में हैं कि किस तरह से आज की स्थिति में भी अपना आर्थिक साम्राज्य, इन सभी नव स्‍वतंत्र, अर्ध विकसित देशों में फैलाया जाए, इस चिंता में यह सारे देश हैं ।

श्वेत राष्ट्रों का आर्थिक साम्राज्य-निर्माण के प्रयास

आज जिस तरह से दुनिया का प्रचलित नक्शा है, उसमें इत्तिफाक से जितने विकसित पुराने साम्राज्यवादी देश हैं यह सभी उत्तर में आ गए हैं । और यह जा नव स्‍वतंत्र अविकसित देश हैं वे सारे दक्षिण में आते हैं । इसके कारण आज नई परिभाषा चल पड़ी है, उत्तरी देश व दक्षिणी देश । यह सारे उत्तरी देश इस चिंता में हैं कि दक्षिणी देशों का आर्थिक शोषण करते हुए अपने आर्थिक साम्राज्य का गढ़ किस तरह निर्माण किया जाए । इस चक्‍कर में ये सारे देश है किंतु रूस को जो सुविधा उपलब्ध है, वह सविधा उन देशों को उपलब्‍ध नहीं है । रूस का भी आर्थिक ढाँचा व समृद्धि स्‍वालंबी नहीं है । लेकिन रूस को आर्थिक शोषण करना है वे सभी छोटे-छोटे पूर्व यूरोपीय देश, पूर्व जर्मनी, बल्गेरिया, रूमानिया, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड आदि सारे रूस के बगल में हैं । देश छोटे हैं अतः प्रतिकार नहीं कर सकते, क्योंकि रूस टैंक की छाया में है । कभी भी गड़बड़ करेंगे तो रूसी सेना घुस सकती है । इसके कारण उनकी हिम्मत नहीं हो सकती इस तरह बगल में ही छोटे-छोटे देशों के शोषण करने की जो सुविधा रूस को है, वह इन सफेद साम्राज्यवादी देशों को नहीं है, इसके कारण अविकसित देशों में अपना आर्थिक साम्राज्य निर्माण करने की दृष्टि से उनको तरह-तरह से प्रयास करना पड़ता है । इसके लिए उनको आवश्यक हो जाता है कि इन सभी देशों में ऐसी सरकार स्थापित होनी चाहिए जो सरकारें अपनी जनता का शोषण करने की खुली छूट, साम्राज्यवादी देशों को दे दें । इस तरह की जनता विरोधी सरकारें इन सब नवस्वतंत्र देशों में स्थापित कराना उनको आवश्यक है । अगर सरकारें राष्ट्रभक्त होंगी और सोचेंगी कि हम अपने देश में किसी का आर्थिक साम्राज्य नहीं आने देंगे तो उन देशों का आर्थिक ढाँचा टूट जाएगा । वह गरीब हो जाएंगे, ऐसी आज की हालत है । इस दृष्टि से आर्थिक साम्राज्‍य के अड्डे, सभी नवस्वतंत्र देशों में स्‍थापित करने के लिए, जनता विरोधी एवं राष्‍ट्रीयता विरोधी सरकारें सभी नवस्‍वतंत्र देशों मे लाने का प्रयास उन साम्राज्‍यवादी देशों का है, वह उनकी आवश्‍यकता है यह एक वाह्य परिस्थिति है ।

आज का राजनैतिक ढाँचा देश के उपयुक्त नहीं

अब आंतरिक परिस्थिति क्या है ? हम जानते हैं कि हमारे देश में एक राजनैतिक ढाँचा है, एक संविधान है । इस संविधान के विषय में प्रारंभ से ही कहा गया था कि यह इस भूमि की उपज नहीं है, पश्चिम से वैसे के वैसे उठाकर यहाँ लाया गया है, अतः यह इस देश के लिए उपयुक्त नहीं होगा । यह बात राष्ट्रभक्त विचारकों ने प्रारंभ से ही कही थी । पूज्य महात्मा जी ने 1915-16 में एक छोटी-सी किताब लिखी 'हिंद स्वराज्य' उसमें उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हमारे देश में ब्रिटिश पार्लियामेंट्री सिस्टम ठीक नहीं चलेगा और अगर हम जबरदस्ती थोप देते हैं तो उसके घोर दुष्परिणाम होंगे । लोगों की हालत कैसी होगी उनके शब्द थे, 'एक वेश्या के समान जिसको खरीदा और बेचा जा सकता है ।' ऐसी लोगों की अवस्था हो जाएगी । ऐसा उन्होंने लिखा था । पिछले 40 साल का इतिहास देखें तो गांधी जी ने कितनी दूरदर्शिता की बात कही इसका हमें अंदाजा आ सकता है । लेनिन के साथ जिन्होंने काम किया, लेकिन बाद में स्वतंत्र विचारक होने के कारण जो कम्युनिज्म के ऊपर उठकर अपने देश का विचार करने लगे ऐसे एम. एन. राय ने कहा कि इस प्रकार का सिस्टम हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं होगा । बाबू जयप्रकाश नारायण और बिनोबा जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि यहाँ डेमोक्रेसी अच्छी हो सकती है । पोलिटिकल पार्टी का सिस्टम यहाँ ठीक नहीं चल सकेगा । योगी अरबिन्द ने स्पष्ट रूप से कहा और काफी पहले कहा कि पोलिटिकल पार्टी सिस्टम वह हिंदुस्तान के लिए विदेशी पद्धति है, वह यहाँ उपयुक्त नहीं हो सकता । परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा कि आज की जो पद्धति है वह पद्धति उपयुक्त नहीं, इसमें परिवर्तन लाना चाहिए , फंक्शनल रिप्रेजेंटेशन (व्यावसायिक प्रतिनिधित्व) लाना चाहिए । उस तरह के सुझाव उन्होंने दिए यानी जो विचारक राष्ट्रभक्त हैं उन्होंने पहले ही कहा था कि यह सिस्टम हमारे देश के लिए घातक है ।

कारण स्पष्ट है- आप देखिए कि यह देश कितना गरीब है । 60 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं और 42 करोड़ लोग निरक्षर हैं, 12 करोड़ लोग केवल हस्‍ताक्षर कर सकते हैं, वह लिखना पढ़ना नहीं जानते । जिस देश में गरीबी व निरक्षरता कर सकते हा, वह लिखना नहीं जानते । जिस देश में गरीबी व निरक्षरता इतनी भीषण हो उस देश में आज की पद्धति में, जो सरकार बनाना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि अपने एम.पी. व एम. एल.ए. की ज्यादा संख्या में चुनकर ले आएं एम;पी. व एम.एल.ए. जहाँ गरीबी व निरक्षरता इतनी भीषण है ज्‍यादा संख्‍या में अगर चुनकर लाना है तो आवश्‍यकता हो जाता है कि भ्रष्‍टाचार लाया जाए, पैसा बहाया जाए, तभी आज की स्थिति में ज्‍यादा लोगों को चुनकर लाना संभव हो सकता है ।

ध्येयवादी राजनीति के लिए धैर्य चाहिए

एक व्यक्ति ने राजनीति की यह परिभाषा की । उन्होंने हालाँकि मजाक में ही कहा किंतु बात सत्य है । उन्होंने कहा कि राजनीति एक सौम्य कला है-गरीब जनता से वोट प्राप्त करने की, इलेक्शन का धन श्रीमान् लोगों से लेकर दोनों को बताने की कि हम एक दूसरे का संरक्षण करेंगे । गरीबों से वोट और अमीरों से नोट प्राप्त करना-यह सौम्य कला यानी राजनीति है । यह बात आज बिल्कुल सही है और इसके कारण यदि हमारे देश में ऐसा कोई ध्येयवादी राजनीतिक दल हो जो सोचेगा कि हम भ्रष्टाचार नहीं करेंगे, देश लंबा-चौड़ा होने के कारण, जनता विशाल होने के कारण संपूर्ण जनता में राष्ट्रीय चेतना का व शिक्षा का स्तर ऊँचा करने में हो सकता है कि हमें 25-30 साल लगे तो भी चलेगा । किंतु हम साधन शुचिता छोड़ने वाले नहीं- शिक्षा का स्तर ऊँचा हो जाएगा, इस तरह की राष्ट्रीय चेतनायुक्त जनता हमें सत्ता में लाएगी तब तक हम निरपेक्ष बुद्धि से काम करते रहेंगे, चाहे 25 साल लगें, चाहे 30 साल लगें, इस तरह का धीरज रखने वाला जो राजनीतिक दल होगा, वही केवल साधन शुचिता को कायम रख सकता है ।

जिन्‍हें सत्ता में आने की जल्‍दबाजी हो गई है उनके लिए अपरिहार्य है कि उन्‍हें भ्रष्‍टाचार करना चाहिए, वोट खरीदना चाहिए और वोट खरीदने के लिए पैसा चाहिए । पैसा, पैसा वाले से ही आता है, गरीब लोगों से पैसा नहीं आता और पैसे वाला यदि पैसा देगा, वह राजा कर्ण नहीं है, शिवि नहीं, युधिष्ठिर नहीं है-हर्षवर्धन नहीं है जो कहेगा कि आओ, मेरा खजाना लूटकर ले जाओ, तो यहाँ एक-एक पैसे के पीछे शर्त होगी । पैसे वाला यदि पैसा देता है तो उसके पीछे शर्त है, मेरे निहित स्वार्थ का संवर्धन व रक्षण होगा । आज अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक स्वार्थ के लिए, राष्ट्रीय स्वाभिमान को बेचने के लिए तैयार ऐसे लोग पब्लिक चौराहे पर खड़े हैं जो धीरज नहीं रख सकते । कुछ सालों तक जिनकी धैर्य से काम करने की इच्छा नहीं है तो तुरंत कुछ न कुछ तिकड़मबाजी कर सत्ता में आना चाहते हैं और इसलिए जो काला पैसा प्राप्त करना चाहते हैं वे एक तरफ चौराहे पर खड़े हैं-राह देख रहे हैं कि मैं इतनी लंबी देर तक यहाँ चौराहे पर खड़ा हूँ मुझे खरीदने के लिए अभी तक कोई क्यों नहीं आ रहा है, इस चिंता में वे वहाँ पर खड़े हैं ।

विदेशी षड्यंत्रों से जनता विरोधी सरकारें

जो वाह्य परिस्थिति मैंने बताई, कि हमारे देश में और अन्य नवस्वतंत्र देशों में, अपने साम्राज्य के अड्डे निर्माण करने के हेतु जहाँ जनता विरोधी सरकारें जो आर्थिक शोषण अपनी जनता की करने देगी । इस तरह की जनता विरोधी सरकारें हमारे देश में व अन्य देशों के लिए चाहे जितना पैसा खर्च करने की जिनकी तैयारी है ऐसे कुछ विदेशी सरमायेदार और कुछ विदेशी सरकारें बाहर खड़ी हैं और इधर यह अपने को बेचने के लिए तैयार हैं, वह उधर खरीदने के लिए तैयार हैं, दोनों परिस्थितियों का संयोग होकर, आज की आर्थिक संकट परंपरा निर्माण हुई है । इस बात पर हमको गहराई से सोचना चाहिए । दुःख की बात है कि विदेशी सरमायेदार, इनका साथ देने के लिए यह जो सत्ता के लालच में धीरज न रखते हुए, चाहे जो शर्तें स्वीकार करते हुए सत्ता में आने की जहाँ नेताओं की तैयारी है वैसे ही अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थ के लिए, राष्ट्र की आर्थिक स्वतंत्रता को गिरवी रखते हुए, विदेशी सरमायेदार तैयार हुए हैं- यह हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है ।

मैं सभी सरमायेदारों की बात नहीं कर रहा क्योंकि छोटे और मध्यम सरमायेदारों का हिसाब ही नहीं है । जो बड़े सरमायेदार हैं-हमारे 20 एकाधिकारी घर हैं, वह अपने पारिवारिक स्वार्थ के लिए विदेशी सरमायेदारों का साथ दे रहे हैं और इस तरह मोनापली सरमायादार और भारत सरकार, चारों का मिलकर यह षड्यंत्र है । इस षड्यंत्र की शर्त यह है कि उनके निहित स्‍वार्थ का संवर्धन व संरक्षण होना और यह संबर्धन व संरक्षण यदि करना है, तो हिंदुस्तान की गरीब जनता को कुचले बगैर, हिंदुस्तान की गरीब जनता का शोषण किए बगैर उनके निहित स्‍वार्थों का संरक्षण व संवर्धन नहीं हो सकता और इसलिए, उन लोगों का जो आश्‍वासन दिए हैं उन आश्‍वासनों की पूर्ति करने के लिए, गरीब जनता पर हमला करने की पूरी तैयारी सरकार कर चुकी है । उसी का प्रतीक परिचायक यह बात है कि पूरी तैयारी सरकार कर चुकी है । उसी का प्रतीक परिचायक यह बात है कि हड़ताल का अधिकार छीन लेने वाला कानून सरकार ने लाया है ।

मजदूर संघ एक राष्ट्रभक्त संगठन

भारतीय मजदूर संघ, एक राष्ट्रभक्त मजदूर संगठन है, हम यह नहीं चाहते कि उत्पादन में बाधा आए किंतु औद्योगिक शांति, इसकी जिम्मेवारी सिर्फ मजदूर ही नहीं हो सकती अपने स्वार्थ के लिए, मालिक, मैनेजमेंट, सरकार, सरकार के अफसर यह यदि गैरजिम्मेवारी का व्यवहार करते हैं, मजदूरों की जायज माँगे मानने से फिर जायज माँगे मनवाने के लिए, अंतिम शस्त्र के रूप में, हड़ताल करने का अधिकार मजदूर को होना ही चाहिए । यह नीति भारतीय मजदूर की है । जैसे काम करने के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में डाला जाना चाहिए वैसे हड़ताल करने के अधिकार को भी मौलिक अधिकारों की सूची में डाला जाना चाहिए । यह प्रारंभ से हम लोगों ने कहा है । हाँ राष्‍ट्रभक्ति के कारण हम यह चाहते हैं कि हड़ताल का लोकतांत्रिक अधिकार, यह छीन लेने का सरकार को अधिकार नहीं लेकिन ऐसी कानूनी मशीनरी बनानी चाहिए, जिसके कारण मजदूरों में यह विश्वास निर्माण हो कि हड़ताल पर जाने की आवश्यकता नहीं होगी । हमारी उचित बातें इस मशीनरी के कारण पूरी हो सकती हैं । किस तरह की मशीनरी बन सकती है । इसके ठोस सुझाव भारतीय मजदूर संघ ने समय समय पर दिए हैं ।

हड़ताल का अधिकार छीनना लोकतंत्र विरोधी

हड़ताल का लोकतांत्रिक अधिकार मजदूरों का छीन लेना यह मजदूर विरोधी बात है । इस बात को भारतीय मजदूर संघ बर्दास्त नहीं कर सकता । यह जो हमला हुआ है इसका प्रमुख कारण, विदेशी सरमायेदार, कुछ विदेशी सरकारें, हमारे मोनोपली सरमायेदार, भारत सरकार व इनका गरीब विरोधी और जनतंत्रीय विरोधी साँझा मोर्चा बनाना है । यह संयुक्त मोर्चा बना है उसके कारण यह हमला हो रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि जब गरीबों का शोषण शुरू होगा, देश के चारों ओर फैला हुआ गाँवों का कारीगर असंगठित है, क्या खेतिहर मजदूर, क्या गाँव में फैले हुए बेरोजगार और अर्ध बेरोजगार बेचारे असंगठित हैं, प्रतिकार नहीं कर सकते । प्रतिकार तो यह शहर का औद्योगिक मजदूर करेगा, इसकी कमर यदि तोड़ दी जाती है तो बाकी लोगों का शोषण हम आराम से कर सकते हैं, कोई आवाज नहीं उठाएगा यह समझकर संगठित मजदूरों पर यह हमला हुआ है ।

तानाशाही कायम करने की नई रणनीति

यह हमला, सिर्फ संगठित मजदूरों पर है ऐसा अगर किसी का ख्याल होगा तो वह गलत बात है । यह जो संयुक्त मोर्चा है; सरमायेदारों व सरकार का इसका आगे चलकर क्या मतलब होता है यह भी देखना चाहिए । जून 1975 में तानाशाही लाने का प्रयास हुआ, क्यों हुआ ? कारण स्पष्ट है । गरीब विरोधी नीतियों को लेकर यदि सरकार चलती है, सरकार के पास प्रोपेगंडा मशीनरी अच्छी होगी, लेकिन ज्यादा देर तक जनता को गुमराह नहीं किया जा सकता । गरीब लोग नेताओं का सच्चा स्वरूप समझ जाएंगे और यदि उस अवस्था में लोकतंत्र कायम रहता है और चुनाव होते हैं, तो आज के सरकारी दल को फिर चुनकर लाना असंभव हो जाएगा और इस दृष्टि से यह सोचा गया कि लोकतंत्र को समाप्त करते हुए तानाशाही लाना चाहिए ताकि अपने व्यक्तिगत पारिवारिक स्वार्थ सिद्ध होते रह सकें, चुनाव का झंझट नहीं, तानाशाही कायम हो जाएगी । विदेशी व देशी सरमायेदारों का लाभ बनता रहेगा और भारत सरकार की अपनी कुर्सी बनी रहेगी । 75 में यह विचार था और आज भी यह विचार है लेकिन जून 1975 में, जो गलतियाँ की थीं, उनको न दोहराने का विचार सरकार ने किया है । उस समय की सबसे बड़ी गलती यह थी की एकदम आपात्काल लाया गया इसके कारण इकट्ठे एक ही समय सबको दुश्‍मन बनाया गया और इसके दुष्‍परिणाम् 19 महीने के बाद उनको भुगतने पड़े । इस गलती को दुबारा न दुहराने का विचार सरकार ने किया है यह नई रणनीति सरकार ने ली है । यह रणनीति है, एक एक को पकड़कर उसकी पिटाई करना और बाकी जनता को समझाना कि यह बदमाश थे, गड़बड़ कर रहे थे इसलिए इनकी पिटाई हो रही है । आपसे हमारी दोस्ती है आपके खिलाफ कुछ नहीं है । ऐसा बाकी लोगों को शांत रखना । एक की पिटाई हो जाएगी, फिर दूसरे को पिटाई के लिए पकड़ना- इस तरह एक-एक को पकड़ कर पिटाई करना । यह नई रणनीति सरकार ने अपनाई है और इसमें पहला नंबर संगठित मजदूरों का आया हुआ है ।

दूसरी बारी प्रेस की

यह आखरी नंबर नहीं है, मजदूर यदि इस लड़ाई में हार जाते हैं । मजदूर आंदोलन की कमर अगर टूट जाती है तो दूसरा नंबर प्रेस का आने वाला है, यह बात मैं विश्‍वासपूर्वक कहना चाहता हूँ । आगे नंबर आने वाला है इतनी ही बात नहीं आज समाचार पत्रों में प्रकाशित नहीं होता, किंतु मैं जानता हूँ कि जो बड़े राष्‍ट्रीय वृत्तपत्र हैं, जिनका सरकुलेशन बहुत बड़ा है, आर्थिक स्थिति अच्‍छी है । इसके कारण सरकार के खिलाफ टीका-टिप्पणी करने का साहस जो रख सकते हैं ऐसे बड़े राष्ट्रीय वृत्तपत्रों के अंतर्गत कारोबार में हस्तक्षेप करते हुए गड़बड़ निर्माण करने का प्रयास आज भी अप्रत्यक्ष अपने एजेंटों के द्वारा सरकार ने किया हुआ है । और में यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि जब मजदूर आंदोलन की कमर टूट जाएगी, दूसरा नंबर वृत्तपत्रों का आएगा और वह खत्‍म हो जाएगा

तीसरा प्रहार अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों पर होगा

तीसरा नंबर सभी प्रकार की लोकतांत्रिक शक्तियों का आएगा, इस तरह एक-एक को पकड़ कर पिटाई करना, यह नई रणनीति सरकार ने तय की है । माने इस लड़ाई में मजदूरों की पिटाई हो रही है, लोकतंत्र की समर्थक शक्तियाँ यदि जागरूक नहीं रहीं इस लड़ाई का सच्चा स्वरूप उन्होंने नहीं समझ लिया और मजदूरों की यदि हार हो जाती है तो लोकतांत्रिक शक्तियों को बहुत बड़ी चोट पहुंचने वाली है किंतु इस लड़ाई में मजदूरों की विजय होती है तो तानाशाही लाने वाली शक्तियों को बड़ी चोट पहुँचाने वाली है । माने यह लड़ाई यद्यपि बाहर से दीखने के लिए केवल मजदूरों की अपने अधिकारों की लड़ाई होगी । वास्तव में यह एक श्रृंखला की एक कड़ी है ।

सरकार द्वारा मजदूरों पर आक्रमण-तानाशाही - श्रृंखला की एक कड़ी

सरकार का यह आक्रमण, यह अकेली घटना नहीं-इस श्रृंखला की पहली कड़ी है और इसमें यदि मजदूर हार जाता है, तो स्वतंत्रता को धक्का लगेगा । यह मजदूर के हड़ताल के अधिकार की लड़ाई नहीं तो लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है । यह बात सभी लोकतांत्रिक शक्तियों को समझना चाहिए । हमारे इधर एक कहावत है कि महिलायें सुबह के समय अनाज के दाने पीसने के लिए बैठती हैं तो कुछ अनाज के दाने चक्की में चले जाते हैं और कुछ अनाज के दाने बाहर किसी महिला के हाथ सूप में आनंद से नाचते रहते हैं । यह जो सूप में आनंद से नाचने वाले दाने हैं यह चक्की में जो दाने गए हैं उनकी ओर देखते हैं और कहते हैं, इनकी अच्छी पिसाई हो रही है, होने दो लेकिन वे नहीं जानते कि दस मिनट बाद उनका भी नंबर आने वाला है, उनको भी चक्‍की में डाला जाएगा उनकी वैसे ही पिसाई होगी जैसे आज इनकी हो रही है ।

केवल श्रमिकों की नहीं यह तो 'लोकतंत्र बचाओ' की लड़ाई है

सरकार के प्रोपेगंडा के कारण लोकतंत्र के समर्थक लोग भी ऐसा मान रहे हैं कि यह तो मजदूरों की लड़ाई है । हमें इसमें लेना-देना क्या है ? किंतु वे नहीं जानते कि यदि इसमें मजदूरों की पिसाई पूरी तरह से हो गई, तो अगला नंबर तुम्हारा भी आने वाला है- लोकतंत्र के समर्थक लोग इस बात को अभी जानते नहीं हैं । यदि उन्होंने यह जागरूकता नहीं रखी और इस लड़ाई में मजदूर आंदोलन का पूरा समर्थन नहीं किया, मजदूर हार जाएगा इतनी ही बात नहीं तो लोकतंत्र को समाप्त करने के प्रयास में, तानाशाही लाने के प्रयास में भारत सरकार को बहुत बड़ा समर्थन व शक्ति प्राप्त होगी । यह बात सोच समझकर सभी लोकतंत्र के समर्थकों को ध्यान में रखनी चाहिए और यह लड़ाई केवल मजदूरों के अधिकार की लड़ाई नहीं, यह लोकतंत्र को बचाओ की लड़ाई है, यह समझकर इस लड़ाई में मजदूरों का पूरी ताकत से समर्थन करना चाहिए ।

संकट परम्परा का मूल कारण-स्वाभिमान शून्यता ।

वैसे ही इस संकट परंपरा का मूल कारण क्‍या है इसका विचार सभी राष्‍ट्र भक्‍त लोगों को करने की आवश्‍यकता है । मैं केवल मजदूर क्षेत्र तक सीमित बात नहीं कर रहा । आज चारों ओर एक निराशा का वायुमंडल है । सभी देशभक्‍त सोच रहे हैं कि क्‍या होगा ? 34 साल तक हम कुछ बना नहीं पाए हमारी तो एक के बाद एक अधोगति होती जा रही है, मालूम होता है कि हमारे अन्‍दर वह क्षमताएं नहीं हैं जिनके आधार पर देश को ऊपर लाया जा सकता है । इस तरह आत्‍मग्‍लानि का‍ विचार देशभक्‍त लोगों के मन में निर्माण हो रहा है । हम देखते हैं कि दूसरा विश्‍व युद्ध, जर्मनी व जापान की भूमि पर लड़ा गया था इसके कारण वे देश उद्ध्वस्त हो गए थे, लेकिन इतने थोड़े समय में दोनों ने अपने राष्ट्र का इतना निर्माण किया कि आज जर्मनी की दहशत सारे यूरोप पर है और आर्थिक दृष्टि से जापान का येन अमेरिका के डालर को धक्का दे रहा है-इतनी प्रगति दोनों देशों ने की । हमारे देश में तो महायुद्ध लड़ा नहीं गया था, तो भी हम नीचे जा रहे हैं । लोगों के मन में यह भ्रम है कि हम नीचे जा रहे हैं इसका कारण ऊपर उठने की हमारी क्षमता नहीं और इसलिए अब आशा के लिए कोई गुंजाइश नहीं, इस प्रकार का विचार सर्वसाधारण नागरिक के मन में आ रहा है । बात बिल्कुल गलत है । हमारे देश में वह सारी क्षमताएं हैं जिसके आधार पर किसी भी राष्ट्र को दुनिया का एक महान राष्ट्र बनाया जा सकता है । हमारे पास साधनों की शक्ति है, हमारे पास मनुष्य बल है, हमारे पास वह गुणवत्ता है जिसके कारण आज पश्चिमी देश प्रगति कर रहे हैं । अमेरिका का 'नासा' जहाँ आकाशीय विज्ञान की प्रयोगशाला है वहाँ अगर आप जाएंगे तो अमेरिकन व जर्मन वैज्ञानिक व टेकनॉलॉजिस्ट के कंधे से कंधा लगाकर हमारे भारतीय वैज्ञानिक और टेकनॉलॉजिस्ट काम कर रहे हैं और वहाँ उनको समान इज्जत दी जाती है यह आपको दिखाई देगा । हम विज्ञान में, टेकनॉलॉजी में, गुणवत्ता में कम नहीं । ऊपर आने के लिए यह सारा मसाला हमारे पास तैयार है । फिर हम नीचे क्यों जा रहे हैं । इसका एक ही कारण है । शासन चलाने वाले नेताओं में राष्ट्रीय स्वाभिमान नहीं ।

अपने पैरों पर खड़े होने की आवश्यकता

हम अपने राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेंगे, यह आकाँक्षा नहीं, केवल व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थ के लिए सत्ता का उपयोग करने की सीमित इच्छा है, राष्ट्र को बड़ा बनाने की इच्छा नहीं है इसके कारण आप जानते हैं हमारे देश में जो योजनायें चल रही हैं । ऐसा दीखता होगा कि प्लानिंग कमीशन के सभी सदस्य भारतीय हैं, लेकिन उनका मार्गदर्शन व निर्देशन सारा विदेशी विशेषज्ञ कर रहे हैं और विदेशी विशेषज्ञ अपनें देशों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हमारे देश की योजनाएं बना रहे हैं । सारे हिंदुस्तान का प्लानिंग विदेशों की सुविधा को ध्यान में रखकर हो रहा है, यह बात चारों ओर दिखाई दे रही है, हम अपने बल पर खड़े हो जाएं, वैसी आज की स्थिति नहीं है ।

चीन स्‍वावलंबी कैसे बना ?

हमारे नजदीक चीन है उसका उदाहरण हम लेंगे । चीन के माओ जितने कम्युनिस्ट थे उतने अधिक राष्ट्र भक्त भी थे । उन्होंने किस तरह व्‍यवहार किया, हमारे नेता किस तरह व्‍यवहार करते हैं, एक छोटा-सा उदाहरण मैं आपको बताना चाहता हूँ । आप जानते हैं कि 1948 में चीन में राज्‍य क्रांति हुई । कम्‍युनिस्‍टों के हाथ में चीन की बागडोर आई, उस समय चीन में अंतरराष्‍ट्रीय साम्‍यवाद का वायुमंडल था ।, सारी दुनिया के कम्‍युनिस्‍ट देश एक हैं, यह स्‍वप्‍न रंजन चल रहा था । रूसी चीनी भाई-भाई के नारे चल रहे थे और इस कारण जो चीन की प्रथम पंचवार्षिक योजना थी वह पूरी तरह से रूस ने तैयार की हुई थी । योजना बनाने वाले रूसी, योजना के कार्यान्वयन के लिए विशेषज्ञ सारे रूसी थे । प्लान व प्रोजेक्ट की सारी मशीनरी भी रूसी थी । उनको लगता था कि अंतरराष्‍ट्रीय साम्यवाद है, वह आए या हम रहें क्या-एक ही बात है, ऐसा स्वप्न रंजन चल रहा था । लेकिन धीरे-धीरे माओ के ख्याल में आया कि यह अंतरराष्‍ट्रीयता का नारा धोखा है । रूस अपना आर्थिक साम्राज्य यहाँ फैलाना चाहता है । यह दादागीरी हम नहीं चलने देंगे । यह राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना, माओ और उनके साथियों में जाग्रत हुई और उन्होंने निश्चय किया कि रूस को यहाँ से हटाना है । कोल्ड वार शुरू हुई और 1960 में रूस व चीन का संबंध विच्छेद हो गया । जिस समय दबाब लाया जा सकता है, दबाब की नीति लाई जा सकती है और इस दृष्टि से जैसे ही संबंध विच्‍छेद हुआ वैसे ही उन्‍होंने तुरंत दबाब लाने के लिए अपनी सारी पूँजी वापस ले गए अपने सारे विशेषज्ञों को वापस बुला लिया और अपनी सारी मशीनरी वापस ले गए, क्योंकि सारे प्लान व प्रोजेक्ट रूसी मशीनरी के सहारे चल रहे थे अत: वे सोच रहे थे कि इसके कारण माओ दब जाएगा, झुक जाएगा और हमारी शरण में आ जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ । वे धीरज के साथ राष्ट्रभक्ति के साथ खड़े रहे । चीन की जो परंपरागत पद्धतियाँ व योजनाएं थीं उसको उन्होंने बढ़ावा दिया, लोग समझ सके इतनी तकनीकी जानकारी देते हुए उन परंपरागत स्कीमों को बढ़ावा दिया । रशियन विशेषज्ञों ने कुछ सिखाया नहीं था तो भी देख-देखकर उनके नीचे काम करने वाले चीनी लोगों को सीखना चाहिए उस प्रक्रिया में से अपने विशेषज्ञों को ट्रायल एंड एरर (प्रयास एवं त्रुटि) पद्धति से अपने प्रोजेक्ट्स को चलाने की इजाजत दी । अपने वैज्ञानिकों और अपनी तकनीकियों के भरोसे देश का निर्माण करने का प्रयास किया ।

एक उदाहरण

आज हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान-शून्य सरकारी नौकर किस तरह काम कर रहे हैं-एक छोटा उदाहरण तुलनात्मक विवेचन के लिए आपके ख्याल में आ जाए इसलिए मैं देना चाहता हूँ । अभी कलकत्ता के पास हुगली नदी पर दूसरा पुल बनाने का कार्य चल रहा है । वास्तव में यह पुल बनाने के लिए उत्तम कौशल्य हमारे देश में है । जो योजना कर सकते हैं, ब्ल्यूप्रिंट बना सकते ऐसे इंजीनियर व तकनीक हैं-सभी भारतीय हमारे पास हैं । लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि ड्राफ्ट प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने से लेकर अब तक हमारे किसी इंजीनियर को उसमें नहीं लिया गया न हमारे विशेषज्ञ की सहायता ली गई । विदेशी विशेषज्ञ, इंजीनियर और तकनीकी आए और उनके नीचे काम करने का कार्य भारतीयों को बताया जा रहा है । इसकी तुलना में दूसरा उदाहरण देखिए । 1960 में जब यह दिखाई देने लगा कि अब रूस से संबंध विच्छेद होगा- उसके एक डेढ़ साल पहले वहाँ की एक बड़ी नदी, यांगसी पर पुल बनाने का कार्य चल रहा था । रूसी मशीनरी थी । रूसी विशेषज्ञ थे । थोड़े दिन की बातचीत के बाद सरकार लोगों को हम दूसरी जगह भेजना चाहते हैं, वहाँ बड़ा जरूरी काम है । आपके बिना हो नहीं सकता । उन्‍होंने कहा कि हम जाएंगे तो इस पुल का काम अधूरा रहेगा, सरकार ने कहा कि इसे अधूरा रहने दीजिए वहाँ ज्‍यादा जरूरी काम है । सारी फौज रूसी विशेषज्ञों की वहाँ भेजी गई । कुछ महीनों के बाद उनको दुबारा यहाँ लाया गया उनको आश्‍चर्य हुआ कि पुल का कार्य पूरा हो गया है । सरकार ने पूछा कि आपके जो स्पेसीफिकेशंस थे, उसमें और जो पुल तैयार हुआ है उसमें कितना अंतर है ? उन्होंने खोजकर निकाला केवल 1.5 सेंटीमीटर का अन्तर था उसके बाद उनके आश्चर्य को धक्का देनेवाली एक घटना हुई । उनको एक दूसरे स्थान पर ले गए । पुल बनाने की जो रूसी मशीनरी थी ऐसे दो सेट रखे गए थे । उनको बताया गया कि इसमें एक सेट आपका है । एक सेट हमने तैयार किया है आपका सेट कौन सा है और हमारा सेट कौन सा है, यह जरा पहचान लीजिए । वह पहचान नहीं सके । जब यह सारे विशेषज्ञ दूसरी जगह गए थे-बीच की कालावधि में इस मॉडल की पूरी नकल इतने अच्छे ढंग से उन्होंने की वह पहचान नहीं सके कि इसमें रूसी मशीनरी कौन सी है और चीनी मशीनरी कौन सी है ।

यह प्रयास इस तरह का जगह-जगह जो किया इसके कारण उन्होंने अपने राष्ट्र के सामने राष्ट्रीय स्वाभिमान की घोषणा रखी । केवल भाषण में घोषणा नहीं की । क्या राष्ट्रीय स्वावलंबन का कुछ भी मतलब हो सकता है अगर विदेशों से गेहूँ लाकर यहाँ खाया जाए । उन्होंने यह एक लक्ष्य रखा, कि हमारा राष्ट्रीय पुनः उत्थान हमारे ही प्रयासों के आधार पर होगा, यह राष्ट्रीय स्वाभिमान की घोषणा उन्होंने की । एक महान प्रयास करते हुए हम देखते हैं कि चीन में उनका राज्य हमारे बाद आया, जैसे मैंने कहा कि माओ जितना कम्युनिस्ट था उससे अधिक कट्टर वह राष्ट्रभक्त था, राष्ट्रभक्ति के आधार पर महान प्रयास करते हुए आज चीन हमसे आगे निकल गया, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है।

राष्ट्रीय स्वालंबन का निश्चय करें

यदि हमने प्रयास किया होता, उसमें हम असफल होते तब तो निराशा की बात थी । इस दिशा में हमने प्रयास ही नहीं किया है । हम तो दुनिया को शांति देने के लिए निकले और अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक स्‍वार्थ के लिए हिंदुस्तान की आर्थिक स्‍वतंत्रता, हिंदुस्तान का सार्वभौमत्‍व, विदेशियों को बेचने में कोई शरम नहीं लगी । ऐसी हमारे यहाँ नेताओं की आज अवस्‍था है । माने आज यदि हमारी गिरावट है, है इसके कारण नहीं कि ऊपर उठने की हमारी क्षमता नहीं । तो हर तरह की क्षमताएं हमारे देश के अंदर हैं । हम यदि राष्ट्रीय स्वाभिमान से युक्त होकर, यह निश्चय करेंगे कि हमारा राष्ट्रीय पुनः उत्थान हमारे ही प्रयासों के आधार के ऊपर करेंगे तो यह मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस शताब्दी के अंत तक हमारा देश दुनिया के प्रथम श्रेणी के देश जाकर बैठ सकता है । इतनी क्षमता देश के अंदर है । क्षमताओं का अभाव नहीं तो इच्छाशक्ति का अभाव है और इस इच्छाशक्ति के अभाव के कारण राष्ट्रीय स्वाभिमान को भूलकर जहाँ 1947 में बड़ी कुर्बानी के बाद हमने राजनैतिक स्वातंत्र्य प्राप्त किया, आज फिर से हमारी स्वतंत्रता व सार्वभौमत्व बेचने के लिए नेता लोग तैयार हो गए हैं । इसी में से आर्थिक संकट परंपरा निर्माण हुई है, विदेशियों की सुविधा के लिए, हमारी गरीब जनता पर और मजदूरों पर कुठाराघात हो रहा है । यह कार्य-कारणभाव ध्यान में रखना चाहिए ।

लोकतंत्र की लड़ाई

यदि हम यह ध्यान में रखते हैं तो यह लड़ाई सरकार-विरोधी मजदूरों की लड़ाई है, यह सिर्फ मजदूरों की लड़ाई है ऐसा समझना गलत होगा । यह राष्ट्रीय स्वाभिमान को बचाने की लड़ाई है और इस दृष्टि से सभी राष्ट्रभक्त लोगों ने इस लड़ाई में मजदूरों का समर्थन करना चाहिए । याने यह लड़ाई केवल संगठित मजदूरों की नहीं तो संपूर्ण गरीब जनता की है । केवल गरीब जनता की नहीं आम जनता की है । लोकतंत्र के समर्थकों की यह लड़ाई है । राष्ट्रभक्त शक्तियों की यह लड़ाई है । इस लड़ाई का सच्चा स्वरूप समझते हुए लोकतंत्र के सभी समर्थक राष्ट्रीय स्वाभिमान की चिंता करने वाले राष्ट्रभक्त-सभी लोगों ने इस संघर्ष में मजदूरों का साथ देना चाहिए। यह बात आज जनता को समझाने की आवश्‍यकता है ।

आज के इस अवसर पर में समझता हूँ कि बहुत कुछ बोलना उचित ही नहीं होगा, आवश्यक भी नहीं होगा, किंतु मजदूरों के लिए, गरीबों के लिए, लोकतंत्र के लिए, राष्ट्र के आर्थिक स्वातंत्र्य व सार्वभौमत्व के लिए जो बड़ा खतरा सामने दिखाई पड़ रहा है इसके कारण स्वाभाविक रूप से मन में आने वाली कुछ बातें आपके सामने रखी हैं ।

(वर्ष 1981 में जोधपुर में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा विशिष्ट नागरिकों व मजदूर कार्यकर्ताओं के सम्मुख दिया गया भाषण।)

''को वैदिस (QUO VADIS)"

-दत्तोपंत ठेंगड़ी

('को-वैदिस' शीर्षक से डॉ. एम. जी वोकरे द्वारा रचित 'हिंदू इकोनामिक्स' ग्रंथ की श्री ठेंगड़ी जी ने लिखी हुई प्रस्तावना के कारण ग्रंथ की उपादेयता को चार चाँद लग गए हैं और सोने पर सुहागे जैसा काम हुआ ऐसा विद्वानजनों का कहना है ।

प्रस्तावना मूल अंग्रेजी भाषा में लिखी गई है । उसके एक महत्वपूर्ण अंश का हिंदी में अनुवाद करके यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है किंतु संपूर्ण प्रस्तावना का पाठ उसी भाषा में जिसमें वह लिखी गई है, पढ़ना पाठकों की दृष्टि से हितकर एवं उपकारक होगा । अतः इस सुझाव के दृष्टिगत मूल प्रस्तावना को यथारूप इस खंड के आखिरी भाग (पृ. 237) पर जोड़ा गया है।)

"प्रगति और विकास की हिंदू संकल्पना से पाश्चात्य विचार सर्वथा भिन्न है । 1972 की ठाणे बैठक में श्री गुरुजी (मा.स. गोलवलकर) ने आर्थिक समस्याओं पर आधारभूत हिंदू दृष्टिकोण स्पष्ट किया था । उनके प्रतिपादन से सहज ही प्राप्त निगमन (निष्कर्ष) निम्नलिखित हैं:

(1) प्रत्येक नागरिक (राष्ट्रिक) की जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ अनिवार्यतः पूरी होनी चाहिए ।

(2) भौतिक संपदा का अर्जन परमेश्वर के व्यक्त रूप समाज की सेवा के उद्देश्य से, सर्वोत्तम नैतिक पद्धति से किया जाए और उस धन या संपत्ति में से अपने ऊपर न्यूनतम अंश ही व्यय किया जाए । स्वयं उतना ही स्वीकार करिए, जितना आपको सेवा कर सकने योग्य बनाए रखने के लिए आवश्यक हो । उससे अधिक का स्‍वयं व्‍यक्तिगत उपयोग करना अथवा उस पर अपना स्‍वत्‍व बताना (अधिकार जताना) समाज की चोरी करना है ।

(3) इस प्रकार हम समाज के न्‍यासी (रखवाले) मात्र हैं । समाज के सच्चे न्यासी बनकर ही हम उसकी सर्वोत्तम सेवा कर सकते हैं ।

(4) परिणामत: व्यक्तिगत संग्रह की कुछ सीमा अवश्य निर्धारित की जानी चाहिए । निजी लाभ के लिए किसी अन्‍य के श्रम का शोषण करने का अधिकार किसी को नहीं है ।

(5) करोड़ों लोग जब भुखमरी से ग्रस्त हैं, तब अभद्र, आडंबरयुक्त एवं दुरुपयोगपूर्ण व्यय पाप है । सभी प्रकार के उपभोग पर समुचित मर्यादाएँ अवश्य होनी चाहिएँ । उपभोक्तावाद हिंदू संस्कृति की भावना (अंतश्चेतना) से मेल नहीं खाता ।

(6) हमारा आदर्शवाक्य 'अधिकतम उत्पादन और समतायुक्त वितरण होना चाहिए तथा ' राष्ट्रीय स्वावलंबन ' हमारा तात्कालिक लक्ष्य है ।

(7) अनाजीविका और अपूर्ण जीविका (बेकारी तथा अर्धबेकारी) की समस्या से युद्ध स्तर पर निपटा जाना चाहिए ।

(8) यद्यपि औद्योगीकरण अपरिहार्य है, तो भी उसमें पश्चिम के अंधानुकरण की आवश्यकता नहीं है । प्रकृति का दोहन करना चाहिए, हत्या नहीं । पर्यावरण के घटक, प्रकृति का संतुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्यकताएँ कभी दृष्टि से ओझल नहीं होनीं चाहिएं । शिक्षा, पर्यावरण, अर्थशास्‍त्र और नीतिशास्‍त्र का समेकित (एक साथ, समग्र) विचार किया जाना चाहिए ।

(9) पूँजीपरक उद्योगों की अपेक्षा श्रमाभिमुख उद्योगों पर अधिक बल देना चाहिए ।

(10) हमारे प्रौद्योगिकीविदों का यह दायित्व होना चाहिए कि वे शिल्पियों के हित के लिए उत्पादन की परम्परागत प्राविधियों में ऐसे ग्राह्य परिवर्तन समाविष्‍ट करें, जिनसे कामगारों के नियुक्ति (रोजगार) खो बैठने, उपलब्‍ध प्रबंधकीय एवं प्राविधिक निपुणता के व्‍यर्थ हो जाने तथा उत्‍पादन के वर्तमान साधनों के पूर्ण विपूँजीकरण का जोखिम न हो; उत्‍पादन-प्रक्रिया के विकेंद्रीयकरण करें, जिसमें विद्युत् शक्ति का उपयोग हो, किंतु उत्‍पादन का केंद्र कारखाना नहीं वरन् घर को बनाया जाए अर्थात् उत्‍पादन-कार्य घर-घर में हो, केंद्रीयकृत कारखानों में नहीं ।

(11) दक्षता और सेवायोजन (रोजगार) के प्रसार में तालमेल बिठाना आवश्यक है ।

(12) प्रत्येक उद्योग में श्रम भी एक प्रकार की पूँजी है । प्रत्येक कामगार के श्रम का मूल्यांकन अंशपूँजी (शेयर) के रूप में होना चाहिए और कामगारों को श्रम के रूप में अंशदान करने वाले अंशधारियों (शेयरहोल्डर) के स्तर पर उन्नत किया जाना चाहिए ।

(13) उपभोक्ता का हित राष्ट्रीय हित का निकटतम आर्थिक समतुल्य है । सभी औद्योगिक संबंधों में समाज तीसरा और अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है । 'सम्मिलित सौदेबाजी' की वर्तमान पाश्चात्य संकल्पना इस दृष्टिकोण से संगत नहीं है । इसके स्थान पर 'राष्ट्रीय प्रतिबद्धता' जैसी किसी अन्य शब्दावली का प्रयोग किया जाना चाहिए, जिसका अर्थ होगा नियोक्ता और नियुक्त (मालिक और कामगार) दोनों की राष्ट्र से प्रतिबद्धता ।

(14) उद्योगों के स्वामित्व के बारे में किसी प्रकार की अनन्य रूढ़िवादिता की आवश्यकता नहीं है । निजी उद्यम, राज्य-स्वामित्व, सहकारिता, नगरपालिका-स्वामित्व, स्वनियोजन (स्वरोजगार), संयुक्त स्वामित्व (राज्य तथा निजी), जनतंत्रीकरण इत्यादि जैसे उसके अनेक प्रकार हैं । प्रत्येक उद्योग के स्वामित्व का प्रकार उसकी स्वगत विशिष्टताओं तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की समस्त आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित किया जाना चाहिए।

(15) सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के कितने भी प्रकार विकसित करने के लिए हम स्वतंत्र हैं, शर्त यह है कि वह 'धर्म' के मूलभूत सिद्धांतों से सुसंगत हो ।

(16) किंतु यदि प्रत्येक नागरिक का व्यक्तिगत मानस समुचित रूप से न ढाला जाए तो समाज की बाहरी संरचना में लाए गए परिवर्तन व्यर्थ जाएंगे । वस्तुतः किसी भी प्रणाली का सफल या असफल होना उसमें कार्य करने वालों पर निर्भर है ।

(17) व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों के बारे में हमारा दृष्टिकोण संघर्ष का नहीं है वरन् सदा ही सामंजस्य एवं सहयोग का रहा है । ऐसे भावों का सृजन इस अनुभूति से होता है कि सभी व्यक्तियों का अंतर्यामी सत् एक ही है । एकल व्यक्ति संयुक्त सामाजिक व्यक्तित्व का एक जीवित अंग है ।

(18) संपूर्ण राष्ट के साथ तादात्म्य (एकात्मता) के संस्कार किसी भी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के वास्तविक सामाजिक ताने-बाने का निर्माण करते हैं । सभी हिंदू संस्कारों में यज्ञ (अर्पण) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.... बाह्य भौतिक जगत में परिवर्तन आने से पूर्व मनुष्य की अंतश्चेतना का उपयुक्त विकास होना आवश्यक है ।"

(संपूर्ण प्रस्तावना मूल अंग्रेजी में पृ. 237 पर)

असफल मार्क्स से सफल ठेंगड़ी जी तक -दो भिन्न विचार दर्शनों का विवेचन

(From Failed Marx to Successful Thengadiji-A Travel Through Two Paradigms)

Saji Narayanan C.K.

Thrissur (Kerala)

(श्री सजी नारायणन ने मा. ठेंगड़ी जी द्वारा मार्क्सवाद की विस्तृत व्याख्या को इस लेख के माध्यम से गागर में सागर भरने जैसा कार्य किया है । उनका यह लेख वास्तव में ठेंगड़ी जी के विचार दर्शन का निचोड़ है जो मूल अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है । इस लेख की मौलिकता अंग्रेजी भाषा में ही निखरकर सामने आती है । अत : लेख के प्रारंभिक अंश हिंदी में अनुवाद करके यहाँ प्रकाशित किए जा रहे हैं किंतु संपूर्ण लेख (मूल अंग्रेजी में) यथावत् इस खंड के अंतिम भाग में (पृ. 214) पर यथारूप जोड़ा गया है ।)

साम्यवाद

समस्त समाजशास्त्रियों के लिए यह एक अनवूझ पहेली है कि मार्क्सवाद का अस्तित्व मात्र एक शताब्दी के उपरान्त ही समाप्त कैसे हो गया । इसका उत्तर श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के विचार पढ़ने से मिल जाएगा । उन्होंने साम्यवाद का व्यापक और गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् उसी की कसौटियों पर उसे परखते हुए उसकी विसंगतियों को उजागर कर एक वैकल्पिक विचार दर्शन प्रस्तुत किया जिसके लिए उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । उन्होंने मार्क्स द्वारा प्रतिपादित पाँच मार्गदर्शक किंतु नकारात्‍मक सिद्धांतों की ओर इंगित किया जो इस प्रकार हैं :-

1. विवाह संस्था - (सिस्टम) अमान्य ।

2. परिवार पद्धति - (सिस्टम) अमान्य ।

3. पंथ (रिलीजन) - अमान्य ।

4. राष्ट्र (नेशन) - अमान्य ।

5. निजी संपत्ति - अमान्य ।

उक्‍त संदर्भ में वैश्विक परिदृश्‍य व घटनाओं को ध्‍यान में लेते हुए ठेंगड़ी जी ने अपने गंभीर चिंतन व विमर्श द्वारा वैकल्पिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया ।

मार्क्स की प्रशंसा

मार्क्सिज्म के घोर आलोचक होते हुए भी ठेंगड़ी जी मार्क्स के व्यक्तित्व व वैश्विक वैचारिक संपदा में उनके बौद्धिक योगदान के प्रशंसक थे । इस बारे में ठेंगड़ी जी शंकराचार्य का उदाहरण बताते थे कि वे बौद्ध दर्शन का तो खंडन करते थे किंतु गौतम बुद्ध के प्रशंसक थे और उनकी संस्तुति करते हुए कहते थे :-

य आस्ते कलौ योगीनां चक्रवर्ती

स बुद्धः प्रबुद्धोऽस्तुश्चितबर्ती ।।

मेरे मन में उन भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धाभाव है जो इस कलियुग में योगियों में योगीराज (चक्रवर्ती) हैं । यह भारत की परंपरा है ।

उक्त संदर्भ में प.पू. श्री गुरुजी ने भी कहा है कि "मार्क्स अनगढ़ भौतिकवादी नहीं थे" । ठेंगड़ी जी बताते हैं कि "फिलास्फीकल एंड इकोनामीकल मैनुस्क्रिप्‍ट 1844'' पढ़ने से पता चलता है कि मार्क्‍स की प्रेरणा का स्रोत अर्थशास्त्र नहीं अपितु नीतिशास्त्र था किंतु ऐसा बताने से वह बचते रहे क्‍योंकि उस काल में नीति और पंथ (रिलीजन) लगभग एक समान ही थे । कार्ल मार्क्स को अतः महान व्यक्तित्व मानने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मार्क्सिज्‍म को स्‍वीकार करते हैं ।

अवैज्ञानिक भौतिकवाद

ठेंगड़ी जी कहते हैं कि मार्क्स की एक असफलता इसी बात से प्रकट होती है कि मानवज्ञान के क्षितिज में निरन्तर वृद्धि होती रहती है वे इस तथ्‍य का पुर्वानुमान व संज्ञान नहीं ले सके । मार्क्स की अठाहरवीं शताब्दी की सृष्टि रचना अथवा विश्वविद्या (कास्मालोजी) की सोच द्रुतगति से आगे बढ़ते हुए विज्ञान से कदम मिलाकर नहीं चल सकी । मार्क्स न्यूटन विज्ञान के युग के प्राणी थे और इस लिए वे न्यूटन के प्राणी विज्ञान को आधार मानकर वस्तु (मैटर) को बुनियादी बात मानने लगे किंतु विज्ञान इसके बाद आगे बढ़ गया और आइंसटीन ने सिद्ध किया कि वस्तु (मैटर) बुनियादी (ठोस) बात नहीं है । आइंसटीन ने बताया कि वस्तु (मैटर) को उर्जा में और उसके विपरीत दोनों दिशाओं में मोड़ा अथवा परिवर्तित किया जा सकता है याने दोनों परिवर्तनशील हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि वस्तु (मैटर) के प्रति बुनियादी या ठोस होने की जो धारणा थी वह टिक नहीं सकी । अतः विज्ञान अब वस्तुवाद अथवा भौतिकवाद को स्वीकृति प्रदान नहीं करता । इससे याने विज्ञान की प्रगति से मार्क्स के वस्तु (मैटर) को बुनियादी (फण्डामैन्टल) मानने के विचार को गलत सिद्ध कर दिया । उसी समय और इसी संदर्भ में ठेंगडी जी ने सावधान किया कि हमें इस लेख के चक्कर में नहीं पड़ना है क्योंकि हम न तो न्‍यूटन और न ही आइन्सटीन के साथ हैं ।

ठेंगड़ी जी ने यह भी बताया कि डार्विन के काल में अवयवी (जीव के अंतर्संबंधी अंगों का तंत्र) निरंतर विकासमान है किंतु बाद में स्पष्ट हुआ कि विकास में (एव्होल्युशन) है तो साथ में हस्तांतरण (डेव्होल्युशन) भी है । यह दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं । इस जिन बातों को कल तक सत्‍य माना जाता था उन्‍हें ही आज असत्‍य माना गया है ।

भगवान का शुक्र है कि मैं मार्क्‍सवादी नहीं हूँ ।

एक समय मार्क्‍स ने स्‍वयं घोषणा की कि 'भगवान का शुक्र है कि-मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ' । श्री ठेंगड़ी जी के मुताबिक मार्क्स किसी 'वाद' (इज्म) का निर्माण करना नहीं चाहते थे । श्री ठेंगड़ी जी आगे कहते हैं कि संतों के अतिरिक्त कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसने जो कहा है वही बुद्धिमत्ता का आखिरी शब्द है । उन्होंने कहा कि 'वाद' (इज्म) किसी भी विचार की बंद किताब है या अंतिम शब्द है । यह मार्ग किन्हीं विशेष परिस्थितियों और किसी विशेष समाज के अंतर्गत पनपती हुई समस्याओं से बाहर आने का है । परिस्थितियाँ चलायमान परिवर्तनशील होती हैं किंतु 'वाद' (इज्म) जड़वत होते हैं । अतः एक जड़वत 'वाद' (इज्‍म) परिवतर्नशील परिस्थितियों में कभी भी फिट नहीं बैठता है । ठेंगड़ी जी कहते हैं कि हम किसी भी इज्‍म का प्रत्‍येक परिस्थिति और प्रत्‍येक बीमारी की रामबाण दवा नहीं मानते हैं ।

ठेंगड़ी जी प्रथम 'राष्ट्रीय श्रम आयोग' को भा० म० संघ द्वारा प्रस्तुत किए गए ज्ञापन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यह हमारी सामूहिक सोच और सामूहिक बुद्धिमत्ता का दस्तावेज है किंतु अगर कोई यह कहे कि श्रमिक समस्याओं का यह अंतिम शब्द है तो ऐसा कहना गलत होगा । हाँ ! हम यह कह सकते हैं कि वर्ष 1968 में यह एक मूल्यवान दस्तावेज है, किंतु वर्ष 1990 में भी यह उतना ही मूल्यवान दस्तावेज है यह नहीं कह सकते । अगर कोई हमें 'वाद' (इज्म) के बिना पहचानना ही नहीं चाहता तो हम कहेंगे कि राष्ट्रहित के अंतर्गत 'वाद' व्यवहारवाद (प्रोग्मैटिज्म) है ।

इतिहास का तत्त्वदर्शन

मार्क्‍स का सामाजिक विश्‍लेषण अथवा साहित्‍य चिंतन भारत पर लागू नहीं होता । ठेंगड़ी जी मुहम्‍मद कुतुब नाम के इतिहासकार के हवाले से कहते हैं कि ''जब तार्किक भौतिकवाद को मानव इतिहास में आम वातावरण या घटना के रूप में चित्रित किया गया हो तो वस्‍तुत: यूरोपीय इतिहास के बाहर इसका कहीं कोई अस्तित्‍व नहीं है । इस प्रकार के कालखंड से यूरोपीय समाज के अतिरिक्‍त कोई दूसरा समाज गुजरा नहीं हैं।" डाँगे अपनी पुस्तक 'फ्राम प्रीमिटिव कम्युनिज्म टू स्लेवरी' (अविकसित साम्यवाद से गुलामी तक) में लिखते हैं कि मुगल काल के पूर्व तक भारत में सामंतवादी (फ्युडलिज्म) सिस्टम से कोई भी परिचित नहीं था । मार्क्स ने 'एशियाटिक आर्डर आफ सोसायटी' का कहीं शब्द प्रयोग किया था और उसी को आधार मानकर अपनी सुविधानुसार साम्यवादियों ने यह प्रचारित किया कि मुगल काल के पूर्व भारत में 'एशियाटिक आर्डर आफ सोसायटी' था ।

मार्क्स की भविष्यवाणियाँ

मार्क्स ने कहा कि पूँजीवाद विश्व में कहीं दिखता नहीं है । ठेंगड़ी जी कहा कि साम्यवाद का अस्तित्व भी संसार में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है । मार्क्स ने कहा चूँकि अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं सो पूँजीवादियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को खरीदने वाला कोई नहीं होगा अतः पूँजीवाद अपने अंतर्निहित विरोधाभासों के बोझ के तले दबकर समाप्त हो जाएगा । फिर भी रक्तिम क्रांति की गति को बढ़ाने की आवश्यकता है । इस प्रकार मार्क्स के अनुसार पूँजीवाद को समाप्त करने के पश्चात् समाजवाद आएगा । ठेंगड़ी जी ने कहा है कि मार्क्स के उक्त विचारों के अनुरूप परिदृश्य विश्व में कहीं भी दिखाई नहीं देता है ।

साम्राज्यवादी मंसूबे

ठेंगड़ी जी के अनुसार साम्यवादी विचारधारा का उत्कर्ष और समाप्ति का बिन्दु वर्ष 1953 तक था । वर्ष 1953 के पूर्व यह धारणा थी कि साम्यवाद एक केंद्रबिंदु वाला जिसके केंद्र में मास्को रहेगा क्योंकि सर्वप्रथम साम्यवादी क्रांति का प्रारंभ रशिया से ही हुआ है । श्रमिकों से अपेक्षा थी कि वे संगठित होकर एक अंतरराष्‍ट्रीय देश का निर्माण करेंगे । यह स्वप्न ध्वस्त हो गया । तब मास्को तथा पीकिंग (वीजिंग) द्विकेंद्र वाला साम्यवाद हो गया । तदुपरांत अनेक देशों में राष्ट्रभक्ति की भावनाओं के उभार के दृष्टिगत-एक केंद्र और द्विकेंद्र वाले साम्‍यवाद का स्पप्न भी समाप्त हो गया और तब यह बहु-केंद्र ऐसा साम्यवाद जिसका प्रत्‍येक देश में ही साम्‍यवाद का केंद्र माना जाने लगा । द्विकेंद्र साम्‍यवाद का राष्‍ट्रवादी भावनाओं के दृष्टिगत वियतनाम ने चीनी साम्राज्‍यवाद का विरोध करना प्रारंभ कर दिया । अब साम्यवादी देशों में वास्तव में राष्ट्रवादी भावनाएँ उत्थान पर हैं । अपने-अपने राष्ट्रहित के दृष्टिगत अब तो साम्यवादी देश उदाहरणार्थ रशिया एवं चायना, रशिया व युगोस्लाविया, चायना एवं वियतनाम, कम्‍बोडिया व वियतनाम भी आपस में लड़ रहे हैं । साम्यवादी पार्टियाँ अपने-अपने देश में स्वायत्तता तथा स्वतन्त्रता चाहती हैं । साम्यवादियों का साम्यवाद पर से विश्वास घटता जा रहा है । ठेंगड़ी जी बता रहे हैं कि आजकल कोई भी साम्यवादी यह नहीं सोच रहा कि साम्यवाद आगे बढ़ रहा है । अगर कुछ आगे बढ़ रहा है तो वह है रशियन तथा चीनी साम्राज्यवाद । रशिया ने 1948 में युगोस्लाविया, 1956 में हंगरी, 1968 में चैकोस्लावाकिया 1979 में अफगानिस्तान 1953 में पूर्वी जर्मनी के साथ ही साथ क्यूबा, अंगोला, इथोपिया, सोमालिया तथा यमन में साम्राज्यवादी हथकंडे अपनाए । ठेंगड़ी जी ने आगे कहा कि जब बहुकेंद्र वाले साम्यवादी देश आपस में ही लड़ने लगे तो वह एक दूसरे को संशोधनवादी (विपथगामी) कहने लगे । रशिया कहने लगा युगोस्लाविया संशोधनवादी है- युगोस्लाविया ने कहा रशिया संशोधनवादी है । भारत में नम्बूद्रीपाद ने कहा डांगे संशोधनवादी है और डांगे ने कहा नम्बूद्रीपाद संशोधनवादी है । चारू मजूमदार ने कहा ये दोनों संशोधनवादी हैं । ठेंगड़ी जी कहते हैं कम्युनिस्टों ने एक दूसरे को जितने प्रमाणपत्र दिए हैं उन्हें अगर हम एकत्रित करें तो उसके बाद लगेगा कि साम्यवाद याने संशोधनवाद है ।

सर्वहारा का पितृदेश

मार्क्‍स अंतरराष्ट्रवाद को जबरदस्‍त बढ़ावा देते रहे और दूसरी ओर राष्‍ट्र की अवधारणा पर आक्रमण करते रहे । ठेंगड़ी जी मार्क्स के शब्‍दों को उद्धृत करते हुए कहते हैं "सर्वहारा का कोई पितृदेश नहीं है ।" लेनिन ने कहा राष्‍ट्र की अवधारणा को समाप्‍त करना अवश्‍यंभावी है । परिणामस्‍वरूप साम्यवादी समस्त संसार में साम्यवाद के नाम पर राष्ट्र विरोधियों का संचालन करने में संलिप्त हो गए । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रतिरक्षा उद्योग में कार्यरत साम्यवादी श्रमिकों ने फ्रांस पर आक्रमण करने वाले हिटलर का स्वागत किया । यह इसलिए कि उस समय हिटलर और स्टालिन के बीच संधि थी कि वे एक दूसरे का सहयोग करेंगे । ऐसा ही विश्वासघात भारत में "भारत छोड़ो आंदोलन" के समय देखने को मिला । कम्युनिस्टों ने कहा कि स्टालिन और हिटलर में संधि के कारण यह जनयुद्ध (पीपुल्स वार) है । इसी प्रकार चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के समय उन्होंने यह बहस प्रारंभ करी कि क्या यह आक्रमण है और अगर आक्रमण है तो फिर आक्रमणकारी कौन है चीन या भारत! ठेंगड़ी जी कहते हैं कि साम्यवादी जगत में उस समय मार्क्सिज्म का राष्ट्रीयकरण और राष्ट्र की राष्ट्रीय संस्कृति व परंपराओं को ध्वस्त करने का चलन था । साम्यवादी देशों की सरकारों के अन्तर्गत् राष्ट्रवाद की धारा अविचल बहती रही है । जब द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी की धारा अविचल बहती रही है । जब द्वितीय विश्‍व युद्ध के समय जर्मनी की सेनाएँ मास्को के निकट पहुँच गई तो रशियन नेताओं को जनता की राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ उभारने के लिए वरवस राष्ट्रवाद की अलख जगाना पड़ी जबकि उसके पूर्व तक रशिया, फ्रेंच भाषा में अंतरराष्‍ट्रीयवाद का राग अलाप रहा था । मजबूर होकर उन्हें रशियन भाषा में रूसी देशभक्ति का गीत बनाना और गाना पड़ा तथा स्टालिन को यह आह्वान जनता को देना पड़ा कि अपने पितृदेश की सीमाओं की रक्षा के लिए आगे आएँ । सो साम्यवादी जो उत्तरी से दक्षिणी ध्रुव तक अपनी सीमा मानते थे उन्हें भी अपने पितृदेश की दुहाई देनी पड़ी । जिन सामंतशाहों, राजाओं आदि को वे निंदित करके दफना चुके थे उनकी कीर्ति को पुनर्जीवित करते हुए उन्हें राष्ट्रीय नायकों का रुतवा प्रदान किया जाने लगा । शहरों को उन का नाम दिया जाने लगा । यह देख सकते हैं कि सौ के लगभग शहरों के नाम लेनिन के नाम पर हैं किंतु वमुश्किल दस-पंद्रह नगरों के नाम मार्क्स के नाम पर होंगे । यह इसलिए कि लेनिन राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट था जो मार्क्स के किताबी साम्यवाद से अलग था । ठेंगड़ी जी बताते हैं कि इसी प्रकार अमेरिका के विरुद्ध वियतनाम का युद्ध साम्यवादी शक्ति के आधार पर नहीं अपितु राष्ट्रवादी शक्ति के आधार पर लड़ा गया था ।

ठेंगड़ी जी साम्यवादी देशों विशेषकर रशिया प्रवास के अपने अनुभव बताते हुए लिखते हैं कि रशिया में प्रवल राष्ट्रवाद को देख कर वे हैरान रह गए । राजा पीटर महान, कैथरीन महान आदि के जगह-जगह राष्ट्रनिर्माता के रूप में पुतले (मूर्तियाँ) खड़े किए गए थे । ठेंगड़ी जी ने यह भी देखा कि जुपीटर, वीनस आदि देवी देवताओं की मूतियाँ, जिन्हें हिटलर ने तोड़ दिया था, को दोवारा निर्मित किया गया । रूसियों ने राष्ट्रीय बेइज्जती की क्षतिपूर्ति के दृष्टिगत यह कार्य किया था । लेनिनग्राड में हिटलर के साथ 100 दिन के में लगभग पाँच लाख लोग हताहत हुए थे जिनकी स्मृति में कब्रिस्तान में निरन्तर जलते रहने वाली ज्योति प्रज्जवलित की गई है । ठेंगड़ी जी ने वहाँ उपस्थित व्यक्ति से पूछा कि यह क्या है तो उसने बताया कि जो लोग मातृभूमि के लिए शहीद हो गए यह उनकी स्मृति है । इसी स्मृति ज्योति के निकट मातृभूमि का पीतल का एक बड़ा पुतला खड़ा किया गया है जिसके हाथ में एक फूलमाला है जो शहीदों के लिए है । प्रत्येक सुबह शाम यहाँ सैनिक पूरे कर्मकांड के साथ सलामी देते हैं । पश्चात् ठेंगड़ी जी जव हंगरी गए तो वहाँ के राष्ट्रीय संग्रहालय में भी उन्होंने उस राजा की मूर्तियाँ आदरपूर्वक सजा कर रखी हुई देखीं जिसने वर्षों पूर्व राष्ट्र के लिए प्राण न्योछावर कर दिए थे । भारत में डाँगे ने महाराणा प्रताप तथा शिवाजी के बारे में लिखा है कि दोनों श्रमिकों व कृषकों के प्रतिनिधि थे ।

राष्ट्रीयता और मानवता परस्पर सुसंगत हैं

ठेंगड़ी जी कहते हैं कि एक समय साम्यवाद अंतरराष्‍ट्रीय है ऐसा साम्यवादी मानते थे और यह भी कि साम्यवादी एक अंतरराष्‍ट्रीय कौम है किंतु अब उन्हें महसूस हुआ है कि सब मानव एक ही जाति है । भारत में हम मानते हैं कि जीवन तथा निर्जीव भी एक समान हैं । यहाँ तक हम मानते हैं कि सारा ब्रह्मांड एक है । जब कोई यह कहता है कि सब एक हैं (all are one) उसका अर्थ है कि विश्व में अनेक इकाइयाँ हैं किंतु कहा यह जाना चाहिए कि सव एक है (all is one) सर्व एकात्‍मता का यह नियम सह-अस्तित्‍व का नियम है जिसे हमारे संतों ऋषियों ने अद्वैत की अनुभूति कहा है । धरती के समस्‍त जीवों से लेकर मानव तक सभी भिन्‍न-भिन्‍न दिखने के उपरांत भी एक ही पदार्थ से निर्मित हुए हैं जैसे सोना एक पदार्थ है किंतु उससे अलग- अलग प्रकार के गहने निर्मित होते हैं ।

ठेंगड़ी जी कहते हैं कि साम्यवादियों की भाँति हम आन्तरिक अवयवों अथवा तंत्र में कोई परस्पर विरोध नहीं देखते हैं । साम्यवादियों ने परिवार व्यवस्था का विरोध किया और वे इस व्यवस्था को नष्ट करना चाहते थे किंतु ठेंगड़ी जी ने इसके विपरीत भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसमें व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, मानवता और ब्रह्मांड चेतना विकास के विभिन्न स्तर हैं । जो भी प्रगति होती है वह चेतना का उत्तरोत्तर विकासक्रम है । शिशु प्रारंभ में 'अहं' ही को जानता है - अपनी माता तक को नहीं पहचानता तब उसका 'अहं' ही सत्य शेष सव मिथ्या होता है किंतु धीरे-धीरे वह परिवार फिर बड़े समूह को पहचानने लगता है । चेतना का कुछ और विकास होता है तो राष्ट्र उसके लिए एक सच्चाई के रूप में सामने होता है । उसका अर्थ यह नहीं है कि परिवार या व्यक्ति उसके लिए मिथ्या हो गया वल्कि वह यह पहचानने लगता है कि समस्त ब्रह्मांड उसका है - सर्वदेशो भुवनत्रयम । एक संन्यासी ने ऐसा कहा है । सभी ऐसा नहीं कह सकते । वह विश्व नागरिक नहीं अपितु अखिल ब्रह्मांड का नागरिक है । व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, मानवता, विश्व एवं ब्रह्मांड परास्‍पर विरोधी नहीं हैं । जैसे एक बीज से अंकुर, पौधा, पेड़, शाखाएँ और फिर फूल व फल उस पर आते हैं यह सव विकासक्रम है । क्या कोई कह सकता है कि बीज से पौधा, पेड़ या टहनियाँ अलग अलग हैं और इनमें अंतर्विरोध है - अगर कोई ऐसा कहता है तो वह गलत कहता है । यह सब मानव चेतना विकासक्रम के अलग-अलग स्तर हैं । व्यक्ति 'अहं' से लेकर सीधे ब्रह्मांड से जुड़ाव की सोच सकता है । मानव मानवता तक छलांग लगा सकता है । यहाँ व्यक्ति विरुद्ध परिवार, परिवार विरुद्ध राष्ट्र और राष्ट्र विरुद्ध अंतरराष्‍ट्रीयवाद तथा अंतरराष्‍ट्रीयवाद का ब्रह्मांड में कोई विरोधाभास नहीं है। पश्चिमी सोच में किंतु राष्‍ट्रवाद का अंतरराष्‍ट्रवाद में विरोध है । अंतरराष्‍ट्रवाद वास्‍तव में मानव चेतना के उन्‍नत विकास के फलस्‍वरूप जैसा कि प. दीनदयाल उपाध्‍याय जी ने भी कहा है कि राष्‍ट्रवाद ही उन्‍नत रूप है । ठेंगड़ी जी प्रगतिशील क्रमिक अनावरण की इस थ्‍योरी का उक्‍त तरीके से वर्णन करते हैं ।

परमेश्वर रहित साम्यवाद का भाग्य !

पश्चिम के नास्तिक बुद्धिजीवियों की परंपरा के चलते मार्क्स पंथ (Religion) के विरोध में खड़े हो गए । उन्होंने कहा पंथ (Religion) अफीम (Opium) है किंतु हमारे पंथ एकमत (Opinion) हैं । साम्यवादी देश अल्वानिया ने घोषित किया कि यह संसार का प्रथम नास्तिक देश है । जैसे धर्म आधारित देश ऐसे ही धर्म विहीन देश । ठेंगड़ी जी परमेश्वर विहीन (Godless) रशिया के बारे में बताते हैं । वर्ष 1932 में जब रशिया ने प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारंभ किया तो उसे 'ईश्वर विहीन पंचवर्षीय योजना' (Godless Five-Year Plan) का नाम दिया । उन्होंने 1936-37 तक सभी चर्चों को बंद कर देने की भी घोषणा की और कहा कि ईश्वर को रूस से देश निकाला दे दिया है । वास्तविकता यह है कि चर्च कुछ दिन बंद रखने के उपरांत पुनः खोल दिए गए । चर्च में जाने वालों की संख्या में वृद्धि हो गई । अब धर्म (पंथ) की स्वतंत्रता को वहाँ बुनियादी संवैधानिक अधिकार मान लिया गया है । जब कैथोलिक पोप ने अपने जम्‍नदाता देश पोलैंड की यात्रा की तो उस देश की आधे से अधिक जनसंख्‍या उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हो गई । पोप के कम्‍युनिस्‍ट देश पोलैंड की धरती पर खड़े होकर कहा कि मनुष्‍य केवल उत्‍पाद की मशीन है वह मार्क्स के इस सिद्धांत (Theory) को गलत मानते हैं । ठेंगड़ी जी कहते हैं कि पं. दीनदयाल जी भ्रष्टाचार और साम्यवादी जगत के कुविचार और विकारों के घोर अलोचक रहे हैं किंतु फिर भी उन्‍होंने नहाने के टब के पानी के साथ बच्‍चे को भी बाहर फेंक देने का कार्य नहीं किया ।

मार्क्सिज्म एक पंथ बन गया: ठेंगड़ी जी बताते हैं कि मार्क्‍स के अनुयायियों ने मार्क्‍स के विचार प्रवाह को एक पंथ में परिवर्तित कर दिया । मार्क्सिज्म ने एक पंथ (Religion) का रूप ले लिया । मोहम्मद और क्राइस्ट की भाँति मार्क्स भी एक अवतार की भाँति माने जाने लगे । 'दास कैपीटल' उनका धार्मिक ग्रंथ माना जाने लगा । साम्यवाद की उच्च स्थिति स्वर्ग के बराबर मानी जाने लगी । तात्त्विक भौतिकवाद उनका परमेश्वर हो गया जो सब कुछ नियंत्रित करने वाला था । इस प्रकार साम्यवाद एक पूर्व मजहब के रूप में तब्दील हो गया । इस संदर्भ में टायन्बी को उद्धृत करते हुए ठेंगड़ी जी बताते हैं कि रूढ़िवादी रशिया ने पश्चिम में साम्यवाद की चर्चा से प्रभावित होकर उसे अपना लिया जो कि ग्रीसो-ज्यूडियाक विरासत थी और पश्चिमी जीवन शैली यह संपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा हिंदू चित्तवृत्ति (Spirit) के प्रतिकूल है ।

शादी नहीं परिवार नहीं:

विवाह और परिवार मार्क्सिज्‍म द्वारा फैलाई गई भ्रान्तियों के बारे में बताते हुए ठेंगड़ी जी कहते हैं कि यह चर्च की बाध्यताओं और बंधनों की प्रतिक्रिया स्वरूप यूरोप के कुछ बड़े चिंतक जिन में मार्क्स भी सम्मिलित थे वे सभी विवाह संस्था और परिवार की अवधारणा के विरुद्ध खड़े हो गए थे । मार्क्स का मानना था कि परिवार के विकास की रचना का आधार आर्थिक है । उसने कहा कि 'बुर्जुवा' परिवार लुप्त हो जाएँगे । इससे यह नासमझदारी पैदा हुई कि असल कम्युनिस्ट के लिए नैतिकता का पालन आवश्यक नहीं है ।

इसी प्रकार यह कहा गया कि परिवार 'बुर्जुआई' (पोंगापन्थी): अवधारणा है जिसे समाप्त किया जाना चाहिए । किंतु इसी अवधारणा को कुछ समय पश्‍चात् रूस में न्यायसंगत मान लिया गया । न्यायसंगत शिशु को पैतृक अधिकार प्रदान कर दिए गए । ठेंगड़ी जी का कहना है कि यहाँ तक हुआ कि साम्‍यवादी राज्‍य में परिवार का अस्तित्‍व सामने आया और वहाँ परिवारों की स्‍थापना हुई है ।

मार्क्स किंतु विवाह संस्था अथवा पद्धति को नहीं मानते जैसा कि उन्होंने अपने 'कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' (साम्यवाद का घोषणा पत्र) में स्पष्ट किया है । यह बात भारतीय मार्क्सवादियों से छुपाई गई है अन्यथा यहाँ कोई भी साम्यवाद स्वीकार करने को तैयार नहीं होता । 'कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो' में कुछ स्थान 'वाईफ शेयरिंग' (पत्नि भागीदारिता) को दिया गया है जिसके अनुसार 'कम्युनिटी आफ विमैन' (महिला समाज) का साम्यवाद को पक्षधर दर्शाने का प्रयास किया गया है । इस प्रकार के समाज की महिला को पुरुष 'शेयर' (भागीदारी) कर सकते हैं । खुले तौर पर अधिकृत 'वाईफ शेयरिंग' के बजाय पाखंडी और लुकेछिपे 'वाईफ शेयरिंग' की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । संतान को उनके माता पिता की जानकारी नहीं होनी चाहिए और उनका भरण पोषण राज्य की जिम्मेदारी होगी । व्यक्ति, परिवार, विवाह, महिलाओं द्वारा वच्चों का प्रजनन और परिवार वृद्धि का चक्र समाप्त कर दिया जाना चाहिए ।

ठेंगड़ी जी एक समाचार, जो 1970-72 के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था, कि जापान में ट्राटसकियों की कुछ हत्याएं हुई थीं । हत्या का कारण एक महिला ने यह बताया कि उसने मेरे साथ एक पति जैसा व्यवहार किया था । ठेंगड़ी जी कहते हैं कि रूस और चीन में भी विवाह पद्धति को नष्ट नहीं किया जा सकता । वह केवल कुछ औपचारिकताएँ हटा सके । पश्चात् लेनिन और ट्राटस्की जैसे जिम्मेदार नेताओं को सार्वजनिक रूप में उक्त सिद्धांत का खंडन करना पड़ा ।

वर्ग विहीन समाज

मार्क्स ने दावा किया था कि वे वर्गों को समाप्त करके एक वर्ग विहीन समाज की रचना करेंगे । मध्यम वर्ग अस्तित्व में नहीं रहेगा । इस वर्ग के लोग या तो उच्च वर्ग अथवा निम्न वर्ग के साथ मिल जाएँगे । ठेंगड़ी जी बताते हैं कि इसके विपरीत हुआ यह कि मध्यम वर्ग हर जगह और भी शक्तिशाली हो गया । दूसरे पुराने वर्गों के स्थान पर साम्यवादी राज्यों में नए वर्ग निर्मित हो गए । प्रशासनिक अधिकारियों और तकनीशियनों का एक नया वर्ग स्थापित हो गया । ठेंगड़ी जी कहते हैं कि इन नए वर्गों के बारे में युगोस्लाविया के प्रधानमंत्री मिलोवन डिजीटल ने 'दि न्यू क्लास' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है । ठेंगड़ी जी आगे कहते हैं कि लेनिन म्यूजियम के निकट उच्च वर्ग के लोगों का कब्रिस्तान है किंतु सामान्य साधारण नागरिकों की कब्रगाह अन्य स्थान पर है । वह कहते हैं जब तक भौतिकवाद रहेगा तब तब वर्ग भी रहेंगे । इस लिए एक आदर्श पद्धति विकसित करने में सभी का सहयोग प्राप्त किया जाना चाहिए - हमारी अर्थ व्यवस्था 'सर्वे भवंतु सुखिनः' की है ।

मार्क्स ट्रेड यूनियन विरोधी थे

ठेंगड़ी जी ने मार्क्स की ट्रेड यूनियन संबंधी भूमिका की अलोचना की है । मार्क्स ने जेन्यूइन ट्रेड यूनियनिज्म का इसलिए विरोध किया है क्योंकि इसका लक्ष्य साम्यवादी अंतिम क्रांति नहीं है । श्रमिक अगर भुखमरी, गरीबी आदि से पीड़ित नहीं रहेगा अर्थात संतुष्ट रहेगा तो वह क्रांति के लिए मरने को क्यों तैयार होगा । मार्क्स का निष्कर्ष था कि ट्रेड यूनियनें और सहकारी संस्थाएँ शीघ्र ही समाप्त हो जाएंगी किंतु उनका यह निष्कर्ष गलत निकला । लेनिन ने अपनी किताब 'लेफ्ट इन कम्युनिज्म' में लिखा है कि साम्यवादियों ने जो साम्यवादी नहीं हैं उन झूठे पर लांछन लगाना, जनता में भ्रातियाँ फैलाने का कार्य करना चाहिए । उन्होंने सोचा था कि अगर देश के अलग अलग भागों में आर्थिक असंतोष भड़काया जा सके तो पश्चात् इसे व्यापक पैमाने पर संघर्ष के रूप में परिवर्तित किया जा सकेगा।

ठेंगड़ी जी बताते हैं कि बैंकों की हड़ताल के समय उन्होंने अपने साम्यवादी मित्रों से कहा था कि साम्यवादियों को हड़ताल संचालित करने का कोई अधिकार नहीं है । क्योंकि रूस और चीन जो कि उनके पितृदेश व मातृदेश हैं वहाँ श्रमिकों को हड़ताल का अधिकार प्राप्त नहीं है । यहाँ तक कि श्रमिक सामूहिक सौदेबाजी भी नहीं कर सकते। इस प्रकार के अधिकार पूँजीवादी देशों के श्रमिकों को तो प्राप्त हैं किंतु साम्यवादी देशों श्रमिकों को अधिकार प्राप्त नहीं हैं ।

समाजवाद और राज्य पूँजीवाद

ठेंगड़ी जी के अनुसार मार्क्स की अधिकांश भविष्यवाणीयाँ गलत सिद्ध हुई हैं । पश्चिमी विचारकों तथा सामाजिक वैज्ञानिक इस मत के थे कि जव पूँजीवाद भूमिका समाप्त हो जाएगी तो उसके उपरांत उसका स्थान समाजवाद लेगा । जहाँ तक कि मार्क्स ने कहा था कि समाजवाद की चर्चा उस समाज के लिए व्यर्थ है जो समृद्ध नहीं है । मार्क्स ने 'जर्मन आयडियालोजी' में लिखा कि उत्पादक शक्तियों का विकास व्यावहारिक समाजवाद की परिसीमाओं के लिए अत्यावश्यक है । मार्क्स ने यह भी कहा कि सर्वप्रथम क्रांति उन देशों में होगी जो औद्योगिक क्षेत्र में उन्नत हैं और जहाँ औद्योगिक श्रमिकों की संख्या अधिक है और इनमें तीन देशों का नाम आता है । वह हैं जर्मनी, ग्रेट ब्रिटेन व अमेरिका किंतु इन देशों में कोई क्रांति नहीं हुई । क्रांति रूस और चीन जैसे देशों में हुई जो अपेक्षाकृत औद्योगिक रूप से पिछड़े थे और यहाँ ट्रेड यूनियनें भी नहीं थीं । किसी भी समृद्ध देश में समाजवादी सरकार का गठन नहीं हुआ ।

(संपूर्ण लेख मूल अंग्रेजी में पृ. सख्या 214 पर)

सोपान - 4

(संस्मरण)

अद्भुत व्यक्तित्व

राजकृष्ण भक्त, पूर्व महामंत्री,

भा.म.संघ, नई दिल्ली ।

पेपर मिल, यमुना नगर में कुछ माँगों को लेकर भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध यूनियन ने 1964 में एक माँग-पत्र दिया था । गेट मीटिंग, धरना, प्रदर्शन इत्यादि माँग-पत्र के समर्थन में किए गए , इस प्रकार संघर्ष आगे बढ़ता गया परंतु मिल मालिक ने माँग-पत्र पर ध्यान नहीं दिया तथा पंजाब सरकार ने पूँजीपति का पूरा साथ मजदूरों की मांगों को दबाने में दिया । परिणामतः लगभग 70 मजदूर साथियों को जेल में डाल दिया गया था, इनमें से लगभग 45 कार्यकर्ताओं पर 107/151 के अंतर्गत तथा शेष 25 पर विभिन्न धाराओं के अंतर्गत अभियोग लगाए गए । इस स्थिति में हम सबके सम्माननीय श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी को, अन्य कोई मार्ग न रहने पर, हस्तक्षेप करना पड़ा तथा उन्होंने यह अभियोग वापस करवाने के लिए केंद्र-सरकार से संपर्क किया ।

तब एक अवसर पर मैं ठेंगड़ी जी के साथ तत्कालीन गृहराज्य मंत्री श्री जयसुख लाल हाथी से मिलने गया । इस अवसर पर श्री ठेंगड़ी जी ने मंत्री महोदय से कहा कि "हिंसा की लेशमात्र घटना न होने के पश्चात् भी अकारण ही पंजाब सरकार ने पूँजीपति के साथ मिलकर हमारे कार्यकर्ताओं पर झूठे फौजदारी मुकदमे गढ़ दिए हैं, अतः यह मुकदमे वापस होने चाहिए ।" इस पर श्री हाथी ने कहा कि इंटक के नेता श्री के. आर. मालवीय के मतानुसार पंजाब में हिंसा की घटनाएँ हुई हैं, अत: यह कैसे मान लें कि हिंसा की कोई भी घटना नहीं हुई है ? तब मुझे हैरानी में डालते हुए श्री ठेंगड़ी जी ने किसी प्रकार का प्रतिवाद करने के स्थान पर कहा कि 'मालवीय जी के कहने के बाद भला मेरे लिए कहने को क्या रह गया है? इस पर श्री हाथी ने मालवीय जी से टेलीफोन पर संपर्क स्थापित किया तथा उन्हें कुछ संदर्भ न देते हुए कल ग्यारह बजे मिलने को कहा । हमें भी इसी समय आने को कहा गया ।

जब हम कमरे से बाहर आए तो मेरे कुछ कहने से पूर्व ही मेरी हैरानी को भांपते हुए श्री ठेंगड़ी जी ने कहा कि "चिन्ता मत करो! मैंने इंटक में कार्य करते हुए मालवीय जी से अनेक गुर सीखे हैं इस नाते वे मेरे गुरु हैं । उनका मत उनका नहीं हो सकता, कहीं न कहीं कोई भ्रांति अवश्य है । हाथी जी को भी मैं भली प्रकार जानता हूँ, वह तो गलत नहीं कह सकते । क्या गड़बड़ है स्पष्ट हो जाएगा ।" अपने से भिन्न प्रकार के व्यक्ति से क्योंकि कुछ सीखा है, अतः उसे गुरु मानकर उसके प्रति यह श्रद्धा-भाव रखना आज के दौर में कहाँ दिखायी देता है ।

अगले दिन जब हाथी जी के कार्यालय पर गए तो वहाँ अनौपचारिक वार्तालाप में हिंसापूर्ण घटनाओं का प्रसंग आया तो मालवीय जी ने कहा कि उनका मत पंजाब इंटक की रिपोर्ट पर आधारित है उसका कोई अन्य आधार नहीं है । इस सारी बातचीत को सुनकर हाथी जी ने मुकदमे वापस लेने की बात मान ली तथा पंजाब सरकार को यह मुकदमा वापस लेने को कहा। अन्ततः सभी कार्यकर्ताओं से अभियोग उठा लिए गए । यह संस्मरण जब-जब स्मृति में उठता है तो सोचता हूँ कि दत्तोपंत जी जैसा अद्भुत व्यक्तित्व हमारे महान् सांस्कृतिक आदर्शों का कितना सटीक प्रतीक है ।

युगद्रष्टा

राजनाथ सिंह

सूर्य सदस्य विधान परिषद (उ.प्र.)

यह घटना 1989 की है । नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जन्म शताब्दी के अवसर पर वर्तमान तथा पूर्व प्रचारकों का एक समागम आयोजित किया गया । इस समागम में अपने विचार व्यक्त करते हुए दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने कहा कि सोवियत यूनियन का अस्तित्व एक दशक में समाप्त हो जाएगा । उनके इस कथन पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी ने टिप्पणी की कि मैं ठेंगड़ी जी की तरह ज्योतिषी नहीं हूँ । लेकिन हकीकत यह है कि एक दशक से भी कम समय में सोवियत यूनियन बिखर गया और मार्क्स के रूप में उसका जो वर्तमान है वह अमेरिका का आर्थिक दासत्व अपनाने के लिए विवश है । कोई तीन दशक पूर्व ठेंगड़ी जी ने आर्गेनाइजर साप्ताहिक में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि कार्ल मार्क्स जीवित होते तो अपनी साम्यवादी विचारधारा के प्रयोगात्मक स्वरूप को देखकर उसके प्रवर्तक होने से इंकार कर देते। कार्ल मार्क्स की विचारधारा का प्रयोगात्मक स्वरूप राज्य के एकाधिकार के रूप में लेनिन, स्टालिन और माओत्से तुंग द्वारा जिस प्रकार से लागू किया गया उसमें मानवीयता का समावेश न होने के कारण वह पाशविक होती गई तथा उसमें भ्रष्टाचार और असहमति दो शत्रुता का रूप प्रदान कर विश्व में विनाश के तमाम तांडव किए गए आज 'साम्यवाद' श्मशान पर पहुँच गया है और कुछ ही उसके बाद 'श्मशान वैराग्य' के भाव से चिपके हुए हैं । ठेंगड़ी जी ने श्रमिक और कृषक क्षेत्र में संगठनात्मक संरचना करने के साथ कुछ मानवीय दृष्टिकोण जो भारत का सनातन अधिष्ठान था, प्रदान किया जिसे आगे चलकर तीसरे विकल्‍प के रूप में लोगों के सामने प्रस्‍तुत किया गया । आम धारणा यही है कि पूँजीवाद या साम्‍यवाद दो ही विकल्‍प हैं, लेकिन ठेंगड़ी जी ने दीन दयाल उपाध्‍याय जी के एकात्म मानववाद की व्याख्या करते हुए दुनिया के सामने तीसरे विकल्प के रूप में सनातन भारतीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। जिसे भारतीय मजदूर संघ के नारे "कमाने वाला खिलाएगा'' के रूप में उन्‍होंने कई दशक पूर्व सरलतापूर्वक समझ में आने के लिए प्रस्‍तुत किया था।

विश्‍व के मनीषियों और भारत के मनीषियों में एक मौलिक अंतर दिखाई पड़ता है। जहाँ विश्व के मनीषी विचार और आचार में भेद को मान्यता देते हैं, भारतीय मनीषी दोनों समरूपता के पक्षधर रहे हैं और उन्होंने अपने कथन से अधिक आचरण से लोगों को प्रभावित किया है । स्वयं के लिए किसी "प्राप्ति" की अभीप्सा से रहित भारतीय मनीषियों की इस पंक्ति में ठेंगड़ी जी का स्थान अग्रगण्य है । अत्यंत अल्प समय में देश का सबसे सबल श्रमिक और कृषक संगठन संस्थापित करने के बावजूद वे पदविहीन रहे और जब उनके इस पौरुष का संज्ञान लेने के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत करना चाहा तो शताब्दियों पूर्व अकबर को "संतन को कहाँ सीकरी के कार्य, आवत जात पनहियाँ टूटी विसर गयो हरिनाम" जो उत्तर सूरदास ने दिया था और उसी भाव से उन्होंने उस अलंकरण को ग्रहण करने से इंकार कर दिया । ठेंगड़ी जी का विश्वास था और उसे उन्होंने मूर्त रूप भी दिया कि व्यावसायिक संगठन राजनीतिक निरपेक्ष होना चाहिए । यही कारण है कि न केवल भारत अपितु विश्व का पहला मजदूर और किसान संगठन ऐसा स्‍थापित हुआ जो किसी राजनीतिक दल के अनुषांगिक संगठन के रूप में परिचय के लिए मोहताज नहीं रहा । उसके इस स्‍वरूप को वैचारिक भिन्‍नता के बावजूद अन्‍य संगठनों को स्‍वीकार करना पड़ा तथा श्रमिक जगत में वैचारिक भिन्‍नता के बावजूद ठेंगड़ी जी को वही मान्‍यता मिली जो कभी राजनीतिक क्षेत्र में महात्‍मा गांधी को प्राप्‍त थी। संभवत: गांधी से भी अधिक उस क्षेत्र में उन्हें शिरोधार्य किया गया ।

मैंने ठेंगड़ी जी का दर्शन सर्वप्रथम 1965 में लखनऊ के कैसरबाग स्थित दो कमरों वाले मजदूर संघ कार्यालय में किया था । कार्यालय के पड़ोस में रहने के कारण मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ था । उस समय कई घंटे तक उनके सहवास रहने का अवसर मिला । फिर तो मैं उन्हें पढ़ता और सुनता रहा। उनके विचारों को पढ़ने और सुनने के उपरांत मन मस्तिष्क में घुमड़ने वाली अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती थीं क्योंकि वे सिद्धांत का भाष्य आम लोगों को समझ में आने वाली शब्दावली में करते थे । ऐसा ही एक उदाहरण समीचीन होगा। हम यह कहते हैं कि हमारे मनीषियों ने जो कुछ विचार किया वह संपूर्ण मानवता ही नहीं अपितु संपूर्ण जड़ और चेतन को ध्यान में रखकर किया है फिर उसे हम मानव संस्कृति न कहकर हिंदू संस्कृति क्यों कहते हैं। इसी संदर्भ को लेकर उन्होंने लखनऊ में अपने एक व्याख्यान में कहा था कि जब मैं नागपुर में पढ़ता था तो वहाँ एक घी की दुकान थी । कुछ दिनों के बाद देखा कि उस दुकान पर "वर्धा की घी की दुकान" का बोर्ड लग गया है, क्योंकि कुछ और घी की दुकानें खुल गयी थीं । थोड़े और समय बाद मैंने देखा कि साइन बोर्ड और बदल गया है । उस पर "वर्धा की असली घी की दुकान" का बोर्ड लग गया है । इसी प्रकार जब अनेक विचार संस्कृतियाँ कालांतर में विकसित हुई तो "पहचान" बनाए रखने के लिए साइन बोर्ड बदलता रहा लेकिन ''माल" तो वही है । विचार तो संपूर्ण जड़-चेतन के बारे में यहाँ दिया गया है । ठेंगड़ी जी पद विहीन रहकर आचरण की श्रेष्ठता से सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से श्रद्धा के पात्र बने । यही भारतीय मनीषी का स्वभाविक स्वरूप है । वे स्वभाविकता की प्रतिमूर्ति थे ।

दूसरों को बड़ा बनाने की उनमें विलक्षण

विशेषता थी

एस. आर. कुलकर्णी

(प्रख्‍यात समाजवादी, श्रमिक नेता)

मुम्‍बई

(एच.एम.एस. के नेता तथा ऑल इंडिया डाक वर्कर्स यूनियन्‍स फेडरेशन के अध्‍यक्ष एस.आर. कुलकर्णी जी से श्री चंद्रकांत जोशी द्वारा मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी के विषय में वार्तालाप)

मा. दत्तोपंत जी के संबंध में अन्‍य श्रम संघों के कार्यकर्ताओं के विचार जानने हेतु श्री एस.आर. कुलकर्णी को मैंने फोन किया । अंतरराष्‍ट्रीय गोदी कर्मचारी संघ के काम से विदेश जाने की तैयारी में थे । फिर भी उन्‍होंने दत्तोपंत जी के प्रति अपने प्रेम के कारण मुझे समय दिया और बातचीत में दत्तोपंत्त जी का व्‍यक्तित्‍व प्रकाशमान हुआ ।

प्रश्‍न : - सामानांतर श्रम आंदोलन के कार्यकर्ता के नाते आपको पंत कैसे लगे ?

एस. आर. :- ''स्‍व. दत्तोपंत जी के बारे में क्‍या कहूँ ᣛ? समर्पित तथा ध्‍येयनिष्‍ठ कार्यकर्ता कैसा हो इसकी साक्षात् मूर्ति स्‍व. दत्तोपंत थे । भिन्‍न-भिन्‍न विचारों के व्‍यक्तियों से संबंध बनाने में उनकी विलक्षण खूबी थी । परम विरोधी विचारों कर्मठ कार्यकर्ताओं के मन में भी उनके प्रति अपनेपन का भाव रहता था ।

मेरा उनसे पहला परिचय संभवत: 1962 में हुआ और आजीवन दत्तोपंत ने वह कायम रखा। वो मेरे परिवार के घटक बने लेकिन कब यह ध्‍यान में भी नहीं। आया। सहजता से यह सब हुआ। तब से जब जब वे मुबंई में आए, घर आए और अधिकार से कहते थे ''बहिनी मुझे चाय दो''। मैं भी श्रम आंदोलन से जुड़ा था, वो मुझसे उम्र में ज्‍यादा बड़े नहीं थे । लेकिन दूसरों को बड़ा बनाने की उनकी खासियत विलक्षण थी ।

1962 की बात है, मुंबई इलाका और वृहन्‍मुंबई कामगार और सुवर्ण नियंत्रण कानून मोरारजी भाई ने बनाया था । उसके खिलाफ श्रमिकों में काफी बेचैनी, आक्रोश निर्माण हुआ था। उसको लेकर असंतोष प्रकट करने हेतु आंदोलन करना तय हुआ। साम्‍यवादियों के सिवा यह संभव नहीं यह मानसिकता सभी की थी। दत्तोपंत खड़े हुए और एच.एम.एस. से लेकर सभी छोटी-छोटी यूनियनों तक संपर्क बनाकर सबको एक झंडे तले लाने में सफल हुए। एम.एम. जोशी आदि सभी एक साथ आए और कम्‍युनिस्‍टों के सिवा मुंबई बंद हो सकती है, इतना विशाल मोर्चा बन सकता है, इसकी प्रत्‍यक्ष अनुभूति सबको हुई। सभी ने बेहिचक उसको मान्‍य भी किया। यह करिश्‍मा कराने के पीछे सारी कल्‍पना, मेहनत स्‍व. दत्तोपंत की सबसे ज्‍यादा थी। उसमें भी ऐन समय पर श्री ना. ग. गोरेजी ने झंझट खड़ा कर दिया। दत्तोपंत संघ के हैं और जातीयवादी लोगों के साथ मैं एक मंच पर नहीं आऊंगा। यह जिद कर बैठे लेकिन श्रमिक आंदोलन का हित ध्‍यान में लेकर सभी के सामने दत्तोपंत जी अपमान का विष भरा घूँट पीकर रह गए । (और सभी हमारे सभी की निगाहों में उनकी प्रतिमा और बड़ी हो गयी) इतना सब होने पर भी वे शांति से अलग हुए।)

दत्तोपंत जी ने 70 के दशक में मुंबई पोर्ट ट्रस्‍ट में श्रमिकों के सामने विचार व्‍यक्‍त किए। मुझे लगता है 66-77 की बात होगी। सामने बैठे हुए कामगार सभी जाति, धर्म के थे, उत्तर प्रदेश, बिहार के अशिक्षित मुसलमान कामगार उनमें बड़ी संख्‍या में थे। पंत जी ने कुरान के उदाहरण देकर यूनियन का कार्यालय मस्जिद, मंदिर या चर्च के समान पवित्र होना चाहिए। राष्‍ट्रहित और श्रमिक हित यही अपना उद्देश्‍य होना चाहिए। पंतजी के सीधे एवं सरल भाषा में कथन ने उनका दिल जीत लिया। सादे सरल विचार उनमें परदर्शिता तथा अमिट देशभक्ति मैंने दत्तोपंत जी में देखी थी। जूते बाहर निकालकर ही मंदिर या मस्जिद में जाना होता है उसी प्रकार यूनियन के कार्यालय में भी सब भेदभाव से ऊपर उठकर जाना, ऐसा दत्तोपंत जी का आग्रह रहता था।

1965 और 1071 के दोनों युद्धों के समय हमने कामगारों की देशभक्ति को आह्वान किया। पाकिस्‍तान के जहाज आने नही देंगे, आए हैं तो वापस नहीं जाने देंगे। उनको रोककर रखा इसकी संज्ञा सबसे पहले दत्तोपंत जी ने ली थी। साम्‍यवादी उन पर जातिवाद का आरोप मढ़ते थे लेकिन उनके व्‍यवहार में हमें कभी जाति-पाति का आभास तक नहीं हुआ। नाशिक के सेक्‍युरिटी प्रेस का एक किस्‍सा इसी त‍रह का है। राष्‍ट्रभक्‍त कामगारों को भले ही वे अलग अलग यूनियन के हों उनको राष्‍ट्रीय विचार धारा से जोड़ कर एक साथ आने का आग्रह वे करते थे। अलग अलग यूनियन का फेडरेशन बनाने का विचार कामगारों के सामने रखते थे और फेडरेशन बनाकर उसका अध्‍यक्ष मैं बनूँ यह उनकी सूचना थी। वास्‍तव में एच. एम. एस. की वहाँ शक्ति नगण्‍य थी। बी. एम.एस. एस. की शक्ति ज्‍यादा थी लेकिन उन्‍होंने मेरे नाम की सूचना की और सभी ने माना भी। इतना ही नहीं मेरे नेतृत्‍व को उनका भरपूर सहकार्य मिला। ऐसे विलक्षण, दूरदृष्टि के नेता दत्तोपंत और उनके अनुयायी थे। उनका आग्रह था किसी भी उद्योग में कोई भी यूनियन हो उसका मुख्‍य आधार देश हित और कामगार हित ही होना चाहिए । इसलिए 1962 के चीनी आक्रमण को चीनी मुक्ति सेना बोलने वाले कम्‍युनिस्‍टों की विचारधारा का कड़ा प्रतिवाद दत्तोपंत जी ने किया था।

1948 की बात है। मेरा भाग्‍य ऐसा रहा कि गांधी हत्‍या के आरोप में स्‍वातंत्र्य वीर सावरकर, फुटीरवादी क्रिया-कलाप के आरोप में बी. टी. रणदिवे और गोदी में हड़ताल के कारण मुझे मुंबई सरकार ने जेल में डाला था। उस समय स्‍वातंत्र्य वीर सावरकर का सहवास मुझे मिला। एक तेजस्‍वी राष्‍ट्रभक्‍त के सान्निध्‍य में रहने का भाग्‍य मुझे मिला। उस समय के बंदियों में मैं सबसे तरुण था। मेरे श्रमिक आंदोलन के जीवन में आए कई अच्‍छे-बुरे प्रसंग-घटनाओं की गहरी छाप मेरे जीवन पर पड़ी। उसमें स्‍व. दत्तोपंत का दर्शन, मार्गदर्शन, बहुत परिणामकारक सिद्ध हुआ यह बड़ी विनम्रता से कहना चाहूँगा।

एक स्‍मरण और होता है कि का. डांगे का अमृत महोत्‍सव का सत्‍कार तय हुआ। उसका प्रमुख पद मेरे पास आया। निधि की थैलीउनके हाथ सौंपने मुझे पूरा इतिहास याद आया और मेरे मुँह से शब्‍द निकले की आशा करता हूँ कि यह निधि श्रमिक आंदोलन को जोड़ने के काम आएगी तोड़ने के नहीं, क्‍योंकि गोदी में हमारी यूनियन को तोड़ने का माम कम्‍युनिस्‍टों ने किया था।

गोदी के मेरे सहकारियों ने, श्रमिकों ने आग्रहपूर्वक मेरा 75 वाँ जन्‍म दिवस मनाने का तय किया। उस समय दत्तोपंत जी उपस्थि‍त रहें, यह मेरी उत्‍कट इच्‍छा थी। मैंने विनती की और पंत तत्‍काल उपस्थित हुए। सच कहूँ तो वो आए उसी समय मेरी 75 वीं वर्षगाँठ संपन्‍न हुई ऐसा मुझे लगा था।

स्‍व. दत्तोपंत जी ने केवल कामगार क्षेत्र ही नहीं तो भारतीय जीवन के अध्‍यात्‍म से लेकर सामाजिक समरसता तक विभिन्‍न क्षेत्र में अपने विचार तथा काम की अमिट छाप छोड़ी है एक द्रष्‍टा ऋषि यह उनके प्रति मेरी भावना है।

सर्वोपरि राष्‍ट्रहित को मानने वाले स्‍व. दत्तोपंत जी ने अपने ही विचार की केंद्र सरकार होने पर जब आर्थिक नीतियाँ गलत राह पर जा रही थी तब सरकार को आड़े हाथों लिया। उसके खिलाफ विशाल आंदोलन दिल्‍ली में किया और सरकार को अपनी ग‍लतियाँ सुधारनी पड़ी थीं। 2001 को भा. म. संघ का विशाल मोर्चा सभी का दिशादर्शक रहा हैं। मुझे ऐसा लगता है कि दत्तोपंत रूपी इस दीपस्‍तंभ के नाम से श्रमिक आंदोलन की भावी चुनौतियों का मुकाबला करने हेतु सक्षम तथा परिपूर्ण कार्यकर्ताओं के निर्माण हेतु एक अध्‍यापन प्रतिष्‍ठान का निर्माण हो। स्‍व. दत्तोपंत जी के बारे में मैं क्‍या कहूँ और कितना कहूँ, बहुत कुछ कह सकता हूँ बस उनकी याद में अगर कुछ प्रतिष्‍ठान बनता है तो यथासंभव मदद करने की मेरी इच्‍छा है।''

10-15 मिनट का समय मिला था, परदेश जाने की तैयारी शुरू थी, आवश्यक कागज देख रहे थे, फोन पर सूचना देना जारी था। उसी समय दत्तोपंत जी के संबंध में भराभर बोल भी रहे थे। बोलते-बोलते आधा घंटा बीत गया, केबिन के बाहर लोग खड़े ही थे, इसलिए प्रिय विषय होकर भी जल्‍दी समेटना पड़ा, इसकी चुभन ध्‍यान में आ रही थी। भिन्‍न विचारों के कार्यकर्ताओं के प्रति अपना मन खुला रखने वाला यह पहलू आज दुर्लभ है जो एस. आर. के स्‍वभाव का हिस्‍सा है यह मैंने महसूस किया।

परम आदरणीय श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के साथ

नित्‍यानन्‍द स्‍वामी पूर्व मुख्‍यमंत्री, उत्तराखंड

देहरादून

सम्‍भवत: सन् 1955-56 में जब मैं अपने घर में बैठा था, तो तभी बाहर से आवाज आई ''भाभी जी, भाभी जी'' आवाज बड़ी मधुर व तेज किंतु सरल थी। मैंने सोचा कि देहरादून में आने वाले तो मुझे स्‍वामी जी ही कहकर पुकारते हैं। यदि पत्‍नी को पुकारना हो, तो ब‍हिन जी ही कहते हैं। इस समय बाहर पुकारने वाला कोई अजनबी है जिसने इतनी आत्‍मीयता से पुकार, बाहर आकर देखा तो आदरणीय ठेंगड़ी जी व बड़े भाई श्री राम नरेश जी अंदर आ रहे थे, इससे पहले कि हम कुछ कहें वे स्‍वयं ही बोल उठे, भाभी जी चाय तैयार करवा दीजिए, हमें जल्‍दी है। मेरे कहने से आपको खाना भी खाकर जाना पड़ेगा। थोड़ी आनाकानी के बाद ठेंगड़ी जी ने कहा कि हम एक कार्यक्रम करके आते हैं, फिर खाना खाएंगे। ऐसा ही हुआ।

ठेंगड़ी जी कार्यक्रम के बाद हमारे घर आए और भोजन किया, मेरी पत्‍नी तो फूली नहीं समा रही थी, अपने परिवार में उनसे मिलकर ऐसा आत्‍मीयता का अटूट रिश्‍ता जुड़ा। जो वर्षों तक कायम रहा। वे शाम बहुत अच्‍छी एवं अविस्‍मरणीय बीती ।

ठेंगड़ी जी में जो आकर्षण था, जो परायों को अपना बनाने की कला थी यदि हमसे कोई चूक भी होती थी, किसी के प्रति कोई त्रुटि भी होती थी तो वे बड़े प्‍यार से समझा- बुझा लेते थे।

एक बार जब वे राज्‍यसभा के सदस्‍य थे तो मैं देहरादून से अपने एक मित्र श्री हरी प्रसाद के साथ दिन में लगभग 12.30 बजे उनके निवास स्‍थान 57-बी साउथ एवेन्‍यू देहली में गया। हम दोनों लोगों को भूख लगी थी, हमने यही सोचा कि ठेंगड़ी जी के आने पर ही भोजन करेंगे यही सोचकर हमने उनके यहाँ काम करने वाले कर्मचारी जो संभवत:रसोई बनाने का काम करता था, से पूछा कि क्‍या ठेंगड़ी जी दिन का भोजन करने के लिए आएंगे, तो उसने उत्तर दिया कि हाँ उनका भोजन तैयार है। तो हमने पूछा कि क्‍या हम भी भोजन कर सकते हैं।

यह सुनकर वह हमें रसोईघर में ले गया, जहाँ एक छोटी से भगौने में थोड़े से अधजले चावल एवं एक हंडिया की पेंदी में लगी हुई थोड़ी सी दाल जली हुई थी, हमने उससे कहा कि क्‍या ये खाना खिलाकर तुम उन्‍हें जिंदा रख सकते हो, वो बोला जी मैं क्‍या करूँ मुझे खाना पकाना ही नहीं आता है। वो भी ऐसा ही खा लेते हैं। अधिकार तो नहीं था फिर भी हमने थोड़ी सख्‍ती से कहा कि एक कीमती जान तुम्‍हारे सुपुर्द है, वो तो कुछ कहेंगे नहीं फिर भी तुम उनका ठीक से ध्‍यान रखो। उसी कार्यकर्ता ने बातचीत के दौरान बताया कि ठेंगड़ी जी सुबह की चाय कभी अकेले नहीं पीते हैं। वे सामने के मकान में कानपुर के एक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेता के साथ जिनका मजदूरों में बड़ा काम था, बनर्जी साहब के साथ सुबह की चाय पीते हैं। यदि वे नहीं आए तो मैं बुलाकर लाता हूँ, बिना बनर्जी साहब के ठेंगड़ी जी सुबह की चाय नहीं पीते थे।

जब कभी भी उन्‍हें भारतीय मजदूर संघ के किसी सम्‍मेलन में सघ के किसी शिविर में भाषण/बौद्धिक देने का अवसर होता था तो लय और प्रतिबद्धता के साथ वे बोलते थे तब कोई भी उस सभा में उपस्थित कार्यकर्ता हिलता भी नहीं था। प्रत्‍येक कार्यकर्ता को वे दिल से प्‍यार करते थे, कभी भी अहंकार का भाव उनमें नजर नहीं आया। संगठन निर्माण की अद्वितीय क्षमता भी दत्तोपंत ठेंगड़ी जी में थी। उनके व्‍यवहार एवं कार्य करने की पद्धति से मैंने भी अपने जीवन में बहुत कुछ सीखा। आज श्री दत्‍तोपंत ठेंगड़ी जी हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके द्वारा संचालित सिद्धांत एवं उनके विचार आज भी हमारे श्रमिक वर्गों के सामूहिक कल्‍याण के लिए समर्पित हैं तथा निरंतर श्रमिक वर्ग आदरणीय श्री दत्‍तोपंत ठेंगड़ी के विचारों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से लाभ उठा रहा है।

महान नेतृत्‍व

परमानंद रेड्डी

(छत्‍तीसगढ़)

वर्ष 1969 में हम रेलवे मजदूर संघ के अनेक कार्यकर्ता मा. ठेंगड़ी जी के दिल्‍ली सांसद निवास में ठहरे हुए थे। तब उन्‍होंने बंगाल के कुछ कार्यकर्ताओं को बुलाकर उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा था कि तुम सब Son of Bengal हो और उन्‍होंने बताया था कि मैं रायपुर का एक कार्यकर्ता हूँ। पर मेरा असल परिचय यह है कि मैं Son-in-law of Bengal हूँ क्‍योंकि मेरी धर्मपत्‍नी बंगाली है।

हमारे ''दक्षिण रेलवे संघ'' का यह सौभाग्‍य रहा है कि अनेक वर्षों तक मा. ठेंगड़ी जी हमारे प्रत्‍येक वार्षिक अधिवेशन के साथ साथ वर्ष में तीन केंद्रीय कार्य समिति (CEC) की बैठकों में भी मार्गदर्शन हेतु उपलब्‍ध रहते थे। तरोताजा घूमती रहती हैं। जिन्‍हें आज के कार्यकर्ताओं के समक्ष अपने शब्‍दों में रखने पर सभी कार्यकर्ता उनके विचारों के मूलभाव से प्रभावित होकर मुझे ही एक प्रभावी वक्‍ता की उपाधि देने की भूल कर जाते हैं।

उनके मार्गदर्शन के कुछ संस्‍मरण निम्‍नलिखित हैं :-

1. वर्ष 1971 में जब वे भारतीय जनसंघ के लिए आगामी चुनाव का घोषणा पत्र तैयार करने वाली एक समिति के सदस्‍य का उत्तरदायित्‍य वहन कर रहे थे तब दक्षिण पूर्व रेलवे मजदूर संघ के वार्षिक अधिवेशन में प्रश्‍नोत्‍तर कार्यक्रम के दौरान एक कार्यकर्ता ने मा. ठेंगड़ी जी से पूछ लिया कि आप एक ओर तो हमें बताते हैं कि भा. म. संघ एक श्रमिक संगठन है, उसका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है, फिर आप ''भारतीय जनसंघ' के लिए घोषणा पत्र बनाने में सहायता कैसे कर रहे हैं? इस प्रश्‍न का उत्‍तर मा. ठेंगड़ी जी ने देते हुए हमें बताया था कि-भा.म. संघ की सदा से यह नीति रही है कि '' BMS shall not be dictated by any political party''. जिस पर हम आज भी कायम हैं। पर उसका अर्थ यह नहीं कि यदि कोई राजनैतिक दल श्रमिकों की समस्‍याओं के संबंध में हमारा मार्गदर्शन माँगता है तो हम इंकार कर देंगे। ऐसे समय हमेशा '' We shall be ready to dictate any political party''.

2. इसी प्रकार शायद नागपुर में रेलवे मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं के अभ्‍यास वर्ग में मा. ठेंगड़ी जी ने जैसे ही यह कहा कि भा. म. संघ पागलों का एक संगठन है, तब हम सब भौंचक होकर उनका मुँह ताकने लगे। आगे उन्‍होंने हमें बताया कि किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र में लोग पैसे, पद, ख्‍याति या मान सम्‍मान या कोई फायदा देखकर ही काम करना चाहते हैं। इन सब की परवाह न कर किसी ध्‍येय के लिए समर्पित होकर नि:स्वार्थ भाव से त्‍याग, तपस्‍या और बलिदान की भावना के साथ कार्य करने वालों को आज पागल समझते हैं । ऐसे ही पागलों के संगठन का नाम है भा. म. संघ।

3. एक बार किसी कार्यक्रम में उन्‍होंने हमें बताया था कि हमारे देश में चारों ओर भ्रष्‍टाचार दिखाई देता है, उसका निदान हमारी पूर्व की संस्‍कृति, इतिहास में विद्यमान है। हमने उसे भुलाकर सत्ता और उपभोग को एक ही हाथ में केंद्रित कर दिया है, जिस कारण यह समस्‍या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप धारण करती जा रही है। यदि हम सत्ता और उसके उपभोग को अलग अलग कर दें तो भ्रष्‍टाचार पर स्‍वमेव अंकुश लग जाएगा। जिसके पास सत्ता होगी उसे सत्ता के उपभोग को महत्‍व देते हैं, उन्‍हें सत्ता प्राप्‍त काने का कोई अधिकार नहीं होगा। प्राचीन काल में राज्‍य की सत्ता ऋषि मुनियों के हाथ में होती थी जो उपभोग से कोसों दूर रहते थे। जबकि राजा जो राज्‍य के संसाधनों का उपभोग करने को स्‍वतंत्र थे, सत्ता के मामलों में ऋषि मुनियों के अधीन होता था। भरे दरबार में मुनि के प्रवेश करते ही राजा सिंहासन छोड़कर मुनि का अभिवादन करने साष्‍टांग प्रणाम करता था और मुनि की आज्ञा को मानने से इंकार नहीं कर सकता था। जैसे कि राजा दशरथ से उनके पुत्र राम और लक्ष्‍मण को मुनियों की रक्षा के लिए माँगने पर राजा दशरथ को उन्‍हें देना पड़ा था।

4. मा. ठेंगड़ी जी ने हमें बताया था कि ट्रेड यूनियनों की हड़ताल में केवल देा पक्ष होते हैं, ऐसा मानते हैं। जबकि तीन पक्ष होते हें। जैसे कि शिक्षण संस्‍थाओं में कर्मचारी तथा प्रबंधन के अतिरिक्‍त तीसरा पक्ष विद्यार्थियों का होता है जिसकी अनदेखी करने के कारण ट्रेड यूनियनों को हड़ताल करने पर आलोचनाओं और अपयश का शिकार होना पड़ता है। हड़ताल के संबंध में उन्‍होंने जापान का दिलचस्‍प उदाहरण देकर समझाया था कि जापान में कर्मचारियों द्वारा हड़ताल के कारण उत्‍पादन घटने की बजाय बढ़ जाता है क्‍योंकि कर्मचारियों की तीन पारियों में से प्रतिदिन पारी से केवल एक पारी हड़ताल में जाती है तथा शेष दो पारी 12-12 घंटे की पारी में काम कर उत्‍पादन में कोई नुकसान नहीं होने देतीं किंतु इस कार्य के लिए कर्मचारियों में पूर्ण अनुशासन की आवश्‍यकता होती है तथा सरकार भी संवेदनशील होनी आवश्‍यक है।

5. भा. म. संघ एक राष्‍ट्रवादी श्रम संगठन है तथा राजनैतिक दलों में भारतीय जनसंघ एक राष्‍ट्रवादी राजनैतिक दल होने के कारण चुनाव के समय भा. म. संघ के कार्यकर्ता, भारतीय जनसंघ का ही समर्थन किया करते थे। यदि भारतीय जनसंघ कभी सत्ता में आया तो उसके प्रति भा. म.संघ की नीति क्‍या होगी? इस प्रश्‍न का समाधान करते हुए मा. ठेंगड़ी जी ने बड़े ही सुंदर ढंग से Responsive Co-operation की नीति को हमें समझाया था। सरकार जिस रूप में और जिस प्रमाण में हमारे प्रति अपनी नीति बनाएगी उसका प्रत्‍युत्‍तर भी उसी रूप और उसी प्रमाण में देने की भी. म. संघ की नीति सभी सरकारों के प्रति एक जैसी होगी।

6. उन्‍होंने एक बार हमें यह भी बताया था कि कोई भी कर्मचारी पहले इस देश का नागरिक है। कर्मचारी की नौकरी जा सकती है पर उसकी नागरिकता छीनने का अधिकार किसी को भी नहीं है। इस कारण कर्मचारियों का दायित्‍व इस देश के प्रति ज्‍यादा होना चाहिए। इसी कारण भा. म. संघ का नारा है-''देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम''। जबकि साम्‍यवादी यूनियनों का नारा है-''चाहे जो मजबूरी हो माँग हमारी पूरी हो'' इस नारे को भा. म.संघ पूरी तरह नकारता है।

7. एक स्‍थान पर उन्‍होंने हमें समझाया था कि ''lf the Nation stands noboby can fall. But, if the nation falls, noboby can standS'' यही विचारधारा भा. म.संघ को अन्‍य यूनियनों से एक अलग पहचान देती है और जिसके बल पर भा. म. संघ एक राष्‍ट्रवादी श्रम संगठन होने का गर्व के साथ दावा करता है।

From Failed Mark to Successful Thengadiji-

A Travel through Two Paradigms

Saji Narayanan C.K.

Thrissur (Kerala)

Communism

It is a puzzle for all social thinkers why Marxism could only survive hardly a century. We will get the answer once we go through the thoughts of Shri Dattopant Thengadiji. He has extensively reviewed communism 'on its own anvil', pointed out the flaws of Marxism and presented an alternative paradigm for which he has dedicated his whole life.

He points out that Marx has given practically 5 negative guiding principles, viz.-

1. No system of marriage.

2. No family system.

3. No religion.

4. No nation.

5. No private property.

Thengadiji discusses about all these and presents his alternate views in the light of world events.

Praise for Marx

Though a staunch critic of Marxism, Thengadiji did not hide his appreciation for Marx personally for his intellectual contribution to the world thought, for the same, Thengadiji quoted Sankaracharya who has countered Buddhist philosophy everywhere, but still praised Buddha:

य आस्‍ते कलौ योगिनां चक्रवर्ती

स बुद्ध: प्रबुद्धोऽस्‍तु निश्चित्तवत्

i.e.I adore Buddha who is the emperor among Yogis in this KaliYuga. This is India's tradition. Guruji also has at one occasion recognized that Mark was not a crude materialist. Thengadiji says: "On a reading of 'Philosophical and Economical Manuscript 1844', we will understand that the motivation of Mark was ethical and not economic. But he was reluctant to say it, because at that time ethics and religion were considered almost the same." But, recognizing KarlMarx as a great personality does not mean that we accept Marxism.

Unscientific Materialism

Thengadiji points out that one failure of Marx was that he did not anticipate that frontiers of human knowledge are ever expanding. Marx's cosmology of 18th century did not tally with the advancement of science since then. Marx lived in the time of Newton's science. Marx considered matter as fundamental based on physical science of Newton. But later science progressed and Einstein said matter cannot be basic. Einstein has shown that matter can convert into energy and vice versa. I.e. both are inter-convertible. That means fundamental of matter is lost. Thus. Now science does not accept materialism as such. So Marx's fundamentals on materialism are proved false by the advancement of science. At the same time Thengadiji warned that, we should not fall into this game as we are neither with Newton nor with Einstein.

Similarly, he also says, during Darwin's time all the living organism was going in an evolutionary way. But later it was thought that there is evolution as well as devolution. These two are occurring simultaneously. Thus, those things which were considered true yesterday may be realized as false today.

"Thank God, I am not a Marxist!"

Marx is said to have exclaimed once: "Thank God, I am not a Marxist!" i.e. he did not want to create an 'ism'. Thengadiji says, except seers, no one can claim to have given the last word of wisdom. He explained, 'ism' is a closed book of thought as finality or the last word. It is a path created to address the issues of a specific situation in a specific society. Situations are dynamic where as 'isms' are static. So, a static ism can not fit into dynamic situations Thengadiji says, 'we don't believe in any ism as a panacea or "Rambaan" for all the illness in all situations.'

Thengadiji cites one example. BMS submitted a memorandum to the 1st National Commission on Labour. It is a document of our collective thinking and collective wisdom. But if someone says it is the last word on labour problems it is wrong. We can say that for 1968 it is the most valuable document. But in 1990 we can't say it is the most valuable document. If no one recognises us without an ism, then we can say our ism is pragmatism within the framework of national interest.

Dialectics of History

Whatever social analysis were there in Marx's literature, they could not be applied to India. Thengadiji quotes a historian Mohd. Qutb who said: "When it is dialectical materialism described as a common phenomenon in the history of the mankind, really it has no existence, whatsoever, outside the European history. These stages were never passed through by any people outside Europe". Dange in his book, 'From Primitive Communism to Slavery', it is said that till Mughal period there was no system in India known as feudalism. On the basis of Marx using a term, 'Asiatic order of Society', communists say, for convenience, that "before Mughal period there was Asiatic order of society in India."

Predictions of Marx

The capitalism, as said by Marx, does not exist anywhere in the world, and communism also does not exist anywhere in the world, observes Thengadiji. Marx says that since rich becomes rich and poor becomes poor, no one will be there to purchase the products of capitalists. Due to this, capitalism will fall under the burden of its own self contradictions. Through a bloody revolution this has to be accelerated. Marx predicted that this way capitalism can be finished and after that socialism will come. But Thengadiji observes that this scenario is not seen anywhere in the world.

Imperialistic Designs

Thengadiji says that, ideologically, the rise of communism and its death point was up to 1953. Before 1953, the concept was that of a uni-centric communism with Moscow at its centre because communist revolution first occurred in Russia. Workers of the world were supposed to unite to form a single international country. That dream was lost. Then it became bi-centric with Peking and Moscow as two centres. Later, patriotic feelings in different communist countries killed the dream of a uni-centric or bi-centric world communism. It became multi-centric with every nation having its own centre. Bi-centric communism was realised as two attempted Imperialistic designs. For example, Vietnam resisted Chinese Imperialism through patriotic feelings. Now in communist countries, nationalism is stronger than communism itself. To protect national interest, there is fight between communist countries like Russia and China, Russia and Yugoslavia, China and Vietnam, Vietnam and Cambodia etc. Communist Parties in every communist nation demanded autonomy and independence.

Communists themselves have lost their faith in communism, Thengadiji says. Now a days, no one is thinking that communism is moving forward. If anything is working in the name of communism, it is the forces of Russian national imperialism or Chinese national imperialism, observed Thengadiji. Russia used its imperialist designs in countries like Yugoslavia (in 1948), Hungary (1956), Czechoslovakia (1968), Afghanistan (1979), East Germany (1953), Cuba, Angola, Ethiopia, Somalia, Yemen etc. When multi-centric communist nations quarrel each other, they call each other deviationist, observed Thengadiji. Russia says Yugoslavia is deviationist. Yugoslavia says Russia is deviationist. In India Namboothiripad says Dange is a deviationist and Dange accuses Namboothiripad as a deviationist. Charu Mazumdar says both are deviationists. Thus, if we collect all the certificates given by different communists about each other, we will conclude that communism is equal to deviationism, says Thengadiji.

Proletariat finds Fatherland

Marx strongly mooted its internationalism attacking the concept of Nation. Thengadiji cites Marx's words: "Proletariat has no fatherland". Lenin said that it is inevitable to abolish the concept of Nationalism. This has led communists all over the world to promote anti national activities in the name of communism. Thengadiji cited examples. During the Second World War, communist workers in defence industries in France welcomed Hitler who attacked France. This was because, at that time Hitler and Stalin had a treaty to support each other. The same treachery happened in India also during the Quit India movement. They claimed war is a people's war because of USSR-Hitler unity. During Chinese war also they debated on whether it was fact, an aggression. If so, who the real aggressor is, whether it is India or China! But trend in communist world was to nationalise Marxism by making it compatible with the national culture and traditions, says Thengadiji. Nationalism has always been strong in countries under communist governments. In World War II when German forces reached near Moscow, in order to arouse the emotions of the people, leaders in Russia had to give call on the spirit of Nationalism. Till then, Russians were singing an international song in French language. In its place Russia had to make a national song in Russian language. At that time, Stalin made a call "to defend the frontiers of your sacred Father land". Thus communists also had a fatherland instead of a frontier from North Pole to South Pole. Those feudal lords or monarchs who were condemned earlier were given royal rebirth as National heroes. Their names were given to Cities etc. It can also be seen that in hundred places the name of Lenin was given, and Marx's name is given only to 10-12 places. It was because Lenin was a Russian. Nationalised Marxism becomes very different from the text book Marxism. Similarly, the fight of Vietnam against US was not on the strength of communism, but on the strength of patriotism, says Thengadiji.

Here Thengadiji gives his direct experience when he visited communist countries. When he went to Russia he was surprised to see how strong was their nationalism. Statues of kings like Peter the Great, Catherine the Great etc. were erected as the nation builders. Thengadiji also noticed statues of certain Goddesses like Jupiter, Venus etc. which were damaged by Hitler. Russians recreated them all as if repairing a national insult. In Leningrad there was a battle with Hitler for about 100 days in which about 5 lakhs people died. In a cemetery kept there, there is a nonstop light burning. Thengadiji asked the persons there, what is this? They replied, it is a remembrance of those who died for the motherland. Nearby there is a huge bronze statue of motherland holding a flower garland for her sacrificed brave sons. Every day in the morning and evening religiously with rituals, there is big guard of honour. When Thengadiji visited Hungary he went to an art gallery. There also they have displayed with reverence the picture of a King who died long back in a national battle. In India, Dange has written that Rana Pratap and Shivaji are representatives of labourers and peasants.

Nation and Mankind in Harmony

Thengadiji remarks that once upon a time Communists believed that communism is international and communists of all the countries are one Nation. But now it is realised that all humans are one kind. We believe that not only this, even animate and inanimate beings are one. Further, all the universe is one. When one says "all are one," it means there are different entities in the world. Hence it is to be said that "All is one", clarifies Thengadiji. 'All together' is one principle. It 1s the same existential principle. This is the realisation of Advaita by our seers. Right from soil to humans, they are different projections of the same matter. It is like, from the same gold different ornaments are made.

Thengadiji says, like communists, we don't find any contradiction inside different organisms. They opposed family and wanted to destroy that institution. Thengadiji presented the alternative Indian view that individual, family, nation, mankind, and universe are all the growing stages of the development of consciousness. Whatever progress is made, it is the progress of Consciousness. A small infant is full of "aham", so it is not even able to identify with its mother. For it aham is the only truth and all other things are myths. In due course of the child's development he identifies with family and for him family is the highest group. Thus the consciousness progresses further. Later, for him, nation is the only truth. That does not mean family is untruth or individual is untruth. Ultimately he feels all the universe is his own:, "स्‍वदेशो भुवनत्रयम", explains Thengadiji. A sanyasin can say like this, not all can say. He is not only the citizen of the world, but citizen of the universe. Individual, family, nation, mankind, world and universe are not mutually contradictory. Just like from a seed sprout emerges, then plant, branches, flowers and fruits emerge, they are different stages of development. Anyone can say seed is different, sprout is different or plant is different and in between there is great conflict. This is wrong. They are only the progressive stages of human consciousness. Man can think unified right from aham up to universe. Man can jump into mankind. Here there is no conflict of individual versus family, family versus nation, nation versus international mankind, and mankind versus universe. But westerners think nationalism is against internationalism. Internationalism is the outward manifestation of the development of human consciousness from the earlier stage of nationalism. Thus Thengadiji explains the progressive unfoldment theory which Pt. Deendayalji also mentions.

Fate of Godless Communism

The western tradition of anti religious intellectuals and the nauseating picture of the Christian Church turned Marx against religion. He declared crusade against all religions about some of which he had no intimate knowledge. For Marx "Religion is opium", but for us "Religion is an opinion" ('mat') compares Thengadiji. A communist country like Albania declared that it is the first atheist country in the world. Just as a state religion. atheism was also given the same status. Thengadiji explains about the fate of Godless Russia. In 1932 when five year plan was inaugurated in Russia, then it was called "Godless Five Year Plan". They also planned to close down all Churches by 1936 i.e. by 1937, God will be expelled from Russia. But in reality Churches were closed for some days, and thereafter opened. The number of people going to Churches increased. Now freedom of religion is accepted as a fundamental right. When Catholic Pope visited communist Poland which was his own home country, half of Poland's population came to see him. Pope also declared standing on the communist land that he disapproves the Marx's theory that man is nothing more than a mere means of production. Deendayalji was a bitter critic of corruption and perversion in the field of religion; still he did not throw away the baby along with the bathwater, cites Thengadiji.

Marxism becomes a Religion

Thengadiji observed that fanatic followers of Marx carved a religion out of his thought system. Marxism also became a religion. In place of Mohammed and Christ, there is Marx as the prophet. Das Capital is the sacred book. Higher phase of communism is equal to the heaven. Dialectical materialism was the God who controlled everything. Thus communism was completely a religion. Thengadiji quotes Toynbee who has caid:- "Communism as a western heresy adopted by the ex- orthodox Christian Russia, is just as much part and parcel of the Graeco-Judaic heritage as the western way of life is and the whole of this cultural tradition is alien to the Hindu spirit."

No Marriage and Family

Thengadiji explains the fallacy of Marxist concept on marriage and family. As a reaction to certain coercive measures of Churchianity, some great thinkers in Europe, including Marx, condemned the institution of marriage and family. Marx saw the development of family as one of the superstructures erected on the economic base. He said Bourgeois family will disappear. This led to a misunderstanding that for a genuine communist, morality is not a must. Similarly it was said that family is a bourgeois concept and hence it has to be abolished. But later in Russia it has to be legitimised. Right to inheritance to legitimate child also was given. Even under communist regime, family has come to stay, observes Thengadiji.

Marx did not accept the system of marriage as is clearly stated in his 'Communist Manifesto'. This is concealed by the Indian Marxists because, then no one will accept communism. The communist manifesto devotes some space to wife sharing. He also portrays communism as advocating a "community of women," the women of society being shared by the men. "Official and open wife sharing instead of hypocritical and concealed wife sharing" did not get respectability. Children need not know their parents, and will be brought up by the state. The individual, family, marriage and the familial rearing of children should not exist. Thengadiji cites a news item that came up in the newspapers during 1970-72 that in Japan there were some murders among Trotskyites. The reason stated by one murderer lady was that "he behaved with me like a husband!" But Thengadiji points out that even in Russia and China they could not abolish marriage system. They could only abolish the formalities. But the responsible leaders like Lenin and Trotsky had to publicly condemn this theory.

Classless society

Marx claimed communism will finish classes and will create classless society. Middle class will not sustain. They will either join the upper class or lower class. But Thengadiji points out that, on the contrary, everywhere middle class became very strong. Further, old classes were replaced by new classes in new communist regimes. Administrators and technocrats became a separate privileged class. About this Yugoslavian Deputy Prime Minister Milovan Djilas had written a book titled "The New Class". Thengadiji says, near Lenin's Mausoleum, there is graveyard for high class people. For ordinary citizens there is separate cemetery. He points out that till materialism is there, classes will also be there. Hence, everyone should have opportunity in an ideal system. सर्वे अपि सुखिना: सन्‍तु।

Marx opposed Genuine Trade Unions

Thengadiji is critical on the Marx's view on the role of Trade unions. Karl Marx opposed genuine trade unions because they did not aim the ultimate communist revolution. Only if workers are starving and unhappy then only they will be ready to die for a revolution. Marx inferred that trade unions and cooperatives will end soon. But this was proved wrong. Lenin in his book 'Left in Communism', said, communists should propagate lies, make wrong allegations, mislead people etc. against those who are not communists. They thought if economic conflict is created in different parts of the country, then that discontentment can be converted to widespread conflict. Thengadiji cites how he has told his communist friends during Bank strike that communists have no right to conduct strike since no such right exists in the communist countries like Russia and China which are considered. as fatherland and motherland of communists. There workers also have no right for collective bargaining. Such rights exist in capitalist countries and not in communist countries.

Socialism and State Capitalism

Thengadiji points out that many of the predictions of Marx went wrong. Western philosophers and social scientists conceived of socialism only after capitalism has fulfilled its historic role. Even Marx has categorically stated that the talk of socialism is irrelevant for societies that are not affluent. In the 'German Ideology' Marx wrote that the high development of productive forces is absolutely necessary as a practical premise for socialism. Again Marx predicted that revolution will take place first in industrialized nations where there are more number of industrial workers. He mentioned that there were three such countries viz., Germany, Great Britain and America. But no revolution took place in these countries. Instead, it first occurred in industrially backward countries like Russia and China where there was not even trade unionism. In none of the affluent countries socialist Governments came to power.

Some related misconceptions were pointed out by Thengadiji. Communism is translated as 'Samyavada' though there is no commune in Samyavada and no samya in Communism, he says. In practice, equality is turned into equivalence (=uniformity). Socialism does not respec humanism. Communists proposed Socialism versue Humanism, whereas Hindus say Socialism and Humanism We also want to stop exploitation and economic difficulties. it is difficult to say what really socialism means, since there are several meanings attributed to it. In India also Jawaharlal Nehru, Jayaprakash, Dange, Namboothiripad, Vinobaji, Lohia etc. were all claiming themselves as different types of socialists. There are Hindu socialists, congress socialists, communist socialists etc. Nazer has proposed Arab socialism. Hitler, Stalin, Atlee are all claiming as socialists. So the question is to which variety of socialism one belongs.

Thengadiji says, equality and human progress are not compatible. If everyone can achieve equality irrespective of the effort made by each, who will work hard to achieve anything without any incentive? Who will work for human progress? Incentives are not merely materialistic. The motivation can be something beyond materialistic. If economic incentive is there, disparity of income will only increase. If we wish to bring equality, then no one will think of becoming an Einstein as there is no incentive. Bertrand Russel said, if Russian scientists were not given extra facilities apart from other citizens, they would not have made Sputnik. Thus communists discarded communist principle and achieved scientific progress.

Scientific socialism turned to state capitalism everywhere. Says Thengadiji. Many people who support socialism do not support state capitalism coming in the name of socialism. in the name socialism, state capitalism comes, state monopoly comes and a sort dictatorship begins. Democracy will be finished and fundamental human rights also will be finished. Even in Russia the ruling was not by the proletariat.

Communism and Nationalisation

Nationalisation as the central point of socialisation has to be discarded, says Thengadiji. Nationalisation can not be a panacea. It can be an inevitable evil. In Great Britain, nationalisation was started by non socialist or anti socialist governments. In 1888, there the High Court gave a judgment that telephone service can be retained by Government. After that, till 1912, all the telephone services were nationalised, during the period of non-socialist or anti-socialist Governments. In 1945 the labour party for the first time came to power in clear majority. But when the issue of nationalisation of Banks came, they asked why Banks should be nationalised. Thereafter, during their regime some industries like coal were nationalised. That is because they were in losses and private parties were not ready to run the coal industry, explains Thengadiji. Thengadiji proposes that there can be different patterns of ownership of industries.

Revolution and Parliamentary Democracy

Thengadiji narrates the experiments of communists on parliamentary democracy. One famous strategist of Communists was Che Guevara who wrote that it is difficult to run communist government perfectly in a parliamentary democratic set-up. In India, the first pre planned and organised attempt on bloody revolution was experimented in Telengana. After the failure of Telengana experiment, the Communist parties thought that Parliament and assembly can be used to bring the people's opinion on their side and to prepare people for a bloody revolution. Thus, in Amritsar conference, for the

first time ,,it was decided that Communist party should be made a people's party. Before that the Communist parties reached only up to the card holders. Charu Majumdar thought if Communists go to parliament their revolutionary work could not be achieved and they will lose their revolutionary zeal.

French, British, German and Italian communist parties say that they are not convinced that bloody revolution is a must. It was thought in Italy, France, Britain and some other countries that there is no need for any bloody revolution. Thengadiji says that under the present system of Parliamentary democracy, good result can be achieved by bringing good people.

Strategies of Revolution

Many communists have thought about the strategies of a revolution, says Thengadiji. After the failure in Telengana, the Communists turned to China for their studies on revolution. Mao thought if any conflict is created in the middle of the country it may not succeed. But if it is started from the Soviet border, they will get the assistance of army and weapons from Soviet Union. So he started his movement from Yenan.

Russian experience was that, first you conduct revolution using the organised labour in cities and then take revolution from cities to villages. Chinese experience was just the other way. Naxalites thought that the Chinese way is best suited to them. They tried to imitate China fully on strategy as well as on ideology. They failed to understand the difference between China and India strategically. Before the revolution in China, there was no centralised state apparatus or central Government. Each and every subedar was a war lord. But in India whichever may be the ruling political party, there is a centralised Government. Our army, by and large, was non-political. Lenin made it clear that where there is strong central Government and centralised army, trying for revolution is suicidal. Here both Russian and Chinese strategy models will not work, observed Thengadiji.

Economic Blue Print

Because of the claims of the communists in India, it appeared that Marx has given a blue print, says Thengadiji. Economics demands that you have to give a complete order about the agencies of production, agencies of distribution etc. Lenin has said that Karl Marx has not written a single word about economics of socialism. Marx did not give a blue print on an ideal society. It is not a sign of intelligence to give blue print. He gave only guiding principles. Blue print will evolve in course of implementation. Marx was not a law giver. Law giver means one who has given a socio economic order. In the west, Moses was a great law giver, Mohammed was a great law giver. Here in India Manu etc. were the law givers. But Karl Marx has not prescribed any socio economic order.

Lenin after coming to power formulated the new economic programme. Then people said that is deviation. Now the China's economic programme is different, Yugo savia's is different and Russia's is different, says Thengadji.

Vedic Connection of Communism

Com. S. A. Dange in the 'Foreword' to the Book 'Universe in Vedanta', written by Com. Bani Deshpande said, the famous 'Nasadiya Sukta' of the Rig Veda heralds not only the beginning or philosophy but of dialectical materialism also, in the most ancient record of world history. He said: "Almost all basic tenets of Marxism were anticipated by Vedanta except one, historical materialism." Later, in an executive committee meeting of his party which was chaired by Dange himselt this matter was discussed and a resolution was passed that the party dissociates with this theory. Thengadiji mentions thie to show that if Marx had come into contact with Indian thought there would have been substantial changes in his thoughts.

During the same time in 1867 when Marx's Das Capital was released for the first time, a small document written by Vishnubuva Brahmachari was published in Maharashtra, in which similar concept of commune was narrated, cites Thengadiji.

Indian Concept of Private Property

About 2000 years ago Plato wrote that it is required to abolish private property. It was abolished in Inca in Latin America, Mesopotamia, Pharaoh's Egypt etc. So it is not an idea that was born out of the brain of Karl Marx, says Thengadiji. But the paradox is that private property was not rejected in any of the communist countries. They made restrictions only. Everywhere private property is existing in some way or other. Inheritance is also included in Russian constitution.

When BMS had to give a memorandum to the first National Commission on Labour, and there was the question on our approach to private property, Thengadiji and others went to Shri Guruji. Guruji explained the traditional concept of private property as:

यावद् भ्रियेत जठंर तावत् स्‍वत्‍वं हि देहिनाम।

अधिक योऽभिमन्‍येत स स्‍तेनो दण्‍डमहर्ति।।

i.e. you are entitled for property only to the extent of filling your stomach. Anything in excess if possessed or acquired. you are to be considered as thief and proper punishment should be given. BMS incorporated this idea in its memorandum. On right to property, capitalism allows limitless rights, communism does not allow any right, where as we hold the view of need based minimum right.

Thengadiji says, Jainism's "परिग्रह परिणाम व्रत'' means whatever property you may wish or earn, keep only that much which is very essential; all the remaining should be given to the society. In Sikh religion, Banda Bairagi has stated a loud redistribution of wealth. All the land was given to landless labour. Atharv Veda orders to produce much, but distribute it all: शत हस्‍त समाहर सहस्‍त्र हस्‍ता विकिर = Produce by hundred hands and distribute by thousand hands. Isavasyopanishad says, whatever is there in this world, belongs to God: Isavasyamidam jagat.

Materialism - Basis of Life

The Marxist materialism is built upon the philosophy that mind is only a super structure of matter and whatever exists is only matter, cites Thengadiji. Thus all thoughts, literature, culture, arts, religions, ethics etc. are only super structures of matter. According to Marx, all these are moulded by socio economic conditions; human mind is the product of socio economic conditions. Marxists say that life is not determined by consciousness but consciousness is determined by life. Thengadiji countered it by saying that it is true that socio- economic conditions act on religion, culture, ethics etc. But both act and react upon each other. Deendayalji says, while life of social being and consciousness act and react upon each other, it is consciousness that is more decisive.

Marx gave importance to economics as an instrument. Whatever happened in history is due to materialistic considerations. Marx considered man as an economic being. Capitalism also believes the same. But Thengadiji points out that Deendayalji considers man in an integrated way having his body, mind, intellect and soul. Man is also an emotional being, intellectual being, spiritual being or anything else. He is an integrated whole of all these. Everyone requires the progress of all these facets in a holistic manner.

Materialism Indian

Marx did not have the required exposure to Indian thought system. Thengadiji says, materialism had its beginning in India. In the west, materialism was initiated about 2000 years ago by Democrates, a Greek philosopher. In India, it was initiated by Brihaspati well before that period saying: "अस्‍तो सत अजायत" i.e. from non existence emerged existence. Charvaka said:

न स्‍वर्ग नापवर्गोवा

नवाप्‍ता पारमार्थिका: नैव

वर्णाश्रमादीनाम् क्रियाश्‍च फलदायिका

There is no heaven, there is no apavarg. It is wrong to say that there is 'Paramaatma' above. There is no use of having varna, aashram and Dharma. Here materialists said "लोकायतमेव शास्‍त्रम्" only lokayata is science and all others are wrong. In the same way, communists also claim about "scientific" socialism.

Kanaada was a famous teacher who put forward the atom theory. Buddha also challenged Vedic religious practices, still we consider him as God. In India it did not go a long way because, in a free and fair battle, materialism was defeated, observes Thengadiji.

It is said that food, sleep, fear and enjoyment are also required for human beings without which he can not progress. They are all basic necessities. But being non materialistic, we do not say that only if more wages are paid we will work for the society. Those who have contributed to the society were mostly those who wear loin cloths only and live in jungle. People prefer to have a Prime Minister who is a brahmachari when compared to one who has married ten times. That is the thought process of people. So those getting highest wages were given lower status. Hence there was balance in the society.

Both capitalism and communism are based on materialism. Thengadiji cautioned that based on materialism we should not build society. Wherever there is materialism, there emerge materialistic values of life too. We believe in bringing higher values in human development. The objectives of capitalism and communism are material prosperity of individual as well as the State respectively whereas we believe in the integral way of Dharma, Artha, Kama and Moksha as the four purusharthas. Capitalism has the club life as its model, and communism has the mechanical life as its model. We have the human body as the model. The thought process is compartmental in both capitalism and communism whereas it is integrated in our system.

Indian concept of Stateless Society

Just as classless society Marx says about stateless society also. There will be no state, state will wither away. The same thing was told by Bhishma when Yudhishtir put a question whether there was always the institution of state? Bhishma answered, it was not there always:

न वै राज्‍यं न राजाऽसीनच

दण्‍ड न दाण्डिक:

धर्मणैव प्रज्ञा: सवा्र रक्षन्ति स्‍म परस्‍परम्।।

There was no state, no one to be ruled, none to punish and none to be punished. This was achieved because all the people followed Dharma and through it were mutually protected.

Yudhishtir asked, then why did state come into existence? Why state was necessitated? Bhishma answered: 'When people became confused (mohavash), confusion of thought resulted and the original knowledge was lost. Consequently, their Dharma also disintegrated.'

Because of lobh etc. disintegration is taking place. Action of Dharma also was being lost i.e. the principles upon which society was being sustained, were being lost. Lobh, moh etc. are materialistic tendencies. When they get strengthened state is necessitated. So statelessness can not be brought upon the basis of materialism. In no communist country state withered away. On the contrary, state is becoming more and more authoritarian. State is becoming more influential in all sectors of human life. If we go forward with materialistic values, state shall never wither away.

The process for capitalism is rivalry and competition, communism is use of force, whereas ours is that of co operation. The dominant attitude of capitalism is individualism and communism is state-ism. Whereas we believe in inter-dependence- "परस्‍परम् भव्‍यंता". The political structure in capitalism is multiparty democracy, communism is one party dictatorship, where as our system is Dharma Rajya or Rule of Law.

Regarding discipline and liberty in the society, different systems propose different paradigms. Capitalism allowed freedom to the individual to the extent of licence. Communism prescribed State discipline leading to restraint in thinking. But we believe in liberty without licence and discipline without constraint on thought. In his book, 'Nationalist Pursuit' (Sanket Rekha) Thengadiji has made a table of comparison on social structures and differences in outlook of Capitalism, Communism and Hindutva.

'Final Phase of Ideological Warfare has Come'

After communists coming to power in many countries, we have come to understand the condition of communism. Thengadiji remarked, Marxism was a self defeating theory. Communism can manage very well to finish itself. It has fallen into its own internal self contradictions. As a philosophy also communism has already failed. With the exception of three countries, world communism has virtually collapsed, he says.

About capitalism Thengadiji says, it is on the decline though its demise is being delayed. Capitalism is busy in seeking ever new remedies for its ever new maladies. Still he predicted that the days of capitalism are numbered; it will not last even up to 2010 AD. Now the global financial crisis of 2008 has shown his prediction has come true.

For some centuries India was troubled; during those periods westerners advanced much. The search is already going on for the third way. He detailed his vision about the 'third way' in his book titled the same i.e. "Third Way" Thengadiji identifies that the 'final phase of ideological warfare has come'. So his well knitted thoughts on Marxism, Capitalism and Hindutva are going to be the instruments helpful to us in this ideological warfare.

QUO VADIS

D.B. Thengadi

'The Hindu Economics' of Dr M. G. Bokare will be considered as a landmark in the history of economic thinking of our country. It may also give an unpleasant surprise to the 'left' as well as the 'kept' intellectuals to find a former Marxist asserting that the first book on Economics was written in India and that it was in India that 'Economics' was defined for the first time in the world history of Economic literature. When apprised of this fact by Dr Bokare, J K Galbraith appreciated his suggestion that western economists ought to be informed about the literature on economics in ancient India. In course of time, Dr Bokare may find that it is easier to convey any truth to western intellectuals than to the intellectuals in this country who are still under the influence of some 'modern' superstitions and are still feeling happy at the loss of their intellectual autonomy. As economists they are not the legitimate successors of Dadabhai Naoroji who first originated the 'drain theory', or Justice M G Ranade, Gopal Krishna Gokhale and Ramesh Chandra Dutt who criticised British economic policies in the spheres of public finance, taxation, banking, industrialisation and revenue system. They are not even acquainted with " Arthachintaks" i.e. Professors of Economics in ancient India.

When the Hindu nationalists entered the economic field in 1955 it was immediately certified that they were ignorant of economics. That was a self-evident fact. They must be ignorant because they were 'Hindu'. It could not be otherwise. All their words and deeds were ridiculed with utter contempt. That they were new entrants in the field was obvious. But who had granted the monopoly of all intelligence in the land to their critics is not yet known. Arrogance, rather than intelligence. was the main asset of these traders in imported intelligence.

PART - 1

When Bharatiya Mazdoor Sangh (BMS) declared that it recognised the traditional Vishvakarma Day as the National Labour Day, the leftists were taken aback. "Who is this fellow Vishvakarma? Why has he been excavated from the hoary past at this particular juncture?" they asked. They were further flabbergasted to know about the Vishvakarma sector in Bharatiya economy. They had never come across this particular term in the western literature. The western economics did not recognise this sector of self-employment which was neither a 'private sector' nor a 'public sector', but the 'people's sector'. The westerners had no elegant theory to explain self employment, though they measured self- employment in the estimates of national income. The wage employment is the only economic variable in the western analytical economics. The Vishvakarma sector had, therefore. No justification for existence, no raison d'être; sooner rather than later, it would merge itself into the camp of the 'have- nots', they asserted. Think of their embarrassment when they learnt subsequently that the Household Industries Act was passed by the erstwhile communist Soviet Union, and that communist China and Hungary also had made legal provisions for the self-employment sector!

When BMS claimed that Bharat had a very long and distinguished history of economic thought, the leftists dismissed it as a fantastic nonsense. In keeping with the Bharatiya tradition, Kautilya pays his homage to Shukra.Brihaspati and others at the very beginning of his ' Arthashastra'. He also states that his treatise is a compendium of almost all the Arthashastras composed by ancient teachers. He mentions his predecessors as many as hundred and fourteen times, though very often with a view to express his differences with them on various issues. This indicates that long before Kautilya, this branch of knowledge was properly developed and that its literature was "arranged in scientific systems and treated in special manuals of linstruction." All this as well as every other enunciation of Bharatiya socio-economic order by BMS was treated by these disciples of the west with contemptuous ridicule. To cite a single example, was not the description of Hindu Guild a piece of fantasy? It was claimed that the nature or character of the internal relations between different members of the guild were not 'industrial' in a technical sense inasmuch as the absence of employer-employee relationship was the characteristic feature of the Hindu guilds. As Kautilya has recorded, the total earnings of the guild belonged to all its members and used to be distributed either according to the terms previously settled upon or, in the absence of any such agreement, equally among them all. The guilds had autonomous character. Members of the guild were themselves to settle all internal disputes according to their own constitution. No power or person outside the guild was competent to do this job. There could be no Interference by the state in the internal administration of the guilds except when there arose a dispute between the President and the members. (Brihaspati: X8, XVII 9, 18, 19).

"Utopian"; the leftist remarked.

Naturally, the BMS concept of labourisation of industry was far beyond their tutored comprehension.

Hindu economics took cognisance of systematised self-employment as well as wage-employment. In the sphere of wage-employment, the employer-employee relationship was properly regulated. "This was impossible outside the industrialised West, and particularly before the advent of the industrial revolution", they challenged. In response, the regulatory provisions in Shukra neeti on various issues were published The types of wages; definitions of piece-rate, time-rate, time-cum-piece rate wages; periods of payment; types of 'Swami' (employer): grades of Bhrityas' (employees), gradation of wages; fair wages; payment of wages; register of wages; category-wise wages; resolution of industrial disputes; leave rules; annual leave with pay; sickness benefit; provident fund in principle; pension and family allowance; priority of relatives in service; general bonus and efficiency bonus, and the psychological handling of the Bharityas (employees) - all these are provided for by Shukra. For example, regarding the issue of 'bonus' Shukra enjoins: Every year an employee should be granted one-eighth of his earnings as 'bonus', : if he does his work efficiently, he should be granted one-eighth of the piece-rate earnings, i.e. his remuneration for that work as efficiency bonus.

Reaction? "A brilliant piece of fabrication! In the light of the modern experience, the BMS activists must have written down these provisions in Marathi or Hindi, got them versified in Sanskrit by Dr. Vernekar, and published them in the name of poor Shukracharya who, in all probability, never existed at all. A commendable exercise in anachronism.

The reaction was natural. Shukra's regulations were meant for wage-earners under an economy of full emoloyment. The western economic theories concerning themselves solely with wage-employment to the exclusion of self-employment could not conceive of the condition of full employment. The industrial relations regulations formulated against the background of western theories could not, therefore, be qualitatively at par with those of Shukra and other Hindu law-givers.

These self-styled intellectuals had some positive and first hand information about the other-worldly attitude of our sages. The latter were not expected to take any interest in mundane or earthly affairs like market-yards, weights, measurements, sub-standard goods, buyer-seller relationships or unfair trade practices. They were, therefore, not in a mood to believe that chapter 2 of the 4th Adhikarana of Kautilya's Arthashastra had laid down legal provisions for the protection of consumers from the unfair practices of traders. Even in a general way, they did not study seriously the criticism of Kautilya by Spengler or that of Manu by Wendy. They had considered Smritis is outdated religious texts dealing with rites, rituals and ritualism. They did not know that the character of Smritis is predominantly sociological. The main authors of Smritis are eighteen in number, though the total number of Smritis, according to Dr. P. V. Kane, is about 100. Then there are commentators like Medhatithi, Vijnaneswara or Jeemootavahana. All of them have taken pains to protect consumers' interest, thoughts in varying degrees. Legal practices for the protection of consumers from unfair trade practices in Chapter 9 of Manusmriti, Chapter 2 ofYajnavalkya Smriti and Chapter 9 of Narada smriti gave a rude shock to their preconceived notions. For example, they were not aware of the fact that while the slogan of the western classical economics is Buyers! beware", that of the Vedic economics was "Sellers! beware." After the publication of ' History of Dharma Shastra' by Dr P. V. Kane, the entire material of this subject became available, though, naturally, it was scattered throughout the volumes.

Annexure XVIII of "Consumer: A Sovereign without Sovereignty', written for the benefit of the Akhil Bharatiya Grahak Panchayat, brought all those provisions together. The intellectuals who were seeking guidance from the legal provisions in foreian countries on this subject were stunned at the number of Hindu law givers who had prescribed practical rules and regulations in this regard. But being acquainted only with the civilization of rising prices, they could not even comprehend the price policy of a civilization with declining prices. In fact, the theory of prices did not exist in the ancient West because of the absence of wage and interest as economic categories. In his 'Economics in Perspectives' J. K. Galbraith observes, "Without wages and interest in the ancient world there could not be a theory of prices in any modern sense. Prices derive in one way or another from production-costs, and production-costs were not a visible function in slave-owning households." Let it be noted that their 'ancient world' extended only from Athens to New York while that of the Hindus' from sea to sea; over the entire land one nation." पृथिव्‍यै समुद्र पर्यन्‍ताया एक राष्‍ट्र. In ancient Bharat this issue was distinctly defined in various Smritis and Arthashastras which also dealt with the problems of wages and interest. The Greek and Christian philosophers considered only the ethical aspect of economic issues. They did not inquire: which factors determine price? Their concern was whether the prices were just and fair or immoral and sinful? St. Thomas Aquinas and Martin Luther discussed interest also from the ethical point of view. (The Smritis even laid down the price-policy in the sphere of international trade.) In fact, Dr. Kane's monumental work was sufficient to suggest that our Law-givers had taken cognisance of all the aspects of socio-economic-political life and that they could not be simply dismissed as 'other-worldly', But on account of their megalomania, these intellectuals learnt nothing and unlearnt nothing. They continued to cling to their now-out-dated 'modern' superstitions.

It must however be admitted that the severest blow their intellectual arrogance received was in the field of philosophy. It was administered by Com. Bani Deshpande of 'The Universe of Vedanta' fame and Com. S. A. Dange who wrote a Foreword to that thesis. Com. Deshpande had conclusively established that the theory of the relativity of Space and Time and the materiality of Time was not only known to the ancient Vedic philosophers but they had proved it as scientifically as Einstein proved in modern physics, and that in the realm of philosophy, the Vedic outlook was not only scientific, to the extent of understanding of the historic achievements of modern scientific theories, but it was based on a highly perfected and scientific theory of dialectical materialism now known in the name of Karl Mark in the last century. Com. Dange declared in unequivocal terms, that the famous 'Nasadiya Sukta' of the RigVeda heralds not only the beginning of philosophy but of dialectical materialism also, in the most ancient record of world history.

Nevertheless, happy in their blissful ignorance of everything Bharatiya, the 'left' intellectuals did not give to this thesis the attention it deserved; it was not followed by any public debate on the issues raised; there was no churning of thought. They followed he progressive convention imported from the West and Condemned both these eminent thinkers as 'revisionists' or 'kafirs'. And the matter ended there. No wonder, even a plea by their entor, Pandit Jawaharlal Nehru, for a marriage between science and spiritualism could have no impact on these minds vitiated oy hippopotamian self-conceit. They were convinced that science and spirituality are antagonistic to each other and that all science is a western product. They could not reconcile themselves with the established facts that "Bhaskaracharya discovered the theory of gravity centuries before Newton; that Aryabhata in the 5th century A.D. came up with the idea of the earth's moving round the Sun long before Galileo and Copernicus; that Brahmagupta in 7th century A.D. made important discoveries in algebra and astronomy; that the concept of zero and the decimal system had its origin in India; that the world learnt vaccination and plastic surgery from India; and that Indian technologies in metallurgy and chemistry were far superior to those of the West even up to the 19th century."

When Smt. Indira Gandhi informed the International Conference on Environment held at Stockholm in 1972 that Atharva Veda had referred to the precautionary measures against environmental pollution, their righteous indignation knew no bounds. This class of self-alienated intellectuals is incorrigible. 'Hindu Economics' is not meant for persons with closed minds. Like Bhavabhooti, the author of this thesis declares: "तान् प्रति नैष यत्‍न:" (i.e., this exercise is not meant for them.)

PART II

Why Hindu Economics?

What is in a name?

Every technical term is like a Mantra. A wrong term would generate wrong impressions, wrong mental associations and wrong understanding

Had Dr. Schumacher visited India first to study extensively its rural scene, he would have given a different name to me Economics, though essentially there is no basic difference between the "Buddhist' Economics and the 'Hindu' Economics. As, for example, Dr J. K. Mehta's theory of wantlessness is inspired as much by Ishavasya as by 'Dhammapada'. For the sake of convenience of understanding, the author of this book has made a distinction between 'Hindu' Economics and 'Indian' Economics. To avoid any misunderstanding about the nature and the scope of the subject of this thesis, such a distinction was necessary. Nevertheless, the difference between Hindu economics and what is described as Indian economics is analogous to that between Science and Applied $cience.

The Hindu nationalists working in different fields of economic life tried to spell out the implications of Hindu thought system in their respective fields. But, naturally, their efforts were sectional in nature, confined to their own specific spheres of activity. There has not been so far any comprehensive or all-out effort to cover the entire canvas of economic activity and thinking and to discover the basics, the fundamentals of Hindu economics. This is the first ever attempt in that direction. Unlike some other previous books on this subject, this is not a simple translation of Sanskrit texts. Till now, nobody had explained the Hindu way of eliminating taxes. Till now ancient India has been chronicled upto the Moghul period. Dr Bokare cognises ancient India before Christian era. He also checkmates the misrepresentation of Vedic literature to substantiate Marxian theories as has been attempted by Joseph Spengler in his ' Indian Economic Thought' (1971). Thus, from every point of view, this is a pioneering work. And, in this exercise, Dr. Bokare has used the methodologies developed in western countries. His arguments are based upon the corpus of modern economics. In the Robinsonian classification, Hindu economic system is the result of positive statement of theory. This is an exhilarating conclusion. Being a scholar with genuine scientific temper, Dr. Bokare does not claim that his is the last word of wisdom on the subject. Having assimilated the spirit of Hindu cultural tradition, he does not declare that he is the father of a new theory or founder of a new school of thought. Though a pioneer in this particular branch of knowledge, he is content to say: 'एवम परंपरा प्राप्‍तम-इमम् राजर्षयो विदु:'.

As stated earlier, the Hindu sages did not consider 'Artha' as a separate 'Purushartha'. It was treated as an integral part of a single four-fold 'Purushartha'that'. is ' Purushartha Chatushtayam!. The west with its compartmentalised thinking considered Economics as a separate discipline having distinct identity of its own. Human being, according to materialistic West, is essentially an economic being. Such a presumption is contrary to the integral thinking of the Hindus. In course of time, however, the westerners were compelled to give up gradually this habit of fragmented thinking, under the pressure of practical experience. One trend of thought in the West now believes that total welfare is generally divided into two parts: (1) Economic welfare, and (2) Non-economic welfare. Prof Pigou describes economic welfare as "that part of social welfare that can be brought directly or indirectly into relation with the measuring-rod of money". Non-economic welfare is that part of total welfare which is not amenable to money-measurement.

The importance of non-economic social factors can not be minimised. For example, L. T. Hobhouse has the following remark about "Social Factor".

"Take away the whole social factor and we have got Robinson Crusoe, with his salvage from the wreck and his acquired knowledge, but the naked savage living on roots, berries and vermin".

While considering human welfare, the non-economic materialistic factors can not be ignored. For example, the geographical position of the country, its climate, rivers, mountains, natural harbours, peace and security, or natural resources of the country such as, land, water, forests, mineral resources, agricultural potentialities, general development in other countries etc.

Thus non-economic materialistic factors not amenable to money-measurement also have a role to play in this respect.

But that is not all. In his 'Open Secret of Economic Growth' (1957) David Macord Wright observed: "The fundamental factors making for economic growth are non-economic and non-materialistic in character. It is the spirit itself that builds the body".

In this context, a remark by Engels in his letter published in Der Sozialistiche Akademiker on October 15, 1895 is interesting: "According to the materialistic view of history what is in the last instance decisive in history is the production and reproduction of actual life. More than this, neither Marx nor I have ever asserted. But when anyone distorts this so as to read that the economic factor is the sole element, he converts the statement into a meaningless, abstract, absurd phrase. The economic condition is the basis, but the various elements of the super structure-the political forms of the class contests and their results; the constitution-the legal forms; and also all the reflexes of these actual contests in the brains of the participants, the political, legal, philosophical theories, their religious views- all these exert Influence on the developments of the historic struggles, and in many instances determine their forms."

In his 'Roads to Freedom' Bernard Shaw wrote:

"If socialism ever comes it is only likely to prove beneficent if lon-economic goods are valued and consciously pursued".

Gradually the westerners came to realise that a good constitution does not always guarantee good citizens. There is, now in the west a growing awareness of the important role of socio-cultural and religious institutions as a factor in economic growth. After 1979, this realisation dawned upon China also. Their leaders then resolved to inaugurate an era of 'spiritual civilization' maintaining their drive for material progress but without materialistic philosophy. They came to experience that when people do not cherish and uphold spiritual values, they become incapable of possessing national character, integrity, self-discipline and dutifulness.

In his 'Principles of Economic Planning', W. Arthur Lewis remarks:

"If the people, on their side, are nationalistic, conscious of their backwardness, and anxious to progress, they willingly bear great hardships and tolerate many mistakes and they throw themselves with enthusiasm into the job of regenerating their country. Popular enthusiasm is both - lubricating oil of planning and the petrol of economic development, a force that almost makes all things possible."

As revered Shri Guruji put it - "Our national regeneration should, therefore, start with the moulding of "man".

Such an integrated approach is the speciality of Hindu thinking. Hindus had always felt that education, ecology, economics and ethics, among other things, must be taken into consideration in an integrated manner.

Of course, each of these disciplines is entrusted with its own specific responsibility. But, while conducting suitable activities to carry out its specific responsibility, each discipline is expected to take a comprehensive, integrated view of the entire life comprising various other disciplines also. Compartmentalisation of thought would be detrimental to all. The western craze for infinite growth on the finite planet is one of the natural consequences of such fragmented thinking. Hindu Economics is the interpretation of Pt. Deendayalji's Integral Humanism in economic field.

So far as economics is concerned, its specific objective has been defined thus by Shri Aurobindo: "The aim of its economics would be not to create a huge engine of production, whether of the competitive or the co-operative kind, but to give to men-not only to some, but to all men, each in his highest possible measure, the joy of work according to their own nature and free leisure to grow inwardly, as well as a simple, rich and beautiful life for all".

Obviously, the western model of development causing unprecedented environmental damage - affecting adversely social relations and leisure time, eliminating family meals, family conversations and neighbourly relations; promoting consumerism through expansion of advertising industry, substitution of shopping malls for traditional city centres and rapid spread of commercial television-can not be compatible with the objectives specified by Shri Aurobindo.

In his essay "Men Have Forgotten God" Solzhenitsyn has stated in unequivocal terms that the goal of economics should be "quest for spiritual growth" rather than the pursuit of material growth.

PART III

Earlier, we have given the analogy of Science and Applied Science. Is the science of 'Hindu Economics' capable of being transformed into its Applied Science?

"Impossible'! Our westernised intellectuals would exclaim.

For, according to them, whatever is not in conformity with the western theories and methodologies is impractical in the modem world'.

In this context, they would do well to ponder over the following well-considered remark of scholar Inayatullah. In his 'Towards a Non-Western Model of Development' Inayatullah says:

"The West presumed that all history is inexorably moving towards the same destiny, same goals, and the same value system as western man has…. Marshalling evidence from the period of ascendancy of western society and conveniently ignoring the vast span of technological development before this period which the traditional societies had developed and transmitted to the western society, it ignores the fact that technological and material development before this period was not always the product of a combination of universalism, functional specificity, achievement orientation and effective neutrality."

("Communication and Change in Developing Countries")

Never at home, these intellectuals will find that they have fo learn a lot on this theme from Claude Alvares and Dharampal.

A great deal of matter relevant to this topic can be found between the covers of "The Modernity of Tradition" by the Rudolphs who set out to show how in India traditional structures and norms have been adapted or transformed to serve the needs of a society facing a new range of tasks.

J.C. Heesterman, a Dutch Indologist, writes: "India has been remarkably successful in setting up the institutional framework for dealing with the traditional conflict in its modem incarnation."

What has been our traditional style of socio-economic transformation?

Shri Aurobindo explains: "Change in the society was brought about not artificially from above but automatically from within and principally by the freedom allowed to families or particular communities to develop or alter automatically their own rules of life "achara".

'The Indian thinkers on society, economics politics, Dharma Shastra and Artha shastra made their business not to construct ideals and systems of society and government in the abstract intelligence, but to understand and regulate, by practical reason, the institutions and ways of communal living already developed by the communal mind and life and to develop, fix and harmonise without destroying the original elements and whatever new element or idea was needed was added or introduced as a super-structure or a modifying but not a revolutionary and destructive principle.''

The ever-changing socio-economic order in the light of the unchanging, the eternal Universal Laws of Sanatana Dharma, this has been our modus operandi. The point of reference, the guiding principle, is unchanging; all "yuganukool" (according to time) changes, constituting "Yugadharma" are to be introduced in the light of Sanatana Dharma. Every "Yugadharma" is the restatement of Sanatana Dharma keeping in view the requirements of particular times and climes.

There is no equivalent in non-Hindu languages to the term "Dharma'. That concept is alien to western minds. As enunciated earlier, ever-changing socio-economic order in the light of the unchanging Universal Laws - that has been the Hindu style of responding to fresh challenges. Hence various Smritis. For us, Dharma is the Eternal and Universal Guide.

The benefit of this Eternal Guide was not available to the westerners. Not that the guide was absent, but they were not aware of its presence. Even as God is always prepared to talk to people, but people are prepared to listen to God. In Bharat transformations have taken place, generally on sure footing, on rare occasions by trial and error method, but always and invariably in the light of the unchanging Universal Laws. Therefore, there was no need for theories to precede constructions. It was every time a questions of the 'Yuganukool- re-interpretation of the Sanatana Dharma.

"Theory' is a supposition or system of ideas explaining something, especially, one based on general principles, independent of the facts, phenomena etc. to be explained, speculative (especially a fanciful view), the sphere of abstract knowledge or speculative thought; exposition of the principles of a science etc., collection of propositions to illustrate principles of a subject.

In his 'Science and Values' Bertrand Russell quotes Dewey who pointed out that scientific theories change from time to time, and that what recommends a theory is that it 'works'. When new phenomena are discovered, for which it no longer 'works', it is discarded, A theory, so Dewey concludes, is a tool like another; it enables us to manipulate raw material. Like any other tool, it is judged good or bad, by its efficiency in this manipulation, and like any other tool, it is good at one time and bad at another. While it is good it may be called 'true' but this word must not be allowed its usual connotations. Dewey prefers the phrase 'warranted assertibility' to the word 'truth'.

During periods of challenges and crises, we used to fall back upon Dharma; in its absence, some crutches, labels or slogans became necessary for the European minds. Hence, the propriety of theories, isms, ideologies, there. The same style was imported in our country by the westernised intellectuals who knew something about the West and nothing about their own past.

On metaphysical, religious, spiritual and other similar matters, having scope for speculation, we had various theories. But on the problem of practical socio-economic order or transformation, there was no theorisation. Only appropriate timely action or construction; it was followed by its description or narration called 'Smriti.

Before the advent of the British Raj, we had no social or economic theories, ideologies or 'isms' of the western pattern.

Ideology is a science of ideas; visionary speculation; manner of thinking characteristic of a class or individual, ideas are the basis of some economic or political theory or system.

Bharat had no need for such crutches in the past. During the British regime this pattern became fashionable; so much so that as a compromise with the level of understanding of common man, Pt. Deendayal ji had to present his 'Ekatma Manav Darshan' under the title of 'Integral Humanism'. In fact, his Darshan is quite as 'ismless' as any other Hindu Darshan. Even ideas must be marketed; that is indicative of western influence.

Being oblivious of their own traditional pattern of thinking, our westernised intellectuals were enamoured of 'isms'. And since they found no 'ism' in the entire Hindu literature of the pre-British period, they concluded that their forefathers were intellectually backward, unenlightened.

These are two distinct approaches. One, when construction takes precedence over its description, and two, when the description is followed by an attempt to translate it into reality. Because the West did not have the advantage of referring to the Eternal Guide in all practical socio-economic affairs, theorisation became inevitable But the limitations of this approach are not properly appreciated.

It has been said that 'Ideologies are like Road Maps'. This presumes prior existence of roads. If roads are not in existence road maps would become irrelevant. If "ideology" means 'ideas as the basis of some economic or political theory or system'' which is to be brought into existence, the analogy of "Road Map'' can not hold good. The analogy would be more appropriate if used in the context of Dharma. E

Every theory is based upon certain assumptions. The assumptions are like scaffolds, Scaffolding is a temporary structure of poles or tubes and planks providing workmen with platforms to stand or sit while building or repairing a house. For all construction, whether it is a dwelling house or social order, scaffolds are necessary. But they presume the existence of a structure or its foundations. In the absence of such structure, scaffolds are inconceivable. Overzealous theoreticians, at times, go to the extreme. They hang their scaffolds in the air. Assumptions are propagated, corresponding construction is missing.

The difference in the two approaches is the biggest hurdle in the way of evolution of 'Hindu Economics'. The minds of even those who want to liberate themselves and others from the influence of westernism, continue to operate within the frame-work of Anglo-Saxon concepts, patterns, styles and values. because of their life-long conditioning and association with them. To conceive or appreciate anything essentially Hindu, it is necessary to go beyond the present mental and intellectual framework, to de-westernise one's approach and thinking. Unless the strength of one's wings crosses the limits, real or imaginary, set by other sea-gulls for their wings, one cannot aspire to be a Jonathan.

But, unfortunately, even genuinely patriotic intellectuals do not appreciate the importance of de- westernisation.

They are so enamoured of western theorists that if they get disillusioned by one theory they will, instead of using their own intellect, rush in search of some other western theory which they can catch hold of. They may accept that Marx as well as Adam Smith, J. S. Mill, Ricardo and Malthus have become outdated. They may be sceptical about the relevance of Alfred Marshall, Wicksell, Gunnar Myrdal and Keynes to the present-day conditions. But they will stubbornly refuse to conduct independent thinking in the light of their own national requirements. Instead, they will feel homely with the five stages of Economic Growth enunciated by Prof. Rostow and get busy in discussing whether we have reached his third, 'take-off stage' so as to pass over his fourth 'drive to maturity', leading to the stage of 'high mass consumption'.

What then is the secret of adaptability of the Hindus to the ever-new situations?

This has been aptly elaborated by Shri Guruji in the following words:

"Once the life-stream of unity begins to flow freely in all the veins of our body-politic, the various limbs of our national life will automatically begin to function actively and harmoniously for the welfare of the Nation as a whole. Such a living and growing society will preserve out of its multitude of old systems and patterns whatever is essential and conducive to its progressive march, throw off those as have outlived their utility, and evolve new systems in their place. No one need shed tears at the passing away of the old order, nor shirk to welcome the new order of things. That is the nature of all living and growing organisms. As a tree grows, old leaves and dry twigs fall off, making way for fresh growth. The main thing to bear in mind is to see that the spirit of oneness permeates all parts of our social set-up.

"Every system or pattern will live or change or even entirely disappear accordingly as it nourishes that spirit or not. Hence, it is useless in the present social context to discuss the future.ct all such systems. The supreme call of this age is to revive the spirit of inherent unity and the awareness of its life-purpose in our society. All other things will take care of themselves".

This is the Hindu way to Renaissance. Thus, there need not be any doubt about the practicability of the "Hindu Economics".

Of course, such a gigantic divine mission would require for its accomplishment the appropriate type of leadership.

Long ago, Shri Subramaniyam lyer, one of the pioneers of Hindu social reform movement, remarked:

"Statesmen, poets, men of science, inventors of mechanical contrivances, all these, no doubt, contribute to progress, but can not impart the initial moving force, which comes from those great men who, by the power of their lofty character and sublime deeds and burning enthusiasm, impart idealism to masses of men, sweep away abuse and falsehood, sort out superstitions, open new paths and establish fresh ideals for the elevation and advancement of the human race".

PART-IV

Even in the remotest past our sages are found to be taking care of all the aspects of life. This could be discerned even by a distinguished leftist thinker who undertook a journey from primitive communism to slavery in ancient India.

Their thinking was dynamic, keeping pace with the ever-changing situations and challenges.

The literature on this subject is scattered in various Dharma Shastras and the accounts of foreign tourists.

It shows how they worked out details of every aspect from time to time keeping in view the contemporary social conditions.

See, for example, details of the role of the state in economic life of society during a particular period.

From the account of Hieu-en-Tsang it is evident that the state and the Vaishya community had, during his times, established charity homes and well-equipped dispensaries for the benefit of paupers, widows, childless people and other helpless citizens. According to Kautilya, even widows, handicapped girls, women ascetics, old mothers of prostitutes, king's old maids and the dismissed maids of temples could not be allowed to suffer due to unemployment. He laid down that they should be given the work of spinning wool, bark thread and cotton (Kautilya 2/23/41/2). Women unable to leave their homes, helpless due to their husbands' absence, physically handicapped girls and women in need of earning their livelihood, should be provided with jobs at their homes by the Superintendent of the Textile Industry- (Kautilya 2/23/41/12). The sons of dead employees, the old, the minor, the infirm, the afflicted, the paupers, and women due for matemity deserved financial assistance from the State (Kautilya - 5/3/91/29/31). Mahabharata (Sabha parva-124) directs the king to look after the destitutes and the disabled ones.

In his 'Labour Problems in Ancient and Medieval India' Shital Prasad Mishra explains how the government did not recover taxes from workmen because they worked for the government. The government, states Hieu-en-Tsang, was liberal and did not take forced labour from the people; the work was got done with restricted payment of wages. The government servants received land in lieu of remuneration and the workers received wages.

According to Megasthenes, the state used to give priority to the security of workers and artisans. They were exempted from taxes, could receive state-aid during the periods of distress and enjoyed many other facilities at the expense of the government. An employer hurting any limb of an artisan was sentenced to death. Al Baruni also refers to the systematic arrangements for the safety of the employees and their protection from accidents.

It was customary to offer extra work, in the service of the state, in lieu of the payment of taxation. Vasistha directs artisans to do government work without wages for one day in a month (Vasistha Smriti Ch.19, pp1-490),.

Gautama prescribed the same rule for artisans, labourers, sailors and charioteers (Gautama Smriti 10-397). Megasthenes also refers to such honorary service to the state, but explains that builders of ships and armours were given wages and food by the state.

During the Mauryan period, the factories under the civil boards used high quality materials and employees therein were paid fair wages by the municipal board. During the same period, the practice of digging mines and working of factories at the government expense came into being. Under Vijayanagar empire 500 artists are recorded to have been working upon gold and silver thread in the government factories. Nevertheless, the role of the state in case of such industries had been that of a patron.

There was no centralisation which stifles individual freedom and stultifies the natural growth of human personality. Guidelines on public finance and taxation given in shastras are useful even today. This is only one instance to illustrate the point.

In fact, our sages had taken into consideration all the dimensions of economics, which, according to them, covered a very large canvas. Arthashastra is defined by Kautilya as the branch of knowledge which deals with the acquisition and preservation of dominion. It is held to comprise the art of government in the widest sense of the term. The list of contents of Kautilya's Arthashastra will surprise modem teachers of economics. The 'Arthashastra'was preceded by fairly voluminous literature on the subject which is now lost to us, Kautilya's masterly treatise itself has been recovered from the oblivion of centuries by the fortunate discovery of a complete manuscript of the work and its publication by R.Shama Shastri in 1908. Exploration into such literature is our patriotic duty. Even the available ancient literature on the subject, if brought together, would make a voluminous document. It is creditable for Dr. Bokare that he could dive deep into this ocean of relevant information. Of course, for want of space and to maintain a sense of proportion in the arrangement of the thesis, the author had to be selective, confining himself only to significant references as are more pertinent to modem mental matrix. Not happy with the ivory tower of westernism, the author is in close and direct touch with Bharatiya realities. He is of the earth, earthy.

It is noteworthy that a public debate is already initiated on one of the basic points incorporated in this thesis. At the instance of Dr. Bokare the nationalist organisations operating in the economic field have raised a demand that the cost of production of every product-be it industrial or agricultural, must be declared.

The Government should -

1. Publish cost audit reports of the companies.

2. Obtain the copies of the reports of Bureau of Industrial Costs and Prices; and

3. Ask the joint stock companies, the co-operatives and the public sector undertakings to publish the data of cost of production in their annual reports and balance sheets.

At the present state, it may appear fantastic to demand that all the countries should declare the costs of production of the commodities they export to other countries. But it is indisputable that despite the differences between Ricardian theory of foreign trade and Hecksher-Ohlin's theory of foreign trade, in elucidations, both are governed by cost of production. The traditional basis of Hindu price-policy has been the cost of production, the degree of utility (i.e. the use-value) and the degree of availability. In this context, the author has also referred to the observations of Dr. Ambedkar, Pigou, Patinkin and Lerner.

This should suffice to indicate how author's mind is attuned to the spirit of our culture and alive to the requirements of the current critical situation.

PART-V

Fortunately, Dr. Bokare is free from the influence of western concepts, He does not feel that modernisation is necessarily westernisation, He does not subscribe to the view that western paradigm is the universal model of progress and development. For an ancient country like Bharat having a rich cultural heritage, it will be shameful to borrow any western term to describe its ultimate goal. Every culture has its own model of development. The current western concept of 'development' though fashionable, is disastrous. Ivan Illich, the famous author of 'Towards a History of Needs', 'Medical Nemesis', 'Tools for Conviviality' and 'Deschooling Society', narrates his Mexican experience of The Development Myth'. He sees the effect that 'development' has had on the life of the poor in the rural areas and slums, erosion of means of subsistence and traditional skills, loss of self-reliance, dignity and solidarity of communities, spoliation of nature, displacement from traditional environments, unemployment, bulldozing traditional, self-reliant communities into the cash economy, cultural rootlessness and the corruption of politics. He asks whether this is development or the price that is being paid for a blue print of development that has no relation to the. conditions and goals of the communities that are described as beneficiaries of development.

Sarcastically, he observes, 'Development is an oozy term that is currently used for a housing project, for the logical sequence of thought, for the awakening of child's mind or the budding of a teenager's breasts. But 'development always connotes at least one thing; a person's ability to escape from a vague, unspeakable, undignified condition called 'Sub-desarrollo or underdevelopment as invented by Harry Truman on 10th January, 1949.

And, again, 'Development means to have started on a road that others know better, to be on the way towards a goal that others have reached, race up a one-way street. Development means the sacrifice of environments, solidarities, traditional interpretations and customs to ever-changing expert advice. Development promises enrichment, and for the overwhelming majority, has always meant the progressive modernisation of their poverty.'

In conclusion, Ivan Illich says, "The time has come to recognise development itself as malignant myth whose pursuit threatens those among whom I live in Mexico. The 'crisis' in Mexico enables us to dismantle 'development' as a goal."

The Western thinking is in direct contrast with the Hindu concept of progress and development.

For example, in his speeches at Thana Meet in 1972, Shri Guruji explained the basic Hindu view on economic problems. Deductions, that naturally flow from his enunciation, are as follows:

1. The basic needs of life must be available to every citizen.

2. Material wealth is to be 0acquired, with the object of serving society which is but a manifestation of God, in the best possible ethical manner, and out of all that wealth, only the minimum should be used for our own purposes. Allow yourself only that much which is necessary to keep you in a condition to do service. To claim or to make a personal use of more than that is verily the act of theft against the society.

3. Thus we are only the trustees of the society. It is only when we become true trustees that we can serve the society best.

4. Consequently, there must be some ceiling on the individual accumulation, and no person has a right to exploit someone else's labour for personal profit.

5. Vulgar, ostentatious and wasteful expenditure is a sin when millions are starving. There must be reasonable restrictions on all consumption. 'Consumerism' is not compatible with the spirit of the Hindu culture.

6. Maximum production and equitable distribution should be our motto; national self-reliance, our immediate goal.

7. The problem of unemployment and under-employment must be tackled on a war footing.

8. While industrialisation is a must, it need not be the blind imitation of the West. Nature is to be milked and not killed. Ecological factors, balance of nature and the requirements of the future generations should never be lost sight of. There should be an integrated thinking on education, ecology, economics and ethics.

9. Greater stress should be laid on the labour-intensive rather than the capital-intensive industries.

10. Our technologists should be required to introduce, for the benefit of the artisans, reasonably adaptable changes in the traditional techniques of production, without incurring the risk of increase in unemployment of workers, wastage of the available managerial and technical skills and complete decapitalisation of the existing means of production and to evolve our own indigenous technology with emphasis on decentralisation of the processes of production with the help of power, making home, instead of factory, the centre of production.

11. It is necessary to reconcile efficiency with employment expansion.

12. Labour is also one form of capital in every industry. The labour of every worker should be evaluated in terms of share, and workers raised to the status of shareholders contributing labour as their share.

13. Consumers' interest is the nearest economic equivalent of national interest. Society is the third and more important party to all industrial relations. The current western concept of 'collective bargaining' is not consistent with this view. It should be replaced by some other terms, such as, 'National Commitment' i.e, the commitment of both. the employers and the employees, to the Nation.

14. The surplus value of labour belongs to the Nation.

15. There need not be any rigidity about the pattern of industrial ownership. There are various patterns, such as, private enterprise, state ownership, co-operatives, municipal ownership, self employment, joint ownership (state & private), democratisation, etc. For each industry the pattern of ownership should be determined in the light of its peculiar characteristics and the total requirements of the national economy.

16. We are free to evolve any variety of socio-economic order, provided it is in keeping with the basic tenets of Dharma.

17. But changes in the superstructure of society will be of no use if the mind of every individual citizen is not moulded properly. Indeed, how well the system works depends on the men who work on it.

18. Our view of the relation between individual and society has always been, not one of conflict, but of harmony and co-operation, born out of consciousness of a single reality running through all the individuals. The individual is a living limb of the corporate social personality.

19. The Samskaras of identification with the entire nation constitute the real infra-structure of any socio-economic order.

Of all the Hindu Samskaras, the most important one is that of "Yajna' (Sacrifice). The significance of this concept of Yajna' has been explained thus by Swami Rama Tirtha:

"Putting our hands together for the good is sacrifice to Indra. putting our heads together for universal good is sacrifice to Brihaspati; putting our hearts together is sacrifice to the Devata of hearts or Chandra. In short, sacrifice to the gods means offering my hands to All the Hands or the whole nation; offering my eyes to All the Eyes or entire community; offering my mind to all the Minds; merging my interests in the interests of the country; feeling all as if they were my own Self; in other words, realising in practice- 'तत् त्‍वम् असि, 'Thou Art'."

Appropriate development in human mind necessarily precedes the corresponding development in the material world, even as subjective revolution in human mind invariably precedes- any objective revolution in the outer world.

PART-VI

The West realized the advisability of inter-disciplinary approach for the first time during the second world war. Subsequently there is growing, though grudging, appreciation for this approach in the western mind. But this wisdom has not yet been extended to the sphere of economics. Retaliation by the Nature against its indiscriminate exploitation compelled the westerners to recognize the inter-relatedness between ecology and economics. But that the so-called advanced countries are not prepared to learn from their past mistakes has been amply demonstrated in the Rio Conference on Environment in which the United States callously and shamelessly asked the developing countries to pay for the sins of the developed countries, even taking the risk of self-extinction.

Because of their compartmentalised thinking, the modern western scholars have failed to perceive the inter-relationship between ethics and economics. To teach ethics and moral values of life is not the realm of economic theory, according to Lord Lionel Robbins. While, according to Vyasa, acceptance of material success as the supreme index of merit and status indicates the advent of the dark age (kaliyuga), classical economics covers only profit-making capitalists and wage-earning labourers. For both these groups maximum material gain is the supreme goal of all activities. For classical economics, oteer sections of population do not exit.

Most of the European economists of the last century had an inkling that economics without religion would demoralise the society. They realised that economic man could be studied as regards his rational behaviour in economic affairs of life. But it should be understood that without the warmth of religion, he was likely to go on the wrong path. Smith and Marshall made special reference to the religion in economic life of the human beings. Economic man has, however, eluded Smith and Marshall in this century.

The process of expelling ethics and morality from the sphere of economics was initiated in a big way by J. Bentham's utilitarianism. Utility is the attribute of a commodity that gives satisfaction. Utility is use-value, while price is exchange-value. Price (exchange-value) is paid for the utility (use-value). Subsequently, the thought was steadily changed into the measurement in the opposite direction. Any activity that has a price in the market has a utility. Prof. Davenport propounded this view. Prostitution is the subject for study in economics because it has price in the market and therefore has utility.

Is it difficult to apprehend the evil consequences of value- free economics of utilitarianism? Unaccompanied and unrestrained by ethics and morality, the utility concept is bound to encourage anti-social tendencies, boost up crime-rate, aggravate the problems of law and order and accelerate, general, the process of social disintegration.

Is ethics merely a social, moral or religious problem? Or has it some bearing on economic issues?

For example, take the process of assessing national income. Presently, national income.

Presently, national income is studied by the census of expenditure as one of the three methods. It is the study of expenditure on family's consumption and savings. The study does not exclude the families of the thieves, smugglers or swindlers. Those who earn money by theft and consume the same in the family expenditure are included in the aggregate of national income. How that income is earned is nobody's concern. More the crimes in society, greater would be the number of those employed in the departments of police, judiciary and jails. Their salaries are also included in the national income. In other words, we can state that more the crimes in society, bigger the national income in the country.

Even otherwise, the process is faulty.

Prof. Pigou has humorously given the following example. Maid-servants are paid wages and their wages are included in the national income. If men marry their maid-servants, the wages would disappear and the national income would decrease to that extent. In our country, mothers and sisters (and wives) cook food and we consume the same. Food has utility as it satisfies our wants. The labour power of mothers, sisters, etc. has created this utility without receiving wages. There is use-value (utility) but not exchange-value (price). This utility will not be taken into consideration while assessing the national income. But if we go to the restaurant and pay for the same food, it is included in the national income generated in the restaurant as an industry in economic sector. This is one of the glaring examples of fragmented thinking which isolated economics from all other disciplines. (Even ecological problems arise on account of this divorce of economics from ethics.)

In his 'on Ethics and Economics' (1987) Dr. Amartya Sen has stated his conclusions on this subject. Religions teach value-based life and its economics. The is described as ethics. the epistemology of ethics is in religion. Valie-based economics as against value-free economics makes all the difference in the measurement of national income. Assessment of national income in value-free economy in which family expenditures of criminals and other anti- social elements are taken into consideration for computing national income may be many times more than the national income of the value-based economy. In a way, in the absence of integral approach, encouragement to crimes and other anti-social tendencies is now on the agenda. This is resulting in ever-increasing burden on the exchequer to maintain and strengthen the official machinery for dealing with the anti-social elements. Thus value-free economics is self-defeating economics.

Value-based economics is, invariably, an integral part of value-based social life which, in turn, is the outcome of appropriate samskaras of corporate life supported by suitable system of education. There is necessary correlation between inputs and outputs. If the nation at the pinnacle of its glory be the desired output, the inevitable inputs would be samskaras and education conducive to the attainment of this supreme goal. Even sociologists of the materialistic West may gradually realise this basic fact in the near future. Their science of criminology: originating with Dr Lombroso, has travelled a long way throug the retributive, the punitive, the deterrent and the reformative stages to victimology and multi-factor-theory, but the formula of David Abrahamson is supposed to be the most thought-provoking. It is C=(S+T)/R where C stands for crime; 'S' for social environment; 'T' for personal traits and 'R' for resistance which is the outcome of religious and moral upbringing. They are not conversant with the Hindu term and concept of samskaras. Nevertheless, they are moving steadily in this direction.

This integrated approach is a must for durable and desirable progress/development; the compartmentalized thinking giving rise to value-free economics is self-defeating.

PART VII

The Hindus are accused of anachronism and obscurantism.

But what is the present plight of the proud standard-bearers of materialism and modernism?

Communism has failed; but it does not mean that philosophy of materialism has now been thrown completely out of the international economic scene. While communism was striving hard to overcome its internal self-contradictions, capitalism is constantly busy in seeking ever-new remedies for its ever- new maladies, procuring, from time to time, fresh economic theories to meet the challenges of fresh economic crises.

The history of capitalist thinking is replete with innumerable efforts of conceptualization and theorisation from time to time to infuse dynamics in its thinking. Typical example is the growth models suggested by Harrod and Domar, Pasinetti, Joan Robinson, Fei Ranis, Swan, Solow, Arthur Lewis and Feldman and theories of development propounded by Hirschman, Rosenstein Rodan, Nurkse, Leibenstein and Gunnar Myrdal. The debate on "balanced growth" versus 'unbalanced growth", theories of "big push" and "critical minimum effort" amply demonstrate this. The "back-wash" effect and "spread effect" of Gunnar Myrdal represent another facet of the dynamics of growth where the former results in impoverishment of a region as a consequence of growth in the neighbouring region. The "spread effect" manifests through "forward" and "backward" linkages which together determine the "growth propulsion" capability of a region which can be assessed within the Leontief model of input- output table.

The 20th century capitalism relied heavily on Robbins for strengthening its theoretical and ideological foundation. His definition of economics in terms of "unlimited wants" and "relative scarcity" of resources necessitating "choice", enabled the introduction of Hicksian indifference curve, Neumann- Morgenstein utility curves, Samuelson's Revealed Preference theorem and extensive use of mathematical and econometric tools and methods for the analysis of rational choice and consumer behaviour. His assertion that the duty of the economist is only to explore and explain and not to advocate or condemn, led to the emergence of "positive economics". Hence the "normative" content of economics was stripped off, leaving it as an 'amoral' science. The considered opinion of Thomas that the duty of the economist is not only to explore and explain but also to advocate and condemn was not acceptable to the hardcore capitalist thinkers.

The big crisis in capitalism in the thirties brought Keynesian Macro Economics to the fore, which satisfied the badly needed theoretical framework for 'interventionist' policies for sustaining the capitalist structure. The post-Keynesian growth models of Harrod and Domar were transformed into plan models which came to be adopted by third world countries, in spite of its inherent capitalist structural bias.

The periodical crisis in capitalismalso provoked thinking about justification of capitalist models from welfare point of view. For instance, the Marshallian 'consumers' surplus' became a password in public utility pricing and the welfare economics of Pigou and the Beveridge Plan of 'full-employment' and 'cradle to grave' social insurance were efforts to infuse social insurance were efforts to infuse social content in capitalist policies.

Another area of capitalist concern was money supply and its impact on prices. A variety of theories of demand for money and inflation were suggested of which 'capital theories' of Milton Friedman, James Tobin, Baumol and Bronfenbrenner were more widely quoted. The debate on "rules" versus "authorities" and the "monetarist" versus "structuralist" controversy are quite familiar which represent alternative perceptions, causations and prescriptions.

Same is true with respect to theories of 'trade cycles' or 'business cycles' which are inherently capitalist maladies. Mitchell, R.C.O. Mathews, Hicks and others propounded different theories based on different conceptual frameworks.

Inspite of the best brains at its disposal capitalism is fighting a losing battle. Its intellectuals have already realised this. What appears to be a bid for international economic empire is, infact, a pitiable and desperate effort for mere survival of the capitalist system, though, carried to its logical end, it is bound to destroy third world countries immediately and the entire mankind ultimately. But the internal self-contradictions of the system will hot, however, allow it to go that far. It is already doomed. Even according to the most optimistic pro-capitalistic estimates, the system can not survive for more than two decades.

"Crisis in Economic Theory' edited by Daniel Bell reveals intractable weaknesses in the bourgeois economics and J. C. Hick and Paul A O EaAmuelson have expressed their helplessness in studying the predictivity characteristics of western economics. Stefano Zamagni says- "Since no scientific law, in the natural scientific sense, has been established in economics, on which economists can base predictions, what are used.... to explain or to predict ar tendencies or patterns expressed in empirical or historical generalizations of less than universal validity, restricted by local and temporal limits".

We are not sure whether political science, if there were such a science, could provide guidance for economists. "Ideas in economics deserve confidence only after they have been chewed over for a long time and been exposed to whatever tests may be available",- says Herbert Stein, the author of 'The Fiscal Revolution in America'. In the preface to his recent book, 'Washington Bed-time Stories', he summed up two main lessons of 50 years as a Washington economist:

"1. Economists do not know very much.

2. Other people, including the politicians who make economic policy, know even less about economics than economists do."

What a sad commentary on the present plight of the economics of capitalism!

After the collapse of communism and with the decline of capitalism within sight, it was but natural that many well-meant patriots in Bharat should come forward with a suggestion that our country should now fulfil its historic obligation of presenting and Dharma. The suggestion is quite appropriate because the only alternative can be furnished by Sanatana Dharma alone. but to keep the record straight, it must be added here that the attempts to fill up the apprehended ideological vacuum have been going on elsewhere for quite some time.

Communism has failed.

Nil nici bonum de marte. (Of the dead, nothing but good.) But its fall could be foreseen by a section of Marxists even before the commencement of its actual decline. Nevertheless, it was not for them the failure of Leftism as a whole. They pinned their hopes on the newly-emerged 'New-Left' represented by Herbert Marcuse, Sartre, Frantx Fanon, Che Guevara, R. D Laing, etc. The new thought - system added some new dimensions to Marxism and tried to update it. But it could not hold its ground for long. Particularly, it had not much immediate relevance to the countries of third world, except in so far as it gave them additional revolutionary status by redefining the Marxian class-structure. According to Fanon, people of the third world are, under the new situation, - The Damned of the Earth'. Gradually, the theory lost its relevance for other countries also.

Then there has been the Yugoslav experiment which was quite novel. It tried to steer clear of both types of monopoly, i.e. private as well as governmental. The Associated Labour Act of the country proved to be a powerful instrument for this purpose. The ideologue for Yugoslav economy Edvard Kardeiz, had ably enunciated the general theory of this experiment. But this novel experiment failed on account of extraneous factors. Marshal Tito failed to psychologically integrate various ethnic groups within his country, so that 'Yugoslav Nationalism' was never born, It used to be said jocularly that Tito was the only 'Yugoslav Nationalist' under the sun. After his death the process of disintegration of his country started.

It naturally threw his experiment in the dustbin of history. All because of extraneous factors. His model, it is noteworthy, had many points of resemblance with the Hindu Socio-economic order.

The spectacular advance of communism after the Second World War naturally upset the Vatican that resolved to meet the challenge of communism on the battlefield of the latter's choice.

In 1951, the Pope, Pius XIIl declared, 'No one can accuse the Church of having disregarded the workers and the social question or of not having given them and it their due consideration.

"Few questions have occupied the Church so much as these two from the day when, sixty years ago, our great predecessor Leo XIII, with his encyclical 'Rerum Novarum' put into the hands of the workers the Magna Carta of their rights. In this encyclical, issued in 1891, Leo XIII proclaimed the relative rights and the mutual duties of capital and labour. Forty years later came the pronouncement from his successor, Pope Pius XI, 'Quadrogesimo Anno' in course of which, along with other things, he declared, the first and immediate apostles of the workers shall be working men themselves".

In 1920, the International Federation of Christian Trade Unions (IFCTU, now 'WCL') was formed. In 1952, the 'Young Christian Workers' Movement was started in Belgium by Joseph Cardign.

On May 1 1955, Pope christianised May Day by establishing for that day the feast of St Joseph, the worker.

Leo XIII in 1889 proposed St. Joseph as a model for proletarians. Benedict XV advised the workers to follow St. Josepn as their special Guide. And Pius XII explained the role of thle workman of Nazareth as patron in the struggles against atheistic communism in the following words:

'To hasten the advent of the 'peace of Christ in the kingdom of Christ' so ardently desired by all, we place the vast campaign of the Church against world communism under the standard of St. Joseph, her mighty protector'.

Thus Pius XII managed to mobilise his Christian forces on the same field which was being monopolised (ideologically) so far by the leftists in general and the communists in particular.

It was, however, realised before long that this sectional activity, though commendable in itself, would not serve fully the purpose in hand. Emboldened by its experience in evolving Christian Science' and 'Christian Art', the Vatican undertook the task of evolving 'Christian Economics' also. The 30,000 words Vatican Encyclical mentioned on May 2, 1991, the futility of both the systems-capitalism as well as communism.

Determined and systematic effort is already going on to formulate 'Christian Economics'. But it is not certain whether this would be able to offer the much-needed 'third alternative' because Christian economists also are brought up so far in a particular discipline. Their minds have been conditioned in a particular way for so many decades in the past. They will not be able to make much headway unless they prepare themselves to unlearn everything pertaining to capitalism and consumerism. Again, they will have to remember that Max Weber eulogised capitalism as the consummation of Christian religion and Tawney in his 'Religion and Rise of Capitalism' has similarly disclosed how Christianity and rise of capitalism can be sophistically rationalised, while according to Kenneth Boulding, the demand- structure in religious economic life would be different from that in the capitalist economic life.

It is now generally known that in certain quarters it was felt that the Encyclical, mentioned above, has not distanced itself sufficiently from the prevalent capitalist thinking.

At an inter-disciplinary seminar held at Bombay on July 5,1992, some of the participants speaking on this 'Centesimus Annus', the Encyclical issued by Pope John Paul, expressed the view that it was bending backwards towards capitalism, harsh on communism mainly for its atheism, 'goody-goody' but lacking in persuasive statements on issues like population control and diplomatic and conservative on issues like GATT and the North. South Dialogue. This Encyclical issued to mark the centenary of the above-mentioned 'Rerum Novarum' Encyclical or the 'workers' charters' did not go much further. The Encyclical lacked bite though it threw more light on Christian understanding of issues. "Why did the Pope not say he preferred a modified form of socialism with less state intervention instead of asking for a modified form of capitalism?" they questioned.

Fr. Aguiar, editor of the 'Examiner' felt that the Pope has not come to terms with the massive dehumanisation in the world and that the Encyclical had no models to present as alternatives to communism. Anyway, the efforts to evolve 'Christian Economics' are already afoot.

Whatever may be the degree of success these Christian economists achieve ultimately, their intellectual efforts can be complimentary to Hindu Economics, if they are imbued with the spirit of true Christianity as reflected in - 'I have come to fulfil, and not to destroy'.

It is not generally realised that in the context of this exercise of evolving a socio-economic order the followers of Islam have a distinct advantage over those of Christianity. Mohammed, the Prophet was not only the founder of a religion, he was a Law- giver also. Christianity originated with Lord Jesus, though, wisely enough, he did not found any Church. But that apart, he was not a Law-giver, his famous Commandments notwithstanding. For example, the Bible has a reference to anarchy of taxes and corruption of tax-collectors, but it does not indicate the way to taxless society. This fact has placed his followers in a disadvantageous position, so far as this particular task is concerned.

The Islamic scholars have been busy for decades in evolving Islamic Economics, the special characteristic of which is the creation of an interest-free economy. To pass any judgment on this particular aspect, it is necessary to investigate into the actual functioning of financial institutions in different Islamic countries and also to study in depth the entire literature on Islamic Economics which is in the process of evolution such as-

1. 'Banking without Interest' by Dr, Nejatullah Siddiqui.

2. 'Some Administrative Aspects of the Collection and Distribution of Zakat and the Distributive Effects of the Introduction of Zakat into Modern Economics' by Mr. Raquibuz Zaman.

3. "Monetary and Fiscal Economics of Islam' edited by Mohammed Ariff; (Selected papers presented to the Seminar on the 'International Monetary and Fiscal Economics', held at Mecca from October 7-12, 1978).

4. Journals of King Abdulaziz University Islamic Economics, Jeddah.

5. 'Money and Banking in Islam and Fiscal Policy and Resource Allocation in Islam' by Dr Ziauddin Ahmed, Dr. Munawar Igbal and Dr. M. Fahim Khan. (Papers and proceedings of the Seminar on Islamic Economics held at Islamabad in January, 1981).

Incidentally, it can be stated here without exaggeration that the Islamic research scholars working at Islamabad, Jeddah and Leicester will stand to gain if they critically study the approach of this thesis on the subject of interest-free economy. (It may be noted that some Christian economists like Demant and a German economist, Silvio Gessel also plead for interest-free loans.)

The intellectual pursuits of these Islamic economists are praiseworthy in as much as they are striving to bridge the gap between the static fundamentalism and the dynamic character of the present-day economic scene. However, their task is complicated by the fact that while they are called upon to evolve a Weltanschauung for the global 'Ummah', i.e. the world community of Muslims, they are also required to evolve a 'strategy for survival for the Muslims who reside in predominantly non-Muslim countries. The Muslim Manifesto-a Strategy for Survival, issued by the Muslim Institute of Great Britain, on the occasion of the All-Britain Muslim Conference held at London on 14 July, 1990, was the first organised effort to carry out the latter task. Another hurdle these economists will ave t crss is the attitude of the Muslim rulers who are prepared to finance this project but unwilling to follow its findings in practice. They are enamoured of the western economic order. For example, there is no place for stock exchange in Islamic economics, because it is an institution for monopoly in economy. But no Muslim ruler will dispense with stock exchange and other monopolies. Theirs is a case of schizophrenia in this respect.

However, all seekers of truth would appreciate the idealisim and the perseverance of about two-hundred Islamic economists, scholars and thinkers who are conducting their research 'to find Islamic solutions for modern economic crisis and conflicts for which contemporary economic ideologies have failed to provide satisfactory answers'.

Anyway, one thing is certain. Those who are determined to discover or evolve non-westem pattern of economics in keeping with the spirit of their own culture, should possess, apart from academic intelligence, the moral courage to declare fearlessly that- (1) 'The different stages of economic evolution infer communist society and slavery, capitalism and then the final communism that is final communist society. When it is dialectical materialism described as a common phenomenon in the history of the mankind, really it has no existence, whatsoever, outside the European history. These stages were never passed through by any people outside Europe' (Mohd. Qutb.) and - (2) 'The western paradigm is not the universal model of progress and development' (Claude Alvares).

PART VIII

Though this is the first ever comprehensive effort to spell out the Hindu Economics in all its aspects, the nationalist organisations operating in the economic field were striving, in the light of the Sanatana Dharma, to evolve formulations to meet the challenges of modem times. No doubt, their efforts were sectional, confined to their respective spheres of activity. But this exercise has been going on for the last forty years.

See, for example, the following sample formulation.

Bharatiya Mazdoor Sangh (BMS) has been active in the economic field since 1955. While it is neither possible nor necessary for the purpose of this book to give a gist of the entire BMS literature, we are presenting here two of its formulations as samples of its organisational thinking.

I

The surplus value of labour is managed and deployed by:

Employers under Capitalistic order (Accountable to themselves)

State under Communistic order (Accountable to the Workers under Bharatiya order (Accountable to the Nation)

II

The industrial structure in future would continue to be complex with various patterns of ownership existing side by side. But greater stress will have to be laid on setting up industries which will be-

Financed by Commoners

Owned by Workers

Supervised by Institutions (Financial)

Decentralised by Technologists

Served by Experts

Co-ordinated by Planners

Disciplined by Parliament

Assisted by State

Utilised by Consumers

Governed by Dharma

But this treatise stands on a different footing. The Hindu Thought, waiting to get projected in modern context, suffered from one disadvantage. It was a paradoxical situation. Those well-versed in Hindu Scriptures were not acquainted adequately with the western thought and those proficient in the latter were quite ignorant of the former.

The fact of the matter is that on account of their contempt for everything Hindu, many of these 'intellectuals' have not cared to study the Sanskrit language, much less its 'arsha' (archaic) form. Whatever knowledge they gathered about Sanskrit texts was through their English translations - mostly European scholars who had not understood, accurately, the letter and the spirit of the language which was foreign to them. The 'arsha' languages of the Vedic literature was Greek and Hebrew to them. Even texts in classical Sanskrit received shabby, casual treatment at their hands. They described the epics and texts like 'Ramayana', the 'Mahabharata', the 'Manusmriti' and the 'Arthashastra' as mythological books'.

The wiser among them, therefore, considered it as a colossal waste of time and energy to study the 'Ramayana' with its seven books known as 'Kandas' divided further into several 'Sargas' i.e. cantos and like wise 'Mahabharata' with its eighteen books known as 'Parvas'; the 'Manusmriti' with its twelve chapters, and 'Arthashastra' with its fifteen 'Adhikaranas' and 150 'Prakaranas'. That the authors of various other Smritis and the predecessors of Kautilya were not taken cognisance of by them was not at all surprising. Because of such prejudice, they could not even suspect that the origins of modem economics could be found in the most ancient book of mankind, that is, the 'Rigveda'.

In this context, the following observation of Shri K. T. Shah is noteworthy. In his 'Ancient Foundations of Economics in India', he remarked -'Economics is a social science, concerning man in his every day life and pursuits, which would be impossible without association, organisation and concerted action to pre-determined ends. And it is the peculiar richness of India's ancient civilisation that her seers and sages had recognised these basic facts, almost in the dawn of our recorded history, even if not in the twilight of one epic age or the last horizons of our Vedie beginnings'.

'Modem attempts at a rediscovery of our past and ite reconstruction are not actuated merely in a vain sense of self-complacency, or fruitless pride of glorious ancestry. They are rather accepted ideals and working institutions of a socio-economic character can be traced to their foundations thousands of years ago. And if today we perceive any weakening of the superstructure, if today we perceive any complexity through which it is difficult to pursue all the ramifications of growth or development, if today we fail to find a solution to the problems that face us for the moment by research into our ancient foundations, it is because, in the intervening centuries, so much of superfluous, uncongenial or undigested alien material has been overlaid on those foundations, that it becomes impossible even to understand the meaning or purpose, and perceive the roots which could furnish some satisfactory explanation of the nature of these problems, and the way they were dealt with in those remote days of India's native empires'.

Dr. Bokare had been a confirmed Marxist for decades. In his enthusiasm for party propaganda, he often converted his class room into the recruiting ground for Communist Party. As a learned professor of economics, he was simultaneously an authority on classical economics and neo-classical economics. He was quite at home with all its exponents, from Adam Smith, Ricardo and Malthus to Samuelson.

Our sages have remarked that absence of dogmatism is the fruit of genuine intellectualism. बुद्धे फ़लम् अनाग्रह: Intellectual honesty of Dr. Bokare inspired him to study in depth the entire literature of Islam and Christianity from this point of view, the Gandhian economics, and finally, the Hindu Shastras also. He has been considered as an authority on Gandhism and his book "Economic Theory of Sarvodaya" has been recognised as a standard work on that subject. He was thrilled to find that Vedic economics stands for (1) abundance of production as a result of the principle of genuine competition, resulting, in its turn, in the trend of declining prices, and (2) the direction of economic development capable of eliminating many economic categories of modern economics. His resolve to undertake the enfoldment of Hindu economics as his life mission has been the culmination, the mature fruit, of his life long penances as a scientific thinker. It can, therefore, be stated safely that Dr Bokare has taken sixty-seven long years to write this thesis, 'Hindu Economics' and then, this is his first step in his long march in this direction. He is convinced that Hindu economics consummates all that is noble in Quran, Bible and Gandhian economics. In 1984, he had predicted the collapse of communism; in 1992, he declares that Hindu Economics is the Economics of Future.

The speciality of this book is that it fulfils the most urgent need of the hour. Earlier, different modern scholars of repute conversant with different aspects of Hindu economics have furnished the readers with the voluminous information on the subject in academic style. As academicians their merit is indisputable. They are great in their own right. Their contributions are valuable. Prominent among them are K.T. Shah's 'Ancient Foundations of Economics in India'; K.V. Ramaswami lyengar's 'Aspects of Ancient Indian Economic Thought'; Ramakrishna Mission's 'The Cultural Heritage of India", Vol. II (pp. 451-464, and pp. 655-677); B.G. Gokhale's Indian Thought Through the Ages' pp. 49-75); K.M. Munshi and R.R. Diwakar's Hindu Civilization'; A.S. Altekar's 'State and Government in Ancient India'; K.P. Jayaswal's 'Hindu Polity, U.N. Ghoshal's 'Hindu Revenue System'; Mookarji's 'Local Government in Ancient India'; the works of A.N. Bose, S.K. Maity and S.K. Maitra. But all of these illustrious authors wrote during a period when there prevailed a sort of ideological stability in the western mind, adherents of each western ideology following their respective articles of faith with full conviction and dedication, with blind faith in the inevitability of the ultimate triumph of their own 'scientific' ideology. The process of disillusionment started after the October 1987 crash in the capitalist camp and publication of 'Perestroika' in the communist world. The psychological status-quo was upset. That "There Ilies more faith in honest doubt" was gradually realised even by fanatics in both the camps. All of them perceived the consequent ideological vacuum leading them to frustration. 'Hindu Economics' of Dr. Bokare is appearing on the scene at this critical juncture. And it boldly pledges to fill the vacuum and indicate the 'Third' way which may ultimately be recognised as the 'Only' way. This work is the harbinger of what Dr. P.R. Brahmananda appropriately termed as 'Dharmanomics'.

Recapitulation of whatever has been unfolded in the following pages may appear to be superfluous, even redundant. But, for the convenience of understanding, the salient features of the picture that emerges out of nis unfoldment may, however, be sketched out in the following manner.

The WESTERN and the HINDU: these are the two entirely different paradigms with their entirely different value-systems, institutional arrangements and parameters.

WESTERN HINDU HINDU

Compartmentalised thinking : Integrated thinking

Man-a mere material being : Man-a physical-mental-intellec

tual-spiritual being

Subservience to Artha-Kama : Drive towards Purushartha Chatushtaya, Society, a club of self-centred : Society, a body with all individuals individuals therein as its limbs

Happiness for oneself : Happiness for all

Acquisitiveness Profit motive : Aparigraha' (non-possession)

Profit motive : Service Motive

Consumerism : Restrain consumption

Exploitation : "Antyodaya'

Rights-oriented consciousness : Duty-oriented consciousness of others' duties of other' rights

Contrived scarcities : Abundance of production

Economy of declining prices : Economy of rising prices

Monopoly capitalism through : Free competition without

various devices [1] manipulated Markets

Economic theories centred : Economic theories centred

round wage-employment round self-employment

An ever-increasing army of : The ever-growing sector of

the proletariat : Vishwakama (self-employment)

Ever-widening disparities : Movement towards equitability and equality

WESTERN HINDU

The rape of Nature : The milking of Mother Nature

Constant conflict among Complete hamony among the

the individual, society individual, society and Nature

and Nature

The two are entirely different paradigms. Every society is free to choose its own model on 'take all, or leave all' basis.

"Quo 'Vadis?"

The twenty-first century is rightly questioning the disillusioned and perplexed mankind. This pioneering work seems to offer the right answer to this right question.

Not with the arrogant doctrinaire dogmatism.

But with the humility that invariably accompanies every honest quest for truth, every earnest exploration.

While presenting this thesis to the readers, the author is humbly saying-

'आपरितोषाद् विदुषाम् न साधु मन्‍ये प्रयोग विज्ञानम्।'

"Unless and until the experts are satisfied, I will not consider this endeavour of mine commendable."

- Kalidasa

सोपान-1

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v मेरा सुझाव यह है कि उद्योगपतियों से टैक्‍स चोरी के जुर्माने के रूप में या टैक्‍स रिटर्न के दोबारा आकलन से जो धनराशि प्राप्‍त की जाएगी उसे उन उद्योगपतियों के कारखानों में कार्यरत उन श्रमिकों को जीवन योग्‍य वेतन और वास्‍तविक वेतन के मध्‍य जो खाई विद्यमान् है उसकी पूर्ति हेतु उक्‍त धनराशि का उपयोग किया जाएगा ।

v हमारे अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि टैक्‍स अधिकारी अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं। वे जब भी किसी उद्योगपति से टैक्‍स चोरी का कोई षड्यंत्र रचते हैं अथवा अपवित्र गठजोड़ करते हैं तो उन दोनों के गठजोड़ का खमियाजा बेकसूर श्रमिकों को भुगतना पड़ता है। उनकी जायज देय धनराशि से उन्‍हें वंचित कर दिया जाता है।

v जहाँ कहीं भी निजी स्वामित्‍व को समाप्‍त करके राष्‍ट्रीयकरण (सरकारीकरण) की बात आए तो सरकारी आँकड़ों के बजाए उस उद्योग के कर्मचारियों की आवाज पर ध्‍यान दिया जाना चाहिए और सहभागिता तथा को-आपरेटिव स्‍कीमों के अंतर्गत उद्योगों के श्रमिकीकरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

v हमारे बम्‍बई के वस्‍त्रोद्योग के कर्मचारी वर्ष 1939 में रुपया 30/- मासिक वेतन पाते थे। अब महँगाई पाँच गुणा बढ़ गई है ऐसा कहा जा रहा है और अधिकारी यह भी मानते हैं कि वर्ष 1951 से 1958 के मध्य उत्‍पादन वृद्धि की दर 25% बढ़ी है। अत: श्रमिक वर्ष 1939 के मुकाबले में उनके वेतनमान में छह गुणा वृ‍द्धि की जो माँग आज कर रहे वह न्‍यायसंगत है।

v .....मैं यह सुझाव देना चाहूँगा कि श्रमिकों की कौन सी यूनियन बहुमत में है। उसके लिए यह जो गुप्‍त मतदान का तरीका है वह उपयुक्‍त है और उसे ही अपनाया जाना चाहिए।

v अब यह सिद्ध किया जा सकता है कि अक्‍सर सरकार इंटक की माँग को समर्थन देने के लिए मर्यादा से भी बाहर चली जाती है। हम यह अच्‍छी तरह समझ रहे हैं कि पक्षपात किया जा रहा है ।

v आप गुप्‍त मतदान (Secret ballot) करवाइए और आपको पता चलेगा कि इंटक की जो यूनियनें आज मान्‍यता प्राप्‍त हैं उनमें से 95% यूनियनों की मान्‍यता समाप्‍त हो जाएगी। ऐसा मैं दावे से कह सकता हूँ।

v यह ''कैजुअल'' शब्‍द के साथ मजाक है क्‍योंकि जिन्‍हें कैजुअल कहा जा रहा है वे श्रमिक तो अनेक वर्षों से लगातार कार्यरत हैं उन्‍हें छ; मास की नियमित सेवा के उपरांत स्‍थाई करने के साथ ही मूल्‍य-सूचकांक के आधार पर उनकी पेमेंट की दरों में बढ़ोतरी की जानी चाहिए।

v मेरा सुझाव है कि 'बोनस एक विलंबित वेतन' है की अवधारणा को इस विधेयक में सम्मिलित किया जाना चाहिए था।

v मैं नेशनलाइजेशन को सभी बीमारियों का एक रामबाण इलाज नहीं मानता बल्कि हमारा यह अनुभव है कि जिन-जिन उद्योगों को सरकार अपने हाथों में ले लेती है, वहाँ वहाँ मजदूरों की इस तरह से पिटाई होती है, जैसे कि निजी क्षेत्र में होता है।

v मेरा पहला तो सुझाव यह है कि रेलवे बोर्ड को खत्‍म करना चाहिए और उसके स्‍थान पर एक स्‍वायत्त निगम (Autonomous corpo ration) रेलवे के कारेबार को देखने के‍ लिए मुकर्रर करना चाहिए ।

v हमने यह भी माँग की है कि प्रत्‍येक क्षेत्र वह निजी, सार्वजनिक या सहकारी हो वहाँ प्रगतिशील श्रमिकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की जानी चाहिए। श्रमिकीकरण से मेरा तात्‍पर्य यह है कि प्रत्‍येक श्रमिक के परिश्रम का मूल्‍यांकन एक शेयर के रूप में किया जाना चाहिए और इस प्रकार उस उद्योग का श्रमिक को शेयर होल्‍डर बनाना चाहिए। इस अधिकार के कारण उसे निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

v जब तक राष्‍ट्रभक्ति से उत्‍प्रेरित उस प्रकार के कार्यकर्ता आगे नही आते हैं तब तक राष्‍ट्र पुनर्निर्माण को गति प्रदान करना संभव नहीं है।

v जहाँ तक कि कुछ डिवीजनों में आज जिस मान्यता प्राप्‍त महासंघ से संबद्ध यूनियनें कार्यरत हैं वहाँ उनके मुकाबले बी. आर. एम. एस. की यूनियनें अधिक शक्तिशाली हैं किंतु माननीय मंत्री महोदय का अड़ियल और दुराग्रहपूर्ण रवैया जो यथार्थ और सच्‍चाई को सामने देखकर भी स्‍वीकार नहीं कर रहे हैं। इससे रेल में शांति स्‍थापना में हमारे प्रयासों में बाधा उत्‍पन्‍न हो रही है। यह इसलिए कि सरकार भावनात्‍मक रूप में किसी और से जुड़ी हुई है और मान्‍यता की पुरानी कार्यविधि से चिपकी हुई है जबकि कर्मचारियों में शक्ति संतुलन अब बदल चुका है।

सोपान-2

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v इतिहास में हम कई बार अंधेरे के घेरे में रहे हैं पर काल देवता ने सहायता की है। हम संकट से उबरे हैं। आज गुआना के साथ भारत के हिंदू भी हैं। यही उद्धारक भी। श्रीराम एवं श्रीकृष्‍ण हमें प्रेरणा दे रहे हैं। निराशा के बादल छँट चुके हैं। अब तो विजय हमारे पक्ष में है।

v आज का वातावरण सफलता के लिए अपहरण सिखाता है समर्पण नहीं। अत: सबके भीतर का सात्विक मन काटता है। जो जीवन ध्‍येय के लिए समर्पित होता है वह आत्‍म हनन में ही चुक रहा है।

v आप सब प्रतिवर्ष भारतीय आगमन दिवस मनाते हैं- अत: इसी दिन को 'रामायण दिवस' के रूप में भी मनाइए। हमारे पूर्वज भारत से आते समय 'श्री हनुमान चालीसा' 'श्री सत्‍य नारायण की पोथी' के साथ 'श्रीरामचरित मानस' रामायण लाए थे। उसी ने विश्‍वास की ज्योति जगाकर नया जीवन दिया।

v 'बसुधैव कुटुम्‍बकम' के बाद- 'बसुधैव मारकेटिंगम' शब्‍द का प्रयोग होते ही प्रधानमंत्री ठहाका लगाकर हँसे। दत्तोपंत जी का हाथ पकड़कर कहते हैं- ''आपने चिंतन-सूत्र दे दिया। मुझे सोचने बोलने का एक नया आयाम दे दिया।''

v मजदूर यूनियनों का राजनीति से गठबंधन नहीं होना चाहिए। यह बात सुनते ही प्रधानमंत्री बोल पड़े- ''तो यूनियन का कार्य क्‍यों करेगा ? दत्तोपंत जी ने तुरंत उत्तर दिया- ''यूनियन का कार्य ध्‍येय मात्र मजदूर सेवा ही होना चाहिए। राजनीति में सफलता नहीं''। इसको बड़ी गंभीरता से लें।

v विकासशील देशें के ट्रेड यूनियनों की एक समन्‍वय समिति की स्‍थापना आवश्‍यक है।

v अत: मजदूर यूनियन के अपने आंदोलन के साथ इन मजदूरों को 'कुछ और (समथिंग मोर) देना है, 'कुछ और' देना है उसे 'संघर्ष का मूल्‍य' तथा 'जीवन का मूल्‍य' कहने हैं। इसी 'जीवन मूल्‍यों' के समूह का नाम ही 'धर्म' है।

v आप आवश्‍यकता (नीड) पूरी कर सकते हैं लालच (ग्रीड) नहीं। आप सब की फैक्ट्री की टेक्‍नोलाजी एवं उत्‍पादन 'मूल्‍य को परिवर्तित' कर सकती है लेकिन 'मूल्‍य' नहीं दे सकते। मशीन तो सप्‍लीमेंटरी सहायक है। सब्‍सटीट्यूट-पूरक नहीं।

v मूल उद्देश्‍य है- ''सौ हाथों से पैदा करो और हजार हाथों से बाँटा।'' इस विचार के बाद सभी की आँखें चमक रही थीं।

v आर्थिक दन्‍नति के साथ जीवन मूल्‍यों की उन्‍नति ही धर्म है

v विश्‍व धर्म की स्‍थापना, धरती का स्‍वर्गीकरण, धरती पर शांति, प्रेम की प्रतिष्‍ठा श्री रामचरितमानस द्वारा ही साकार होगी।

v हिंदू रिलीजन नहीं है पर जीवन की दिशा-दशा है।'' भारतीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निर्णय को पढ़ते हुए कहा- ''हिन्‍दुइज्‍म और ह्मूमैनिज्‍म (मानवतावाद) पर्यायवाची हैं।

v ''मास्‍क को रूसी भाषा में 'मोस्‍क्‍वा' कहते हैं और लिखते भी हैं। 'मोस्‍कवा' रूसी शब्‍द- 'मोक्ष' संस्‍कृत शब्‍द का रूसी संस्‍करण है। इसी समय रूसीया- रूस- रोस- रूऊस- रीसी- रीसीया- रोसीया- ऋषि'' से बनता है। अत: ''ऋषि'' शब्‍द बिगड़ते बिगड़ते 'रूस' बन गया है। 'रूसिया' को 'उदसलैंड' कहते हैं।- यही रउसलैंड- रीसीलैंड- ''ऋषि लैंड'' ही है। इसी तरह 'साइबेरिया'- संस्‍कृत शब्‍द 'शिविर' 'शिविरिया' से रूसी भाषा में 'साइबेरिया' बन गया है।

v कम्‍युनिज्‍म इज ए रिलीजन आफ इर्रिलिजियस पीपुल्‍स: (कम्‍युनिज्‍म अधार्मिक लोगों का धर्म है)। हिंदू धर्म रिलीजन का कामनवेल्‍थ है।

v ''हर जाति- हर समाज अपनी जड़ को खोजने में संलग्‍न है, अत: आप सब अपनी संस्‍कृति के रूट (जड़) और फ्रूट (फल) को खोजने का प्रयास करें। यही अपनी यात्रा का उद्देश्‍य है।''

v अधिवेशन के पूर्व सभी संसद सदस्‍य पहले चर्च में जाकर प्रार्थना करते हैं। तब संसद भवन में आकर कार्य करते हैं। हर सत्र में सभी संसद सदस्‍य एक जुलूस के साथ चर्च में जाते और जुलूस के साथ संसद भवन में प्रवेश करते हैं। तब भी यह देश धर्मनिरपेक्ष है। भारत की धर्म निरपेक्षता ने हिंदू विरोध में ही अपना अर्थ खोज लिया है।

सोपान-3

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v शेक्‍सयिर ग्रेट ब्रिटेन का कालिदास नहीं है, न ही नेपोलियन यूरोप का समुद्रगुप्‍त है, किंतु सरदार पटेल भारत का बिस्‍मार्क है ।

v पतंजलि की अंतर्दृष्टि फ्रायड, जुंग और एडलर-तीनों की संयुक्‍त प्रज्ञा से श्रेष्‍ठ थी। यह कल्‍पनातीत है कि एक सामाजिक तत्त्ववेत्ता के रूप में समर्थ रामदास अपने यूरोपीय समकालीन विचारकों-जैसे हाब्‍स, लॉक,डेकार्ट, लाइब्‍नीज और स्प्निोजा- से कहीं आगे थे।

v अंग्रेजी भाषा के शब्‍द 'रिलिजन' का भारतीय भाषाओं में 'धर्म' अनुवाद करने से जो अनर्थ्‍ा हुआ है, वह इस तथ्‍य का ज्‍वलंत उदाहरण है।

v पश्चिम का परमाणु-सिद्धांत, जिसकी पूर्व-धारणा सहस्‍त्रों वर्ष पूर्व कणाद के परमाणुवाद में की गयी थी ।

v हेगेल और मार्क्‍स का द्वंद्ववाद, जिसकी परिकल्‍पना सर्वप्रथम कपिल मुनि द्वारा की गयी थी, जिन्‍होंने इसे दर्शन के रूप में सूत्रबद्ध किया था।

v यह तथ्‍य की पृथ्‍वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, सूर्य पृथ्‍वी के चारों ओर नहीं, जिसे कापरनिकस ने और कापरनिकस से एक सहस्र वर्ष से भी अधिक समय पूर्व आर्यभट्ट ने सिद्ध किया था।

v डेमाक्रेटस का भौतिकवाद, जिसका सर्वप्रथम सूत्र (असतो सत् अजायत्-असत् से सत् उत्‍पन्‍न हुआ) शताब्दियों पूर्व बृहस्‍पति द्वारा लिखा गया था।

v दिक्काल की वैज्ञानिक संकल्‍पनाएँ जिनकी व्‍याख्‍या आइंसटाइन द्वारा की गयी और जिनका निरूपण सर्वप्रथम वेदांती दार्शनिकों द्वारा किया गया था ।

v द्रव्‍य की वैज्ञानिक परिभाषा, जो आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम हाइजनबर्ग द्वारा और हिंदुओं को पतंजलि द्वारा दी गयी।

v दिक्-काल की सापेक्षता, ब्रह्मांड की एकता, दिक्काल का सातत्‍यक, जिसका प्रतिपादन प्राचीन समय में वैदिक मनीषियों ने किया था और जिन्‍हें प्रमाणित इस शताब्दी में आइंसटाइन द्वारा किया गया।

v वैज्ञानिक-दार्शनिक चिंतन की प्रक्रिया, जो नारदीय सूक्‍त के परमेष्‍ठ प्रजापति द्वारा प्रारंभ की गयी और जिसे आइंसटाइन द्वारा शिखर तक पहुँचाया गया।

v जैसा कि एच. जे. चेर्निशेवस्‍की ने कहा है, ''आधुनिक विज्ञान की शाखाओं द्वारा जिन सिद्धान्‍तों की व्‍याख्‍या की गयी है और जिन्‍हें सिद्ध किया गया है, उन्‍हें पहले ही यूनानी दार्शनिकां ने और उनसे भी बहुत पहले भारतीय मनीषियों ने प्राप्‍त करके सही मान लिया था।

v यह एक निर्विवाद तथ्‍य है कि यूरोपीय पुनर्जागरण से पूर्व, जब यूरोप में अन्‍धकार का युग था, हिंदू विज्ञान और हिंदू कलाएँ अरब देशों और फारस के मार्ग से यूनान पहुँची थीं। न्‍यूटन ने एक बार कहा था, ''यदि मैं दूसरों से आगे देख सका हूँ तो इसका कारण यह था कि मैं महामानवों के कंधों पर खड़ा था।

v ''परानुकरण अपने अस्थि-पंजर पर दूसरे की त्‍वचा चढ़ाने के समान है, जिससे त्‍वचा और अस्थियों के बीच निरंतर कलह होता रहेगा।'' यह अव्‍यावहारिक भी होगा और असहनीय भी ।

v अनेकता में एकता देखने के अभ्‍यस्‍त होने के कारण, हिंदू किसी भी क्षेत्र के नए विचारों और संरचनाओं को अपने अनुकूल ढालने में तथा उन्‍हें अपने राष्‍ट्र-जीवन में आत्‍मसात् करने में सिद्धहस्‍त है।

v कम्‍युनिज्‍म भी, जो स्‍वयं को एक श्रेष्ठ विकास के रूप में प्रस्‍तुत करके सामने आया था, बुरी तरह से विफल रहा है।

v ईश्‍वर की कृपा से हमें वे सारे साधन उपलब्‍ध हैं, जिनसे कोई देश महान बन सकता है। मानवीय, भौतिक और बौद्धिक साधनों में हम किसी से पीछे नहीं हैं।

v (भारत) यदि इच्‍छा करे तो उन समस्‍याओं को, जिनसे समूची मनुष्‍य-जाति आक्रांत है और लड़खड़ा रही है, एक नया और निर्णायक मोड़ दे सकता है, क्‍योंकि उनके समाधान का सूत्र उसके प्राचीन ज्ञान में निहित है।''

v गैर राजनीतिक आधार पर मजदूर संगठन आवश्‍यक।

v राष्‍ट्र-हित की चौखट में मजदूर-यह ध्‍येय।

v हड़ताल अधिकार छीनना लोकतंत्र विरोधी।

v राष्‍ट्रीय स्‍वालम्‍बन का निश्‍च करें।

शब्‍द संकेत

अ, आ, इ, ई

पृ॰ई


अमेरिका

24

अर्ली वार्निंग सिस्‍टम

26

आटोमेशन

36

आम हड़ताल

40

अशोक सिंहल

56

आचार्य विनोबा भावे

71.134

अरनेस्‍ट बाकीरोव

93

अलेक्‍जेण्‍डर तीखानोव

95

आइसलैण्‍ड

100

आसलथीन्‍गी

103

आइन्‍स्‍टीन

117.181

अरुंडेल

126

अर्नाल्‍ड टायन्‍बी

126

अल्‍बर्ट श्‍वाइटजर

126

अलेक्‍जेण्‍डर सोल्‍जेनित्‍सन

134

अरविन्‍द (महर्षि)

146

अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर

156

अंगोला

184

अफगानिस्‍तान

184

अल्‍बानिया

188

इटली

136

इनगोलकर अरनासन

101

इ. के. मेकलियोड

82

इंटक (lNTUC)

12

ईरान

24

इजरायल

58

, ऐ, ओ, औ

इथोपिया

पृ॰

184

एडवर्ड मिल्‍ज

07

एम. एन. राय

45

एक उद्योग- एक यूनियन

47

एडलर

113

एडम स्मिथ

113

एल्‍फ्रेड मार्शल

113

एच.जे. चेर्निशेवस्‍की

118

एनी बेसेन्‍ट

126

एण्‍टोनियो ग्रामस्‍की

135

पृ॰

, ख, ग, घ,

कोगिर डी. करवले

10

कर्मवीर शिन्‍दे

23

केन्‍या

61

करनाल गाँव

89

कालिदास

112

कीन्‍स

113

कापरनिकस

117

कान्‍ट

129

कैरिल्‍लो

135

कोस्‍टलर

135

के. आई. वसु

140

क्‍लाड एल्‍वोरस

141

कापरा

144

कलकत्ता

171

कास्‍मालोजी

181

कम्‍बोडिया

184

कैथरीन महान

186

के. आर. मालवीय

197

खानाबदोश

20

गुप्‍त मतदान

12

गैंगमैन

35

गिरिराज किशोर

57.62

गोल्‍डन हाइटस

59

गंगा तालाब

62

गुरुजी गोलवलकर

71

गुआना

71

गीता

112

गुन्‍नार मिरडल

113

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर

125.149

, छ, ज, झ

गारबे

126

पृ॰

चीन

56, 170

चैकोस्‍लोवाकिया

156

चारू मजूमदार

184

छेदी जगन

71

जर्मनी

56

जेरूसलम

59

जुंग

113

जे. एस. मिल

113

जान क्‍लीनिंग

123

जोमो केन्‍याता

127

जिलासा

135

जे. एल. ब्रोकिंग्‍टन

142

जवाहर लाल नेहरू

154

जयप्रकाश नारायण

161

जनयुद्ध

185

जयसुखलाल हाथी

197

जीओजी लुकास

135

पृ॰

ट, ठ, ड, ढ

ट्रिनीडाड - टोबैगो

77, 84

ट्रिनीनादेश्‍वर महादेव

86

टायन्‍ब्‍ी

145, 189

ट्राटस्‍की

190

ठेंगड़ी जी

54, 55, 56, 57, 58, 61, 62, 71, 182, 183, 184, 186, 186, 190, 207

डा. बाबा साहब अम्‍बेडकर

23

डॉ. हेडगेवार

23

डॉ. मुरली मनोहर जोशी

56, 62, 63, 105

डॉ. शंकर तत्‍ववादी

58

डरबन

62, 105

डेकार्ट

113

डैनिलो डोलसी

127

डॉ. राधाकृष्‍ण

129

डेब्रे

135

डॉ. शूमाकर

139

डॉ. राजा रमन्‍ना

140

डर्विन

181

डांगे

186,205

डोरोथी सेयर्स

143

त, थ, द, ध, न

पृ॰

तेल अवीव

58

तोगलियाती

135

तानाशाही

166

दत्तोपंत

72, 73, 74, 76, 78, 79, 82, 89, 90, 92, 97, 105, 179, 202, 204, 205, 208

दास कमीशन

17

दास कैपीटल

189

दि न्‍यू क्‍लास

191

देहरादून

207

दाँते

143

धर्मपाल

141

नारायण गुप्‍त

23

न्‍यूयार्क

54

नेल्‍सन मंडेला

62, 63

नैरोबी

64

नेपोलियन

112

न्‍यूटन

118

निवेदिता

126

नासा

169

नम्‍बूद्रीपात

184

नागपूर

201

नाशिक

204

पृ॰

व, फ, ब, भ, म

पाकिस्‍तान

24

प्रो. एन्‍टोली

95

पतंजलि

113

प्रो. रोस्‍टोव

113

पं. नेहरू

115

पाइथागोरस

117

प्रैस

166

प्‍लैटो

129

पोल्लिट

135

पोलैण्‍ड

136, 188

पार्लियामैन्‍ट

157

पीकिंग (‍बीजिंग)

183

पीटर महान

186

परमेश्‍वर विहीन

188

पोप

188

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय

189

फ्रायड

113

फ्रैंकस्‍टीन

7

फ्लोरैन्‍स नाइटिंगेल

23

फादर डैनियल

56

फेन्‍नर बाक्‍वे

126

बोनस

19

बर्नहम

30

बोस्‍टन

54

ब्रह्मदेव उपाध्‍याय

57

बी.बी.सी. (BBC)

57

बैथलहम

58

ब्रह्मदेव जी महाराज

85, 86

बारबेडोस

89

ब्‍लु-लैगन

100

बल्‍गेरिया

160

बी.टी.रणदिवे

204

बनर्जी साहब

208

भूमिहीन श्रमिक

13

भेल (BHEL)

42

भिड़े जी

55

भानुप्रताप शुक्‍ल

62

भारतीय मजदूर संघ

149, 157

भगवान बुद्ध

180

महात्‍मा फुले

22

महात्‍मा गांधी

23, 200

भारतीय रेलवे मजदूर महासंघ

48

मान्‍यता

48

माधव गोबिन्‍द वैद्य (मा.गो. वैद्य)

53

महर्षि महेश योगी

56

मृत समुद्र

58

मायवोली (पत्रिका)

60

मुरारी बापू

61

मा. सुदर्शन जी

61

मारिशस

61

मोंबासा

67

मास्‍को

92

मार्क्‍स

113, 180

माल्‍थस

113

मैक्सिम गोर्की

122

मुस्‍तफा कमाल पाशा

126

मीराबेन

126

मैक्‍समूलर

126

मार्टिन लूथर किेंग

127

मैकाले

131

मानवेन्‍द्र नाथ राय

134

मुहम्‍मद कुतुब

136

महात्‍मा (गांधी)

149

महाराणा प्रताप

186

मोहम्‍मद

189

मोओत्‍से तुंग

135

य, र, ल, व

मोओत्‍से तुंग

पृ.

135

यूनान

118

युधिष्ठिर

163

यमन

184

यमुनानगर

197

यीशु

58, 115, 130

रसोनोक (रेडियो केंद्र)

73

राष्‍ट्रीयकरण

8

रामसुभग सिंह

13

रेल कर्मचारी

15

राजा राममोहन राय

22

रेलवे एडमिनिस्‍ट्रेशन

34

रेलवे बोर्ड

41

रामचरितमानस

74

रामदास (समर्थ)

113

रोमा रोलाँ

126

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

128

रूस

170

राष्‍ट्रीय श्रम आयोग

182

रूमानिया

160

रैकवैक

101

रायपुर

210

लंदन

57

लाक

113

लुई फिशर

126

लोकतंत्र बचाओ

168

लेनिन

185

लेनिनग्राद

186

लेफ्ट इन कम्‍युनिज्‍म

191

लखनऊ

201

वस्‍त्रोद्योग

10

वेज बोर्ड

15

वर्कर्स बजट

17

विलम्बित वेतन

19

वाशिंगटन

57

वीपिंग वाल (Weeping Wall)

58

वासुदेव पाण्‍डेय

78, 84

वेस्‍टइन्‍डीज युनिवर्सिटी

88

वाल्‍टेयर

114

वुडरोफ

112, 145

विलियम डिक

119

रिकार्डो

113

वैलेन्‍टीन किरोल

129

वियतनाम

184

वाईफ शेयरिंग

190

श, स, ह, श्र, त्र, ज्ञ

वीर सावरकर

पृ.

204

शाहु छत्रपति

22

शिकागो

61

शेक्‍सपियर

112

शापेनहावर

126

शिवाजी

186

श्‍मशान वैराग्‍य

199

स्‍वायत्त निगम

16

स्‍वामी विवेकानन्‍द

23, 57, 71

स्‍वामी सहजानंद

62

स्‍वामी रामतीर्थ

70

स्प्रिंगलैन्‍ड

72

सुरीनाम

73

संत तुलसीदास

74, 87

सिंगापुर

80

सुन्‍दर लाल

86

सारका वनोभा

94

सिगुर दर

102

समुद्रगुप्‍त

112

सरदार पटेल

112

संस्‍कृति

121

स्पिनोजा

113

सभ्‍यता के रोग

132

सी.ई.एम.जोड

134

सोमालिया

184

स्‍टालिन

185

सामूहिक सौदेबाजी

192

हिंदू स्‍वयंसेवक संघ

54

हंगरी

56

हृदयनाथ मंगेशकर

63

हरीसन केव

90

हिटलर

185

हंगरी

186

हाब्‍स

113

हेगेल

117

हेनरी ग्रिस

119

श्रमिकीकरण

8, 44

श्री माँ

126

श्रीगुरुजी

134, 141, 146

Index

ABCDE

ABCDE

P

P


Adam Smith

255

Al Baruni

258

Alfred Marshall

255

Aurobindo

249, 251

Arya Bhatta

244

Atharva Veda

244

Athens

242

Banking in Islam

277

Baumol

271

Bernard Shaw

247

Bertrand Rusell

252

Bible

277

BMS

238

Brihaspati

265

Bronfenbrenner

271

Budhist Economics

244

Che-Guevara

273

Christian Economics

276

Dadabhai Naroji

273

Dannial Bell

272

David Abrahamson

269

David Marcord

247

Deendayal ji Upadhyaya

249, 253

Dewey

252

Domar

270

Dr. Amartya Sen

268

Dr. Ambedkar

260

Dr. Bokare

237, 245, 260

Dr. J.K. Mehta

245

Dr. Lombroso

268

Dr. M. Fahim Khan

278

Dr. Munawar Iqbal

278

Dr. Nejatullah

277

Dr. P.V. Kane

241

Dr. Schumachor

244

Dr. Varnekar

240

Dr. Ziauddin Ahmed

278

Edward

273

Einstein

243

Engels

247

P

FGHIJ

Frantz Fanon

273

Fr. Aguiar

176

Friedman

271

Gautam

258

Gopal Krishan Gokhle

237

Gunner Myrdal

255, 270

Harrod

270

Herbert Marcuse

273

Herbert Stein

272

Hicksian

270

Hindu Economics

244, 284

Ideology

254

IFCTU

274

Indian Economics

245

Indira Gandhi

244

Integral Humanism

249

J. Bentham

266

J.C. Heesterman

250

J.C Hick

272

J.K. Galbraith

237

J.S. Mill

255

James Tobin

271

Johan Rohinson

270

Joseph Spengler

245

KLMNO

P

K.G Gokhale

284

K.M. Munshi

284

K.T. Shah

282

K.V. Ramaswamy

284

Karbeiz

274

Kautilya

239, 241, 257, 259

Kenneth Boulding

276

Keynes

255

L.T. Hobhouse

246

Labourisation

240

Leibenstein

270

Lyan Lilich

261

M.G. Ranade

237

Magna Charta

274

Mahabharat

257

Malthus

255

Manu

241

Manusmriti

241

Marx

246

Marshal Tito

273

Max Weber

275

May Day

274

Megasthenes

257

Milton

270

Mohammed Arif

277

Narad Smriti

240

Nasadiya Sukta

242

New York

241

PQRST

Newton

242

P

P. Hesseling

250

Passinetti

270

Patinkin

270

Paul A. Samuelson

272

People Sector

238

Pop Pius XI

274

Prof. Devenport

267

Prof. Pigou

246. 260

Prof. Rostov

255

QuO VADIS

237

(A Latin word meaning 'where are you going')

Ramakrishna Mission

284

Ramesh Chander Dutta

237

RD Lang

273

Recardian Theory

260

Recardo

255

Relative Scarcity

270

Requibuz Zaman

278

Rudolphs

250

S.A. Dange

243

Sartre

273

Sitla Prasad Mishra

258

Solow

270

Solzhenitsyn

249

Sri Guruji

248, 255, 262

Subramniyan lyer

256

Sukra

238

Suker Neeti

240

Swan

270

T.R. Diwakar

284

Tat Twam Asi

265

Tawney

276

Thane Meet 1972

262

The Universe of Vednata

243

Thomas

P

270

UVWXYZ

Unlimites Wants

269

Utopian

239

Vani Deshpande

243

Vishwakarma Day

238

Vyasa

266

W. Arthur Lewis

248

WCL

276

Wieksell

255

Yajna

265

Yagya valkya Smriti

241

Yuganukul

251

Yugdharma

251



[1] (For example, patents, brands, copyrights, trade names licenses, quotas, protective tariff, cartels, pools, trusts, holding companies or intercorporate boards of directors, intercorporato investments, etc.)


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में दत्तोपंत ठेंगड़ी की रचनाएँ