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वैचारिकी संग्रह

दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शन खंड - 6

दत्तोपंत ठेंगड़ी


भद्रं इच्‍छन्‍त ऋषय: स्‍वर्विद:

तपो दीक्षांउपसेदु : अग्रे ।

ततो राष्‍ट्रं बलं ओजश्‍च जातम् ।

तदस्‍मै देवा उपसं नमन्‍तु।।

(अथर्ववेद 19/41/1)

(आत्‍म ज्ञानी ऋषियों ने जगत् का कल्‍याण करने की इच्‍छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्‍ट्र निर्माण हुआ, राष्‍ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ । इसलिए सब विबुध इस राष्‍ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।)

दो शब्द

'दत्तोपंत ठेंगडी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के चार खंड प्रकाशित हो गए हैं। पाँचवा और छठा खण्‍ड भी छप गया है जिनका विमोजन भारतीय मजदूर संघ के स्‍थापना दिवस (23 जुलाई) को होगा। शनै: शनै: शनै: हम नौ खण्‍ड प्रकाशित करने के अपने लक्ष्‍य की ओर अग्रसर हैं।

प्रस्‍तुत खंड में मा. ठेंगड़ी जी की चयनित रचनाओं, प्रस्‍तावनाओं, प्रस्‍तुतियों एवं आलेखों के प्रमुख अंश सहेजने-समेटने का प्रयास है। दत्तोपंत जी के विपुल विस्‍तृत विचारधन को सहेजना सरल कार्य नहीं है। हम उतना ही कर रहे हैं जितनी अपनी सामर्थ्‍य है। अत: यह रामसेतु निर्माण में गिलहरी के यागदान समान ही लघु प्रयास है।

प्रथम दो खंडो के विमोचन (30 अगस्‍त 2015, नई दिल्‍ली) के अवसर पर अपने उद्बोधन में प.पू. सरसंघचालक मा. मोहनराव भगवात जी ने कहा था ''अधिकस्‍य अधिक फलम-स्‍वल्‍पमप्‍यस्‍य धर्मस्‍य त्रायते महतो भयात'' अर्थात अधिक करेंगे तो अधिक फल, पूर्ण फल प्राप्‍त होगा किन्‍तु पूर्ण नहीं हो सकता थोड़ा करेंगे तो उसका भी फल प्राप्‍त होगा । आगे ही बढ़ेंगे।''

खण्‍ड तीन व चार के विमोचन (06 फरवरी 2016, हैदराबाद) के अवसर पर रा.स्‍व.संघ के सहसरकार्यवाह मा. दत्तात्रेय होसबाले जी ने कहा कि ''क्‍या हम सारा आकाश अथवा महासागर देख सकते हैं। हमारी दृष्टि की परिधि में जितना आकाश अथवा सागर आता है क्‍या वास्‍तव में वह उतना ही होता है। वह तो असीम अनन्‍त है। उसी प्रकार दत्तोपंत जी के विचार, लेख, निबन्‍ध पता नहीं कहाँ-कहाँ बिखरे पड़े हैं। उन सब पर हमारी दृष्टि कदाचित् ही पहुँच पाए किन्‍तु जहाँ तक दृष्टि जाए उस सारे साहित्‍य को सहेजना समेटना और प्रस्‍तुत ग्रंथमाला में प्रकाशित करना यह करने योग्‍य कार्य है।''

पुन: पुन: दोहराने का मन होता है कि अपना ईश्‍वरीय कार्य है। उसी की इच्‍छा एवं अनुकम्‍पा में प्रस्‍तुत ग्रंथमाला प्रकाशन का कार्य आगे बढ़ रहा है और यथासमय संपन्‍न भी होगा। हम तो केवल निमित्तमात्र हैं।

दत्तोपंत जी के मूलगामी विचारों के मोती जो यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं और सौभाग्‍यवश उनमें से कुछ हमें प्राप्‍त हुए हैं, उन्‍हें ही एक माला में पिरोने का केवल मात्र इतना अपना प्रयास है।

आशा है प्रज्ञावान, पाठकवृंद इस खंड में प्रकाशित मा. दत्तोपंत जी के विचारों से प्रेरणा प्राप्‍त करेंगे।

सादर-सप्रेम,

ठेंगड़ी भवन संपादक

केन्‍द्रीय कार्यालय,

भारतीय मजदूर संघ

27, दीनदयाल उपाध्‍याय मार्ग

नई दिल्‍ली-110002

दूरभाषा : 011-23222654

ईमेल-bmsdtb@gmail.com

अनुक्रमणिका

क्र. विषय पृष्ठ सं.

सोपान- 1 ( गौरवगान , लेख, प्रस्तावनाएं )

1. पुण्याहवाचन 05

2. दहलीज पर 18

3. देहली दीपक 48

4. राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का आधार 91

5. सोपान- 1: प्रमुख बिन्दु 127

सोपान - 2 ( गौरवगान व लेख)

1. पू. डॉक्टर जी के नेतृत्व की विशेषता 139

2. समन्वय महर्षि पू. श्री गुलाबराव जी महाराज 143

3. आत्म विलोपी-आबाजी थत्ते 152

4. तत्त्व जिज्ञासा 166

5. यथार्थ और भ्रान्तियाँ 223

6. सोपान- 2: प्रमुख बिन्दु 229

सोपान - 3 (संस्मरण)

1. माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी- एक विशाल किन्तु सहज व्यक्तित्व- प्रो. आद्या प्रसाद पाण्डेय, वाराणसी 243

2. भारतीय अर्थवाद के पुरोधा - मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी अयोध्या नाथ मिश्र, डोरण्डा, राँची 246

3. भविष्य को अवलोकित करने वाले कार्यमग्न-दत्तोपंत ठेंगड़ी - राजाभाऊ पोफळी, नागपुर 251

4. मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी-व्यक्तित्व का परिचय - दिनकरराव जलताड़े, विलासपुर (छतीसगढ़) 259

5. अनोखी कार्यशैली-मुकुंद आठले, सतारा, (महाराष्ट्र) 264

6. करुणाशील ममतामयः मा. ठेंगड़ी जी- राम लुभाया बावा चौक मेहता, जिला-अमृतसर, 266

सोपान- 4 अनमोल धरोहर 275

(मा. ठेंगड़ी जी द्वारा स्वहस्तलिखित सामग्री)

7. शब्द संकेत 309

8. संपादक परिचय 323

खण्‍ड-6

सोपान-1

सोपान-1 (गौरवगान , लेख, प्रस्‍तावनाएं)

1. पुण्‍याहवाचन दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. दहलीज पर दत्तोपंत ठेंगड़ी

3. देहली दीपक दत्तोपंत ठेंगड़ी

4. राष्‍ट्रीय पुनर्निर्माण का आधार दत्तोपंत ठेंगड़ी

5. सोपान-1 : प्रमुख बिन्‍दु

खण्‍ड-6

सोपान-1

पुण्‍याहवाचन

भद्रं इच्‍छन्‍त ऋषय: स्‍वर्विद :

तपो दीक्षां उपसेदु: अग्रे।

ततो राष्‍ट्रं बलं ओजश्‍च जातम्

तदस्‍मै देवा उपसं नमन्‍तु।।

(अथर्ववेद 19/41/1)

यह संकलन है, परमपूजनीय श्री गुरुजी के विचारों का। वर्ण्‍य विषय है ''राष्‍ट्र-संकल्‍पना''। ''वाचम् अर्थोऽनुधावति'' जिनका यह अधिकार। उनकी जीवन साधना का अधिष्‍ठान यह वर्ण्‍य विषय। इस संकलन पर भाष्‍य करने का प्रयास अर्थात धृष्‍टता की, अहंकार की परिसीमा। वह यहां अभिप्रेत नहीं है। किंतु इन विचारों का अध्‍ययन किन परिस्थितियों की पृ‍ष्‍ठभूमि में हम करने जा रहे हैं यह जान लेने की आवश्‍यकता है। उसी का यह संक्षिप्‍त विवरण है। यही है पुण्‍याहवाचन।

भारतीय शब्‍दों का अंग्रेजी में या अंग्रेजी शब्‍दों का भारतीय भाषाओं में भाषांतर करते समय अनुवादकों ने जानबूझकर हो या अनवधान से, कुछ गंभीर गलतियाँ कीं। शास्‍त्रीय चर्चा में प्रयुक्‍त होने वाले हर शब्‍द का गठन ऐतिहासिक विकास की पृष्ठभूमि के फलस्वरूप होता है। बोलचाल की भाषा में कभी-कभी ऐसे शब्‍दों का प्रयोग शिथिलतापूर्वक हो जाता है। यदि यह शिथिलता सर्वसाधारण व्‍यक्ति की बातचीत में सामान्‍य लोक-व्‍यवहार के दौरान आ गई तो वह क्षम्‍य भी मानी जाती है। किंतु शास्‍त्रार्थ के समय या शास्‍त्रज्ञ लोगों की सामान्‍य बातचीत में यह शिथिलता क्षम्‍य नहीं है।

यूरोप के लोग जब भारत आए उस समय यूरोप की जो अवस्‍था थी उसी के प्रकाश और प्रभाव में उन्‍होंने हिंदुस्तान को समझने का प्रयास किया। यह स्‍वभाविक ही था। यूरोप में प्रचलित शब्‍द उनकी ऐतिहासिक विकास क्रम की देन थी। जबकि भारत का ऐतिहासिक विकास क्रम यूरोप से बिल्‍कुल भिन्‍न रहा है। यहाँ की शब्‍दावली यहाँ के ऐतिहासिक विकास क्रम की पृष्‍ठभूमि से विकसित हुई। नए आए हुए यूरोपीय प्रवासियों के लिए इए पृष्‍ठभूमि को सहसा समझ पाना संभव नहीं था। फिर वे साहसी पर्यटक थे, भाषाविद पर्यटक नहीं। उन्‍होंने अपनी अपनी मानसिक पृष्‍ठभूमि के सहारे भारतीय समाज तथा भारतीय संकल्‍पनाओं को समझने का प्रयास किया। कोई भी भारतीय संकल्पना ऊपरी तौर पर उनकी किसी सुपरिचित यूरोपीय संकल्पना से सादृश्‍य रखने वाली दिखाई दी तो स्‍वभाविक रूप से उनकी ऐसी धारणा बनी कि ये दोनों संकल्‍पनाएँ एकरूप हैं और उसके परिणामस्वरूप भाषांतर की गलतियाँ होना भी स्‍वभाविक था। ये गलतियाँ उन्‍होंने प्रामाणिकतापूर्वक कीं। बाद में मैकाले की नीति के अंतर्गत भारत की जनता को गुमराह, आत्‍मविस्‍मृत तथा आत्‍मग्‍लानियुक्‍त करने के हेतु जो प्रयास हुए उसका एक अंग गलत भाषांतर का प्रचलन भी रहा। यह पूर्णरूपेण अप्रामाणिक तथा दुष्‍टहेतुपूर्वक हुआ। इस बात ने मैकाले को बहुत श्रेय प्रदान किया। स्‍पष्‍ट है कि अपने देश इंग्‍लैंड के प्रति उनकी भक्ति असंदिग्‍ध थी।

मैकाले ने अपने देश के साम्राज्‍य की सत्ता की नींव भारत में मजबूत करने के लिए दूरदर्शितापूर्वक अपनी नीति विकसित की थी। उसका यह ''देशभक्ति'' प्रेरित प्रयास उसके देश की दृष्टि से अभिनंदनीय ही था किंतु आश्‍चर्यजनक तथा लज्‍जास्‍पद बात यह रही कि हमारे आंग्‍ल-विद्याविभूषित भारतीय विद्वानों ने मैकाले का मानसपुत्र बनकर उसके द्वारा कही गई हर बात, उसके द्वारा किए हुए गलत भाषांतरों को भी, अंधश्रद्धापूर्वक स्‍वीकार किया। उदाहरणार्थ, उन विद्वानों में यह समझने की बौद्धिक क्षमता थी कि ''धर्म'' की संकल्‍पना भिन्‍न है और रेलिजन Religion (पंथ) की संकल्‍पना से उसकाक कोई मेल नहीं, तो भी उन्‍होंने स्‍वीकार कर लिया कि ''धर्म'' अर्थात्-रिलीजन-और रिलीजन अर्थात ''धर्म'' है। इस कारण देश में कितनी भ्रांत धारणाएँ किस प्रकार फैलीं हम यह जानते हैं। ऐसा ही कई और शब्‍दों के बारे में भी हुआ। राष्‍ट्र और नेशन (Nation| के विषय में भी यही स्थिति है। पृष्‍ठभूमि के कारण आज कल कहीं भी शास्‍त्रीय चर्चा चलती है तो प्रारंभ में ही निम्‍न तीन उद्धरण देना अपरिहार्य हो जाता है -

'The letter killeth' - ईसा मसीह।

''एक: शब्‍द: सम्‍यक् सम्‍प्रयुक्‍त: लोके स्‍वर्गे च कामधुक् भवति'' (पंतजलि)

If you want to talk with me, define your terms' - वोल्‍टेयर

सर्वसाधारण जनमानस का अब तक का अभ्‍यास ध्‍यान में रखकर इस प्रस्‍ताविक में भी कई जगह ''राष्‍ट्र'' और नेशन को पर्यायवाची या समानार्थी के रूप में प्रयोग में लाने की अशास्‍त्रीयता जानबूझकर की गई है। शास्‍त्रीय संज्ञाओं का इस तरह का गलत प्रयोग करना यद्यपि जनसाधारण के समझने की क्षमता के साथ अशास्‍त्रीय समझौता ही है, फिर भी कभी-कभी विवश होकर यह करना पड़ता है।

हमारे देश में हजारों जातियाँ हैं। इन दिनों उनमें एक नई जाति की वृद्धि हुई है। यह नई जाति है बुद्धिजीवियों की जिन्‍होंने यह मान लिया है कि देश में उपलब्‍ध बुद्धिमानी पर पूरी तरह से इनकी जाति का ही स्‍वामित्‍व है और इस जाति के बाहर विद्वता का अकाल व्‍याप्‍त है।

इस जाति में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रामाणिक हैं। जिनका प्रयास सत्‍य की खोजन करने का ही रहता है और अन्‍वेषण के पश्‍चात् उनको यदि ऐसा प्रतीत हुआ कि नए तथ्‍य के प्रकाश में उनकी कुछ धारणाएँ गलत हैं तो उस बात को मान लेने, अपनी गलत धारणाओं का त्‍याग करने और नई धारणओं को स्‍वीकार करने में उन्‍हें संकोच नहीं होता। क्‍योंकि वे सत्‍य के पुजारी होते हैं, अतएव पूर्व ग्रहदोष से मुक्‍त हुआ करते हैं। किंतु ऐसे प्रामाणिक विचार वालों को अधिक प्रसिद्धि नहीं मिलती। इसका कारण यह है कि प्रचार के माध्‍यम जिनके नियंत्रण में है, प्रसिद्धि प्रकाशित करने की चतुराई इन प्रामाणिक विचारवानों के पास नहीं है।

बुद्धिजीवियों की इस नई जाति में अधिकतर संख्‍या चतुर लोगों की है। उनकी रुचि वास्‍तविक सत्‍य में नहीं है। चतुर होने के कारण वे पहले ही भांप लेते हैं कि प्रचार-माध्‍यमों के मालिकों के निहित स्‍वार्थों के साथ मेल खाने वाला निष्‍कर्ष निकालने तथा प्रकाशित करने से अपना व्‍यक्तिगत निहित स्‍वार्थ भी सिद्ध हो सकता है। इन अप्रमाणिक विचारवानों के पास इसकी ठीक जानकारी रहती है कि रोटी के किस ओर मक्‍खन लगा हुआ है और यह बात वे पहले से ही तय करके रखते हैं कि तद्नुकूल निष्‍कर्ष ही निकालना है। अब प्रश्‍न इतना ही रहता है कि इस तरह के उपलब्‍ध तथ्‍यों की रचना किस तरह की जाए कि निष्‍कर्ष वे ही निकाल सकें। इस कला में ये 'विचारवंत्' लोग निष्‍णात बन चुके हैं क्‍योंकि यह कला ही उनका पेशा, उनकी उपजीविका का साधन तथा प्रसिद्धि एवं प्रतिष्‍ठा का आधार है। इस तरह की विचार-प्रक्रिया को अंग्रेजी में Hypothetical (हाइपोथेटिकल) संज्ञा प्रदान की गई है।

व्‍यवहार चतुर लोगों के विषय में ही यह कहा गया है कि-

''अर्थातुराणां न पिता न बन्‍धु:''।

उपरिनिर्दिष्‍ट अप्रामाणिक विचारवंत लोग इसी श्रेणी में आते हैं। यह संकलन इन 'विचारवंतों' के लिए नहीं है। स्‍वकेंद्रित होने के कारण इनकी अवस्‍था ''ब्रह्मा अपि नरं न रंजयति'' जैसी है। उनके बारे में संपादक की भूमिका ''तान्प्रतिनैष यत्‍न:'' की है। अपनी व्यक्तिगत सुविधा को ही अग्र क्रम देने वाले बुद्धि के ये ठेकेदार सत्‍य को समय को सेवक बनाना चाहते हैं, किंतु इस संकलन के संपादक जैसे लोगों की धारणा यह है कि ''समय को सत्‍य का सेवक बनाना चाहिए।''

इस प्रकार के इने-गिने महानुभावों को छोड़कर ''राष्‍ट्र-संकल्पना'' समझने की इच्‍छा रखने वाले शेष सभी प्रामाणिक जिज्ञासु इस संकलन से लाभान्वित होंगे। वे इस ग्रंथ को पूर्वाग्रह विरहित मन से पढ़े, इस पर स्‍वयं अपनी-अपनी बुद्धि से चिंतन करें और इस विषय में स्‍वयं अपने-अपने निष्‍कर्ष निकालें, यह स्‍वस्‍थ प्रणाली ही संपादक और संकलनकर्ता को अभिप्रेत है।

'' राष्‍ट्र-संकल्‍पना'' विषयक सत्‍य की खोज करने की प्रक्रिया में यह ग्रंथ सहायक हो, इतनी ही अपेक्षा है। किंतु ग्रंथ का पठन, उस पर मनन और सत्‍यान्‍वेषण करते हुए अपनी बुद्धि से निष्‍कर्ष निकालने का काम हर एक जिज्ञासु को स्‍वयं करना चाहिए। प्रगतिशीलता के नाम पर पाश्‍चात्‍य विचारकों के निष्‍कर्ष जैसे के वैसे ग्रहण करना मैकाले के आधुनिक मानसपुत्रों की प्रवृत्ति है। यह ''बाबावाक्‍यम् प्रमाणम्'' प्रवृत्ति श्री गुरुजी को स्‍वीकार नहीं थी, फिर वह बाबा चाहे पश्चिम का हो चाहे पूरब का। श्री गुरुजी स्‍वतंत्र प्रजा के पक्षधर थे। दिनांक 30/10/1972 को ठाणे वर्ग में अपने भाषण का प्रारंभ करते समय श्री गुरुजी ने कहा, ''मैं जो कहता हूँ उसे मानना ही चाहिए, यह आवश्‍यक नहीं है। मेरा विचार है इसलिए इसको मानने का कोई कारण नहीं। मैं जो कहता हूँ इस पर आप लोगों को विश्‍वास करने की कोई आवश्‍यकता नहीं। आप अपना स्‍वतंत्र विचार करें। मैं जो कुछ बोलता हूँ उसके विरुद्ध विचार कैसे करना। इस प्रकार का संकोच मन में रखने की कोई आवश्‍यकता नहीं है।'' अपने ''ध्‍येयदर्शन'' भाषण में श्री गुरुजी कहते हैं ''… इति डार्विन, इति हक् सूले, इति मार्क्‍स, इति शंकराचार्य, इति श्रुति, ऐसा कुछ भी कहना मेरी दृष्टि से ठीक नहीं है। जिस जीवित जाग्रत सत्‍य का मुझे प्रत्‍यक्ष अनुभव होता है। उसी पर मैं विश्‍वास करता हूँ।'' भगवान बुद्ध का अंतिम संदेश था ''आत्‍मदीपो भव''। श्रीगुरु जी के उपर्युक्‍त कथन का भी यही अभिप्राय है। ''राष्‍ट्र- संकल्‍पना'' के सभी जिज्ञासुओं के विषय में भी श्री गुरुजी की यही अपेक्षा थी।

नेशन और नेशनलिज्‍म

जहाँ नेशन या नेशनलिज्‍म से संबंधित प्रश्‍न उपस्थित होता है वहाँ सभी की दृष्टि संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ (यूनाईटेड नेशन्‍स आर्गनाइजेशन) पर जाती है। इस संगठन ने नेशन की जो कल्‍पना प्रस्‍तुत की है वह शास्‍त्र शुद्ध तथा वास्‍तविकता पर आधारित है क्‍या, इस पर विचार करने का कष्‍ट कोई नहीं उठाता? उनकी कार्यान्‍वयन क्षमता के विषय में तो सब जानते हैं, किंतु संपूर्ण जगत् की देखभाल करने का दावा करने वाला यह संगठन क्‍या ''नेशन'' की परिभाषा ठीक ढंग से कर सका है? इस पर विचार करने की आवश्‍यकता है।

लीग ऑफ नेशन्‍स ने राज्‍य (State) और राष्‍ट्र (Nation) को पर्यायवाची (Synonymous) माना था। इस गलती के दुष्‍परिणामों के विषय में भारतीय चिंतकों ने उस समय भी चेतावनी दी थी। प्रेसिडेंट विल्‍सन ने विभिन्‍न मित्र सत्ताओं की बात मानकर जो गलतियाँ की उनमें यह गलती प्रमुख थी कि उसके फलस्‍वरूप ''अल्‍पसंख्‍यकों'' का प्रश्‍न उठा, जिनकी परिणति द्वितीय महायुद्ध में हुई। आज का यू.एन.ओ. इस तरह की गलती से अछूता है क्‍या ? या वह भी अपनी सदस्‍यता देते समय लीग ऑफ नेशन्‍स के समान राज्‍य (State) और राष्‍ट्र (Nation) को पर्यायवाची (Synonymous) मानता है। अभी-अभी कुर्द लोगों की समस्‍या जो सामने आई है वह इस दृष्टि से विचारणीय है कि ईराक, ईरान, सीरिया और तुर्की में बसे हुए कुर्द लोगों की संख्‍या लगभग दो करोड़ है। आज वे विभिन्‍न राज्‍यों में बँटे हुए हैं। सैद्धांतिक रूप से तो इनका अपना पृथक राष्‍ट्र-राज्‍य (Nation-State) बनना चाहिए था। उनकी आज की स्थिति प्रथम महायुद्ध के पश्‍चात् के चेकोस्‍लोवाकिया का स्‍मरण दिलाती है।

लीग ऑफ नेशन्‍स की दृष्टि से यहूदी लोग ''नेशन'' के नाते प्रतिष्‍ठा‍वाहिनी थे। क्‍योंकि उनके पास उनकी अपनी भूमि नहीं थी। भूमि को 'नेशन-संकल्‍पना' का एक अविभाज्‍य अंग माना गया है। द्वितीय महायुद्ध के पश्‍चात् य‍हूदियों ने अपनी भूमि पुन: प्राप्‍त्‍ कर उसमें अपना प्रबल नेशन स्‍थापित किया। शताब्दियों तक निर्वासित यहूदियों की श्रद्धा का केंद्र एक ही भूमि थी, यद्यपि वह उनके कब्‍जे में नहीं थी। यह एक अपवाद था। विशेष मामला था परंतु लीग ऑफ नेशन्‍स इस पर यथार्थवादी दृष्टिकोण नहीं अपना सकी।

संघटक

हमारे प्रगतिशील, स्‍वयंघोषित बुद्धि के ठेकेदारों ने यह प्रचार चलाया है कि हिंदुत्व के समर्थक दकियानूसी हैं। उनका दिल-दिमाग सोलहवीं शताब्‍दी में है। आधुनिक दुनिया की उनको बिल्‍कुल जानकारी नहीं है। कूपमंडूक प्रवृत्ति के कारण सर्वाधिक प्रगति पश्चिम से कुछ भी सीखने की इनकी न इच्‍छा है, न क्षमता ही। इस तरह ' Holier than thou Attitude' मैं तुझसे श्रेष्‍ठ यह दर्शाने की अभिवृत्ति के कारण बिना किसी प्रयास के उनके अहंकार की संतुष्टि हो जाती है, निहित स्‍वार्थ वाले राजनेताओं का संरक्षण भी उनको प्राप्‍त होता है। समाज में प्रगतिशील होने का दंभ भी वह भर सकते हैं। और यह सब मामला बड़े सस्‍ते में संपन्न हो जाता है क्‍योंकि प्रतिगामी, दकियानूसी बनने के लिए जैसे हिंदुत्व समर्थकों को त्‍याग, तपस्‍या, बलिदान लगातार करना पड़ता है वैसा करने की इनको आवश्‍यकता नहीं है। कुशलतापूर्वक प्रचार माध्‍यम से संपर्क करना ही इनके लिए पर्याप्‍त है।

किंतु यह प्रचार भ्रम मूलक और शरारतपूर्ण है। प्रगतिशील लोगों की ''साहेब वाक्‍यम्'' पर अंधश्रद्धा अवांछनीय है। पश्चिमात्‍यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं हो सकता यह पूर्वाग्रह भी अवांछनीय है। हिंदू वृत्ति ''बालादपि सुभाषितम् ग्राह्मम्'' की है। सभी का अध्‍ययन करना और उसमें से ''नीरक्षीर-विवेक'' से तय करना कि क्‍या ग्रह्य है और क्‍या त्‍याज्‍य। यह ज्ञान के सभी क्षेत्रों के लिए लागू है, चाहे वह क्षेत्र विज्ञान का हो, तंत्रज्ञान का हो, तत्‍वज्ञान और दर्शन का हो, या कलाओं का।

नीर-क्षीर विवेक के उदाहरण के रुप में एक आधुनिक शास्‍त्र की ही बात कीजिए। समाजशास्‍त्र अब विकसित हो गया है। किंतु उल्‍लेखनीय बात यह है कि अपनी सामाजिक समस्‍याएं सुलझाने के लिए जिन उपाय योजनाओं का व्‍यावहारिक अवलंबन पश्चिमात्‍य लोगों ने किया उनका विवेचन, कुछ अपवाद छोड़ दिए तो साधारणत: उनके समाजशास्‍त्रीय ग्रंथ में उपलब्‍ध नहीं है। उनके दर्शन के इतिहास (Philosophy of History) के ग्रंथ तथा इतिहास के अर्थ शास्‍त्रीय स्‍पष्‍टीकरण के ग्रंथ हमारे लिए सहायक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ प्राध्‍यापक फ्लीट (History of Philosophy of History) का या प्राध्‍यापक सेलिगगन का (Economic Interpretation of History)।

यूरोप की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन का इतिहास उद्घोषक है, किंतु उसको अनुप्रयुक्‍त समाजशास्‍त्र (Applied Sociology) कहना पड़ेगा। उनका ग्रंथिक या ग्रंथबद्ध समाजशास्‍त्र हमारे काम का नहीं है क्‍योंकि उसमें यह नहीं दिया गया है कि उन्‍होंने समकालीन सामाजिक प्रश्‍नों का हल किस प्रकार किया। विविधता में एकता निर्माण कैसे करना इसका उत्तर देने वाला साहित्‍य यूरोपीय समाजशास्‍त्र में नहीं है। किंतु समाज के एकात्‍मीकरण के विषय में उनका अनुप्रयुक्‍त इतिहासशास्‍त्र बहुत उपयुक्‍त हो सकता है। इंगलिश, वेल्‍स, स्‍कॉच, आयरिश, समूहभेद हैं। बेल्जियम में फ्लेमिश और वालून का भेद है। स्‍पेन तथा पूर्व यूरोप में भी इसी तरह का समूह भेद है।

अनुप्रयुक्‍त समाजशास्‍त्र याने क्‍या? रोमन राज्‍य की प्रारंभिक अवस्‍था में उनके पास महिलाओं की संख्‍या कम थी, इसलिए परजातीय महिला किसी भी मार्ग से प्राप्‍त करना उनके लिए अनिवार्य हो गया था। इसके फलस्वरूप उनके इतिहास में एक व्‍यावसायिक प्रक्रिया देखते हैं। वह है गैर रोमन लोगों को रोमन लोगों के अधिकार प्रदान करके उनको अपने समाज में समाविष्‍ट कर लेना।

विजेता विलियम नॉर्मण्‍डी के ड्यूक का दासी पुत्र था। नॉर्मण्‍डी में उसका सामाजिक स्‍थान तथाकथित नीच जाति का माना जाता था। इंग्लैंड में विजेता बनने के बाद उसने अपने सैनिकों और सरदारों के विवाह स्‍थानीय सेक्‍शन तथा ब्रिटेन जातियों के जमींदार वर्ग में करवाए।

पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्‍दी में इटली में औद्योगिक जातियां निर्माण हुई। उन दिनों में किसी को भी कारीगरी सिखाते समय यह देखा जाता था कि वह व्‍यक्ति वही काम करने वाली जाति को स्‍त्री से पैदा हुआ है या नहीं।

कार्डिनल रिश्‍ल्‍यू नए प्रकार की कृषि जानने वाले लोग तथा विविध कारीगर हालैंड से अपने फ्रांस में लाया। और देशी लोगों के साथ उनका विवाह कराकर उन्‍हें फ्रेंच बनाया गया।

दक्षिण अफ्रीका का जो हिस्‍सा पुर्तगालियों के पास था उसका पुर्तगालीकरण करने हेतु उन्‍होंने वहाँ कैथोलिक पंथ का प्रचार किया वहाँ के सिद्दी पुरुषों का विवाह पुर्तगाली स्त्रियों के साथ करा दिया। उन्‍होंने सिद्दी लोगों के साथ विवाह करने की शर्त मान ली। उन एक लाख महिलाओं को पुर्तगाल से वहाँ भेजा गया और उनको वहाँ जमीनें दी गईं। गोवा में हिंदुओं से ईसाई बने लोग जाति भेद मानते हैं इसलिए वहाँ पोप जाति भेद को स्‍वीकार करने वाला अध्‍यादेश निकालने के लिए बाध्‍य हो गए।

ये सब व्‍यावहारिक समाजशास्‍त्र के उदाहरण हैं। यह ''नीर-क्षीर विवेक'' उन बुद्धि के ठेकेदारों ने स्‍वार्थवश छोड़ दिया है।

दूसरी बात यह है कि जिस समय ये हिंदू राष्‍ट्र कल्‍पना की शास्‍त्रशुद्धता सिद्ध करने के लिए चुनौती देते हैं, उस समय वे स्‍वयं ने ''हिंदू'' के बारे में कुछ समझने का प्रयास करते हैं, न राष्‍ट्र के बारे में। और जिस ठाठ के साथ ये लोग ललकारते हैं कि आधुनिक याने पश्चिमी मापदंड की कसौटी पर हिंदुओं की राष्‍ट्रीयता सिद्ध करके दिखाओ उससे उनकी यह धारणा स्‍पष्‍ट होती है कि आधुनिक पश्चिम के पास ''नेशन'', ''नेशनलिज्‍म', ''नेशनहुड'' को कोई एक सुस्‍पष्‍ट सुनिश्चित संकल्‍पना है,, उसकी सुस्‍पष्‍ट सुनिश्चित परिभाषा है, उसका सर्वमान्‍य स्वरूप है, सर्वमान्‍य घटक (Ingredients) हैं, सभी का सर्वमान्‍य एक दृष्टिकोण बस कभी केवल इस बात की है कि रात सब पश्चिम से उठाकर यहाँ लाना और उनकी कसौटी पर हिंदूराष्‍ट्र संकल्पना को परखना। सबकी परीक्षा लेने का दावा करने वाले ये स्‍वयं नियुक्‍त बुद्धि के ठेकेदार या तो स्‍वयं इस विषय में पश्चिम की भूमिका के बारे में जानकारी नहीं रखते, या यदि जानकारी रखते हैं तो जानबूझकर जनता को गुमराह कर रहे हैं।

''नेशनलिज्‍म कितने स्‍वरूप''?

किसी भी कालखंड में, किसी भी भू-भाग में जो मान्‍यता प्रचलित रहती है, समूहगत अस्मिता पर उसका अमिट परिणाम होता है। उसी का स्वरूप नेशनलिज्‍म है। फ्रांस की राज्‍य क्रांति की तत्‍वत्रयी ने प्रारंभिक ''नेशनहुड्स'' को प्रभावित किया। उस समय मान्‍यता बन गई कि नेशनलिज्‍म का स्वरूप लोकतंत्रवादी, उदार ही रहता है। ब्रिटेन के नेशनलिज्‍म की परिणति साम्राज्‍यवाद में हुई जिसका प्रतिनिधित्‍व रूडयार्ड कि‍पलिंग, जे.ए. क्राम्‍ब (Cramb), सर जॉन राबर्ट सीली, कर्जन और चर्चिल जैसे व्‍यक्तियों ने किया। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व 'Blood and Soil' के सिद्धांत पर आधारित, विस्‍मार्क हिटलर से प्रभावित ''स्‍वयंमेव'' अस्तित्‍ववादी, कट्टरपंथी नेशनलिज्‍म का विकास जर्मनी में हुआ। परिणामस्वरूप गुरुदेव रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर जैसे महापुरुष भी नेशनलिज्‍म की उपयोगिता के विषय में संदेह दृष्टि से देखते थे।

संस्‍कृति

संसार में कई रिलीजन्स हैं। हर एक रिलीजन के अनुयायियों के लिए उनका अपना रिलीजन वैसे ही सर्वश्रेष्‍ठ तथा प्रिय हुआ करता है जैसे हर एक व्‍यक्ति को उसकी अपनी माता। अतएव विभिन्‍न रिलीजनों की तुलना सभी को अप्रिय तथा अव्यहार्य प्रतीत होती है। हिंदुओं के सभी कई रिलीजन हैं किंतु ''हिंदू'' नाम का कोई रिलीजन नहीं है।

उपासना-पद्धति हर एक रिलीजन का अनिवार्य अंग है। किंतु उसके साथ ही रिलीजन के निर्माणकाल में रिलीजन के जन्‍मस्‍थान में विद्यमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में समाज के जीवन की दृष्टि से उचित सामाजिक नियम तथा सामाजिक तत्‍वज्ञान प्रदान करना, रिलीजन के संस्‍थापक के लिए आवश्‍यक हो जाता है। नियम तथा तत्‍वज्ञान स्‍थल-काल-परिस्थिति सापेक्ष हुआ करता है। परिस्थितियों में जैसे-जैसे परिवर्तन होगा वैसे-वैसे तदनुकूल परिवर्तन इनमें भी करने पड़ते हैं। इस कारण ये सामाजिक नियम तथा तत्‍वज्ञन सर्वकालिक तथा सर्वदेशिक नहीं हो सकते। केवल उपासनापद्धति सर्वकालिक तथा सर्वदेशीय हो सकती है।

किंतु इस सभी से अधिक, अतिविशाल, सर्वकष संकल्‍पना संस्‍कृति की है। राष्‍ट्र या नेशन का प्राण संस्‍कृति ही हुआ करती है। एक संस्‍कृति का अभाव रहा और नेशनलिज्‍म या राष्‍ट्रीयता के यूरोपीयन विद्वानों द्वारा मान्‍य शेष सभी संघटक विद्यमान रहे, तो भी नेशन या राष्‍ट्र नहीं बन सकता। ग्रीस, रोम, मिश्र आदि राष्‍ट्र समाप्‍त हुए तो इसका मतलब यह नहीं था कि इन देशों में निवास करने वाले सभी लोग नष्‍ट हो गए। वहाँ रहने वाले तो जीवित थे, किंतु उनकी संस्‍कृति नष्‍ट हो गई, इस कारण यह कहा गया कि वे राष्‍ट्र नष्‍ट हो गए।

संस्‍कृति हमेशा एक संघ ही रहती है। वह कभी भी मिलीजुली नहीं रह सकती। शुद्धता संस्‍कृति की प्रकृति है। संकरता उसकी प्रकृति से मेल नहीं खाती। यह सही है कि कोई भी समाज या राष्‍ट्र दुनिया में द्वीप (Island) के समान अलग-अलग नहीं रह सकता। विभिन्‍न कारणों से हर एक समाज या राष्‍ट्र का अन्‍य समाजों या राष्‍ट्रों से संपर्क आता ही है। इस संपर्क के फलस्‍वरूप दोनों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता ही है। इसी को सांस्‍कृतिक समागम (Cultural Intercourse) कहा जाता है। कोई संस्‍कृति इस समागम या संस्‍पर्श से मुक्‍त नहीं रह सकती किंतु इस समागम के परिणामों को अपने मूल प्रकृति में आत्‍मसात करते हुए एक संघ संस्‍कृति गंगा के प्रवाह की तरह आगे बढ़ती है। गंगा निरंतर गतिमान है। मार्ग में उसमें स्‍थान-स्‍थान पर छोटी-बड़ी नदियाँ और नाले भी मिल जाते हैं। इस सबको आत्‍मसात करते हुए एकसंघ गंगा आगे बढ़ती है। उस प्रवाह को मिलीजुली गंगा नाम नहीं दिया जाता। हर एक हिंदू परिवार में विवाह के माध्‍यम से दूसरे परिवार की लड़की प्रवेश करती है। किंतु इस कारण उसको दोनों का मिलाजुला परिवार नहीं कहा जाता। परिवार की अपनी अस्मिता यथापूर्व कायम रहती है। नवागत लड़की का गोत्र, कुलाचार, कुलधर्म आदि बदल जाते हैं, और वह इस परिवार में आत्‍मसात हो जाती है। घुल जाती है। यही बात संस्‍कृति की भी है। संपर्क में आने वाली अन्‍य संस्‍कृतियों की ग्रहण योग्‍य विशेषता को पूर्णरूप से आत्‍मसात करके अपना सातत्‍य यथापूर्व रखते हुए संस्‍कृति का प्रवाह निरंतर गतिशील रहता है। मिलीजुली संस्‍कृति की बात उतनी ही अवास्‍तविक है जितनी सांस्‍कृतिक समागम को अमान्‍य करने की। यह आवश्‍यक नहीं कि संस्‍कृति का दायरा तथा रिलीजन का दायरा अनिवार्य रूस से समव्‍याप्‍त हो। जैसे एक ही रिलीजन में विभिन्‍न संस्‍कृतियों के लोग रह सकते हैं वैसे ही एक ही संस्‍कृति के दायरे में विभिन्‍न रिलीजनों के लोग भी रह सकते हैं। रिलीजन तथा संस्‍कृति एक दूसरे के संपर्क में आने के बाद एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। एक दूसरे पर उनकी क्रियाएँ प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं। किंतु दोनों की अस्मिताएँ तथा दायरे अलग-अलग हुआ करते हैं।

यूरोपीय समाजशास्त्रियों ने नेशन के निर्माण के लिए जो आवश्‍यक संघटक गिनाए हैं उनमें रिलीजन का भी समावेश है। ये सभी तत्‍व राष्‍ट्रीयता या नेशनहुड (Nationhood) की निर्मिति में योगदान करते हैं। किसी भी नेशन के निर्माण के काम में आए संघटकों की संख्‍या जितनी अधिक होगी उसकी राष्‍ट्रीय या नेशनहूड का घनत्‍व भी उतना ही अधिक रहेगा। किंतु उन तत्‍वों में से कोई भी संस्‍कृति जितना अनिवार्य नहीं है।

('राष्‍ट्र संकल्‍पना' की मा. ठेंगड़ी जी द्वारा लिखी गई भूमिका 90 पृष्‍ठों तक विस्‍ता‍रित है जिसका स्‍थानाभाव के कारण इस ग्रंथ में केवल प्रारंभिक अंश ही समाहित किया जा सकता है।

दहलीज पर

(बडे़ भाई श्री रामनरेश सिंह , पूर्व महामंत्री भा.म.संघ स्‍मृति ग्रंथ के लिए मा. ठेंगड़ी जी द्वारा लिखी गई प्रस्‍तावना)

'Slowly and sadly we laid him down.

From the field of his fame fresh and gory.

We carved not a line, we raised not a stone

But we left him alone with his glory.

(From The Burial SJM)

''तान् प्रति नैष यत्‍न: ''।

''दहलीज पर'' लिखने के लिए बैठा हूँ।

एक वाक्‍य का तीव्र स्‍मरण हो रहा है।

कुम्‍हरे की लड़ाई में मल्‍हारराव होलकर की आँखों के सामने उनका पुत्र खंडेराव तोप के गोले से मारा गया।

शोक विह्नल मल्‍हारराव ने कहा, ''वास्‍तव में मेरा श्राद्ध तुम्‍हें करना चाहिए था, आज मैं तुम्‍हारा श्राद्ध कर रहा हूँ।''

दिल की गहराई के उत्‍कट भाव दिल वाले ही समझ सकते हैं, कंप्यूटर नहीं समझ सकता।

न ही समझ सकते हैं, वे व्‍यवहारचतुर पुरुष जो संपर्क में आने वाले सभी व्‍यक्तियों को अपनी इच्‍छापूर्ति के लिए शतरंज की गोटियाँ मात्र मानते हैं।

एक प्रसिद्ध व्‍यक्ति ने कहा है,

"The heart has reason that Reason does not know."

आसमान के सितारों के साथ प्‍यार करने वाले ''व्‍यवहारशून्‍य'' लोगों के लिए ही यह स्‍मृति ग्रंथ संकलित किया गया है, चतुर पुरुषों के लिए नहीं। तान्प्रति नैष यत्‍न:।

चीनी भाषा में एक कहावत है : -

"If you want to plan for a year, plant corn.

If you want to plan for 30 years. plant a tree.

But if you want to plan for 100 years. plant men."

आज का कोई भी 'बुद्धिमान' व्‍यक्ति तीसरे प्रकार की योजना बनाने की गलती नहीं करता।

वह मेथी की सब्‍जी लगाता है, आम या अखरोट का पेड़ नहीं।

ऐसे बुद्धिमान व्‍यक्तियों में बड़े भाई की गिनती नहीं होती थी।

इसी कारण वे हमें प्रिय, आदरणीय वंदनीय प्रतीत होते हैं।

* * *

बड़े भाई का स्‍वभाव अनुशासनप्रिय, व्‍यवस्‍था-प्रधान था। हर कार्य वे नियम समय पर ही करते थे। देरी से स्‍टेशन पर आने के कारण ट्रेन निकल गई, ऐसा प्रसंग उनके जीवन में कभी नहीं आया। ट्रेन के नियम समय के बहुत पूर्व स्‍टेशन पर आकर वे प्रतीक्षा कर रहे हैं, यह दृश्‍य भी कभी किसी ने देखा नहीं।

ट्रेन पकड़ने के विषय में बड़े भाई ने जल्‍दबाजी जीवन में एक ही बार की-मृत्‍यु की ट्रेन पकड़ने के विषय में।

* * *

अपने जीवन को सफलता के सर्वोच्‍च बिंदु पर डॉन ब्रेडमैन ने क्रिकेट के क्षेत्र से निवृत्ति की घोषणा की तो एक पत्रकार ने प्रश्‍न किया, ''वर्तमान यश की स्थिति में आपने निवृत्ति का निर्णय क्‍यों किया ᣛ?''

ब्रेडमैन ने उत्तर दिया, ''So than you should ask me, Why? And not "why not?" (इसलिए कि आप मुझसे 'क्यों' के स्‍थान पर क्‍यों नहीं? प्रश्‍न न पूछें।)

हमारे देश में समान परिस्थिति में इसी प्रश्‍न का यही उत्तर अजीत वाडेकर ने दिया था। क्‍या दुनिया से निवृत्त होते समय बड़े भाई का मन भी इस उत्तर से प्रभावित था ? पता नहीं।

किंतु उनकी महानिवृत्ति के पश्‍चात् सभी के मन में वही प्रश्‍न उभर आया, जो इन दोनों पत्रकारों ने उपस्थि‍त किया था।

* * *

यह प्रस्‍तावना लिखते समय एक बात अखर रही है। बड़े भाई के कई गुणों का उल्‍लेख इसमें आता है। किंतु उनसे संबंधित घटनाओं का उल्‍लेख जानबूझकर टाला है क्‍योंकि ये घटनाएँ ताजी हैं और जीवित व्‍यक्तियों से संबंधित हैं। अतएव नाम निर्देश करते हुए लिखना इस समय संगठन शास्‍त्र के अनुकूल नहीं है। ग्रेटब्रिटेन तथा अन्‍य कुछ देशों में ऐसी प्रथा है कि कुछ महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज तुरंत प्रकाशित न करते हुए तीस साल के बाद प्रकाशित करना। इस प्रथा के पीछे भी शायद इसी तरह की मानसिकता होगी।

किसी भी बड़े समुदाय को चलाने वाले व्‍यक्ति में दो तरह के गुणों की आवश्‍यकता हुआ करती है। वह कुशल संगठक (Organiser) भी हो और समर्थ प्रशासक (Administration) भी। संगठन (Organisation) और प्रशासन (Administration) दोनों वर्तुल (Overtapping) हैं किंतु पूरी तरह से एकरूप (Identical) नहीं। प्रशासन (Administration) का संबंध प्रमुख रूप से वाह्य, वस्‍तुनिष्‍ठ व्‍यवस्‍था से, मशीनरी से रहता है, और संगठन (Organisation) का प्रमुख विषय संबंधित लोगों की आत्‍मनिष्‍ठा प्रेरणा तथा उनका परस्‍पर सामंजस्‍य हुआ करता है। यह आवश्‍यक नहीं कि जो एक विषय में कुशल ही होगा। किंतु भारतीय मजदूर संघ का यह सद्भाग्‍य है कि उसके महामंत्री में दोनों गुणों का सुखद संयोग था।

परम पूजनीय श्रीगुरुजी के व्‍यक्तित्‍व का बहुत गहरा असर बड़े भाई के मन पर था। ''कि' कर्म किमकर्मेति'' क्‍या करें, क्‍या करें, क्‍या न करें, यह मानसिक द्वंद्व हर मनुष्‍य के जीवन में कभी कभी उपस्थित होता है। ऐसे अवसर पर वे एका‍ग्रचित से यह कल्‍पना करने का प्रयास करते थे कि उस परिस्थिति में श्रीगुरुजी होते तो वे क्‍या निर्णय करते। उनकी कल्‍पना किसी सीमा तक सही या गलत निकलती थी, यह तो वे ही बता सकते थे, किंतु महत्‍व की बात यह थी कि द्वंद्व की स्थिति में वे श्रीगुरुजी को संदर्भ बिंदु ( Point of reference) मानते थे।

स्‍वयंसेवक के नाते बड़े भाई के लिए सर्वश्रेष्‍ठ व्‍यक्तित्‍व पूजनीय सरसंघचालक जी का था। उनकी अंतिम बीमारी के समय उनका स्‍वास्‍थ्‍य देखने के लिए परम पूजनीय बालासाहब पुणे के मुले हास्पिटल में गए तो उसके कारण उनका मन अतीव उल्‍लसित हुआ। ''पुंडली का भेटी परब्रह्म आलेगा''।

उस समय उनकी ऐसी मन: स्थिति थी मानो ''पुंडलीक से मिलने के लिए परब्रह्म आ गया हो ''।

जबसे मेरा बड़े भाई से संबंध आया तबसे मैंने यह अनवरत देखा कि उनका व्‍यक्तिगत, निजी जीवन, तितिक्षा से परिपूर्ण था। तितिक्षा का अर्थ है, ''सहनं सर्वदु:खानाम् अप्रतिकारपूर्वकम्''। वह सब प्रकार के शारीरिक, मानसिक दु:ख सहज भाव से सहन कर लेते थे। और मुझे कष्‍ट तब अधिक होता था जब मैं यह देखता था कि कुछ निकटवर्ती लोग उनकी मन:स्थिति को समझ नहीं पाते थे। किंतु ऐसी अवस्‍था में कुछ कर पाना भी संभव नहीं होता था। मानना पड़ता है कि कुछ लोगों का ग्रहयोग ही इस तरह का होता है। किंतु तितिक्षा की भट्टी में तपने के कारण उनके व्‍यक्तित्‍व का सोना और अधिक निखर उठता था- 'तप्‍तं तप्‍तं पुनरपिनुन: कान्‍तवर्ग सुवर्णम्।

निर्णय करने का कार्य वे आत्‍मविश्‍वासपूर्वक करते थे, तो भी उस विषय में उनका मन बंद नहीं हो पाता था, खुला रहता था। कोई भी निर्णय उपलब्‍ध तथ्‍यों के आधार पर ही किया जा सकता है। निर्णय करने के पश्‍चात् कोई छोटा कार्यकर्ता उनके पास आया और उनके सन्‍मुख कुछ और भी तथ्‍य रखे जिनके परिप्रेक्ष्‍य में उनका पूर्व निर्णय गलत प्रतीत हो सकता है, तो उन नए तथ्‍यों को जाँच कराने में और वे सत्‍य सिद्ध हुए तो उनके प्रकाश में अपना पूर्व निर्णय बदलने में उनको संकोच नहीं लगता था। ''मेरा पूर्व प्रचारित निर्णय मैं कैसे बदलूँ'' यह अहंकार उनके मन में नहीं आता था। संगठन के अंतर्गत न्‍याय मिलेगा, यह विश्‍वास छोटे से छोटे कार्यकर्ता के भी मन में हमेशा रहना चाहिए। इस हेतु अपने अहंकार का विचार बीच में न लाते हुए वे निर्णय में उचित परिवर्तन कर लेते थे। यही बात लेख या ड्राफ्ट के बारे में भी थी। उनके ड्राफ्ट या लेख में कोई भी उचित परितर्वन किसी ने सुझाया तो उसको स्‍वीकार करने में वे कभी हिचकिचाहट नहीं करते थे, फिर वह सुझाव देनेवाला व्‍यक्ति अनुभव, आयु और अध्‍ययन में कितना भी छोटा क्‍यों न हो।

पारिवारिक वायुमंडल का निर्माण उनके सान्निध्‍य और अपरिहार्य, परिणाम था। संघ, मजदूर संघ, विधान परिषद, यहाँ तक कि अंतिम बीमारी में विविध अस्‍पताल आदि, जहाँ-जहाँ वे गए, वहाँ इसी तरह का वातावरण अपने आप निर्माण होता गया। अनेकानेक परिवार उनको अपने अपने परिवार का मुखिया मानते थे। माना जाता है कि ट्रेड यूनियन का क्षेत्र स्‍पर्धा ईर्ष्‍या से हमेशा ओतप्रोत रहता है। किंतु बड़े भाई इस नियम के अपवाद थे। विभिन्‍न यूनियनों और उनके नेताओं कार्यकर्ताओं से उनके घनिष्‍ठ संबंध थे। भारतीय रेलवे मजदूर संघ के लखनऊ अधिवेशन के लिए मान्‍यवर जगदीशचन्‍द्र जी दीक्षित का आना, राष्‍ट्रीय श्रम (विश्‍वकर्मा) दिवस के कानपुर के समारोह की अध्‍यक्षता करने के लिए प्रतिवर्ष नियमित रूप से माननीय मकबूल अहमद साहब का उपस्थित रहना, या भारतीय मजदूर संघ के किसी भी कार्यक्रम को संपन्न करने के लिए माननीय गणेश दत्त जी बाजपेयी का सहर्ष सामने आना, ये सब घटनाएं ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में आश्‍चर्यजनक प्रतीत होने वाली थीं। आगे चलकर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर एन.सी.सी. के नेताओं को भी यही अनुभव आया।

बड़े भाई के सहवास की स्‍वाभाविक परिणति थी अपनेपन का भाव। इससे कोई भी व्‍यक्ति अछूता नहीं रह सकता था। बनारस के रेलवे कर्मचारी के केस के लिए तत्‍कालीन रेल मंत्री श्रीमान कमलापति जी त्रिपाठी के निवास पर दरबान, चपरासी, सेक्रेटरी आदि सबको पीछे ढकेलकर सीधे पंडित जी के प्राइवेट कमरे में घूमनेवाले, विंध्‍याचल निवासी गणेश जी हों, या अस्‍पताल के कमरे का वायुमंडल प्रसन्‍नता का रहे, इस हेतु से अपनी विशेष शैली में दाहिना हाथ ऊपर उठाकर, हाँ, बड़े भाई ! बी.एम.एस 'जिंदाबाद', यह नारा देने वाली पूना के मुले हास्पिटल को सिस्‍टर खुर्शीद हो, सभी के मन में उनके सहवास के कारण एक ही भव समान रूप से निर्माण होता था- आत्‍मीयता का।

बड़े भाई का परिवार एक आदर्श हिंदू संयुक्‍त परिवार है। भारतीय मजदूर संघ की कार्यसमिति की बैठक वाराणसी में हुई थी। बैठक समाप्‍त होने के पश्‍चात् कार्यसमिति के सभी लोग बड़े भाई के गाँव ''बगही'' गए। हमारे साथ कुछ महिलाएं भी थीं। वहाँ जाने के बाद उस विशाल परिवार के छोटे-बड़े, पुरुष-महिला, सभी लोग जिस तत्‍परता से हम लोगों की सेवा में जुट गए, यह देखकर हम सभी चकित हुए। वह आदर्श पारिवारिक भाव का एक अनोखा दृश्‍य था। परिवार के सभी सदस्‍यों के मनोरचना इस तरह की रहे, यह सुसंवादित्‍व आश्‍चर्यजनक था। उनके बड़े भाई श्री रमाशंकर सिंह जी हमेशा कांग्रेस के कार्यकर्ता रहे हैं। किंतु उसके कारण पारिवारिक प्रेम में किंचित भी न्‍यूनता नहीं आई। हाँ, वे हँसते-हँसते यह अवश्‍य कहा करते थे कि ''मैं तुम संघवालों की एक बात समझ नहीं सका हूँ, मैं बड़ा भाई हूँ, रामनरेश मेरा छोटा भाई है, लेकिन आप संघ वाले छोटे भाई को ''बड़े भाई'' के नाम से पुकारते हो।'' यह सब वह प्रेम से हँसी-मजाक में कहते थे। पूरे परिवार में व्‍याप्‍त इसी प्रसन्‍न प्रेम के वायुमंडल का अनुभव हमने किया।

उनकी पत्‍नी के बारे में क्‍या कहा जाए? वह कुछ दिनों के लिए लखनऊ रही थीं। उस समय लखनऊ के मजदूर संघ के कार्यकर्ता कहा करते थे कि भाभी जी को देखकर हमें लक्ष्‍मण की उर्मिला की याद आती है। बड़े भाई की अंतिम बीमारी में जब भाभी जी थोड़े दिनों के लिए बंबई आकर रहीं तो वहाँ के कार्यकर्ताओं ने उनके जीवन की तुलना सीता जी के कठोर जीवन से की। उनका पूरा जीवन एक उग्र तपश्‍चर्या था। किंतु यह सब सहन करते हुए भी हृदय में कहीं रोष, दु:ख या कटुता नहीं। संपर्क में आने वाले सभी व्‍यक्तियों के साथ व्‍यवहार मीठा, स्‍नेह का। हमेशा हँसता मुख। यह बहुत कठिन परीक्षा है।

भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता में वे आत्मिक समाधान तथा आत्‍मविश्‍वास का अनुभव करते थे। शोषित-पीड़ित-दलित जनों के साथ आंतरिक सह-सहानुभूति, हर तरह के अन्‍याय के विषय में चिढ़ तथा उसके खिलाफ लड़ने की नित्‍यसिद्धता, गरीबों के सुख-दु:ख में सहभागी होने की स्‍वाभाविक प्रवृत्ति आदि बातें उनके सहज स्‍वभाव का सहज अंग थीं। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि ''गुणकर्मविभागश:'' वे भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता थे। वह भारतीय मजदूर संघ को केवल ट्रेड यूनियन नहीं मानते थे। उनकी यह धारणा थी कि यद्यपि कानून की दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ एक ट्रेड यूनियन ही है, किंतु प्रेरणा की दृष्टि से वह ईश्‍वरीय कार्य का एक प्रभावी साधन है। संगठनात्‍मक तथा संवैधानिक दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ एक स्‍वायत्त संगठन है। कोई भी संस्‍था राष्‍टीय स्‍वयंसेवक क विंग नहीं है। सत्‍य यह है कि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की विंग केवल उसके स्‍वयंसेवक हैं। किंतु राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ से संस्‍कार तथा प्रेरणा प्राप्‍त कर मजदूर क्षेत्र में काम करने वाले बड़े भाई की श्रद्धा थी कि प्रेरणा तथा दिव्‍य पावित्र्य की दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ का कार्य ''त्‍वदीयाय कार्याय'' का एक अविभाज्‍य अंग है। यह कार्य करते रहना ही भगवान की श्रेष्‍ठ पूजा है।

अन्‍य क्षेत्रों में प्रतियोजित (On Deputation) काम करने वाले कार्यकर्ता की मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए, इस विषय में एक आदर्श उदाहरण बाजीराव का है। उन्‍होंने जब कार्यभार संभाला, हिंदवी स्‍वराज्‍य के पास साधन, स्रोत तथा मनुष्‍यबल बहुत सीमित था। जबकि रणनीति की मांग थी कि दिल्‍ली की दिशा में दिग्विजय के लिए आगे बढ़ा जाए। उस समय बाजीराव ने छत्रपति शाहू महाराज से प्रार्थना की थी कि वह उत्तरदिग्विजय के लिए उनको केवल आदेश दें, इस कार्य के लिए आवश्‍यक धन, साधन, सेना आदि सबकुछ जुटाने का काम बाजीराव स्‍वयं करेंगे, इसके लिए वे छत्रपति को परेशान नहीं करेंगे, छत्रपति केवल आदेश दें। वैसा आदेश दिया गया और तद्नुसार सब आवश्‍यक साधन एकत्रित करके बाजीराव ने चंबल तक का प्रदेश हिंदुवी स्‍वराज्‍य में शामिल कर लिया। लोगों की धारणा थी कि यह कार्य अद्भुत था। किंतु इसके कारण उनके मन में अहंकार और व्‍यक्तिवाद निर्माण नहीं हुआ। एक अवसर पर दक्षिण के कुछ लोगों ने उनको आदरपूर्वक ''स्‍वामी!" कहकर संबोधित किया तो इस पर वे बोल उठे। ''हम कहाँ के स्‍वामी ? हमारे स्‍वामी तो सतारा में हैं।'' (सतारा में शाहू छत्रपति का निवास था )। असामान्‍य कर्तृत्‍व होते हुए भी संपूर्ण आत्‍मसमर्पण। अहम् का नाम नहीं। ''बुद्धिमत्ता वरिष्‍ठ'' और ''वानरयूथपति'' होते हुए भी ''श्रीरामदूत''। सेव्‍य-सेवक भाव का यह आदर्श बड़े भाई के जीवन में भी प्रकट हुआ। मातृसंगठन पर बोझ नहीं डाला। अपने कर्तृत्‍व से मजदूर संघ का कार्य बढ़ाया, किंतु मातृसंगठन के प्रति शतप्रतिशत आत्‍मसमर्पण भाव सदैव मन में जागृत रखा।

परमपूजनीय श्रीगुरुजी के बताए हुए त्रिविध पथ्‍यों का पालन उन्‍होंने निष्‍ठापूर्वक किया। अपने क्षेत्र में कार्य की रचना संघ के आदर्शों के प्रकाश में किया। संघ की रीति-नीति-पद्धति मजदूर क्षेत्र में चलायी। संघ शाखा के साथ नित्‍य-संबध निरपवाद रूप निभाया। अंतिम बीमारी में अस्‍पताल में भी उनके झोले में निकर अवश्‍य रहती थी।

बड़े भाई की धैर्य की परीक्षा लेने वाले कई प्रसंग उनके जीवन में उपस्थित हुए। उलझनें संगठन के अंदर या बाहर पैदा होने वाली दोनों तरह की हो सकती हैं। एक तो इस तरह की कि जिसमें अविलंब आपरेशन करना ही उचित होता है। सिकन्‍दर ने ''गार्जियन नॉट'' को तलवार से तोड़ा था। कुछ मामले इस कहावत का स्‍मरण दिलाते हैं कि जल्‍दबाजी का काम शैतान का, या सब्र का फल मीठा होता है ऐसे मामलों में आपरेशन तो करना पड़ता है, किंतु खटाक से नहीं कुएँ से पानी निकालने के लिए उपयोग में आनेवाली रस्‍सी हमेशा कुएँ के पत्‍थर से घिसती रहती है। इस प्रक्रिया में वह धीरे-धीरे टूटती रहती है और पत्‍थर पर भी धीरे-धीरे घिसाई का निशान अंकित होता रहता है। यह प्रक्रिया अखंड चलती रहती है। किंतु इस प्रक्रिया से रस्‍सी टूटने में बहुत देर लगती है। छेनी और हथौड़ी से लोहे की पट्टी को तोड़ना आसान है किंतु रेगमाल (Sand Paper) से अनवरत घिसते रहना और उस प्रक्रिया के परिणामस्‍वरूप पट्टी को तोड़ना कठिन काम है। इस प्रक्रिया में पट्टी तोड़ने वाले के धीरज की परीक्षा होती है।

मनोविज्ञान की गहरी जानकारी न रखने वाले कार्यकर्ता, बुद्धिमान होते हुए भी, यह ठीक तरह से तय नहीं कर पाते कि मामला किस श्रेणी का है--- ''गार्जियन नॉट'' (खटाक से काट देने) की श्रेणी का या ''सैंडपेपर ट्रीटमेंट'' की श्रेणी का। और एक बार यह भी तय हुआ कि मामला दूसरी श्रेणी का है तो भी उसको ठीक ढंग से निभाना कई कार्यकर्ताओं के लिए असंभव हो जाता है, क्‍योंकि इसमें लगातार लंबी अवधि तक मानसिक तनाव सहन करना पड़ता है। इसके लिए मजबूत नसों की (Strong Nerves) की आवश्‍यकता होती है। जिनकी नसें इतनी मजबूत नहीं, उनका दम जल्‍दी उखड़ता है। वे अधीर हो जाते हैं। उनको लगता है कि मामले को जैसे-तैसे शीघ्र निपटाया जाए। अपने अधैर्य के कारण वे उचित क्षण तक प्रतीक्षा करने में असमर्थ हो जाते हैं, और फिर उनके द्वारा उठाया गया कदम कार्य की हानि करने वाला सिद्ध होता है। ऐसे मामले में बड़े भाई का धीरज असाधारण था। बड़े भाई के व्‍यवहार के संदर्भ में यूरोप के एक बड़े नेता के बारे में लिखा गया इस वाक्‍य का स्‍मरण होता है कि ''His patience was infinite; He could wait and watch until others got impatient, acted and failed,"

आपातकाल में बड़े भाई को भारतीय मजदूर संघ के महामंत्री पद का दायित्‍व सौंपा गया। उन दिनों उसका निर्वाह करना बहुत ही कठिन था। तत्‍पश्‍चात आई परिस्थितियाँ भारतीय मजदूर संघ के लिए और भी उलझन पैदा करने वाली थीं। अपने अपयश तथा अक्षमता के लिए किसी न किसी को बलि का बकरा (Scapegoat) बनाने की चतुराई राजनैतिक लोगों में हुआ करती है। बकरे की भूमिका ट्रेड यूनियन को देना उनके लिए आसान हो जाता है। यद्यपि जनमानस में राजनेता की प्रसिद्धि-प्रतिष्‍ठा ऊँची हुआ करती है, परंतु ऐसे नेताओं का भंडाफोड़ करना कठिन कार्य नहीं होता। किंतु ऐसे रहस्‍यफोट के परिणामस्वरूप राजनैतिक अस्थिरता बढ़ सकती है, जिसका परिणाम अपने पूरे परिवार के लिए दूरदृष्टि से अच्‍छा नहीं रहेगा, ऐसा ध्‍यान में आया तो फिर सारा मिथ्‍या दोषारोपण सहन करते हुए संयम बरतना श्रेष्‍ठ नेतृत्‍व का गुण है।

इस प्रकार के संयम के कारण स्‍वयं अपनी बदनामी को दूर करना असंभव हो जाता है और विशेष बात यह कि जिनके दूरगामी हितों की रक्षा करने के लिए यह संयम रखा जाता है उनको भी अज्ञान के कारण या दायित्‍वहीनता के कारण इस प्रकार के संयम की महत्ता ख्‍याल में नहीं आती। यह सब होते हुए भी अपने वृहत परिवार के सर्वकष हित को प्राथमिकता देते हुए, मन की सात्विक उत्तेजना को नियंत्रित करके हँसते-हँसते अपकीर्ति को हजम कर जाना असामान्‍य गुण है। खासकर उस कालखंड में जबकि योग्‍यताविहीन नेता अपने व्‍यक्तिवाद को बढ़ावा देने के लिए आज के प्रचारतंत्र के सुपरिचित, सुलभ किंतु प्रतिष्‍ठाशून्‍य मार्गों से अपनी प्रतिमा उज्‍ज्‍वल दिखाने का प्रयास कर रहे हों। यह असामान्‍यता बड़े भाई भी थी। उनके निकटस्‍थ सहयोगी ही यह बात जान सकते थे।

महामंत्री बनने के पश्‍चात् संगठन में जो कुछ भी होता था उसके पूरी जिम्‍मेवारी वे स्‍वयं पर लेते थे। अच्‍छी घटनाओं का श्रेय लेना तो सरल हैद्व सवाल तब खड़ा होता है जब संगठन में या संगठन द्वारा कोई दु:श्रेय या बदनामी देनेवाला कार्य हो चुका हो। ऐसे समय प्रतिभा-निर्माण के पीछे पड़े हुए हल्‍के और सतही नेताओं की चतुराई इसी में मानी जाती है कि उस दुर्घटना के लिए वास्‍तव में जो कार्यकर्ता जिम्‍मेवार है उस पर सीधा दोषारोपण करते हुए स्‍वयं की भूमिका निष्‍कलंक तथा श्रेष्‍ठ दिखाना। यह चतुराई बड़े भाई के स्‍वभाव में नहीं थी। गलत काम करने वाले कार्यकर्ताओं को वे एकांत में अवश्‍य डाँटते थे। किंतु बाहर के लोगों के साथ बात करते समय ऐसा बताते थे कि ''गलती की पूरी जिम्‍मेवारी मेरी है ''। इस तरह वे अपने कार्यकर्ताओं को पूरा संरक्षण देते थे। अपनी जिम्‍मेवारी दूसरों पर डाल देना (Passing the buck) चतुराई का काम हो सकता है, किंतु यह अच्‍छे नेतृत्‍व के लिए शोभा देने वाला गुण नहीं है। बड़े भाई के स्‍वभाव के कारण उनका मानचित्र इस तरह उभरकर आता है कि वे महामंत्री पद की कुर्सी पर बैठे हैं, सामने बड़ा टेबल है, टेबल पर सामने एक छोटी प्‍लेट रखी है, जिस पर लिखा है - "The buck stops here."

पश्चिम में सालोमन राजा की विशेष प्रतिष्‍ठा है। अपने पिता की मृत्‍यु के समय किशोर सालोमन के कंधे पर एकदम बहुत बड़ा बोझ आया। आयु छोटी, राजकाज बड़ा और उलझनवाला। मन में बार यह प्रश्‍न उठता कि ''कैसे सँभाल सकूंगा इसे''। उस समय वे अपने एकांत कमरे में गए और घुटने टेककर भगवान की प्रार्थना करने लगे। क्‍या माँगा सालोमन ने भगवान से? राज्‍य विस्‍तार ? यशकीर्ति ? नहीं। उन्‍होंने याचना की - "Lord give me an understaning heart." (हे भगवान ! मुझे सूक्ष्‍म दृष्टियुक्‍त पैनी समझवाला हृदय प्रदान कर।) प्रतीत होता था कि बड़े भाई ने भी यही प्रार्थना की थी और भगवान ने ''तथास्‍तु'' कहा था वे सबके मन को सही से समझ लेते थे।

बड़े भाई को इस बात से कितनी तकलीफ होगी यह न जानने के कारण अतिश्रद्धा से उनके पूरे चेहरे पर तैलयुक्‍त कुमकुम लगाने वाली असम के चाय बागान की मजदूर महिलाएँ, भारतीय मजदूर संघ को दबाने की इच्‍छा से संबंधित मंत्री महोदय को गुमराह करने वाले अफसरशाह, केंद्रीय अभियान समिति (एन.सी.सी.) में हिस्‍सा लेने वाले विभिन्‍न केंद्रीय श्रम संस्‍थाओं के सभी नेताओं को बुद्ध और खुद को होशियार समझने वाले छोटी संस्‍था के बड़े नेता, उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में उनको श्रम मंत्री बनाने के लिए बनी सर्वसम्‍मत योजना में बाधा डालने वाले दत्तोपंत ठेंगड़ी, स्‍थानीय स्‍तर पर होने वाले पक्षपात या अन्‍याय के कारण आर्तहृदय से दर्शन के लिए आने वाले भारतीय मजदूर संघ के छोटे कार्यकर्ता सभी का हृदय वे ठीक से समझते थे। ''ये यथा मां प्रपद्यन्‍ते तांस्‍तथैव भजाम्‍यहम्'' - इस कोटि का उचित व्‍यवहार वह सबके साथ करते थे।

तात्‍कालिक लाभ के लिए, फिर वह कितना भी बड़ा क्‍यों न हो, चालाकी या हथकंडे करने की या निम्‍न स्‍तर पर उतर आने की कल्‍पना भी उनके मन को छूती नहीं थी। अपने ध्‍येय की अंतिम और अपरिहार्य विजय पर उनकी दृढ़ श्रद्धा थी। उनकी यह धारणा थी कि अपवित्र साधनों से सिद्ध हुआ पवित्र कार्य भी साधनों की अपवित्रता के कारण अंततोगत्‍वा अपवित्र हो ही जाता है। साधन -शुचिता पर उनका विश्‍वास था ''नहि कल्‍याणकृत कश्चित् दुर्गति तात गच्‍छति'', इस सुभाषित पर उनका पूरा भरोसा था। उनकी ही मान्‍यता थी कि सद्चारित्र्य अपने आप में एक संपूर्ण पारितोषिक है। संकट कितना भी बड़ा क्‍यों न हो, उसके कारण घबड़ाकर बाएं-दाएं देखना उनके स्‍वभाव में ही नहीं था। यश कभी उनके मस्तिष्‍क में नहीं गया। न आपत्ति ने उनके हृदय पर कभी असर किया। विलंब के कारण वे कभी अधीर नहीं हुए। इस तरह व्‍यक्तित्‍व का धनी व्‍यक्ति ही अनुकूल, प्रतिकूल, विरोधी, सुखमय, भीषण दुखदायी-सभी परिस्थितियों में अविचल रहते हुए अपना तीव्र समझदारी वाला विलक्षण हृदय (Understanding Heart) रख सकता है।

अवसरवादी मानसिकता वाले (Weathercock Mentality) उन लोगों के बस की बात नहीं जो परिस्थिति के हर परिवर्तन के समय गिरगिट के समान अपना रंग बदलने में ही व्‍यवहार-चातुर्य का अनुभव करते हैं। ऐसे चतुर लोग बड़े भाई को पागल समझते थे तो बड़े भाई के लिए इससे अधिक अच्‍छा चरित्र प्रमाण-पत्र (Good Character Certificate) और क्‍या हो सकता था। वे तो तुल्‍यनिंदास्‍तुर्तिमौनी इधर-उधर की परवाह न करते हुए अपने ध्‍येय-पथ पर अग्रसर होते रहते थे। अपने प्रत्‍यक्ष व्‍यवहार से कार्यकर्ताओं के सम्‍मुख आदर्श उपस्थित करते रहते थे।

संघ के अखाड़े से निकले हुए वे एक कुशल रणनीतिज्ञ (Strategist) थे किंतु उनकी रणनीति का आधार था विवेक, (Discretion) न कि आजकल का चातुर्य (Diplomacy)। महत्‍व कार्य करने वाले श्रेष्‍ठ ही रहा है। उन्‍होंने भी चालाकी, हथकंडे, तिकड़मबाजी आदि का साहस नहीं लिया। किंतु आजकल हमारे देश में तिकड़म को व्‍यवहार चातुर्य माना जाता है। बड़े भाई ने कभी तिकड़म नहीं किया। फिर भी बाहर वालों के व्‍यवहार तथा संगठन के अंतर्गत निर्माण होने वाली उलझनों को सम्‍हालने में वह हमेशा सफल रहे। विशुद्ध ध्‍येयनिष्‍ठा, संपूर्ण आत्‍मनियंत्रण, अंतिम विजय पर अविचल विश्‍वास और मानवीय मनोविज्ञान के गहरे ज्ञान के परिणामस्‍वरूप उन्‍हें सफलता प्राप्‍त होती थी। जब सामान्‍य स्वयंसेवक के नाते वे काम कर रहे थे, उस समय भी किसी बड़े और मजदूर संघ के सर्वोच्‍च कार्यकारी पद पर आसीन रहते हुए भी छोटे से छोटे कार्यकर्ता का अंतर्भूत बड़प्‍पन समझने में उन्‍हें कभी देर नहीं लगी। विभिन्‍न केंद्रीय श्रम संस्‍थाओं के ख्‍याति प्राप्‍त नेताओं के साथ, या सरकारी मंत्री तथा अधिकारियों के साथ व्‍यवहार करते समय उनके स्‍वभाव की सहजता नित्‍यवत् कायम रहती थी! वैसे छोटे मजूरों के साथ बात करते समय उनकी ईश्‍वरप्रदत्त मानवीय प्रतिष्‍ठा को वे कभी भूलते नहीं थे।

भारतीय मजदूर संघ में नेतृत्‍व की द्वितीय पंक्ति खड़ी करने की दृष्टि से बड़े भाई ने सजग प्रयास (Conscious efforts) चलाए थे। कुशल संगठन होने के कारण सभी यूनियनों के सभी कार्यकर्ताओं के साथ उनका सीधा संपर्क था। हरेक के गुणावगुण की उन्‍हें जानकारी थी। कार्यकर्ताओं के पारस्‍परिक अच्‍छे-बुरे संबंधों का उनको पता था। उनमें से बीजीभूत क्षमता रखने वाले कार्यकर्ताओं का चयन करना, उनके गुणों को बढ़ाने तथा दोषों को दूर करने का प्रयास करना, इस दृष्टि से कार्यकर्ता का अहंकार न बढ़े यह दक्षता लेते हुए उनको प्रोत्‍साहन देना तथा वह निरुत्‍साहित होकर निष्क्रिय न हो जाए, इस सतर्कता के साथ उसको डांट-फटकार करना, पहल (Initiative) करने की कार्यकर्ताओं की क्षमता संगठन के अनुशासन की चौखट के अंतर्गत रखते हुए बढ़ाना, उसकी पहल करने की क्षमता में कमी न आने देते हुए उसे अनुशासनबद्ध बनाना, ध्‍येयवाद के विषय में अलग से चर्चा न करते हुए अपनी व्‍यक्तिगत जीवन शैली से कार्यकर्ताओं के सन्‍मुख ध्‍येयवादी जीवन का आदर्श उपस्थित करना, ये सारी बातें उनके स्‍वभाव का अंग बन गई थीं और इसके फलस्वरूप जगह-जगह कार्यकर्ताओं का आत्‍मविकास होता जाता था।

नेतृत्‍व की द्वितीय पंक्ति इसी प्रक्रिया में से उभरकर ऊपर आई। हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन की आज की अवस्‍था में यह बात असाधारण ही मानी जानी चाहिए, क्‍योंकि प्रवाह इसके ठीक विपरीत दिशा में चल रहा है। जिन्‍होंने केवल अपना व्‍यक्तिगत नेतृत्‍व, नाम और प्रतिमा निर्माण करनी है उनकी प्रवृत्ति, दोनों में स्‍वाभाविक महान अंतर रहता ही है। श्री रिचर्ड वुल्‍फ (Richard Wolff) अपनी पुस्तक "Man at the top" में लिखते है : - "In the case of a leader,perhaps the hardest thing is to help those who stand immediately next-those who hold the trying position of second in command, or who are near enough to the front to be constantly impressed by the fact that they fall shortly of being at the front. The temptation to treat them as possible rivals and to depreciate their figts inseat of magnifying them is constant to everyone but a truly great Man."

ऐसे अपवादभूत वस्‍तुत: महान व्‍यक्ति (Truly great man) का दर्शन बड़े भाई में होता था। भारतीय मजदूर संघ की मजबूती और विकास का यह भी एक बड़ा कारण रहा है।

यह बात सही है कि पारिवारिक, आर्थिक आदि कारणों से बड़े भाई बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा प्राप्‍त नहीं कर सके। किंतु कर सके। किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके अंदर विद्यो‍चित प्रज्ञा (Academic Intelligence) नहीं थी। कई लोग यह बात समझ नहीं पाते कि औपचारिक शैक्षणिक योग्‍यता (Academic Qulifications) स्‍वभावज विद्योचित प्रज्ञा (Academic Intelligence) में अंतर है। गुरुदेव टैगोर या श्री हरिनारायण आप्‍टे की शैक्षणिक योग्‍यता (Academic Qulifications) कितनी थी ? आप्‍टे जी कालेज में प्रवेश नहीं कर पाये थे किंतु उनकी किताबें एम.ए. की परीक्षा के लिए विहित (Prescribe) की गई थीं। वह एम.ए. के विद्यार्थियों के परीक्षक भी रहे। कमाल की बात तो आईन्‍स्‍टीन की है। यह सर्वज्ञात था कि विद्यालयीन जीवन में आईन्‍स्‍टीन को उनके प्राध्‍यापक मंद बुद्धि का मानते थे। शैक्षणिक योग्‍यता अलग बात है, और विद्योचित प्रज्ञा अलग। बड़े भाई में विद्योचित प्रज्ञा स्‍वभावत: प्रकृत्‍या ही बहुत थी परिस्थितिवश वे शैक्षणिक योग्‍यता प्राप्‍त नहीं कर सके। अर्थात इसके कारण सार्वजनिक कार्य की दृष्टि से त्रुटि तो अवश्‍यक आती थी, किंतु यह अनुभव करके सबको आश्‍चर्य होता था कि अपने अथक परिश्रम के आधार पर उन्‍होंने इस त्रुटि की क्षतिपूर्ति कर ली थी। भारतीय मजदूर संघ का महामंत्री पद संभालने के पश्‍चात् तो उन्‍होंने इस दृष्टि से और भी कठोर परिश्रम किए।

अथक परिश्रम

कठोर परिश्रम

प्रदीर्घ कठोर परिश्रम

का ही दूसरा नाम था माननीय बड़े भाई।

कठोर परिश्रम के कारण ही उनका वज्र शरीर असमय ही टूट गया। मजदूर संघ में प्रवेश करने के पूर्व राष्‍ट्रीय स्‍वयंसवेक संघ के कार्य में भी उन्‍हें इसी प्रकार के असहनीय कष्‍ट उठाने पड़े थे, जिनके कारण उन्‍हें प्‍ल्‍युरिसी (Pleurisy) हुई थी। उसमें से दुरुस्‍त होते ही बड़े भाई ने फिर से पूर्ववत् जीवन आरंभ किया, मानो बीच में प्‍ल्‍युरिसी वगैरह कुछ हुआ ही न हो। मजदूर संघ में तो श्रम की मात्रा बढ़ती ही गई। इस कारण उन्‍हें दौरों के समय भी कई बार ज्‍वर रहने लगा। किंतु वे किसी को यह बात बताते नहीं थे और निश्चित कार्यक्रम यथावत् पूरा करते रहते थे। पूरा का मुले अस्‍पताल या बम्‍बई का बुम्‍बई अस्‍पताल यह पहला अस्‍पताल नहीं था, जिसमें उनको लंबी अवधि तक न रहना पड़ा हो। आपातकाल के पूर्व इससे भी लंबी अवधि तक लखनऊ के अस्‍पताल में उन्‍हें रहना पड़ा था। किंतु अपने स्‍वास्‍थ्‍य के विषय में वे किसी से कभी चर्चा नहीं करते थे। ज्‍यूलियस सीजर के बारे में प्‍लूटार्क ने कहा है कि वह जन्‍म से ही मिर्गी (Epilepsy) का मरीज था। और वैसे भी उसकी तबियत नाजुक थी किंतु उसका जीवन क्रम बहुत ही कर्मठता का था। पहला दिन कम कष्‍टकर हो, इस दृष्टि से अपनी गंभीर बीमारी के बहाने का उपयोग ज्‍यूलियस ने कभी नहीं किया। सभी वेदनाएं-व्‍यथाएं सहन करते हुए दिग्विजयी जीवन के लिए उसने स्‍वयं को योग्‍य दिखाया था। बड़े भाई के विषय में भी यही कहना पड़ेगा। कई श्रेष्‍ठ पुरुषों ने यही प्रक्रिया स्‍वीकार की बनिस्‍बत इसके कि-

काकोऽपि जीवति चिराय-वालिं च भुक्‍ते।

व्‍यक्तिगत जीवन औरसंघ जीवन में विविध प्रकार का शिष्‍यत्‍व (Apprenticeship) उन्‍होंने किया था। इस कारण मनुष्‍य के मनोविज्ञान के विषय में उनमें एक प्रकार की अंतर्दृष्टि विकसित हुई थी। अतएव उनको गुमराह करना किसी भी व्‍यवहार चतुर आदमी के लिए संभवनीय नहीं था। दूसरे के अंतर्हेतु को जानने की वे हमेशा कोशिश करते थे। किसी के हाथ से कुछ गलती हुई या अपराध हुआ तो उसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण क्‍या हो सकता है, यह जानने का उनका प्रयास रहता था। व्‍यक्ति स्‍वभावत: दुष्‍ट है, व्‍यक्तिवादी है, ध्‍येयशून्‍य है, यदि ऐसा प्रतीत हुआ तो उसके साथ वे एकदम सख्‍ती का व्‍यवहार करते थे। गलती करने वाला व्‍यक्ति ध्‍येयवादी तो है, किंतु कुछ व्‍यक्तिगत दुर्बलताओं के कारण वह वैसा व्‍यवहार कर रहा है, ऐसा ध्‍यान में आया तो उसके साथ एकदम कठोर व्‍यवहार न करते हुए उसको प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष रूप से समझाकर या अन्‍य मार्ग से उन दुर्बलताओं से मुक्‍त होने में वे उसकी सहायता करने का प्रयास करते थे। ऐसे व्‍यक्ति को छूट (longrope) देने की उनकी तैयारी रहती थी। वे उसे ठीक ढंग से काम करने का एक और अवसर देने के पक्ष में रहते थे।

उनका अनुभव ऐसा था कि अधिकतर लोग गलतियाँ इसलिए करते हैं कि उनको भारतीय मजदूर संघ की रीति-नीति, पद्धति, जीवन मूल्‍य आदि की जानकारी नहीं रहती। देश के सार्वजनिक जीवन में आज जो गलत धारणाएँ, प्रथाएँ, पद्धतियां और संकेत प्रचलित हैं उनको ही स्‍वाभाविक और प्रमाणभूत मानते हुए वे प्रामाणिकता से गलत व्‍यवहार करते हैं। यदि हमने शांत चित्त से धीरज के साथ उनको अपनी रीति-नीति, पद्धति की जानकारी दी तो उसको समझकर वे तत्‍परतापूर्वक अपने व्‍यवहार में बदल भी कर लेते हैं। आवश्‍यकता उनको ठीक ढंग से और धैर्यपूर्वक समझाने की है। ऐसे कार्यकर्ताओं को समझाने में कितनी ही देर लगी तो भी उनका धैर्य टूटता नहीं था। बाहर से देखने वालों को कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता था कि बड़े भाई कभी तो एकदम गुस्‍सा करते हैं और अतुलनीय शांति का परिचय देते हैं, यह क्‍या बात है? इसका रहस्‍य उपरिनिर्दिष्‍ट प्रकार से बारीकी से मनोविश्‍लेषण करने की उनकी क्षमता में था। यह क्षमता उनको प्रदीर्घ शिष्‍यत्‍व और प्रशिक्षण (Apprenticeship) के कारण प्राप्‍त हुई थी।

भारतीय मजदूर संघ में प्रवेश करने के बाद कानपुर ही उनका केंद्र रहा। वहाँ सभी कार्यकर्ताओं को प्रभावित करने वाले उनके गुण अर्थात हर छोटे बड़े काम के तफसील पर मजबूत पकड़ का अनुभव हुआ। वह हर समस्‍या की तह तक जाते थे। हवा में छलांग लगाने वाला स्‍वप्‍नदर्शी (यूटोपयिन) स्‍वभाव उनका नहीं था। वह सब बातों के विषय में सदा चौकस रहते थे। कानपुर के सुरक्षा संस्‍थानों में वर्षों से जमा हुआ श्री एस.एम.बनर्जी दादा का एकाधिकार कैसे समाप्‍त किया जाए। इंटक को बढ़ावा देने वाले राज्‍यीय प्रशासन से मजदूर संघ के लिए प्रादेशिक स्‍तरीय मान्‍यता कैसे प्राप्‍त की जाए। लेनिन पार्क में श्री आई.डी. सक्‍सेना की हत्‍या करने वालों की खोज कैसे की जाए, अँग्रेजी दवाओं का असर बालादीन की तबियत पर नहीं हो रहा, क्‍या इसके लिए आयुर्वेदिक औषधि का प्रबंध करना चाहिए? और संघ कार्यालय में रोटी पकाने वाले बहादुर की शादी का कुछ इंतजाम करना ही होगा। यज्ञदत्त शर्मा की पत्‍नी द्वारा पाले हुए कुत्तों के चक्‍कर से यज्ञदत्त को मुक्ति दिलाने का कोई मार्ग है क्‍या? आदि सभी बातों पर एक ही समय युगपद, पूरा ध्‍यान। सभी विषयों की तफसील पर पूरी पकड़, केवल अपने व्‍यक्तिगत सुख के विषय को छोड़कर।

किसी की भी बात सुनते समय बड़े भाई कही हुई बात तो समझते ही थे, किंतु समय-समय पर उस बात के पीछे बोलने वाले की मन:स्थि‍ति और उसकी परिस्थिति का भी ठीक अंदाजा वे लगा सकते थे। अकारण बात को लंबी बनाने वाले की बात, यदि दूसरा कोई अपरिहार्य कारण न रहा हो, वह बीच में काटते नहीं थे। चापलूसी या खुशामद से उन्‍हें नफरत थी। इसके कारण वास्‍तविकताओं को समझने में आने वाली कृत्रिम कठिनाई से वे मुक्‍त थे। एक ही घटना की ओर विभिन्‍न व्‍यक्ति अलग-अलग दृष्टि से देख सकते हैं। हर एक व्‍यक्ति की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि, प्राप्‍त परिस्थिति में भूमिका, अन्‍य व्‍यक्तियों से समीकरण, अपने ढंग का हुआ करता है। इस कारण समान ध्‍येय निष्‍ठा रखने वाले कार्यकर्ता एक ही घटना का प्रतिवृत अपनी अपनी दृष्टि से अलग अलग ढंग से दे सकते हैं। इसमें एक सही है, दूसरा झूठ या गलत है, यह बात नहीं आती। हर एक कार्यकर्ता सत्‍य ही बोलता है। सत्‍य का जिस तरह का दर्शन विभिन्‍न लोगों को विभिन्‍न प्रकार से होता है। इसलिए हर एक कार्यकर्ता की बात को वे या तो सही या गलत ऐसा नहीं मानते थे। वे मानते थे कि कार्यकर्ता ध्‍येयनिष्‍ठ, वह झूठ नहीं बोलेगा, वह जो बोल रहा है वह उसके सत्‍य की वर्णना (Version) है। इसी दृष्टि से उसकी बात को वह ग्रहण करते थे। ऐसा व्‍यक्ति कच्‍चे कान का हो ही नहीं सकता।

जीवन में विविध क्षेत्रों में प्रत्‍यक्ष कार्य करने वाला कार्यकर्ता होने के कारण उन्‍होंने पर्याप्‍त शिष्‍यत्‍व (Aprenticeship) की थी। संघ कार्य की रगड़ में से वे गए थे। व्‍यक्तिगत जीवन की विविध संपर्क तथा विविध खट्टे-मीठे अनुभवों से युक्‍त था। इस काण उनकी मनोवैज्ञानिक समझदारी बहुत गहरी, ऊँची और वास्‍तविकपूर्ण थी। इस तरह की रगड़ में से न जाते हुए किसी भी एकाध गुण प्रकर्ष के कारण आसानी से ऊँचा पद प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्ति को यह लाभ प्राप्‍त नहीं हो सकता। परिस्थिति में जब उलझन पैदा होती है, एक ही क्षेत्र के समकक्ष कार्यकर्ताओं में अनबन पैदा होने के कारण जब समस्‍याएँ खड़ी होती हैं, अच्‍छे कार्यक्षम कार्यकर्ता के स्‍वभाव के नुकीले कोने जब उसके सहकारी कार्यकर्ताओं को चुभने लगते हैं, बातचीत के गैर-जिम्‍मेवार ढंग के कारण अपने ही वृहत परिवार में जब गलतफहमियाँ पैदा होती हैं, तब पता चलता है कि नेतृत्‍व की वास्‍तविक क्षमता रखनेवाला कौन है।

भारतीय मजदूर संघ का महामंत्री पद बड़े भाई के पास पारितोषिक के रूप में नहीं, आह्वान के रूप में आया था।

आपातकाल ने सभी नेताओं की अग्नि-परीक्षा की। तब तक माना जाता था कि जन नेतृत्‍व केलिए एकमात्र आवश्‍यक गुण यानी लच्‍छेदार भाषण देने की क्षमता है। महाभारतकालीन विराट-पुत्र उत्तर भी इस कला का धनी था। आपातकाल ने स्‍पष्‍ट किया कि नेतृत्‍व अपने आप में स्‍वयं एक परिपूर्ण गुण है। 'सग्र क्रांति' का जोशीला भाषण देने वाले कई नेता इस कालावधि में ''समग्र आत्‍मसमर्पण'' तक पहुँच गए थे। युद्ध काल में ही स्‍पष्‍ट होता है कि चर्चित और चेम्‍बरलेन में, मार्शल पेताँ और दगॉल में कितना अंतर होता है। ट्रेड यूनियन क्षेत्र में यह परीक्षा अधिक तीव्रता से हुई। ''अनुशासन पर्व'' के नाम पर ट्रेड यूनियन के सारे अधिकार छीन लिए गए। आंदोलनों की बात तो दूर, ट्रेड यूनियन का नियमित कार्यालय चलाना कठिन हो गया था। ऐसे समय स्‍वघोषित क्रांतिकारी वामपंथी ट्रेड यूनियन नेताओं की भी मन:स्थिति डावाँडोल हो गई थी। सभी गैर-इंटक यूनियनों ने एकत्रित आकर सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों का प्रगट विरोध करना चाहिए, एक सिद्धांत तो सर्वमान्‍य हुआ, किंतु पहले ही पत्रक पर केंद्रीय श्रम संस्‍थाओं के पदाधिकारियों के हस्‍ताक्षर या नाम रहे, या न रहे यह चर्चा का विषय हो गया। आज इस बात का स्‍मरण मनोरंजक प्रतीत होता है कि उस समय पत्रक पर किसी नेता का नाम नहीं था, केवल संस्‍थाओं के नाम थे। क्रांतिकारी वामपंथियों के कई नेताओं का यह हाल था। उसको क्रियाशील बनाने में मेरे जैसा 'प्रतिक्रियावादी' असफल रहा, यह आश्‍चर्य की बात नहीं। ट्रेड यूनियन क्षेत्र के उस समय के सबसे अधिक वयोवृद्ध नेता सीटू के मान्‍यवर पी. राममूर्ति जी भी कई वामपंथी यूनियन नेताओं का हौसला बढ़ाने में सफल नहीं हो सके थे।

ऐसे समय निर्भयतापूर्वक कार्य करना, पत्रक निकालना, दौरे करना, मजदूरों का हौसला बढ़ाकर उनको संघर्ष के लिए तैयार करना और साठ हजार से अधिक मजदूरों द्वारा कानून को भंग करवाना, यह सब कार्य अद्भुत ही था। भारतीय मजदूर संघ ने यह कार्य मान्‍यवर बड़े भाई के नेतृत्‍व में किया। उनके महामंत्री पद के कार्यकाल का प्रारंभ ही ''योद्धा नता'' के रूप में हुआ। भारतीय मजदूर संघ के अपने सभी सहकारियों को साथ में लेकर बड़े भाई इस अग्नि-परीक्षा में गौरवशाली ढंग से उत्तीर्ण हुए।

संस्‍कृत में सुभाषित है-

रत्‍नैर्महहैंस्‍तुतुषुर्नदेवा:

न मेजिरे भीमविषेण भीतिम्।

सुधां बिना न प्रययुर्विराम

न निश्चितार्थाद् विरमन्ति धीर:।।

आपालकालीन दमनचक्र के भीमविष के कारण भारतीय मजदूर संघ विचलित नहीं हुआ। किंतु आपातकाल की समाप्ति के बाद यह देखा गया कि जो संकट की अवस्‍था मे बहादुरी से लड़ सकते हैं ऐसे वीर पुरुष अनुकूल काल के प्रलोभनों का शिकार भी बन सकते हैं। जनता राज आने के पश्‍चात् अच्‍छे-अच्‍छे लोग और संगठन भी इस तरह की मन:स्थिति में आ गए। कहा गया है कि विजयकाल ही प्रमादकाल होता है। राज्‍य परिवर्तन के पश्‍चात् अवसरवादी सस्‍ती नेतागिरी का प्रभाव एकदम बढ़ गया। मजदूरों के लिए यह सौभाग्‍य की बात थी कि तत्‍कालीन श्रम मंत्री मान्‍यवर रवीन्‍द्र वर्मा इस सस्‍ती श्रेणी के नहीं थे। इस कारण कुछ अच्‍छी बातें उस अवधि में हो सकीं। किंतु कुल मिलाकर शोरगुल अधिकतर सस्‍ती नेतागिरी (Demagogy) का ही था और इस कारण ट्रेड यूनियन क्षेत्र में भी विलीनीकरण का सुझाव आया ताकि इस तरह विलीनीकृत केंद्रीय श्रम संस्‍था जनता सरकार के साथ उसी तरह संबद्ध रहे, जिस तरह इंटक कांग्रेस सरकार के साथ रही। यह बहुत बड़ा प्रलोभन था। किंतु भारतीय मजदूर संघ ने दृढ़ता से इंकार किया। यह निर्णय एकमत से हुआ। भारतीय मजदूर संघ का एक भी कार्यकर्ता राजश्रय की मेनका के मोह में विश्‍वामित्र की मन:स्थिति में नहीं आया। ऐसे कार्यकर्ताओं का नेृतत्‍व बड़े भाई कर रहे थे। आपातकाल में प्रकट हुई वीरता तो श्रेयष्‍कर थी ही किंतु अनुकूल परिस्थिति में प्रकट हुए यह निर्मोहिता उससे भी अधिक श्रेय देने वाली रही। इस कालखंड की विशेषता एक विद्वान लेखक ने वर्णन किया था कि "First class problems confronting second class leadership." किंतु यह वर्णन भारतीय मजदूर संघ को लागू नहीं हो सका। उस पूरी अवधि में मजदूर संघ की बागडोर बड़े भाई के हाथ में थी।

थॉमस कार्लाईस का विभूतिवाद और हर्बर्ट स्‍पेन्‍सर का जनसाधारणकृत रचनात्‍मक प्रतिवाद, दोनों अपने आप में सत्‍य है, किंतु दोनों अर्थ सत्‍य है। परस्‍परावलंबन से ही दोनों मिलकर इस विषय के संदर्भ में पूर्ण सत्‍य का निर्माण कर सकते हैं।

एक साहित्यिक ने कहा कि संसद द्वारा नियुक्ति की हुई किसी उपसमिति के द्वारा 'हैमलेट' जैसी कृति का निर्माण नहीं हो सकता। इसके लिए प्रतिभाशाली लेखक आवश्‍यक है। दूरदृष्टि से भविष्‍य में सोचते हुए अपने ध्‍येय की सिद्धि के लिए वर्तमान में जनसाधारण को अप्रिय प्रतीत होने वाले निर्णय करने और उन पर दृढ़ रहने का कार्य संसदीय उप‍समिति के लोग नहीं कर सकते। 'इंडिया' की ओर जल प्रवास अंतहीन प्रतीत होने के कारण असंतुष्‍ट तथा निराश हुए साथियों के दबाव में कोलम्‍बस नहीं आए। वाटरलू की प्रत्‍यक्ष जॉ लड़ाई के पूर्व फ्रेंच सेना के आघातों से उत्तेजित अपने साथियों को 72 घंटे तक नियंत्रित रखने का कठिन कार्य ड्यूक ऑफ वेलिंग्‍टन ने किया। अफजल खान के द्वारा सब तरह का सार्वजनिक अपमान सहन करते हुए भी शिवाजी ने उत्तेजित होकर अपना पहाड़ी क्षेत्र नहीं छोड़ा। संकट के समय यह संयम (Compartment under fire) जनसाधारण से अपेक्षित नहीं। न ही अपेक्षित है वह दूरदृष्टि और दृढ़ता जो सभी श्रेष्‍ठ पुरुषों ने निरपवाद रीति से प्रकट की है।

किंतु इसका दूसरा पहलू भी विचारणीय है। ऐसे महापुरुषों कभी भी और कहीं भी हठात् निर्मित नहीं होते। समकालीन सामान्‍य जनों से उनका स्‍तर हर तरह से बहु ऊँचा रहता होगा। किंतु किसी भी श्रेष्‍ठ पुरुष का निर्माण करने की बीजीभूत संभावनाएँ उसके देश की भूतकालीन श्रेष्‍ठ परंपरा और संस्‍कृति में सुप्‍तावस्‍था में निहित रहती है। ऐसी परंपरा विद्यमान न रही तो कोई भी महापुरुष एकदम शून्‍य में से अवतीर्ण नहीं हो सकता। समकालीन जनसाधारण का स्‍तर कितना ही गिरा हुआ क्‍यों न रहे, किंतु उनको भी सुयोग्‍य साधन माध्‍यम बनाकर श्रेष्‍ठ पुरुष अपने कार्य को सिद्ध करते हैं। उपरिर्निदिष्‍ट बीजीभूत संभावना का समाज में अभाव रहा तो जनसाधारण श्रेष्‍ठ कार्य का वाहक बन ही नहीं सकता। तीन शताब्दियों तक साधु-संतों द्वारा जनसाधारण का कार्य न होता तो महाराष्‍ट्र में हठात् शिवाजी का उदय न होता। वैसे ही, अन्‍य परिस्थितियाँ समान रहते हुए, शिवाजी का निर्माण न होता तो तानाजी मालुसरे की पीढ़ी से लेकर धनाजी जाधव की पीढ़ी तथा दक्षिण में सामान्‍य जनों की असामान्‍य बनने की जो प्रक्रिया चल पड़ी वह कदापि न चल पाती। परंपरा की बीजीभूत संभावना कर्तृत्व जागृत करने का कार्य कर सके। ऐसे व्‍यक्ति शिवाजी के कार्य के समर्थ साधन बनने के कारण शिवाजी की मूल श्रेष्‍ठता और भी अधिक चमक उठी।

जो दूध घना नहीं होता उसमें से घनी मलाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती। परमपूजनीय डाक्‍टर जी राष्‍ट्र पुनर्निर्माण कार्य में श्रेष्‍ठ विभूतियों के योगदान का महत्‍व जानते थे। किंतु उन्‍होंने यह निश्‍चय किया था कि संस्कारों के माध्‍यम से वे सामान्‍य जनों में से हर एक व्‍यक्ति को असामान्‍य बनाएंगे, ताकि अपने भविष्‍य के लिए दो चार विभूतियों पर ही अवलंबित रहने की बारी समाज पर न आए। निराशामय स्थिति में श्रेष्‍ठ नेता का निर्माण जैसे आशा का कारण होता है वैसे ही उसी पर अवलंबित रहने की आदत उससे भी गहरी निराशा में समाज को डाल सकती है। घने अंधेरे में बिजली चमकी तो एकदम प्रकाश का आनंद मिलता है, लेकिन बिजली लुप्‍त होने के बाद अंधेरा पहले से भी अधिक घना प्रतीक होता है। ध्‍येयसिद्धि की दृष्टि से यह प्रक्रिया श्रेयस्‍कर नहीं, ऐसा पूजनीय डाक्‍टर जी मानते थे। इस कारण उन्‍होंने दूसरा मार्ग उपनाया। श्रेष्‍ठ परंपरा के आधार पर श्रेष्‍ठ नेता का निर्माण होता है, उसी आधार पर नेता सामान्‍य साथियों में से असामान्‍य कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है। नेता कार्यकर्ताओं की शक्ति बढ़ाता है, कार्यकर्ता नेता की शक्ति बढ़ाते हैं, और दोनों मिलकर अंगीकृत कार्य कीशक्ति बढ़ाते हैं। यह प्रक्रिया काव्‍य प्रकाश की निम्‍न पंक्ति का स्‍मरण दिलाने वाली है -

कमलेन सर : सरसा कमलम्, सरसाकमलेन विभाति वनम्।।

(कमल सरोवर की, सरोवर कमल की, और कमल सरोवर दोनों मिलकर वन की शोभा बढ़ाते हैं।)

बड़े भाई में मनुष्‍य निर्माण की क्षमता बहुत बड़ी मात्रा में थी। मान्‍यवर बड़े भाई के कारण उनके कार्यकर्ताओं की, कार्यकर्ताओं के कारण मान्‍यवर बड़े भाई की और दोनों के कारण भारतीय मजदूर संघ की शोभा सतत बढ़ती गई। इस प्रक्रिया का आधार रही हमारी सनातन संस्‍कृति की बीजीभूत संभावनाएँ। यह अन्‍योन्‍याश्रय ध्‍यान में न रहा तो सत्‍य स्थिति का समग्र दर्शन हो नहीं सकता।

पंडित दीनदयाल जी के निर्वाण के पश्‍चात् उनको श्रद्धांजलि समर्पित करते समय एक जनसंघ नेता ने कहा था कि पंडित जी ने हम लोगों को एम.एल.ए., एम.पी., मिनिस्‍टर बनाया, किंतु वे स्‍वयं कुछ भी नहीं बने। ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में इसी तरह के प्रतिष्‍ठा प्राप्ति के अवसर अन्‍य रूप में आते हैं। विदेश यात्राएँ, सरकारी तथा अन्‍य समितियों में नियक्तियाँ, आदि। ऐसे सभी अवसरों पर बड़े भाई एक-एक करके अन्‍य कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाते थे, स्‍वयं को सबसे पीछे रखते थे।

अनुशासन का अर्थ तो सब समझते हैं, किंतु आत्‍मानुशासन का मतलब लोगों के ध्‍यान में आसानी से नहीं आता। बड़े भाई अनुशासित भी थे और आत्‍मानुशासित भी। अनुशासन बाहर से आता है और आत्‍मानुशासन भीतर से। संस्‍था के संवैधानिक अनुशासन का सीधा उल्‍लंघन न करते हुए ऐश और आराम परस्‍ती का जीवन व्‍यतीत करना असंभव नहीं है। संयम, चारित्र्य, उद्यमशीलता, कर्मठता आदि गुण संविधान के प्रभाव से निर्माण नहीं हो सकते। शायद इसी कारण आजकल यह कहने का फैशन हो गया है कि नेता का मूल्‍यांकन उसके सार्वजनिक जीवन के आधार पर करना चाहिए न कि व्‍यक्तिगत जीवन के आधार पर। नेता के व्‍यक्तिगत जीवन से जनता का क्‍या लेना-देना? वह तो उसका निजी मामला है। यह 'प्रगतिशील' दृष्टिकोण बड़े भाई ने नहीं अपनाया था। किसी भी संबंधित संगठन के संविधान में जिनका अप्रत्‍यक्ष रूप से भी उल्‍लेख नहीं, ऐसे कितने ही बंधन उन्‍होंने स्‍वयं अपने ऊपर डाल लिए थे। कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देने वाली दैनिक जीवन की उनकी कर्मठता संविधान के नहीं, आत्‍मानुशासन के कारण निर्माण हुई थी।

विधान परिषद् के सदस्‍य के नाते प्राप्‍त्‍ होने वाले मानधन किस तरह से खर्च करना चाहिए, इस विषय में किसी भी संगठन ने उनके ऊपर कोई बंधन नहीं डाला था। न ही किसी संविधान की किसी धारा में यह आदेश था कि विधायक के मानधन का पूरा हिसाब विधायक ने संगठन को देना चाहिए। किंतु बड़े भाई पूरा मानधन भारतीय मजदूर संघ के काम के लिए ही खर्च करते थे और विधायक के नाते प्राप्त होने वाले पूरे पैसे का हिसाब भारतीय मजदूर संघ के अधिवेशन के सामने प्रस्‍तुत करते थे। एक समय उनकी पत्‍नी को उसकी बीमारी के कारण कुछ सप्‍ताह के लिए उनके साथ लखनऊ में रहना पड़ा। उस समय श्रीमती भाभी के दवा-पानी, यातायात और भोजन का सारा खर्चा उनके गाँव बगही से लोकर, निजी संपत्ति से किया गया। मानधन का एक पैसा भी इस काम में नहीं लगाया गया। इस कर्मठता का कहीं प्रोपैगंडा भी नहीं किया गया। इस कर्मठता के कारण ही उनकी वाणी में नैतिक अधिकार उत्‍पन्‍न हुआ था।

आत्‍मानुशासन,

अपने ही हाथ से अपनी रस्सियाँ काट डालना।

अपने ही हाथ से अपने जहाज, अपने पुल जला डालना।

इसकी प्रेरणा बड़े भाई के जीवन से कार्यकर्ताओं को प्राप्‍त होती थी।

संघ प्रचारक के नाते जिस विभाग में बड़े भाई ने काम किया था उस विभाग में बड़े भाई के साथ प्रवास करने का मौका कई बार आया। उस समय ध्‍यान में आया कि बड़े भाई की कृतज्ञताबुद्धि बहुत ही दृढ़ थी। जिस-तिस ने उनको कभी प्रेम दिया होगा उस-उस को वे हमेशा कृतज्ञता भाव से याद करते थे। आधुनिक रीति तो यही है कि जिस समय जिसका उपयोग करना हो, उस समय उसकी पूरी चिंता करना, और जैसे ही उसकी उपयोगिता समाप्‍त हो जाए उसको तुरंत झटक देना-ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार नींबू को पूरी तरह से निचोड़ लेने के बाद फेंक दिया जाता है। किंतु बडे भाई का स्‍वभाव इसके बिल्‍कुल विपरीत था। उनके प्रेम में गणित और हिसाब किताब नहीं था। यह उनका सहज स्‍वभाव था कि एक क्षण के लिए भी यदि किसी ने आत्‍मीयता का व्‍यवहार किया हो तो उसका स्‍मरण आजीवन रखना। इस कृतज्ञता भाव के कारण पुराने संपर्कों में से किसी को भ वे भूलते नहीं थे। फिर वह रेणुकूट का सेवाराम हो, या वाराणसी का मन्‍नालाल हनुमान जी। मानवीय संबंधों में उपयोगितावाद को ग्रहण करने में बड़े भाई पूरी तरह असफल रहे। इसके कारण प्रत्‍यक्ष कार्य के साथ-साथ उनको अन्‍य कार्य भी संभालने पड़ते थे। उनकी वृत्ति थी - ''नेहा लगा के पछताना क्‍या''।

अंतिम बीमारी में उनके मन में एक मात्र विचार कार्य का ही रहता था। कभी स्‍वप्‍न में भी बोलते थे तो वह बात कार्य से संबंधित ही हुआ करती थी। व्‍यक्तिगत या पारिवारिक जीवन की बात उनके मन में उस अवस्‍था में भी कभी नहीं आई। डॉ. मुले जी को वे कहते थे कि, 'मैं मृत्‍यु की चिंता नहीं करता, किंतु मेरी इस हालत के कारण भारतीय मजदूर संघ का काम मैं नहीं कर पा रहा हूँ, इसी का खेद हो रहा है।'' बीमारी का प्रथम चरण समाप्‍त हुआ। हालत कुछ सुधर गई। थोड़े दिन के लिए अपने गाँव जाने की अनुमति उनको मिल गई। अनुमति देते समय डाक्‍टरों ने कहा था कि पूर्ण विश्राम करना होगा। काम के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। किंतु यह शर्म पूरा करना बड़े भाई के लिए संभव नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश में कार्य की स्थिति कैसी है, उसमें कहाँ-क्‍या सुधार करने की आवश्यकता है, इस दृष्टि से सोचना और हलचल करना उन्‍होंने तुरंत प्रारंभ कर दिया। परिणाम जो निकलना था वही निकला। इस विषय में किसी ने रोका तो वे कहते थे कि ''कार्य से अलग होकर आराम ही करना है तो जीवित रहना काहे के लिए?''

संघ परिवार की अन्‍यान्‍य संस्‍थाओं के कार्यकर्ताओं के साथ उनके संबंध बहुत सौहार्दपूर्ण रहते थे। भारत की राष्‍ट्रशक्ति की सर्वकष व्‍यूह रचना का एक मोर्चा इस नाते वे भारतीय मजदूर संघ का महत्‍व मानते थे। सभी कार्यकर्ताओं को यथाशक्ति प्रोत्‍साहन तथा सहायता देना वे अपना कर्तव्‍य समझते थे। एकाध बार एकाध व्‍यक्ति की विकसित के कारण कटु अनुभव आया तो भी उनका मन विचलति नहीं होता था। एक बार एक नेता द्वारा बताया गया काम बड़े भाई ने अपनेपन की भावना से कर दिया। बाद में उनको पता चला कि उस नेता ने कुछ मित्रों के पास ऐसी बड़ाई मारी, ''क्‍यों? कैसे बनाया बड़े भाई को? निकाला कि नहीं उनसे अपना काम? किंतु यह मालूम होने के बाद भी बड़े भाई की समन्‍वय वृत्ति में अंतर नहीं आया। कहने लगे, ''जाने दीजिए। आदमी का कद ही छोटा है, ऊँचे स्‍टूल पर खड़ा किया गया है, किंतु इससे आदमी की असली ऊँचाई तो नहीं बढ़ती।'' तत्‍पश्‍चात् भी उस नेता महोदय के साथ उनका व्‍यवहार पूर्ववत चलता रहा। वे सोचते थे कि हम किसी व्‍यक्ति विशेष के लिए नहीं, अपितु अपने बृहद् परिवार के लिए काम कर रहे हैं।

अपने विरोधी खेमे के ध्‍येयनिष्‍ठ कार्यकर्ताओं के विषय में भी उनके मन में स्‍नेह का भाव रहता था। उनकी ध्‍येयनिष्‍ठा का वे समन करते थे। सैद्धांतिक विरोध करते हुए भी व्‍यक्तिगत स्‍तर पर उनकी सहायता करने की उनकी प्रवृत्ति थी। जहाँ तक मजदूरों के दु:ख दर्द का सवाल है, भारतीय मजदूर संघ विरोधी यूनियन का कार्यकर्ता क्‍यों न हो, वह संकट में है तो उसकी सहायता करना वे अपना कर्तव्‍य मानते थे। विरोधी नेताओं की भी असली योग्‍यता अपनी साथियों को बतानी चाहिए, इस मत के वे थे। आत्‍मस्‍तुति-परनिंदा की आदत रखने वाले उनके कुछ मित्रों को यह अच्‍छा नहीं लगता था। तो भी बड़े भाई कहते थे कि विरोधियों के बारे में ओछी, हल्‍की टीका-टिप्‍पणी करने से अपना ही स्‍तर गिरता है।

बड़े भाई के समकालीन विधान परिषद् सदस्‍य तथा उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के रेकार्ड इस मत की पुष्टि करते हैं कि यदि बड़े भाई ने उभर चित्त एकाग्र किया होता तो वे अच्‍छे संसदज्ञ (पार्लियामेंटेरियन) के नाते चमक सकते थे। लोकतंत्र में ''पार्लियामेंटेरियन'' एक अच्‍छा कैरियर माना जाता है। किंतु भारतीय मजदूर संघ की जिम्‍मेवारी के कारण वे अधिक ध्‍यान नहीं दे सके। भारतीय मजदूर संघ ने उनका कैरियर नष्‍ट किया या संगठन की जिम्‍मेवारी आँखों से ओझल कर या दूसरों को सौंपकर अपने व्‍यक्तिगत कैरियर के पीछे पड़ने की चतुराई बड़े भाई में नहीं थी। यह राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की परंपरा के अनुकूल ही था। संघ ने भी अनेकानेक स्‍वयंसेवकों का कैरियर 'खराब' किया है। कौन नहीं जानता कि संघ के चक्‍कर में न आते तो मा. यादव राव जोशी एक संगीतज्ञ के नाते ख्‍याति प्राप्त कर सकते थे। मा. विट्ठलराव पतकी क्रिकेट पटु और मान्‍यवर रज्‍जू भैया एक विशिष्‍ट वैज्ञानिक के नाते विख्‍यात होते। बड़े भाई ने इसी परंपरा का निर्वाह किया।

पश्चिम में और उसका अनुकरण करने के कारण अपने देश में भी श्रद्धांजलि समर्पित करते समय यह कहने की प्रथा है कि ''उनकी मृत्‍यु के कारण अपूरणीय (irreparable) हानि हुई है। वैसे भी, मूल्‍यांकन के मापदंड भौतिकवादियों से अलग हुआ करते हैं और अन्‍यों से अलग। भौतिकवादियों की यह मान्‍यता है कि जिसके निधन के कारण होने वाली क्षति की पूर्ति हो ही नहीं सकती वह श्रेष्‍ठ। उन्‍हें बार बार प्राय: यह अनुभव आता भी है। विशुद्ध भौतिकतावाद व्‍यक्तिवाद और पदलिप्‍सा का जन्‍म देता है। व्‍यक्ति को स्‍वकेंद्रित बना देता है। मेरी मृत्‍यु के बाद प्रलय (After me, the deluge) की भावना निर्माण करता है। ऐसा व्‍यक्ति हमेशा भयग्रस्‍त और असूयाग्रस्‍त रहता है। मेरे सहकारियों में से श्‍स अनुयायियों में से यदि किसी का व्‍यक्तित्‍व अधिक विकसित हुआ तो वह मुझे कहीं अपदस्‍थ न कर दें, इस प्रकार से विचार करने वाला व्‍यक्ति सहकारियों के विकास को प्रोत्‍साहन नहीं देता। नेतृत्‍व की द्वितीय पंक्ति निर्माण नहीं होने देता ताकि वह हमेशा के लिए अपरिहार्य (Indispensable) बना रहे। परिणामस्वरूप उसकी मृत्‍यु के कारण होने वाली क्षति अपूरणीय ही हुआ करती है। भौतिकतावाद से मुक्‍त लोग ऐसे नेता को कनिष्‍ठ स्‍तर का मानते हैं। उनकी मान्‍यता रहती है कि श्रेष्‍ठ नेता वह जो अपनी चिरंतन अनुपस्थिति के कारण होने वाली क्षति की पूर्ति की व्‍यवस्‍था पहले ही करके रखता है। संगठन में कभी शून्‍य पैदा न हो, इसकी योजना करता रहता है।

ऐसे नेताओं का सोच विचार का ढंग हुआ करता है - ''मैं नहीं, तू ही''। उनके व्‍यवहार का ढंग भी भिन्‍न हुआ करता है। जीसस क्राइस्‍ट ने अपने शिष्‍यों को कहा था, ''मेरी तुलना में अधिक श्रेष्‍ठ कार्य तुम लोग करोगे''। कन्‍फ्यूसियस ने पने शिष्‍यों को आश्‍वासन दिया था कि उसकी श्रेष्‍ठता के वे भी भागीदार हैं। संत ज्ञानेश्‍वर के गुरुदेव तथा प्रेरणा-स्रोत संत निवृत्तिनाथ मुमुक्षुओं के लिए दीप प्रज्‍वलन का कार्य स्‍वयं कर सकते थे। किंतु वह कार्य तथा उसका श्रेय उन्‍होंने ज्ञानेश्‍वर को दिया। पूजनीय श्रीगुरुजी ने कहा, ''आप में से जिसने पूजनीय डाक्‍टर हेडगेवार जी को नहीं देखा, वह (उस समय के माननीय) बालासाहब देवरस को देख लें''। इस उक्ति-कृति का सारा ढंग ही अलग है। प्रयास दूसरों को छोटा दिखाने का नहीं, अपने से भी बड़ा बनाने का, ताकि पुण्‍यकार्य की गंगा कहीं रुक न जाए। बड़े भाई इसी परंपरा में पले थे। उनके निधन के कारण भारतीय मजदूर संघ की, मजदूरों की, राष्‍ट्र की हानि हुई है, वह हानि अपरिमिय है, किंतु अपूरणीय नहीं। इसी में बड़े भाई की श्रेष्‍ठता है।

ऐसे ध्‍येयवादी जीवन के संस्‍मरणों की दहलीज पर हम खड़े हैं। यहाँ से आगे भी बढ़ सकते हैं, वापस भी लौट सकते हैं। आगे बढ़ना खतरे से खाली नहीं है।

ध्‍येयवादी जीवन के संपर्क से मन में ध्‍येयवाद निर्माण होने की संभावना रहती है। और फिर-

''लाली तेरे लाल की, जित देखो तित लाल।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।''

यह खतरा है।

एक श्रीमान् युवक उपदेश के लिए जीसस के पास पहुँचा।

जीसस ने कहा-

"Give up thy riches, take thy cross and follow me."

(अपनी धन संपत्ति त्‍याग दो, अपनी शूली उठाओ और मेरे पीछे चलो)।

किंतु वह युवक पागल नहीं था।

उसने जीसस की ओर पीठ किया और सीधे अपने मकान की ओर चल पड़ा।

हमारे लिए भी पागल बनना बाध्‍यता नहीं है।

हम यहाँ से आगे भी बढ़ सकते हैं, वापस भी लौट सकते हैं। हम दहलीज पर खड़े हैं।

('बड़े भाई - स्‍मृति ग्रंथ' से )

देहली-दीपक

('आपातकाल संघर्षगाथा' ग्रंथ की 'देहली-दीपक' शीर्षक से मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा लिखी गई यह प्रस्‍तावना है। डॉ. सुब्रहमण्यम् स्‍वामी ने अपने एक संस्‍मरण में लिखा कि आपातकाल के वास्‍तविक नायक तो माधवराव मुले व दत्तोपंत ठेंगड़ी थे। ठेंगड़ी जी ने उक्‍त प्रस्‍तावना में सैकड़ों कार्यकर्ताओं, राजनेताओं, अधिवक्‍ताओं, पत्रकारों, सांस्‍कृतिक, धार्मिक व सामाजिक संगठनों के प्रमुखों तथा लेखकों जो संघर्ष में भागीदारी रहे का नामोल्‍लेख किया है। किंतु अपने नाम का उल्‍लेख नहीं किया जबकि जयप्रकाश नारायण जी द्वारा गठित 'लोक संघर्ष समिति' के सचिव के नाते वे देशव्‍यापी आंदोलन का भूमिगत रहकर संचालन करते रहे।

'देहली-दीपक' में चौधरी चरण सिंह से जिस भेंटवार्ता का वर्णन आया है उसके वार्ताकार स्‍वयं ठेंगड़ी जी ही थे। जम्‍मू कश्‍मीर से लेकर केरल और गुजरात से आसाम तक विभिन्‍न नेताओं कार्यकर्ताओं से ठेंगड़ी जी ने संपर्क साधा और उन्‍हें आपातकाल का विरोध तथा लोकतंत्र पुनर्स्‍थापनार्थ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। ठेंगड़ी जी जयप्रकाश नारायण से जहाँ निर्देशन प्राप्‍त करते थे वहीं मा. माधवराव मुले उनके रणक्षेत्र में मार्गदर्शक ही थे।

( उक्‍त प्रस्‍तावना में ठेंगड़ी जी ने संघर्ष में भागीदारी स्‍वयं को छोड़कर सभी का नामोल्‍लेख आदरपूर्वक कृतज्ञ भाव से किया है किंतु आपातकाल का समग्र इतिहास जब इतिहासकार लिखेंगे तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण , मा. माधवराव मुले के साथ दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम भी शीर्ष पर होगा...)

आपात-स्थिति असाधारण स्थिति है। किंतु उसका निर्माण साधारण कारणों से हो सकता है1 और, उसको समाप्‍त करने के लिए असाधारण संघर्ष की आवश्‍यकता हुआ करती है। असाधारण धैर्य-शौर्य से युक्‍त असाधारण संघर्ष। ऐसे ही एक संघर्ष की गाथा यहाँ प्रस्‍तुत की जा रही है। स्‍वतंत्रता और लोकतंत्र के सभी उपासकों के लिए यह संघर्ष-गाथा देहली पर रखे हुए दीपक का काम करेगी।

इसके प्रकाश में वे देख सकेंगे भूतकालीन प्रेरणादायक घटनाएँ और भविष्‍यकालीन निरापद मार्गं। क्‍योंकि तानाशाही एक प्रवृत्ति है, उतनी ही मानव-स्‍वभाव-सुलभ जितनी कि स्‍वतंत्रता की दुर्दम्‍य इच्‍छा। दोनों मानव-स्‍वभाव-सुलभ हैं, इसलिए दोनों सर्वदेशीय हैं, सर्वकालिक है, क्‍योंकि कहा ही गया है - ''निरंतर सतर्कता स्‍वतंत्रता का मूल्‍य है।''

आपातकालीन संघर्ष के विषय में पर्याप्‍त साहित्‍य प्रकाशित हो चुका है, किंतु इस संघर्ष का समग्र, प्रमाणबद्ध तथा अधिकृत इतिहास अब तक जनता के सामने नहीं आ सका। इसके कुछ कारण भी हैं।

अब तक प्रकाशित साहित्‍य का दो श्रेणियों में वर्गीकरण किया जा सकता है : एक आत्‍मनिवेदनपरक और दूसरा वस्‍तुनिष्‍ठ। आत्‍मनिवेदनपरक साहित्‍य की सीमाएँ समझ में आ सकती हैं। आत्‍मनिवेदन के द्वारा समग्र इतिहास संकलित होने की दृष्टि से यह आवश्‍यक है कि इस अभियान में सिपाही या संचालक के नाते काम किए हुए सभी व्‍यक्तियों का आत्‍मनिवेदन प्रकाशित हो। यह अब तक हुआ नहीं और आगे भी होने की संभावना नहीं।

आपातस्थिति हटने के पश्‍चात् संघर्ष के विषय में वस्‍तुनिष्‍ठ साहित्‍य भी प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हुआ है। किंतु इन लेखकों के सम्‍मुख एक दुविधा थी। एक कालखंड में क्‍या-क्‍या हुआ, इसकी तीव्र जिज्ञासा जनमानस में थी और इस जिज्ञासा की पूर्ति करने वाले लेख या पुस्‍तक शीघ्रातिशीघ्र बाजार में आना व्‍यावसायिक दृष्टि से आवश्‍यक था, किंतु इतनी शीघ्रता से, प्रस्‍तुत विषय से संबंधित सभी तथ्‍य, आँकड़े तथा जानकारी प्राप्‍त करना किसी के लिए भी संभव नहीं था क्‍योंकि इस कालखंड की महत्‍वपूर्ण कार्यवाहियों की तैयारी भूमिगत लोगों ने ही की थी। संपूर्ण जानकारी प्राप्‍त करके लेखन किया गया होता तो जन-जिज्ञासा तथा वाणिज्‍यीय दृष्टि से प्रकाशन कार्य में अक्षम्‍य विलंब हो जाता। अत: जिस लेखक के पास लेखन काल में जितनी जानकारी उपलब्‍ध थी, उसी का उपयोग उसने किया। यह उचित ही रहा। किंतु इस प्रक्रिया के कारण वस्‍तुनिष्‍ठ साहित्‍य के माध्‍यम से भी अब तक संघर्ष का समग्र इतिहास संकलित नहीं हो सका।

इस तरह के संघर्ष का इतिहास कैसे लिखा जाए, यह भी एक समस्‍या है। भूमिगत जीवन का तथा कार्य का कितना हिस्‍सा प्रकाशित किया जाए और कितना अप्रकाशित ही रखा जाए यह तारतम्‍य का विषय है। एक बार स्‍वातंत्र्यवीर सावरकरजी से पूछा गया कि फ्रांस के किनारे के पास समुद्र में कूदने का पराक्रम करते समय उन्‍होंने किस तरकीब का सहारा लिया था? सावरकर जी ने कहा, 'इस प्रश्‍न का उत्तर देने से लाभ क्‍या होगा? और दूसरी बात, इसका क्‍या भरोसा है कि दूसरे किसी क्रांतिकारी को उसी तरकीब का उपयोग करने की आवश्‍यकता नहीं पड़ेगी? यह भी सोचने का एक पहलू हो सकता है, यद्यपि यह सही है कि परिस्थितियों में अंतर और निकट भविष्‍य में आपातस्थिति की पुनरावृत्ति नहीं होगी, ऐसा प्रतीत होता है।

इस तरह का इतिहास कैसे लिखा जाए, इसका प्रमाणित नमूना (Model) भी उपलब्‍ध नहीं है। भारत के क्रांतिकारियों की पहली पीढ़ी को प्रेरणा प्राप्‍त हुई थी अपने ऐतिहासिक महापुरुषों से तथा विदेशियों में से, प्रमुख रूप से जोसेफ मैजिनी से। मैजिनी का जीवनवृत्त उपलब्‍ध है। लेनिन, स्‍टालिन आदि भूमिगउ कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ताओं का भी जीवनवृत्त प्रकाशित हुआ है। भारतीय क्रांतिकारियों के जीवन पर भी पर्याप्‍त प्रकाश डाला गया है। इस तरह के साहित्‍य से यह स्‍पष्‍ट होता है कि भूमिगत कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए कार्य तथा उनकी उपलब्धियों को प्रसिद्ध करना तो सरल है, किंतु स्‍वदेश में भूमिगत जीवन कैसे बिताया गया, उसमें किस-किस की सहायता किस तरह हुई, भूमिगत अवस्‍था में पार‍स्‍परिक सूचना-संपर्क (Line of Communication) किस तरह रखा गया आदि बातों का अधिकृत विवरण करना प्राय: खतरे से खाली नहीं माना जाता। यह संतुलन कायम रखते हुए इतिहास लिखना बड़ा कठिन कार्य है। हमारे लिए यह हर्ष की बात है कि प्रस्‍तुत कृति में इस तरह का संतुलन भी रखा गया है और देने योग्‍य अधिकतम जानकारी देने का प्रयास भी किया गया है।

अब तक प्रकाशित साहित्‍य में समयाभाव के कारण कितनी अपूर्णताएँ आ गयीं, यह समझना कठिन नहीं है - उदाहरण के लिए, भारतीय लोकदल के सैकड़ों लोगों द्वारा उत्तर प्रदेश में श्रीमति गायत्री देवी के नेतृत्‍व में किया हुआ एक दिन का सांकेतिक सत्‍याग्रह, पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'जय गुरुदेव' संप्रदाय के लोगों द्वारा किया हुआ सत्‍याग्रह, सर्वोदयवादी कार्यकर्ताओं द्वारा प्रारंभिक स्थिति की दुविधा मन: स्थिति का मुकाबला करते हुए निश्‍चय के साथ किया हुआ कार्य, विरोधी दलों के सदस्‍यों द्वारा संसद का उपयोग करते हुए किया हुआ जन-जागरण, महाराष्‍ट्र के कंधार क्षेत्र में 'शेतकारी कामकारी पक्ष' द्वारा किया हुआ अभियान, श्रमिक क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ तथा सी.पी.एम. की सी.आई.टी.यू. द्वारा संघर्ष को दिया हुआ योगदान, वी.एम. तारकुण्‍डे के नेतृत्‍व में मानव अधिकार तथा नागरिक स्‍वतंत्रता की रक्षा के लिए निर्मित संस्‍था द्वारा हुआ कार्य, महिलाओं के क्षेत्र में 'राष्‍ट्र सेविका समिति' द्वारा प्रदत्त सहयोग, विद्यार्थी क्षेत्र में विद्यार्थी परिषद् द्वारा किया गया नेतृत्‍व तथा दिशा-निर्देशन, 'आचार्य-सम्‍मेलन' सम्‍मेलन का विवरण तथा उस उपक्रम का तात्‍कालिक परिस्थितियों पर हुआ परिणाम, वकीलों, शिक्षा शास्त्रियों, भूतपूर्व न्‍यायाधीशों तथा साहित्‍य सेवियों आदि के प्रयत्‍न, कामनवेल्‍थ कान्‍फ्रेंस के समय प्रतिनिधि को भारत की परिस्थिति से अवगत कराने हेतु किए गए प्रयास, डी.एम. के. सरकार का अप्रत्‍यक्ष सहयोग, गुजरात का गैर-कांग्रेसी सरकार का प्रत्‍यक्ष सहयोग, संघर्ष काल में जम्‍मू कश्‍मीर के शासकों की मनोवृत्ति, जेलों में बंदियों का हौसला बढ़ाने की दृष्टि से किए गए उपक्रम: पीड़ित परिवारों की सहायता करने की पद्धतियों, निर्वाचन की घोषणा से पूर्व जनता पार्टी की स्‍थापना के लिए किए गए प्रयास, आदि कितने ही पहलू महत्‍वपूर्ण होते हुए भी अब तक अस्‍पष्‍ट हैं। यहाँ तक कि लोक संघर्ष समिति के कार्य का सूत्रबद्ध इतिहास भी अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। संघर्ष में किसी भी अखिल भारतीय दल की तुलना में जिस प्रादेशिक दल का योगदान अधिक शानदार रहा, उस अकाली दल को भी नव साहित्‍य में उचित स्‍थान प्राप्‍त नहीं हो सका। यह संपूर्ण संघर्ष जिस संगठन के आधार पर हो सका उस 'राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ' के योगदान का विवरण भी उपलब्‍ध नहीं है।

सितंबर, 1976 में संयुक्‍त राष्‍ट्र महासंघ में अनियमित गिरफ्तारियों तथा अमानवीय यातनाओं के निषेध में पारित प्रस्‍ताव का समर्थन करने वाली भारत सरकार के पुलिस राज में सरकारी प्रोत्‍साहन पर किए गए क्रूर अत्‍याचारों-यातनाओं (Torture) का शिकार बने हुए दस हजार से अधिक निरपराध अहिंसक जीव, जेलों में या जेल जीवन के कारण पांडुरंगपंत क्षीरसागर या मोरुभैय्या के समान हुतात्‍मा हुए सैकड़ों देशभक्‍त, लगभग 25 हजार मीसा के कारण और लगभग एक लाख स्‍वयं इच्‍छा से कारागारों का मार्ग चलने वाले-ऐसे मिलाकर कुल सवा लाख वीरव्रती, अहिंसा को जीवनश्रद्धा मानने वाले हजारों भूमिगत क्रांतिकारी, परिवारों के कर्तापुरुष कारावास में जाने के कारण असहाय और बर्बाद हुए हजारों परिवार, नसबंदी अभियान से पीडि़त अगणित लोग, नगर सौंदर्य तथा विकास योजनाओं के नाम पर गिरायी गयी झोपडि़यों के कितने ही निवासी, चुनाव की घोषणा के पश्‍चात् भी जेलों में रखे गए संघ, जनसंघ के 15 हजार कार्यकर्ता, सरकार की जनता विरोधी नीति के कारण भुखमरी, बेरोजगारी और मूल्‍यवृद्धि के फलस्वरूप व्‍याधियाँ, अपंगता तथा अकाल-मृत्‍यु प्राप्‍त करने वाले गरीब लोग-इन असंख्‍य लोगों में से हर एक का व्‍यक्तिगत रूप से नाम निर्देश करना किस इतिहासकार के लिए संभव होगा?

आपातकालीन संघर्ष में समूहगत कार्यकलाप बहुत रहे। विविध समूह और उनमें से हर एक के विविध स्वरूप के कार्य। इसके अलावा व्‍यक्तिगत स्‍तर पर इतने लोगों ने महत्‍वपूर्ण काम किए कि उनकी यथाक्रम गणना करना बहुत कष्‍टसाध्‍य होगा।

हजारों भूमिगत कार्यकर्ताओं का तथा सत्‍याग्रहियों का सहभाग शानदार था ही। किंतु संगठित, सामूहिक प्रयासों के अतिरिक्‍त व्‍यक्तिगत स्‍तर पर किए हुए प्रयास भी परिणामकारक थे। ऐसे व्‍यक्तियों की उनके प्रयासों की संख्‍या बहुत अधिक थी। उनका सबका उल्‍लेख करना भी कठिन कार्य है, केवल नमूने के लिए कुछ व्‍यक्तियों तथा प्रयासों का अस्‍पष्‍ट निर्देश किया जा रहा है।

मोरारजी भाई और नानाजी देशमुख की गिरफ्तारी के पश्‍चात् लोकसंर्घ्‍ष समिति के द्वितीय मंत्री के नाते रवींद्र वर्मा ने तथा द्वितीय अध्‍यक्ष के नाते एस.एम.जोशी का किया हुआ कार्य और उनके व्‍यक्तिगत सचिव भोगीभाई की सेवाएँ बहुत महत्‍वपूर्ण रहीं। नानासाहेब गोरे का किया हुआ प्रकट जन-जागरण और कर्पूरी ठाकुर तथा लोकनाथ जोशी का किया हुआ भूमिगमत जन-जागरण, वैसे ही दिग्विजय नारायण सिंह, सुरेन्‍द्र मोहन, मोहन धारिया तथा इरा चेजियन के प्रकट-अप्रकट प्रयास अपने-अपने स्‍तरों पर महत्‍वपूर्ण रहे। लोक संघर्ष समिति की अहिंसक भूमिका को अमान्‍य कर जार्ज फर्नाडिस ने बड़ौदा कांड के समान कुछ प्रयास किए और सी.जी.के. रेड्डी ने उनको साहसपूर्ण सहयोग दिया। केरल के कैथॉलिक र्चच के एम.एम. थॉमस ने आपातस्थिति विरोधी जन-शिक्षा का काम किया।

श्रीमती दुर्गा भागवत या गौरीकिशोर घोष के समान साहित्‍यिक तथा बुद्धिमंत सखारोव का स्‍मरण दिलाते थे।

रामशास्‍त्री प्रभुणे की परंपरा चलाने वाले निर्भय, नि:स्‍पृह न्‍यायमूर्तिगण-जगमोहन लाल सिन्‍हा, एच.आर. खन्‍ना, वी.डी. तुलजापुरकर, गोविन्‍द भट्ट, यू.आर. ललित, वी.आर. कृष्‍ण अय्यर, डी.पी. मदान, एम.एच. केनिया, वैसे ही उच्‍च न्‍यायालयों के-दण्‍ड प्राप्‍त' 35 न्‍यायाधीश जिसमें शामिल थे, 'भूमिपुत्र' केस के सेठ, कुलदीप नैयर केस के रंगराजन तथा आर.एन. अग्रवाल और बंगलौर के चन्‍द्रशेखर, सदानन्‍द स्‍वामी। इन सब की भूमिका बहुत गौरवास्‍पद रही।

समिति के आदेश पर समय समस पर अनशन करने वाले लोगों के आत्‍मक्‍लेशों के अलावा वर्धा के निकट ग्राम में दिनांक 14-10-1976 को सर्वोदयी प्रभाकर शर्मा का किया हुआ आत्‍मदाह सबकी नींद उड़ाने वाला था।

उस घुटनवाली स्थिति में भी कुछ सांसदों ने लोकतंत्र की आवाज संसद में उठाई। अच्‍युतराव पटवर्धन तथा अशोक मेहता का मार्गदर्शन परिपक्‍व रहा।

सुब्रह्मण्‍यम स्‍वामी और मकरंद देसाई का विदेशों में किया हुआ कार्य सर्वपरिचित है। श्रीमती लैला फर्नांडिस, श्रीमती रक्षणा स्‍वामी और श्रीमती अंजली पंड्या का विदेश कार्य सराहनीय रहा। श्रीमती नयनतारा सहगल तथा रजनी कोठारी ने अमरीका मे सहायक कार्य किया। दिनांक 29 जून 1976 को जेठमलानी द्वारा 'कांग्रेशनल कमिटी ऑफ ह्यूमन राइट्स ऑफ अमेरिका' के सामने दी गई गवाही सनसनीखेज सिद्ध हुई। बी.बी.सी. के उद्घोषक रत्‍नाकर भारती, 'वाइस ऑफ अमेरिका', उपयुक्‍त संयुक्‍त वक्‍तव्‍य जारी करने वाले अमरीका के विधिक क्षेत्रों के 80 नेताओं के समान प्रकट सहानुभूति रखने वाले विदेशी मित्र, इन सबकी भूमिका संघर्ष के लिए पोषक रही।

इधर देश में संघर्ष को प्राथमिकता देकर ओमप्रकाश त्‍यागी ने आर्यसमाज का सार्वदेशिक महामंत्री पद छोड़ दिया। विदेशी सांसदों को ठीक जानकारी पहुँचाने का काम दिल्‍ली के बाहर कच्‍छ मांडवी के विधायक सुरेश मेहता और बंगलोर के मुल्‍लूर आननंदराव ने किया। पी.यू.एस.एल. के वी.एम. तारकुंडे ने सी.एफ.डी. के कार्यकर्ताओं को साथ लेकर नागरी स्‍वातंत्र्य का बिगुल बजाया। ज्‍योर्तिमय बसु, मधु दंडवते, समर गुहा, रवि रे प्रभृति जेलों में बंद 7 दलों के 33 सांसदों की दृढ़ता प्रेरणादायक रही। शांतिभूषण, वेणुगोपाल, राम जॉइस और संतोष हेगड़े ने विधिज्ञों का मनोबल बढ़ाया।

चौथी इस्‍टेट का सहयोग प्रशंसनीय रहा- अखिल भारतीय संपादक सम्‍मेलन तथा इंडियन एण्‍ड ईस्‍टर्न न्‍यूजपेपर एसोसिएशन के कुछ निर्भय सदस्‍य; प्रतिबंधित रखे गए पत्र-पत्रिकाओं के संपादक, जिनके विज्ञापन पूरे आपात्काल के समय तक या बीच-बीच में रोके गए ऐसे 'स्‍टेट्समैन' तथा रामनाथ गोयनका का 'एक्‍सप्रेस' पत्र समूह, इनकी श्रेणी के पत्र-पत्रिकाओं के संबंधित लोग, प्रेस परिषद् तथा समाचार-समितियों से संबंधित लोग। उल्‍लेखनीय व्‍यक्तियों का नाम-निर्देश कहाँ तक किया जाए। 'आर्गनाइजर' के के. आर. मल्‍कानी, 'मेनस्‍ट्रीम' के निखिल चर्कवर्ती, 'साधना' के विष्‍णु भाई पंड्या, 'ओपियनट' के गोरवाला, 'फ्रीडम फर्स्‍ट' के मीनू मसानी, 'भूमिपुत्र' के वैद्य तथा नारायण देसाई, 'पाञ्चजन्‍य' के भानुप्रताप शुक्‍ल तथा यादवराव देशमुख, 'क्‍वेस्‍ट' के बी. बी. जॉन, ए.बी. शाह और शीला सिंह, 'सेमिनार' के रमेश थापर, 'हिम्‍मत' के राजमोहन गांधी, 'शंकर्स वीकली' के शंकर, केरल में 'जन्‍मभूमि', 'राष्‍ट्रवार्ता', केसरी से संबंधित लोग, 'आनंदबाजार पत्रिका' के वरुण सेनगुप्‍त और निशीथ; 'युगांतर के असीम कुमार मित्र, 'कलकत्ता मासिक' के ज्‍योर्तिमय दत्त, 'गरीकेट रास्‍ता' के राजकृष्‍ण, बांग्ला 'पंचायत' के अजित बसु, 'गोलापबाग' के प्रणव चटर्जी, बांग्ला 'कालिकाता' के निर्भय दत्त, शंभ दीक्षित तथा प्रशांत बसु, कर्णाटक के 'लोकवाणी', 'प्रजावाणी', 'दिव्‍यवाणी', 'अर्थविकास', 'विक्रम', 'चुनावाणी' के संपादक आदि।

वस्‍तुनिष्‍ठ इतिहास-लेखन दुष्‍कर कार्य है। वस्‍तुनिष्‍ठ लेखक नयी जानकारी प्राप्‍त होने के पश्‍चात घटनाओं के पूर्व-चिंतित प्रस्‍तुतीकरण में तथा व्‍यक्तियों के मूल्‍यांकन में प्रामाणिक परिवर्तन कर लेता है। पक्षधर लेखक ऐसा नहीं कर सकते।

आपातकाल से संबंधित कुछ जानकारी एकत्रित करना तो आसान था लेकिन आपातकाल का समर्थन तथा उसकी सराहना और श्रीमती इंदिरा जी की छवि-निर्माण करने वाला साहित्‍य प्रकाशित करने में सरकार ने कोई कसर नहीं रखी थी। सरकारी नेताओं का तथा काल्‍पनिक उपलब्धियों का धुआँधार प्रचार करने के लिए 'मास-मीडिया' का अनुचित प्रचार किया जा रहा था। कभी-कभी सरकारी वक्‍ताओं से विरोधियों की गतिविधियों का भी थोड़ा अन्‍दाजा लोग कर सकते थे। देश में समाचार-पत्रों पर सेंसर था किंतु विदेशी समाचार एजेंसियों के कारण, विदेशों में भारत की आंतरिक स्थिति के बारे में समाचार छपते थे। भारत में कार्यरत या भारत के बाहर कार्यरत आपातकाल विरोधी कार्यकर्ताओं के माध्‍यम से भी विदेशों में सत्‍य समाचार पहुँचते रहते थे। बी.बी.सी. की अपनी निजी व्‍यवस्‍था थी और उस संपूर्ण अवधि में लोगों की यह राय बनी थी कि भारत की वस्‍तुस्थिति के विषय में कोई भी सच्‍ची खबर सबसे पहले अधिकृत बी.बी.सी से प्राप्‍त हो सकती है। (Friends of India Society International (FISI) के कार्यक्रमों को तो उधर उचित प्रसिद्धि मिलती ही थी, किंतु उनके माध्‍यम से विदेशियों को उन बातों का भी पता लगता रहता था, जो भारत सरकार द्वारा देश में दबायी जाती थीं। गुजराती 'साधना', 'भूमिपुत्र', मराठी 'साधना' तथा अंग्रेजी 'Janata' का प्रकाशन चल रहा था। किंतु सेंसर के कारण सर्वोदयी नेताओं के वक्‍तव्‍य भी जनता तक नहीं पहुँचते थे। आचार्य विनोबा जी जैसे श्रेष्ठ व्‍यक्ति के वचनों को भी तोड़-मरोड़ कर प्रकाशित किया जाता था। तो भी अधूरे और विकृत ही क्‍यों न हों, आचार्य सम्‍मेलन की कार्यवाही के थोड़े बहुत समाचारों को प्रसिद्धि का प्रकाश प्राप्‍त होता था। उनकी तद्नुकूल प्रकट कार्यवाहियों को और एक दल बनाने के लिए हुई बैठकों के विवरण को आकाशवाणी या समाचार-पत्रों में तो स्‍थान नहीं मिलता था किंतु निजी तौर पर उनका वितरण हो सकता था। उमाशंकर जोशी जैसे शिक्षाशास्‍त्रज्ञ, मावलंकर जैसे संविधान-पंडित, सम.ए. छागला जैसे न्‍यायशास्‍त्रज्ञ और विविध बार-एसोसिएशन्‍स की टिप्‍पणियों की भी यही बात है। इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन, सोशलिस्‍ट इंटरनेशनल, एमनेस्‍टी इंटरनेशनल, कॉसिल ऑफ वर्ल्‍ड चर्चेज, हापन राइट्स कमेटी आदि अंतरराष्‍ट्रीय संस्‍थानों के साथ हुए पत्र-व्‍यवहार का भी ऐसा ही हाल था। इस तरह के साहित्‍य के निजी वितरण की व्‍यवस्‍था हो सकती थी, किंतु फिर भी वितरक सरकार की अकृपा के भाजन बनाए जाते हैं।

किंतु लोक संघर्ष समिति के प्रस्‍ताव और परिपत्र या इसके नेताओं के संदेश इस श्रेणी में नहीं आते थे। उनका प्रचार करने के लिए की गयी व्‍यवस्‍था गुप्‍त स्‍वरूप की हो, यह स्‍वभाविक था। और इस तरह से प्रचारित, मुद्रित या चक्र मुद्रित साहित्‍य आसानी से उपलब्‍ध नहीं होता था। महत्‍वपूर्ण होते हुए भी अब तक अस्‍पष्‍ट रहे हुए संघर्ष के कुछ पहलुओं का उल्‍लेख इसके पूर्व किया गया था। कुछ पहलू ऐसे भी थे जिनका प्रकाशन तो दूर, उनके विषय में संपूर्ण जानकारी एकत्रित करना भी कठिन कार्य था। जेलों के बाहर तथा भीतर किए भयकंपित अत्‍याचार या दी गयी। अमानुष यातनाएँ ; जेलों में हुई मौतों का विवरण, जेलों में चलाए गए कार्यक्रमों का वृत्त, बंदियों का बाहर के लोगों के साथ और बाहर के लोगों का बंदियों के साथ हुआ उद्बोधक पत्र-व्‍यवहार, लोक संघर्ष समिति की तथा रा.स्‍व. संघ की भूमिगत बैठकें, उनमें लिए गए निर्णय तथा उन निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए भूमिगत कार्यकर्ताओं के किए हुए प्रयास, संघ के द्वारा निर्मित भूमिगत कार्य तथा परस्‍पर संपर्क की देशव्‍यापी व्‍यवस्‍था, इन सबकी जानकारी प्राप्‍त करना सरल बात नहीं थी। नानाजी देशमुख, रवीन्‍द्र वर्मा तथा यादवराव जोशी की एक के बाद एक हुई गिरफ्तारियाँ सूचित करती थीं कि सरकार के गुप्‍तचर विभाग की सतर्कता निरंतर बढ़ती जा रही है। उनकी सक्रियता जैसे-जैसे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे भूमिगत कार्य की गुप्‍तता भी बढ़ानी पड़ी।

लोक संघर्ष समिति में सम्मिलित राजनीतिक दलों के बहुत नेता गिरफ्तार किए गए थे। किंतु बाहर भी कई नेता थे और संघर्ष चलाने का दायित्‍व उन पर ही था। इनमें से अधिकतर लोक-नेतृत्‍व के गुणों से युक्‍त थे- प्रकृति की गंभीरता, बुद्धि की कुशाग्रता, मन का संतुलन आदि गुणों के वे धनी थे। किन्‍त्‍ु इन सब नेताओं केपास भूमिगत कार्य चलाने योग्‍य संगठन नहीं था। देश के विभिन्‍न भागों की प्रत्‍यक्ष जानकारी सब समय एकत्रित करते रहना, इसके आधार पर कार्य की अगली दिशा समय-समय पर निश्चित करना, नियोजित कार्यक्रमों की जानकारी देश भर के कार्यकर्ताओं तक पहुँचाकर उनके द्वारा उनका क्रियान्‍वयन करवा लेना, ऊपर से नीचे तक तथा नीचे से ऊपर तक की संपर्क -रेखा प्रस्‍थापित करना तथा उसे मजबूत बनाना, इसके लिए कूटभाषा प्रचलित करना, संघर्ष के लिए आवश्‍यक धन आदि साधन सामग्री जुटाना और उसका सुयोग्‍य वितरण करना, जेलों में बंद लोगों के साथ तथा उनके आप्‍तजनों के साथ संपर्क रखना, आपातकाल से पीडि़त परिवारों की सहायता करना, सेवा प्रकल्‍प चलाना, भूमिगत साहित्‍य के प्रकाशन-वितरण की व्‍यवस्‍था करना, भूमिगत कार्यकर्ताओं के आवास, प्रवास तथा बैठकों का व्‍यवस्‍था करना, आपातस्थिति विरोधी कार्यक्रम चाहे वे राजनीतिक दलों के हों या पी.यू.सी.एल. जैसे गैर राजनीतिक संस्‍थाओं के हों- संगठित करने के लिए सक्षम कार्यकर्ताओं की व्‍यवस्‍था करना आदि सभी काम ठीक से करने के लिए सुव्‍यवस्थित संगठन की आवश्‍यकता थी। केवल राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के पास ही ऐसा संगठन था। भूमिगत कार्य संगठित करने का दायित्‍व संघ मशीनरी पर ही आ गया।

संघ मशीनरी की दृढ़ता का परिचय इस बात से मिलता है कि इतनी लंबी अवधि तक संघ को कुचलने के हर संभव प्रयास करने के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी को यह कहना पड़ा कि ''आर.एस.एस. के 10 प्रतिशत भी कार्यकर्ता पकड़े नहीं जा सके हैं। वे भूमिगत हो गए हैं। प्रतिबंध लगने पर भी संघ विश्रृंखलित नहीं हुआ है। इसके विपरीत केरल के समान नए-नए क्षेत्रों में वह जड़े जमा रहा है।'' 'दी हिन्‍दी रिव्‍यू के संपादक एम.सी. सुब्रहमण्‍यम ने लिखा, ''जिन लोगों ने आपातकाल के दौरान संघर्ष को वीरतापूर्वक जारी रखा, उनमें राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के लोगों का विशेष उल्‍लेख करना आवश्‍यक है। सत्‍याग्रह का सफल संचालन करके संपूर्ण देशभर में संपर्क सूत्र कायम रखकर आंदोलन के लिए धन की व्‍यवस्‍था कर, गुप्‍त साहित्‍य का बिना अवरोध के वितरण की व्‍यवस्‍था जमाकर तथा बिना भेदभाव के सभी बंदियों तथा उनके परिवारों को सहायता जारी रखकर उन्‍होंने सिद्ध कर दिया कि वे सचमुच में, स्‍वामी विवेकानंद ने देश के सामाजिक और राजनीतिक कार्य के लिए संन्‍यासियों की जिस सेना की कल्‍पना की थी, उसके वे अधिकतम उत्तर हैं। उन्‍होंने अपने व्‍यवहार से न केवल अपने राजनीतिक सहयोगी कार्यकर्ताओं की प्रशंसा प्राप्‍त की है वरन् कभी जो उनके राजनीतिक विरोधी थे, उनसे भी आदर प्राप्‍त किया है।''

डॉ. शिवराम कारत ने कहा, ''चुनाव की घोषणा होने के बाद स्‍वातंत्र्य का संदेश सामान्‍य जनता तक कौन पहुँचाएगा, यह मेरी सबसे बड़ी चिंता थी। मेरी इस चिंता को दूर किया संघ के कार्यकर्ताओं ने। इसके पहले भी आपातस्थिति के विरुद्ध संघर्ष की जिम्‍मेदारियाँ संभालने वाले और लोकजागृति के लिए संघर्ष करने वालों में 90% (नब्‍बे प्रतिशत) लोग संघ के ही थे। इस प्रकार अपने लिए किसी प्रकार की कोई अपेक्षा न रखते हुए ध्‍येय के लिए सब प्रकार के कष्‍ट उठाने वाले ऐसे हजारों युवकों को मैंने देखा है। कहीं पर भी रहना, कहीं पर भी सोना, जो मिल जाए वह खाना, इस स्थिति में संघर्षमय जीवन बिताने वाले कई कार्यकर्ताओं को मैंने देखा है। ''

राजनीतिक नेताओं की स्थिति भिन्‍न रहती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने उन दिनों में कहा, ''यह एक विचित्र बात है कि भयभीत या लोभ से ग्रस्‍त होने वालों में अधिकांश विधायक या संसद सदस्‍य हैं। साधारण कार्यकर्ता अपने स्‍थान पर अडिग है। ऐसा लगता है कि वर्तमान संसदीय राजनीतिक एक ऐसा सुविधावादी वर्ग तैयार करती है जो अपने स्‍वार्थ पर छोटी-सी चोट भी सहन नहीं कर सकता और परीक्षा की पहली आँच लगते ही भाग खड़ा होता है। ऐसे लोग इतिहास नहीं बना सकते उलटे इतिहास को विकृत करने के प्रयासों में सहभागी होकर कलंक बन जाते हैं। ''

यह विशेष उल्‍लेखनीय है कि संघ ने अन्‍य संस्‍थाओं के समान संस्‍थागत अहंकार न रखते हुए लोक संघर्ष समिति के ही तत्‍वावधान में सारा कार्य किया और विदेशियों से धन या भौतिक सहायता की याचना न करने के अपने प्रण को निभाया।

आपातकाल के पूर्व भारत के राजनीतिक आकाश में एक ही घोषणा निनादित हो रही थी। वह थी 'समग्र कान्ति'। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने यह नारायण पूर्ण श्रद्धा और प्राथमिकता के साथ दिया था। यह घोषणा उनकी 'आत्‍मा की आवाज' थी। किंतु यही बात उन सब नेताओं के लिए लागू नहीं होती थी जो इस नारे को दोहरा रहे थे। उनमें से कई नेताओं का प्रेरणा स्‍थान केवल सत्ता प्राप्ति था और इस नारे को अपनी उद्देश्‍य पूर्ति के एक समर्थ साधन के नाते वे अपना रहे थे। वैसे महात्‍मा गांधी के 'सत्‍य-अहिंसा' पर सिद्धांत के नाते श्रद्धा रखने वाले उनके राजनीतिक अनुयायियों में बहुत कम लोग थे, किंतु उनको समरनीति (Strategy) के नाते 'सत्‍य अहिंसा' उपयुक्‍त प्रतीत होती थी। खैर, क्रांति तो दोनों तरह की हो सकती है। सशस्‍त्र तथा नि:शस्‍त्र, हिंसात्‍मक और अहिंसात्‍मक। केवल हिंसाचार के नाते विचार किया तो दोनों क्रांतियों में जमीन आसमान का अंतर है। दोनों तरह के क्रांतिकारियों की मनोवृत्ति में भी उतना ही अंतर हुआ करता है शास्‍त्राचार की दृष्टि से। किंतु अत्‍याचारी शासन के विरुद्ध जन-जागरण तथा जनशिक्षा करना, जाग्रत लोगों का भूमिगत संगठन खड़ा करना तथा उसका संचालन खड़ा करना, भूमिगत कार्य के लिए आवश्‍यक Two-way Communication की श्रृंखला का निर्माण करना तथा उसको बाधारहित रखना, भूमिगत कार्यकर्ताओं के लिए आचार-संहिता तैयार करना तथा उसके अनुसार व्‍यवहार उनके द्वारा करवा लेना, आदि बातें दोनों क्रांतियों के लिए लगभग समान रूप से लागू होती हैं। इसके विषय में मारिघेला ने शहरी क्षेत्रों के संदर्भ में तथा चे ग्‍वेवारा ने सर्वसाधारण रूप से उपयुक्‍त विवरण किया है। वह अनुभवसिद्ध तथा मार्गदर्शक है। किंतु संघ के प्रथम प्रतिबंध काल में वह उपलब्‍ध नहीं था। फिर, उस समय स्थिति अधिक जटिल थी। आपातकाल के समय साधारण जनता तथा बहुतांश राजनीतिक दल शासन विरोधी थे। प्रथम प्रतिबंध के समय सरकार तथा सरकार द्वारा योजनापूर्वक फैलायी गयी भ्रांतियों के कारण अज्ञान जनता कठिन था। किंतु भूमिगत स्‍वयंसेवकों ने उस विपरीत परिस्थितियों में भी कार्य चलाया और उपरिनिर्दिष्‍ट सभी विषयों से कार्यपद्धति तथा आचार्य संहिता का विकास अपनी ही प्रतिभा के आधार पर किया। इस अनुभव का उपयोग आपातकालीन भूमिगत आंदोलन चलाते समय बहुत हुआ। अन्‍य लोगों के पास इस तरह का अनुभव नहीं था। इस कारण भूमिगत कार्यवाही में विभिन्‍न दलों के नेताओं को सम्मिलित कर लेने का दायित्‍व 'स्‍वयंसेवकों को ही निभाना पड़ा। इस परिस्थिति में आपातकालीन जन आंदोलन के रीढ़ की हड्डी का काम स्‍वयंसेवकों ने किया, यह स्‍वभाविक ही था।

पारिवारिक स्‍वरूप के भावनात्‍मक संबंधों की दृढ़ता, संघ की विशेषता है। संबंध केवल ड्राइंग रूम तक सीमित नहीं रहते, रसोईघर तक पहुँच जाते हैं। भूमिगतजीवन में यह बात बहुत ही महत्‍वपूर्ण सिद्ध हुई। संघ-वर्तुल के बाहर के बड़े-बड़े नेताओं के लिए भी भूमिगत रहना असंभव हो गया था। कुछ अवधि तक जार्ज फर्नांडिस इसके लिए अपवादभूत रहे। अन्‍य कई नेताओं को भूमिगत रखने का दायित्‍व संघ जनों को ही निभाना पड़ा। कर्नाटक के एक उच्‍च पदस्‍थ अधिकारी कर कहना था कि हम शेष सभी नेताओं को पकड़ सकते थे किंतु संघ वालों को नहीं, क्‍योंकि ये संघ वाले किसी भी परिवार में इतने घुल मिल जाते हैं कि अन्‍य परिवार वालों से इनको पृथक पहचान लेना असंभव हो जाता है। भूमिगत कार्य की मशीनरी एवं संपर्क -रेखाएं तैयार करने में संघ ही समर्थ हो सका, इसका यह भी एक प्रमुख कारण रहा।

क्रांति सशस्‍त्र हो, उसकी सफलता के लिए आवश्‍यक हुआ करता है कि क्रांतिकारियों का जनता से सुसंवाद और ऐसा सुसंवाद करने की क्षमता रखते वाले कार्यकर्ताओं की पर्याप्‍त संख्‍या।

आंतरिक प्रचार से जनसमर्थन जुटाया जा सकता है, किंतु केवल प्रचार के आधार पर समर्पित कार्यकर्ता तैयार नहीं किए जा सकते। इसके लिए क्रांतिकारी जनशिक्षण की जरूरत होती है। हरेक आंदोलन के दो उद्देश्‍य होते हैं, स्‍थापित शासन व्‍यवस्‍था को नष्‍ट करना और नयी व्‍यवस्‍था बनाना। इसमें पहला तो जनप्रशिक्षण के बिना भी कहीं-कहीं संभव हो सकता है। किंतु जनशिक्षण के बिना नयी व्‍यवस्‍था गठित करने में पुरानी स्‍थापित व्‍यवस्‍था नष्‍ट करने की पहली उपलब्धि का लाभ नहीं उठाया जा सकता।

जन प्रशिक्षण प्रचार से अलग है। प्रचार का उद्देश्‍य अलग अलग स्‍तर पर जनता की सहानुभूति प्राप्‍त करना तथा कम से कम जनता को उदारवादी और तटस्‍थ बना देना होता है। जन शिक्षण लोगों को क्रांति की गतिविधि में बराबर का भागीदार बना सकता है, जबकि प्रचार ऊपर से नीचे तक सभी को एक दिशा में ही बढ़ाता है। जन प्रशिक्षण सतत वार्तालाप की प्रक्रिया है। नेता निरंतर लोगों से सीधे मिलते रहते हैं, उनकी समस्‍याएँ समझते हैं, उनको सहयोगी मानकर विचार-विनियम और लोगों द्वारा भ्रांति में कही गयी अस्‍पष्‍ट बातों को उन्‍हें स्‍पष्‍ट रूप में समझाते हैं। आन्‍दोलनात्‍मक क्रांतिकारी प्रशिक्षण जनता की सचेत एवं अचेत आवश्‍यकताओं से प्रारंभ होता है। जनता की आंतरिक इच्‍छाओं के प्रति उसे सचेत करना एक बड़ा धैर्य का प्रदीर्घ कार्य है। किंतु इसका कोई विकल्‍प नहीं है। यह भी आवश्‍यक है कि साझे परीक्षण के विषय ऐसे होने चाहिए जिन्‍हें लोग नितांत आवश्‍यक समझते हों। लोगों को उनकी ही बात ठीक तरह से समझने में सहायता करनी पड़ती है। यह तभी संभव हो पाता है जब नेता उनकी बात ठीक तरह से समझ पाएँ, अपनी बात उन्‍हें स्‍पष्‍ट रूप से समझा पाएँ और साझे रूप में परिस्थिति की वास्‍तविकता को समझें। इस घोर सुदीर्घ प्रक्रिया के पश्‍चात् लोगों का अपने में और नेताओं में दृढ़ विश्‍वास होता है। जब वे नेताओं का समर्पण और उनकी स्‍पष्‍ट दृष्टि देखते हैं तो अनजाने ही उनके ध्‍येयवाद को अपना लेते हैं।

यह एक बहुत धीमी और धैर्य की प्रक्रिया है। संसदीय प्रजा‍तांत्रिक पद्धति में तुरंत लोकप्रिय हो जाने की आकाँक्षा से प्रभावित लोगों को अपने आपको इस प्रक्रिया में ढालना नितांत कठिन प्रतीत होगा। इस संदर्भ में जनसंख्‍या का परिणाम, साक्षरता तथा राजनीतिक चेतना का स्‍तर भी विचारणीय होगा। क्रांतिकारी नेता जनता को केवल प्रयोज्‍य सामग्री नहीं मानते, वे जनता से प्रेम करते हैं और उनके लिए सर्वस्‍व त्‍याग करने के लिए सिद्ध रहते हैं। चे ग्‍वेवारा कहते हैं कि ''भले ही यह हास्‍यास्‍पद लगे, फिर भी मैं कहता हूँ कि प्रेम ही सच्‍चे क्रांतिकारी की प्रेरणा होता है। इस गुण के बिना सच्‍चे क्रांतिकारी की कल्‍पना नहीं की जा सकती।''

इस अंत: प्रेरणा के कारण क्रांतिकारी नेता लोगों का केवल उपयोग नहीं करते, अपितु उन्‍हें प्रशिक्षण द्वारा जाग्रत करके संगठित भी करते हैं।

फ्रायर कहते हैं, ''जो नेता लोगों से वार्तालाप नहीं करते, अपने निर्णय उन पर थोपते हैं, वे उनका संगठन नहीं, केवल उनका प्रयोग करते हैं। न वे स्‍वयं मुक्‍त होते हैं, न लोग। वे तो लोगों को दबाते हैं।

ऐसे नेताओं का लोगों में विश्‍वास नहीं होता है। वे लोगों को स्‍वभावत: ही निर्बुद्ध और वार्तालाप के लिए अयोग्‍य समझते हैं और अत्‍याचारियों की ही सारी प्रक्रियाएँ अपनाते हैं। वे भूल जाते हैं कि क्रांति न तो नेता जनता के लिए करते हैं, और न जनता नेताओं के लिए। वह तो दोनों ही अभेद्य एकरूपता से काम करने के कारण होती है। यह एकरूपता जनता के साथ नेताओं के नम्र, प्रेमपूर्ण और धैर्यपूर्ण व्‍यवहार से ही उत्‍पन्‍न होती है।

फ्रायर आगे कहते हैं, ''क्रांति की प्रक्रिया में मेल-मिलाप से विमुख रहने और संगठन करने या शक्ति संचय के बहाने लोगों से बात न करने का मतलब है स्‍वतंत्रता से ही डरना। यह डर लोगों में विश्‍वास न होते के कारण होता है। यदि लोगों में विश्‍वास ही न हो तो उनकी मुक्ति का क्‍या औचित्‍य ? ऐसी स्थिति में क्रांति जनता के लिए नहीं, जनता द्वारा नेताओं के लिए हुआ करती है। यह तो संपूर्ण आत्‍मनिषेध है। जनता से संवाद सच्‍ची क्रांति की मौलिक आवश्‍यकता है। इसी कारण वह सैनिक-सत्तापलट से सर्वथा भिन्‍न क्रांति कहलाती है। क्रांति के जो नेता जनता से संवाद नहीं करते, उनमें शासक का भाव बना रहता है। वे इसी अर्थ में क्रांतिकारी नहीं होते। अपनी भूमिका के बारे में उनकी धारणा गलत होती है। विशिष्‍टता और भिन्‍नता की भावना से ग्रस्‍त ऐसे लोग क्रांतिकारी नहीं होते हैं। वे भले ही सत्ता में आ जाएँ, किंतु ऐसी संवादहीन प्रक्रिया से आयी क्रांति की गुणवत्ता सदैव सन्दिग्‍ध रहती है।''

दुर्भाग्‍य से सभी हिंसक क्रांतियों के नेताओं की निरपवाद रूप से ऐसी ही प्रवृत्ति रही है। इसी कारण हर सफल क्रांति के बाद उसके नेताओं द्वारा तानाशाही शासन आया क्‍योंकि वे नेता बाद में क्रांतिकारी नहीं रहे थे। अहिंसक क्रांति के नेताओं को संवाद की इस प्रक्रिया पर अधिक जोर देना चाहिए, यही उसकी शक्ति का सबसे बड़ा आधार है। संवाद ही उनके विभिन्‍न कार्यक्रमों का उद्देश्‍य होता है। गांधी जी का नमक-सत्‍याग्रह के समय का दांडी मार्च इसका श्रेष्‍ठ उदाहरण है। निरंतर व्‍यक्तिगत निकटता के कारण क्रांतिकारी को लोगों और उनकी समस्‍याओं की प्रत्‍यक्ष जानकारी होती है यथासमय वह जनता के एकरूप हो जाता है।

दोनों प्रकार की क्रांतियों की सफलता के लिए अंतिम अवश्‍यंभावी विजय में दृढ़ विश्‍वास आवश्‍यक है। चे-ग्‍वेवारा कहते हैं, ''जिसे यह असंदिग्‍ध अनुभूति नहीं होती कि जनता के विरुद्ध शत्रु की विजय असंभव है, वह छापामार योद्धा नहीं हो सकता।'' ऐसी अनुभूति के बिना कोई अहिंसक क्रांतिकारी भी नहीं बन सकता।

ये सारे सद्गुण कार्यकर्ताओं में निर्मित करने के लिए बहुत समय देने की तथा सतत कठोर परिश्रम करते रहने की आवश्‍यकता है। दिन-प्रतिदिन की राजनीति में लगे हुए नेताओं के लिए यह संभव नहीं। संघ जैसा संगठन ही पर्याप्‍त मात्रा में ऐसे संवादक्षम कार्यकर्ताओं का निर्माण कर सकता है।

जेल के बाहर रहकर काम करने वाले राजनीतिक नेताओं के लिए और भी एक दिक्‍कत थी। उनमें से अधिकतर लोग पूज्‍य महात्‍माजी की परंपरा में पले हुए, उनके जीवन मूल्‍यों को लेकर चलने वाले थे और 'प्रगतिशील' यानी व्‍यक्तिवादी लोगों की संख्‍या कम थी। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि ध्‍येयविहीन, व्‍यक्तिवादी जीवन मूल्‍यों का ही प्रभाव अधिक रहा। इस कारण सत्‍याग्रह के आह्वान को प्रतिसाद देने वालों की संख्‍या उन‍के दल वालों में कम रही। इस स्थिति में तीन स्‍तरों पर किए गए सत्‍याग्रह को सफल बनाने की जिम्‍मेदारी राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ पर ही आना स्‍वाभाविक था क्‍योंकि उसी के पास ऐसे आदर्शवादी स्‍वयंसेवक विपुल संख्‍या में थे।

इन सब तथ्‍यों का संकलित विचार किया जाए तो यह ध्‍यान में आएगा कि संघ-जनों के योगदान का उचित आकलन न करते हुए लिखा गया आपात्‍कालीन संघर्ष का इतिहास उसी प्रकार होगा जैसे सुंदरकांड-लंकाकांड विरहित रामायण। किंतु इसके लिए संबंधित लेखकों को दोषी नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि संघ के कार्यकर्ता सदा ही प्रसिद्धपराड्.मुख रहे हैं। इस कारण उनके योगदान का विवरण प्राप्‍त होना भी कठिन ही था। फलत: अब तक प्रकाशित हुए साहित्‍य में स्‍वभाविक रूप मे इस दृष्टि से कमी रही है और उस साहित्‍य से उभरकर आनेवाला चित्र भी अपूर्ण तथा अप्रमाणिक रहा है।

शायद इसी कारण दिनांक 18.07.1976 को बम्‍बई में विवाद का भाषण करते समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ तथा भारतीय जनसंघ के लोसंघर्ष में दिए गए योगदान का विशेष उल्‍लेख (special reference) किया था।

किंतु इसके कारण यह कहना गलत होगा कि अब तक के लेखकों ने संघ के योगदान का अपर्याप्‍त उल्‍लेख कर संघ पर अन्‍याय किया है। इस प्रचार के युग में संघ की प्रसिद्धिपराड्.मुख वृत्ति उनके ध्‍यान में आना भी संभव नहीं था। संघ की संपूर्ण योजना का अवश्यंभावी परिणाम यह वृत्ति है। इसको समझना तब तक संभव नहीं, जब तक की संघ की योजना को ही ठीक ढंग से समझा नहीं जाता।

ऐसे तो संघ की सुविचारित योजना के अनुसार संघ स्‍वयं अपने संस्‍कार-स्‍वयंसेवक-संगठन यहीं तक सीमित रखता है। संघ स्‍वयंसेवकों का निर्माण करे और स्‍वयंसेवक अपनी रुचि-प्रकृति के अनुकूल राष्‍ट्र-जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में प्रवेश कर, वहाँ राष्‍ट्र पुनर्निर्माणोपयोगी कार्यों की रचना तथा विचारों का विकास संघ विचारों के प्रकाश में करें, यही मूल योजना रही है। आज इस योजना का क्रियान्‍वयन कुछ मात्रा में होता हुआ देख सकते हैं। वैसे ही संघ-स्‍वयंसेवक व्‍यक्तिगत रूप से विभिन्‍न कार्यों में भाग ले सकते हैं। किंतु संघ-संघश: किसी में भी भाग नहीं लेगा, यही मूल कल्‍पना है। इसलिए सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस ने कहा था-

''जयप्रकाश जी ने कहा है और लिखा भी है कि संघ के कुछ लोग व्‍यक्तिगत तौर पर उनके आंदोलन में हैं, परंतु संघ संगठन के रूप में आंदोलन में सहयोगी नहीं हैं। मैंने भी ऐसा ही कहा है। लोक-हितों की रक्षा के लिए आंदोलन चलते रहेंगे। लोगों को हो रहे कष्‍टों की प्रतिक्रिया आंदोलनों में होगी। स्‍वयंसेवक भी तो जनता में सम्मिलित हैं। उन्‍हें जनता में समझा जाए तो जनता को हो रहे कष्‍टों की अभिव्‍यक्ति स्‍वयंसेवक सबके साथ मिलकर ही करेंगे। उनके जनता के साथ रहने से, संघ आंदोलन चला रहा है- यह बात तो सिद्ध नहीं होती है।''

संघ ने संघश: किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लिया। समाज के दायित्‍वपूर्ण अंग के नाते स्‍वयंसेवकों ने जो उचित समझा, वह सब कुछ किया। जंगल सत्‍याग्रह हो या जयप्रकाश आंदोलन हो, हर अवसर पर यही बात दिखाई दी। किंतु व्‍यक्तिगत रूप से ही क्‍यों न हो। स्‍वयंसेवकों के ऐसा कार्य करने के कारण सरकार की संघ पर अवकृपा हो सकती है, यह चिंता भी संघ ने नहीं की। दिनांक 16 जून 1975 को रोहतक संघ शिक्षा वर्ग में सरसंघचालक जी ने कहा था-

''जुलाई 1949 में संघ पर से प्रतिबंध उठने के बाद से ही पुन: प्रतिबंध लगने की चर्चा शुरू हो गयी थी। वह अभी तक चलती आ रही है। प्रारंभ में हमने उसे गंभीरता से कम ही लिया था परन्‍तु गत जनवरी-फरवरी में उनके लक्ष्‍य करके मैंने अपना वक्‍तव्‍य देना आवश्‍यक समझकर वैसा दिया भी था। संघ के हजार-दो हजार स्‍वयंसेवकों को कारागृह में बंद करने से संघ बंद होने वाला नहीं। वह तो वहीं है। प्रतिबंध आएगा अथवा नहीं आएगा, इसको ध्‍यान में रखकर तो संघ अपना कार्य नहीं कर रहा है। हम दृढ़ निश्‍चय से संघ कार्य को चलाने वाले हैं। प्रतिबंध आने-न-आने की चिंता छोड़कर हमें अपना कार्य निर्भयता से करते जाना है। प्रतिबंध आने पर भी उसका उपयोग अपने कार्य के हित में कर लेने की बातें हमें सोचनी होंगी।''

इस मनोवृत्ति के कारण संघ का नेतृत्‍व संघ पर लगाए गए प्रतिबंध से कभी चिंतित नहीं था। किंतु लोकतंत्र की हत्‍या के कारण संघ के मन में व्‍यथा थी और उसी की पुन: स्‍थापना के लिए पूरी शक्ति लगाकर प्रयास करने का निश्‍चय संघ ने किया। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ को राजसत्ता में रुचि नहीं है। राजसत्ता के हाथी पर नियंत्रण रखने के लिए जाग्रत, सचेत, संगठित जनशक्ति का नित्‍यसिद्ध अंकुश नैतिक नेतृत्‍वरूप महावत के हाथ में रहना आवश्‍यक है, वरना ये हाथी अनियंत्रित अतएव समाजद्रोही बन सकता है, यह संघ की धारणा है।

सत्ता भ्रष्‍ट करती है और अनियंत्रित सत्ता अनियंत्रित भ्रष्‍टाचार का निर्माण करती है। इस दृष्टि से लोकतंत्र की रक्षा का महत्व संघ-नेतृत्‍व स्‍वीकार करता है। भारत में विद्यमान लोकतांत्रिक प्रणाली इस भूमि की उपज नहीं है और इस कारण इस देश की परिस्थितियों और आवश्‍यकताओं की दृष्टि से वह पर्याप्‍त, अनुकूल तथा समर्थ नहीं है, यह सब मानते हैं। किंतु इसकी रक्षा से देश तानाशाही से बच सकता है। भारत की परंपरा, प्रकृति तथा परिस्थिति के अनुकूल नयी रचना करने के लिए आवश्‍यक विचार मंथन तथा कार्यवाही हेतु गुंजायश इस प्रणाली में हो सकती है, तानाशाही में यह सब कुछ हो ही नहीं सकता। इस धारणा के कारण आपातकालजन्‍य तानाशाही का विरोध करना संघ के लिए स्‍वाभाविक कर्तव्‍य ही बन गया था। संघ पर लगाया गया प्रतिबंध इसकी तुलना में एक छोटी बात थी। केवल प्रतिबंध हटाने का उद्देश्‍य आपातकाल में संघ नेतृत्‍व के सामने नहीं था, उद्देश्‍य था तानाशाही को हटाना।

इसी कारण प्रतिबंध हटा लेने की दृष्टि के बाद में सरकार की ओर से जब सशर्त सुझाव आया, तब संघ-नेतृत्‍व ने दृढ़ता के साथ उसको ठुकराया और नि:संदिग्‍ध शब्‍दों में सरकार को बाताया कि संघ पर से प्रतिबंध हटता है या नहीं, यह हमारे लिए महत्‍व का प्रश्‍न नहीं है। महत्‍व का प्रश्‍न है लोकतंत्र की पुन:स्‍थापना का। बाद में हुए निर्वाचन में संघ ने इस प्रणाली की रक्षा हेतु खुलकर भाग लिया। वैसे तो डॉ. हेडगेवार ने स्‍पष्‍ट किया था कि ''संघ दैनंदिन की राजनीति में भाग नहीं लेता'' (The Sangh does not take part in day-to-to politics) संघ स्‍थापना के बाद देश में कितनी बार निर्वाचित हुए, किंतु संघ ने किसी में भी भाग नहीं लिया। सन् 1977 का निर्वाचन इस नियम के लिए एकमात्र अपवाद रहा, क्‍योंकि उस समय के लोकतंत्र में जीवन-मरण का प्रश्‍न होने वाला था। लोकतंत्र के अंतर्गत मौलिक अधिकार, नागरिक स्‍वातंत्र्य तथा सर्वमान्‍य मानव अधिकार सुरक्षित रख सकते हैं। अन्‍य लोकतांत्रिक संस्‍थाओं तथा कार्य तथा कार्यों के समान ही संघ कार्य सुचारू रूप से चले और बढ़े, इसके लिए ऐसे मुक्‍त वायुमंडल की आवश्‍यकता है। संगठन को मौलिक मानव अधिकार सभी उपलब्‍ध हों, यही संघ की भूमिका है।

संघ की धारणा है कि संघ अथार्त संपूर्ण समाज। परिकल्‍पना की दृष्टि से संघ और समाज समव्‍याप्‍त है; मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संघ संपूर्ण समाज के साथ एकात्‍म है। दल, पंथ, संप्रदाय और संस्‍था के नाते कार्य करने वाले लोग संघ की मन: स्थिति की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। इसी मन:स्थिति के कारण कांग्रेस के स्‍वातंत्र्य-प्रस्‍ताव (लाहौर अधिवेशन) का स्‍वागत करते हुए कांग्रेस के निश्चित किए हुए दिन सभी शाखाओं में 'स्‍वातंत्र्य-दिन' मनाने का आदेश डाक्‍टर जी (के.ब. हेडगेवार) ने दिया। प्रथम प्रतिबंध कालावधि के दौरान हुए अन्‍याय-अत्‍याचारों के बावजूद प्रतिबंध हटने के पश्‍चात् श्रीगुरुजी ने ''वयम् पंचाधिकं शतम्''- इस सूत्र का उच्‍चारण किया और आपातकाल तथा संघ-प्रतिबंध समाप्‍त होने के पश्‍चात् बालासाहब देवरस ने कहा, ''फार्गेट एंड फार्गिव'' (भूल जाओ और क्षमा करो) संघ की भूमिका ही ऐसी है। इसमें प्रतिशोध की भावना के लिए स्‍थान न‍हीं। प्रतिशोध कौन किसका लेगा? अपने ही दांत और अपने ही होठ। ''कुपुत्रों जाएत् क्‍वाचिदपि कुमाता न भवति।''

पूरी अवधि में स्‍वयंसेवकों की ओर से संघर्ष के सू्त्र-संचालन का कार्य मा. माधवराव मुले ने किया। उन दिनों उनका स्‍वास्‍थ्‍य बहुत खराब हो चुका था। तो भी सतत असह्य परिश्रम करते हुए पूरी क्षमता के साथ उन्‍होंने नेतृत्‍व का दायित्‍व संभाला। इन परिश्रमों के कारण ही बाद में उनकी अकाल मृत्‍यु हुई। भूमिगत रहते हुए स्‍वास्‍थ्‍य की उस अवस्‍था में, ससंघर्ष माधवराव को उतने कष्‍ट उठाते हुए देखकर किसी को आधुनिक इतिहास के दो वीर पुरुषों का स्‍मरण होना स्‍वाभाविक था। इसी तरह व्‍याधिग्रस्‍त रहते हुए भी बोलिविया के जंगल में गुरिल्‍ला युद्ध का नेतृत्‍व करते हुए शत्रु की गोली का शिकार बनने वाले कामरेड चे. ग्‍वेवारा और गिरफ्तारी के समय जिनके पास केवल ऑक्‍सीजन सिलेंडर मिला, ऐसे नक्‍सलवाद के प्रणेता कामरेड चारू मजूमदार।

संघ की 50 वर्ष की तपश्‍चर्या के कारण इतने सारे स्‍वयंसेवकों की गिरफ्तारी के बावजूद कार्यकर्ताओं की देवदुर्लभ टीम माधवराव जी को उपलब्‍ध हुई थी। उस समय संघ कार्य में कुल 1356 प्रचारक (पूर्णकालिक संगठनकर्ता) कार्यरत थे। इनमें से केवल 189 प्रचारक जेल में थे। पहले संघ कार्य की दृष्टि से छह क्षेत्र थे, अब चार क्षेत्र बनाए गए। माधवराव जी के सहयोगी भाऊराव देवरस तथा मोरोपंत पिंगले; आपातकाल के लिए नियुक्‍त संघ के विभिन्‍न स्‍तरीय अधिकारी; स्‍वयंसेवकों द्वारा संचालित जन-संगठनों के प्रमुख; लोक संघर्ष समिति के संचालन में सहयोगी स्‍वयंसेवक द्वारा; इनके अलावा विभिन्‍न मोर्चों पर संगठक; सहायक या संपर्क प्रमुख के नाते कार्य संभालने वाले कार्यकर्ता, उदाहरणार्थ, नागरिक स्‍वातंत्र्य के मोर्चे के लिए रज्जू भैय्या (प्रो. राजेन्‍द्र सिंह), आचार्य सम्‍मेलन मोर्चे के लिए डा. आबासाहब थत्ते; विदेश संपर्क के लिए बाला साहेब भिड़े, चमनलाल जी, जगदीश प्रसाद सूद तथा केदारनाथ साहनी; राजनीतिक क्षेत्र के लिए रामभाऊ गोडबोले, सुंदर सिंह भंडारी, ओम प्रकाश त्‍यागी तथा उत्तमराव पाटिल; कॉमनवेल्‍थ कान्‍फ्रेन्‍स के मोर्चे के लिए जगन्‍नाथ राव जोशी तथा सहयोगी सांसद; कानूनी मोर्चे के लिए डॉ. अप्‍पा घटाटे; साहित्‍य निर्माण के लिए दिल्‍ली में भानूप्रताप शुक्‍ल तथा वेद प्रकाश भाटिया और नागपुर में अनंतराव गोखले तथा मधु लिमये; साहित्‍य प्रकाशन तथा दिल्‍ली केंद्रीय संपर्क के लिए बापूराव मोघे; धर्माचार्य संपर्क के लिए दादासाहेब आपटे; पत्र प्रतिनिधियों से संपर्क के लिए जगदीश प्रसाद माथुर; महिलाओं के लिए उपयुक्‍त कार्यों की दृष्टि से मौसी जी केलकर के संचालकत्‍व में राष्‍ट्र सेविका समिति कार्यकर्त्रियाँ; और इन सबके सहयोग के लिए अपनी जान हथेली पर लेकर दिन-रात दौड़ने वाले हजारों स्‍वयंसेवक कार्यकर्ता।

इस भूमिगत कार्यकर्ताओं के क्रांतिकारी कार्य का उल्‍लेख न करते हुए लिखा गया आपातकालीन संघर्ष का इतिहास तो वैसे ही होगा जैसे योगेश्‍वर कृष्‍ण के मौलिक योगदान का उल्‍लेख न करते हुए लिखा गया महाभारत-यद्यपि यह सत्य है कि आज सामान्‍य लोग राजसिंहासन की ओर अधिक आकृष्‍ट होते हैं और महाभारतीय युद्ध के पूर्व या पश्‍चात् श्री कृष्‍ण हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर नहीं बैठे थे। उनके सारे प्रयास धर्मराज्‍य की स्‍थापना के लिए थे, स्‍वयं राज्‍य प्राप्‍त करने के लिए नहीं।

इन सब कार्यकर्ताओं की भूमिगत गतिविधियाँ संपर्क , पत्रव्‍यवहार, योजनाएँ आदि बातों का विवरण प्राप्‍त करना साधारण तौर पर असंभव ही था। किंतु सौभाग्‍य से कुछ कार्यकर्ताओं को प्रत्‍यक्ष कार्य करते-करते उसी समय उपरिनिर्दिष्‍ट सब जानकारी प्राप्‍त करते रहने का और उसको लिपिबद्ध करते रहने का अभ्‍यास था। उनके प्रमुख थे मोरोपंत पिंगले। इतिहास-संकलन का उनका स्‍वभाव ही रहा है। इस कारण न्‍यून की पूर्ति में लक्षणीय सहायता हुई। दूसरे चमनलाल जी (झण्‍डेवाला) उनका भी स्‍वभाव इस मामले में उद्यमी है। क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक स्‍तर पर भी ऐसे कुछ कार्यकर्ता निकले। विभिन्‍न प्रदेशों की संघर्षगाथाएँ भी प्रकाश में आयीं।

इसी तरह इस दिशा में उपयुक्‍त कार्य हुआ, तो भी एकत्रित की हुई तरह-तरह की विपुल सामग्री पढ़ना और उसकी व्‍यवस्थित रचना करना बहुत ही परिश्रम का तथा नीरस काम था। प्रारंभिक अवस्‍था में बंगलोर के नागराज, बम्‍बई के प्रा.दा.सी. देसाई तथा अहमदाबाद के नरेन्‍द्र मोदी ने यह काम किया; केरल के आर. बालाशंकर ने इस प्रयास को सघन रूप से आगे बढ़ाया और पूना के एस.पी. कालेज के निवृत्त उप-प्राचार्य प्रो. मा.कृ. उपाख्‍या भाऊ साहब परांजपे ने सामग्री की व्‍यवस्‍था के प्रदीर्घ तथा रुक्ष काम को अंतिम स्‍वरूप दिया। इस विषय में सबसे अधिक परिश्रम 78 वर्षीय युवा भाऊसाहब परांजपे ने किया। दिल्‍ली के डॉ. एस.पी. गुप्‍त तथा प्रो. सुरेश वाजपेयी और तलेगांवदाभाडे के राजाभाऊ मेहेंदले ने प्रो. भाऊसाहेब को सहायता दी।

भोजन बनाने के लिए आवश्‍यक ऐसी सभी वस्‍तुएँ एकत्रित कर उनको सुव्‍यवस्थित रूप से रखा गया, किंतु सवाल था प्रत्‍यक्ष रसोई बनाने का। इस काल के विशेषज्ञ भैयाजी (प्र.ग.) सहस्रबुद्धे तथा माणिकचंद जी वाजपेयी ने यह कार्य कुशलतापूर्वक संपन्न किया। इन दोनों को लेखन कार्य में सहायता करने वाले थे बापूराव वर्हाडपांडे, बाबूराव वैद्य, प्रो. मुनीन्‍द्रमोहन चतुर्वेदी तथा डॉ. श्‍यामबहादुर वर्मा। हो.वे. शेषाद्रि जी और कु.प.सी. सुदर्शन जी ने भी इस कार्य में विशेष रुचि ली।

कविकुलगुरू कालिदास ने कहा है-

''आपारितोषाद् विदुषां न साधु मन्‍ये प्रयोगविज्ञानम्।''

(विद्वानों का पारितोष जब तक प्राप्‍त नहीं होता, जब तक मैं अपने प्रयोग विज्ञान को अच्‍छा नहीं मानूंगा।)

इस संघर्षगाथा के लेखक-द्वय की यही मनोधारणा है।

इतिहास प्रकाशन का काम भी इतना सरल नहीं है। ग्रेट ब्रिटेन में ऐसी पद्धति है कि कुछ महत्‍वपूर्ण अभिलेख (दस्‍तावेज) 30 साल के बाद प्रका‍शित किए जाते हैं। अपने देश में भी कुछ दस्‍तावेजों के संबंध में यही नीति अपनायी जाती है।

जनता पार्टी का शासन कुछ समय तक चलने के पश्‍चात् लोगों को पता चला कि वह पार्टी 'दोहरी सदस्‍यता' के प्रश्‍न पर टूटने जा रही है। लोगों को पता चला कि यह प्रश्‍न नया ही निर्मित हुआ है। किंतु ऐसी बात नहीं थी। एक दल बनाने की बात जब से प्रारंभ हुई, तभी से यह दो‍हरी सदस्‍यता का विवाद प्रारंभ हुआ। सन् 1976 के मध्‍य में ही चौधरी चरण सिंह ने यह मुद्दा उठाया था। उनको बताया गया था कि संघ गैर राजनीतिक संगठन है, संघ का स्‍वयंसेवक अपनी इच्‍छा के अनुकूल किसी भी राजनीतिक दल का सदस्‍य बन सकता है, उस पर बंधन केवल इतना ही है कि वह ऐसे किसी भी राजनीतिक दल में प्रवेश नहीं कर स‍कता, जिसकी निष्‍ठा देश के बाहर हो और जो हिंसा एवं अन्‍तर्घात (Voilence and Sabotage) पर विश्‍वास रखता हो तथा संघ का कोई भी पदाधिकारी किसी राजनीतिक दल का पदाधिकारी नहीं बन सकता। इस तरह का संघ का संविधान-उसकी इस विषय से संबंधित धाराएँ-चौधरी साहब को दिखायी गयी थीं। वे स्‍पष्‍ट वक्‍ता थे। घुमा-फिराकर बात करना उनके स्‍वभाव में नहीं था। उन्‍होंने उसी समय स्‍पष्‍ट रूप से कहा, ''संघ के संविधान में क्‍या लिखा गया है, इससे क्‍या मतलब? मैं देश का प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ। उसके लिए आवश्‍यक है कि मैं पर्याप्‍त संख्‍या में अपने सांसदों को लेकर दिल्‍ली पहुँच सकूँ। पश्चिम उत्तर प्रदेश के 8 जिले मेरी कार्ययोजना का आधार-क्षेत्र (Base of operation) है। इन 8 जिलों के मतदाता में 15 प्रतिशत मतदाता मुसलमान हैं इसलिए मेरी 'कट्टर संघ-विरोधी' छवि का निर्माण होना आवश्‍यक है। आप मुझे संघ का संविधान दिखा रहे हैं। क्‍या आप यह चाहते हैं कि मैं राजनीतिक आत्‍महत्‍या कर लूँ? (Do you want me to commit political suicide?")

प्रारंभ से ही अपनी भूमिका चौधरी साहब ने नि:संकोच रूप से रखी थी। बाद में इस बात को उछालने में अन्‍य कुछ व्‍यवहार चतुर राजनीतिकारों ने भी सहायता दी। किंतु बात नयी नहीं थी।

लोक संघर्ष स‍मिति में सम्मिलित दलों में से एक दल विशुद्ध गांधी तत्त्वज्ञान से प्रभावित था। उसके कारण इस दल के सदस्‍यों से अपेक्षा थी गंभीरता की, अनुशासितता की तथा आचार-संहिता के प्रति श्रद्धा की। यह अपेक्षा लोगों ने प्राय: पूरी की। वैसे ही पूर्वानुमान के प्रकाश में अन्‍य कुछ नेताओं से अपेक्षा थी व्‍यक्तिवादी स्‍वकेंद्रितता की, अनुशासनहीनता की तथा विघटनकारिता की। यह अपेक्षा उन नेताओं ने भी पूरी की। गांधीवादी-सर्वोदयी नेताओं-कार्यकर्ताओं ने भी इस कार्य में 'पत्रं पुष्‍पं फलं तोयम्' की भूमिका से कुछ योगदान दिया। किंतु आचार्य बिनोबा जी तथा उनके शिष्‍य अपवादभूत रहे। सर्वसेवा संघ में पहले दरार और बाद में निष्क्रियता उत्‍पन्‍न होगी, इसके आसार आपातकाल में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई देते हैं। अंतिम चरण में विनाबा जी के कुछ प्रमुख शिष्‍यों ने उनके संदिग्‍ध मार्गदर्शन के विषय में उनके पास अपना असंतोष प्रकट किया था और कुछ अन्‍य कार्यकर्ता इस संदिग्‍धता से अधीर होकर सीधे सरकार के समर्थन के लिए चले गए थे। सारांश: सर्वोदयी आंदोलन का भविष्‍यकालीन चित्र आपातकाल में दिखने लगा था।

डॉ. बाबासाहेब के महानिर्वाण के समय उनके अनुयायियों का समूह विशाल और एकसंघ था। किंतु उनके महानिर्वाण के पश्‍चात् विभिन्‍न कारणों से यह समूह विघटित होने लगा और कई गुटों में बंट गया। इनमें से एक खोब्रागड़े गुट आपातस्थिति का विरोधी था। उनकी रिपब्लिकन पार्टी ने वैसा प्रस्‍ताव भी पारित किया था। इस बिंदु पर रिपब्लिकन पार्टी के सभी गुटों को एकत्रित कर कुछ प्रत्‍यक्ष कार्य किया जाए, ऐसी उनकी कल्‍पना थी। किंतु एकत्रीकरण का बिंदु इतना महत्‍वपूर्ण होते हुए भी वह कल्‍पना साकार नहीं हो सकी। आपातकाल के पश्‍चात् भी यह प्र‍वृत्ति प्रबल होती गयी।

वामपंथियों में सी.पी.आई. (कम्युनिस्‍ट पार्टी) अकेला दल था। जिसने 'एमरजेन्‍सी' का खुलकर समर्थन किया। एक बार किसी भी नीति का समर्थन करना तय हुआ तो फिर उसके पक्ष में तर्क ढूंढ निकालना आसान रहता है। यह निर्णय सी.पी.आई. ने क्‍यों लिया, इसके तीन कारण हो सकते हैं। एक दल के नेताओं की यह प्रामाणिक धारणा रही होगी कि इसी नीति के आधार पर वे अपनी विचारधारा को अधिक विस्‍तृत तथा बलशाली कर सकते हैं। दूसरा यह नीति लेने के लिए मास्‍को ने उसको बाध्‍य किया होगा और तीसरा अवसरवाद। इनमें से किस कारण ने दल की नीति को प्रभावित किया, इसकी प्रत्‍यक्ष जानकारी उपलब्‍ध नहीं हुई है। केवल अनुमान के आधार पर दोषारोपण करना अनुचित होगा। फिर भी यह तो सत्‍य ही है कि सरकार पर आश्रित होने वाले व्‍यक्तियों या दलों में जो दोष और दुर्बलताएँ स्‍वाभाविक रूप से उत्‍पन्‍न होती हैं उनका प्रवेश धीरे-धीरे सी.पी.आई. के कार्यकर्ताओं में होना प्रारंभ हुआ था और उनकी मूल संघर्षशीलता समाप्‍त होने लगी थी। कामरेड इन्‍द्रजीत गुप्‍त जैसे थोड़े से शिखरस्‍थ नेता ही इस बीमारी से अछूते रहे थे। किंतु आगे चलकर इस प्र‍वृत्ति को रोकना उनके लिए भी असंभव नहीं हुआ।

सी.पी.एम. तथा उसके विविध क्षेत्रीय जन-संगठन आपातस्थिति के विरोध में थे। संघर्षेच्‍छु भी थे। उनके हर एक जन संगठन की संघर्ष क्षमता एक जैसी नहीं थी। सी.पी.एम. परिवार में मजदूर संगठन 'सीटू' अधिक संघर्षक्षम था। किंतु आपातकाल में सी.पी.एम. के कार्यकर्ता अपनी संघर्ष शक्ति से संतुष्‍ट नहीं थे। उनमें से कुछ लोगों को एक बात का आश्‍चर्य होता था। उनकी दृष्टि में आर.एस.एस. के 'दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी, दकियानूसी' संगठन था जिसके पास कोई आर्थिक नीति या कार्यक्रम नहीं था। आर्थिक कार्यक्रमों के आधार पर ही जन साधारण को संघर्षशील बनाया जा सकता है। यह वामपंथियों की मान्‍यता रही है। किंतु प्रत्‍यक्ष संघर्ष का समय उपस्थित होने पर दिखाई दिया कि संघ जितनी मात्रा में अपने अनुयायियों को संघर्ष के लिए मैदान में उतार सकता है, उतनी मात्रा में वामपंथी नहीं उतार सकते। यह कैसे हुआ? उनकी चिरकालीन मान्‍यता के विपरीत दृश्‍य-निर्माण कैसे हो सका? इस पर मौलिक पुनर्विचार की आवश्‍यकता है, ऐसा विचार सी.पी.एम. के कुछ शीर्षस्‍थ नेताओं के मन में हुआ। आलोचना-आत्‍मालोचना (criticism-self-criticism) की पद्धति में कई वर्षों तक रहने के कारण इस तरह का विचार करने की क्षमता उनके मन में निर्मित हुई होगी। संगठन की दृष्टि से आपातकाल में सी.पी.एम. की स्थिति केरल तथा बंगाल में एक जैसी नहीं दिखाई दी।

केरल में यह दिखाई देता था कि जिस व्‍यक्ति को केरल कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का अखिल-केरल 'नेता' की संज्ञा दी जाए, ऐसे अंतिम व्‍यक्ति ए.के. गोपालन थे। कामरेड नंबूद्रीपाद का कार्यकर्ताओं के साथ यानी धरती के साथ घनिष्‍ठ संबंध नहीं रहा। अन्‍य नेता अपने क्षेत्र के मंडल, तालुका या जिले के पार्टी नेता अवश्‍य थे, किंतु गोपालन के अलावा दूसरा कोई भी नेता ऐसा नही था कि जिसका शब्‍द केरल कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सभी लोग प्रमाण मानें। किसी नेता के शब्‍द उनके मंडल के तो किसी का उनके जिले के एक हिस्‍से के पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रमाणभूत प्रतीत होता था। ऐसा ही दृश्‍य उस समय था। अखिल-केरल-नेतृत्‍व का अभाव आने वाले दिनों में अधिकाधिक प्रकट होगा, यह कल्‍पना आपातकाल में भी की जा सकती है।

बंगाल सी.पी.एम. की स्थिति भिन्‍न थी। बंगाल के सी.पी.एम. के संगठन पक्ष (Organisational wing) को विधानमंडल पक्षा (Legislative wing) से बिल्‍कुल अलग रखा गया था और संगठन पक्ष सर्वोपरि था, यह मान्‍यता प्रचलित थी। संगठनात्‍मक ढाँचे के प्रमुख कामरेड प्रमोद दासगुप्‍ता लौहपुरुष थे। अपनी तपस्‍या के कारण नैतिक आधार के भी धनी थे। जो बात जनता में लोकप्रिय होते हुए भी कामरेड ज्‍योति बसु को उपलब्‍ध नहीं थी। जनता में बोलबाला ज्‍योति बसु का और पार्टी पर पकड़ प्रमोद दासगुप्‍ता की। कामरेड दासगुप्‍ता की मृत्‍यु के पश्‍चात् कुछ समाचार-पत्रों ने लिखा था कि इतने वर्षों तक वाममोर्चा शासन में रहा, किंतु कामरेड प्रमोद दासगुप्‍ता एक बार भी सचिवालय में या किसी मंत्री या मुख्‍यमंत्री के चैंबर में नहीं गए। संगठनात्‍मक ढाँचे का विधानमंडल पक्ष (Legislative wing) का प्रभुत्‍व था। इस कारण बंगाल की सी.पी.एम. में वे दोष नहीं दिखाई दिए जो विधायक पक्ष के प्रभुत्‍व के कारण निर्मित होते हैं। विधायक पक्ष (Legislative wing) का प्रभुत्‍व होने से अस्‍वस्‍थ जीवन-मूल्‍य प्रभावित होते हैं और ये ध्‍येयवादी कार्यकर्ताओं को धीरे-धीरे पथ-भ्रष्‍ट कर सकते हैं। आपातकाल में बंगाल की सी.पी.एम. इस भय में मुक्‍त थी और कामरेड प्रमोद दासगुप्‍ता की मृत्‍यु तक यह स्थिति कायम रही।

संघर्षशीलता की दृष्टि से बंगाल में सी.पी.एम. के साथ शासन में तथा विराध में संयुक्‍त मोर्चा बनाने वाले अन्‍य वामपंथी दलों की भी स्थिति सी.पी.एम. के समान ही थी। उनके सामने संगठनात्‍मक या संसदीय प्रभुत्‍व का प्रश्‍न नहीं था। किंतु संघर्षक्षमता में कमी आ रही थी। फारवर्ड ब्‍लाक के चित्त बसु या आर.एस.पी. के त्रिदिव चौधरी जैसे नेताओं की संघर्षशीलता व्‍यक्तिगत रूप से कायम थी।

केरल के नंबूद्रीपाद ने निको प्रसन्‍न करने के लिए मल्‍लापुम् जिले का छोटा पाकिस्‍तान निर्मित कर दिया, वे इस संघर्ष की ओर उदासीनता की दृष्टि से देख रहे थे। केरल कांग्रेस का भी यही रवैया था। किंतु संगठन कांग्रेस के कई उच्च पदस्‍थ ईसाई संघर्ष में सक्रिय रहे। निर्वाचन की घोषणा के पश्‍चात् महाराष्‍ट्र व उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने और अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय के कुछ लोगों ने जनता पार्टी का समर्थन किया।

हिंदू-मुस्लिम समस्‍या के विषय में सब लोग जानकारी रखते हैं। इस विषय में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ को अकारण बदनाम करके 'उससे मुसलमानों को भय है और संघ के भय से मुक्ति देने का काम हम ही कर सकते हैं''- ऐसा दावा करके मुसलमानों को हिंदुओं से अलग रखने की चाल विभिन्‍न राजनीतिक दलों तथा नेताओं ने प्रारंभ से चलायी थी। किंतु जेलों में मुसलमानों का संघ जनों से प्रत्‍यक्ष संबंध आया। संघ तो भारत माता के सभी सत्‍पुत्रों को सदैव राष्‍ट्रीय यानी हिंदू ही मानता आ रहा है- चाहे उनकी उपासना-पद्धति जो कुछ भी हो। इस कारण स्‍वयंसेवक वहाँ अपने संबंध में आने वाले मुसलमानों को अपनी प्रकृति के अनुसार सच्‍चा प्‍यार देने लगे। मुसलमान भी इस प्‍यार की सत्‍यता की अनुभूति करने लगे। सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी के संपर्क में आने वाले मुसलमान बंधु उनके प्रति श्रद्धा तथा आदर रखने लगे। हिंदू-मुस्लिम-एकता सच्‍चे निरपेक्ष प्रेम के आधार पर ही हो सकती है, उनका प्रत्‍यक्ष अनुभव वहाँ आया। सौदेबाजी से हृदय की एकता नहीं हो सकती, उससे तो दोनों संबंधित पक्ष एक-दूसरे से निरंतर दूर ही जाते रहे हैं। निष्‍काम स्‍नेह से ही सच्‍ची एकता संभव है। जेलों में यही साक्षात्‍कार सभी संबंधित लोगों को हुआ। इसका प्रतिबिंब सरसंघचालक जी के आपात्‍कालोत्तर भाषणों में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई देने लगा। संघ की निष्‍काम भक्ति से ही एकता का निर्माण हो सकता है, यह विश्‍वास दोनों तरफ बढ़ा। किंतु भाई-भाई एक दूसरे को गले लगाएँ यह बात राजनीतिक मंथराओं को जंचना संभव नहीं था। 'फूट डालो और शासन करो'- यह नीति अपनाने वाले कूट-राजनीतिक नेताओं ने सत्ता-पिपासा के कारण फूट डालने वाली सौदेबाजी की प्रलोभनात्‍मक कार्यवाहियाँ फिर से प्रारंभ की और लंबी देर तक प्रलोभन का शिकार न बनने के लिए आवश्‍यक दृढ़ता सामान्‍य लोगों में नहीं हुआ करती। कूट-राजनीतिज्ञों की यह चालबाजी आज भी चल रही है। किंतु जेलों के अनुभव ने यह स्‍पष्‍ट किया है कि एकता का सच्‍चा उपाय पारस्‍परिक हार्दिक प्रेम ही है, राजनीतिक सौदेबाजी नहीं।

इस तरह प्रेम दूसरों से करना उनके लिए संभव है जो व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ या सत्तालिप्‍सा से दूर है। इनमें कोई संदेह नहीं कि कालांतर में मुसलमान भी इस तथ्‍य को समझ सकेंगे क्‍योंकि कोई भी नेता, फिर वह कितना भी चतुर हो, सब लोगों को सर्वदा के लिए गुमराह नहीं कर सकता। संघ-स्‍वयंसेवकों का निरपेक्ष प्रेम ही अंततोगत्‍वा सच्‍ची तथा स्‍थायी हिंदू-मुस्लिम एकता का निर्माण कर सकेगा, यह विश्‍वास कारावास के जीवन के आधार पर संबंधित लोगों में निर्मित हुआ। यह उल्‍लेखनीय है कि उस समय स्‍वस्‍थ वातावरण में दिल्‍ली के शाही इमाम मौलाना अब्‍दुल्‍ला बुखारी ने अपनी पत्रकार-परिषद् में कहा था, ''संघ वाले हिंसाचारी हैं, यह आरोप बेबुनियाद हैं।'' किंतु इस तरह का हिंदू-मुस्लिम सामंजस्‍य राजनेताओं को सहन होना असंभव था।

उत्तरपूर्वी भारती का नागालैंड आदि क्षेत्र संघर्ष में उदासीन रहे। राष्‍ट्रीय मुख्‍य प्रवाह से स्‍वयं अपने को पृथक समझने की उनकी प्रवृत्ति इस उदासीनता का प्रमुख कारण रही। कालांतर में यह पृथकता का भाव बढ़ता गया, किंतु उसका अस्‍पष्‍ट आभास आपातकाल में हो रहा था।

इस संघर्ष में एक और बात प्रकर्ष से सामने आयी। संपूर्ण प्रचार-माध्‍यमों (मास-मीडिया) पर सरकार का शत-प्रतिशत नियंत्रण था। सरकार और सरकारी दल को अनुकूल प्रसिद्धि लगातार मिल रही थी। विपक्षियों के लिए जनता के पास पहुँचने के अधिकृत माध्‍यम कोई भी उपलब्‍ध नहीं थे। आपातस्थिति का और दमननीति का औचित्‍य देश-विदेश की जनता को समझाने के लिए भारत सरकार की संपूर्ण मशीनरी उपयोग में लायी जा रही थी। प्रचार की दृष्टि से विरोधियों की विवशता और सरकार की सर्वसाधन-संपन्नता। यह वस्‍तुस्थिति चुनाव कर लेने के पक्ष में निर्णय होने के लिए बहुत मात्रा में जिम्‍मेदार थी। सरकारी दल और सरकारी नेताओं की प्रतिमा उज्‍जवल दिखाने का इतना बहुत और जन-प्रचार-माध्‍यमों (मास-मीडिया) की दृष्टि से अबाध प्रयास इसके पूर्व कभी भी नहीं हुआ था। फिर भी निर्वाचन के परिणाम विपरीत आए। इससे यह स्‍पष्‍ट हुआ कि अवसरों पर 'मास-मीडिया' की उपयोगिता है, यह तो सही है, किंतु वह उतना अधिक नहीं है जितनी सामान्‍यत: लोग मानते हैं। एकांगी सरकार प्रचार का अतिरेक हुआ, फलस्‍वरूप सामान्‍यजन भी उसको अविश्‍वसनीय मानने लगे।

गलत सरकारी नितियों के कारण असंतोष बढ़ता चला गया यह तो सर्वविदित है, किंतु बहुत लोग यह नहीं जानते की इनमें से कुछ नीतियाँ विदेशी पूँजीपतियों के दबाव के कारण मजबूर होकर अमल में लानी पड़ीं। कठोरतापूर्वक नसबन्‍दी के कार्यक्रम के कारण जनता में क्षोभ बढ़ रहा है, इसकी जानकारी सरकार को थी। उनकी ही इच्‍छा पर मामला छोड़ा जाता तो शायद वे इस कार्यक्रम में नरमी लाते। किंतु मजबूरी थी। विदेशी पूँजी का आग्रह था। जिनसे पैसा लेना होता है उनकी बातें माननी ही पड़ती हैं।

आपातस्थिति-विरोधी प्रचार विदेशों में करने में विपक्षी सफल हुए, इसका प्रमुख कारण विरोधी कार्यकर्ताओं की ध्‍येयवादी कुशलता और विदेशस्‍थ भारतीयों की देशभक्ति तथा लोकतंत्र में प्रबल आस्‍था तो रही ही, किंतु इसमें बड़ी सहायता इस तथ्‍य के कारण भी हुई कि हमारे दूतावास सदैव अकार्यक्षम रहे हैं, अपने-अपने कार्य क्षेत्र के भारतीय तथा स्‍थानीय लोगों से संपर्क रखने में वे सदा ही लापरवाही बरतते रहे और अवसर आने पर इस त्रुटि को एकदम दूर करना उनके लिए संभव नहीं हुआ। उस कालखंड का अनुभव ध्‍यान में रखकर बाद में इस दृष्टि से कुछ सुधार हुआ है, ऐसा विश्‍वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

भूमिगत प्रचार-साहित्‍य का वितरण करने में ऐसे भी लोगों ने खतरा मोल लेकर सहयता की, जो किसी भी राजनीतिक या गैर-राजनीतिक दल या संस्‍था से संबद्ध नहीं थे। देश और लोकतंत्र के प्रति निष्‍ठा ही उनके साहस का प्रेरणास्रोत रहा।

बीच की अवधि में विभिन्‍न कारणों से उदासीन और निष्क्रिय बने हुए स्‍वयंसेवक बाकी सब कारणों को भूलकर सक्रिय बन गए और संघर्षकारियों के कंधा से कंधा लगाकर खड़े हो गए। संघ पर लगाए गए प्रथम प्रतिबंध के समय जो स्‍वयंसेवक बाल, किशोर या जीविकोपार्जन-विरहित युवा थे वे आपातकाल के समय गृहस्‍थाश्रमी जीवन व्‍यतीत कर रहे थे, इसके भी अपेक्षित परिणाम अनुभव में आ रहे हैं।

साथ ही साथ शाखा पर नियमित उपस्थित होने वाले बाल स्‍वयंसेवकों ने भी जनता को आश्‍चर्यचकित करने वाले साहसिक कार्य किए। देश की राजधानी में पुलिस की पूरी व्‍यवस्‍था रहने के बावजूद बृहत सभा में बाल स्‍वयंसेवकों द्वारा राष्‍ट्रपति के सम्‍मुख किया गया निषेध-प्रदर्शन ऐसे अनेकानेक कार्यों में से एक रहा है। जनमानस पर इस साहसिक प्रदर्शन का अत्‍यधिक प्रभाव रहा।

इस संघर्ष में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का स्‍थान अद्वितीस था। असंतोष बढ़ने के सभी कारण उनके सक्रिय होने के पूर्व भी विद्यमान थे। किंतु उनके राजनीति-प्रवेश के पश्‍चात् इस असंतोष को जैसा नया मोड़ मिला, वैसा उसके पूर्व नहीं मिल सका, यद्यपि संघर्ष में सम्मिलित सभी राजनीतिक दल और नेता पहले भी सक्रिय थे। उनके व्‍यक्तित्‍व के कारण संघर्ष में समन्‍वय रहा। इससे स्‍पष्‍ट हुआ कि भारत की जनता विशुद्ध नैतिक नेतृत्‍व का सर्वाधिक सम्‍मान करती है, उसी में निरपवाद, पूर्ण श्रद्धा रखती है। निर्वाचन के पश्‍चात् 'प्रधानमंत्री' पद का चयन करने में जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी को जो भूमिका सर्वसम्‍मति से प्रदान की गई थी, वह भी इसी सत्‍य की परिचायक थी। उस पद्धति से प्रधानमंत्री का चयन संसार के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ और भारत के बाहर वैसा किसी भी देश में हो नहीं सकता। जब तक जयप्रकाश जी के प्रभाव में राजनेता चलते रहे, तब तक जनता सर‍कार भी ठीक ढंग से चलती रही। धीरे-धीरे विघटन की ओर बढ़ने लगी। भारत में नैतिक नेतृत्‍व और राजनीतिक नेतृत्‍व का यह परस्‍पर संबंध ध्‍यान में रखने योग्‍य है।

'धर्मदण्‍ड्योऽसि' - इस अनुशासन को केवल भाषालंकार मानने वाले शासकों के विषय में 'राजतरंगिणी' के रचनाकार कल्‍हण ने निम्‍न अभिप्राय प्रकट किया है:-

''गर्भवासव्‍यथां जात: शरीरी विस्‍मेरद् यथा

प्राप्‍तराज्‍यसत्‍था राजा नियतं पूर्वचिन्‍ततम्।।''

(गर्भवास की व्‍यथाएँ जन्‍म प्राप्‍त होते ही जैसे मनष्‍य भूल जाता है, वैसे ही राज्‍य प्राप्‍त होने के पूर्व सोची गयी सब बातें राज्‍यप्राप्ति के पश्‍चात् राजा भूल जाता है।)

राज्‍यारोहण-समारोह के लिए शिवाजी महाराज निकले तो उस समय रासिंहासन की ओर बढ़ने वाल एक-एक कदम पर उन्‍हें अपने उन सहस्रों वीरव्रती सहयोगियों का उत्‍कट स्‍मरण हो रहा था जिन्‍होंने हिंदवी स्‍वराज्‍य की स्‍थापना के लिए अपने प्राण अर्पण किए थे। गेटीस्बर्ग की यात्रा करते समय अब्राहम लिंकन की आँखें शहीदों की स्‍मृति में सतत अश्रुपूर्ण हो रही थीं। वहाँ के उनके ऐतिहासिक भाषण का प्रेरणास्रोत हुतात्‍माओं का भावपूर्ण स्‍मरण ही था। आपातकाल के पश्‍चात् शासन की बागडोर हाथ में लेते समय कितने राजनेताओं की मन:स्थिति इस तरह की थी, यह कहना तो कठिन है किंतु इसमें संदेह नहीं कि लोकतंत्र की पुन:स्‍थापना के लिए जिन असंख्‍य अज्ञात देशभक्‍तों ने (अनुक्‍ता ये भक्‍त:) त्‍याग, सर्वस्यर्पण तथा आत्‍म-बलिदान किया, उसकी पवित्र स्‍मृति कृतज्ञ भारतीय जनता के हृदय-पटल पर सदा के लिए अंकित रहेगी।

संघर्ष के सैनिक-सेनापति-हुतात्‍माओं का स्‍मरण तो रखा ही जाएगा, किंतु उन सबको उनके उज्‍जवल कार्य के लिए प्रेरित करने वाले या उस कार्य में उनकी सहायता करने वाले और इस प्रक्रिया में स्‍वयं अपने को असहनीय दु:ख कष्‍टों का शिकार बनने देने वाले असंख्‍य लोगों को हम भूल सकते हैं क्‍या? उन्‍होंने अपनी त्‍यागमय तथा ध्‍येयवादी भूमिका निर्वाह न ही होती तो रण मैदान में पराक्रम करने वाले वीर पुरुषों को अपना वीरव्रत कठिन हो जाता। संघर्ष-सेना की यह द्वितीय पंक्ति घरों में और रसोईघर में काम करने वालों की रही है। हमारी माताएँ बहिनें, भाभियाँ आदि इस द्वितीय पंक्ति में आती हैं। इसका प्रतिनिधिक स्‍वरूप का वर्णन नाना ढोवले के 'बहिनी' में प्राप्‍त होता है। अपने वाली पीढियाँ इनके योगदान को भूल जाएगी।

सशस्‍त्र क्रांतियुद्ध या नि:शस्‍त्र शांतियुद्ध (सत्‍याग्रह) का शास्त्र न जानने वाले इस बात की अनुभूति नहीं कर सकते कि दोनों युद्धों में यश प्राप्‍त होने के लिए केवल सैनिकों का कार्य पर्याप्‍त नहीं होता। तरह-तरह की आपूर्ति की व्‍यवस्‍था आवश्‍यक हुआ करती है। Logistics युद्ध प्रयास का एक महत्‍वपूर्ण तथा अपरिहार्य अंग है। इस मोर्चे को संभालने वालों हजारों लोगों को भी विस्‍मृत नहीं किया जा सकता।

वैसे ही, कोई भी क्रांति या सत्‍याग्र‍ह तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक क्रांतिकारियों या सत्‍याग्रहियों के विषय में उपकारक तटस्‍थता की वृत्ति रखने वालों की संख्‍या समाज में बहुत बड़ी नहीं रहती। ये लोग समर्थक या विरोधक की भूमिका में नहीं रहते। तटस्‍थ ही रहते हैं। किंतु उनकी यह तटस्‍थता आंदोलनकारियों के लिए आंतरिक सहानुभूति से युक्‍त रहती है। ऐसे लोगों को तांत्रिक दृष्टि से संज्ञा दी गयी है। 'A zone of Benevolevent Netutrality'.

आपातकाल में जनसाधारण के मन में भय की भावना प्रबल थी, यह सही है। किंतु यह भी सही है कि उपकार तटस्‍थता का क्षेत्र (A zone of Benevolent Neutrality) भी विस्‍तृत था। इस क्षेत्र (zone) का अंतिम यश के श्रेय में जो हिस्‍सा रहा है उसको भूल जाना अन्‍यायपूर्ण रहेगा।

अनुभवी विद्वानों का निष्‍कर्ष है कि निम्‍न दो अर्धसत्‍यों को मिलाकर एक पूर्ण सत्‍य बनता है। एक इतिहास में कोई भी दो घटनाएँ या परिस्थितियाँ बिल्‍कुल एक जैसी नहीं हुआ करतीं और दूसरा यह कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती रहती है। इसी विचार के कारण नेपोलियन ऐतिहासिक समानांतरों (Historical Parallels) को महत्‍वपूर्ण मार्गदर्शक मानता था। राष्‍ट्र के भविष्‍य के विषय में चिंता करने वाले नीति निर्धारकों को इसी तरह सोचना पड़ता है। इसका कारण भी है। यह सत्‍य है कि कोई भी दो व्‍यक्ति बिल्‍कुल एक जैसे नहीं हो सकते। इस अर्थ में हर एक व्‍यक्ति अनुपम (unique) है। और हर व्‍यक्ति विनाशी भी है। किंतु मनुष्‍य मात्र को प्रेरित करने वाली विभिन्‍न प्रवृत्तियाँ चिरकालिक हैं, और उनके प्रभाव के फलस्‍वरूप विभिन्‍न कालों के विभिन्‍न व्‍यक्तियों के कार्यकलापों का स्‍वरूप एक जैसा हुआ करता है।

चंगेज खान, तैमूर, स्‍टालिन, हिटलर इनमें से हर एक का अपना विशिष्‍ट व्‍यक्तित्‍व है और उन विशेषताओं के अनुसार उनके विचारों-अचारों में भिन्‍नता पायी जाती है। किंतु इन सब में कुछ प्रवृतियाँ समान हैं। उन प्र‍वृत्तियों के प्रभाव के कारण होने वाले उन सबके क्रियाकलापों में समानता पायी जाती है। यही बात भगवान बुद्ध, ईसा मसीह और महात्‍मा गांधी के बारे में भी सही है। श्रीमती इन्दिरा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण, ये दोनों व्‍यक्तियों के नाम हैं और ये दोनों व्‍यक्ति नाशवंत हैं। किंतु ये दोनों ही भिन्‍न प्रवृत्तियों के प्रतीक के नाते दोनों चिरजीवी हैं, अमर हैं। इस कारण दोनों उपर्युक्‍त विचार ठीक है। एक गत आपातकाल के समय जो घटनाएँ हुईं उनकी वैसी पुनरावृत्ति भविष्‍य में कभी हो नहीं सकती। और दूसरा यह कि उस कालखंड में सक्रिय व्‍यक्तियों की सत्-असत् प्रवृत्तियाँ चिरजीवी हैं और उनके समयानुकूल आविष्‍कार भविष्‍य में होते ही रहेंगे। इस अर्थ में आपातकाल के इतिहास की पुनरावृत्ति स्‍वाभाविक मानी जानी चाहिए।

ऐतिहासिक समानांतरों (Historical Parallels) का मार्गदर्शन के लिए महत्‍व इसी कारण स्‍वीकार किया गया है। इस तथ्‍य का साक्षात्‍कार न रहा तो ध्‍येयवादी व्‍यक्ति भी धैर्यवादी नहीं बन सकता। उपस्थित समस्‍या के लिए छेड़े गए संघर्ष में वह तन-मन-धनपूर्वक सक्रिय तो हो जाता है, किंतु संघर्ष समाप्ति के पश्‍चात् कोई भी मूलगामी विचार मन में न होने के कारण वह राहत की तथा आत्‍मसंतोष की भावना का अनुभव करता है। वह ''गुणा: गुणेशु वर्तन्‍त''- इस रहस्‍य को समझ नहीं सकता। बच्‍चों की कहानियों में त्रिकोण में विजय प्राप्‍त करते हुए नायक तथा नायिका का मिलन हो जाता है ओर उसके बाद लिखा रहता है, ''और उसके बाद वे सदा के लिए सुखी जीवन व्‍यतीत करने लगे।'' (And then they lived happily forever and ever and ever)। किसी भी विजय के पश्‍चात् अदूरदर्शी कार्यकर्ता के मन में यही सुखद भाव स्‍थायी हो जाता है क्‍योंकि किसी भी घटना का अन्‍वयार्थ समझ लेने के लिए मूलगामी चिंतन की आवश्‍यकता होती है, वह जानता नहीं। और फिर प्रकृति ने एसकी सुखमय अपेक्षा के विपरीत घटनाक्रम का सूत्रपात किया तो वह आश्‍चर्यचकित हो जाता है, घटनाक्रम के कारण रुष्‍ट हो जाता है। ''क्षणे रुष्‍टा: क्षणे तुष्‍टा:- रुष्‍टास्‍तुष्‍टा: क्षणे क्षणे''- ऐसी उनकी मन:स्थिति बन जाती है।

ऐसे अव्‍यवस्थितचित्त कार्यकर्ता की प्रसन्‍नता भी भयंकर मानी जाती है। दिनांक 14 जुलाई, 1789 को वेस्टिल कारावास तोड़ा गया। दिनांक 02-12-1804 को नेपोलियन को 'सम्राट' घोषित किया गया। पहली घटना के प्रत्‍यक्षदर्शियों में से बहुसंख्‍यक क्रांतिकारी दूसरी घटना के समय जीवित होंगे, ऐसा माना जा सकता है। इस तरह से घटना का चक्र (वर्तुल) पूरा होना उन‍के लिए कितना अनपेक्षित रहा होगा। वॉल्‍टेयर और रूसो के अनुयायियों की मन:स्थिति कैसी रही होगी?

इस दृष्टि से यूरोपीस कम्‍युनिस्‍ट भाग्‍यशाली हैं। नवंबर 1917 (उनकी दृष्टि से अक्‍टूबर 1917) में कम्‍युनिज्‍म की विजय यात्रा का प्रारंभ रूस में हुआ और दिसंबर 1989 में यूरोपीय कम्‍युनिज्‍म का अंतिम दुर्ग रूमानिया ढह गया। पहली घटना के प्रत्‍यक्षदर्शियों में से शायद ही कोई दूसरी घटना देखने के लिए जीवित रहा होगा किंतु वर्तुल पूरा करने का काम प्रकृति ने किया ही और मूलगामी चिंतन के आधार पर अन्‍वयार्थ समझने वाले किसी भी व्‍यक्ति को यह बात आश्‍चर्यजनक प्रतीत नहीं हुई।

अमरीका के स्‍वातंत्र्य-संग्राम के अंतिम चरण में राजनीतिक नेताओं की राष्‍ट्र-विरोधी व्‍यक्तिवादी प्र‍वृत्तियों को देखकर जॉर्ज वाशिंगटन के सभी सहयोगियों ने एक मुख से यह सुझाव दिया था कि देश का भाग्‍य ऐसे संकीर्ण मनोभाव के नेताओं के हाथों में न सौंपते हुए स्‍वयं वाशिंगटन को ही संपूर्ण सत्ता अपने हाथ में लेनी चाहिए। सेना उसका हृदयपूर्वक साथ देगी और सेना को छोड़कर देश में आज दूसरा कोई भी शक्ति-केंद्र विद्यमान न होने के कारण सत्ता हथियाने का यह प्रयास निर्विघ्‍न रूप से सफल हो सकता है। किंतु यह व्‍यवहार्य होते हुए भी वाशिंगटन ने इसको स्‍वीकार नहीं किया और विजय-प्र‍ाप्ति के पश्‍चात् देश का संविधान बनवा लिया तथा उसके अनुसार निर्वाचन करवाया गया। यह बात अलग है कि जनता ने निर्वाचन में वाशिंगटन को ही राष्‍ट्रपति के नाते चुन लिया।

डा. अम्‍बेडकर बताते हैं कि उस समय राष्‍ट्रपति बनने की वाशिंगटन की कतई इच्‍छा नहीं थी। फिर भी जनता की इच्‍छा को उन्‍होंने स्‍वीकार किया। किंतु यह कार्यकाल पूरा होने के पश्‍चात् दोबारा जब उनको कहा गया तब उन्‍होंने अस्‍वीकार कर दिया। उन्‍होंने कहा कि हमने स्‍वातंत्र्य-संग्राम क्‍यों किया था? इसीलिए न कि इंग्लैंड के 'किंग' की एकाधिकारशाही हमें स्‍वीकार नहीं थी। उस तानाशाही से तो हमनें छुट्टी पा ली, और अब आप मुझे उसी स्‍थान पर बिठाना चाहते हैं। यह तो मूल सिद्धांत के ही प्रतिकूल है। यह सिद्धांतहीनता मैं स्‍वीकार नहीं कर सकता। उनके कड़े विरोध के बावजूद परिस्थिति-विशेष के कारण उनको दूसरी बार राष्‍ट्रपति पद लेना पड़ा। किंतु उसी अवधि में उन्‍होंने यह व्‍यवस्‍था कर दी थी कि उस समय की परिस्थिति का फिर से निर्माण न किया जाए और तीसरी अवधि के लिए सब के आग्रहपूर्वक प्रार्थना करने के बाद भी उन्‍होंने उस प्रार्थना को नहीं माना। यह संवैधानिक नैतिकता यूनाइटेड स्‍टेट्स (संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका) के प्रथम राष्‍ट्रपति में थी। यही बड़ा कारण था, उस देश में लोकतंत्र सुचारू रूप से चल सकने का।

बाबासाहब दूसरा उदाहरण ग्रेट ब्रिटेन में चली हुई उस राष्‍ट्रीय चर्चा का देते थे, जो अष्‍टम एडवर्ड के प्रेम-विवाह के सुझाव के कारण प्रारंभ हुई थी। उसकी प्रेयसी लेडी सिंप्‍सन सामान्‍य वर्ग की, तीन बार की तलाकशुदा, अमरीकन महिला थी। फिर कैथोलिक भी थी? सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव दल के प्रधानमंत्री बाल्‍डविन ने इस विवाह का विरोध किया, क्‍योंकि यह विवाह पूर्व-अधिमान्‍यताओं के विरोध में जाने वाला था। तो भी जनता के इस भाग में एडवर्ड के विषय में सहानूभूति का भाव था। उन्‍होंने बीच-बचाव के लिए एक सुझाव दिया, जो एडवर्ड ने स्‍वीकार भी किया। सुझाव यह था कि एडवर्ड को राज्यारोहण करने दिया जाए और प्रेम-विवाह भी करने दिया जाए, किंतु एक शर्त के साथ। शर्त यह थी कि लेडी सिंप्‍सन की संतान को राजगद्दी का उत्तराधिकारी नहीं माना जाएगा। किंतु बाल्‍डविन इसके लिए भी तैयार नहीं थे, क्‍योंकि इतने मात्र से पूर्व-अधिमान्‍यताओं का उल्‍लंघन पूरी तरह से नहीं टलता था। ऐसे समय विरोधी दल, लेबर पार्टी के नेताओं ने इस अवसर का लाभ उठाकर सत्तारूढ़ दल को जनता में अप्रिय बनाने का अभियान प्रारंभ किया। जनता के एक भाग की एडवर्ड के लिए सहानुभूति थी ही, अत: बाल्‍डविन की जन-अप्रियता बढ़ाना आसान था। किंतु उस समय लेबर पार्टी के ही एक नेता प्रो. हेराल्‍ड लास्‍की ने एक लेखमाला लिखकर अपने दल के नेताओं से प्रश्‍न किया कि आप क्‍या कर रहे हैं? देश में शताब्दियों तक लोकतंत्र की स्‍थापना के लिए संघर्ष चला था। जनता का अर्थात् पार्लियामेंट का नियंत्रण राजा पर रहे, यह उपलब्धि उसी में से प्राप्‍त हुई थी। इस समय जनता की इच्‍छा का प्रतिनिधित्‍व प्रधानमंत्री बाल्‍डविन कर रहे हैं। उनकी नियंत्रण शक्ति को चुनौती देकर राजा की अनियंत्रितता का क्षेत्र बढ़ाना लोकतंत्र के मूल सिद्धांत पर ही कुठारघात करने वाली बात होगी। पार्टी के तात्‍कालिक स्‍वार्थ के लिए इस प्रकार की मौलिक रूप से लोकतंत्र विरोधी नीति अपनाना उचित होगा क्या? इसके बाद लेबर पार्टी ने अपना बाल्‍डविन विरोधी प्रचार बंद किया।

सांविधानिक नैतिकता (Constitution Morality) का विचार सर्व-साधारण नैतिकता से पृथक नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि दोनों का आधार एक ही है- समाज में प्रचलित जीवन-मूल्‍य। 1926 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा था कि ब्रिटिश पद्धति को निर्वाचन प्रणाली भारत में आयी तो उसके कारण भ्रष्‍टाचार बढ़ जाएगा और नैतिकता गिर जाएगी। यह तो सर्वमान्‍य तत्‍व है कि समाज-व्‍यवस्‍था का परिणाम मनुष्‍य के मन पर होता है और मनुष्‍य के मन का परिणाम समाज - व्‍यवस्‍था पर होता है। दोनों एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं।

यह ध्‍यान में रखने योग्‍य बात है कि संसदीय प्रणाली के प्रबल समर्थकों ने भी उसको निर्दोष नहीं बताया। उन्‍होंने कहा कि वह 'प्रणाली कम से कम दोषयुक्‍त' है। फ्रेंच राज्‍य क्रांन्ति के पूर्व एक प्रमुख नेता राबेस्पियर ने कहा था कि यदि संसद के निर्वाचित प्रतिनिधि आपस में वैसा षड्यंत्र करें तो जनता को अंधेरे में रखकर वे तानाशाही का निर्माण कर सकते हैं। यह सब जानते हैं कि मतपेटी में से ही हिटलर के सर्वेसर्वातंत्र का उदय हुआ था। सन् 1975 की आपातस्थिति पर संसद की अनुमति ले ली गयी थी। द्वितीय महायुद्ध के पश्‍चात् राजनीतिक औपचारिक स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने वाले तृतीय विश्‍व के देशों के सामने और भी एक संकट है। ऐसे देशों में तानाशाही स्‍थापित हो, ऐसी इच्‍छा कुछ प्रबल विदेशी तत्‍वों की है। ये तत्‍व हैं - 'अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर साहूकारी करने वाले पूँजीपति और सरकारें, निरंतर नवीन तांत्रिकी के लिए दक्षिणी देशों में 'मार्केट' की खोज करने वाला उत्तरी देशों का तंत्रज्ञान और भीषण नरसंहार करने की क्षमता रखने वाले अस्‍त्र-शस्‍त्र के निर्माता जिनको संज्ञा दी गयी है- 'मृत्‍यु के व्‍यापारी'।

इन सब की कार्य-सिद्धि के लिए नवस्‍वतंत्र देशों की तानाशाही अधिक सुविधाजनक है, बनिस्‍वत लोकतंत्र के, क्‍योंकि सर्वेसर्वाशाही वाले देशों में थोड़े और निश्चित व्‍यक्तियों को खरीदने से उनके इरादे पूरे हो जाते हैं। इन सब कारणों से नवस्‍वतंत्र देशों में लोकतंत्र की नींव अधिक पोली हो जाती है।

समाज रचना, समाज का संस्‍था-संसार (Institutional Frame work ) अनुकूल रहा तो उससे उचित जीवन-मूल्‍यों की प्रतिष्‍ठापना करने में सहायता होगी और स्‍वस्‍थ जीवन-मूल्‍य सुप्रतिष्ठित हुए, तो समाज में सर्वसाधारण नैतिकता प्रभावी होगी जिसका एक अंग सांविधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) है।

किंतु इस बात को आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि वाह्य-रचना का योगदान महत्‍वपूर्ण होते हुए भी, वह सहायक शक्ति (Auxiliary Force) के स्‍वरूप का है। सबसे महत्‍वपूर्ण बात है समाज का सर्वसाधारण व्‍यक्ति। उसके संस्‍कार ठीक रहें तो क्‍वचित त्रुटिपूर्ण संविधान के दुष्‍परिणामों को भी कम किया जा सकता है। वह ठीक नहीं रहा तो उत्‍कुष्‍ट संविधान भी सफलतापूर्वक कार्यान्वित नहीं हो सकता। डॉ. अम्‍बेडकर की भी यही मान्‍यता थी। इसी कारण शायद कहा गया कि People get the Government they deserve. (जनता को उसी के योग्‍य सरकार मिलती है)। वाह्य समाज-रचना (Institutional Framework )और सामान्‍य नागरिक के संस्‍कारों का अन्‍यान्‍य संबंध किस प्रकार का है? प्रसिद्ध इतिहासकार ड्रिल ड्यूरांट कहते हैं -

After all when one tries to change institutions without having changed the nature of man, that unchanged nature will soon resurrect those institutions. ( आखिर मनुष्‍यों का स्‍वभाव न बदलते हुए संस्‍थाओं में परिवर्तन लाने का प्रयास जब किया जाता है तब अपरिवर्तित मनुष्‍य-स्‍वभाव परिवर्तित संस्‍थाओं का पुनरुज्‍जीवन कर देता है।

तात्‍पर्य -

सनातन धर्म के शाश्‍वत, अपरिवर्तनीय सिद्धांतों के प्रकाश में अखंड परिवर्तनशील युगानुकूल समाजरचना और इस युगाधर्मानुकूल व्‍यक्ति-व्‍यक्ति की सुसंस्‍कारित मनोरचना, इसी का अर्थ है धर्माधष्ठित समाजरचना और धर्मप्रवण मनोरचना, इसी के फलस्वरूप धर्मस्‍थापना। इसी में आश्‍वासन है व्‍यक्ति-राष्‍ट्र मानवजाति के सुख-संतुष्टि-समृद्धियुक्‍त गौरवशाली परम वैभव का। भीष्‍म ने कहा है-

''प्रभवाय हि भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।

यतस्‍यात् प्रभवसंयुक्‍त : स धर्म इति निश्‍चय:।।

(भूत मात्र के परम वैभव के लिए धर्म-प्रवचन किया गया है जो परम वैभव से युक्‍त रहता है वही धर्म है।''

('प्रस्‍तावना' से)


राष्‍ट्रीय पुनर्निर्माण का आधार

किसी ने ऐसा कहा है कि रोग का सही निदान होना ही रोग का आधा ठीक होना है। अत: हमारे समक्ष जो विभिन्‍न समस्‍याएं हैं, पहले उनका निदान कर लिया जाए। इसके बाद इन समस्‍याओं को हल करने के लिए उपाय-योजना का विचार किया जा सकता है।

आज हमारे सामने अनेक समस्‍याएं हैं। मुख्‍य समस्‍या यह है कि हम अपने राष्‍ट्र का पुनर्निर्माण कैसे करें? आज अपना राष्‍ट्र जिस स्थिति में है, वहाँ से उसे अच्‍छी अवस्था तक हमें पहुँचाना है। हमें प्रगति करनी है। इसके लिए लोगों ने अलग-अलग मार्ग सुझाए हैं इसके लिए अलग-अलग नामों का प्रयोग किया है। कोई प्रगतिवाद के नाम का सुझाव देता है, तो कोई समग्रक्रांति और आमूल सुधारवाद (Radicalism) के मार्ग पर चलने का हामी है। कुछ लोग स्‍वयं को क्रांतिकारी कहते हैं। इनमें से किसी भी शब्‍द का कोई विशेष अर्थ नहीं है। जिसको जो शब्‍द पसंद है, वह उसी का प्रयोग करता है। किंतु सामान्‍य शब्‍दों में हम कह सकते हैं कि हमें अपने राष्‍ट्र का निर्माण करना है। खंडित भारत के ही क्‍यों न हो, हमें अपना भाग्‍य विधाता स्‍वयं बनना है।

मन में सर्वप्रथम यह विचार आता है कि क्‍या हमारे समक्ष किसी ऐसे देश का आदर्श चित्र है कि जिस देश के निवासियों ने अपने राष्‍ट्र का ऐसा निर्माण किया है, जिसके लोग सुखी और समृद्ध हो गए है। यदि हमारे सामने ऐसा कोई नमूना हो तो बहुत अच्‍छा होगा। इस दृष्टि से हम भिन्‍न-भिन्‍न नमूनों का विचार करें। आज के दुनिया के जिन समृद्ध और अग्रसर राष्‍ट्रों के उदाहरण हमारे समक्ष है। उनमें अमेरिका तथा रूस का नाम प्रमुख है। चीन का नाम भी अब इस श्रेणी में आने लगा है। यदि एक बार हमें ऐसा पता चल जाए कि अमुक देश की नकल करने से हमारा कल्‍याण होगा तो फिर हमारी उलझन या समस्‍या सुलझ सकती है।

क्‍या इनमें से कोई ऐसा राष्‍ट्र है जो सुख की प्राप्ति कर चुका है ? इसका विचार करने पर हमारे सामने विचित्र बातें आती हैं। इनमें से सबसे धनी राष्‍ट्र अमेरिका है। इस दृष्टि से सबसे सुखी राष्‍ट्र भी वही होना चाहिए। किंतु वहाँ जितनी आर्थिक प्रगति है, उतना ही वहाँ सुख का अभाव है। यह खटकने वाली बात है। एक ओर बहुत प्रगति है, उनका तकनीकी ज्ञान बहुत बढ़ गया है, वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अब थोड़े ही समय बाद वहाँ सारा काम यंत्रों के माध्‍यम से होने लगेगा। वे प्रगति की ओर यहाँ तक जा रहे हैं कि वहाँ प्रजा-निर्माण का कार्य भी मनुष्‍य के बिना ही हो सकेगा। चंद्रमा पर भी पहुँच गए हैं। दूसरी ओर इसके विपरीत विगत वर्षों के कुछ आँकड़ों के अनुसार सबसे अधिक आत्‍महत्‍याएं अमरीका में हुईं। सबसे अधिक पागलपन भी वहीं है। न्‍यूरस्‍थेनिया नामक स्‍नायुदोष भी सबसे अधिक वहीं होता है। रक्‍तचाप और हृदय रोग भी वहीं सर्वाधिक हैं। अपराध करने की प्रवृत्तियाँ भी सबसे अधिक वहीं हैं। एक ओर प्रगति हो रही है और दूसरी ओर ये बातें हैं। अमरीका यद्यपि धनी और तकनीकी दृष्टि से उन्‍नत राष्‍ट्र है तो भी वहाँ समाज में सुख का अभाव है।

अपने यहाँ होने वाले विश्‍वविद्यालयों की गड़बड़ के कारण हम दुखी हैं। किंतु वहाँ तो इससे भी अधिक गड़बड़ियाँ हुई हैं। वहाँ स्‍टेनगन आदि लेकर छात्रों ने विद्रोह किए हैं। अमेरिका की नयी पीढ़ी यह घोषित कर रही है कि वह वर्तमान व्‍यवस्‍था से असंतुष्‍ट है। मेरे एक मित्र अमेरिका गए थे। वे वहाँ के विद्यार्थी नेताओं से मिले। उन्‍होंने उनसे पूछा, ''आप क्‍या चाहते हैं? '' तो छात्र नेताओं ने कहा हम चाहते हैं कि वर्तमान व्‍यवस्‍था नष्‍ट होनी चाहिए, उपभोगतावाद समाप्‍त होना चाहिए। तब उन्‍होंने दूसरा प्रश्‍न किया, ''कृपया यह बताइए कि आप किस प्रकार का समाज चाहते हैं? '' उन विद्यार्थी नेताओं ने कहा, ''हम यह तो नहीं बता सकते कि हम किस प्रकार का समाज चाहते हैं, इसका स्‍पष्‍ट चित्र हमारे सामने नहीं है, लेकिन हम इतना जरूर जानते हैं कि वर्तमान उपभोक्‍ता समाज नष्‍ट होना चाहिए।''

''हिप्‍पी कल्‍ट'' एक प्रकार से अमरीका के मानसिक असंतोष का बैरोमीटर है। क्‍या उनके असंतोष का कारण भौतिक अभाव है? हमारे अपने देश में हमें खाने-पीने को पूरा नहीं मिलता, इसलिए हम समझते हैं कि असंतोष का कारण भौतिक अभाव होगा। हमारी समस्‍याएँ ''निर्धनता'' की हैं, और अमरीका की समस्‍याएँ ''विपुल संपन्‍नता'' की हैं। बड़े-बड़े धनी संपन्न लोगों के लड़के भी हिप्‍पी बन जाते हैं।

यह बात सही है कि अमरीका तकनीकी दृष्टि से बहुत उन्‍नत होता रहा है लेकिन उसके कारण समस्‍याएँ भी निर्माण हो रही हैं। टेकनालोजी पर भरोसा रखते हुए उन्‍होंने हर दिशा में प्रगति की है। किंतु उन्‍होंने इनका विचार नहीं किया कि कुल मिलाकर समाज और व्‍यक्ति के जीवन पर इसके क्‍या परिणाम होंगे। वहाँ के विचारकों के अनुसार इसके कारण दो प्रकार की क्षतियाँ हो रही हैं। एक प्रश्‍न यह है कि ईश्‍वर-प्रदत्त साधनों का उपभोग कितना और कैसे करना है? यदि हम अपने सुख के लिए आज ही इसका सारा उपभोग कर लेंगे तो आने वाली पीढि़यों का क्‍या होगा, इसका विचार न करते हुए उन्‍होंने प्राकृतिक साधनों का उपयोग किया है। जिस गति से उसका उपभोग किया जा रहा है, उस गति से दो सौ साल बाद हम खनिज ईंधन पर अवलिम्‍बत नहीं रह सकते, वह समाप्‍त हो जाएगा। आणविक शक्ति की दृष्टि से थोरियम और यूरेनियम की आपूर्ति भी अनिश्चित काल तक नहीं हो सकती। इसकी भी अपनी एक मर्यादा है।

इस तारतम्‍य रहित अनियंत्रित उपभोग के कारण प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है और वे यह अनुभव कर रहे हैं और कि आअधुनिक तकनीक के कारण दु:ख का निर्माण हो रहा है। वायु प्रदूषित है, जल प्रदूषित है, और अब भूमि को भी प्रदूषित करने की तैयारी है। यह प्रदूषण इतना भीषण है कि अमरीका में सभी लोगों के सामने चाहे वह उद्योगपति हो चाहे श्रमिक हो, यही एक प्रश्‍न है कि वे वायुमंडल को किस प्रकार शुद्ध करें? इसके कारण संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ, जिसमें पश्चिमी राष्‍ट्रों का प्रतिनिधित्‍व है, के तत्‍वावधान में स्‍टाकहोम में एक विश्‍व वायुमंडलीय इकोलॉजी परिषद हुई। इकालॉजी का अर्थ है इन्‍वायरनमेंटल साइंस अर्थात वायुमंडलीय विज्ञान। इस परिषद में सभी विचारकों तथा शास्‍त्रविदों ने यह चिंता प्रकट की कि संपूर्ण वायुमंडल और जल में मनुष्‍य और पशु जीवन के लिए कुछ घातक तत्‍वों का संचरण हो रहा है। भारत में भी कानपुर, मुम्‍बई, कलकत्ता आदि के वायुमंडल में तीन हजार ऐसे रासायनिक तत्‍व विद्यमान हैं जो मानव स्‍वास्‍थ्‍य के लिए घातक हैं। इस समस्‍या के कारण अमरीका में विचार चल रहा है कि यह टेक्नालॉजी बदलनी चाहिए, नहीं तो इसके कारण उत्‍पन्‍न हो रहा प्रदूषण मनुष्‍य और पशु जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा। कहने का अर्थ है कि यह देश, जो दुनिया का प्रथम श्रेणी का देश माना जाता है। जो चंद्रमा पर पहुँच गया है, अपने देश के लोगों को सुखी नहीं कर सकता।

अब नंबर दो का देश रूस हमारे सामने आता है। अब विश्‍व के दूसरे बड़े देश रूस का विचार करें। वह हमारा मित्र भी है। वहाँ भी कोई सुख समाधान है, ऐसा दिखाई नहीं देती। इसके लिए कोई बहुत बड़ी विस्‍तृत विवरण की आवश्‍यकता नहीं है। लेकिन हम इतना जानते हैं कि 1917 में रूस ने जो एक नया प्रयोग शुरू किया, उसने जो सिद्धांत सामने रखा और जो घोषणाएँ कीं, उनमें से हरेक में वे निरंतर परिवर्तन लाते रहे हैं। इस विषय में थोड़ा सा संकेत करना ही पर्याप्‍त होगा।

उदाहरण के लिए रूस ने कहा था कि निजी संपत्ति नहीं होनी चाहिए। किंतु अब वहाँ निजी संपत्ति आ गई है और वह बढ़ती जा रही है। रूस के संविधान की धारा 10 में यह लिखा है कि किन विशेष परिस्थितियों में निजी संपत्ति का अधिकार रहेगा। वह संपत्ति उत्तराधिकार में भी प्राप्‍त की जा सकती है।

रूस ने घोषणा की थी कि सबकों समान मानेंगे लेकिन वहाँ पर सबको समान पैसा नहीं मिल रहा है। वहाँ के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार वहाँ आय के अंतर का अनुपात 1 और 80 के अनुपात का हैं, जबकि पूँजीवादी संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में कम से कम और अधिक से अधिक आय के नवीनतम अनुपात का आँकड़ा 1 और 15 का है। रूस में यह असमानता और भी बढ़ती जा रही है। रूस को चीन द्वारा गाली दिए जाने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि 'हरेक को उसकी आवश्‍यकता के अनुसार' के शास्‍त्रीय समाजवाद के घोषित सिद्धांत को रूस ने छोड़ दिया है और अब वहाँ ''हरेक को उसकी योग्‍यता और उत्‍पादन इत्‍यादि के अनुसार'' दिया जाता है। यह समाजवाद के साथ गद्दारी है। यह सबसे प्रमुख गाली है जो रूस को चीन ने दी है।

यह कहा गया था कि रूस में वर्गविहीन समाज की रचना नहीं हुई। श्री जिलास ने अपनी ''न्‍यू क्‍लास'' नामक पुस्‍तक में बताया है कि वहाँ पुराने वर्ग तो समाप्‍त हुए, किंतु नए वर्गों का निर्माण हुआ है। ये नए वर्ग हैं शासक और शासित। ये वर्ग बहुत अधिक सजीव और सक्रिय है।

रूस ने यह भी कहा था कि परिवार एक बुझा हुआ कालबाह्य संगठन है, इसे नष्‍ट करेंगे किंतु और कम्‍यूनों की स्‍थापना करेंगे। किंतु वे कम्‍यून असफल हो गए और परिवार संगठन वहाँ पूरी तरह आ गया है। रूस में आज पारिवारिक संरचना चल रही है।

उनका कहा था कि हम राष्‍ट्रवाद को नहीं मानते। किंतु सब लोग जानते हैं कि पिछले महायुद्ध के समय रूस में राष्‍ट्रीयता के आधार पर ही लोगों को युद्ध के लिए प्रोत्‍साहित किया था। तब से अब तक न केवल रूस में अपितु सभी साम्‍यवादी देशों में राष्‍ट्रवाद बहुत प्रबल हुआ है। यहाँ तक कि अंतरराष्‍ट्रीय साम्‍यवाद की तुलना में राष्‍ट्रवाद के अधिक प्रबल होने के कारण साम्‍यवादी देश एक दूसरे के साथ लड़ रहे हैं। चीन और रूस का संघर्ष भी वास्‍तव में राष्‍ट्रीयता के विस्‍तार का ही संघर्ष है।

फिर यह कहा गया था कि लाभ हेतु मांग, पूर्ति तथा प्रतियोगिता विशुद्ध पूंजीवादी प्रवृत्तियाँ हैं किंतु आज लाभ का उद्देश्‍य और प्रतियोगिता, दोनों का प्रवेश रूस में हुआ है। मांग एवं पूर्ति के पूंजीवादी सिद्धांत को ही वहाँ मान्‍यता मिल गई है। रूस अपने एक-एक घोषित नीतियों से पीछे हटता जा रहा है।

इतना होने के बाद भी कुल मिलाकर रूसी जनता में बड़ा सुख है या बड़ी शान है, इस प्रकार का अनुभव नहीं आया। उनकी भी तकनीकी प्रगति हो रही है। एक ओर तो वे चंद्रमा पर पहुँच गए हैं और दूसरी ओर वे यहाँ तक अभावग्रस्‍त हैं कि स्‍वयं अपने लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्‍त अनाज भी उत्‍पन्‍न नहीं कर पाते। उनको पूंजीवादी देशों से अनाज मंगाना पड़ गया है। यदि वास्‍तव में रूस की अवस्‍था देखी जाए तो अनेक गणराज्‍यों तथा गैर-रूसी एवं अश्‍वेत रूसी लोगों में आज असंतोष है। वहाँ भी रूसीकरण के द्वारा शोषण चल रहा है। यह दशा स्‍पष्टत: अश्‍वेत रूसी लोगों की है। जो भी रूस में जाकर आएगा, उसको सामान्‍य अवलोकन से ही यह बात ध्‍यान में आ सकती है।

यदि हमें अनुकरण ही करना है तो ऐसे लोगों का करना चाहिए जिनका अनुकरण करने से कुछ लाभ हो, नहीं तो गुनाह वेलज्‍जत जैसी बात हो जाएगी। यदि हमारे सामने ऐसा कोई ढाँचा आ जाता कि जो चीज हम प्राप्‍त करना चाहते हैं, वह किसी अन्‍य ने भी प्राप्‍त की है तो बहुत अच्‍छा होता। आज स्थिति यह है कि रूस की औद्योगिक व्‍यवस्‍था का यथावत् अनुकरण उसके अधीन काम करने वाले चेकोस्‍लोवाकिया, हंगरी आदि देश भी नहीं कर रहे हैं। बाकी व्‍यवस्‍थाओं में वे रूस में मार्गान्‍तरण करते जा रहे हैं और जब रूस ने इन साम्‍यवादी देशों को हा कि आप लोगों को हमारा ढ़ाँचा ही अपनाना चाहिए तो उन देशों ने इंकार कर दिया। ''कहा, हम आपसे साम्‍यवाद तो अवश्‍य ले रहे हैं, लेकिन हमें उसे अपनी संस्‍कृति और परंपराओं में ढालकर ही लेना पड़ेगा, नहीं तो हमारा काम नहीं चलेगा। '' हर एक ने अपना-अपना ढाँचा खड़ा करने की कोशिश की। यूरोप के सभी साम्‍यवादी देश, जो सीधे रूस के प्रभाव में हैं, वे भी ऐसा अनुभव नहीं कर रहे हैं कि हम रूसी मॉडल के द्वारा अपना उद्धार कर सकते हैं। तो बाकी देश उनके अनुसरण के द्वारा कहाँ तक अपना अभीष्‍ट प्राप्‍त कर सकेंगे? यह एक विचारणीय प्रश्‍न है।

हमारे सामने चीन का भी उदाहरण है। चीन में भी व्‍यापक असंतोष व्‍याप्‍त है। चीन में सांस्‍कृतिक क्रांति के नाम पर करोड़ों लोग मारे गए थे। वहाँ आज भी कहा जा रहा है ''इंकलाब जिंदाबाद''। इंकलाब यानी परिवर्तन अर्थात अभी वहाँ स्‍थायित्‍व नहीं आ पा रहा है। निरंतर परिवर्तन की ही बातें चल रही हैं। माओ की सांस्‍कृतिक क्रांति के समर्थन को यदि सही मान लिया जाए तो भी उसकी आवश्‍यकता विद्यमान चीनी रचना की विफलता का ही परिचय देती है।

इस तरह जहाँ भी हम देखते हैं वहाँ कोई अनुकरणीय ढाँचा हमें दिखाई नहीं देता। यदि हमें अनुकरण ही करना है तो किसी न किसी शिष्‍य ही बनना है, तो फिर किसी ऐसे देश का या किसी ऐसी विचारधारा का शिष्‍य बनना चाहिए, जिसके कारण भविष्‍य में हमारा लाभ हो, अन्‍यथा होगा यह कि हम दूसरे का शिष्‍यत्‍व भी ग्रहण करेंगे, मानसिक दासता भी स्‍वीकार करेंगे और जिसके लिए यह सब करेंगे, वह भी प्राप्‍त नहीं होगा।

पश्चिम में कई विचारधाराएँ हैं। पश्चिम की और हमारी पद्धति में अंतर है। वहाँ विचार में भी थोड़ा सा भी परिवर्तन होता है तो वे कहते हैं कि हमारी अलग वैचारिक धारा है। जबकि हमारे यहाँ ऐसा था कि हरेक ने अपना विचार तो रखा, किंतु किसी ने भी यह नहीं कहा कि यह मेरा नया विचार है। हरेक ने यही कहा कि ''इदं परंपरा प्राप्‍तम्''- यह तो परंपरा से प्राप्‍त है, पहले से चलता आया है। हरेक ने कहा कि वेद में इसका आधार मिलता है। किंतु पश्चिम में ऐसा नहीं है।

पश्चिम के तरह तरह के ''वादों'' में कुछ बातें समान हैं। हम दो-तीन बातों का विचार करें। उनमें एक बात यह है कि जितने भी वामपंथी वाद हैं उनका एक अच्‍छा फैशनेबल शब्‍द है ''समानता''। ऐसा माना जाता है कि यह सब बातों का आधार है। आप चाहें साम्‍यवाद को लें, चाहें समाजवाद को, चाहें अराजकतावाद को, चाहें और किसी वाद को-सब में समानता की बात दिखाई देती है किंतु यह समानता कहीं प्रस्‍थापित नहीं हो सकी है।

अलग-अलग साम्‍यवादी देशों ने एक-दूसरे को जो प्रमाण-पत्र दिए हैं। यदि हम उनका विचार करें तो एक बात निश्चित हो जाती है कि आज समानता कहीं नहीं आ सकती। जहाँ समानता लाने का प्रयास किया गया वहाँ भी लोगों ने फिर से समानता के विरुद्ध प्रयास करते हुए असमानता की स्‍थापना की है। रूस और बाकी देशों की घटनाएँ इसकी साक्षी हैं।

अब हम जरा सोचें कि वहाँ समानता क्‍यों नहीं आ सकीं ? और हमारे यहाँ समानता के बारे में क्‍या विचार था? मान लें कि जितने हिंदू विचार आए, वे सब गलत हैं, क्‍योंकि वे गलत न होते तो हमारी गिरावट न होती। फिर भी हम यह तो देखें कि हमारा विचार क्‍या था और आज के आधुनिक विचारकों के विचार क्‍या हैं? वहाँ सब लोग समान हैं लेकिन वे कहाँ भी समानता क्‍यों नहीं ला सके? इसका एक कारण तो यह है कि दो ऐसी उत्‍कृष्‍ट इच्‍छाएँ हैं कि जिनका परस्‍पर मेल किसी भी पश्चिमी विचारधारा में नहीं हो सका है। इनमें से एक उत्‍कृष्‍ट इच्‍छा यह है कि हरेक व्‍यक्ति का विचार होना चाहिए। यह विकास कैसे होगा? अपने यहाँ सोचा गया है कि हर व्‍यक्ति की प्राथमिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। जहाँ प्राथमिक आवश्‍यकताओं की सीमा समाप्‍त होती है वहीं संस्‍कृति की सीमा समाप्‍त होती है। अत: सबसे पहले प्राथमिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए, इसके बाद संस्‍कृति का क्षेत्र शुरू होता है।

लेकिन हरेक व्‍यक्ति का विकास, हरेक को ऐसा काम देने से होगा जो काम उसकी प्रकृति-प्रवृत्ति के अनुकूल हो। इस तरह का काम करने से उसे आनंद आएगा और फिर उसके लिए काम और आराम, दोनों एक हो जाएंगे। इसके कारण उसका काम भी अच्‍छा होगा, काम की गुणवत्ता भी अच्‍छी होगी और निष्‍पन्‍न काम की मात्रा भी अधिक होगी। वह व्‍यक्ति श्रेष्‍ठतम उत्‍पादन या सेवा दे सकेगा और यदि वह इस प्रकार की सेवा या उत्‍पादन को राष्‍ट्रपुरुष के चरणों पर समर्पित करता है तो वह राष्‍ट्रपुरुष के लिए उसका सर्वोत्‍कृष्‍ट योगदान कहा जाएगा। एक ओर वह राष्‍ट्र पुरुष के चरणों पर अपना सर्वोत्‍कृष्‍ट संभव योगदान अर्पित करेगा और दूसरी ओर उसकी रुचि, प्रकृति एवं प्रवृत्ति के अनुसार उसका विकास होगा। और दूसरी ओर राष्‍ट्र को अधिक से अधिक उत्‍पादन और सेवाएँ प्राप्‍त होंगी।

अपने यहाँ यह भी सोचा गया है कि व्‍यक्ति अपने को केवल एक मौलिक इकाई न समझे। समाज के बारे में हमारे यहाँ यह धारणा है कि संपूर्ण समाज एक शरीर के समान है और हर व्‍यक्ति या व्‍यक्ति-समूह इसके अंग-प्रत्‍यंग के रूप में है। हम संघ में इसका वर्णन बहुत बार सुनते हैं। मैं और मेरे समाज का पारस्‍परिक संबंध अंग और अंगी अर्थात् अवयव और शरीर के संबंध के जैसा है और इसलिए हम अलग-अलग नहीं, राष्‍ट्रांगभूत हैं। इस एकात्‍मकता की भावना के कारण एक ओर अपना विकास होता है और दूसरी ओर उसके उच्‍चतम अथवा श्रेष्‍ठतम फल को हम राष्‍ट्रपुरुष के चरणों में अर्पित करते हैं। इसमें हरेक के व्‍यक्तिगत विकास के साथ राष्‍ट्र के विकास का समन्‍वय भी होता है। यह भी ध्‍यान रखा गया है कि जहाँ हर व्‍यक्ति का पूरा विकास हो रहा है वहाँ ऐसा न हो कि एक व्‍यक्ति का विकास दूसरे के विकास मार्ग में बाधा के रूप में खड़ा हो जाए। एक के आगे बढ़ने का परिणाम दूसरे के पीछे धकेले जाने के रूप में न निकले। संपूर्ण समाज की सम्‍यक धारणा और हरेक व्‍यक्ति के पूर्ण विकास का समन्‍वय हमारे यहाँ आवश्‍यक माना गया।

अंगांगीभाव का विचार पश्चिमी देशों की दृष्टि में पुराना एवं त्‍याज्य हो गया है। यह आधुनिक या प्रगतिशील विचार नहीं है। आधुनिक विचार यह है कि हर व्‍यक्ति सुखी होना चाहिए। यहाँ केवल व्‍यक्ति प्रधान है। समाज इत्‍यादि वहाँ जो कुछ भी है वह सब व्‍यक्ति के लिए है। उनकी मान्‍यता यह है कि समाज की क्‍या आवश्‍यकता है? व्‍यक्ति अकेले संपूर्ण सुख नहीं प्राप्‍त कर सकता। इसलिए उसके सुख-साधन के रूप में ही बाकी समाज के लोग हैं, अन्‍यथा समाज नाम की कोई मौलिक इकाई नहीं है। मौलिक इकाई तो व्‍यक्ति है। अत: व्‍यक्ति का सुख ही प्रधान बात है। यह विचार समाज को एक क्‍लब के रूप में समझने के समान है। क्‍लब स्‍वयं में कोई मौलिक इकाई नहीं है। क्‍लब का एक-एक व्‍यक्ति मौलिक इकाई होता है। क्‍लब में कोई भी व्‍यक्ति इसलिए जाता है कि यदि ताश भी खेलना हो तो दूसरे व्‍यक्ति की आवश्‍यकता होती है। उसके सुख के साधन के रूप में चार लोग वहाँ मिल जाते हैं। इसी प्रकार उनके लिए समाज भी कोई मौलिक इकाई नहीं है। मौलिक इकाई व्‍यक्ति ही है, उसी के सुखके लिए सब कुछ है। उसको पूर्ण स्‍वतंत्रता होनी चाहिए।

दूसरा विचार है कि व्‍यक्ति स्‍वातंत्र्य की अनियंत्रित असीमता के कारण बाकी लोगों को कष्‍ट होता है, अत: व्‍यक्ति स्‍वातंत्र्य को खत्‍म करना चाहिए। इसलिए हम व्‍यक्ति को मौलिक इकाई न मानें। एक ही मौलिक इकाई है वह है राज्‍य, सरकार। सब कुछ, यहाँ तक कि व्‍यक्ति भी राज्‍य के हाथ में होना चाहिए। सारा अधिकार राज्‍य का होना चाहिए और व्‍यक्ति राज्‍य-तंत्र का नट-बोल्‍ट, दांत और चक्र के निर्जीव पुर्जे के समान रहे। उसकी न कोई अपनी इच्‍छा रहे, न प्रवृत्ति, न प्रकृति और न रुचि। उसकी कोई व्‍यक्तिगत आकांक्षा भी नहीं हो। व्‍यक्ति को अपना जीवन कैसे व्‍यतीत करना चाहिए, इसका निर्णय राज्‍य करेगा। इस निर्णय प्रक्रिया में व्‍यक्ति को कोई स्‍थान नहीं होगा। इस दूसरी प्रक्रिया में भी इसका कोई विचार नहीं किया गया कि व्‍यक्ति का विकास कैसे होगा ?

इस प्रक्रिया में व्‍यक्ति को केंद्रीय योजनानुसार कार्य करना पड़ेगा। केंद्र या राज्‍य जो काम जिस व्‍यक्ति के लिए तय करेगा वही काम उस व्‍यक्ति को करना पड़ेगा।

ये दोनों विचार अतिवाद से ग्रसित दिखाई देते हैं। जहाँ लोकतंत्र है वहाँ भी इसका भरोसा नहीं है कि हरेक को उसकी रुचि का काम मिलेगा ही। लोकतंत्र में स्‍थान रिक्‍तता के अनुसार कार्य प्राप्‍ति की व्‍यवस्‍था है। जिस समय, जहाँ जिस स्थिति में स्‍थान रिक्‍त होगा, वहाँ वैसा काम उसको मिलेगा चाहे वह काम उसकी रुचि का हो या न हो।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकतंत्र में स्‍थान रिक्‍तता के अनुसार कार्य प्राप्ति की व्‍यवस्‍था है। साम्‍यवाद के अन्‍तर्गत केंद्रीय आयोजनानुसार कार्य प्रगति की पद्धति है। दोनों में ही व्‍यक्ति की रुचि का ध्‍यान नहीं है। किंतु प्राचीन हिंदू पद्धति में व्‍यक्ति की प्रवृत्ति और प्रकृति के अनुसार कार्य की व्‍यवस्‍था थी।

हिंदू रचना में समाज की धारणा का अर्थ था उसका एक हिस्‍सा यह भी था कि जब हम संपूर्ण समाज के सब व्‍यक्तियों के व्‍यक्तिगत काम का विचार करेंगे तो संपूर्ण समाज की कुल आवश्‍यकताओं और सभी व्‍यक्तियों की प्रवृत्तियों का विचार भी करेंगे। हर व्‍यक्ति को अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलेगा तो हरेक का उत्‍पादन अधिकतम मिलेगा। उस सबके अधिकतम उत्‍पादन के योग और राष्‍ट्र की कुल आवश्‍यकताओं का तालमेल बैठाना चाहिए। यह तालमेल बैठाना धर्म की एक कसौटी है।

पश्चिम की विचारधारा में यह बात तो है कि हरेक व्‍यक्ति का विकास हो, किंतु वहाँ समानता की बात को सफलता क्‍यों नहीं मिली? ऐसा दिखाई देता है कि पश्चिम के लोग व्‍यक्ति के मन में दो परस्‍पर विरोधी इच्‍छाओं का मेल नहीं बिठा सके। वहाँ समाज की धारणा और व्‍यक्ति के विकास में समायोजन नहीं किया जा सका। समाज की सम्‍यक् धारणा के आधार के विषय में उनका कहना है कि यह समानता के आधार पर होनी चाहिए। उनकी एक कामना है समानता की ओर और दूसरी कामना है व्‍यक्ति के विकास की। किंतु पश्चिम की जो मन:स्थिति है उसमें दोनों का समन्‍वय नहीं हो सकता। पश्चिम मूल रूप से भौतिकवादी है। उनके विचारों का आधार भौतिक है। उनके समस्‍त जीवन-मूल्‍य भौतिक हैं। भौतिक समृद्धि, भौतिक लाभ, भौतिक सुविधाएँ अर्थात जो कुछ भी है वह भौतिक है और जो नैतिक है बस उसी का महत्‍व है।

भौतिक जीवन-मूल्‍यों के कारण कुछ समस्‍याएँ आती हैं। मान लें कि समाज में असमानता आ गई। किंतु इस समानता का अर्थ क्‍या है ? किसी ने कहा है कि कम से कम और अधिक से अधिक आमदनी से 1 और 40 का अंतर हो तो समानता माननी चाहिए, किसी ने कहा 1 और 20 का अंतर रहना चाहिए, और किसी ने कहा 1 और 10 का अंतर रहना चाहिए। अब मान लीजिए कि इस समानता की अवस्‍था आ गई कि कम से कम आय 100 रुपये है तो अधिक से अधिक आय 1000 रुपये से ऊपर नहीं हो सकती। हमारी एक कामना तो पूरी हो गई लेकिन इसमें व्‍यक्ति के विकास की एक दूसरी समस्‍या का निर्माण होता है। मान लीजिए, मैंने बहुत काम किया। पर यह सब मैं किसलिए करुँगा? मेरे जीवन-मूल्‍य केवल भौतिकवादी होने के कारण मेरे मन में यह प्रश्‍न उठेगा कि मैं इतना परिश्रम किसलिए कर रहा हूँ ? यदि भौतिक लाभ के लिए कर रहा हूँ तो आपने तो कहा कि मुझे एक हजार से अधिक मिलने वाला नहीं, चाहें मैं आइंसटीन के समान बुद्धिमान हो जाऊँ, चाहें राधाकृष्‍णन के समान दार्शनिक बन जाऊँ, चाहें मैं सर विश्‍वेश्‍वरैय्या के समान तंत्रज्ञ बन जाऊँ, मैंने अधिक से अधिक प्रगति की तो भी एक हजार रुपये से अधिक मुझे मिलने वाला नहीं है। इसके विपरीत मान लीजिए कि मैंने कुछ काम नहीं किया, अपने आत्‍मविकास की कोई योजना नहीं बनाई, तो भी कम से कम सौ रुपये तो मुझे मिलेंगे ही, क्‍योंकि संविधान में लिखा है ''समानता''। अत: सौ रुपये मुझे निकम्‍मेपन में भी मिलेंगे और बहुत परिश्रम करने पर मुझे एक हजार रुपये से अधिक मिलने वाला नहीं है, इससे तो अच्छा है कि आराम से रहें, सौ रुपये तो मिल ही जाएंगे।

स्‍पष्‍ट है कि भौतिकवादी जीवन-मूल्‍यों की अवस्‍था में समानता के सिद्धांत को लाते ही आत्‍म-विकास की प्रेरणा समाप्‍त होने लगती है।

हमारे देश में आज तो प्रतिभा पलायन का संकट खड़ा हो गया है, उसका भी कारण यही है। हमने अपने वैज्ञानिकों और शिल्‍पज्ञों के सामने योग्‍यता प्राप्‍त करते हैं, हो सकता है इनमें से कुछ थोड़े से लोग आत्‍मविकास की दृष्टि से पैसे का विचार न करते हुए शोध के अगले चरणों की सुविधा यहाँ न होने के कारण विदेश जाते हों, लेकिन अधिसंख्‍यक लोग यह सोचते हैं कि हमने परिश्रम करके जितनी योग्‍यता प्राप्‍त की है उस योग्‍यता के अनुपात में यहाँ आर्थिक प्राप्ति नहीं हो सकती, तो फिर यहाँ रहकर क्‍या करना? इसलिए विदेश जा रहे हैं, और प्रतिभा पलायन की समस्‍या हमारे सामने उत्‍पन्‍न हो गई है। स्‍पष्‍ट है कि जब तक जीवन मूल्‍य भौतिकवादी हैं, समानता और व्‍यक्ति के विकास का मेल नहीं बैठ सकता।

भौतिकवादी व्‍यवस्‍था की यह सहज निष्‍पत्ति है कि भौतिकवादी जीवन-मूल्‍यों के आधार पर यदि समानता लाने का प्रयास किया जाएगा तो व्‍यक्ति के विकास का प्रोत्‍साहन समाप्‍त होगा और यदि व्‍यक्ति के विकास का प्रोत्‍साहन दिया जाएगा तो समानता समाप्‍त होगी। इन दोनों में से केवल एक ही बात होगी। इस व्‍यवस्‍था में दोनों का मेल नहीं बैठ सकता। इसी कारण पश्चिम में समानता महज एक नारा मात्र बनकर रह गई।

अब हम विचमर करें कि अपने गए-बीते माने जाने वाले हिंदू तत्‍वज्ञान में इस विषय में कोई विचार किया गया है कि नहीं, हमारे यहाँ एक विचार समाज-रचना के संबंध में था और एक विचार सैद्धांतिक स्‍तर पर था। समाज रचना के संबंध में यह सोचा कि हरेक को आत्‍मविकास की पूर्ण प्रेरणा और प्रोत्‍साहन को हमने केवल भौतिकवादी नहीं माना। हमारे यहाँ भौतिकवादी और अभौतिकवादी प्रोत्‍साहन का तात्‍पर्य है पैसा या सत्ता के कारण होने वाला सुखोपभोग। अभौतिक प्रोत्‍साहन का अर्थ है सामाजिक प्रतिष्‍ठा। आज सामाजिक सम्‍मान और भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ चलने की प्रक्रिया की बारीकी को समझने में कठिनाई होती है। इन दोनों बातों का विभाजन करके विचार करें कि जहाँ सामाजिक प्रतिष्‍ठा तो है, लेकिन भौतिक सुविधाएँ नहीं हैं, वहाँ व्‍यक्ति विकास के लिए क्‍यों प्रयास करेगा? पश्चिमी ढ़ाँचे में सोचेंगे तो इस प्रश्‍न का समाधान कारक उत्तर नहीं मिलेगा। इस प्रश्‍न का उत्तर हिंदू चिंतन और समाज रचना में निहित है। हमारे यहाँ सोचा गया कि ये दोनों ही प्रेरणाएँ साथ-साथ रहेंगी। एक भौतिक लाभ जिसके कारण सुख प्राप्‍त हो सकता है और दूसी सामाजिक प्रतिष्‍ठा, जिसमें भौतिक लाभ या सुविधा और सुख नहीं, केवल प्रतिष्‍ठा है। फिर यह कहा गया है कि भौतिक लाभ और सामाजिक प्रतिष्‍ठा मिलाकर हरेक को समान प्राप्ति होनी चाहिए। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि एक निश्चित आकार का वृत्त है। इस वृत्त्‍ में हमने दो तरह के रंग भरे एक लाल और एक हरा। चूंकि वृत्त का आकार निश्चित है और इसमें दोनों रंग साथ-साथ हैं तो यदि तो इसमें लाल रंग का क्षेत्र बढ़ेगा तो हरे रंग का क्षेत्र छोटा होगा। यदि हरे रंग का क्षेत्र बढ़ेगा तो लाल रंग का क्षेत्र छोटा होगा। इसी तरह से यदि भौतिक सुख का क्षेत्र बढ़ेगा तो सामाजिक प्रतिष्‍ठा का क्षेत्र कम होगा और यदि सामाजिक प्रतिष्‍ठा का क्षेत्र बढ़ेगा तो भौतिक सुख का क्षेत्र कम होगा। किंतु दोनों मिलकर समान होगा। यह व्‍यक्ति की इच्‍छा पर निर्भर है कि वह कौन सी चीज कितनी मात्रा में ले। किसी को कोई मजबूर नहीं करता कि कौन व्‍यक्ति क्‍या ले, कितना ले। यदि आप सामाजिक प्रतिष्‍ठा अधिक लेंगे तो आपको भौतिक सुख कम मिलेगा, यदि भौतिक सुख अधिक लेंगे तो सामाजिक प्रतिष्‍ठा कम होगी।

आज सामाजिक प्रतिष्‍ठा और भौतिक सुख-सुविधाएँ, दोनों घुलमिल गए हैं। आज भौतिक उपलब्धियों को विपुलता पर सामाजिक प्रतिष्‍ठा निर्भर करती है। इसके कारण समाज का संतुलन बिगाड़ने वाली समस्‍याएँ निर्माण हो रही हैं। किंतु हिंदू-समानता वास्‍तविक समानता है। इसमें हरेक की स्‍वतंत्रता है। सब लोग एक समान नहीं होते। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग आकांक्षाएँ होती हैं। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग स्‍वभाव होते हैं, अलग-अलग रुचि होती है। हरेक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार, अपनी पसंद का चुनाव कर सकता है लेकिन भौतिक और अभौतिक प्रेरणाओं के आधार पर यदि हमने अपनी पसंद का चुनाव किया तो दोनों मिलाकर समानता भी रहेगी और व्‍यक्तिगत प्रेरणा भी बनी रहेगी।

आज चारों ओर भयंकर स्‍पर्धा दिखाई देती है। लोग सोचते हैं कि स्‍पर्धा के कारण प्रगति हो रही है। किंतु ऐसा नहीं है। प्रगति सहयोग से होती है और स्‍पर्धा से नहीं। स्‍पर्धा के विषय में हमारे यहाँ कहा गया है कि यदि स्‍पर्धा करनी ही है तो स्‍वयं से करो। ऐसी स्‍पर्धा स्‍वस्‍थ होती है। प्‍लूटार्क द्वारा लिखित सिकन्‍दर के जीवन में यह कहा गया है कि वह अपने खुद के साथ स्‍पर्धा करता था। वह हमेशा अधिक अच्छा बनने की कोशिश करता था। अत: दूसरे की तुलना में अधिक अच्‍छा नहीं तो खुद की तुलना में अच्‍छा बनने के लिए खुद के साथ की स्‍पर्धा वास्‍तविक स्‍पर्धा है, बाकी कोई स्‍पर्धा स्‍वस्‍थ नहीं हो सकती।

यह स्‍पर्धा क्‍यों है? सार्वजनिक जीवन में हमें दिखाई देता है कि एक का दूसरे के साथ झगड़ा होता है। निगम की सीट उसको क्‍यों दे दी, मुझको क्‍यों नहीं दी? प्रधानमंत्री वह क्‍यों है, मैं क्‍यों नहीं हूँ? भारत का राष्‍ट्रपति मैं क्‍यूं न बनूं? इत्‍यादि-इत्‍यादि। हरेक आदमी में प्रधानमंत्री बनने की इच्‍छा क्‍यों हो रही है? इसलिए कि प्रधानमंत्री की सामाजिक प्रतिष्‍ठा तो है ही, उसको भौतिक सुविधाएँ भी प्राप्‍त हैं, अर्थात प्रधानमंत्री बनने के बाद सुख-सुविधा और सामाजिक प्रतिष्‍ठा का क्षेत्र इकट्ठा होने के कारण सभी के मन में यह बात आती है कि मैं प्रधानमंत्री बनूँ।

लेकिन मान लीजिए कि आज का प्रधानमंत्री भी वैसे ही रहा, जैसे कि चाणक्‍य रहता था। तो क्‍या फिर भी कोई प्रधानमंत्री बनना चाहिए? चाणक्‍य के बारे में यह कहा गया है कि ''अहो राजाधिराजमंत्रिणां विभूति'' अर्थात राजाधिराज के मंत्री के घर का यह ऐश्‍वर्य देखिये कि -

उपलशकलमेतद् मेदकं गोमयानां।

बदुभिरूपह्नानां बर्हिणां स्‍तूपमेनद्।

शरणमपि समि‍द्भि : शुष्‍यमानाभिराभि:।।

विनमितपटरान्‍तं दृश्‍यते जीर्णकुटीयम।।

एक ओर गोबर के कंडों को फोड़ने के लिए पत्‍थर का टुकड़ा पड़ा है और दूसरी ओर ब्रह्मचारियों द्वारा लाई हुई कुशा का ढेर। सूखने के लिए ऊपर रखी समिधाओं से जिसका छप्‍पर झुक गया है तथा टूटी-फूटी दीवारों से जो सुशोभित है, ऐसा है प्रधानमंत्री का आवासीय कुटीर।

यदि ऐसा नियम बन जाए कि इस प्रकार के ऐश्‍वर्य में ही हमारे प्रधानमंत्री को रहना है तो मैं समझता हूँ कि फिर प्रधानमंत्री बनने के लिए कोई स्‍पर्धा नहीं होगी क्‍योंकि सारी स्‍पर्धा का कारण अधिक सुविधाएँ एवं सामाजिक प्रतिष्‍ठा का साथ-साथ होना है।

दो दृश्‍य हमारे सामने हैं एक तो है हमारी प्राचीन व्‍यवस्‍था का, और दूसरा है आज की समानता के असफल प्रयोगों का। आइए ये दोनों स्थितियों का तुलनात्‍मक विवेचन करें।

आज हमारी प्राचीन पद्धति को इसलिए खराब बताया जा रहा है क्‍योंकि हमारी दशा अच्‍छी नहीं है। हम यह विचार करें कि क्‍या प्राचीन पद्धतियों को छोड़ दिए जाने के कारण गिरावट आई है या प्राचीन पद्धतियों को छोड़ दिए जाने के कारण गिरावट आई है या प्राचीन पद्धतियों को न छोड़ने के कारण। किसी ने गांधी जी से पूछा था कि ''आप वर्ण धर्म का नाम लेते रहते हैं, क्‍या आप यह नहीं मानते कि इस वर्ण धर्म के कारण समाज में कितने झगड़े खड़े हो रहे हैं।'' महात्‍मा जी ने कहा, ''आपकी बात सही है, बहुत परिवर्तन आया है। बहुत विकृतियाँ आई हैं। इनको दूर करना होगा।'' तब उनसे फिर प्रश्‍न पूछा गया - ''क्‍या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि वर्ण धर्म को ही खत्‍म करना चाहिए?'' तो महात्‍मा जी ने कहा, ''आप रोग की शल्‍यक्रिया कीजिए, रोगी को मत मार डालिए।'' यदि किसी को एपेंडीसाइटिस हुआ तो क्‍या इसका एकमात्र रास्‍ता यह है कि रोगी को ही खत्‍म कर दें? यह रास्‍ता नहीं है। रास्‍ता यह है कि एपेंडीसाइटिस (अत्‍यगुच्‍छ) का आपरेशन करो। हमारे समाज में तो विकृतियाँ आई हैं, उन विकृतियों को हम शुद्ध करें। पर मूलभूत सिद्धांत रखना चाहिए।'' कहने का आशय है कि हमें यह देखना पड़ेगा कि हमारे प्राचीन सिद्धांतों के कारण गड़बड़ी आयी है या सिद्धांतों में जो विकृतियाँ आ गई हैं उनके कारण?

दूसरा शब्‍द उनके यहाँ आता है वर्गविहीनता का। सब लोगों ने कहा कि हम वर्ग नहीं चाहते। इस ''वर्ग'' शब्‍द का अर्थ क्‍या है? कार्लमार्क्‍स ने ''वर्ग'' शब्‍द का प्रयोग बहुत ही तकनीकी अर्थ में किया है। मार्क्‍स ने कहा है कि संपन्न अर्थात पूंजीपति और विपन्‍न अर्थात सर्वहारा, ये दो ही वर्ग हैं। जिनके पास उत्‍पादन के साधन हैं। वह एक वर्ग, और जिनके पास उत्‍पादन के साधन नहीं हैं वह दूसरा वर्ग। इन दोनों में अखंड संघर्ष है। अब यदि इस अर्थ में देखा जाए तो भारत में वर्ग है यह कहना, या दुनिया में कई वर्ग हैं, यह कहना कठिन है। मेरी एक साम्‍यवादी के साथ बातचीत हुई। वे हमारे मित्र भी हैं। मैंने उनसे कहा कि ''आप लोग बता रहे हैं कि पूंजीपति तथा सर्वहारा, दो परस्‍पर विरोधी वर्ग हैं तो यह भी बताइए कि इन दोनों वर्गों को पारिभाषित करने की दृष्टि से सीमा रेखा क्‍या है ताकि पता लगे कि उस रेखा के ऊपर के लोग पूँजीपति और नीचे के लोग सर्वहारा हैं। उन्‍होंने कहा कि ''ऐसी कोई रेखा नहीं है। कुछ लोग पूँजीपति हैं, कुछ लोग सर्वहारा।'' मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन आप हमें दोनों के बीच की सीमा-रेखाएँ, क्‍योंकि मेरे सामने एक व्‍यावहारिक असुविधा है। ये धनी और ये निर्धन, यदि हम इसी को लेकर विचार करें तो पाँच रुपये कमाने वाला चपरासी कहता है कि मैं तो सर्वहारा हूँ, लेकिन यह जो मेज पर बैठकर बाबू लिखता है, जिनको पचास रुपये मिलते हैं, वह धनी है। बाबू कहता है कि मैं तो निर्धन हूँ, मेरा मैनेजर जिनको पाँच सौ रुपये मिलते हैं वह धनी हैं। मैनेजर कहता है कि मैं निर्धन हूँ पाँच हजार रुपये पाने वाला मेरा मालिक धनी है। मालिक कहता है कि मैं तो गरीब हूँ केवल पाँच हजार रुपये ही कमाता हूँ करोड़ों रुपये कमाने वाला टाटा-बिरला धनी हैं। अर्थात हरेक अपने को निर्धन कहता है और दूसरे को धनी। आप मुझे बताइए कि इसमें सीमा-रेखा क्‍या है ? कितने रुपये के नीचे पाने वाले को निर्धन कहेंगे और कितने रुपये ऊपर वाले को धनी? सौ रुपये, दो सौ रुपये, पांच सौ रुपये या एक हजार रुपये कुछ तो बताइए।'' रात का समय था। उन्‍होंने कहा, ''कल इसके बारे में बात करेंगे।'' मैंने कहा कि ठीक है। दूसरे दिन प्रात: ही आए मुझे पुकारा तो मैं समझ गया कि वे पूरी तैयारी करके आए हैं। कहने लगे कि 'ठेंगड़ी जी ! कल तो आपने हमें भ्रमित कर दिया। आपने गलत प्रश्‍न पूछा।'' मैंने कहा कि 'कैसे?' वे बोले, ''देखिए, धनी और निर्धन में कोई सीमा-रेखा नहीं है, सीमा-रेखा है मालिक और मजदूर की। यानी जो उत्‍पादन के साधनों के मालिक हैं वे सारे धनी वर्ग में हैं और वहाँ जो काम करने वाले बाकी मजदूर इत्‍यादि हैं वे निर्धन वर्ग में हैं। मालिक और सर्वहारा वर्ग के बीच यही सीमा रेखा है। '' मैंने कहा, ''अब यह निश्चित हो गया है न? अब तो मैं आपको भ्रमित नहीं कर रहा।'' वे बोले, ''यह सीमा-रेखा अंतिम है।'' मैंने कहा तय हो गया कि सारे मालिक एक तरफ और मजदूर दूसरी तरफ है। लेकिन अब मेरे सामने कुछ प्रश्‍न आते हैं। छोटे किसान को धनी वर्ग में गिनेंगे या निर्धन वर्ग में क्‍योंकि उसके पास आधा एकड़ जमीन है। चूंकि उत्‍पादन के साधन उसके पास हैं इसलिए वह धनी वर्ग में आएगा। दूसरी बात यह है कि आधा एकड़ जमीन में से पूरे परिवार का पालन-पोषण नहीं हो सकता, इसलिए वह दूसरों के यहाँ मजदूर के नाते काम भी करता है। उस समय मालिक दूसरा रहता है। इस छोटे किसान को धनी कहेंगे या निर्धन ? क्‍योंकि आंशिक रूप से यह मालिक भी है और आंशिक रूप से मजदूर भी। मार्क्‍स ने तो अपने जीवन के अंत तक इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया। अत: आप कृपया इसका उत्तर दीजिये।'' वह बोले आपने तो केवल एक श्रेणी की चर्चा की है। मैंने कहा कि अच्‍छा ठीक है। अब दूसरा उदाहरण लें। हमारे यहाँ एक बहुत बड़ा सेक्‍टर हमारा विश्‍वकर्मा सेक्‍टर है। वे स्‍वकर्मी हैं जैसे-बढ़ई, चमार, लोहार, नाई आदि। इनको आप क्‍या कहेंगे? ये तो मालिक भी नहीं है और नौकर भी नहीं हैं। वे तो स्‍वयं अपने मालिक और स्‍वयं कर्मचारी हैं।'' उन्‍होंने कहा, ''आपने तो चार-पाँच लोगों का नाम ले लिया। मैंने कहा, ''ये चार-पाँच लोग नहीं हैं। हिंदुस्‍तान के कई करोड़ स्‍वकर्मी हैं। उनको किस वर्ग में डालेंगे?'' उन्‍होंने कहा, ''इसका विचार बाद में करेंगे।''

फिर मैंने कहा, ''जो मजदूर है उनका विचार भी मेरे मन में आता है। मान लीजिए मैं किसी फैक्‍टरी में बाबू का काम कर रहा हूँ। मैं दस बजे से पाँच बजे तक फैक्‍टरी में काम करता हूँ। अत: वहाँ मैं मजदूर हूँ। वहाँ मेरा मालिक या मैनेजर धनी वर्ग में है, और मैं निर्धन वर्ग में। लेकिन फैक्‍टरी में काम करने के बाद जब शाम को पाँच बजे मैं अपने मकान में आता हूँ और वहाँ रसोई बनाने या झाडू लगाने के लिए रखे हुए नौकर को कहता हूँ कि जरा एक कप चाय बनाओ, मैं थककर आया हूँ। उस समय वह मेरा नौकर बन जाता है और मैं उसका मालिक। अब मेरी गिनती किस वर्ग में होगी ? आपकी परिभाषा के अनुसार पाँच बजे तक आप मुझे विपन्‍न वर्ग में रखेंगे और सायं पाँच बजे से दूसरे दिन प्रात: दस बजे तक आप संपन्न वर्ग में। और यदि दोनों वर्गों में लड़ाई शुरू हो जाए तो मैं किधर रहूँगा। क्‍या दस बजे से पाँच बजे तक तो मैं इधर से तलवार इत्‍यादि लेकर लड़ाई करूँगा और पाँच बजे से दूसरे दिन दस बजे तक उधर बंदूक आदि लेकर लडूँगा? मेरी क्‍या भूमिका रहेगी?'' उन्‍होंने कहा कि ''आपने तो अपवादजनक परिस्थितियों के उदाहरण बताए हैं।'' मैंने कहा कि ''अपवाद नहीं, वे वस्‍तुस्थितियाँ हैं, और सर्वत्र चल रही हैं।''

संक्षेप में मेरे कहने का आशय यह है कि तकनीकी दृष्टि से वर्ग नाम की कोई वस्‍तु नहीं है। यह कवि की कल्‍पना मात्र है। यह बात तो ठीक है कि तरह तरह के स्‍वार्थ और उनमें परस्‍पर विरोध भी निर्माण हो सकता है। लेकिन वर्ग नाम की वस्‍तुत: कोई वस्‍तु नहीं है। विभिन्‍न श्रेणियाँ है जिन्‍हें समाप्‍त करना होगा।

लेकिन यदि हम ऐसा मान लें कि वर्ग शब्‍द का उपयोग समाज में अलग-अलग विभागों को बताने के लिए किया गया है तो मैं कहना चाहूँगा कि हमारे यहाँ भी विभाग थे। श्रम-विभाजन था। जहाँ भी समुन्‍नत समाज होगा, वहाँ श्रम विभाजन होगा ही क्‍योंकि एक ही आदमी सब काम नहीं कर सकता।

अब इसका विचार करें कि क्‍या लोग कहीं वर्ग विहीनता ला सके हैं? स्‍पष्‍ट है कि नहीं ला सके। जैसा मैंने कहा कि साम्‍यवादी देशों में भी शासक एवं शासित वर्ग है। रूस के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री ख्रुश्‍चेव का एक लेख छपा था। उसमें उन्‍होंने कहा था '' बचपन में भी लोगों के दिमाग में वर्ग-भेद का भाव रहता है। मेरे सामने यह समस्‍या है कि इसे कैसे दूर करें। रूस के विद्यालयों और महाविद्यालयों में मध्‍यावकाश के समय पेड़ के नीचे या और कहीं बाहर बाग इत्‍यादि में आपस में झुंड बनाकर लड़के बैठ जाते हैं। प्रशासकों और वैज्ञानिकों के लड़के अलग-अलग झुंड बनाते हैं और साधारण श्रमिकों और किसानों के लड़के अलग झुंड बनाते हैं। इसको कैसे दूर किया जाए?'' अर्थात रूस में भी वर्ग है और वर्ग-भेद का भाव भी है, इसे उन्‍होंने स्‍वीकार किया है। वहाँ भी वर्गविहीनता नहीं आई, वर्गविहीन समाज का निर्माण नहीं हुआ।

हमारे यहाँ वर्गविहीनता थी। यहाँ मैं वर्ग का तकनीकी अर्थ छोड़ रहा हूँ।किंतु सामान्‍य अर्थ में लोग जिसको वर्ग कहते हैं, उस अर्थ में वर्ग-विहीनता यहाँ थी। हमारे यहाँ वर्गविहीनता के लिए प्रत्‍येक को अधिकारी नहीं माना गया है। सबको यह अध्किार नहीं दिया गया है कि तुम वर्गविहीन बनो ही। लेकिन जो परिपक्‍व बन जाते थे जिनकी आंतरिक प्रगति हो चुकी होती थी उसके लिए हमारे यहाँ वर्ग-विहीनता रखी गई। इस वर्गविहीनता का दूसरा समकक्ष उदाहरण दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा। अधिकारी लोगों को कहा गया है कि तुम्‍हारा कोई वर्ग नहीं। तुम केवल श्रेष्‍ठ मानव के नाते रहो और तुम्‍हारी जो भी वर्ग-भावना हो उसको छोड़ दो। (पुन: स्‍मरण दिला दूँ कि मैं यहाँ वर्ग शब्‍द का उपयोग सामान्‍य अर्थ में कर रहा हूँ तकनीकी अर्थ में नहीं) सब भूल जाओ। वर्ग का नाम भूल जाओ। कुल का नाम भूल जाओ। अपना भी नाम भूल जाओ। माता-पिता का नाम भी भूल जाओ। तुम संन्‍यासी हो। हिंदू संन्‍यासी के लिए ''स्‍वदेशी भुवनत्रयम्'' होता था। अर्थात वह त्रैलोक्‍य का नागरिक बन जाता है। किसी संन्‍यासी के पूर्वाश्रम का आपको पता नहीं चलेगा। उसके कुल, उसकी माँ, उसके पिता किसी का पता नहीं चलता था। इस प्रकार के विश्‍व नागरिक स्‍तर पर वर्गविहीनता का एक ज्‍वलंत आदर्श हमारे यहाँ था। किंतु हरेक मनुष्‍य को उस श्रेणी में नहीं लाया गया। पहले देखा जाता था कि वास्‍तव में उसकी आंतरिक जागृति उस स्‍तर की है क्‍या? उसकी आत्‍मा का विकास उतना हुआ है क्‍या? समाधान कारक स्थिति में ही उनको संन्‍यास दिया जाता था। लेकिन एक बार संन्‍यासी बन गया, फिर किसी को यह पता नहीं चलता था कि वह पहले ब्राह्मण था या अनुसूचित जाति का।

कुछ विशेष शर्तों और कुछ संशोधनों के साथ, कुछ पथ्‍य रखते हुए वर्गविहीनता का अस्तित्व और कहीं नहीं, हमारे यहां ही है। अब तीसरी बात आती है शासन विहीनता की। साम्यवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्‍स और अराजकतावाद के प्रणेता बाकूनिन आदि ने समाज की अंतिम अवस्‍था-शासनविहीनता की अवधारणा प्रस्‍तुत की है। साम्‍यवाद और अराजकतावाद की उच्‍चतम स्थिति में शासनविहीन समाज-रचना इच्छित और अपेक्षित है। किंतु क्‍या आज ये प्रगतिशील और साम्‍यवादी लोग शासन विहीनता की ओर बढ़ रहे हैं? ऐसा दिखाई देता है कि उनकी प्रवृत्ति शासन को अधिक सुदृढ़ और अधिक तानाशाही बनाने की है। केवल उनकी ही ऐसी प्रवृत्ति है, वह दोष मैं उनको नहीं दूँगा। क्‍योंकि कल मेरे भी हाथ में शासन आ जाएगा तो मेरी भी यही प्रवृत्ति बनेगी। आज मेरे हाथ में सत्ता नहीं, केवल मैं धर्म का प्रवचन कर सकता हूँ। जो जंगल में रहता है उसका ब्रह्मचारी बने रहना कोई बड़ी बात नहीं क्‍योंकि ब्रह्मचारी बने रहने के अलावा उसके पास कोई विकल्‍प ही नहीं होता। आज तो हम सब श्रेष्‍ठ पुरुष हैं, क्‍योंकि हमारे हाथ में सत्ता नहीं। इसके कारण आज हम चाहें तो भी सत्ताजन्‍य दोष हमारे पास नहीं आ सकते। सत्ता के कुछ वैशिष्‍ट्य हैं। उनमें से एक वैशिष्‍ट्य यह है कि उसमें आत्‍मचिराधिकार (सेल्‍फ परपीचुएशन) की इच्‍छा निहित होती है। ''आत्‍म-चिराधिकार'' का अर्थ है कि जिसके हाथ में एक बार सत्ता आती है, उसकी यह स्‍वाभाविक इच्‍छा होती है कि वह सत्ता उसके हाथ में अखंड रूप से कायम रहे।

अब कोई कहेगा कि इसमें अपवाद है कि नहीं? अपवाद है, किंतु बहुत कम। कनफ्यूशियस ने ''दार्शनिक राजा'' और ''राजा दार्शनिक'' का आदर्श रखा था कि जो दार्शनिक है, उसको राजा बनाना चाहिए और जो राजा है उसको दार्शनिक होना चाहिए लेकिन कनफ्यूशियस अकेला पड़ गया। क्‍योंकि ऐसे थोड़े से ही उदाहरण हैं। रोमनसम्राट डायोक्‍लाशियन या मार्क्‍स आरेलियस का बड़ा प्रसिद्ध उदाहरण है। वे एकदम अनाशक्‍त थे। एक महान साम्राज्‍य उनकी अधीनता में था, लेकिन उनको कोई आशक्ति नहीं थी। सम्राट चार्ल्‍स का भी ऐसा उदाहरण है। अपने यहाँ जनक आदि कुछ लोग हो गए जो राजा होते हुए भी ऋषि थे इसलिए उनको राजर्षि कहा गया।

आमतौर पर ऐसा दिखाई देता है कि जो साधु-संत या महात्‍मा होते हैं। अनासक्‍त होते हैं, वे शासक नहीं बनते और जो शासक बनते हैं वे साधु, संत या महात्‍मा नहीं होते। सत्ता को टिकाए रखने का विचार शासन के कर्तव्‍य पालन से भी अधिक प्रबल होता है। इस संबंध में साम्‍यवादी देशों को ही दोष देना न्‍यायोचित नहीं होगा। यह सर्वसाधारण प्रवृत्ति है।

दूसरा वैशिष्‍ट्य है, सत्ता की सीमा को विस्‍तृत करते जाने की इच्‍छा सत्ताधीश की। सत्ताधीशों का सत्ता पर चिर-अधिकार न हो सके, इसके लिए यह व्‍यवस्‍था आवश्‍यक है कि सत्ता की सीमा वह अनियंत्रित और अनिर्बंध न बढ़ा सके। यह व्‍यवस्‍था किसी भी पश्चिमी तंत्र में नहीं है। लोकतंत्र में भी ऐसी कोई ठोस व्‍यवस्‍था नहीं है जो इस दृष्टि से बिल्‍कुल निश्चित रूप से सफल हो सके। मतपत्र के लोकतांत्रिक माध्‍यम से ही हिटलर की तानाशाही का निर्माण हुआ था। साम्‍यवादी देशों की तो बात ही छोड़िए।

साम्‍यवादियों ने यह कहा है कि हमारे यहाँ तो तानाशाही ही तानाशाही का अर्थ होता है कि ''सबकुछ राज्‍य के अंर्तगत है, सब कुछ राज्‍य के लिए है, राज्‍य के परिधि के बाहर कुछ भी नहीं। तानाशाही आने के बाद यदि कोई सोचे कि राज्‍य अस्तित्‍व-विहीन होकर स्‍वयं नष्‍ट हो जाएगा तो यह गलत होगा। उसमें से शासनविहीन समाज-रचना का आदर्श प्राप्‍त नहीं किया जा सकता।

आज हमारे देश में शासन का महत्‍व बहुत ही अधिक है क्‍योंकि अपना स्‍वराज्‍य नया-नया है। हमें स्‍वराज्‍य का अनुभव बहुत दिन तक नहीं था। फिर लोकतंत्र का यह वर्तमान स्‍वरूप भी नया-नया है। इसे लोकतंत्र में हरेक को लगता है कि मैं शासन को बना और बिगाड़ सकता हूँ, इसके कारण नई शक्तियाँ अपने हाथ में आयी हैं। जहाँ चिरकाल से स्‍वराज्‍य चलता आया है, वहाँ के लोगों के लिए स्‍वराज्‍य एक प्रकृतिगत बात है। किंतु ऐसे देश में जहाँ स्‍वराज्‍य शताब्दियों से नहीं था, नया-नया आया है वहाँ के लोगों को राज्‍य और शासन के विषय में बहुत आकर्षण निर्माण होना स्‍वाभाविक बात है। इसके कारण लोगों के मन में शासन संस्‍था का अतिरेक महत्‍व निर्माण हो सकता है।

हमारे कुछ मित्र हैं। वे कहते हैं कि ''सब कुछ शासन के माध्‍यम से ही होगा।'' अर्थात राष्‍ट्र निर्माण कार्य भी सरकार के द्वारा होगा। कुछ मित्रों ने यह भी कहा कि ''संघ कार्य चलाना व्‍यर्थ है। 1947 से पहले यह ठीक था। आज इसका क्‍या महत्‍व है?'' मैंने पूछा, ''क्‍यों?'' इस पर वे बाले कि स्‍वराज्‍य आ गया है।'' मैंने कहा, ''इसके इसका क्‍या संबंध हुआ?'' उन्‍होंने कहा, ''मालूम होता है कि आप आधुनिक नहीं, पच्‍चीस वर्ष पीछे हैं।'' मैंने कहा, ''क्‍यों?'' वे बोले कि ''आपको पता नहीं कि स्‍वराज्‍य आ गया, लोकतंत्र आ गया, अब तो सब काम राज्‍य के द्वारा ही होगा। अब इस सारे 'दक्ष आरम' की क्‍या आवश्‍यकता है? इसे सरकार पर छोड़िए। मैंने कहा, इसका नतीजा क्‍या होगा? क्‍या आपने इसके बारे में सोंचा है? यदि हर दायित्‍व सरकार को सौंप देते हैं तो फिर हर चीज में सरकार का अधिकार भी मान्‍य करना होगा। और यदि राष्‍ट्र निर्माण कार्य भी सरकार के माध्‍यम से ही होने लगेगा तो फिर सरकार तानाशाह बन जाएगी। क्‍या हम इस अवस्‍था को पसंद करते हैं? मैंने कहा, ''उससे अधिक महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न यह है कि राष्‍ट्र को जीवित रहना है या मरना है?'' तो उन्‍होंने कहा, ''इसमें जीने या मरने का प्रश्‍न ही कहाँ आता है?'' मैंने कहा, ''जरा दूरदृष्टि से विचार करेंगे तो इसमें यह प्रश्‍न नजर आएगा। इतिहास की प्रक्रिया हमें बताती है कि राज्‍य और राष्‍ट्र के परस्‍पर क्‍या संबंध रहे? यदि आज हम हिंदुस्‍तान के बाहर ही दुनिया का इतिहास देखेंगे तो ऐसा दिखाई देगा कि कई राष्‍ट्र निर्माण हुए, विकसित हुए, किवास की चरम सीमा तक पहुँचे। हम जानते हैं कि किसी भी कालखंड में भौतिक प्रगति की जो चरम सीमा होती है उसका संकेत करने के लिए सभ्‍यता शब्‍द का उपयोग किया जाता है। किसी भी एक कालखंड में भौतिक प्रगति या साधनों का चरम सीमा जिस राष्‍ट्र ने प्राप्‍त की होती है, उस राष्‍ट्र का नाम विश्‍व सभ्‍यता को दिया जाता है। इस दृष्टि से जिनका नाम विश्‍व सभ्‍यता को भिन्‍न-भिन्‍न कालखंडों से प्राप्‍त हुआ, भौतिक प्रगति की दृष्टि से जिन्‍होंने दुनिया का नेतृत्‍व किया, ऐसे कई राष्‍ट्र अतीत के अंधकार में समाकर नष्‍ट हो गए। वह खाल्दिया कहाँ है? बेबीलोनियाँ कहाँ है? असीरिया कहाँ है? फारस कहाँ है? सुकरात का यूनान कहाँ है? आज का जो यूनान कहाँ है, वह सुकरात का उत्तराधिकारी नहीं। वह जुलियस सीजर का रोम कहाँ है ? आज का इटली जुलियस सीजर के रोम का उत्तराधिकारी नहीं। फाराओ राजाओं का मिश्र कहाँ हैं? आज का मिश्र फाराओं राजाओं के मिश्र का उत्तराधिकारी नहीं है। मिश्र, रोम, ग्रीस, फारस, खाल्दिया, बेबीलोनिया, असीरिया आदि सभी राष्‍ट एक समय इतने उन्‍नत थे तो वे फिर नष्ट क्‍यों हो गए? इसके कारण की खोज करेंगे तो सबके इतिहास में एक समान बात दिखाई देगी कि उनकी समाज संरचना में शासन संस्‍था का महत्‍व बढ़ गया था समाज का जीवन शासनाभिमुख हो गया था। संपूर्ण समाज-जीवन का प्रवाह शासन के इर्द-गिर्द बहने लगा था। ऐसी अवस्‍था में, चाहे आंतरिक विघटन के फलस्वरूप हो या वाह्य आक्रमण के फलस्वरूप, किसी भी कारण से क्‍यों न हो, जैसे ही यह शासन संस्‍था टूटी है, वैसे ही उसके सहारे चलने वाला समाज जीवन नष्‍ट हो गया है। जिस तरह पेड़ के सहारे बेल ऊपर चढ़ती है, और किसी कारण पेड़ नीचे गिर जाता है तो उसके सहारे चढ़ी हुई बेल भी तो गिर जाती है, उसी तरह यदि समाज-जीवन, शासनाभिमुख, शासन केंद्रित रहा तो किसी भी कारण से जब शासन टूटता है तो वह राष्ट्र ही नष्‍ट हो जाता है। इसी प्रक्रिया में खाल्दिया, बेबीलोनिया, असीरिया रोम, ग्रीस और फारस नष्‍ट हुए।''

हिंदुस्तान का राष्‍ट्र जीवन बड़ा विचित्र रहा है, वह शासनवलंबी या शासन केंद्रित कभी नहीं रहा। यहाँ स्‍वायत्त अर्थात स्‍वयंशासित रचना रही। शासन चाहे जिसका रहा हो, हमारा समाज जीवन सतत चलता रहा। हरेक व्‍यक्ति और हरेक व्‍यक्ति समूह के नियमों का पालन अक्षुण्‍ण चलता था। पराए लोगों ने यहाँ आक्रमण किए, यहाँ अपना शासन चलाया तो उनके शासन में रहते हुए भी हमारे व्‍यक्ति-धर्म और व्‍यक्ति-समूहों के धर्म में व्‍यवधान नहीं आया। यहाँ का स्‍वायत्त-स्‍वयं-शासित-समाज जीवन अक्षुण्‍ण चलता रहा।

हिंदुस्तान के बाहर यह माना गया है कि शासन-साध्‍य है और समाज साधन है। किंतु हिंदुस्तान में सदा यह माना गया कि समाज साध्‍य है और शासन उसके अनंत साधनों में से एक साधन है, इससे अधिक नहीं। अतएव यहाँ समाज शासनाभिमुख, शासनावलंबी, शासन केंद्रित नहीं रहा, बल्कि शासन समाजाभिमुख, समाजावलंबी एवं समाज केंद्रित रहा। इसी कारण यहाँ शासन आए और शासन गए, किंतु समाज का जीवन अक्षुण्‍ण चलता रहा। अंग्रेजी में ''ब्रुक (निर्झर)'' नामक एक कविता है -

Men may come and men may go

But l go on forever

मनुष्‍य आते हैं और चले जाते हैं, किंतु मैं सदा सर्वदा चलता रहता हूँ।'' इसी प्रकार हमारा कहना है कि शासन आयेंगे और नष्‍ट हो जाएंगे, किंतु यह हिंदू राष्‍ट्र, यह हिंदू समाज, सनातन काल से चलता आया है और चिरकाल‍ तक चलता रहेगा।

राष्‍ट्र और राज्‍य या समाज और राज्‍य के क्‍या संबंध रहे, यह केवल मतदान का प्रश्‍न नहीं है। प्रश्‍न यह है कि क्‍या राष्‍ट्र को चिरंतन रहना है, या खाल्दिया या बेबीलोनिया की सूची में शामिल होना है ताकि इतिहास में यह लिया जाए कि ''किसी समय हिंदू राष्‍ट्र था।'' यदि हम इस अवस्‍था को चाहते हैं कि यह हिंदू सनातन है पहले भी था आज भी है और सदा रहेगा तो राष्‍ट्र और समाज-जीवन के शासन निरपेक्ष और स्‍वायत्त अर्थात स्‍वयंशासित होने की आवश्‍यकता होती है। इसके अनंत साधनों में से एक साधन के नाते शासन रहे, इससे अधिक नहीं। नहीं तो राष्‍ट्र चिरंतन नहीं हो सकता, और यह भी ''कभी था'' में शामिल हो जाएगा।

साम्‍यवाद ने अपने सामने शासन-विहीनता का आदर्श तो रखा है किंतु सत्ता के जो अंगभूत दोष हैं उनके बारे में कोई अवरोध और प्रतिसंतुलन का पूरा और प्रभावी विचार नहीं किया। आत्‍म-चिराधिकार और अधिनायकवादी निरंकुश प्रवृत्ति, दोनों का हमारे पुराने लोगों ने, उनको भले ही प्रगतिशील न कहा जाए, विचार किया और बहुत से अवरोध और प्रति-संतुलनों की व्‍यवस्‍था भी की। एक तो हमारे यहाँ शासन संस्‍था को कभी सर्वोच्‍च माना ही नहीं गया। हमारे यहाँ समाज का नेतृत्‍व शासन ने कभी नहीं किया। फिर जो लोग शासन का नेतृत्‍व करने वाले थे, उनके कुछ विशेष गुण थे। उनका अपना कोई वर्ग नहीं, कोई श्रेणी नहीं, कोई गुट नहीं, कोई धड़ा नहीं था। ये अयं निज: परोवेपित्त, गणना लघु चेतसाम् उदार चरितानां तू वसुधैव कुटुम्‍बकम् '' के प्रतीक थे। यह मेरा है, यह पराया है यह निम्‍न भाव उनके मन में नहीं होता है। वे ऐसे लोग थे जिन्‍हें आध्‍यात्मिक दृष्टि से उच्‍च स्थिति प्राप्‍त थी जो संपूर्ण समाज और संपूर्ण मानवता का विचार कर सकते थे। सभी बातों का सम्‍यक संतुलित विचार करने के लिए आवश्‍यक आत्‍म-प्रगति कि भौतिक बातों की प्राप्ति उनके लिए असंभव थी बल्कि भौतिक बातों को प्राप्‍त करना तुच्‍छ बात है ऐसा समझकर वे इधर से मुँह मोड़कर जंगलों और गिरि-गह्वरों में वास करते थे। ये लंगोटी लगाने वाले लोग थे। ऐसे वर्गविहीन लोग, जिनके पास अर्थ सत्ता नहीं, शासकीय सत्ता नहीं, समाज के नेता होते हैं। समाज का विधान बनाने का काम राजा के हाथ में नहीं, उन लंगोटी वालों के हाथ में था। उन्‍होंने ही समाज का विधान बनाया। विधान में सबके लिए उनका अपना-अपना कर्तव्‍य बताया। शासन संस्‍था के लिए भी कर्तव्‍य का निर्धारण किया। उसे राजधर्म कहा गया। जिसके हाथ में शासन नहीं, जो पंचायत परिषद का अध्‍यक्ष नहीं, वह सम्राट को बताता था कि तुम्‍हारा क्‍या कर्तव्‍य है। समाज की नैतिक सत्ता एक ओर, और शासन सत्ता एक ओर। अर्थसत्ता एक ओर, समाज बल दूसरी ओर। इस प्रकार सत्ता का विभाजन किया गया और इस विभाजन में नैतिक सत्ता को सर्वोच्‍च माना गया। कितना सर्वोच्‍च? इसकी तो आज कल्‍पना करना भी कठिन है।

मैं जब महाविद्यालय में पढ़ता था तो एक उदाहरण आया कि रामचंद्र जी का राज्‍याभिषेक होने जा रहा है। वशिष्‍ठ नामक कोई लंगोटी वाला उनको बताता है कि ''देखो, तुम्‍हारा राज्‍य तुम्‍हारे हाथ में आएगा, किंतु जरा संभलकर काम करना। ''स्‍वं बाल एवासिंनव व राज्‍यम्ं।'' ''नवम् च राज्‍य'' का अर्थ है प्रशासन तुम्‍हारे लिए नया है। अब ''त्‍वं बाल एव असि'' है। संस्‍कृत में बाल शब्‍द के दो अर्थ होते हैं। बाल का अर्थ छोटा और मूर्ख दोनों होता है। होने वाले राजा को यह लंगोटी वाला बताता है कि तू बाल है अर्थात् मूर्ख भी है और बच्‍चा भी है। यह प्रशासन का शास्‍त्र तुम्‍हारे लिए नया है, अत: जरा संभलकर काम करो, तो उस समय भी मेरे साथ बैठे हुए मेरे सहपाठी ने कहा था कि ''क्‍यों जी! क्‍या आज किसी के मन में ऐसा कहने का साहस हो सकता है?''

यह विभाजन कितना प्रभावी था। इसका एक और उदाहरण है। कुछ पराक्रमी राजा अपना पर्याप्‍त राज्‍य विस्‍तार कर लेते थे तो उनका अभिषेक चक्रवर्ती राजा की तरह होता था। चक्रवर्ती का अभिषेक पूरा होने की एक अंतिम प्रक्रिया होती थी। जनता का दरबार बैठता था। वह चक्रवर्ती अपने साम्राज्‍य सिंहासन पर विराजमान होता था। उसके पास हाथ में पलास-दंड लेकर एक लंगोटी वाला खड़ा होता था। चक्रवर्ती हाने वाला सम्राट सबके सामने तीन बार कहता था। ''अदंडयोऽस्मि, अदण्योऽस्मि, अदण्डयोऽस्मि''- अर्थात् मुझे कोई सजा नहीं दे सकता। उसके बाद वह लंगोटी वाला तीन बार पलाश-दंड उसकी पीठ पर मारकर कहता था ''धर्मदण्‍डयोऽसि, धर्मदण्‍डयोऽसि, धर्मदण्‍डयोऽसि'' - अर्थात तुम अदंड्य नहीं हो, धर्म तुम्‍हे दण्‍ड दे सकता है। इसके बाद ही उसके चक्रवर्तित्‍व का अभिषेक पूरा हुआ माना जाता था।

हमारे यहाँ शक्ति विभाजन, अवरोध एवं संतुलन का विधान था। इसके कारण राजा को मुख्‍य कार्यकारी अधिकारी से अधिक और कुछ नहीं माना गया था। उस समय का राजा केवल प्रजानुरंजक होता था। यह कहा गया है कि वह ''षष्‍ठांश भोगी भृत्‍य है, स्‍वामी नहीं।''

इस विषय में एक सज्‍जन ने कहा कि ''शासन को अत्‍यधिक महत्‍व देने का एक विशेष कारण है।'' मैंने कहा, ''जिसके हाथ में सदा से स्‍वराज्‍य रहा, उनको तो इसका अत्‍यधिक महत्‍व लगता नहीं।'' वे बाले, ''बहुत दिनों तक स्‍वराज्‍य अपने हाथ में नहीं था, अब यह नया-नया मिला है, इसलिए इसका महत्‍व अधिक है।'' उन्‍होंने उदाहरण दिया कि जिसका स्‍वाभाविक अवस्‍था में विवाह हो जाता है, वैवाहिक जीवन के बारे में उसकी‍ आसाक्ति साधारण होती है। लेकि जो बहुत दिनों तक जबर्दस्ती ब्रह्मचारी रहते हैं और उनका विवाह बहुत देरी से होता है उसके मन में वै‍वाहिक जीवन के बारे में आसाक्ति असाधारण होती है। राज्‍य के बारे में भी जो असाधारण आसक्ति दिखायी देती है, उसका भी यही कारण होगा।

प्राचीन काल के जीवन मूल्‍यो का हम आज विचार करें तो कल्‍पना करना भी कठिन होता है। हम रघुवंश के बारे में जो कुछ सुनते हैं, वह केवल रघुवंश की ही बात नहीं बल्कि सभी पर लागू होती थी कि-

शैशवेऽभ्‍यस्‍तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।

बार्धक्‍ये मुनिवृत्तिनां योगेनान्‍ते तनुत्‍यजाम्।।

यानी सारा शासन इत्‍यादि जुटाने के बाद वार्धक्‍य आ गया तो वानप्रस्‍थाश्रम ले लिया। सब छोड़ दिया। अब कल्‍पना कीजिए कि यदि यह वानप्रस्‍थाश्रम का नियम प्रचलित हो जाए तो इसका क्‍या प्रभाव पड़ेगा। अगर यह हो जाए कि चाहे उद्योगपति हो, चाहे राजनीतिज्ञ, एक विशेष समय के बाद सबको वानप्रस्‍थाश्रम लेना होगा। और यदि ऐसा हुआ तो क्‍या यह प्रतियोगिता बहुत कम नहीं हो जाएगी?

इसके फलस्‍वरूप कई विचित्र उदाहरण अपने देश में मिलते हैं। भरत को ही लें। उसको शासन मिल गया, किंतु वह हाथ में आया हुआ राज्‍य अपने बड़े भाई को समर्पण करने के लिए अपनी सेना इत्‍यादि लेकर पैदल चित्रकूट जाता है। कोई भी सामान्‍य राजनीतिज्ञ इसको मूर्खता कहेगा। वह कहेगा, ''अरे भाई, हम तो राष्‍ट्रपति बनने के लिए इतना परिश्रम करते हैं और तुम्‍हारे हाथ में राज्‍य आ जाने पर तुम उसको दूसरे के हाथ में देने के लिए इतना लंबा प्रवास करके जा रहे हो?'' काई सामान्‍य मनुष्‍य भी आज इतनी मूर्खता का व्‍यवहार नहीं करेगा? लकिन यह व्‍यवहार हमारे यहाँ हुआ है।

एक उदाहरण गुरु गोविंदसिंह का भी है। वे जिस समय राजनीति में आए या उनको जब राजनीति में आना पड़ा, तो उन्‍होंने भगवान से कहा (उस समय उनको शासन भी चलाना पड़ा, वह योद्धा और शासक भी थे) ''भगवान! तुमने मुझे इस राजनीति में क्‍यों डाला? मुझे इस खेड़ा परिवार में क्‍यों डाला? यहाँ तो मेरा मन लग नहीं रहा।''

आप सबको हीर और रांझा की कहानी मालूम होगी। उस लड़की का विवाह खेड़ा परिवार में किया गया था। उसका मन वहाँ नहीं रमता था। इसलिए पंजाबी में गीत है, उसमें वह लड़की कहती है कि ''मुझे क्‍यों खेड़ा परिवार में डाला है। मेरा मन वहाँ है यहाँ नहीं।'' गुरु गोविंद सिंह जी ने राजनीति के बारे में कहा है कि ''मुझे इस खेड़ा परिवार में क्‍यों डाला?'' मैं नहीं समझता कि आज कोई ऐसा कहने की मूर्खता करेगा। आज तो अधिकतर लोग इसी खेड़ा परिवार में आना चाहते हैं।

छत्रपति शिवाजी का भी एक उदाहरण है। उन्‍होंने राज्‍य प्राप्‍त किया और फिर उनके दिमाग में क्‍या सनक आ गई कि जैसे ही समर्थ स्‍वामी रामदास भिक्षा माँगने आए तो उन्‍होंने चिट्ठी लिखकर उनकी झोली में डाल दी कि अपना राज्‍य आपको अर्पण करता हूँ। समर्थ रामदास जी के सामने यह प्रश्‍न आया कि ''यह राज्‍य अर्पण कर रहा है, किंतु मेरा तो यह धंधा नहीं है, मैं इसे कैसे चलाऊँ? और अंत में मध्‍यम मार्ग निकला कि ''ठीक है, तुम भी राजा नहीं, मैं भी राजा नहीं। यह भगवान ध्‍वज अपना राष्‍ट्र ध्‍वज है। इसके प्रतिनिधि के रूप में तुम शासन चलाओ।''

अपना अर्जित राज्‍य एक संन्‍यासी की झोली में डालने के लिए कितना पागलपन आवश्‍यक है, इसका हम विचार करें। यह अपनी परंपरा से आया हुआ पागलपन है।

महाभारत में एक बहुत अच्‍छा उदाहरण आता है। महाभारत का युद्ध समाप्‍त हो गया। तत्‍पश्‍चात् धृतराष्‍ट्र वन में जाने के लिए निकले। गांधारी ने भी जाने की तैयारी की। पाँचों पांडव हाथ जोड़कर खड़े हो गए। कहने लगे, ''चाचा जी! जो हो गया सो हो गया। दुर्योधन मानता ही नहीं था। आपकी भी नहीं मानता था, हमारी भी नहीं मानता था। इन सबके परिणामस्‍वरूप हमारा संपूर्ण क्षय हो गया। लेकिन अब जो अवस्‍था आई है, इसमें आप भी चले जाएंगे तो हमारा क्‍या होगा? हमारे परिवार में आपके अतिरिक्‍त कौन ज्‍येष्‍ठ है? आप ही तो हमारे सब कुछ हैं।'' धृतराष्‍ट्र ने कहा, ''ठीक है बेटा। तुम्‍हारी इस भावना को मैं समझता हूँ। लेकिन मेरे लिए जंगल में जाना ही अच्‍छा है।''

अब उन्‍होंने जंगल में जाने का निश्‍चय कर लिया तो माता कुन्‍ती ने भी अपना बोरिया-बिस्‍तर बाँधना शुरू किया। युधिष्ठिर सहित पांडव ने माता को कहा, ''यह तो बड़ी अजीब बात है। हम पाँचों तो लड़ाई ही नहीं करना चाहते थे। जो कुछ हमें मिल जाता, उसी में अपना जीवन बिता लेते। तुम्‍हीं ने हमको राज्‍य प्राप्‍ति के लिए लड़ाई करने को बाध्‍य किया, प्रोत्‍साहित किया, प्रेरित किया। अब जब राज्‍य प्राप्‍त हो गया, तब हे माता! तुम जंगल में जा रही हो, यह क्‍या है?

कुन्ती ने कहा, ''यह बात सही है कि तुम्‍हारी युद्ध करने की इच्‍छा नहीं थी। मैंने तुमको राज्‍य प्राप्ति के लिए लड़ने को प्रोत्‍साहित किया। किंतु तब मेरा और तुम्‍हारा वही कर्तव्‍य था। यदि तुम कर्तव्‍य के नाते राज्‍य प्राप्‍त न करते, तो उसका अर्थ यह होता कि तुमने कर्तव्‍य-पालन में भूल की है अत: अपने धर्म, अपने कर्तव्‍य का पालन और राज्‍य प्राप्‍ति के लिए लड़ाई लड़ने को मैने तुमको प्रोत्‍साहित किया। किंतु मैं अपने पुत्रों के राज का उपभोग करूँगी। यह भावना मेरे मन में न तब थी न अब है। उस समय राज्‍य प्राप्‍ति के उद्देश्‍य से लड़ाई के लिए तुमको प्रोत्‍साहित करना मेरा धर्म था। वह धर्म अनुकूल था और अब जब धृतराष्‍ट्र वन में जाने के लिए निकले हैं तो उनके साथ वन में जाना मेरा धर्म है, इसलिए मैं उनके साथ जा रही हूँ।

हम सोचें कि यदि हम लोग कुन्‍ती के स्‍थान पर होते तो क्‍या ऐसा व्‍यवहार करते।

भीष्‍म, युधिष्ठिर को बताते हैं कि एक समय ऐसा था जब राज्‍य जैसी कोई संस्‍था नहीं थी?'' ''न राज्‍यं नैव राजाऽसीत न दण्‍डयो न च दाण्डिक:'' - अर्थात राज्‍य नहीं था। राज्‍याधिकारी नहीं थे। दण्‍डनीय तथा दण्‍डकर्ता, दोनों नहीं थे। मतलब यह है कि जेल नहीं थी, मजिस्‍ट्रेट नहीं थे, न्‍यायालय नहीं थे। कुछ नहीं था। ''तेषां नासीत् विद्यातव्‍याम्।'' उस समय कोई विधान भी नहीं बना था। कोई यह भी नहीं कह सकता था कि तुमने अमुक धारा का उल्‍लंघन किया है। अत: उच्‍चतम न्‍यायालय चलो। ''तेषा नासीत् विधातव्‍यं प्रायश्चितं कथं च नं''। कोई अनुशासनात्‍मक कार्यवाही का प्रावधान नहीं था। उन्‍होंने यहाँ तक कहा कि मृत्‍युदण्ड भी नहीं था। ''पुराधिग्‍दण्‍ड एवं सीद्, वधण्‍डोऽद्य वर्तते''। आज वध दण्‍ड है उस समय नहीं था तो क्‍या था? धिक दण्‍ड था, यानी केवल जनधिक्कार ही दण्‍ड था। लोगों के द्वारा धिक् कहना ही उस समय का सबसे बड़ा दण्‍ड था। लेकिन इस प्रकार शासनविहीनता कैसे चली थी? इस पर उन्‍होंने कहा-

''न राज्‍यं नैव राजा सीत् न दण्‍ड यो न च दाण्डिक:।

धर्मणैव प्रजा: सर्वे रक्षन्तिस्‍म परस्‍परम्।।

अर्थात तब धर्म के आधार पर लोग एक दूसरे की रक्षा करते थे। एक दूसरे को साथ लेकर चलते थे। आधार धर्म था, राज्‍य नहीं। हिंदुओं की विशेषता यह है कि इस समाज की धारणा धर्म के आधार पर है, सरकार के आधार पर नहीं। सरकार धर्म के विभिन्‍न साधनों में से एक साधन हो सकती है किंतु उसके आधार पर समाज की धारणा नहीं होती।

धर्म का अर्थ क्‍या है? इसका बहुत वर्णन करने की आवश्‍यकता नहीं है। समाज की धारणा करने वाले विधान को धर्म कहा जाता है। इसी धर्म के आधार पर हमारे यहाँ शासन-विहीन समाज की रचना की गई थी।

प्रश्‍न यह है कि यदि अपना समाज फिर से निर्माण करना हो तो कौन-सा आधार लिया जा सकता है? इसका विचार हमारे यहाँ किया गया है कि समाज निर्माण का आधार धर्म है।

धर्म को सर्वोच्‍च मानने के कारण ही हमारे यहाँ सभी शासनविहीन समाज था और इसी आधार पर बाद में भी कभी शासनविहीन समाज हो सकता है। पश्चिमी देशों में साधनविहीनता नहीं आ सकती अधिनायकवाद के द्वारा शासनविहीन समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। धर्म के अभाव में मात्‍स्‍य न्‍याय आता है जहाँ बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।

हमने देखा है कि पश्चिमके विचारकों के मन में शासनविहीनता की स्थिति का विचार तो है। किंतु उसके पास शासनविहीनता लाने वाला कोई आधार नहीं है। हमारे यहाँ इसको धर्म का प्रबल आधार दिया गया है। हमारे यहाँ राजनीति को धर्म का एक साधन माना गया। जिसके कारण इतिहास में हम कुछ ऐसे विचित्र वक्‍तव्‍य पढ़ते हैं कि जिनकी हम कल्‍पना तक नहीं कर सकते कि इस तरह कैसे बोला गया होगा। मन में यह प्रश्‍न उठता है कि क्‍या ऐसे बोलने वाले लोग वस्‍तुत: होश में थे ? इस प्रकार के कई उदाहरण अपने यहाँ हैं।

छत्रपति शिवाजी चन्‍द्रराव मोरे को, जो बीजापुर के बादशाह का सरदार था, अपने पक्ष में लाना चाहते थे। चन्‍द्रराव मोरे यह समझते थे कि उनका खानदान बड़ा है। शिवाजी ने उनको पत्र लिखे। उनको कहा कि तुम भी इ स्‍वराज्‍य के प्रयास में कंधे से कंधे लगाकर खड़े हो जाओ। चन्‍द्रराव ने कहा कि कहाँ तुम, कहाँ मैं? हम तुमसे श्रेष्‍ठ हैं, हमको राजा की पदवी राजा ने मेहरबान होकर दी है।'' स्‍मरण रहे, शिवाजी को किसी बादशाह ने राजा की उपाधि दी नहीं थी। क्‍योंकि वे राजाश्रय पर चलने वाले सरदार नहीं थे। शिवाजी ने उत्तर दिया, ''तुम्‍हें राजा की उपाधि राजा ने दी होगी, हमें तो यह राजत्‍व श्री शंभु ने दिया है।'' यह पागलपन ही है न ! कौन है वह श्री शंभु? किसने देखा है उसको? उसने राज्‍य दिया तो कैसे दिया? कब दिया? कब देने के लिए आया था? देने की क्‍या पद्धति थी? उसकी लिखा-पढ़ी है क्‍या? लेकिन शिवाजी ने कहा कि ''यह राज्‍य हमें श्री शंभु ने दिया है।''

अपने एक दूसरे साथी को लिखे पत्र में शिवाजी कहते हैं, ''हिंदवी स्‍वराज्‍य होना चाहिए, ऐसी भगवती की प्रबल इच्‍छा है।'' वे यह नहीं कहते कि मेरी इच्‍छा है। यह भी नहीं कहते कि भोसले कुल की इच्‍छा है। यह नहीं कहते कि हमारे प्रांत की इच्‍छा है। कहते यह हैं कि भगवती की इच्‍छा है। बड़े आश्‍चर्य की बात है कि भगवती ने कब इच्‍छा व्‍यक्‍त की और उनको कैसे पता चला? हमारी रानीति में क्‍या होना चाहिए, इससे भगवती का क्‍या संबंध ? लेकिन शिवाजी ने कहा, ''ऐसी भगवती की इच्‍छा है कि हिंदवी स्‍वराज्‍य होना चाहिए।'' यह सर्वविदित है कि उनका संपूर्ण प्रयास धर्म का आधार लेकर हुआ। इसी कारण राज्‍य संचालन की बातों में व्‍यक्तिगत आसक्ति हमारे यहाँ के किसी भी श्रेष्‍ठ पुरुष में नहीं दिखाई देती।

शिवाजी को कुछ यश प्राप्‍त हुआ तो उनके गुरू समर्थ रामदास ने संतोष प्रकट किया। किन शब्‍दों में उन्‍होंने अपना संतोष प्रकट किया, यह हमारे ख्‍याल में भी नहीं आ सकता। वास्‍तव में सीधी-सादी बात थी कि 'औरंगजेब का राज्‍य हट गया, मेरा राज्‍य आ गया।' किंतु रामदास जी ने ऐसा नहीं कहा। उनकी शब्‍द रचना बहुत अच्‍छी थी। उन्‍होंने यह नहीं कहा कि ''विरोधी दल वाला नष्‍ट हुआ है।'' बल्कि यह कहा कि ''पापी औरंगजेब नष्‍ट हुआ है। अभक्‍तों का क्षय हुआ है। अधर्म नष्‍ट हुआ है। धर्म की स्‍थापना हुई है।'' और फिर यह कहा कि ''त्रिखण्‍ड में सेनाएँ चारों ओर संचार कर रही हैं।'' किसकी ? हरिभक्‍तों की सेनाएँ।

यह नहीं कहा कि मेरी पाटी वाले त्रिखंड में जा रहे हैं1 उन्‍होंने उस समय सारी राज्‍य क्रांति की फलश्रुति बताते हुए कहा, ''अब स्‍नान-संध्‍या करने के लिए विपुल पवित्र वायु, भूमि और जल प्राप्‍त हो गया है।''

आज के लोग कहेंगे कि यह भी कोई बात हुई। यदि संतोष ही व्‍यक्‍त करना था तो यह कहते कि यश प्राप्‍त हुआ, पद या महत्‍व प्राप्‍त हुआ। किंतु वे यह बता रहे हैं कि सारी राज्‍य-क्रांति के फलस्वरूप स्‍नान-संध्‍या के लिए पवित्र भूमि और जल मिल गया। राज्‍य-क्रांति करने वाले शिवाजी और आशीर्वाद देने वाले रामदास, दोनों की मनोभूमिका यही थी। हमारे संपूर्ण इतिहास में यह भावना भरी पड़ी है।

इस भावना की प्रतिष्‍ठापना यदि समाज में है तो शासन-विहीनता की ओर जाने में अधिक दिक्‍कत नहीं होगी, लेकिन जहाँ अधिनायकवाद है, सब कुछ राज्‍य के लिए, सब कुछ राज्‍य के अंतर्गत, राज्‍य के बाहर कुछ नहीं है, वहाँ राज्‍य की परिसमाप्ति की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती।

अब राष्‍ट्र निर्माण करने का हमें पुन: अवसर मिला है। खंडित भारत का हीं क्‍यों न हो किंतु राज्य अब अपने हाथ में आ गया है। हम स्‍वयं ही अपने भाग्‍य विधाता हो सकते हैं। अतएव हमें यह विचार करना होगा कि यहाँ किस प्रकार की समाज और शासन की रचना की जाए।

यदि किसी का नमूना देखकर हम अपनी रचना कर सकते हैं तो बड़ा काम आसान हो जाता। नमूने के लिए आज का नंबर एक और नंबर दो के राष्‍ट्रों का विचार हमने किया। दु:ख की बात ये है कि वे आकाश में तो चंद्रमा पर तो जा पहुँचे हैं, लेकिन अपने विश्‍वविद्यालयों में असंतोष और विद्रोह को नहीं रोक सके। लोगों का हिप्‍पी बनना नहीं रोक पाये। साम्‍यवाद और अराजकतावाद का भी हमने विचार किया, लेकिन संतोष वहाँ भी नहीं दिखाई देता। अपने सिद्धांत से पीछे और अधिक पीछे हटते जाने की प्रवृत्ति हम वहाँ भी देख रहे हैं। अत: यह स्‍पष्‍ट है कि अपना राष्‍ट्र निर्माण करने के लिए कोई तैयार मॉडल हमारे सामने उपस्थित नहीं है।

पश्चिम के प्रगतिशील लोगों ने जो कुछ आदर्श अपने सामने रखे। उनको वे चरितार्थ नहीं कर सके। किंतु उनको चरितार्थ करके दिखाने का काम हमारे समाज ने कभी किया है, यह भी हमने देखा। हम विचार करें कि हमारी गिरावट, हमारी परंपरा, धर्म संस्‍कृति के कारण है, या उनको छोड़ने के कारण है? हमारे अंदर कुछ विकृतियाँ आ गई, विकृतियाँ आने के कारण की तलाश करेंगे तो हम पाएंगे कि लगभग बारह सौ वर्ष तक हम युद्ध की स्थिति में थे। विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध संपूर्ण देश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक हम निरंतर युद्धरत रहे। युद्धकाल में वे सभी बातें नहीं हो सकतीं जो सामान्‍य शांतिकाल में होती हैं। इसके कारण कुछ समाज में विकृतियाँ आ गई हैं। इन विकृतियों को दूर करते हुए, अपनी मूल बात को हृदय में धारण करके क्‍या हम आगे नहीं बढ़ सकते ?

इस दृष्टि से हमें पूर्ण विचार करना होगा। संसार के सभी वादों को हृदय में धारण करके क्‍या हम आगे नहीं बढ़ सकते?

इस दृष्टि से हमें पूर्ण विचार करना होगा। संसार के सभी वादों का अध्‍ययन हम करें और अपनी भी संस्‍कृति एवं परंपरा का चिंतन करें। अध्‍ययन सभी पद्धतियों का होना चाहिए, किंतु किसी का भी अंधानुकरण करना हमारे हित में नहीं है। यह आवश्‍यक है कि सनातन काल में राष्‍ट्र रचना का आधार बना हुआ ''धर्म'' भी हमारे गहन चिंतन का विषय बने। इन सब बातों की पृष्‍ठभूमि पर अपने राष्‍ट्र के पुनर्निर्माण के विषय में अपनी राष्‍ट्रीय प्रतिभा के आधार पर निर्णय करें।

('संकेत रेखा' से)

सोपान-1

(प्रमुख बिंदु)

v हमारे आंग्‍ल-विद्याविभूषित भारतीय विद्वानों ने मैकाले का मानसपुत्र बनकर उसके द्वारा कही गई हर बात, उसके द्वारा किए हुए गलत भाषांतरों को भी, अंधश्रद्धापूर्वक स्‍वीकार किया। उदाहरणार्थ, उन विद्वानों में यह समझने की बौद्धिक क्षमता थी कि ''धर्म'' की संकल्‍पना भिन्‍न है और रिलिजन (Religion) (पंथ) की संकल्‍पना से उसका कोई मेल नहीं, तो भी उन्‍होंने स्‍वीकार कर लिया कि ''धर्म'' अर्थात्-रिलीजन-और रिलीजन अर्थात ''धर्म'' है। इस कारण देश में कितनी भ्रांत धारणाएँ किस प्रकार फैलीं हम यह जानते हैं।

v दिनांक 30/10/1972 को ठाणे वर्ग में अपने भाषण का प्रारंभ करते समय श्री गुरुजी ने कहा, मैं जो कहता हूँ उसे मानना ही चाहिए, यह आवश्‍यक नहीं है। मेरा विचार है इसलिए इसको मानने का कोई कारण नहीं। मैं जो कहता हूँ इस पर आप लोगों को विश्‍वास करने की कोई आवश्‍यकता नहीं। आप अपना स्‍वतंत्र विचार करें। मैं जो कुछ बोलता हूँ उसके विरुद्ध विचार कैसे करना। इस प्रकार का संकोच मन में रखने की कोई आवश्‍यकता नहीं है।''

v प्रगतिशील लोगों की ''साहेब वाक्‍यम्'' पर अंधश्रद्धा अवांछनीय है। पश्चिमात्‍यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं हो सकता। यह पूर्वाग्रह भी अवांछनीय है। हिंदू वृत्ति ''बालादपि सुभाषितम् ग्राह्यम'' की है। सभी का अध्‍ययन करना और उसमें से ''नीरक्षीर-विवेक'' से तय करना कि क्‍या ग्राह्य है और क्‍या त्‍याज्‍य। यह ज्ञान के सभी क्षेत्रों के लिए लागू है, चाहे वह क्षेत्र विज्ञान का हो, तंत्रज्ञान का हो, तत्‍वज्ञान और दर्शन का हो, या कलाओं का।

v संसार में कई रिलीजन हैं। हर एक रिलीजन के अनुयायियों के लिए उनका अपना रिलीजन वैसे ही सर्वश्रेष्‍ठ तथा प्रियतम हुआ करता है जैसे हर एक व्‍यक्ति को उसकी अपनी माता अतएव विभिन्‍न रिलीजनों की तुलना सभी को अप्रिय तथा अव्‍यवहार्य प्रतीत होती है। हिंदुओं के भी कई रिलीजन हैं किंतु ''हिंदू'' नाम का कोई रिलीजन नहीं है।

v ग्रीस, रोम, मिश्र आदि राष्‍ट्र समाप्‍त हुए तो इसका मतलब यह नहीं था कि इन देशों में निवास करने वाले सभी लोग नष्‍ट हो गए। वहाँ रहने वाले तो जीवित थे, किंतु उनकी संस्कृति नष्‍ट हो गई, इस कारण यह कहा गया कि वे राष्‍ट्र नष्‍ट हो गए।

v संस्‍कृति हमेशा एक संघ ही रहती है। वह कभी भी मिलीजुली नहीं रह सकती। शुद्धता संस्‍कृति की प्रकृति है। संकरता उसकी प्रकृति से मेल नहीं खाती।

v हर एक हिंदू परिवार में विवाह के माध्‍यम से दूसरे परिवार की लड़की प्रवेश करती है। किंतु इस कारण उसको दोनों का मिलाजुला परिवार नहीं कहा जाता। परिवार की अपनी अस्मिता यथापूर्व कायम रहती है। नवागत लड़की का गोत्र, कुलाचार, कुलधर्म आदि बदल जाते हैं, और वह इस परिवार में आत्‍मसात हो जाती है। घुल जाती है।

v किसी भी नेशन के निर्माण के काम में आए संघटकों की संख्‍या जितनी अधिक होगी उसकी राष्‍ट्रीयता या नेशनहुड का घनत्‍व भी उतना ही अधिक रहेगा। किंतु उन तत्‍वों में से कोई भी संस्‍कृति जितना अनिवार्य नहीं है।

v चीनी भाषा में एक कहावत है: -

If you want to plan for a year, plant corn.

If you want to plan for 30 years, plant a tree.

But if you want to plan for 100 years. plant men."

v क्‍या करें, क्‍या न करें, यह मानसिक द्वंद्व हर मनुष्‍य के जीवन में कभी-कभी उपस्थित होता है। ऐसे अवसर पर वे एकाग्रचित से यह कल्‍पना करने का प्रयास करते थे कि उस परिस्थिति में श्रीगुरुजी होते तो वे क्‍या निर्णय करते। उनकी कल्‍पना किस सीमा तक सही या गलत निकलती थी, यह तो वे ही बता सकते थे, किंतु महत्‍व की बात यह थी कि द्वंद्व की स्थिति में वे श्रीगुरुजी को संदर्भ बिंदु (Point of reference) मानते थे।

v ''बुद्धिमत्ता वरिष्‍ठ'' और ''वानरयूथपति'' होते हुए भी ''श्रीरामदूत''।

v ऐसे मामले में बड़े भाई का धीरज असाधारण था। बड़े भाई के व्‍यवहार के संदर्भ में यूरोप के एक बड़े नेता के बारे में लिखा गया इस वाक्‍य का स्‍मरण होता है कि ''His Patience was infinite; he could wait and watch until others got impatient, acted and failed.''

v बड़े भाई के स्‍वभाव के कारण उनका मानस चित्र इस तरह उभरकर आता है कि वे महामंत्री पद के कुर्सी पर बैठे हैं, सामने बड़ा टेबल है, टेबल पर सामने एक छोटी प्‍लेट रखी है, जिस पर लिखा है-

''The Buck stops here."

v श्री रिचर्ड वुल्‍फ (Richard Wolff) अपनी पुस्‍तक "Man at the top" में लिखते हैं - "In the case of a leader, perhaps the hardest thing is to help those who stand immediately next those who hold the trying position of second in command, or who are near enough to the front to be constantly impressed by the fact that they fall short of being at the front. The temptation to treat them as possible rivals and to depreciate their gifts instead of magnifying them is constant to everyone but a truly great man."

v जो दूध घना नहीं होता उसमें से घनी मलाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

v श्रेष्‍ठ परंपरा के आधार पर श्रेष्‍ठ नेता का निर्माण होता है, उसी आधार पर नेता सामान्‍य साथियों में से असामान्‍य कार्यकर्ताओं का निर्माण करता है। नेता कार्यकर्ताओं की शक्ति बढ़ाता है, कार्यकर्ता नेता की शक्ति बढ़ाते हैं, और दोनों मिलकर अंगीकृत कार्य की शक्ति बढ़ाते हैं। यह प्रक्रिया काव्‍य प्रकाश की निम्‍न पंक्ति का स्‍मरण दिलाने वाली है-

कमलेन सर: सरसा कमलम्, सरसाकमलेन विभाति वनम्।।

- कमल सरोवर की, सरोवर कमल की, और कमल सरोवर दोनों मिलकर वन की शोभा बढ़ाते हैं।

v अनुशासन बाहर से आता है और आत्‍मानुशासन भीतर से।

v प्रयास दूसरों को छोटा दिखाने का नहीं, अपने से भी बड़ा बनाने का, ताकि पुण्‍यकार्य की गंगा कहीं रुक न जाए।

v क्रांति सशस्‍त्र हो, उसकी सफलता के लिए आवश्‍यक हुआ करता है कि क्रांतिकारियों का जनता से सुसंवाद और ऐसा सुसंवाद करने की क्षमता रखने वाले कार्यकर्ताओं की पर्याप्‍त संख्‍या।

v फ्रायर कहते हैं, ''जो नेता लोगों से वार्तालाप नहीं करे, अपने निर्णय उन पर थोपते हैं, वे उनका संगठन नहीं, केवल उनका प्रयोग करते हैं। न वे स्‍वयं मुक्‍त होते हैं, न लोग। वे तो लोगों को दबाते हैं।

v राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ को राजसत्ता में रुचि नहीं है। राजसत्ता के हाथी पर नियंत्रण रखने के लिए जाग्रत, सचेत, संगठित जनशक्ति का नित्‍यसिद्ध अंकुश नैतिक नेतृत्‍वरूप महावत के हाथ में रखना आवश्‍यक है, वरना ये हाथी अनियंत्रित अतएव समाजद्रोही बन सकता है यह संघ की धारणा है।

v कोई भी क्रांति या सत्‍याग्रह तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक क्रांतिकारियों या सत्‍याग्रहियों के विषय में उपकारक तटस्‍थता की वृत्ति रखने वालों की संख्‍या समाज में बहुत बड़ी नहीं रहती। ये लोग समर्थक या विरोधक की भूमिका में नहीं रहते। तटस्‍थ ही रहते हैं। किंतु उनकी यह तटस्‍थता आंदोलनकारियों के लिए आंतरिक सहानुभूति से युक्‍त रहती है। ऐसे लोगों को तांत्रिक दृष्टि से संज्ञा दी गयी है। 'A zone of benevolent neutrality'.

v ''हिप्‍पी कल्‍ट'' एक प्रकार से अमरीका के मानसिक असंतोष का बैरोमीटर है। क्‍या उनके असंतोष का कारण भौतिक अभाव है? हमारे अपने देश में हमे खाने-पीने को पूरा नहीं मिलता, इसलिए हम समझते हैं कि असंतोष का कारण भौतिक अभाव होगा। हमारी समस्‍याएँ ''निर्धनता'' की हैं, और अमरीका की समस्याएँ ''विपुल संपन्नता'' की हैं। बड़े-बड़े धनी संपन्न लोगों के लड़के भी हिप्‍पी बन जाते हैं।

v हिंदू रचना में समाज की धारणा का अर्थ था उसका एक हिस्‍सा यह भी था कि जब हम संपूर्ण समाज के सब व्‍यक्तियों के व्‍यक्तिगत काम का विचार करेंगे तो संपूर्ण समाज की कुल आवश्‍यकताओं और सभी व्‍यक्तियों की प्रवृत्तियों का विचार भी करेंगे। हर व्‍यक्ति को अपनी प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलेगा तो हरेक का उत्‍पादन अधिकतम मिलेगा। उस सबके अधिकतम उत्‍पादन के योग और राष्‍ट्र की कुल आवश्‍यकताओं का तालमेल बैठाना चाहिए। यह तालमेल बैठाना धर्म की एक कसौटी थी।

v भौतिकवादी जीवन-मूल्‍यों की अवस्‍था में समानता के सिद्धांत को लाते ही आत्‍म-विकास की प्रेरणा समाप्‍त होने लगती है।

v हिंदुस्तान का राष्‍ट्र-जीवन बड़ा विचित्र रहा है, वह शासनावलंबी या शासन केंद्रित कभी नहीं रहा। यहाँ स्‍वायत्त अर्थात स्‍वयंशासित रचना रही। शासन चाहे जिसका रहा हो, हमारा समाज-जीवन सतत चलता रहा। हरेक व्‍यक्ति और हरेक व्‍यक्ति-समूह के नियमों का पालन-अक्षुण्‍ण चलता था। पराए लोगों ने यहाँ आक्रमण किए, यहाँ अपना शासन चलाया तो उनके शासन में रहते हुए भी हमारे व्‍यक्ति-धर्म और व्‍यक्ति-समूहों के धर्म में व्‍यवधान नहीं आया। यहाँ का स्‍वायत्त-स्‍वयं-शासित-समाज जीवन अक्षुण्‍ण चलता रहा।

v समर्थ रामदास जी के सामने यह प्रश्‍न आया कि ''यह राज्‍य अर्पण कर रहा है, किंतु मेरा तो यह धंध नहीं है, मैं इसे कैसे चलाऊँ? और अंत में माध्‍यम मार्ग निकला कि ''ठीक है, तुम भी राजा नहीं, मैं भी राजा नहीं। यह भगवा ध्‍वज अपना राष्‍ट्र ध्‍वज है। इसके प्रतिनिधि के रूप में तुम शासन चलाओ।'' अपना अर्जित राज्‍य एक संन्‍यासी की झोली में डालने के लिए कितना पागलपन आवश्‍यक है, इसका हम विचार करें। यह अपनी परंपरा से आया हुआ पागलपन है।

v कुन्‍ती ने कहा, ''यह बात सही है कि तुम्‍हारी युद्ध करने की इच्‍छा नहीं थी। मैंने तुमको राज्‍य प्राप्ति के लिए लड़ने को प्रोत्‍साहित किया। किंतु तब मेरा और तुम्‍हारा वही कर्तव्‍य था। यदि तुम कर्तव्‍य के नाते राज्‍य प्राप्‍त न करते, तो उसका अर्थ यह होता कि तुमने कर्तव्‍य-पालन में भूल की है अत: अपने धर्म, अपने कर्तव्‍य के पालन और राज्‍य प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ने को मैंने तुमको प्रोत्‍साहित किया। किंतु मैं अपने पुत्रों के राज का उपभोग करूँगी। यह भावना मेरे मन में न तब थी न अब है। उस समय राज्‍य प्राप्ति के उद्देश्‍य से लड़ाई के लिए तुमको प्रोत्‍साहित करना मेरा धर्म था। वह धर्म के अनुकूल था और अब जब धृतराष्‍ट्र वन में जाने के लिए निकले हैं तो उनके साथ वन में जाना मेरा धर्म है, इसलिए मैं उनके साथ जा रही हूँ।

v धर्म को सर्वोच्‍च मानने के कारण ही हमारे यहाँ सभी शासनविहीन समाज था और इसी आधार पर बाद में भी कभी शासनविहीन समाज हो सकता है। पश्चिमी देशों में साधनविहीनता नहीं आ सकती अधिनायकवाद के द्वारा शासनविहीन समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। धर्म के अभाव में मात्‍स्‍य न्‍याय आता है। जहाँ बड़ी मछली छोटी को खा जाती है।

v इस दृष्टि से हमें पूर्ण विचार करना होगा। संसार के सभी वादों का अध्‍ययन हम करें और अपनी भी संस्‍कृति एवं परंपरा का चिंतन करें। अध्‍ययन सभी पद्धतियों का होना चाहिए, किंतु किसी का भी अंधानुकरण करना हमारे हित में नहीं है। यह आवश्‍यक है कि सनातन काल में राष्‍ट्र रचना का आधार बना हुआ ''धर्म'' भी हमारे गहन चिंतन का विषय बने। इस सब बातों की पृष्‍ठभूमि पर अपने राष्‍ट्र के पुनर्निर्माण के विषय में अपनी राष्‍ट्रीय प्रतिभा के आधार पर निर्णय करें।

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खण्‍ड-2

सोपान-2

सोपान-2 (गौरवगान व लेख)

1. पू. डॉक्‍टर जी के नेतृत्‍व की विशेषता दत्तोपंत ठेंगड़ी

2. समन्‍वय महर्षि पू. श्री गुलाबराव जी महाराज ----''----

3. आत्‍म विलोपी-आबाजी थत्ते ----''----

4. तत्‍व जिज्ञासा ----''----

5. यथार्थ और भ्रान्तियाँ ----''----

6. सोपान-2 : प्रमुख बिंदु

सोपान-2

पू. डॉक्‍टर जी के नेतृत्‍व की विशेषता

सन् 1857 के पश्‍चात् इस देश में कई महापुरुषों ने राष्‍ट्र जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में अपनी अपनी संकल्‍पना के अनुसार महान कार्यों का निर्माण किया। परंतु अनुभव यह आता रहा कि आद्य प्रेणता के निर्वाण के पश्‍चात उसके कार्य की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है, धीरे-धीरे कार्य परागति की ओर आता है, और अंततोगत्वा निष्‍प्राण हो जाता है। कार्य की मूल प्रेरणाएं तथा परंपराएं प्रथमत: विकृत हो जाती है और अंत में खंडित। बहुत सारे उदाहरण हैं जिनकी श्रेष्‍ठता के बारे में, त्‍याग, तपस्‍या के बारे में किसी के भी मन में संदेह नहीं है ऐसे दो महापुरुषों की ही बात हम देख सकते हैं। वे हैं लोकमान्‍य तिलक तथा महात्‍मा गांधी। तिलक जी स्‍वयं अपने जीवन के अंतिम चरण में कहा करते थे कि, ''मेरे कंधों पर पाँव रखकर ऊपर चढ़ने वाला कोई युवक मैं अपने जीवन काल में देखूँगा, ऐसा अब नहीं लगता'' उनके निर्वाण के पश्‍चात् कितनी शीघ्रता से उनकी परंपरा दुर्बल हो गई यह सब जानते हैं। गांधी जी के पश्‍चात् गांधीवाद की अवनति इतनी तेजी से क्‍यों हुई? इस प्रश्‍न की मीमांसा आचार्य विनोबाजी ने की है। तो इतने श्रेष्‍ठ, समर्पित महापुरुषों की विचारप्रणाली तथा कार्यप्रणाली का ह्रास कैसे होता है यह एक अध्‍ययनीय विषय है।

लेकिन पू. डॉक्‍टर जी के संदर्भ में इससे एकदम विपरीत अनुभव आया। उनके निर्वाण के पश्‍चात् कार्य की प्रेरणा तथा कार्यप्रणाली की परंपरा दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक बलवान तथा प्रभावशाली होती गई और यह भी अनेक प्राणांतिक आघातों के बावजूद। बापूराव भिशीकर ने ठीक कहा है कि, 'जिनकी मृत्‍यु के पश्‍चात् कार्यकर्ता में किंचित भी विचलितता नहीं आई और जिनका कार्य सुसूत्र रूप से चलता रहा, आधुनिक भारत में डॉक्‍टर जी ऐसे एकमेव नेता थे।'

इस अभूतर्पूव उपलब्धि का श्रेय पू. डॉक्‍टर जी के संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व को है। इस अलौकिक व्‍यक्तित्‍व द्वारा इस राष्‍ट्र को प्रदान किया गया सबसे बड़ा साधन तथा साधना 'संघशाखा' है। एक ही समय संजीवन मंत्र तथा पाशुपतास्‍त्र की भूमिका का निर्वाह करने वाली शाखा। 'परमवैभव' की श्रेष्‍ठतम राष्‍ट्रीय आकाँक्षा की पूर्ति करने वाला राष्‍ट्रीय कल्‍पवृक्ष-'संघ' और संघ की व्‍यक्ति निर्माण की प्रक्रिया से निर्माण हुआ हमारा समर्पित कार्यकर्ता। ऐसे देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं के आधार पर ही संघ कार्य बढ़ता गया है और बढ़ता ही रहेगा।

अब ऐसे नेतृत्‍व की श्रेष्‍ठता का मापदंड भी अलग सा रहता है। समाचारपत्रों में शायद उसकी प्रसिद्धि ज्‍यादा देर तक हमेशा टिकती है ऐसा नहीं। जिनके नाम का समाचारपत्रों में बहुत ही बोलबाला था, ऐसे1975-1985 दशक के प्रसिद्ध व्‍यक्तियों के संदर्भ में 'India Today' पत्रिका में एक लेख छपा था। शीर्षक था, Where are they now? मतलब यह था कि अखबारों मे जिनके नाम की बहुत चर्चा होती है वे भी कुछ काल बाद विस्‍मृति में चले जाते हैं। उनका नामोनिशाँ तक नहीं रहता। तो फिर श्रेष्‍ठता का लक्षण क्‍या है ?

इस संदर्भ में पू. डॉक्‍टर जी का उदाहरण ध्‍यान में लेना उपयुक्‍त रहेगा। वे तो प्रसिद्धिपराड्.मुख थे। एक बार उनके पास दामोदर पंत नाम के कोई सज्‍जन आए और उन्‍होंने डॉक्‍टर जो से कहा, ''मैं एक थीसिस तैयार कर रहा हूँ, उनमें श्रेष्‍ठ पुरुषों के चरित्र लिखने हैं। आप अपना बायोडेटा दे दीजिए? डॉक्‍टर जी ने कहा- मैं तो छोटा आदमी हूँ। कुछ लिखना है तो राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के बारे में लिखिए। मेरा जीवनचरित्र आदि कुछ है ही नहीं।'' कितने लोग आज इस तरह प्रसिद्धि का मोह टाल सकते हैं?

अब पू. डॉक्‍टर जी की श्रेष्‍ठता के बारे में सन 1966-68 के दरम्‍यन की एक चर्चा मुझे याद आती है। मैं केरल और बंगाल में प्रचारक रहा। जब मैं राज्‍यसभा का सदस्‍य बना तब अधिकतर कम्‍युनिष्‍ट सांसद केरल और बंगाल के ही थे। तो उनके साथ साथ चाय पीते पीते संसद के सेंट्रल हॉल में बातचीत होती थी। एक दिन उनमें से एक ने हमें चढ़ाने के लिए पूछा, ''ठेंगड़ी जी, यह तो तुम्‍हारा आर.एस.एस. है उसका पूरा नाम क्‍या है?'' तो मैंने बता दिया। आगे प्रश्‍न चले, ''कब स्‍थापित हुआ, किसने स्‍थापित किया?'' तो मैंने बताया पू. डॉक्‍टर जी का नाम बताने के बाद मुँह टेढ़ा करके तुच्‍छतापूर्वक उसने कहा, ''डॉक्‍टर हेडगेवार? यह नाम तो पहले कभी सुना ही नहीं।'' मैं चुप रहा और समझ गया कि मुझे चिढ़ाने के लिए वह ऐसी बात कर रहा है। उन लोगों में पालघाट के श्री बालचंद्र मेनन थे। वे जरा गंभीर प्रकृति के थे। उन्‍होंने उस कम्युनिस्‍ट मित्र से कहा, ''महान लोगों के विषय में ऐसे हल्‍केपन से बात मत करो।'' तो प्रश्‍न पूछने वाले ने कहा, ''मैं हल्‍के मन से बात नहीं कर रहा हूँ।'' तो बालचंद्र मेनन ने कहा कि ''आप यदि वास्‍तव में गंभीर हैं तो मेरे दो प्रश्‍नों के उत्तर दीजिए। पूछा कि पं. जवाहरलाल नेहरू की मृत्‍यु कब हुई? उसने कहा मई 1964 में और मृत्‍यु के समय जवाहरलाल जी की प्रसिद्धि कितनी दूर तक पहुँची थी?'' उस मित्र ने कहा, ''आप यह क्‍या प्रश्‍न पूछ रहे हैं ? सब लोग जानते हैं कि मृत्‍यु के समय पं. नेहरू तृतीय विश्‍व के तीन नेताओं में से एक थे। नासेर, टिटो और पं. नेहरू।

बाद में मेनन ने मुझसे पूछा, ''ठेंगड़ी जी, आपके डॉ. हेडगेवार की मृत्‍यु कब हुई?'' मैंने कहा, ''जून 1940 में।'' दूसरा प्रश्‍न पूछा कि, ''मृत्‍यु के समय डॉ. हेडगेवार को कितने लोग जानते थे? उनकी जितनी प्रसिद्धि थी? मैंने बता दिया, ''कुछ नहीं। हमारे सेन्‍ट्रल प्रॉव्हिन्‍स के लोग उन्‍हें जानते थे। हमारा संघ कार्य तो तब प्राथमिक अवस्‍था में था।''

तो फिर मेनन ने कहा, ''अब ये दोनों बातें ध्‍यान में रखकर आप दोनों मेरे एक प्रश्‍न का उत्तर दीजिए। पं. नेहरू की मृत्‍यु अभी अभी हुई है, उसके चौबीस साल पहले डॉ. हेडगेवार की मृत्‍यु हुई। और मृत्‍यु के समय डॉ. हेडगेवार को उनके प्रांत के बाहर कोई नहीं पहचानता था तो पं. नेहरू की मृत्‍यु के समय सारी दुनिया उन्‍हें जानती थी। वे एक विश्‍वनेता थे। अब मैं एक प्रश्‍न पूछता हूँ, आज यदि आवाहन किया पं. नेहरू के सिद्धांतों के समर्थन में मर मिटने के लिए कौन कौन तैयार हैं और डॉ. हेडगेवार के सिद्धांतों के लिए मर मिटने के लिए कितने लोगों की तैयारी है?'

फिर अपने कम्‍युनिस्‍ट मित्र की ओर देखकर उन्‍होंने कहा, ''पं. नेहरू के सिद्धांत के लिए आत्‍मार्पण करने के लिए पूरे देश में पचास लोग भी आज सामने नहीं आएँगे और हेडगेवार के सिद्धांतों के लिए लाखों जवानों सामने आ जाएँगे, यह मैं और तुम दोनों जानते हैं।

Now tables were turned! मुझे चिढ़ाने के लिए जिसने चर्चा का प्रारंभ किया था , अब चिढ़ने की बारी उसकी थी। आधा मिनट तक वह स्‍तब्‍ध रहा और फिर चिढ़कर मेनन जी से पूछा, After all what is the criterion of one's shadow on future! अर्थात् भविष्‍यकाल पर जिसकी छाया कितनी लंबी, दूर तक पड़ती है वही यह निकष है।

भविष्‍यकाल पर लंबी छाया फैलाने वाले उसी प्रेरणास्रोत की संजीवक चेतना लेकर हम आगे बढ़े तो इस राष्‍ट्र को परमवैभव की ओर ले जाने में हम कार्यकर्ता सफल होकर रहेंगे ही-ऐसा हमारा विश्‍वास है।

हमारे यहाँ ऐसा कहा गया है,

लौकिकानां तु साधूनां अर्थं वागनुवर्तते।

ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोअनुधावति।

लौकिक साधुओं के शब्‍द अर्थानुगामी होते हैं किंतु आद्य ऋषियों के शब्‍दों का अनुगमन अर्थ करता है।

और वर्तमान काल के महान ऋषि की (पू. गुरुजी की ) जीवन यात्रा: के अंतिम चरण में अप्रैल 1973 के जो शब्‍द थे वे थे, ''अब तो इसके पश्‍चात् विजय ही विजय है।''

('कार्यकर्ता' से)

समन्‍वय महर्षि :

पूज्‍य श्री गुलाबराव जी महाराज

दुनिया के इतिहास में यही दिखाता है कि मानव जाति को उपकृत करने वाली विभूतियों की सही योग्‍यता को उनके समकालीन नहीं आँक सकते। उनकी मृत्‍यु के पश्‍चात् ही उनके विचारों की मौलिकता, व्‍यक्तित्‍व की ऊँचाई तथा कृतित्‍व की असाधारणता का अधिकाधिक परिचय उनकी आगामी पीढ़ियों को होता है। ऐसे श्रेष्‍ठ व्‍यक्तियों के जीवन काल में उनके कार्य फलीभूत होना असंभव ही रहता है क्‍योंकि उनका लक्ष्‍य ही दूरगामी होता है। वे स्‍वयं भी इस तथ्‍य से परिचित रहते हैं परंतु उन्‍हें दृढ़ विश्‍वास होता है कि अंततोगत्‍वा यश प्राप्ति होगी ही, इसलिए ऐसे महाभाग, आदर्शों से प्रेरणा लेकर अपना समूचा जीवन निरीह वृत्ति से अखंड परिश्रम में बिताते हैं और फिर उनके जिस कार्य की शुरू में अवहेलना होती है, उसी को परमेश्‍वरी न्‍याय के अनुसार उनकी अवतार समाप्ति के बाद समाज के द्वारा अधिकाधिक मान्‍यता मिलने लगती है। श्री गुलाबराव महाराज की गिनती ऐसे ही अलौकिक श्रेष्‍ठ व्‍यक्तियों में होती है।

ईसवी सन् 1857 के स्‍वातंत्र्य संग्राम के बाद अंग्रेज शासनकर्ताओं ने, भारतीयों को हीनभावना से ग्रस्‍त कराने का, उन्‍हें अपनी संस्‍कृति तथा परंपरा से दूर करने का विधिवत् प्रयास किया इसीलिए उन्‍होंने ऐसी कई बातें भारत में प्रचलित कराई जो उन्‍हें सुविधाजनक थीं। विदेशियों के इस वैचारिक आक्रमण को सफलतापूर्वक लौटाने के प्रयत्‍न जिन महान् व्‍यक्तियों ने किए, उनमें श्री गुलाबराव महाराज अग्रणी थे, उक्ति तथा बुद्धिवाद के आधार पर उन्‍होंने पाश्चिमात्‍य मतों का खंडन किया और हिंदू शास्‍त्रों का प्रतिपादन नए रूप से किया। उनका कहना है-

''आर्यों के कथन की सर्वकष योग्‍यता प्रमाणित करना ही मेरा तथा मेरे हितैषियों का जीवन कर्तव्‍य है।''

प्रमुखतया उनका कार्यक्षेत्र धार्मिक रहा, अपने धार्मिक अधिकारों के विषय में और प्रज्ञा के ऊहंसामर्थ्‍य के विषय में उन्‍हें पूर्ण आत्‍मविश्‍वास था। स्‍वयं के संदर्भ में वे लिखते हैं-

''धर्म का निर्विकार पद्धति से अध्‍ययन करनेवाला

शूद्रवर्ण में जन्‍मा, संसार भर में, मैं अकेला ही हूँ''

ज्ञानेश्‍वर, शंकराचार्य या ईसामसीह के समान श्री गुलाबराव महाराज ने भी अपनी जीवनलीला अल्‍पायु में ही समाप्‍त की। केवल 34 वर्ष की आयु में उन्‍होंने महाप्रयाण किया। नौ महीने की बाल्‍य अवस्‍था में उनको सदैव के लिए अंधत्‍व प्राप्‍त हुआ। बाल्‍यकाल में घर का या बाहर का परिवेश उनके व्‍यक्तित्‍व के विकास के लिए अनुकूल नहीं था। इस पृष्‍ठभूमि पर उनकी उत्तुंग अध्‍यात्‍म साधना और असीम विद्वता के बारे में सोचें तो मन आश्‍चर्यचकित होता है।

इस निर्धन व्‍यक्ति ने, जो कि लगभग जन्मांध ही थे, पाश्चिमात्‍य विज्ञान, विचारधारा का तथा विभिन्‍न वैदिक और अवैदिक दर्शनों का निश्चित मार्मिक व तौलनिक ज्ञान इतनी छोटी उम्र में कैसे प्राप्‍त कर लिया होगा।

श्री महाराज जी ने दर्शा दिया कि पाश्‍चात्‍यों की ही शब्‍दावली का प्रयोग करके भारतीय नीतिशास्‍त्र किस प्रकार प्रतिपादित किया जा सकता है, और यूरोपीय तथा भारतीय नीति तत्‍वों की तुलना करके भारतीय नीति तत्‍वों का श्रेष्‍ठत्‍व प्रमाणित किया।

उन्‍होंने चुनौती देकर सिद्ध किया कि- शूद्रवर्ण भी मूलतया आर्य ही था, आर्य बाहर से नहीं आए अपितु वे भारत के ही मूल निवासी थे और पूर्वकाल में विश्‍व भर में एक ही संस्‍कृति, वैदिक आर्य संस्‍कृति थी।

विदेशियों का अंधानुकरण किए बिना और राष्‍ट्र की मूलगामी श्रद्धा को बाधा पहुँचाए बिना हिंदुओं के समाज सुधार का कालोचित पथ प्रदर्शन उन्‍होंने किया।

आर्यों के भौतिक शास्‍त्रों के पूर्वकालीन उत्‍कर्ष का मूल्‍यांकन करके उन्‍होंने विशद कार्य किया है कि उस खंडित परंपरा को पुनरुज्‍जीवित कैसे किया जाए। आधुनिक बुद्धिवादियों को उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया है कि यद्यपि हमारी कल्‍पना अभी बाल्‍यावस्‍था में है, तथापि प्रयास करने वाले के लिए कुछ भी असंभव नहीं। इस प्रयास में वैशेषिक शास्‍त्र का आधार लेकर सचमुच, पाश्‍चात्‍य भौतिक विज्ञान का आधारभूत स्‍वयंपूर्ण बृहद् आर्य भौतिक शास्‍त्र निर्माण होगा, वह भौतिक शास्‍त्र नास्तिक मतों का खंडन करने वाला और ईश्‍वरीय अधिष्‍ठान से युक्‍त रहेगा।

पाश्‍चात्‍य क्रांति के उत्‍क्रान्तिवाद, अज्ञेयवाद, अणुवाद, संशयावादादि सिद्धांतों के विषय में धार्मिक क्षेत्र के विभिन्‍न वैदिक मतों के विषय में और जैन, बौद्ध, पारसी, मुस्लिम, ईसाई इत्‍यादि के विषय में उन्‍होंने आत्‍मविश्‍वास के साथ नवीन तथा मूलगामी विचार प्रकट किए हैं।

सांख्‍य, योग, न्‍याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा इन छहों दर्शनों पर उन्‍होंने विपुल लेखन किया और कुछ मौलिक तत्‍वों का योगदान भी दिया। एक अभिनव समन्‍वय का सिद्धांत तत्‍वों का योगदान भी दिया। एक अभिनव समन्‍वय सिद्धांत उन्‍होंने ही प्रथमतया प्रतिपादित किया कि सांख्‍य, योग, वेदांत और भक्ति-परस्‍पर पूरक हैं इनमें जो विरोध का आभास होता है वह अंतर्गत विरोध नहीं है। उसी प्रकार पूर्व मीमांसा के नित्‍यता विषयक मतों का आंशिक निराकरण और मंत्र रूप देवता-वाद का निरसन करके, उत्तर-मीमांसा के अनुसार ईश्‍वरत्‍व सिद्ध किया, देवताओं का विग्रह स्‍वरूप और ईश्‍वर से वेदों की उत्‍पत्ति सप्रमाण सिद्ध की और यह भी स्‍पष्‍ट किया कि यज्ञीय हिंसा का तात्‍पर्य अहिंसा में ही है।

''अनध्‍यस्‍तविवर्त'' इस नए शब्‍द का निर्माण करके, उसी की सहायता से शंकराचार्य जी के अद्वैत सिद्धांत पर आधारित भक्तिशास्‍त्र का प्रतिपादन उन्‍होंने किया, सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार का भेद मिटा दिया। उपासना तथा भक्ति का भेद नए प्रकाश में समझा दिया और भक्तिशास्‍त्र में अमूल्‍य योगदान दिया। विभिन्‍न वैदिक संप्रदायों में उन्‍होंने समन्‍वय स्‍थापित किया।

ईसाई मत, बौद्ध मत तथा भागवत धर्म का परस्‍पर संबंध अनावृत किए और उद्घोषित किया कि ईसाई धर्म भी आर्य ऋषियों द्वारा प्रवर्तित है। उन्‍होंने घोषित किया कि राजकीय द्वेष भाव के कारण या व्‍यावहारिक तथा राजकीय स्‍वार्थों के कारण हिंदू-मुस्लिमों में संघर्ष हुए, परंतु इन दोनों में धार्मिक द्वेष रह नहीं सकता। वे कहते हैं- ''हम उनके धर्म में हस्‍तक्षेप नहीं करते, इसलिए हिंदू चाहते हैं कि वे भी हमारे धर्म में हाथ न डालें। हिंदुओं के धर्म में हस्‍तक्षेप होता रहे, और हिंदू चुपचाप सहते रहें, तो क्‍या हिंदुत्व को मिटा देना है?''

हिंदू-मुस्लिमों के धर्मतत्‍वों की समानताएँ दर्शाते हुए वे कहते हैं-

''अरबस्‍तान, अफगानिस्‍तान आदि देशों में मुसलमान धर्म के जन्‍म के पूर्व आर्य धर्म ही था, परंतु धार्मिक आचार क्रियाएं छूटने के कारण, उन पतित जनों को फिर से परमार्थ पथ पर लाने के लिए भगवान ने मुसलमानी धर्म उत्‍पन्‍न किया।''

यह अनुमान इतिहास के और पुराणों के आधार पर लगाया जा सकता है, इसलिए व्‍यापक हिंदूधर्म से इस मुस्लिम धर्म का समन्‍वय बड़ा सहज है।

''मुस्लिमों के तथा ईसाईयों के द्वारा समूचा देश भ्रष्‍ट होने के बाद भी आर्य धर्म बचा रहा। इस बात की कारण मीमांसा करते समय महाराज साधुबोध ग्रंथ में कहते हैं-

1. आर्य जानते हैं कि वे सभी धर्म आर्य धर्म के ही अधिकारानुरूप स्‍वरूप हैं।

2. जो अन्‍य धर्मों में नहीं, वह आर्य धर्म में है।

3. अन्‍य धर्मों में जो है, वह आर्य धर्म में है।

4. और आर्य धर्म में नहीं, वह अन्‍यत्र कहीं नहीं।

(आर्यों के सहवास के कारण परधर्मीय भी यह जानने लगे हैं)

5. अन्‍य धर्मियों ने आर्य धर्म तोड़ने की कोशिश की परंतु आर्य धर्म ने किसी धर्म के विनाश का प्रयत्‍न नहीं किया। ''

दुनिया के विभिन्‍न धर्म आर्य धर्म के एक एक अंश पर स्थित हैं यह सिद्ध करके, सभी धर्मों के विषय में पूरा आदर रखकर उन्‍होंने सर्वधर्मसमन्‍वय साधा, लेकिन साथ-साथ यह भी स्‍पष्‍ट किया कि यह दर्शाना ही समन्‍वय है कि विभिन्‍न संप्रदायों का समन्‍वय होने के बाद भी वे परंपरा से न टूटते हैं, न नष्‍ट होते हैं, वे कायम रहते ही हैं और सभी संप्रदाय, अपने अपने सिद्धांतों के अनुसार फल प्राप्ति के रूप में एक ही फल वे सब पाते हैं, स्‍वधर्म के ही तत्‍वों से समन्‍वय करने के बाद भी, अपने धर्म पालन के लिए व्‍यक्ति स्‍वतंत्र है। उस व्‍यक्ति को न धर्म में कोई न्‍यूनता प्रतीत होती है न दूसरों से तत्‍व लेने की आवश्‍यकता।

ऐसी अद्भुत समन्‍वय क्षमता के कारण श्री गुलाबराव महाराज की समन्‍वय महर्षि उपाधि संकुचित रहेगी। वर्तमान राजनीति का हंगामा शांत होने के बाद उनके इस गुण की राष्‍ट्र निर्मिति के कार्य में बहु उपयोगिता सिद्ध होगी। यह निर्विवाद है।

भारतीय तथा पाश्चिमात्‍य राष्‍ट्र-संकल्‍पना के संदर्भ में वे लिखते हैं यह कहना केवल अभिमान का नहीं, अपितु निष्‍पक्षता का परिचायक है कि आर्य धर्म की राष्‍ट्र कल्‍पना दुनिया के सभी देशों से श्रेष्‍ठ है।

जीते हुए देशों के सुपात्र व्‍यक्तियों के साथ हम 'होमरूल' देने का बर्ताव करते थे, तो पाश्‍चात्‍य लोगों में उन्‍हें होमकुंड में जलाने की प्रथा थी, और अभी वह प्रथा जारी है।

उनके प्रतिपादनों की संतुलितता निश्चित रूप से सराहनीय है। जन्‍मानुसार उच्‍च नीचता का निषेध करके भी प्राचीन वर्णाश्रम-व्‍यवस्‍था का शास्‍त्रीय स्‍वरूप उन्‍होंने प्रमाणित किया। धर्म के बुर्के की आड में चली दांभिकता पर उन्‍होंने कसकर हमला किया, परंतु गुरु को श्रद्धेय बताया, प्रत्‍येक मत-संप्रदाय की युक्तिविहीन बातों पर टीकास्‍त्र उठाया, परंतु इस बात पर पूरा ध्‍यान दिया कि किसी का मतिभेद या श्रद्धाभंग न हो।

अपने जीवन कार्य के रूप में इस अनपढ़ अंध सत्‍पुरुष ने मराठी, हिन्‍दी तथा संस्‍कृत में सवा सौ के उपर ग्रंथों की रचना की, इस साहित्‍य में अपनी मौलिक प्रणाली से उन्‍होंने संगीत, व्‍याकरण, आयुर्वेद, काव्‍य मानसशास्‍त्र, मानसायुर्वेद इत्‍यादि विविध विषयों की विवेचना की है। एक नयी नावंग भाषा का निर्माण किया है, नवीन लघुलिपि (सांकेतिक लिपि) बनायी है, 123 नए मात्रावृत्तों को जन्‍म दिया है वन्‍हाड़ी तथा ब्रजबोली में रचना की है, लोकगीतों का सृजन किया है और पारिवारिक समस्‍या तथा शिक्षा-विषयक प्रश्‍नों पर भी चर्चा चलायी है। उनकी साहित्‍य-संपदा में 2500 अभंग, 1250 गीत, 23000 ओवी , 250 पद (भजन) और 1000 श्‍लोक समाविष्‍ट हैं, कुल पृष्‍ठ संख्‍या 7000 है यह सब सोचते हुए, साहित्‍यविद् तात्‍या साहेब केलकर के विधान की सत्‍यता सिद्ध होती है कि महाराज के ग्रंथ एक वृहद ज्ञानकोष है।

परंतु विद्वज्‍जनों को भी अवाक कराने वाली विद्वता को भी गुलाबराव महाराज का प्रमुख विशेष नहीं कर सकेंगे। उनके अधिकार मुकुंदराज-ज्ञानेश्वर से रामदा-तुकाराम तक महाराष्‍ट्र में अव्‍याहत रूप से चलती आयी संत परंपरा का पुनरूज्‍जीवन श्री गुलाबराव महाराज के रूप में लगभग 250 वर्षों बाद हुआ, इस कथन में कोई अत्‍युक्ति नहीं है। गीता में कहा गया है -

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्‍टोऽभिजायते।

विदर्भ में माधान गांव के पटेल श्री गोंदुजी मोहोड और उनकी धर्मपरायण पत्‍नी श्रीमती अलोकाबाई को ऊपर की उक्ति पूरी तरह लागू होती है। अपने ननिहाल में, अमरावती के पास लोणी टाकली ग्राम में शके 1803, आसाढ़ शुदी दशमी के दिन महाराज ने श्रीमती अलोकाबाई के उदर से जन्‍म लिया। जन्‍म से ही उनका रुझान परमार्थ की ओर था। केवल नौवें महीने में भोगे हुए दृष्टिनाश से, चौथे वर्ष की आयु में झेले हुए मातृवियोग से या बारहवें ही वर्ष संपन्न हुए विवाह से किसी भी बात से उनकी मूल प्रवृत्ति विचलित न हुई।

जन्‍म से ही ईश्‍वर भक्ति में रुचि होने के कारण बाल्‍यावस्‍था से ही तीव्र स्‍मरणशक्ति व शास्‍त्राध्‍ययन का मधुर, अपूर्व संगम उनमें था, जिसका अनुभव उस अवस्‍था में ही उनके निकटस्‍थों को होता था। गृहस्‍थी के सुख से पूरा वैराग्‍य और लक्षपूर्ति के लिए चाहे जितने परिश्रम लेने को तत्‍पर रहना, उन गुणों का परिचय उस उम्र में ही होने लगा था। पूर्व सुकृत के साथ वर्तमान साधना का संयोग होने के कारण, सोलहवें वर्ष के पहले ही उनकी प्रगति समाधि-स्थिति तक पहुँची थी।

अध्‍ययन के लिए उन्‍हें बहुत कष्‍ट झेलने पड़ते थे। दुष्‍प्राप्‍य पुस्‍तकों का पता लगाना और दूसरों द्वारा उन्‍हें पढ़वाना कितना दुष्‍कर कार्य है। प्रारंभिक काल में अपने मत के प्रतिपादन के लिए यह भ्रमण उन्‍हें और अधिक बढ़ाना पड़ा।

सन् 1901 में ज्ञानेश्‍वर महाराज से उन्‍हें उनके नाम का मंत्र मिला उसके बाद ऊहबुद्ध की सिद्धि प्राप्‍त हुई। सन् 1902 ई. में शुक्‍लेश्‍वर वाठोड़ा में भागवत के दशम स्‍कंध में वर्णित कात्‍यायनी देवी के मंत्र की दीक्षा उन्‍होंने ली और माधुर्य भक्ति के अनुकूल ऐसा कात्‍यायनी महोत्‍सव शुरू किया। सन् 1908 में शिव दीक्षा लेकर उन्‍होंने पार्थिव पूजन प्रारंभ किया और अन्‍य जनों को भी पार्थिक पूजन की दीक्षा दी इसके बाद उर्वरित समय भजन-पूजन-प्रवचन ग्रंथ रचना में व्‍यतीत किया और भाद्रपद शुद्ध दशमी 20 सेप्‍टेम्‍बर 1915 को सूर्योदय के समय पर उन्‍होंने ब्रह्मप्रस्‍थान किया।

इस अल्‍प कालावधि में उन्‍होंने स्‍वयं तो आध्‍यात्मिक क्षेत्र का परमोच्‍च पद प्राप्‍त कर ही लिया, साथ-साथ अनेक अधिका‍री लोगों के इस क्षेत्र का पथ प्रदर्शन किया। सैकड़ों लोगों को स्‍वयं दीक्षा दी।

आज की विषम सामाजिक स्थिति से यह बात तो विशेषतया उल्‍लेखनीय है कि इन दीक्षितों में बहुत बड़ी संख्‍या ब्राह्मणों की थी। सभी मत संप्रदायों की महत्ता को स्‍वीकार करते हुए भी उन्‍होंने शंकराद्वैत तथ वेदों से प्रचलित माधुर्य भक्ति को एकत्रित करके श्री ज्ञानेश्‍वर मधुराद्वैत संप्रदाय स्‍थापित किया।

आत्‍मज्ञान संपन्न व्‍यक्ति तक ही माधुर्य भक्ति का अधिकार सीमित करके, संप्रदाय में घुसने वाली संभाव्‍य विकृतियों की जड़ ही उखाड़ डाली। संप्रदाय के व्रत नियमों का स्‍वयं विधिवत पालन करके औरों को भी वैसा करने की प्रेरणा दी और संप्रदाय को आधारभूत ग्रंथ संपत्ति निर्माण करके नींव पक्‍की की।

मार्धुय भक्ति यानी गोपी भाव गोपियाँ स्‍वयं आत्‍मज्ञानी थीं। यदि वे आत्‍मज्ञानी न होतीं तो उनका प्रेम जारिणी के समान वैषयिक माना जाता भगवान के सुख से वे सुखी न होते। उनका लक्षण तत्‍सुखसुखित्‍व न रहता, अपितु वे स्‍वसुखसुखित्‍व के पीछे पड़तीं। द्वापरयुग में द्वैत और अद्वैत का संगम वृंदावननिवासिनी गोपियों ने किया। वे ज्ञानेश्‍वर कन्‍या कहलाते थे, इस ज्ञानेश्‍वरकन्‍या ने कात्‍यायनी व्रत को जीव-शिव के ऐक्‍य का प्रतीक माना है। श्री महाराज ने ''श्री ज्ञानेश्‍वर मधुराद्वैत दर्शन'' की समाज को एक अमोल देन दी है। स्‍मरणीय रहे कि यह देन सर्व संप्रदायसमन्‍वय के अधिकारी द्रष्‍टा ने दी है।

अधिक से अधिक तीन दशकों का यह कार्यकारिणी जीवन कितनी अलौकिक उपलब्धियों से परिपूर्ण है। उनके सभी पहलुओं को समग्र परिचय यहाँ न संभव है, न वह अभीष्‍ट ही है।

लेकिन यह बात इतनी ही सत्‍य है कि इस जीवन का अध्‍ययन राष्‍ट्र धर्म संस्‍कृति के अभिमानी जनों को एक नयी प्रेरणा, पथ प्रदर्शन और आत्‍मविश्‍वास प्रदान करेगा।

('विश्‍वव्‍यापिनी हिंदू संस्‍कृति' से)

आत्‍म विलोपी आबाजी थत्ते

(दिनांक 6 दिसंबर 1995 को रेशमबाग स्थित डॉ . हेडगेवार सभा-भवन में नागपुर महानगर संघ शाखा की ओर से आयोजित स्‍व. डॉ आबाजी थत्ते के प्रति श्रद्धांजलि समर्पण कार्यक्रम में माननीय श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का उद्बोधन)

संयोग की बात है कि आज यह शोकसभा 6 दिसंबर को हो रही है। इसके कारण सभ के प्रारंभ में, मैं चारों दिशाओं को चार कारणों से प्रणाम करता हूँ, क्‍योंकि थत्ते परिवार के इष्‍ट देवता दक्षिण दिशा में गाणगापुर में है। आज दत्त जयंति का अवसर है, यह भी संयोग की बात है, इसलिए मैं दक्षिण दिशा को प्रणाम करता हूँ। पूर्व दिशा को इसलिए प्रणाम करता हूँ क्‍योंकि आज ही 6 दिसंबर का यह क्रांतिकारी दिवस है, जिस दिन अयोध्‍या में नई क्रांति का शुभारंभ हुआ और जिसका क्रांतिकारी स्‍वरूप आज भी कायम है। मैं पश्चिम दिशा को प्रणाम करता हूँ क्‍योंकि पश्चिम दिशा जिनकी जन्‍मभूमि और प्रारंभिक काल में कर्मभूमि रही, ऐसे उस महापुरुष डॉ. बाबा साहेब आम्‍बेडकर (6 दिसंबर) महानिर्वाण दिवस भी है। मैं उत्तर दिशा को इसलिए प्रणाम करता हूँ, क्‍योंकि इसी दिन रात के समय टी.व्‍ही. और रेडियो से भाषण करते हुए देश के शासन प्रमुख ने ऐसी गैर-जिम्‍मेदारी और मूर्खता की बातें कही थीं कि जिसके कारण अपमानित और लज्जित होकर जो हिंदुत्‍व के विषय में नरम थे, वे भी गरम हो गए- एक तरह से प्रेरणा और प्रोत्‍साहन ही उस भाषण से सबको मिली, इसलिए मैं उत्तर दिशा को प्रणाम करता हूँ। यह दिन इस तरह से ऐतिहासिक महत्‍व का है।

कुछ बोलने से पूर्व स्‍वाभाविक रूप से मैं एक बात का उल्‍लेख करना चाहूँगा। डॉ. आबाजी थत्ते के निधन से शोक तो हम सभी को हुआ है। देश भर में संघ के लोगों को और बाहर के भी लोगों को शोक हुआ है। किंतु तीन व्‍यक्ति ऐसे हैं, जिनके शोध का वर्णन शब्‍दों में करना संभव नहीं है, जो अति शोक-विह्नल होकर मन ही मन कह रहे हैं-मराठी में वाक्‍य है ''स्‍वा माझे श्राद्ध करावे, मज तुझेच करणे आले''- अर्थात, तुम्‍हें हमारा श्राद्ध करना चाहिए था, लेकिन हमारे ऊपर तुम्‍हारा श्राद्ध करने की बारी आयी। ऐसा जो मन ही मन शोक विह्नल होकर कह रहे हैं, ऐसे तीन व्‍यक्ति हैं। प. पू. बाला साहब देवरस, श्रीमती सिन्‍धुताई फाटक (आबा जी की बड़ी बहन) और श्रीमती वहिनी थत्ते (आबाजी की भाभी), जो इस समय मुंबई में हैं और जिन्‍होंने पुत्रवत आबाजी का पालन पोषण किया। इन तीन व्‍यक्तियों की मन-स्थिति का वर्णन करना असंभव है।

अभूतपूर्व आत्‍मसंयम

मुझे आदेश हुआ है कि आज के प्रसंग पर मैं कुछ बोलूँ। किंतु आप कल्‍पना कर सकते हैं कि एक मनुष्‍य के नाते मेरे भी मन में, हृदय में यह घाव इतना ताजा है कि इस विकल मन:स्थिति में भाषण करना किसी के लिए भी संभव नहीं होता, सो मेरी भी वही स्थिति है। हाँ, कुछ काल बीतने के बाद जैसा कि कहा जाता है Time is cure - मुझसे आबाजी के बारे में कुछ बोलने का अवसर मिलता है तो मैं ठीक ढंग से बोल सकता हूँ। आज घाव ताजा होने के कारण मन:स्थिति ठीक नहीं है। आबाजी के बारे में बोलना वैसे भी कठिन है। इसका एक कारण तो यह है कि कुछ वर्षों पूर्व जब आबाजी की षष्‍ठयब्दि पूर्ति हुई थी तब मुंबई के मराठी साप्‍ताहिक ''विवेक'' ने एक विशेष सामग्री सहित अंक प्रकाशित किया था। आबाजी के संबंध में प्रकाशित लेख में उनके एक महत्‍वपूर्ण गुण का विशेष उल्‍लेख करते हुए कहा गया है कि आबाजी की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि वे 'आत्‍मसंयमी' थे और इसका वर्णन करते हुए लेख में कहा गया है कि इतने वर्षों तक वे सरसंघचालक जी के साथ, उनकी छाया के समान हमेशा रहे। आप जानते ही हैं कि सरसंघचालक संघ का केंद्र होता है- संघ जो प्रबल हिंदू संगठन है उसका केंद्र यानी संघ का केंद्र यानी सरसंघचालक- उनकी छाया के समान, सहचर होकर हमेशा रहे। उन्‍होंने कितनी ही महत्‍वपूर्ण घटनाएँ देखी होंगी-प्रसंग देखे होंगे-सरसंघचालक जी के महत्‍वपूर्ण व्‍यक्तियों के साथ संभाषण सुने होंगे-किंतु यह सारा होते हुए भी-कभी भी एक शब्‍द भी उनके मुँह से नहीं निकला। यह महान आत्‍म संयम है। क्‍योंकि व्‍यक्ति का यह स्‍वभाव होता है कि कोई महत्‍वपूर्ण बात यदि मालूम हुई तो उसे कहीं न कहीं प्रग‍ट करना और अपनी महत्ता या विशेषता दर्शाने के तर्ज में, अपने किसी मित्र के सामने वह मानो कोई रहस्‍योद्घाटन कर रहा हो, इस लहजे में बताना कि देखो, मैं तुम्‍हें ही सिर्फ बता रहा हूँ, किसी से कहना नहीं। और आप जानते हैं कि किसी भी बात को जगजाहिर करने का यह बड़ा आसान तरीका है- किसी को नहीं बताने की शर्त पर गुप्‍त बात मित्र के पास जाहिर कर दीजिए और फिर देखिए कैसे आसानी से सारे विश्‍व को उस बात का पता चल जाता है। किंतु आबाजी के मुँह से कभी एक शब्‍द भी नहीं निकला-यह आत्‍मसंयम सचमुच अभूतपूर्व है।

सरसंघचालक की छाया

पूजनीय श्री गुरुजी की मृत्‍यु के एक वर्ष बाद प्रवास में, एक प्रचारक ने उनसे कहा कि गुरुजी के बारे में अनेक लोगों ने लेख लिखे हैं, आपने, कुछ नहीं लिखा, कुछ बोला नहीं, भाषण भी नहीं दिया, आखिर क्‍या बात है? आप तो गुरुजी की सविस्‍तार जीवनी ही लिख सकते थे। यह बात सही भी है कि उनके अंदर लिखने की कोई क्षमता नहीं थी, ऐसी कोई बात नहीं। अपने अंतिम दिनों में उन्‍होंने पूजनीय श्री गुरुजी के साथ सहवास के कुछ अनुभव लिखना प्रारंभ भी किया था, कुछ स्‍थानों पर लोगों के आग्रह के कारण इस विषय में उन्‍होंने भाषण भी दिए। यह बात अलग है, किंतु इस विषय में कुछ बोलने की या लिखने की उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। इसलिए उस प्रचारक को उन्‍होंने उत्तर दिया, ''गुरुजी के बारे में मैं कम लिख सकता हूँ? आप तो जानते हैं कि ''रामायण प्रभु रामचंद्र की जीवनी है, किंतु वह वाल्‍मीकि ने लिखी, हनुमान जी ने नहीं।'' सरसंघचालकजी के विषय में उनके मन में क्‍या भाव थे, कितनी श्रद्धा थी-यही इस उत्तर से प्रकट होता है। वास्‍तव में छाया के समान ही मेरा अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्व नहीं- यह भावना, यह आत्‍मसंयम।

कभी-कभी किसी आवश्‍यकता के नाते जब वे गुस्‍सा होते तो लोगों को लगता था कि कहीं ये गुस्‍सेबाज तो नहीं। लेकिन ऐसा नहीं था। संतुलित मन रखते हुए भी, संघ कार्य में किसी दृश्‍य से उन्‍हें गुस्‍सा भी आता तो क्षणार्ध में समाप्‍त भी हो जाता। एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि एक बार पूजनीय गुरुजी के कपड़े किसी कार्यकर्ता के यहाँ रह गए और पूजनीय गुरुजी को उसी शाम ट्रेन से उसी समय प्रवास पर जाना था। अत: आबाजी ने सुबह ही उसके यहाँ संदेशा भिजवा दिया कि वह सायंकाल गुरुजी के कपड़े लेकर सीधे रेलवे स्‍टेशन पर ही पहुँचे। वह कार्यकर्ता भूल गया और कपड़े लेकर स्‍टेशन पर नहीं पहुँचा। प्रवास में गुरुजी को कष्‍ट तो हुआ ही होगा। वे तो कुछ बोले नहीं, पर आबाजी ने उस कार्यकर्ता के नाम पत्र भेजा जिससे उनका गुस्‍सा प्रकट होता था। पत्र में लिखा था- ''तेरे हाथों यह जो भूल हुई, उस समय मुझे समर्थ रामदास स्‍वामी के वचन याद हो आए- ''जो दुसयावरी विश्‍वासला त्‍याचा कार्यभाग बुडाला। जो स्‍वयंचित कष्‍टत गेला तोचि धन्‍य जाहला।'' यह पत्र पाते ही वह कार्यकर्ता हिल उठा। उसने सोचा कि श्री गुरुजी और आबाजी जब वापस आएंगे तब उसे डाँट-फटकार सुनने को मिलेगी। वह उन्‍हें स्‍टेशन पर लेने पहुँचा तो वह यह देखकर दंग रह गया कि डाँट-फटकार तो दूर रही आबाजी ने हँसते हुए कहा-'अरे, तू तो आ गया' और एकदम उसे गले लगाया। फिर उसके स्‍वास्‍थ्‍य की पूछताछ और हँसी मजाक होती रही। पहले उस कार्यकर्ता से जो भूल हुई थी, उसका कहीं कोई जिक्र तक नहीं। कहते हैं, शुभ्र वस्‍त्र पर स्‍वच्‍छ पानी का दाग भी लगा हुआ दिखाई देता है, किंतु थोड़े ही समय में वह दाग अपने आप मिट जाता है। पता भी नहीं लगता कि कोई दाग लगा था। वैसा ही आबाजी का गुस्‍सा था, कार्य की आवश्‍यकता के नाते था और आत्‍मसंयम की प्रबलता के कारण क्षण-भर में वह गुस्‍सा समाप्‍त हो जाता था।

आत्‍मविलोपी वृत्ति

आबाजी के इस आत्‍मसंयम को मैं आत्‍म विलोप की संज्ञा देना चाहता हूँ। इस आत्‍मविलोपी वृत्ति के कारण ही वे अपने जीवन के बारे में, अपने अनुभवों के बारे में कभी कुछ बोलते नहीं थे। जो लोग घनिष्‍ठ संपर्क में आए, ऐसे अनेक कार्यकर्ता को इसका अनुभव अवश्‍य हुआ होगा। आबाजी का समग्र दर्शन कोई एक व्‍यक्ति दे सकेगा, वह असंभव ही लगता है। अलग-अलग कालखंड में, अलग-अलग कार्यक्षेत्र में जिन लोगों का उनके साथ घनिष्‍ठ संबंध आया होगा, ऐसे 10-12-15 व्‍यक्ति एकत्रित आकर ही उनके बारे में जानकारी दें तो ही उनका समग्र दर्शन होगा। कोई भी एक व्‍यक्ति समग्र दर्शन नहीं दे सकता।

अप्‍पा और वहिनी थत्ते की विरासत

वैसे हम जानते हैं कि उनका बाल्‍यकाल संस्‍कार और संगोपन की दृष्टि से उनके बड़े भाई श्री अप्‍पा थत्ते और भाभी (वहिनी थत्ते) के अभिभावकत्‍व में बीता। इन दोनों का व्‍यक्तित्‍व कैसा था। यह शब्‍दों में नहीं बताया जा सकता। जो उनके घनिष्‍ठ संपर्क में आए, वे ही बता सकते हैं। मैंने पु. ल. देशपांडे की व्‍यक्तिरेखा नामक मराठी पुस्‍तक पढ़ी है। उसे पढ़कर मुझे लगा कि मेरे अंदर भी व्‍यक्तिरेखा लिखने की क्षमता होती तो मैं जिन व्‍यक्तियों की व्‍यक्ति रेखा लिखना चाहता हूँ, उसमें अप्‍पा थत्ते और वहिनी थत्ते ये दो 'कॅरेक्‍टर्स' आते। उनके बारे में लिखना बहुत कठिन है। अप्‍पा जब स्‍टेट बैंक में अधिकारी पद पर थे तो सभी कर्मचारियों के प्रति उनके हृदय में अपनत्‍व और करुणा का स्‍थायी भाव रहा। नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक एम्‍प्‍लाईज (एन.ओ.बी.डब्‍ल्‍यू.) का काम शुरू होने के बाद जब मैं बैंक कर्मचारियों के निकट संपर्क में आया और प्रवास के दौरान कई जगह गया, तो स्‍टेट बैंक के कितने ही लोगों ने बताया कि ''भाई, आज मैं इस पोजीशन में हूँ, वह अप्‍पा थत्ते के कारण ही हूँ। उन्‍होंने मुझे प्रोत्‍साहन नहीं दिया होता, मेरा धीरज नहीं बंधाया होता, तो में अपने जीवन से निराश हो चुका था, मेरा रहना असंभव था, किंतु अप्‍पा थत्ते ने आशा की किरण दिखाई और आज उन्‍हीं के आशिर्वाद से मैं इस पोजीशन पर हूँ।'' अनेक कर्मचारियों से यही अनुभव मुझे सुनने को मिला। यह परोपकारी वृत्ति और समरसता-संयोग विशेषकर पति-पत्‍नी के बीच, जिसे आजकल बोलते हैं 'मेड फॉर ईच अदर'। ऐसा संयोग बहुत कम दिखाई देता है। परमेश्‍वर की कृपा से यह संयोग थत्ते दंपत्ति में रहा। दोनों में ही परोपकारी वृत्ति उनके स्‍वभाव का स्‍थायी अंग बनकर रही। दूसरी के दु:ख से दु:खी होने की प्रवृत्ति, परोपकार की प्रवृत्ति और आध्‍यात्मिक प्रवृत्ति ये सब संस्‍कारों से विरासत के रूप में आबाजी को अप्‍पा और वहिनी से प्राप्‍त हुई। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि आबाजी भी मूलत: आध्‍यात्मिक प्रवृत्ति के ही थे, किंतु यह सच है कि आबाजी स्‍वयं उसका प्रगटीकरण न हो, प्रदर्शन न हो, इसकी चिंता करते थे। शायद इसलिए कि जैसा संत ज्ञानेश्‍वर ने कहा है 'अलौकित न व्‍हावे लोका प्रति' इस सूत्र को उन्‍होंने अपनाया था। और तीसरी बात स्‍वाभाविक रूप से संघ के स्‍वयंसेवकों के मन में आती है कि आबाजी का संघ प्रवेश कब हुआ ?

अभी आबाजी का अंतिम दर्शन लेकर जब मैं दिल्‍ली गया तो वहाँ बापूराव लेले ने मुझे बताया कि 1938 में पहले अप्‍पा थत्ते का संघ प्रवेश हुआ और 1939 में मुंबई की शिवाजी पार्क में शाखा में आबा जी का संघ प्रवेश हुआ। अप्‍पा ही आबा को संघ में लाए। शिवाजी पार्क की शाखा में उस समय मा. दादासाहेब आपटे, पंडित राव आपटे, भास्‍कर राव कळंबी, श्री राम साठे और कुछ समय के लिए लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे लोग उनके परिसर में रहे। इस प्रकार परोपकार, आध्‍यात्मिक प्रवृत्ति और संघ प्रवेश ये तीनों ही बातें अप्‍पा और वहिनी के सहवास में प्राप्‍त संस्‍कारों के रूप में आबाजी ने प्राप्‍त कीं। इस दृष्टि से अप्‍पा और वहिनी दोनों का जो ऋण है, हम सभी पर, उस ऋण का स्‍मरण करना आवश्‍यक है।

मुंबई में संघ के स्‍वयंसेवकों, अधिकारियों से अनौपचारिक वार्तालापों से आबाजी के बारे में यह जानकारी भी मिली कि जब आबा जी ने मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया तो उस समय स्‍वाध्‍याय और संघ कार्य इनका ठीक मेल वे बिठा सकते थे। अपने दिले खुले स्‍वभाव के कारण विद्यार्थी बंधुओं में लोकप्रिय थे। अनेकों से घनिष्‍ठ मित्रता थी। इस कारण अनेक मेडिकल छात्रों को संघ की शाखा में लाने में उन्‍हें सफलता मिली। अनेक छात्रों के परिवारों में उनका प्रवेश था। मेडिकल की शिक्षा पूर्ण होने और डिग्री प्राप्‍त करने के पश्‍चात् उनके मन में संघ का प्रचारक बनने की इच्‍छा हुई। थत्ते परिवार के सभी लोगों ने उन्‍हें इस दिशा में प्रोत्‍साहित ही किया, किसी ने निरुत्‍साहित नहीं किया।

जब संघ प्रचारक निकले

सन् 44 का अंत और 45 के प्रारंभ का समय था, जब आबाजी को नागपुर बुलाया गया। उस समय किसको कौन सा काम दिया जाए, प्रचारक को कहाँ भेजा जाए आदि सब बातों का निर्णय प. पू. बालासाहब देवरस, पूजनीय श्री गुरुजी की सलाह से कया करते थे। उन दोनों की मंत्रणा का ही परिणाम था कि आबाजी को यहाँ बुलाया गया लेकिन एकदम कार्य नहीं सौंपा गया। पहले तो कहा गया कि बड़कस चौक में डॉ. पांडे के साथ उनके दवाखाने में रोगियों की चिकित्‍सा-सेवा करो। आप में से अनेकों को याद होगा कि डॉ. पांडे के दवाखाने में डॉ. थत्ते का भी साइन बोर्ड लटका रहता था लेकिन आबाजी को नागपुर लाने का मूल उद्देश्‍य प. पू. श्री गुरुजी के साथ अटेंडेंट के रूप में किसी अच्‍छे कार्यकर्ता की तलाश के निमि‍त्त ही था। पूजनीय श्री गुरुजी के स्‍वास्‍थ्‍य का विचार करते हुए कोई डॉक्‍टर कार्यकर्ता का उनके साथ रहना अधिक उचित माना गया।

प्रचारक की कसौटियों पर खरे उतरे

यहाँ एक बात का उल्‍लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि संघ के प्रारंभिक काल से ही किसी कार्यकर्ता को प्रचारक के नाते नियुक्‍त करने के संबंध में पूजनीय बालासाहब की विचार पद्धति यह रही है कि उसे फील्‍ड वर्क के साथ-साथ शाखा से निगड़ित कई तरह के काम, जिनमें एक काम सरसंघचालक जी के साथ रहना भी था, करने की दृष्टि से उसकी तैयारी कितनी है और इस दृष्टि से प्रत्‍यक्ष संघ कार्य - नई शाखाएँ खोलना, पुरानी शाखाएँ ठीक तरह से चलाना आदि फील्‍ड वर्क की रगड़ से जाना उसके लिए आवश्‍यक होता है। इस पूर्व तैयारी के बाद ही उस प्रचारक को आवश्‍यकतानुसार कोई अन्‍य कार्य या दायित्‍व सौंपा जाता है। अत: आबाजी को इस पूर्व तैयारी 'अप्रेन्टिसशिप' के लिए बंगाल भेजा गया। बंगाल में संघ का प्रारंभिक कार्य पू. गुरुजी और पू. बालासाहब देवरस ने किया था। जब भी कोई नया प्रचारक किसी भी प्रांत में कार्य करने हेतु जाता है तो उसे कुछ कसौटियों से होकर गुजरना पड़ता है। पहली बात तो यह कि जिस प्रांत में वह नया प्रचारक जाता है, उस प्रांत के प्रांत प्रचारक का मूल्‍यांकन उस नए प्रचारक के बारे में क्‍या होता है? दूसरी बात यह कि वहाँ जो पहले से काम करने वाले पुराने प्रचारक होते हैं, उनमें इस नए प्रचारक के प्रति अपनत्‍व, स्‍वीकृति, मान्‍यता कब और किसी निर्माण होती है? तीसरी कसौटी वह होती है कि जिस क्षेत्र में यह नया प्रचारक गया है, वह अगर बिल्‍कुल नया क्षेत्र हो, जहाँ संघ कार्य का आरंभ ही करना है तो बात अलग है, किंतु अगर वहाँ कार्य आरंभ हो चुका है तो फिर यह नया प्रचारक वहाँ के कार्यकर्ताओं को कहाँ तक और कितना आत्‍मसात् कर पाता है? यही तीन प्रमुख कसौटियाँ हैं, जिनमें से नए प्रचारक को जाना जाता है। आबाजी थत्ते को संघ का पुराना क्षेत्र ही मिला था, जहाँ उनके पूर्व कई प्रचारक कार्य कर चुके थे। किंतु आबाजी के बारे में यह आश्‍चर्यजनक तथ्‍य सामने आया कि उक्‍त तीनों कसौटियों को सफलता से पार करने में कोई देर नहीं लगी, उन्‍हें मान्‍यता देने, स्‍वीकृति देने की, और अपनाने को सारी प्रक्रियाएं स्‍वाभाविक और सहज ढंग से हो गई। जहाँ तक कि प्रांत प्रचारक भी उन्‍हें अपने हाथ के नीचे काम करने वाला प्रचारक न मानकर अपने समकक्ष मानते और कार्य विस्‍तार संबंधी हर योजना और कार्यक्रम के संबंध में उनसे परामर्श लेते।

'फील्‍ड वर्क' की रगड़

उन दिनों बंगाल में संघ का कार्यक्रम था, किंतु शिवपुर, बरहामपुर, नवदीप और मालदा जैसे कुछ प्रमुख केंद्र थे, जहाँ संघ की अच्‍छी शाखाएँ चल रही थीं। आबाजी थत्ते की नियुक्ति शिवपुर में की गयी। अब तक इस क्षेत्र में बाहर से ही, विशेषकर महारार्ष्‍ट से प्रचारक भेजे जाते रहे। किंतु आबाजी थत्ते का स्‍वभाव, गुणवत्ता और कार्यशैली का इतना अच्‍छा प्रभाव पड़ा कि शिवपुर क्षेत्र से स्‍थानीय प्रचारक के रूप में अनेक कार्यकर्ता निकले। व्‍यक्ति की परख और अपने संपर्क से उसे संघ कार्य में जुटाना, यह आबाजी की विशेषता थी। इस संदर्भ में मैं केवल एक व्‍यक्ति के नाम का यहाँ उल्‍लेख करना चाहूँगा। इस नाम से शायद आप भी परिचित होंगे। केशव देव चक्रवर्ती उनका नाम था। वे वहाँ की एक शाला में मुख्‍याध्‍यापक थे, संघ से सहानुभूति रखते थे। आबाजी थत्ते के संपर्क में आकर वे संघ के कार्यकर्ता बने- जिला संघचालक बने और प्रांत संघचालक का दायित्‍व भी कुशलता से निभाया। संघ के प्रत्‍यक्ष कार्य, फील्‍ड वर्क की जो रगड़ है, पूजनीय बाला साहब की इच्‍छानुसार उस रगड़ में से जाकर आबाजी ने अपनी योग्‍यता प्रकट की।

सरसंघचालक के सहायक के रूप में

संघ पर लगे प्रथम प्रतिबंध के हटने पर कार्य की नई रचना में आबाजी थत्ते के बारे में पहले जो सोचा गया था, पूजनीय सरसंघचालक जी के अटेन्‍डेंट (सहायक) के नाते उनकी नियुक्ति की गई। बहुत लोगों के ध्‍यान में यह बात आती नहीं, जैसा कहा भी गया है कि 'अति परिचयादवजा' - अर्थात अनेक वर्षों से हम सब देखते आए हैं, इसलिए इसको पता नहीं चलता कि इस कार्य की विशेषता क्या है? सरसंघचालक को अटेन्‍ड करना-सरल काम है, इसके स्‍पष्‍टीकरण की आवश्‍यकता नहीं। लेकिन यह कार्य करने वाला व्‍यक्ति कौन-कौन से काम करेगा, किस तरह के काम करेगा-इन बातों का विवरण कहीं मिलता नहीं, हो सकता है कि पूजनीय बालासाहब ने उनके साथ बातचीत करते हुए समय समय पर उन्‍हें कुछ संकेत दिए हों किंतु उनके कार्य का पूर्ण विवरण संघ के संविधान में भी नहीं है, क्‍योंकि यह कोई संविधान प्रदत्त पद भी नहीं है। अत: जो संकेत ऊपर से आए होंगे, उनका पालन करते हुए, आबाजी की विशेषता यह रही कि उन्‍होंने अपने लिए परिस्थिति को देखते हुए, आवश्‍यकतानुसार अपने लिए काम खोजे और उन पर अमल किया। स्‍वयं प्रेरणा से, खुद पहल करते हुए, अपने विचार और कार्य के लिए पोषक काम खोजते हुए उस दिशा में अपना प्रवास प्रारंभ किया, जिस दिशा में , जिस रास्‍ते पर कोई चला नहीं।

संपर्क केंद्र

नागपुर में, संघ कार्यालय में वास्‍तव्‍य के दौरान बाहर से आने वाले प्रचारकों-कार्यकर्ताओं और कार्यालय में रहने वाले सभी लोगों के साथ संपर्क रखकर, उनकी चिंता करना, उनकी खुशहाली का विचार करना, यह भी एक काम उन्‍होंने अपने जिम्‍मे ले रखा था। उन दिनों व्‍यवस्‍था प्रमुख पांडुरंग पंत क्षीरसागर, मा. कृष्‍णराव जी मोहरील जिन्‍हें हम मिनिस्‍टर विदाउट पोर्टफोलियो कह सकते हैं और आबाजी थत्ते ये तीनों संपर्क के केंद्र के रूप में माने जाते थे। इसका अर्थ ये नहीं कि बाकी के लोग संपर्क नहीं रखते थे-सभी लोग संपर्क रखते थे। आखिर संपर्क ही तो संघ कार्य की आत्‍मा है। हरेक प्रचारक, हरेक कार्यकर्ता अपनी अपनी सीमा में, अपनी क्षमता अनुसार अन्‍य लोगों से संपर्क रखता ही है। किंतु इन तीनों को संपर्क केंद्र के रूप में ही माना जाता था। सरसंघचालक, कार्यवाह से लेकर, रसोई की व्‍यवस्‍था में जुटे प्रसाद सिंह जैसे कर्मचारी की, कार्यालय में बाहर से आने वाले अभ्‍यागतों चाहे वे स्‍वामी चिन्‍मयानंदजी हों या राजा भैया पूंछवाले हों-विभिन्‍न प्रकृति-विभिन्‍न प्रवृत्ति के सभी लोगों की समान चिंता ये तीन लोग ही विशेष रूप से किया करते थे।

अनौपचारिक शक्ति केंद्र

उन दिनों संघ की दृष्टि से एक अनौपचारिक शक्ति केंद्र नागपुर की नागोबा की गली में भी था। पूजनीय ताई (गुरुजी की माताजी, पू. भाऊजी (पिता), वहाँ रहते थे। नए लोगों को यह कल्‍पना करना असंभव है कि पू. ताई का कितना और किस तरह का योगदान संघ कार्य को रहा है। उनका अपना एक दरबार था, अपना एक विश्‍वास था। इस विश्‍व से जुड़े हुए सभी लोगों से मिलकर वहाँ का वायुमंडल स्‍वस्‍थ रखने का जिम्‍मा आबाजी ने खुद अपने ऊपर लिया था। संपर्क उनका स्‍वभाव ही था। वे परिश्रमपूर्वक संपर्क किया करते। कार्यालय में भोजनोपरांत विश्रांति लेने की बजाय आबाजी साइकिल, मोटरसाइकिल, जो वाहन उस समय उपलब्‍ध हो, उसे लेकर निकल पड़ते संपर्क के लिए। नागपुर में कितने ही परिवार हैं, जिन परिवारों में ज्‍येष्‍ठ सदस्‍य के नाते ही उनका स्‍थान रहा है और आज भी वे सभी परिवार यही अनुभव कर रहे हैं कि उनके परिवार का ज्‍येष्‍ठ पुरुष नहीं रहा। अब हम अनाथ हो गए। यह भावना केवल नागपुर में ही नहीं देश भर में प.पू. श्री गुरुजी तथा पू. बालासाहब जी के साथ जहाँ जहाँ वे गए, उन स्‍थानों पर सैकड़ों परिवारों से घनिष्‍ठ संपर्क उनका रहा है, उन परिवारों में भी यही भावना निर्माण हुई है।

प्रचंड पत्राचार

पूजनीय श्री गुरुजी के निधन के पश्‍चात सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के सहायक के रूप में, आबाजी उनके साथ देश भर में भ्रमण करते और पूजनीय श्री गुरुजी द्वारा प्रस्‍थापित संबंधों और व्‍यक्तियों के बारे में जानकारी देते। पुराने संबंधों और उनके स्‍वरूप को ध्‍यान में रखकर संघ कार्य के साथ उन्‍हें जोड़े रखने की जिम्‍मेदारी निभाने में पूजनीय बालासाहब को आबाजी से काफी सहायता मिली। इस प्रकार देश भर में इतना व्‍यापक उनका संपर्क था। इस संपर्क को बनाए रखने में न केवल शारीरिक परिश्रम करना पड़ता वरन् पत्र व्‍यवहार भी बहुत करना पड़ता था। स्‍व-हस्‍ताक्षरों में प्रचंड पत्र व्‍यवहार करने वालों में महात्‍मा गांधी और पू. श्री गुरुजी की ख्‍याति सभी को ज्ञात है पर आबाजी भी स्‍वयं अपने हस्‍ताक्षरों में नियमित रूप से पत्र व्‍यवहार करते रहे। अपनी अंतिम बीमारी के समय जब वे दिल्‍ली में थे तब उनका दाहिना अंग लकवाग्रस्‍त हो चुका था। इस अवस्‍था में भी विजयादशमी के अवसर पर उन्‍होंने अपने बाएं हाथ से पूजनीय बालासाहब को पत्र लिखा। यह उनका अंतिम पत्र था। इस प्रकार प्रचंड पत्राचार और प्रचंड संपर्क -यह उनका अभूतपूर्व कार्य रहा।

आबाजी थत्ते अपनी आत्‍म-विलोपी वृत्ति के कारण सरसंघचालक के लिए छाया के रूप में ही थे। जनमानस में इस साहचर्य के कारण यह बात पैठ गई थी कि पूजनीय गुरुजी जहाँ भी जाते, चाहे वह किसी का निजी पारिवारिक कार्यक्रम हो, विवाह, व्रतबंध जैसा धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम हो, आबाजी थत्ते भी उनके साथ वहाँ अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। छाया रूप इस साहचर्य के कारण लोगों की मानसिकता कुछ ऐसी बन गई थी। अगर किसी कारणवश पू. गुरुजी किसी पारिवारिक या सामाजिक कार्यक्रम में नहीं जा सके और उनके स्‍थान पर आबाजी वहाँ पहुँच जाते तो लोग यही मानते कि पू. गुरुजी का प्रतिनिधित्‍व हो गया। किसी कार्यकर्ता के लिए अत्‍यंत कठिन काम है कि वह स्‍वयं अपने आपको इतना विलीन कर ले।

आदर्श प्रचारक

संघ संस्‍थापक प. पू. डॉक्‍टरजी की कल्‍पनानुसार संघ कार्य के विस्‍तार के साथ ही संघ के ही कार्यकर्ताओं द्वारा 'प्रोग्रेसिव्‍ह' अनफोल्‍डमेंट' के रूप में विविध क्षेत्रों में विभिन्‍न प्रकार के कार्य और संस्‍थाएं खड़ी की गई तो उन कार्यों और संस्‍थाओं के बीच परस्‍पर समन्‍वय बिठाने में, जिसे हम 'लुब्रिकेन्‍ट को-ऑपरेशन' का काम भी कह सकते हैं, आबाजी थत्ते के व्‍यापक संपर्क का बहुत उपयोग हुआ। विभिन्‍न संस्‍थाओं के कार्यकर्ताओं के साथ उनका इस तरह का व्‍यवहार और संबंध था। वैसे तो अंतिम दिनों में, जब उन्‍हें अ.भा. प्रचारक प्रमुख घोषित किया गया, तब प्रचारकों को संस्‍कारित करने के अलावा ग्राहक पंचायत, सहकार भारती के मार्गदर्शन और राष्‍ट्रसेविका समिति तथा अन्‍य महिला संगठनों का संघ के साथ सामंजस्‍य प्रस्‍थापित करने का दायित्व भी सौंपा गया। इन सभी संस्‍थाओं में 'लुब्रिकेंट को-ऑपरेशन' निर्माण करने में आबाजी के संपर्क प्रयासों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस कार्य में उनकी सफलता का अनुभव हम संघ पर अंतिम प्रतिबंध के काल में ले चुके हैं। उनकी योग्‍यता और कार्यक्षमता को ध्‍यान में रखते हुए हम उनके जीवन की ओर देखेंगे तो हम किसी आदर्श को ही देख रहे हैं, ऐसा महसूस हुए बिना नहीं रहेगा इसे अलग से शब्‍दों में व्‍यक्‍त करने की आवश्‍यकता नहीं। बस उन्‍हें देख लिया कि आदर्श कार्यकर्ता, आदर्श प्रचारक, आदर्श स्‍वयंसेवक कैसा होना चाहिए, इसका स्‍वयं पता चल जाता है।

'मैं नहीं तू ही' का सूत्र

प. पू. श्री गुरुजी कार्यकर्ताओं की बैठकों में आग्रहपूर्वक कहा करते थे कि संघ के कार्यकर्ता को आत्‍म विलोपी होना चाहिए। यह आत्‍म विलोपी बड़ा कठिन शब्‍द है। इसे समझाने के लिए वे अलेक्‍जेंडर पोप की अंग्रेजी कविता की पंक्तियाँ सुनाते थे। कविता का शीर्षक था- 'Ode on Solitude' और अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार थीं - Thus, let me live unseen unknown. Thus, nlamented let me die, Steal from the world, and not a stone tell where I lie. अर्थात मुझे इस तरह जीने दो कि कोई मुझे न देखे, कोई मुझे न जाने न पहचाने। मेरी मृत्‍यु इस तरह की हो कि कोई मेरे लिए शोक न करे अर्थात मैं इस दुनिया से किसी को पता न चलते हुए खिसक जाऊँ और जहाँ मुझे गाड़ा जाएगा। वहाँ कोई पत्‍थर भी खड़ा नहीं करना चाहिए, ताकि किसी को पता न चल सके, कि मुझे यहाँ गाड़ा गया है, मैं यहाँ सो रहा हूँ। ऐसा गुरुजी बताते थे और गुरुजी ने अपनी मृत्‍यु के पूर्व जो मृत्‍यु पत्र लिखा उसने अपने बारे में जो लिखा वह इससे सुसंगत है कि 'मेरा कोई स्‍मारक नहीं होना चाहिए।' इन पंक्तियों को ठीक ढंग से जिन्‍होंने समझ लिया, धारण किया और क्रियान्वित किया ऐसे हमारे आबाजी हमारे सामने आदर्श के रूप में हैं और उनको जो आज हम श्रद्धांजलि दे रहे हैं, तो उनका यह जो गुण समुच्‍चय है, उनका अनुकरण करने का हम ज्‍यादा से ज्‍यादा प्रयास करें। यही उनके प्रति हमारी सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी। ये सारा जो आत्‍म-विलोप है, यह वृत्ति हमारे अंदर भी आ जाए। आज के वायुमंडल में यह प्रवृत्ति लाने के लिए विशेष प्रयास करना पड़ेगा-यह विशेष प्रयास हम करें और आत्‍म-विलोप का अति संक्षिप्‍त वर्णन पूजनीय श्री गुरुजी ने 'मैं नहीं तू ही' इन शब्‍दों में किया है। इस सूत्र को ध्‍यान में रखकर आबाजी का अनुकरण करने का हम प्रयास करें। इन शब्‍दों के साथ हृदय से उनका श्रद्धांजलि समर्पित करता हुआ अपना भाषण यहीं समाप्‍त करता हूँ।

(भारतीय विचार साधना, नागपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से)

तत्‍व जिज्ञासा

वस्‍तुत: दीनदयाल जी का मूल स्‍वभाव संघ प्रचारक का ही था। संघ कार्य की प्रारंभिक अवस्‍था में नए स्‍थान पर कार्य प्रारंभ करने में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, इसकी कल्‍पना आज नहीं की जा सकती। आज यदि यह बतायें तो लोगों को आश्‍चर्य होगा कि गोलागोकर्णनाथ के लोगों ने उन्‍हें भड़भूजे को दुकान से चले खरीदकर उन्‍हीं पर कई दिन तक जीवन-निर्वाह करते देखा था। मुहम्‍मदी के लोगों ने उन्‍हें दुकान के बाहर पटरी पर रात बिताते देखा था। स्‍टेशन से गाँव जाने के लिए तांगेवाला दो पैसे अधिक माँग रहा था, तो उनकी बचत करने के लिए भारी वर्षा में दीनदयाल जी को भीगते हुए गाँव जाते हरदोई के लोगों ने देखा था। वाह्य परिस्थिति की प्रतिकूलता तो थी ही, साथी ही स्‍वयं दीनदयाल जी की अनासक्‍त कर्मयोगी प्रवृत्ति भी महत्‍वपूर्ण थी। आगे चलकर जीवन में अनुकूलता प्राप्‍त होने के बाद भी उन्‍होंने उसका लाभ नहीं उठाया। अपने कपड़े वे स्‍वयं धोया करते थे और अपने फटे-पुराने कपड़ों की सिलाई भी वे स्‍वयं करते थे। कोई भी चप्पल या कपड़ा-लत्ता जब तक पहनने के लिए बिल्‍कुल अयोग्‍य न हो जाता, तब तक उसे बदलते नहीं थे। स्‍वदेशी का आग्रह उन्‍होंने प्रत्‍यक्ष आचरण में उतारा था। सार्वजनिक धन का उपयोग न्‍यासी की भांति कितनी मितव्‍ययता से करना होता है, इसका आदर्श उदाहरण उन्‍होंने अपने आचरण से प्रस्‍तुत किया था। बिल्‍कुल छोटे-मोटे काम वे समान उत्‍साह से करते थे।

सभी छोटी-छोटी बातों का सदा ध्‍यान-रखना उनका स्‍वभाव बन गया था। कारण बाह्यत: वे लौकिक व्‍यवहार में कितने ही निमग्‍न क्‍यों न दिखाई देते हों, उनका सच्‍चा लक्ष्‍य 'ज्ञानोत्तर भक्तिपूर्ण कर्मयोग' ही था। फिर भी दैनिक व्‍यवहार में उनका आचरण सामान्‍य लोगों जैसा होता था इसीलिए उनके पास के लोग भी इसकी कल्‍पना नहीं कर पाते थे कि वास्‍तव में वे कितने महान हैं।

'राष्‍ट्रधर्म' का काम देखते समय उन्‍होंने कई बार कंपोजिंग, बाइंडिंग तथा डिस्‍पैचिंग का काम भी स्‍वयं किया था। निष्‍काम कर्मयोगी उनकी सहज प्रवृत्ति थी।

''सुखदु:खे समे कृत्‍वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय सुज्‍यस्‍व .............................।।''

यह उनका स्‍वभाव ही बन गया था। अहंकार, व्‍यक्तिगत आकांक्षा आदि क्षुद्र भावनाओं का स्‍पर्श भी उनको नहीं होता था। आदेश के अनुसार उन्‍होंने राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया, किंतु उनकी वृत्ति थी-''दुनिया में हैं, दुनिया के तलबगार नहीं / बाजार से निकले हैं, खरीदार नहीं।'' इतनी निर्लेप।

सक्रिय राजनीति में होते हुए भी पंडित जी की महत्‍वाकांक्षा पानी में कमल के पत्ते जैसी थी। परम पूजनीय श्री गुरुजी ने अपने जौनपुर के भाषण में कहा था- ''दीनदयाल जी का राजनीतिक क्षेत्र की ओर कतई झुकाव नहीं था।'' पिछले वर्षों में कितनी ही बार मुझसे उन्‍होंने कहा, ''यह आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया। मुझे फिर से अपना प्रचारक का काम करने दें।'' मैंने कहा, ''भाई, तुम्‍हारे सिवा इस झमेले में किसको डालें ? संगठन के कार्य के प्रति जिसके मन में इतनी अविचल श्रद्धा और दृढ़ निष्‍ठा है वही उस झमेले में रहकर कीचड़ में अस्‍पृश्‍य (अछूता) रहता हुआ सुचारू रूप से वहाँ की सफाई कर सकेगा, दूसरा कोई नहीं कर सकेगा।'' संभवत: इसीलिए परम पूजनीय बालासाहब देवरस ने भी कहा था- ''श्री दीनदयाल जी को देखकर मुझे किसी अन्‍य की नहीं, संघ के संस्‍थापक डा. हेडगेवार जी की स्‍मृति हो आती है।''

राजनीति के बारे में इतनी उदासीनता होने पर भी एक बार जो कार्य दे दिया, दीनदयाल जी ने उसे इतनी सुव्‍यवस्थित रीति एवं शास्‍त्रीय पद्धति से, पूरा मन लगाकर तथा सारी शक्ति जुटाकर किया कि उसके कारण 'योग: कर्मेसु कौशलम्' वाली उक्ति का व्‍यावहारिक अर्थ किसी के भी ध्‍यान में आ जाता।

अपने 'जनसंघ' शीर्षक अंग्रेजी प्रबंध में ग्रेग बैक्‍स्‍टर ने लिखा है- ''जनसंघ ही एकमात्र ऐसा दल है जिसने 1952 से 1967 तक के हर चुनाव में प्रांत मतों का प्रतिशत एवं लोकसभा तथा विधानसभाओं में प्राप्‍त स्‍थानों का अनुपात लगातार बढ़ाया है।''

'जनसंघ : आइडियोलाजी एंड आर्गनाइजेशन इन पार्टी बिहेवियर' शीर्षक अपने प्रदीर्घ अंग्रेजी निबंध में वाल्‍टर के, एंडरसन लिखते हैं ''उपाध्‍याय के 1967 में जनसंघ का अध्‍यक्ष पद स्‍वीकार करने का यही अर्थ था कि दल की संगठनात्‍मक नींव डालने का काम पूरा हो गया है और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर एक प्रबल प्रतिस्‍पर्धी के नाते सत्ता की प्रतियोगिता में उतरने का उसका संकल्‍प है।''

यह तो मानो शून्‍य से ब्रह्मांड की सृष्टि ही थी।

अखिल भारतीय दायित्‍व उन पर आने के बाद उनका व्‍यावहारिक अनुभव एवं घनिष्‍ठ व्‍यक्तिगत संबंधोंका क्षेत्र अधिकाधिक विस्‍तृत होता गया। जनसंघ की प्रारंभिक अवस्‍था में सर्वश्री डॉ. मुखर्जी, डॉ. भाई महावीर, बलराज मधोक, महाशय कृष्‍ण, भल्‍ला बन्‍धु, वैद्य गुरुदत्त, मौलिचन्‍द्र शर्मा, उमाशंकर त्रिवेदी, वसंत राव ओक आदि लोगों के साथ काम करने का अवसर उन्‍हें मिला। सर्वश्री बापूसाहब सोनी, प्रेम नाथ जी डोगरा, डॉ. रघुवीर, देवप्रकाश घोष, पीताम्‍बरदास, ए.रामराव, बच्‍छराज व्‍यास आदि सभी अध्‍यक्षों के कार्यकाल में सूत्र संचालन का कार्य दीनदयाल जी ही किया करते थे। जनसंघ के कार्यालय प्रमुख श्री जगदीश माथुर तो उनके अनुचर थे। जनसंघ के सभी पदाधिकारियों तथा कार्यकर्ताओं और उनमें भी विशेषकर सभी संगठन-मंत्रियों को उनके सहवास का लाभ होता था। रा.स्‍व.संघ से संस्‍कार एवं प्रेरणा ग्रहण कर राष्‍ट्र-जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में कार्य करने वाले स्‍वयंसेवक सदा ही पंडित जी के मार्गदर्शन की आशा रखते और वे भी इन सब कार्यों को अपने ही परिवार का कार्य मानते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रथम अध्‍यक्ष तथा महामंत्री श्री ओमप्रकाश बहल तथा श्री वेदप्रकाश नन्‍दा के साथ उनके पुराने संबंध थे।

दीनदयाल जी का मुख्‍य कार्यालय दिल्‍ली में ही रहता था। श्री जगदीश अब्रोल तथा चमन लाल जी जैसे कार्यकर्ता भी, जो राजनीतिक क्षेत्र में नहीं थे, उन दिनों दीनदयाल जी के निकट सहवास में रहते थे। दीनदयाल जी जब भी वहाँ रहते, आर्गेनाइजर के कार्यालय को अवश्‍य भेंट देते और के.आर. मल्‍कानी, लालकृष्‍ण आडवाणी, तथा सुधाकर राजे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करते थे। इसी प्रकार के विचारों का आदान-प्रदान देश भर की विभिन्‍न भाषाओं की पत्र पत्रिकाओं में काम करने वाले सभी समविचार वाले बंधुओं के साथ भी वे हार्दिकता से किया करते थे। 'हिंदुस्तान-समाचार' के संस्‍थापक श्री दादासाहेब आप्‍टे, श्री बापूराव लेले तथा श्री बालेश्‍वर अग्रवाल ऐसे लोगों में प्रमुख थे।

कार्यक्षेत्र में उनका सभी प्रकार के कार्यकर्ताओं के साथ न्‍यूनाधिक संबंध रहता था। संघ की बैठकों में उनका योगदान उल्‍लेखनीय था। मा. एकनाथ रानडे के मार्गदर्शन में संघ का संविधान अक्षरबद्ध करने के काम में भी उनका प्रमुख सहयोग था। इस काम में उन्‍हें मा. बाबासाहब आपटे तथा मा. राजपाल पुरी की विशेष सहायता मिली थी। मा. बाबासाहब आपटे के साथ पंडित जी की बैठक 'समसमासंयोग' का अनुभव कराती थी सहसरकार्यवाह एवं सरकार्यवाह का दायित्‍व संभालने वाले सभी अधिकारियों के साथ उनके घनिष्‍ठ संबंध थे। मा. श्री मल्‍हारराव काले, मा. अप्‍पा जी जोशी, मा. भैय्याजी दाणी , मा. एकनाथ रानडे, मा. माधवराव मुले इस श्रेणी में आते थे। वही बात मा. यादवराव जोशी आदि संघ के अन्‍यान्‍य अधिकारियों एवं सरसंघचालक जी के निजी सचिव डा. आबसाहब थत्ते एवं केंद्रीय कार्यालय प्रमुख श्री पांडुरंगपंत क्षीरसागर के बारे में भी थी।

संघ पर लगा प्रथम प्रतिबंध हटने के बाद महत्‍वपूर्ण कालखंड में अन्‍य क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं के परम पूजनीय बालासाहब देवरस के साथ विशेष संबंध रहे। यह सच है कि स्‍वयंसेवकों द्वारा चलायी गयी सभी संस्‍थाएं अपने में स्‍वशासी हैं और किसी भी संस्‍था को संघ अपना अग्रपंक्ति-संगठन (विशिष्‍ट क्षेत्र में कार्य करने वाला फ्रंट आर्गनाइजेशन या मोर्चा) अथवा संचरण-साधन (ट्रांस मिशन बेल्‍ट) नहीं मानता। तथापि व्‍यक्तिगत जीवन की भांति सार्वजनिक जीवन में भी योग्‍य स्‍थान से मार्गदर्शन प्राप्‍त करने की इच्‍छा कार्यकर्ताओं के मन में तो होती ही है। तदनुसार ज्येष्ठ व्‍यावसायिक मार्गदर्शक के नाते परम पूजनीय बालासाहब देवरस की ओर कार्यकर्ता देखा करते थे। अपने क्षेत्र में नई संरचना करने के बारे में पंडित जी भी उनसे बार-बार परामर्श करते थे।

पंडित जी का सबसे महत्‍वपूर्ण एवं आत्‍मीयता का अलौकिक-संबंध तत्‍कालीन सरसंघचालक परमपूजनीय श्री गुरुजी के साथ था।

परम पूजनीय श्री गुरुजी तथा श्री दीनदयाल जी के संबंधों का वर्णन करने में शब्‍द असमर्थ हैं। यह बात सभी निकटवर्तियों के ध्‍यान में आती थी कि स्‍वयंसेवक, प्रचारक तथा कार्यकर्ता के नाते दीनदयाल जी से श्री गुरुजी विशेष अपेक्षा रखते थे। दोनों की 'वेवलैंथ' (वैचारिक तरंगदैर्ध्‍य) एक ही थी। किसी भी घटना पर श्री गुरुजी की प्रतिक्रिया क्‍या होगी इसकी अचूक कल्‍पना दीनदयाल जी कर सकते थे। स्‍वयंसेवकों द्वारा चलायी गयी संस्‍थाओं पर कम्‍युनिस्‍ट दल की भांति नियंत्रण रखना संघ को स्‍वीकार नहीं। जैसा कि ऊपर कहा गया है, ऐसी कोई भी संस्‍था संघ का 'फ्रंट आर्गनाइजेशन' या 'ट्रांसमिशन-बेल्‍ट' नहीं। संघ के घटक (विंग्‍स) उसके अपने स्‍वयंसेवक ही हैं। संघ का संबंध स्‍वयंसेवकों के साथ है। उनसे यह आशा की जाती है कि अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में कार्य की रचना एवं विचारों का विकास वे संघ के आदर्शों के प्रकाश में करेंगे, किंतु कम्‍युनिस्‍ट दल की भांति विभिन्‍न क्षेत्रों में काम कर रहे कार्यकर्ताओं की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने की कल्‍पना संघ की योजना में बैठती नहीं। अर्थात संघ को भी यह आशा और विश्‍वास है कि उसके अपने स्वयंसेवक सब कुछ सुयोग्‍य ढंग से ही करेंगे। श्री गुरुजी तथा पंडित दीनदयाल जी में वैचारिक समरसता होने के कारण यह अपेक्षा जनसंघ के बारे में पूर्ण होती गयी।

किंतु अवधारणा की दृष्टि से संघ और राष्‍ट्र में समव्‍याप्ति होने के कारण तथा मानसिक दृष्टि से संघ के संपूर्ण राष्‍ट्र के साथ एकात्‍म होने के कारण संघ राष्‍ट्रनीति से अलग नहीं रह सकता। राष्‍ट्रनीति के लिए राजनीति, संघ की स्‍वभाविक अपेक्षा है। राजनीति एवं राष्‍ट्रनीति के वृत एकरूप नहीं है, किंतु उनमें समव्‍याप्ति (Overlapping) भी पर्याप्‍त है। 'लोकवृत्तावाद् राजवृत्तम् अन्‍यदाह बृहस्‍पति।' राष्‍ट्र और राज्‍य की अवधारणा के भेद न जानने के कारण होने वाले वैचारिक संभ्रम को हम लोगों ने अनेक बार अनुभव किया है। राष्‍ट्र नीति के लिए राजनीति और धर्मनीति के प्रकाश में राष्‍ट्रनीति भारत की परंपरा रही है।

इस परंपरा का निर्वाह करना केवल सत्तावादी नेताओं के लिए क्‍या कभी संभव होगा? फरवरी 1963 में भारतीय जनसंघ के भोपाल में हुए अखिल भारतीय सम्‍मेलन में प्रतिनिधियों को सम्‍बोधित करते हुए पंडित जी ने कहा था- ''आज जनसंघ, प्रजासमाजवादी दल, समाजवादी दल या कांग्रेस में मतभेदों की खाई को और अधिक चौड़ी न करते हुए उसको भुलाने की आवश्‍यकता है। राष्‍ट्रद्रोही कम्‍युनिस्‍टों को अलग-थलग करना राष्‍ट्रहित की दृष्टि से आवश्‍यक है। किंतु हमारे इस प्रयास में कोई दल अथवा व्‍यक्ति पूणत: हमारे साथ न होता तो ऐसे दल या व्‍यक्ति को बार-बार कम्‍युनिस्‍ट समर्थक कहकर उसे कम्‍युनिस्‍टों के जाल में धकेल देना उचित नहीं होगा।

''गाँव-गाँव जाकर समाज में आशा एवं विश्‍वास का निर्माण करने के लिए हमें अग्रसर होना चाहिए। यह बात हमें जनता को समझानी पड़ेगी कि राष्‍ट्रद्रोही लोग पंडित नेहरू को च्‍यांग काईशेक बनाने का षड्यंत्र कर रहे हैं और ऐसी घोषणा करनी पड़ेगी कि चीन के उस दुर्भाग्‍यपूर्ण इतिहास की पुनरावृत्ति हम इस भारत भूमि में कदापि नहीं होने देंगे। हमारे सम्‍मुख पन्‍ना दाई का आदर्श है। उसने उदय सिंह के प्राण बचाने के लिए अपने हृदय पर पत्‍थर रखकर अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी थी। उत्तराधिकार के रूप में प्राप्‍त राष्‍ट्र की अस्मिता और अखंडता और विश्‍वभर में सर्वश्रेष्‍ठ भारतीय संस्‍कृति एवं जीवनदर्शन के संरक्षण के लिए हम कोई भी बलिदान करने के लिए सदैव कटिबद्ध हैं।''

पंडित जी के अमरीका प्रवास में 'फ्रेण्‍डस ऑफ इंडिया कमेटी' ने उनके सम्‍मान में एक स्‍वागत समारोह आयोजित किया था। उस समिति के अध्‍यक्ष डॉ. नॉर्मन डी. पामर ने पंडित जी का मृत्‍यु के बाद कहा - ''पंडित जी उन लोगों में नहीं थे जिनके बारे में एलेक्‍जेंडर पोप ने कहा था -

"Born for the Universe, narrowed his mind

And to party gave up what was meant for mankind."

(ब्रह्मांड के लिए जो जन्‍मा था, उसने अपना मन संकुचित बना लिया और एक दल के हाथों में वह सब दे डाला जो संपूर्ण मानव-जाति के लिए था।)

इस पृष्‍ठभूमि में पंडित जी द्वारा डा. श्‍यामबहादुर वर्मा के एक प्रश्‍न पर दिया गया भ्रमभंजक उत्तर उनकी मन:स्थिति पर प्रकाश डालने वाला है। श्री वर्मा ने पूछा था- ''दीनदयाल जी। क्‍या आपको ऐसा लगाता है कि सत्ता मिलने के बाद कांग्रेस जिस प्रकार भ्रष्‍ट हो गयी, उसी प्रकार भारतीय जनसंघ सत्ता मिलने के बाद भ्रष्‍ट नहीं होगा? पंडित जी ने उत्तर दिया था- ''सत्ता सामान्‍यत: भ्रष्‍ट करती है। इस संबंध में पूरी दक्षता बरतने के बाद भी जनसंघ में यदि भ्रष्‍टाचार आ जाता है तो हम उसे विसर्जित कर दूसरे जनसंघ का निर्माण करेंगे और उससे भी काम न बना तो तीसरे जनसंघ का निर्माण करेंगे और यही क्रम चलता रहेगा। भगवान परशुराम ने 21 बार राजाओं का संहार किया था। आदर्श राजा के रूप में अंत में रामचंद्र सामने आए। रामराज्‍य की स्‍थापना के बाद परशुराम ने वन की ओर प्रस्‍थान किया। हम भी अपने द्वारा निर्मित संस्‍थाओं के बारे में मोह क्‍यों रखे? छोटा बच्‍चा गाजर के साथ खेलता रहता है और जब खिलौने के रूप में उसका उपयोग समाप्‍त हो जाता है तो उसे खा डालता है। अपने ही हाथों से निर्मित संस्‍था भी जब राष्‍ट्रहित के विरोध में कार्य करेगी तो ऐसी स्‍वनिर्मित संस्‍था का विनाश करना धर्म ही होता है। राष्ट्र सर्वश्रेष्‍ठ है संस्‍था नहीं।'' सत्ता-पिपासु राजनीतिक नेता भला क्‍या कभी ऐसा कह सकता है?

भारतीय राष्‍ट्र पुरुषों की मानसिकता का आकलन कर पाना पश्चिमी राज्‍य शास्‍त्रवेत्ताओं एवं उनके भारतीय शिष्‍यों के लिए कठिन होता है। किंबहुना, अपने मापदंड से मूल्‍यांकन करने पर वे यदि इस निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि ऐतिहासिक भारत का नेतृत्‍व करने वालों में पागल लोगों की संख्‍या अधिक होती है, तो कोई आश्‍चर्य नहीं।

रामचंद्र और भरत में चित्रकूट पर्वत पर अयोध्‍या के राज के स्‍वामित्‍व के बारे में विवाद हुआ। प्रत्येक का दूसरे से कहना था कि यह तुम्‍हारा है मेरा नहीं और तुम्‍हें ही इसे संभालना है। नव शिक्षित भारत की किसी नगरपालिका के एकाध वार्ड के लिए भी ऐसा विवाद सुनाई नहीं देगा।

साम्राज्‍यसत्ता के एक प्रत्‍याशी की एक मां ने भगवान से प्रार्थना की कि मुझ पर और मेरे पुत्र पर सदा संकट आते रहें ताकि हम सबको तुम्‍हारा स्‍मरण सदैव होता रहेगा। ऐसी प्रार्थना करने के लिए आज एक ग्राम पंचायत के प्रत्‍याशी की मां भी तैयार नहीं होगी।

अपने कर्तव्य से स्‍थापित साम्राज्‍य का प्रधानमंत्री पद स्‍वयं दूसरों को सौंपकर हिमालय का मार्ग पकड़ने वाले को आज पागलखाने में भरती करने योग्‍य ही माना जाएगा।

हिंदवी स्‍वराज्‍य हो, यह 'श्री' की इच्‍छा है। यह 'श्री' कौन है? चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित मतदाताओं की सूची में उसका नाम नहीं मिलता जिसे एक मत देने का अधिकार भी न हो उस 'श्री' की इच्‍छा का क्‍या महत्‍व है?

''मुख्‍य है हरिकथा-निरुपण, दूसरा राजकारण''

यह एक संत वचन है। अब यदि संसार की सारी बातें सत्ता के माध्‍यम से ही प्राप्‍त होती हैं, तो उस सत्ता की ओर सीधे दौड़ लगाना छोड़कर बीच में ही यह हरिकथा-निरुपण की झंझट किसलिए ?

''सकल सुखों का त्‍याग करके साध्‍य करें यह योग।

राज्‍य साधना का उद्योग करना चाहिए।''

ऐसा कहना भी कितनी मूर्खता है। सकल सुखों का भोग लेना हो तो राज्‍य की आवश्‍यकता होती है। उसे योग की संज्ञा देना और उसके लिए सुखी जीवन को दुख में डालने की सीख देना क्‍या पागलपन का लक्षण नहीं है? 'राजा प्रजा का उपभोग शून्‍य स्‍वामी है।' 'राज्‍य का भोग अर्थात राज संन्‍यास।' इन दोनों व्‍याख्‍याओं में जो अंतर्विरोध है, वह आज मैट्रिक फेल लड़के की समझ में सरलता से आएगा।

आधुनिक वातावरण की दृष्टि से इन सब विचार-परंपराओं का उपहास होना स्‍वाभाविक है किंतु साथ ही यह भी सच है कि भारत की श्रेष्‍ठता एवं चिरंतनता प्रस्‍थापित करने के कार्य में ऐसे पागल लोगों और उनके लोगों द्वारा स्‍थापित जीवनमूल्‍यों का योगदान सबसे बड़ा है। ऐसे लोगों के आचरण के बारे में अचूक अनुमान लगाना आज के प्रगतिशील लोगों के लिए भी कठिन होगा। 'तुम ही अपना बनाओ राजा, शीघ्र हमारे जीते जी' - ऐसा वर देवी से मांगने वाले समर्थ रामदास स्‍वामी प्रत्‍यक्ष में शिव राज्‍याभिषेक के अवसर पर रायगढ़ में क्‍यों उपस्थित नहीं थे? उसी प्रकार 1967 में जब विभिन्‍न संविद सरकारों में जनसंघ के मंत्रियों का शपथ-ग्रहण समारोह हो रहा था, तब हम सज्जनगढ़ ही रहते हैं, शिवाजी का कौतुक देखते हैं।'' - इसी भावना से अजमेरी गेट कार्यालय में रहने वाले दीनदयाल की तटस्‍थता भी नई पीढ़ी के लिए अनाकलनीय ही रहेगी।

इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्‍लेखनीय है-

कालीकत का अधिवेशन हुआ था। जनसंघ के कुछ नेताओं के साथ पंडित जी बंगलोर से डोडा बल्‍लापुर पहुँचे थे। वहाँ संघ का शिविर लगा था और स्‍वयं श्री गुरुजी शिविर में उपस्थित थे। सायंकाल श्री गुरुजी का बौद्धिक वर्ग होना था। कितु उससे पूर्व चायपान के समय श्री गुरुजी ने कहा, ''अब दीनदयाल बोलेंगे।'' इस पर सभी चकित रह गए। एक ने कहा, ''शिविर में सब लोग आपके मार्गदर्शन के लिए एकत्र हैं। श्री गुरुजी ने कहा, ''नहीं भाई। दीनदयाल जी ही बोलेंगे।'' इस पर किसी ने कहा, '' वे तो जनसंघ के अध्‍यक्ष हैं।'' इस पर श्रीगुरुजी ने तुरंत कहा, ''नहीं, दीनदयाल संघ स्‍वयंसेवक है, वह स्‍वयंसेवक के नाते बोलेंगे, जनसंघ के अध्‍यक्ष के नाते नहीं।'' और श्री गुरुजी की उपस्थिति में पंडित जी का ही बौद्धिक हुआ। इस घटना पर और भाष्‍य करने की आवश्‍यकता नहीं।

जनसंघ के ध्‍येय तथा नीति के प्रमुख शिल्‍पी दीनदयाल जी ही थे।

अत: प्रगतिशील (?) दलों के चिंतन में पाया जाने वाला संभ्रम, परस्‍पर विसंगति एवं अंतर्विरोध अखिल भारतीय जनसंघ में नहीं पाया जाता। जनसंघ के ध्‍येय एवं नीति में स्‍वयं प्रतिभा, सुस्‍पष्‍टता, एवं मौलिकता का दर्शन होता है। उदाहरण के लिए 'सेक्‍यूलरिज्‍म' की परिकल्‍पना को ही लीजिए।

हमारे देश में इस शब्‍द का उपयोग जिस अर्थ में किया जाता है, उस अर्थ में विश्‍व के किसी भी देश में नहीं किया जाता। किसी भी अंग्रेजी शब्‍दकोश में 'सेक्‍यूलर' शब्‍द का ऐसा अर्थ आपको नहीं मिलेगा। वास्‍तव में पंडित नेहरू के अभिप्रेत भाव को व्‍यक्‍त करने के लिए सबसे निकट पर्याय वाला अंग्रेजी शब्‍द था- Non-denominational (असांप्रदायिक)

सेक्‍यू‍लरिज्‍म की परिकल्‍पना के बारे में संविधान-सभा में हुई परिचर्चा से लेकर हाल ही में श्री पी.सी.चटर्जी लिखित 'सेक्‍यूलर वैल्‍यूज फॉर सेक्‍यूलर इंडिया' के प्रकाशन तक पर्याप्‍त उल्‍टी-सीधी चर्चा हो चुकी है। स्वयं बाबासाहेब अम्‍बेडकर ने भी इस परिकल्‍पना का स्‍वरूप संविधान सभा के भाषण में स्‍पष्‍ट किया है।

वास्‍तव में सेक्‍यूलरिज्‍म का व्‍यावहारिक अर्थ बाइबिल के इस निर्देश में स्‍पष्‍ट है कि ''जो सीजर का हो वह सीजर को दो और जो ईश्‍वर का हो उसे ईश्‍वर को।'' स्‍मरणीय है कि प्रारंभ में भारत के संविधान में भी 'सेक्‍यूलर' शब्‍द नहीं था। सन् 1976 में पारित 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 'सेक्‍यूलर' तथा 'सोशलिस्‍ट' दोनों शब्‍दों का उसमें समावेश किया गया। पंडित दीनदयाल जी मानते थे कि हिंदू-राष्‍ट्र की अवधारणा तथा सेक्‍यूलरिज्‍म में परस्‍पर विरोध या असंगति नहीं है। हिंदुस्तान में राज्‍य संस्‍था सदैव सेक्‍यूलर रही है। हिंदू राज्‍य सेक्‍यूलर ही होता है। फर्डिनांड तथा ईजावेला के क्रूर रिलीजियस कोर्ट की परिकल्‍पना भी इस देश के वातावरण के साथ बेमेल है। सेक्‍यूलर का अर्थ निधर्मी करना गलत है। सेक्‍यूलर का अर्थ है सर्वसंप्रदायसमभावी। हिंदू कोड बिल पर संसद में बोलते हुए डॉ. बाबासाहेब अम्‍बेडकर ने कहा था, ''सेक्‍यूलर स्‍टेट का अर्थ यह नहीं है कि लोगों का धर्म भावनाओं का हम कोई विचार नहीं करेंगे। सेक्‍यूलर स्‍टेट का अर्थ केवल इतना ही होता है कि अन्‍य लोगों पर एक विशिष्‍ट संप्रदाय लादने का अधिकार इस लोकसभा को नहीं है। संविधान ने इतनी ही मर्यादा को स्‍वीकार किया है। सेक्‍यूलरिज्‍म का अर्थ धर्म को नष्‍ट करना कदापि नहीं।

हिंदू राष्‍ट्र समर्थकों की सदैव यही भूमिका रही है। पंडित जी ने भी इस सत्‍य को नाना दृष्‍टंत देकर जनता के सम्‍मुख रखा था।

प.पू. श्री गुरुजी ने बार-बार स्‍पष्‍ट किया है कि हिंदू इतिहास में राज्‍य (स्‍टेट) सदैव सेक्‍यूलर ही रहा है। हिंदुओं का स्‍टेट सेक्‍यूलर स्‍टेट है। हिंदू 'रिलीजन' नहीं है, वह राष्‍ट्रवाचक शब्‍द है। उसमें भी बढ़कर महत्‍वपूर्ण बात यह है कि हिंदू अवधारणा बहुआयामी तथा अनेक पहलूवाली है। फलस्वरूप संकीर्ण पश्चिमी प्रणाली के अनुसार किसी परिभाषा की चौखट में उसे सीमित करना वास्‍तविकता से परे होगा। पूज्‍य महात्‍मा जी ने भी स्‍पष्‍ट कहा था, 'हिंदुत्व में जीसस के लिए भी पर्याप्‍त स्‍थान है और उसी प्रकार मुहम्‍मद जरथ्रुस्‍त्र तथा मोजेस के लिए भी।''

अहिंदुओं से यह अपेक्षा उचित ही है कि यहाँ की राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के साथ वे एकात्‍म हों और फलस्वरूप हमारे राम, कृष्‍ण आदि राष्‍ट्रीय महापुरुषों के प्रति उनके मन में वैसा ही आदर हो जैसा कि पिरामिड के निर्माताओं के बारे में मिस्री, एटिल्‍ला के बारे में तुर्की अथवा दरायस के विषय में ईरानी मुसलमानों के मन में है।

इस संदर्भ में श्री अर्नाल्‍ड ने कहा है, ''हिंदू धर्म यह मानकर चलता है कि सत्‍य और मुक्ति की ओर जाने के मार्ग अनेक हैं। उसे यह भी मान्‍य है कि ये विभिन्‍न मार्ग केवल एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु परस्‍पर पूरक हैं।''

सर्वोच्‍च न्‍यायालय के पूर्व मुख्‍य न्‍यायाधीश श्री गजेन्‍द्र गडकर का निम्‍न अभिप्राय चिंतनीय है-

''…विश्‍व के अन्‍य धर्म संप्रदायों की भांति हिंदू धर्म किसी एक ही देवदूत का दावा नहीं करता, किसी एक ही ईश्‍वर की पूजा नहीं करता। किसी एक ही दा‍र्शनिक अवधारणा का वह अनुगामी नहीं है। पूजा-विधि एवं धार्मिक आचार का एक ही सांचा उसे स्‍वीकार नहीं। वास्‍तविकता यह है कि हिंदू धर्म किसी भी धर्म या संप्रदाय के पारंपरिक संकीर्ण अंगों को पूर्ण नहीं करता। हिंदू धर्म का वर्णन बहुत ही हो तो एक जीवनधारा के रूप में किया जा सकता है। ...भारतीय दर्शन के इतिहास में यह निष्‍कर्ष निकलता है कि हिंदू धर्म का विकास सदैव सत्‍य की अनंत खोज से हुआ है। वह इस बोध पर आधारित है कि सत्‍य के अनेक पक्ष होते हैं। सत्‍य एक ही है किंतु सुज्ञ लोग उनका वर्णन अलग-अलग ढंग से करते हैं। (एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति।)''

''किसी भी भारतीय समुदाय के अनुयायी का सबसे बड़ा अपराध है अन्‍य संप्रदायों की यह मानकर आलोचना करना कि मानो वे सनातन धर्म की कक्षा से बाहर हैं। उचित व्‍याख्‍या करने पर बुद्ध, इस्‍लाम, क्रिश्चियन, कन्‍फयूशियन आदि सब धार्मिक संप्रदायों की जड़ में वेदों की प्रामाणिकता ही है।''

इस दृष्टि से हुमायूं कबीर द्वारा उद्धृत के. विलियम का निम्‍न अभिप्राय चिंतनीय है :-

''मनुष्‍य की -अन्‍त: प्रवृत्तियों एवं आचरण के जितने क्रियाकलाप होंगे, सत्‍य एवं वास्‍तविकता के उतने पक्ष (पहलू) अवश्‍य होंगे। हिंदू मानस्किता की सहिष्‍णुता का उद्गम इस अन्‍त: प्रवृत्ति की विपुलता एवं अन्‍य प्रवृत्तियों से प्रकट होने वाले वस्‍तु सत्‍य के विशिष्‍ट पहलू को उसके द्वारा दी गई मान्‍यता में खोजा जा सकता है। यूरोपीय तत्‍व ज्ञान का रुझान परस्‍पर विरोधी वर्गों को अमान्‍य करने की ओर है और स्‍पष्‍ट विभाजन करते समय एक ही अंतिम सत्‍य को प्रतिस्‍थापित करने की दिशा में तथ्‍यों की व्‍याख्‍या करने का प्रयास यूरोपीय चिंतन ने किया है। हिंदू शास्‍त्र ने अनेक भूमिकाओं एवं सत्‍य की अनेक श्रेणियों को स्‍वीकार किया है। किसी को भी नकारा नहीं है। संपूर्ण सत्‍य तथा संपूर्ण असत्‍य निश्चित करने की दृष्टि से यूरोपीय चिंतन को एक तीव्रता तथा उद्रेक प्राप्‍त हुआ है। किंतु यूरोपीय लोगों को सत्‍य की ओर देखने की दृष्टि को आग्रही तथा संकीर्ण बनाने में भी इस चिंतन ने पर्याप्‍त योगदान किया है। दूसरी ओर, प्राचीन काल से ही भारतीय दर्शन की मान्‍यता रही है कि सत्‍य के अनेक पक्ष होते हैं और उनको केवल परस्‍पर-विरोधी वर्गों में बाँटकर समझाया नहीं जा सकता। भारतीय दर्शन ने सत्‍य की श्रेणियों को इतनी अधिक संख्‍या में स्‍वीकार किया है कि यूरोपीय परमार्थ-चिंतन में उनका सानी रखने वाला कुछ भी नहीं पाया जाता।''

वाह्यत: विसंगत एवं सरकार विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म-मतों की श्रद्धाओं का समन्‍वय और समभाव करने की हिंदू संस्‍कृति की यह क्षमता ही इस संस्‍कृति को अन्‍य किसी की बात की अपेक्षा अधिक चेतना एवं जीवनसातत्‍य देती रही है। भिन्‍नताओं को समा लेने का और विविधताओं के साथ जीने को यह गुण मानव इतिहास में बेजोड़ ही माना जाएगा।''

प.पू. श्री गुरुजी को हिंदुत्व का यही वास्‍तविक अर्थात सर्वव्‍यापी तथा समावेशक स्‍वरूप अभिप्रेत था। उनकी श्रद्धा थी कि आगे चलकर एकात्‍म दर्शन या प्रचलित भाषा में विश्‍व-बंधुत्‍व को हमें संपूर्ण विश्‍व में प्रतिस्‍थापित करना हो तो उस मंगल अभियान के लिए कार्य-क्षेत्र के रूप में अत्‍यंत उपयोगी होने वाला देश केवल हिंदुस्तान ही है। इसी पृष्‍ठभूमि में उनका हिंदूराष्‍ट्र की अवधारणा के बारे में आग्रह रहता है। वे कहा करते थे कि किसी मोह का शिकार होकर हम इस हिंदुत्व शब्‍द को छोड़ देते हैं अथवा इस शब्द के बारे में कोई समझौता स्‍वीकार करते हैं तो हम अपना स्‍वत्‍व एवं सर्वस्‍व खो बैठेंगे।

'हिंदुत्व और हिंदू राष्‍ट्र' का स्‍वरूप क्‍या है? इन दिनों हिंदू राष्‍ट्र या भारतीय राष्‍ट्र के प्रश्‍न पर पर्याप्‍त-चर्चा-परिचर्चा होती है। इस पुस्‍तक में भी इस विषय पर समर्थ एवं विस्‍तृत विवेचन किया गया है। यहाँ एक ही उल्‍लेख पर्याप्‍त है कि फरवरी 1956 में प्रथम सप्‍ताह में पंजाब जनसंघ समिति के सम्‍मुख बोलते हुए दीनदयाल जी ने कहा था, ''हमारे दल के जन्‍म से ही हम लोग निरंतर यह मानते आए हैं कि हिंदू राष्‍ट्रवाद का ही दूसरा नाम भारतयी राष्‍ट्रवाद है।''

भारतीय जनसंघ के कानपुर में हुए प्रथम वार्षिक अधिवेशन में डा. श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था, ''हमारा दल सभी नागरिकों को समानता देने के लिए प्रसिद्ध है, फिर भी हिंदू समाज के दृढ़ीकरण की आवश्‍यकता का प्रतिपादन करने में उसे कतई संकोच नहीं होता। साथ ही गर्व के साथ इस बात को स्‍वीकार करते हुए कि भारतीय संस्‍कृति और सभ्‍यता के भव्‍य प्रसाद की रचना मुख्‍यत: हिन्दू साधु-संतों और देशभक्‍तों के परिश्रम, त्‍याग एवं ज्ञान पर ही की गई है, हमें किसी भी प्रकार की हीन भावना का स्‍पर्श नहीं होता।''

भारतीय जनसंघ की सभी जीवन-श्रद्धाओं का अधिष्‍ठान हिंदुत्व ही है। स्‍वाभाविक रीति से दल के अध्‍यक्ष डा. श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर देहात के छोटे कार्यकर्ताओं तक सभी की जीवन श्रद्धाएँ हिंदुत्व पर अधीष्ठित थीं।

इस हिंदुत्वनिष्‍ठ भूमिका के कारण ही 'अखण्‍ड भारत' जनसंघ की पहली जीवन श्रद्धा थी। बहुत से शंकालु व्‍यक्ति प्रश्‍न किया करते थे, ''क्‍या जनसंघ यह सब कर पाएगा?'' डा. श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी इस बारे में कहते थे। ''अखंड भारत हमारे लिए केवल चुनाव-घोषणा पत्र नहीं अपितु वह जीवन श्रद्धा है। अनेक कांग्रेस जनों ने मुझसे पूछा है कि जनसंघ भारत और पाकिस्‍तान को फिर से एक कैसे कर पाएगा, यह ठीक-ठीक बताइए। मैंने उनसे उलटा पूछा, 'कांग्रेस ने जब स्‍वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्‍य का प्रथम उद्घोष किया था, तब क्‍या किसी ने यह कहा था कि स्‍वतंत्रता का यह आंदोलन ठीक-ठीक किस मोड़ से होकर जाएगा? यह सांप्रदायिक प्रश्‍न नहीं है। यह राष्‍ट्रीय एवं राजनीतिक प्रश्‍न है। ह‍मारे पौरुष एवं मानवता दोनों के लिए यह एक चुनौती है। भारत देश भौगोलिक, सांस्‍कृतिक तथा आर्थिक दृष्टियों से एक है और वह सदा एक ही रहता आया है। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के गठबंधन से हमारी मातृभूमि पर हुए अन्‍याय को दूर करने और मातृभूमि को उसकी स्‍वाभाविक अवस्‍था प्राप्‍त करा देने का हम लोगों का संकल्‍प है।''

इससे यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वैचारिक दृष्टि से जनसंघ का गोत्र क्‍या था। इसे भली-भाँति समझते हुए भी मद्रास के डा. वी.के जॉन जैसे नेता जनसंघ में सम्मिलित हुए, यह घटना विचारणीय है।

यह मौलिकता और स्‍वतंत्र प्रतिभा जनसंघ के विचारधारा में भी दिखाई देती है।

पंडित जी भली-भाँति जानते थे कि केवल योग्‍य विचारों के निर्माण, विकास, प्रतिपादन एवं प्रचार के भरोसे ही कोई भी दल सुदृढ़ नहीं हो जाता। उनके मन में इसके लिए जो प्रक्रियाएँ थीं उनमें प्रत्‍येक कार्यकर्ता का प्रयासपूर्वक निर्माण, इस प्रकार संस्‍कारित कार्यकर्ताओं की प्रत्‍येक स्‍तर पर एक टोली (टीम) बनाना, इस कार्यकर्ताओं के माध्‍यम से जन-संपर्क , जन-जागरण, जन-शिक्षा, जन-संगठन तथा जन आंदोलन आदि कार्यक्रम करते हुए उनके फलस्‍वरूप एक ओर दल के वृक्ष की जड़ें गहरी जमाते जाना और दूसरी ओर लक्ष्‍य-प्राप्ति के आकाश की ओर उसकी शाखाओं को अधिकाधिक ऊँचा उठाते जाना सम्मिलित था।

प्रचार का महत्‍व तो होता ही है, किंतु उससे भी महत्त्वपूर्ण बात होती है शिक्षण की तथा उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात होती है- विशेषत: कार्यकर्ताओं की दृष्टि में-संस्‍कार। योगी अरविन्‍द ने कहा है, ''प्रेरकता सच्‍चा कार्य है। यथार्थ में प्रेरणा देने वाले एक शब्‍द का ही उच्‍चार हो तो सूखी हड्डियों में चेतना का संचार हो जाएगा। प्रेरणादायी जीवन हो तो उसके परिणामस्‍वरूप हजारों कार्यकर्ताओं का निर्माण होगा।'' कार्यकर्ता को संस्‍कारित करने के लिए सर्वोत्‍कृष्‍ट साधन, नेता का अपना जीवन तथा उसका कार्यकर्ता के साथ नित्‍य, अनौपचारिक एवं पारिवारिक संबंध होता है। उसके लिए एक-एक कार्यकता के साथ निजी संपर्क, कार्यकर्ताओं के छोटे-छोटे समूह बनाकर उनकी बैठकें लेना, मुक्‍त भाव से प्रश्‍नोत्तर करना, अभ्‍यास वर्गों का आयोजन करना और बड़े समाचार-पत्रों में किए जाने वाले धुआँधार प्रचार के अतिरिक्‍त अपने मित्रों द्वारा चलायी जा रही पत्र-पत्रिकाओं एवं दल के साहित्‍य द्वारा कार्यकर्ताओं के शिक्षण की व्‍यवस्‍था करनी पड़ती है। ये भी संस्‍कार करने के ही माध्‍यम होते हैं। एक-एक कार्यकर्ता के स्‍वभाव, उनकी कार्य-प्रेरणाओं तथा विभिन्‍न कार्यकर्ताओं के आपसी संबंध की जानकारी रखना भी आवश्‍यक होता है। इसी में से कब, कहाँ कौन सी योजना की जाए इसका अचूक निर्णय लेने की क्षमता उत्‍पन्‍न होती है। कार्यकर्ता किस परिस्थिति में है और उसे कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, इसकी जानकारी लेकर तत्‍परता के साथ उचित मार्गदर्शन करने और उसके कार्य का योग्‍य मूल्‍यमापन करने की भी आवश्‍यकता होती है।

नेता का व्‍यवहार ऐसा होना चाहिए कि प्रत्‍येक कार्यकर्ता के मन में यह विश्‍वास अपने आप-बिना वैसा कहे-निर्मित हो कि संगठन के अंतर्गत काम करने वाले कार्यकर्ताओं को नेता से सदैव योग्‍य न्‍याय ही मिलेगा और कार्यकर्ताओं का मूल्‍यमापन उनकी ध्‍येयनिष्‍ठा, गुणवत्ता तथा कतृत्‍व की कसौटियों पर ही किया जाएगा। व्‍यक्ति रुचि या अरुचि (पसंद-नापसंद) को ऐसे निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं होगा। नेता के ऐसे व्‍यवहार से ही कार्यकर्ताओं के मन में देश के सार्वजनिक जीवन में दुर्लभ होते जा रहे ध्‍येतानुकूल जीवन मूल्‍यों की प्रतिष्‍ठापना होगी और तदनुसार स्‍वकेंद्रित नहीं वरन् संगठन-केंद्रित विचार करते रहने का संस्‍कार उन्‍हें मिलेगा। व्‍यक्तिगत उपक्रमशीलता का विकास एवं संगठन की मर्यादाअमों का पालन करते हुए समन्‍वय करने वाला लचीला अनुशासन ऐसे ही व्‍यवहार से आता है। नेता को अपने आचरण के द्वारा यह भी सीख देनी होती है कि व्‍यक्तिगत सुविधा-असुविधा के बारे में कोई आग्रह न रखा जाए और सिद्धांत के बारे में किसी से भी कोई समझौता स्‍वीकार न किया जाए। कार्यकर्ताओं में यह बोध जगाने के कारण कि ध्‍येयनिष्‍ठा आकाश के तारों के साथ प्रेम पड़ने का दीवानापन है, प्रदीर्घ काल तक निरपेक्ष बुद्धि से लगातार काम करते रहने की कार्यकर्ताओं की मानसिक तैयारी होती है। ऐसे कार्यकर्ताओं के केवल बोलने से नहीं, अपितु प्रत्‍यक्ष आचरण से उनके संपर्क में आने वाले लागों के मन में दल के प्रति विश्‍वास पैदा होता है। इसी में से प्रत्‍यक्ष सदस्‍यता एवं सहानुभूति रखने वाले लोगों का पहला वृत्त बनता है। इसी में से आगे चलकर 'उपकारक अलिप्‍तता का क्षेत्र' उत्‍पन्‍न होता है। यह सब मिलाकर दल संगठन के लिए आवश्‍यक पूर्वसिद्धांत पूर्ण होती है। बिना इस पूर्व तैयारी के केवल धुआँधार प्रचार और नेता की छवि-निर्माण करने के आधार पर दल के प्रभाव को बढ़ाने के प्रयास वैसे ही होते हैं जैसे कि धरती पर जड़ न रखने वाली पतंग का आकाश में मंडराना।

पंडित जी का स्‍पष्‍ट मत था कि पूर्वसिद्धता ठीक करने के बाद ही आवश्‍यकता के अनुसार धुआँधार प्रचार तंत्र कभी-कभी स्‍वीकार किया जा सकता है। किंतु उस कार्य को सफलतापूर्वक करना हो तो ऐसी पूर्वसिद्धता के बिना वह भी संभव नहीं हो पाता। कन्‍फ्यूसियस ने कहा है, ''सत्ता प्राप्ति का एक मार्ग है- लोगों को जोडि़ए और यह मानकर चलिए कि लोग आपके साथ हो गए हैं।'' इतना ही नहीं अपितु ऐसी पूर्वसिद्धता के बिना कार्यकाले समुत्‍पन्‍ने दल को धन और जन प्राप्‍त भी हो तो उनका पूर्ण और उचित उपयोग नहीं किया जा सकता। ऐसी शास्‍त्रशुद्ध ढंग से दल के संगठन कर नींव डालने का काम पंडित जी ने किया। वे एक कुशल संगठक तो थे ही किंतु एक श्रेष्‍ठ विचारक के नाते उनके जीवन का दूसरा पक्ष जनता के सम्‍मुख इतनी प्रखरता से आया कि लोगों ने एक संगठक की उनकी भूमिका को भुला दिया। एक विचारक की भूमिका में उनकी संगठक की भूमिका के साथ यह एक प्रकार से अन्‍याय ही किया।

एक बार श्री गुरुजी ने कहा था, ''हम लोग संगठनशास्‍त्र के विशेषज्ञ हैं।''

राजनीतिक दल का संगठन करने के क्षेत्र में पंडित जी ने श्री गुरुजी के इन शब्‍दों को पूर्णत: सार्थ‍क कर दिखाया।

दल का संगठन खड़ा करने की प्रक्रिया में एक महत्‍वपूर्ण भाग होता है, प्रत्‍येक स्‍तर पर कार्यकर्ताओं की सुसंवादी टोली या कार्यदल (टीम) तैयार करना। इस टीम के जो कार्यकर्ता एक ही ध्‍येयनिष्‍ठा के पथिक हैं, वे ध्‍येय-प्राप्ति की लगन से वे प्रज्‍वलित होते हैं। एक ही ध्‍येय के पुजारी और एक ही मार्ग के पथिक होने के कारण एक-दूसरे के प्रति प्रेम और विश्‍वास को लेकर वे चलते हैं। ऐसे सुसंवादी टीम को नेपोलियन ने Mastermind Group कहा था। संगठन की शक्ति का मर्म यही है कि इस टोली के कार्यकर्ताओं की संख्‍या बढ़ती जाए और प्रत्‍येक कार्यकर्ता की ध्‍येयनिष्‍ठा एवं गुणवत्ता का निरंतर विकास होना चाहिए। पंडित जी इस बारे में अखंड सतर्क रहा करते थे कि ऐसे समूह का प्रत्‍येक स्‍तर पर निर्माण हो और वह संख्‍यात्‍मक एवं गुणात्‍मक दोनों दृष्टियों से निरंतर बढ़ता जाए। संख्या एवं गुणात्‍मकता के अनुपात का मार्गदर्शक उदाकरण नेपोलियन के इन शब्‍दों में पाया जा सकता है- ''आज के से ही सुंदर प्रशियन सेना मं 1:3 और मौण्‍टमिरेल के 1:6 के अनुपात में थे।''

गुरु गोविंद सिंह ने कहा था, ''सवा लाख से मैं एक लड़ाऊं।'' इसके लिए पंडित जी सम्‍मेलन अधिवेशन आदि प्रकट सार्वजनिक समारोहों की अपेक्षा, एक एक कार्यकर्ता के साथ अनौपचारिक बातचीत करने से लेकर अभ्‍यास-शिविरों तक कार्यकर्ता-निर्माण करने के सभी कार्यक्रमों को अधिक महत्त्व देते थे। 27 जून 1959 से पुणे में लगे 10 दिन के अखिल भारतीय अभ्‍यास-शिविर का आज भी महाराष्‍ट्र के कार्यकर्ताओं को स्मरण है। उससे पूर्व सन्1957 में 8 अगस्‍त से 18 अगस्‍त तक छत्तीसगढ़ बिलासपुर में एक अखिल भारतीय अभ्‍यास शिविर आयोजित किया गया था। इन सभी अभ्‍यास शिविरों में कार्यकर्ता तैयार करने की दृष्टि से विशेष सर्तकता बरती जाती थी। विविध बैठकों में इसी पर विशेष बल दिया जाता था। इन सब का फल पंडित जी के जीते जी ही दिखाई देने लगा था। सभी स्‍तरों पर कार्यकर्ताओं के दल तैयार होने लगे थे। उनके कार्यकर्ताओं का गुणात्‍मक विकास तो हो ही रहा था उस गुणात्‍मकता के साथ ही प्रत्‍येक कार्यदल (टीम) के कार्यकर्ताओं की संख्‍या भी बढ़ती जा रही थी।

पंडित जी लोकतंत्र के कट्टर समर्थक थे, किंतु उन्‍हें यह स्‍वीकार नहीं था कि लोकतंत्र पाश्‍चात्‍य पद्धति का ही हो। भारतीय परंपरा के साथ सुसंगत रहने वाला लोकतंत्र उन्‍हें अभिप्रेत था। भारत सबसे विशाल लोकतंत्र है, किंतु उन्‍हें दुख था कि उसे सबसे श्रेष्‍ठ लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। लोकतंत्र की सफलता के लिए लोकशिक्षण को वे अनिवार्य मानते थे। दल-संगठन एवं जन-आंदोलन का प्रभाव अंत में लोकशिक्षण के स्‍तर पर ही निर्भर होता है। लोक शिक्षण का अर्थ केवल प्रचार नहीं होता। आत्‍मप्रशंसा तथा दूसरों की निंदा दलगत प्रचार के मुख्‍य आधार हाते हैं। किंतु पंडित जी मानते थे कि उसके कारण लोकतंत्र सफल नहीं होगा। अत: दल के कार्यकर्ताओं के शिक्षण के साथ ही पंडित जी जन-शिक्षण का भी आग्रह रखते थे। वे कहा करते थे कि रचनात्‍मक विचार करने वाले दलों एवं नेताओं की संख्‍या प्रतिदिन कम होती जा रही है और यह बात लोकतंत्र के भविष्‍य की दृष्टि से चिंताजनक है। लोगों के स्‍तर पर आकर उनकी समझ में आने वाली भाषा में विषय का प्रतिपादन करना पंडित जी की विशेषता थी।

उदाहरण के लिए, एक बार अल्‍पशिक्षित श्रोताओं के सम्‍मुख 'संस्‍कृति का अर्थ क्‍या है?' - यह कठिन विषय रखने का दायित्‍व उन पर आया। उस समय उन्‍होंने एक उदाहरण दिया। उन्‍होंने कहा ''हर मनुष्‍य को किसी न किसी समय जमुहाई आती ही है। वह स्‍वाभाविक ढंग से आ जाए, तो वह है प्रकृति: किंतु जानबूझकर मुँह टेढ़ा-मेढ़ा कर मुँह से ऊँची आवाज निकालना है विकृति। कतई कोई आवाज एवं प्रदर्शन के बिना जमुहाई करते समय मुँह के आगे रूमाल धरना, यह हुई संस्‍कृति।'' इतने सरल शब्‍दों में कठिन विषय को प्रस्‍तुत करने की कला पंडित जी को अवगत थी। वे उत्तम लोकशिक्षक थे। किंतु वे सोचते थे कि केवल सत्ता के पीछे दौड़ने वाला राजनीतिक व्‍यक्ति यथार्थ में लोक-शिक्षण का काम नहीं कर सकेगा। जिसे सत्तारूढ़ होने की कतई इच्‍छा नहीं, वही हार्दिकता से लोकशिक्षा का काम कर सकेगा।

यथार्थ में लोकशिक्षण का काम राजनीतिक नेताओं के लिए सुविधाजनक नहीं होता। उदाहरण के लिए आज पश्चिम में और इसीलिए भारत में भी भौतिकता प्रधान अधिकारवाद का बोलबाला है। इस प्रवाह का सामना करते हुए कर्तव्‍य-धर्म का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करने वाले केंट, कार्लाइल मानस का रुझान अधिकारवाद की ओर है। अत: भारतीय सुशिक्षित लोग भी अधिकारवादी ही हैं। विचार की इस लहर के विरुद्ध खड़े होकर भारतीय संस्‍कृति के कर्तव्‍यधर्म के विचार का दो टूक प्रतिपादन करना इतना सरल नहीं था। किंतु सस्‍ती लोकप्रियता की कीमत देकर भी पंडित जी ने कर्तव्‍यधर्म की घोषणा की। ऐसे लोकशिक्षण के अभाव में, जैसा कि बिल ट्यूरेण्‍ट ने कहा है, क्रांतिकारी सफल हो गए तो वे उन्‍हीं लोगों की नीति एवं मार्ग का अनुसरण करते हैं जिन्‍हें उन्‍होंने अपदस्‍थ किया होता है।

जन-नेता अपने राष्‍ट्र का सजग प्रहरी होता है। वह जागता है इसीलिए अन्‍य लोग आराम की नींद सो सकते हैं। स्‍वतंत्रता-प्राप्ति के बाद थोड़े ही समय में श्री गुरुजी एवं अन्‍य देशभक्‍तों को भारत में काम करने वाली विदेशी गुप्‍तचर संस्‍थाओं की गतिविधियों के बारे में चिंता लगने लगी थी और उसे उन्‍होंने प्रकट भी किया था। मतों की याचना करने वाले सत्तारूढ़ एवं विपक्षी दलों को भी लगता था कि राजनीतिक क्षेत्र में इस प्रश्‍न को स्‍पर्श करना एक मर्म-स्‍थान पर उठे फोड़े को धक्‍का लगाने जैसा होगा। कारण ऐसी गुप्‍तचर संस्‍थाओं की गतिविधियाँ देशद्रोही होने पर भी उन सबके इकट्ठा मतों की 'लाबियाँ' उस समय विद्यमान थीं और उन्‍हें दुख पहुँचाना सत्ताकांक्षी लोगों के लिए सुविधाजनक नहीं था। राजनीतिक क्षेत्र में पंडित जी ऐसे पहले नेता थे जिन्‍होंने विशुद्ध राष्‍ट्र हित की भावना से प्रेरित होकर वोट बैंकों की परवाह न करते हुए इस प्रश्‍न पर आवाज उठायी। उस समय उनकी बातें राजनीतिक क्षेत्रों में अरण्‍य-रुदन के समान लगती थीं। इस संबंध में उचित पग उठाने का मुख्‍य दायित्व सरकार पर था, किंतु पंडित जी की मृत्‍यु तक और उसके पश्‍चात् भी सरकार ने इन चेतावनियों की ओर कोई ध्‍यान नहीं दिया। संवेदनशील विषय होने के कारण धैर्य से काम लेना आवश्‍यक है। किंतु अंत में सरकार की निष्क्रियता असहनीय होने के कारण 20 नवम्‍बर 1972 को जनसंघ ने प्रकट रूप से माँग की कि भारत में विद्यमान सभी विदेशी गुप्‍तचर संस्‍थाओं की गतिविधियों की जाँच करने के लिए आयोग नियुक्‍त किया जाए। प्रकट प्रस्‍ताव बाद में हुआ। किंतु इस प्रश्‍न को राजकीय मंच से वाणी देने का काम सर्वप्रथम पंडित जी ने ही किया, यह बात उन‍की विशुद्ध मातृशक्ति, दूरदर्शिता एवं अखंड सावधानवृत्ति‍ का परिचय देने वाली है। संभाजी राजा को लिखे पत्र में समर्थ रामदास ने आग्रहपूर्वक लिखा, अखंड सावधान रहिए।'' यह सावधानता रखने वाला ही सफल संगठक, संघर्षकारी एवं लोकशिक्षक बन सकता है।

6 मार्च 1953 को दिल्‍ली में कश्‍मीर-सत्‍याग्रह प्रारंभ हुआ। देश की अखंडता के लिए जम्‍मू की प्रजा परिषद् द्वारा प्रारंभ किया गया यह आंदोलन जनसंघ ने अपने हाथ में लिया और उसे देशव्‍यापी स्‍वरूप दिया। 11 मई को डा. श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी ने जम्‍मू में प्रवेश कर अपने आपको गिरफ्तार करवा लिया और 23 जून को वे राष्‍ट्र की बलिवेदी पर चढ़ गए। पंडित जी के कार्यकाल का यह प्रथम आंदोलन था। इस सत्‍याग्रह में 11 हजार लोगों ने भाग लिया था।

नेतृत्‍व के लिए आवश्‍यक अनेक गुण पंडित जी में थे। फिर भी उनका सबसे बड़ा गुण यह था कि अपने बड़प्‍पन का बोध उनके मन को कभी स्‍पर्श तक नहीं करता था। ''कमलिनी क्‍या जाने परिमल'' अथवा ''मोहे तृण बैटा दूध जैसा मीठा'' जैसी उनकी अवस्‍था थी। उनके मन में अपना विचार ही नही होता था। सामने वाले व्‍यक्ति के साथ वे देखते ही एकरूप हो जाते थे। कालीकत अधिवेशन का वर्णन करते हुए श्री पी. परमेश्‍वरन ने कहा है:-

''दीनदयाल जी अधिवेशन के स्‍थान पर मोटर में बैठकर कभी नहीं आते थे। अन्‍य प्रतिनिधियों की भाँति वे भी पैदल चलकर जाते। प्रवेशद्वार के पास रुक कर वहाँ के स्‍वयंसेवक को अपना प्रवेश-पत्र दिखाते। जहाँ ठहरे होते थे वहाँ धोबी कपड़े लेने के लिए आता तो उसे कहते, ''बैठो भाई'' इतना बड़ा नेता अपने को भाई कहता है, इसी का धोबी को आश्‍चर्य लगता था। कुछ ही दिनों में दीनदयाल जी के निधन का समाचार समाचारपत्रों में पढ़ते ही उसी धोबी की आँखों में आंसू आ गए थे।''

हिटलर ने अपनी आत्‍मकथा में कहा है, ''एक ही व्‍यक्ति में यदि तत्त्वचिंतक, संगठक एवं नेता के गुण हों, तो वह विश्‍व की अत्‍यंत दुर्लभ घटना होगी।''

पंडित जी के नेतृत्‍व-गुणों का साकल्‍य से विचार करना हो तो भगिनी निवेदिता द्वारा किए गए आद्य शंकराचार्य के नेतृत्‍व-गुणों के मूल्‍यांकन का स्‍मरण हो आना स्‍वाभाविक है। निवेदिता ने कहा था, ''शंकराचार्य जी में सेंट फ्रांसिस की भक्ति, एबेलार्ड की मेधा, मार्टिन लूथर का उत्‍साह एवं विमुक्‍तता और लोयोला के इग्‍नेशियस की व्‍यावहारिक कार्यक्षमता एकत्रित हुई थी।''

पंडित जी के बारे में यह सब बराबर लागू होता है। संस्‍मरण सैकड़ों हैं। प्रवास में सदैव दल के सामान्‍य कार्यकर्ताओं के घर उनका निवास होता और घर के लोगों को लगता कि वे अपने परिवार के ही हैं। अपनी व्‍यक्तिगत सुख-सुविधाओं के लिए कार्यकर्ता को कष्‍ट न देना उनका स्‍वभाव था। परिणामस्‍वरूप वास्‍तव में उन्‍हें क्‍या रुचितकर लगता है और क्‍या नहीं, किसी को पता ही नहीं होता था। उनकी भाषा मृदु, स्‍वभाव मधुर और आदत प्रचारक को शोभा देने वाली थी। श्री भा.कू. केलकर ने हाल ही में प्रकाशित अपने एक लेख में पंडित जी के आत्‍मविलोपी व्‍यक्ति का वर्णन 'वेदांती व्‍यक्तित्‍व' कह कर किया है, जो एकदम यथार्थ है। परिणामस्वरूप उनके सहवास में रहने वाले व्‍यक्ति को वे सदैव अपने जैसे या अपने में से ही एक लगते थे। ऐसे सभी निकटवर्तियों को पंडित जी के आकस्मिक निधन के बाद उनकी सच्‍ची महानता का मानो एकाएक साक्षात्‍कार हुआ और विकास दर्शन के कारण विभ्रांत अर्जुन के समान उनकी भी मन:स्थिति हो गयी: -

सखेति मत्‍वा प्रसभं यदुक्‍तं हे कृष्‍ण, हे यादव, हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात् प्रणेयन वाऽपि।।

वे लोग सचमुच भाग्यशाली हैं जिन्‍हें संगठनशास्‍त्र की दृष्टि से पंडित जी के सहवास में रहकर काम करने का अवसर मिला। पंडित जी के ऐसे अनेक सहयोगी आज भी राजनीति में एवं विपुल प्रसिद्धि के प्रकाश में है। उन्‍हें आज कोई भुला नहीं सकता। वे अपने-अपने नेतृत्‍व को अपने कर्तव्‍य के बल पर बनाए रखे हुए हैं किंतु कुछ प्रमुख संगठन एवं सहयोगी कार्यकर्ता आज विभिन्‍न कारणोंवश राजनीति के क्षेत्र के बाहर है। कर्नाटक के वरदराज सेठी, तमिलनाडु के वासुदेवन, महाकोशल के सुभाष बनर्जी, नागपुर के जाल गिमी, विंध्‍य प्रदेश के हुकुमचंद्र जैन, बिहार के ताराकान्‍त झा, असम के रमेश मिश्र, उड़ीसा के श्रीधर आचार्य, बम्‍बई के मधुकरराव महाजन, गुजरात के सुमंत पारीख, श्रीमती हीराबाई अय्यर आदि लोग इस श्रेणी में आते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो राजनीतिक क्षेत्र से बाहर के हैं, किंतु सार्वजनिक जीवन के कार्य कर रहे हैं। सर्वश्री रामभाऊ गोडबोले, डॉ. ओमप्रकाश मैंगी, प्रभाकरराव फैजपुरकर, पी. परमेश्‍वरन, श्रीमती सुमतिबाई सुकलीकर, लाला भगवान दास जी, गिरिराज किशोर आचार्य, ये सब लोग विविध मोर्चों पर आज सक्रिय हैं। किंतु दुर्भाग्‍य से पंडित जी के कुछ सहयोगी कार्यकर्ता इस दुनिया से उठ गए हैं। इनमें बंगाल के रामप्रसाद दास, सत्‍येन बोस, हरिपद भारती तथा रामदास कलसकर, आंध्र प्रदेश के गोपालराव ठाकुर, कर्नाटक के सौमित्री शर्मा, एम.ए. वेंकटराव तथा भाऊराव देशपांडे, दिल्‍ली के टेकचंद शर्मा, गुजरात के बसंत गजेंद्रगडकर, महाराष्‍ट्र के रामभाऊ म्‍हालगी व प्रेमजी भाई असर, विदर्भ के बबनराव देशपांडे, महाकोशल के गिरिराज किशोर, मद्रास के वी. राजगोपालाचारी तथा उत्तर प्रदेश के माधव प्रसाद त्रिपाठी आदि के नाम उल्‍लेखनीय हैं। इन सब ब्रह्मीभूत महानुभावों का स्‍मरण ऋषिऋण से अल्‍प मात्रा में ही सही, मुक्‍त होने के लिए किया गया है।

अब यह अलग से बताने की आवश्‍यकता नहीं कि इनमें से अधिकांश लोग रा.स्‍व.संघ से आए हुए हैं और यह बात स्‍वभाविक भी है। कारण, सन् 1947 के बाद देश के सभी लोग व्‍यवहार चतुर हो गए हैं। अपने घर का भोजन कर सेना की रोटियाँ सेकने के लिए जाने वाले 'पागल' लोग संघ के बाहर शायद ही मिलें।

रा.स्‍व. संघ एवं भारतीय जनसंघ के आपस में संबंध क्‍या हैं? यह प्रश्‍न बार-बार उपस्थित किया जाता है और इस विषय में दोनों के प्रवक्‍ताओं और तटस्‍थों के वक्‍तव्‍य भी कई बार प्रकाशित होते हैं। श्री ग्रेग बैब्‍स्‍टर की भाँति जनसंघ का गहन अध्‍ययन करने वाले एक अन्‍य विद्वान श्री वाल्‍टर के. एंडरसन ने अपने 'जनसंघ-आइडियालाजी एंड आर्गेनाइजेशन इन पार्टी बिहेवियर' शीर्षक अंग्रेजी प्रबंध में इस विषय में जो अभिप्राय व्‍यक्‍त किया है वह विचारकों द्वारा निकाले गए सामान्‍य निष्‍कर्षों का प्रथम निरूपण करते हैं। अपनी 'आइडियालाजी एज ए कल्‍चरल सिस्‍टम' (सांस्‍कृतिक प्रणाली के रूप में विचारधारा) शीर्षक अंग्रेजी ग्रंथ में श्री क्‍लीफर्ड ग्रीट्ज कहते हैं, ''इच्छित राजनीतिक उद्देश्‍यों की ओर जाने के लिए विचारधारा मार्गसूचक मानचित्र का काम करती है।''

श्री राबर्ट माइकेल अपनी पुस्‍तक 'पोलिटिकल पार्टीज' में कहते हैं, ''लोकतंत्रीय राजनीतिक व्‍यवस्‍था में काम करने वाले दलों में विषय राजनीतिक घटकों का अधिकतम समर्थन प्राप्‍त करने के लिए राजनीतिक लक्ष्‍य को शिथिल करने की प्रवृत्ति होती है।''

इस पुस्‍तक में राबर्ट माइकेल का एक निष्‍कर्ष लेनिन के 'व्‍हाट इज टू बी डन' शीर्षक पुस्‍तक में निकाले गए निष्‍कर्ष के साथ मिलता जुलता है। वह निष्‍कर्ष है, ''वैचारिक दृष्टि से प्रबुद्ध चुनिंदा कार्यकर्ताओं का एक अलग वर्ग समाज में काम करते हुए दल को कार्यकर्ता देता रहे तो दल की वैचारिक प्रतिबद्धता शिथिल होने की संभावना बहुत कम होती है।''

इस पृष्‍ठभूमि में श्री एंडरसन जनसंघ की दृढ़ता का निदान करता है- ''रा.स्‍व.संघ के कार्यकर्ता भर्ती कर अपनी वैचारिक भूमिका की दृढ़ता मुख्‍य कार्यकर्ताओं में भलीभांति बनाए रखने में जनसंघ सफल रहा है।''

निष्‍कर्ष रूप में श्री एंडरसन कहते हैं, ''मेरा मुख्‍य प्रतिपादन यह है कि निष्‍ठावान कार्यकर्ताओं की 'टीम' को बनाये रखने की जनसंघ की क्षमता रा.स्‍व.संघ के साथ उसके निकट संबंधों के कारण ही संभव हो पायी है।''

इस रचना के कारण संघ और स्‍वयंसेवकों के प्रभाव क्षेत्रों में काम करने वाली राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक संस्‍थाओं के संबंध क्‍या कम्‍युनिस्‍ट पार्टी और उसके अग्रपंक्ति संगठनों (फ्रंट आर्गेनाइजेशन्‍स) जैसे नहीं होंगे ? इस पर एंडरसन का निष्‍कर्ष है-

''रा.स्‍व.संघ ने अपने संलग्‍न संगठनों के साथ एक सहजीवी (Symbiotic) संबंध स्थित किया है। संलग्‍न संस्‍थाओं में काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए समाज में कार्य करने का लक्ष्‍य स्‍वीकार कर उसने अपने मूल 'शैक्षणिक' उद्देश्‍य को बनाए रखा है। गोलवलकर तथा अन्‍य वरिष्‍ठ कार्यकर्ता इस बात को जानते हैं कि यदि संघ को समाजव्‍यापी बनाने की भूमिका बनाए रखना हो तो प्रचलित राजनीतिक प्रक्रिया से उसे दूर रखना पड़ेगा और संलग्‍न संस्‍थाओं में निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलिप्‍तता रखनी पड़ेगी। रा.स्‍व.संघ का नेतृत्‍व राजनीति में आकर्षित हो जाता है तो उपदेशक 'सांस्‍कृतिक भाष्‍यकार' और 'मध्‍यस्‍थ' के नाते मान्‍यता प्राप्‍त करने के लिए अलिप्‍तता के जिस वलय की आवश्‍यकता होती है उसे वह खो देगा। इसके अतिरिक्‍त उन्‍हें सचमुच यह भय लगता है कि राजनीतिक क्षेत्र में आवश्‍यक सौदेबाजी में संघ के प्राणभूत मूल्‍यों की कट्टरता समाप्‍त हो जाएगी।''

राष्‍ट्रजीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में कार्य करने वाले स्‍वयंसेवकों से संघ को जो अपेक्षाएं रहती हैं, उनको उन्‍होंने शत-प्रतिशत पूरा किया। अपने क्षेत्र के कार्य की रचना एवं विचारों का विकास उन्‍होंने संघ-सिद्धांतों के प्रकाश में ही किया। सामान्‍य मनुष्‍य को यह मोह होता है कि अपने क्षेत्र में शीघ्र यश प्राप्‍त करने के लिए उसमें पहले से चली आ रही आदतों एवं रीति-नीतियों को अंगीकार कर लें। पंडित जी ऐसे मोह के शिकार कभी नहीं हुए। उन्‍होंने राजनीतिक क्षेत्र में संघ-संस्‍कारों के लिए अनुकूल पद्धति एवं रीति-नीतियों का सूत्रपात किया। वे जानते थे कि इसके परिणामस्वरूप तात्‍कालिक यश-प्राप्ति में बाधा आएगी। किंतु उनके सोचने का ढंग यह था कि दूसरों द्वारा अस्‍वच्‍छ किए गए कार्य-क्षेत्र को स्‍वच्‍छ एवं परिष्‍कृत करना अपना काम है। उसके कारण कार्यसिद्ध में विलंब हो जाए तो भी चल सकता है। राजस्‍थान में ऐसी स्थिति उत्‍पन्‍न हो गई थी कि जमींदारी उन्‍मूलन के संबंध में जनसंघ अनी भूमिका पर अटल रहता है तो उसकी तत्‍काल बड़ी हानि होगी और इस सिद्धांत के साथ समझौता कर ले तो वह हानि टल सकती है। उस समय दल को तत्‍काल लगने वाले आघात को स्वीकार करते हुए भी पंडित जी ने सिद्धांत के साथ समझौता करने से स्‍पष्‍ट इंकार कर दिया और उसके परिणामस्वरूप होने वाली हानि को स्‍वीकार कर लिया। अनेक लोगों को इस घटना क्रम का स्‍मरण होगा। इसी प्रकार के अन्‍य कठोर निर्णय उन्‍हें करने पड़े थे।

ध्‍येयनिष्‍ठा, विचारों की स्‍पष्‍टता एवं दूरदर्शिता तीनों गुणों का संगम पंडित जी में हुआ था, अत: वे जानते थे कि अशास्‍त्रीय शीघ्रता के कारण अक्षम्‍य विलंब ही होता है। श्री गुरुजी के 'धीरे-धीरे शीघ्रता करो' वाले मार्गदर्शन का रहस्‍य उन्‍होंने आत्‍मसात कर लिया था। वह सूचना थी- इतर क्षेत्र में कार्य करने वाले स्‍वयंसेवकों को शाखा के साथ नित्‍य संबंध रखने के बारे में अन्‍य स्‍वयंसेवकों से अधिक आग्रही रहना चाहिए। इन सभी परहेजों का निरंतर पालन करते हुए उन्‍होंने ऐसे स्‍वयंसेवकों के लिए एक परिपूर्ण आदर्श प्रस्‍तुत किया था। इस दृष्टि से पंडित जी की विशेषताओं का व्‍यवच्‍छेदक विवरण माननीय भाऊराव देवरस ने 25 सितम्‍बर, 1979 को दीनदयाल शोध संस्‍थान में अपने भाषण में दिया था।

पश्चिम के पुनर्रचित नेतृत्‍वशास्‍त्र की परिभाषा में कहा जा सकता है कि पंडित जी का नेतृत्‍व रूपांतरकारी (Transforming) नेतृत्‍व था, कार्यसंपादक (Transactional) नेतृत्‍व नहीं।

इसका कोई सामान्‍य नियम नहीं बताया जा सकता कि इतिहास निर्माण करने वाले किसी भी महापुरुष का व्‍यक्तिदर्शन प्रकाशित करने का उचित समय कौन सा होता है? यह भी निश्‍चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि विचारदर्शन के लिए उचित समय व्‍यक्तिदर्शन के लिए भी उचित ही होगा।

अनेक श्रेष्‍ठ पुरुषों के बारे में दिखाई देता है कि उनके कार्य का यथार्थ मूल्‍यांकन उनके समकालीन लोगों द्वारा ठीक से नहीं किया जा सकता। समकालीन लोगों के सम्‍मुख एक कठिनाई होती है- उस कालखंड में उत्‍पन्‍न समस्‍याएं। उसमें विभिन्‍न लोगों द्वारा की गयी नाना प्रकार की भूमिकाओं एवं परिणामस्वरूप पैदा हुए पूर्वाग्रहों के कारण समकालीन लोग घटनाक्रम के अंधड़ में उसी प्रकार फँस जाते हैं जैसे कोई स्‍वच्‍छ दृष्टि वाला व्‍यक्ति भी आँधी में घिर जाने के बाद आँखों में धूल भर जाने के कारण सामने की वस्‍तु को स्‍पष्‍ट रूप से नहीं देख पाता। ऐसे लोगों के लिए इसी कारण बड़े लोगों के जीवन तथा उनके कार्य के बारे में य‍थार्थ मूल्‍यांकन करना संभव नहीं होता है। इस बात के लिए समय लगता है - कभी-कभी कुछ दशकों का और कभी तो कुछ सदियों का भी।

इस प्रकार यह एक विलक्षण प्रक्रिया है। नेपोलियन के वाटरलू से लौटने के बाद समूचे फ्रेंच राष्‍ट्र द्वारा किया गया उनका मूल्‍यांकन बहुत ही घटिया स्‍तर का था। किंतु कुछ दशकों बाद उसी समूचे फ्रेंच राष्‍ट्र का यह मत बना कि नेपोलियन उनका बहुत श्रेष्‍ठ राष्‍ट्रपुरुष था। उसकी अस्थियों को गौरवपूर्वक सेंट हेलिना से लाया गया और उसकी मूर्तियाँ खड़ी की गयीं।

जीसस क्राइस्‍ट को जिन राज्‍यकर्ताओं ने 'एक दुष्‍ट मनुष्‍य' कहकर सूली पर चढ़ा दिया था, उन्‍हें 330 वर्ष के बाद अपना मूल्‍यांकन बदलना पड़ा। वे राज्‍यकर्ता जीसस को केवल एक श्रेष्‍ठ पुरुष कहकर ही रुक नहीं गए, अपितु उन रोमन शासकों ने उसके मत को भी स्‍वीकार कर लिया।

शायद संस्‍थापित उदाहरण जोन ऑफ आर्क का होगा। केवल गलत प्रचार के शिकार लोगों ने इस महान नारी की निंदा की। वेटिकन सिटी ने भी उसे एक 'नीच स्‍त्री' घोषित किया और उसे जीवित जलाया गया। किंतु पाँच सौ वर्ष बाद उसी वेटिकन सिटी ने उसको 'सेंट' कहकर गौरवान्वित किया।

ऐसे कई उदाहरणों से ध्‍यान में आता है कि किसी की श्रेष्‍ठता का निर्णयात्‍मक मापदंड वर्तमानकालीन प्रसिद्धि या लोकप्रियता नहीं हुआ करती। उसकी श्रेष्‍ठता इस बात पर निर्भर होती है कि उसके कार्य की छाया कितनी दूर तक पड़ती है।

अत: जो जो श्रेष्‍ठ और इसीलिए तूफानी व्‍यक्तित्‍व होता है, उसके बारे में समकालीन मूल्‍यांकन को प्रमाण नहीं माना जा सकता। इस संदर्भ में यह ध्‍यान में लाने योग्‍य है कि कम्‍युनिस्‍ट चीन ने च्‍यांग काई शेक को चार दशक बाद उत्‍कट देशभक्ति का प्रमाणपत्र दिया था।

सारांशत: अनेक महापुरुषों के बारे में कहा जा सकता है कि उनका यथार्थ व्‍यक्तिदर्शन कराने के लिए बीच में कुछ काल का बीत जाना आवश्‍यक और कभी-कभी अपरिहार्य भी हो जाता है।

व्‍यक्ति के मूल्‍यांकन में जिस प्रकार कुछ समय लग जाना स्‍वाभाविक होता है, उसी प्रकार मौलिक, सर्वांगीण एवं उच्‍च विचारों के मूल्‍यांकन के लिए भी वह आवश्‍यक होता है। किंतु विचार दर्शन के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। विचारदर्शन यथाशीघ्र एवं विस्तृत मात्रा में होते रहना चाहिए। यह कार्य जितनी द्रुत गति से होगा, उतने शीघ्र ऐसे विचारों का योग्‍य मूल्‍यांकन करना विचारकों के लिए संभव होगा।

किंतु अनेक विचारकों के बारे में दिखाई देता है कि उनके विचार-दर्शन अर्थात रचना एवं प्रचार शायद ग्रहदशा का भी परिणाम होता होगा। पंडित जी ने जिस 'दैशिकशास्‍त्र' के आधार पर कतिपय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, वह पुस्‍तक सन् 1920 में प्रकाशित हुई थी। किंतु चार दशकों के बाद पंडित जी का ध्‍यान उस ग्रंथ की ओर गया। कोपरनिकस की पुस्‍तक की पहली मुद्रित प्रति उसकी मृत्‍यु के कुछ ही घंटों पूर्व उसे मिली थी। उसके बाद उस पुस्‍तक की चर्चा कहीं भी नहीं हुई। 300 वर्ष बाद एक शास्‍त्रज्ञ ने उसका केवल उल्‍लेख मात्र किया और उसके 50 वर्ष बाद उस पुस्‍तक को नकारात्‍मक मान्‍यता मिली। कारण, प्रकाशन के 80 वर्ष बाद पोप महाशय ने उस पुस्‍तक को प्रक्षिप्‍त घोषित किया।

महाराष्‍ट्र में ज्ञानेश्‍वरी की मान्‍यता सर्वमान्‍य थी। किंतु उस ग्रंथराज को भी जनमान्‍यता मिलने के लिए पर्याप्‍त प्रतीक्षा करनी पड़ी। ज्ञानेश्‍वरी का लेखन पूरा होने के ढाई-पौने तीन सौ वर्ष बाद संत एकनाथ ने उनकी एकपुरानी प्रति खोज निकाली, उसे शुद्ध किया तथा ठीक से संवार कर फिर से जनता के सम्‍मुख रखा। तब जाकर उसे प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त हुई।

विचार-दर्शन में इस प्रकार से विलंब होने के और भी कई उदाहरण हैं। किंतु यह विलंब अक्षम्‍य ही माना गया है। कारण, विचारों के प्रसार को देर हो जाती है तो उसके उचित मूल्‍यांकन में उससे भी अधिक देर होगी और इसमें मानवजाति की बड़ी हानि होती है।

पंडित जी की मृत्‍यु के बाद अनेकों के मन में तीव्र इच्‍छा जागी थी कि उनकी विचारधारा के बारे में शोध का कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए और साथ ही 'पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय समग्र (व्‍यक्ति व विचार) दर्शन' तैयार करने का उपक्रम भी तुरंत हाथ में लिया जाना चाहिए। किंतु प्रारंभ में किसी न किसी कारण इस काम में विलंब होता गया और आपातकाल के बाद की वेगवती घटनाओं के कारण अंत में यह काम धरा ही रह गया। विलंब होने के और भी कुछ कारण थे। यह तो प्रश्‍न था ही कि इस विषय पर अधिकारी लेखनी के धनी कौन है, किंतु सबसे महत्‍वपूर्ण कठिनाई थी ऐसा उद्यम सफल करने के लिए आवश्‍यक साधन-सामग्री की कमी।

देश की विचार-प्रक्रिया में पंडित जी का विपुल एवं गतिशील योगदान था। उसकी तुलना में उनके द्वारा तथा उनके बारे में लिखा गया बहुत कम साहित्‍य उपलब्‍ध है। वह वस्‍तुस्थिति है।

एक तो पंडित जी की प्रकृति आत्‍मविलोपी थी। वे उस परंपरा में पले थे जिसमें लोग अपने मृत्‍यु पत्र में ऐसा अनुरोध लिखकर जाते हैं कि 'मेरी मृत्‍यु के बाद मेरा कोई स्‍मारक न बनाया जाए।' वेदों के सूक्‍तों एवं उपनिषदों के द्रष्‍टा और रचयिता कितने ही ऋषि हो गए हैं। उनके नाम तो हम तक आ पहुँचे हैं, किंतु उनमें से कितने लोगों के चरित्र हमें ज्ञात हैं? अत: ऐसी आशा करना वास्‍तविकता से दूर होगा कि इस परंपरा में पला मनुष्‍य लार्ड जार्ज या चर्चिल की भांति अपने संस्‍मरण लिख रखेगा या पंडित नेहरू, मुसोलिनी अथवा हिटलर की भांति अपनी आंशिक आत्‍मकथा प्रकाशित करेगा। इसके अतिरिक्‍त रा.स्‍व.संघ का संस्‍कार भी था। हमारे मित्र श्री दि.वि. गोखले ने एक बार कहा था, ''राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ने महान लोगों का निर्माण किया, किंतु उन सबको बिना चेहरे (मुखाकृति) का रखा।''

पंडित जी का जीवनक्रम भी इस दृष्टि से अनुकूल नहीं था। लैंड्सबर्ग कारागृह में प्राप्‍त अनिवार्य अवकाश का उपयोग कर हिटलर ने अपना 'माइनकांफ' ग्रंथ लिखा था। ऐसा लेखन करने के लिए लेनिन को समय तब मिला जब उसे स्विटजरलैंड में देश-निकाला दिया गया। माओत्‍से-तुंग एक क्रांतिकारी सेनानी एवं शासक था। किंतु उसे भी यूनान में वास करते हुए ही ऐसा समय मिल सका। किंतु पंडित जी को यह सुविधा उनके अधिकाधिक व्‍यस्‍त जीवनक्रम के कारण प्राप्‍त नहीं हुई।

एकाकी, अखंड 'चरैवेति' का व्रत पंडित जी ने लिया था। उनके कार्य के बहु-आयामी स्‍वरूप एवं निकटवर्ती लोगों की कुछ लिख रखने के बारे में अनास्‍था के परिणामस्‍वरूप पंडित जी के जीवन में इस दृष्टि से उपयोगी व्‍यक्ति का आना असंभव ही था। भगवान रामकृष्‍ण परमहंस के जीवन में 'एम' (मास्‍टर महाशय महेंन्‍द्रनाथ गुप्‍त) ने एक विशेष भूमिका निभायी थी। महात्‍मा गांधी को महादेव भाई पाले थे। सरदार पटेल की पुत्री का भी योगदान इस विषय में और बड़ा था। मैडम सन्‍यात सेन ने अपने पति के बारे में इसी स्‍वरूप का काम किया था। डा. जानसन के चरित्र बॉसवेल तो प्रसिद्ध ही हैं। इस प्रकार के कोई ग्रह पंडित जी की जन्‍म-पत्री में नहीं थे।

बैंजामिन फ्रैंकलिन की भाँति प्रतिदिन विस्‍तृत दैनंदिनी लिखने की आदत पंडित जी को होती तो उसकी वजह दैनंदिनी की प्रारंभिक आत्‍मचरित्र के रूप में प्रकाशित की जा सकती थी किंतु वह भी होना नहीं था।

पंडित जी का व्‍यक्तित्‍व, जैसा कि पहले बताया जा चुका है, बहुआयायमी था। विश्‍व इतिहास में थोड़े से महान व्‍यक्ति ऐसे हो गए हैं जिन्‍होंने अपनी लेखनी के द्वारा इतिहास को मोड़ दिया। रूसो, वाल्‍टेयर, मार्क्‍स आदि के नाम इस संदर्भ में उल्‍लेखनीय हैं। कुछ महापुरुष ऐसे होते हैं जो उत्‍कृष्‍ट जन-नेता एवं उत्‍कृष्‍ट लेखक, दोनों भूमिकाओं को भली-भाँति निभाते हैं। जूलियस सीजर, नेपोलियन, लेनिन, विन्‍स्‍टन चर्चिल एवं चार्ल्‍स दी गाल इस श्रेणी में आते हैं। कुछ श्रेष्‍ठ पुरुष ऐसे हो गए हैं जिन्‍होंने इतिहास पर अपनी छाप गहरी अंकित तो की है, किंतु कोई मौलिक लेखन नहीं किया। फिर भी उन्‍होंने अपने संगठन-कौशल, विभिन्‍न प्रकृति के लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता अपने विभिन्‍न प्रकृति के लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता अपने विचार और लेखन के आधार पर ही नहीं, अपितु अपने व्‍यक्तिगत संपर्क से दूसरों को कार्य एवं त्‍याग की प्रेरणा दी। ऐसी विशेषता रखने वाले लोगों में चौदहवें लुई, मार्शल टीटो, लिंडन जानसन, हो ची मिन्‍ह आदि का समावेश होता है। पंडित जी का भाग्‍य कुछ ऐसा था कि उन्‍हें इन सभी भूमिकाओं के अतिरिक्‍त कई और भूमिकाएँ भी एक साथ निभानी पड़ी थीं। ऐसे व्‍यक्तित्‍व का यथायोग्‍य मूल्‍यांकन करना आकाश को आलिंगन देने के समान है।

पंडित जी के अनुयायियों की संख्‍या बहुत बड़ी थी किंतु उनके प्रति मन में भक्ति रखना एक बात है, और उनकी श्रेष्‍ठता का उचित मूल्‍यांकन करने की क्षमता रखना दूसरी। कई बार 'कमलिनी और मेढक एक साथ' वाली बात ही रहती थी, जो स्‍वभाविक भी है। नित्‍से ने कहा है कि पर्वतारोहण करते समय हम जितनी अधिकाधिक ऊँचाई पर जाते हैं, उतनी मात्रा में ठंढ बढ़ती और वायु विरल होती जाती है। इतनी ऊँचाई तक जाते-जाते जिनका श्‍वास नहीं उखड़ेगा, ऐसे लोग समाज में कितने होते हैं? इसीलिए कहा गया है- ''स्‍तुतिगान करने तुम्‍हारा, तुम जैसे कवि कब पैदा होंगे''?

इन्‍हीं सब कारणों से ऐसे उपक्रम प्रारंभ करने में विलंब होना स्‍वाभाविक ही है। कालांतर से यह काम कुछ पिछड़ भी गया। घटनाचक्र कितनी ही गतिमान क्‍यों न हो, उनके अनुयायियों के मन में इस काम के बारे में आतुरता नष्‍ट होना असंभव ही था, मनुष्‍य का यह सामान्‍य स्‍वभाव जो है।

अपने छात्र-जीवन में एक चर्चा सुनने या समाचार-पत्रों में पढ़ने का प्रसंग मेरे साथ बार-बार आता था। चर्चा का विषय होता- 'लोकमान्‍य तिलक आज जीवित होते तो?' हम बालकों को तत्‍कालीन राजनीति प्रवाह और उपप्रवाहों को जानकारी न होने के कारण इस बात पर आश्‍चर्य होता था कि क्‍यों यह प्रश्‍न सार्वजनिक रूप से बार-बार उठाया जाता है। इतनी समझ हम लोगों में उस समय नहीं थी कि नई परिस्थिति या प्रश्‍न उपस्थित हाते ही इसकी प्रतिक्रियाओं की पृष्‍ठभूमि में ऐसी चर्चा हर बार सिर उठाती है। किंतु यह सब बात बराबर समझ में आती है कि प्रत्‍येक म‍हापुरुष के निर्वाण के बाद देश के सम्‍मुख कोई समस्‍या खड़ी हो जाए तो ऐसा प्रश्‍न जनता के मन में स्‍वभाविक रूप में उपस्थित होता ही है। पंडित जी की मृत्यु को 18 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। इस काल में देश के सम्‍मुख भी बहुत सी उलझने सुलझाने के लिए आयीं। आपातस्थिति जैसा अभूतपूर्व संकट भी आकर चला गया। ऐसे सभी अवसरों पर पंडित जी के अनुयायियों के मन में यह प्रश्‍न उठना स्वभाविक था कि 'पंडित जी आज जीवित होते तो?'

अत: इस दृष्टि से पंडित जी के व्‍यक्तित्‍व एवं विचारों का समग्र दर्शन प्रकाशित होना अत्‍यंत आवश्‍यक है, यह विचार बल पकड़ता गया।

ध्‍येयवादी एवं विचारी पुरुष अपनी बुद्धि के किबाड़ कभी बंद नहीं करता। वह वस्‍तुस्थिति के सभी पक्षों को ध्‍यान में रखता है। इसीलिए उसमें एकांगिता नहीं होती। किंतु ऐसे व्‍यक्ति के विचार में ढुलमुलपन भी नहीं रहता। सभी अनिश्चित, भगवान भरोसे और ढुलमुल अवस्‍था उसकी नहीं होती। ध्‍येयवादी होने के साथ निश्‍चय ही वह ध्‍येयकेंद्रित अर्थात एककेंद्रित होता है, किंतु समझदारी के कारण एकांगी नहीं होता। एक‍केंद्रित किंतु सर्वांगीण विचार की क्षमता वह रख स‍कता है। पंडित दीनदयाल जी के बारे में भी यही नियम लागू होता है।

(इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि सत्ता प्राप्‍त होने के बाद एक प्रश्‍नकर्ता के प्रश्‍न का उत्तर देते हुए लेनिन ने कहा था कि ''आज की स्थिति में मेरा कम्‍युनिज्‍म है रूस का सोवियतीकरण एवं विद्युतीकरण।'')

इस ग्रंथ का नाम 'विचार-दर्शन' है। हम लोग कहते हैं कि दीनदयाल जी एक श्रेष्‍ठ विचारक थे। वास्‍तविक 'विचारक' की संज्ञा से उनके बारे में उचित बोध होना चाहिए। पंडित जी को जानने वाले लोगों के मन में उनके बारे में सुयोग्‍य एवं यथार्थ प्रतिमा 'विचारक' संज्ञा से निर्मित होती है। किंतु दशकों में 'विचारवान' अथवा विद्वान् शब्‍द देश में और विशेषत: राजधानी में कुछ निराले ही बुद्धिमानों के साथ जुड़ गया है। सरकार अथवा विरोधी दलों को उनकी नीतियों के बारे में परामर्श देने की योग्‍यता एवं तत्‍परता रखने वाले लोगों के अलग-अलग वर्ग हैं, किंतु सबकी श्रेणी एक ही है 'विचारवंतों' की।

इस बात को स्‍पष्‍ट करने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्‍त है। पश्चिम के देकार्त, स्पिनोजा, लाइब्निज, लॉक तथा हॉब्‍स आदि लोग स्‍थूल दृष्टि से समर्थ रामदास के समकालीन थे। समर्थ रामदास के साथ किसी ने भी समाजशास्‍त्रज्ञ विशेषण नहीं कहा उनका वर्णन करते समय तत्‍वज्ञ शब्द भी प्रयुक्‍त नहीं किया जाता। किंतु एक विद्वान समर्थ-भक्‍त श्री प्रभाकर पुजारी का कहना है कि उपर्युक्‍त पाँचों पाश्‍चात्‍य विद्वानों ने समाजशास्‍त्र के बारे में जितना लिखा है, उससे कहीं अधिक एवं उच्‍च स्‍तरीय विचार उस शास्‍त्र के बारे में समर्थ रामदास के साहित्‍य में पाए जाते हैं। हिंदू पद्धति के अनुसार उसे चिंतन का अलग भाग न मानते हुए कुल समर्थसाहित्‍य में उसको पिरोया गया है। अब प्रश्‍न उपस्थित होता है कि क्‍या समर्थ साहित्‍य में उसको पिरोया गया है। अब यह प्रश्‍न उपस्थित होता है कि क्‍या समर्थ रामदास स्‍वामी को तत्त्वज्ञ की श्रेणी में रखा जाए? तत्त्वज्ञ की श्रेणी में क्‍या उन्‍हें बाँध दिया जाए? कुल जीवन का समग्र दर्शन लेने की हिंदू परंपरा को ध्‍यान में लेते हुए समर्थ जी को इस प्रकार श्रेणीबद्ध करना अनुचित लगता है।

उदाहरण के लिए एक महापुरुष को लें तो अन्‍य महापुरुष की स्थिति भी वैसी ही है।

हिंदुओं का 'दा‍र्शनिक शब्‍द' विशेषत: 'तत्त्वज्ञ' शब्‍द से कहीं अधिक गहरा, ऊँचा एवं व्‍यापक है। इस समय भारतीय भाषाओं में इन दोनों शब्‍दों को पर्यायवाची मानने की प्रथा बढ़ रही है जो शास्‍त्रशुद्ध नहीं है।

दार्शनिक और तत्त्वस्‍ दो भिन्‍न श्रेणियाँ हैं। हमारे कहने का अर्थ यह नहीं कि पहली श्रेणी के लोग भारत के बाहर विशेषत: पश्चिम में उत्‍पन्‍न ही नहीं हो सकते। किंतु उधर के विचारकों का इन दो श्रेणियों में स्‍पष्‍ट विभाजन करने का काम अभी नहीं हुआ है। शायद यह दृष्टिकोण अभी उन्‍हें प्राप्‍त नहीं हुआ है। जो भी हो, जब तक इन दो श्रेणियों में विद्यमान अंतर को ध्‍यान में नहीं रखा जाता, पंडित जी और उनके जैसे अन्‍य दार्शनिकों का वैचारिक इतिहास में स्‍थान केवल पश्चिम की परिभाषा से निश्चित करना अन्‍यायकारी होगा। इससे यह प्रश्‍न नहीं है कि कौन श्रेष्‍ठ है और कनिष्‍ठ। दोनों श्रेणियाँ अलग-अलग हैं, इतना ही संकेत यहाँ देना है।

'एकात्‍म मानवदर्शन' संपूर्ण अस्तित्‍व के मूलगामी एवं सर्वव्‍यापी तत्त्व की खोज करने वाला 'दर्शन' है। पंडित जी राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करते थे। उस क्षेत्र में 'इज्‍म' शब्‍द ही प्रचलित था। सर्वसामान्‍य लोगों को यह सिद्धांत समझाकर बताना था। अत: पंडित जी को यद्यपि 'वाद' शब्‍द मूलत: अभिप्रेत नहीं था, जनसामान्‍य की समझदारी के स्‍तर के साथ व्‍यवहारिक समझौता करने के लिए उन्‍होंने अपने विचारों को 'वाद' की संज्ञा दी और वैसा करते समय यह भी दक्षता बरती कि ऐसा व्‍यक्ति जब इस विचार या 'वाद' को समझ लेने की स्थिति में आ जाएगा तो उसी समय उसके ध्‍यान में यह भी आ जाए कि अपनी समझ में आया यह विचार 'वाद' की परिसीमा में बंध सकने वाला सीमित एवं तात्‍कालिक नहीं है, यह एक सार्वदेशिक तथा कालजयी 'दर्शन' है। छोटे बच्‍चों को प्रारंभ में हम लोग कहा करते थे कि चंदामामा सामने वाले पेड़ की डाल पर बैठा हुआ है। यह भी बात कुछ वैसी ही है। किंतु वस्‍तुत: यह वादातीत एवं निर्विवाद 'दर्शन' है। (दर्शन शब्‍द का पाश्‍चात्य भाषाओं में सटीक पर्यायवाची नहीं है)।

एकमेवाद्वितीय तत्त्व के बारे में कहा गया है, ''यतो वाचो निवर्तन्‍ते अप्राप्‍य मनसासह''। अर्थात तत्त्व जितना गहन होगा उतना ही सूक्ष्‍म होगा। गहन तत्त्व की सूक्ष्‍मता की कोई सीमा नहीं। शब्‍दों की अभिव्‍यक्ति की शक्ति सीमित है। इसके विपरीत 'दर्शन' की सूक्ष्‍मता असीम है। ऐसे सूक्ष्‍म तत्त्वों की अभिव्‍यक्ति के लिए शब्‍दों के प्रयास दयनीय एवं क्लिष्‍ट प्रतीत होते हैं।

इसका अर्थ यह नहीं कि दर्शन मूल में ही क्लिष्‍ट, कष्‍टदायक या उकताने वाला है। क्लिष्‍टता तो प्रकटीकरण में है, दर्शन की अनुभूति या साक्षात्‍कार में नहीं। जिसने गुड़ कभी खाया न हो, उसे शब्‍दों के माध्‍यम से गुड़ का स्‍वाद समझाना बड़ा कठिन है और उसे समझाने और सुनने वाले दोनों के लिए आनंददायक अनुभव है। जिसने कभी कलम नहीं देखा उसे कलम के सुगंध एवं सौंदर्य की सही कल्‍पना शब्‍दों के द्वारा देना सरल काम नहीं। ऐसा प्रयास कोई करे तो सुनने वाले को यह क्लिष्‍ट ही लगेगा किंतु कमल के सौन्‍दर्य का प्रत्‍यक्ष अवलोकन आनंदकर ही होगा। एकात्‍म मानव दर्शन की बात भी ऐसी ही है। मानव चेतना के उत्तम विकास या स्‍वाभाविक अनुभूति का ही नाम है- एकात्‍म मानवदर्शन। उस अनुभूति में परम सुख समाया है। इस दर्शन का शब्‍द रूप विवरण उपर्युक्‍त कारणों से क्लिष्‍ट प्रतीत होने की संभावना है। क्लिष्‍टता प्रकटीकरण में है, मूल विषय में नहीं। मूल विषय की प्रकृति प्रत्‍येक व्‍यक्ति को चिरंतन सुख की अनुभूति देने वाली है और यह सुख ऐसे लोग भी अनुभव कर सकते हैं जिन्‍होंने इस दर्शन का नाम तक न सुना हो किंतु जिनकी चेतना का पर्याप्‍त विकास हुआ हो।

गैरी जुकोव कहते हैं :- ''जीवन में किसी अवस्‍था के वर्णन को ही स्थिति मान लेने की गलती सामान्‍यत: की जाती है। उदाहरण के लिए सुख क्‍या होता है, इसका वर्णन करके देखिए। वह असंभव है, सुख और सुख का वर्णन दो भिन्‍न बातें हैं।'' सुखी होना एक अवस्‍था है। इसका अर्थ है सुख प्रत्‍यक्ष अनुभूति के स्‍तर पर होता है। ऐसी भावना और संवेदना के स्‍तर पर, जिसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता, सुख का अति निकट से अनुभव सुख की अवस्‍था में अंतर्भूत होता है। 'सुख' शब्‍द वर्णनातीत अवस्‍था पर चिपकाया हुआ एक 'लेबल' एवं प्रतीक है। 'सुख' अमूर्त या परिकल्‍पना की कक्षा में आने वाला तत्‍व है। विशिष्‍ट अवस्‍था एक अनुभव होता है। उस अवस्‍था का वर्णन एक प्रतीक मात्र रहता है। अनुभव और प्रतीक दोनों पर समान नियम लागू नहीं होते।''

सुख के बारे में जो कहा गया है वही 'एकात्‍म मानवदर्शन' पर भी लागू है।

इस दृष्टि निम्‍न उदाहरण उद्बोधक है।

एकात्‍म मानवदर्शन पर इस ग्रन्‍थ में विस्‍तृ‍त विवेचन आया है। मनुष्‍य की चेतना का व्‍यक्ति से लेकर विश्‍व तक का विकास इस दर्शन का आधार है। अनेक लोगों के मन में यह प्रश्‍न उपस्थित होता है कि क्‍या ऐसे मानसिक विकास की प्रक्रिया स्‍वाभाविक तथा व्‍यवहार्य है? इस प्रक्रिया का स्‍वरूप क्‍या है? डा. जाकिर हुसैन ने पटियाला में गुरु गोविंद सिंह भवन का शिलान्‍यास करते समय 27 दिसंबर, 1967 को अपने भाषण में इस प्रक्रिया का स्‍वरूप स्‍पष्‍ट किया था। वे कहते हैं-

''मेरे विचार में मनुष्‍य को 'घर' शब्‍द का ठीक से अर्थबोध हो जाए, तभी उसे मातृभूमि के साथ संबंधों के सच्‍चे महत्व का आकलन होता हे। 'घर' कल्‍पना के अनेक अंगोपांग हैं। बालक की दृष्टि से माँ की प्रेममयी और सब कुछ देने वाली कोख ही 'घर' होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, माता-पिता की झोपड़ी या प्रासाद जो भी हो, उसकी दृष्टि में घर का प्रतीक बन जाता है। धीरे-धीरे उसमें बोध का विकास होता है, जिसके साथ संपूर्ण गली या बस्‍ती या नगर को उसके मन में घर का आशय प्राप्‍त होता है। तब उस समूचे परिवेश के वृक्ष, वनस्‍पति, पक्षी, पहचान के मुखड़े, पालतू प्राणी आदि जो भी आस-पास हैं वे उसकी विलोभनीय गृह-कल्‍पना की शोभा बन जाते हैं। इस प्रकार उच्‍च बोध व ज्ञान के क्षेत्र में जब वह प्रवेश करता है तो कितनी ही बातों का समावेश उसकी घर संबंधी दृष्टि में हो जाता है। उसमें घर की विविध दीवारें और देहलियाँ होती हैं। नाना प्रकार के ध्‍येय और स्‍वप्‍न मानो मूर्त धारण कर लेते हैं। धार्मिक कथाएँ, रूपक कथाएँ कला एवं साहित्‍य, इतिहास एवं संस्‍मरणीय घटनाओं की मालिका आदि अन्‍य बहुतेरी बातों की आकर्षक साज-सज्जा उसमें अन्‍तर्भूत हो जाती है। संक्षेप में, अनेक अंगोपांगो से वह वास्‍तु विकास करता ही जाता है और समूचे राष्‍ट्र को अपनी बाहों में भर लेता है। उसे ऐसा लगने लगता है कि राष्‍ट्र के सारे निवासी अपने घर के ही आप्‍तजन हैं। सत्‍य और न्‍याय पर आधारित राष्‍ट्र के राजनीतिक ध्‍येय, उसका अनमोल सांस्‍कृतिक धन एवं परंपरा, इतिहास के आनंददायी एवं सुनहरे क्षण, सब 'घर' की दार्शनीय रचना के अविभाज्‍य भाग बन जाते हैं। प्रारंभ में केवल मां की कोख में सीमित 'घर' अंत में केवल घर के चारों ओर के भौगोलिक परिवेश को ही नहीं, अपितु राष्‍ट्रीय जीवन के विशाल तट को भी अपने अंदर समाने योग्‍य विशाल बन जाता है। मनुष्‍य के घर की परिधि कितनी विशाल बन जाती है।''

''राष्‍ट्रीयता विश्‍व मानवता से अलग नहीं की जा सकती। ''

''सभ्‍यता की अंतिम अवस्‍था मनुष्‍य की परिपूर्णता है। केवल वैचारिक या भौतिक अर्थ में नहीं अपितु नैतिक एवं आध्‍यात्मिक दृष्टि से भी यह परिपूर्णता होनी चाहिए। मनुष्‍य को समाज के घटक एवं संपूर्ण समाज के एक अवयव के नाते प्राप्‍त होने वाली परिपूर्णता अधिक महत्‍व की है।''

''इस प्राचीन भूमि एवं यहाँ के जनसमाज का यूरोप, एशिया तथा अमरीकी महाद्वीपों के आधुनिक राष्‍ट्रों में यह जीवनकार्य है कि आज की अंतरराष्‍ट्रीय स्‍पर्धा के स्‍थान पर अंतरराष्‍ट्रीय सहयोग का प्रवर्तन करें, किसी निष्‍पक्ष एवं अधिकार संपन्‍न सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा राष्‍ट्रों के बीच शांतिपूर्ण विचार-विनिमय एवं सुयोग्‍य समझौतों को प्रेरणा दें और अंतरराष्‍ट्रीय झगड़ों तथा मतभेदों को विध्‍वंसक हथियारों के बल पर सुलझाने के लिए स्‍थान न रहने दें। इस प्रकार सारा संसार एक राष्‍ट्र में बदल जाने का कवि द्वारा देखा गया स्‍वप्‍न साकार करने में वे सहायक बनें। सभी लोग एक दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह रहे हैं, सबके समान हितों के लिए सहयोग से काम कर रहे हैं और मनुष्‍य के अंदर के देवत्‍व की अभिव्‍यक्ति करने के लिए उपकार हो रहे हैं, ऐसा युग प्रत्‍यक्ष में लाने के लिए अपना योगदान दें। भारतीय राष्‍ट्र का निर्माण करने वालों को यह बात सदैव आँखों के सामने रखनी चाहिए।''

'' ….हिंदुत्व केवल एक संघीय (फेडरल) परिकल्‍पना नहीं है। वह उससे भी आगे गया है, इतना आगे कि भारत विश्‍व एकता का अर्थात जागतिक संघराज्‍य का ऐसा प्रतीक बन जाए जिसे कोई भी आकर देख सकता है।''

श्री पाल के विचारों की दिशा वही है। अंतर इतना हीहै कि पंडित जी का एकात्‍म मानव दर्शन इस दिशा में कुछ आगे बढ़ गया है और वह संपूर्ण अस्तित्‍व की एकात्‍मता का साक्षात्‍कार कराने का प्रयास करता है। अक्‍टूबर 1974 में प्रकाशित अपने ''सोशियल एंड पोलिटिकन आइडियल्‍स ऑफ विपिनचन्‍द्र पाल'' पुस्‍तक में श्री अमलेंदु प्रसाद मुखर्जी कहते हैं कि ''वास्‍तव में उनका धर्म और दर्शन 'इंडिग्रल ह्मूमैनिज्‍म' (एकात्‍म मानववाद) था। श्री मुखर्जी उन्‍हें 'स्पिरिचुअल ह्यूमैनिस्‍ट' (आध्‍यात्मिक मानववादी) कहते हैं। (यहाँ एक सूचना देना उचित होगा एकात्‍म मानव के बारे में संपूर्ण विचार श्री राजाभाऊ नेने ने अपने खंड में प्रस्‍तुत किए ही हैं। उसमें 'मन' के प्रसंग में एक बात जोड़ देना आवश्‍यक है कि 'मन' के बारे में पाश्‍चात्‍यों की और हमारी कल्‍पना में अंतर है। पाश्‍चात्‍य मनोवैज्ञानिक अब तक मन की 'मूढ़' तथा 'क्षिप्‍त', 'एकाग्र' तथा 'निरुद्ध' आदि अवस्‍थाओं तक वे लोग अभी तक नहीं पहुँचे हैं। इन पाँचों अवस्‍थाओं का शास्‍त्रीय अध्‍ययन हिंदू मनोविज्ञान को अभिप्रेत है। उसी प्रकार बुद्धि का स्वरूप, कार्य और सीमाओं के बारे में भी हमारी और पश्चिमी कल्‍पनाओं में पर्याप्‍त अंतर है। वही बात आत्‍मा या Soul पर लागू होती है।

पंडित जी द्वारा प्रतिपादित एक और पकिल्‍पना का स्‍पष्‍टीकरण करना उपयोगी होगा। वास्‍तव में वह विषय इस ग्रंथ में श्री बालासाहेब जोग ने भलीभांति रखा है। उनके विवेचन से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि 'एकात्‍म शासनप्रणाली' शब्‍दों का अनुवाद वस्‍तुत: 'Integrated form of Government' है।

पंडित जी के विचार एक दृष्टि से दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। कुछ तत्‍कालीन तथा अन्‍य सर्वकालीन महत्‍व के। सर्वकालीन विचारों की सत्‍यता परिस्थिति निरपेक्ष हुआ करती है। फिर भी उनके मर्म का पूरा-पूरा आकलन तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक यह न ज्ञात हो कि वे किस परिस्थिति में प्रस्‍तुत किए गए थे। पंडित जी केवल पोथी पढ़े विद्वान नहीं थे। वे सार्वजनिक जीवन में अत्‍यंत सक्रिय थे। क्रियाशील व्‍यक्तियों के विचार सर्वकालीन महत्‍व के होते हैं। फिर भी कई बार ऐसे विचारों की अभिव्‍यक्ति किसी न किसी घटना, समस्‍या अथवा परिस्थिति की प्रतिक्रिया के रूप में हुई होती है। विचारों की अभिव्‍यक्ति के लिए कोई न कोई तत्‍काल-निमित्त मिल जाता है। उस निमित्त, घटना, समस्‍या अथवा परिस्थिति की पूर्ण जानकारी न हो, तो उस विचार की सच्‍ची महानता एवं विचारक की सच्‍ची ऊँचाई ध्‍यान में नहीं आ पाती। विचार का महत्‍व सर्वकालीन हो अथवा तत्‍कालीन, उसकी परिस्थितिजन्‍य पृष्‍ठभूमि का ज्ञान अपने में ही महत्‍वपूर्ण होता है। कोपरनिकस का सिद्धांत अब सर्वमान्‍य हो गया है। किंतु जब कोपरनिकस ने वह सत्‍य दर्शन किया, उस समय समूचे यूरोप तथा ईसाई समाज में कौन सी धारणाएँ दृढ़ मूल थीं, कौन सी मान्‍यताएं प्रचलित थीं तथा उसमत के पीछे खड़ी पोप की सत्ता कितनी प्रबल थी, इसकी जानकारी जिसे न हो उसे कोपरनिकस की वैचारिक ऊँचाइयों का आकलन हो ही नहीं सकेगा।

आयरलैंड के टेरेन्‍स मैक्स्विनी के विचार किसी भी ध्‍येयवादी मानस को उत्‍कट प्रेरणा देने वाले हैं। किंतु साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध छेड़े गए संघर्ष की किस अवस्‍था में वे विचार उत्‍स्‍फूर्ति से प्रकट हुए, इसे जान लें तो उनका स्वरूप अधिक ज्‍वालाग्राही प्रतीत होगा। तर्कशास्‍त्र के बारे में अरिस्‍टोटल, जनतंत्र के बारे में लिंकन, राष्‍ट्रीयता के बारे में मेजिनी अथवा भारत के मूलभूत अधिकारों के बारे में जेफरसन के विचार सर्वकालीन महत्‍व के हैं। किंतु इसका ज्ञान हो कि किन विशिष्‍ट परिस्थितियों में वे आग्रहपूर्वक रखे गए थे, तभी उन विचारों का सच्‍चा रहस्‍य तथा विचारकों की सच्‍ची श्रेष्‍ठता मन पर अंकित हो सकती है। पैथागोरस, युक्लिड, देकार्त, पास्‍कल, रूसो, वाल्‍टेयर, मार्क्‍स आदि लोगों के विचारों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। विचारों का तो महत्‍व है ही, किंतु परिस्थिति की पृष्‍ठभूमि के कारण उनका मूल्‍य अधिक बढ़ जाता है। हीरे का मूल्‍य तो होता ही है किंतु उसे अनुरूप गर्त में बिठाया जाय तो उसका तेज एवं सौंदर्य और भी अधिक प्रतीत होता है। परिस्थिति के गर्त के बिना विचारों एवं विचारकों की सच्‍ची योग्‍यता प्रकट नहीं हो सकती।

वस्‍तुत: पंडित जी अधिकार पद की दृष्टि से केवल एक राजनीतिक दल के महामंत्री थे। किंतु वह उनके विशाल व्‍यक्तित्‍व का केवल एक पक्ष मात्र था। उनकी मूल भूमिका तत्‍वद्रष्‍टा की थी। केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से मानववाद तक पहुँचना न तो संभव है और न आवश्‍यक ही। आवश्‍यक इसलिए नहीं कि मानववाद का समर्थ करने से मतों की संख्‍या बढ़ने का कोई भरोसा नहीं और संभव इसलिए नहीं कि राजनीतिक क्षेत्र में वह एक चलतू सिक्‍का नहीं।

मानववाद की कल्‍पना कहने को बड़ी सरल है। नितांत स्‍वार्थी व्‍यक्ति भी 'ब्रह्म सत्‍यम जगन्मिथ्‍या' की भाषा बोल सकता है। किंतु आज के संसार में मानवता की ओर प्रस्‍थान करना बहुत कठिन हो बैठा है। दी मैस्‍त्रे का निम्‍न निरीक्षण इस दृष्टि से उद्बोधक है-

''अपने जीवन काल में मैंने फ्रांसीसी, इतालवी और रूसी लोग देखे हैं। माटैस्‍क्‍यू की कृपा से मैं यह भी समझ पाया हूँ कि कोई व्‍यक्ति प्रशियन भी हो सकता है। किंतु जहाँ तक 'मानव' का संबंध है मैं प्रकट रूप से बताता हूँ कि अपने जीवन में मेरी उससे भेंट कहीं नहीं हुई। यदि वह कहीं अस्तित्‍व में होगा भी, तो इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है।''

''आधुनिक संस्‍कृति का मार्ग मानवता से राष्‍ट्रीयता की ओर होता हुआ पशुता की ओर जाता है।''

(ग्रिल पार्झर, 1848)

इस वातावरण में मानवतावाद का पक्षधर बनना साहसिक कार्य ही है। उसमें भी धर्माधिष्ठित मानवतावाद का समर्थन करना तो अतिसाहसिक कार्य था।

''मनुष्‍य सब वस्‍तुओं- जो हैं उनके होने का और जो नहीं हैं उनके न होने का मापदंड है।''

भगिनी निवेदिता ने कहा है, ''धर्म नामक एक अत्‍यंत विशाल सामाजिक-औद्योगिक-आर्थिक योजना का हिंदुत्व एक भाग है। अपने आप को हिंदू न कहलाते हुए भी मनुष्‍य सार्थकता से अपने को धर्म का सेवक बना सकता है।''

विचार एवं आचार की मूल प्रेरणा 'हिंदुत्व' की होने के कारण संघ के प्रणेताओं की दृष्टि स्‍वभावत: राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय-मानवीय ही रही है। व्‍यावहारिक भूमिका से धरती पर घोंसला बनाने की दक्षता बरतते समय भी अंतिम लक्ष्‍य की साधना के लिए उनकी दृष्टि अंतरिक्ष का भेद लेने वाली रही है।

यह एक सुविदित बात है कि सन् 1920 में नागपुर कांग्रेस के अधिवेशन में स्‍वयंसेवी दल के प्रमुख के नाते पू.डा.हेडगेवार ने काम किया था। किंतु अधिकांश लोगों को ज्ञात नहीं है कि विषय समिति के विचारार्थ स्‍वागत समिति द्वारा प्रेषित एक महत्‍वपूर्ण प्रस्‍ताव मुख्‍यत: पू. डॉक्‍टर जी की प्रेरणा से ही तैयार किया गया था। उस प्रस्‍ताव में कहा गया था, ''हिंदुस्तान के गणतंत्र का निर्माण कर पूँजीवादी राष्‍ट्रों के चंगुल से विश्‍व के देशों को मुक्‍त करना कांग्रेस का ध्‍येय है।''

इस प्रस्‍ताव में 'विश्‍व के देशों को मुक्‍त' करने की कल्‍पना का मखौल उड़ाते हुए विषय-समिति ने उस प्रस्‍ताव को विचारार्थ नहीं लिया।

आगे चलकर हिंदू संगठन के जागतिक कार्य की दिशा स्‍पष्‍ट करते हुए पू. श्री गुरुजी ने कहा, ''हिंदू समाज को उसकी वैशिष्‍ट्यपूर्ण राष्‍ट्रीय अस्मिता के आधार पर फिर से संगठित करने का कार्य राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ने हाथ में लिया है। वह भारत के वास्‍तविक राष्‍ट्रीय पुनरुत्‍थान की प्रक्रिया का एक भाग तो है ही, साथ ही विश्‍व की एकता और समस्‍त मानवजाति के कल्‍याण का स्‍वप्‍न साकार करने की प्रक्रिया में भी वह एक अनिवार्य-पूर्व अवस्‍था है। जाग‍तिक एकता के संबंध में हिंदुओं का चिंतन ही विश्‍व बंधुत्‍व का स्‍थायी आधार बन सकता है। यह बोध की एक ही अंतरात्‍मा सबमें व्‍याप्‍त है, मनुष्‍य मात्र के सुख के लिए प्रयत्‍नशील रहने की दिव्‍य प्रेरणा मनुष्‍य के अंत:करण में निर्मित कर सकेगा। इस धरती की समस्‍त जीवसृष्टि को अपना परिपूर्ण विकास करना का पूरा एवं मुक्‍त अवसर भी इस हिंदू विचार के द्वारा ही उपलब्‍ध हो सकेगा-यह श्रेष्‍ठ जागतिक कार्य केवल हिंदू समाज ही पूर्ण कर सकेगा।''

पंडित जी भी इस परंपरा में पले थे। अत: उनकी श्रद्धा थी कि इसी प्रेरणा तथा दृष्टि से राष्‍ट्रीय अंतरराष्‍ट्रीय मानवीय स्‍तरों पर सभी आधिव्‍याधियों की टोह लेकर उनके निराकरण का मार्ग खोजना अपना जीवन-कार्य है।

कहते हैं कि रोग का अचूक निदान उसे आधा ठीक करने के समान होता है। पंडित जी की पहली बरसी (वार्षिक श्राद्ध) के दिन उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने वाला एक लेख 'आर्गेनाइजर' में प्रकाशित हुआ था। उसमें अनेक स्‍तरों पर मानवता को लगे रोगों का पंडित जी के द्वारा निदान किया गया था। अनुवाद करने के प्रयास में मूल विवरण के प्रति थोड़ा अन्‍याय हो सकता है, क्‍योंकि श्री म.न. जोशी ने ठीक ही कहा है कि ''कोई अनुवाद यदि सुंदर हो, तो यह आवश्‍यक नहीं कि वह मूल पाठ के अनुसार ही होगा और यदि वह मूल पाठ के अनुसार हो तो उसमें सुंदरता का अभाव भी संभव है।'' फिर भी यह ध्‍यान में लेना होगा कि पंडित जी एक दृष्‍टा थे और मानवता को लगे रोगों पर उन्‍होंने बराबर अंगुली रखी थी। उन रोगों का उपचार करना उनका जीवन-कार्य था।

पंडित जी ने उस लेख में कहा था-

''आज मानव जाति के सम्‍मुख अनेक मूलभूत और संभ्रम में डालने वाली समस्‍याएँ खड़ी हैं। उदाहरणार्थ, निम्‍न बातों का तालमेल कैसे बिठाया जाएगा?

- व्‍यक्ति स्‍वातंत्र्य और सामाजिक अनुशासन;

- व्‍यक्तिगत संघर्ष के लिए प्रेरणा और समता की ललक;

- जीवन में अनुस्‍यूत मूलभूत एकता और वाह्यत: दिखाई देने वाली विविधता;

- राज्‍यों की अधिसत्ता और औद्योगिक एवं नागरी स्‍वशासन;

- व्‍यवस्‍था और उत्‍स्‍फूर्तता;

- सामाजिक सुव्‍यवस्‍था और राज्‍यविहीनता :

- बुद्धिवाद एवं बुद्धि का कार्य और उसकी मर्यादाओं का बोध;

- विशिष्‍ट विषयों में विशेषज्ञता और समग्र दृष्टि;

- भौतिक प्रगति और आध्‍यात्मिक उन्‍नति;

- राष्‍ट्रीय स्‍वावलंबन और अंतरराष्‍ट्रीय सहकार्य।

इसके अतिरिक्‍त निम्‍न वांछनीय बातों को सुनिश्चित और स्‍थायी कैसे किया जा सकता ,

यह भी प्रश्‍न ही है-

- स्‍वतंत्रता चाहिए, स्‍वैराचार नहीं,

- अनुशासन चाहिए, सांचा-बंद अवस्‍था नहीं,

- प्रतिष्‍ठा चाहिए, किंतु साथ ही सुविधाओं की गठरी नहीं,

- एकता चाहिए, एकरूपता नहीं,

- स्थिरता चाहिए, निष्क्रियता या अवरुद्धता नहीं,

- गतिमानता चाहिए, साहसवाद नहीं,

- शासन सत्ता हो, किंतु शासन ही सर्वसमर्थ न हो,

- प्रौद्योगिक प्रगति चाहिए, मानवीय गुणों का लोप नहीं ;

- भौतिक समृद्धि चाहिए, ऊबड़-खाबड़ 'जड़वाद' नहीं,

- समाज में तली से शीर्षबिंदु तक श्रेणियों की खड़ी (उर्ध्‍वाधर) रचना चाहिए, क्षैतिज तल के वर्गभेद नहीं,

- मानवतावाद स्‍पृहणीय, किंतु मानवकेंद्रितता नहीं चाहिए।

राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी चुनौतियां देने वाली अनेक समस्‍याएं हैं जिनका समाधान तुरंत करना होगा।

उदाहरण के लिए-

- सेवायोजना (रोजगार) के बढ़ते अवसर और अद्ययावत् तंत्रविज्ञान,

- उत्‍पादन की विकेंद्रित प्रणाली और अधिक उत्‍पादकता;

- राष्‍ट्रीयकरण और सार्वजनिक उत्तरदायित्‍व

- नगरीकरण का वेग और सांस्‍कृतिक वातावरण;

- निचले स्‍तर पर छोटी-छोटी योजनाएँ और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सुसंवादी बृहत योजना;

- नानाविध स्‍वाभाविक जन-समूहों का एकात्‍मीकरण और उन जन-समूहों की विशेषताओं का परिपालन;

- भारतीय जीवन-मूल्‍य और आधुनिक वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक प्रगति;

- आधुनिककाल की आवश्‍यकताएं और सनातन धर्म के आदर्श। निम्‍नलिखित उद्देश्‍यों को हम कैसे प्राप्‍त करें?

- विभिन्‍न राष्‍ट्रीय संस्‍कृतियों द्वारा समृद्ध बना विश्‍वराज्‍य ;

- जड़वाद सहित सभी संप्रदायों की परिपूर्णता से समृद्ध मानवधर्म की उत्‍क्रांति।

कहना न होगा कि यह सूची केवल उदाहरण के लिए ही है, अपने में परिपूर्ण नहीं।

पंडित जी भारत के प्राचीन ऋषि संस्‍था के प्रतिनिधि थे। आचार्य जावडेकर ने इसे 'यदिवर्ग' की संज्ञा दी है। आचार्य विनोवा जी ने उसे 'आचार्य कुल' कहा है और पू. श्री गुरुजी ने 'ऋषि संस्‍था' कहकर उसका गौरव किया है। वर्ग-कल्‍पना रहित सज्‍जन समूह हिंदू समाज रचना की विशेषता है। श्री गुरुजी कहते हैं, ''समाज के सभी अवयवों की आवश्‍यकता जिसकी समझ में आ जाती है, उनके पारस्‍परिक संबंधों को जो ठीक से रख सकता है और स्‍वयं निरपेक्ष एवं नि:स्‍वार्थ होने के कारण सबको एक सूत्र में बाँधे रखने की क्षमता जिसके अंदर है, ऐसा समूह समाज-धारण के लिए अपरिहार्य होता है।''

एक अन्‍य प्रसंग में श्री गुरुजी ने कहा है, ''सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन हिंदू रचना में राज्‍यसत्ता एवं धनसत्ता दोनों शक्तियों की देखरेख ऐसे व्‍यक्ति किया करते थे जिसका अपना कोई व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ नहीं होता था। सत्ता और धन के प्रलोभन से ऊपर उठकर आध्‍यात्मिक अधिकार का धर्मदंड धारण करते हुए सदा सतर्क रहने वाले और इन दोनों शक्तियों में से किसी भी एक द्वारा किए अन्‍याय का निराकरण करने की क्षमता रखने वाले लोग और उनकी अखंड परंपरा ही हमारे प्राचीन राष्‍ट्र के वैभव एवं अमरता का प्राण रही है।'' यह ऋषि परंपरा भारत में अखंड चलती आयी है। पंडित दीनदयाल जी इसी वर्ग के थे और इसीलिए अत्‍यंत परिश्रमपूर्वक गहन मनन एवं चिंतन करते हुए उन्‍होंने मानवता के रोगों का अचूक निदान उपरिनिर्दिष्‍ट रूप में किया था।

''मुझे तीन बातों की ओर ध्‍यान दिलाना है- पहली कि भारती का स्‍थान विश्‍व में बहुत ही महत्‍वपूर्ण है और वह सदैव वैसा ही रहता आया है। बिल्‍कुल प्रारंभ में, जब संस्‍कृति का व प्रचार अपने मूल स्‍थान से, जहाँ आज का इराक है, पूर्व और पश्चिम की ओर होना प्रारंभ हुआ। तभी से भारत का स्‍थान महत्‍वपूर्ण रहता आया है। मेरा दूसरा कथन यह है कि भारत आज के विश्‍व का सार-भूत स्‍वरूप ही है। संपूर्ण विश्‍व को त्रस्‍त करने वाले अनेक प्रमुख प्रश्‍न आज भारत में विशेष रूप से सामने आए हैं और उसका समाधान भारतीयों के राष्‍ट्रीय प्रश्‍न के नाते करने के प्रयास हो रहे हैं। भारत की जनता और सरकार यह प्रयास कर रही है। तीसरी बात भारत में जीवन की ओर देखने की एक दृष्टि है और मानव के व्‍यवहारों को निभाने की एक ऐसी भूमिका भी है जो केवल भारत में ही नहीं, संपूर्ण विश्‍व में आज की परिस्थिति में अत्‍यंत उपकारक सिद्ध होगी।''

''इस अति सुंदर और इसीलिए अत्‍यंत कष्‍ट-साध्‍य आदर्श के अनुसार, जो आपकी भारतीय परंपरा की रिक्‍थ (विरासत) है, अपना जीवन बनाने में भारत यदि कहीं असफल हो जाता है तो संपूर्ण मानव जाति के भावी कल्‍याण में बाधा उपस्थित होगी। भारत पर इतना महान आध्‍यात्मिक दायित्‍व है।''

नियति द्वारा सौंपा गया यह ऐतिहासिक एवं जागतिक दायित्‍व निभाने की क्षमता अपने हिंदू राष्‍ट्र में निर्मित हो। इसके लिए पंडित जी ने निरंतर प्रयास किया था। उनके बहुआयामी कार्य का वही लक्ष्‍य था। इसी उद्देश्‍य से राष्‍ट्रीय एवं अंतरराष्‍ट्रीय जीवन के विविध क्षेत्रों में मौलिक विचारों का विकास करते रहने का प्रयास उन्‍होंने किया। इस कार्य का सूत्र पंडित जी ने जहाँ नीचे रखा, वहीं से उसे उठाकर आगे बढ़ाना, उन्‍हें सच्‍ची श्रद्धांजलि होगी। इस दृष्टि से प्रयत्‍नशील होने की प्रेरणा इस 'विचारदर्शन' के द्वारा कुछ विचारकों को मिली तो इसके लेखकों के परिश्रम सार्थक माने जाएँगे।

स्‍वतंत्रता के बाद भारत की अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रजा परिषद् द्वारा किए गए इस संग्राम का संपूर्ण इतिहास अभी प्रकाश में नहीं आया है। प्रो. बलराज मधोक के लेखों में इसके बारे में कुछ उल्‍लेख हैं, किंतु संपूर्ण इतिहास का लिखा जाना आवश्‍यक है।

इस भाषण का प्रतिवेदन दीनदयाल शोध संस्‍थान को त्रैमासिक पत्रिका 'मंथन' के मार्च, 1980 के अंक में छपा है। उदाहरण के लिए उसका कुछ भाग यहाँ उद्धृत कर रहे हैं : ''महामंत्री के पद पर चुने जाने के लिए उनके द्वारा स्‍वयंसेवक और प्रचारक की भूमिका में प्रकट किए गए गुण एवं संस्‍कार कारण बने थे। संघ का उत्तम कार्यकर्ता बनने के लिए लोग-संग्रह के गुणों की सबसे अधिक आवश्‍यकता है। 'जैसी कथनी वैसी करनी', ऐसा आचरण होना चाहिए। कथनी और करनी में जो तालमेल नहीं रख सकता, वह लोक-संग्रह नहीं कर सकता। लोगों को एकत्र करने के बाद उनके जीवन को एक विशिष्‍ट दिशा देनी होती है। राष्‍ट्र एवं समाज के लिए संपूर्ण समर्पण-भाव का गुण उन्‍हें अंत:करण में उतारना होता है। यह सब प्रचारक के व्‍यक्तिगत जीवन एवं व्‍यवहार द्वारा ही हो सकता। केवल भाषणबाजी एवं चालाकी करने से लोक-संग्रह नहीं हो सकता। उसके आधार पर मनुष्‍य-निर्माण नहीं किया जा सकता।

यहाँ किसी को भी यह पूछने का मोह हो सकता है कि आज दीनदयाल जी जीवित होते तो उन्‍होंने क्‍या किया होता? इस प्रश्‍न का उत्तर देना कठिन है। शायद आज की राजनीतिक परिस्थिति में वे राजनीति से संन्‍यास ले लेते। सच देखा जाए तो उन्‍हें राजनीति से कभी हार्दिक प्रेम नहीं था। जनता पार्टी के निर्माण के बाद कुल रागरंग देखकर वे सत्ता के सभी स्‍थानों से दूर रहते। इतना ही नहीं, शायद वे जनता पार्टी से अलग हो जाते और फिर से अपने संघ कार्य में रम जाते। इतने पर भी उनके लिए राजनीतिक क्षेत्र में रहना यदि अपरिहार्य होता, तो उन्‍होंने, 'दोहरी निष्‍ठा' का प्रश्‍न उपस्थित होते ही राजनीति को राम राम किया होता और स्‍पष्‍ट घोषणा की होती, 'मैं पहले संघ का स्‍वयंसेवक हूँ और आज मैं जो कुछ भी हूँ, संघ के कारण ही हूँ।' किंतु मान लीजिए परिस्थिति के दबाव के कारण ऐसी स्थिति में भी राजनीति में काम करना उनके लिए अपरिहार्य हो जाता तो वे अपना समय दिल्‍ली में व्‍यर्थ नष्‍ट न करते। निरंतर भ्रमण करते रहते। देश के अपने असंख्‍य सहयोगियों से उन्‍होंने निरंतर संपर्क रखा होता और प्राप्‍त परिस्थिति एवं जनता की मन:स्थिति के बारे में अपने विचार एवं परिकल्‍पनाएं उन्‍हें सतत समझाकर बतायी होतीं। कार्यकर्ताओं एवं जनता के साथ उन्‍होंने प्रयत्‍नपूर्वक अखंड संपर्क रखा होता। आज चल रही राजनीति में वे भाग न लेते। प्रत्‍युत, धीरे-धीरे एक उत्तम फल की रचना करते। कारण राजनीतिक दल को उन्‍होंने कभी सत्ता-प्राप्ति का साधन नहीं माना। अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देकर सत्ता करना उन्‍हें स्‍वीकार नहीं था। सत्ता से दूर रहकर तत्‍वाधिष्ठित एवं सुसंगठित दल वे खड़ा करते, चाहे वह दल प्रारंभ में कितना भी छोटा क्‍यों न होता।''

'' राष्‍ट्र का उत्‍थान करना हो तो ऐसे ही नए नेताओं की आवश्‍यकता है जो अपने नाम व ख्‍याति अथवा प्रसिद्धि की अथवा प्रधानमंत्री की भी कोई परवाह नहीं करते।''

उदाहरण के लिए पंडित जी की निम्‍न प्रतिक्रिया देखें:-

''अभी हाल ही में स्‍वतंत्र दल के महामंत्री ने हैदराबाद में यह घोषणा की है कि उनका दल जनसंघ से तब तक समझौता नहीं कर सकेगा जब तक जनसंघ पाकिस्‍तान और कश्‍मीर के संबंध में अपनी नीति में परिवर्तन न करे। मैं मसानी को धन्‍यवाद देता हूँ कि उन्‍होंने अपना मंतव्‍य इतने स्‍पष्‍ट रूप से प्रकट किया। उनकी इस घोषणा ने हमें चुनाव संबंधी उस समझौते के बंधन से मुक्‍त कर दिया जो स्‍वतंत्र दल के नेताओं की पाक और कश्‍मीर संबंधी वर्तमान नीति के कारण, हमारे लिए पर्याप्‍त परेशानी का कारण बन गया था।''

यह स्‍वभाविक है कि जनसंघ किसी भी दल से, जो देश के किसी भू-भाग को आक्रमणकारी के हाथ सौंपने का विचार रखता है, कोई समझौता न करे। ...अच्‍छाई-बुराई के संबंध में हमें श्री मसानी के उपदेशों की आवश्‍यकता नहीं है। देश की एकता और अखंडता का प्रश्‍न श्रद्धा का विषय है और उसकी प्राप्ति के लिए हम कोई भी कसर उठा नहीं रखेंगे।''

(पान्‍चजन्‍य 27 जुलाई 1964 पृष्‍ठ-10)।

डा. अम्‍बेडकर की भूमिका यह थी-

''अब ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि यह देश जाति और संप्रदायों के कारण विघटित हो गया है और अल्‍पसंख्‍यकों के संरक्षण के लिए संविधान में उचित प्रावधान किए बिना वह संगठित एवं स्‍वशासित समाज नहीं बन सकेगा। किंतु अल्‍पसंख्‍यकों को भी यह बात ध्‍यान में रखनी होगी कि आज हम अनेक पंथों में क्‍यों न बंटे और जाति के कारण हमारे छोटे-छोटे टुकड़े क्‍यों न हुए हों, हमारा उद्देश्‍य भारत की एकता ही है। अल्‍पसंख्‍यकों को ऐसी कोई माँग स्‍वेच्‍छा या अनिच्‍छा से नहीं करनी चाहिए जिससे इस उद्देश्‍य को हानि पहुँचे।''

6 दिसंबर 1956 को बाबासाहेब के महानिर्वाण के बाद 'अखिल भारतीय शेड्यूल्‍ड कास्‍ट्स फेडरेशन' के राष्‍ट्रीय कार्यसमिति की बैठक‍ 31 दिसंबर 1956 तथा 1 जनवरी 1957 को नगर में हुई।

'उसमें बैरिस्‍टर राजाभाऊ खोब्रागड़े को अध्‍यक्ष चुना गया और सर्वोच्‍च केंद्रीय मंडल की स्‍थापना की गई। इस अध्यक्ष मंडल में सर्वश्री बैरिस्‍टर राजाभाऊ खोब्रागड़े, दादासाहेब गायकवाड़, जी.टी. परमार, एम. रत्‍नम, आर.डी. भंडारे, के.बी. तलटवटकर तथा बी.सी. कांबले आदि थे। उसके बाद 3 तथा 4 अक्‍टूबर 1957 को नागपुर में निमंत्रित विशेष अधिवेशन में अस्‍थायी कार्यसमिति की घोषणा की गयी और उसकी अवधि 3 अक्‍टूबर 1958 तक घोषित की गई। बैरिस्‍टर खोब्रागडे ने यह अवधि 3 मार्च 1959 तक बढ़ाने की घोषणा की। यह बात उस दल के कुछ वरिष्‍ठ नेताओं को भायी नहीं। बाबू हरिदास आवले, एन.एम. कांबले, श्री दादासाहेब रूपवते तथा बी.सी. कांबले ने यह भूमिका ली कि 3 अक्‍टूबर 1958 के बाद अब दल का कोई पदाधिकारी नहीं है और बैरिस्‍टर अवैधानिक है। यह तांत्रिक विवाद दल के विघटन के कारण बना। किंतु वस्‍तुत: व्‍यक्तिवाद एवं जाति-उपजातिवाद के आधार पर दल में विभिन्‍न गुट तैयार होना कभी का प्रारंभ हो चुका था। यह गुटबाजी बढ़ते-बढ़ते 'रिपब्लिकन पार्टी' लगभग 13 गुटों में विभक्‍त हो गयी। हर गुट अपनी अलग-अलग नीति निश्चित करता रहा और सबको मिलकर दलित लोगों की माँगों के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति कम होने लगी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि 'शे.का. फेडरेशन', 'रिपब्लिन पार्टी तथा नीले झंडे के प्रति सबके मन में प्रेम होते हुए भी नेतृत्‍व के बारे में पहले जैसी श्रद्धा नहीं रही। वह टूट गयी और उसी में से 'दलित पैंथर' जैसे उग्रवादी आंदोलन की भूमिका तैयार हुई। इस सब के होते हुए भी नामदेव ढसाल, राजा ढाले आदि लोगों के नेतृत्‍व में 'दलित पैंथर' का प्रत्‍यक्ष उदय पंडित जी के जीवित रहते तक नहीं हुआ था। अत: 'दलित पैंथर' के परिणामस्‍वरूप उत्‍पन्‍न हुई संवेदनशील परिस्थिति में हिंदुत्वनिष्‍ठ लोगों को कौन सी पद्धति से काम करना चाहिए। यह बताने की आवश्‍यकता पंडित जी के सामने नहीं आयी।

दलित पैंथर की स्‍थापना की घोषणा 9 जुलाई 1972 को सिद्धार्थ नगर, बापटी रोड, बम्‍बई में एक बैठक में सर्वश्री नामदेव ढसाल, राजा ढाले, लतीफ, खटिक, न.वि. पवार, अविनाश महातेकर, भाई श्रंगारे आदि लोगों की उपस्थिति में हुई।

सन् 1972-73 के लगभग कर्नाटक में सर्वश्री वसवलिंगप्‍पा, वी.टी. राजशेखर शेट्टी, कृष्‍णस्‍वामी, सिद्धलिंगप्‍पा, डा. डी.आर. नागरा आदि ने इस प्रकार का आंदोलन प्रारंभ किया और उसके अंतर्गत 'सवर्ण' निरोधी उत्तेजक तथा भड़काने वाला प्रचार भी प्रारंभ हुआ।

राजा ढाले से लेकर राजशेखर शेट्टी और 'दलित-मुस्लिम-सुरक्षा महासंघ' के नेता हाजी मस्‍तान तक इस आंदोलन का प्रभाव बहुत द्रुत गति से हुआ।

किंतु यह सारा घटनाक्रम सन् 1968 के बाद का है। सन् 1956 से 1968 तक दलित-नेतृत्‍व के प्रभावशाली व्‍यक्तियों में सर्वश्री दादासाहेब गायकवाड़, दा.ता. रूपवते, रा.सु. गवई, वासुदेव गाणार, राजाभाऊ खोब्रागड़े, हरिदास आवले, ना.हु. कुंभारे, डी.ए. कट्टी, बी.सी. कांबले, घनश्‍याम तलवटकर, रा.धों. भंडारे, एन. शिवराज, सखाराम मश्राम, श्रीमती शांताबाई दाणी, ईश्‍वरीबाई आदि के नाम उल्‍लेखनीय हैं। 1968 के बाद के काल में इन लोगों का प्रभाव क्रमश: कम होने लगा और दलित-नेतृत्‍व के क्षितिज पर नए व्‍यक्ति उदय होने लगे।

ठाणे में 1973 में गुरुजी के भाषण में उनके विचारों की सर्वोच्‍च अभिव्‍यक्ति हुई है। इस भाषण में उन्‍होंने आर्थिक प्रश्‍नों की ओर देखने की मूलभूत हिंदू दृष्टि विशद की है। उनके प्रतिपादन से स्‍वाभाविक रूप से जो निष्‍कर्ष निकलते हैं, निम्‍न प्रकार हैं:-

1. प्रत्‍येक नागरिक की जीवनविषयक प्राथमिक आवश्‍यकताओं को पूर्ण करना ही होगा।

2. समष्टि रूप में परमात्मा की उत्तम-से-उत्तम सेवा करते बने, इसके लिए भौतिक समृद्धि प्राप्‍त करनी होती है। संपत्ति का कम से कम अंश अपने लिए उपयोग में लाना होता है। यह अंश इतना ही हो कि जिसे लेने से इनकार करने पर सेवा करने की अपनी क्षमता ही खंडित हो जाएगी। उससे अधिक पर अधिकार बताना या व्‍यक्तिगत उपयोग के लिए उसको प्रयुक्‍त करना समाज के विरुद्ध चोरी करने जैसा अपराध है।

यावत् भ्रियते जठरं स्‍वत्‍वं हि देहिनाम्।

अधिक योऽभिमन्‍येत स स्‍तेनो दंडमर्हति।।

3. इस प्रकार हम समाज के केवल न्‍यासी हैं। हम सच्‍चे न्‍यासी बनें, तभी समाज की उत्‍कृष्‍ट सेवा कर सकेंगे।

4. अतएव व्‍यावहारिक संपत्ति जोड़ने की भी कुछ अधिकतम सीमा होनी चाहिए। व्‍यक्तिगत लाभ के लिए दूसरों के श्रम का गलत उपयोग करने का अधिकार किसी को नहीं।

5. लाखों लोग भूख से पीड़ित हों, तब अभद्र तड़क-भड़क पाप है। सभी भोगों पर न्‍यायोचित निर्बध होना चाहिए। 'उपभोक्‍तावाद' हिंदू संस्‍कृति के आदर्श के अनुरूप नहीं।

6. 'अधिक से अधिक उत्‍पादन और न्‍यायोचित वितरण' हमारा उद्देश्‍य होना चाहिए। राष्‍ट्रीय स्‍वावलंबन हमारा त्‍वरित लक्ष्‍य हो।

7. बेकारी एवं अर्ध-बेकारी की समस्‍याओं के विरुद्ध उपाय युद्धस्‍तर पर किए जाएँ।

8. औद्योगीकरण अपरिहार्य हो, तब भी वह पश्चिमी लोगों का अंधानुकरण करते हुए करने की कोई आवश्‍यकता नहीं। प्रकृति का दोहन करना होता है, उस पर बलात्‍कार करना नहीं होता। पर्यावरण विषयक बातों, प्रकृति के संतुलन तथा भावी पीढ़ियों की आवश्‍यकताओं का आकलन करना चाहिए। पर्यावरण अर्थशास्‍त्र तथा नीतिशास्त्र का समग्र विचार आवश्‍यक है, टुकड़ों में नहीं।

9. पूँजीप्रधान उद्योगों की अपेक्षा श्रमप्रधान उद्योगों पर बल दिया जाए।

10. हमारे तंत्र-विशारदों को व्‍यावसायिक लोगों के लाभ के लिए परंपरागत प्रविधियों (टैक्‍नीक्‍स) में सहज संभव परिवर्तन करने चाहिए। दृष्टि यह हो कि कामगारों में बेकारी बढ़ने का खतरा न रहे; उपलब्‍ध व्‍यवस्‍थापकीय एवं प्राविधिक (तांत्रिक) कौशल बेकार न जाए; आज के उत्‍पादन के साधन विपूँजीकृत होकर पूर्णत: निरुपयोगी न बनें; तंत्र विशारद अपना स्‍वदेशी तंत्र ज्ञान विकसित करे; उसमें उत्‍पादन प्रक्रिया के विकेन्‍द्रीकरण पर बल दिया जाए इसके लिए विद्युत की शक्ति की सहायता लेते हुए कारखानों के स्‍थान पर घर को ही उत्‍पादन का केंद्र बनानेका प्रयत्‍न हो।

11. सेवायोजन (रोजगार) की वृद्धि के साथ की कार्यक्षमता को भी बढ़ाना चाहिए।

12. प्रत्‍येक उद्योग में श्रम भी पूँजी का एक प्रकार होता है। प्रत्‍येक कामगार के श्रम का मूल्‍य पूँजी के अंश (शेयर) के रूप में आँका जाना चाहिए और श्रम रूपी पूँजी लगाने वाले अंशधारकों की श्रेणी में कामगारों को रखा जाना चाहिए।

13. उपभोक्‍ता का हित राष्‍ट्रीय हित का निकटतम आर्थिक समतुल्‍य है। सभी औद्योगिक संबंधों में समाज तीसरा और अधिक महत्‍वपूर्ण पक्ष होता है। 'सामूहिक सौदेबाजी' की प्रचलित महत्‍वपूर्ण कल्‍पना इस भूमिका के साथ सुसंगत नहीं है। उसके स्‍थान पर दूसरी कोई शब्‍द-योजना प्रयोग में लानी चाहिए। उदाहरण के लिए इसे 'राष्‍ट्रीय प्रतिबद्धता' कहा जा सकता है। कर्मचारी और नियोक्‍ता दोनों की राष्‍ट्र के प्रति कुछ वचनबद्धता इसमें से व्‍यक्‍त होगी।

14. श्रम के अतिरिक्‍त मूल्‍य का स्‍वामी राष्‍ट्र है।

15. औद्योगिक स्‍वामित्‍व के किसी सांचाबंद प्रकार से बंध जाना आवश्‍यक नहीं है। निजी उद्योग, राष्‍ट्रीयकरण, नगरीकरण, नगरपालिकाकरण, लोकतंत्रीकरण स्‍वयं-नियोजन (सेल्‍फ एम्‍प्‍लायमेंट), संयुक्‍त उद्योग आदि अनेक प्रकार हैं। प्रत्‍येक व्‍यावसायिक को अपने उद्योग की प्रकृति और राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था की आवश्‍यकताओं को ध्‍यान में लेकर उसके स्‍वामित्‍व का प्रकार निर्धारित करना होगा।

16. धर्म के मूलभूत सिद्धांतों से सुसंगत कोई आर्थिक-सामाजिक रचना का निर्माण करने की छूट हमें है।

17. किंतु प्रत्‍येक नागरिक की मनोरचना सुयोग्‍य ढंग से न की गई हो तो समाज की वाह्य रचना में ऊपरी परिवर्तन करने से कुछ होने वाला नहीं। किसी पद्धति पर चलने वाले लोग जैसे भले या बुरे होंगे वैसी ही वह पद्धति भली या बुरी बन जाएगी।

18. हमारी धारणा सदैव यही रहती आयी है कि व्‍यक्ति और समाज के संबंध संघर्ष के न होकर सुसंवादी एवं सहयोग के हैं। एक ही सत् तत्‍व सभी व्‍यक्तियों में व्‍याप्‍त है। यह बोध का आधार है। प्रत्‍येक व्‍यक्ति समग्र सामाजिक व्‍यक्तित्‍व का एक सजीव अवयव होता है।

19. संपूर्ण प्रकृति के साथ तादात्‍म्‍य के संस्‍कारों से किसी भी सामाजिक-आर्थिक रचना की सच्‍ची सामाजिक पूर्व-सिद्धता होती है।''

''संस्‍कृति शब्‍द द्वारा समाज-मानस पर हुए परिणामों की मूल दिशा व्‍यक्‍त होती है। यह दिशा उसकी अपनी होती है और इतिहास के प्रवाह में राग, लोभ, भावना, विचार, उच्‍चार एवं कृति के संकलित परिणामों से वह निष्‍पन्‍न हुई होती है।''

''लोग कभी कभी पूछते हैं, 'हिंदू संस्‍कृति की आपकी परिभाषा क्‍या है? उत्तर इतना ही है कि यद्यपि कोई परिभाषा नहीं की जा सकती, हमलोग उसे अनुभव करते हैं। संस्‍कृति की परिभाषा नहीं की जा सकती इसलिए उसे अस्‍वीकार करने वाले अनेक लोग हैं। वे कहते हैं, 'ऐसी बात का क्‍या उपयोग जिसकी परिभाषा करना ही संभव न हो।' किंतु क्‍या सह उक्तिवाद तर्कसंगत है? उदाहरणार्थ, प्राण बचाने के लिए सभी चिकित्‍सा विज्ञानों का विकास हुआ है। किंतु बिल्‍कुल आ‍धुनिक शास्‍त्रों से भी 'प्राण' की परिभाषा करते नहीं बनी है। किंतु चिकित्सा शास्‍त्र की उपादेयता में इसके कारण कोई बाधा नहीं आई है।

'जीवन का बाह्य आविष्‍कार एवं उसके मन पर होने वाले परिणाम उसके प्रत्‍यक्ष अस्तित्‍व का विश्‍वास दिलाने के लिए पर्याप्‍त हैं।'

-श्री गुरुजी

''धर्म के नियमों के अनुसार जब प्रकृति का परिष्‍कार होता है, तो उसे संस्‍कृति कहा जाता है। यह संस्‍कृति निश्‍चय ही मानव जीवन के धारणा और उसके उदात्तीकरण में समर्थ होगी।''

-दीनदयाल उपाध्‍याय

व्‍यक्तिगत वंश-शास्‍त्रीय दृष्टि से विचार करने पर संस्‍कृति अथवा सभ्‍यता का अर्थ ज्ञान, श्रद्धा-विषय, कला, नैतिक कल्‍पना, परिपाटी (रीति रिवाज), समाज के घटक के नाते प्राप्‍त की हुई पात्रता एवं आदतों का मिला जुला समुच्‍चय होता है।'' - ई.बी. टेलर (एक ब्रिटिश वंश शास्‍त्रज्ञ)

''संस्‍कृति इतिहास से निष्‍पन्‍न जीवन का एक प्रारूप होता है। विशिष्‍ट-जन-समूहों के सदस्‍य उसमें सहभागी होते हैं।''

क्‍लाइट क्‍लकहोहन (अमरीकन वंशशास्‍त्रज्ञ)

चीनी तत्‍वज्ञ लाओ झे का यह विवरण देखिए- ''साधु पुरुष सर्वसामान्‍य जन की अपेक्षा उच्‍च स्‍थान का इच्‍छुक हो तो अपने शब्‍दों से उसे लोगों को बड़प्‍पन देना चाहिए और स्‍वयं छोटापन लेना चाहिए। आगे रहकर लोगों का मार्गदर्शन करने की इच्‍छा हो तो उसे लोगों के पीछे रहना चाहिए। ऐसे व्‍यवहार के कारण उसका स्‍थान यद्यपि वस्‍तुत: उच्‍च है, लोग उसका भार नहीं अनुभव करेंगे। वह सबसे आगे रहा तब भी किसी के मन को उसके कारण ठेस नहीं पहुँचेगी। सभी मानव जाति उसका जय-जयकार करने में आनंद मानेगी और कोई उससे ऊब नहीं जाएगी। हम जो कर रहे हैं उसके लिए लोग साधुवाद दें, ऐसी साधु पुरुष की अपेक्षा नहीं होती। वह महान कार्य कर जाता है, किंतु उसका श्रेय कभी अपनी ओर नहीं लेता। अपनी योग्‍यता का प्रदर्शन करने की इच्‍छा उसे नहीं होती।''

पंडित नेहरू ने दिसंबर 1959 में राष्‍ट्रपति आइजनहावर के सम्‍मान में आयोजित स्‍वागत समारोह में कहा था-

''संपूर्ण इतिहास-काल में हम भारतीयों की मानसिकता का निर्माण विशिष्‍ट ढंग से हुआ है। आधुनिक काल में हमारा सबसे महान नेता धनवान नहीं था। उसके पास सैनिक सामर्थ्‍य नहीं था, और वह किसी भी सत्ता के पद पर भी नहीं था। फिर भी भारत के करोड़ों लोग उसके सम्‍मुख नत-मस्‍तक होते थे और उसका नेतृत्‍व स्‍वीकार करते थे। ऐसे ही लोगों का हम सम्‍मान करते हैं और मुझे लगता है, ऐसे लोगों का हम बिल्‍कुल आधुनिक विश्‍व में भी सदा आदर करते रहेंगे।''

(पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय विचार दर्शन' की प्रस्‍तावना) ***


यथार्थ और भ्रांतियाँ

भारत में समाज का नेतृत्‍व शासकों ने कभी नहीं किया। यह बात आप और कहीं नहीं पायेंगे। शासकीय सत्ताधारी लोगों को समाज ने ''शासकीय नेता'' माना, अर्थसत्ताधरियों को ''आर्थिक नेता'' समझा, लेकिन दोनों से श्रेष्‍ठ माने गए ''नैतिक नेता''। अपनी ''नीति सत्ता'', चारित्र्य नि:स्‍वार्थ जीवन, परोपकार, बुद्धि, समाज के प्रति आत्‍मीयता के कारण वे समाज के विश्‍वासपात्र बने। इस तरह के नैतिक नेताओं के प्रभुत्‍व के कारण ही भारत हजारों साल से सतत राष्‍ट्र के नाते जीवित रहता आया है। जहाँ-जहाँ सरकार ही समाज जीवन का केंद्रबिंदु बिना, वहाँ-वहाँ किसी भी कारण क्‍यों न हो सरकार संस्‍था टूटने पर वहाँ का समाज-जीवन भी टूट गया, समाप्‍त हो गया। इस प्रक्रिया में कई राष्‍ट्र संसार में समाप्‍त हुए, किंतु हमारा राष्‍ट्र अभी तक केवल इसलिए जीवित है कि यहाँ का समाज जीवन मात्र शासन के ऊपर कभी अवलंबित नहीं रहा। शासकीय एवं आर्थिक सत्ता के ऊपर भी हमारे यहाँ नैतिक ऋषियों का प्रभुत्‍व रहा। यदि हम राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने निकले हैं तो आज भी इस मौलिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति हमें करनी होगी।

महात्‍मा गांधी से किसी ने पूछा, ''राजनीति में आप अनशन, रामधुन, धर्म, संस्‍कृति, रामराज्‍य आदि बातों को क्‍यों लाते हो? इनका राजनीति से क्‍या संबंध है?'' महात्‍मा गांधी ने कहा, ''देखो, रोम के साम्राज्‍य का अनभिषिक्‍त सम्राट था ज्‍यूलियस सीजर। उसके पीछे संपूर्ण साम्राज्‍य की शक्ति थी। असंख्‍य आदमी थे। अब सोचो, ईसाई मत के संस्‍थापक जीसस क्राइस्‍ट थे। उनके मात्र बारह शिष्‍य थे। उनमें भी एक गद्दार निकला। जीसस क्राइस्‍ट को सूली पर चढ़ाया गया। आज सीजर सम्राट का कोई भी अनुयायी नहीं बचा किंतु केवल ग्‍यारह शिष्‍यों के नेता ईसा मसीह के करोड़ों शिष्‍य संसार भर में फैले हुए हैं। किसको विजयी कहोगे? केवल राजनीति करने वाले सम्राट सीजर को, या स्‍थायी नैतिक बातों के प्रति प्रतिबद्ध ईसा मसीह को?''

अग्नि का गुण है उष्‍णता एवं प्रकाश देना। सर्वसत्ताधारी भारतीय लोकसभा में यदि सर्वसम्‍मति से यह प्रस्‍ताव पारित किया जाए कि भविष्‍य में अग्नि अपना स्‍वभाव बदलकर ठंड एवं अंधकार प्रदान करने लगे तो क्‍या कोई परिणाम होगा? उस प्रस्‍ताव के कारण यदि कोई संविधान पंडित अग्नि को आलिंगन देने लगे तो उसका हाल क्‍या होगा? बहुमत के प्रस्‍ताव से अग्नि अपना गुण धर्म बदलने वाली नहीं, किंतु वह उसकी आर्थिक आंतरिक शक्ति है। स्‍पष्‍ट है कि सिद्धांतों की महत्ता उन पर चलने वालों की संख्‍या पर नहीं, उनकी अपनी अंतर्भूत शक्ति पर निर्भर करती है।

गगनं गगनाकारं सागर: सागरोपम:।

रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव।।

इसका अर्थ है कि आकाश आकाश के समान है, महासागर महासागर के समान है राम-रावण युद्ध की तुलना राम-रावण युद्ध से ही हो सकती है। इसी प्रकार जब कहा जाता है कि संघ संघ के जैसा है तो बाहरी व्‍यक्ति क्‍या समझेगा? वह नहीं समझ सकता। ''संघ'' एक ''अनन्‍वय'' अलंकार होने के कारण बाहर के लोग सद्हेतु, सद्भावना से भी समझने का प्रयत्‍न करेंगे तो भी पर्याप्‍त समय लगेगा। जब तक संघ के साथ प्रत्‍यक्ष परिचय नहीं होता तब तक संघ समझने में कठिनाई होती है।

मैंने स्‍वयं इस बात का अपने जीवन में अनुभव किया है। तब मैं मॉरिस कालेज, नागपुर में पढ़ता था। मैं और मेरे अन्‍य साथी अपने आपको बहुत ही प्रगतिशील विचारों का समझते थे। कुछ मित्रों को लाठी लेकर संघ में जाते हुए देखकर हम लोगों को उन पर दया आती थी। परंतु कुछ स्‍वयंसेवक मुझे संघ में ले जाने के लिए मेरे पीछे पड़ गए। संघ ने सिखाया है कि समाज पर आक्रामक प्रेम करो, अर्थात मान न मान मैं तेरा मेहमान। मेरे स्‍वयंसेवक मित्र मुझे भरसक संघ समझाने का प्रयत्‍न करते थे, किंतु उनकी बात मेरी समझ में नहीं आती थी। उनकी यह बात कि ''संघ का उद्देश्‍य मनुष्य का निर्माण करना है'' मेरी समझ के परे थी। यह संघ की शब्‍दावली है, उसका अपना विशिष्‍ट अर्थ है। वह अर्थ न समझने से अनर्थ भी हो सकता है। ईसा मसीह ने कहा कि ''The letter killeth" अर्थात् अक्षरों के कारण हत्‍या भी हो सकती है। जब हम मनुष्‍य हैं तो मनुष्‍य का निर्माण करना हमें निरर्थक लगा परंतु उन्‍हीं दिनों मुझे हमारे कालेज की पत्रिका में प्रकाशित एक कविता देखने को मिली, जिसमें कहा गया था कि हमें मनुष्‍य चाहिए। कविता इस प्रकार थी -

Wanted men!

Not systems, fit and wise

Not Faith, with rigid eyes!

Not wealth, in mountain piles!

Not power, with gracious smiles

Not even the potent pen.

Wanted men!

इस कविता को पढ़ने के बाद संघ की मनुष्‍य निर्माण की बात का भी स्‍मरण हो गया। इसके बाद एक और रोचक प्रसंग पढ़ने को मिला। ग्रीस के सर्वश्रेष्‍ठ विचारक डायजेनिस एक बार भरी दुपहरी में हाथ में लालटेन लेकर एथेंस के भरे बाजार में आए। लोगों के पूछने पर उन्‍होंने कहा, ''मैं मनुष्‍य ढूँढ रहा हूँ।'' लोग बड़े अचंभे में पड़ गए। उन्‍होंने कहा, ''हम सारे मनुष्‍य ही तो हैं, फिर उसकी खोज क्‍यों करते हो?'' डायजेनिस बहुत ही क्रोधित हो गए। उन्‍होंने आवेश में कहा, ''हट जाओ, मुझे मनुष्‍य चाहिए, बौने नहीं (Get our, I wanted men, not pygmies); मैं सोचने लगा कि संघ वाले भी कहते हैं कि मनुष्‍य चाहिए, वह कवि और डायजेनिस भी यही बात कहते हैं तो अवश्‍य इसमें कुछ अर्थ होगा। कुछ समय बाद इसी अर्थ का सेन्‍ट इगनेशियस का भी बचन देखा। उन्‍हीं दिनों स्‍वामी विवेकानन्‍द के चित्र के नीचे एक वाक्‍य पढ़ने को मिला, ''आई वांट मेन विथ कैपिटल 'एम' ! '' तब समझ में आया कि मनुष्‍य निर्माण भी कोई प्रक्रिया है। केवल दो हाथ, दो पैर होने से मनुष्‍य नहीं बनता। उसे मनुष्‍य बनाने के लिए कुछ करना पड़ता है, तब संघ के प्रति आस्‍था बढ़ी और फिर ज्ञात हुआ कि मनुष्‍य बनने के लिए कुछ संस्‍कार आवश्‍यक होते हैं।

अब यह बताना कठिन है कि संघ में कितने दिन तक जाने से कितने संस्‍कार होंगे। इसका कोई गणन यंत्र नहीं है। संस्‍कारों की प्रगति इतनी सूक्ष्‍म होती है कि उसे ग्रहण करने वाले को भी उसका ज्ञान नहीं हो पाता है। उन्‍हें वह अनजाने ग्रहण करता रहता है। नवजात शिशु हर क्षण बढ़ता रहता है, परंतु माता के लिए यह बताना कठिन है कि चौबीस घंटे के भीतर उसका बालक कितना बढ़ा होगा। हाँ, उसकी बालक को दस वर्ष के पश्‍चात देखने पर यह बताना सरल होता है कि वह कितना बढ़ा है। ठीक उसी प्रकार संस्‍कारों की प्रगति होती रहती है और कठिन परीक्षा के समय संस्‍कारयुक्‍त और संस्‍कारविहीन व्‍यक्ति की पहचान होती है। एक सुभाषित है।

काक: कृष्‍ण : पिक: कृष्‍ण: को भेद: पिक काकयो:।

वसंतमये प्राप्‍ते काक: काक: पिक: पिक:।।

अर्थात कोयल और कौवा दोनों काले रंग के होते हैं किंतु उनकी पहचान बसंत ऋतु आने पर होती है।

स्‍वयंसेवकों ने कई काम किए हैं। यहाँ एक छोटा सा उदाहरण पर्याप्‍त होगा। 1965 में जब भारत पर पाकिस्‍तान का आक्रमण हुआ था। तब थारत-पाकिस्‍तान सीमा पर स्थित फाजिल्‍का शहर में सरकार ने ''नागरिक सुरक्षा'' कार्यक्रम का प्रारंभ किया। वहाँ के प्रमुख राजनीतिक दल के जिलाध्‍यक्ष को नागरिक सुरक्षा समिति का अध्‍यक्ष चुना गया। कुछ समय बाद जब एक मंत्री महोदय वहाँ निरीक्षण के लिए आए तब संबंधित राजनीतिक दल के लोगों से उनकी शिकायत की कि ''जिलाधीश का आचरण बहुत पक्षपातपूर्ण है क्‍योंकि वे संघ वालों को ही नागरिक सुरक्षा में भर्ती होने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं। संघ वाले ही वहाँ भर्ती होकर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। हमारे दल के लोगों को निमंत्रित नहीं किया जाता है।'' ''आपका काम है उन्‍हें बुलाने जाते।'' उत्तर में जिलाधीश ने कहा कि, '' जब मैं उनके बंगले पर चौथे दिन पहुँचा तो जिलाध्‍यक्ष ने उत्तर दिया, ''जिलाधीश जी। आप मुझे पागल मत समझिए। मैं इन संघ वालों के समान आवारा नहीं हूँ। उनके रोज आने से क्‍या बिगड़ता है। न आगा, न पीछा। मैं तो बाल-बच्‍चे वाला गृहस्‍थ हूँ। मेरे तो नन्‍हें-नन्‍हें बच्‍चे हैं'' उस समय उनका सबसे छोटा लड़का एम.एससी. में पढ़ रहा था। अब परीक्षा के समय इस बात का पता चलता है कि संस्‍कारित हृदय और असंस्‍कारित हृदय में क्‍या अंतर होता है।

एक बार यूरोप के एक बड़े चित्रकार मायकेल एंजलों ने एक उत्तम चित्र बनाया और एक सज्‍जन को दिखाया। चित्र देखने पर सज्‍जन ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की तो माइकेल ऐंजलो ने कहा ''मैं इस चित्र में और भी सुधार करने वाला हूँ।'' छह महीने के बाद वे सज्जन चित्र देखने पुन: पधारे। माइकेल ने चित्र में जी सूक्ष्‍म सुधार किए थे, वे उन्‍हें समझाए। उक्‍त सज्‍जन बोले, ''यह तो साधारण सा परिवर्तन किया गया है, इसमे क्‍या अंतर पड़ने वाला है। ''Every Change is trifle, all changes are trifles" (प्रत्‍येक परिवर्तन छोटी बात है, सभी परिवर्तन छोटे होते हैं)। माइकेल उक्‍त कथन पर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने कहा, ''All right Sir! All changes are trifles; but nevertheless all these trifles put together make perfection and perfection is not trifle." अर्थात महोदय, यह ठीक है कि परिवर्तन छोटी बातें होती है, किंतु ये छोटी-छोटी बातें मिलकर ही पूर्णता प्रदान करती हैं, और पूर्णता छोटी कभी नहीं होती।'' छोटी-छोटी बातों को लोग ठीक नहीं समझते। वे कहते हैं कि चीन और पाकिस्‍तान की बात करना राष्‍ट्रभक्ति है, कबड्डी खेलने से क्‍या होगा। परन्‍तु यह सोचना भूल है। सामूहिक क्रियाओं द्वारा सामूहिकता के संस्‍कार होते हैं। इसलिए जो छोटी-छोटी बातें संघ स्‍थान पर होती हैं उनका अपना महत्‍व है।

('संकेत रेखा' से)

सोपान-2

(प्रमुख बिंदु)

v बापूराव भिशीकर ने ठीक कहा है कि, 'जिनकी मृत्‍यु के पश्‍चात् कार्यकर्ताओं में किंचित भी विचलितता नहीं आई और जिनका कार्य सुसूत्र रूप से चलता रहा, आधुनिक भारत में डॉक्‍टर जी ऐसे एकमेव नेता थे।'

v एक बार डाक्‍टर जी के पास दामोदर पंत नाम के कोई सज्‍जन आए और उन्‍होंने डॉक्‍टरजी से कहा, ''मैं एक थीसिस तैयार कर रहा हूँ, उनमें श्रेष्‍ठ पुरुषों के चरित्र लिखने हैं। आप अपना बायोडेटा दे दीजिए? डाक्‍टर जी ने कहा- मैं तो छोटा आदमी हूँ। कुछ लिखना है तो राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के बारे में लिखिए। मेरा जीवनचरित्र आदि कुछ है ही नहीं।'' कितने लोग आज इस तरह प्रसिद्धि का मोह टाल सकते है?

v Afterall, what is the criterion of one's greatness? श्री मेनन जी ने तुरंत ही उत्तर दिया, ' The Length of one's shadow on future! अर्थात भविष्‍यकाल पर जिसकी छाया कितनी लंबी, दूर तक पड़ती है वही यह निकष है।

v लौकिक साधुओं के शब्‍द अर्थानुगामी होते हैं किंतु आद्य ऋषियों के शब्‍दों का अनुगमन अर्थ करता है।

v शूद्रवर्ण भी मूलतया आर्य ही था, आर्य बाहर से नहीं आए अपितु वे भारत के ही मूल निवासी थे और पूर्वकाल में विश्‍वभर में एक ही संस्‍कृति वैदिक आर्य संस्‍कृति थी।

v ''रामायण प्रभु रामचंद्र की जीवनी है, किंतु वह वाल्‍मीकि ने लिखी, हनुमान जी ने नहीं।''

v कि 'मेरा कोई स्‍मारक नहीं होना चाहिए।' इन पंक्तियों को ठीक ढंग से जिन्‍होंने समझ लिया, धारण किया और क्रियान्वित किया-ऐसे हमारे आबाजी हमारे सामने आदर्श के रूप में है।'

v स्‍वयंसेवकों द्वारा चलायी गयी संस्‍थाओं पर कम्‍युनिस्‍ट दल की भांति नियंत्रण रखना संघ को स्‍वीकार नहीं। जैसा कि ऊपर कहा गया है, ऐसी कोई भी संस्‍था संघ का 'फ्रंट आर्गनाइजेशन' या 'ट्रांसमिशन-बेल्‍ट' नहीं। संघ के घटक (विंग्‍स) उसके अपने स्‍वयंसेवक ही हैं। संघ का संबंध स्‍वयंसेवकों के साथ है। उनसे यह आशा की जाती है कि अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में कार्य की रचना एवं विचारों का विकास वे संघ के आदर्शों के प्रकाश में करेंगे, किंतु कम्‍युनिस्‍ट दल की भांति विभिन्‍न क्षेत्रों में काम कर रहे कार्यकर्ताओं की गति‍विधियों पर नियंत्रण रखने की कल्‍पना संघ की योजना में बैठती नहीं।

v राष्‍ट्र नीति के लिए राजनीति और धर्मनीति के प्रकाश में राष्‍ट्रनीति भारत की परंपरा रही है।

v भगवान परशुराम ने 21 बार राजाओं का संहार किया था। आदर्श राजा के रूप में अंत में रामचंद्र सामने आए। रामराज्‍य की स्‍थापना के बाद परशुराम ने बन की ओर प्रस्‍थान किया। हम भी अपने द्वारा निर्मित संस्‍थाओं के बारे में मोह क्‍यों रखें ? छोटा बच्‍चा गाजर के साथ खेलता रहता है और जब खिलौने के रूप में उसका उपयोग समाप्‍त हो जाता है तो उसे खा डालता है। अपने ही हाथों से निर्मित संस्‍था भी जब राष्‍ट्रहित के विरोध में कार्य करेगी तो ऐसी स्‍वनिर्मित संस्‍था का विनाश करना धर्म ही होता है। राष्‍ट्र सर्वश्रेष्‍ठ है, संस्‍था नहीं।'' सत्ता-पिपासु राजनीतिक नेता भला क्‍या कभी ऐसा कह सकता है?

v रामचंद्र और भरत में चित्रकूट पर्वत पर अयोध्‍या के राज के स्‍वामित्‍व के बारे में विवाद हुआ। प्रत्‍येक का दूसरे से कहना था कि यह तुम्‍हारा है मेरा नहीं और तुम्‍हें ही इसे संभालना है। नव शिक्षित भारत की किसी नगरपालिका के एकाध वार्ड के लिए भी ऐसा विवाद सुनाई नहीं देगा।

v साम्राज्‍यवाद के एक प्रत्‍याशी की एक माँ ने भगवान से प्रार्थना की कि मुझ पर और मेरे पुत्र पर सदा संकट आते रहें ताकि हम सबको तुम्‍हारा स्‍मरण सदैव होता रहेगा। ऐसी प्रार्थना करने के जिए आज एक ग्राम पंचायत के प्रत्‍याशी की माँ भी तैयार नहीं होगी।

v 'राजा प्रजा का उपभोगशून्‍य स्‍वामी है'। 'राज्‍य का भोग अर्थात राज-संन्‍यास'। इन दोनों व्‍याख्‍याओं में जो अंतर्विरोध है, आज मैट्रिक फेल लड़के की समझ में सरलता से आएगा।

v 'तुम ही अपना बनाओ राजा, शीघ्र हमारे जीते जी'- ऐसा वर देवी से माँगने वाले समर्थ रामदास स्‍वामी प्रत्‍यक्ष में शिवा राज्‍याभिषेक के अवसर पर रायगढ़ में क्‍यों उपस्थित नहीं थे? उसी प्रकार 1967 में जब विभिन्‍न संविद सरकारों में जनसंघ के मंत्रियों का शपथ-ग्रहण समारोह हो रहा था, तब ''हम सज्‍जनगढ़ ही रहते हैं, शिवाजी का कौतुक देखते हैं।'' - इसी भावना से अजमेरी गेट कार्यालय में रहने वाले दीनदयाल की तटस्‍थता भी नई पीढ़ी के लिए अनाकलनीय ही रहेगी।

v हिंदू 'रिलीजन' नहीं है, वह राष्ट्रवाचक शब्‍द है। उससे भी बढ़कर महत्‍वपूर्ण बात यह है कि हिंदू-अवधारणा बहु-आयामी तथा अनेक पहलूवाली है। फलस्वरूप संकीर्ण पश्चिमी प्रणाली के अनुसार किसी परिभाषा की चौखट में उसे सीमित करना वास्‍तविकता से परे होगा।

v अहिंदुओं से यह अपेक्षा उचित ही है कि यहाँ की राष्‍ट्रीय संस्‍कृति के साथ वे एकात्‍म हों और फलस्वरूप हमारे राम, कृष्‍ण आदि राष्‍ट्रीय महापुरुषों के प्रति उनके मन में वैसा ही आदर हो जैसा कि पिरामिड के निर्माताओं के बारे में मिश्री, एटिल्‍ला के बारे में तुर्की अथवा दरायस के विषय में ईरानी मुसलमानों के मन में है।

v अर्नाल्‍ड टायनबी ने कहा, ''हिंदू धर्म यह मानकर चलता है कि सत्‍य और मुक्ति की ओर जाने के मार्ग अनेक हैं। उसे यह भी मान्य है कि ये विभिन्‍न मार्ग केवल एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु परस्‍पर पूरक हैं।''

v ''प्रेरकता सच्‍चा कार्य है। यथार्थ में प्रेरणा देने वाले एक शब्‍द का ही उच्‍चारण हो तो सूखी हड्डियों में भी चेतना का संचार हो जाएगा। प्रेरणादायी जीवन हो तो उसके परिणामस्‍वरूप हजारों कार्यकर्ताओं का निर्माण होगा।''

v नेता का व्‍यवहार ऐसा होना चाहिए कि प्रत्‍येक कार्यकर्ता के मन में यह विश्‍वास अपने आप-बिना कहे-निर्मित हो कि संगठन के अंतर्गत काम करने वाले कार्यकर्ताओं को नेता से सदैव योग्‍य न्‍याय ही मिलेगा और कार्यकर्ताओं का मूल्‍यमापन उनकी ध्‍येयनिष्‍ठा, गुणवत्ता तथा कर्तृत्‍व की कसौटियों पर ही किया जाएगा। व्‍यक्ति रुचि या अरुचि (पसंद-नापसंद) को ऐसे निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं होगा।

v नेता को अपने आचरण द्वारा यह भी सीख देनी होती है कि व्‍यक्तिगत सुविधा-असुविधा के बारे में कोई आग्रह न रखा जाए और सिद्धांत के बारे में किसी से भी कोई समझौता स्‍वीकार न किया जाए।

v ''हर मनुष्‍य को किसी न किसी समय जमुहाई आती ही है। वह स्‍वाभाविक ढंग से आ जाए, तो वह है प्रकृति : किंतु जानबूझकर मुँह टेढ़ा-मेढ़ा कर मुँह से ऊँची आवाज निकालना है तो विकृत। कतई कोई आवाज एवं प्रदर्शन के बिना जमुहाई करते समय मुँह के आगे रूमाल धरना, यह हुई संस्‍कृति।''

v संभाजी राजा को लिखे पत्र में समर्थ रामदास ने आग्रहपूर्वक लिखा, ''अखंड सावधान रहिए।'' यह सावधानता रखने वाला ही सफल संगठक, संघर्षकारी एवं लोकशिक्षक बन सकता है।

v हिटलर ने अपनी आत्‍मकथा में कहा है, ''एक ही व्‍यक्ति में तत्‍वचिंतक, संगठक एवं नेता के गुण हों, तो यह विश्‍व की अत्‍यंत दुर्लभ घटना होगी।''

v पंडित जी के नेतृत्‍व गुणों का साकल्‍य से विचार करना हो तो भगिनी निवेदिता द्वारा किए गए आद्य शंकराचार्य के नेतृत्‍व गुणों के मूल्‍यांकन का स्‍मरण हो आना स्‍वभाविक है। निवेदिता ने कहा था, ''शंकराचार्य जी में सेंट फ्रांसिस की भक्ति, एबेलार्ड की मेधा, मार्टिन लूथर का उत्‍साह एवं विमुक्‍तता और लोयोला के इग्‍नेशियस की व्‍यावहारिक कार्यक्षमता एकत्रित हुई थी।''

v ''इच्छित राजनीतिक उद्देश्‍यों की ओर जाने के लिए विचारधारा मार्गसूचक मानचित्र का काम करती है।''

v पश्चिम के पुनर्रचित नेतृत्‍वशास्‍त्र की परिभाषा में कहा जा सकता है कि पंडित जी का नेतृत्‍व रूपांतरकारी (Transforming) नेतृत्‍व था, कार्यसंपादक (Transactional) नेतृत्‍व नहीं।

v नेपोलियन के वाटरलू से लौटने के बाद समूचे फ्रेंच राष्‍ट्र द्वारा किया गया उनका मूल्‍यांकन बहुत ही घटिया स्‍तर का था। किंतु कुछ दशकों बाद उसी समूचे फ्रेंच राष्‍ट्र का यह मत बना कि नेपोलियन उनका बहुत श्रेष्‍ठ राष्‍ट्रपुरुष था। उसकी अस्थियों को गौरवपूर्वक सेंट हेलिना से लाया गया और उसकी मूर्तियाँ खड़ी की गयीं।

v जीसस क्राइस्‍ट को जिन राज्‍यकर्ताओं ने 'एक दुष्‍ट मनुष्‍य' कहकर सूली पर चढ़ा दिया था, उन्‍हें 330 वर्ष के बाद अपना मूल्‍यांकन बदलना पड़ा। वे राज्‍यकर्ता जीसस को केवल एक श्रेष्‍ठ पुरुष कहकर ही रुक नहीं गए, अपितु उन रोमन शासकों ने उसके मत को भी स्‍वीकार कर लिया।

v शायद संस्‍थापित उदाहरण जोन ऑफ आर्क का होगा। केवल गलत प्रचार के शिकार लेागों ने इस महान नारी की निंदा की। वेटिकन सिटी ने भी उसे एक 'नीच स्‍त्री' घोषित किया और उसे जीवित जलाया गया। किंतु पाँच सौ वर्ष बाद उसी वेटिकन सिटी ने उसको 'सेंट' कहकर गौरवान्वित किया।

v व्‍यक्ति के मूल्‍यांकन में जिस प्रकार कुछ समय लग जाना स्‍वाभाविक होता है, उसी प्रकार मौलिक, सर्वांगीण एवं उच्‍च विचारों के मूल्‍यांकन के लिए भी वह आवश्‍यक होता है। किंतु विचार दर्शन के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। विचारदर्शन यथाशीघ्र एवं विस्‍तृत मात्रा में होते रहना चाहिए। यह कार्य जितनी द्रुत गति से होगा, उतने शीघ्र ऐसे विचारों का योग्‍य मूल्‍यांकन करना विचारकों के लिए संभव होगा।

v कोपरनिकस की पुस्‍तक की पहली मुद्रित प्रति उसकी मृत्‍यु के कुछ ही घंटों पूर्व उसे मिली थी। उसके बाद उस पुस्‍तक की चर्चा कहीं भी नहीं हुई। 300 वर्ष बाद एक शास्‍त्रज्ञ ने उसका केवल उल्‍लेख मात्र किया और उसके 50 वर्ष बाद उस पुस्‍तक को नकारात्‍मक मान्‍यता मिली। कारण, प्रकाशन के 80 वर्ष बाद पोप महाशय ने उस पुस्‍तक को प्रक्षिप्‍त घोषित किया।

v महाराष्‍ट्र में ज्ञानेश्‍वरी की मान्‍यता सर्वमान्‍य थी। किंतु उस ग्रंथराज को भी जनमान्‍यता मिलने के लिए पर्याप्‍त प्रतीक्षा करनी पड़ी। ज्ञानेश्‍वरी का लेखन पूरा होने के ढाई पौने तीन सौ वर्ष बाद संत एकनाथ ने उसकी एक पुरानी प्रति खोज निकाली, उसे शुद्ध किया तथा ठीक से संवारकर फिर से जनता के सम्‍मुख रखा। तब जाकर उसे प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त हुई।

v श्री दि.वि. गोखले ने एक बार कहा था, ''राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ने महान लोगों का निर्माण किया, किंतु उन सबको बिना चेहरे (मुखाकृति) का रखा।''

v ध्‍येयवादी एवं विचारी पुरुष अपनी बुद्धि के किबाड़ कभी बंद नहीं करता। वह वस्‍तुस्थिति के सभी पक्षों को ध्‍यान में रखता है इसीलिए उसमें एकांगिता नहीं होती। किंतु ऐसे व्‍यक्ति के विचार में ढुलमुलपन भी नहीं रहता। सभी अनिश्चित, भगवान भरोसे और ढुलमुल अवस्‍था उसकी नहीं होती। ध्‍येयवादी होने के साथ निश्‍चय ही वह ध्‍येयकेंद्रित अर्थात एककेंद्रित होता है, किंतु समझदारी के कारण एकांगी नहीं होता। एककेंद्रित किंतु सर्वांगीण विचार की क्षमता वह रख सकता है।

v सुखी होना एक अवस्‍था है। इसका अर्थ है सुख प्रत्‍यक्ष अनुभूति के स्‍तर पर होता है। ऐसी भावना और संवेदना के स्‍तर पर, जिसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता, सुख का अति निकट से अनुभव सुख की अवस्‍था में अंतर्भूत होता है। 'सुख' शब्‍द वर्णनातीत अवस्‍था पर चिपकाया हुआ एक 'लेबल' पर प्रतीक है। 'सुख' अमूर्त या परिकल्‍पना की कक्षा में आने वाला तत्‍व है। विशिष्‍ट अवस्‍था एक अनुभव होता है। उस अवस्‍था का वर्णन एक प्रतीक मात्र रहता है। अनुभव और प्रतीक दोनों पर समान नियम लागू नहीं होते।''

v ''राष्‍ट्रीयता विश्‍व मानवता से अलग नहीं की जा सकती। ''

v ''…… हिंदुत्व केवल एक संघीय (फेडरल) परिकल्‍पना नहीं है। वह उससे भी आगे गया है, इतना आगे कि भारत विश्‍व एकता का अर्थात जागतिक संघराज्‍य का ऐसा प्रतीक बन जाए जिसे कोई भी आकर देख सकता है।''

v ''आधुनिक संस्‍कृति का मार्ग मानवता से राष्‍ट्रीयता की ओर होता हुआ पशुता की ओर जाता है।''

v पंडित जी भारत के प्राचीन ऋषि संस्‍था के प्रतिनिधि थे। आचार्य जावडेकर ने इसे 'यदिवर्ग' की संज्ञा दी है। आचार्य विनोवा जी ने उसे 'आचार्य कुल' कहा है और पू. श्री गुरुजी ने 'ऋषि संस्‍था'' कहकर उसका गौरव किया है। वर्ग-कल्‍पना-रहित-सज्‍जन-समूह हिंदू समाज-रचना की विशेषता है।

v ''इस अति सुंदर और इसीलिए अत्‍यंत कष्‍ट-साध्‍य आदर्श के अनुसार, जो आपकी भारतीय परंपरा की रिक्त (विरासत) है, अपना जीवन बनाने में भारत यदि कहीं असफल हो जाता है तो संपूर्ण मानव जाति के भावी कल्‍याण में बाधा उपस्थित होगी। भारत पर इतना महान आध्‍यात्मिक दायित्‍व है।''

v ''राष्‍ट्र का उत्‍थान करना हो तो ऐसे ही नए नेताओं की आवश्‍यकता है जो अपने नाम व ख्‍याति अथवा प्रसिद्धि की अथवा प्रधानमंत्री की भी कोई परवाह नहीं करते।''

v 'जीवन का वाह्य आविष्‍कार एवं उसके मन पर होने वाले परिणाम उसके प्रत्‍यक्ष अस्तित्‍व का विश्‍वास दिलाने के लिए र्प्‍याप्‍त हैं।'

v ''साधु पुरुष सर्वसामान्‍य जन की अपेक्षा उच्च स्‍थान का इच्‍छुक हो तो अपने शब्‍दों से उसे लोगों को बड़प्‍पन देना चाहिए और स्‍वयं छोटापन लेना चाहिए। आगे रहकर लोगों का मार्गदर्शन करने की इच्‍छा हो तो उसे लोगों के पीछे रहना चाहिए। ऐसे व्‍यवहार के कारण उसका स्‍थान यद्यपि वस्‍तुत: उच्‍च है, लोग उसका भार नहीं अनुभव करेंगे। वह सबसे आगे रहा तब भी किसी के मन को उसके कारण ठेस नहीं पहुँचेगी। सभी मानव जाति उसका जय -जयकार करने में आनंद मानेगी और कोई उससे ऊब नहीं जाएगा। हम जो कर रहे हैं उसके लिए लोग साधुवाद दें, ऐसी साधु पुरुष की अपेक्षा नहीं होती। वह महान कार्य कर जाता है, किंतु उसका श्रेय कभी अपनी ओर नहीं लेता। अपनी योग्‍यता का प्रदर्शन करने की इच्‍छा उसे नहीं होती।''

v ''संपूर्ण इतिहास-काल में हम भारतीयों की मानसिकता का निर्माण विशिष्‍ट ढंग से हुआ है। आधुनिक काल में हमारा सबसे महान नेता धनवान नहीं था। उसके पास सैनिक सामर्थ्‍य नहीं था, और वह किसी भी सत्ता के पद पर भी नहीं था। फर भी भारत के करोड़ों लोग उसके सम्‍मुख नत-मस्‍तक होते थे और उसका नेतृत्‍व स्‍वीकार करते थे। ऐसे ही लोगों का हम सम्‍मान करते हैं और मुझे लगता है, ऐसे लोगों का हम बिल्‍कुल आधुनिक विश्‍व में भी सदा आदर करते रहेंगे।''

v अग्नि का गुण है उष्‍णता एवं प्रकाश देना। सर्वसत्ताधारी भारतीय लोकसभा में यदि सर्वसम्‍मति से यह प्रस्‍ताव पारित किया जाए कि भविष्‍य में अग्नि अपना स्‍वभाव बदलकर ठंड एवं अंधकार प्रदान करने लगे तो क्‍या कोई परिणाम होगा? उस प्रस्‍ताव के कारण यदि कोई संविधान पंडित अग्नि को आलिंगन देने लगे तो उसका हाल क्‍या होगा? बहुमत के प्रस्‍ताव से अग्नि अपना गुण-धर्म बदलने वाली नहीं, किंतु वह उसकी आर्थिक आंतरिक शक्ति है। स्‍पष्‍ट है कि सिद्धांतों की महत्ता उन पर चलने वालों की संख्‍या पर नहीं, उनकी अपनी अंतर्भूत शक्ति पर निर्भर करती है।

v कोयल और कौवा दोनों काले रंग के होते हैं किंतु उनकी पहचान बसंत ऋतु आने पर होती है।

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खण्‍ड - 6

सोपान-3

सोपान-3 (संस्‍मरण)

1. माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी - एक विशाल किंतु सहज व्‍यक्तित्‍व - प्रो. आद्या प्रसाद पाण्‍डेय, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

2. भारतीय अर्थवाद के पुरोधा - मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी - अयोध्‍या नाथ मिश्र, डोरण्‍डा, राँची (झारखंड)

3. भविष्‍य को अवलोकिक करने वाले कार्यमग्‍न - दत्तोपंत ठेंगड़ी - राजाभाऊ पोपळी, नागपुर (विदर्भ)

4. मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी - व्‍यक्तित्‍व का परिचय- दिनकरराव जलताड़े विलासपुर (छत्तीसगढ़)

5. अनोखी कार्यशैली - मुकुंद आठले सतारा, (महाराष्‍ट्र)

6. करुणाशील ममतामय: मा. ठेंगड़ी जी - राम लुभाया बावा चौक मेहता, जिला-अमृतसर, (पंजाब)

7. शब्‍द संकेत

8. संपादक परिचय


सोपान-3

संस्‍मरण

माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी - एक विशाल किंतु सहज व्‍यक्तित्‍व

- प्रो. आद्या प्रसाद पाण्‍डेय

प्रोफेसर, अर्थशास्‍त्र विभाग,

काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

बात 1974 की है। वर्ष 1974 में काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में सभी तीनों पदों परअखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की भारी मतों से विजय हुई थी।

उस समय मैं, आद्या प्रसाद पाण्‍डेय छात्रसंघ के महामंत्री पद पर चुना गया था। सर्वसम्‍मति से यह तय हुआ कि छात्रसंघ के उद्घाटन हेतु माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को मुख्‍य अतिथि एवं वक्‍ता के रूप में बुलाया जाए। प्रश्‍न यह था कि माननीय ठेंगड़ी जी को मुख्‍य अतिथि बनाने हेतु कुलपति की सहमति कैसे ली जाए क्‍योंकि कुलपति डा. कालूलाल श्रीमाली घोर संघ विरोधी एवं रशियन लाबी के पुराने कांग्रेसी थे। मैं कुलपति के पास दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के उद्घाटन का प्रस्‍ताव लेकर गया एवं उनसे माननीय दत्तोपंत जी का पूरा परिचय देते हुए चर्चा की। डा. श्रीमाली ने कहा कि वे तैयार हो जाएंगे क्‍योंकि मैंने सुना है कि वे बहुत बड़े विचारक हैं। कुलपति महोदय ने कहा कि छात्रसंघ का उद्घाटन कोई राजनीतिक व्‍यक्ति करे यह मैं नहीं चाहता। हाँ ठेंगड़ी जी के नाम पर मुझे कोई आपत्ति नहीं, वह अच्‍छे व्‍यक्ति हैं। यदि वह नहीं तैयार होंगे तो उद्घाटन मैं करूँगा। हमलोग दंग रह गए कि श्रीमाली जैसा घोर राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का विरोधी कैसे माननीय ठेंगड़ी जी के नाम पर तैयार हो गए।

छात्रसंघ के निमंत्रण को महान विचारक एवं भारतीय मजदूर संघ के संस्‍थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने सहर्ष स्‍वीकार कर लिया। उनके नाम पर उस समय काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डा. कालूलाल श्रीमाली ने भी सहर्ष सहमति दी। माननीय ठेंगड़ी जी को मुगलसराय स्‍टेशन पर स्‍वागत करके विश्‍वविद्यालय लाने हेतु मैं स्‍वयं पर गया। हमारे साथ उस समय के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रदेश मंत्री श्री काशीनाथ मौर्य भी थे। रेलगाड़ी से उतरने के बाद बहुत ही सहज रूप से माननीय ठेंगड़ी जी ने हम लोगों के अभिवादन को स्‍वीकार किया तथा स्‍नेहवश हम लोगों की पीठ थपथपायी। रास्‍ते में सहज भाव से उन्‍होंने छात्रसंघ की गतिविधियों की जानकारी ली। विश्‍वविद्यालय के अतिथि गृह में कुछ समय विश्राम करने के बाद उन्‍हें लेकर हम लोग कार्यक्रम स्‍थल पर आए। माननीय ठेंगड़ी जी के मंच पर आते ही पंडाल में उस्थित छात्र-छात्राओं एवं अध्‍यापकों के विशाल समुदाय ने करतल ध्‍वनि से उनका स्‍वागत किया। मंचीय औपचारिकताओं को पूरा करने के पश्‍चात् माननीय ठेंगड़ी जी ने अपना उद्बोधन दिया।

अपने उद्घाटन भाषण में उन्‍होंने विश्‍वविद्यालय की स्थापना के उद्देश्‍यों पर प्रकाश डाला तथा अनेकों प्रेरणात्‍मक संस्‍मरण सुनाए। इस दौरान उन्‍होंने काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के पूर्व प्राध्‍यापक एवं राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक रहे परम पूजनीय गुरुजी को भी याद किया तथा मालवीय जी के साथ के उनके अनेक प्रसंगों का उल्‍लेख किया। माननीय ठेंगड़ी जी ने विद्यार्थियों को संदेश दिया कि विश्‍व की अनेकों समस्‍याओं का समाधान भारत ने पूर्व में दिया है और आज भी समस्‍या समाधान में सक्षम हैं। इस क्षेत्र में काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के विद्यार्थियों का बहुत ही सक्रिय योगदान हो सकता है। उन्‍होंने कहा कि यदि सच्‍चे मन से दृढ़तापूर्वक कार्य करने का संकल्‍प लेकर प्रयत्‍न किया जाए तो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सफलता प्राप्‍त की जा सकती है। माननीय ठेंगड़ी जी ने पंडित दीनदयाल जी का स्‍मरण करते हुए कहा कि उन्‍होंने पूरे विश्‍व के कल्‍याण के लिए ''एकात्‍म-मानववाद'' का दर्शन दिया।

संघ के संस्‍थापक माननीय डा. हेडगेवार एवं महामना का उल्‍लेख करते हुए उन्‍होंने कहा कि डा. साहब ने शाखा के माध्‍यम से एवं महामना ने शिक्षण संस्‍था के माध्‍यम से व्‍यक्ति निर्माण की प्रक्रिया शुरू की जो सतत जारी रहेगी एवं भारत सहित संपूर्ण विश्‍व का कल्‍याण इसी माध्‍यम से संभव होगा। उन्‍होंने विद्यार्थियों का आवाहन किया कि वे जहाँ भी जाएं महामना के आदर्शों को ध्‍यान में रखकर कार्य करें, ईमानदारी एवं मेहनत से लक्ष्‍य के भेदन का प्रयास करें, सफलता उनका कदम चूमेगी।

अपने अध्‍यक्षीय संबोधन में काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के कुलपति एवं छात्रसंघ के मानद संरक्षक; पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में भारत सरकार के पूर्व शिक्षामंत्री रह चुके डा. कालूलाल श्रीमाली ने कहा कि माननीय ठेंगड़ी जी का आज का संबोधन विश्‍वविद्यालय के इतिहास में अमर रहेगा एवं उन्‍होंने जिस तरह से छात्रों को प्रेरणात्‍मक संदेश दिया उसे वे सदैव याद रखेंगे तथा यदि उसका एक अंश भी अपने जीवन में उतार सकें तो सफलता की सीढ़ियों पर आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकेगा।

माननीय ठेंगड़ी जी के उद्बोधन की कई दिनों तक चर्चा होती रही। कार्यक्रम के पश्‍चात् माननीय ठेंगड़ी जी ने अनेकों विद्यार्थियों से व्‍यक्तिश: मुलाकात की तथा सैकड़ों विद्यार्थियों को आटोग्राफ दिया एवं उनके साथ फोटो खिंचवाई। बाद में वह स्‍वयं पैदल चलकर छात्रसंघ भवन गए एवं कार्यकर्ताओं के साथ जलपान किया। उनके इस सहज आचरण की चर्चा पूरे विश्‍वविद्यालय में कई दिनों तक होती रही।


भारतीय अर्थवाद के पुरोधा -दत्तोपंत ठेंगड़ी

अयोध्‍यानाथ मिश्र

त्रिपाठी कॉलोनी,

डोरंडा, राँची (झारखंड)।

गीता में भगवान कृष्‍ण ने अर्जुन को वैराट्य दर्शन के क्रम में कहा-

''तपस्विभ्‍योऽधिको योगी ज्ञानिभ्‍योपि मतोऽधिक:।

कर्मि भ्‍यश्‍चाधिको योगी तस्‍मद्योगी भवार्जुन।।

-श्रीमद्भगवद्गीता 6:46

और योग कर्मसु कौशलम्। तपस्‍या, ज्ञान और कर्म के समुच्‍चय के शीर्ष से ऊपर आसीन योगी विरले पाए जाते हैं। सामाजिक-दार्शनिक दत्तोपंत ठेंगड़ी इसी योगी परंपरा की एक कड़ी थे। कौशलयुक्‍त कर्म ज्ञान और तपोमय जीवन के अभूतपूर्व उदाहरण के रूप में उनका आदर्श जीवन अनुकरणीय एवं शोध का विषय है, एक व्‍यक्ति जो अनेक संस्‍थाओं का मूल स्‍वयं में सजाए हो, विश्‍व की विविध समसामयिक-दूरगामी चुनौतियों को अवसर में परिवर्तित करने की सोच, जिसमें सहज भाव से हो और जिस व्‍यक्तित्‍व के वैराट्य में समस्‍याओं के समाधान, विचारों के द्वंद्वों का सरलीकरण सहज गोते लगाते हों, उसे ही तो कृष्‍ण ने योगी कहा है। संपूर्ण क्रांति के अग्रदूत जयप्रकाश नारायण ने उन्‍हें एक कुशल Social Philosopher कहा था।

उन्‍होंने भारतीय मजदूर संघ को तात्‍कालिक राष्‍ट्रीय -अन्‍तर्राष्‍ट्रीय श्रम संगठनों से भिन्‍न भारतीय जीवन दर्शन के साँचे में ढालकर वैशिष्‍ट्य प्रदान किया। ''देश के हित में करेंगे काम और काम के लेंगे पूरे दाम''। और फिर ''राष्‍ट्रहित, उद्योगहित, मजदूर हित''। 1969 मेबं जब उन्‍होंने भारत के राष्‍ट्रपति को मजदूरों का "Charter of Demad" समर्पित किया तो संगठित क्षेत्र की शक्ति के आधार पर समझौतावादी श्रम संगठनों की मोनोपोली डगमगाने लगी। उसके तहत् "minimum, living and standard wages" की बातें हों या उत्‍पादन-वितरण का आर्थिक नेटवर्क संयोजन हो, बोनस की विलंबित वेतन की अवधारणा हो, या प्रबंधन में भागीदारी का भाव हो, श्रम क्षेत्र के महानुभावों के सिर के ऊपर से निकल गया। सबसे बढ़कर माननीय ठेंगड़ी जी के सामाजिक-आर्थिक दर्शन के साथ भारतीय परिवेश में श्रम संहिता का अभिनव प्रणयन उस समय समझ से परे था। लोग श्रम को बाजार की वस्‍तु मान बैठे थे, जिसे न्‍यूनतम मूल्‍य पर खरीदा जा सकता था और सतत शोषण की प्रक्रिया के तहत अधिकतम उत्‍पादन और लाभ अर्जित करना जिसका अभीष्‍ट था, पर संयुक्‍त परिवार की अवधारणा के अनुरूप संयोजित इस संगठन में इतनी क्षमता होगी, आकलन के बाहर था।

उनका श्रम दर्शन एकांगी नहीं था, वह राष्‍ट्र निर्माण, सामाजिक-आर्थिक समेकित प्रगति का एक आयाम था। अपनी श्रमनीति में उन्‍होंने विविध पक्षों का खुलासा किया है, साथ ही न केवल श्रमिक हित अपितु राष्‍ट्रहित के सभी पक्षों के ऊपर समेकित चिंतन पारिभाषित किया। श्रम संहिता, उद्यम-उद्यमिता, श्रमिक शिक्षा-संचेतना, शोध, विविध आधिकारिता सहित सामाजिक व्‍यवस्‍था और राष्‍ट्र के लिए योजनाओं के निरूपण में सार्वदेशिक भूमिका को भी ठेंगड़ी जी ने व्‍याख्‍यायित किया। इसी क्रम में समाज के दायित्‍वों को भी व्‍यावहारिक स्‍वरूप में रेखांकित करते हुए उन्‍होंने उद्धृत किया-

स्‍वामित्‍वं नतु दास्‍यं स्‍याद् जनानामर्थ कामयो:।

कुत: स्‍याद् विग्रहाऽशंका स्‍वात्‍मनो यत्र निग्रह:।।

When Arth and Kama are the slaves and not the masters of the people, how can there arise any apprehension of conflict, where self-restraint is the rule?

इसके पीछे उनका आर्थिक चिंतन समाज के सर्वतोमुखी विकास का रोडमैप था। जीवन के प्रत्‍येक आर्थिक पहलू पर उन्‍होंने बड़ी बारीकी से सूक्ष्‍म चिंतन आधारित विचार रखा था। दत्तोपंत जी ने समस्‍त क्रियाओं के मूल में एक अदद नागरिक को रखकर आर्थिक संरचना के नेटवर्क की प्रधानता दी थी। इस व्‍यक्ति के अभ्‍युत्‍थान में उन्‍हें समस्‍त राष्‍ट्र का री-जेनरेशन दिखायी देता था। अगर हम राष्‍ट्र के प्रति चिंतित हैं, तो कोई कारण नहीं कि सामाजिक आर्थिक समुन्‍नति के मार्ग की बाधाओं को पार नहीं कर पाएंगे। उन्‍होंने लिखा है-

Popular enthusiasm is both lubrication oil of planning and petrol of economic development. उन्‍होंने Production and reproduction of actual पर बल दिया।

इस महान आर्थिक चिंतक ने सिद्धांत को विचारों को विज्ञान बताया तथा यह भी कहा कि इसी माध्‍यम से व्‍यक्ति या समाज का विजनयुक्‍त भविष्‍य की सोच, कार्यान्‍वयन की दिशा, पद्धति आदि का बोध होता है। समाज जीवन के हित साधन में गैर आर्थिक पक्षों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। नदी, पहाड़, वन, झरने, शांति-सुरक्षा सबका आर्थिक संदर्भ में विशेष मायने हैं। उन्‍होंने विकास और आर्थिक प्रबंधन के संदर्भ में मानकों का महत्‍व भी व्‍याख्‍यायित किया, जो उसके पूर्व प्रकाश में नहीं के बराबर थे। माँग-पूर्ति अर्थवाद के प्रसंग में उन्‍होंने सामाजिक-आर्थिक क्रियाएं संपन्न होती हैं और उनका व्‍यष्टिगत-समष्टिगत प्रभाव दिखाई देता है।

उन्‍होंने भारतीय अर्थवाद को सार्वभौम समुन्‍नति का आधार माना, जिसकी जड़ें, वेद, पुराण, उपनिषदों और हमारे इतिहास में गहरे फैली हैं। मूल्‍य-विनिर्धारण, मौद्रिक संतुलन, बचत (अपरिग्रह), स्‍वनियोजन-स्वलंबन, समाज-राष्‍ट्र परिसंपत्ति आदि पर भी उनके स्‍पष्‍ट एवं व्‍यावहरिक विचार देखने को मिलते हैं। वे चुनौतियों को अवसर में बदलने के कौशल को पुरुषार्थ से जोड़ते थे। ठेंगड़ी जी कहा करते थे- थोड़ी आय नहीं से बहुत श्रेष्‍ठ है, इसके बीच से स्‍वावलंबन उभरता है। बेकारी या बेरोजगारी का आत्‍मज्ञान स्‍वावलंबन का प्रथम आयाम है। उनके अनुसार भारतीय (हिंदू) सामाजिक-आर्थिक अवधारणा में No proletariat, no capitalism: all humanistic view of economic system स्‍पष्‍ट था।

उन्‍होंने जीने की राह दिखायी। परंपराओं के आधुनिकीकरण की चर्चा में परंपराओं के अभिनवीकरण के द्वंद्व को रेखांकित करते थे तथा अपनी परंपरागत सामाजिक-आर्थिक जीवन पद्धति को 'आचार' अर्थात् जीवन के स्‍वनियोजित संस्‍कार से जोड़ते थे। प्रत्‍येक सभ्‍यता-संस्‍कृति का स्‍वकीय मानक होता है। उसी परिवेश में व्‍यक्तिगत-सामाजिक विकास संभव है। वे प्राकृतिक संसाधन को ईश्‍वर प्रदत्त संपत्ति और मनुष्‍य को उसका ट्रस्‍टी भाव से उपभोक्‍ता मानते थे। इसके अंदर सह अस्तित्‍व एवं समेकित क्षेत्रीय संतुलित विकास परिलक्षित होता है।

दत्तोपंत जी ने अपनी पुस्‍तकों में भविष्‍य के सामाजिक-आर्थिक जीवन की एक स्‍पष्‍ट रूपरेखा चिन्हित की है। साम्‍यवाद और वैश्विक बाजारवाद के संदर्भ में उनकी सोच पर विचारक आज शोध को बाध्‍य हैं। भारतीय जीवन दर्शन से सभी समस्याओं, चुनौतियों का समाधान ढूँढने एवं उसे विश्‍व पटल पर लाने का दूरदर्शी प्रयोग उन्‍होंने किया। उनके सामने न केवल सामाजिक-आर्थिक समस्‍याएं अपितु वैयक्तिक-राष्‍ट्रीय समस्‍याओं के समाधान स्‍पष्‍ट थे। यही कारण है कि समाज-जीवन से जुड़े अनेक लोग, जिनके पास भविष्‍य की चुनौतियों के बारे में स्‍पष्‍ट चिंतन या चिंता नहीं थी, उनके व्‍यावहारिक विचारों से तालमेल नहीं बैठा पाते थे। वे व्‍यक्ति में समष्टि एवं समष्टि के बीच व्‍यष्टि की अहर्निश चिंता करते थे। राष्‍ट्र के समक्ष आने वाली चुनौतियों से देश के सभी आर्थिक पक्ष को उन्‍होंने सदा सचेष्‍ट किया।

इसी प्रकार उदारवाद एवं वैश्विक बाजारवाद से भारतीय ग्रामीण इकोनॉमी पर पड़ने वाले प्रभाव के प्रति सचेत करते हुए उन्‍होंने यह भी कहा था कि भारतीय जीवन दर्शन में सभी वैश्विक आर्थिक असंतुलन से जूझने की शक्ति है, वह हर हाल में अपनी सशक्‍त पहचान बनाए रखेगा। उसके चिंतन में यह स्‍पष्‍ट था कि वैश्विक बाजारवाद एवं नव उपभोक्‍ता संस्‍कृति क्रमश: अपने प्रयोगवाद एवं अधिकतम लाभ के लोभ के कारण क्रमिक अधोगति को प्राप्‍त करेगी और भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्‍था दूरगामी प्रभावकारी होगी। उन्होंने जीवन और समस्‍याओं को समग्रता में देखा और सहज समाधान का मार्ग बताया। सभी मानकों पर उनके स्‍वयं के चिंतन आश्रित अनुभूत विचार थे।

समस्‍त आर्थिक संरचना का केंद्रबिंदु वे गाँव को मानते थे और भारतीय इकोनोमी जिसके तहत सहज विनिमय पद्धति ग्राह्य थी, को विस्‍तृत माइक्रो आयाम देने पर बल देते थे। गाँव केंद्रित योजनाएं, गाँव की आर्थिकता को समर्थक, संवर्द्धन तथा उसे अपनी संभावनाओं को समझने की चेतना जागृत करने में उन्‍हें अटूट विश्‍वास था। वे सबके वैल्‍यू एडीसन की चिंता करते थे और बेहतर मानव संसाधन को समग्र विकास की आधारशिला मानते थे। उनके स्‍वावलंबन का आधार ऋण ग्राहिता नहीं था, बल्कि पुरुषार्थ (कौशलयुक्‍त-पराक्रम) था। उनका चिंतन काल की कसौटी पर खरा-निखरा, सर्वग्राह्य और व्‍यावहारिक था जो आस-पास की परिस्थितियों, सदव्यवहारों में सहज परिलक्षित होता था। उन्‍होंने पं. दीनदयाल उपाध्‍याय के एकात्‍म मानववाद और अंत्योदय के दर्शन को बहुआयामी व्‍यावहारिक स्‍वरूप दिया। उनके विशद् अध्‍ययन एवं चिंतन के मूल में राष्‍ट्र की समग्रता में समुन्‍नति एवं व्‍यक्तित्‍व का सामाजिक परिवेश में समुत्‍कर्ष था।

भविष्‍य को अवलोकित करने वाले कार्यमग्‍न दत्तोपंत ठेंगड़ी

राजाभाऊ पोफळी

नागपुर (विदर्भ)

जब-जब दत्तोपंत नागपुर आते थे तब-तब कार्यकर्ता घर में नहीं मिलते थे। उनके घर पूछताछ करने पर जबाब मिलता था कि दत्तोपंत नागपुर में हैं तो से कैसे घर में मिलेंगे।? दत्तोपंत के साथ रहना; उनके साथ चल रही चर्चा सुनने को मिले इसलिए कार्यकर्ता सुबह से ही दत्तोपंत जहाँ भी हों उनको ढूंढ़ निकालते थे और उनके साथ में रहते थे। संघ कार्यालय में स्‍व. पांडुरंग पंत क्षीरसागर हमको देखते ही कहते थे अरे आपने देर कर दी, देखो शर्ट खूंटी पर टँगा है, महाराज बनियान में बाहर निकल पड़े हैं, जाओ ढूंढो।

कार्यकर्ताओं का गठन :

अलग अलग कार्यालयों में काम करने वाले का कार्यकर्ता कार्यालय खुलने के समय तक दत्तोपंत के साथ रहते थे, कुछ तो घर से निकलते समय ही घर में बताकर निकलते थे, देर हो गयी तो सीधा कार्यालय चला जाऊँगा। डब्‍बा वहीं भेज देना। कुछ लोगों के थैली में डब्‍बा रहता था, शाम को सीधे कार्यालय से दत्तोपंत के पास पहुँचते थे, रात 11-12 बजे तक हम उनको घेरे रहते थे। कभी हरिभाऊ वराडपांडे के घर में बहिनी ने बनायी चाय के कप पर कप खाली करते हुये चर्चा चलती थी तो कभी चलते रास्‍ते पर चर्चा चलती थी। रास्‍ते पर शंकरराव के होटल में भी चर्चा चलती थी, इस चर्चा में विषय कौन से नहीं होते थे? मजदूर, किसान, उद्योग, समाज, राष्‍ट्र, संरक्षण, स्‍वातंत्र्य समर इतिहास, काव्‍यशास्‍त्र, विनोद, धर्म, ऐसे अनेकानेक विषय रहते थे। नागपुर में घर-घर जाने में जैसे बड़े-बड़े लोगों से भेंट होती थी वैसे ही छोटे से छोटे कार्यकर्ताओं के घर जाना भी होता था। रात की बैठक सदुभाई ओक के घर मजदूर क्षेत्र के काम के संबंध में होती थी। यह विशेष काम को लेकर बैठक है ऐसा कभी नहीं लगता था। सहज ही बातचीत उसमें से काम की दिशा ऐसा उसका स्‍वरूप रहता था। बैठक में आए नए व्‍यक्ति को घर तक छोड़ने तक बातचीत जारी रहती थी, एक व्‍यक्ति भी पंत को छोड़ने दूर तक आता था, इस तरह दत्तोपंत ने एक-एक कार्यकर्ता अपने काम में जोड़ा, उसका गठन किया। पुराने, ज्येष्‍ठ व्‍यक्तियों से संबंध बनाए, विद्यार्थी भावना से उनके साथ बर्ताव किया अलग-अलग क्षेत्र के काम को आवश्‍यक कवच उन्‍होंने निर्माण किया।

प्रतिकूल परिस्थिति में प्रचलित पद्धति से हटकर अलग तरीके से काम करने हेतु कार्यकर्ता को तैयार करना, अपने को अवगत जानकारी से सामने वाले को आभास तक न होने देना, उसके बताई जानकारी के प्रति वे विशेष उत्‍सुकता व्‍यक्‍त करते थे। दूसरी मुलाकात से उस विषय की जानकारी मेरे पढ़ने में आयी है; यह बताकर उसको अभ्‍यास के लिए प्रवृत्त करते थे। उसके ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करते थे, आवश्‍यकता होने पर उसे साहित्य उपलब्‍ध कराते थे। कार्यकर्ताओं के अभ्‍यास वर्ग लेकर उनकी समझ को बढ़ाने का अपना निर्णय न बताकर कार्यकर्ताओं के सामने विषय रखकर उनको निर्णय लेने के लिए प्रवृत्त करते थे, जिससे सभी को लगता था कि अपना विचार सभी ने मान्‍य किया ऐसी दत्तोपंत की कार्य पद्धति थी।

कार्यनिष्‍ठा एवं अनेक कार्यो का सूत्रपात:

कार्य और कार्यनिष्‍ठा दत्तोपंत ने कार्यकर्ताओं में निर्माण की। यह मुझे नहीं करना, ये मेरे विचार नहीं हैं, इस देश के लिए जो आवश्‍यक है नियंता उसको बनाता है, जो भी है उसी का है, ऐसा विचार उन्‍होंने कार्यकर्ताओं में दिया। कार्यकर्ताओं में उन्‍होंने विश्‍वास जगाया, प्रत्‍येक भारतीय विचारक; ऋषि मुनियों ने अपने विचार पूर्व सुरी के महानुभावों के हैं, यह बताकर मैं केवल वाहक हूँ यह भूमिका ली, इसी भारतीय समाज नेतृत्‍व पद्धति की दत्तोपंत ने पुन: स्‍थापना की थी।

दत्तोपंत ने अनेक सामाजिक कार्यों का प्ररंभ किया। नागपुर के गोंड राजा किले के परिसर में श्रीरामपूरे गुरुजी के सहयोग से महाशिवरात्रि पूजा शुरूकर वनवासी क्षेत्र के कार्य का सूत्रपात किया, लुहार, बढ़ई, शिल्‍पकार आदि विश्‍वकर्मा सेक्‍टर की कल्‍पना सामने लाए। पालकर स्‍मृति कार्यक्रम में सहकार आंदोलन की स्थिति एवं सहकार तथा सहजीवन यह विचार रखकर सहकार भारती की कल्‍पना सामने आयी थी। उसी मंच से उन्‍होंने ग्राहक जागरूकता (कंज्‍यूमर्स कांश्‍यसनेस) यह विचार रखकर ग्राहक आंदोलन की कल्‍पना सबके सामने रखी थी। सभी धर्म का मौलिक अभ्‍यास करने हेतु सर्वपंथ समादर मंच, सामाजिक समरसता मंच को स्‍थापित किया। मजदूर तथा किसान क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ एवं भारतीय किसान संघ के माध्‍यम से बहुत अलग-अलग नए विचार दत्तोपंत ने समाज के सामने रखे। इस संदर्भ में एक प्रसंग को ध्‍यान में लाना उचित होगा, श्री विष्‍णुबाबा ब्रह्मचारी इनके सुखदायी राज्‍य प्रकरण निबंध का उल्‍लेख पूजनीय श्री गुरुजी ने ठाणे के वर्ग में किया था; उस पर संशोधन कर लेखन हो सकता है। ऐसा गुरुजी ने कहा था। वो ध्‍यान में लेकर दत्तोपंत ने उस पर एक अंग्रेजी लेख ऑर्गनाइजर के लिए तैयार किया लेकिन ऑर्गनाइजर को भेजने के पहले पूजनीय गुरुजी को दिखाया था; यह संकलनात्‍मक लेख है शोध निबंध नहीं है, शोध निबंध का सूत्रपात हो सकता है, किसी को भी शोध निबंध लिखने की इच्‍छा हो सकती है इस तरह का विवेक व्‍यक्‍त करते हुए दत्तोपंत बोलते थे। श्री गुरुजी ने लेख पढ़ा हँसते-हँसते वे बोले सूत्रपात! ऐसा लगता है तुम्‍हारा सारा जीवन अलग- अलग विषयों का सूत्रपात करने में बीत जाएगा। इस प्रकार दत्तोपंत के द्वारा अनेक कार्यों का सूत्रपात हुआ।

भविष्‍य को पढ़ने की दृष्टि:

दत्तोपंत ने अनेक कार्यो का सूत्रपात भविष्‍य को भाँपकर ही किया। बहुत पहले वे कुछ विषय कार्यकर्ताओं के सामने बड़े आत्‍मविश्‍वास से रखते थे। भारतीय मजदूर संघ के प्रारंभ के समय में कामठी के अभ्‍यास वर्ग में, दुनिया में ताकतवर कम्‍युनिस्‍टों के शीघ्र पराभव के बारे में यह कथन किसी को स्‍वप्‍न रंजन ही लगा होगा, लेकिन आज वो सच साबित हुआ। 1963 एवं 1979 में इसी तरह के विचार उन्‍होंने रखे थे। 2001 का सूर्योदय हमारे विचार का ही होगा ये विचार व्‍यक्‍त किया था। उसके बाद भुसावल का अखिल भारतीय अभ्‍यास वर्ग हुआ, उसमें हुए विचार मंथन के बाद उन्‍होंने श्रमनीति तैयार की थी।

दत्तोपंत खासदार (संसद सदस्‍य) बने। 1964 से 1976 तक उन्‍होंने राज्‍यसभा सदस्‍य के नाते काम किया। उस समय राम मनोहर लोहिया के प्रोत्‍साहन से वे नागपुर आए थे, वो दिन कार्यकर्ताओं के लिए बड़ा आनंददायी दिन था। हमारा विचार, हमारा संगठन अब संसद में पहुँचने का वो आनंद था। दत्तोपंत को मिलने के लिए कार्यकर्ता उनको बैठक के स्‍थान पर ढूंढ रहे थे, उनकी भटकती सूर्योदय को ही शुरू हुई थी, पू. श्री गुरुजी के मामा श्री रायकर, श्री गुरुजी का जन्‍म स्‍थान, भैयाजी किनगावकर, रा. बा. कुंभारे, आनंदराव कलंबकर आदि अलग-अलग क्षेत्र के पुराने मान्‍यवर तथा कार्यकर्ताओं के घर उनके परिवार के व्‍यक्ति के नाते भेंट हुए आशीर्वाद ले रहे थे। दिल्‍ली में मिलनेवाला खासदार (संसद सदस्‍य) निवास तुम्‍हारा ही है ऐसा वे सबको बता रहे थे। उस समय वे छोटे और बड़े विद्वान सभी लोगों को मिले थे, श्रीजाल पी गिमी के कुटुंब के वे एक घटक ही थे।

खासदार सबका प्रतिनिधि:

खासदार बनना मराठी में कहावत है ''गंगेमध्‍ये घोडे न्‍हाले'' हिंदी में घोड़े का नहाना यह प्रवृत्ति साधारण देखी जाती है, उसका उपयोग भी व्‍यक्तिगत कारणों के लिए ही ज्‍यादातर होता है। खासदार बनने के पूर्व जो काम करते थे उनके तरफ स्‍टेपिंग स्‍टोन की तरह देखने की व्‍यवहारिक दृष्टि रहती है लेकिन पंत खासदारकी के पूरे कार्यकाल में देशव्‍यापी प्रवास कर मजदूर संघ, कामगारों की समस्‍या, अन्‍य संगठनों ने भी लाभ उठाया। बोनस पर बख्‍सीस या तोहफा नहीं। यह विलंबित वेतन (डेफर्ड वेज) है। यह कल्‍पना बोनस विधेयक पर हुई लंबी बहस में अपने प्रभावी भाषण से सभा में रखी और सभागृह ने उनको स्‍वीकार किया। पंत खासदार के पूरे कार्यकाल में संसद कार्यकाल, विविध पक्ष के नाते, कार्यकर्ता, खासदार के पूरे कार्यकाल में संसद कार्यालय, विविध पक्ष के नाते, कार्यकर्ता, खासदार इनसे उनका संपर्क सहज और तगड़ा रहता था। अनेक लोगों को संसद मे चर्चा के लिए उनका मार्गदर्शन प्राप्‍त होता है। संसदपटु की प्रतिमा अपनी बने ऐसा उन्‍हें कभी नहीं लगा, कुछ समितियों पर उनका प्रतिनिधित्‍व था, परदेश दौरा करना पड़ता था। तब उनके साथ के सहकारी खासदारों पर उनके व्यवहार, आचरण की छाप पड़ती थी। एक कम्युनिस्ट खासदार अपने व्‍यक्तिगत जीवन में धार्मिक, वृत्ति के थे, वे स्‍नान के बाद स्‍तोत्र उच्‍चारण करते थे। पंत उनसे स्‍तोत्र का अर्थ, शास्‍त्रीय दृष्टि, सामाजिक दृष्टि इसके संबंध में चर्चा करते थे। आगे चलकर उनके साथ उनकी प्रगाढ़ मैत्री हुई। खासदार किसी भी पक्ष का हो, वह जनता का प्रतिनिधि है वह प्रतिमा उन्‍होंने खड़ी की थी।

पक्ष में संगठन की कार्यपद्धति

स्‍वातंत्र्य प्राप्ति के बाद अलग-अलग संगठन, संस्‍था सत्ता एवं राजकरण के साधन बनी, पक्षोपक्ष, किसान, मजदूर, इनके अलग अलग संगठन बढ़ने लगे। इसके आगे जाकर पंत ने मजदूर संघ राजकीय पक्ष से दूर रखने का आंदोलन विकसित किया। किसान संघ को भी राजकरण से दूर रखकर पक्ष के समाज संगठन यह कार्यपद्धति विकसित की।

प्रसिद्धि से काम या काम से प्रसिद्धि

अनेक कार्यों का प्रारंभ तथा विस्‍तार दत्तोपंत ने प्रसिद्धि से दूर रहकर ही किया। कार्यकर्ताओं को भी उन्‍होंने प्रसिद्धि से दूर रखा, प्रसिद्धि से कार्य विस्‍तार नहीं होता, कार्यविस्‍तार तथा प्रभाव से अपने आप प्रसिद्धि होती है। उनके लिए अलग प्रयास की आवश्‍यकता नहीं, यह विचार वे कार्यकर्ताओं के सामने रखते थे। ऐसा होने पर भी उन्‍होंने कार्यकर्ताओं के लिए 'प्रचार तंत्र' यह किताब लिखी, उसके द्वारा सभा का आयोजन, मोर्चा का आयोजन, घोषणा, वृत्तपत्र लेखन, पत्रकार इसकी कार्य पद्धति आदि के संबंध में कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन दिया।

विद्यार्थी परिषद के कार्य में रहते समय राजर्षि टंडन इनके भाषण कार्यक्रम का आयोजन करते वक्‍त दत्तोपंत ने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन हो ऐसा उदाहरण प्रस्‍तुत किया। विद्यार्थी परिषद का वह प्रारंभ का समय था, राजर्षि टंडन काँग्रेस के अध्‍यक्ष थे। वे नागपुर आने वाले थे, युवकों को मार्गदर्शन के लिए उनके भाषण का आयोजन विद्यार्थी परिषद ने किया। नागपुर के राजकीय नेताओं का उनके लिए विरोध था, राजर्षि टंडन गाड़ी से नागपुर आने वाले थे, उस समय दत्तोपंत नागपुर मुख्‍य स्‍थानक के पर्व के स्‍थानक पर पहुँचे और टंडन जी के डिब्‍बे में प्रवेश कर गए, स्‍वयंसेवक के रूप में उनके सामान को बटोरने का काम शुरू किया। टंडन जी स्‍वागत के लिए नागपुर रेलवे स्‍टेशन पर बड़ी संख्‍या में लोग आए थे, उनका जयजयकार, हारों से स्‍वागत हो रहा था। टंडन जी का सामान लेकर दत्तोपंत उनके साथ स्‍टेशन पर उतरे साथ ही युवकों को आपके विचार सुनने की उत्‍कंठा है ऐसा टंडनजी को कहा, प्रमुख काँग्रेस कार्यकर्ता सामने आए, कहने लगे कार्यक्रम की रूपरेखा तय हुयी है। युवक सभा का उसमें उल्‍लेख नहीं था, टंडन जी ने कहा मैंने युवकों के सभा में भाषण देना स्‍वीकार किया है। वह कार्यक्रम कब है? एक कार्यकर्ता कहने लगा वह तो ठीक है लेकिन समय तो नहीं है, आने जाने में काफी समय लगेगा, यदि अपने कार्यालय में कार्यक्रम है तो अलग बात है, क्‍या युवक कार्यालय में आएंगे। टंडन जी ने पंत के तरफ देखकर पूछा, पंत ने मान्‍य किया। इसके बाद महल के राजभवन के कांग्रेस कार्यालय में युवक आए और कार्यक्रम हुआ।

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के आर्थिक तथा सामाजिक विचारों का अभ्‍यास दत्तोपंत ने उनके सहवास में रहकर किया। शेड्युल्‍डकास्‍ट फेडरेशन के वे बहुत संपर्क में थे। राष्‍ट्र का स्‍वातंत्र्य तथा विकास को लेकर दत्तोपंत को कभी भी कोई समझौता मान्‍य नहीं था। जागतिक बैंक एवं जातिगत व्‍यापार संगठन के चंगुल में फँसकर आर्थिक परतंत्रता के धोखे को उन्‍होंने बहुत पहले ही भाँपा था और तभी सर‍कार को सजग भी किया था। सत्ता के मोहजाल में उसका उपयोग नहीं हुआ। आर्थिक समूह के संगठनों को एक साथ लाकर स्‍वदेशी जागरण मंच की स्‍थापना कर दूसरी आर्थिक आजादी की लड़ाई की घोषणा दत्तोपंत ने की साथ ही सरकार की नीति पर कड़ा हमला किया।

विचारों की स्‍पष्‍टता, आचार में पारदर्शिता यह उनके व्‍यक्तिमत्‍व जीवन तथा सामाजिक जीवन में कोई फर्क नहीं होना चाहिए। इस पर उनका ज्‍यादा जोर था। अपने व्‍यक्तिगत जीवन को लेकर कार्यकर्ता के मन में किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिए इसके प्रति उसे बहुत सतर्क रहने की आवश्‍यकता है। दत्तोपंत का व्‍यासंग काफी बड़ा था, एक पाठी स्‍मरण शक्ति, वाचन, साहित्‍य, कला, समाजशास्‍त्र, संतवांग्मय,धर्मशास्‍त्र, लोक साहित्‍य, इतिहास, पत्रकारिता इन सबका अभ्‍यास दत्तोपंत ने किया था और उन पर लेखन भी किया था। लोक कला साहित्‍य के बाबत! एक प्रसंग को नमूद (व्‍यक्‍त) करने का मोह हो रहा है, एक बार वा.को. गाणार मिलने को आए, देर रात तक बातें जारी थीं। डॉ. हेडगेवार भवन के प्रांगण में दोनों की महफिल जमी, शाहीरी पोवाडे, लावणी, खड़ी गंमत आदि के विदर्भ के कलावंत इस तरह अनेक यादों का सिलसिला रंग लाया। दत्तोपंत ने भोंसलेकालीन नागपुर का वर्णन करने वाला एक दीर्घकाव्‍य सुनाया था। दत्तोपंत का यह आचरण सहज ही था। दत्तोपंत की और भी कई यादें हैं लेकिन उनको बताना या लिखने का मोह भी रोकना पड़ेगा।

मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी - व्‍यक्तित्‍व का परिचय

दिनकर राव जलताड़े

तिलकनगर, बिलासपुर (छ.ग.)

मेरा बड़ा सौभाग्‍य रहा कि परम पूज्‍य डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी का दर्शन उम्र के चौथे वर्ष में ही हो गया। उनके दाहिने हाथ कहे जाने वाले माननीय अप्‍पाजी जोशी के निवास स्‍थान पर वे आए थे अप्‍पाजी के घर के सदस्‍य की भाँति मैं वही खेला करता था इसलिए यह सद्भाग्‍य मुझे प्राप्‍त हुआ बचपन से ही उनकी छत्रछाया में मैं पला, पढ़ा और जवानी की देहरी पर पहुँचने पर उनके मार्गदर्शन से संघ कार्य किया। जब मैं 13 साल का हुआ तो एक शाखा का मुख्‍य शिक्षक मुझे बनाया गया। संघ कार्य ईश्‍वरीय कार्य है इस प्रेरणा से हम संघ की शाखा में तन मन से कार्य करते हैं।

वर्धा में मेरे निवास पर 1952 में मा. दत्तोपंत जी दशहरा दीवाली की छुट्टियों के अवसर पर संघ कार्य की वृद्धि के निमित्त प्रवास पर आए थे, तिलक नगर शाखा में उनका बौद्धिक कार्यक्रम था। कार्यक्रम होने के उपरांत मा. अप्‍पाजी ने मुझे बुलाया और कहा कि कल से दत्तोपंत जी के 10 दिन के प्रवास पर तुम्‍हें उनके साथ ही जाना है। विजयदशमी का समय होने के कारण कुछ स्‍थानों पर मा. दत्तोपंत जी का बौद्धिक कार्यक्रम भी रखा गया था। इस हेतु उनके प्रवास में हम दूसरे दिन से ही निकल पड़े। चूंकि प्रवास कार से था अत: हमें दहेगांव, देवली, पुलगांव, धामनगांव, अमरावती इत्‍यादि स्‍थानों पर प्रवास करना था।

विजयदशमी उत्‍सव के निमित्त पहला प्रवास दहेगांव में हुआ। चूंकि हम कार से थे और स्‍थानीय स्‍वयंसेवकों को लगा कि हम रेलवे से पहुँचने वाले हैं किंतु हमें नियत स्‍थान पर पहुँचने की जानकारी थी। हम उस स्‍थान पर समय पर पहुँच गए किंतु भ्रमवश हमें लेने के लिए कोई नहीं था। समय सायं की शाखा का था ऐसी स्थिति में मुझे दहेगांव की एक शाखा की जानकारी थी और दत्तोदंत जी को उस शाखा ले गया। संघ की पद्धति से कार्यक्रमों का अनुगमन करने के कारण वहाँ के स्‍वयंसेवकों को आश्‍चर्य हुआ। कुछ समय पश्‍चात कुछ स्‍वयंसेवक हमारे पास आए और उन्‍होंने दत्तोपंत जी से पूछा आप कहाँ से आए हैं। उन्‍होंने बताया कि आर्वी से वर्धा आया हूँ और वहाँ से आपके यहाँ आया हूँ, उनसे पूछा गया आप क्‍या करते हैं उन्‍होंने कहा मैं कुछ नहीं करता प्रवास पर इधर-उधर भटकता रहता हूँ। स्‍वयंसेवक ने पूछा क्‍या आप शाखा जाते हैं उनका उत्तर था कि शाखा में नियमित नहीं जा पाता, उन स्‍वयंसेवक ने कहा ये ठीक बात नहीं है शाखा तो नियमित जाना चाहिए। ठीक उसी समय वे कार्यकर्ता जो स्‍टेशन गए हुए थे हमें ढूँढते हुए उस शाखा स्‍थान पर पहुँचे फिर उनमें से वरिष्‍ठ स्‍वयंसेवक श्री काका केरकर ने मा. दत्तोपंत जी का संपूर्ण परिचय दिया और उनके प्रवास काल का कारण बताया।

मा. दत्तोपंत जी के साथ प्रवास करना यह मेरा सौभाग्‍य है इस प्रवास में विभिन्‍न स्‍थानों पर जो बातें कहीं वह कुछ मेरे स्‍मरण में है जो सबके लिए करणीय है। लक्ष्‍य के अनुरूप बंधन स्‍वीकार करते हुए लक्ष्‍य प्राप्ति के लिए प्रयत्‍न करना चाहिए शाखा में प्रतिदिन जितने नियम से हम चलेंगे उतनी ही शीघ्र द्रुत गति से अपनी बुद्धि को स्थिर रख सकेंगे। दहेगांव के विजयादशमी उत्‍सव पर ये बातें उन्‍होंने बौद्धिक में कही।

उन्‍होंने कहा कि जब हम कहते हैं भारत एक राष्‍ट्र है तो हमारे सामने राष्‍ट्र का भावार्थ भी जान लेना चाहिए, निश्चित भू-भाग, जन, तथा एक संस्‍कृति का समुच्‍चय राष्ट्र का बोध कराता है। इस समझ के विकसित होते ही हमारे देश की भूमि मिट्टी मात्र न रहकर स्‍वर्गादपि गरीयसी मातृभूमि हो जाती है।

यह हिंदू राष्‍ट्र है और हिंदू समाज उसका पुत्ररूप समाज है हिंदू समाज के उत्‍थान में राष्‍ट्रोत्‍थान है। उसके पतन में राष्‍ट्रका पतन है हिंदू समाज का पतन आत्‍म विस्‍मृति उसके कारण विभिन्‍न भेद, भेदों के कारण समाज का विघटन तथा असं‍घटित अवस्‍था में समाज चला गया। हिंदू राष्‍ट्र के उत्‍थान हेतु हिंदू समाज का उत्‍थान होना आवश्‍यक है आत्‍मग्‍लानि दूर करने के लिए आत्‍मबोध जगाना पड़ेगा। सभी भेदों को भुलाकर एकात्‍मकता का भाव जागृत कर एकात्‍म एकरस, समरस, हिंदू समाज निर्माण करना पड़ेगा। इस महान लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के लिए ही राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का जन्‍म हुआ। इस लक्ष्‍य प्राप्ति हेतु साधन रूप संघ शाखा है।

कार्यकर्ता का निर्माण : हमें उत्तरदायित्‍व पूर्ण व्‍यवहार करने वाले, ध्‍येयवादी, कठोर निश्‍चयी, अपना सब कुछ संघ को समर्पित करने वाले युवकों को एकसूत्र में पिरोना है। अपने स्‍वयं से प्रारंभ कर यह उत्तरदायित्‍व ग्रहण किया जाए। हमें संगठन करना है इसलिए अहंकार का त्‍याग करना होगा अहंकार त्‍याग ही सर्वस्‍व त्‍याग है, अहंकार के त्‍याग करने के पश्‍चात् त्‍याग करने को कुछ भी शेष नहीं बचता। उसी प्रकार अपने मन का कण कण संघमय रहना चाहिए हमलोग पूरी शक्ति के साथ काम में जुटें हमने डा. साहब का कार्य स्‍वीकार किया है। उस तत्‍व को हृदयंगम कर तदनुरूप अपने जीवन को ढालने के लिए उन्‍हीं के समान भावनाओं से ओतप्रोत अपने हृदय की स्थिति बनाना है। जीवन में कभी कुछ माँगना नहीं। देशभक्ति का व्‍यापार क्‍या करना समाष्टि रूप परमात्‍मा को राष्‍ट्र संपूर्ण शक्ति और बुद्धि उसके चरणों में अर्पण कर उसकी कृपा से ऊपर अपना जीवना चलाना है।

गीता में अर्जुन ने कहा है मधुसूदन मन बड़ा चंचल है, बड़ा दृढ़ बलवान है उसको वश में करना वायु की भाँति अति दुष्‍कर है। मन को इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं। जिस पुरुष के इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है। योग दर्शन के अनुसार अनियंत्रित मन इंद्रिय सुख प्राप्‍त करने के लिए सदैव लालायित रहता है। अपने सभी स्‍थूल कामनाओं को पूरा करने के लिए योजना पर योजना बनाता रहता है। काम, क्रोध, मद्, लोभ न मानने वाले जिद्खोर मन के साथी हैं, ये हमारे भीतर पृथकत्‍व का भाव भर देते हैं और बिना गुरु की शरण लिए कोई भी अपने मन को वश में नहीं कर सकता। ऐसा कहते हैं कि मन सूरों की रस्सियाँ हैं ये चाहे जैसे उलटे सीधे काम करा लेता है।

इस विषय में शिवाजी की एक कहानी याद आती है, प्रजा की स्थिति का अवलोकन करने के लिए वेश बदलकर शिवाजी अपने राज्‍य में घूम रहे थे। एक दिन शाम के समय में अकेले ही एक जंगल में पहुँचे। रात हो गयी नजदीक कोई गांव नहीं था दूर से एक झोंपड़ी में दीपक का प्रकाश दिखायी दिया। उस दिशा में वे बढ़ गए। वहाँ एक वृद्धा अकेली रहती थी। उसने शिवाजी का स्‍वागत किया। एक भूखा-भटका समझकर उनसे भोजन का आग्रह किया। भोजन में कढ़ी थी। कढ़ी डालते ही दोना लुढ़क जाता है। उस समय शिवाजी को यह नहीं सूझा कि दोने के चारों ओर से चावल लगा लें और किसी चीज को आधार देना चाहिए ताकि वह लुढ़के नहीं। इस कारण बार-बार कढ़ी नीचे बह जाती। यह देखकर वृद्धा हँसी और कहने लगी कि तू भी शिवाजी जैसा ही दिखता है। अपना नाम अचानक सुनकर शिवाजी चौंके और पूछा कि इसका मतलब क्‍या है। वृद्धा ने कहा कि शिवाजी का भी वही हाल है। वह नए-नए किले जीतता जाता है और पुराने किले उसके हाथ से खिसकते जाते हैं और जब तक वह नए प्रदेश जीतता है तब तब उसके पुराने प्रदेश दुश्‍मन जीत लेते हैं। शिवाजी को लगा कि इस वृद्धा ने बड़ा ही बोधप्रद सबक सिखाया है।

मेरा बड़ा सौभाग्‍य है कि जीवन की अल्‍पायु में ही मुझे प.पू. डा. साहब एवं मा. अप्‍पा जी जोशी जैसे महानुभावों का संग प्राप्‍त हुआ उन्‍हीं के मार्गदर्शन में आदरणीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के साथ 10 दिनों तक विजयदशमी उत्‍सव के निमित्त विदर्भ में भ्रमण कर उनके विचारों को सुनने का सुअवसर प्राप्‍त हुआ। इस दृष्टि से मन में विचार करता हूँ कि ऐसा लगता है कि वर्धा में मेरा जन्‍म होना सार्थक हो गया।

अनोखी कार्यशैली

मुकुंद आठले

सतारा-(महाराष्‍ट्र)

श्रद्धेय दत्तोपंत की एक अनोखी कार्यशैली थी। कोई कार्यकर्ता जब उन्‍हें मिलता था, तो वे उसके साथ उसके काम के साथ सभी पारिवारिक चर्चा करते थे तथा परिवार का ब्‍योरा ध्‍यान में रखते थे। मैं 1993 में भारतीय मजदूर संघ के पूर्णकालीन कार्यकर्ता के रूप से अलग हो गया और एक छोटी सी ईकाई चलाने लगा। उस समय मैं संघ परिवार के किसी भी कार्य में जुड़ा नहीं था। जब मैं भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता के रूप में था, तब 3-4 बार श्रद्धेय दत्तोपंत जी मेरे घर आए थे। मई 2001 में मेरे लड़के की शादी तय हुई शादी के निमंत्रण पत्र भेजने का काम चल रहा था। श्रद्धेय दत्तोपंत जी के निमंत्रण पत्र को किस पते पर भेजना इसके बारे में चर्चा हो रही थी। इस समय मेरे एक मित्र ने बताया कि श्रद्धेय दत्तोपंत जी दो-तीन दिन में मंबई में कुछ काम के लिए आ रहे हैं और वे आदरणीय श्रीकांत धारप जी के घर निवास करने वाले हैं, केवल इस जानकारी के साथ ही मैंने उनका निमंत्रण पत्र आदरणीय धारप जी के पते पर भेजा।

तीन दिनों के बाद मुझे सुबह-सुबह आदरणीय धारप जी का फोन आया और उन्‍होंने बताया कि श्रद्धेय दत्तोपंत जी मुझसे बात करना चाहते हैं। ये मेरे लिए एक अचरज की बात थी। फोन पर वे आए। उन्‍होंने बोल दिया शादी के दिन अहमदाबाद में हैं इसलिए वे शादी के दिन नहीं आ सकते हैं। उन्‍होंने वर-वधू को आशीर्वाद देने का फोन पर बताया। उसके बाद उन्‍होंने बताया कि मैं तुम्‍हारे घर पुरण पोली खाने आऊँगा लेकिन कब आऊँगा, ये मैं बाद में बताऊँगा। मेरी पत्‍नी पुरण पोली बहुत अच्‍छी बनाती हैं, लेकिन यह बात उन्‍हें कैसे मालूम हुई ये मेरे लिए आज तक राज ही रहा है।

उसके छ: महीने बाद दिसंबर 2001 में सतारा के स्‍वदेशी जागरण मंच के प्रमुख डा. अरुणराव वार्लीबे मेरे घर आए और बताने लगे कि, स्‍वदेशी जागरण मंच की राष्‍ट्रीय बैठक में सम्मिलित होने हेतु वे आगरा गए थे। उस वक्‍त परिचय समय वे सतारा से आए हैं ऐसा बताने के बाद श्रद्धेय दत्तोपंत ने उन्हें उस सत्र के बाद मिलने का बताया। डा. वार्लीबे ने बताया कि मुकुंद आठले को एक बात कहो कि मैं उनके घर पुरण पोली खाने फरवरी 2002 में आ रहा हूँ। मैं तब तक पुरण पोली की बात तो भूल ही गया था।

फरवरी 2002 में श्रद्धेय दत्तोपंत जी सतारा आए। मुझे वहाँ बुलाया गया था। मैं उनसे बारह वर्ष बाद मिला था। लेकिन बात तो ऐसी चल रही थी कि हम कल ही मिले थे। दूसरे दिन दोपहर के समय वे मा. मुकुदराव गोरे, मा. प्रमोदराव कुलकर्णी, मा. दिनेश कुलकर्णी (किसान संघ), सौ. सुनिला सोहनी के साथ घर आए। पुरण पोली बनायी थी। उसका आस्वाद उन्‍होंने सबके साथ लिया। पुरण पोली की बहुत तारीफ की। बाद में परिवार के सभी सदस्‍यों से बहुत प्‍यार से बातें कीं और बोल दिए सभी परिवार के साथ फोटो खींचा जाना चाहिए। फोटो सेशन होने बाद वे घर से चले गए।

1993 से मैं भारतीय मजदूर संघ के काम में नहीं था। फिर भी एक कार्यकर्ता को दिया हुआ लब्‍ज पालने के लिए श्रद्धेय दत्तोपंत मेरे घर आए। एक भूतपूर्व पूर्णकालिक के घर वे आए और मेरा घर पवित्र कर चले गए।

करुणाशील ममतामय मा. ठेंगड़ी

राम लुभाया बावा

पूर्व महामंत्री

भा.म.संघ (पंजाब प्रदेश)

मेहता चौक, जिला-अमृतसर।

मेरा मा. ठेंगड़ी से संपर्क 1964 में सेंट्रल जेल अम्‍बाला में पहली बार हुआ। यमुना नगर (हरियाणा) पेपर मिल में नवम्‍बर 1963 में भारतीय मजदूर संघ द्वारा एक बहुत बड़ा आंदोलन हुआ था। जिसमें मैंने 23 दिसंबर 1963 को पेपर मिल गेट पर सत्‍याग्रह किया। इस कारण मुझ पर झूठा केस बनाकर सरकार ने सेंट्रल जेल अंबाला में बंद कर दिया। इस दौरान आदरणीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी जेल में हमें मिलने के लिए आया करते थे। अप्रैल 1964 के अंत में सरकार ने हमारे ऊपर लगाए गलत चार्ज वापस लेते हुए मुझे रिहा कर दिया। इस दौरान माननीय ठेंगड़ी जी तीन बार जेल में हमें मिलने आए। वो एक ही बात कहा करते थे कि जुल्‍म के बादल जल्‍दी छट जाएंगे और आप लोग जल्‍द बा-इज्‍जत रिहा होंगे।

जेल से बाहर आने के बाद ठेंगड़ी जी ने मुझे दिल्‍ली 57, साऊथ एवेन्‍यू बुलाया। पहली रात को हम देरी से सोये। अगली सुबह मैं सो रहा था तो ठेंगड़ी जी मेरे पास आकर बैठे और बोले बावा जी चाय पी लो। मैं एकदम हड़बड़ा कर उठा तो देखा उनके हाथ में दो कप चाय के थे। मैंने पूछा ठेंगड़ी जी चाय किसने बनाई है तो उन्‍होंने उत्तर दिया कि मैं रोज अपने लिए चाय बनाता हूँ। आज आपके लिए भी बनाई तो कोई बात नहीं है। इस बात का मेरे मन पर बहुत गहरा असर हुआ।

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एमरजेंसी के दौरान 1976 में एक बार एक मीटिंग के लिए मुझे उन्‍होंने दिल्‍ली बुलाया। मीटिंग बैंक यूनियन (NOBW) के दफ्तर में हुई। बैठक के बाद हम दोनों दफ्तर के नीचे रोड पर टैक्‍सी के इंतजार में खड़े थे। मैंने ठेंगड़ी जी से पूछा कि यह सब कब तक चलेगा क्‍योंकि उस समय ठेंगड़ी जी इमरजेंसी में बनाई संघर्ष कमेटी के चैयरमैन थे और पुलिस उनको गिरफ्तार करना चाहती थी। भेष में उनके सिर पर हैट, शर्ट और बैल बोटम, पैंट पहन रखी थी। आँखों पर बड़े साइज का रंगदार चश्‍मा था उन्‍होंने तुरंत उत्तर दिया दोबारा जब मिलेंगे इस भेष में नहीं होंगे और वही हुआ।

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एक बार जनता सरकार के समय मैं माननीय ठेंगड़ी जी को दिल्‍ली मिलने गया। मेरी उनसे भेंट संघ कार्यालय झंडेवालान में हुई। वर्णन योग्‍य जो बात है वह यह है कि मैंने कहा कि आप केंद्र सरकार में मंत्री नहीं बने क्‍योंकि आपने संगठन का काम करना है यह बात समझ में तो आती है पंरतु आप राज्‍यसभा के मेंबर भी नहीं बने यह मेरी समझ से बाहर है। उन्‍होंने तुरंत उत्तर दिया- बाबाजी आने वाले समय में इस सरकार से भी संघर्ष करना होगा। कुछ वक्‍त बाद हुआ कि सरकार ने इंडस्‍ट्रियल रिलेशन बिल लाने का तय किय जो मजदूर विरोधी था। उस समय सभी मजदूर संगठनों को साथ लेकर नेशनल कैंपेन कमेटी बनाई गई और जिसके बाद बोट क्‍लब दिल्‍ली में एक बहुत बड़ा मजदूर प्रदर्शन किया गया जिसका नेतृत्व माननीय ठेंगड़ी जी ने किया।

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एक बार मैं दिल्‍ली इनके रेसीडेन्‍स 57, साऊथ एवेन्‍यू ठहरा हुआ था, उन दिनों में मिलिट्री फार्म का संघर्ष चल रहा था और मेरे साथ पूर्वांचल के प्रधान श्री चरण सिंह भी थे। रात को भोजन करने के पश्‍चात् मैं और ठेंगड़ी जी घूमने के लिए चले गए। लगभग डेढ़ घंटा घूमने के बाद हम वापस आए हमने देखा उनके कमरे में चरण सिंह सो रहा था और जोर-जोर से खर्राटे मार रहा था। जिसकी आवाज शायद रामायण के कुंभकरण से भी ज्‍यादा थी। उन्‍होंने इशारे में पूछा यह क्‍या है? मैंने कहा रातभर ऐसे ही चलेगा और मैंने कहा इसे उठा देता हूँ। बाहर सो जाएगा। ठेंगड़ी जी बोले ऐसा मत करो सारे दिन का थका है। इसकी नींद खराब हो जाएगी। बाकी कमरों में भी कार्यकर्ता ठहरे हुए थे और कोई कमरा खाली नहीं था। मेरे आग्रह करने पर भी उन्‍होंने चरण सिंह को जगाया नहीं और फिर आँगन में दो फोल्डिंग चारपाई लगाकर हम सोये। शायद जून का महीना और गर्मी व मच्‍छर बहुत थे परंतु उसके उठाने के बजाय आँगन में सोना ठेंगड़ी जी ने ठीक समझा।

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1986 में भारतीय किसान संघ का एक सम्‍मेलन दीनानगर (पंजाब) में हुआ। दोपहर भोजन के बाद मुझे साथ लेकर बाहर घूमने के लिए निकले। थोड़ी दूर ही गए तो मेरे ध्यान में आया कि पंजाब में बहुत आतंकवाद चल रहा है। इस समय खुले में बाहर घूमना खतरों से खाली नहीं है। मैंने उसी समय ठेंगड़ी जी को रोककर कहा अत: वापिस चलेंगे। वह मेरे मन की बात समझ गए और बोले बावा जी मैंने ज्‍योतिष को हाथ दिखाया है। उसने बताया है कि मेरी मृत्‍यु गोली लगने से नहीं होगी। इस ढंग से वो हर मन की बात जान लेते थे। इससे लगता है कि वो एक ईश्‍वरीय शक्ति थे।

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एक बार मैं और ठेंगड़ी जी हिमाचल प्रदेश की कांफ्रेंस के बाद कांगडा से पठानकोट रेलवे स्‍टेशन पर पहुँचे तो इनको रात की गाड़ी द्वारा दिल्‍ली जाना था। हम दोनों स्‍टेशन पर घूम रहे थे तो इतने पर वहाँ के स्‍टेशन मास्‍टर ने हमें देखा वो बाहर आकर हमें अंदर ऑफिस में ले गया। हम लोग चाय पी रहे थे। तो स्‍टेशन मास्‍टर ने चर्चा शुरू की और कहा ठेंगड़ी जी देश में भ्रष्‍टाचार जोरों पर है, प्‍यार, हमदर्दी, ढूँढे पर मिलती नहीं, बलात्‍कार बढ़ते जा रहे हैं, कानून व्‍यवस्‍था नाममात्र की है। ऐसे में देश का सुधार होना बहुत मुश्किल है। स्‍टेशन मास्‍टर ने यह बात बड़ी भूमिका बनाकर लंबे शब्‍दों में कही। ठेंगड़ी जी ने संक्षिप्‍त शब्‍दों में उत्तर दिया कि एक स्‍मगलर जो भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त रहता है, जो सारा काम दो नंबर में करता है। वह चाहता है कि उसका एकाउटेंट ईमानदार होना चाहिए। दूसरी बात में देखें तो एक व्‍यक्ति जिसके पराई स्‍त्री के साथ संबंध हैं वो नहीं चाहता उसकी बहन माता या पत्नी के किसी पराए पुरुष के साथ संबंध हों। यह बात स्‍पष्‍ट करती है कि आज भी सच्‍चाई, असलियत और धर्म की विजय है।


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हिंदी समय में दत्तोपंत ठेंगड़ी की रचनाएँ