दत्तोपंत ठेंगडी
जीवन दर्शन
(खंड
-
9)
सामाजिक क्रांति के मार्ग पर डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, ट्रेड यूनियन और बाबा
साहब, प्रखर राष्ट्रभक्त बाबा साहब, समरसता, देश की एकता अखंडता, डॉ. बाबा
साहब एवं मा. ठेंगड़ी जी का व्यक्तित्व व कृतित्व।
संपादन - प्रस्तुतिकरण
अमर नाथ डोगरा
प्रकाशक
सुरुचि प्रकाशन
केशव कुंज, इण्डेवाला,
नई दिल्ली - 110055
दूरभाष : 011-23514672, 88513 58634
E-mail : suruchiprakashan@gmail.com
Website : www.suruchiprakashan.in
© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ
द्वितीय संस्करणः वि. सं. 2074, नवंबर, 2019
मूल्य : ₹200
आवरण पृष्ठ : बलराज
पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार
मुद्रक : गोयल एण्टरप्राइजिज
ISBN : 978-93-86199-36-2
दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन
(खंड - 9)
अनुक्रमणिका
क्र. विषय
सोपान-1 (प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर
,
ट्रेड युनियन और बाबा साहब अंबेडकर)
1. प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर ...दत्तोपंत ठेंगड़ी
2. ट्रेड यूनियन और बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ...दत्तोपंत ठेंगड़ी
3. बाबा साहब डॉ. अंबेडकर जयन्ती समारोह (महू) ...व्याख्यान दत्तोपंत ठेंगड़ी
4. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु
सोपान-2 (सामाजिक क्रांति के मार्ग पर डॉ. अंबेडकर)
1. डॉ. भीमराव अंबेडकर का पदार्पण ...दत्तोपंत ठेंगड़ी
2. डॉ. भीमराव अंबेडकर - एकात्म समाज जीवन ...दत्तोपंत ठेंगड़ी
3. सोपान- 2: प्रमुख बिंदु
सोपान-3 (डॉ. अंबेडकर एवं मा. ठेगड़ी जी के व्यक्तित्व कर्तृत्व संबंधी
लेख/ निबंध)
1. हिंदुत्व एवं सामाजिक न्यायः तत्त्वज्ञान और व्यवहार ...प्रो. अनिरुद्ध
देशपांडे
2. डॉ. बाबा साहब अंबेडकर क्रांतिकारी समाज सुधारक ...नरेंद्र मोदी
3. समरसता के मंत्रद्रष्टा ...रमेश पतंगे
4. मा. ठेंगड़ी जी का साहित्य : अक्षय प्रेरणास्रोत ...डॉ. अशोक मोडक
5. दत्तोपंत ठेंगड़ी : सामाजिक समरसता के भाष्यकार ...प्रचार्य श्याम अत्रे
6. देश की एकता अखंडता के स्तंभ ... भगवान दास गोंडाने
7. सोपान - 3: प्रमुख बिंदु
सोपान-4 (संस्मरण)
1. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी : एक देव दुर्लभ कार्यकर्ता... डॉ. अशोक कुकड़े
2. श्रमदेव के निर्माता: मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी... डॉ. गोविन्द नि. हड़प
3. श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी : एक विलोभनीय व्यक्तित्व...... श्रीनिवास
जोशी
4. महान चिंतक एवं दूरदर्शी : मा ठेंगड़ी जी.... करतार सिंह राठोर
5. आपात्काल और ठेंगड़ी जा का सान्निध्य...... केशव पांडुरंग गोखले।
6. छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भी आदर..... प्रभाकर शंकर रनले
7. मा. ठेंगड़ी जी ने किया कार्लमार्क्स का पराभव... आबा साहेब पटवारी
सोपान-5 (परिशिष्ट - खंड 1 से 8
,
विमोचन अवसर पर उद्बोधन)
1. अलौकिक प्रतिभावान - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. मोहनराव भागवत
2. समरसता के प्रणेता - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. भय्या जी जोशी
3. ज्ञान मार्तण्ड - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. दत्तात्रेय जी होसबाले
4. आधुनिक चाणक्य - दत्तोपंत ठेंगड़ी - पू. स्वामी अवधेशानंद गिरि
5. सामंजस्य समन्वय के पैरोकार - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. डॉ. कृष्णगोपाल
6. सोपान- 5: प्रमुख बिंदु
खंड -9
सोपान -1
सोपान-1 प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर
,
ट्रेड यूनियन और बाबा साहब अंबेडकर
1. प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर - दत्तोपंत ठेंगड़ी
2. ट्रेड यूनियन और बाबा साहब डॉ. अंबेडकर - दत्तोपंत ठेंगड़ी
3. बाबा साहब डॉ. अंबेडकर जयन्ती समारोह (महू) - दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का व्याख्यान
4. सोपान- 1: प्रमुख बिंदु
सोपान-1
प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर
-दत्तोपंत ठेंगड़ी
आदरणीय बाबा साहब का जीवन अतीव त्यागमय, कर्ममय एवं तप:पूत रहा है। उनका
बोलना, उनका बर्ताव, उनकी नेतृत्व शक्ति, उनका संगठन-कौशल, सबको साथ लेकर चलने
की वृत्ति तथा उनकी अप्रतिम विद्वता से सभी परिचित हैं। वे इतने श्रेष्ठ थे कि
बड़े बड़ों को भी उनका ठीक प्रकार से मूल्यांकन करने में कठिनाई होती थी।
अति साधारण परिवार में जन्म होने पर भी उससे हतप्रभ न होकर केवल अपनी
इच्छा-शक्ति के सहारे उन्होंने अपनी संपूर्ण श्रेष्ठता अर्जित की। घोर
सामाजिक-आर्थिक अन्याय के काल में उन्हें जैसी अन्यायी शक्तियों का सामना करना
पड़ा, वे इतनी भीषण थी कि यदि कोई और साधारण व्यक्ति होता तो उसकी कमर ही टूट
गई होती। परंतु वे बाबा साहब ही थे कि वे अपने से कई गुना बलवान शक्ति
प्रवाहों के विरुद्ध न केवल डटकर खड़े हुए, अपितु उनके विरुद्ध विद्रोह का
झण्डा उठाकर उन प्रवाहों की दिशा मोड़ने में भी पर्याप्त मात्रा में सफल हुए।
इससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से जो श्रेष्ठता मिली उससे उन्हें समाधान नहीं था
क्योंकि अपना समूचा दलित-पीड़ित समाज उठ खड़ा हो- यही उनकी चिंता का विषय,
कर्म का क्षेत्र तथा जीवन का लक्ष्य था। यदि उन्हें स्वयं बड़ा बनने की बात से
समाधान होता तो उन्हें बड़े से बड़ा सम्मान मिल गया था। स्वतंत्र भारत के
प्रथम मंत्रिमंडल में वे मंत्री बन चुके थे। जिस समय उन्हें उस पद की
निरुपयोगिता अनुभव में आने लगी, वे उसे लात मारकर अलग हो गए और अन्य मार्ग से
अपने दलित-पीड़ित समाज बंधुओं की सेवा में जुट गए।
सहृदय नेता
बाबा साहब कई गुणों से युक्त थे। हम जितने अधिक निकट से उनका अध्ययन करेंगे,
उतना ही अधिक हमें यह अनुभव हो सकेगा। परंतु विशेषकर उनमें प्रखर बुद्धिवादिता
के साथ-साथ आत्यंतिक करुणा भाव भी था। ऐसा मिलन कम व्यक्तियों के जीवन में
दिखाई देता है। प्रखर बुद्धिवाद के सहारे ही उन्होनें तत्कालीन प्रचलित समस्त
मत-मतांतरों का विश्लेषण कर अपनी दृष्टि में श्रेयस्कर एवं संशोधित मार्ग ही
अपने अनुयायियों के सामने रखा। साथ ही आत्यंतिक करुणा भाव के कारण ही वे अपने
बंधुओं की दीन-दरिद्र स्थिति से तादात्मय स्थापित कर तिलमिला उठे। अपने
अनुयायियों से अत्यधिक ऊँचे होने पर भी वे उनसे अलग नहीं दीखते थे। उन पर होने
वाले अन्याय, अत्याचारों से ही द्रवित होकर समूचे जनमानस में उन्होंने इनके
प्रति चिढ़ उत्पन्न की। इस अन्याय का मूल कारण अपने समाज में ही व्याप्त
सामाजिक असमानता थी। अतः उन्होंने अपने आक्रमण का लक्ष्य इसके पुरष्कर्ता,
स्वयं को समझने वाले, समाज के ज्येष्ठों को ही बनाया। अत्याचार की यह परंपरा
इतनी पुरानी एवं उसकी मात्रा इतनी अधिक थी कि प्रतिकार करते समय भाषा में बदले
की भावना या कटुता आना स्वाभाविक था। पर यह कटुता भी उनके हृदय की संवेदनशीलता
की ही परिचायक है। शायद बुद्धिवादिता तथा संवेदनशीलता के कारण ही वे अपने जीवन
की संध्या में बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए।
चिकित्सक दृष्टि
वैसे बाबा साहब बचपन से बुद्ध और ईसा की ओर उपर्युक्त कारणों से ही आकृष्ट हुए
थे। दोनों ही बुद्धिवादी होने के कारण सामाजिक विकतियों के गहन चिकित्सक थे।
दोनों ही करुणा के मूर्तिमान प्रतीक थे। अपने जीवन के तीस वर्ष ईसा ने तपस्या
एवं अनुभव प्राप्त करने में बिताये। अंत के केवल तीन वर्ष ही वे अपने मत का
प्रचार कर पाए।
भगवान बुद्ध के विचार या चिंतन को प्रकट करने वाला अधिकृत साहित्य विपुल
मात्रा में उपलब्ध है। भगवान बुद्ध की यह विशेषता रही है कि उनके बहुत कुछ
कहने- सुनने के बाद जब उनके अनुयायियों ने उनसे अंतिम समय मार्गदर्शन के लिए
आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि उनके अनुयायी उनकी ही कही किसी बात को केवल
इसलिए न मानें कि वह बद्ध ने कही है, अपितु स्वयं-प्रकाशित बनें। (Be Lamp
Unto Thyself) इतने वे अंध इतने वे अंध श्रद्धा के विरोधी एवं बुद्धिवादी थे।
श्रद्धेय बाबा साहब भी उपर्युक्त दोनों गुणों के इस शताब्दी के अत्यंत श्रेष्ठ
आराधक थे। भगवान बुद्ध के मार्ग पर चलने में उन्हें शांति का अनुभव होना
स्वाभाविक था। एक ओर मन की अत्यधिक कोमलता तथा दूसरी ओर अनंत अत्याचारों को
सहन करने वाली ध्येयवादी दृढता उसमें दिखाई देती है। दोनों गुण उनके जीवन में
चरमोत्कर्ष पर दिखाई देते हैं। समय-समय पर नासिक, महाड आदि स्थानों पर उन पर
शारीरिक आक्रमण हुए। पत्थर फेंके गए, मार डालने का भी प्रयत्न हुआ, परंतु इन
सब परिस्थितियों में वे सदा अविचलित रहे। अपने पीड़ित बंधुओं के उत्कर्ष की
साधना में तो वे प्राणार्पण के लिए भी तत्पर थे। ऐसे थे वे महापुरुष।
निरुद्वेग चिंतन
दूसरी ओर विदेशी शासकों ने भारत में अपने शासन का औचित्य सिद्ध करने के लिए
अनेक भ्रांतियाँ निर्मित की थीं। बाबा साहब ने उनका भी अत्यंत कठोरतापूर्वक
खंडन किया। उन्होंने अपने सामने आने वाले प्रश्नों को कभी भावावेश में नहीं
देखा। उन्होंने उनका गहराई से अध्ययन किया तथा उनका अत्यंत तर्कयुक्त निराकरण
प्रस्तुत किया। अनेक अंधविश्वास रूढिवादियों के लिए उनके प्रहार असह्य होते
थे। अपना हिंदू समाज शिक्षित, अशिक्षित, धनी, निर्धन, सवर्ण, अवर्ण आदि अनेक
प्रकार के भेदभावों से ग्रस्त हो गया है। इनके कारण ही परस्पर कटुता उत्पन्न
होती है। विदेशी शासक भी इनका लाभ उठाने के लिए उसे और अधिक बढ़ाने का प्रयत्न
करते रहे। अन्यान्य स्वदेशी राजनीतिक नेता अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जब
इस कटुता को उछालते हैं तो इसका कितना वीभत्स स्वरूप अपने सामने प्रकट होता
है। यह तो हम आज भी अनुभव कर सकते हैं। परंतु श्रद्धेय बाबा साहब को ऐसे
क्षुद्र स्वार्थ का स्पर्श भी कभी न हो पाया। दु:खी पीड़ित स्वबांधवों के
प्रति प्रामाणिकता से करुणा का भाव होने पर भी वे विदेशी चालों के कभी शिकार न
हए। उन्होंने सदैव राष्ट्रभक्ति की भावना से ही सब स्थितियों का ऐतिहासिक तथा
वैज्ञानिक विश्लेषण किया।
हिंदू समाज में व्याप्त विकृति साधारणतः सर्वमान्य विषय रहा है। किसी भी समाज
की गति जब कुंठित होती है तब उसमें किसी न किसी कारण विकृति आना स्वाभाविक है।
यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। हजार वर्ष तक अमानुषिक आक्रमणों से टक्कर लेते
हुए समाज के नेतृत्व को पुनर्रचना का अवसर ही न मिला। बदलते हुए समय के अनुरूप
यहाँ स्मृतियाँ भी बदली हैं। परंतु उस काल में यह संभव न हो सका। अतः बँधे हुए
गतिहीन पानी के समान अपने इस समाज में भी सडांध उत्पन्न हो गई। अपने समाज के
प्रति यही अपनत्व की भावना लेकर बाबा साहब इसका निराकरण खोजते रहे।
राष्ट्र निष्ठा
अपने समाज में भी मानवीय स्वभावों की प्रक्रियानुसार कुछ लोगों ने स्वयं ही
जन्मजात बड़प्पन धारण किया था। अतः वे पिछड़े, अविकसित, निर्धन लोगों को निम्न
या छोटे समझना अपना अधिकार मानते थे। ऐसे पाखंडी तथाकथित समाज सुधारकों की
बाबासाहब ने बहुत ही कड़े शब्दों में आलोचना की तथा उनके तर्को का जोरदार खंडन
किया। उनकी इस आलोचना का स्तर देखकर ही उनकी कट्टर देशभक्ति तथा विद्वता का
परिचय मिलता है।
इस दृष्टि से संविधान-सभा में 5 फरवरी 1950 को दिया गया उनका महत्त्वपूर्ण
भाषण अध्ययन एवं मनन योग्य है। उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था
कि "भारत शताब्दियों बाद स्वाधीन हुआ है।" हम केवल 150 वर्ष गुलाम थे- पं.
नेहरू की यह मान्यता उन्हें पूर्ण रूप से अस्वीकार थी। अब इस स्वराज्य की
रक्षा हमारा प्रथम कर्तव्य है। अपने समाज में किसी प्रकार की फूट पुनः हमसे
स्वराज्य को छीन लेगी। शताब्दियों की गुलामी के फलस्वरूप हममें कुछ विकृतियाँ
ऊँच-नीच भेद, आर्थिक विषमता, जातिवाद आदि उत्पन्न हुए हो सकते हैं, परंतु इसे
अपना हथियार बनाकर कोई विदेशी हमारे स्वत्वों का अपहरण करना चाहेंगे तो हम उसे
सहन नहीं करेंगे। हम उनकी यह आकाँक्षा मिट्टी में मिला देंगे। यह हमारा घरेलू
मामला है, इसलिए हम इससे आपस में निबटेंगे। अपने लाभ मात्र या सामाजिक दृष्टि
से अनवत स्थिति से निकलने की इच्छा से हम विदेशियों के हस्तक नहीं बनेंगे।
हमें अपने में उत्पन्न होने वाले जयचन्दों से सावधान रहना होगा। अपने जिस
राष्ट्र व समाज के हम अंग-उपांग हैं, उसके हित को ठीक प्रकार से पहचानें।"
दो महापुरुष
-
दो दृष्टिकोण
पथभ्रष्ट, अहंकाररूढ़ सवर्ण हिंदू बंधुओं के हृदय-परिवर्तन करने का उन्होंने
बहुत बहुत प्रयत्न किया। उन दिनों यह काम एक और भी महापुरुष अपने विशेष ढंग से
कर रहे थे। वे थे पूज्य महात्मा गांधी। उनकी प्रामाणिकता, निष्ठा, असीम
प्रयत्नशीलता तो उनके विरोधियों में भी शंका से परे थी। उन्होंने भी शब्द का
नव मूल्यांकन करने के लिए स्वयं को भंगी बताया, उन्हीं के मुहल्ले-मकानों में
ठहरना, खाना-पीना प्रारंभ किया। समाज के नासमझ स्वयंभू नेताओं ने जिन्हें
अस्पृश्य कहा था, महात्मा जी ने उन्हें हरिजन कहा। यद्यपि भड़काने वाले निहित
स्वार्थी नेता विद्यमान थे फिर भी इन दोनों महापुरुषों के प्रयत्नों के
फलस्वरूप यह दलित-पीड़ित वर्ग विक्षुब्ध होते हुए भी अपनी सामाजिक, आर्थिक,
उन्नति के लिए ही प्रयत्नशील रहा। साथ ही इन महापुरुषों के प्रयत्नों के
परिणामस्वरूप ही अपना विवेक न खोते हुए उतने अत्याचार सहे, पर अपने हिंदू समाज
के प्रति आत्मीयता में कमी न आने दी।
वैसे यह बात अलग है कि इन दोनों के विचार पूरी तरह आपस में न मिलते हों। डॉ.
अंबेडकर हरिजन शब्द प्रयोग के विरुद्ध थे। महात्मा जी की सदाशयता को स्वीकार
करने के बाद भी वे अनुभव करते थे कि 'हरिजन' हीनता का ही दूसरा नाम है।
'हरिजन' नाम देने के लिए स्वर्ण अपने को सदैव उपकारकर्ता ही मानते रहेंगे। अतः
परस्पर भेद तथा उच्च-नीचता की बात तो बनी ही रही। यह स्थिति अत्यंत अपमानजनक
है, ऐसा वे मानते थे। अतः उन्हें इस हरिजन नामाभिधान से अत्यंत चिढ़ थी।
महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर दोनों के प्रयत्नों का लक्ष्य समान होने पर भी
भूमिका एवं प्रक्रिया (approach) भिन्न थी। दोनों महान थे। परंतु एक का प्रयास
बाहर से था तो दूसरा स्वयं भुक्तभोगी होने के कारण स्वानुभव से उत्पन्न कसक से
मर्माहत होकर प्रयत्नरत था।
इतना होने पर भी श्रद्धेय बाबा साहब प्रतिक्रिया की भावना से सर्वथा अलिप्त
थे। महात्मा जी का प्रयास मानवीय भावना से प्रेरित था। जैसे अमेरिका में
नीग्रो लोगों के उद्धार के लिए किए जाने वाले प्रयासों में लिंकन का स्थान था।
परंतु डॉ. अंबेडकर का प्रयास बूकर टी वाशिंगटन, मार्टिन लूथर किंग के समान था।
महानता में समान होने पर भी दोनों की भूमिका में उनकी स्वयं की भिन्न स्थिति
के कारण अंतर था- वैसे ही भारत में भी दोनों की भावनाओं को मिले शब्दों के रूप
में भिन्नता होने पर भी उनकी अपने समाज के प्रति समान आत्मीयता थी।
दृढ़ निर्णय
बाबा साहब अपने पीड़ित बंधुओं की दीनहीन स्थिति में परिवर्तन तो लाना चाहते
थे, परंतु अपने हिंदू समाज में भी किसी प्रकार का विघटन उत्पन्न नहीं होने
देना चाहते थे। वे एक ऐसे पंथ की कल्पना कर रहे जहाँ पीड़ित बांधवों को सामाजिक
समानता तो मिले, पर साथ ही उनकी भारत-भक्ति भी अविचल बनी रहे। यह उनके चिंतन
की दिशा थी। उनकी इस दुविधा को समझकर विविध पथों के नेताओं ने उनके पास चक्कर
काटना प्रारंभ किया। ईसाई पादरी, मुसलमान मौलवी, बौद्ध भिक्षु आदि उन्हें
घेरने लगे। पादरियों और मौलवियों ने तो अपनी परंपरा के अनुसार देशी-विदेशी सभी
प्रकार के जोर आजमाना प्रारंभ किए। परंतु उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि बाबासाहब को
आकर्षित न कर सकी।
मुसलमान या ईसाई बनने में उन्हें क्या आपत्ति है, यह उनसे पूछा भी गया। इस
प्रश्न के उत्तर में उन्होंने जो कुछ भी कहा वह जहाँ उनकी प्रखर राष्ट्रवादी
दूरदर्शिता का परिचायक है, वहीं वह तथाकथित सांप्रदायिकता का देश भर में ढोल
पीटने वाले नेताओं की कान-खिंचाई भी है। उन्होंने साहस के साथ कहा कि ऐतिहासिक
तथा वैश्विक कारणों से मुसलमान या ईसाई बनने वाले भारतीय के मन-मस्तिष्क की
दिशा बदल सकती है। वे भारत, भारतीयता, यहाँ के इतिहास, यहाँ की परंपरा आदि से
विमुख हो जाते हैं। यहाँ तक कि वे अपने भारतीय होने के बारे में भी कठिनाई से
ही अनुभव कर पाते हैं। बौद्ध बनने से केवल उपासना की प्रक्रिया ही बदलती है,
परंतु राष्ट्रीयता, राष्ट्राभिमान आदि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता।
जबकि इस्लाम या ईसाई मतग्रहण करने से एक प्रकार से व्यक्ति अराष्ट्रीय हो जाता
है। उसका अराष्ट्रीयकरण हो जाता है। अपने पीड़ित बंधुओं के उत्थान में भी
उन्होंने इस बात को ध्यान में रखा कि कहीं इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप
राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रीय एकात्मकता पर कोई आँच न आए।
मेरा सौभाग्य है कि मझे उन्हें केवल निकट से देखने का ही नहीं, अपितु
प्रत्यक्ष वार्तालाप एवं विचार-विनिमय का भी अवसर मिला। एक बार बातचीत में
कश्मीर संबंधी उनके विशेष दृष्टिकोण का पता चला। वे कश्मीर को पाकिस्तान को दे
देना चाहिए- इस मत के थे। उनका यह भाव हिंदू और मुसलमान की सामाजिक मनोभूमिका
से संबद्ध था। उनका मत था कि कट्टर मुसलमान कभी किसी उस राष्ट्र का राष्ट्रीय
नहीं बन सकता जहाँ शरीयत का कानून न चलता हो।
एक समय की घटना है। वे तब संविधान-सभा की ध्वज-समिति के सदस्य थे। एक बार बंबई
हवाई अड्डे पर एक प्रतिनिधि-मंडल उनसे मिलने गया। प्रतिनिधि-मंडल ने उनसे
प्रार्थना की कि वे ध्वज-समिति में अपने परंपरागत गेरुवे ध्वज को भारत का
राष्ट्र-ध्वज बनने के लिए आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करें। प्रतिनिधि-मंडल ने इसके
लिए एक गेरुवे रंग के झंडे का नमूना भी उन्हें भेंट किया। श्रद्धेय बाबा साहब
ने ध्वज स्वीकार करते हुए यह सलाह दी कि मैं तो यह प्रस्तावित करूँगा परंतु
इतने से काम नहीं बनेगा। इसके साथ साथ इस निमित्त बाहर बड़ा जन-आंदोलन भी खड़ा
करना होगा। तभी मेरे प्रस्ताव को बल मिलेगा। बात करते-करते हवाई जहाज पर चढ़ते
हुए उन्होंने प्रतिनिधि-मंडल के एक सदस्य श्री रा.ब. बोले की ओर देखकर हँसते
हुए पूछा- क्यों जी, यह गेरुआ संसद् भवन पर किसी अस्पृश्य युवक ने फहराया तो
आपको कोई आपत्ति तो नहीं होगी?" उन्होंने अपना वचन निश्चित ही पूरा किया,
परंतु विशिष्ट परिस्थितिवश बाहर आवश्यक जन-आंदोलन खड़ा न किया जा सका और
परिणामस्वरूप वह योजना सफल न हो सकी।
साम्यवाद के लिए प्रतिरोध
एक बार उनसे वार्तालाप में उनके बौद्ध मत में दीक्षित होने की बात आई।
उन्होंने बात ध्यानपूर्वक सुनी और तब वे थोड़ा अधिक गंभीर होकर शांतभाव से
बोले- तुम्हारे संस्कारों के कारण मैं तुम्हारी भावनाओं की व्याकुलता को भली
भाँति जानता हूँ। तुम्हारे हिंदू संगठन के कार्य (रा.स्व.संघ) से मैं भली
भाँति परिचित एवं प्रभावित हैं परंतु हमें काल की गति को पहचानना होगा। मेरे
जीवन का अब यह सांध्यकाल आ गया है। इससे स्वदेशी जनमानस दिग्भ्रमित होने की
पूरी संभावना है। राष्ट्र की मूल जीवन धारा से यहाँ के दलित समाज को
अलग-विधर्मी एवं विदेशाभिमुख- बनाने का प्रयास चारों ओर से चल रहा है। यह गति
दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यहाँ तक कि यहाँ का मान्यता प्राप्त नेतृत्व भी
इस प्रवाह में बहने लगा है और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए धर्मनिरपेक्षता,
प्रगतिशीलता, उन्नति आदि नामों पर इसे बढ़ावा देने लगा है। इन सब परिस्थितियों
का लाभ साम्यवादी बड़े मजे से उठा रहे हैं। दूसरी ओर विरोध की बात तो अलग है,
मेरे अनेक साथी कार्यकर्ता भी दरिद्रता, दीनता, असमानता, अस्पृश्यता आदि से
चिढ़कर इसी प्रवाह में बहने के लिए आतुर हैं। फिर सर्वसाधारण की बात क्या
कहें? अतः कोई न कोई नई दिशा मिलना आवश्यक है जिससे वे राष्ट्र-जीवन की
मूलधारा से अलग न हो जाएं। साथ ही अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन में
कुछ परिवर्तन लाने में भी समर्थ हो सकें। इसी विचार से मैंने यह मार्ग चुना
है।"
इस दृष्टि से श्रद्धेय बाबा साहब ने आवश्यक सतर्कता भी बरती थी। उनका प्रयास
था कि कोई भी स्वबांधव चाहे उसे उनके राजनीतिक या धार्मिक सामाजिक विचार मान्य
न हो, अपनी मूल जीवनधारा से बाहर जाने न पाए।
उन्होंने कहा- मुझे अच्छी तरह मालूम है कि तुम लोग संघ द्वारा राष्ट्रहित के
कार्य में लगे हो। फिर भी यदि मैं अपने लोगों को ठीक रास्ता बता नहीं पाया और
वे कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर आकृष्ट हो गए तो आगे उन्हें राष्ट्रीय प्रवाह
में लाना तुम लोगों को भी कठिन पड़ जाएगा। सवाल यह नहीं कि तुम्हारा प्रश्न
गलत है या नहीं। आगे आप जो भी कहें, ऐसी स्थिति आ जाएगी कि वे इसे सुनेंगे ही
नहीं।"
इसलिए मेरे जाने से पहले ही सारी व्यवस्था कर देनी चाहिए। याद रहे कि मैं
दलितों और साम्यवादियों के बीच की बड़ी दीवार हूँ। सवर्ण हिंदुओं और
साम्यवादियों के बीच गोलवलकर जी दीवार बनकर खड़े हैं।"
इन बातों को अक्षरशः बताने का उद्देश्य यही है कि दलित, पीड़ित शोषित बंधुओं की
समस्या और उन पर होने वाले अन्याय, अत्याचारों पूरी आत्मीयता के साथ सोच-समझकर
एक उपकारी की भाँति नहीं राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए, समाधान खोजने का
कार्य भी डॉ. अंबेडकर ने किया। अनेक प्रकार के अन्य प्रलोभनों को परे हटाकर
बौद्धमत भारतीय होने के कारण केवल उसे स्वीकार करने से ही राष्ट्रीयता को हानि
नहीं पहुँचेगी- इस भरोसे के साथ, अंतिम रूप से काफी दूरदर्शी विचारों से
उन्होंने यह निर्णय किया।
श्रद्धेय बाबा साहब दलित स्वबांधवों के आगामी नेतृत्व के बारे में भी सदैव
चिंतित रहते थे। उनका विचार था कि इस युवा वर्ग को भविष्य में कोई योग्य
कर्णधार न मिला तो उन्हें साम्यवाद के प्रभाव या नये भीषण दास्य से बचाना
असंभव हो जाएगा। विदेशी 'वादों' के प्रभाव से अपने युवकों को बचाने का
उन्होंने भरसक प्रयास किया। समाजवाद एवं लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। यह
श्रद्धेय बाबासाहब ने असंदिग्ध शब्दों में घोषणा की थी। जिस काल में उन्होंने
यह घोषणा की उस काल में इस विषय पर इतना आग्रही प्रतिपादन करने का साहस अन्य
किसी नेता में नहीं था।
सपना
बौद्धमत में दीक्षित होने में उनका एक और विचार था। विश्व के मानचित्र पर यदि
हम दृष्टि डालें तो एक बात ध्यान में आएगी कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों
में बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध रहते थे। बौद्ध मतावलंबी होने के कारण ये देश
स्वभावतः भारत की ओर नेतृत्व के लिए देखते हैं। अतः नवजागृति के कारण इन देशों
के भारत के साथ प्रगाढ़ धार्मिक-सांस्कृतिक संबंध स्थापित होकर उसके नेतृत्व
में विश्व में एक नई शक्ति का उदय होगा। यह था उनका सपना। इसलिए बीच के तिब्बत
संबंधी मनसूबों का उन्होंने डटकर विरोध किया तथा भारत सरकार की इस संबंध में
अदूरदर्शितापूर्ण दब्बू नीति की निंदा की। उन्होंने पंडित नेहरू को इस बारे
में बार-बार चेतावनी दी। परंतु दुर्भाग्य से पंडित नेहरू ने उनकी उपेक्षा ही
की।
बाबा साहब की यह अपेक्षा थी कि भारत दक्षिण-पूर्वी देशों के शक्ति-समूह का
नेतृत्व करता हुआ साम्यवाद का मुकाबला करता रहे। इस प्रकार समूचे बौद्ध जगत्
की श्रद्धा पुनः भारत के प्रति प्रस्थापित होगी। परंतु हमारे यहाँ के भीरु
नेतृत्व ने अपनी अदूरदर्शिता एवं अक्षमता तो प्रकट की ही, परंतु साथ ही साथ
विश्व-नेतृत्व का अत्यंत उपयुक्त अवसर भी खो दिया।
क्रांतदर्शी
वे स्वभाव से एक क्रांतिकारी थे। आत्मा की पुकार वे सुनते थे। परंतु गद्दी के
लिए नहीं, गद्दी के त्याग के लिए। स्वबांधवों के उद्धार के लिए वे किसी प्रकार
का भी कष्ट सहन करने के लिए तैयार थे। साहस और आत्मविश्वास के साथ दीर्घकालीन
संघर्ष के लिए भी वे तत्पर थे। प्रथम निर्वाचन के पूर्व नागपुर की एक
सार्वजनिक सभा में उन्होंने घोषणा की कि विरोधी दल के रूप में कार्य करने का
लक्ष्य सामने रखकर हम चुनाव के मैदान में नहीं उतरे हैं। शासन पर अधिकार करना
हमारा ध्येय है।"
सभा के बाद संवाददाताओं ने उनसे पूछा कि कितने वर्षों में आप सरकार बनाने की
अपेक्षा करते हैं?" डॉ. अंबेडकर ने तुरंत उत्तर दिया- यह प्रश्न वर्षों का
हिसाब करने से हल नहीं होगा। हाँ, मैं इतना स्मरण अवश्य दिलाना चाहता हूँ कि
इंग्लैंड में लेबर-पार्टी की स्थापना कब हुई तथा उस पार्टी की सरकार कब बनी,
इसका विचार करें।"
मूल्याधारित जीवन
सामाजिक जीवन में व्यवहार की शुद्धता डॉ. अंबेडकर के जीवन की निष्ठाओं में एक
थी। एक बार बंबई के दामोदर हाल में एक सभा का आयोजन हुआ था। अपने संगठन से
संबंधित एक भवन के निर्माण के लिए संग्रहित धन की चर्चा चली थी। वहाँ बोलते
हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा :-
हमारे लोगों से संग्रहित निधि में पच्चीस रुपये तथा उससे अधिक देने वालों से
तथा अन्यान्य संघों, संस्थाओं से कुल जमा राशि 25709 रुपये तथा 4 आने हैं।
इससे कम देने वालो से कुल एक हजार रुपये जमा हैं। इसके अलावा अज्ञात श्रोतों
से पाँच हजार रुपये जमा हैं। अंत में बताये गए पाँच हजार रुपयों का ब्यौरा
क्यों नहीं मिलता? कारण स्पष्ट है- रसीद पुस्तिकाएँ वापस नहीं आई हैं। इन रसीद
पुस्तिकाओं में और अधिक धन संग्रहित हुआ होगा, इसकी संभावना भी संभव है। इस
प्रकार गिनती में न आया हुआ धन किसी ने हड़प लिया होगा, यह भी संभव है। ऐसी
शंका होना स्वाभाविक है। इन संदेहों को यदि दूर करना हो तो जिन लोगों ने रसीद
पुस्तिकाएँ प्राप्त की थीं वे सब उनके द्वारा संग्रहित पूर्ण निधि को
पुस्तिकाओं के साथ वापस करें, यह अत्यंत आवश्यक है। याद रहे- रसीद पुस्तिका
वापस न करना तथा संग्रहीत धन को वापस न करना तथा संग्रहित धन को जमा न करना
दोनों, कानून की दृष्टि से दंडनीय अपराध माने जाते हैं।
इस विषय में पढ़े-लिखे लोगों को और एक बार कहना चाहूँगा। गरीबों से प्राप्त हर
एक पाई का हिसाब बताना जरूरी है, इसमें किंचित् भी हेराफेरी न हो, इसका ध्यान
रखना है। सार्वजनिक धन का हिसाब किताब ठीक-ठीक रखकर समय-समय पर उसे जनता को
बताने से ज्यादा पवित्र कार्य तथा सार्वजनिक धन को खा जाने से ज्यादा नीच
कार्य और कोई नहीं।"
तत्त्वनिष्ठ राजनीति
महाराष्ट्र के भंडारा संयुक्त मतदाता क्षेत्र में 1954 में एक उपचुनाव होने
वाला था। तब वहाँ आरक्षित स्थान के लिए डॉ. अंबेडकर ही उम्मीदवार थे। सामान्य
क्षेत्र से एक उम्मीदवार- कांग्रेस के एक नेता चुनाव के लिए खड़े थे। चुनाव के
कुछ पूर्व 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन' दल के कार्यकर्ताओं की एक सभा हुई। अपने
उम्मीदवार डॉ. अंबेडकर को जिताने के तंत्रों के बारे में वहाँ काफी गरमागरम
चर्चा चली। मतदाता अपने दो मतों में से सामान्य मत को कांग्रेस के उम्मीदवार
को या अन्य किसी उम्मीदवार को न डाले, तो ही अंबेडकर के जीतने की संभावना अधिक
है। अतः सामान्य मत को बेकार करने के बारे में उस सभा में विचार सामने आए।
लेकिन जब यह सलाह डॉ. अंबेडकर के कानों में पड़ी तो वे काफी गंभीर हुए। अत्यंत
स्पष्ट शब्दों में उन्होंने अपने अनुयायी लोगों से जो कहा वह उनकी तत्वनिष्ठ
राजनीति का एक उज्जवल उदाहरण है। उन्होंने कहा- देखो, संविधान की रचना मैंने
ही की है। उसके उद्देश्य के विपरीत होने वाली कोई भी बात हो या कार्य, मैं
होने नहीं दूंगा। मेरे सहयोगी इस प्रकार का अनुचित बर्ताव करें, यह मैं सहन
नहीं कर सकता। यदि मैं चुनाव में हार भी जाऊँ तो भी कोई बात नहीं, लेकिन दूसरे
वोट को बेकार करने की बात मुझसे कभी संभव नहीं।" परिणाम वही हुआ जिसकी संभावना
थी। अंबेडकर हार गए फिर भी वे व्याकुल नहीं हुए। यह थी उसकी तत्त्वनिष्ठा।
विदेशनिष्ठा के लिए चिकित्सा
अंबेडकर का यह स्पष्ट विचार था कि विदेशी निष्ठा के लोगों को देश के अंदर रखने
से उन्हें बाहर भेज देना ही उचित है। कश्मीर के बारे में मैंने जब उनके विचार
जानने की इच्छा से प्रश्न पूछा तो उन्होंने तुरंत आवेश के साथ उत्तर दिया-
देशभक्ति के बारे में मैं आप लोगों से थोड़ा भी पीछे नहीं हूँ। अंतर केवल इतना
ही है कि मुझे अच्छी तरह मालूम है कि जूता कहाँ काट रहा है, लेकिन आप लोगों को
काटने का अनुभव होने पर भी उसकी परवाह ही नहीं है। कश्मीर को अपने साथ मिलाना
ही है तो सर्वप्रथम वहाँ के सारे मुसलमानों को हिंदू समाज में आत्मसात् कर
लेना चाहिए, वरना वह एक काँटे की भाँति सदा हमारे पैरों चुभता रहेगा। यह
समस्या सदैव हमारे राष्ट्र के सिर पर झूलती तलवार के समान रहेगी। हम अर्थात्
हरिजन, हिंदू समाज का ही एक अंग है। फिर भी हरिजनों को हिंदू समाज में
आत्मसात् नहीं किया जा सका। तो ऐसी हालात में कश्मीर के सारे मुसलमानों को
आत्मसात् (हजम) कर लेने की शक्ति समाज में है क्या? आपकी (सवर्ण हिंदू समाज
की) जीर्ण शक्ति के बारे में मुझे परिचय है, इसलिए मैं कहता हूँ कि विदेशी
निष्ठा वाले लोगों को राष्ट्र-शरीर के अंदर रख लेने से उन्हें बाहर कर देना ही
श्रेयस्कर है। यही मेरा विचार है।"
उनके सारे विचारों से मेरी सहमति नहीं हो सकती। बातचीत में मैंने जो कहा, एक
अर्धपरिपक्व युवक के विचार मानकर उन्होंने उत्तर दिया होगा। किंतु उनके
अनुभवों के आधार पर उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला था। उन दिनों के हिंदू समाज
की जीर्णशक्ति के बारे में ये जो उनके विचार थे, वास्तविकता वैसी ही थी।
1942 की फरवरी में बंबई के बागले हाल में बाबासाहब ने अपनी पुस्तक 'थाट्स ऑन
पाकिस्तान' पर भाषण करते हुए कहा- पाकिस्तान के बारे में चर्चा करने के लिए भी
जो लोग तैयार नहीं हैं। उनसे बाद विवाद रखने में कोई लाभ नहीं है। पाकिस्तान
का निर्माण यदि उनके लिए अन्याय है, तो उसका साकार हो जाना उनके लिए एक भयंकर
घटना सिद्ध होगी। लोगों को इतिहास को भुला देने के लिए कहना बड़ी गलती है,
क्योंकि जो इतिहास को भुला देते हैं वे कभी इतिहास-निर्माण नहीं कर सकते।
भारतीय सेवा को मुसलमानों के प्रभाव से मुक्त कर उस एक राष्ट्रभक्त सेना के
रूप देना ही समझदारी का काम होगा। अपना मातृभूमि की रक्षा हम ही कर सकते हैं।
पाकिस्तान की रचना हो जाने पर मुसलमान समूचे भारत पर अपने साम्राज्य का
विस्तार कर लेंगे, ऐसा कल्पना करना अर्थहीन है। यदि कहीं वे ऐसा प्रयत्न
करेंगे तो हिंदू उन्हें अवश्य ही मिट्टी में मिला देंगे। ऊँचे वर्ग के सवर्ण
लोगों से यद्यपि मेरा झगड़ा रहा है तो भी मैं आप सब लोगों के साक्षी में
प्रतिज्ञा करता हूँ कि देश की स्वाधीनता के लिए मैं अपने प्राण अर्पित कर देने
के लिए भी तैयार हूँ।
कार्यकर्ताओं को सलाह
बाबा साहब कहा करते थे कि राजनीतिक कार्यकर्ता को पुढारीपन से अधिक
अध्ययनशीलता, कठिन परिश्रम, विनय, संगठनात्मक मनोधर्म जैसे गुणों को अर्जित
करना है। उन्होंने कहा था :-
तुम लोगों ने समझा होगा कि नेता बनना बहुत आसान है। लेकिन मेरे अनुभव के
अनुसार वह एक कठिन कार्य है। मेरा कार्य तो दूसरों की तरह का नहीं। जब मैंने
इस आंदोलन को प्रारंभ किया तो कोई संगठन नहीं था। सब कुछ स्वयं ही करना पड़ता
था। संगठन का खर्चा भी मुझ को ही वहन करना पड़ता था। समाचार-पत्र प्रारंभ करके
उसे चलाने जैसे सरदर्द का काम मुझे ही सँभालना था। 'मूलनायक', 'बहिष्कृत
भारत', 'जनता' जैसी पत्रिकाओं की छपाई से लेकर सारा काम अपने सिर पर ही उठा
लेता था। थोड़े में कहूँ तो मुझे शून्य से ही सब कुछ सृजन करने का काम करना
था।"
क्रोध के दो प्रकार होते हैं। एक का मूल द्वेष है तो दूसरा प्रेममूलक है।
हत्यारे के क्रोध का मूल द्वेष है, लेकिन माँ को कोप अपने बच्चे पर उमड़ते
प्यार के कारण ही आता है। यदि वह अपने बच्चे को चपत लगाएगी तो भी इससे किसी की
हानि नहीं होगी। उस कोप के पीछे उसके मन में अपने बच्चे के प्रति यही सदाशय
रहेगा कि वह सदाचारी बने, योग्य बने। यदि मुझे तुम लोगों पर क्रोध आता है तो
वह तुम लोगों की भलाई के लिए ही है।"
मिलकर रहें
डॉ. अंबेडकर जी के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पिछले दिन की बात है।
13-10-1956 के दिन नागपुर के श्याम होटल में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी
के कार्यकर्ताओं की बैठक थी। सभा के संयोजक थे भारतीय बौद्धजन समिति के
कार्यदर्शी बामनराव गोडबोले। सभा में चायपान की व्यवस्था मेरी जिम्मेदारी थी।
अंबेडकर जी का अंतिम राजनीतिक भाषण भी उसी सभा में हुआ। उस दिन उन्होंने अपने
अनुयायी लोगों का जो मार्गदर्शन किया था वह अत्यंत मार्मिक था। उन्होंने कहा-
आप लोग शायद धर्म से ज्यादा राजनीति से प्यार करते होंगे। ये सच है कि
शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी ने दलित वर्ग में आत्म सम्मान की भावना
प्राप्त की है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि इसने समाज के अन्य वर्गो के
बीच में एक दीवार सी खड़ी की है। अब तो ऐसी स्थिति आई है कि अन्य लोगों ने
दलित वर्ग के लोगों को वोट भी नहीं दिया। यह अच्छी बात नहीं है। अपनी कमी की
जानकारी रखने वालों के साथ मिलकर एक पार्टी का संगठन करना अधिक उपयुक्त है।
हमारे लोगों को अन्य लोगों के साथ मिला कर काम करने का अभ्यास करना है।"
धर्माधारित चिंतक
डॉ. अंबेडकर जी के सभी विचारों के मूल में निहित प्रेरणारूप धर्म ही था।
मार्क्सवाद धर्महीनता के कारण उन्हें पसंद नहीं आता था। बौद्ध धर्म स्वीकारते
समय उन्होंने कहा :-
"मानव केवल रोटी के लिए नहीं जीता। उसका एक मन भी है। इस मन को भी विचारों का
आहार चाहिए। धर्म मानव के मन में भरोसा भरकर उसे क्रियाशील बना सकता है। मैंने
इसलिए बौद्ध धर्म स्वीकार किया है कि हिंदू धर्म ने दलित वर्ग के उत्साही जीवन
पर पानी फेर दिया। बौद्धमत देश काल के बंधन के बिना किसी भी देश में
फूलता-फलता रह सकेगा। जिसे देश में मन के विचारों से अधिक पेट के विचारों को
महत्त्व दिया गया हो, उस देश के साथ कोई संबंध नहीं चाहिए।"
बाबा साहब के विचारों के मूल में शुद्ध भारतीयता थी। धर्म ही उसकी नींव है।
उनका आग्रह इतना ही था कि धर्म सद्धर्म हो, अधर्म न रहे। भगवान बुद्ध, महात्मा
कबीर, महात्मा ज्योतिबा फुले- ये ही उनके गुरु थे। विद्या, विनय, शील ही उनके
आराध्य देव थे। ऐसे मानसिक उत्कर्ष वाले नेता हमारे बीच पैदा हुए, वह हमारे
सौभाग्य की बात है।
('प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अंबेडकर'
पुस्तक की मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी
द्वारा लिखी प्रस्तावना)
ट्रेड यूनियन और बाबा साहब डॉ. अंबेडकर
-दत्तोपंत ठेंगड़ी
ट्रेड यूनियन के बारे में बाबा साहब के विचार आर्थिक विषय के संदर्भ में ही
थे। ट्रेड यूनियन से उनका प्रत्यक्ष संबंध मुंबई कपड़ा मिलों के हड़ताल के
कारण आया। हड़ताल करने वाली यूनियन कम्युनिस्टों की थी। हड़ताल सर्वसाधारण
मजदूरों की मांगों को लेकर थी, परंतु कपड़ा मिल के अस्पृश्य मजदूरों की
विशिष्ट माँगों का उसमें समावेश नहीं था। यह हड़ताल असफल रही। हड़ताल के कारण
जिन मजदूरों को काम से निकाल दिया गया, उन्हें वापस काम पर लेने की माँग करने
के लिए 26 अप्रैल 1929 को यूनियन ने हड़ताल करने का आदेश दिया।
बाबा साहब हमेशा कहते थे कि मजदूर ट्रेड यूनियन का उपयोग कम्युनिस्ट अपने
राजनीतिक स्वार्थ के लिए करते हैं। इस हड़ताल के समय भी उनका यही मत था।
मिल के विशेष लाभदायक विभागों में, दलित वर्ग के कामगारों की उनके अस्पृश्य
होने के कारण बंदी रहती थी, इस बारे में यूनियन की भूमिका अनुकूल नहीं थी।
इसलिए डॉ. अंबेडकर ने पहले ही अपेक्षा से अधिक आवेश से इस हड़ताल का विरोध
किया। हड़ताल के विरोध का एक अन्य कारण भी था। पिछले वर्ष हुई हड़ताल के कारण
दलितवर्गीय कामगारों की स्थिति दयनीय हो गई थी व पठानों के कर्ज का शिकंजा
उनकी गर्दन तोड़ रहा था। उनका जीवन खतरे में था। अपनी स्थिति सधारने के लिए
हड़ताल पर जाना आवश्यक लग रहा था। लेकिन बाबासाहब का कहना था कि परिस्थिति में
परिवर्तन कामगारों की स्थिति अधिक न बिगाड़ते हुए होना चाहिए। रोगी की तबियत
को अधिक न बिगाड़ते हुए रोग का निवारण करना चाहिए।
अंबेडकर ने दो कामगार नेता रघुनाथराव बखले व श्यामराव परुळेकर के नेतृत्व व
कपड़ा मिल कामगार यूनियन के प्रचार को चुनौती देने के लिए बड़े आवेश से प्रचार
किया। 29 अप्रैल 1929 के दिन मुंबई के दामोदर सभागृह में मिल कामगारों की एक
बड़ी सभा आयोजित की गई। अध्यक्ष स्थान पर स्वयं अंबेडकर थे। सभा में प्रस्ताव
पारित हुआ कि हड़ताल करना उचित नहीं है।
बाबासाहब ने 12 फरवरी 1938 के दिन मनमाड में दलित रेलवे कामगारों के लिए
स्वतंत्र परिषद् आयोजित की। सामान्यतः यह धारणा है कि कामगारों की समस्या केवल
आर्थिक शोषण की होती है। बाबासाहब ने इस मूलभूत धारणा को धक्का देनेवाला भाषण
दिया व अपनी सैद्धांतिक भूमिका सबके सामने रखी। कामगारों के आर्थिक प्रश्न के
जातीय पहलू को स्पष्ट करते हुए दलित कामगारों के दो शत्रुओं का वर्णन किया।
उन्होंने कहा- 'मेरे विचार से देश के दलित कामगारों को दो शत्रुओं से सामना
करना है। वह शत्रु है- ब्राह्मणवाद व पूँजीवाद। अपने को ब्राह्मणवाद से सामना
करना पड़ता है। अपनी आलोचना करने वाले इस बात को समझ ही नहीं सकते हैं। मैं जब
कहता हूँ ब्राह्मणवाद शत्रु से सामना करना है, तब उसका अर्थ गलत नहीं लेना
चाहिए। मैंने ब्राह्मणवाद शब्द का प्रयोग ब्राह्मण जाति की सत्ता, अधिकार व
हितसंबंध के अर्थ में नहीं किया है। ब्राह्मणवाद का अर्थ स्वतंत्रता, समता व
बंधुत्व भाव का विरोध करने वाले तत्व, इस अर्थ से विचार करने पर भले ही
ब्राह्मण उनके जनक हों, पर अब वह केवल उन तक ही मर्यादित नहीं रहा है। यह सब
जगह व्याप्त हो गया है। सारे वर्ग के आचार व विचार को नियंत्रित करने वाला है।
यह वादातीती वास्तविकता है। ब्राह्मणवाद इतना सर्वव्यापी हो गया है कि उसका
परिणाम अर्थ- प्राप्ति (नौकरी, मजदूरी, खेती) पर भी हो गया है।'
बाबासाहब ट्रेड यूनियन के महत्त्व को जानते थे, परंतु उन्हें लगता था कि यदि
अस्पृश्य कोई ट्रेड यूनियन शुरू करते हैं तो उसमें सवर्ण व बाकी समाज के लोग
नहीं जाएंगे। आगे चलकर कामठी (नागपुर) के श्री नारायणराव कुंभारे ने ट्रेड
यूनियन क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्होंने कुछ यूनियनों की स्थापना की। उन्हें
उत्तम रीति से चलाया। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने अखिल भारतीय श्रमिक
संस्था (सिद्धार्थ श्रमिक संघ) स्थापित करने का प्रयत्न किया। स्थान-स्थान पर
कार्य के लिए अनुकूलता होने पर भी नि:स्वार्थ, व्यक्तिगत
महात्त्वाकाँक्षारहित, मजदूर प्रेमी कार्यकर्ता उपलब्ध न हो सके, इस कारण भी
कुंभारे का 'सिद्धार्थ श्रमिक संघ' का स्वप्न साकार न हो सका। बाबासाहब के एक
अनुयायी वामनराव गोडबोले ने रेलवे में काम करने वाले अस्पृश्य कामगारों का
संगठन करने का प्रयत्न भी यशस्वी न हो सका।
अखिल भारतीय स्वरूप का एकमात्र श्रमिक आंदोलन सन् 1964 में श्री दादासाहब
गायकवाड़ के नेतृत्व में हुआ। वह आंदोलन खेतिहर मजदूरों का था। वस्तुत: इन
मजदूरों की सर्वाधिक संख्या शे.का. फेडरेशन के साथ थी। परंतु फेडरेशन में
राजनीतिक मतभेद होने के कारण खेतिहर मजदूरों की संख्या निर्माण न हो सकी।
1936 में स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना
-
अंततः बाबासाहब ने 1936 में स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना की। उसके घोषणा-पत्र
में उन्होंने दलितों के आर्थिक विकास संबंधी अपनी नीति को स्पष्टरूप से
प्रतिबिंबित किया। दलितों के हित की दृष्टि से स्वतंत्र मजदूर दल के महत्त्व
का प्रतिपादन करते समय उन्होंने कहा- 'इसमें सभी जाति व धर्म के लोगों के लिए
खुला प्रवेश है। यद्यपि यह दलितों की कुछ विशेष माँगों को अधिक आग्रहपूर्वक
रखता है, फिर भी इसके कार्यक्रमों में सारे कामगार वर्ग की माँगों का समावेश
है। इसके केंद्र पर दलित वर्ग हैं। यह एक मात्र बाधा इस दल की बढ़ोत्तरी में
बाधक है। निम्न जाति के लोगों से संबंध न रखने की प्रवृत्ति के कारण उच्चवर्ण
हिंदू इसमें सम्मिलित नहीं हुए। मुझे अत्यंत खेद के साथ यह कहना पड़ रहा है कि
जो लोग चाहते हैं कि स्वतंत्र दल का विकास न हो, उन्होंने इस प्रवत्ति का
फायदा उठाकर नादान व श्रद्धांध लोगों को इस दल में आने से परावृत्त किया।
लेकिन मुझे विश्वास है कि स्वतंत्र मजदूर दल की सरल व प्रामाणिक नीति, कामगार
वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करेगी तथा हिंदू समाज रचना की विभाजक रेखा शक्तियों
को प्रतिसंतुलित करेगी।' (डॉ. अंबेडकरः तत्त्व आणि व्यवहार, डॉ. रावसाहब कसबे,
पृष्ठ 78)
बाबासाहब के आर्थिक चिंतन में समाजवाद को स्वतंत्र स्थान था। वे मार्क्सवादी
नहीं थे, पर समाजवाद के नजदीक थे। उनका कहना था कि अपने लोकतंत्र में एक नई
संकल्पना राज्य-समाजवाद का अंतर्भाव होना चाहिए। उनका कारण बताते हुए उन्होंने
कहा कि 'लोकतंत्र के हिमायती इस ओर आवश्यक ध्यान नहीं देते हैं कि प्रौढ़
मतदान पर आधारित लोकतंत्र में विधायिका व सरकार पर अमीरों पर नियंत्रण रहता
है।' वे कहते हैं कि 'मेरी योजना शासन में पीड़ादायक बंधनों पर मर्यादित करने
मात्र की नहीं है। अधिक साफ कहना हो तो यह कि जिनके हाथ में अर्थसत्ता है,
उनका उस अर्थ सत्ता से नियंत्रण हटाने व दुर्बल व्यक्ति पर पीड़ादायक निर्बंध
लादने की सम्भावना नष्ट करने की है।'
बाबासाहब के जीवन में जिस प्रकार संघर्ष का काल रहा, वैसे ही विधायक प्रतिभा
दिखाने का काल भी था। 1942-46 के काल में वायसराय कौंसिल में श्रममंत्री के
रूप में काम किया तथा 1947 से पाँच साल तक स्वतंत्र भारत के केंद्रीय
मंत्रिमंडल में विधि मंत्री व भारत का संविधान तैयार करनेवाली संविधान समिति
के अध्यक्ष के रूप में संविधान विशेषज्ञ के नाते कार्य किया। ये कालखंड
बाबासाहब के विधायक कर्तृत्व का प्रत्यंतर दिखानेवाले कालखंड हैं।
इन दोनों कालखण्डों में बाबासाहब ने दलित व श्रमिक लोगों के अधिकार संरक्षक व
उद्धारक होने की भूमिका यशस्वी रीति से निभायी। उन्हें कानून व लोकतंत्र की
सार्वजनिक प्रशासन प्रणाली का ज्ञान था। उनकी कल्पक प्रतिभा व कल्याणकारी
बुद्धि इस काल में उपयोगी रही। आर्थिक विकास के लिए प्रयत्नशील भारत जैसे देश
को विकास के लिए पूँजी की जितनी आवश्यकता है, उसी प्रकार पैसे का लोककल्याण के
लिए उपयोग करने वाले प्रशासक व विविध योजना बनानेवाले योजनाकारों की भी
आवश्यकता है। उसके बिना आर्थिक प्रगति नहीं होती और न ही लोककल्याण सधता है।
इस दृष्टि से देखें तो श्रम मंत्री के रूप में बाबासाहब ने मालिक, मजदूर व
औद्योगिक क्षेत्र के लिए जो कार्य किया, वह लक्षणीय है
1. कामगारों की सुरक्षा के लिए बनायी योजनाएँ।
2. श्रम नीति तैयार करने के लिए कामगार व मालिकों से विचार-विनिमय करना। उसकी
सफलता के लिए श्रम संगठनों के आंदोलन अधिक विधायक करना।
3. श्रम कानून योग्य रीति से तैयार कर उनको सही तरीके से अमल में लाना।
मालिक-मजदूर झगड़े निपटाना।
यह सब करने के लिए बाबासाहब ने 1942-46 के कालखंड में महत्त्व के उपक्रम शुरू
किए। भारतीय मजदूर परिषदों का आयोजन किया। कामगारों के लिए कानून बनाए। चीफ
लेबर कमिश्नर का कार्यालय शुरू किया। श्रम संगठनों को सरकारी मान्यता प्रदान
की। औद्योगिक मजदूरों के हित में अनेक सरकारी आदेश दिए।
भारत की इंडियन लेबर कौंसिल, मजदूर-मालिक-सरकार का त्रिपक्षीय संगठन है। उसका
पहला सम्मेलन 7 अगस्त, 1945 को संपन्न हुआ। उसका उद्घाटन करते समय बाबासाहब ने
कहा- 'आज मालिक व मजदूरों के प्रतिनिधि प्रथम चर्चा के निमित्त मिल रहे हैं।
इनके तीन समान उद्देश्य हैं। मजदूरों के लिए कानून बनाना, औद्योगिक झगड़े
मिटाने के लिए एक पद्धति तैयार करना, भारत भर के मालिक-मजदूर संबंधों की चर्चा
करना।' इस दृष्टि से तिहरी योजना की आवश्यकता है। पहली: मालिक व मजदूरों को
समान प्रतिनिधित्व, दूसरी मालिक, सरकार व मजदूरों को समान प्रतिनिधित्व व
तीसरीः सारी शिकायतों की सुनवाई। इस सबके लिए यह कौंसिल अखिल श्रम परिषद् का
खुला अधिवेशन करेगी व एक विविध स्थायी सलाहकार समिति बनाएगी।
डॉ. अंबेडकर की इच्छा थी कि मजदूर व मालिकों में परस्पर विचार-विमर्श की प्रथा
निर्माण हो, एक-दूसरे के प्रति विश्वास के संबंध बनें। इस दृष्टि से यह
त्रिपक्षीय परिषद् भारतीय अर्थव्यवस्था की अनिवार्य संस्था बने। उन्होंने इस
त्रिपक्षीय परिषद् का गठन कर उसका नाम इंडियन लेबर कान्फ्रेन्स रखा।
सारांश यह कि वे चाहते थे कि सरकार की श्रमनीति निश्चित करने में मजदूरों का
सहभाग होना चाहिए। स्वतंत्रतापूर्व काल में अर्थात् 1942-46 के दौरान ऐसे चार
त्रिपक्षीय सम्मेलन हुए। उसमें मजदूरों की अनेक सुविधाओं व हितों की चर्चा
हुई। उदाहरणार्थ- न्यूनतम वेतन कानून, फैक्टरी एक्ट के अनुसार काम के घंटे,
मजदूरों के लिए जलपानगृह, भविष्य-निधि के नियम, अधिक कार्य करने वाले मजदूरों
को अधिक राशन, सस्ते मूल्य के अनाज केंद्र इत्यादि।
बाबासाहब ने मजदूरों के लिए पच्चीस कानून बनवाए
-
इन चार वर्षों में बाबासाहब ने मजदूरों के लिए 25 कानून बनवाए। औद्योगिक
संबंधों की चर्चा सरकारी स्तर पर शुरू हुई। औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए
चीफ लेबर कमिश्नर की तरह 3 प्रादेशिक लेबर कमिश्नर, 23 लेबर इंस्पेक्टरों की
नियुक्ति हई। भारत के मजदूरों की स्थिति, किसान-कामगारों का हित बाबासाहब के
अपने विषय थे। ब्रिटिश सरकार के समय श्रम मंत्री के रूप में 1946 में मजदूर
नेताओं को उन्होंने कहा, वर्तमान का मजदूर आंदोलन खोखला व निकम्मा है।
पूँजीवाद के विरोध में मजदूरों को एकजुट होना चाहिए। ब्रिटेन में मजदूरों ने
दो बार सत्ता प्राप्त की। टोरी दल को परास्त किया। हमें उस मजदूर आंदोलन का
आदर्श अपने सामने रखना चाहिए। भारत को जब स्वराज्य मिले, तब सत्ता मजदूरों के
हाथ में रहनी चाहिए।
उन्हें लगता था कि श्रम संगठनों को सरकारी मान्यता मिलनी चाहिए। इसके लिए
उन्होंने एक सरकारी विधेयक तैयार किया। यह बिल 1946 में असेम्बली में प्रस्तुत
किया गया। उन्होंने उपर्युक्त अनेक उपक्रम शुरू कर श्रमनीति की नींव रखी।
श्रम मंत्री के नाते बाबासाहब ने जो कार्य किया, दुर्भाग्य से उसका योग्य
मूल्यांकन नहीं हुआ। उनका स्पष्ट मत था कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए
आवश्यक ट्रेड यूनियन आंदोलन चलाना चाहिए। (स्मारक ग्रंथ 'डॉ. बी.आर. अंबेडकर-
इमैन्सिपेटर आफ द आप्रेस्ड' में श्री दिलीप धिवल का लेख, पृष्ठ 175)
कम्युनिस्टों से बाबासाहब का विरोध था
कम्युनिस्टों से बाबासाहब का विरोध था, उन लोगों की राजनीति व स्वार्थ, उनका
विरोध करने के लिए 1929 की मुंबई की कपड़ा मिल की हड़ताल के समय किए प्रचार
आदि का विवेचन ट्रेड यूनियन की चर्चा करते समय किया गया है। कार्य करते समय
बाबासाहब के मन में कम्युनिस्टों का जो मूल विरोध था, वह प्रभावी रहा।
धर्मांतरण के पूर्व किसी प्रसंग पर उन्होंने कहा था कि मेरे सामने प्रश्न यह
है कि संसार छोड़कर जाने के पूर्व अपने समाज को कोई निश्चित दिशा देनी चाहिए।
चूँकि यह समाज अब तक दलित, शोषित व पीड़ित रहा है, इसलिए आनेवाली नवजागृति के
कारण उसमें एक प्रकार की चिढ़ व आवेश है। वह स्वाभाविक भी है। लेकिन ऐसा जो
समाज होता है, वह कम्युनिज्म का भक्ष्य बनता है। मैं नहीं चाहता कि मेरा समाज
उनका आहार बने।
भारतीय पद्दलितों की आँखे कम्युनिस्टों के तेज से चकाचौंध होने की संभावना को
देखते हुए बाबासाहब कहते हैं- 'साम्यवादियों के यश को देख कर आप लोग भ्रमित न
हों। मुझे पूरा विश्वास है कि भगवान बद्ध को प्राप्त हुए ज्ञान के प्रकाश का
एक दशांश भी अपने को मिला, तो वही परिणाम (कम्युनिस्टों का) प्रेम, न्याय व
सद्भाव के मार्ग से निर्माण कर सकते हैं।
बाबासाहब लोकतंत्र के कट्टर समर्थक थे
बाबासाहब लोकतंत्र के कट्टर समर्थक थे। वे कहते हैं- 'जिस शासन प्रणाली से
रक्तपात किए बिना लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन
लाया जाता है, वह लोकतंत्र है।' उनके द्वारा कम्युनिज्म के विरोध का एक कारण
कम्युनिस्टों का हिंसा का अवलंबन भी है।
भौतिक सुख में डूबे समाज व व्यक्ति से वे कहते हैं- 'भौतिक सुख मानव का
सर्वस्व नहीं होता। उससे मनुष्य के दु:ख दूर नहीं होते। मनुष्य केवल रोटी पर
जिंदा नहीं रहता, उसे सुसंस्कृति की आवयश्कता होती है।' कम्युनिज्म का विशुद्ध
भौतिकवाद उनके लिए अपथ्य था।
वर्तमान में अपने देश में शोषण आधारित रचना प्रचलित है इस कारण कम्युनिस्टों
की चाँदी है। इस बात को वे अच्छी तरह जानते थे। उनकी चिंता थी कि वैसा घटित न
हो।
कम्युनिस्टों का मैं कट्टर दुश्मन हूँ
-
मार्क्सवादियों को वे कहते हैं- 'मनुष्य केवल रोटी पर जिंदा नहीं रहता। उसके
पास मन है। उस मन को विचार का खाद्य चाहिए। धर्म मनुष्य के मन में आशा निर्माण
करता है। उसे काम करने के लिए प्रवृत्त करता है। पद्दलितों के उत्साह पर हिंदू
धर्म ने पानी डाला, इसलिए धर्म परिवर्तन करने की बात मुझे आवश्यक लगी और मैंने
बौद्ध धर्म स्वीकार किया। बौद्ध धर्म को काल व समय का बंधन नहीं है। वह किसी
भी देश में विकसित हो सकता है। जिस देश के लोग मानसिक संस्कार के मुकाबले
स्वामित्व को अधिक महत्त्व देते हैं, उस देश से मैं संबंध नहीं रखना चाहता।
यदि हिंदू धर्म ने दलितवर्ग को शस्त्र धारण करने की स्वतंत्रता दी होती, तो यह
देश कभी भी परतंत्र न हुआ होता।'
दीक्षा समारोह के समय नागपुर में बोलते हुए उन्होंने कहा- 'मनुष्यमात्र के
उत्कर्ष के लिए धर्म अत्यंत आवश्यक है। कार्ल मार्क्स के कारण एक नया पंथ
निकला। उसके अनुसार धर्म कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में धर्म का महत्त्व
नहीं है। उन्हें सुबह के अल्पाहार में पाव, मक्खन, मलाई, मुर्गे की टाँग, भोजन
में भरपेट अन्न व अच्छी नींद मिली कि सब कुछ हो गया। यह उनका तत्त्वज्ञान है।
मैं उनके मन का नहीं।'
सितंबर 1937 में उनकी अध्यक्षता में मैसूर में दलितवर्ग का जिला सम्मेलन
संपन्न हुआ। उसमें भाषण करते हुए उन्होंने कहा- 'मैं कम्युनिस्टों से मिलूँगा,
इसकी जरा भी संभावना नहीं है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण
करने वाले कम्युनिस्टों का मैं कट्टर दुश्मन हूँ।
यह बताते हुए कि किताबी कम्युनिस्टों ने इस देश की नब्ज समझी ही नहीं है, वे
कम्युनिस्टों से कहते हैं- 'ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का श्रमजीवी वर्ग
यद्यपि गरीब है, फिर भी वह गरीब व अमीर के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं जानता?
भारत के गरीब लोग जाति अथवा पंथ, ऊँच अथवा नीच का भेद बिल्कुल नहीं मानता? यह
भी कह सकेंगे क्या? यदि वस्तुस्थिति यह है कि वे वर्ग भेद के अतिरिक्त अन्य
भेद भी नहीं मानते, तो ऐसा श्रमजीवी वर्ग अमीर लोगों के विरुद्ध इस संघर्ष के
एकमात्र मोर्चा खड़ा कैसे कर सकेगा? यदि श्रमजीवी वर्ग एक मोर्चा न बना सका,
तो क्रांति कैसे होगी? (एनिहिलेशन आफ कास्ट, पृष्ठ 18)
20 नवंबर 1956 को काठमाण्डू में आयोजित बौद्ध मातृसंघ के चौथे सम्मेलन के
प्रतिनिधियों के आग्रह पर बाबासाहब ने भाषण किया। उन्होंने बौद्ध देशों के
तरुणों के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की। क्योंकि उन तरुणों को मार्क्स
पूजनीय लगते थे। बाबासाहब ने कहा 'बुद्ध व मार्क्स का ध्येय एक ही था। मार्क्स
का विचार है कि व्यक्तिगत संपत्ति दु:ख की जड़ है। उसकी परिणति शोषण में होती
है। बौद्ध वागङ्मय में दुःख शब्द का अर्थ व्यक्तिगत संपत्ति बताया गया है।
बुद्ध का कहना था कि सब कुछ नाशवान है, इस कारण उसके लिए झगड़ने की आवश्यकता
नहीं। बौद्ध भिक्षुओं को व्यक्तिगत संपत्ति रखने की अनुज्ञा नहीं थी। बुद्ध ने
अपने धर्म की नींव ईश्वर अथवा आत्मा के तत्त्व पर खड़ी नहीं की थी। इसलिए
व्यक्तिगत संपत्ति को नकारने की बात संसार को मनवाने के मार्ग में बौद्ध धर्म
बाधा नहीं डालेगा।'
बौद्धधर्म व साम्यवाद के मार्ग भिन्न
तथापि उद्देश्य साध्य करने के बौद्ध व साम्यवाद के मार्ग भिन्न हैं। व्यक्तिगत
संपत्ति निर्मूलन करने का साम्यवाद का मार्ग अत्याचारी है। मार्क्सवाद के
मार्ग से फल तुरंत मिलता है। बुद्ध का मार्ग दीर्घसूत्री, पर अनत्याचारी है।
वह विश्वसनीय मार्ग है। मनुष्य व विश्व के मन में सुधार हुए बिना संसार का
सुधार नहीं होगा। मनुष्य के मन का परिवर्तन हो जाने पर कोई दिक्कत नहीं रहेगी।
तब यह कार्य स्थिर स्वरूप का होगा। मार्क्स का मार्ग हिंसा पर आधारित है। यदि
रशिया में स्थापित तानाशाही असफल हुई, तो राज्य की संपत्ति हड़पने के लिए
रक्तरंजित संघर्ष होगा। बौद्धधर्म की पद्धति लोकतान्त्रिक है और साम्यवाद का
अधिष्ठान तानाशाही का है। इसलिए बौद्धधर्म का मार्ग अत्यंत सुरक्षित और समर्थ
है। बौद्ध भिक्षुओं को धर्मप्रचार करने के लिए ईसाई धर्मोपदेशकों के मार्ग का
अनुसरण करना चाहिए।' (धनंजय कीर, पृष्ठ 528-29)
महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध विचारक श्री रावसाहब कसबे ने 'अंबेडकर आणि मार्क्स'
ग्रंथ लिखा है। अपने ग्रंथ की परिपूर्णता के लिए उन्होंने परिश्रमपूर्वक
तत्त्व व तथ्यों को यथावत् दिया है। यह ग्रंथ प्रतिपादात्मक है, प्रचारात्मक
नहीं।
अपने ग्रंथ के पृष्ठ 350 पर रावसाहब कसबे लिखते हैं- 'मार्क्सवादी सिद्धांत का
अब तक काफी विश्लेषण किया जा चुका है। इस विश्लेषण के आधार पर मार्क्सवादियों
को मार्क्सवाद की समीक्षा व चिंतन अनिवार्यरूप से करना चाहिए था। यदि ऐसा हुआ
होता, तो इस महान सिद्धांत का निरंतर विकास हुआ होता। मार्क्सवाद सामाजिक गति
का तत्वज्ञान है; पर उसमें जड़ विश्व व सजीव विश्व अर्थात् सचेतन प्राणी के
वैयक्तिक अथवा सामूहिक स्पष्टीकरण के लिए उपयोगी हो सके, ऐसा विवेचन नहीं है।
इस सिद्धांत में मानवेतरों का अधिक विचार नहीं किया गया है। मार्क्सवाद ने
मनुष्य की भी सारी प्रेरणाओं का विचार नहीं किया है। कामवासना व अहंकार जैसी
अत्यधिक सामर्थ्यशाली जीवशास्त्रीय प्रेरणा तक को अधिक महत्व नहीं दिया। इस
कारण मार्क्सवाद को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने वाले नेता व कार्यकर्ताओं के
अनेक अच्छे-बुरे कृत्यों का अन्वयार्थ लगाने के विचार अपने पास न हों, तो उन
सारे कृत्यों का अर्थशास्त्रीय समर्थन करने के अलावा अपने हाथ में कुछ नहीं
रहता। लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि इसकी पर्याप्त समझ मार्क्सवादी विचारकों को
है।'
आगे उन्होंने कहा- 'इस सबके स्थान पर नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से किए गए
आपेक्षों का विवेचन ही अधिक है। बाबासाहब अंबेडकर ने जीवन काल के आखिर में
अपने विचारों में नीति को अत्यधिक महत्त्व दिया। उन्होंने हिंदू धर्म की नीति
को रेलगाड़ी के डिब्बे की उपमा दी। यह डिब्बा जरूरत पड़ने पर गाड़ी में जोड़ा
जा सकता है और जब आवश्यक लगे, तब अलग किया जा सकता है। इसलिए 'बुद्ध व धम्म'
ग्रंथ लिखते समय उन्होंने स्पष्ट किया है कि बुद्ध ने मानव जीवन में परमेश्वर
के अस्तित्व के स्थान पर नीति को परमेश्वर के समान महत्त्व किस प्रकार दिया
है।'
एलेस्टर मकिण्टायर ने अपने ग्रंथ 'ए शार्ट हिस्टरी ऑफ एथिक्स' में लिखा है कि
कार्ल मार्क्स यह नैतिक आह्वान नहीं करता कि न्याय पर आधारित समाज-व्यवस्था
निर्माण करना है। यह नैतिक आह्वान किसे लक्ष्य कर दिया जा सकता है? पूँजीवादी
वर्ग को तो इस प्रकार का आह्वान करने का कोई अर्थ नहीं है। इसके विपरीत
कामगारों को समाज रचना बदलनी होती है। इसलिए उन्हें नैतिक आह्वान करने की
आवश्यकता ही नहीं होती। इस कारण मार्क्स को नैतिक आह्वान मंजूर नहीं था। लेकिन
इसका अर्थ यह नहीं कि मार्क्स को नीति की आवश्यकता या महत्त्व नहीं था। वह
बताते हैं कि कामगार वर्ग का सामाजिक उद्देश्य साधने के लिए जो समाजरचना
उन्हें निर्माण करनी है, वह समाजरचना नीति का मानवीय मूल्यों का अनुसरण करने
वाली है। चूँकि इस समाज रचना में सारे लोग सहभागी होते हैं, इसलिए यह सबकी
सामाजिक नीति हो जाती है। (पृष्ठ 351)
अंबेडकर के अमेरिका के गुरु एडविन आर. ए. सेलिग्मैन, एंजेल्स के पत्रों के
अनेक उद्धहरणों का संदर्भ देकर मार्क्सवादी सिद्धांत का अर्थ निकालते समय
लिखते हैं- इसका अर्थ यह है कि इतिहास का आर्थिक विश्लेषण केवल आर्थिक
परिभाषाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता है। यह विश्लेषण तो मानवीय विकास में
सामाजिक विचार को महत्त्व का स्थान देने का होता है और सामाजिक परिवर्तन में
आर्थिक घटक अत्यंत महत्त्व का होता है, ऐसा इसलिए नहीं है कि इतिहास के आर्थिक
विश्लेषण में केवल आर्थिक संबंध ही प्रभावशाली रहते हैं। हाँ, समाज की प्रगति
को आकार देनेवाली प्रभावी शक्ति अवश्य है।' इसलिए सेलिग्मैन का कहना है कि सब
लोग सामाजिक नीतिमत्ता के प्रतिबिंब व संतति होते हैं। अच्छे-बुरे के बीच भेद
करने की शक्ति व सद्विवेक इस सामाजिक शक्ति की ऐतिहासिक निर्मिति होती है।
(Karl Marx-Der Achtzehute Bruncire Brumaire des Lauis Bonaprte, Third
Edition Page 26)
अनुवाद से भ्रम निर्माण न हो, इसलिए सेलिग्मैन का विचार मूल अंग्रेजी में देना
इष्ट है।
24. 'We understand, then, by the theory of economic interpretation of
history, not that all history is to be explained in the economic term
alone, but that the chief considerations in human progress are the social
considerations, and that the important factor in social change is the
economic factor, Economic interpretation of history means, not that the
economic relations exert an exclusive influence, but that they exert
preponderant influence in shaping the progress of society.'- Seligman, Page
67
25. An individual is the outcome and reflex of social morality; conscience
itself, or the ability to distinguish between good and bad, is the
historical product of social forcesSeligman] Page 123-124
26. 'Thus the economic interpretation of history, correctly understood,
does not, in the least, seek to deny or to minimize the importance of
ethical and spiritual force in history. It only emphasizes the domain
without which the ethical force can, at any particular time, act with
success.'
-
Seligman, Page
131
28. But if by economic interpretation we mean, what alone we should mean
that the ethical forces themselves are essentially social in their origin
and largely conditioned in their actual sphere of operation by the economic
relations of society, there is no real antagonism between the economic and
ethical life. Seligman, Page 132-133
रावसाहब कसबे ने विषय के प्रति न्याय करने का अच्छा प्रयास किया है। उन्होंने
मार्क्स व अंबेडकर के बारे में ऐसी बहुत सारी जानकारी अपने ग्रंथ में दी हैं,
जो सर्वमान्य को मालूम नहीं हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरुजी कहते हैं-
'भारतीय कम्युनिस्टों ने कार्ल मार्क्स पर बड़ा अन्याय किया है। मार्क्स केवल
भौतिकवादी नहीं थे। उनकी मूल प्रेरणा नैतिक थी। उन्होंने आर्थिक विचार को साधन
के रूप में प्रयोग किया।
वस्तुस्थिति ऐसी है कि अधिकांश कम्युनिस्टों को मार्क्स का दर्शन स्टालिन के
चश्मे से हुआ है। स्टालिन ने स्वयं की सुविधा के अनुसार मार्क्स को प्रस्तुत
किया। उसने सन् 1844 का दस्तावेज (The Philosophical and Economic
Papers-1844) प्रचारित नहीं होने दिया। इस कारण लोगों के ध्यान में यह बात
नहीं आ सकी कि मार्क्स की प्रेरणा नैतिकता में थी।
भारत में कम्युनिस्टों ने भारतीय-समाज रचना समझी ही नहीं
डॉ. अंबेडकर का विश्लेषण था कि भारत के कम्युनिस्टों ने भारतीय समाज-रचना समझी
ही नहीं। वहाँ के पाठयक्रम के विचार यहाँ लागू नहीं होंगे। बाद में डॉ.
राममनोहर लोहिया की 'क्लास व कास्ट' विचार की प्रस्तुति तथा खेतिहर मजदूरों के
संगठन व आंदोलन पर दिया गया जोर, इस दृष्टि से उल्लेखनीय है; परंतु उनके
अनुयायी अनेक कारणों से उनके द्वारा दी गई दिशा को आगे नहीं बढ़ा सके। वामपंथी
प्राप्त परिस्थति का आकलन कर नहीं पाए। पाठ्यक्रमीय विचार-पद्धति उसका प्रमुख
कारण था। वस्तुतः बुद्धिमत्ता व कर्तृत्व की दृष्टि से कम्युनिस्ट दल के पास
सुयोग्य कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी, परंतु माओ, टीटो, हो-ची-मिन्ह, कास्ट्रो
अथवा डेनियल ओरटगा की तरह उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग नहीं किया। इस कारण
हुए दुष्परिणाम का वर्णन विदर्भ के नेता श्री सुदाम देशमुख ने 'माणूस' के
परिवर्तन विशेषांक (10-17 अगस्त 1985) में इस प्रकार किया है :-
'आज सामाजिक प्रबोधन के सारे आंदोलन व विधायक संघर्षात्मक कार्य,
समाजवादी-साम्यवादी परिधि के बाहर चल रहे हैं अर्थात् स्थिति ऐसी हो गई है कि
इन प्रगतिशील, नये आंदोलनों को खाद्य की पूर्ति करने वाले विचार तो हमारे हैं,
लेकिन आंदोलन हमारे नहीं हैं। नारी मुक्ति आंदोलन महर्षि कर्वे ने शुरू किया।
दलित आंदोलन का प्रारंभ ज्योतिबा फुले व अंबेडकर ने शुरू किया। अब हमारे
अतिरिक्त बाबा आढव जैसे लोग ये आंदोलन चला रहे हैं। कामगार आंदोलन में दत्ता
सामन्त, किसानों का संगठन, खेतिहर मजदूरों के संगठन, काश्तकरी संगठन,
शिवाजीराव का तपोवन, किसी में भी कम्युनिस्ट नहीं हैं।' श्री प्रभाकर वैद्य
कहते हैं- 'सामाजिक समता के संघर्ष के विषय में जिस शास्त्रीय विचार का गहराई
व गंभीरता से अध्ययन करने की आवश्यकता थी, उसे कम्युनिस्टों ने पर्याप्तरूप से
किया नहीं। कम से कम जब जरूरी था, तब नहीं किया। इसे खुले मन से स्वीकार करना
चाहिए।'
धर्मसंकल्पना के विषय में कम्युनिस्टों ने विरोध की भूमिका ली। 'K. Marx and
E. Engels on Religion' जैसी अधिकृत पुस्तक के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि
केवल ज्युडाइज्म, ईसाइयत व इस्लाम जैसे सेमेटिक सम्प्रदायों के संदर्भ ही
दोनों के लेखन में हैं। हिंदुत्व के विषय में एक भी संदर्भ नहीं है। बुद्धिज्म
का केवल एक संदर्भ है, वह भी केवल चलताऊ रूप में। सम्प्रदाय के विषय में
मार्क्स का अभिप्राय सेमेटिक सम्प्रदायों से है, हिंदू सम्प्रदायों से नहीं।
बाबासाहब नीति को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। उनका कहना था कि नीति अर्थात्
धम्म और धम्म अर्थात् नीति और धम्म पूरी तरह सामाजिक है। आदमी यदि अकेला हो,
तो उसे धम्म की आवश्यकता नहीं है, परंतु दो आदमी भी एकत्र हों, तो उन्हें पसंद
हो या न हो, धम्म चाहिए ही। अंबेडकर की आग्रही भूमिका नैतिक शक्ति को सामाजिक
शक्ति के रूप में मान्यता देनेवाली है। ऊपर उद्धृत सेलिग्मैन के विचारों का
स्पष्टीकरण उन्होंने अपने ग्रंथ 'बुद्ध आणि धम्म' के चौथे खंड के पहले विभाग
में नीति की चर्चा करते समय किया है।
आज मार्क्सवादियों में इस बात को लेकर विवाद है कि मार्क्सवाद का वास्तविक
स्वरूप क्या है? वैसे ही बुद्धिज्म का कौन-सा स्वरूप बाबासाहब को अभिप्रेत था,
यह स्पष्ट नहीं हो सका; क्योंकि मृत्यु ने उन्हें इसे विषद करने का अवसर भी
नहीं दिया और आज ऐसा कोई है नहीं, जो उनके मन की कल्पना पूरी तरह से समझने की
क्षमता रखता हो।
(
'
डॉ. अंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा
'
से संकलित)
बाबा साहब अंबेडकर जयंती समारोह
(14 अप्रैल 1988
,
महू मध्य प्रदेश)
- मा. दत्तोपंत जी का व्याख्यान
मध्य प्रदेश की महू नगरी प्रसिद्ध सैन्य छावनी होने के साथ ही बाबा साहब
अंबेडकर की पावन जन्मभूमि होने के कारण समाज की आस्था का केंद्र है। यहाँ
प्रतिवर्ष 14 अप्रैल यानी बाबा साहेब की जयंती पर लाखों की संख्या में
श्रद्धालु देश के दूर-दराज क्षेत्रों से जन्मभूमि पर मत्था टेकने, बाबा साहब
को श्रद्धापूर्वक नमन करने आते हैं।
प्रेरणा जिससे रखी भव्य अधिष्ठान की बुनियाद
-
मध्यभारत प्रांत के तत्कालीन प्रांत प्रचारक माननीय शरद जी मेहरोत्रा अपने
स्नेहपूर्ण व्यवहार-अनूठी कार्यशैली और योजक के रूप में जाने जाते थे। महू जो
संघ की दृष्टि से जिला केंद्र था उसमें भी उनका प्रवास प्रायः होता रहता था।
एक बार कार्यकर्ताओं के बीच सहज चर्चा में उन्होंने कहा कि महू तो पूज्य बाबा
साहब अंबेडकर की जन्मभूमि है, जहाँ हमें भी उनकी स्मृति में कार्यक्रम करना
चाहिए ताकि बाबा साहब के त्यागपूर्ण जीवन व उनके प्रेरक विचारों को समाज के
अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। केवल एक निश्चित वर्ग द्वारा ही कार्यक्रम
आयोजित करने से जो अंबेडकर जी केवल दलित समाज के रह गए हैं, वे एक सीमित वर्ग
में ही बंधकर रह जाएंगे। जबकि वे तो पूरे भारत के हैं पूरे भारतीय समाज के
हैं। वास्तव में वे एक राष्ट्रीय नेता हैं। इसी क्रम में आगे अ.भा. प्रतिनिधि
सभा में यह विषय पहुँचा, संघ ने एक प्रकल्प हाथ में लिया। तदुपरान्त
कार्यक्रमों के आयोजन की योजना बनी। सच ही कहा है निर्मल हृदय से जो भाव उठते
हैं या नि:स्वार्थ सच्चे मन में जो परिकल्पना उठती है उसे पूरा करने के लिए
ईश्वर भी अपना आशीर्वाद सौंपता है। क्षुद्र स्वार्थ और छल-कपट तो ईश्वर सपने
में भी पसंद नहीं करता-
निर्मल मन जन सो मोहे पाबा।
छल छिद्र कपट मोहि सपनेहुं न भावा।
समयांतर से इस संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, प्रखर विचारक
एवं भारतीय मजदूर संघ जैसे विश्वव्यापी संगठन के संस्थापक माननीय दत्तोपंत जी
ठेंगड़ी से चर्चा हुई। विचार-विमर्श के बाद महू में कार्यक्रम करने की योजना
बनी। 14 अप्रैल सन् 1988 को कार्यक्रम करना निश्चित हुआ। मान. शरद जी की
प्रेरणा से 2 कार्यक्रमों की योजना बनी। एक चिंतनशील प्रबुद्ध वर्ग के लिए
परिसंवाद और दूसरा आम जनता के लिए सार्वजनिक सभा। माननीय दत्तोपंत जी इस
कार्यक्रम में विषय रखेंगे, यह तय हुआ।
कार्यक्रम की तैयारियाँ शुरू हुई। पत्रक व निमंत्रण पत्र छापे गए। बैठकें हुई।
तय किया कि बाबा साहब की जयंती पर कार्यक्रम का आयोजन करती आ रही समिति के
बंधुओं से संपर्क कर उनको साथ लिया जाए। उनको साथ लेना जरूरी था। क्योंकि वे
साथ नहीं आते तो स्वाभाविक ही वर्गभेद खड़ा हो जाता। एक वर्ग जो परंपरागत रूप
से बाबा साहब की जयंती पर कार्यक्रम करता आ रहा था और दूसरा संघ। इससे भ्रम
पैदा होने की स्थिति बनती। समाज में वर्ग भेद की स्थिति बने यह न तो कभी बाबा
साहब चाहते थे और न ही संघ। बाबा साहब के अनुयायी हमारे बंधु हैं। संघ तो
हमेशा से ही न केवल ऐसा मानता आया है अपितु संघ के कार्यक्रमों व स्वयंसेवकों
के व्यवहार में भी वह परिलक्षित होता रहा है। जिसकी प्रशंसा महात्मा गांधी व
स्वयं बाबा साहब ने की थी।
इस बार श्री अर्जुन सिंह घारू, श्री अशोक यादव, डॉ. आशाराम धोलपुरे, एडवोकेट
त्रिलोक सिंह भाटिया, श्री बिट्ठल राव कर्डक, श्री हरिश्चंद्र बाघमारे, श्री
भीम राव ठोमरे, श्री मधु बसोडे, श्री सदाशिव कोकरे, श्री रामलाल जावा आदि
बंधुओं से संपर्क हुआ। इनमें से कुछ ने अपनी असहमति जताई तो कुछ ने तो सीधे ही
विरोध किया। कइयों ने अपनी शंका भी प्रकट की, कुछ को आशंका थी कि इसके पीछे
षड्यंत्र तो नहीं है। स्वाभाविक है कि वर्षों तक संघ के बारे में जो जी घोला
गया, स्वार्थवश दुष्प्रचार किया जाता रहा कि संघ तो सवर्णों का संगठन है, दलित
समाज की पीड़ा का भान उसे कैसे होगा? ऐसे प्रश्न सामने खड़े थे जिसका उत्तर
तर्क या बहस से देने की बजाय आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से दिया जाना ही श्रेयस्कर
होगा। ऐसा मानकर उनसे बातचीत व संपर्क किया जाता रहा। अंततोगत्वा निश्छल व
प्रेमपूर्ण व्यवहार के चलते वे सब कार्यक्रम में साथ होने पर सहमत हो गए।
आयोजन के निमित्त समन्वय का एक प्रकार से यह सबसे कठिन पड़ाव था जो भगवान् की
कृपा से पार कर लिया गया। श्री दिनकर जी सबनीश जो उस समय महू के जिला प्रचारक
थे पग-पग पर सजग दृष्टि रखते हुए कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते रहे।
उस दौरान इस आयोजन के पूर्व बाबासाहब जयंती उत्सव समिति तथा बुद्धिस्ट सोसायटी
ही प्रमुख रूप से कार्यक्रमों का आयोजन करती थी। अपने कार्यकर्ताओं ने डॉ.
आंबेडकर जन्मोत्सव समिति के नाम से आयोजन समिति का गठन किया। श्री राधेश्याम
जी यादव जो तब महू जिले के जिला कार्यवाह थे, संयोजक बने। इसी प्रकार प्रसिद्ध
समाजसेवी श्री राधेश्याम जी बियाणी अध्यक्ष व एडवोकेट श्री चंदन सिंह जी यादव
को समिति का सचिव बनाया गया। बौद्ध महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री अशोक
यादव, श्री अर्जुन सिंह घारू आदि भी आयोजन समिति म शरीक हुए।
कार्यक्रम की व्यापक तैयारियाँ शुरू हुई। देर रात तक बैठकें चलतीं। एक नए
प्रकार का आयोजन था जिसमें एक छोटी-सी भी चूक संघ व समाज को नुकसान पहुँचा
सकती थी। समाज में भेद की खाई को चौड़ा कर सकती थी तथा उन लोगों को बोलने का
और मौका मिल सकता था जो नहीं चाहते थे कि दलित या वंचित वर्ग के लोग समाज की
मुख्यधारा में सबके साथ समरस होकर आत्मीयता पूर्वक रहें।
अस्तु, इन घटनाक्रमों और तैयारियों के बीच 14 अप्रैल 1988 का दिन आ पहुँचा।
जल्दी सुबह श्री राधेश्याम जी यादव, श्री इंदोरी लाल केलोत्रा व श्री
पुरुषोत्तम जी मा. दत्तोपंत जी को इंदौर एरोड्रम से महू लेकर आए। महू में
हरिफाटक से शोभायात्रा निकली जो परिसंवाद स्थल राय साहब भवन पर संपन्न हुई। उस
समय प्रमुख रूप से स्वदेश के संपादक श्री मानक चंद जी बाजपेई (मामाजी), श्री
सत्यनारायण जटिया, मजदूर संघ के, श्री भगवान दास गोंडाने आदि उपस्थित होकर
आयोजन के साक्षी बने तथा परिसंवाद में अपने विचार भी प्रकट किए। परिसंवाद में
वक्तव्य की शुरुआत श्री अर्जुन सिंह जी घारू ने की थी। संचालन एडवोकेट श्री
चंदनसिंह जी यादव ने किया।
बाबा साहब के संघर्षशील प्रेरणादायक जीवन व समाजोद्धारक विचारों पर केन्द्रित
इस परिसंवाद में माननीय दत्तोपंत जी लगभग 1 घंटा 40 मिनट बोले। इस धारा प्रवाह
उद्बोधन का प्रभाव यह रहा कि विशिष्ट वर्ग के जो श्रोता इसमें उपस्थित हुए थे,
वे शाम को आयोजित सार्वजनिक सभा में भी शामिल हुए। क्योंकि मा. दत्तोपंत जी ने
अपने व्याख्यान के दौरान कहा था कि कुछ बातें मैं यहाँ स्पष्ट करूँगा और कुछ
बातें शाम को सभा में कहूँगा। सामाजिक समरसता को लेकर इतने प्रभावी और चिंतनीय
विषय से भला कौन अपने आपको वंचित रखना चाहेगा? ऐसा कहा जा सकता है कि संघ अपने
जन्म काल से ही संगठन के साथ सामाजिक समरसता के विचारों पर जो काम करता रहा
है, इस आयोजन से उन विचारों को और अधिक व्यापक स्वीकृति मिली। या यूँ कहा जा
सकता है कि मा. दत्तोपंत जी सामाजिक समरसता रूपी गंगोत्री के भागीरथ बने।
शाम को स्थानीय सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ। सभा के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध
शिक्षाविद् प्रो. ताराचंद जैन थे। 14 अप्रैल 1988 को संपन्न हुई इस सार्वजनिक
सभा में मा. दत्तोपंत जी का लगभग 1 घंटे का अत्यंत प्रभावी व्याख्यान हुआ।
सुबह के परिसंवाद और शाम की सभा में उन्होंने जो कुछ कहा वह व्याख्यान न होकर
एक प्रकार से सूत्र वाक्यों का अमरकोष ही था जिसमें न केवल बाबा साहब के
उज्जवल व्यक्तित्व व महान कार्यों का प्रतिबिंब साकार हुआ बल्कि सामाजिक
समरसता पर संघ का क्या दृष्टिकोण है, यह भी भली प्रकार स्पष्ट हुआ। ये
अमरसूत्र आज भी हम सबके लिए प्रासंगिक और प्रेरक है।
उदाहरण स्वरूप व्याख्यान के कुछ बिंदुओ का उल्लेख करना समीचीन होगा। मान.
दत्तोपंत जी ने पूज्य बाबा साहब से हुई भेंट के दौरान चर्चा के बारे में बताते
हुए कहा कि बाबा साहब कहा करते थे, मैं संघ के कार्य से सहमत हूँ। परंतु आपका
काम करने का प्रोसेस लंबा है। कम्युनिज्म का विचार देश में बहुत तेजी से फैल
रहा है। यह देश के लिए घातक है। सवर्ण और कम्युनिज्म के बीच बैरियर का काम
गोलवलकर कर रहे हैं। दलित और कम्युनिज्म के बीच बैरियर का काम मैं कर रहा हूँ।
मेरे पास समय बहुत कम है, इसलिए मैं जल्दी से अपने इस समाज को दिशा देकर जाना
चाहता हूँ।
मा. दत्तोपंत जी ने वंचित वर्ग को इंगित करते हुए कहा था कि जिस प्रकार प्रसव
पीड़ा क्या होती है? उसे कोई बांझ औरत नहीं समझ सकती है। उसी प्रकार उस समाज
ने जो कुछ सहा है वह दूसरा नहीं समझ सकता। वस्तुतः कहने वाले का भाव और सुनने
वाले का भाव एक है, यह जरूरी नहीं। वास्तव में डॉ. अंबेडकर जी ने जो कहा उसे
सही समझा नहीं गया।
अपने गहन अनुभव व चिंतन के साथ बाबा साहब का कहना था कि कोई भी नया कार्य जब
शुरू होता है तो पहले उसका उपहास किया जाता है, फिर विरोध और उसके बाद उसका
समर्थन। इन सबके बावजूद भी जब कार्य उत्तरोतर शिखर पर पहुँचने लगता है तो फिर
श्रेय लेने की होड़ लग जाती है। जब उसके कर्ता धर्ता श्रेय लेने लग जाते हैं तो
फिर उस कार्य या संगठन का पतन होना शुरू हो जाता है।
आरक्षण हमेशा एक ज्वलंत मुद्दा रहा है। आरक्षण के संबंध में अपने विचार व्यक्त
करते हुए मा. दत्तोपंत जी ने कहा कि यह एक अस्थायी व्यवस्था है। जिनको लाभ मिल
चुका वे भी लाभ लेते रहेंगे तो वास्तविक दलित वर्ग लाभ से वंचित रह जाएगा। फिर
दलितों में भी एक नया वर्ग उभर आएगा। ऐसे में यह खतरा है कि वंचितों में कहीं
एक क्रीमीलेयर न बन जाए।
बाबा साहब कांग्रेस के विचारों से सहमत न होने के कारण कई बार उन पर अलगाववादी
या मुख्य धारा से कटे होने के आरोप लगते रहते थे। उस संबंध में बाबा साहब
स्पष्ट रूप से कहते थे कि जब देश के लिए बलिदान होने या संघर्ष की बात आएगी तो
इस मोर्चे पर मेरा समाज कतई पीछे नहीं रहेगा। युद्ध के दौरान महार रेजीमेंट का
पराक्रम दुनिया देख चुकी है।
समाज में व्याप्त कुरीतियाँ बिना प्रहार के मिटाई जा सकें यह संभव नहीं था।
इसलिए बाबा साहब जब सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते थे तो उन्हें हिंदू
विरोधी बताया जाता था जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय एक हाथ से चोट करता
है दूसरा हाथ अंदर रखता है। बाबा साहब के बाहर वाले हाथ को सबने देखा परंतु
अंदर वाले हाथ की चर्चा नहीं की गई। वस्तुतः उसी में बाबा साहब की मूल भावना
निहित थी। वे समाज में विघटन या भटकाव कतई नहीं चाहते थे। वे एक प्रकार से
दुधारी तलवार पर चल रहे थे। एक ओर वे समाज की कुरीतियों को मिटाना चाहते थे और
दूसरी ओर वे सवर्ण व हिंदू समाज का नुकसान भी नहीं चाहते थे। क्योंकि उन्हें
यह भी भय था कि देश विरोधी शक्तियाँ हमारे इन बंधुओं को भ्रमित कर भटका न दें।
इसलिए जब धर्मांतरण की बात आई तो उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्म अपनाना पूरी
तरह नकार दिया। उनका स्पष्ट मानना था कि इससे हमारे बंधुओं की निष्ठा बाह्य हो
जाएगी।
ऐसे अनेक ज्वलंत मुद्दों को मा. दत्तोपंत जी ने बाबा साहब के विचारों और
दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में रखा। ये सब अद्भुत और बेहद प्रभावित करने वाले
थे। लोगों ने पहली बार बाबा साहब को इस रूप में अर्थात् वास्तविक रूप में समझा
था।
14 अप्रैल 1988 का यह आयोजन एक ऐतिहासिक पड़ाव था। मा. दत्तोपंत जी जिसके
मुख्य प्रणेता थे। यहीं से बाबा साहब की जयंती पर होने वाले आयोजन की भव्यता
उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई। आज जिस भव्य स्वरूप को देखकर हम अभिभूत होते हैं,
उसकी पृष्ठभूमि में मूल रूप से 1988 का यह आयोजन ही था।
इन दिनों जब हम 14 अप्रैल को महू में आयोजन का जो भव्य उत्सवी स्वरूप देखते
हैं, जिसमें श्रद्धालुओं के लिए तीन दिनों तक आवास, भोजन, अल्पाहार, पेयजल आदि
का समुचित प्रबंध किया जाता है। वह स्तुत्य है। केवल सरकार ही इसकी व्यवस्था
नहीं करती अपितु महू की बहुत सारा संस्थाएँ आगे बढ़कर दर्शनार्थियों का स्वागत
सत्कार करते हुए विभिन्न व्यवस्थाओं में सहभागी बनती हैं। अब जनभागीदारी से यह
आयोजन किसी एक वर्ग का न होकर संपूर्ण समाज का हो गया है। यही संघ चाहता भी
है। व्यवस्थाओं के नाम पर केवल दिखावा या औपचारिकताएँ पूरा न की जाती अपितु
आत्मीयतापूर्वक समस्त दायित्वों का निर्वहन किया है। अपनत्वपूर्ण व्यवहार से
बाहर से श्रद्धालू अभिभूत होकर अपन गंतव्य को लौटते हैं। यह कहने में कोई झिझक
नहीं होनी चाहिए कि इसका मूल प्रेरणा संघ, संघ के संस्कार, कार्यकर्ताओं का
व्यवहार और परिश्रम ही है, नहीं तो यह आयोजन इतना भव्य और व्यापक स्वरूप शायद
ही ले पाता। हम भी गर्व से कह सकते हैं- हाँ इसमें संघ का हाथ है।
आगे के क्रम में 14 अप्रैल 1990 को संघ ने एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया।
उस समय प्रदेश में भी सुंदर लाल पटवा के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की
सरकार थी। एक विशाल सार्वजनिक सभा का आयोजन स्थानीय टाऊन हॉल के पीछे वाले
मैदान पर किया गया जिसमें मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम कुँवर
महमूद अली बतौर मुख्य अतिथि के रूप में मंचासीन हुए तथा मुंबई से पधारे
प्रसिद्ध विचारक डॉ. अशोक मोडक ने मुख्य वक्ता के रूप में विषय रखा। सभा में
महामहिम राज्यपाल महोदय ने अपने उद्बोधन के दौरान सगर्व कहा कि हमारे पुरखे
राजपूत खानदान से ताल्लुक रखते हैं।
मंचीय कार्यक्रम व समस्त व्यवस्थाएँ संघ की कार्य प्रणाली के अनुरूप अत्यंत
सुंदर ढंग से की गई थीं। जिसकी स्मृति आज भी लोगों के मनो-मस्तिष्क में अंकित
है।
सन् 1991 बाबा साहेब का जन्म शताब्दी वर्ष था। 14 अप्रैल को महू में तीन-तीन
बड़ी सभाएँ हुई जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्री राजीव गांधी, बहुजन
समाज पार्टी के अध्यक्ष स्व. श्री काशीराम तथा भारतीय जनता पार्टी व देश के
लोकप्रिय नेता श्री अटल बिहारी बाजपेई मुख्य अतिथि थे। संपूर्ण महू 'बाबा साहब
अमर रहे' के नारों से गुंजायमान था। श्री अटल जी की सभा उस स्थल पर हुई थी
जहाँ आज 'बाबा साहब अंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक विज्ञान संस्था' स्थापित है जो
अब विश्वविद्यालय में तब्दील हो चुका है। उल्लेखनीय है कि इस शोध संस्थान हेतु
भाजपा सरकार द्वारा भूमि की घोषणा श्री अटल जी की सभा में ही की गई थी।
बाबा साहब की जन्मभूमि पर आज जहाँ भव्य स्मारक है उसका शिलान्यास प्रदेश के
तत्कालीन मुख्यमत्री श्री सुंदर लाल पटवा की उपस्थिति में श्री अटल बिहारी
वाजपेई जी के कर कमलों द्वारा किया गया था। अब यह स्मारक न केवल ऐतिहासिक
दृष्टि से अपितु कला केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है। वर्ष भर यहाँ
श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर मेमोरियल सोसायटी
इसकी देख रेख करती है।
दृश्य बदल गया
,
शंकाएँ
,
विश्वास और आत्मीयता में बदल गई।
पूर्व के घटनाक्रमों के पश्चात् लगभग 3 माह बाद मा. दत्तोपंत जी का महू में
पुनः आगमन हुआ। श्री महेश जी दयाल के निवास पर भोजन, स्वल्पाहार हुआ। वहीं
कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई। बैठक के उपरांत मा. दत्तोपंत जी ने बाबा साहब की
जन्मभूमि के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। सबके लिए वाहन की व्यवस्था थी।
परंतु जब सब कार्यकर्ताओं के साथ जन्मभूमि पर प्रस्थान के लिए दत्तोपंत जी को
वाहन में बैठने को कहा तो उन्होंने जवाब दिया मैं तुम सब लोगों के साथ पैदल ही
चलूँगा। यों भी तीर्थ व पुण्य क्षेत्र में पैदल जाना ही श्रेयस्कर होता है।
सबने आग्रह किया कि आप वाहन में बैठे हम सब आपके साथ पैदल चलेंगे परंतु अंततः
वे पैदल ही चलने को राजी हुए।
सब कार्यकर्ताओं के साथ वे पैदल चलने लगे। उन्होंने एक हाथ श्री विट्ठलराव
कर्डक के कंधे पर रखा और दूसरा हाथ श्री हरिचंद्र जी वाघमारे के कंधे पर।
स्नेहपूर्वक सब जन्मभूमि तक पैदल ही पहुँचे। वहाँ से जन्मभूमि की दूरी कोई 2
कि.मी. से अधिक है। दृश्य एकदम बदल गया था। जो ढंग से बात करने से राजी न थे
वे सब परस्पर घुल-मिल गए थे। शंकाएँ निर्मूल हो चुकी थीं। उनके स्थान पर प्रेम
और विश्वास कायम हो चुका था। सब अभिभूत थे। यह क्रम यहीं नहीं रुका बल्कि वे
बंधु संघ के विभिन्न कार्यक्रमों में उपस्थित होते रहे। उस समय संपर्क में आए
अ.भा. सफाई मजदूर कांग्रेस के महामंत्री (जिसके अध्यक्ष श्री बूटा सिंह हुआ
करते थे) श्री रामलाल जी जावा तो इतने अधिक प्रभावित हुए कि धीरे-धीरे
उन्होंने अपने उस काम को छोड़ दिया और अपने साथ सक्रिय हो गए, पूजन कार्यक्रम
के यज्ञ में वे सपत्नीक सम्मिलित हुए।
कार्यक्रमों की श्रृंखला में 14 अप्रैल 2007 को संघ द्वारा विशाल 'सामाजिक
समरसता सम्मेलन' का आयोजन किया गया था। जिसमें हजारों की तादाद में जनसमूह
एकत्रित हुआ। वंचित वर्ग तथा बौद्ध समाज के अनेक बंधु जत्थे के जत्थे बनाकर
कार्यक्रम में शामिल हुए। कइयों ने मंच पर प्रस्तुतियाँ भी दीं। उल्लेखनीय है
कि सन् 2006 श्री गुरुजी जन्म शताब्दी में अनेक बंधु संपर्क में आए उनमें से
अधिकांश बंधु इस आयोजन का हिस्सा बने। इस सामाजिक समरसता सम्मेलन व जन्मभूमि
दर्शन के दौरान माहौल बाबा साहबमय हो गया था। भीड़ इतनी थी कि पार्किग लगभग 3
कि.मी. दूर की गई थी। सब व्यवस्थाएँ स्वयंसेवक सँभाल रहे थे।
इस सामाजिक समरसता सम्मेलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक
पूज्य सुदर्शन जी ने मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होकर नगर का गौरव बढ़ाया।
सम्मेलन की अध्यक्षता रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य ने की। कार्यक्रम
का संचालन गुजराती कॉलेज, इंदौर के प्राचार्य डॉ. अरविंद पाल ने किया। सभा के
उपरांत सहभोज का आयोजन किया गया था। रात 8 बजे तक कार्यकर्ताओं व आगंतुक
भाई-बहनों ने एक साथ बैठकर भोजन किया।
इसी दिन मध्य प्रदेश सरकार की ओर से भी भव्य सभा का आयोजन किया गया था जिसमें
मुख्य अतिथि पूज्य सर संघचालक श्री सुदर्शन जी ही थे। अध्यक्षता मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह चौहान ने की थी। इस शासकीय आयोजन के उपरांत मा. मुख्यमंत्री सहित
अनेक अतिथिगण संघ द्वारा आयोजित सामाजिक समरसता सम्मेलन में भी उपस्थित हुए।
संघ के क्षेत्र प्रचारक श्री विनोद जी, अनेक प्रांतीय पदाधिकारी, विभिन्न
संस्थाओं के निदेशक, अध्यक्ष आदि ने उपस्थित होकर सम्मेलन की शोभा बढ़ाई।
(रा.स्व.संघ से जुड़े एक कार्यकर्ता द्वारा प्रस्तुत वृत्त)
सोपान -
1
(
कुछ प्रमुख बिंदु)
v शताब्दियों की गुलामी के फलस्वरूप हममें कुछ विकृतियाँ ऊँच-नीच भेद, आर्थिक
विषमता, जातिवाद आदि उत्पन्न हुए हो सकते हैं, परंतु इसे अपना हथियार बनाकर
कोई विदेशी हमारे स्वत्वों का अपहरण करना चाहेंगे तो हम उसे सहन नहीं करेंगे।
हम उनकी यह आकाँक्षा मिट्टी में मिला देंगे। यह हमारा घरेलू मामला है, इसलिए
हम इससे आपस में निबटेंगे।
v उन्होंने साहस के साथ कहा कि ऐतिहासिक तथा वैश्विक कारणों से मुसलमान या
ईसाई बनने वाले भारतीय के मन-मस्तिष्क की दिशा बदल सकती है। वे भारत,
भारतीयता, यहाँ के इतिहास, यहाँ की परंपरा आदि से विमुख हो जाते हैं। यहाँ तक
कि वे अपने भारतीय होने के बारे में भी कठिनाई से ही अनुभव कर पाते हैं। बौद्ध
बनने से केवल उपासना की प्रक्रिया ही बदलती है, परंतु राष्ट्रीयता,
राष्ट्राभिमान आदि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। जबकि इस्लाम या
ईसाई मतग्रहण करने से एक प्रकार से व्यक्ति अराष्ट्रीय हो जाता है। उसका
अराष्ट्रीयकरण हो जाता है।
v एक बार बातचीत में कश्मीर संबंधी उनके विशेष दृष्टिकोण का पता चला। वे
कश्मीर को पाकिस्तान को दे देना चाहिए- इस मत के थे। उनका यह भाव हिंदू और
मुसलमान की सामाजिक मनोभूमिका से संबद्ध था। उनका मत था कि कट्टर मुसलमान कभी
किसी उस राष्ट्र का राष्ट्रीय नहीं बन सकता जहाँ शरीयत का कानून न चलता हो।
v इस दृष्टि से श्रद्धेय बाबा साहब ने आवश्यक सतर्कता भी बरती थी। उनका प्रयास
था कि कोई भी स्वबांधव चाहे उसे उनके राजनीतिक या धार्मिक सामाजिक विचार मान्य
न हो, अपनी मूल जीवनधारा से बाहर जाने न पाए।
v इसलिए मेरे जाने से पहले ही सारी व्यवस्था कर देनी चाहिए। याद रहे कि मैं
दलितों और साम्यवादियों के बीच की बड़ी दीवार हूँ। सवर्ण हिंदुओं और
साम्यवादियों के बीच गोलवलकर जी दीवार बनकर खड़े हैं।"
v समाजवाद एवं लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। यह श्रद्धेय बाबासाहब ने
असंदिग्ध शब्दों में घोषणा की थी। जिस काल में उन्होंने यह घोषणा की थी उस काल
में इस विषय पर इतना आग्रही प्रतिपादन करने का साहस अन्य किसी नेता में नहीं
था।
v वे स्वभाव से एक क्रांतिकारी थे। आत्मा की पुकार वे सुनते थे। परंतु गद्दी
के लिए नहीं अपितु गद्दी के त्याग के लिए।
v कश्मीर को अपने साथ मिलाना ही है तो सर्वप्रथम वहाँ के सारे मुसलमानों को
हिंदू समाज में आत्मसात् कर लेना चाहिए, वरना वह एक काँटे की भाँति सदा हमारे
पैरों को चुभता रहेगा। यह समस्या सदैव हमारे राष्ट्र के सिर पर झूलती तलवार के
समान रहेगी।
v लोगों को इतिहास को भुला देने के लिए कहना बड़ी गलती है, क्योंकि जो इतिहास
को भुला देते हैं वे कभी इतिहास-निर्माण नहीं कर सकते।
v ऊँचे वर्ग के सवर्ण लोगों से यद्यपि मेरा झगड़ा रहा है तो भी मैं आप सब
लोगों के साक्षी में प्रतिज्ञा करता हूँ कि देश की स्वाधीनता के लिए मैं अपने
प्राण अर्पित कर देने के लिए भी तैयार हूँ।
v क्रोध के दो प्रकार होते हैं। एक का मूल द्वेष है तो दूसरा प्रेममूलक है।
हत्यारे के क्रोध का मूल द्वेष है, लेकिन माँ को कोप अपने बच्चे पर उमड़ते
प्यार के कारण ही आता है।
v मानव केवल रोटी के लिए नहीं जीता। उसका एक मन भी है। इस मन को भी विचारों का
आहार चाहिए। धर्म मानव के मन में भोग भरकर उसे क्रियाशील बना सकता है। मैंने
इसलिए बौद्ध धर्म स्वीकार किया है कि हिंदू धर्म ने दलित वर्ग के उत्साही जीवन
पर पानी फेर दिया। बौद्धमत देश काल के बंधन के बिना किसी भी देश में
फूलता-फलता रह सकेगा। जिस देश में मन के विचारों से अधिक पेट के विचारों को
महत्त्व दिया गया हो, उस देश के साथ कोई संबंध नहीं चाहिए।"
v बाबा साहब हमेशा कहते थे कि मजदूर ट्रेड यूनियन का उपयोग कम्युनिस्ट अपने
राजनीतिक स्वार्थ के लिए करते हैं।
v अंततः बाबासाहब ने 1936 में स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना की। उसके
घोषणा-पत्र में उन्होंने दलितों के आर्थिक विकास संबंधी अपनी नीति को
स्पष्टरूप से प्रतिबिंबित किया।
v धर्मांतरण के पूर्व किसी प्रसंग पर उन्होंने कहा था कि मेरे सामने प्रश्न यह
है कि संसार छोड़कर जाने के पूर्व अपने समाज को कोई निश्चित दिशा देनी चाहिए।
चूँकि यह समाज अब तक दलित, शोषित व पीड़ित रहा है, इसलिए आनेवाली नवजागृति के
कारण उसमें एक प्रकार की चिढ़ व आवेश है। वह स्वाभाविक भी है। लेकिन ऐसा जो
समाज होता है, वह कम्युनिज्म का भक्ष्य बनता है। मैं नहीं चाहता कि मेरा समाज
उनका आहार बने।
v बाबासाहब लोकतंत्र के कट्टर समर्थक थे। वे कहते हैं- शासन प्रणाली से
रक्तपात किए बिना लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन
लाया जाता है, वह लोकतंत्र है।' उनके द्वारा कम्युनिज्म के विरोध का एक कारण
कम्युनिस्टों का हिंसा का अवलंबन भी है।
v भौतिक सुख में डूबे समाज व व्यक्ति से वे कहते हैं- 'भौतिक सुख मानव का
सर्वस्व नहीं होता। उससे मनुष्य के दु:ख दूर नहीं होते। मनुष्य केवल रोटी पर
जिंदा नहीं रहता, उसे सुसंस्कृति की आवयश्कता होती है।' कम्युनिज्म का विशुद्ध
भौतिकवाद उनके लिए अपथ्य था।
v वर्तमान में अपने देश में शोषण आधारित रचना प्रचलित है इस कारण कम्युनिस्टों
की चाँदी है। इस बात को वे अच्छी तरह जानते थे। उनकी चिंता थी कि वैसा घटित न
हो।
v यदि हिंदू धर्म ने दलितवर्ग को शस्त्र धारण करने की स्वतंत्रता दी होती, तो
यह देश कभी भी परतंत्र न हुआ होता।'
v उन्होंने कहा- 'मनुष्यमात्र के उत्कर्ष के लिए धर्म अत्यंत आवश्यक है। कार्ल
मार्क्स के कारण एक नया पंथ निकला। उसके अनुसार धर्म कुछ भी नहीं है। उनकी
दृष्टि में धर्म का महत्त्व नहीं है। उन्हें सुबह के अल्पाहार में पाव, मक्खन,
मलाई, मुर्गे की टाँग, भोजन में भरपेट अन्न व अच्छी नींद मिली कि सब कुछ हो
गया। यह उनका तत्त्वज्ञान है। मैं उनके मन का नहीं।'
v उन्होंने कहा- 'मैं कम्युनिस्टों से मिलूँगा, इसकी जरा भी संभावना नहीं है।
अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करने वाले कम्युनिस्टों का मैं
कट्टर दुश्मन हूँ।
v यह बताते हुए कि किताबी कम्युनिस्टों ने इस देश की नब्ज समझी ही नहीं है, वे
कम्युनिस्टों से कहते हैं- 'ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का श्रमजीवी वर्ग
यद्यपि गरीब है, फिर भी वह गरीब व अमीर के अतिरिक्त अन्य कोई भेद नहीं जानता?
v मार्क्स का मार्ग हिंसा पर आधारित है। यदि रशिया में स्थापित तानाशाही असफल
हुई, तो राज्य की संपत्ति हड़पने के नि रक्तरंजित संघर्ष होगा। बौद्धधर्म की
पद्धति लोकतान्त्रिक है और साम्यवाद का अधिष्ठान तानाशाही का है। इसलिए
बौद्धधर्म का मार्ग अत्यंत सुरक्षित और समर्थ है।
v राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरुजी कहते हैं-
'भारतीय कम्युनिस्टों ने कार्ल मार्क्स पर बड़ा अन्याय किया है। मार्क्स केवल
भौतिकवादी नहीं थे। उनकी मूल प्रेरणा नैतिक थी। उन्होंने आर्थिक विचार को साधन
के रूप में प्रयोग किया।
v स्टालिन ने स्वयं की सुविधा के अनुसार मार्क्स को प्रस्तुत किया। उसने सन्
1844 का दस्तावेज (The Philosophical and Economic Papers-1844) प्रचारित नहीं
होने दिया। इस कारण लोगों के ध्यान में यह बात नहीं आ सकी कि मार्क्स की
प्रेरणा नैतिकता में थी।
v डॉ. अंबेडकर का विश्लेषण था कि भारत के कम्युनिस्टों ने भारतीय समाज-रचना
समझी ही नहीं। वहाँ के पाठयक्रम के विचार यहाँ लागू नहीं होंगे।
v धर्मसंकल्पना के विषय में कम्युनिस्टों ने विरोध की भूमिका ली। 'K. Marx and
F. Engels on Religion' जैसी अधिकृत पुस्तक के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि
केवल ज्युडाइज्म, ईसाइयत व इस्लाम जैसे सेमेटिक सम्प्रदायों के संदर्भ ही
दोनों के लेखन में हैं। हिंदुत्व के विषय में एक भी संदर्भ नहीं है।
v आज मार्क्सवादियों में इस बात को लेकर विवाद है कि मार्क्सवाद का वास्तविक
स्वरूप क्या है? वैसे ही बुद्धिज्म का कौन-सा स्वरूप बाबासाहब को अभिप्रेत था,
यह स्पष्ट नहीं हो सका; क्योंकि मृत्यु ने उन्हें इसे विषद करने का अवसर भी
नहीं दिया और आज ऐसा कोई है नहीं, जो उनके मन की कल्पना पूरी तरह से समझने की
क्षमता रखता हो।
v बाबा साहब कहा करते थे, मैं संघ के कार्य से सहमत हूँ। परंतु आपका काम करने
का प्रोसेस लंबा हैं। कम्युनिज्म का विचार देश में बहुत तेजी से फैल रहा है।
यह देश के लिए घातक है। सवर्ण और कम्युनिज्म के बीच बैरियर का काम गोलवलकर कर
रहे हैं। दलित और कम्युनिज्म के बीच बैरियर का काम मैं कर रहा हूँ। मेरे पास
समय बहुत कम है, इसलिए मैं जल्दी से अपने इस समाज को दिशा देकर जाना चाहता
हूँ।
v बाबा साहब का कहना था कि कोई भी नया कार्य जब शुरू होता है तो पहले उसका
उपहास किया जाता है, फिर विरोध और उसके बाद उसका समर्थन। इन सबके वाबजूद भी जब
कार्य उत्तरोतर शिखर पर पहुँचने लगता है तो फिर श्रेय लेने की होड़ लग जाती
है। जब उसके कर्ता धर्ता श्रेय लेने लग जाते हैं तो फिर उस कार्य या संगठन का
पतन होना शुरू हो जाता है।
v बाबा साहब कांग्रेस के विचारों से सहमत न होने के कारण कई बार उन पर
अलगाववादी या मुख्य धारा से कटे होने के आरोप लगते रहते थे। उस संबंध में बाबा
साहेब स्पष्ट रूप से कहते थे कि जब देश के लिए बलिदान होने या संघर्ष की बात
आएगी तो इस मोर्चे पर मेरा समाज कतई पीछे नहीं रहेगा। युद्ध के दौरान महार
रेजीमेंट का पराक्रम दुनिया देख चुकी है।
v इसलिए बाबा साहब जब सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते थे तो उन्हें हिंदू
विरोधी बताया जाता था जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय एक हाथ से चोट करता
है दूसरा हाथ अंदर रखता है। बाबा साहब के बाहर वाले हाथ को सबने देखा परंतु
अंदर वाले हाथ की चर्चा नहीं की गई।
v इसलिए जब धर्मांतरण की बात आई तो उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्म अपनाना पूरी
तरह नकार दिया। उनका स्पष्ट मानना था कि इससे हमारे बंधुओं की निष्ठा राष्ट्र
बाहृय हो जाएगी।
खंड -
9
सोपान -
2
सोपान-
2 (
सामाजिक क्रांति के मार्ग पर डॉ. अंबेडकर)
1. डॉ. भीमराव अंबेडकर का पदार्पण ......दत्तोपंत ठेंगड़ी
2. डॉ. भीमराव अंबेडकर - एकात्म समाज जीवन .....दत्तोपंत ठेंगड़ी
3. सोपान- 2: प्रमुख बिंदु
सोपान-
2
सामाजिक क्रांति के मार्ग पर
-डॉ. अंबेडकर का पदार्पण
-
दत्तोपंत ठेंगड़ी
19 वीं सदी के प्रारंभ से 20 वीं सदी के पहले दो दशकों तक हुए समाज परिवर्तन व
प्रबोधन पर्व की पार्श्वभूमि पर डॉ. बाबा साहब अंबेडकर का सार्वजनिक जीवन में
प्रवेश समाज क्रांति के मार्ग को मोड़ देनेवाला ऊर्जा स्रोत रहा। प्रारंभ में
बताया है कि सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन
के मुद्दों को प्रधानता दिलाने वाले विचारवान कार्यकर्ता व नेता के नाते भारत
के इतिहास में डॉ. अंबेडकर का असामान्य स्थान है। उस दृष्टि से सामाजिक जीवन
में उनका प्रवेश बीसवीं सदी पर मूलगामी प्रभाव डालनेवाला सिद्ध हुआ, इसमें दो
राय नहीं हो सकती।
अनेक अध्ययनकर्ताओं ने डॉ. अंबेडकर के लोकोत्तर कार्य के पूर्वसूत्र महात्मा
फुले के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। उसमें कुछ गलत भी नहीं है। स्वयं बाबा
साहब ने ज्योतिबा का ऋण माना है। एकात्म समाज निर्माण करने की इन दोनों की
प्रेरणा एक समान थी। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि दोनों के आसपास का संस्कारी
वातावरण, सामाजिक समस्याओं के आकलन के लिए आवश्यक उपलब्ध सामग्री व व्यक्तित्व
की बौद्धिक व मानसिक स्थिति में अंतर था। ज्योतिबा के सामाजिक कार्य की
प्रेरणा आत्मिक बुद्धि में से निर्माण हुई थी तो डॉ. अंबेडकर आत्मानुभूति में
से कार्य करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। आत्मिक बुद्धि कितनी भी संवेदनशील व
व्यापक हो, तब भी अस्पृश्यता की प्रत्यक्ष दाहकता का केवल अनुमान ही किया जा
सकता है, उसकी अनुभूति नहीं की जा सकती। दासता के बारे में बुद्धि से प्राप्त
लिंकन के अनुभव और मार्टिन लूथर किंग को प्राप्त वर्ण विद्वेष की प्रत्यक्ष
अनुभूति में अंतर तो रहेगा ही।
बाबासाहब का बचपन
बाबासाहब का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी व धार्मिक वातावरण में बीता। उनके
घर में चलने वाले रामायण पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वाड्.मय के
नित्य पाठन में से निर्माण होनेवाले, भजन के दैनंदिन प्रभाव से निर्माण होने
वाले धार्मिक, पवित्र वातावरण का सविस्तार वर्णन दोनों चरित्र ग्रंथकारों
चा.भ. खैरमोडे व धनंजय कीर ने किया है। बाबा साहब के पिताजी इस नियम के प्रति
बड़े कठोर थे। 'रात के आठ बजते ही बाबा साहब की दोनों बहनों, बड़े भाई व
बाबासाहब को देवघर में पहुँचना अनिवार्य था। बाबासाहब कहते थे- 'जब मेरी बहनें
मीठे स्वर में पद गाती तब मुझे लगता था कि धर्म और धार्मिक शिक्षा मनुष्य के
जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। बहुत लोग कहते हैं कि मैं 'धर्महीन' हूँ; परंतु
यह बात सही नहीं है........ जो मेरे सान्निध्य में आए हैं, उन्हें मेरी धर्म
विषयक श्रद्धा व प्रेम के बारे में मालूम है।'
काप-दापोली ग्राम की सेवानिवृत्त हरिजनों की बस्ती में अनेक पंथी लोग रहते थे,
परंतु उनमें कबीरपंथियों की संख्या अधिक थी। कबीर न जातिवाद पर कड़े प्रहार
करते हुए अस्पृश्यों को दिलासा दी कि 'जात-पात पूछे ना कोई, हरि कौ भजै सो हरि
का होई। बाबासाहब के घर पर कबीर के दोहे नित्य कहे जाते थे। बाद में उनके
पिताजी न कबीरपंथ की दीक्षा भी ली। धनंजय कीर के अनुसार उनके घर का वातावरण
'संत का भोजन, अमृत का पान, करते कीर्तन सर्वदा......' का था। बाबासाहब ने
अपने तीन गुरुओं में कबीर को स्थान दिया, उसका मूल कारण घर का वातावरण ही
दिखाई देता है। उनके मुंह में सदा कबीर के दोहे रहा करते थे।
भजन-कीर्तन के प्रति प्रेम, रात को सोने के पूर्व व अन्य समय कबीर के दोहे
गुनगुनाने की आदत उन्हें अपने पिताजी रामजी सूबेदार से प्राप्त संस्कारों के
कारण थी। पिताजी के समान उनका भी संत वाङ्गमय का अभ्यास गाढ़ा था। उन्होंने
अपने समाचार-पत्र, 'मूकनायक' के पहले अंक का प्रारंभ ही तुकाराम का एक अत्यंत
अन्वयार्थात्मक अभंग (अब मानू क्यों भय, खोला मुँह, होकर निःशंक, जग में गूंगे
का कोई नहीं होता, शर्म करने से हित नहीं होता) से किया था। वे बहिष्कृत भारत
के अग्रभाग पर व अन्य प्रकाशनों के प्रारंभ में, परिस्थिति से मेल खानेवाले व
विषयानुरूप संतों के अभंग दिया करते थे। अपने भाषणों में भी संत वचनों का
उपयोग करते थे। ऐसा संत ढूँढे से नहीं मिलेगा जिसके वचनों को उन्होंने उद्धृत
न किया हो।
ऐसे वातावरण और पिताजी के प्रेरक व्यक्तित्व के कारण धार्मिक समता का संदेश
देनेवाले संत वचनों का गहरा संस्कार डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के मन पर हुआ। घर पर
अच्छे ऐसे संस्कार मिल रहे थे, परंतु बाहर निकलते ही अस्पृश्यता का तीव्र
अहसास करानेवाले, उत्तरोत्तर अधिक विदारक अनुभव उन्हें बचपन से ही मिलने लगा।
अस्पृश्यता का यह क्लेशकारी आत्मानुभव उनके जीवन को एक निश्चित दिशा व उस तरफ
से जानेवाली बौद्धिक व मानसिक ऊर्जा देने में कारणीभूत हुआ।
बचपन से मिली अस्पृश्यता की यातनाएँ
बचपन से मिली अस्पृश्यता की यातनाओं के बारे में उनके चरित्रकारों ने विस्तार
से लिखा है। अस्पृश्यता का दंश उन्हें बचपन से मिला जब दुकानदार दूर से ही
कपड़ा दिखाता है। वे तब छोटे ही थे, जब उनके पिताजी नौकरी के निमित्त कोरेगाँव
में रहते थे। एक बार पिताजी से मिलने कोरेगाँव गए। किसी कारणवश पिताजी उन्हें
लेने स्टेशन पर न आ सके। रेल से उतरकर बैलगाड़ी से कोरेगाँव जाते समय का अनुभव
बड़ा ही विदारक है। सारे भाइयों की दुर्दशा, अस्पृश्यता मात्र होने के कारण
किस प्रकार हुई, गर्मी के मौसम में बिना पानी के प्यास के कारण किस प्रकार
तड़पते रहना पड़ा, ये छोटे बच्चे दूसरे दिन अर्द्धमृत अवस्था में किस बुरी
अवस्था में अपने गंतव्य तक पहुँच सके, इसका वर्णन भी चरित्रकारों ने किया है।
धनंजय कीर लिखते हैं कि बाद में जब कभी उस हृदयद्रावक भयंकर घटना की बात आती,
बाबासाहब का ह्रदय भर आता और बोलना कठिन हो जाता।
अपने शापित बालपन की स्मृतियों को बताते समय बाबासाहब कहते- 'मैं अस्पृश्य
हूँ, इसलिए अस्पृश्य को मिलनेवाले अपमान व अप्रतिष्ठा की मुझे कल्पना है।
उन्होंने बताया कि विद्यालय में पढ़ते समय मैं अपने क्रम के अनुसार बाकी
विद्यार्थियों के साथ बैठ नहीं सकता था। एक कोने में अलग बैठा दिया जाता। जिस
टाट-पट्टी पर बैठता था, उसे विद्यालय का चपरासी हाथ तक नहीं लगाता था। प्यास
लगने पर सवर्णों के बच्चे नल पर जाकर पानी पी सकते थे, जिन्हें अध्यापक से
अनुमति भर लेनी होती थी। लेकिन मेरी बात अलग थी। प्यास लगने पर नल को हाथ नहीं
लगा सकता था। अध्यापक से अनुमति मात्र से काम नहीं चलता, चपरासी की उपस्थिति
आवश्यक रहती; क्योंकि जब तक कोई सवर्ण नल चालू न कर दे; मैं पानी नहीं पी सकता
था और वह काम अध्यापक के कहने पर केवल चपरासी ही करता था। घर पर कपड़े धोने का
काम केवल बहन को ही करना पड़ता। कपड़े धोने क लिए बाई रख सकते थे, हमारी
स्थिति भी थी, परंतु अस्पृश्य होने के कारण कोई हमारे यहाँ काम करने को तैयार
नहीं था। सिर के बाल बढ़ जाने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ता; क्योंकि
कोई नाई बाल काटने को तैयार नहीं होता था। इस कारण सतारा में रहते समय मेरी
बहनों को यह काम करना पड़ता था। धीरे-धीरे वे इस काम में प्रवीण हो गई थीं। इस
सबकी मुझे आदत सी पड़ गई थी। अभी उल्लेख किए कितने ही प्रवास के अनुभव का गहरा
आघात लगा मैं अस्पृश्यता के बारे में विचार करने के लिए प्रवृत्त हुआ। इसलिए
इस घटना का मेरे जीवन में बहुत महत्व है।' (भा.कृ. केलकरः 'भारतरत्न बाबासाहब
अंबेडकर पृष्ठ 22')
बाबासाहब ने स्पष्ट किया कि मुंबई में आने के बाद भी अस्पश्यता के कारण आने
वाले कटु अनुभवों में कोई विशेष अंतर नहीं आया।
'मुंबई के एल्फिन्स्टन हाईस्कूल में पढ़ते समय बाकी विद्यार्थी मुझको अपने पास
बैठने नहीं देते थे। पीछे की बेंच पर बैठना पड़ता था। एक बार की बात है,
अध्यापक पढ़ा रहे थे। उन्होनें श्यामपट्ट पर एक आकृति बनायी और उसके आधार पर
सबसे प्रश्न पूछा। उत्तर देने के लिए केवल मैंने ही हाथ उपर उठाया। उन्होंने
मुझे बुलाया और उत्तर श्यामपट्ट पर लिखने के लिए कहा। मैं श्यामपट्ट की ओर
जाने लगा, तब बाकी विद्यार्थियों ने काफी हल्ला मचाया।'
एक विद्यार्थी बोला 'सर, उसे श्यामपट्ट को न छूने दें।'
'क्यों?'
'सर, ये हरिजन है।'
'होने दो, वह विद्यार्थी है न।'
'उस श्यामपट्ट के पीछे हमारे भोजन के डिब्बे रखे हैं। इसके श्यामपट्ट के छूने
से वे हमारे खाने के काम के नहीं रह जाएंगे।'
'तुम लोग अपने डिब्बे अलग रखो। यह श्यामपट्ट पर लिखेगा।'
'मैंने श्यामपट्ट पर लिखा, पर मेरे मन पर कभी न मिटने वाला घाव हो गया।'
(बाबासाहेबांची आत्मकथाः संपादक शंकरराव खरात, पृष्ठ 18) भविष्य में इससे भी
अधिक उद्विग्न करने वाले अनुभव बाबासाहेब का आए। सयाजीराव गायकवाड द्वारा
पढ़ने के लिए दिए अनुदान की शर्त के अनुसार वे बडोदा सरकार की नौकरी में रहे।
विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उनके पीछे का अस्पृश्यता का
अपमानास्पद भोग समाप्त नहीं हुआ। उनके अधिकारी व कुछ चपरासी बार-बार उसे इस
बात का एहसास कराते रहते थे कि वे अस्पृश्य हैं। उन लोगों ने शांति से नौकरी
करना असंभव कर दिया। फाइलों को दूर से उन पर फेंका जाता, सबके लिए रखे पीने के
पानी में से वे पानी नहीं पी सकते थे।
वे बड़ौदा में एक पारसी होस्टल में रहते थे। उसी पारसी समाज के एक समूह ने
बड़ी मेहरबानी कर आठ घंटे की अवधि होस्टल छोड़ने के लिए दी, परंतु रात होते ही
उनका सारा सामान बाहर फेंक दिया। 'इतने बड़े देश में मुझे रहने के लिए एक मकान
तक नहीं मिल सकता।'- इस दुःख से दुखित होकर वे होस्टल के सामने एक पेड़ के
नीचे प्यास व भूख से व्याकुल अवस्था में रोते रहे।
'अस्पृश्य समाज के होकर तुम यहाँ रहे। तुमने हमारे होस्टल को भ्रष्ट कर दिया'
कहने का पारसी समाज का यह अमानुषिक कृत्य (अर्थात् हिंदू समाज में व्याप्त
अस्पृश्यता की बाधा हिंदुओं के अलावा अन्य समाजों में भी व्याप्त थी) को बताने
वाला परिस्थितिजन्य भाष्य है। मुंबई वापस आने के बाद सिड्रनहोम कालेज में
प्राध्यापकी करते समय भी उन्हें इसी प्रकार के अनुभव आए। प्राध्यापकों के लिए
रखे पीने के पानी को अंबेडकर हाथ न लगाए, इसकी सावधानी वहाँ के गुजराती
प्राध्यापक रखा करते थे। जब उन्होंने वकालत प्रारंभ की, तब इस बात का प्रयास
किया जाता था कि कोई मुवक्किल लेकर उनके पास न जाए।
संस्कृत भाषा से उन्हें अत्यंत प्रेम था; परंतु अस्पृश्य होने के कारण उन्हें
संस्कृत नहीं पढ़ाई गई। संस्कृत में पारंगत होने की उनकी बहुत इच्छा थी। आगे
चलकर उन्होंने स्व-प्रयत्न से संस्कृत सीखी। संस्कृत क अपार ज्ञान भण्डार व
उत्कृष्ट साहित्य की उन्हें अच्छी जानकारी था। धनंजय कीर लिखते हैं- 'बाबासाहब
कई बार कहते थे कि संस्कृत भाषा का अभिमान होने के कारण मेरी हार्दिक अभिलाषा
है कि वह मझे अच्छी तरह आनी चाहिए; पर देखना यह है कि वह सुदिन कब आता है।'
(डॉ. बाबासाहब अंबेडकर, पृष्ठ 22, परिशिष्ट-1)
'चवदार ताल' सत्याग्रह के बाद भी उन्हें इस प्रकार के अनुभव आते रहे। इस
सत्याग्रह के कारण न्यायालय में चल रहे मुकदमे के संबंध में एक बार वे महाड जा
रहे थे; लेकिन बाढ़ के कारण उन्हें मार्ग में ही रुक जाना पड़ा। आसपास
अस्पृश्यों के मकान थे नहीं, इसलिए भरी बरसात में भीगते हुए, खाये-पिये बिना
बाढ़ का पानी उतरने का इंतजार करना पड़ा अस्पृश्य होने के कारण हिंदुओं ने
भोजन तो दूर, पीने के लिए पानी तक नहीं दिया। अपमान से आहत मुंबई लौटे और
स्वयं को अपने निवास कक्ष में बंद कर लिया। आँसुओं की धारा रुकने का नाम नहीं
ले रही थी। ज्ञान देव का अपमान होने पर वे भी इसी तरह दिन भर अपनी कुटिया में
खिन्न होकर बैठे रहे थे। तब बहन मुक्ताबाई ने उनको सान्त्वना दी थी-
'मेरे पर दया करो और द्वार खोलो ज्ञानदेव। जो संत होता है, उसको संसार की
बातों को सहना चाहिए। तुम स्वयं का उद्धार करो और जग को भी तारो। पर द्वार
खोलो ज्ञानदेव।'
लोगों ने बहुत प्रयास किए, मगर बाबासाहब कक्ष का द्वार खोलने को तैयार नहीं
थे। हारकर उनके सहयोगी रावबहादुर सी.के. बोले को बुला लाये। मुक्ताबाई के समान
ही उन्होंने बाबासाहब को समझाया और शांत किया।
सन् 1929 में चालीस गाँव के कार्यकर्ताओं ने अधिवेशन आयोजित किया था। बाबासाहब
उस अधिवेशन में गए थे। वहाँ भी उन्हें अत्यंत बुरा अनुभव आया।
चालीस गाँव के सारे हिंदू ताँगेवालों ने अस्पृश्यों के नेता को अपने साग में
बिठाने से इन्कार कर दिया। आखिर में एक अस्पृश्य ने ताँगा हाँकने की तैयारी
दिखाई, किंतु उसने ताँगा कभी चलाया नहीं था। मार्ग में घोड़ा बिदक गया।
परिणामस्वरूप वे दूर एक चट्टान पर जा गिरे। बुरी तरह घायल तो हुए ही, पैर की
हड्डी भी टूटी।
उन्होंने लिखा है, '23 अक्टूबर 1929 को जिस ताँगे से मैं प्रवास कर था, उसके
पलट जाने से बाहर फेंका गया। इस दुर्घटना के कारण दायें पैर की हड्डी टूट गई
और दिसंबर के अंत तक बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा।'
उनका चरित्र लिखने वालों ने व्यक्तिगत स्तर पर आए अनेक छोटे-बड़े अनुभव लिखे
हैं। सामान्य समाज तो पीढ़ी-दर-पीढी ऐसे अनुभवों को सहन करता आ रहा था। डॉ.
अंबेडकर के व्यक्तित्व की महानता यही थी कि इन अनुभवों को भोगकर वे मन ही मन
कुढते नहीं बैठे। वैयक्तिक अनुभवों से निर्मित उनकी उद्विग्नता का रूपान्तर
नवनिर्माण करने की सामाजिक इच्छा में हुआ। उनके कार्य के पीछे का मूल कारण
व्यक्तिगत व सामाजिक इच्छा में हुआ। उनके कार्य के पीछे का मूल कारण व्यक्तिगत
व सामाजिक अवमानना की आत्मानुभूति का उफान था। 'बहिष्कृत भारत' के 19 जुलाई
1927 के अंक में अपने संपादकीय में उन्होंने लिखा है-
'यदि तिलक जैसे किसी व्यक्ति ने बहिष्कृत समाज में जन्म लिया होता और ब्रिटिश
सत्ता के कारण हुए परिवर्तन के कारण उसे उच्च शिक्षा प्राप्त हुई होती, तो
उसने 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है' की गर्जना करने के स्थान पर निश्चय
ही 'अस्पश्यता नष्टमल करना मरा कर्तव्य है' कहा होता। 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते
तांस्तथैव भजाम्यहम्' गाता के इस प्रिय श्लोक के आधार पर धार्मिक व सामाजिक
अधिकार प्राप्त करने के लिए 'बाप दिखा, नहीं तो श्राद्ध कर' का खुला आह्वान
उच्चवर्णियों को किया होता।'
यह सही है कि व्यक्ति के आसपास की परिस्थिति और आत्मानुभूति की प्रतिक्रिया
प्रकट रूप में व्यक्त होती ही है।
अस्पृश्यता के इस दाहक वातावरण के बावजूद पिताजी के कारण बाबासाहब के मन पर
धार्मिक संस्कार बालपन से ही हुए थे। इन संस्कारों के लिए व ज्ञान प्राप्त
करने की इच्छा निर्माण करने के लिए उनके मन में अंत तक पिताजी के प्रति विनम्र
व उत्कट कृतज्ञता का भाव था। वे कहते थे- 'मेरा मानना है कि मेरी अंग्रेजी
वक्तृता व ग्रंथ लिखने का सारा श्रेय पिताजी को जाता है। अत्यधिक प्रेम करने
वाला ऐसा पिता बहुत कम लोगों को मिलता है।' 'पिताजी को अंग्रेजी पढ़ाने का शौक
था। मेरी ऐसी ख्याति है कि मैं अंग्रेजी अच्छी तरह बोलता व लिखता हूँ, लेकिन
तौल-तौल कर योग्य शब्दों का प्रयोग किस प्रकार करना चाहिए, यह जितना पिताजी ने
सिखाया, उतना किसी अध्यापक ने भी नहीं सिखाया।' खैरमोडे के लिखे उनके चरित्र
से यह पता चलता है कि उन्हें इस बात का खेद था कि उनके लिए पिताजी ने जितने
कष्ट उठाए व अनुशासन में रखने के लिए जो कठोरता बरती, उसका महत्व वे उस समय
समझ नहीं सके। इसलिए किसी भी परीक्षा में द्वितीय स्थान तक नहीं प्राप्त कर
सके।
शिक्षा
-
बी.ए. की पढ़ाई गुरुवर्य कू.अ. केलुस्कर के प्रयत्न से सयाजीराव गायकवाड़
महाराज से प्राप्त छात्रवृत्ति से हुई और बाबा साहब में समझदारी निर्माण हुई व
वे अध्ययन में प्रवृत्त हुए। फारसी और अंग्रेजी भाषा की प्रथम दर्जे की
गुणवत्ता के कारण प्राध्यापक के.बी. ईराणी व प्राध्यापक मैक्समूलर उनसे बहुत
खुश रहते थे। इसी काल में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य अध्ययन करने की ओर उनकी
रुचि बढ़ी। इससे उनका भौतिक क्षितिज विस्तार पाता गया।
बी.ए. की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् गुरुवर्य कु.अ. केलुस्कर के प्रयत्नों
से बड़ौदा नरेश से छात्रवृति मिली और आगे की पढ़ाई करने वे विदेश जा सके।
ध्यान रखने की बात यह है कि विदेश जाने के पूर्व ही शिक्षा के द्वारा अपने
पद्दलित समाज का उद्धार करने का विचार उनके मन में आ चुका था।
शंकरराव खरात द्वारा संपादित 'बाबासाहेबांची आत्मकथा' में सयाजीराव से
मिलनेवाली छात्रवृति के संदर्भ में हुआ उनका व बाबासाहब का प्रत्यक्ष संवाद
उद्धृत है। सयाजीराव द्वारा यह पूछे जाने पर कि किस विषय की पढ़ाई करने वाले
हो और क्यों? बाबासाहब ने उत्तर दिया। 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और विशेषकर
पब्लिक फाइनेन्स की पढाई करने से मुझे अपने समाज की अवनत अवस्था सुधारने का
मार्ग मिलेगा। उस मार्ग से समाज सुधार का कार्य करूँगा।'
उच्च शिक्षा के लिए न्यूयार्क पहुँचते ही अपने पिताजी के स्नेही श्री जमेदार
को अंग्रेजी में लिखे पत्र में उन्होंने लिखा- 'हमें इस मान्यता को बदलना
चाहिए कि माता-पिता जन्म देते हैं, कर्म नहीं। कुछ अंश में क्यों न हो, पर वे
अपने लड़कों का भविष्य बना सकते हैं........यदि लड़कों की तरह लड़कियों को भी
पढ़ाया गया, तो अपने पद्दलित समाज की प्रगति अधिक गति से हो सकेगी। शेक्सपीयर
ने कहा है कि आए हुए अवसर का उपयोग करना चाहिए, अन्यथा वह हाथ से फिसल जाता है
व भविष्य की गीली बालू अपने भाग्य में रह जाती है।
इसी दृष्टि से अमेरिका में बाबासाहब की कठोर ज्ञान तपस्या प्रारंभ हुई।
मिलनेवाली छात्रवृत्ति में से पैसे बचाकर घर की जरूरत पूरी करने के लिए भेजना
पड़ते थे। इसलिए केवल एक काफी, दो केक, एक प्लेट मांस अथवा मछली पर निर्वाह
करते; लेकिन पढ़ाई 18-18 घंटे तक करते। उनके सहपाठियों ने बड़े अभिमान के साथ
बताया कि जीवन में मिले उसी अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए बाबासाहब ने
प्रत्यक क्षण पढ़ाई में लगाया।
प्रारंभ में कुछ समय तक अमेरिका की मोहमयी संस्कृति ने उन्ह आकर्षित किया;
परंतु शीघ्र ही कठोर आत्मपरीक्षण कर समाजोद्धार कर्तव्य को पूरा करने के लिए
पढाई की आवश्यकता के प्रति स्वयं का किस प्रकार सचेत किया, उनका वर्णन चरित्र
ग्रंथकार खैरमोडे ने किया है। यह आत्मपरीक्षण उनका जीवन बदलनेवाला सिद्ध हुआ।
उसके बाद उन्होंने कभी भी मोहमय संसार की ओर झाँका तक नहीं और फिर शुरू हुआ
ज्ञान की अनन्य साधना का उग्र कठोर तप। तब मन में केवल एक ही विचार रह गया था
कि 'अर्थशास्त्रादि विषयों का अध्ययन कर अपने समाज को विकसित करने के लिए उसका
उपयोग करना। केवल उपाधि प्राप्त करना अपना जीवनोद्देश्य नहीं है।'
अमेरिका के शैक्षणिक वातावरण में बाबासाहब में अपनी बुद्धि का आत्म प्रत्यय
निर्माण हुआ। अपने आत्मनिवेदन में बाबासाहेब कहते हैं- 'ऐसा नहीं था कि मेरी
बुद्धि मंद थी या पढ़ने में रुचि नहीं थी.....लेकिन अमेरिका जाने तक मेरे अनेक
गुण सुप्तावस्था में थे। उनका विकास करने का कार्य प्रोफेसर सेलिग्मैन व अन्य
विद्वानों द्वारा हुआ। प्रोफेसर सेलिग्मैन ने ही बताया कि 'शोध कार्य किस
प्रकार करना चाहिए, वह तुम्हें अपनी पढ़ाई से ही मालूम पड़ेगा। ऐसा कहकर अपनी
स्वयं की शोध कार्य की पद्यति विकसित करने का उपदेश दिया।'
इस प्रकार से किए गए शोधकार्य की श्रेष्ठता 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय
में पढ़ते समय लिखे Castes in India निबंध में प्रमाणित है। उक्त निबंध के कुछ
अंश The American Journal of Sociology मासिक में World's Best Literature of
the Month के अंतर्गत प्रकाशित हुए। यह कहना उचित ही होगा कि जीवन भर चलने
वाले बाबासाहब के समाजशास्त्रीय व सामाजिक चिंतन का यह प्रारंभ था।
उस समय लाला लाजपत राय अमेरिका में रह रहे थे। प्रोफेसर सलिग्मैन से चर्चा
करते समय उन्होंने जो प्रशंसोद्गार व्यक्त किए, उस पर प्रोफेसर सेलिगमैन ने
कहा- 'यह विद्यार्थी केवल भारतीय विद्यार्थियों में ही नहीं, अमेरिकन
विद्यार्थियों से भी श्रेष्ठ है। इस भेंट का उल्लेख चरित्रकारों ने किया है।
इस प्रशंसा के लिए बाबासाहब की अविचल ज्ञान-तपस्या कारणीभूत थी। पढ़ाई से
ध्यान हटे, ऐसे किसी विकार या उपक्रम को उन्होंने पर में टिकने नहीं दिया।
लाला लाजपत राय ने उन्हें गदर अथवा क्रांतिकारी संगठन में शामिल करने का
प्रयास किया। उस मोह को उन्होंने अपनी छात्रवृत्ति का कारण बताकर टाला।
उन्होंने लाला लाजपत राय से कहा आप स्पृश्य हिंदू, इन अस्पृश्यों को गुलाम
रखकर स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन इसी कारण अस्पृश्य आपके आंदोलन
में शामिल नहीं हो सकेंगे। इससे स्पष्ट है कि मनाही के पीछे सामाजिक कारण भी
था।
इंगलैंड में रहते समय भारत मंत्री माण्टेग्यू ने बाबासाहब को मम्बई विधानमंडल
में शामिल करने की इच्छा जताई थी। उन्होंने उस प्रस्ताव को भी नकार दिया।
एक ओर स्वयं की बौद्धिक क्षमता के बारे में आत्मश्रद्धा दूसरी ओर बड़े-बड़े
विद्वानों को स्तम्भित कर दे ऐसी शैक्षणिक उपाधियों की मालिका लेकर डॉ,
अंबेडकर 1917 में भारत लौटे। उस समय भी अपनी शिक्षा के विषय में विनम्रता और
उसके माध्यम से समाजोद्धार का समान कार्य उनके मन में जाग्रत था। रायबहादुर
चिमनलाल शीतलवाड की अध्यक्षता में बाबासाहब के सम्मान करने की योजना की गई।
बाबासाहब ने यह कहते हुए सम्मान समारोह के लिए मना किया कि 'परमेश्वर की कृपा
से पढ़ाई का अवसर मिला, इसलिए पढ़ सका। यदि दूसरों को इस प्रकार का अवसर मिला
होता, तो वे भी सफल हुए होते। आप लोगों ने मेरे सम्मान के निमित्त जो धनराशि
एकत्र की है, उसका उपयोग अस्पृश्य समाज क योग्य विद्यार्थियों को छात्रवृति
देने में करें। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि संकोच और संसार के श्रेष्ठ
विश्वविद्यालय के बड़े-बड़े विद्वानों को देखकर उन्हें लगा हो कि मैं इस
सम्मान का पात्र नहीं है।
एक अन्य सबल कारण यह भी हो सकता है कि उन्हें अस्पृश्यों का ज्ञान लालसा के
बारे में विश्वास न हो। अपने पिताजी का आदर्श उदाहरण उनके सम्मुख था ही। एक
स्थान पर उन्होंने कहा है-
'अस्पृश्यों की ज्ञान लालसा उल्लेखनीय है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी
कि अस्पृश्यों में जो ग्रंथ संग्रह हुआ, वह उनके हिसाब से अति विशाल था।
श्रीधर स्वामी के ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियाँ तो अगणित मिलेंगी। मुकुंदराज,
ज्ञानेश्वर, मुक्तेश्वर जैसे महाराष्ट्र के प्राचीन कवियों की हस्तलिखित
प्रतियाँ मैंने अनेक अस्पृश्यों के संग्रह में देखी हैं। इतना ही नहीं मुझे
विश्वास है कि अस्पृश्यों के घरों पर कई दुर्लभ ग्रन्थों की प्रतियाँ भी
मिलेंगी।'
ऐसे दुर्लभ ग्रन्थों में ज्ञानेश्वर महाराज का 'पंचीकरण व राघव चिंतनधन कवि का
'ज्ञानसुधा' ग्रंथ का विशेष उल्लेख करते हुए बाबा साहब कहते हैं ज्ञान की यह
लालसा उस समय के समाज (बाबासाहब के बचपन का) के लिए भूषणावह है, इसमें दो मत
नहीं हो सकते। अस्पृश्यों के ज्ञान लालसा के कारण ही डॉ. अंबेडकर ने अपने
जीवनकार्य में शिक्षा को प्राथमिकता दी।
प्रत्येक विचार व कृति समाज के लिए
-
डॉ. अंबेडकर ने इसके पश्चात् प्रत्येक विचार व कृति समाज के लिए ही की;
क्योंकि उनके मन में केवल अपने उद्धार की कल्पना नहीं थी। वे तो समाज का
उद्धार चाहते थे। देखा जाए, तो 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत्हिताय च' में उनकी
धारणा नहीं थी। अपने स्वयं के उद्धार का विचार होता तो उन्होंने अकेले ही
धर्मांतरण कर झंझट से मुक्ति पायी होती। उसका उद्देश्य तो संपूर्ण समाज को
अस्पृश्यता के जाल से मुक्त कराने व हिंदू समाज को एकात्म बनाने का था।
'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' के कार्यकर्ता, सभा कार्यालय में उनके सामने झगड़ा
करते थे, इसका उल्लेख चरित्रकार खैरमोडे ने किया है। उसे देखकर बाबासाहब कहते
कि इतना विद्याभ्यास किया, उससे प्राप्त ज्ञानशक्ति का उपयोग अपने परिवार या
केवल अपनी जाति के लिए करने का विचार नहीं था, वह सारे अस्पृश्य समाज के लिए
था। 'अस्पृश्यों की समस्या अर्थात् प्रचंड हिमालय है। इस हिमालय से टकराकर मैं
अपना सिर फोड़ लेने वाला हूँ। हो सकता है कि हिमालय न ढहे, पर मेरा रक्तरंजित
माथा देखकर सात अस्पृश्य उस हिमालय को भूमिसात करने के लिए तैयार हो जाएं। यह
निश्चित है कि वे उसके लिए प्राणार्पण तक के लिए तैयार रहेंगे।' जरूरत पड़ने
पर अपना बलिदान देकर समाज का उद्धार करने की अपने देश की परंपरा के अनुरूप ही
उनका जीवन था। जब उन्होंने धर्मांतरण करने की घोषणा की, तो कई लोगों ने प्रकट
रूप से कुछ मुद्दे उठाए। पं. सातवलेकर ने अपने 'पुरुषार्थ' मासिक में कहा कि
धर्मांतरण से अंबेडकर स्वयं का बड़प्पन गवाँ बैठेंगे। उसका उत्तर देते हुए
अंबेडकर ने कहा कि बुद्धिमत्ता व विद्वता के कारण मेरे बड़प्पन को कोई धोखा
नहीं है। लेकिन अस्पृश्य रहने पर मेरा बड़प्पन रहेगा, यह सच हो, तो अपना
बड़प्पन कायम रखने के लिए, अस्पृश्यों को अस्पृश्य ही रहना चाहिए यह विचार
अत्यंत विलक्षण ही नहीं, पागलपन का है। मेरी भावना है कि मेरा बड़प्पन जाता हो
तो जाए, परंतु हमारे लोग ऊपर आने चाहिए।' इसकी विस्तार से चर्चा करके द.न.
गोखले ने बड़ी ही मार्मिकता से स्पष्ट किया है कि 'अपनी विद्वता का भरोसा, उस
विषय का सार्थक अहंकार और अस्पृश्योद्धार के ईश्वरीय कार्य में अपना सर्वस्व
विसर्जित करने की वृत्ति व कृति के कारण अंबेडकर, सावरकर व सुभाषचंद्र जैस
अखिल भारतीय नेताओं की मालिका में अलग पहचान रखते हैं।'
जिस उद्देश्य से बाबा साहब ने कठोर ज्ञान-साधना की थी, उसके अनुसार अपने समाज
की नेतृत्व करने की प्रबल इच्छा उनके मन में था। अपनी क्षमता पर उन्हें
विश्वास था। प्रारंभ में समाज कार्य की उनकी कल्पना केवल शिक्षा के प्रसार व
सरकारी नौकरियों में अस्पृश्यों का स्थान दिलाने तक सीमित थी।
श्री बुकर टी. वाशिंगटन के समान महात्मा फुले व डॉ. अंबेडकर न दलितोद्धार के
कार्य में शिक्षा के महत्व को जाना था। बाबासाहब के एक गरु महात्मा फुले के
प्रथम चरित्रकार श्री पंढरीनाथ सीताराम पाटिल 'महात्मा ज्योतिराव फुले' ग्रंथ
में लिखते हैं कि विविध ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात् ज्योतिबा के ध्यान में
आया कि हिंदू धर्म में वर्तमान में जिस प्रकार की अनीति व अन्याय समाया हुआ है
और वह विकृत रूप में दिखाई दे रहा है, वैसा पहले नहीं था। हिंदू धर्म मूलतः
शुद्ध स्वरूप में था..... यदि हिंदुस्तान व हिंदूधर्म में अनेक पंथ, जाति तथा
ऊँच नीच के भेद का पाखंड खड़ा न किया गया होता, तो 'सारे हिंदू एक हैं' की
भावना से सब लोग एकता व प्रेम से रहते, तब हिंदू धर्म व हिंदुस्तान की ओर
टेढ़ी नजरों से देखने का कोई साहस करता क्या? यदि हिंदू धर्म को जीवित रखना
है, हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र करना है तो देश के उन एक तिहाई लोगों को
शिक्षित करना होगा, जिन्हें अस्पृश्य माना जाता है और इसे करने का उन्होंने
दृढ निश्चय किया।'
बाबासाहब का विचार भी ऐसा ही था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने
कितने कष्ट उठाए, यह पूर्व विवेचन में स्पष्ट किया ही है।
25 नवंबर 1921 को लंदन से भेजे पत्र में उन्होंने अपनी पत्नी रमाबाई को लिखा-
'तुम्हारी पढ़ाई चल रही है, यह बहुत प्रसन्नता की बात है। पैसे की व्यवस्था
करने का प्रयास कर रहा हूँ। मेरे पास पैसे नहीं हैं, इसलिए एक सीमित मात्रा
में भोजन कर पा रहा हूँ। फिर भी आप लोगों की व्यवस्था कर रहा हूँ। पैसे भेजने
में देर हुई और यदि तुम्हारे पास के पैसे समाप्त हो जाएं, तो अपने अलंकार
बेचकर व्यवस्था करो। आने के बाद फिर बनवा दूँगा। यशवंत और मुकुंद की पढ़ाई
कैसी चल रही है?' उनका आग्रह था कि पढ़ाई के लिए अपना पेट काटकर भी रहना पड़े
तो चलेगा, पर अपने समाज को उसे महत्व देना चाहिए।
लार्ड लिनलिथगो से चर्चा करते समय बाबासाहब ने कहा- 'आप नाराज न हो तो एक
प्रश्न करने की इच्छा है।' सहमति मिलने पर उन्होंने पूछा- 'क्या आपको यह मान्य
है कि मैं अकेला पाँच सौ पदवीधरों के बराबर हूँ। लार्ड ने कहा- 'हाँ। ऐसा
मानता हूँ।' तब बाबासाहब ने उसे यह बताते हुए कहा कि उन्होंने कितनी कठिनाई व
कष्ट उठाकर अपनी पढ़ाई पूरी की है, कहा- 'मैंने इतनी योग्यता प्राप्त कर ली है
कि किसी भी सरकारी पद पर बैठ सकता हूँ। हमारे समाज के कल्याण के लिए ऐसे लोगों
की आवश्यकता है, तो शासन रूपी दुर्ग के सामरिक महत्त्व के स्थानों पर बैठकर
शत्रु को पराजित कर सकें व हमारे गरीब लोगों की देख रेख कर सकें।' इस दृष्टि
से उन्होंने दलित समाज के योग्य लड़कों व युवाओं को चुनकर, उनमें शिक्षा के
प्रति रुचि निर्माण कर, उन्हें सक्रिय प्रोत्साहन देने के उपक्रम जीवनपर्यंत
चलाए।
इस संदर्भ में दिनांक 22 अक्टूबर 1924 को लिखा उनका पत्र बहुत ही सूचक है।
उसमें लिखा- 'श्री चांगदेव खैरमोडे कालेज की फीस भरने में असमर्थ हैं। वह मेरे
पास आए थे। ऐसे योग्य व उत्साही युवक की सहायता करना अस्पृश्य वर्ग के
प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है? फीस की इतनी बड़ी राशि की व्यवस्था,
इतने कम समय में कर पाना कठिन लग रहा है। मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि मेरा
सम्मान करने के निमित्त मुंबई के कुछ सज्जनों ने चंदा एकत्र किया है। उसका अभी
तक किसी कार्य में विनियोग नहीं किया गया है। उस राशि से खैरमोडे की सहायता
करनी चाहिए। मेरा सम्मान करने जैसे क्षुद्र काम में पैसा खर्च करने के स्थान
पर समाज में उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति तैयार करने पर समाज को अधिक श्रेय
मिलेगा।'
शिक्षा एक व्यापक संकल्पना
-
बुकर टी. वाशिंगटन की ही तरह बाबासाहब ने शिक्षा-क्षेत्र का गहराई से विचार
किया था। उस सर्वंकष विचार को ग्रंथरूप में एकत्र नहीं किया गया। शिक्षा एक
व्यापक संकल्पना है। इस विषय में उनक विचार स्फुट लेखन, पत्र, संस्मरण, भाषण,
प्रकट, चिंतन, विधिमंडल में रखे विचार, विविध समितियों के लिए तैयार किए गए
प्रतिवेदन, अपनी शिक्षा संस्थाओं के विद्यार्थी, शिक्षक, प्राध्यापक,
प्राचार्य, पालक वर्ग से हुए सम्भाषण आदि में प्रकट हुए हैं। 'Educate,
Organise, Agitate' इस त्रिसूत्र में पहला स्थान शिक्षा को है। उनकी सीख 'पढ़ो
और पढ़ाओ' की थी। विद्या, प्रज्ञा, करुणा, शील व मित्रता के पंचतत्व के आधार
पर प्रत्येक को अपने चरित्र की भावना से जोड़ दो और सुशील होने के लिए
नि:स्वार्थ, न्यायप्रेमी, व व्यापक मनोवृत्ति आत्मसात् करनी चाहिए। वे सुशील
को शिक्षा से अधिक महत्व देते थे।
इसी कारण उनका शिक्षक की विद्याव्यासंग, आत्मविश्वास, व्यथा, ध्येयवाद पर अधिक
आग्रह था। उनका मानना था कि शिक्षक राष्ट्र का सारथी है। इसलिए शिक्षक बुद्धि
से होशियार, वृत्ति से निरीक्षक व मर्मज्ञ होना चाहिए; क्योंकि शिक्षा के
द्वारा मनुष्य का आत्मिक उन्नयन होता है; और वह तभी हो सकेगा जब शिक्षक योग्य
होगा। वे कहते हैं 'इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा का महत्व है, लेकिन शिक्षा
के साथ ही मनुष्य का शील भी सुधारना चाहिए। शील के बिना शिक्षा का मूल्य शून्य
है। ज्ञान तलवार की धार जैसा है। तलवार का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग उसको
पकड़नेवाले के शील पर अवलंबित है। वह इससे किसी का खून कर सकता है अथवा किसी
की रक्षा कर सकता है। यदि पढ़ा लिखा व्यक्ति शीलवान होगा तो वह अपने ज्ञान का
उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करेगा; परंतु यदि उसका शील अच्छा नहीं होगा, तो
वह अपने ज्ञान से लोगों का अकल्याण कर सकता है। इसलिए शील धर्म का महत्वपूर्ण
अंग है। वे कहते हैं- 'विद्यालय में केवल बारहखड़ी पढ़ानी हो, तो बात अलग है
परंतु विद्यालय में बच्चों के मन को सुसंस्कारित कर समाजहितोपयोगी बनाना होता
है। विद्यालय श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने के कारखाने हैं। अर्थात् कारखाने का
फोरमैन जितना होशियार होगा, वहाँ से निकलने वाला माल उतना ही उत्तम होगा।
विद्यालय कोई हिंदू उपहारगृह नहीं है, जहाँ का रसोइया ब्राह्मण भर होना चाहिए,
क्योंकि ब्राह्मण के हाथ का भोजन सबको चलता है; पर वर्तमान में ब्राह्मण से
मिलने वाली शिक्षा व समाज के संबंध एक दूसरे से गुँथे हुए हैं, इसलिए पारंपरिक
शिक्षक मुझे मान्य नहीं है। क्योंकि इस ने स्वयं के दृष्टिकोण से शिक्षक विषयक
कल्पना व शिक्षापीत किए। जाति-विनिष्ट व केंद्रीकरण के कारण शिक्षा का प्रवाह
जम गया है। ब्राह्मण वर्ग से मिलने वाली शिक्षा आधुनिक तत्वों से विसंवादी के
इसलिए उनका आग्रह शिक्षा के क्षेत्र में विकेंद्रीकरण का था।
विद्यालय में समबुद्धि, उदात्त विचार, निष्पक्ष व उदार हृदय के शिक्षक होने
चाहिए। इस दृष्टि से अपने समाज के संदर्भ में भी शिक्षण संस्थाओं की रचना,
शिक्षा नीति, शिक्षक, विद्यार्थी, प्राथमिक शिक्षक प्राध्यापक प्राचार्य की
गुणवत्ता, शिक्षा संस्था के संचालकों का व्यवहार, सांगठनिक स्वरूप,
विद्यार्थियों का दायित्व आदि के विषय में विस्तार से मार्गदर्शन किया। वे
कहते थे- 'दलित वर्ग का महत्त्व का प्रश्न यह है कि उसे इस बात का अहसास करा
देना कि किन कारणों से उनकी प्रगति बाधित होती है और उन्हें दूसरों का दास
बनकर रहना पड़ता है। उनकी वह हीनता ग्रन्थि दूर कर; वर्तमान समाज प्रणाली के
कारण उनकी जो लूट हुई है, इसका उनके स्वयं के और राष्ट्र की दृष्टि से अत्यधिक
महत्त्व है। उच्च शिक्षा के प्रसार के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य से यह साध्य
नहीं होगा। हमारे सारे सामाजिक दु:ख की यही एकमात्र औषधि है।'
शिक्षा दुधारी शस्त्र है
-
शिक्षा के विषय में उनकी भूमिका यह थी कि स्वसमाज का मानसिक उन्नयन कर उसका
आत्माभिमान जगाया जाए अर्थात् अस्पृश्य समाज को केवल साक्षर, सुशिक्षित करने
तक उनकी दृष्टि मर्यादित नहीं थी। बाबासाहब कहते हैं- 'शिक्षा दुधारी शस्त्र
है, इसलिए उसे चलाना खतरे भरा रहता है। चारित्र्यहीन व विनयहीन सुशिक्षित
व्यक्ति पशु से अधिक खतरनाक होता है। सुशिक्षित व्यक्ति की शिक्षा गरीब जनता
के हित-विरोधी प्रवृत्ति देखकर मुझे दुःख होता है। कुछ लोगों का मानना है कि
धर्म अफीम की गोली है, परंतु यह सत्य नहीं है। मेरे अंदर जो अच्छे गुण हैं
अथवा मेरी शिक्षा के कारण समाज का जो कुछ हित हुआ होगा, वह मेरे अंतर्मन की
धार्मिक भावना के कारण ही है। मुझे धर्म चाहिए पर धर्म के नाम पर चलने वाला
पाखंड नहीं।' इस दृष्टि से वे शिक्षा संस्थाओं के व्यवस्थापन की पूरी चिंता
करते थे। 'पीपुल्स एजकेशन सोसायटी' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे शिक्षा
संस्थाओं के आर्थिक, शैक्षणिक व प्रशासनिक व्योरे को बारीकी से देखते। 25
मार्च 1949 के पत्र में उन्होंने लिखा- 'महाविद्यालय का प्राचार्य किसे
नियुक्त किया जाए, इसकी चिंता में हूँ। वेतनमात्र के लिए काम करने वाला
प्राचार्य, संस्था को अपना मानकर त्याग व आस्थापूर्वक कार्य नहीं करता। वह
केवल स्वयं का विचार करता है। इसलिए योग्य प्राचार्य चाहिए।'
बाबासाहब ने शिक्षा का महत्त्व ध्यान में रखकर अपने समाज की शिक्षा व उसके
द्वारा उनके सांस्कृतिक उन्नयन का प्रयत्न जीवनपर्यंत किया। लेकिन विदेश से
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के वाजबूद बड़ौदा में नौकरी करते समय आए अस्पृश्यता
के अनुभव, मुंबई के विधि महाविद्यालय में प्राध्यापकी के अनुभव, वकीली जीवन के
अनुभव के पश्चात् उन्हें एहसास हुआ कि अस्पृश्यों की स्थिति केवल शिक्षा से
नहीं बदलेगी। इसके साथ ही ब्राह्मणेतर उच्च वर्गो की अस्पृश्यों के प्रति
ब्राह्मण्यग्रस्त मानसिकता, हिंदुत्वनिष्ठों की मर्यादा, कांग्रेस व अन्य
उच्चवर्ण नेताओं की अस्पृश्यों के बारे में भूमिका तथा 1917 में सरकार द्वारा
घोषित राजनीतिक सुधारों के प्रस्तावों के समग्र परिणामों में से उन्हें यह
अहसास हुआ कि शिक्षा के साथ अपने अधिकारों के लिए अस्पृश्यों में युयुत्सु
वृत्ति निर्माण करने की आवश्यकता है।
उनके भाषणों को देखने पर ध्यान में आएगा कि वे इसी दृष्टि से अपने अनुयायियों
को सम्बोधित करते, उनका आत्माभिमान जाग्रत करते। उन्हें विश्वास था कि उज्जवल,
तेजस्वी, व प्रेरणादायी पूर्वजों का स्मरण कराये बिना अस्पृश्य स्वाभिमानी
नहीं बन सकेंगे, अपने तेजस्वी पर आगे नहीं बढ़ सकेंगे। इसलिए वे लिखते हैं-
'अस्पृश्य, बलि दिए जानेवाले पशु के समान मेष राशि के नहीं है। इतिहास इस बात
का गवाह है कि उनके पूर्वजों की राशि सिंह थी। ऐसा न होता, तो नागेवाडी के
महजूर सेटी बिन नागनाक हरिजनों में इतना तेज कहाँ से आता। राजाराम के
कथनानुसार उन्होंने अपने पाटिल पद की रक्षा के लिए किसी की सहायता लिए बिना
अग्नि दिव्य कर मुगलों के अधिकार का वैराट गढ़ जीतकर फिर से मराठा साम्राज्य
में सम्मिलित किया; पर ब्राह्मण्यग्रस्त ब्राह्मण सरदार को उनको इस आधार पर
अलग करने की शिकायत करने लगे कि भोजन के पंगत के समान ही युद्धवीरों की पंक्ति
में भी जाति भेद माना जाना चाहिए; किंतु उन्होंने हिरोजी पाटणकर जैसे सरदार से
यह कहलवाकर कि 'जिसकी तलवार में धार, वह सरदार' सबके साथ रहने का सम्मान
प्राप्त किया। खर्डे नामक स्थान पर हुए युद्ध में पठानों के चंगुल में फँसे
परशुरामभाऊ के प्राण बचाने के लिए अप्रतिम शौर्य दिखाकर उन सरदारों की गर्दनें
झुका दीं, जो हरिजनों को तिरस्कार के योग्य मानते थे। कौन कह सकेगा कि वह
शिदनाक हरिजन सिंह राशि का नहीं था? पावनखिण्ड में मुट्ठीभर सिपाहियों के
सहारे बीजापुर की प्रचंड इस्लामी सेना का धुआँ उड़ानेवाले बाजीप्रभु देशपांडे
के समान ही रायनाक हरिजन ने रायगढ़ पर मोर्चेबंदी कर 15 दिन तक बहादुरी के साथ
अंग्रेजों से युद्ध किया। किले की रक्षा करते हए अपने प्राण देनेवाला वह
रायनाक मेष राशि का था क्या? पेशवाई के अंतिम दिनों में उसकी रक्षा के लिए
जिन्होंने अपना जीवन लगाया, जिनके नाम कोरेगाँव में जयस्तंभ पर लिखे गए हैं,
उन वीरों की राशि सिंह के अतिरिक्त अन्य कोई हो सकती है क्या?' ('महाड येथील
धर्मसंगर व अस्पृश्य लोकांची जवाबदारीः बहिष्कृत भारत, 20 मई, 1927)
1942 में नागपुर में हुए शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के अधिवेशन में लगभग 20 हजार
अस्पृश्य महिलाएँ शामिल हुई थीं। उनके सामने भाषण करते हुए बाबासाहब ने कहा-
'समाज की प्रगति को उस समाज की महिलाओं की प्रगति से मापा जा सकता है। आप इतनी
बड़ी संख्या में यहाँ आई हैं, अतः संदेह नहीं कि निश्चित ही अब अपना समाज
प्रगति के मार्ग पर है। आप स्वच्छ रहें, दुर्गुणों से दूर रहें। अपने बच्चों
को शिक्षित करें, उन्हें महत्त्वाकांक्षी बनायें। उनकी हीनताग्रन्थि दूर करें।
उनके विवाह की जल्दी न करें। स्वयं के पैरों पर खड़े होने तक विवाह के लिए
दबाव न दें। उनकी सहयोगी बनें। मेरे सुझाव के अनुसार व्यवहार करने पर आप अपनी
भी उन्नति करेंगी और अपने अस्पृश्य समाज को भी प्रगति के मार्ग पर ले जाएंगी।
सद्गुणों के मार्ग से आप अपने पुरुषों का जीवन बदलें, ताकि आपके बच्चे ऐसे बन
सकें, जिनकी ख्याति तीनों लोकों में हो।'
आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें
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बाबासाहब कहते हैं- 'आप स्वयं को अस्पृश्य न मानें। अपना घर साफ रखें। आप सबको
पुराने व घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। आप जिस तरीके से साड़ी
पहनती हैं, वह अस्पृश्य होने की गवाही देती है। पहचान के इस प्रमाण को दूर
करना चाहिए। वरिष्ठ वर्ग की महिलाएँ जिस पद्धति से साड़ी पहनती हैं, आपको भी
उस पद्धति से साड़ी पहनना प्रारंभ करना चाहिए। उसमें आपका कुछ खर्च नहीं होगा।
उसी प्रकार गले में ढेर सारी मालाएँ और हाथ में कोहनी तक लोहे या चाँदी के
कड़े भी आपकी पहचान के लक्षण हैं। गले में एक माला का होना ही पर्याप्त है।
ऐसा नहीं है कि उससे पति की आयु बढ़ती है अथवा अपने शरीर की शोभा बढ़ती है।
अलंकार की अपेक्षा कपड़ों का महत्त्व अधिक है। इसलिए अलंकार पर पैसा खर्च करने
के स्थान पर कपड़े पर व्यय करें। अलंकार पहनना ही हो, तो स्वर्ण का पहने
अन्यथा न पहनें। स्वच्छता से रहने की चिंता करें। आप घर की लक्ष्मी हैं, घर
में किसी प्रकार की अमंगल बात न हो, इसकी सावधानी आपको रखनी होगी। जो पति मरे
जानवर का मांस घर पर लाये, उसे आप स्पष्ट कहें कि मेरे में यह नहीं चलेगा।
शराबी पति अथवा पुत्र को घर में प्रवेश न दें। उन्हें सही मार्ग पर लाने का
प्रयत्न करें।'
महाड सत्याग्रह के समय अपने अनुयायियों को उपदेश करते हुए बाबासाहब ने जीवन के
मर्म को स्पष्ट किया व आह्वान किया कि आवश्यकता पड़ने पर बलिदान देने की
तैयारी रखनी चाहिए। उन्होंने कहा- 'जीवित रहने मात्र में पुरुषार्थ नहीं है।
काकबलि खाकर कौए वर्षों तक जीवित रहते हैं, मगर कोई नहीं कहेगा कि उनके जीवित
रहने में पुरुषार्थ है। मौत से भय या रोना किसलिए? नाशवान देह को शाश्वत वस्तु
प्राप्त करने में खर्च करना चाहिए। उदाहरणार्थ- देश, सत्य, यश, इज्जत अथवा
प्राणिमात्र की रक्षा के लिए अनेक प्रसंगों पर अनेक महापुरुषों ने कर्तव्य की
अग्नि में अपने प्राणों की पंचप्राणों की आहुति दी है। महाभारत में वीरपत्नी
विदुला ने अपने पुत्र को उपदेश दिया था कि 'सड़ते हुए सौ वर्ष जीने की अपेक्षा
कुछ समय के पराक्रमी जीवन की ज्योति जलाकर मृत्यु प्राप्त करना श्रेयस्कर है।
अब समय आ गया है कि अस्पृश्य माता अपने पुत्र को उसी भाँति उपदेश दें। असिधारा
व्रत नहीं, केवल जेल जाने की तैयारी चाहिए।'
वे अपने अनुयायियों को ग्रीक पुराण की एक कथा बताया करते थे। उस कथा का डिमेटर
नामक पात्र एक छोटे बच्चे की महान शक्ति वृद्धिंगत करने के लिए उसे आग पर रखता
था। यह बताकर वे अस्पृश्य वर्ग को संदेश देते कि निरंतर कार्य करें,
अग्निदिव्य करें। वह व्यक्ति धन्य हैं, जिन्हें इस बात की अनुभूति होती है कि
जिस समाज में अपना जन्म हुआ है, उसके प्रति अपना कुछ कर्तव्य है।
गैरीबाल्डी ने अपने अनुयायियों से कहा था- 'I do not promise you ease, I do
not promise you comfort. But I do promise you these: hardship, weariness,
and suffering and with them. I promise you victory.'
दुसरे महायुद्ध के प्रारंभ में इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बनने के पश्चात्
चर्चिल ने भी अपने समाज से कहा था कि प्रधानमंत्री के रूप में मैं आपको रक्त,
पसीना और आँसुओं के अतिरिक्त अन्य कुछ देने का आश्वासन नहीं दे सकता।
कार्यकर्ताओं को विकसित करने का प्रयास
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लगभग इन्हीं शब्दों में बाबासाहब अपने अनुयायियों को सम्बोधित किया करते थे।
परंतु इसके साथ ही अनेक प्रकार से अपने कार्यकर्ताओं को विकसित करने का प्रयास
करते थे। उन्होंने कभी समझाकर, कभी डाँटकर, कभी मनोबल स्थिर रखने के लिए साहस
बाँधकर कार्यकर्ता तैयार किए।
सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले व्यक्ति का आधार कार्यकर्ता ही होता है।
इन कार्यकर्ताओं को सँभालना पड़ता है। उनके सुख-दुःख के सहभागी होना चाहिए।
गलती होने पर सावधानी से उसे सुधारना चाहिए। आवश्यक होने पर मृदु और जब जरूरत
हो, तब कठोरता का व्यवहार करना चाहिए। मुख्यतः जीवन दृष्टि देकर कार्यकर्ता के
रूप में विकास किस प्रकार हो सकता है? इसकी चिंता नेतृत्व करने वाले व्यक्ति
को करनी चाहिए। कार्यकर्ता की साज-सँभाल की दृष्टि से बाबासाहब का व्यवहार किस
प्रकार का था, यह बतानेवाले कुछ पत्र श्री श्याम अत्रे ने प्रस्तुत किए हैं।
नासिक के श्री जाधव ने दलित समाज के निमित्त एक शैक्षणिक परिषद् का आयोजन किया
और उसे समर्थन देने के लिए बाबा साहब को पत्र लिखा। उसका उत्तर देते हुए
बाबासाहब ने लिखा- डिप्रेस्ड क्लास के शैक्षिक महत्त्व के विषय में मैं आपसे
सहमत हूँ। उसके लिए सारे आवश्यक प्रयत्न किए जाने चाहिए। परंतु इसमें जो दो
बातें अलक्षित रह जाती हैं, उन्हें आपके ध्यान में ला देना जरूरी है। अपने
समाज के आंदोलन को हीन दृष्टि से देखने का लग रहा है। आपकी इस भूमिका से मैं
सहमत नहीं हो सकता हूँ। मैं अपने समाज के संघर्ष को महत्त्व देता हूँ। मैं
स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यदि आपकी परिषद् का उद्देश्य मुंबई प्रान्त की
अमूल्य सेवा करने वाले लोगों की टाँग खिचाई का हो तो अपने कार्य के संबंध में
मेरे नाम का उपयोग न करें।'
6 नवंबर 1947 को भाऊराव गायकवाड़ को उन्होंने लिखा- 'कार्यकर्ता के बारे में
आपकी शिकायत सही है। अनेक कार्यकर्ता क्रियाशील तो हैं ही नहीं, वे स्वार्थी
भी हैं; पर इसका यह मतलब नहीं कि राजनीतिक आंदोलन चलाने वाले आप व मेरे जैसे
लोग राजनीति से निवृत्त हो जाएं। विपरीत स्थिति को अनुकूल बनाना ही नेता होने
की असली कसौटी है। मैंने जब कार्य प्रारंभ किया, तब इससे भी अधिक प्रतिकूलता
थी।' बाबासाहब इस प्रकार कार्यकर्ता का नैतिक बल बनाए रखने का प्रयत्न करते।
अप्रैल 1949 में बाबासाहब अपने एक कार्यकर्ता को लिखते हैं- 'मुझे लगता है कि
आप मुंबई सरकार विरोधी झगड़े में न उलझें। अपने पास दूसरे अनेक कार्यक्रम हैं,
उन्हें प्रारंभ करना अधिक महत्त्व का है। निरर्थक जेल जाकर सड़ते रहने का कोई
उपयोग नहीं। हमें विचार पूर्वक बोलना चाहिए व प्रत्येक कदम सावधानी से उठाना
चाहिए।'
1946 के आम चुनाव में शेतकरी कामगरी फेडरेशन के बारे में उम्मीदवार चुनाव हार
गए। उस समय अपने कार्यकर्ताओं को लिखा- 'हम हार गए हैं, पर दु:खी होने का कोई
कारण नहीं है। मुझे पराजय का दु:ख कभी नहीं सताता। इस कठिन प्रसंग को सहन करना
आसान बात नहीं। पराजय पचाने का धैर्य हमें है। अपने दल का कार्य पहले की
अपेक्षा अधिक गति व उत्साह से करना चाहिए।'
ऐसे ही एक प्रसंग पर सहयोगी कार्यकर्ता को लिखते हैं- 'आपके शांत बैठ जाने से
मैं चिन्तित हूँ। पराजय लज्जा का कारण नहीं हो सकती। अपने दल ने अच्छा कार्य
किया। विरोधियों को प्रचंड मत मिलने के कारण अपनी हार हुई है। हमें अपनी बिखरी
हुई शक्ति एकत्र करनी चाहिए। पराजित सेना का सेनापति यही किया करता है।'
पुणे करार के पश्चात् महात्मा गांधी ने डॉ. अंबेडकर के सहयोग से अस्पृश्यता
नष्ट करने का कार्य करने के लिए 'अस्पृश्यता निवारण संघ' नामक संस्था स्थापित
करने का निश्चय किया। उस समय बाबासाहब ने ठक्कर बाप्पा को अस्पृश्यता निवारण
के लिए किए जाने वाले कार्यो का सूचना पत्र भेजा था। उस पत्र का महत्त्व दो
कारणों से है। एक तो बाबासाहब के बताये हुए कार्यक्रम की जानकारी मिले और
दूसरा यह कि संघ का काम किस प्रकार चले, उसके कार्यकर्ता कैसे हों, इस विषय
में दलित संगठन से मिले अनुभव के आधार पर किए चिंतन से निकले उनके विचारों की
जानकारी हो। दलित वर्ग का कार्य करने वाले व करने का विचार रखने वालों को
बाबासाहब के विचार 'कार्यकर्ता कैसा होना चाहिए' सदैव मार्गदर्शक रहेंगे। इस
विषय में बाबासाहब लिखते हैं- यह स्पष्ट है कि अपने कार्यक्रम को व्यावहारिक
रूप देने के लिए 'अस्पृश्यता निवारण संघ' को समाजसेवी कार्यकर्ताओं की एक सेना
खड़ी करनी होगी। यह गलतफहमी खड़ी होने की संभावना है कि कार्यकर्ताओं का चुनाव
करना बड़ी सामान्य बात है। परंतु ऐसा मत है कि कार्य के लिए कार्यकर्ता को
चुनाव बड़े महत्त्व व जिम्मेदारी का विषय है। पैसे देने पर काम करनेवाले बहुत
मिल जाते हैं; लेकिन इस कार्य के लिए ऐसे व्यक्तियों को लेने से काम नहीं
चलेगा। यदि अस्पृश्योन्नति के कार्य के प्रति मन में पीड़ा व आस्था वाले
व्यक्तियों की आवश्यकता है, तो क्यों न उनका चुनाव अस्पृश्यों में से ही किया
जाए? इसका निर्णय करते समय संघ को इस पक्ष को ध्यान में रखना आवश्यक है। मेरा
कहना यह नहीं है कि अस्पृश्योद्धार के निमित्त अपना स्वार्थ साध कर, स्वयं की
जेब गरम करने वाले लोग अस्पृश्य समाज में नहीं हैं। निश्चित ही ऐसे लोग हैं;
परंतु अस्पृश्योद्धार के कार्य के लिए अस्पृश्य समाज के कार्यकर्ता व या
सेवकों की योजना की, तो यह कार्य उनके द्वारा स्वाभाविक रूप से आत्मीयता व
प्रेम की भावना का होना अनिवार्य है।" बाबासाहब की धारणा थी कि प्रेम व
आत्मीयता की भावना धर्म की प्रेरणा के बिना सम्भव नहीं है। एक अन्य स्थान पर
उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा- 'मनुष्य को सदैव स्वार्थ-सिद्धि ही नहीं, थोड़ा
बहुत परमार्थ भी करना चाहिए। इसी कारण मैं यह कार्य कर रहा हूँ। इसकी प्रेरणा
मुझे धर्म ने ही दी है। यह मानना कि पेट भर गया कि सब कुछ हो गया, उचित नहीं
है। पेट तो वेश्या भी भर लेती है। घर-परिवार सँभालें, पर समाज कार्य में सहयोग
भी दें।'
उनके ध्यान में यह बात आ चुकी थी कि अस्पृश्यों को मनुष्य होने का सामान्य
अधिकार सरलता से मिलने की सम्भावना नहीं है। इसलिए राजनीतिक सुधारों की पहली
किस्त में अस्पृश्यों के अधिकार प्राप्त करने के लिए 'माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड'
के सुधारों के सुझाव पर लार्ड साऊथबरो की अध्यक्षता में गठित हुई 'फ्रैञ्चाइज
कमेटी' के सामने उन्होंने अपने समाज की माँग रखने की स्वीकृति राज्यपाल से
प्राप्त की। अस्पृश्यों की उन्नति के लिए अनेक वर्षों से निरसता से कार्य करने
वाले कर्मवीर वि. रा. शिन्दे को अस्पृश्यों के राजनीतिक अधिकारों के विषय में
बात अस्पृश्य को ही रखनी चाहिए' के तर्क के आधार पर बाबासाहब ने राज्यपाल से
निवेदन कर स्वयं के नाम की स्वीकृति ली। इस बात के पीछे उनकी भूमिका यह थी कि
अस्पृश्यों का प्रतिनिधित्व अस्पृश्य ही कर सकता है। सुधारवादी उच्चवर्ग यह
काम नहीं कर सकेगा। उनका यह विचार व मानसिकता बहुतांश में जीवन के अंत तक बनी
रही।
27 जनवरी 1919 को साऊथबरो समिति को प्रस्तुत निवेदन में उनके संपूर्ण भावी
सामाजिक व राजनीतिक कार्य की नींव के मूलभूत सूत्र दिखाई देते हैं। उन्होंने
पश्चिमी लोकतांत्रिक पद्धति के माध्यम से जनता के प्रतिनिधित्व व राजनीतिक,
अधिकारों के संदर्भ में जाति आधारित प्रतिनिधित्व, अस्पृश्यों को मताधिकार,
स्वतंत्र मतदान संघ जैसे अनेक विषयों की चर्चा की। लेकिन यह करते समय भारतीय
हिंदू समाज की विशिष्ट रचना व समाज की वास्तविक स्थिति भी स्पष्ट की।
डॉ. अंबेडकर का परिचय राजर्षि शाहू महाराज से
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इसी वर्ष निकटस्थ मित्र दत्तोबा पवार के माध्यम से डॉ. अंबेडकर का परिचय
राजर्षि शाहू महाराज से हुआ। कोल्हापूर के शाहू महाराज ने युवा अंबेडकर को
देखते ही कहा, यह व्यक्ति कुछ अलग ही है। इसका उल्लेख श्री दादासाहब मल्हारराव
शिर्के ने राजर्षि शाहू गौरव ग्रंथ में लिखे अपने लेख में किया है। उसमें वे
लिखते हैं- हरिजन समाज के एक बालक के अमेरिका से एम.ए, पी.एच.डी. करके भारत
लौटने की खबर समाचार पत्र में पढ़कर महाराज आश्चर्यचकित हुए। इस
आंग्लविद्याविभूषित व्यक्ति से मिलने की वे आतुरता से प्रतीक्षा करने लगे।
उन्हें जानकारी मिली कि इस युवक का नाम डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर है और वह परल
विभाग में रहता है। उन्होंने इस युवक को ढूँढने के लिए अपने विश्वस्त व्यक्ति
भेजे, पर उन्हें अंबेडकर का पता नहीं मिल सका। महाराज चार सहकारियों को साथ ले
कार से परल के लिए रवाना हुए। उन्हें पता चला कि परल में 'सीमेन्ट' नामक
बिल्डिंग में उनका निवास है। वे वहाँ पहुँचे और अंबेडकर के बारे मे पूछताछ की।
दूसरी मंजिल पर रहने वाले अंबेडकर को उनके आने की सूचना दी गई। बाबासाहब
दौड़ते हुए उनसे मिलने आए। महाराज को नमस्कार कर अत्याधिक नम्रतापूर्वक
बाबासाहब ने पूछा- 'आपकी क्या आज्ञा है? महाराज कार से नीचे उतरे और बाबासाहब
को बड़ी आत्मीयतापूर्वक गले लगाया। उन्होंने कहा- 'अब मेरी चिंता दूर हुई।
दलितों को नेता मिल गया।' अंबेडकर के नेत्रों से आँसू बहने लगे। गद्गद अंत:करण
से वे साचने लगे-'मुझे मिलने के लिए स्वयं सीमेण्ट बिल्डिंग तक आने वाले
छत्रपति महाराज का हृदय कितना विशाल है। मैं उनके लिए क्या करूँ। महाराज ने
उन्हें बोलने का अवसर न देते हुए अपने साथ कार में बैठाया और मुंबई के अपने
निवास स्थान पर ले गए।'
भा.कृ. केलकर ने लिखा है कि तरुण डॉ अंबेडकर के दलित नेतृत्व का मिला यह
आशीर्वाद भारत के सामाजिक इतिहास की सुनहरी स्मृति मानी जानी चाहिए।
इस भेंट के विषय में धनंजय कीर द्वारा किया गया वर्णन कुछ अलग है। लेकिन यह
उल्लेख उन्होंने भी किया है कि शाहू महाराज स्वयं घर ढूँढ़ते हुए डॉ. अंबेडकर
से मिलने गए। इसका पहले उल्लेख किया है कि वे महाराष्ट्र में अस्पृश्योद्धार
के लिए आस्थापूर्वक कार्य करने वाले रियासतदार थे। उनकी रियासत के मानगाँव में
ही अस्पृश्यों की पहली परिषद् का आयोजन हुआ था। उस समय अस्पृश्यों के वास्तविक
प्रतिनिधि व नेता के रूप में बाबासाहब के नेतृत्व पर शाहू महाराज ने मुहर
लगायी। उन्होंने यह कहते हुए बाबासाहब का गौरव किया कि 'मेरे राज्य के
बहिष्कृत प्रजाजनों! मैं इस बात के लिए आपका अभिनंदन करता हूँ कि आपने अपना
वास्तविक प्रतिनिधि खोज लिया है। मुझे विश्वास है कि वे आपका उद्धार करेंगे।
वे विद्वानों के भूषण हैं। आर्य समाज, बुद्ध समाज अथवा ईसाई समाज ने उन्हें
अपने आंदोलन में लिया होता, परंतु वे आपके उद्धार के लिए उनकी तरफ नहीं गए।
इसके लिए आपको उनका आभार मानना चाहिए। मैं भी मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि
एक दिन वे सारे हिंदुस्तान के नेता होंगे।" मई 1920 में राजर्षि शाहू महाराज
की अध्यक्षता में नागपुर में अखिल भारतीय बहिष्कृत समाज की परिषद् संपन्न हुई
थी। उस समय भी महाराज का बाबासाहब में नेतृत्व के गुण दिखाई दिए।
समाचार पत्र प्रारंभ करने के लिए शाह महाराज से मिली प्रेरणा व आर्थिक सहायता
के कारण बाबासाहब का पहला पाक्षिक 'मूकनायक' 31 जनवरी 1920 को शुरू हुआ।
संपादक के नाते पाण्डुरंग नंदराम भटकर का नाम था, फिर भी पाक्षिक की पहचान
बाबा साहब द्वारा शुरू किए गए आंदोलन के मुख पत्र के रूप में ही हुई।
अस्पृश्यता निवारण का कार्य कितना कठिन था व उस समय के समाज तथा नेतृत्व की
मानसिकता कितनी विचित्र थी, यहाँ उसका उल्लेख करना अनिवार्य है। दो वर्ष पूर्व
मुंबई में हुई अस्पृश्यता निवारण परिषद् में लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक रूप
से घोषणा की थी कि 'यदि स्वयं भगवान अस्पृश्यता मानने लगे, तो मैं उसे भगवान
नहीं मानूँगा।' लेकिन तिलक जी के रहते हुए भी उनके समाचार पत्र 'केसरी' ने
'मूकनायक' का विज्ञापन छापने से इन्कार कर दिया। यद्यपि 'मूकनायक' उसके लिए
आवश्यक भुगतान करने के लिए तैयार था।
हम हिंदू समाज के अविभाज्य अंग हैं
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अस्पृश्यों के मानवीय, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों का अहसास निर्माण होने और
उसके लिए प्रबोधन, संगठन तथा आवश्यकता पड़ने पर संघर्ष करने की तैयारी होने के
बावजूद प्रारंभ के अनेक वर्षों तक बाबासाहब की भूमिका यही रही कि हम हिंदू
समाज के अविभाज्य अंग हैं; क्योंकि उनकी धारणा थी कि अस्पृश्यता का प्रश्न
संपूर्ण हिंदू समाज का प्रश्न है व इसके लिए उच्चवर्ण तथा अस्पृश्य दोनों को
कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए। इसी कारण अपना संस्थागत जीवन प्रारंभ
करते समय 20 जुलाई 1924 को उन्होंने जिस 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना
की, उसकी रचना में तथाकथित उच्चवर्गीय समाज के लोगों को भी उचित स्थान दिया।
सर चिमनलाल शीतलवाड इस संस्था के अध्यक्ष थे। मेयर निस्सिम, रूस्तमजी जिनवाला,
जी. के. नरीमन, डॉ. वि. पा. चौहान, रेंग्लर र.पु. पराञ्जपे, बा.खं. गरे जैसे
सामाजिक नेता सभा के उपाध्यक्ष थे। स्वयं अंबेडकर सभा के कार्यकारी अध्यक्ष
थे। उस अवसर पर बोलते हुए बाबासाहब ने कहा- 'हम वरिष्ठ वर्ग से ऐसी प्रार्थना
करते हैं कि वे अपना सर्वस्व राजनीति में न लगाते हुए बहिष्कृतों की उन्नति
जैसे सामाजिक कार्य को सहकार्य करना आवश्यक है। अब यह सिद्ध हो चुका है कि
पहले राजकीय, बाद में सामाजिक की मीमांसा नादानी की है। सामाजिक प्रश्न इतने
महत्त्व का है कि उसे एक तरफ रखने पर भी वह सामने आ खड़ा होता है। सामाजिक व
राजनीतिक प्रश्नों के बीच का भेद और खाई पाटने के लिए देश में हो रहे सामाजिक
अन्याय को दूर करना महत्त्व का काम है और वह प्रत्येक भारतीय जन को अपना
पवित्र कर्तव्य मानकर करना होगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है।
अस्पृश्य समाज अखिल हिंदुस्तान की जनसंख्या के छठवें भाग के बराबर है। जब देश
की जनसंख्या का इतना बड़ा भाग हीन-दीन पंगुवत् पड़ा है, तब तक देश की अवस्था
ऐसी दीन-हीन स्थिति में रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं।'
इस धारणा के अनुसार बाबासाहब ने पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी की स्थापना कर
सिद्धार्थ महाविद्यालय प्रारंभ करने का निश्चय किया। उसके संस्थापक सदस्यों
में एस.सी. जोशी, मो.वा. दोंदे, राजाराम भोले, दौलतराम जाधव, सी. क. बोले,
हिरजीभाई पटेल, बैरिस्टर समर्थ, तथा बी.जी. राव को रखा। उस समय उन्होंने अपने
अनुयायियों को उच्चवर्णों के सहयोग की आवश्यकता के महत्त्व को समझाया। बाद में
भी श्रम मन्त्रालय को पुनर्गठित करने की बात आई, तब उन्होंने उसकी जिम्मेदारी
बड़े विश्वास के साथ श्री एस.सी. जोशी को सौंपी। बाबा साहब के जीवन में श्री
चित्रे का स्थान सुप्रसिद्ध रहा। उन्हें यह बताने में कभी संकोच नहीं हुआ कि
उनके कई व्यक्तिगत मित्र ब्राह्मण हैं। 14 जनवरी, 1946 को शोलापुर में दिए
अपने भाषण में डॉ. वि.वि. मुले का उल्लेख बड़े ही भावनापूर्ण शब्दों में करते
हुए उन्होंने कहा- डॉ. मुले के सहकार्य के कारण ही 20 वर्ष पूर्व मैंने
सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया।'
मिलिंद महाविद्यालय के प्राध्यापक ठकार ने एक बार उनसे पूछा- 'बाबासाहब! आप
ब्राह्मणों के विरुद्ध क्यों हैं? बाबा साहब ने उत्तर दिया- 'My boy, had I
been against Brahmins and Hindus, you would not have been here. मेरी संस्था
के शिक्षक बहुधा ब्राह्मण ही है। मेरा विरोध ब्राह्मण जाति से नहीं है,
ब्राह्मण्य से है।' (परिशिष्ट 2)
जात-पाँत तोड़क मंडल के संस्थापक भाई परमानंद, गोकुलचंद नारंग, जमनादास मेहता,
डॉ. मुंजे, डॉ. खरे, समतानंद गद्रे, ल.ब. भोपटकर, भागोजी कीर, अप्पा कासार,
स्वातंत्र्यवीर सावरकर व हिंदू महासभा के कई अन्य नेताओं से उनके आत्मीय संबंध
थे।
अस्पृश्यता निवारण यह राष्ट्रीय कार्य है
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अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिंदू समाज को एकात्म व समर्थ बनाने का कार्य है,
इसलिए यह राष्ट्रीय कार्य है। इस भूमिका के कारण ही उन्होंने 1935 तक के
सार्वजनिक जीवन के सारे उपक्रम-प्रबोधन-संगठन, जहाँ जरूरी हुआ, वहाँ
शांतिपूर्ण विधायी संघर्ष के माध्यम से चलाए। इसके पीछे की मूल भावना यही थी
कि अस्पृश्य वर्ग हिंदू समाज का अविभाज्य अंग है, इसलिए सामाजिक न्याय की
दृष्टि से समान नागरिकता, मनुष्य के रूप में जीवन जीने का सामान्य अधिकार
मिलना ही चाहिए। प्रारंभ में 'मूकनायक' बाद में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' ने
केवल अस्पृश्यों के ही नहीं, उच्चवर्णों के प्रबोधन का कार्य भी किया।
'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की रचना सर्वसमावेशक की भूमिका से मान्यवरों का
पदाधिकारियों में समावेश करने का उल्लेख ऊपर किया ही है। महाड के धर्मयुद्ध के
'चवदार ताल' के पहले व दूसरे पर्व के बारे में शोधकर्ताओं ने विस्तृत जानकारी
देकर मार्मिक चर्चा की है। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि 'चवदार ताल' का
पानी पीने का कार्यक्रम हो जाने के पश्चात् 20 मार्च 1927 को बिखरे हुए दलितों
में से अनेक के सिर उच्चवर्णों की लाठियों से फूटे। उस समय सौ अच्छे लाठीबाज
अंबेडकर की रक्षा कर रहे थे। वे उच्चवर्णों पर प्रत्याघात करने के लिए
बाबासाहब की आज्ञा का इंतजार कर रहे थे। अपने असंख्य अनुयायी, अनेक निर्दोष
लोगों की रक्तरंजित व घायल अवस्था देखकर भी उन्होंने अपने मन को शांत बनाए रखा
व प्रत्याघात करने से रोका। गीता का उद्धरण देकर वे सत्याग्रह की निष्ठा का
दावा करते थे। वह सत्याग्रही निष्ठा उनके व्यक्तित्व में भरपूर थी, यह स्पष्ट
है।
दूसरी बात यह कि सर्वसमावेशक भूमिका लेने पर भी उन्हें इस नहीं बात की जरा भी
सम्भावना नहीं दिखी कि ब्राह्मण व ब्राह्मणेतर वर्ग का हृदयपरिवर्तन होगा और
वे सामाजिक न्याय की भावना से स्वतः अपने विशेषाधिकार छोड़कर अस्पृश्यों को
समान अधिकार देंगे। महाड सत्याग्रह के दूसरे पर्व में दिसंबर अंत में हुए महाड
परिषद् के अध्यक्ष के नाते बोलते हुए उन्होंने ब्राह्मणों की तुलना जापान के
सरंजामदार सामुराई वर्ग से की और कहा कि समुराई वर्ग में जो राष्ट्र प्रेम था,
वह ब्राह्मण वर्ग में नहीं है। उन्होंने समानता के आधार पर राष्ट्रीय एकता
स्थापित करने के लिए जो स्वार्थत्याग किया, वैसा त्याग हमारे ब्राह्मण वर्ग
द्वारा किए जाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती.......और ब्राह्मणेतर वर्ग
ब्राह्मणों के समान होने के स्थान पर अस्पृश्यों के मुकाबले वह अपने विशिष्ट
अधिकार कायम रखने के प्रति अधिक चिन्तित दिखाई देता है।'
ऐसी स्थिति में उक्त दोनों वर्गों का उपयोग न्याय व मानवीयता के अधिकार मिलने
में न देखकर सत्याग्रह के मार्ग से विधायी संघर्ष कर अपने अधिकार प्राप्त करने
के लिए बाबासाहब ने सत्याग्रह का माग अपनाया। ऐसी बात नहीं थी कि 'चवदार ताल'
का पानी न मिलने के कारण अस्पृश्य वर्ग प्यासा था अथवा उसका कण्ठ सूख रहा था,
परंतु हिंदू समाज का अविभाज्य घटक, एक हिंदूधर्मी घटक होने के कारण सार्वजनिक
जलस्रोत से पानी पीने का स्वाभाविक समानाधिकार सिद्ध करने के लिए वह सत्याग्रह
था। इसलिए बाबासाहब ने उस सत्याग्रह को अस्पृश्यता नष्ट करने के लिए किए गए
धर्मयुद्ध का पहला कदम कहा।
महाड सत्याग्रह
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महाड सत्याग्रह के दूसरे पर्व की तैयारी हो रही थी कि अमरावती के कार्यकर्ताओं
ने अंबादेवी के मंदिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह चलाया। उस निमित्त हुई
परिषद् के लिए डॉ. अंबेडकर को अध्यक्ष चुना गया। बाबासाहब अपने आंदोलन के
सहकारी देवराव नाइक, सी.ना. शिवतरकर, रा.दा.कांबली प्रधान आदि नेताओं के साथ
अमरावती पहुँचे। इंद्रभुवन नाट्यगृह में परिषद् प्रारंभ हुई। बैरिस्टर तिडके,
डॉ. पंजाब राव देशमुख, चौबल वकील, गवइ एम.एल.सी. केशव राव देशमुख, डॉ.
पटवर्द्धन जैसे नेता भी उपस्थित थे। प्रारंभ में पंजाब राव देशमुख का भाषण
हुआ। उसके पश्चात् बाबासाहब का विद्वत्तापूर्ण पर मुँहतोड़ भाषण हुआ।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह प्रश्न अत्यंत महत्त्व का है। हिंदुत्व पर जितना
स्पृश्यों का अधिकार है, उतना ही अस्पृश्यों का भी है। हिंदुत्व की प्रतिष्ठा
जितनी वसिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रिय, हर्ष जैसे वैश्य, तुकाराम
जैसे शूद्र ने की, उतनी ही बाल्मिीकि, चोखामेला, व रोहिदास जैसे अस्पृश्यों ने
भी की है। हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया
है। व्याध-गीता के अस्पृश्य द्रष्टा से लेकर खर्डा की लड़ाई के सिदनाक जैसे
अस्पृश्यों ने हिंदुत्व के संरक्षण के लिए अपना सिर हथेली पर रखा। उनकी संख्या
कम नहीं है। जिस हिंदुत्व को स्पृश्य व अस्पृश्यों ने मिलकर बढ़ाया और उस पर
संकट आने पर अपने जीवन की परवाह न करते हुए उनकी रक्षा की। हिंदुत्व के नाम पर
खड़े किए गए मंदिर जितने स्पृश्यों के हैं, उतने ही अस्पृश्यों के भी हैं। उन
पर जितना अधिकार स्पृश्यों का है, उतना ही अस्पृश्यों की भी है। एक बार अधिकार
मान्य हो गया कि पुरानी प्रथा आडे नहीं आती। कानून की दृष्टि से भी सार्वजनिक
विषयों में व्यक्तिगत अधिकार किसी सनद से निर्माण नहीं होता, वह प्रत्येक को
जन्मतः प्राप्त होता है। मंदिर या जलस्रोतों को लेकर प्रथा का हवाला देना निरी
मूर्खता है।
विशेष बात यह है कि लोकमान्य तिलक ने सहकारी गणेश श्रीकृष्ण तथा दादा साहब
खापड़े, जो वरिष्ठ विधिमंडल के सदस्य थे और अंबा देवी मंदिर समिति के अध्यक्ष
भी थे, के साथ परिषद् का काम अंबेडकर की जय-जयकार के साथ संपन्न हुआ।
हिंदू धर्म में सुधार
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हिंदू धर्म में सुधार करने की धारणा के कारण 'चवदार ताल' के विदारक अनुभव के
बाद भी उन्होंने अस्पृश्यों को हिंदू धर्मांतर्गत मानवीयता व प्रतिष्ठा का
स्थान दिलाने के लिए अनेक प्रयत्न किए। इस दृष्टि से उच्चवर्ण समाज के लोगों
को साथ लेकर काम करने का पर किया, किंतु उनके इन प्रयासों की विस्तृत जानकारी
सामान्यतः सबकी नहीं है। उदाहरणार्थ- 1928 के मार्च महीने में परल के दामोदर
ठाकरसी हाल के 'समाज समता संघ' की ओर से हुए अंतर्जातीय सहभोज की जानकारी
कितने लोगों को है? इसी दामोदर ठाकरसी हाल में 22 मार्च 1928 को पालेय
शास्त्री के पौरोहित्य में लगभग पाँच सौ हरिजनों का उपनयन संस्कार संपन्न हुआ।
उस प्रसंग पर बाबासाहब के साथ डॉ. एम.बी. उदगावकर, जी.एन. सहस्रबुद्धे, जी.बी.
नाईक व सीताराम एन. शिवतरकर उपस्थित थे। इसे जानने का कितने लोगों ने प्रयास
किया? 25 दिसंबर 1927 को महाड में हुई परिषद् में लोकमान्य तिलक के पुत्र ने
शुभेच्छा संदेश भेजा था। परिषद् ने प्रस्ताव पारित कर सुझाव दिया था कि हिंदू
पुरोहित बनने के लिए स्पर्धात्मक परीक्षा ली जाए व उसमें उत्तीर्ण होनेवालों
को ही पुरोहित के रूप में काम करने का लाइसेन्स दिया जाए। इस परिषद् में हुए
बाबासाहब के अध्यक्षीय भाषण का इतिवृत्त दत हुए 'The Indian National Herald'
ने लिखा- 'हिंदुओं की एकता का महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए बाबासाहब ने कहा-
'If we achieve success in our movement to unite all the Hindus in a single
caste, we shall have rendered the greatest service to the Indian Nation in
general and to the Hindu community in particular.' इन सारी घटनाओं से
बाबासाहब का अखिल हिंदू दृष्टि स्पष्ट होता है।
संस्कारपूर्वक समता का प्रसार करने के लिए सितंबर 1927 में 'समाज समता संघ'
नामक संस्था की स्थापना की गई। उसके कार्यकर्ता अस्पृश्य वर्ग के पुरुषों को
यज्ञोपवीत अर्पण करते। वैदिक मंत्रों से हरिजनों के विवाह करते। इस समता संघ
ने दो-तीन साल में ही सामाजिक समता के कार्य की धूम मचा दी। इस कार्य में
महाराष्ट्र के सप्रसिद्ध नाटक व उपन्यासकार भा.वि. (मामा) बरेरकर ने भी
अस्पृश्यों को यज्ञोपवीत देने का कार्य किया।
तिलक जी के सुपुत्र श्रीधरपंत तिलक बाबासाहब के मित्र थे। 'केसरी' समाचार पत्र
के भवन में ही संघ का कार्यालय था। समता संघ की स्थापना के समय श्रीधरपंत तिलक
ने कहा- 'जाति व वर्णभेद के कारण समाज में जो असमानता उत्पन्न हुई है, उसे
नष्ट किए बिना किसी भी प्रकार की प्रगति करना सम्भव नहीं है, उसे ध्यान में
रखकर इस समाज की स्थापना की जा रही है।' इस अवसर पर डॉ. अंबेडकर ने कहा- 'तिलक
जी के भवन में खड़े होकर मुझे उनकी निंदा नहीं करनी है। राजनीतिक मामलों में
उन्होंने गजब का धैर्य दिखाया, परंतु सामाजिक प्रश्नों से अपने को बचाते रहे।
जिसे स्वराज्य प्राप्त करने की वास्तविक चाह है, यदि वह सामाजिक प्रश्नों की
ओर दुर्लक्ष्य करता है, तो कार्य-सिद्धि नहीं हो सकेगी। अंग्रेजी राज्य में जो
समानता हमें मिली है, यदि उतनी समानता मिलने की भी संभावना न हो, तो हमको
स्वराज्य के लिए प्रयत्न क्यों करना चाहिए? समता के बिना स्वतंत्रता निरर्थक
है। हमारी ऐसी मान्यता बनी है कि हिंदू धर्म को चातुर्वर्ण्यप्रणीत असमानता
मान्य है। हम मनुस्मृति व अन्य पुराणों के बिना भी हिंदू रह सकते हैं। हिंदू
समाज हमारी गिनती पशु से भी हीन श्रेणी में करता है, फिर भी मैं अपने लोगों को
धर्मांतरण करने के लिए नहीं कहता।'
श्रीधरपंत तिलक के सामाजिक विचार प्रगतिवादी थे। उनका मानना था कि 'हिंदू
संगठन का अर्थ चातुर्वर्ण्य का विध्वंस है। ब्रिटिश नौकरशाही व पुरोहिताई
क्षुद्र वृत्ति की है।' उन्होंने 1927 के गणेश उत्सव के समय 'केसरी' के
न्यासियों के विरोध के बावजूद अस्पृश्य समाज के युवक राजभोज के श्रीकृष्ण मेला
के कार्यक्रम गायकवाड़ वाड़े में आयोजित किए। यह अस्पृश्य मेला जब बाड़े में
प्रवेश कर रहा था, उस समय काफी धक्का-मुक्की की गई। श्रीधरपंत द्वारा दिखाये
गए धैर्य व उनके प्रगतिशील विचारों का अभिमान रखने वाले पुणे के अस्पृश्यों ने
एक सभा कर उनका अभिनंदन किया।
इस सभा में श्रीधरपंत का स्फूर्तिदायक भाषण हुआ। अपने सुधारवादी विचारों को
कृति देनेवाले इस कार्यकर्ता व विशाल हृदय वाले युवक का कुछ माह के भीतर ही
अपना अंत करना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण था। मृत्यु का आलिंगन करने के कुछ घंटे
पूर्व श्रीधरपंत ने अंबेडकर को पत्र लिखकर सूचित किया- 'यह पत्र आपको प्राप्त
होगा, तब तक इहलोक को राम राम कर लेने का समाचार आपको प्राप्त हो सकता है' यह
आशा प्रकट करते हुए कि महाराष्ट्र के युवक ठान लें, तो अस्पृश्यता निवारण का
प्रश्न पाँच वर्ष में ही हल हो सकता है, वे लिखते हैं- 'अपने बहिष्कृत बंधुओं
के कष्ट प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में रखने के लिए मैं आगे जा
रहा हूँ। अंबेडकर द्वारा अंगीकृत किए गए कार्य को परमेश्वर सफलता प्रदान
करेगा, इसका मुझे विश्वास है।' शोकाकुल डॉ. अंबेडकर ने कहा, 'मेरे मित्र को
अपने जीवन का ऐसा अंत नहीं करना था। अपने आंदोलन के एक आधार और निष्ठावान
कार्यकर्ता के चले जाने से बाबासाहब अत्यंत व्यथित थे। (परिशिष्ट 3)
संस्कारपूर्वक समता
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संस्कारपूर्वक समता के प्रचार के अंतर्गत बाबासाहब इस बात के लिए प्रयत्नशील
रहे कि सार्वजनिक गणेशोत्सव में अस्पृश्यों को प्रवेश मिले। 1928 में
सार्वजनिक स्थान पर अस्पश्यों का गणेश उत्सव करने को लेकर उन्होंने संघर्ष
किया। दादर के गणेश उत्सव के अध्यक्ष ने अनुज्ञा नहीं दी। अंबेडकर प्रबोधनकार
ठाकरे और कई अन्य नेता वहाँ एकत्र हुए। अंततः सनातनियों को हार माननी पड़ी।
दोपहर तीन बजे उन्होंने अनुकूलता दिखाई और विजयोत्साह के साथ अस्पृश्य हिंदुओं
ने मंडप में प्रवेश किया।
13 अक्टूबर 1929 को पुणे के पर्वती मंदिर पर सत्याग्रह हुआ। उसमें न.वि.गाडगिल
जैसे उच्चवर्ण नेताओं को भी ईंट-पत्थर खाने पड़े। सत्याग्रह प्रारंभ होते ही
मंदिर के दरबाजे सबके लिए बंद कर दिए गए।
पर्वती सत्याग्रह के समय उच्चवर्णों के अमानुषिक बर्ताव के विरोध में अनेक
स्थानों पर विरोध सभाएँ हुई। मुंबई की सभा में प्रबोधनकार ठाकरे, देवराव नाईक,
शिवतरकर, प्रधान खांडके, कांचली, कडेकर आदि नेता व कार्यकर्ता उपस्थित थे।
पुणे के मंदिर में प्रवेश के लिए हुआ सत्याग्रह, इस प्रकार का पहला सत्याग्रह
नहीं था। सावरकर ने रत्नागिरि के विट्ठल मंदिर में अस्पृश्यों को प्रवेश का
अधिकार दिलाने के लिए ऐसा ही आंदोलन किया था। कारवार के विट्ठल मंदिर, अमरावती
के अंबादेवी मंदिर, खुलना के कपिल मुनि मंदिर व काली मंदिर जैसे अनेक स्थानों
पर प्रवेश पाने के उद्देश्य से संघर्ष का उल्लेख चरित्रकारों ने किया है।
सनातनियों द्वारा पर्वती का मंदिर सबके लिए बंद कर देने के कारण पुणे का
सत्याग्रह वापस लेना पड़ा, तथापि इस मुद्दे पर फिर कभी संघर्ष करने का विचार
अंबेडकर के मन से पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ।
पर्वती सत्याग्रह में बाबासाहब का स्वयं प्रत्यक्ष सहभाग नहीं था, परंतु वहाँ
हुई अमानुषिकता पर उनकी तीव्र प्रतिक्रिया 15 व 29 नवंबर के 'बहिष्कृत भारत'
के अंक में व्यक्त हुई। उन्होंने चेतावनी भरे शब्दों में लिखा- 'आज तक
अस्पृश्यों ने शस्त्रसंन्यासयुक्त सत्याग्रह अपने जनतान्त्रिक अधिकार
प्रस्थापित करने के लिए ईंट-पत्थर की मार खाते चुप नहीं बैठेंगे। मनुष्यता
भूलकर निःशस्त्र व निरुपद्रवी सज्जनों की मार-पीट करने वाले पाशवीवृत्ति के
लोगों को मार्ग पर लाने के लिए होंने स्पष्ट किया कि प्रत्युत्तर की नीति अपना
सकते हैं।' इसी अंक में उन्होंने स्पष्ट कि कम्युनिस्टों की अत्याचारी क्रांति
का मार्ग हमें स्वीकार नहीं है। हमारा मार्ग झटपट क्रांति व अत्याचार का
प्रवर्तक नहीं है।
नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश
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नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के निमित्त स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा
प्रारंभ किए गए सत्याग्रह में वे पूरी शक्ति व समर्थन से उतरे। एक बार मिलिंद
महाविद्यालय के प्राध्यापकों से बोलते समय उन्होंने कहा- 'मैं तो नासिक के
कालाराम के दर्शन के लिए सत्याग्रह करनेवाला आदमी हूँ। आप लोगों ने मुझे राम
से दूर किया।'
नासिक के कालाराम मंदिर सत्याग्रह को वे सामाजिक समता संघर्ष के एक साधन के
रूप में देखते थे। इस सत्याग्रह के प्रारंभ में 2 मार्च 1930 को अपने
सत्याग्रही सहकारियों के सामने बोलते हुए उन्होंने कहा- अस्पृश्यता निवारण का
प्रश्न विविधांगी, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक है। ऐसा नहीं है कि
केवल मंदिर प्रवेश से वह पूरा हो जाएगा। पर यह सत्याग्रह उच्चवर्णीय हिंदू
मानस का आह्वान करने के लिए है। 'हिंदू अपने जैसे आदमियों को 'आदमी' मानने के
लिए तैयार है या नहीं, इस दृष्टि से हम उच्चवर्णीय हिंदू मानस की परीक्षा ले
रहे हैं।"
'हमें मालूम है कि मंदिर में पत्थर का भगवान् है। उसका दर्शन अथवा पूजन करने
से हमारी समस्या दूर होनेवाली नहीं है। हम तो यह देख रहे हैं कि मंदिर प्रवेश
से हिंदुओं के हृदय मंदिर में प्रवेश मिलता है क्या? डॉ. अंबेडकर का विचार था
कि मंदिर प्रवेश से अस्पृश्यों को हिंदू समाज में समानता मिलने का मार्ग
खुलेगा। पर इतने मात्र पर रूकने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने आह्वान किया कि
हिंदू समाज अविभाज्य एकात्म अंग बनने के पूर्व हिंदू धर्मशास्त्र व हिंदू समाज
की संपूर्ण पुनर्रचना करने का आग्रह अस्पृश्य समाज को करना चाहिए। सत्याग्रह
करने के पीछे उनका हेतु अस्पृश्यों को अपने अधिकारों के बारे में जाग्रत करने
व उनका उत्साह निर्माण करने का था।
यह सत्याग्रह पर्व निरंतर पाँच वर्ष तक चला। शांतिपूर्ण तरीके से सत्याग्रह
करने के बाद भी दलितों के सिर फूटे। स्वयं अंबेडकर को ईंट-पत्थर की मार खानी
पड़ी। पाँच साल तक सत्याग्रह चलाने पर भी उच्च वर्गों के हृदय को पिघलता न देख
तथा अपनी लोकशक्ति को अपव्यय देखकर बाबासाहब ने सत्याग्रह का आग्रह छोड़ने का
आदेश 3 मार्च 1934 के एक पत्र द्वारा दिया। उन्होंने लिखा कि अपना उद्देश्य
हिंदू समाज के एक अविभाज्य अंग के नाते संघर्ष करने व आंदोलन में उत्साह
निर्माण करने का था और वह साध्य हुआ है।
हिंदू समाज के एक भाग के रूप में हिंदू समाज में स्थान प्राप्त करने की उनकी
इच्छा दुर्भाग्य से उच्चवर्ण हिंदुओं की मूर्खता के कारण पूरी नहीं हो सकती
थी। उनकी इच्छा कितनी प्रबल थी, यह सत्याग्रह के पश्चात् हुई घटनाओं से प्रकट
होता है।
नासिक के कालाराम मंदिर पर हुए सत्याग्रह के पश्चात् अपने समाज बान्धवों को
धैर्य रखने की सलाह देते हुए मार्च 1935 में लिखे पत्र में बाबासाहब कहते हैं-
'नासिक के कोहिनूर समाचारपत्र में खबर छपी है कि अस्पृश्यता से दु:खी होकर 500
अस्पृश्य, मुसलमान बननेवाले हैं। सत्याग्रह का कठोर व्रत करने पर भी स्पृश्य
हिंदुओं को विरत होता न देख लोगों का धर्मांतरण की ओर प्रवृत्त होना स्वाभाविक
है। नासिक जिले के अस्पृश्य भाई-बहनों से आग्रहपूर्ण निवेदन है कि उन्हें अपने
मन की स्थिरता को कायम रखते हुए कुछ दिन और इस बात की प्रतीक्षा करनी चाहिए कि
अपने प्रयत्नों से हिंदूधर्म को उज्जवल स्वरूप प्राप्त होता है अथवा नहीं। यह
विश्वासपूर्वक कह नहीं सकता कि अपने प्रयत्नों को सफलता मिलेगी ही; क्योंकि यह
इस बात पर निर्भर है कि स्पृश्य जनता को लोकलाज व सद्धर्म की इच्छा है या
नहीं।'
दलित मुक्ति संग्राम
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कुल मिलाकर इस बात की पर्याप्त चर्चा हो चुकी है कि दलित मुक्ति संग्राम में
कालाराम मंदिर सत्याग्रह का क्या महत्त्व था। मंदिर सत्याग्रह उच्चवर्णों की
न्यायबुद्धि; कांग्रेस व हिंदू महासभा जैसे राजनीतिक दलों के उच्चवर्ण हिंदू
नेताओं की भूमिका; बाबासाहब का नेतृत्व व दलितों की प्रतिकार शक्ति; उसके साथ
ही सवर्ण हिन्द नेतृत्व व धर्माचार्यो का हिंदू समाज का प्रभाव आदि विषयों पर
प्रकाश डालनेवाला एक परिवर्तन पर्व था। य.दि. फड़के ने अपने 'अंबेडकरांची
चळवळ' पुस्तक में कहा है- 'मंदिर प्रवेश के लिए सत्याग्रह को कुछ कांग्रेसी
नेताओं ने समर्थन दिया। शाब्दिक सहानुभूमि व्यक्त की, परंतु सत्याग्रह में
प्रत्यक्ष भाग लेने की दृष्टि से देखें, तो ब्राह्मणेत्तर पक्ष से कांग्रेस
में गए मराठा जाति के सत्यशोधक नेता दिनकरराव जवलकर एकमात्र उज्जवल अपवाद थे।
अन्य राजनीतिक दल सत्याग्रह में शामिल नहीं हुए। कुछ ने तो प्रखर विरोध किया।
हमेशा ब्राह्मणों के वर्चस्व की तीव्र आलोचना करने वाले ब्राह्मणेत्तर पक्ष के
तथा सत्यशोधक आंदोलन के लोग भी सत्याग्रह को दूर से देखते रहे। सत्याग्रह के
नेताओं को इस बात की तीव्र अनुभूति हुई कि दलित मुक्ति का संघर्ष अंततः दलितों
को ही करना पड़ेगा।'
नासिक सत्याग्रह रोक देने का उद्देश्य उन्होंने 13 अक्टूबर 1935 को येवला में
हुई परिषद् में स्पष्ट कियाः 'कालाराम मंदिर का सत्याग्रह वर्षानुभव चलाने पर
भी कोई परिणाम नहीं मिल पा रहा है। अपना समय पैसा, शक्ति व्यर्थ गई। इस
सत्याग्रह से यही सिद्ध हुआ कि पत्थर दिल हिंदुओं का हृदय पसीजना असम्भव है।
अब अन्य कोई विचार करने समय आ गया है। जो धर्म अपने को समानता का दर्जा दे,
अधिकार दे और उचित व्यवहार करे, ऐसे किसी धर्म में जाने कि आवश्यकता क्या आपको
अनुभव नहीं होती?' स्वयं अपने बारे में उन्होंने कहा- 'दुर्दैव से मेरा जन्म
अस्पृश्य जाति में हुआ है। यह मेरा अपराध नहीं है; पर यह निश्चित है कि मरते
समय मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा।' इस परिषद् में धर्मांतरण करने का
प्रस्ताव पारित किया गया। रात में येवला में हुई सार्वजनिक सभा में दिए अपने
भाषण में बाबासाहब ने धर्मांतरण करने की घोषणा की। अपने भाषण के समर्थन में
स्वयं का लिखा हुआ प्रस्ताव सभा के सामने रखा।
'अस्पृश्य माना हुआ वर्ग व स्पृश्य माने गए वर्ग में समता व संगठन करने के
उद्देश्य से सामर्थ्य न होते हुए भी व्यक्ति व धन की अपरिमित हानि सहन कर
मुंबई के अस्पृश्य वर्ग ने महाड में चवदार ताल व नासिक में कालाराम मंदिर पर
सत्याग्रह किया। कालाराम मंदिर का सत्याग्रह तो छह वर्ष चला, परंतु स्पृश्य
माने गए हिंदुओं का किञ्चित भी मत परिवर्तन हुआ दिखाई नहीं दिया। इतना ही
नहीं, स्पृश्य व अस्पृश्य दोनों के लिए बनाए गए संगठन व तज्जन्य हिंदू
सामर्थ्य का इनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। उनके प्रत्यक्ष व्यवहार से भी
यही सिद्ध हुआ। इसलिए अस्पृश्य वर्ग की यह परिषद् प्रस्ताव पारित करती है कि
हिंदुओं के पैर पकड़ते रहने का कोई उपयोग न होने के कारण, अस्पृश्यों को अपनी
शक्ति इस विषय में अकारण खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः परिषद् का
विचार है कि इसके लिए किए जाने वाले सत्याग्रह अब बंद कर, स्पृश्य माने गए
वर्ग से अपने समाज को स्वतंत्र करें। हिंदुस्तान के अन्य समाजों में अपने समाज
को सम्मान व समता का स्थान प्राप्त कराने की दृष्टि से अस्पृश्य वर्ग को
एकनिष्ठा से प्रयत्न करना चाहिए।'
'अस्पृश्य समाज को नव-मनु का संदेश' नाम से इस प्रस्ताव को अगले दो वर्ष तक
डॉ. अंबेडकर के 'जनता' पत्र में पहले पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में छापा
जाता था।
पर्वतीय सत्याग्रह के पश्चात् 'बहिष्कृत भारत' में किए गए संकेत का पहले
उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने कम्युनिस्टों की सशस्त्र व झटपट क्रांति का
मार्ग स्वीकार न होने की बात कही थी। उन्होंने यह भी कहा था कि हिंदू समाज की
परंपरा के प्राचीन समतावाद से प्रचलित हिंदू समाज को समताधिष्ठित करना है।
हिंदू समाज धर्माधिष्ठित है
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हिंदू समाज धर्माधिष्ठित है, इसलिए विषमता का मूल, धर्म में है। इस विश्वास के
कारण वे धर्म छोड़ने का मन बना रहे थे। उन्होंने साइमन कमीशन से माँग की थी कि
अस्पृश्यों को हिंदुओं में समाविष्ट न कर स्वतंत्र स्थान देना चाहिए।
सन् 1930 में गोलमेज परिषद् के लिए अस्पृश्यों के प्रतिनिधि नियुक्त होने पर
उन्होंने माँग की थी कि वहाँ होने वाले कामकाज में हमें 'हिंदू प्रोटेस्टैण्ट'
अथवा 'नान कन्फर्मिस्ट हिंदू' कहा जाए। गोलमेज परिषद् की चर्चाओं में उनका
कांग्रेस के एकमेव प्रतिनिधि महात्मा गान्धी से इसी मुद्दे पर तीव्र मतभेद
हुआ।
सन् 1935 तक के बाबासाहब के जीवन के घटनाक्रम को देखने पर ध्यान में आता है कि
उनमें प्रारंभ से ही हिंदू संस्कृति व हिंदू समाज की एकात्मकता के भाव थे।
श्री चांगदेव खैरमोडे की पुस्तक की प्रस्तावना में द्वारका खैरमोड कहती है-
'बाबासाहब अपने आंदोलन के प्रारंभ अर्थात् 1924 में सामाजिक समता के लिए वह सब
कुछ करने के लिए तैयार थे, जिसस हिंदू समाज एकात्म हो सके। ये प्रयास उन्होंने
जीवनपर्यंत अव्याहत रूप से किए। हिंदू समाज के कल्याण के लिए आवश्यक एकात्मता
के विचार व उसके लिए किए गए आंदोलनों को तत्कालीन समाज उनके जीवित रहते तक समझ
ही नहीं सका।'
एक ओर तो हिंदू तत्त्वज्ञान की श्रेष्ठता और दूसरी ओर भ्रामक तथा "कालवाहय हुए
हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार हिंदू समाज के व्यवहार के विदारक अंतर ने
विवेकानंद को व्यथित किया। विवेकानंद ने कहा है कि 'संसार में अन्य कोई समाज न
होगा, जिसके पास इतना उदात्त तत्त्वज्ञान है; मगर इसके समान नीच समाज भी नहीं
मिलेगा; जो अपने ही समाज बंधुओं के साथ इतना अमानुषिक व्यवहार करता हो।' केरल
के अपने प्रवास में विवेकानंद ने कहा- 'देश का यह भाग एक पागलखाना है।'
हिंदू समाज व हिंदू धर्म के बारे में यह धारणा होने के कारण बाबासाहब ने महाड
सत्याग्रह परिषद् में हिंदूमात्र के जन्मसिद्ध अधिकार के घोषणापत्र को
प्रस्तुत कर उसे स्वीकृति दिलवायी। उस घोषणापत्र में कहा गया था- 'हिंदूमात्र
के जन्मसिद्ध अधिकार हिंदूजन की आँखों के सामने रहे; इसलिए जगन्नियंता
सर्वसाक्षी परमेश्वर को साक्षी रखकर व उसका आशीर्वाद लेकर यह सभा इस घोषणा
पत्र को सबकी जानकारी के लिए जारी कर रही है। समता का व्यक्तिगत व सामाजिक
महत्त्व है। इसलिए स्पष्ट किया है कि समता के तत्त्व को बाधा पहुँचे, ऐसे किसी
विचार या नीति को आश्रय नहीं मिलना चाहिए। इस घोषणा पत्र की कुछ अन्य बातें इस
प्रकार थीं-
'आम जनता सब प्रकार के अधिकार व सत्ता का उद्गम स्थल है। किसी भी व्यक्ति,
समुदाय अथवा वर्ण के अधिकार शेष समाज ने न दिए हों, फिर उसका आधार राजनीतिक या
धार्मिक कोई भी क्यों न हो, मान्यता के योग्य नहीं। इसकी पुष्टि के लिए
श्रुति-स्मृति-पुराण का आधार मानने को यह सभा तैयार नहीं।'
व्यक्ति को अपने जन्मसिद्ध अधिकार के अनुसार जीवन जीने की पूरी स्वतंत्रता
है
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व्यक्ति को अपने जन्मसिद्ध अधिकार के अनुसार जीवन जीने की पूरी स्वतंत्रता है।
यदि किसी प्रकार की मर्यादा डालनी भी हो, तो वह इतनी ही हो सकती हैं कि दूसरे
व्यक्ति को उसी प्रकार के जन्मसिद्ध अधिकार का उपभोग करने का अवसर मिल सके। उस
मर्यादा को लोगों को निश्चित करना चाहिए। धर्मशास्त्र अथवा अन्य किसी दूसरे
आभार वह निश्चित नहीं की जा सकती। जाति-जाति में निर्माण की गई असमानता की
व्यवस्था का यह सभा धिक्कार करती है।'
'जो बातें समाज के लिए विघातक हैं, उस पर कानूनन प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
जो कानूनन अनिवार्य न हो उसे करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए
मार्ग पर चलने, सार्वजनिक जल व देवालय के उपयोग की किसी को भी मनाही न हो। इस
सभा का मानना है कि इस प्रकार की मनाही करने वाले लोग सुव्यवस्थित समाज रचना व
कानून के दोषी हैं।'
'कानून का अर्थ किसी एक वर्ग के लिए निश्चित किए बंधन नहीं हैं। यह बंधन
निश्चित करने का अधिकार सारी प्रजा अथवा उसके प्रतिनिधियों को होना चाहिए। फिर
वह कानून संरक्षण का हो अथवा प्रशासनिक हो, सबके लिए समान रूप से लागू हों।
समाज रचना समानता की नींव पर खड़ी करने के लिए मान-सम्मान, अधिकार व व्यवसाय
के विषय में जाति बाधक न हो। भेदाभेद केवल व्यक्ति के गुण के आधार पर हो सकता
है, जन्म के आधार पर नहीं।
इस सत्याग्रह परिषद् में श्री सहस्रबुद्धे ने मनुस्मृति के दहन का प्रस्त
प्रस्तुत किया। उस प्रस्ताव के अनुसार रात 9 बजे एक अस्पृश्य बैरागी हाथ
मनुस्मृति की होली जलायी गई।
हिंदू मात्र के घोषणा पत्र के संदर्भ में भा.कृ. केलकर ने कहा- 'बाबासाहब
हिंदुत्व को नकार नहीं रहे हैं। उनका नेतृत्व केवल समाज सुधारक अथवा सामाजिक
चिंतक का नहीं है, वह हिंदू समाज में न्याय अथवा मानवीय संस्कृति का ससंगत
स्थान अधिकार पूर्वक माँगने वाले जाग्रत समाज घटकों का भी है। निर्भयता के साथ
यह कहकर कि हिंदुत्व कालातीत हो गया है, दलितों पर अन्याय करने वाला है; ये
दलितों की सामाजिक अस्मिता जाग्रत करते हैं, अपने संगठन की नींव भरते हैं।
इसलिए उनका पत्र 'बहिष्कृत भारत' केवल दलितों का ही नहीं, अपितु उच्चवर्णों की
भी आँखों में अंजन डालकर सामाजिक समता की युग प्रेरणा देने वाला वैचारिक
माध्यम था। मनुस्मृति के दहन से हलचल तो बहुत हुई, पर उसके पीछे उनका हेतु
मूर्तिभंजन करने मात्र का ही नहीं था।'
धनंजय कीर ने लिखा है- 'ब्राह्मण धर्म के प्रमुख शत्रु माने गए। भास्कर राव
जाधव को भी यह कदम अत्यंत कठोर लगा। उनके विचार से मनुस्मृति की सारी बातें
निन्दनीय नहीं थीं। वर्तमान और भविष्य काल के महान रूढ़ि भंजक के रूप में
प्रसिद्ध हुए बाबासाहब झूठे देवताओं को उनके पारंपरिक उच्च व पूज्य स्थान से
नीचे खींच रहे थे। मार्टिन लूथर के पश्चात् अहंकारी परंपरावादियों पर इतना
कठोर आघात् अन्य किसी मूर्तिभंजक ने नहीं किया। इसलिए 27 दिसंबर 1927 भारतीय
इतिहास का संस्मरणीय दिन है। इसी दिन अंबेडकर ने पुराने 'स्मृति' ग्रन्थों को
जलाकर हिंदू समाज की पुनर्रचना के लिए उपयोगी नवीन स्मृति की माँग की। इसलिए
महाड हिंदू मार्टिन लूथर का विटेनवर्ग है।'
एक स्थान पर डॉ. अंबेडकर ने कहा है- 'यदि हम धर्मांतरण के लिए आतुर होते व
अस्पृश्यता से स्वयं को अथवा केवल वर्तमान पीढ़ी को मुक्त करना होता, तो यह
काम हम पहले ही कर लेते; लेकिन हमारा प्रयास था कि हिंदू धर्म में ही रहें।
अखिल बहिष्कृत वर्ग के बारे में विचार करने के कारण हम अपने प्रयास सतत चला
रहे हैं। तथापि किसी व्यक्ति विशेष अथवा वर्ग विशेष की सहनशीलता की एक सीमा
होती ही है। क्या आप यह चाहते हैं कि आप भले ही हमें लातें मारें, मगर हम यह
कहें कि हम आपके ही धर्म में रहेंगे?
('डॉ. अंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा' से संकलित)
सामाजिक क्रांति के मार्ग पर
- डॉ. अंबेडकर : एकात्म समाज जीवन
-दत्तोपंत ठेंगड़ी
धर्म का अर्थ है- 'यतोऽम्युदयः निःश्रेयस्सिद्धि स धर्म:।' जिस कारण से
अभ्युदय या मोक्ष प्राप्त होता है, वह धर्म है। अभ्युदय का अर्थ है सांसारिक
उत्कर्ष। यह धर्म का पहला साध्य है। अस्पृश्यता के कारण अभ्युदय का मार्ग बंद
हो गया। स्वतंत्रता से रह नहीं सकते। गन्दी बस्तियों में रहना पड़ता है।
शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते। प्रतिष्ठित व्यवसाय कर नहीं सकते। तब अभ्युदय
किस प्रकार होगा? निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है; पर
वह किसने व कहाँ देखा है? धूर्त शास्त्रकारों ने लिख ही रखा है कि
त्रिवर्णियों की सेवा-चाकरी कर शूद्र व अतिशूद्रों को सद्गति मिलेगी; पर यह
मार्ग तो अस्पृश्यों की दासता का है। दासता व धर्म एक साथ रह नहीं सकते। यह
जोड़ी बन ही नहीं सकती। हमने जिस कार्य को प्रारंभ किया है, वह स्वयं के उद्धार
तक मर्यादित नहीं है, हिंदू धर्म के उद्धार के लिए है। यही वास्तविक
राष्ट्रकार्य है।
पुणे करार के पश्चात् अस्पृश्यता निवारण संघ के संदर्भ में ठक्कर बाप्पा को एक
पत्र में वे लिखते हैं- 'हिंदू समाज को समर्थ करना है। तो चातुर्वर्ण्य व
असमानता का उच्चाटन करके उसकी रचना एकवर्णत्व व समता के तत्त्व पर करनी होगी।
अस्पृश्यता निवारण का माग। समाज को समर्थ करने के मार्ग से भिन्न नहीं है। मैं
नि:संदेह कह सक हूँ कि अपना कार्य जितना स्वहित का है, उतना ही राष्ट्रहित का
भी है।
उनकी निश्चित धारणा होने के कारण कि हिंदू समाज में रहकर हिंदू समाज के
परिवर्तन व उसके लिए किया जाने वाला अस्पृश्योद्धार का कार्य अखिल हिंदू समाज
के सुधार का कार्य है; उन्होंने व श्रीनिवास ने गोलमेज परिषद् में प्रस्तुत
निवेदन में अस्पृश्य वर्ग को अवर्ण हिन्द, प्रोटेस्टैंट हिंदू अथवा नान
कन्फर्मिस्ट हिंदू मानने की माँग की थी। इसका मुख्य कारण हिंदू धर्म के
तत्त्वज्ञान समता के लिए किस प्रकार पोषक है, यह स्पष्ट करते हुए एक स्थान पर
वे कहते हैं- 'हिंदू धर्म का सिद्धांत, ईसाई व इस्लाम धर्म के सिद्धांत से कई
गुना अधिक समता का पोषक है। बड़े या छोटे का कोई भेद करना इसमें सम्भव नहीं
है। सब ईश्वर के रूप हैं। यह इस महान धर्म का ओजस् तत्व है। समानता का
साम्राज्य स्थापित करने के लिए इससे बड़ा दूसरा आधार क्या हो सकता है।'
बाबासाहब कहते हैं- 'ब्रह्म को सगुण, साकार मानना भूल है। मूलतः ऐसी कल्पना भी
नहीं है। ब्रह्म तो एकत्व का संदेश देनेवाली सैद्धांतिक संकल्पना है। वह
निर्गुण-निराकार है, सगुण-साकार रूप की बुद्ध ने निन्दा की, पर
निर्गुण-निराकार संकल्पना की प्रशंसा। इसमें अंतर्विरोध नहीं है। उनका कहना था
कि ब्रह्मवाद के तीन महावाक्य हैं। एक, वह सर्वत्र विद्यमान है। दो, इसलिए मैं
ब्रह्म ही हूँ। तीन, आप भी ब्रह्म हैं। यह सब एकजीवता अर्थात् समता व
स्वतंत्रता के तत्त्व है।
उन्होंने ऐसा भी कहा है कि ब्रह्म अनाकलनीय होगा, परंतु लोकतंत्र के अधिष्ठान
के रूप में ब्रह्मतत्त्व के समान अन्य कोई तत्त्व पोषक नहीं हो सकता।
उनका मत था कि तत्वज्ञान भले ही श्रेष्ठ है, परंतु हिंदू समाज जिस धर्मशास्त्र
के आधार पर व्यवहार कर रहा है, वह धर्मशास्त्र हिंदूसमाज की एकात्मता के लिए
बाधक है।
हिंदू राष्ट्र अतिप्राचीन काल में उदय हुए राष्ट्रों में से एक है
-
21 सितंबर 1928 को 'बहिष्कृत भारत' के अपने संपादकीय 'हिंदूचे धर्मशास्त्र'
में लिखा 'यह बात इतनी विख्यात है कि हिंदूराष्ट्र अतिप्राचीन काल में उदय हुए
राष्ट्रों में से एक है। इस तथ्य को फिर किसी को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं
है। यह भी सत्य है कि उसके साथ के ईजिप्ट, असीरिया, रोम, ग्रीस जैसे नामशेष हो
गए। परंतु हमें यह लगता है कि यह कहना आत्मश्लाघापूर्ण व विचारशून्यता का होगा
कि इतने वर्षों तक जीवित रहने के कारण हिंदुराष्ट्र बलवान है। यह निर्विवाद है
कि हिंदूराष्ट्र के यशापयश की परंपरा का कारण उसका विधान रहा है और उसका विधान
धर्मशास्त्रानुरूप है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि उसका अध:पात धर्मशास्त्र के
कारण ही हुआ है।'
उन्होंने धर्माधारित जाति-व्यवस्था की चर्चा 1916 में लिखे अपने निबंध 'Castes
in India' में की थी। उसमें वे कहते हैं- 'Endogamy is the only
characteristic of caste and when I say origin of caste I mean the origin of
the mechanism for endogamy.'
इसमें जाति भावना से पानी बंद करने का मार्मिक वर्णन हिंदू समाज-रचना के
संदर्भ में किया है। 'बहिष्कृत भारत' में वे लिखते हैं- 'इतना ही नहीं, यह
व्यवस्था एक पर दूसरी और फिर उस पर तीसरा श्रेणी बनाने वाली है।'
जाति व्यवस्था
-
जाति-व्यवस्था को विशद करते हुए डॉ. अंबेडकर हिंदू समाज का अनेक मंजिला भवन
होने की सार्थक उपमा देते हैं, जिसमें प्रत्येक जाति की अलग-अलग मंजिलें हैं।
परंतु आश्चर्य की बात यह है कि भवन कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए कोई नीचे से ऊपर
नहीं जा सकता। व्यदि अपनी मंजिल पर जन्म लेता है और वहीं मर जाता है। निचली
मंजिल का व्यक्ति कितनी भी योग्यता का हो, ऊपर नहीं जा सकता। उसी प्रकार उपरी
मंजिल के नालायक व्यक्ति को निचली मंजिल पर ढकेले जाने का किसी को अधिकार नहीं
है। इसका अर्थ यह है कि ऊँच-नीच की भावना गुणावगुण पर आधारित न होकर जन्म पर
आधारित है। (बहिष्कृत भारत-संपादकीय, पृष्ठ 40)
'अस्पृश्य मूळचे कोण' ग्रंथ में वे कहते हैं- 'अस्पृश्यता के कार्य-कारण संबंध
में मेरी उत्पत्ति नई है। उसमें निम्नलिखित सिद्धांतों का समावेश किया हुआ है-
1. अस्पृश्य व सवर्ण हिंदुओं में वंशभेद नहीं है।
2. अस्पृश्यता का उदय होने के पूर्व हिंदू व अस्पृश्यों के बीच का मूल भेद
टोलियों में संगठित हुए लोगों व वाह्य आक्रमणों से परास्त हुए लोगों के स्वरूप
का था। कालान्तर में इधर-उधर बिखरे हुए इन पराजित लोगों को अस्पृश्य माना जाने
लगा।
3. जिस प्रकार अस्पृश्यता को वंशभेद का आधार नहीं है, उसी प्रकार व्यवसाय का
आधार भी नहीं है।
4. अस्पृश्यता निर्माण होने के दो कारण हैं।
अ. ब्राह्मण बौद्धों का तिरस्कार किया करते थे, वैसा ही तिरस्कार वह द्वेष इन
पराजित लोगों का किया करते थे।
अन्य लोगों ने गोमांस भक्षण का त्याग किया, परंतु इन पराजित लोगों ने गोमांस
भक्षण चालू रखा।
5. अस्पृश्यता के उद्गम की खोज करते समय अस्पृश्य व चाण्डाल के अंतर को ध्यान
में रखना चाहिए। सनातनी हिंदू लेखकों ने चाण्डाल व अस्पृश्य शब्दों को
पर्यायवाची माना है, यह पूरी तरह गलत है। अस्पृश्य लोग चाण्डालों से अलग हैं।
6. चाण्डाल वर्ग धर्मसूत्र के काल में निर्माण हुआ। अस्पृश्य वर्ग उसके बहुत
बाद में, ईस्वी सन् 400 के लगभग निर्माण हुआ।
एकात्म समाज जीवन
एकात्म समाज जीवन के लिए बाधक बननेवाले जातिबंधन के कारण अस्पृश्यों की
दरिद्रता व दु:ख के लिए जो बातें कारणीभूत हैं, उनमें समान अवसर का अभाव सबसे
प्रमुख है। अस्पृश्यों में घर बैठी अस्पृश्य की भावना के कारण उन्हें समान
अवसर नहीं मिल पाता। उनके लिए सारे व्यवसायों के मार्ग खुले होने चाहिए। बाबा
साहब का मत था कि विषमता के विरुद्ध लोकमत तैयार करने के उद्देश्य से
स्थान-स्थान पर संस्थाएँ स्थापित कर इस लड़ाई को लड़ा जाना चाहिए। अस्पृश्य व
अस्पृश्य संवैधानिक बंधनों अथवा स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के स्थान पर
संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र का परस्पर बदल करने मात्र से वे एकात्म नहीं होंगे,
एक साथ नहीं आएंगे। केवल प्रेम का बंधन ही उन्हें साथ ला सकता है; परंतु न्याय
व समता को अंगीकार किए बिना प्रेम का प्रार्दुभाव नहीं होगा। 'जब उच्चवर्ण
हिंदुओं को उनके विचार व आचार में क्रांति करने के लिए बाध्य किया जाएगा, तभी
अस्पृश्यों का उद्धार होगा। 'जब उच्चवर्ण हिंदुओं के विचार में क्रांति होनी
ही चाहिए, तभी इस सवाल का हल निकलेगा।' अस्पृश्य वर्ग को नागरिकता के सामान्य
अधिकार दिलवाने के लिए उन्होंने अस्पृश्य समाज का आह्वान किया कि कुँए से पानी
भरने, उनके बच्चों को विद्यालय में सबके साथ बिठाने, सार्वजनिक स्थान पर
प्रवेश, बैलगाड़ी-ताँगा-नाव-मोटर जैसे वाहनों का निर्बाध उपयोग का अधिकार
प्राप्त करने के लिए मुहिम शुरू करनी चाहिए।
इस जाति भावना के विषय में उनकी सर्वाधिक चिंता का कारण यह था कि इससे
राष्ट्रीय एकात्मकता के लिए अपेक्षित समाज व संगठन को बाधा पहुँचती है। हिंदू
धर्म की भिन्न-भिन्न जातियों में पृथकता में स्वार्थरक्षण की वृत्ति इतनी अधिक
है, जैसे कि प्रत्येक अपने आप में एक राष्ट्र ही है। समाज की एकात्मता के लिए
सर्वाधिक आवश्यक बात है परस्पर आत्मीयता। प्रत्येक को लगना चाहिए कि किसी भी
सामूहिक कार्य की सफलता उसकी अपनी सफलता है और असफलता उसकी असफलता। यही भावना
व्यक्ति को राष्ट्रीय एकत्व से बाँधने के लिए कारणीभत होती है, परंतु हिंदू
समाज की जाति संस्था इसके ठीक विपरीत कार्य करती है, एक राष्ट्र होने से
वञ्चित करती है, अस्मिता निर्माण करने में बाधा डालती है।
इस दृष्टि से हिंदू धर्म में सुधार करने के लिए बाबा साहब ने निम्न योजना रखी
-
1. सारे हिंदुओं को मान्य हो, ऐसा कोई एक ग्रंथ हो। उसके अतिरिक्त जो वेद,
शास्त्र, पुराण, आदि हैं, उनको प्रामाणिक मानना छोड़ दिया जाए। उनके प्रचार पर
कानूनन प्रतिबंध लगाया जाए।
2. पुरोहिताई का काम करने की छूट किसी भी जाति के व्यक्ति को मिलनी चाहिए।
उसके लिए सरकारी स्तर पर परीक्षा ली जाए और परीक्षा उतीर्ण होने वाले को
अनुमति पत्र दिया जाए। जिसके पास सनद न हो, वह पुरोहिताई का कार्य नहीं कर
सकेगा। पुरोहित सरकारी नौकर हो। पुरोहित ब्राह्मण जाति का ही होने की बाध्यता
के कारण जातिभेद का स्वरूप बीभत्स हो गया है।
'ब्राह्मण्य' नष्ट हुए बिना जाति समाप्त नहीं होगी। वर्तमान हिंदूधर्म को इस
प्रकार के नवीन तत्त्वज्ञान का आधार चाहिए, मगर नया तत्त्वज्ञान का पुराने
शरीर में प्रवेश असम्भव है। नये तत्त्वज्ञान के लिए शरीर भी नया चाहिए।
अंबेडकर कहते हैं- 'इसी को मैं धर्मांतरण कहता हूँ। यदि यह शब्द पसंद न आता
हो, तो हिंदू धर्म का शास्त्र प्रणीत स्वरूप नष्ट होकर उसका नवजन्म होना
चाहिए।' (मराठा-28-12-1956, 'दलितांचे बाबा')
इस विचार के कारण उन्हें जहाँ-जहाँ विषमताधारक-विषमतापोषक शोषणकारी वृत्ति
दिखाई दी, ब्राह्मणेत्तर पक्ष के नेता श्री जवलकर व जेधे ने महाड सत्याग्रह के
लिए शर्त रखी थी कि सत्याग्रह में किसी ब्राह्मण का समावेश नहीं होना चाहिए।
शेषराव मोरे ने इस विषय की चर्चा करते समय कहा- बाबासाहब का कहना था कि ऐसी
शर्त रखने पर चातुर्वण्य व जातिभेद पर विश्वास रखनेवाले, परंतु अश्पृश्यता का
उच्चाटन करने की इच्छा रखने वाले लोग सत्याग्रह में भाग नहीं ले सकेंगे। इसलिए
इस शर्त को स्वीकार नहीं कर सकेंगे। 1 जुलाई 1927 के 'बहिष्कृत भारत' के
संपादकीय में लिखा- 'हमारे द्वारा आयोजित सत्याग्रह में प्रत्येक व्यक्ति
सहभागी हो सकता है। फिर वह व्यक्ति किसी भी समाज का हो।'
'हम ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं हैं.....हमारा विरोध ब्राह्मण्य से है-
इस पर जवलकर व घोरपोड़े ने बाबासाहब को उपर्युक्त उत्तर दिया। उसमें उनकी
परिवर्तित नीति का प्रतिबिंब दिखाई देता है। उन्होंने जवलकर को उत्तर देनेवाला
संपादकीय 1 जुलाई को लिखा। जिसमें कहा- 'जन्मजात ऊँच-नीच की भावना ही
ब्राह्मण्य की सही व्याख्या है। काफी अस्पृश्य, असंख्य ब्राह्मणेत्तर व अनगिनत
ब्राह्मणेत्तर, ज्ञानतः अथवा अज्ञानतः इस ब्राह्मण्य के उपासक थे। अस्पृश्यों
के उनके कंधे पर बचे हुए दोनों के बोझ की कल्पना देकर, वे उस बोझ को उतार
फेंकने का उपदेश करते। 'यदि ब्राह्मण नीचे उतरने को तैयार हो रहे हैं, तब क्या
ब्राह्मणेत्तरों को नीचे उतरने की आत्मीयता नहीं दिखानी चाहिए? बाबासाहब कहते
हैं कि हमारे ब्राह्मणेत्तर बंधुओं को इस दृष्टि से इसका जितना विचार करना
चाहिए, लगता नहीं कि उतना किया है। मेरे विचार से यह अत्यधिक दु:ख की बात है।'
दु:ख में सुख इतना ही है कि ब्राह्मणेत्तर जवलकर व जेधे महाड सत्याग्रह में
सहभागी होने को तैयार हैं। इस संपादकीय का शीर्षक ही 'दुःखात् सुख' था। उन
दोनों को बाबासाहब कहते हैं- 'हम ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं हैं........हमारा
विरोध ब्राह्मण्य से है.... इसलिए ब्राह्मण्यग्रस्त ब्राह्मणेत्तर हमें दूर का
लगता है व ब्राह्मण्यरा ब्राह्मण नजदीक का। ऐसा लगता है कि ब्राह्मण्य शब्द का
उपयोग उन्होंने 1 जुलाई, 1927 के संपादकीय से शुरू किया।
ब्राह्मण-ब्राह्मणेत्तर संबंधों की उनकी नीति 1925 के पश्चात् धीरे -धीरे बदली
हुई लगती है। 1920 में वे ब्राह्मणेत्तर व बहिष्कृत वर्ग के प्रतिस्पर्धी व
विरोधी के रूप में ब्राह्मणों की ओर देखते हैं। 1924 में मन में यह भावना होने
पर भी सबका सहयोग लेकर चलने की नीति अपनायी। बाद में क्रमानुसार व अनुभव से
ध्यान में आने लगा कि बहिष्कृत वर्ग पर अन्याय करने वाले केवल ब्राह्मण ही
नहीं हैं, ब्राह्मणेत्तर भी हैं। इस कारण इस काल में अन्याय करने की प्रवृत्ति
को ब्राह्मण्य शब्द से सम्बोधित कर वे उसकी आलोचना करने लगे। किसी एक वर्ग को
जिम्मेदार न मान कर वे उस प्रवृत्ति को जिम्मेदार मानने लगे।
ब्राह्मण-ब्राह्मणेत्तर विषय की उनकी नीति बदलने के लिए कुछ बातें कारणीभूत
रही हैं। बाबासाहब ने अनुभव किया था कि मार्च 1927 में महाड के चवदार ताल का
पानी पीने के प्रसंग में जिन स्पृश्यों ने अस्पृश्यों के साथ मारपीट की थी,
उसमें ब्राह्मणेत्तर ही अधिक थे। इस विषय में 22 अप्रैल 1927 के बहिष्कृत भारत
के संपादकीय में वे लिखते हैं- 'हिंदू धर्म पर कठिन प्रसंग आया हुआ है, परंतु
इन श्रीमान् लोगों ने जिस अनुत्तरदायिता का व्यवहार किया है, उस बारे में हमें
कहना है कि अब तक का अनुभव यह है कि इस प्रकार के दंगों में भाग लेने वाले
ब्राह्मणेत्तर ही अधिक होते हैं। महाड में यह प्रत्यक्ष देखने में आया है
उन्होंने वहाँ तो मारपीट की ही, उनके जाति भाई स्थान-स्थान पर अस्पृश्यों को
परेशान कर रहे हैं। ये लोग इतने मूर्ख हैं कि मारपीट करने और महिलाओं को
अपमानित करने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता।' यह जानकारी देते हुए वे कहते
हैं- 'असमानता का उच्चाटन कर समानता की नींव पर हिंदू समाज की रचना करने के
लिए अवतार लिए हुए ब्राह्मणेत्तर पक्ष में समाविष्ट हुई जनता के हाथ से ऐसा
नीच व्यवहार उस पक्ष के उज्जवल तत्त्वों को कलंकित करनेवाला है।'
ब्राह्मणेत्तर नेताओं ने इस बारे में कुछ भी नहीं किया। सुनने में आया है कि
ग्रामीण क्षेत्र के ब्राह्मणेत्तर लोग अस्पृश्यों के सत्याग्रह का जोरदार
विरोध करने की तैयारी में है। इस समय ब्राह्मणेत्तर नेताओं को कुलाबा जिले के
अपने जाति बान्धवों को समझाने की आवश्यकता है। ब्राह्मणेत्तर पक्ष इसकी ओर
दुर्लक्ष्य करेगा तो होने वाले अनर्थ की जिम्मेवारी का ठीकरा उनके माथे पर
फूटेगा। उनके प्रति अस्पृश्यों का मन कलुषित हुए बिना नहीं रहेगा।' अंत में वे
कहते हैं- 'महाड सत्याग्रह हो रहा होगा, उस समय ब्राह्मणेत्तर तो
ब्राह्मण्यविध्वंस होने की बात सुनकर घर बैठकर 'महात्मा फुले की जय' का नारा
लगायेंगे और उनके अनुयायी महाड में 'हरहर महादेव' के नारे लगाकर ब्राह्मणों का
संरक्षण करेंगे। महाड आनेवालों को ब्राह्मणेत्तर पक्ष का यह मजाक देखने को
मिलेगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि महाड प्रसंग के पश्चात् ब्राह्मणेत्तरों के
बारे में उनका अधिकाधिक भ्रम निवारण होने लगा।
24 सितंबर 1944 को मद्रास में 'बुद्धिवादी समाज' नामक संस्था की सभा में बोलते
हुए ब्राह्मणेत्तर पक्ष के अपकर्ष के कारणों को विशद करते हुए अंबेडकर ने कहा-
'ब्राह्मणेत्तरों के अनेक नेता दूसरे दर्जे के ब्राह्मण बन गए हैं। उन्होंने
ब्राह्मण धर्म का त्याग नहीं किया। जिस वर्ग का उन्होंने मजाक उड़ाया था, आज
वे उन्हीं के तत्त्वों से चिपके हुए हैं। ब्राह्मणेत्तर पक्ष को अच्छे नेता,
अच्छे संगठन व स्पष्ट विचारों का आवश्यकता है।'
एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा कि ब्राह्मणेत्तर आंदोलन ने ज्योतिबा के
समतावादी तत्त्वज्ञान व कार्य की प्रेरणा को कालिमा लगायी है।
अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव
-
ब्राह्मणेत्तर समाज व ब्राह्मणेत्तर पक्ष के समान ही कांग्रेस व आगे चलकर
महात्मा गांधी से भी उन्हे निराशा मिली। धीरे-धीरे यह कटुता मन में घर करती
गई।
बाबा साहब जिसमें उपस्थित रहे, कांग्रेस का ऐसा पहला व आखिरी अधिवेशन था, सन्
1918 का। सर्वप्रथम उसी अधिवेशन में अस्पृश्यता निवारण का प्रस्ताव लाया गया
था। अस्पृश्यता निवारण के विषय में कांग्रेस की भूमिका इस प्रकार की थी-
'हमलोग लोकतंत्र के समर्थक है, इसलिए इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि अपने घर
की चहारदीवारी के भीतर कैसा भी व्यवहार करें। हम यह नहीं कहेंगे कि अस्पृश्यों
को आप अपने घर में लें अथवा उसे अपने साथ भोजन करायें। इसका भी आग्रह नहीं
करेंगे। प्रत्येक को अपनी जाति व धर्म प्रिय होता है। अपनी जाति के बाहर विवाह
करें, यह भी नहीं कहेंगे। आपके धर्म में रीति-रिवाज में, किसी प्रकार का
हस्तक्षेप करने की हमारी इच्छा नहीं है। हम इतना ही चाहते हैं कि अस्पृश्यता
दूर हो।
यह स्पष्ट है कि इसके अथवा इसके जैसे प्रस्ताव इसलिए लाये गए हैं, ताकि
अस्पृश्यों का समर्थन कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौते को मिल सके।
कलकत्ता में पारित कांग्रेस के इस प्रस्ताव के तीन मास पश्चात् अस्पृश्यों की
दृष्टि से महत्त्व की एक घटना हुई। वह घटना थी 19 मार्च, 1918 को मुंबई में
अखिल भारतीय अस्पृश्यता निवारण परिषद् का आयोजन। इस परिषद् का अध्यक्ष पद
बड़ौदा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ जैसे महान व्यक्ति को दिया गया था। उस
परिषद् में विट्ठल भाई पटेल, बैरिस्टर मुकुंदराव जयकर, बाबू विपिनचंद्र पाल
जैसे नामांकित नेता उपस्थित थे। कोल्हापुर के डॉ. कुर्तकोटी, द्वारिका के
शंकराचार्य, रवीन्द्र नाथ टैगोर व महात्मा गांधी के संदेश परिषद् को प्राप्त
हुए थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष सर नारायण राव चंदावरकर ने कहा- 'यह परिषद्
हमारे देश बान्धवों की सद्विवेकबुद्धि को आहवान् करने के लिए, उनकी विचारशक्ति
और हृदय को जगाने के लिए बुलायी गई है। सारे भारतीयों से अस्पृश्यता को नष्ट
करने का निवेदन करने के निमित्त आहूत की गई है।' परिषद के अध्यक्ष बड़ौदा नरेश
ने कहा- 'अस्पृश्यता मनुष्य निर्मित है, ईश्वरनिर्मित नहीं.....हमें अपनी धर्म
में व्यावहारिक सुधार करके अस्पृश्योद्धार का प्रश्न हल करना चाहिए।'
कर्मवीर वि.रा.शिन्दे के सञ्चालकत्व में दूसरे दिन उपस्थित रह कर लोकमान्य
तिलक ने अपने प्रसिद्ध उद्गार कहे- 'यदि ईश्वर अस्पृश्यता मानने लगे, तो मैं
उसे ईश्वर नहीं मानूँगा।' परिषद् के अंतिम दिन एक प्रतिज्ञा-पत्र निकाला गया,
जिसमें इस बात की प्रतिज्ञा करनी थी कि 'वैयक्तिक जीवन में अस्पृश्यता नहीं
मानेंगे।' लेकिन विशेष यह कि लोकमान्य तिलक ने इस प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर
नहीं किए।
डॉ. अंबेडकर ने इस परिषद् में भाग नहीं लिया था, क्योंकि उच्चवर्णों द्वारा
चलाए जा रहे अस्पृश्योद्धार आंदोलन के प्रति वे सशंक रहा करते थे।
सन् 1920 के पश्चात् कांग्रेस में गांधीयुग का प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में
गांधीजी के प्रति बाबासाहब के मन में आदर की भावना थी।
एक स्थान पर बाबासाहब ने कहा है कि महात्मा गांधी से पहले ऐसा दूसरा कोई
राजनीतिज्ञ नहीं हुआ जिसने यह कहा हो कि 'तनाव व भेद मिटाने के लिए, इस देश
में चल रहे सामाजिक अन्याय को दूर करना अत्यंत महत्त्व का है और प्रत्येक
हिन्दीजन को उसे अपना पवित्र कर्तव्य मानकर करना चाहिए। गांधीजी व डॉ. अंबेडकर
में एक-दूसरे के प्रति आदर की भावना थी, साथ ही जोरदार लड़ाई भी थी। गोलमेज
परिषद व पुणे समझौता के समय दो भूमिकाओं की भिन्नता व परस्पर विरोध स्पष्ट हो
गया। प्राणिमात्र के प्रति दया के कारण उपकार करने की कर्त्ता की भूमिका को
मानने के लिए डॉ. अंबेडकर तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि मेरे उचित अधिकार
मिलने चाहिए। फिर भी वे गांधी परिवार के जमना लाल बजाज के अस्पृश्यता निवारण
कार्य की पूछताछ आस्थापूर्वक करते थे। (बहिष्कृत भारत के स्फुट लेख, पृष्ठ
222) महात्माजी ने अस्पृश्यता वर्ग की एक कन्या का पालन-पोषण अपने में अपनी
बच्ची के समान किया था, इसका उल्लेख अंबेडकर ने किया है। (तथैव) अगले कालखंड
में अनेक कारणों से हिंदू महासभा को हिंदुओं की प्रतिनिधि संस्था होने की
मान्यता नहीं मिल सकी और वह दर्जा कांग्रेस को मिला।
गांधीजी से मतभेद
-
लगभग सभी विषयों में बाबासाहब के गांधीजी से मतभेद थे। विशेषतः वर्णाधिष्ठित
समाज रचना के बारे में गांधीजी के विचारों के कारण बाबासाहब का विरोध अधिक
तीव्र हुआ। बाबासाहब इस मत के थे कि उन्हें 'प्रोटेस्टैण्ट हिंदू' कहा जाए।
उन्हें लगता था कि गांधीजी का 'हरिजन' शब्द अस्पृश्यों को आश्रित की भूमिका
देता है। गांधी जी ने हरिजन सेवक संघ की स्थापना के पीछे शुद्ध आत्मीयता नहीं
है। आत्मीयता है, पर उसके साथ ही राजनीतिक आकाँक्षा भी है। उन्हें यह भी लगता
है कि हरिजन सेवक संघ की स्थापना का उद्देश्य यह सूचित करना था कि अस्पृश्यों
का वास्तविक प्रतिनिधि मैं ही हो सकता हूँ, अन्य दूसरा कोई नहीं हो सकता।
इसलिए उन्हें लगता था कि हरिजन सेवक संघ का वास्तविक उद्देश्य 'to kill the
untouchables with kindness' का था। उनका निश्चित मत था कि गांधीजी की नीति से
मूल समस्या का निराकरण नहीं होगा। वे कहते हैं- 'इस देश में दो हजार साल से
अस्पृश्यता मानी जा रही है, इसका मुझे दु:ख है। जिस समय संसार में नानाविध
विषमता, गुलामी का प्रचलन था, उस समय अपने देश में भी विषमता थी, यह मानने के
लिए तैयार हो सकता हूँ। दो हजार वर्ष से मानी जा रही, अस्पृश्यता एकाएक समाप्त
नहीं होगी, इसके लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी संघर्ष करना होगा। मैं उस समय तक
प्रतीक्षा करने को तयार हूँ। मेरी कठिनाई इस देश के परंपरावादी अशिक्षित लोग
नहीं हैं। दो हजार वर्ष से जिस अस्पश्यता का पालन किया जा रहा है, वह भी मर
दुःख का मुख्य कारण नहीं है। मेरी मुख्य कठिनाई यह है कि अस्पृश्यता के
विरुद्ध आवाज उठानेवाला जो सुशिक्षित सुधारक है वह प्रामाणिक नहीं है। जो
सनातनी है, वह तो सनातनी है ही। उसका विचार परिवर्तन करने में पच्चीस साल लग
सकते हैं। लेकिन उसका विचार परिवर्तन करानेवाला सुशिक्षित वर्ग प्रामाणिक नहीं
है और यदि उसकी प्रामाणिकता विश्वास योग्य नहीं है, तब पचास या सौ नहीं, कितनी
वर्ष प्रतीक्षा की जाए, तब भी अस्पृश्यों को न्याय मिलने की सम्भावना नहीं
है।'
उन्हें लगता था कि इस विषय में कांग्रेस की भूमिका अप्रामाणिक व हठवादिता की
है और प्रतिनिधि संस्था के रूप में हिंदू कांग्रेस को ही मान्यता देते थे।
हिंदू महासभा की भूमिका अत्यंत गौण थी। इस वस्तुस्थिति की बाबासाहब अनदेखी
नहीं कर सकते थे। गांधीजी के बारे में और उनके द्वारा प्रतिपादित रामराज्य की
कल्पना के कारण बाबासाहब के मन में कटुता थी। व्यावहारिक रूप में रामराज्य की
संकल्पना गांधीवाद से एकरूप मानी गई है। इस कारण उनके अंतर्मन में समीकरण ऐसा
बन गया था कि गांधीवाद के विरोध का अर्थ रामराज्य का विरोध करना होगा।
गांधीवादी समाजरचना के सामाजिक व व्यक्तिगत दोषों के दर्शन, उन्हें गांधीजी के
रामराज्य व उनके आदर्श रामचंद्र होने लगे थे। व्यक्तिगत गुण-दोष की दृष्टि से
गांधी के व्यक्तिमत्व व रामचंद्र के व्यक्तिमत्व में एकरूपता का आभास करना
मानसिक साहचर्य के नियम के अनुसार था।
गांधीयुग में बाबासाहब की स्वीकार की नीति व वक्तव्यों की कटुता का मूल
हिंदुत्व के विरोध में था अथवा कांग्रेस के विरोध में, इसका विश्लेषण करना
उद्बोधक होगा। इस दृष्टि से उनकी पुस्तक 'What Congress and Gandhi have done
to the Untouchables पठनीय है।
बाबासाहब ने यह स्पष्ट किया है कि प्रचलित समाज रचना से उनका जो विरोध है,
उसका संबंध हिंदूधर्म के मूल उदात्त तत्वों से नहीं है। उनका विरोध उस आचार्य
समूह से है, जो एक ओर तो ऐसे तत्त्वों उच्चार करते हैं और दूसरी ओर समाज में
विषमता व दासता निर्माण करनेवाली व्यवस्था का समर्थन करते हैं। उसी तरह उस
कालखंड में श्रेष्ठ नेता के रूप में मान्यता प्राप्त करनेवाले महात्मा गांधी
की वर्ण संकल्पना से है।
वर्ण संकल्पना का विरोध
-
वर्ण संकल्पना के विषय में बाबासाहब ने जो आवेशपूर्ण सार्वजनिक विरोध किया,
वस्तुतः वह गांधीजी से था, हिंदुत्वनिष्ठों से नहीं था। उनका कहना था कि मूल
वर्ण संकल्पना को स्वयं गांधीजी पूरी तरह समझ नहीं सके हैं। उनके द्वारा
प्रतिपादित वर्ण संकल्पना मानवता विरोधी है। इस वाद के प्रवाह में बाबासाहब
द्वारा किया वर्ण संकल्पना का विवेचन और हिंदुत्वनिष्ठों के विचार में जरा भी
अंतर नहीं है। इस मुद्दे को स्पष्ट करने के लिए बाबासाहब द्वारा किए गए विवेचन
को यहाँ यथावत् देना उपयुक्त होगा; क्योंकि भाषान्तर करने पर उसमें कुछ
कम-अधिक होने की शिकायत की जा सकती। बाबासाहब कहते हैं- "What is the nature
of the Varna for which the Mahatma stands? Is it the Vedic
conception as commonly understood and preached by Swami Dayanand Saraswati
and his followers, the Arya Samajists? The essence of the Vedic conception
of Varna is the pursuit of ancestral calling irrespective of natural
aptitude. What is the difference between Caste and Varna as understood by
the Mahatma? I find none. As defined by the Mahatma, 'Varna' becomes merely
a different name for Caste for the simple reason that it is the same, in
essence-namely pursuit incestral calling. Far from making progress, the
Mahatma suffered retrogression. By putting this interpretation upon the
Vedic conception of Varna, he has really made ridiculous what was sublime.
While I reject the Vedic Varnavyavastha as interpreted by Swami Dayanand
and some others is a sensible and an inoffensive thing. It did not admit
birth as a determining factor in fixing the place of an individual in
society. It only recognised worth. The Mahatma's views of Varna not only
makes non-sense of the Vedic Varna, but it makes it an abominable thing.
Varna and Caste are two very different concepts. Varna is based on the
principle of each according to his worth, while caste is based on the
principle of each according to his birth. The two are as distinct as chalk
is from cheese. In fact, there is an antithesis between the two. If the
Mahatma believes, as he does, in very one following his or her ancestral
calling, then most certainly he is advocating the Caste system and that in
calling it the Varna system, he is not only guilty of terminological
inexactitude, but he is causing confusion worse confounded. I am sure that
all his confusion is due to the fact that the Mahatma has no definite and
clear conception as to what is Varna and what is caste, and as to the
necessity of either for the conservation of Hinduism......whatever may be
source of this confusion, Mahatma must be told that he is deceiving himself
and also deceiving the people by preaching caste under the name of
Varna...... He is the most influential apologist of it and therefore the
worst enemy of the Hindus......We are indeed witnesses to a great tragedy.
In the face of this tragedy all one can do is to lament and say, 'such be
the Leaders of Hindus!"
यह कहना तो नादानीपूर्ण होगा कि इन दो भूमिकाओं में से कौन-सी सही थी व कौन-सी
गलत। यह वर्गीकरण किया जा सकता है का गलत थी व कौन-सी अधिक गलत। ऐसा वर्गीकरण
भी किया जा सकता है, कौन सी सही थी और कौन-सी अधिक सही।
सिंहावलोकन करते समय यह ध्यान में आता है कि ये दोनों भूमिकाएँ समकालीनों को
परस्परविरोधी लगती हों, पर वस्तुतः परस्पर पूरक सिद्ध हुईं।
श्री श्रीपाल सबनीस कहते हैं- 'प्राणिमात्र के प्रति दया की दृष्टि से संपूर्ण
विश्व की ओर देखने की व्यापकता को ध्यान में रख कर अस्पृश्यों का उद्धार करने
की मानवतावादी भूमिका युगपुरुष महात्मा गांधी ने स्वीकार की और इसी व्यापक
मानवतावादी भूमिका से अस्पृश्यों के मन में मानवीय अधिकार के प्रति जागृति
निर्माण करने के लिए संघर्ष करने की शास्त्रीय भूमिका डॉ. अंबेडकर ने ली।
दोनों ही महापुरुष मानवता से दूर नहीं थे। एक प्राणिमात्र के प्रति दया का
उत्तराधिकार ले करुणा की वर्षा करता है, तो दूसरा दया की भीख अस्वीकार कर समता
के मंत्र के आधार पर मानवीय मूल्यों के प्रकाश कण प्रदान करता है। एक
सुधारवादी है, तो दूसरा क्रांतिवादी। महात्मा गांधी उदारमतवादी हैं, तो डॉ.
अंबेडकर निर्णायक क्रांतिवादी (उगवतीचा सूर्य, पृष्ठ 47 )...... क्रांतिवादी
भूमिका अस्पृश्यों के मन में मानवीयता के बीजारोपण करते समय अन्याय के विरुद्ध
प्रतिकार करने व विषमता के विरुद्ध संघर्ष करने की समझ उत्पन्न करती है तथा
स्पृश्यों के मन के सनातनी जालों को जला कर परंपरा के द्वार पर ठोकर मारती है।
यह इस क्रांतिवादी भूमिका का सामर्थ्य है; परंतु हृदय के कोमल मानवीय
स्पन्दनों को जगाकर मानवीयता का भावनात्मक ज्वार उठाने के लिए महात्मा गांधी
की भूमिका उपयुक्त ठहरती है। बहुसंख्य स्पृश्यों के मन में हजारों वर्ष से
समायी पक्की, सनातनी, अमानुषिक, परंपरावादी रीति को नष्ट करने की प्रक्रिया
अनेक दिशाओं से करने की आवश्यकता थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि सनातनियों के मन
को क्रांतिप्रवणता की ओर ले जाने की तैयारी करने की दृष्टि से महात्मा गांधी
का अस्पृश्यता निवारण का कार्य, कुछ प्रमाण में क्यों न हो, निश्चित ही उपयोगी
रहा। यह कहना वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ना होगा कि 'अस्पृश्यता हिंदूधर्म का
कलंक है और इसे दूर किया जाना चाहिए' की उक्ति का परिणाम बहुसंख्य स्पृश्यों
पर हुआ ही नहीं। डॉ. अंबेडकर का अस्पृश्यता निर्मूलन का स्वप्न साकार होने में
महात्मा गांधी की भूमिका काफी सहायक सिद्ध हुई। इसका श्रेय महात्मा गांधी को
देना ही पड़ेगा।
यह ठीक है कि इसकी तुलना में बाबासाहब का महत्त्व अधिक महात्मा गांधी की
आधी-अधूरी भूमिका को मान्य करना बाबासाहब को सम्भव नहीं था, इसलिए दोनों में
संघर्ष हुआ।
महापुरुषों की भूमिका का अर्थ निकालते समय निर्णायक व अंतिम सत्य की
अभिव्यक्ति का स्थान निश्चित करने पर भी मानवीय मूल्यों के संदर्भ में
महामानवों के अहसास व प्रेरणा प्रकट करनेवाले, लेकिन तुलना में कम रहे गांधीजी
की भूमिका का योगदान समाज को रहता ही है, इसका ध्यान विश्लेषकों और
अभ्यासकर्ताओं को रखना चाहिए।' (पुष्ठ 49)
समता के मार्ग में बाधक बने सारे स्मृति ग्रन्थों को कपड़े में लपेट कर रख
दो
-
गांधीजी ने भले ही यह न कहा हो कि 'मनुस्मृति को जलाओ परंतु यह तो कहा ही कि
समता के मार्ग में बाधक बने सारे स्मृति-ग्रन्थों को कपड़े में लपेट कर रख
दो।' (भजनः कुरुंदकर नरहर, पृष्ठ 62)
आगे चलकर उनकी भूमिका यह भी रही कि दलित मंत्री लिए बिना कांग्रेस को
मन्त्रिमंडल का गठन नहीं करना चाहिए। इस परिवर्तन के लिए प्रत्यक्ष अथवा
अप्रत्यक्ष रीति से डॉ. अंबेडकर का क्रांतिकारी आंदोलन प्रभावी कारण रहा है।
(उगवतीचा क्रांतिसूर्य, पृष्ठ 50)
जाने माने विचारक नरहर कुरुंदकर लिखते हैं- 'जातिव्यवस्था व वर्णव्यवस्था को
लेकर बाबासाहब व महात्मा गांधी में विवाद था, परंतु जीवन के अंतिम काल में इस
विषय में गांधीजी के विचारों में मूलगामी परिवर्तन हुआ था। यह कहना पड़ेगा कि
स्वयं को बदलने की गांधी जी की आश्चर्यकारक क्षमता का यह निदर्शक है और उतनी
मात्रा में वह अंबेडकर की बौद्धिक विजय भी है। केवल अंतर्वर्णीय ही नहीं, तो
हरिजन व सवर्ण हिंदुओं के विवाह का वे समर्थन करने लगे। इतना ही नहीं तो
जोर-जबरी अथवा अपने आप धर्मांतरण न होनेवाला हो, तो ऐसे अंतर्धर्मीय विवाह पर
भी उन्हें आपत्ति नहीं रही थी। 20 जुलाई 1946 को हरिजन सेवक संघ के एक
कार्यकर्ता द्वारा पूछे प्रश्न का उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा- 'मुझे ऐसा
लगता है कि विचार निरंतर विकसित होते रहते हैं। आगे बढ़ते समय सबको उस वेग से
बढ़ना सम्भव नहीं होता। यदि तुम्हारी लड़की अविवाहित हो और सात्विक धर्मभावना
से प्रेरित होकर तुम उसके लिए हरिजन वर ला सकते हो, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक
वधू-वर का अभिनंदन करूँगा।'
9 मई 1945 को एक समाजसेवक को लिखे अपने पत्र में वे कहते हैं- 'विवाह उसी जाति
में हो रहा हो, तो मुझसे आशीर्वाद मत माँगो। लड़की दूसरी जाति की होगी तो मैं
आशीर्वाद अवश्य दूँगा।'
ऐसे कई अन्य पत्र हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि इस विषय में गांधीजी अपनी मूल
भूमिका को छोड़कर, अंबेडकर की भूमिका पर आने लगे थे। अंबेडकर की इस विजय की ओर
अधिक ध्यान नहीं दिया गया।'
इस स्थान पर एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। रविवार, दिनांक 7
अक्टूबर, 1945 को महाराष्ट्र में एक (नवले-करपे) अंतर्जातीय विवाह हुआ। अनेक
मान्यवरों ने वर-वधू को शुभाशीर्वाद भेजे। उनमें प्रमुख थे- महात्मा गांधी,
स्वातंत्र्यवीर सावरकर, जगद्गुरु शंकराचार्य, डॉ. कुर्तकोटी, श्री क्षात्र
जगद्गुरु, श्री मा. स. गोलवलकर (श्रीगुरुजी), अमृत लाल ठक्कर, भंसाली,
किशोरीलाल मश्रूवाला, शं.वा. किर्लोस्कर इत्यादि।
डॉ. अंबेडकर, गांधीजी व प्रधानमंत्री मेक्डोनाल्ड की गोलमेज परिषद् की भूमिका,
उसमें से निर्माण हुए गांधीजी के अनशन, गांधी-अंबेडकर चर्चा व पुणे करार की
घटना सर्वविदित व बहुचर्चित है। अनेक अभ्यासकों ने उस पर काफी कुछ लिखा है।
उसमें से धनंजय कीर का विवरण प्रामाणिक माने जाने योग्य है। इसलिए उसका अधिक
विवरण देने की आवश्यकता नहीं है।
बाबासाहब ने इतना ही कहा- 'पुणे करार के समय गांधीजी ने जो प्रवृत्ति दिखाई,
यदि वही गोलमेज परिषद् के समय दिखाई होती, तो ऐसा दुर्धर प्रसंग उपस्थित ही न
होता।'
कांग्रेसियों ने मुझे देशद्रोही कहा
-
बाद में 21 मई को पुणे में भाषण करते हुए उन्होंने कहा- 'वर्तमान वाद-विवाद की
धुन्ध कुछ दिनों बाद छँट जाएगी तथा गोलमेज परिषद् का भावी इतिहासकार निर्विवाद
बुद्धि से विश्लेषण करेंगे, तब भावी पीढ़ियाँ मेरे द्वारा की गई राष्ट्रसेवा
के लिए धन्योद्गार निकाले बिना न रह सकेंगी।' मुंबई वापस लौटने पर डॉ. अंबेडकर
को मानपत्र भेंट किया गया। उस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा- 'मैं मनुष्य
हूँ। मुझसे त्रुटियाँ हो सकती हैं। पक्षपात हुआ होगा। इसके लिए क्षमा माँगता
हूँ। कांग्रेसियों ने मुझे देशद्रोही कहा। मैं इस आक्षेप की जरा भी चिंता नहीं
करता। मेरे बंधुओं की गुलामी से मुक्ति के उच्चध्येय का महात्मा कहलाये
जानेवाले व्यक्ति द्वारा प्राणपण से विरोध होना, संसार की दृष्टि से चमत्कारिक
बात है। हिंदुओं की भावी पीढ़ी यही फैसला देगी कि मैंने राष्ट्र की सेवा
जिम्मेदारी से की। (परिशिष्ट 4) और यह सत्य भी है। (डॉ. आंबेडकरांचे अंतरंग,
पृष्ठ 170)
श्री सबनीस की पुस्तक की प्रस्तावना ज्येष्ठ समाजवादी नेता श्री ना. ग. गोरे
ने लिखी है। उन्होंने कहा है- 'स्वतंत्रता के लिए किए जा रहे कांग्रेस के
विविध संघर्षों में अंबेडकर ने स्वयं व अपने शेतकरी कामगरी फेडरेशन सहित भाग
लिया होता, तो बहुत अच्छा होता। यदि ऐसा करना अंबेडकर के लिए सम्भव हुआ होता,
तो निःसंदेह सारे देशभक्त प्रसन्न हुए होते।' लेकिन यह सम्भावना व्यक्त करते
समय श्री गोरे ने कुछ बातों का विचार नहीं किया।
अंबेडकर का ध्येय भी स्वतंत्रता प्राप्ति का था
-
अंबेडकर का ध्येय भी स्वतंत्रता प्राप्ति का था। अनेक परिषदों व मञ्चों से दिए
गए अपने भाषणों में कहा भी कि दलितों को स्वयं के अधिकार प्राप्त करने का अवसर
स्वराज्य में ही मिलेगा। उन्होंने अपने अनुयायियों से बार-बार कहा कि
अंग्रेजों के राज्य में यह सम्भव नहीं है। संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण
में उन्होंने कहा कि 'कई सदियों के बाद अपने को स्वतंत्रता मिली है, उनका
रक्षण प्राणपण से करना चाहिए। अब अपने में कोई जयचंद निर्माण न हो।' परंतु
स्वराज्य प्राप्त करने के समय (Timing) को लेकर उनका विचार भिन्न था।
लोकहितवादी, आगरकर, महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे सुधारक स्वराज्याकाँक्षी थे
ही। लोकमान्य तिलक ने प्रकट रूप से कहा कि आगरकर पक्के स्वराज्यवादी थे। मतभेद
इस मुद्दे पर था कि समाज सुधार स्वराज्य के पहले अथवा बाद में। इन महानुभावों
को ऐसा लगता था कि अंग्रेजी राज्य सामाजिक विषमता पूर्णतः नष्ट हो जाए, उसके
पश्चात् अंग्रेजी राज्य हमारे रहते यहाँ से जाए। पहले स्वतंत्रता चाहने वालों
का विचार था कि अंग्रेजी राज्य तुरंत नष्ट होना चाहिए। फुले, अंबेडकर जैसे
समाज-सुधारकों को भय था कि ऐसा होने पर राजसत्ता के सूत्र उच्चवर्णियों के हाथ
में आ जाएंगे। फिर पेशवाई आएगी व पहले की तरह सामाजिक विषमता आएगी। इतना ही
नहीं, यह विषमता अधिक दृढ़ होकर बढ़ेगी।
डॉ. अंबेडकर के मन में अस्पृश्यों की दासता के लिए कारणीभूत हुई सनातन परंपरा
के विषय में नाराजगी थी और उस परंपरा के अस्तित्व से निकली राष्ट्र की
स्वतंत्रता की आस्था का तनाव था। नरहर कुरुंदकर लिखते हैं- 'अंग्रेजी राजसत्ता
के कारण समता व स्वतंत्रता का अवसर मिला था, इसलिए उपकृतता की भावना थी, परंतु
अंग्रेजों ने इस देश को गुलाम बना रखा था, इस कारण नाराजी भी है। ऐसी दोनों
बातें उनके मन में हैं। एक देशभक्त दलित के मन के ऐसे सारे दबाव 'बहिष्कृत
भारत' के संपादकीयों में व्यक्त भी हुए हैं।' (नरहर कुरुंदकर भजन, पृष्ठ 190)
श्री ना.ग. गोरे को लगता था कि उपर्युक्त भय महात्मा फुले, आगरकर, लोकहितवादी
आदि के काल में समर्थनीय था। अब समय बदल गया है। महाराष्ट्र में ब्राह्मणों का
वर्चस्व समाप्त हो गया है। इसलिए अंबेडकर को महात्मा फुले के समान ब्राह्मणों
के बारे में शंका रखने का कोई कारण नहीं था।
दलितों की दृष्टि से देखें तो श्री गोरे कहते हैं, उस तरह की पूर्ण निःशंक,
निर्भय होने की स्थिति महाराष्ट्र में नहीं है। जिस प्रकार का भय पहले
ब्राह्मण वर्ग से था अब उनका स्थान वतनदारों ने ले लिया है। महाड सत्याग्रह के
समय से यह बात प्रकर्ष से सामने आई। दोनों (दलितों व ब्राह्मणों) वतनदारों का
भय याने ऐसी स्थिति अभी भी महाराष्ट्र में है।
महाराष्ट्र के बाहर कितने ही प्रान्तों में दलितों की स्थिति भयावह है। दलितों
पर अत्याचार करने वाले वर्ग अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग हैं। आज भी उन पर
अत्याचार हो रहे हैं। कहीं ठाकुरशाही है, कहीं यादवशाही है, तो कहीं भूमिहार
हैं। बिहार में तो जातियों के अंतर्गत विकसित सेनायें हैं, जो दलितों की
सामूहिक हत्याएँ करती हैं। आए दिन इसके समाचार, समाचारपत्रों में पढ़ने को
मिलते हैं।
श्री गोरे के जीवनकाल में भी ऐसी स्थिति थी। इसलिए स्पष्ट है कि दलितों को
निर्भय होकर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने की परिस्थिति नहीं थी। ऐसा
लगता है कि श्री गोरे ने गांधीजी की भूमिका व उसके परिणामों का विचार नहीं
किया। गांधीजी की भूमिका थी कि 'अस्पृश्यों का प्रतिनिधित्व मैं ही कर सकता
हूँ, अन्य कोई नहीं।' इसके दुष्परिणाम होना भी अपरिहार्य थे।
श्री गोरे की ख्याति है कि वे किसी भी विषय का सर्वंकष व गहरा अध्ययन कर
संतुलित बुद्धि से वक्तव्य देते हैं, यही सही भी है। सम्भव है कि प्रस्तावना
शीघ्रता से तैयार करने के कारण उपर्युक्त पहलू उनकी दृष्टि में न आया हो।
इसलिए ऊपर दिया गया उनका वक्तव्य एक अपवाद माना जाना चाहिए।
गांधी जी, कांग्रेस व डॉ. अंबेडकर के परस्पर संबंधों के बारे में श्रीपाल
सबनीस द्वारा निकाले निष्कर्ष लक्षणीय हैं।
'समाज के इतिहास में किसी विशिष्ट समय में परस्पर विरोध में खड़े व्यक्ति व
उनकी भूमिका कितनी भी लोकप्रिय हुई हो, लेकिन कुछ काल बीत जाने पर, उन पर
दृष्टिपात करने पर अभ्यासकों का अनुभव यह रहा है कि उन दोनों के कार्य
आश्चर्यजनक रूप से एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी थे, परस्पर पूरक रहे। संपूर्ण
समता प्राप्त करने के दोनों महापुरुषों के प्रयास परस्पर पूरक रहे।'
हिंदुत्वनिष्ठ नेता व गांधीजी के विषय में बाबासाहब की प्रतिक्रिया भिन्न रहती
थी। निम्नलिखित उदाहरण उनके निरीक्षण की वस्तुस्थिति समझने के लिए पर्याप्त
है:
दिनांक 19 सितंबर, 1932 के Times of India में बाबासाहब लिखते हैं- "I am
unable to understand the ground of hostility of Mr. Gandhi to the communal
award. He says that the communal award has separated the Depressed Classes
from the Hindu community. On the other hand, Dr. Moonje, a much stronger
protagonist of the Hindu cause and a militant advocate of its interests,
takes a totally different view of the matter. In the speeches which he has
been delivering since his arrival from London, Dr. Moonje has been
insisting that the communal award does not create any separation between
the Depressed Classes and the Hindus. It is therefore surprising that Mr.
Gandhi, who is a nationalist and not known to be a communalist, should read
the communal award, in so far as it relates to Depressed Classes, in a
manner quite contrary to that of a communalist like Dr. Moonje."
हिंदू हित के लिए निरंतर प्रयत्नशील डॉ. मुझे जैसे नेताओं जातीय कह कर
तिरस्कार करने और महात्मा गांधी की जयजयकार करने वाले हिंदुसमाज की प्रवृत्ति
के वैषम्य का प्रतिबिंब बाबासाहल व्यंग्यात्मक वक्तव्य में दिखाई देता है।
बाबासाहब के प्रति हिंदत्वनिष्ठों की आत्मीयता समय-समय पर प्रकट हुई है।
उदाहरण के लिए 3 फरवरी 1937 के The Times of India के इस समाचार को देखें-
"Vote for Dr. Ambedkar" is the gist of a two column article over signature
of Mr. N.C. Kelkar, Democratic leader in today's Kesari.
उपर्युक्त घटनाओं से हिंदुत्वनिष्ठ, कांग्रेस व बाबासाहब के परस्पर के संबंधों
का स्वरूप ध्यान में आ सकता है। 4 अगस्त, 1945 को पुणे में उन्होंने कहा- "The
Congress has not been able to solve many vital problems such as the
communal question.- - "because its leaders refused to study politics."
डॉ, अंबेडकर की भूमिका थी कि अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिंदू समाज को एकात्म
व समर्थ बनाने का है, इसलिए यह राष्ट्र कार्य है। इस कारण जहाँ-जहाँ उन्हें
हिंदू हित को खतरा दिखाई दिया, वहाँ-वहाँ उन्होंने अपना विरोध स्पष्टरूप से
व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों के तुष्टीकरण की कांग्रेस की
नीति हिंदू हितों के विरुद्ध है, इसलिए घातक है। 1916 के लखनऊ समझौता का
उन्होंने विरोध किया था। नेहरू कमेटी ने जो योजना प्रस्तुत की थी, वह योजना
मूलतः मुसलमानों की है, नेहरू कमेटी की नहीं; ऐसा आक्षेप लगाकर उसे सप्रमाण
सिद्ध किया व नेहरू कमेटी के रिपोर्ट की निन्दा की। 18 जनवरी, 1929 को
बहिष्कृत भारत में 'नेहरू कमेटीची योजना व हिन्दस्थानाचे भवितव्य' शीर्षक के
अंतर्गत लिखे लेख में उन्होंने कहा 'जो योजना हिंदुओं के लिए हानिकारक हो, वह
किस काम की, ऐसा प्रश्न का कर बाबासाहब लिखते हैं- 'अपने देशबंधुओं से निवेदन
है कि कमेटी योजना का हमने जो विश्लेषण किया है, उसका उन्हें पूरा बार करना
चाहिए। यह विश्लेषण हमने स्वार्थान्ध होकर नहीं किया की इस कमेटी की योजना का
विरोध हमने इसलिए भी नहीं किया है कि इसमें अस्पृश्यों को पैरों तले कुचला गया
है। विरोध का कारण है उनका हिंदू विरोधी होना व हिंदुस्तान के लिए विपत्तिकारक
होना। कुछ लोग इस योजना को धोखारहित मानकर इसका समर्थन कर रहे होंगे, तो विरोध
करने वालों का मत होगा कि इसमें धोखा है। इन दोनों से हमें कुछ लेना-देना नहीं
है। लेकिन इन दोनों वर्ग से अलग तीसरा ऐसा बड़ा वर्ग है, जो कुछ भी न जानते
हुए इस योजना का समर्थन कर रहा है। इस वर्ग को समझाने के निमित्त हमारा यह
प्रयास है। इस प्रयत्न को सफलता दिलाने के लिए आत्यन्तिक स्पष्टीकरण देना
अनिवार्य हो गया है। इस लेख की स्पष्टोक्ति देखकर कुछ लोग हमें दोष देंगे।
व्यवहार में कई बार सत्य को छिपाकर रखना लाभदायक होता है, पर वहीं कुछ
प्रसंगों पर सत्य को न प्रकट करने जैसा बड़ा पाप नहीं होता। आज का प्रसंग
दूसरे प्रकार का होने के कारण इतनी स्पष्टता से बताने की आवश्यकता है। और तब,
जब सर्वत्र इस नीति का अवलंबन किया गया हो कि 'भीख में प्राप्त वस्तु चलेगी,
पर संकोच नहीं टूटना चाहिए, वहाँ किसी को तो सत्य को निर्भीकता से जनता के
सामने रखना चाहिए। हम जानते हैं कि हिंदू समाज का रोष हम पर है। ऐसे में
मुसलमानों के रोष को भी आमंत्रित कर लेना उचित नहीं है। लेकिन हमारी भावना है
कि जिसमें हमारे देश का अकल्याण है, उसमें हमारा भी अकल्याण है। इसलिए हम यह
जोखिम अपने सिर पर ले रहे हैं। लोग इसे समझेंगे और जनमत को योग्य दिशा मिलेगी,
ऐसी हमें आशा है।'
इसी समय एक महत्व की घटना हुई। गोलमेज परिषद् में स्पृश्य हिंदुओं के विरोध
में किए गए अपने भाषण का उपयोग, मुसलमानों के नेता, अपने जातीय स्वार्थ के लिए
कर लेते हैं और उच्चवर्ण हिंदुओं के प्रतिनिधि हिंदुओं की सत्य बात उचित ढंग
से करते नहीं हैं, यह देखकर मुसलमानों के संदर्भ में हिंदुओं का पक्ष न्याय्य
सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार की जानकारी देनेवाला प्रतिवेदन अंबेडकर ने
ब्रिटिश प्रधानमंत्री मेक्डोनाल्ड को गुप्तरूप से दिया। (धनंजय कीर, पृष्ठ
198)
इसी दृष्टि से हिंदुत्ववादियों व हिंदू-सभावालों को मुसलसमानी धर्मांतरण के
धोखे के संदर्भ में बाबासाहब ने आह्वान किया था कि कम से कम हिंदुओं में संगठन
करने के लिए तो अस्पृश्यता निवारण व वर्णविहीन एकात्म हिंदू समाज का प्रयत्न
करो।' इसी प्रकार इस्लामी धर्म व इस्लामी समाज की मानसिकता के संदर्भ में वे
हिंदुस्तान व हिंदू समाज के हित का विचार करते थे। बहिष्कृत भारत के लेखों के
अध्ययन से इन सब बातों का पता चलता है। इसके साथ ही सामाजिक समता, अभिसरण,
एकात्मता की दृष्टि से इस्लामी मजहब व सामाजिक मानसिकता की सीमा को बड़ी ही
स्पष्टता से बताते हैं।
इस्लामी भ्रातृत्व विश्वव्यापी भ्रातृत्व नहीं है
-
इस्लामी भ्रातृत्व के विषय में बाबासाहेब कहते हैं- 'इस्लामी भ्रातृत्व
विश्वव्यापी भ्रातृत्व नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है।
उनमें एकबंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर
है, उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक
सच्चे मुसलमान को कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप
में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मोहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान
थे, इसलिए सम्भवतः उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा जेरुसलम की भूमि में
गाड़ा जाना पसंद किया।'
एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के
कमालपाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी
मुसलमानों, मोहम्मद शौकतअली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को भी
कमालपाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे धारक हैं और भारतीय मुसलमानों
की धार्मिक दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।'
15 जुलाई, 1927 को 'बहिष्कृत भारत' में उन्होंने लिखा- 'मुसलमानी समाज में
पर्दा-प्रथा के कारण स्त्री-पुरुषों में इतनी बड़ी खाई है कि माँ को अपने
लड़के का व बहिन को अपने भाई का मुँह देखना असम्भव है। हिंदुओं की अपेक्षा
मुसलमानों के मन में महिलाओं के प्रति अत्यंत हीन भावना का वास रहता है।'
1940 में प्रकाशित अपने Thoughts on Pakistan ग्रंथ में बाबासाहब ने कहा है-
'वे हिंदुस्तान में रहते हैं, परंतु इस्लामी विचारों के वशीभूत होने के कारण
उनकी आँखे तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर लगी रहती हैं। हिंदुस्तान अपना है,
इसका उन्हें अभिमान नहीं है और यहाँ रहने वाले अपने निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के
प्रति जिन्हें बिल्कुल अपनापन नहीं है, ऐसे मुसलमान लोग मुसलमानी आक्रमण से
हिंदुस्तान की रक्षा करेंगे, ऐसा मानकर चलना खतरनाक है। हमें ऐसा ही लगता है.
..... मुसलमानों को सेना में स्थान देने के प्रश्न पर बाबासाहब पूछते हैं-
'Should these Musalmans be without and against or should be within and
against?'
अस्पृश्य समाज को मुस्लिम समाज में समता का व्यवहार व सामाजिक न्याय नहीं
मिलेगा
-
'थाट्स ऑन पाकिस्तान' ग्रंथ हिंदू मन पर यह बात अंकित करने का प्रयास करता है
कि भारत के संबंध में जिनकी निष्ठा संदेहास्पद है, वे मुसलमान हिंदुस्तान में
रहकर शत्रुत्व करते रहें तब भी चलेगा। ऐसी सेना, जिसमें मुसलमानों का वर्चस्व
न हो, देश की सुरक्षित सीमा से अच्छी है अर्थात् जैसे उनकी यह भावना थी कि
हिंदू के हित में ही देश का हित है, उसी प्रकार उनके मन में यह भावना भी थी कि
अस्पृश्य समाज को मुस्लिम समाज में समता का व्यवहार व सामाजिक न्याय नहीं
मिलेगा। इसी कारण पाकिस्तान बनने के पश्चात् उधर के दलित बंधुओं को उन्होंने
कहा कि 'मैं पाकिस्तान में फँसे हुए दलित समाज से कहना चाहता हूँ कि उन्हें जो
मिले, उस मार्ग व साधन से हिंदुस्तान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है
कि पाकिस्तान अथवा हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग
पर विश्वास रखने से दलित समाज का नाश होगा। दलित समाज में एक बुरी बात यह घर
कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिंदूसमाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण
मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोरजबर्दस्ती से
पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम धर्म की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह
आश्वासन देता हूँ कि धर्मांतरण करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था, उसी
प्रकार की बंधुत्व की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा।
हिंदुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया, तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए।
हैदराबाद के दलित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिंदुस्तान का शत्रु है, का
पक्ष लेकर अपने समाज के मुँह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।'
"The Muslims and the Muslim League, charged as they are with the passion to
make the Muslims a governing class as quickly as possible will never give
consideration to the claims of the scheduled castes. This I speak from
experience."
अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिंदू समाज को एकात्म व समर्थ करने का कार्य है व
अस्पृश्य वर्ग हिंदू समाज का एक अविभाज्य अंग है, इसलिए यह राष्ट्रकार्य है।
इस भूमिका से उन्होंने मुस्लिम मानसिकता के बारे में सवर्ण हिंदूसमाज व अपने
अस्पृश्य बंधुओं को समय-समय पर सतर्क किया।
सावरकर और अस्पृश्यता निवारण
कांग्रेस की तरह ही कुछ हिंदुत्ववादियों व हिंदू महासभा के बारे में उनके मन
में नाराजगी थी; लेकिन उसका कारण अलग था। हिंदुओं के संगठन के एक साधन के रूप
में हिंदुत्ववादी अस्पृश्यता निवारण चाहते थे। उनकी भूमिका मानवीयता के लिए
कलंक होने के कारण अस्पृश्यता नष्ट करने की नहीं थी। उनकी दृष्टि में हिंदुओं
का संगठन प्राथमिक महत्त्व का था। वैसे तो रत्नागिरि में अपनी जिलाबंदी के काल
में व उसके पश्चात् भी सावरकर द्वारा पतितपावन मंदिर की स्थापना, सहभोजन के
कार्यक्रम, विज्ञाननिष्ठा से गोवंश का संरक्षण आदि के उपक्रम बाबासाहब के
विचार व कार्य के पूरक थे। जीवन चरित्र लिखने वालों ने भी सावरकर के इस संबंध
में किए गए कार्य, डॉ. अंबेडकर के कार्य के निकट कैसे थे, इसके बारे में काफी
जानकारी दी है। उनके एक दूसरे के बारे में क्या विचार थे, उनका भी उल्लेख किया
है। उदाहरणार्थ- 23 जनवरी 1924 को सावरकर की प्रेरणा से रत्नागिरि में हिंदू
महासभा की स्थापना हुई। उसके निमित्त हुई सभा में पारित तीन प्रस्तावों में से
एक अस्पृश्यता निवारण आंदोलन चलाने के संबंध में था। श्रीपाल सबनीस कहते हैं-
'अर्थात् बाबासाहब की 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना के पहले सावरकर
अस्पृश्यता निवारण के कार्य में मनःपूर्वक शामिल हुए थे। 13 अगस्त, 1924 को
रक्षाबंधन के दिन अपने जन्मस्थान भगूर में अस्पृश्य समाज ने उनका भव्य सम्मान
किया। अस्पृश्य बहनों ने उनकी आरती उतारी। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने एक
अस्पृश्य बंधु को राखी बाँधी और बाद में सबने एक-दूसरे को राखी बाँधकर भेदभाव
दूर कर एक होने की प्रतिज्ञा की।'
4 सितंबर, 1924 को नासिक की भंगी बस्ती में हुए गणेशोत्सव में सावरकर ने कहा-
'अस्पृश्यता नष्ट हुई है, इसे मैं देख सकूँगा। मेरी मृत्यु के पश्चात् शव ले
जाने वालों में ब्राह्मणों समेत व्यापारी, धेड़, डोम भी हों। इन लोगों के
द्वारा दहन किए जाने पर ही मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।' 9 अप्रैल, 1927 को
सावरकर का पहला नाटक 'उ:शाप, रंगभूमि पर मञ्चित हुआ। इस नाटक का विषय दलित
वर्ग का उद्धार व अस्पृश्यता निवारण था।
गांधीजी-अंबेडकर का मंदिर प्रवेश को लेकर विवाद चल रहा था उसी समय रत्नागिरि
के पेठ किले में भागोजी सेठ कीर द्वारा बनवाए गए मंदिर का उद्घाटन करने के लिए
सावरकर ने अंबेडकर को आग्रहपूर्वक निमंत्रण भेजा। अंबेडकर ने इस निमंत्रण पत्र
का उत्तर देते हुए लिखा- 'पूर्व नियोजित कार्य के कारण मेरा आना सम्भव नहीं
है; पर आप समाज सुधार के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं; उस विषय में अनुकूल
अभिप्राय देने का अवसर मिल गया है। अस्पृश्यता नष्ट होने मात्र से अस्पृश्य
वर्ग हिंदू समाज का अभिन्न अंग नहीं बन पाएगा। चातुर्वण्य का उच्चाटन होना
चाहिए। यह कहते हुए मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हो रही है कि आप उन गिने-चुने
लोगों में से एक हैं, जिन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव हुई है।'
जाति-व्यवस्था समाप्त कर हिंदूसमाज को एकात्म करने का ध्येय जिस काल में डॉ.
अंबेडकर का था, उसी काल में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का भी था। सावरकर का
कार्यक्रम सौम्यतम था, पर अस्पृश्यता निवारण के कार्य को उनका समर्थन था। ये
सारी घटनाएँ स्वातंत्र्यवीर सावरकर के अस्पृश्यता निवारण के कार्य की
प्रारम्भावस्था पर प्रकाश डालनेवाली है। मगर स्वातंत्रयवीर सावरकर के उस समय
के कार्य के बारे में 'बहिष्कृत भारत' के डॉ. अंबेडकर के लेखों में गौरवपूर्ण
उल्लेख नहीं मिलता। सावरकर की भूमिका अखिल हिंदू समाज को एकात्म करने की थी।
उस निमित्त उन्हें अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता अनुभव होती थी। इसलिए उनका
मत था कि सार्वजनिक प्याऊ व मंदिर मुक्त होने चाहिए। वैसे ही सहभोज से लेकर
बेटीबंदी का व्यवहार समाप्त करने तक के सारे कार्यक्रमों को उनका समर्थन था।
इस संबंध में बाद के काल में कुछ प्रमाण में अंबेडकर ने सहानुभूति व्यक्त की,
फिर भी उसका उल्लेख 'बहिष्कृत भारत' में नहीं मिलता।
इसका कारण यह था कि अन्य कट्टर लोगों की ही तरह बाबासाहब का स्वातंत्र्यवीर
सावरकर से एक मुद्दे पर मतभेद था। सावरकर का विज्ञाननिष्ठ बुद्धिवाद, समाज को
गुलाम बनानेवाले परंपरागत अभिमान को छोड़ने को तैयार नहीं था, परंतु
प्रगतिवादियों को तो विषम परंपराओं के धिक्कार की आवश्यकता थी। सावरकर की इस
भूमिका की ऊपरी विसंगति को बताते हुए नरहर कुरुंदकर कहते हैं- 'सावरकर ईश्वर
को नहीं मानते होंगे, पर मनुस्मृति दहन की उनकी तैयारी नहीं थी।'
सावरकर को हिंदूसमाज के संगठन के लिए अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता अनुभव
होती थी
-
सावरकर को हिंदूसमाज के संगठन के लिए अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता अनुभव
होती थी। वे उसका महत्त्व समता अथवा मानवीय अधिकारों के संदर्भ में नहीं मानते
थे। उनकी दृष्टि में हिंदू संगठन व सामर्थ्य अधिक महत्त्व का था और उसके लिए
वे अस्पृश्यता को नष्ट करना चाहते थे। बाबासाहब का मत था कि जातिभेद,
अशास्त्रीय व अमानुषिक हैं, इसलिए नष्ट होने चाहिए। इसके परिणामस्वरूप
स्वाभाविकतः हिंदू संगठन हो जाएगा।
हरिजनों के सैनिकीकरण के जो प्रयत्न बाबासाहब ने चलाए थे, उस विषय में वीर
सावरकर का मत था कि 'मुझे पूरा विश्वास है कि अंबेडकर के योग्य मार्गदर्शन में
हरिजन बंधुओं के सैनिकी गुणों को नई चमक मिलेगी और उनकी लड़ाकू शक्ति का उपयोग
सांघिक शक्ति बढ़ाने में होगा।' हिंदुस्तान को एक संघर्षशील राष्ट्र बनाने के
लिए सावरकर प्रयत्नशील थे।
सावरकर ने तो महाराज्यपाल को तार भेजकर आग्रह किया था कि अंबेडकर को आपको अपने
कार्यकारी मंडल में लेना चाहिए। धनंजय कीर ने स्वातंत्रयवीर सावरकर व डॉ.
अंबेडकर की घनिष्ठता के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा है। लेकिन वस्तुस्थिति यह
है कि डॉ. अंबेडकर ने कभी भी सावरकर के बारे में 'बहिष्कृत भारत' में विशेष
कुछ नहीं लिखा।
इस संदर्भ में श्री म. माटे ने अपने निबंध 'अस्पृश्यांचे भीमपुरुष डॉ.
अंबेडकर' में कहा है- 'अस्पृश्यों की स्थिति सुधारने के लिए अंबेडकर के पहले
और अंबेडकर के जीवित रहते अनेक छोटे-बड़े स्पृश्य व्यक्तियों ने जी-तोड़ काम
किया था और वह भी सर्वथा निरपेक्ष भाव से।'
जिस प्रकार ज्योतिबा फुले, विठ्ठलराव शिन्दे, महात्मा गांधी, वीर सावरकर जैसी
बड़ी हस्तियाँ इस काम में जुटी थीं, वैसे ही उनसे कम सम्माननीय योग्यता के
कितने ही लोगों ने अपने जीवन का उत्तमोत्तम समय इस कार्य में लगाया था। परंतु
डॉ. अंबेडकर ने किसी का गौरवपूर्ण उल्लेख किया हो, ऐसा कम से कम पढ़ने में तो
नहीं आया। यदि मैं गलत हूँ, तो अपनी बात वापस लेने को तैयार हूँ; लेकिन
अंबेडकर को इन लोगों के प्रयासों की जानकारी नहीं थी अथवा उनका प्रयास जानने
की रसिकता नहीं थी, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। फिर उन्होंने इसका उल्लेख क्यों
नहीं किया? इसका एक ही कारण है। 'उनमें से कोई अपना नहीं है। उनको अपने लिए
काम करके अपने को उपकृत करना चाहिए, इसका एक सूक्ष्म अभिमान सच्चे,
कर्तृत्ववान व बुद्धिमान व्यक्ति में होता ही है।' श्री श्रीपाल सबनीस कहते
हैं कि माटे के विवेचन में तथ्यांश है।
स्वयं श्री म. माटे के अस्पृश्यता निवारण के कार्य के विषय में बाबासाहब ने जो
उल्लेखनीय किया, वह काफी कटुतापूर्ण है। 'स्वधर्मकार' ने अपना अभिप्राय दिया
था कि माटे ने अपना जीवन अस्पृश्योद्धार के लिए व्यतीत किया है। इस अभिप्राय
पर बाबासाहब का सात्विक क्रोध प्रकट हुआ था। बाबासाहब ने कहा- 'माटे ने किस
अस्पृश्य के साथ रोटी अथवा बेटी का व्यवहार दिखाया है? (बहिष्कृत भारतातील
स्फुट लेख, पृष्ठ 57)
सावरकर के कार्य के बारे में जिस प्रकार अंबेडकर ने अनुकूलता से नहीं लिखा,
उसी प्रकार अनेक हिंदू महासभा के नेता व अन्य हिंदुत्वनिष्ठों के प्रति उनके
मन में जैसा ऊपर बताया है, उस तरह की नाराजगी व कुछ रोष का भाव रहता था।
हिन्द संगठन को वे अत्यधिक महत्त्व का मानते थे। उनका कहना था कि वह सर्वाधिक
त्वरा व महत्त्व का कार्य है और हिंदू महासभा यह कार्य करती नहीं है, यह उनके
रोष का कारण था।
3 जून 1927 को 'बहिष्कृत भारत' के संपादकीय में डॉ. अंबेडकर ने हिंदू महासभा
की स्थापना कब व क्यों हुई, के विषय में लिखाः कांग्रेस में जिस प्रकार पुराने
लोगों की सामाजिक परिषद् है, उसी प्रकार नयों की हिंदू महासभा है। प्रारंभ की
हिंदू महासभा की ओर से हुए अपेक्षाभंग के बारे में वे कहते हैं 'उसके माध्यम
से हिंदू समाज के पुनर्गठन का कार्य यशस्वी रीति से पूरा होगा, ऐसा सबको लगता
था। किंतु.......सामाजिक सुधार का ऐसा कोई कार्य अथवा उपक्रम इस संस्था के
द्वारा नहीं हुआ। उसकी कार्य क्षमता शब्दों के पार की नहीं है। यह आरोप हमारा
नहीं है। स्वामी श्रद्धानंद, हिंदू महासभा से त्यागपत्र देने का यही कारण
बताते हैं।
हिंदू महासभा के उन नेताओं को वे ढोंगी कहते थे, जिनका कहना था कि चातर्वण्य व
जातिवाद पर हमला किए बिना हम संपूर्ण समाज का संगठन करेंगे। उन लोगों का मानना
था कि हिंदू संगठन का कार्य पूर्ण हो जाने पर शुद्धि-आंदोलन की आवश्यकता ही
नहीं रहेगी। लेकिन यदि हिंदुओं का पूर्ण संगठन नहीं हुआ तो शुद्धि-आंदोलन
यशस्वी नहीं होगा। बाबासाहब का कहना था कि जब तक जाति है, जब तक हिंदू धर्म,
मिशनरी धर्म नहीं हो सकेगा और तब 'शुद्धि' (परधर्म में गए हिंदुओं को वापस
हिंदू धर्म में लाना) की बात करना ही गलत है, वह निष्फल रहेगी। जब तक जाति
कायम है, तब तक 'संगठन' असंभव है और जब तक 'संगठन' नहीं होगा, तब तक हिंदू
समाज दुर्बल व अवनत रहेगा। सद्हेतु से किए जा रहे 'संगठन' के प्रयत्न को
जातिव्यवस्था ने असम्भव बना दिया है। हिंदुओं में हिंदुत्व की भावना नहीं है,
याद है तो केवल जाति की।'
बाबासाहब ने कहा है- 'मुझे शुद्धि आंदोलन के नेताओं के प्रति सहानुभूति होने
पर भी यह कहने की आवश्यकता महसूस होती है कि उन्होंने आंदोलन के सामने उपस्थित
होने वाली समस्याओं का विचार नहीं किया है। केवल संख्या बढ़ने से समाज
सामर्थ्यशाली नहीं होता, वह तो सामाजिक एकता होने से होता है।'
बाबासाहब ने दुःख प्रकट करते हुए कहा कि 'शुद्धि किए हुए लोगों को हिंदू समाज
की किस जाति में लेना चाहिए, यह मुख्य समस्या होने के कारण अन्य धर्मियों को
हिंदू समाज में लेना कठिन हो जाने से हिंदू धर्म का मिशनरी स्वरूष नष्ट हो गया
है।'
उन लोगों का कहना है कि हिंदू समाज प्रबल बनना चाहिए; परंतु वह समाज एकरस होने
पर ही हो सकेगा, केवल संख्या बढ़ाने से नहीं। हिंदुओं को चातुर्वर्ण्य नष्ट कर
समाज को एकवर्णीय करना चाहिए।
शेषराव मोरे ने हिंदू महासभा की शुद्धिकरण मुहिम की हिंदू संगठनों के संदर्भ
में विस्तृत चर्चा की है। वे कहते हैं, श्री सोहन लाल शास्त्री को बाबासाहब ने
कहा- 'किसी आर्यसमाजी नेता को मेरे पास लाओ। मैं उसे समझाऊँगा कि अब ऐसा समय आ
गया है कि मुसलमानों को हिंदुओं में समाविष्ट कर लेना चाहिए। वे भी मुक्त
होंगे और हिंदुओं की संख्या भी बढ़ेगी।' इसलिए इस बात को ठीक ढंग से समझ लेना
चाहिए कि बाबासाहब शुद्धि का विरोध क्यों करते थे? शेषराव मोरे ने यह चर्चा
हिंदू संगठन 'ध्येय' व 'नीति' इन दो दृष्टियों से की है।
हिन्द संगठनों की ओर दो भूमिकाओं से देखा जा सकता है, एक दृष्टि से हिंदू
संगठन साध्य होता है। जब ऐसा कहा जाता है कि एकवर्णी और समताधिष्ठित समाज
अर्थात् हिंदू संगठन तब वह ध्येय की दृष्टि से होता है। इस दृष्टिकोण से हिंदू
संगठन, बाबासाहब की ध्येयसष्टि के आदर्श समाज का भाग बनता है। दूसरी दृष्टि से
देखने पर हिंदू संगठन सामाजिक विचारशैली का भाग है। कम से कम हिंदू संगठन के
लिए ही सुधार करो का आह्वान अथवा युक्तिवाद किया जाता है, तब हिंदू संगठन
सामाजिक विचारशैली का भाग बनता है। एकवर्णी समाज निर्माण करने के लिए उपयोग
में आनेवाला एक साधन बनता है। तब समाज सुधार के उद्देश्य के निमित्त हिंदू
संगठन के आह्वान का नीति के रूप में उपयोग किया जाता है। आपने सुधार नहीं किए,
तो आपका समाज जीवनसंग्राम में टिक नहीं सकेगा, आप नष्ट हो जाओगे। समाज के
अन्यायग्रस्त लोग आपको छोड़ जाएंगे। धर्मांतरण कर आपके शत्रु के साथ जा
मिलेंगे- इसलिए आप सुधार करो व संगठित हो, इस प्रकार का युक्तिवाद नीति का ही
भाग होता है। बाबासाहब के विचार से स्पष्ट होता है कि उन्हें उपर्युक्त दोनों
दृष्टियों से युक्त हिंदू संगठन की अभिलाषा थी।'
1935 में धर्मांतरण की घोषणा-
1935 में धर्मांतरण की घोषणा करने के पश्चात् उनसे इस बात की अपेक्षा नहीं की
जा सकती थी कि वे हिंदू संगठन का समर्थन करेंगे। ऐसी अपेक्षा उनकी धर्मांतरण
की घोषणा से विसंगत होती। तथापि हिंदू समाज की दृष्टि से हिंदू संगठन का
महत्त्व मूलभूत व अबाधित है, वह धर्मांतरण की घोषणा पर अवलंबित नहीं है। हिंदू
संगठन के संदर्भ में धर्मांतरण की घोषणा का अर्थ इतना ही था कि अब बाबासाहब
हिंदू संगठन का समर्थन नहीं करेंगे। लेकिन यदि अन्य कोई बाबासाहब को अभिप्रेत
हिंदू संगठन का समर्थन करता, तो बाबासाहब उसका विरोध करते क्या? जब तक
प्रत्यक्ष धर्मांतरण की बात नहीं थी। तब तक अस्पृश्य वर्ग हिंदू समाज का एक
अंग रहने और ऐसे हिंदू संगठन में उसका हित समाविष्ट होने के कारण बाबासाहब का
विरोध होना असम्भव था और प्रत्यक्ष धर्मांतरण के पश्चात् अपने से अलग समाज को
संगठन करने का न्यायतः अधिकार होने के कारण उसका विरोध करने का प्रश्न ही नहीं
था। इसलिए धर्मांतरण की घोषणा के बाद 1936 में लिखे भाषण-प्रबंध 'जातिसंस्थेचे
उच्चाटन' में उन्होंने हिंदू संगठन का कार्य, उत्तम कार्य होने की प्रशस्ति
की।
उन्हें लगता था कि मुसलमानों से संरक्षण के लिए ही क्यों न हो, पर हिंदुओं को
अपना संगठन करना चाहिए। शेषराव मोरे कहते हैं कि आज के प्रगतिवादियों की तरह
उन्हें नहीं लगता था कि ऐसा करना धर्मांधता, जातीयता अथवा अराष्ट्रीयता है।
उनकी तो शिकायत ही यही थी कि ऐसा संगठन हिंदू महासभा करती नहीं है। उनकी
शिकायत में गाम्भीर्य था, पीड़ा थी, उसमें उपहास अथवा राजनीति नहीं थी।
'यदि कोई एक जाति अवनत रहती है, तो उसका नुकसान अन्य जातियों को हुए बिना नहीं
रहेगा। समाज एक नौका है। नौका में बैठकर प्रवास करने वाला कोई यात्री अपने
विनाशक स्वभाव के कारण यदि अन्य यात्रियों को नुकसान पहुंचाने के लिए नौका में
छेद करता है, तो सारे यात्रियों के साथ आगे या पीछे उसे भी जल समाधि लेनी
पड़ती है। उसी प्रकार एक जाति का नुकसान करने पर, नुकसान करने वाली जाति का भी
अप्रत्यक्ष नुकसान होता है। इसलिए स्वहित साधनों के लिए समाचार पत्रों को
अन्यों का नुकसान करने की पढतमूर्खता नहीं करनी चाहिए।'
उन्होंने हिंदू समाज को गंभीर संकेत दिया कि 'एक दिन ऐसा आएगा, जिस दिन
हिंदुओं को अपने समाज या जाति का कुछ भी बचा पाना सम्भव नहीं होगा और वह दिन
दूर नहीं है।'
धर्मांतरण की घोषणा के पश्चात् भी हिंदुओं को संगठन करने का उपदेश देते हुए
बाबासाहब ने कहा- 'अंततः सारी जिम्मेदारी आपकी ही कैं। मैंने धर्मांतरण करने
का निश्चय किया है। मैं आपके धर्म से बाहर हो गया हूँ, फिर भी आपकी सारी
हलचलों का सक्रिय सहानुभूति से निरीक्षण करता रहूँगा व आवश्यकता पड़ने पर
सहायता भी करता रहूँगा' निम्नलिखित विचारों के साथ उन्होंने अपना भाषण पूर्ण
किया।
हिंदू संगठन राष्ट्रीय कार्य है
-
'हिंदू संगठन राष्ट्रीय कार्य है। वह स्वराज्य से भी अधिक महत्त्व का है।
स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया, तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी
स्वराज्य के हिंदुओं का संरक्षण करना अधिक महत्त्व का है। हिंदुओं में
सामर्थ्य नहीं होगा, तो स्वराज्य का रूपान्तर दासता में हो जाएगा। तब मेरी राम
राम। आपको यश प्राप्त हो इस निमित्त मेरी शुभेच्छा।'
यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मांतरण का निश्चय कर लेने के बाद भी बाबासाहब ने
हिंदुओं को एकरस होने, दोष निर्मूलन करके अंतर्गत सामर्थ्य बढ़ाने, हिंदू
संगठन करने, संरक्षण के लिए सामर्थ्य बढ़ाने का हितोपदेश किया। शेषराव मोरे
कहते हैं कि प्रगतिवादियों को यह समझ लेना चाहिए कि धर्मांतरण के बाद भी
उन्होंने कहा है कि हिंदू संगठन राष्ट्रीय कार्य है।
अस्पृश्यता निवारण व एकात्म हिंदू समाज निर्माण करने के कार्य में
हिंदुत्वनिष्ठ व हिंदू महासभा के नेताओं से सहायता मिलने की सम्भावना न देख
बाबासाहब निराश हो गए थे।
गोलमेज सम्मेलन के संदर्भ में लंदन गई संयुक्त समिति की अनौपचारिक परिषद् की
जो जानकारी धनंजय कीर ने दी है, उसके अनुसार उस बैठक में डॉ. अंबेडकर ने कहा-
'निराशाजनक स्थिति में होने के कारण मैंने स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र की माँग की।
स्पृश्य हिंदुओं के अमानुषिक व्यवहार के कारण मुझे घोर निराशा हुई। हिंदुओं ने
अपनी समाजपद्धति समान करने के लिए प्रयत्न किए, तो उस कार्य में अस्पृश्य वर्ग
मनोभाव से सहायता करेगा।'
बाबासाहब और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
-
बाबासाहब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पूरी जानकारी थी। सन् 1935
में पुणे में लगे महाराष्ट्र के पहले संघ शिक्षा वर्ग को देखने वे गए थे। उस
समय उनकी भेंट पूजनीय डॉ. हेडगेवार से भी हुई थी। वे अपने व्यवसाय के निमित्त
दापोली गए थे, तब वहाँ की संघशाखा पर गए और खुलेपन से स्वयंसेवकों से चर्चा
की। महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात् सरकार ने द्वेषवश संघ पर प्रतिबंध
लगाया था, उसे उठाने के लिए बाबासाहब, सरदार पटेल व श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने
प्रयत्न किए थे। जुलाई 1949 में संघ पर लगा प्रतिबंध हटने के बाद उनके द्वारा
किए गए प्रयासों के लिए उनका आभार मानने के निमित्त सितंबर 1949 में श्री
गुरुजी उनसे दिल्ली में मिले थे।
पुणे में लगे संघ शिक्षा वर्ग में योजनानुसार शाम के कार्यक्रम में बाबासाहब
आए। डॉ. हेडगेवार भी वहाँ थे। लगभग सवा पाँच सौ पूर्ण गणवेषधारी स्वयंसेवक संघ
स्थान पर थे। बाबासाहब ने डॉ. हेडगेवार से पूछा- 'इनमें अस्पृश्य कितने हैं?
डॉ. हेडगेवार ने कहा- 'चलो, घूम कर देखते हैं।' बाबासाहब बोले- 'इनमें
अस्पृश्य तो कोई दिख नहीं रहा।' डॉ. हेडगेवार ने कहा- 'आप पूछ लें।' बाबासाहब
ने पूछा- आप में से जो अस्पृश्य हों, वे एक कदम आगे आ जाएं।' उस पंक्ति में से
एक भी स्वयंसेवक आगे नहीं आया। बाबासाहब ने कहा- 'ये देखिए।' इस पर डॉ.
हेडगेवार ने कहा- 'हमारे यहाँ यह बताया ही नहीं जाता कि आप अस्पृश्य हैं। आप
अपनी अभिप्रेत जाति का नाम लेकर उनसे पूछ।' तब बाबासाहब ने स्वयंसेवकों से
प्रश्न किया- 'इस वर्ग में कोई हरिजन, मांग, चमार हो, तो एक कदम आगे आए।' ऐसा
कहने पर कई स्वयंसेवकों ने कदम आगे बढ़ाया। उनकी संख्या सौ से ऊपर थी।
मिलिंद महाविद्यालय के प्राध्यापक ठकार से उनकी नियुक्ति के समय बाबासाहब ने
पूछा- 'इसके पूर्व आप क्या काम करते थे?' ठकार ने बताया- 'मैं नासिक के एक
महाविद्यालय में प्राध्यापक था।' यह पूछने पर कि फिर वह छोड़ा क्यों, ठकार ने
बताया- 'संघ के सत्याग्रह में भाग लेने के कारण मेरी नौकरी गई।' यह सुनकर
बाबासाहब ने ठकार की पीठ थपथपायी और कहा- 'शाबाश! तुम्हारा चुनाव कर मैंने ठीक
ही किया।'
1953 के जून माह में मा. मोरोपंत पिंगले, बालसाहब साठे व प्राध्यापक ठकार
औरंगाबाद में बाबासाहब से मिले थे। उस समय उन्होंने संघ के बारे में विस्तृत
जानकारी (शाखा) कितनी हैं, उपस्थिति कितनी रहती है पूछी। जानकारी प्राप्त कर
बाबासाहब ने मोरोपंत से कहा- मैं आपके संघ शिक्षा वर्ग में गया था। उस समय
आपकी जो शक्ति थी, वह इतने वर्षों में तीव्र गति से बढ़ी हुई दिखती नहीं।
प्रगति का वेग कम है। मेरा समाज इतने वर्षों तक प्रतीक्षा नहीं कर सकेगा।'
हिंदू संगठन की दृष्टि से संघ का महत्त्व वे जानते थे। वे यह बात समझ रहे थे
कि वर्ण संकल्पना के विषय में अनेक हिंदुत्ववादियों की तरह ही संघ की धारणा भी
बाबासाहब के विचारों से मेल खानेवाले ही है, परंतु उन्हें दुख इस बात का था कि
जो हिंदुत्वनिष्ठ नेता बाबासाहब के अनुकूल थे, उनका सनातनी समूह पर पर्याप्त
प्रभाव नहीं था और जिनका प्रभाव सनातनी समाज पर था, उनकी भूमिका बाबासाहब के
अनुकूल नहीं थी। ऐसे नेताओं के विचार-परिवर्तन का उनका प्रयत्न असफल रहा था।
आगे चलकर श्री गुरुजी के प्रयत्नों से उडुपी में सारे धर्माचार्यों का सम्मेलन
हुआ। 12 दिसंबर 1969 को उक्त सम्मेलन के अंतर्गत विश्व हिंदू परिषद् की विद्वत
सभा में सारे धर्माचार्यों ने घोषणा की कि 'अस्पृश्यता धर्मसम्मत नहीं है।' 'न
हिंदू पतितो भवेत्।' हिन्दव: सहोदरा सर्वे' का स्पष्ट निर्णय दिया। यह देखने
के लिए यदि बाबासाहब जीवित होते, तो निश्चित ही उन्हें प्रसन्नता हुई होती।
धर्मांतरण करने के कुछ दिन पूर्व
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धर्मांतरण करने के कुछ दिन पूर्व मैंने उनसे पूछा था- 'इतिहास काल में कुछ
अत्याचार हुए हैं, यह ठीक है। हम कुछ तरुण लोग, जो कुछ गुण-दोष होंगे, उनका
प्रायश्चित करके समाज की रचना नये प्रकार से करने का प्रयत्न कर रहे हैं- यह
आपकी जानकारी में हैं क्या? 'You mean RSS?' उन्हें मालूम था कि मैं संघ का
प्रचारक हूँ। उन्होंने कहा- 'Do you think I have not given thought to this
matter?' मैंने कहा- 'आपके विषय में हम यह कैसे कह सकते हैं? आपने सब बातों का
विचार किया है।'
फिर उन्होंने पूछा- 'संघ की स्थापना कब हुई? कितने वर्ष हो गए?' मैंने बताया-
'1925 में संघ की स्थापना हुई। अब 27-28 वर्ष हो गए हैं।' उन्होंने कहा- 'मुझे
मालूम है। लेकिन एक बात बताओ? तुम लोगों की संख्या कितनी है?' मैंने उत्तर
दिया- 'मैं बता नहीं सकता।' वे बोले- 'प्रेस कान्फ्रेन्स जैसे जवाव मत दो।'
'मुझे सचमुच मालूम नहीं है' मैंने फिर से कहा। 'ऐसा मान लेते हैं कि आप लोगों
की संख्या 27-28 लाख होगी। इतने लोगों को एकत्र करने के लिए तुमको 27-28 वर्ष
लगे?' इस हिसाब से सारे समाज को एकत्र करने में कितने वर्ष लगेंगे?' मैं कुछ
बोलना चाहता था। तभी उन्होंने कहा- 'तुम कुछ कहो मत। मुझे मालूम है कि
अंकगणितीय व रेखागणितीय विकास एक समान नहीं होता। लेकिन एक मेढक कितना भी
फूले, तो भी बैल नहीं हो सकेगा। इसमें बहुत वर्ष लगेंगे। क्या तब तक परिस्थिति
प्रतीक्षा करेगी? मैं क्या चुपचाप बैठा रहूँगा। मेरे सामने सवाल यह है कि मरने
के पूर्व मुझ समाज न को कोई निश्चित दिशा देनी है; क्योंकि यह समाज अब तक
पीड़ित, शोषित रहा है। उसमें जो नवजागृति आ रही है, उसमें एक आवेश होना
स्वाभाविक है; और इस प्रकार का जो समाज होता के वह कम्युनिज्म का भक्ष्य बन
जाता है। It is cannon fodder for ommunism. (कम्युनिज्म का बम-गोला बनता है)
मैं नहीं चाहता कि शेड्यूल्ड कास्ट समाज कम्युनिज्म का आहार बने। इस कारण
राष्ट्र की दष्टि से यह जरूरी है कि उसे कोई न कोई दिशा देनी चाहिए। तुम संघ
वाले राष्ट्र की दृष्टि से प्रयत्न कर रहे हो। किंतु एक बात ध्यान में रखो
Between Scheduled Castes and Communism, Ambedkar is the barrier और Between
Caste Hindus and Communism Golwalkar (क्योंकि वे ब्राह्मण हैं) is the
barrier.' उन्होंने कहा- 'क्यों, ठीक है कि नहीं? इसलिए मरने के पूर्व यदि
उन्हें दिशा न दे सका तो कम्युनिज्म की ओर जानेवाला एक बड़ा वर्ग तैयार हो
जाएगा। उन्हें फिर से अपने राष्ट्र प्रवाह में शामिल करना तुम लोगों को जमेगा
नहीं; क्योंकि आप लोग जो कह रहे हैं, वह सही है या गलत, उचित है या अनुचित यह
प्रश्न ही नहीं है तुम उच्चवर्णीय कह रहे हो, इसलिए मेरा समाज आपकी बात सुनेगा
ही नहीं। इस कारण मरने के पूर्व मुझे यह व्यवस्था करनी है।'
हिंदू धर्म में सुधार व हिंदूसमाज की एकात्मता बनाए रखने के सारे प्रयत्न करने
पर भी हिंदूधर्मीय ब्राह्मण व ब्राह्मणेत्तर उच्च वर्ण, गांधीजी व कांग्रेस,
हिंदू महासभा व अन्य हिंदुत्ववादी तथा इसी प्रकार अन्य सवर्ण सुधारवादियों के
बारे में भ्रम-निवारण का भाव निर्माण करने वाला अनुभव बाबासाहब को 1935 तक
उनके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक कार्यो में आता रहा, इसलिए मजबूर होकर 1935
में उन्हें धर्मांतरण करने की घोषणा करनी पड़ी, यह बात उपर्युक्त घटनाक्रम से
ध्यान में आती है।
यद्यपि धर्मांतरण की घोषणा
1935 में की, परंतु प्रत्यक्ष धर्मांतरण 1956 में-
यद्यपि धर्मांतरण की घोषणा 1935 में की, परंतु प्रत्यक्ष धर्मांतरण 1956 में
अपने जीवन के उतार काल में किया, यह बात रेखांकित करने वाली है। इस 20-21 वर्ष
की कालावधि में उनके क्रांति कार्य के अनेक पहलू उजागर होते गए; लेकिन इन सब
विविधांगी कार्यों से भारत के उज्जवल भविष्य में अस्पृश्य समाज को
सम्मानपूर्वक योगदान के लिए समान अवसर दिलाने का प्रयास था। फिर वह कार्य
राजनीतिक क्षेत्र का हो, उनका आर्थिक चिंतन व उपक्रम हो अथवा संविधान-निर्मिति
का विराट कार्य हो। यह भी सही है कि 1935 में उनके द्वारा की गई धर्मांतरण की
घोषणा के कारण हिंदू समाज के पुनर्गठन के क्रांति कार्य में एक निर्णायक मोड़
आया। इसलिए 1935 बाबा साहब के जीवन के नये पर्व की शुरूआत है और इसी रूप में
इसे ध्यान में रखना होगा।
('डॉ. अंबेडकर और सामाजिक
क्रांति की यात्रा
' से संकलित)
सोपान - 2
(कुछ प्रमुख बिंदु)
v शताब्दियों की गुलामी के फलस्वरूप हममें कुछ विकृतियाँ ऊँच-नीच भेद, आर्थिक
विषमता, जातिवाद आदि उत्पन्न हुए हो सकते हैं, परंतु इसे अपना हथियार बनाकर
कोई विदेशी हमारे स्वत्वों का अपहरण करना चाहेंगे तो हम उसे सहन नहीं करेंगे।
हम उनकी यह आकाँक्षा मिट्टी में मिला देंगे। यह हमारा घरेलू मामला है, इसलिए
हम इससे आपस में निबटेंगे।
v ज्योतिबा के सामाजिक कार्य की प्रेरणा आत्मिक बुद्धि में से निर्माण हुई थी
तो डॉ. अंबेडकर आत्मानुभूति में से कार्य करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। आत्मिक
बुद्धि कितनी भी संवेदनशील व व्यापक हो, तब भी अस्पृश्यता की प्रत्यक्ष दाहकता
का केवल अनुमान ही किया जा सकता है, उसकी अनुभूति नहीं की जा सकती। दासता के
बारे में बुद्धि से प्राप्त लिंकन के अनुभव और मार्टिन लूथर किंग को प्राप्त
वर्ण विद्वेष की प्रत्यक्ष अनुभूति में अंतर तो रहेगा ही।
v 'यदि तिलक जैसे किसी व्यक्ति ने बहिष्कृत समाज में जन्म लिया होता और
ब्रिटिश सत्ता के कारण हुए परिवर्तन के कारण उसे उच्च शिक्षा प्राप्त हुई
होती, तो उसने 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है' की गर्जना करने के स्थान
पर निश्चय ही 'अस्पृश्यता नष्टमूल करना मेरा कर्तव्य है' कहा होता।
v उन्होंने लाला लाजपत राय से कहा- 'आप स्पृश्य हिंदू, इन अस्पृश्यों को गुलाम
रखकर स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन इसी कारण अस्पृश्य आपके आंदोलन
में शामिल नहीं हो सकेंगे। इससे स्पष्ट है कि मनाही के पीछे सामाजिक कारण भी
था।
v अपने स्वयं के उद्धार का विचार होता तो उन्होंने अकेले ही धर्मांतरण कर झंझट
से मुक्ति पायी होती। उसका उद्देश्य तो संपूर्ण समाज को अस्पृश्यता के जाल से
मुक्त कराने व हिंदू समाज को एकात्म बनाने का था।
v 'अपनी विद्वता का भरोसा, उस विषय का सार्थक अहंकार और अस्पृश्योद्धार के
ईश्वरीय कार्य में अपना सर्वस्व विसर्जित करने की वृत्ति व कृति के कारण
अंबेडकर, सावरकर व सुभाषचंद्र जैसे अखिल भारतीय नेताओं की मालिका में अलग
पहचान रखते हैं।'
v यदि हिंदुस्तान व हिंदूधर्म में अनेक पंथ, जाति तथा ऊँच नीच के भेद का पाखंड
खड़ा न किया गया होता, तो 'सारे हिंदू एक हैं' की भावना से सब लोग एकता व
प्रेम से रहते, तब हिंदू धर्म व हिंदुस्तान की ओर टेढ़ी नजरों से देखने का कोई
साहस करता क्या? यदि हिंदू धर्म को जीवित रखना है, हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र
करना है तो देश के उन एक तिहाई लोगों को शिक्षित करना होगा, जिन्हें अस्पृश्य
माना जाता है और इसे करने का उन्होंने दृढ निश्चय किया।'
v 'Educate, Organise, Agitate' इस त्रिसूत्र में पहला स्थान शिक्षा को है।
उनकी सीख 'पढ़ो और पढ़ाओ' की थी। विद्या, प्रज्ञा, करुणा, शील व मित्रता के
पंचतत्व के आधार पर प्रत्येक को अपने चरित्र की भावना से जोड़ दो और सुशील
होने के लिए नि:स्वार्थ, न्यायप्रेमी, व व्यापक मनोवृत्ति आत्मसात् करनी
चाहिए। वे सुशील को शिक्षा से अधिक महत्व देते थे।
v 'इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा का महत्व है, लेकिन शिक्षा के साथ ही
मनुष्य का शील भी सुधारना चाहिए। शील के बिना शिक्षा का मूल्य शून्य है। ज्ञान
तलवार की धार जैसा है। तलवार का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग उसको पकड़ने वाले के
शील पर अवलंबित है।
v बाबासाहब कहते हैं - 'शिक्षा दुधारी शस्त्र है, इसलिए उसे चलाना खतरे भरा
रहता है। चारित्र्यहीन व विनयहीन सुशिक्षित व्यक्ति पशु से अधिक खतरनाक होता
है। सुशिक्षित व्यक्ति की शिक्षा गरीब जनता के हित-विरोधी प्रवृत्ति देखकर
मुझे दुःख होता है।
v 'अस्पृश्य, बलि दिए जानेवाले पशु के समान मेष राशि के नहीं हैं। इतिहास इस
बात का गवाह है कि उनके पूर्वजों की राशि सिंह थी। ऐसा न होता, तो नागेवाडी के
महजूर सेटी बिन नागनाक हरिजनों में इतना तेज कहाँ से आता।
v बाबासाहब ने जीवन के मर्म को स्पष्ट किया व आह्वान किया कि आवश्यकता पड़ने
पर बलिदान देने की तैयारी रखनी चाहिए। उन्होंने कहा - 'जीवित रहने मात्र में
पुरुषार्थ नहीं है। काकबलि खाकर कौए वर्षों तक जीवित रहते हैं, मगर कोई नहीं
कहेगा कि उनके जीवित रहने में पुरुषार्थ है। मौत से भय या रोना किसलिए? नाशवान
देह को शाश्वत वस्तु प्राप्त करने में खर्च करना चाहिए।
v महाभारत में वीरपत्नी विदुला ने अपने पुत्र को उपदेश दिया था कि 'सड़ते हुए
सौ वर्ष जीने की अपेक्षा कुछ समय के पराक्रमी जीवन की ज्योति जलाकर मृत्यु
प्राप्त करना श्रेयस्कर है। अब समय आ गया है कि अस्पृश्य माता अपने पुत्र को
उसी भाँति उपदेश दें। असिधारा व्रत नहीं, केवल जेल जाने की तैयारी चाहिए।'
v अस्पृश्य वर्ग को संदेश देते कि निरंतर कार्य करें, अग्निदिव्य करें। वह
व्यक्ति धन्य है, जिन्हें इस बात की अनुभूति होती है कि जिस समाज में अपना
जन्म हुआ है, उसके प्रति अपना कुछ कर्तव्य है।
v गैरीबाल्डी ने अपने अनुयायियों से कहा था- 'I do not promise you ease, I do
not promise you comfort. But I do promise you these: hardship, weariness,
and suffering and with them, I promise you victory.'
v दूसरे महायुद्ध के प्रारंभ में इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बनने के पश्चात
चर्चिल ने भी अपने समाज से कहा था कि प्रधानमंत्री के रूप में मैं आपको रक्त,
पसीना और आँसुओं के अतिरिक्त अन्य कुछ देने का आश्वासन नहीं दे सकता।
v अनेक कार्यकर्ता क्रियाशील तो हैं ही नहीं, वे स्वार्थी भी हैं; पर इसका यह
मतलब नहीं कि राजनीतिक आंदोलन चलाने वाले आप व मेरे जैसे लोग राजनीति से
निवृत्त हो जाएं। विपरीत स्थिति को अनुकूल बनाना ही नेता होने की असली कसौटी
है। मैंने जब कार्य प्रारंभ किया, तब इससे भी अधिक प्रतिकूलता थी।' बाबासाहब
इस प्रकार कार्यकर्ता का नैतिक बल बनाए रखने का प्रयत्न करते।
v 'हम हार गए हैं, पर दु:खी होने का कोई कारण नहीं है। मुझे पराजय का दु:ख कभी
नहीं सताता। इस कठिन प्रसंग को सहन करना आसान बात नहीं। पराजय पचाने का धैर्य
हमें है। अपने दल का कार्य पहले की अपेक्षा अधिक गति व उत्साह से करना चाहिए।'
v विरोधियों को प्रचंड मत मिलने के कारण अपनी हार हुई है। हमें अपनी बिखरी हुई
शक्ति एकत्र करनी चाहिए। पराजित सेना का सेनापति यही किया करता है।'
v 'मनुष्य को सदैव स्वार्थ-सिद्धि ही नहीं, थोड़ा बहुत परमार्थ भी करना चाहिए।
इसी कारण मैं यह कार्य कर रहा हूँ। इसकी प्रेरणा मुझे धर्म ने ही दी है।
v पेट भर गया कि सब कुछ हो गया, उचित नहीं है। पेट तो वेश्या भी भर लेती है।
घर-परिवार सँभालें, पर समाज कार्य में सहयोग भी दें।"
v उनकी भूमिका यह थी कि अस्पृश्यों का प्रतिनिधित्व अस्पृश्य ही कर सकता है।
सुधारवादी उच्चवर्ग यह काम नहीं कर सकेगा। उनका यह विचार व मानसिकता बहुतांश
में जीवन के अंत तक बनी रही।
v नम्रतापूर्वक बाबासाहब ने पूछा- 'आपकी क्या आज्ञा है? महाराज कार से नीचे
उतरे और बाबासाहब को बड़ी आत्मीयतापूर्वक गले लगाया। उन्होंने कहा- 'अब मेरी
चिंता दूर हुई। दलितों को नेता मिल गया।' अंबेडकर के नेत्रों से आँसू बहने
लगे। गद्गद अंत:करण से वे सोचने लगे- 'मुझे मिलने के लिए स्वयं सीमेण्ट
बिल्डिंग तक आने वाले छत्रपति महाराज का हृदय कितना विशाल है।
v तरुण डॉ अंबेडकर के दलित नेतृत्व का मिला यह आशीर्वाद भारत के सामाजिक
इतिहास की सुनहरी स्मृति मानी जानी चाहिए।
v शाहू महाराज स्वयं घर ढूँढ़ते हुए डॉ. अंबेडकर से मिलने गए। इसका पहले
उल्लेख किया है कि वे महाराष्ट्र में अस्पृश्योद्धार के लिए आस्थापूर्वक कार्य
करने वाले रियासतदार थे।
v नेता के रूप में बाबासाहब के नेतृत्व पर शाहू महाराज ने मुहर लगायी।
उन्होंने यह कहते हुए बाबासाहब का गौरव किया कि 'मेरे राज्य के बहिष्कृत
प्रजाजनों! मैं इस बात के लिए आपका अभिनंदन करता हूँ कि आपने अपना वास्तविक
प्रतिनिधि खोज लिया है। मुझे विश्वास है कि वे आपका उद्धार करेंगे। वे
विद्वानों के भूषण हैं। आर्य समाज, बुद्ध समाज अथवा ईसाई समाज ने उन्हें अपने
आंदोलन में लिया होता, परंतु वे आपके उद्धार के लिए उनकी तरफ नहीं गए। इसके
लिए आपको उनका आभार मानना चाहिए। मैं भी मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि एक दिन
वे सारे हिंदुस्तान के नेता होंगे।
v अस्पृश्यता निवारण परिषद् में लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की
थी कि 'यदि स्वयं भगवान् अस्पृश्यता मानने लगे, तो मैं उसे भगवान् नहीं
मानूँगा।'
v अस्पृश्यों के मानवीय, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों का अहसास निर्माण होने
और उसके लिए प्रबोधन, संगठन तथा आवश्यकता पड़ने पर संघर्ष करने की तैयारी होने
के बावजूद प्रारंभ के अनेक वर्षो तक बाबासाहब की भूमिका यही रही कि हम हिंदू
समाज के अविभाज्य अंग हैं; क्योंकि उनकी धारणा थी कि अस्पृश्यता का प्रश्न
संपूर्ण हिंदू समाज का प्रश्न है व इसके लिए उच्चवर्ण तथा अस्पृश्य दोनों को
कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए।
v अस्पृश्य समाज अखिल हिंदुस्तान की जनसंख्या के छठवें भाग के बराबर है। जब
देश की जनसंख्या का इतना बड़ा भाग हीन-दीन पंगुवत् पड़ा है, तब तक देश की
अवस्था ऐसी दीन-हीन स्थिति में रहेगी, इसमें कोई संदेह नहीं।'
v मिलिंद महाविद्यालय के प्राध्यापक ठकार ने एक बार उनसे पूछा- 'बाबासाहब! आप
ब्राह्मणों के विरुद्ध क्यों हैं? बाबा साहब ने उत्तर दिया- 'My boy, had I
been against Brahmins and Hindus, you would not have been here. मेरी संस्था
के शिक्षक बहुधा ब्राह्मण ही हैं। मेरा विरोध ब्राह्मण जाति से नहीं है,
ब्राह्मण्य से है।'
v अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिंदू समाज को एकात्म व समर्थ बनाने का कार्य
है, इसलिए यह राष्ट्रीय कार्य है।
v 'चवदार ताल' का पानी पीने का कार्यक्रम हो जाने के पश्चात् 20 मार्च 1927 को
बिखरे हुए दलितों में से अनेक के सिर उच्चवर्णों की लाठियों से फूटे। उस समय
सौ अच्छे लाठीबाज अंबेडकर की रक्षा कर रहे थे। वे उच्चवर्णों पर प्रत्याघात
करने के लिए बाबासाहब की आज्ञा का इंतजार कर रहे थे। अपने असंख्य अनुयायी,
अनेक निर्दोष लोगों की रक्तरंजित व घायल अवस्था देखकर भी उन्होंने अपने मन को
शांत बनाए रखा व प्रत्याघात करने से रोका।
v ऐसी बात नहीं थी कि 'चवदार ताल' का पानी न मिलने के कारण अस्पृश्य वर्ग
प्यासा था अथवा उसका कण्ठ सूख रहा था, परंतु हिंदू समाज का अविभाज्य घटक, एक
हिंदूधर्मी घटक होने के कारण सार्वजनिक जलस्रोत से पानी पीने का स्वाभाविक
समानाधिकार सिद्ध करने के लिए वह सत्याग्रह था। इसलिए बाबासाहब ने उस
सत्याग्रह को अस्पृश्यता नष्ट करने के लिए किए गए धर्मयुद्ध का पहला कदम कहा।
v सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह प्रश्न अत्यंत महत्त्व का है। हिंदुत्व पर जितना
स्पृश्यों का अधिकार है, उतना ही अस्पृश्यों का भी है। हिंदुत्व की प्रतिष्ठा
जितनी वसिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रिय, हर्ष जैसे वैश्य, तुकाराम
जैसे शूद्र ने की, उतनी ही बाल्मीकि, चोखामेला, व रोहिदास जैसे अस्पृश्यों ने
भी की है। हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया
है।
v हिंदुत्व के नाम पर खड़े किए गए मंदिर जितने स्पृश्यों के हैं, उतने ही
अस्पृश्यों के भी हैं।
v 'हिंदुओं की एकता के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए बाबासाहब ने कहा- 'If we
achieve success in our movement to unite all the Hindus in a single caste,
we shall have rendered the greatest service to the Indian Nation in general
and to the Hindu community in particular.' इन सारी घटनाओं से बाबासाहब का
अखिल हिंदू दृष्टिकोण स्पष्ट होता है।
v समता के बिना स्वतंत्रता निरर्थक है। हमारी ऐसी मान्यता बनी है कि हिंदू
धर्म को चातुर्वर्ण्यप्रणीत असमानता मान्य है। हम मनुस्मृति व अन्य पुराणों के
बिना भी हिंदू रह सकते हैं। हिंदू समाज हमारी गिनती पशु से भी हीन श्रेणी में
करता है, फिर भी मैं अपने लोगों को धर्मांतरण करने के लिए नहीं कहता।'
v बाबासाहब इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि सार्वजनिक गणेशोत्सव में
अस्पृश्यों को प्रवेश मिले। 1928 में सार्वजनिक स्थान पर अस्पृश्यों का गणेश
उत्सव करने को लेकर उन्होंने संघर्ष किया। दादर के गणेश उत्सव के अध्यक्ष ने
अनुज्ञा नहीं दी। अंबेडकर प्रबोधनकार ठाकरे और कई अन्य नेता वहाँ एकत्र हुए।
अंततः सनातनियों को हार माननी पड़ी। दोपहर तीन बजे उन्होंने अनुकूलता दिखाई और
विजयोत्साह के साथ अस्पृश्य हिंदुओं ने मंडप में प्रवेश किया।
v 'हमें मालूम है कि मंदिर में पत्थर का भगवान् है। उसका दर्शन अथवा पूजन करने
से हमारी समस्या दूर होनेवाली नहीं है। हम तो यह देख रहे हैं कि मंदिर प्रवेश
से हिंदुओं के हृदय मंदिर में प्रवेश मिलता है क्या? डॉ. अंबेडकर का विचार था
कि मंदिर प्रवेश से अस्पृश्यों को हिंदू समाज में समानता मिलने का मार्ग
खुलेगा।
v 'दुर्दैव से मेरा जन्म अस्पृश्य जाति में हुआ है। यह मेरा अपराध नहीं है; पर
यह निश्चित है कि मरते समय मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा।'
v हिंदू समाज धर्माधिष्ठित है, इसलिए विषमता का मूल, धर्म में है। इस विश्वास
के कारण वे धर्म छोड़ने का मन बना रहे थे। उन्होंने साइमन कमीशन से माँग की थी
कि अस्पृश्यों को हिंदुओं में समाविष्ट न कर स्वतंत्र स्थान देना चाहिए।
v हमें 'हिंदू प्रोटेस्टैण्ट' अथवा 'नान कन्फर्मिस्ट हिंदू' कहा जाए। गोलमेज
परिषद् की चर्चाओं में उनका कांग्रेस के एकमेव प्रतिनिधि महात्मा गान्धी से
इसी मुद्दे पर तीव्र मतभेद हुआ।
v सन 1935 तक के बाबासाहब के जीवन के घटनाक्रम को देखने पर ध्यान में आता है
कि उनमें प्रारंभ से ही हिंदू संस्कृति व हिंदू समाज की एकात्मकता के भाव थे।
v विवेकानंद ने कहा है कि 'संसार में अन्य कोई समाज न होगा, जिसके पास इतना
उदात्त तत्त्वज्ञान है। मगर इसके समान नीच समाज भी नहीं मिलेगा; जो अपने ही
समाज बंधुओं के साथ इतना अमानुषिक व्यवहार करता हो।' केरल के अपने प्रवास में
विवेकानंद ने कहा- 'देश का यह भाग एक पागलखाना है।'
v व्यक्ति को अपने जन्मसिद्ध अधिकार के अनुसार जीवन जीने की पूरी स्वतंत्रता
है।
v 'जो बातें समाज के लिए विघातक हैं, उस पर कानूनन प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
जो कानूनन अनिवार्य न हो उसे करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए
मार्ग पर चलने, सार्वजनिक जल व देवालय के उपयोग की किसी को भी मनाही न हो। इस
सभा का मानना है कि इस प्रकार की मनाही करने वाले लोग सुव्यवस्थित समाज रचना व
कानून के दोषी हैं।'
v समाज रचना समानता की नींव पर खड़ी करने के लिए मान-सम्मान, अधिकार व व्यवसाय
के विषय में जाति बाधक न हो। भेदाभेद केवल व्यक्ति के गुण के आधार पर हो सकता
है, जन्म के आधार पर नहीं।
v इसलिए 27 दिसंबर 1927 भारतीय इतिहास का संस्मरणीय दिन है। इसी दिन अंबेडकर
ने पुराने 'स्मृति' ग्रन्थों को जलाकर हिंदू समाज की पुनर्रचना के लिए उपयोगी
नवीन स्मृति की माँग की। इसलिए महाड हिंदू मार्टिन लूथर का विटेनवर्ग है।'
v डॉ. अंबेडकर ने कहा है- 'यदि हम धर्मांतरण के लिए आतुर होते व अस्पृश्यता से
स्वयं को अथवा केवल वर्तमान पीढ़ी को मुक्त करना होता, तो यह काम हम पहले ही
कर लेते; लेकिन हमारा प्रयास था कि हिंदू धर्म में ही रहें। अखिल बहिष्कृत
वर्ग के बारे में विचार करने के कारण हम अपने प्रयास सतत चला रहे हैं। तथापि
किसी व्यक्ति विशेष अथवा वर्ग विशेष की सहनशीलता की एक सीमा होती ही है। क्या
आप यह चाहते हैं कि आप भले ही हमें लातें मारें, मगर हम यह कहें कि हम आपके ही
धर्म में रहेंगे?
v धर्म का अर्थ है- 'यतोऽम्युदयः निःश्रेयस्सिद्धि स धर्मः।' जिस कारण से
अभ्युदय या मोक्ष प्राप्त होता है, वह धर्म है। अभ्युदय का अर्थ है सांसारिक
उत्कर्ष। यह धर्म का पहला साध्य है। अस्पृश्यता के कारण अभ्युदय का मार्ग बंद
हो गया।
v दासता व धर्म एक साथ रह नहीं सकते। यह जोड़ी बन ही नहीं सकती। हमने जिस
कार्य को प्रारंभ किया है, वह स्वयं के उद्धार तक मर्यादित नहीं है, हिंदू
धर्म के उद्धार के लिए है। यही वास्तविक राष्ट्रकार्य है।
v अस्पृश्यता निवारण का मार्ग हिंदू समाज को समर्थ करने के मार्ग से भिन्न
नहीं है। मैं नि:संदेह कह सकता हूँ कि अपना कार्य जितना स्वहित का है, उतना ही
राष्ट्रहित का भी है।'
v 'हिंदू धर्म का सिद्धांत, ईसाई व इस्लाम धर्म के सिद्धांत से कई गुना अधिक
समता का पोषक है। बड़े या छोटे का कोई भेद करना इसमें सम्भव नहीं है। सब ईश्वर
के रूप हैं। यह इस महान धर्म का ओजस तत्व है। समानता का साम्राज्य स्थापित
करने के लिए इससे बड़ा दूसरा आधार क्या हो सकता है।'
v 'ब्रह्म को सगुण, साकार मानना भूल है। मूलतः ऐसी कल्पना भी नहीं है। ब्रह्म
तो एकत्व का संदेश देनेवाली सैद्धांतिक संकल्पना है। वह निर्गुण-निराकार है,
सगुण-साकार रूप की बुद्ध ने निन्दा की, पर निर्गुण-निराकार संकल्पना की
प्रशंसा। इसमें अंतर्विरोध नहीं है। उनका कहना था कि ब्रह्मवाद के तीन
महावाक्य हैं। एक, वह सर्वत्र विद्यमान है। दो, इसलिए मैं ब्रह्म ही हूँ। तीन,
आप भी ब्रह्म हैं। यह सब एकजीवता अर्थात् समता व स्वतंत्रता के तत्त्व हैं।
v उनका मत था कि तत्वज्ञान भले ही श्रेष्ठ है, परंतु हिंदू समाज जिस
धर्मशास्त्र के आधार पर व्यवहार कर रहा है, वह धर्मशास्त्र हिंदूसमाज की
एकात्मता के लिए बाधक है।
v हिंदूराष्ट्र अतिप्राचीन काल में उदय हुए राष्ट्रों में से एक है। इस तथ्य
को फिर से किसी को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है।
v डॉ. अंबेडकर हिंदू समाज को अनेक मंजिला भवन होने की सार्थक उपमा देते हैं,
जिसमें प्रत्येक जाति की अलग-अलग मंजिलें हैं। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि
भवन में कोई सीढ़ी नहीं है। इसलिए कोई नीचे से ऊपर नहीं जा सकता। व्यक्ति अपनी
मंजिल पर जन्म लेता है और वहीं मर जाता है। निचली मंजिल का व्यक्ति कितनी भी
योग्यता का हो, ऊपर नहीं जा सकता।
v एकात्म समाज जीवन के लिए बाधक बननेवाले जातिबंधन के कारण अस्पृश्यों की
दरिद्रता व दु:ख के लिए जो बातें कारणीभूत हैं, उनमें समान अवसर का अभाव सबसे
प्रमुख है। अस्पृश्यों में घर बैठी अस्पृश्य की भावना के कारण उन्हें समान
अवसर नहीं मिल पाता।
v परिषद् के अध्यक्ष बड़ौदा नरेश ने कहा- 'अस्पृश्यता मनुष्य निर्मित है,
ईश्वरनिर्मित नहीं......हमें अपने धर्म में व्यावहारिक सुधार करके
अस्पृश्योद्धार का प्रश्न हल करना चाहिए।'
v लोकमान्य तिलक ने अपने प्रसिद्ध उद्गार कहे- 'यदि ईश्वर अस्पृश्यता मानने
लगे, तो मैं उसे ईश्वर नहीं मानूँगा।' परिषद् के अंतिम दिन एक प्रतिज्ञा-पत्र
निकाला गया, जिसमें इस बात की प्रतिज्ञा करनी थी कि 'वैयक्तिक जीवन में
अस्पृश्यता नहीं मानेंगे।' लेकिन विशेष यह कि लोकमान्य तिलक ने इस
प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए।
v गांधीजी व डॉ. अंबेडकर में एक-दूसरे के प्रति आदर की भावना थी, साथ ही
जोरदार लड़ाई भी थी।
v महात्माजी ने अस्पृश्यता वर्ग की एक कन्या का पालन-पोषण अपने घर में अपनी
बच्ची के समान किया था, इसका उल्लेख अंबेडकर ने किया है।
v लगभग सभी विषयों में बाबासाहब के गांधीजी से मतभेद थे। विशेषतः वर्णाधिष्ठित
समाज रचना के बारे में गांधीजी के विचारों के कारण बाबासाहब का विरोध अधिक
तीव्र हुआ। बाबासाहब इस मत के थे कि उन्हें 'प्रोटेस्टैण्ट हिंदू' कहा जाए।
उन्हें लगता था कि गांधीजी का 'हरिजन' शब्द अस्पृश्यों को आश्रित की भूमिका
देता है।
v उन्हें लगता था कि हरिजन सेवक संघ का वास्तविक उद्देश्य 'to kill the
untouchables with kindness का था।'
v दो हजार वर्ष से मानी जा रही अस्पृश्यता एकाएक समाप्त नहीं होगी, इसके लिए
पीढ़ी-दर-पीढी संघर्ष करना होगा। मैं उस समय तक प्रतीक्षा करने को तैयार हूँ।
v बाबासाहब ने यह स्पष्ट किया है कि प्रचलित समाज रचना से उनका जो विरोध है,
उसका संबंध हिंदूधर्म के मूल उदात्त तत्वों से नहीं है। उनका विरोध उस आचार्य
समूह से है, जो एक ओर तो ऐसे तत्त्वों का उच्चार करते हैं और दूसरी ओर समाज
में विषमता व दासता निर्माण करनेवाली व्यवस्था का समर्थन करते हैं। उसी तरह उस
कालखंड में श्रेष्ठ नेता के रूप में मान्यता प्राप्त करनेवाले महात्मा गांधी
की वर्ण संकल्पना से है।
v एक सुधारवादी है, तो दूसरा क्रांतिवादी। महात्मा गांधी उदारमतवादी हैं, तो
डॉ. अंबेडकर निर्णायक क्रांतिवादी।
v डॉ. अंबेडकर का अस्पृश्यता निर्मूलन का स्वप्न साकार होने में महात्मा गांधी
की भूमिका काफी सहायक सिद्ध हुई। इसका श्रेय महात्मा गांधी को देना ही पड़ेगा।
यह ठीक है कि इसकी तुलना में बाबासाहब का महत्त्व अधिक है। महात्मा गांधी की
आधी-अधूरी भूमिका को मान्य करना बाबासाहब को सम्भव नहीं था, इसलिए दोनों में
संघर्ष हुआ।
v गांधीजी ने भले ही यह न कहा हो कि 'मनुस्मृति को जलाओ परंतु यह तो कहा ही कि
समता के मार्ग में बाधक बने सारे स्मृति-ग्रन्थों को कपड़े में लपेट कर रख
दो।'
v इस स्थान पर एक घटना का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। रविवार, दिनांक 7
अक्टूबर, 1945 को महाराष्ट्र में एक (नवले-करपे) अंतर्जातीय विवाह हुआ। अनेक
मान्यवरों ने वर-वधू को शुभाशीर्वाद भेजे। उनमें प्रमुख थे- महात्मा गांधी,
स्वातंत्र्यवीर सावरकर, जगद्गुरु शंकराचार्य, डॉ. कुर्तकोटी, श्री क्षात्र
जगद्गुरु, श्री मा. स. गोलवलकर (श्रीगुरुजी), अमृत लाल ठक्कर, भंसाली,
किशोरीलाल मश्रूवाला, शं.वा. किर्लोस्कर इत्यादि।
v 'मैं मनुष्य हूँ। मुझसे त्रुटियाँ हो सकती हैं। पक्षपात हुआ होगा। इसके लिए
क्षमा माँगता हूँ। कांग्रेसियों ने मुझे देशद्रोही कहा। मैं इस आक्षेप की जरा
भी चिंता नहीं करता। मेरे बंधुओं की गुलामी से मुक्ति के उच्चध्येय का महात्मा
कहलाये जानेवाले व्यक्ति द्वारा प्राणपण से विरोध होना, संसार की दृष्टि से
चमत्कारिक बात है। हिंदुओं की भावी पीढ़ी यही फैसला देगी कि मैंने राष्ट्र की
सेवा जिम्मेदारी से की।
v संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा कि 'कई सदियों के बाद
अपने को स्वतंत्रता मिली है, उनका रक्षण प्राणपण से करना चाहिए। अब अपने में
कोई जयचंद निर्माण न हो।'
v इस्लामी भ्रातृत्व के विषय में बाबासाहेब कहते हैं- 'इस्लामी भ्रातृत्व
विश्वव्यापी भ्रातृत्व नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है।
उनमें एकबंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर
है, उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक
सच्चे मुसलमान को कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप
में मान्यता नहीं दे सकता।
v 'वे हिंदुस्तान में रहते हैं, परंतु इस्लामी विचारों के वशीभूत होने के कारण
उनकी आँखे तुर्कस्थान या अफगानिस्तान की ओर लगी रहती हैं। हिंदुस्तान अपना है,
इसका उन्हें अभिमान नहीं है और यहाँ रहने वाले अपने निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के
प्रति जिन्हें बिल्कुल अपनापन नहीं है, ऐसे मुसलमान लोग मुसलमानी आक्रमण से
हिंदुस्तान की रक्षा करेंगे, ऐसा मानकर चलना खतरनाक है।
v उनकी यह भावना थी कि हिंदू के हित में ही देश का हित है, उसी प्रकार उनके मन
में यह भावना भी थी कि अस्पृश्य समाज को मुस्लिम समाज में समता का व्यवहार व
सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। इसी कारण पाकिस्तान बनने के पश्चात् उधर के दलित
बंधुओं को उन्होंने कहा कि 'मैं पाकिस्तान में फँसे हुए दलित समाज से कहना
चाहता हूँ कि उन्हें जो मिले, उस मार्ग व साधन से हिंदुस्तान आ जाना चाहिए।
v मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से दलित समाज का नाश होगा। दलित
समाज में एक बुरी बात यह घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिंदूसमाज अपना
तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है।
v बाबासाहब की 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना के पहले सावरकर अस्पृश्यता
निवारण के कार्य में मनःपूर्वक शामिल हुए थे। 13 अगस्त, 1924 को रक्षाबंधन के
दिन अपने जन्मस्थान भगूर में अस्पृश्य समाज ने उनका भव्य सम्मान किया।
अस्पृश्य बहनों ने उनकी आरती उतारी। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने एक अस्पृश्य
बंधु को राखी बाँधी और बाद में सबने एक-दूसरे को राखी बाँधकर भेदभाव दूर कर एक
होने की प्रतिज्ञा की।'
v 4 सितंबर, 1924 को नासिक की भंगी बस्ती में हुए गणेशोत्सव में सावरकर ने
कहा- 'अस्पृश्यता नष्ट हुई है, इसे मैं देख सकूँगा। मेरी मृत्यु के पश्चात् शव
ले जाने वालों में ब्राह्मणों समेत व्यापारी, धेड, डोम भी हों। इन लोगों के
द्वारा दहन किए जाने पर ही मेरी आत्मा को शांति मिलेगी।' 9 अप्रैल, 1927 को
सावरकर का पहला नाटक 'उ:शाप' रंगभूमि पर मञ्चित हुआ। इस नाटक का विषय दलित
वर्ग का उद्धार व अस्पृश्यता निवारण था।
v जाति-व्यवस्था समाप्त कर हिंदूसमाज को एकात्म करने का ध्येय जिस काल में डॉ.
अंबेडकर का था, उसी काल में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का भी था। सावरकर का
कार्यक्रम सौम्यतम था, पर अस्पृश्यता निवारण के कार्य को उनका समर्थन था।
v सावरकर को हिंदूसमाज के संगठन के लिए अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता अनुभव
होती थी। वे उसका महत्त्व समता अथवा मानवीय अधिकारों के संदर्भ में नहीं मानते
थे। उनकी दृष्टि में हिंदू संगठन व सामर्थ्य अधिक महत्त्व का था और उसके लिए
वे अस्पृश्यता को नष्ट करना चाहते थे।
v हरिजनों के सैनिकीकरण के जो प्रयत्न बाबासाहब ने चलाए थे, उस विषय में वीर
सावरकर का मत था कि 'मुझे पूरा विश्वास है कि अंबेडकर के योग्य मार्गदर्शन में
हरिजन बंधुओं के सैनिकी गुणों को नई चमक मिलेगी और उनकी लड़ाकू शक्ति का उपयोग
सांघिक शक्ति बढ़ाने में होगा।' हिंदुस्तान को एक संघर्षशील राष्ट्र बनाने के
लिए सावरकर प्रयत्नशील थे।
v हिंदुओं में हिंदुत्व की भावना नहीं है, याद है तो केवल जाति की।'
v उन लोगों का कहना है कि हिंदू समाज प्रबल बनना चाहिए; परंतु वह समाज एकरस
होने पर ही हो सकेगा, केवल संख्या बढाने से नहीं। हिंदुओं को चातुर्वर्ण्य
नष्ट कर समाज को एकवर्णीय करना चाहिए।
v 'यदि कोई एक जाति अवनत रहती है, तो उसका नुकसान अन्य जातियों को हुए बिना
नहीं रहेगा। समाज एक नौका है। नौका में बैठकर प्रवास करने वाला कोई यात्री
अपने विनाशक स्वभाव के कारण यदि अन्य यात्रियों को नुकसान पहुँचाने के लिए
नौका में छेद करता है, तो सारे यात्रियों के साथ आगे या पीछे उसे भी जल समाधि
लेनी पड़ती है।
v बाबासाहब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पूरी जानकारी थी। सन् 1935
में पुणे में लगे महाराष्ट्र के पहले संघ शिक्षा वर्ग को देखने वे गए थे। उस
समय उनकी भेंट पूजनीय डॉ. हेडगेवार से भी हुई थी। वे अपने व्यवसाय के निमित्त
दापोली गए थे, तब वहाँ की संघशाखा पर गए और खुलेपन से स्वयंसेवकों से चर्चा
की। महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात् सरकार ने द्वेषवश संघ पर प्रतिबंध
लगाया था, उसे उठाने के लिए बाबासाहब, सरदार पटेल व श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने
प्रयत्न किए थे। जुलाई 1949 में संघ पर लगा प्रतिबंध हटने के बाद उनके द्वारा
किए गए प्रयासों के लिए उनका आभार मानने के निमित्त सितंबर 1949 में श्री
गुरुजी उनसे दिल्ली में मिले थे।
v पुणे में लगे संघ शिक्षा वर्ग में योजनानुसार शाम के कार्यक्रम में बाबासाहब
आए। डॉ. हेडगेवार भी वहाँ थे। लगभग सवा पाँच सौ पूर्ण गणवेषधारी स्वयंसेवक संघ
स्थान पर थे। बाबासाहब ने डॉ. हेडगेवार से पूछा- 'इनमें अस्पृश्य कितने हैं?
डॉ. हेडगेवार ने कहा- 'चलो, घूम कर देखते हैं।' बाबासाहब बोले- 'इनमें
अस्पृश्य तो कोई दिख नहीं रहा।' डॉ. हेडगेवार ने कहा- 'आप पूछ लें।' बाबासाहब
ने पूछा- 'आप में से जो अस्पृश्य हों, वे एक कदम आगे आ जाएं।' उस पंक्ति में
से एक भी स्वयंसेवक आगे नहीं आया। बाबासाहब ने कहा- 'ये देखिए।' इस पर डॉ.
हेडगेवार ने कहा- 'हमारे यहाँ यह बताया ही नहीं जाता कि आप अस्पृश्य हैं। आप
अपनी अभिप्रेत जाति का नाम लेकर उनसे पूछे।' तब बाबासाहब ने स्वयंसेवकों से
प्रश्न किया- 'इस वर्ग में कोई हरिजन, मांग, चमार हो, तो एक कदम आगे आए।' ऐसा
कहने पर कई स्वयंसेवकों ने कदम आगे बढ़ाया। उनकी संख्या सौ से ऊपर थी।
v मैं नहीं चाहता कि शेड्यूल्ड कास्ट समाज कम्युनिज्म का आहार बने। इस कारण
राष्ट्र की दृष्टि से यह जरूरी है कि उसे कोई न कोई दिशा देनी चाहिए। तुम संघ
वाले राष्ट्र की दृष्टि से प्रयत्न कर रहे हो। किंतु एक बात ध्यान में रखो
Between Scheduled Castes and Communism, Ambedkar is the barrier और Between
Caste Hindus and Communism, Golwalkar (क्योंकि वे ब्राह्मण हैं) is the
barrier.' उन्होंने कहा- 'क्यों, ठीक है कि नहीं? इसलिए मरने के पूर्व यदि
उन्हें दिशा ने दे सका तो कम्युनिज्म की ओर जानेवाला एक बड़ा वर्ग तैयार हो
जाएगा। उन्हें फिर से अपने राष्ट्र प्रवाह में शामिल करना तुम लोगों को जमेगा
नहीं; क्योंकि आप लोग जो कह रहे हैं, वह सही है या गलत, उचित है या अनुचित यह
प्रश्न ही नहीं है तुम उच्चवर्णीय कह रहे हो, इसलिए मेरा समाज आपकी बात सुनेगा
ही नहीं। इस कारण मरने के पूर्व मुझे यह व्यवस्था करनी है।'
खंड
- 9
सोपान
- 3
सोपान-
3
डॉ. अंबेडकर एवं मा. ठेंगड़ी जी के व्यक्तित्व कर्तृत्व संबंधी लेख /
निबंध
1. हिंदुत्व एवं सामाजिक न्यायः तत्त्वज्ञान और व्यवहार ...प्रो. अनिरुद्ध
देशपांडे
2. डॉ. बाबा साहब अंबेडकर क्रांतिकारी समाज सुधारक ...नरेंद्र मोदी
3. समरसता के मंत्रद्रष्ट ...रमेश पतंगे
4. मा. ठेंगड़ी जी का साहित्य : अक्षय प्रेरणास्त्रोत ...डॉ. अशोक मोडक
5. दत्तोपंत ठेंगड़ी : सामाजिक समरसता के भाष्यकार ...प्राचार्य श्याम अत्रे
6. देश की एकता अखंडता के स्तंभ ...भगवान दास गोंडाने
7. सोपान- 3: प्रमुख बिंदु
सोपान-
3
हिंदुत्व एवं सामाजिक न्याय : तत्त्वज्ञान और व्यवहार
-
प्रो. अनिरुद्ध देशपांडे
अ.भा. संपर्क प्रमुख
रा. स्व. संघ (पुणे)
(समरस समाज रचना के विचार को आगे बढ़ाने के लिए श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी ने
'सामाजिक समरसता मंच' से समाज में व्याप्त विषमता तथा अस्पृश्यता के भाव एवं
व्यवहार पर जबरदस्त प्रहार किया है। समरसता के इसी विचार को पुष्ट करने हेतु
रा.स्व. संघ सृष्टि के विभिन्न संगठनों के कार्यकत्ताओं ने विविध प्रकार से
योगदान किया है। उसी परिप्रेक्ष्य व व्यापक संदर्भ में 'हिंदुत्व एवं सामाजिक
न्याय : तत्त्वज्ञान और व्यवहार' शीर्षक से मा. अनिरुद्ध देशपांडे जी का लेख
प्रासंगिक और समीचीन होने के कारण ग्रंथमाला के प्रस्तुत खंड में समाहित किया
गया है। मा. अनिरुद्ध जी संघ द्वारा प्रदत्त अनेक दायित्वों का निर्वहन करते
हुए वर्तमान में संप्रति रा.स्व. संघ के अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख हैं।
...सं.)
सामाजिक न्याय के विचार का संबंध समानता एवं समतापूर्ण जीवन से जुड़ा हुआ है।
अपना मूलभूत ध्येय यह है कि समाज 'धर्म, अर्थ, मानवता' के सिद्धांत को आत्मसात
करे और हम ऐसा सामाजिक परिवर्तन लायें कि जिसमें सामाजिक विषमता एवं शोषण न
रहे।
वैश्विक भ्रातृभाव : हिंदुत्व का सौहार्द
समावेशकता हिंदू विचार की एक अनन्य लाक्षणिकता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा,
'संस्कृत में बहिष्कार शब्द ही नहीं है और भाषा समाज के व्यवहार का प्रतिबिंब
है। जिसके केंद्र में वैश्विक भ्रातृभाव है ऐसा हिंदुत्व किसी ऐसे विचार को
स्वीकार नहीं कर सकता जो भेदभाव युक्त, समाज को विखंडित करने वाला एवं समष्टि
के लिए उपकारक न हो। हिंदू तत्त्वज्ञान के चार शब्दों की चर्चा की है।
व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि एवं परमेष्टि। वह कहता है कि व्यक्ति दैवी तत्त्व का
अंश है और हमें बिना इसकी चिंता किए कि वह कहाँ पैदा हुआ है, उसका सम्मान करना
चाहिए। बिना व्यक्ति के समाज का अस्तित्व संभव नहीं और अपने घटकों का व्यवहार
ही उस समाज का परिचय कराता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने (1916-1968) कहा कि,
'व्यक्ति एवं समाज परस्पराधारित हैं।' व्यक्ति विभिन्न अवयवों का पुलिंदा
मात्र नहीं है वरन् विभिन्न अवयव देह के अभिन्न अंग हैं। हम अपने अंगों के
पृथक्करण मात्र से पूरे शरीर को नहीं जान सकते। उसी प्रकार समाज के विभिन्न
हिस्सों के हित रक्षण के लिए समाज का एकत्व ही सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है, यह
समझना अत्यावश्यक है। एकीकृत, सामंजस्यपूर्ण एवं एकात्म समाज ही विजिगीषु
राष्ट्रीय चारित्र्य का आधार है।' पंडितजी ने एकात्म सामाजिक प्रकृति का भी
विचार रखा है। शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा यह चार तत्व मात्र व्यक्ति ही नहीं
वरन् समाज के भी तत्व हैं। उसी को सामाजिक पहचान कहते हैं। एक प्रसिद्ध
सामाजिक कार्यकर्ता एवं स्वातंत्र्य सेनानी स्व. श्री पाण्डुरंग सदाशिव साने
(साने गुरुजी-1819-1950) ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक (Spectrum of India's
Culture) मूल मराठी (भारतीय संस्कृति) में लिखा है कि 'मोक्ष का सिद्धांत
मात्र व्यक्ति ही नहीं तो समाज को भी लागू होता है।' आपने ऐसा भी कहा कि मोक्ष
का मार्ग अति संकीर्ण है और समाजसेवा के माध्यम से जिन लोगों ने अपने रक्त का
प्रत्येक बिंदु समाज को अर्पित किया है ऐसे ही लोग उसे पार कर सकते हैं।' अपने
साहित्य एवं धर्मशास्त्रों में वैश्विक भ्रातृभाव के अनेक उदाहरण हैं।
प्रसिद्ध मराठी संत तुकाराम (1609-1650) ने कहा है, 'समस्त विश्व में विष्णु
व्याप्त है और किसी भी प्रकार की विषमता धिक्कारपात्र है।' डॉ. अंबेडकर ने
संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्होंने 'स्वातंत्र्य, भ्रातृभाव
एवं समानता का सिद्धांत फ्रैंच राज्यक्रांति या अन्य किसी आंदोलन से नहीं
परंतु अपने ही तत्वज्ञान से, बुद्ध के तत्वज्ञान से लिया है।'
समाज का मूलगामी परिवर्तन एवं समानता के लिए संघर्ष यह स्वातंत्र्य पूर्वकाल
में चले आंदोलन के अभिन्न अंग थे। एक ही ध्येय की प्राप्ति की लिए ब्रह्म
समाज, आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, सत्यशोधक समाज इत्यादि अनेक आंदोलन उस समय
चले।
उपदेश नहीं व्यवहार
यह तो जाहिर है कि हिंदू तत्वज्ञान सदैव 'सर्वसमावेशक भ्रातृभाव' का
पुरस्कर्ता रहा है। पर हमारे तत्वज्ञान और सामाजिक व्यवहार में बहुत बड़ा अंतर
है। अमेरिका से भारत लौटने पर स्वामी विवेकानंद को चेन्नई में एक विचित्र
अनुभव हुआ। वे जब शाम को सैर के लिए चले तो देखा कि कुछ लोग चिल्ला रहे थे,
'परे हटो, परे हटो' स्वामी जी के पूछने पर किसी ने बताया कि चिल्लाने वाले
अस्पृश्य हैं और उनकी ये जिम्मेदारी है कि अपनी परछाँई किसी के ऊपर न पड़े।
स्वामी जी बहुत आहत हुए। उनके मन में विचार आया कि एक ओर तो शिकागो के वक्तव्य
में मैंने जोर देकर कहा कि वैश्विक भ्रातृभाव हिंदू तत्वज्ञान की नींव है और
दूसरी ओर अपने समाज का यह भेदभावपूर्ण व्यवहार है। भारत समाज अनेक पंथों,
संप्रदायों, जाति-उपजातियों से भरा हुआ है। अपनी कुल परंपरा एवं कुरूढ़ियाँ
अपने समृद्ध सामाजिक संस्कार के लिए हानिकारक हैं। सामाजिक अन्याय के कारण
अपना सामाजिक प्रश्नों का वही मूल कारण है।
इस प्रश्न के सौहार्द में मानसिकता का प्रश्न महत्वपूर्ण है। सामाजिक अन्याय
के कई आयाम हैं। सामाजिक असमानता दूर करने के लिए किए गए अनेक प्रयासों के बाद
भी हमें यह समझना चाहिए कि मानव मानव में भेद करने के मूल में मानसिकता का ही
प्रश्न है। इसलिए इस समस्या का हल भी व्यक्ति एवं समाज के मानस परिवर्तन में
ही छिपा हुआ है। समाज मन में इस धारणा को दृढ़ करना आवश्यक है कि समग्र समाज
एक माता का पुत्र है और मानवीय व्यवहार ही इस समस्या का हल है।
हमें स्वीकार करना चाहिए कि आज भी समाज में ब्राह्मणत्व आधारित जातिप्रथा है।
आलोचना होती है कि जो हिंदुत्व को मानते हैं वे मूलतः जाति प्रथा (वर्ण
व्यवस्था) के समर्थक हैं। इस आलोचना के कुछ सार्थक कारण भी हैं। अपने यहाँ ऐसी
व्यवस्था थी कि भगवान् को भी जाति के आधार पर कुछ बंधन में रखा जाता था। बहुत
लम्बे काल तक ऐसा प्रचलन था कि तथाकथित अस्पृष्य लोग वर्षा ऋतु में सैकड़ों
मीलों की पदयात्रा पर पंढरपुर (महाराष्ट्र स्थित प्रसिद्ध तीर्थस्थान) आते थे
तो उनसे कहा जाता था कि आप देव प्रतिमा के दर्शन नहीं कर सकते, दूर से शिखर का
दर्शन कीजिये। साने गुरुजी द्वारा चलाए गए आंदोलन के बाद कुछ बंधन दूर हुए
लेकिन आज भी कुछ लोग कहते हैं कि मंदिर में प्रवेश की अनुमति होने के बावजूद
हम प्रवेश नहीं करेंगे, कारण हम परंपरा से बँधे हुए हैं। जाति प्रथा की समस्या
इनती अधिक उलझी हुई है। केवल सूत्रों से या प्रस्ताव पारित करने से वह हल नहीं
हो सकती। यह संघर्ष हमारे अंदर का ही है।
समस्या राजनीति के कारण अधिक उलझ गई है। प्रतिदिन हम अनुभव करते हैं कि
राजनीतिक लोग ऐसे मुद्दों को अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभों के लिए सदैव उलझाये
रखना चाहते हैं। इसलिए यह सोचना हमारे लिए अत्यावशयक है कि हिंदुत्व के आधार
पर हम अपने सामने खड़ी दस बड़ी चनौती को कैसे हल कर सकते हैं। हम अनुभव करते
हैं कि भेदभाव के शिकार लोगों में इसके बारे में अत्यधिक गुस्सा है। पर यह
स्थिति स्वस्थता का लक्षण नहीं है। सन् 1930 में डॉ. अंबेडकर ने नासिक के काला
राम मंदिर में प्रवेश को लेकर आंदोलन किया था पर वे सफल नहीं हुए। अभी अभी उस
मंदिर के पुजारियों ने अपने पूर्वजों द्वारा हुई गलती के प्रायश्चित के रूप
में उस आंदोलन में सहभागी ऐसे डॉ. अंबेडकर के पाँच साथियों को मंदिर में
सम्मानपूर्वक निमंत्रित किया। घटना के दो ही दिन बाद एक राजनीतिक नेता ने उसी
स्थान पर एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए कहा कि 1930 में जब हम मंदिर में
आना चाहते थे तब हमें प्रवेश नहीं दिया गया, अब आपके भगवान् की किसको आवश्यकता
है? अपने भगवान् को आप अपने पास ही रखिये। परिस्थिति किस हद तक बिगड़ी हुई है
उसका यह द्योतक है। आज अपने सामने यह सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है।
जाति आधारित असमानता एक अति दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता एवं हिंदू समाज के
सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौती है। अस्पृश्यता जैसी रूढ़ियों ने अपने समाज को कई
टुकड़ों में बाँटा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री
मा.स. गोलवलकर कहते हैं कि 'सवर्ण समाज के मन की विकृति का नाम ही अस्पृश्यता
है।' अपने समाज ने विज्ञान एवं टेकनोलॉजी के क्षेत्र में चाहे जितनी प्रगति की
हो, पर ऐसी परिस्थिति का निर्माण नहीं किया है जिसके चलते अपने परंपरागत भेदों
से ऊपर उठकर प्रत्येक व्यक्ति अन्यों के साथ भ्रातृभाव से व्यवहार करे। इसलिए
यह एक मनोविकृति है। इसने हिंदू समाज के सामने बहुत गंभीर दीर्घकालीन
समस्यायें खड़ी की हैं। इन पर विजय प्राप्त कर एकात्म समाज की पुनर्रचना करना
यह हिंदू समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है।
इस समस्या की जड़ें इतनी गहरी हैं कि आज भी डॉ. अंबेडकर का 'जातियों की
समाप्ति' का स्वप्न साकार होना असंभव ही लगता है। श्री मा.स. गोलवलकर ने डॉ.
अंबेडकर को लिखे अपने पत्र में कहा था कि जातियों की समाप्ति का मुद्दा मूल
उद्देश्य के नाते तो रह सकता है लेकिन प्रथम तो 'भेदयुक्त मानसिकता वाली जाति
प्रथा का जीर्ण होना आवश्यक है। जिससे उसकी ताकत धीमे-धीमे क्षीण हो जाए।'
इस मानसिकता को अपने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में पुष्ट करेंगे तो समाज
स्वस्थ एवं बलवान होगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ऐसा विचार रखा कि 'जब हम
मानेंगे कि प्रत्येक मानव आत्मा दैवीय है और हम सब इस मातृभूमि की संतानें
हैं, तब और तब ही हम सामाजिक अन्याय पर विजय पाने में सफल होंगे।' सन् 1974
में श्री बालासाब देवरस (तृतीय सरसंघचालक रा.स्व. संघ) ने पुणे की अति
प्रतिष्ठित 'वसंत व्याख्यान माला' में 'सामाजिक समरसता और हिंदू संगठन' विषय
पर दिए गए अपने भाषण में कहा कि 'आज जो है वह अव्यवस्था है, विकृति है इसलिए
उसका नष्ट होना ही वांछनीय है। यह धीमे-धीमे जा रही है, और अच्छी तरह से कैसे
जाए इसका ही सबको विचार करना चाहिए।'
'इससे भी दु:खदायक और एक विषय है। सामाजिक विषमता का एक आविष्कार अस्पृश्यता
है। अपने समाज का यह अति दुर्भाग्यपूर्ण एवं दु:खद अध्याय है। अस्पृश्यता भूल
है, It must go lock, stock and barrel' उन्होंने अमेरिका में गुलामी नष्ट
करने वाले अब्राहम लिंकन के एक प्रसिद्ध वाक्य 'If slavery is not wrong,
nothing is wrong' को उद्धृत करते हुए कहा कि हमें भी यही कहना चाहिए कि If
untouchability is not wrong, nothing is wrong.'
सामाजिक न्याय के संदर्भ में जाति व्यवस्था की चर्चा आवश्यक व अनिवार्य है।
अतीत में कभी जाति प्रथा का महत्व होगा पर आज उसका कोई महत्व नहीं है। वह
कालबाह्य हो गई है। जैसे हम अपने निजी जीवन को सुखमय बनाने के लिए परिवर्तन
करते हैं उसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन भी होता रहना चाहिए। इस संदर्भ में
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था 'समाज भी एक व्यक्ति की तरह जीवंत अस्तित्व
है, इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए। इसका आधार जीवन के प्रति हमारी एकात्म
दृष्टि पर आधारित है। सामाजिक अन्याय की अनुभूति व्यक्ति को प्राप्त अवसरों
में ही नहीं तो अपने दैनंदिन व्यवहार में भी की जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति
या समूह अपने में ऊँचे ख्याल रखे यह अपेक्षित ही है। शिक्षा और व्यवसाय से
भौतिक विकास होता है पर उससे सामाजिक सम्मान प्राप्त होने की कोई प्रत्याभूति
प्राप्त नहीं होती है। ऐसा तर्क दिया जाता है कि वैश्वीकरण और विज्ञान के
व्यवहार्य उपयोग द्वारा आनेवाली क्रांति एवं यांत्रिकीकरण के परिणामस्वरूप
जातिभेद दूर हो जाएगा। जब हम कारखाने में काम करते हैं या ट्रेन में प्रवास
करते हैं तब अपनी बगल में बैठा या अपने साथ काम कर रहा आदमी कौन है उस पर
ध्यान नहीं देते हैं। पर यह तो बहुत सामान्य बात है। समाज के अधिकार वंचित
वर्ग के सामाजिक सम्मान की निश्चिति (गारंटी) हम केवल भ्रातृभावयुक्त व्यवहार
से ही दे सकते हैं। विभिन्न आयामों, जैसे शिक्षा, संस्थाएँ, परिवार सामाजिक
संगठन, सेवा कार्य इत्यादि सब संस्कार सिंचन की प्रक्रिया से ही जुड़े हुए
हैं। यदि हम समाज में ऐसा विश्वास उत्पन्न करने में सफल हो जाते हैं कि बुद्धि
एवं क्षमता या उनका अभाव जाति पर आधारित नहीं है, तभी हम समानता आधारित रचना
का विकास कर सकेंगे।'
आरक्षण
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अधिक अच्छे अवसर उपलब्ध करने का मार्ग
यह बात सत्य है कि यह मुद्दा प्रमुखतः मानसिकता का है, और उस कारण से मानस
परिवर्तन को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। पर पूर्ण सामाजिक विकास के लिए आर्थिक
विकास के बारे में सोचना भी उतना ही आवश्यक है।
सामाजिक पिछड़े लोग आर्थिक रूप से भी पिछड़े हैं। जिनको अधिक अच्छे अवसर मिलते
हैं उनकी, अधिकार से वंचित वर्ग की चिंता करने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
जिनके पास है उनसे लेकर जिनके पास नहीं है उनको देना यह आरक्षण का सैद्धांतिक
आधार है।
आरक्षण सामाजिक अन्याय दूर करने का एक व्यवहार्य मार्ग है। शिक्षा में,
व्यवसायों में और राजनीति में आरक्षण की व्यवस्था का हेतु समाज के सभी वर्गों
को अवसर देने का है। तथाकथित उच्चवर्गीय लोगों को ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि यह
दया भावना पर आधारित व्यवस्था है, पर ऐसा सोचना चाहिए कि यह उनकी सामाजिक
जिम्मेदारी है। अगर एक पूरे हिस्से को क्षमता होने पर भी अवसर नहीं मिलता है
तो यह बात सामाजिक अशांति निर्माण कर सकती है। समाज के एक हिस्से की असहायता
और दूसरे हिस्से का वर्ग सामाजिक अन्याय का मूल होने के कारण अपना तत्वज्ञान
ऐसा चाहिए कि धर्म समाज की धारणा करता है। समाज का एक भी अंग निर्बल या पिछड़ा
न रहे ऐसी जिन जिन संगठनों की या व्यक्तियों की प्रतिबद्धता हो उन्होंने
आरक्षण का नि:संकोच समर्थन करना चाहिए। अन्योन्याश्रय ही पारिवारिक स्थिरता की
नींव है। उसी प्रकार अगर मानवता ही धर्म है तो आरक्षण यथावत रहे उसको सामाजिक
प्रगति का साधन ही मानना चाहिए।
सन् 1932 के चुनाव में दलितों को अलग मताधिकार देने के प्रस्ताव के विरोध में
महात्मा गांधी ने आमरण अनशन किया था। उनका कहना था कि ऐसी व्यवस्था हिंदू समाज
का विभाजन करेगी। पर वास्तविकता यह रही कि जब तक आरक्षण की व्यवस्था नहीं हुई
तब तक दलितों के लिए प्रगति के करीबन सभी रास्ते बंद थे। संविधान में जब तक
आरक्षण की व्यवस्था नहीं हुई तब तक किसी ने इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया।
फिर अब करना है यह शब्द आया तभी जाकर शिक्षा एवं व्यवसायों में रिक्त स्थान
भरने का काम प्रारंभ हुआ।
आरक्षण बदला लेने के लिए या वैर तृप्ति के लिए नहीं है। फिर भी आज वही हो रहा
है। समाज के एक तबके को लगता है कि यह व्यवस्था देकर हम उपकार कर रहे हैं और
दूसरे को लगता है कि उच्चवर्णियों द्वारा शतकों तक किए गए अन्याय नष्ट कर हम
न्याय प्राप्त कर रहे हैं। अगर हमारे समाज के सभी घटक अन्योन्याश्रित हैं तो
समाज की प्रगति के लिए प्रत्येक घटक की प्रगति हो यह प्राथमिक आवश्यकता है।
राजनीति में सहभाग को भी उसी दृष्टि से देखना चाहिए।
हिंदुत्व आधारित वैश्विक मूल्य ही एक मात्र उपाय है
व्यक्ति स्वातंत्र्य महत्वपूर्ण है, पर उसे अगर समाज के साथ नहीं जोड़ा गया तो
वह हमें व्यक्तिवाद की ओर ले जाएगा। उसी प्रकार समानता भी मूल्यवान है पर
समानता पर आवश्यकता से अधिक जोर देने पर वैयक्तिक स्वातंत्र्य पर खतरा खड़ा हो
सकता है। इसी लिए भ्रातृत्व का सिद्धांत ही इन दोनों बिंदुओं के बीच सेतुरूप
सिद्धांत है। पंडित दीनदयाल जी ने कहा है कि सामाजिक वैविध्य के नीचे
भ्रातृभाव का प्रबल अदृश्य प्रवाह रहता है जो समाज की एकता को बनाए रखता है।
सामाजिक समानता एवं न्याय प्राप्त करने के लिए ऐसे प्रवाहों को अधिक
शक्तिसंपन्न बनाना महत्वपूर्ण कार्य है।
सामाजिक न्याय व समानता से राजनीति के रास्ते स्थापित नहीं हो सकते। हिंदू
जीवनशैली में इस विचार को परिवार व्यवस्था के साथ जोड़ा गया है। हम सबकी
विशिष्ट जीवनपद्धति टिकाये रखने के साथ ही । सामाजिक न्याय एवं समानता भी
स्थापित करना चाहते हैं। समानता का अर्थ एकरूपता नहीं होता। पंडित जी ने कहा
है, बाह्य एकरूपता के द्वारा समानता खड़ी करना असंभव है। हम अपने दैनिक जीवन
में विविधता में एकता की अनुभूति करते हैं क्योंकि हमारे अंदर एकता का प्रबल
सूत्र विद्यमान है। जब हम एकता के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे तभी सामाजिक
न्याय की कल्पना वास्तविक रूप लेगी। अन्याय तीव्र अनैतिक वासना एवं लोभ का
परिणाम है। हिंदू जीवनदृष्टि में लोभ को कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत
व्यक्तिगत त्याग और बलिदान पर आधारित सामाजिक राजनीतिक व्यवहार का वह समर्थन
करता है। दुर्भाग्य से हम इस श्रेष्ठ सिद्धांत को भूल गए हैं। परिणाम स्वरूप
हमारे सामाजिक जीवन पर स्वार्थी राजनीतिक प्रयोजनों का प्रभाव बढ़ा है। इस
जटिल समस्या का हल खोजने के लिए मात्र हिंदुत्व के मूल सिद्धांत ही सक्षम हैं।
डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर : क्रांतिकारी समाज-सुधारक
नरेंद्र मोदी
राष्ट्र और समाज के विषय में हम लोग भाग्यशाली हैं। हमारे पास हजारों वर्षों
का इतिहास, संस्कृति और मानव सभ्यता की विरासत है। बीते वर्षों का प्रत्येक पल
हमारे लिए प्रेरणा का अविरल स्रोत है जो हमें प्रभावित करता रहा है। हमारी इस
महान विरासत को समझने की, देखने की हममें कितनी क्षमता और योग्यता है- उस पर
परिणाम का आधार रहता है। एक बात स्वीकारनी चाहिए कि प्रत्येक युग में मानवीय
विकास की अवस्था में समाज के अनेक स्तरों का अस्तित्व था। विकास के लिए सबको
समान अवसर प्राप्त होने के बावजूद सुखद परिणाम नहीं मिलने के उदाहरण भी हैं।
ऐसी विविधता और विरोधाभास के मध्य भी मानव जाति को प्रेरणा दे ऐसी घटनाओं की
श्रृंखला आज भी समाज में नई शक्ति का संचार कर सकती है। हम अपने पुराणों, अपने
इतिहास और अपने महापुरुषों की ओर दृष्टि करें तो एक बात स्पष्ट रूप से दिखाई
देती है कि उस युग की सिद्धि के मूल में उस समय के युगपुरुषों ने समाज के
छोटे-से-छोटे आदमी को साथ लेने के लिए जाग्रत प्रयास किया था, उसके बाद ही
सफलता मिली थी।
प्रभु राम को सरयू पार कर चित्रकूट में पहुँचना था परंतु केवट को साथ लिए बिना
वे वहाँ कैसे पहुँचते? अवतारी प्रभु राम के लिए लंका पहुँचना कोई कठिन काम था-
ऐसा मानने का कोई कारण नहीं; परंतु लंका जाने के लिए सेतु बाँधने के लिए अपने
चौदह वर्ष के वनवास के समय उन्होंने वानरों को अपना साथी बनाया था। रामजी ने
शबरी को माता कौशल्या से जरा भी कम स्थान नहीं दिया था।
महाभारत की विजय में यदि कोई शक्ति-स्तंभ थे तो वह भगवान् श्रीकष्ण ही थे।
बचपन में अपने मुख में माता यशोदा को समस्त ब्रह्माण्ड के दर्शन कराने वाले
श्रीकृष्ण की विशेषता यह थी कि जब उन्हें गोबर्धन पर्वत को उठाना पड़ा, तब
उन्होंने सभी ग्वाल बालों की लकड़ी की टेक ली थी। कृष्ण ऐसे पूर्णावतार को भी
ग्वालों पर आश्रित रहना पड़ा था। इतिहास में चाहे वे छत्रपति शिवाजी हों या
महाराणा प्रताप हों, गुरु गोविंद सिंह हों- प्रत्येक महापुरुष के जीवन की
सफलता के साथ समाज के उस छोटे-से-छोटे आदमी का नाता अवश्य देखने को मिलता है।
सत्य को समझने के लिए इतिहास से बड़ा कोई दृष्टांत नहीं है। हम इतिहास से पूरा
बोध लें- यह आवश्यक है।
'दलित' मात्र गांधी जी के द्वारा दिया गया 'हरिजन' शब्द का पर्याय नहीं है।
दलित ऐसा मानव समाज है, जो सामाजिक दृष्टि से दुत्कारे हुए, अछूत, गरीब,
कंगालों का वर्ग माना जाता है। इस समाज की अपनी जीवन-शैली और संस्कार हैं,
अपनी अलग सभ्यता और अस्मिता है। उनके पास उनकी अपनी पसंद-नापसंद, लगाव, प्रेम,
संवेदना और जीवन-मूल्य हैं। इस समाज के दु:ख दर्द शेष समाज की अपेक्षा अलग
प्रकार के हैं। मैं इतिहास और समाज शास्त्र पढ़ता था। तब सुनने में आता था कि
इस देश में ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि गाँव में से किसी बाल्मीकि परिवार के आदमी
को जाना होता था तो उसे अपनी पीठ के पीछे झाडू बाँधकर चलना पड़ता था जिससे
उसकी पाँव की छाप उस रास्ते में न रह जाए। ऐसे अत्याचार मेरे पूर्वजों ने इन
भाइयों के पूर्वजों पर किए हैं। इन दलित, पीड़ित और शोषित लोगों की संवेदनाएँ
आहत हुई और उनमें से विद्रोह की अग्नि प्रकट हुई है। समाज की रूढ़िवादी
मान्यताओं, परंपराओं और वर्षों से समाज में विषमता व विसंवादिता फैलानेवाले
लोगों की तरफ इस समाज का भारी आक्रोश है। बहुत से महापुरुषों ने दलित समाज की
भावना और उसके आक्रोश को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है। अर्वाचीन युग में
भी आधुनिक काल के निर्माण में इस समाज ने कितने ही समाज-सुधारक दिए हैं। इन
क्रांतिकारी समाज-सुधारकों में डॉ. बाबा साहब अंबेडकर का नाम सर्वोपरि है।
आज अपने समाज की स्थिति को देखें तो कितनी पीड़ा होती है। हमें सभी के अंतर्मन
को झकझोरने की आवश्यकता है।
सामाजिक क्रांति
हमारे समाज में जो मजदूरी करता है, वह निम्न प्रवृत्ति का है- ऐसी
मनोवैज्ञानिक बुराई घर कर गई है। इस बुराई को जब तक जड़-मूल से उखाड़कर फेंक
नहीं देंगे, तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं है। हमारे समाज-सुधारकों ने इस विषय
में निरंतर चिंता की है। डॉ. बाबा साहब ऐसे ही एक महापुरुष थे, जिन्होंने अछूत
और निम्न वर्ग के मानव की समता के लिए समाज में एक चिनगारी प्रकट की।
बाबा साहब अंबेडकर से पहले भी दलित समाज में अनेक समाज-सुधारक हुए हैं। इस
श्रृंखला में सामाजिक क्रांति के एक प्रेरणा-पुरुष वीर मेघमाया भी थे। वीर
मेघमाया ने समाज में जागरूकता फैलाने और लोगों की चेतना को जगाने का कार्य
किया। वीर मेघमाया के व्यक्तित्व से सारी राज्य व्यवस्था प्रभावित हुई थी। वे
मात्र दलित-समाज में श्रद्धा का केंद्र बनें ऐसा नहीं था। उन्होंने उस समय की,
उस युग की राज्य-व्यवस्था को भी प्रभावित किया था। वीर मेघमाया ने समाज के
कल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इस बत्तीस लक्षणा महापुरुष ने
समाज में नवचेतना जगाई थी। अपने समाज में अस्पृश्यता के कलंक की तीव्रता कितनी
थी, वह मेघमाया की दीर्घदृष्टि से जाना जा सकता है। उन्होंने राजसत्ता से माँग
की, हमें तुलसी और पीपल की पूजा करने का अवसर मिले।" वीर मेघमाया की इस छोटी
सी माँग में एक लंबे युग की दिशा थी, दर्शन था। नहीं तो ऐसा विचार किसे आता
है? हमें तो इतना ही विचार आता है कि दो एकड़ जमीन दो, जिससे बच्चे सुखी
होंगे। वीर मेघमाया ने ऐसे भौतिक सुख या व्यक्तिगत स्वार्थ की कोई माँग नहीं
की। उन्होंने समस्त समाज के सुख की कल्पना की। इस समाज में कैसे-कैसे रत्न
हैं, इसका यह एक दृष्टांत है। संपूर्ण हिंदू समाज को समरस करने की उनकी
हार्दिक इच्छा थी। जो विचार डॉ. बाबा साहब अंबेडकर को उन्नीसवीं सदी में सूझा,
वही विचार वर्षों पूर्व मेघमाया ने सुझाया था कि मेरा समाज इस सांस्कृतिक
प्रवाह से कहीं दूर न चला जाए।
सारे संसार को यह पता चले कि महात्मा गांधी या डॉ. बाबा साहब अंबेडकर से
सामाजिक क्रांति का इतिहास संपूर्ण नहीं हो जाता है। इस क्रांति के विचार को
पहुँचाने के लिए समाज के अंदर चेतना जगाने की आवश्यकता है।
निर्भय समाज का मंथन
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर निर्भय क्रांतिवीर थे। उनकी व्यथा अपार थी। सवर्ण समाज
के अत्याचारों से उन्हें दलित समाज को ऊपर उठाना था, परंतु किसी बदले की भावना
से नहीं। उन्होंने दूसरों को मार-काटकर बड़ा होने की बात कभी नहीं की। अपने
सत्य को, अपने व्यक्तित्व को पूरी शक्ति से समाज के सामने रखने की प्रेरणा
दूंगा।" ऐसा भाव, उनके समग्र चिंतन में रहा था।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जो वंचितों के लिए लड़ते थे। वे
दलितों के अधिकारों के लिए लड़ते थे, उनके स्वाभिमान व स्वमान के लिए जूझते
थे। दलितों के बीच बैठ उन्हें कडवी-से कड़वी, कठोर-से-कठोर बात कोई कह सकता था
तो वे थे डॉ. बाबा साहब अंबेडकर जिसके लिए बहुत बड़ी हिम्मत चाहिए, वह हिम्मत
उनमें थी। जिन्होंने भी डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के बारे में अध्ययन किया होगा,
उन्हें इस बात का ज्ञान अवश्य होगा। दलित माता-बहनों के मन में ऐसा विचार आता
होगा कि सवर्ण लोग अच्छे जेवर पहनकर बाहर निकलते हैं, इसलिए बड़े लगते हैं। जब
हम भी जेवर पहनें तो इन जैसे लगेंगे। आज से डेढ़-दो सौ साल पूर्व दलित समाज
में सोना न हो तो चाँदी, चाँदी न हो तो कोई अन्य धातु पर पालिश से चमकाए हुए
बनावटी गहने पहनकर बड़े ठाठ से निकलते थे। बाबा साहब अंबेडकर ने कहा, "यह सब
बंद करो" बाबा साहब के शब्द थे, कोई जरूरत नहीं है दिखावा करने की। अरे तुम
जैसे हो वैसे ही बाहर निकलो। हृदय में आत्म विश्वास भरकर आँख में आँख मिलाकर
खड़े रहो। तुम भी महान बनोगे।" यह बात कहने की ताकत बाबा साहब में थी। बाबा
साहब दलितों से कहते थे- ये सब बातें बाद में, पहले तुम पढ़ो और संघर्ष करो।"
समाज परिवर्तन में नारी कितना योगदान दे सकती है, यह भी बाबा साहब अच्छी तरह
से जानते थे। इसलिए उन्होंने सन् 1942 में शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन- (अनुसूचित
जाति संघ) के अधिवेशन में 20 हजार अस्पृश्य महिलाओं का आह्वान किया था- आप
स्वच्छ रहिए, दुर्गुणों से दूर रहिए, अपनी संतानों को अच्छी तरह पढ़ाइए और
शिक्षित कीजिए। उनकी लघु ग्रंथि को दूर कीजिए। मेरी इस सलाह को मानकर आप सब
अपनी भी उन्नति करेंगी और समाज को प्रगति के मार्ग पर भी ले जा सकेंगी।" डॉ.
बाबा साहब मात्र इतना कहकर रुक नहीं गए। वे आगे कहते हैं- आप तो घर की लक्ष्मी
हैं, घर में कोई भी अमंगल बात न हो जाए उसकी सावधानी आपको ही बरतना है।"
मुझे लगता है, घर परिवार को सुखी बनाना है तो डॉ. अंबेडकर की यह बात केवल दलित
माता-बहनों को ही नहीं, बल्कि भारतवर्ष की समस्त माता-बहनों को स्वीकार करनी
चाहिए।
उन्होंने दलित भाइयों को शिक्षा के साथ-साथ सद्गुण और शील की भी प्रेरणा दी
है। उन्होंने एक प्रसंग में कहा है, अपना मन पवित्र बनाना चाहिए। सद्गुणों के
प्रति हमें आकर्षित होना चाहिए। हम पढ़ें तो सबकुछ हो गया, ऐसा नहीं है।
शिक्षा के साथ मनुष्य के शील में भी सुधार होना चाहिए। शील के बिना शिक्षा का
मूल्य शून्य होता है। चरित्र धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है।"
तत्कालीन परिस्थितियों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों ने बाबा साहब के जीवन
का लक्ष्य ही बदल दिया। वे ज्ञानमार्ग विद्रोही बन गए। ऊँची जाति के लोग विशेष
अधिकारों का भोग व उपयोग करें तथा नीची जाति के लोग जीवन भर गरीबी के अभिशाप
से गंदगी से सड़ते रहें, पशु से बदतर स्थिति में अपमानित जीवन गुजारें ऐसी
यथार्थ परिस्थिति देख वे काँप उठे थे। उन्होंने इन परिस्थितियों को बदलने के
लिए कानून और राजनीति का मार्ग अपनाया। दलितों, पीड़ितों और शोषितों के
सामाजिक व आर्थिक जीवन में परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने संघर्ष किया। यह
संघर्ष था समाज में व्याप्त असमानताओं और विषमताओं के विरुद्ध। उनके संघर्ष
में समाज के वंचित वर्गो की पीडा थी, दर्द था। डॉ. अंबेडकर के जीवन का लक्ष्य
सामाजिक क्रांति बनते ही वे एक व्यक्ति न रहकर समष्टि बन गए।
समभाव में ममभाव
दलित समाज के विकास की दिशा क्या-समता या समरसता? यह प्रश्न बहुत ही
महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है कि इस देश के अंदर मजबूती तभी आएगी, जब समरसता के
वातावरण का निर्माण होगा। मात्र समता ही काफी नहीं है। समरसता के बिना समता
असंभव है। एक दलित का पुत्र डॉ. बन जाए इतने से समस्या हल नहीं हो जाती है। जब
तक दलित डॉक्टर को सवर्ण डॉक्टर के समान प्रेम व आदर नहीं मिलेगा तब तक
परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। नौकरी और शिक्षा ही काफी नहीं है। इससे
आगे जाना है और वही बात डॉक्टर बाबा साहब ने कही है। उन्होंने कहा, अच्छी से
अच्छी पढ़ाई करना, अच्छे विचार रखना, समाज का उन्नति के लिए दिन-रात स्वयं
परिश्रम करोगे तो ही लोगों का भला होगा।"
उन्होंने यह भी कहा है, सौ डेढ़ सौ करोड़ रुपये, तुम सबको धंधा-रोजगार दिला
देंगे, इतने ही रुपये शायद तुम्हारे मकान बनाने के लिए मिल भी जाएँ परंतु
हमारे समाज में जाति-भेद का जो रोग फैल गया है, इसमें चाहे मकान बन गया हो,
धंधा बहुत ही अच्छा चलता हो, कपड़े भी साफ-सुथरे पहने हों और अंग्रेजी भी
फर्राटे से बोलते हों तो भी समाज की मानसिकता नहीं बदल जाएगी। सामाजिक
विषमताओं से देश टूटता जा रहा है और इससे बचाव का एक ही उपाय है- समभाव के साथ
ममभाव। जब तक मैं तुम्हें अपना भाई नहीं मानूँ और जब तक तुम्हारे मन और जीवन
में समानता न आए, तब तक अंतिम लक्ष्य की पूर्ति नहीं होगी। इसके लिए आवश्यकता
है समभाव के साथ ममभाव की; क्योंकि इनमें से ही समरसता का अमृत निकलता है। यही
अमृत समाज की संजीवनी बनता है।"
"केवल समभाव काफी नहीं है। समभाव में ममभाव को जोड़ना चाहिए-
समभावममभावत्र्समरसता। ऐसी समरसता ही समाज के रोग की रामबाण दवाई बन सकती है।
सभी इनकम टैक्स ऑफिसर बन जाएँ, सभी शिक्षक बन जाएँ, सब व्यापारी बन जाएँ तो
शायद इतने से समता आए; परंतु एक सवर्ण की लड़की नर्स हो और दलित की लड़की भी
नर्स हो, एक सवर्ण का लड़का शिक्षक हो और एक दलित का लड़का भी शिक्षक हो तो
समभाव आए; परंतु जब तक ममभाव नहीं आएगा, तब तक समरसता नहीं आएगी और इस ममभाव
का दायित्व इस देश के समरसता धारकों पर है।"
हिंदू समाज की ताकत
दुनिया के किसी भी धर्म में जितने भी धर्म-सुधारक पैदा हुए होंगे, उससे कई
गुणा अधिक धर्म-सुधारक हिंदू धर्म में पैदा हुए हैं। इन धर्म-सुधारकों ने अपने
धर्म में फैली विकृतियों को सुधारा। समाज के ही बनाए नियमों व परंपराओं का
विरोध करके कोई राजा राममोहन राय खड़ा हो जाए और कहे कि विधवा विवाह इस समाज
में अनिवार्य है। दो सौ वर्ष पूर्व इस प्रकार की बात करना कोई कम साहस की बात
नहीं थी, सती प्रथा समग्र क्षत्रिय समाज में गौरव की बात मानी जाती थी।
क्षत्रिय समाज इसमें गौरव का अनुभव करता था। कोई जौहर करे या कोई सती हो जाए,
ऐसे समाज में परिवर्तन लाने की हिंदू समाज की सामर्थ्य को देखो कि इसी समाज ने
ऐसे व्यक्ति को जन्म दिया, जिसने स्वयं कहा कि किसी समय में शायद चिता पर कोई
विधवा चढ़ जाती होगी तो यह गौरव की बात होगी, परंतु आज के युग में सती प्रथा
ठीक नहीं है। सती प्रथा का शोषण नहीं हो सकता है। विधवाओं का दहन इस समाज पर
कलंक है। इस प्रकार की लड़ाई किसी विधर्मी ने नहीं लड़ी, वरन इसी समाज में
जन्मे, हिंदुत्व का जयनाद करने वाले, हिंदुत्व को मानने वाले, हिंदू के स्वरूप
में जन्मे इस समाज के लोगों ने ही लड़ी।
गुलामी के कालखंड में छुआछूत और ऊँच-नीच के भेदभाव ने इस समाज में भयंकर
विकृति पैदा कर दी। दुर्भाग्य से इसे धार्मिक अनुमोदन भी मिल गया। इसे
संत-महात्माओं का आशीर्वाद मिलने लगा। समाज की यह कितनी विकृत अवस्था रही
होगी। जब समाज में ऐसी विकृति पराकाष्ठा पर थी, ऐसे वातावरण में नागर परिवार
में कोई नरसैया, गांधी परिवार में कोई मोहनदास, कोई ठक्करबापा, हिंदुस्तान के
किसी कोने में दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद व स्वामी श्रद्धानंद जैसे
कितने ही महापुरुष जन्मे, जिन्होंने तीन-सौ-चार सौ बरसों के अंदर सामाजिक जीवन
में व्याप्त अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने में अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया,
अपने आपको इस काम में झोंक दिया। सामाजिक जीवन के घोर विरोध से जूझते रहे और
इस सामाजिक विकृति से लड़ते रहे। यह हिंदू समाज की ही विशेषता है कि यह गांधी,
विवेकानंद, नरसैया, जैसे सपूतों को जन्म दे सकता है। जिस समय अस्पृश्यता अपने
चरम पर थी, तब एक नागर का बेटा नरसैया जूनागढ़ के अंत्यजवास में भजन गाकर
अस्पृश्यता का खंडन करता था। गुजरात की यह एक बड़ी देन है। नागर उच्च श्रेणी
के ब्राह्मण माने जाते हैं, ऐसे कुल में जन्म लेने वाले नरसैया ने समाज की
विकृत सामाजिक व्यवस्था को तोड़-फोड़ डाला और नरसैया समाज में अस्पृश्यता का
कलंक मिटाने का संकल्प लेकर निकल पड़ा। एक वैश्य समाज के लड़के मोहनदास ने
स्वयं को हरिजन कहलाने में गौरव का अनुभव किया। भीमराव हो या नरसैया, महात्मा
गांधी हों या सरदार पटेल, स्वामी विवेकानंद हों या स्वामी दयानंद सरस्वती-सभी
एक ही माला के मोती थे। समाज के अंदर उन्होंने एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास
किया था, जो आनेवाले कल के समाज की चिंता करे। समाज को चिंता करने का
उत्तरदायित्व हम सब लोगों पर समान रूप से है, जो आने वाले सदियों तक इस
राष्ट्र को मार्गदर्शन करने वाली है। संविधान के निर्माता ने समाज के लिए बहुत
कुछ न्योछावर करने का दायित्व अनेक लोगों को सौंपा है।
सबके तारणहार
समाज में जागृति का वातावरण कितना व्यापक बन गया है, कितनी गहराई तक पहुँच गया
है- यह इस बात को दर्शाता है कि सामान्य जीवन में एक परिवर्तन आकार ले रहा है।
दुर्भाग्य से हमारे देश में एक ऐसी विकृति पैदा हुई है, जिसके कारण समाज के
सर्वांगीण विकास और चिंतन के बदले समाज को टुकड़ों में बाँटने की परंपरा
प्रचलित हो गई। यह विकृति समाज को अलग-अलग खंडों में बाँट दे तो समझ लेना
चाहिए कि वह समाज आत्मघात की ओर आगे बढ़ रहा है। समय की माँग है कि विचारधारा
या मान्यता चाहे जो भी हो, परंतु जो कोई भी देश हित में आगे आते हैं तो उन्हें
प्रोत्साहित करना चाहिए। दुर्भाग्य से आजादी के पश्चात् समाज में अनेक प्रकार
की विकृतियाँ आ गई हैं। समाज की महान परंपरा मानो मर गई है। इस देश में एक
बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसे भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर
सावरकर आदि का नाम लेने में शर्मिंदगी महसूस होती है। ऐसी विकृतियों में से
समाज को बाहर लाने की आवश्यकता है। देश के लिए जीने-मरनेवाले सब महापुरुष
हमारे अपने हैं।
डॉ. अंबेडकर ने देश के लिए काम किया इस कारण वे पूजनीय हैं। परंतु बाबा साहब
को मात्र दलितों का तारणहार मानकर उन्हें एक सीमा तक बाँध दिया जाता है। बाबा
साहब तो सभी पिछड़े व उपेक्षित लोगों के तारणहार थे। उन्हें मात्र दलितों का
तारणहार बनाकर उनको छोटा करने का पाप भूल से भी नहीं होना चाहिए। इस विश्वमानव
को एक छोटे से वृत्त में बंद न करें।
लघुता ग्रंथि को छोड़ें
हमें हमेशा सबकुछ खराब ही लगता है। यह हमारा स्वभाव बन गया है। हमें तुलसीदास
का परिचय देना हो तो कहते हैं कि वे मेरे हिंदुस्तान के शेक्सपीयर हैं। हममें
यह लघुता ग्रंथि गुलामी के कारण आई है। हमें तुलसीदास याद आएँ, इसके पूर्व
शेक्सपीयर आते हैं। इसी लघुता ग्रंथि के कारण बाबा साहब जैसे विरल व्यक्तित्व
को हमने एक छोटे से दायरे में रख दिया है। उनको विश्व मानव के रूप में,
वंचितों के लिए जूझने वाले महामानव के रूप में आत्मविश्वास के साथ पहचाना जाना
चाहिए।
यदि एक भाव सभी लोग अपने अंदर विकसित करें तो समाज को हम कहाँ-से-कहाँ ले जा
सकते हैं। महापुरुषों के नामवाले भवनों ने भी हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रेरणा
प्रदान की है। हम अपने महापुरुषों को भूल न जाएँ, इसी को याद दिलाना है।
बाबा साहब को भारत रत्न पुरस्कार मिले, इसके लिए हमें आंदोलन करना पड़ा इससे
बड़ा भी कोई दुर्भाग्य हो सकता है। दलितों की अखंडता के रूप में समाज में
स्थान मिलना चाहिए। इन सब की सतत अपनी गौरवशाली विरासत के साथ जोड़ने की
आवश्यकता है। हमारा संविधान बाबा साहब अंबेडकर ने बनाया, नई आचार संहिता दी,
इस कारण से उनका योगदान समग्र देश को स्वीकार करना ही चाहिए।
देशहित सर्वोपरि
विश्व के कोने कोने में मानव-जाति के बीच भेदभाव देखने को मिलता है। इस भेदभाव
से जूझनेवाले वर्ग भी दिखाई देते हैं। विश्व में अश्वेतों के लिए लड़ने वालों
का नाम आज की दुनिया की जुबान पर है, परंतु भारत का कोई सपूत दबे-कुचले लोगों
के लिए लड़ता है तो विश्व में उनको क्या कोई पहचानता है! दुनिया के किसी देश
के कवि या लेखक ने वहाँ के समाज की बुराइयों के विरोध में आवाज उठाई है तो वह
विश्वमानव बनकर पूजा जाता है। हमारे यहाँ विश्व के किसी भी समाज की तुलना में
कमतर ही ऐसे कार्य हुए हैं तो भी ऐसे जननायक विश्व इतिहास के झरोखे में दिखाई
नहीं देते हैं। एक समाज के रूप में हम सभी के लिए यह पीड़ा देनेवाली बात है।
हम सबका यह सामूहिक उत्तरदायित्व है कि हमारे ये जननायक विश्व के अन्य समाजों
के लिए भी प्रेरणाबिंदु बनें।
वंचितों के लिए लड़ते विगत सदी के दो महामानव इसके उदाहरण हैं। अमेरिका में
मार्टिन लूथर किंग और भारत में डॉ. बाबा साहब अंबेडकर। इन दोनों ने अपना जीवन
दबे-कुचले हुए समाज को न्याय दिलवाने में खपा दिया था। मार्टिन लूथर किंग ने
अमेरिका में अश्वेत लोगों के अधिकार के लिए जीवन भर संघर्ष किया। बाबा साहब
अंबेडकर और मार्टिन लूथर किंग के पालन-पोषण में अद्भुत साम्य है। दोनों अभावों
के बीच जन्मे और चले। दोनों अपने लिए नहीं, बल्कि वंचितों के लिए लड़ते रहे।
सामाजिक असमानता और विषमता की खाई भरने के लिए जीवन भर जूझते रहे। दोनों ने
अधिकार की लड़ाई लड़ते- लड़ते शिक्षित होने पर जोर दिया। मार्टिन लूथर किंग और
बाबा साहब एक ही दिशा में, एक ही मार्ग पर चलते रहे, ऐसा लगता है। दीपक के
समान यह सत्य होने पर भी बाबा साहब विश्व के फलक पर दृष्टिगोचर नहीं होते हैं?
इसके लिए हमें मंथन करने की आवश्यकता है।
समय की मांग है कि अपने समाज के ऐसे महामानवों को हमें विश्व-फलक पर लाना है।
विश्व जो भाषा समझे, उस भाषा में इन महामानवों का परिचय विश्व को कराने का
उत्तरदायित्व एक राष्ट्र के रूप में, एक समाज के रूप में हमारा है और यह तभी
संभव होगा, जब हम मानसिक गुलामी से बाहर आएँगे। हमारा जो भी श्रेष्ठ है, उस पर
गौरव करने का अभ्यास विकसित करना पड़ेगा। हमारी जो भी कमजोरी है, उससे बाहर
आकर सशक्त बनने के लिए सतत प्रयत्न करना पड़ेगा। डॉ. बाबा साहब की 'संगठित
बनो, संघर्ष करो और शिक्षित बनो.......' सीख को आचरण में लाना पड़ेगा।
आज भी हमारे अंदर गुलामी की मानसिकता इतनी मजबूत है कि हमारी श्रेष्ठ बातों के
बजाय अमेरिका एवं पश्चिमी देशों से आए उसके शब्द ही हमें उत्तम और श्रेष्ठ
लगते हैं। स्वामी विवेकानंद को हमने अमेरिका के माध्यम से ही (पहचाना) स्वीकार
किया। हमारी योग- साधना की अमूल्य विरासत धूल खा रही है। परंतु पश्चिम द्वारा
योग साधना भारत में फिर से आया तो हम देर से ही सही उसे अपनाने लगे। एक समाज
के रूप में श्रेष्ठत्व को लेकर जीने के स्वभाव का अभ्यास करेंगे तो विदेशी
बुराई को छोड़ने की हमारी वृत्ति अपने आप जागने लगेगी। हमारी इस मानसिक
दुर्बलता का कारण है- हमारी स्वीकार की हुई आयातित विचारधारा, गुलामी का मानस।
ये सब विकृतियाँ किस सीमा तक फैली हुई हैं? अंग्रेजों ने इस देश को टुकड़ों
में विभाजित करने के लिए एक जघन्य विचार ऐसा फैलाया कि भारत कभी भी अखंड
राष्ट्र नहीं था। द्रविड़ों और आर्यो के भ्रमपूर्ण सिद्धांत का दुष्प्रचार
करके तो कभी आर्य इस देश में बाहर से आए थे ऐसा वितंडवाद, जो कभी भारत की मूल
कोई जाति ही नहीं थी, ऐसे भ्रामक वातावरण में डॉ. बाबा साहब हमें समता-ममता का
संदेश देते हैं। उनका स्वप्न था- जाति-विहीन समाज रचना', अर्थात् समग्र समाज
एकात्म और समरस बने, कोई ऊँचा नहीं, कोई नीचा नहीं।
बाबा साहब का संदेश
बाबा साहब ने मन में निश्चय किया था कि मैं हिंदू के रूप में जन्मा हूँ, परंतु
हिंदू रहकर मुझे मरना मंजूर नहीं। उन्होंने जब हिंदू धर्म छोड़ने का निश्चय
किया तो दुनिया भर के लोग उन्हें अपनी ओर लेने के लिए कतार बनाकर खड़े हो गए
थे। सारी दुनिया के चर्च, समग्र ईसाई जगत् ने बाबा साहब अंबेडकर ईसाई धर्म
स्वीकार करें, इसलिए ढेरों धन-दौलत का लालच दिया था। दूसरी ओर समग्र इस्लामी
जगत् उन्हें मुसलमान बनाने के लिए उतावला हो रहा था। हैदराबाद के निजाम डॉ.
बाबा साहब के चरणों में स्वर्ण-मुहरों का ढेर लगा देने को तैयार थे। समग्र
ईसाई और इस्लामी आलम सहित तमाम वर्ग के लोग बाबा साहब को अपने पक्ष में लेने
के लिए पीछे पड़ गए थे। उस समय उन्होंने जो बात कही वह बहुत महत्वपूर्ण थी।
आने वाले समय में हिंदुस्तान की एकता और अखंडता के लिए बाबा साहेब अंबेडकर के
इन शब्दों को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना है। आज इसका कोई मूल्यांकन करे या न
करे, परंतु बाबा साहब के उस समय का किया गया निर्णय और उस निर्णय के पीछे
निहित भावना बहुत ही श्रेष्ठ थी। उन्होंने कहा, मैं हिंदू धर्म छोड़ दूंगा।
हिंदू समाज में जो विकृतियाँ आ गई हैं, उन विकृतियों के लिए ही मेरा विरोध है।
परंतु मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूँ। मैं जीऊँगा तो हिंदुस्तान के लिए और
मरूँगा तो हिंदुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण, मेरे जीवन का
प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के लिए काम आए, इसलिए मैं जन्मा हूँ। मैं हिंदू धर्म
छोड़ दूंगा परंतु मैं ऐसे धर्म को अंगीकार करूँगा, जो हिंदुस्तान की धरती पर
ही जन्मा हो। मुझे ऐसा ही धर्म स्वीकार है जो विदेशों से आयात किया हुआ नहीं
हो। इसी कारण मैं बौद्ध धर्म अंगीकार करता हूँ।"
इसके बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। देशभक्ति की यह कितनी उच्च
पराकाष्ठा है। समाज की विकृतियों के सामने लड़ना था, परंतु समाज के सम्मुख
हमेशा के लिए ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं करनी जिसके कारण उनके बाद दलित समाज
ठोकर खाता फिरे। कितना दिन चिंतन था। कल्पना कीजिए, उनकी ऐसी दिव्य दृष्टि थी।
जो लोग धर्मांतरण की प्रक्रिया से जुड़े हैं, उन्हें तो बाबा साहब अंबेडकर का
यह संदेश अहर्निश स्वीकार करने जैसा है। डॉ. बाबा साहब ने दलितों को अस्पश्यता
की यातनाओं से मुक्ति दिलवाने के लिए जिस प्रकार से राष्ट्रद्रोह नहीं किया,
उसी प्रकार धर्मद्रोह भी नहीं किया।
बाबा साहब अंबेडकर द्वारा दलितों के उत्थान के लिए चलाए गए अभियान के अनेक
महत्वपूर्ण पहलू थे। उनमें से एक था 'व्यक्तित्व का प्रकटीकरण'। दलित माता के
कोख से जन्मी संतान मन से मजबूत हो, शरीर सक्षम हो, जीवन शिक्षित हो,
आत्मविश्वास से भरा हुआ हो और वह सारी दुनिया के सामने आँख से आँख मिलाकर
बोलने की शक्ति रखता हो- ऐसा स्वप्न डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने देखा था।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर का नाम स्मरण होते ही समाज में एक चेतना की अनुभूति
होती है। वे समस्त विश्व के महामानव थे।
बाबा साहब के जीवन-संघर्ष में गुजरात का महत्त्वपूर्ण योगदान था। वे अत्यंत
प्रतिभाशाली थे। बडोदरा के महाराजा द्वारा तेजस्वी युवाओं को विदेश में अध्ययन
करने हेतु दी जाने वाली छात्रवृत्ति प्राप्त कर उन्होंने विदेश में अध्ययन
किया और वहाँ से आकर बडोदरा में रहे। सामाजिक समता-समरसता में सयाजीराव
गायकवाड़ का मूल्य समझना एक महत्त्वपूर्ण बात है। बड़ोदरा नगरी में नवरत्नों
की आवश्यकता थी। महर्षि अरविंद जैसे नवरत्नों की सेवा लेने का काम सयाजीराव
गायकवाड़ द्वारा हुआ। डॉ. बाबा साहब इन नवरत्नों में से एक थे। वे बडोदरा में
शासकीय प्रबंधन की सेवा के लिए आए थे, परंतु इसी बडोदरा की धरती पर हुए कड़वे
अनुभवों ने ही उनके अंदर समभाव के लिए संघर्ष की चिनगारी उत्पन्न की थी। इस
संघर्ष के कारण ही आगे चलकर वे वंचितों के तारणहार बने।
बाबा साहब के मार्ग पर चलो
एक बात तो निश्चित है कि जीवन में प्रगति करनी है तो डॉ अंबेडकर ने जो यह
रास्ता बनाया है उसी पर चलना पड़ेगा। सारी बौद्ध परंपरा में, बौद्ध धर्म में
एक ही बात की गूँज है- 'अप्प दिप्पो भव।' दूसरे शब्दों में कहें तो 'आत्म दीपो
भवः।' अर्थात् स्वयं प्रकाशित हो, अंधकार तुम्हारे पास नहीं आएगा। उन्होंने
अपने जीवन में कभी भी अंधकार को अपने पास फटकने नहीं दिया। समाज की प्रगति
करनी है तो स्वयं प्रकाशित हुए बिना कोई अन्य मार्ग नहीं है; पर प्रकाशित
जिंदगी बहुत ही अल्पजीवी होती है। स्वयं प्रकाशित जिंदगी सदैव प्रकाश-पुंज को
जीवित रखती है।
शिक्षा की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बाबा साहब से बड़ी कोई प्रेरणा नहीं हो
सकती है। एक विद्यार्थी के स्वरूप में उन्होंने जैसा संघर्ष जीवन में किया,
ऐसा संघर्ष हम लोगों को नहीं करना पड़ा है। उन्होंने जितने कष्ट उठाए थे ऐसे
कष्ट तो शायद ही दुर्भाग्य से किसी ने उठाए हों। कितनी विपरीत परिस्थितियों
में उन्होंने कहा कि शिक्षित बनो। यही एकमात्र सही मार्ग है। डॉ. बाबा साहब के
जीवन को जानने का, पढ़ने का अभ्यास (अध्ययन) करने का, मनन- चिंतन करने का
संकल्प करो। आप देखोगे कि इस महामानव के जीवन में से आपको जीने की एक नई दिशा
प्राप्त होगी, जीवन के सामने जूझने की एक नई प्रेरणा मिलेगी। मुझे बाबा साहब
को पढ़ने का, अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं भी तो एक छोटे व
पिछड़े परिवार में जन्म लेकर बड़ा हुआ हूँ। इसलिए अनुभव करता हूँ कि यह वेदना
क्या होती है। यह पीड़ा क्या है, इसकी मुझ जानकारी है और इस कारण अंतर में एक
आग सुलगती है।
बाबा साहब की एक विशिष्टता थी। वे सत्य के लिए लड़ते थे, परंतु के जीवन में
नफरत का कहीं कोई स्थान नहीं था। वे समाज को तोड़ना नहीं, जोड़ना चाहते थे।
उन्होंने समाज को हमेशा टोका है, चेतावनी दी है, पर तोड़ा नहीं। समता-ममता के
लिए जीवन भर उनका मंथन चलता रहा। कालाराम मंदिर में प्रवेश की बात हो या चवदार
तालाब का पानी पीने का प्रश्न हो, उनके कार्यक्रमों और आंदोलनों का केंद्र
बिंदु समाज की एकता थी। समाज के प्रति ममता से ही यह आंदोलन उपजा था। सूक्ष्म
रूप से डॉ. बाबा साहब के कार्यो का अध्ययन किया जाए तो उसमें समभाव के ही
दर्शन होंगे। उनका आक्रोश इस समभाव को प्राप्त करने के लिए ही था।
समर्पित जीवन
चतुर लोग मालामाल हो जाते हैं, जिनमें समाज-हित के कार्य करने का जुनून सवार
हो जाता है, वे दीवाने लोग ही समाज को सबकुछ दे सकते हैं। इस देश में बहुत से
लोग राष्ट्रपति पद पर आरूढ़ हो गए। पहला कौन था, दूसरा कौन हो गया- यह बहुत कम
लोगों को याद होगा; परंतु महात्मा गांधी सबको याद हैं। उन्होंने कभी कोई चुनाव
नहीं लड़ा था। वे राष्ट्रपति पद पर भी आरूढ़ नहीं हुए थे। वह दीवानों का जमाना
था। उन पर दीवानापन सवार था। वे भी चाहते तो उस समय की दुनिया में कमाई कर
ऐशो-आराम की जिंदगी जी सकते थे, परंतु वे देश के लिए दीवाने हो गए थे। इसी
कारण वे दुनिया में अमर हो गए और बहुतों को दीवाना भी बना गए।
सिद्धार्थ के जीवन में क्या कमी थी? राजमहल था, सांसारिक जीवन में राजरानी
यशोधरा थी, सुंदर संतान थी। सिद्धार्थ के पास क्या नहीं था? सबकुछ तो था परंतु
उन पर दीवानापन सवार हो गया था। एक रात पत्नी, पुत्र, राजमहल, राजपरिवार को
छोड़कर वन में चले गए। इसके पश्चात् भगवान बुद्ध होकर पूजनीय बन गए।
ठीक इसी प्रकार से बाबा साहब अंबेडकर ने इंग्लैंड की धरती पर रहकर बड़ी-बड़ी
डिग्रियाँ प्राप्त कर ली थीं। इन डिग्रियों के आधार वे चाहते तो जिन्दगी की
सर्वश्रेष्ठ सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते थे। रुपयों का ढेर लग जाता, परंतु
उन्होंने यह सब छोड़ दिया। वे बैरिस्टर बने थे, इसके बाद भी उन्होंने इंग्लैंड
के पाउंड को ठोकर मार दी और कहा, मैं तो अपने देशवासियों की सेवा में जीवन
अर्पित कर दूँगा।" इसी को दीवानापन कहते हैं। स्व की नहीं, समाज की चिंता थी।
यही दीवानापन उनके जीवन में अमृत बन गया। डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, पं. नेहरू के
मंत्रिमंडल में कानून मंत्री थे, परंतु उनके हृदय में तो समाज हित की अखंड
धारा प्रवाहित हो रही थी। इसी कारण वे मंत्रिपद का त्याग कर निकल पड़े। यह
त्याग और समाज के प्रति समर्पण की भावना तो महामानवों में ही देखने को मिलती
है।
आज की पीढ़ी का कर्तव्य
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के समग्र व्यक्तित्व में से समाज को समर्पित करने की
बहुत बड़ी नैतिक शक्ति मिलती है। उस समय पूर्ण रूप से कांग्रेस बाबा साहब
अंबेडकर के सामने खड़ी थी। अंबेडकरवादी होना अर्थात् अपराधी होना, ऐसा माना
जाता था। कांग्रेस का संपूर्ण संघर्ष अंबेडकरवादी लोगों के सामने था। पूरे देश
पर कांग्रेस का ध्वज फहराता था, तब देश में लोग बाबा साहब को कम से कम
पहचानें, ऐसा कार्यक्रम योजनापूर्वक बनाया गया था। कांग्रेस ने खूब योजनाबद्ध
तरीके से दो महामानवों के प्रति अन्याय किया था। एक थे सरदार पटेल और दूसरे
बाबा साहब अंबेडकर। पूरे देश से इसका संपूर्ण परिचय ही नहीं होने दिया। वे
सामर्थ्यवान, शक्तिमान और जनता के साथ जुड़े हुए थे। उनक जीवन का मूल इस धरती
से जुड़ा हुआ था। यही कारण है कि आज भी समाज के अंदर सरदार पटेल और डॉ.
अंबेडकर की कमी महसूस होती है। वे संपूर्ण राष्ट्र के लिए बहुत कुछ कर सकते
थे, परंतु तब उन्हें अवसर ही नहीं दिया गया। उनके मार्ग में अवरोध पैदा किए
गए। समाज की तासीर को पहचान कर उसके लिए काम करने की शक्ति इन महापुरुषों में
थी। महानता के हित में उस शक्ति का जितना उपयोग किया जाना चाहिए था उसको उपयोग
में न लेकर उनके साथ-साथ समग्र समाज के प्रति बहुत अन्याय किया गया था। आज जब
दुनिया में डंके की चोट पर इस सच्चाई को स्वीकार किया जाता है, तब कैसा चित्र
उपस्थित होता है? इसके लिए कौन उत्तरदायी है? इसके लिए हम भारतवासी उत्तरदायी
हैं।
मैं हूँ
, वही तो तू भी है
हिंदू समाज बहुत ही परिवर्तनशील रहा है और इस परिवर्तनशील समाज में बुराइयों
के विरुद्ध लड़ता भी रहा है। छुआछूत बुराई है, अस्पृश्यता बुराई है, ऊँच-नीच
एक बुराई है। इसके सामने खड़े होकर सबको लड़ना होगा; पूरी शक्ति से, निश्चय के
साथ, दृढ़ता के साथ लड़ना पड़ेगा। मात्र नौकरियाँ या आर्थिक स्थिति समग्र
परिस्थिति को बदल नहीं सकती इसके लिए तो अपनेपन का भाव रहना चाहिए। जो ईश्वर
तुझमें बैठा है, वही ईश्वर मुझमें भी बैठा है- 'तू ही मैं हूँ और मैं ही तू
है', यह शास्त्रों ने हमें सिखाया है और इसको ही आज फिर से स्वीकार करने की
आवश्यकता है। मैं जब किसी को 'नमस्ते' कहता हूँ, तब नमस्ते का अर्थ होता है-
'मैं तेरे अंदर बैठे हुए परमात्मा को नमन करता हूँ।' वही परमात्मा मेरे अंदर
बैठा है, मैं उसे भी नमन करता हूँ। हमारी विरासत में हमें यह 'नमस्ते' प्राप्त
हुआ है, हमारे अंदर यह गहराई तक उतरा हुआ है। अतः समाज के लिए कटुता का भाव,
समाज के लिए वैर-वृत्ति का भाव, समाज के लिए किसी को दुत्कारने का भाव- इस
प्रकार की जो परंपरा है, उसे बदलना चाहिए। इस कुरीति के खिलाफ हमें लड़ना
होगा।
अपनेपन का भाव
आपके यहाँ डाक लेकर डाकिया आता होगा। शायद आपके घर भी डाक डालता हो या न भी
डालता हो, फिर भी आपके घर के आगे से धूप में जाते हुए इस डाकिया से शायद ही
किसी ने पूछा हो, 'भाई, धूप में निकले हो, पानी पीते जाओ। किसी ने नहीं पूछा
होगा। डाकिया के सामने आते ही हमने पूछा हो, 'क्यों भाई, दो दिन से दिखे नहीं,
तबियत तो ठीक है न?' शायद नहीं भी पूछा होगा। कोई कलेक्टर आए हो और दिखाई न दे
तो 'ओ हो......साहब कहाँ गए थे। दो चार दिनों से आप दिखाई नहीं दे रहे थे?
क्यों साहब, क्या कारण था?' समाज में छोटे आदमी के प्रति हमारे इस व्यवहार और
आचरण को बदलने की आवश्यकता है। अरे, हमारे इस घर में झाडू-पोंछा करने वाली कोई
बहन आती है तो उससे किसी दिन पूछा है कि तुम्हारा बच्चा पढ़ता है क्या? किस
कक्षा में पढ़ता है? उसने दसवीं की परीक्षा दे दी है, उसका अच्छा परिणाम आया
तो क्या हमने मिठाई दी, पेड़े खिलाए? हमारे घर रोज दो घंटे झाडू-पोछा करती है,
जूठे बरतन साफ करती है। एक गरीब माता है। लड़के को पढ़ाने के लिए काम करती है।
इसका बच्चा जो दसवीं में पास हो गया है तो हमारा मन नहीं होता कि उसे मिठाई
खिलाएँ? समाज के दृष्टिकोण को बदलने के लिए हम 14 अप्रैल को एक उत्सव मनाएँगे।
समाज के देखने का एक स्वभाव, अपनेपन का भाव, अपने होने की अनुभूति 'जो तू है,
वही तो मैं भी हूँ' तुझमें विराजमान परमात्मा मेरे अंदर भी विराजमान है। यह
भाव विश्व में उत्पन्न हो तो मझे विश्वास है कि समाज की बुराइयों को दूर करने
में यह अपनी शक्ति बनकर खड़ा हो जाएगा। यही शक्ति समाज में समता, ममता एवं
समरसता के एक दिव्य वातावरण का सृजन करेगी।
(
'सामाजिक समरसता' से साभार)
समरसता का मंत्रद्रष्टा
रमेश पतंगे
(महाराष्ट्र)
1983 इस वर्ष मुंबई महानगर सहकार्यवाह का दायित्व मेरी ओर आया और अगले दिन
अखबार में 14 अप्रैल 1983 को सामाजिक समरसता मंच, श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी
जी द्वारा निर्मित होने का वृत्त मैंने पढ़ा। इसके पूर्व समरसता शब्द मैंने
सुना नहीं था न ही उसका मतलब जानता था।
महाराष्ट्र में सामाजिक वायुमंडल, महाराष्ट्र की सामाजिक उथल-पुथल तथा वैचारिक
प्रबोधन इनके बीच समता शब्द का प्रयोग आता है और उसका अर्थ भी मैं जानता हूँ।
दलित संघर्ष के बारे में अभी अभी जानकारी ली थी। बाबा साहब अंबेडकर लिखित कई
पुस्तके मैंने बड़े चाव से पढ़ी थीं। किंतु उसमें समरसता इस शब्द को मैंने
कहीं पढ़ा नहीं और तो और आगे चलकर मंच की जिम्मेदारी मेरी ओर आएगी ऐसा कभी
सोचा भी नहीं।
रा.स्व. संघ द्वारा गुजरात, विदर्भ और महाराष्ट्र इन तीन प्रदेशों का शिक्षा
वर्ग मुंबई के चेंबूर क्षेत्र में 1984 में आयोजित था। इस वर्ग का कार्यवाह
मैं था और मा. ठेंगड़ी जी का प्रवास, और बौद्धिक इस वर्ग के लिए था। उस समय
मैंने ठेंगड़ी जी से पूछा कि समता के स्थान पर यह समरसता शब्द का प्रयोग करने
के पीछे आपकी क्या भूमिका है? सामाजिक समता कहने में आपको कोई आपत्ति है क्या?
इस पर मा. दत्तोपंत जी ने कहा कि हर शब्द का अपना अर्थ होता है। आजकल समता का
शब्द मार्क्स के तत्व ज्ञान के बारे में आता है। हमने भी उसका प्रयोग करना
याने दूसरो से उधारी करने जैसा है। हमारा स्वतंत्र दृष्टिकोण है। यह बात लोगों
के ध्यान में नहीं आएगी। समरसता यह शब्द हमारे अपने तत्वज्ञान का परिचायक है।
भारतीय विचार दर्शन में इसकी जड़ है। इस शब्द के सहारे अपना भाव हम लोगों के
लिए यथार्थ रूप से रख सकते हैं।
इस दृष्टि से मेरे विचारों की दिशा बदलने वाला और मेरे भविष्य को मोड़ देनेवाला
इस प्रकार का यह विचारों का आदान-प्रदान हुआ। मा. ठेगड़ी जी की बातों का पूरा
अर्थ मैं समझ नहीं पाया ऐसा नहीं लेकिन इस प्रक्रिया को दत्तोपंत जी-
प्रोग्रेसिव्ह अनफोल्डमेंट" जारी है कहते थे।
डॉ. बाबासाहब अंबेडकर इस विषय को लेकर महाड (मुंबई) की संघशाखा पर मा. ठेंगड़ी
जी का बौद्धिक भाषण हुआ। इस विषय पर छपी पुस्तिका मैंने बीस साल बाद पढ़ी। पू.
डॉ. बाबासाहब अंबेडकर का चरित्र कैसा पढ़ना चाहिए यह मैंने इस बौद्धिक के कारण
सीखा। डॉ. अंबेडकर और हिंदू समाज- डॉ. बाबासाहब और भगवा ध्वज। डॉ. बाबासाहब और
संस्कृत, डॉ. बाबासाहब और सामाजिक एकता, ऐसे कितने सारे विषय मैं समझ पाया।
डॉ. अंबेडकर के जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया। वह विधायक और
भावात्मक हो गया और अनजाने में डॉ. अंबेडकर, मेरे निरंतर चिंतन का विषय हो
गया।
धीरे-धीरे समरसता मंच के कार्य को महाराष्ट्र में स्थान प्राप्त होता गया।
ज्येष्ठ समाज सेवक अण्णा हजारे द्वारा 1997 में पूना के भरत नाट्य मंदिर में
दलित संघ के सेवाब्रती कार्यकर्ताओं का सत्कार हुआ। मा. दत्तोपंत जी का प्रमुख
भाषण उस समय हुआ। अतीव नम्रता के साथ मा. ठेंगड़ा जी का भाषण प्रारंभ हुआ।
गाने की बढ़िया मेहफिल में मशहूर गवय्ये गा रहे थे और आयोजक ने धीरे से मेरा
गोपाल भी बहुत अच्छा गाता है और उसको भी एक मौका दिया जाए।" - ऐसी मेरी स्थिति
यहाँ हो रही है। उनके इस विनम्र भाव के कारण सारी सभा पर वे हावी हो गए।
मराठावाडा विद्या पीठ ने मा. ठेंगड़ी जी के तीन भाषण आयोजित महाराष्ट्र की
सामाजिक स्थिति का विवेकपूर्ण विश्लेषण आपने उन भाषणों में किया। उसकी
पुस्तिका छपी। पुस्तिका बेची गई। उस पत्रिका की बिक्री से प्राप्त राशि
ठेंगड़ी जी ने औरंगाबाद से प्रकाशित होने ली दलित प्रत्रिका को प्रदान की। यह
दलित पत्रिका प्रायः समरसता के विषय की आलोचना करने वाली है। किंतु दलितों की
समस्याओं के बारे में अच्छा मार्गदर्शन भी करती थी। मा. ठेंगड़ी जी ने इस
पत्रिका के विधायक और भावुकता के भाव को ध्यान में लाकर, अपने समर्पण के तहत
पत्रिका की सहायता की।
महाराष्ट्र में 1987 में रिडल्स विवाद को लेकर एक नाजुक मामला खड़ा हुआ।
महाराष्ट्र शासन द्वारा डॉ. अंबेडकर जी के नाम से प्रभु रामचंद्र जी के बारे
में कुछ अभद्र बातें लिखवाई। ठेंगड़ी जी ने डॉ. अंबेडकर जी का चरित्र लिखा।
किंतु ठेंगड़ी जी की मृत्यु के बाद वह प्रकाशित हुआ। उस पुस्तक में मा.
ठेंगड़ी जी ने रिडल्स विषय पर विस्तार के साथ लिखा है। मा. ठेंगड़ी जी का
सहवास और संघ के संस्कारों के कारण ऐसी पेचीदा समस्या के समय हमने भावात्मक और
समन्वय की भूमिका लेना कितना जरूरी है, यह मैं समझ सका और अखबारों में, इसको
लेकर लिखा। मा. ठेंगड़ी जी को वह पसंद आया।
समरसता मंच के कार्य की ओर मा. ठेंगड़ी जी का पूरा ख्याल था। मैंने उनको कहा
कि यह कार्य 1983 के बीस साल पूर्व शुरू होना चाहिए था। आपने इस काम के लिए
इतनी देर क्यों लगायी। उनका जबाब एक किस्से में बदल गया। पू. गुरुजी के पास इस
विषय को बहुत पहले मैंने छेड़ा था। पू. गुरुजी का कहना रहा कि पहले आपके
पदाधिकारियों के साथ इस विषय पर चर्चा कर और उनकी राय जाननी चाहिए। वैसा
प्रयास करने पर सभी कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया। जलपान छुआछूत को संघ में
कतई स्थान नहीं। एकात्म भाव जागृत यही अपनी सही कार्य की दिशा है ऐसा विषय आने
पर ध्यान में आया कि पू. गुरुजी ने मुझे यह विषय कार्यकर्ताओं के सम्मुख रखने
को क्यों कहा होगा। गुरुजी का कहना था - Hasten Slowly जल्दी करना है लेकिन
जल्दबाजी नहीं। हर चीज का उचित समय आना चाहिए।
उनके समरसता मंच के कार्य का सूत्र Hasten Slowly था। जल्दी चाहिए लेकिन
जल्दबाजी न हो। जल्दबाजी में कुछ भी हासिल नहीं होगा। ठेंगड़ी जी ने कहा कि
दलित समाज अब जागृत हुआ है। आपके कहने पर वे तुरंत विश्वास करेंगे। आपका एकदम
भरोसा नहीं करेंगे। दलितों के ज्येष्ठ प्रथम श्रेणी के नेता आपके निमंत्रण पर
आपके मंच पर आना संभव नहीं। जानबूझकर वे टिप्पणी करते हुए आपको टालेंगे। यह
सारी बात ध्यान में रखकर उनके दूसरे या तीसरे श्रेणी के जवान कार्यकर्ताओं से
संपर्क बढ़ाना होगा। इस स्तर के दलित बंधु हमारे पास आने की संभावना है।
पूना के पास चिंचवड में 1993 में समरसता मंच के अधिवेशन में श्री टेक्सास
गायकवाड जी को एक विषय पर उनके विचार रखने हेतु आमंत्रित किया गया था। श्री
टेक्सास गायकवाड दलितों में विधायक कार्य करने वाले कार्यकर्ता थे। अच्छी
सूझबूझ वाले कार्यकर्ता के नाते उनके बारे में कहा जाता था। किंतु चिंचवड के
भाषण में आपने हिंदुत्व, हिंदू धर्म और भगवान श्री राम के बारे में अभद्र भाषा
का प्रयोग किया। उनको दिए हुए विषय को छोड़कर बहुत कुछ वे बोल गए। वह भाषण
एकदम सधा हुआ था। मंच के उपर मा. ठेंगड़ी जी भी थे और सामन की पंक्ति में मा.
मोरोपंत पिंगले जी थे। टेक्सास गायकवाड़ को भाषण के लिए बुलाने में हमारी बड़ी
गलती हो गई। उनको बीच में टोकना या सभा में धांधली करना, यह हमारी परंपरा न
होने के कारण चुपचाप भाषण सुनना पड़ा।
समापन के समय मा. ठेंगड़ी जी क्या बोलेंगे। यह सुनने के लिए हम लोग उत्सुक थे।
समरसता मंच की उस सभा में मा. ठेंगड़ी जी ने पहली बार राष्ट्र विचार की
वैश्विक भूमिका स्पष्ट रूप से रखी। भाषण बढ़िया हुआ। टेक्सास गायकवाड़ के भाषण
पर पानी फिर गया। उनके भाषण का कोई असर शेष न रहा। उस अधिवेशन के लिए आए हुए
कार्यकर्ता संतुष्ट होकर निकल पड़े। मा. ठेंगड़ी जी ने किसी को पूछा हो कि
टेक्सास गायकवाड़ को क्यों बुलाया? बल्कि ठेंगड़ी जी ने कहा कि कभी कभी व्यक्ति
का मानसिक संतुलन बिगड़ता है और स्वार्थ उभर आता है, इस पर अनदेखी करना चाहिए।
टेक्सास के साथ संबंध तोड़ना नहीं, ऐसी सलाह आपने दी।
समरसता मंच की बैठक 13 अक्तूबर 2004 को पूना में थी। मैं और श्री भि.रा.इदाते
इस बैठक के लिए पूने में आए थे। दो दिन पूर्व मा. मोहन जी भागवत का पत्र आया
था। समरसता मंच का जाहिरनामा अच्छा हुआ। ऐसा आपका अभिप्राय है। फिर भी एक बार
मा. ठेंगड़ी जी को वह दिखा दीजिये, ऐसी उनकी सूचना थी। मा. दत्तोपंत जी पूना
में ही थे। मा. इदाते जी ने फोन द्वारा 15 अक्टूबर प्रातः 10 बजे ठेगड़ी जी से
मिलने का तय किया अर्थात् उनकी अनुमति से।
14 अक्तूबर को समरसता मंच की बैठक पूना के मोतीबाग कार्यालय में प्रारंभ हुयी
थी। दोपहर 3 बजे मोती बाग कार्यालय से अच्युतराव जी काल्हाटकर हमारी बैठक में
पहुँचे। मा. ठेंगड़ी जी शांत हुए हैं। ऐसी खबर मुझे बाहर बुलाकर आपने दी। समय
लगभग दोपहर 3.15 का था समरसता मंच का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज न देखते ही
दत्तोपंत जी चल बसे। ऐसे समय मुझे एक संघगीत का स्मरण हुआ :-
"भला चला जा जहाँ कोटी हान, देख रहे हैं बाँट वीर व्रत,
देख वहीं से अपने पथ के, पथिकों का प्रचलन रणगान
धन्य तुम्हारा जीवन दान।"
मा. ठेंगड़ीजी का साहित्य : अक्षय प्रेरणास्त्रोत
डॉ. अशोक मोडक
पूर्व अध्यक्ष
, अ०भा० विद्यार्थी परिषद्
मुंबई (महाराष्ट्र)
माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ीजी एक अद्भुत असामान्य विचारक-प्रचारक थे। उनका जीवन
पहलू- बहुआयामी था। वर्तमान में जब तथाकथित प्रगतिशील और स्वयम् नियुक्त
अभिमतकर्ता सर्वसामान्य नागरिक को गुमराह करने के लिए तुले हुए हैं और
परिणामतः हिंदुत्व विचार के बारे में भिन्न-भिन्न गलतफहमियाँ फैला रहे हैं, तब
दत्तोपंतजी का साहित्य अनोखा मार्गदर्शन कर सकता है। हिंदुत्वनिष्ठ
कार्यकर्ताओं ने किस पद्धति से अध्ययन चिंतन करना चाहिए, इस चिंतन का कैसा
अभिव्यक्तिकरण करना चाहिए और प्राचीन सुभाषितों तथा श्लोकों की कालसुसंगत
समीक्षा भी कैसी करनी चाहिए यह मार्गदर्शन ठेंगड़ीजी का साहित्य निःसंदेह कर
सकता है। मैंने सोचा है कि यद्यपि मेरी अर्हता या पात्रता नहीं है, तो भी
ठेंगड़ीजी ने दिए हुए भाषण और लिखे हुए लेख वर्तमान में कितने और कैसे
प्रासंगिक हैं, इसी पहलू को विशद करना उचित होगा।
मा. दत्तोपंत जी पूजनीय श्रीगुरु जी के मार्गदर्शन के प्रकाश में निष्ठा से
चलने वाले संघ स्वयंसेवक थे। उन्होंने खुद के जीवन में 'शिवो भूत्वा शिवं
यजेत्' यह मंत्र शतप्रतिशत चरितार्थ किया। ठेंगड़ीजी ने 'नवदधीचि परमपूजनीय
श्रीगुरु जी' इस शीर्षकता को लेख लिखा है उसमें निम्नलिखित परिच्छेद पढ़ने को
मिलता है।
'श्रीगुरु जी का जीवन हमने देखा है। पार्थिव शरीर के नाते वे हमारे बीच में
नहीं हैं। लेकिन उनका जो यह संपूर्ण जीवन है, वह हमें मार्गदर्शन कर रहा है।
ऐसा अखंड परिश्रमी कोई व्यक्ति नहीं जिसने इतने लम्बे अरसे तक लगातार इतना
परिश्रम किया हो। सारा कार्य करते हुए भी अहंकार को कभी भी अपने मन में नहीं
आने दिया। प्रसिद्धि की कभी बालसा नहीं रखी। यह कितनी बड़ी बात है, इसका हम
विचार करें। ...उन्होंने अपने मन ही मन भक्त हनुमान की तरह संकल्प किया होगा।
व्यक्त हनुमान ने कहा- 'रामकाज कीन्हें बिना अब मोहे कहाँ विश्राम?' इसी तरह
शायद श्रीगुरु जी ने कहा- 'राष्ट्रकाज कीन्हे बिना अब मोहे कहाँ विश्राम!?'
अविश्राम परिश्रम करते-करते उन्होंने देहत्याग दिया।'
मा. दत्तोपंतजी ने लिखा हुआ यह परिच्छेद उनका खुद का ही जीवन प्रतिबिंबित करता
है। जो शिष्य अपने गुरु से एकरूप होता है, वही शिवो भूत्वा शिवं यजेत्' इस
मंत्र को चरितार्थ करता है।
स्वयं ठेंगड़ीजी ने ही 28 जुलाई 1996 के दिन पुणे महानगर में प्रज्ञा भारती की
अखिल भारतीय बैठक में नागरिकों को गुमराह करने के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले
असत्य सिद्धांतों का जिक्र किया था। हिंदुस्तान कभी भी राष्ट्ररूप नहीं था...
In fact, it is a nation in making - यह ऐसा ही एक असत्य सिद्धांत है।
ठेंगड़ीजी ने कुल मिलाकर ग्यारह असत्य सिद्धांतों का उल्लेख किया था।
सन् 2014 में भारत के संसदीय चुनाव में हिंदुत्वनिष्ठ नेतागण केंद्र में तथा
भिन्न-भिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ हुए। मतदाताओं ने किसी प्रगतिशील विचारकों
की ओर पीठ दिखाई और हिंदुत्व विचारधारा पर मुहर लगाई। परंतु असत्य विचार
प्रस्तुत करने का प्रगतिशील धंदा आज भी बरकरार है। खैर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ से दूर रहने वाले अनेक विचारक लेखक उपरोक्त असत्य सिद्धांतों की धज्जियाँ
उड़ा रहे हैं, यह सत्य है। उदाहरण के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया के 17 दिसंबर, 2016
के अंक में ओर प्रकाशित Rethinking Indian Liberalising शीर्षक के लेख की ओर
निर्देश करना आवश्यक है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस लेख के लेखक श्रीमान
पवन वर्मा जनता दल (U) के सदस्य हैं। यह महाशय लिखते हैं- 'भारत के इतिहास में
हिंदुओं ने किए हुए योगदान की अपने 'प्रोग्रेसिव्ह' 'Discovery of India'
विजयानगर के साम्राज्यका जिक्र केवल एक परिच्छेद में करती है। नई दिल्ली के एक
भी मार्ग का 'राजा कृष्णदेवराय मार्ग' ऐसा नामकरण उचित नहीं माना गया। From
the perspective of Anglicised elites, faith is tantamount to medievalism
and all religious practice the equivalent of ritual and superstition.'
ठेंगड़ीजी ने विकृत प्रोग्रेसिव्हिज्म को आरोपी के कटघरे में खड़ा कर दिया और
भविष्यवाणी की कि हिंदुत्वविचार अन्तोगत्वा विजयी होगा। सन् 1967 में भारतीय
मजदूर संघ का पहला अ.भा. अधिवेशन दिल्ली में संपन्न हुआ। ठेंगड़ीजी ने
महामंत्री के नाते उस अधिवेशन में जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया उसमें
निम्नलिखित चिंतन था।
'मानवता की मौलिक इकाई राष्ट्र है, वर्ग नहीं। इस मान्यता के कारण
गिरोहवादियों का 'Workers of the world unite' यह हर राष्ट्र को विघटित करने
वाले नारे को तजकर, संघ ने संसार के सभी राष्ट्रों को संगठित करने वाले
Workers, unite the world यह ध्येयवाक्य प्रस्तुत किया। मानवता के आधार पर हर
एक राष्ट्र पूरी तरह से संगठित रहे और मानवता सभी राष्ट्रों का सामंजस्यपूर्ण
परिवार बनी रहे यह हमारा आदर्श है। सन् 1867 में Das Capital ग्रंथ में
मार्क्स ने वर्ग की संकल्पना प्रस्तुत की। उसके पश्चात् सौ साल बीत गए। सन्
1967 में ठेंगड़ीजी ने वर्ग संकल्पना को चुनौती दी और राष्ट्रीय संकल्पना यही
मूलभूत रहती है यह सप्रमाण सिद्ध किया।
वास्तव में द्वितीय महायुद्ध में विजय पाने के पश्चात् सोवियत संघ ने अपने
साम्राज्य का जो विस्तार किया, वह भी Communism की विजय का नहीं, अपितु
Nationalism की बहादुरी का प्रमाण था। सन् 1953 से पहले जब व्हिएतनाम अमेरिका
के विरोध में स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहा था तब भी प्रेरणा Nationalism की थी।
उन दिनों में ठेंगड़ी जी बता चुके कि 'यह सारी शक्ति राष्ट्रभक्ति की है।'
(देखिए, दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन दर्शनः खंड 2, पृष्ठ 144-145)
ठेंगड़ी जी सन् 1968 में मॉस्को गए थे। उस यात्रा में उन्होंने अनुभव किया कि
'मॉस्को में तथा लेनिनग्राड में रशियन राष्ट्र पुरुषों की स्मृतियाँ जगाने की
कोशीश चल रही है।' परंतु नारे कम्युनिज्म के थे, जो अंततोगत्वा विफल साबित
होंगे, यह थी ठेंगड़ीजी की भविष्यवाणी। सन् 1998में याने तीस सालों के बाद
ठेंगड़ी जी पुनश्च रूस गए। 'इस प्रवास में खुद की भविष्यवाणी को चरितार्थ हुए
प्रत्यक्ष देखकर ठेंगड़ीजी को कैसा लगा होगा। किंतु वे जानते थे कि कम्युनिज्म
की अंतिम परिणति यही है। (देखिए-ठेंगड़ी जीवनदर्शनः खंड 5, पृष्ठ 91)
सन् 1917 के 7 नवंबर को रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई। अतएव तत्पश्चात्
निर्मित सोव्हिएत यूनियन में प्रतिवर्ष 7 नवंबर क्रांति दिन के नाते मनाया
जाता था। लेकिन सन् 1991 में सोव्हिएत यूनियन ध्वस्त हुआ और कम्युनिज्म का
अस्त हुआ। परिणामतः 7 नवंबर की बोल्शेविक क्रांति का भी स्मरण क्षीण होने लगा।
रूस के नये शासकों ने तो सन् 2005 में एक महत्वपूर्ण निर्णय की कार्यवाही शुरू
की। उस निर्णय के मुताबिक लोगों ने प्रतिवर्ष 4 नवंबर के दिन National Unity
Day का त्योहार मनाना चाहिए यह संदेश प्रसृत हुआ। सन् 1612 में 4 नवंबर के दिन
रशियन सैनिकों ने पोलैन्ड से आए हुए आक्रामकों को पराजित किया यह ध्यान में
लेकर इस दिन का National Unity Day यह नामकरण 2005 में हुआ।
सोवियत यूनियन की समाप्ति पश्चात् पंद्रह राष्ट्र वहाँ जन्मे हैं। उनमें जो
पाँच मुस्लिम राष्ट्र, मध्य एशिया में खड़े हुए हैं, वे तो केवल pre Soviet
इतिहास की ही नहीं, बल्कि pre Islam इतिहास की खोज कर रहे हैं। पिछले पंद्रह
सालों में अमेरिका तथा यूरोप में भी 'वयं राष्ट्रांगभूताः।' इस मंत्र का
उच्चारण हो रहा है। आश्चर्य और आनंद की बात यह कि दत्तोपंत जी ने सन् 1962 में
अमेरिका के बारे में जो लिखा था वह आज अनुभूति का विषय बना है। 'अमेरिका में
Anglo-saxon cultural pattern प्रभावी है और परिणाम स्वरूप Cultural Pluralism
is not realised'. यह है दत्तोपंत जी का विश्लेषण। वर्तमान में सॅम्युएल
हन्टिग्टन दुनिया को बता रहे हैं कि 'American nationalism is equivalent to
white Anglo-Saxon Protestantism!' (देखिए-D.B. Thengadi's. 'No Choultry
Nationalism for India,' in 'The Perspective' [Bangalore, 1971], p.4)
मानवता की मौलिक इकाई राष्ट्र है और इसीलिए 'हम राजनीति में नहीं किंतु
राष्ट्रनीति के अंग के रूप में है।' यह ठेंगड़ीजी का वक्तव्य भारतीय मजदूर संघ
के असली परिचय पर पर्याप्त प्रकाश डालने वाला है। (पुणे अभ्यास वर्ग में, सन्
1980 में दत्तोपंत ठेंगड़ीजी ने दिया हुआ भाषणः देखिए : ठेंगड़ी जीवन दर्शन :
खंड 2, पृष्ठ 121)
ठेंगड़ीजी की दृष्टि में राष्ट्रनीति और लोकनीति यह शब्द समानार्थी हैं।
राजनीति पर राष्ट्रनीति का याने लोकनीति का अंकुश रहना चाहिए यह थी ठेंगड़ीजी
की दृढ़ धारणा/भारतीय भावविश्व में लोकसंस्था को राज्यसंस्था से ज्यादा महत्व
दिया जाता है। कवि कुलगुरु कालिदास ने शाकुन्तलम नाटक में दुश्यन्त राजा की
सराहना की है। कारण यह राजा सत्तारूढ़ होने के बावजूद लोकसंस्था के चरणों में
नतमस्तक था।
'स्वसुख निरभिलाषः खिद्य से लोकहेतोः।
प्रतिदिनमथवा ते वृत्तिरे वं विधव।।'
'हे राजा, तुम खुद के सुख के संदर्भ में निरभिलाषा यानि निरपेक्ष हो। किंतु
लोगों के हित के लिए प्रतिदिन मेहनत करने वाले हो। तुम्हारा यह स्वभाव स्थायी
है।) भगवान् राम ने भी लोकसंस्था के दृष्टिकोण शिरोधार्य माना था।
'स्नेहं दयां च सौव्यं च यदि वा जानकीमपि। आराधनाय लोकानां माचते नास्ति में
यथा।' (लोगों की आराधना करने के लिए स्नेह, दया, सौम्य और साक्षात प्राणप्रिय
जानकी का भी त्याग करने की आवश्यकता उत्पन्न होने पर मैं व्यथित नहीं हूँ।)-
भगवान राम की यह थी धारणा।
'भारतीय मजदूर संघ लोकशरण है, राष्ट्रशरण है, राज्यशरण कदापि नहीं' - क्या यह
वक्तव्य शाश्वत महत्व का नहीं है? दत्तोपंत ठेंगड़ी और दीनदयाल उपाध्याय मूलतः
रा. स्व. संघ के स्वयंसेवक थे और इसीलिए केवल भारतीय मजदूर संघ नहीं, बल्कि
भारतीय जनसंघ भी 'राष्ट्रकारण के लिए राजकारण तथा धर्मकारण के प्रकाश में
राजकारण करने वाला' अनोखा राजनैतिक दल था।' (देखियेः ठेंगड़ी लिखित
'तत्वजिज्ञासाः में दीर्घ प्रस्तावना- पंडित दीनदयाल उपाध्यायः विचारदर्शन
[पुणे: 1986], पृष्ठ 13 : मराठी पुस्तक)
भारतवर्ष अनादिकाल से प्रवास करने वाला विशेष राष्ट्र है और इस राष्ट्र को ही
ईश्वर मानकर उसकी निरपेक्ष भाव से पूजा करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
जन्मा, यह थी ठेंगड़ीजी और दीनदयाल जी की श्रद्धा। यह राष्ट्र जितना प्राचीन
है, उतना ही नित्य नूतन है। उसने निम्नलिखित मूल्यों में अनुपम मेलजोल बिठाया
है।
अ) व्यक्ति-स्वतंत्रता और सामाजिक अनुशासन
आ) व्यक्ति विकास के हेतु प्रेरणा और सामाजिक समता बरकरार रहे यह भाव
इ) आर्थिक वृद्धि और सामाजिक न्याय...
ई) भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नयन
उ) राष्ट्र की स्वयम् निर्भरता और अंतर्राष्ट्रीय सहकार्य (तत्रैव, पृष्ठ 122)
ठेंगड़ी जी ने सन् 1979 की शिवाजी महाराज-पुण्यतिथि के निमित महाराष्ट्र में
रायगढ़ किले पर जो भाषण दिया वह पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ है। उस भाषण
में समर्थ रामदास के एक श्लोक पर उद्बोधक भाष्य है।
समर्थ रामदास ने मार्गदर्शन किया है: 'धर्म के लिए मरने की चाह होनी चाहिए।
यही चाह मन में रखकर दुश्मनों को मौत के घाट उतारना चाहिए और राजसभा हाथ में
लेनी चाहिए। इस मार्गदर्शन में रामदास स्वामी का 'धर्म के लिए (राज्य के लिए
नहीं) मरना चाहिए।' यह उपदेश है। 'शिवाजी महाराज ने इसी उपदेश के प्रकाश में
राजसभा को धर्मस्थापना करने का साधन माना और राज्यसाधन यह योग है ऐसी श्रद्धा
रखी।' इति दत्तोपंत ठेंगड़ी।
भारतीय मजदूर संघ, कार्यकर्ताओं की सतत और निष्ठा के कारण धीरे-धीरे प्रगति कर
सका। ठेंगड़ीजी की दृष्टि में 'बड़ा काम करने के लिए जल्दबाजी अच्छी बात नहीं।
यदि हम आनंद से, धीरज से सोच-समझकर काम में लगे तो अगाध आत्मसंतोष प्राप्त
होगा। भारतवर्ष की परंपरा से शतप्रतिशन सुसंगत यह कार्यशैली है। ठेंगड़ीजी एक
सुभाषित के सहारे यह बात प्रस्तुत करते हैं।
'शनैः पन्थाः, शनै कन्थाः शनैः पर्वतमस्त के। शनैः विद्या, शनैः वित्तम्
पंचैतानि शनैः शनैः।
मार्ग चलना, कम्बस बनाना, पर्वतारोहण, विद्या और धन, ये पाँचों धीर-धीरे आते
हैं। इसलिए यह न सोचे कि राजनीतिक ढंग से गोटी बिछाने, चालाकी या बेइमानी से
काम होगा। कार्य प्रामाणिकता से और धीरे-धीरे करने से होगा।' (देखिए : ठेंगड़ी
जीवन दर्शनः खंड 2, पृष्ठ 272)
भारतीय मजदूर संघ का विचार तो भारतीय (हिंदू) भावविश्व के प्रकाश में प्रसृत
हुआ ही है, किंतु इस संगठन का आचार या व्यहार भू शतप्रतिशत भारतीय है। ठेंगड़ी
जी ने भिन्न-भिन्न श्लोकों के सहारे यही बात बार-बार प्रस्तुत की है।
अपनी संस्कृति व्यक्ति की वृत्ति प्रवृत्ति बदलने पर विश्वास रखती है, केवल
संस्थागत परिवर्तन पर्याप्त नहीं, मानसिक परिवर्तन भी आवश्यक वस्तुतः मानसिक
परिवर्तन तो मूलगामी है। ठेंगड़ीजी ने सन् 1955 में 17 दिसंबर के दिन
Bharatiya Conception of Economic Order यह लेख लिखा था। उस लेख में उन्होंने
अर्थशास्त्र को बुनियादी शास्त्र मानने वाले मार्क्सवाद को आव्हान किया था।
'Economics can not be treated as the basic cause inasmuch as it is itself
conditioned by, and is the outcome of the psychological condition which,
therefore, is more decisive and basic factor in this context.' (See 'The
Perspective' (Bangalore), p. 103)
सोवियत यूनियन में जनसामान्य के मानसिक परिवर्तन की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं
दिया गया। परिणामतः व्यक्तिमात्र पुराने ढंग से ही सोच-विचार करता रहा। नतीजा
भीषण हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सभी संघप्रेरित संगठनों में
कार्यकर्ताओं पर उचित संस्कार करने को प्राधान्य दिया जाता है, कार्यकता की
मनोरचना ठीक बने इस हेतुपूर्ति के लिए अभ्यास वर्गों का आयोजन किया जाता है।
ठेंगड़ी जी ने ऐसे अभ्यास वर्गों में दिए हुए भाषण हम सबके लिए अक्षय
प्रेरणास्रोत हैं। पुणे अभ्यास वर्ग में दत्तोपंत जी ने 'अनुशासन' शब्द की
सुंदर चर्चा छड़ी है। मिसाल के तौर पर ठेंगड़ी जी कहते हैं- 'कार्यकर्ताओं
understanding यही discipline का आधार होता है। यह understanding बढ़ाते रहना
आवश्यक है और यह भी देखना जरूरी है कि इस दृष्टि से अभी जो काम बढ़ा है, उसमें
नई संस्थाओं से भी जो लोग आए हैं वे अपनी परिपाटियाँ, पद्धतियाँ, आदतें सब साथ
लाएंगे। उनका मोल्डिंग किस तरह होगा? और फिर जो देह, शरीर नई रचना में बड़ा
है, उसको ठीक तरह से बैठ सके ऐसा कपड़ा होना चाहिए, यह व्यवस्था का पूर्वविचार
आपस में बैठकर भी करने की आवश्यकता है।' (ठेंगड़ी जीवन दर्शन : खंड 2, पृष्ठ
115)
भारत में परिवार का विशेष स्थान है। ठेंगड़ी जी ने भुसावल में हुए प्रथम अभ्यास
वर्ग में भारतीय तत्वचिंतन का सुंदर विश्लेषण किया है। परिवार-संस्था का इस
तत्वचिंतन में महत्वपूर्ण स्थान है। लीजिए प्रमाण- "Individual, family,
nation, mankind and universe यह जो सारा है, 'they are the growing stages of
the development of consciousness.' मनुष्य की जागृति की यह बढ़ती हुई सीढ़ी
है। एक के बाद एक आती है। छोटा-सा बच्चा रहता है। वह अपने को ही पहचानता है।
माँ को भी नहीं पहचानता। तब उसके लिए 'अहं' यही केवल सत्य है। बाकी सारा
मिथ्या है। थोड़ा बड़ा होता है, बाबा, माँ, भाई, बहन का परिचय होता है, वह
अपनी फैमिली के साथ एकात्म हो जाता है। उस अवस्था में फैमिली यही उसके लिए
highest ग्रुप है। लेकिन और भी कॉन्शसनेस की प्रोग्रेस होती है वह 'सारा नेशन
मेरा है' समझने लगता है तो उसके लिए नेशन ही केवल सत्य है। नेशन सत्य है याने
फॅमिली असत्य है ऐसा हमारे यहाँ नहीं माना गया। फॅमिली सत्य है याने
इंडिव्हिज्युअल असत्य है यह भी नहीं माना गया। उसी तरह से उससे भी ज्यादा
प्रगति हो जाती है तब मनुष्य यह सोचने लगता है कि सारी मनुष्य-जाति मेरी है और
इसलिए स्वदेशोभुवनत्रयम्। Finally he is the citizen of the universe...not
only the citizen of the world but citizen of the universe!' (ठेंगड़ी जीवन
दर्शन : खंड 2, पृष्ठ 41)
व्यक्ति जीवन पर सामाजिकता के पहले संस्कार परिवार में ही होता है। हर
व्यक्तिमात्र अपने जीवन में 'एको अहं, बहुस्याम' इस मंत्र को व्यवहार में
अभिव्यक्त करे, क्रमशः विशाल और व्यापक मानसिकता का धनी बने यही अपेक्षा हिंदू
(भारतीय) तत्वचिंतन की रहती है। दिनांक 11/4/1971 को NOBW के चंडीगढ़-अधिवेशन
में ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ के कार्य के स्वरूप में परिवार संकल्पना ही
प्रतिबिंबित होती है, यह आशय सप्रमाण प्रस्तुत किया।
'हमारा आधार पारिवारिकता का भाव है, उसी के सहारे मजदूर- संगठन हम खड़ा कर रहे
हैं। हाँ,परिवार में भी कुछ व्यवस्था हुआ करती है वैसी हमारे यहाँ भी है। उसी
को लिपिबद्ध किया गया। किंतु वह विद्यमान व्यवस्था का विवरण मात्र है। इसी
पारिवारिकता के कारण ही हम लोग जब कभी एकत्रित होते हैं तो सभी को आनंद आता
है। महत्वपूर्ण औपचारिक कार्यवाही के कारण नहीं तो अनौपचारिक ढंग के पारस्परिक
संपर्क के कारण। यहाँ इस तरह का संघर्ष और पारिवारिक वायुमंडल है। सब दो तीन
दिन तक अनुभव कर सकें यही सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि है।' (दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन
दर्शन : खंड 4, पृष्ठ 61)
भारतीय नागरिक अखिल विश्व को ही परिवार मानता है। ठेंगड़ी जी जब त्रिनिदाद गए
और वहाँ के प्रधानमंत्री श्री वासुदेव पांडेय जी को एक समारोह में मिले तब
'उन्होंने कहा कि वसुधैव कुटुम्बकम की बात बहुत हो गई अब वसुधैव मार्केटिंगम
की बात होनी चाहिए। प्रधान मंत्री पान्डेय जी भी मूलत: भारतीय होने के कारण
ठेंगड़ी जी से तुरंत सहमत हुए।' 'आपने चिंतन सूत्र दे दिया। मुझे सोचने बोलने
का एक नया आयाम दे दिया'- यह थी प्रधानमंत्री जी की उत्स्फूर्त प्रतिक्रिया।
(देखिए : ठेंगड़ी जीवन दर्शन : खंड 5, पृष्ठ 79)
ठेंगड़ी जी की भारतीय चिंतन पर अटूट श्रद्धा थी, यह चिंतन पश्चिमी चिंतन की
तुलना में श्रेष्ठ है, यह भी ठेंगड़ी जी का श्रद्धाविषय था। उन्होंने 'पं.
दीनदयाल उपाध्याय : विचार दर्शन' इस नामकी (मराठी पुस्तक में जो प्रदीर्घ
प्रस्तावना लिखी है वह अत्यंत सारगर्भित है। इस प्रस्तावना में पंडित दीनदयाल
जी के बारे में उचित सराहना शब्दबद्ध हुई है। वास्तव में किसी भी पाठक को यह
सराहना पढ़कर ठेंगड़ी जी की याद आती है। ठेंगड़ी जी पाठकों को बताते हैं कि पं.
दीनदयाल जी जब सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और बाद में जब भारतीय जन की
स्थापना की तथा इस दल का कार्य बढ़ाने के हेतु अथक प्रयास किए, तब
कम्युनिज्म-विचारधारा प्रभावी थी, सभी राजनैतिक दलों इस विचारधारा का गहरा असर
था। लेकन दीनदयाल जी ने निर्भय होकर, प्रचंड आत्मविश्वास से इस विचारधारा को
चुनौती दी। क्या ठेंगड़ी जी के बारे में भी यही अभिप्राय उचित साबित होता है कि
नहीं? (ठेंगड़ीजी शतप्रतिशत द्रष्टा साबित हुए।)
ठेंगड़ी जी (Ism) इज्म के विरोधक थे, कारण Ism का मतलब यही होता है कि एक विशेष
परिस्थिति में विशेष समाज के सामने जो समस्यायें हैं, उनको सुलझाने के लिए
निकाला हुआ रास्ता।' (दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन खंड 2, पृष्ठ 57) मार्क्स ने
यूरोप मे रहकर उन्नीसवीं सदी में जो चिंतन किया, वह तो यूरोप में भी गुणकारी
साबित नहीं हुआ। भारत का भावविश्व, भारत की परिस्थिति यूरोप से भिन्न होने के
कारण महात्मा गांधी जी ने मार्क्सवाद की जड़ीबूटियाँ अमान्य की। दीनदयाल जी और
ठेंगड़ी जी ने भी 'Marxism is not applicable to India यह घोषित किया। अर्थात्
मार्क्स महोदय विषमता और शोषण के विरोध में लड़े। पूँजीवाद में सर्वसामान्य
मजदूर अपनी शकल खो बैठता है। परात्मभाव का - alienation का शिकार होता है यह
Marxian diagnosis गांधी जी, दीनदयाल जी और ठेंगड़ी जी तथा श्रीगुरुजी इन
महापुरुषों को मंजूर था। परंतु मार्क्सप्रणीत मीमांसा तथा उपाययोजना उन्हें
नामंजूर थी। सच कहा जाए तो किसी भी तरह का dogmatism अंततोगत्वा धराशायी होना
है। ठेंगड़ी जी ने भा.म. संघ के पहले अभ्यास-वर्ग में ही कार्यकर्ताओं को बताया
कि भारतीय कम्युनिस्टों ने भी मार्क्स के चिंतन को नकारा है। एक जमाना था, जब
यहाँ के कॉमरेड्स् From Primitive Communism to Slavery इस नाम की
मार्क्सलिखित लाइन को प्रमाण मानते थे। परंतु 1960 में ये लालभाई बताने लगे कि
भारत में मुगल पीरियड तक सामन्तशाही (feudalism) नहीं थी, उस कालखंड में
Asiatic Order of Society हुआ करती थी। दूसरे शब्दों में कम्युनिस्ट नेतागण
मार्क्सवादी चिंतन से दूर हो गए। (देखिए ठेंगड़ी-जीवन दर्शन - खंड 2, पृष्ठ
51)
मर्झवान जाल नामक वामपंथीय विचारक ने Economic and political Weekly के एक अंक
में (May 10, 2014) Asiatic Mode of production, Caste and the Indian Left इस
शीर्षक का लेख लिखा है। मर्झवान जी खुले दिल से मान्य करते हैं कि भारतीय
कम्युनिस्टों ने मार्क्स के महत्वपूर्ण दस्तावेजों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं
दिया। 1880 के दशक में रशिया के विचारकों ने रशियन इतिहास के बारे में मार्क्स
को पूछा : 'हमारे इतिहास में village communes निर्माण हुए हैं। क्या उनके
सहारे हम पूँजीवाद को sideline करके सीधे socialist stage में प्रविष्ट हो
सकते हैं?' मार्क्स ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया वह रशियन विचारकों का
समर्थन करने वाला था। 'The history of the expropriation of the agricultural
producer, of the peasant, from the soil in different countries, assumes
different forms. In England alone, it has the classical form... I expressly
limited the historical inevitability of this process to the countries of
Western Europe.'
मर्झबान जाल संक्षेप में हमें बता रहे हैं कि मार्क्स ने निस्संदिग्ध शब्दों
में जानकारी दी कि पश्चिम यूरोप में ही feudalism-capitalism और बाद में
socialism यह प्रक्रिया विकसित हुई है। And therefore we should understand
social formations in non-European societies from a non-European viewpoint.
दुर्भाग्य से भारत के कामरेड्स Eurocentricism के शिकार हुए। भारत की समाज
रचना में जो जातिप्रथा है उसको नजरअन्दाज करके यहाँ का विश्लेषण पूरा नहीं हो
सकता। वर्तमान में अपने वामपंथीय विचारक जो बात मान्य करते हैं, उसकी ओर
दीनदयाल जी और ठेंगड़ीजी ने पचास साल पहले ही निर्देश किया था। मर्झबान जाल
अपने लेख में जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह यहाँ उल्लेखनीय है- 'From
henceforth, Asian Soviets will have to replace the traditional left
parties.' ठेंगड़ी जी श्रेष्ठ द्रष्टा थे इस अभिप्राय पर जालसाब confirmation
की मुहर लगा चुके हैं।
सन् 1960 से 1970 तक जो दशक बीता उसमें दुनिया भर के चिंतक और विचारक
मार्क्सवाद के विश्लेषण पर संदेह व्यक्त कर रहे थे। पूँजीवाद और मार्क्सवाद के
रास्तों का त्याग करके नये पर्याय की खोज करना आवश्यक है इस आशय का निवेदन कर
रहे थे। इस संदर्भ में दो उदाहरणों का जिक्र उचित लगता है।
1) भारत के मजदूर आंदोलन का इतिहास लिपिबद्ध करने वाले एक श्रेष्ठ विचारक
श्रीमान व.भ. कर्णिक Indian Trade Unions: A Survey इस नाम की खुद की पुस्तक
में बहुत ही मार्मिक जानकारी दे चुके हैं। सन् 1960 में प्रकाशित यह पुस्तक
पाठकों को बताती है-
'There was a time when unions were regarded as organs of class war. Even
communists have now given up that outmoded dogma. Later, unions were
regarded as agencies for collective bargaining. Even that is now
inadequate. A trade union is now essentially a social organization-looking
after the alround interest of workers. In the new era, trade unions can not
content themselves with playing merely a negative role of criticising,
abusing and condemning employers and the government. They must also play
the positive role of sharing in the development of industries and of
preparing and training workers to discharge their responsibilities as
citizens.
कर्णिक ने वर्ग संघर्ष को outmoded dogma कहा है और ट्रेड यूनियन ने नई
परिस्थिति में भावात्मक-रचनात्मक भूमिका अपनाकर औद्योगिक विकास को चरितार्थ
करने का तथा हर मजदूर एक नागरिक के नाते सामाजिक दायित्वों की पूर्ति करे इस
उद्दिष्ट प्राप्ति के लिए मजदूरों के प्रशिक्षण का बीड़ा उठाना चाहिए यह
अपेक्षा व्यक्त की है। ठेंगड़ी जी के नेतृत्व में भारतीय मजदूर संघ ने यही
positive role पिछले 60 सालों में पूर्ण किया है।
2) Huge Seton Watson नामक विद्वान लेखक की एक मौलिक पुस्तक सन् 1967 में
ऑक्सफोर्ड में प्रकाशित हुई। The Russian Empire यह था उस पुस्तक का नाम। इस
विद्वान लेखक ने दुनिया को बताया कि उन्नीसवीं सदी के अंत में रूस में
औद्योगिकीकरण चरम सीमा पर पहुँचा लेकिन मुट्ठीभर नागरिक अमीर बने और अनगिनत
लोग भीषण विषमता तथा दरिद्रता के शिकार हुए। जो किसान थे, उन पर तो
दुर्भाग्यपूर्ण संकटों का मानो आसमान ही टूट पड़ा। तब पूँजीवाद के समर्थक कहने
लगे कि self interest की पूजा यह स्वाभाविक और आवश्यक परिणति है... सर्वसाधारण
इन्सान ने विशेषतः किसान ने सभी प्रतिकूलतायें बर्दाशत करनी चाहिए। जो नेतागण
मार्क्सवादी विचारधारा के अनुगामी थे और जो विचारक इस विचारधारा के प्रचारक थे
उन्होंने तो समाजवादी अवस्था के पूर्वकाल में पूँजीवादी अवस्था अपरिहार्य है
और इसीलिए पूँजीवाद की विषमता तथा दरिद्रता अटल है यह रटना शुरू किया। Huge
Seton Watson इस विश्लेषण के पश्चात् पाठकों को बताते हैं कि सर्वसाधारण
इन्सानों और किसानों को भी सुखसमृद्धि के लाभ मिले यह दृष्टिकोण प्रस्तुत करने
वाले सहृदय चिंतकों की उपेक्षा हुई। वास्तव में ऐसे चिंतक ही पर्याय के
मार्गदर्शक साबित हुए। वॉट्सन महोदय का अभिप्राय यहाँ quotable है- 'The
argument of those who have pleaded for slower and more humane methods and
for more consideration to Peasants who are unable to combine into strong
pressure groups can not be said to have been proved wrong, all that can be
said is that their arguments have been disregarded and their authors
vanquished (See Huge Seton Watson, The Russian Empire (Oxford, 1967), p.
534)
वॉट्सन महाशय को मालूम नहीं था कि सर्वसाधारण इन्सानों और किसानों के पक्ष में
लड़ने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय और माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी 1960 के दशक में
पूँजीवाद तथा मार्क्सवाद ही विचारधारा पर जो हमला बोल रहे थे उसका उद्दिष्ट
जनसामान्य को सुखसमृद्धि प्राप्त हो, यही था। खैर, इन दो महापुरुषों की घोर
उपेक्षा हुई और वॉटसन महोदय का कथन/लेखन सही निकला। यदि पंडित दीनदयाल जी ने
सहकारी खेती के विरोध में सफल अभियान छेड़ा, तो ठेंगड़ी जी ने Marxism vs
Peasantry इस शीर्षक का लेख लिखकर सहकारी खेती के विरोध में जो आंदोलन शुरू
हुआ था उसको मौलिक आयाम प्रदान किया। ठेंगड़ी जी ने इस लेख के माध्यम से पाठकों
को मार्क्सवाद का 'असली' रूप का दिखाया। लीजिए प्रमाण-
After all, what was the position of a peasant in the Marxian scheme of
things? Peasant was neither capitalist nor proletariate. And, according to
Marx, the entire mankind was divided only into these two hostile camps.
Since, peasant belonged to neither of these classes. It was unscientific to
presume that he was in existence at all. But the peasants continued to
exist inspite of the Marxian class-concept.' (See D.B. Thengadi, The
Perspective (Bangalore, 1971), p. 118)
प्रस्तुत लेख के अंतिम हिस्से में ठेंगड़ी जी की लेखन तथा भाषण शैली के एक
महत्वपूर्ण पहलू की ओर निर्देश करना बहुत ही उचित होगा। संस्कृत भाषा में
सुभाषितों का अनोखा भंडार है। कई लेखक और वक्तव्य इस भंडार से प्राप्त होने
वाले भिन्न-भिन्न सुभाषितों का ठीक उपयोग करके खुद के युक्तिवाद को प्रस्तुत
करते हैं। मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी भी इसी भंडार का धन उपयोग में लाते हैं।
परंतु संगठन का विस्तार हो, कार्यकर्ता का विकास हो इस हेतुपूर्ति के लिए
विशिष्ट सुभाषित का या श्लोक का अनुरूप interpretation करना यही ठेंगड़ी जी की
खासियत है। कुछ उदाहरणों से इस पहलू पर हम प्रकाश डाल सकत हैं।
अ) 'सन् 1971 का भारत पाक युद्ध' इस विषय पर ठेंगड़ी जी ने जो भाषण दिया उसमें
'सत्य सिद्धांत की विजय होती है' इस तत्व का प्रतिपादन करते समय 'यदायदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' इस श्रीकष्ण वचन का उद्बोधक interpretation ठेंगड़ी
जी ने किया।
भगवान ने यहाँ कहा है कि धर्म की ग्लानि जब जब होती है। 'यदा' शब्द का दो बार
उपयोग उन्होंने किया है। इसमें अभिप्रेत अर्थ यह है कि बारबार धर्म की ग्लानि
होती है। नहीं तो भगवान् सीधे कह देते कि जब धर्म की ग्लानि होगी, मैं आ
जाऊँगा और हमेशा के लिए once for all (एक बार समूल) अधर्म का नाश करके वैकुंठ
में जाकर सो जाऊँगा आप भी कम्बल ओढ़कर सो जाना। लेकिन ऐसा नहीं कहा। तो 'यदा
यदा' कहा है। और पुनः कहा है- 'संभवामि युगे युगे।' बार-बार अवतार धारण करने
की बात भी भगवान ने कही है। वैसे ही हम जो सत्य सिद्धांत पर खड़े हमारे
अधिष्ठान की बात कर रहे हैं उसकी सदैव विजय ही होगी यह मानना गलत होगा। कभी
विजय हो रही है ऐसा दिखाई देता है और कभी हमें पीछे भी हटना पड़ता है।
...हमारे इतिहास में ऐसे अवसर आए हैं। शिवाजी महाराज के काल की परिस्थिति का
वर्णन समर्थ रामदास ने दासबोध में किया है। आज की तुलना में सौ गुना विपरीत
परिस्थिति थी। लेकिन यह कहा गया है कि Principle stands on its own legs
अर्थात् सत्य सिद्धांत की विजय होती ही है। (देखियेः ठेंगड़ी जीवन दर्शनः खंड
1, पृष्ठ-172-173)
आ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विशेषता पर टिप्पणी करते हुए ठेंगड़ी जी ने
रघुवंश महाकाव्य की पंक्ति का आधार दिया। उन्होंने लिखा है- 'रघवंश में राजाओं
की परंपरा थी, उनकी कार्यशैली का वर्णन कालिदास ने किया है- 'फलानुमेयाः
प्रारम्भः (रघुवंश 9.20) कार्य तो चुपचाप शुरू करना। उस कार्य को जब फलित
स्वरूप प्राप्त होगा तब लोग अनुभव कर सकेंगे कि कार्य का फल तो दिखाई देता है।
निश्चित ही इस कार्य का प्रारंभ कभी ना कभी हो गया होगा। 'फलानुमेयाः
मारम्भाः।' संघ के बारे में पूजनीय डॉक्टर जी ने ऐसी ही कार्यशैली विकसित की
है। प्रारंभ में ही धमाका करते हुए प्रसिद्धि करना यह न डॉक्टर जी की पद्धति
थी, न तो संघ की पद्धति रही है। (देखिए: कार्यकर्ताः अधिष्ठानः व्यक्तित्वः
व्यवहार) (पुणे: 2001), पृष्ठ 99
इ) ठेंगड़ी जी 'कार्यकर्ता' पुस्तक में ही एक स्थान पर ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता
के बारे में लिखते हैं- 'निरहंकारी, ध्येयनिष्ठा से संपूर्ण आत्मलोप करने वाला
कार्यकर्ता ही लोगों को पता न लगते हुए स्वाभाविक रूप से उनका नेतृत्व संपादन
कर सकता है। स्वयं अपना बड़प्पन न दिखाते हुए या श्रेय न लेते हुए वह अन्यों
को सम्मानित करता है। सही बड़प्पन का एक छोटा-सा सूत्र विष्णुसहस्त्रनाम इस
स्तोत्र में आया है
'अमानी मान दो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृत।' तीनों लोकों को धारण करने वाला
याने भगवान् वे ही लोगों का नेतृत्व कर सकते हैं याने लोकस्वामी हैं। लेकिन यह
वे कैसे करते हैं? तो कहा, अमानी मान दो मान्यो। 'अमानी' याने जो स्वयं अपने
लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं करता। 'मानदो' याने जो दूसरों को मान देता है। फिर
तीसरा शब्द आता है 'मान्यो', जिसके कारण वह सर्वमान्य है। याने लोकनेतृत्व उसी
का सिद्ध होता है जो स्वयम् के लिए सम्मान की अपेक्षा न रखते हुए दूसरों को
सम्मानित करता है और इसलिए सर्वमान्य होता है।' (तत्रैव, पृष्ठ 210)
ई) सन् 1962 में 15 अगस्त के दिन ठेंगड़ी जी ने 'Our Enemy Number Two इस
शीर्षक का लेख प्रकाशित किया। उन्होंने लेख के आरंभ में ही उल्लेख किया कि यदि
आत्मविस्मृति यह भारतवर्ष का पहला दुश्मन है, तो वैचारिक संभ्रम याने
confusion of thought यह दूसरा दुश्मन है। और इस दुश्मन को समाप्त करने के लिए
हमने भारतीय भावविश्व पर गहरा चिंतन करना चाहिए। इस संदर्भ में ठेंगड़ी जी
लिखते हैं कि 'आहार, निद्रा, भय और मैथुन' ये हर इन्सान की प्राथमिक इच्छायें
हैं। वास्तव में इन इच्छाओं को व्यक्त करने वाला एक संस्कृत लोक सबको भलीभाँति
परिचित है।
आहार निद्रा भय मैथुनम् च।
सामान्य भेतद् पशुभिर्तराणाम्।
धर्मोडिहि तेषामधि को विशेषो।
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।
इस श्लोक में पहली पंक्ति मनुष्य की प्राथमिक इच्छाओं पर प्रकाश डालती है।
ठेंगड़ी जी का इसी पंक्ति का interpretation बहुत ही सारगर्भित है।
Our ancient thinkers recognised four elemental urges: Ahara, nidra, bhaya
and maithunameha.
In keeping with the Bharatiya tradition of conveying maximum meaning
through the minimum words, each of these words is symbolic. The term ahara'
stands for what in modern terminology would be described as the right to
livelihood, the right to work and wages. Basic wages, dearness allowance,
increments, bonus and various other allowances would thus be covered by the
term "ahara'.
'Nidra' symbolises the right to rest. Modern demands for the regulation of
working hours and the workload, for paid holidays and adequate leave
facilities, are all covered by the term 'nidra'.
'Bhayam' means apprehension. In the industrial context it stands for
apprehension of unemployment, discontinuity of service, sickness,
accidents, old age, premature death, etc. Unemployment, provision for
security of service, workmens' compensation, provident fund, Employees'
state Insurance, old-age pension, gratuity, retrenchment compensation,
widowhood allowance... all these and other social security measures which
are calculated to ensure workers against all apprehensions.
The last term signifies minimum comforts of life. Different labour welfare
schemes, industrial housing schemes, etc. serve their purpose.
Thus these four terms symbolise, practically all the charters of Demands
put forth by the workers' organisations Instead of emphatically forwarding
them as Elemental Urges. (See D.B. Thengadi, The Perspective, p.11)
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी खुद के साहित्य से हमें मार्गदर्शन कर रहे हैं कि अपने
प्राचीन ज्ञान भंडार में जो अनमोल संपदा है, उसका हम interpretation कैसे
करें?
सन् 1942 में ठेंगड़ी जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के नाते भारत के
सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट हुए। तब उनका कार्यक्षेत्र था केरल बाद में उनको
बंगाल प्रान्त में संघकार्य करने का अवसर मिला। सन् 1947 में भारत स्वतंत्र
हुआ, परंतु पश्चिमी अँग्लो सॅक्सन वायुमंडल से प्रभावित नेतागण स्वतंत्र भारत
के सत्ताधीश बने। उन्होंने प्राचीन भारत से जोड़ने वाली अपनी जड़ों पर ही
प्रहार करना उचित समझा। वामपंथी विचारकों ने नत्कालीन सत्ताधीशों को कार्य में
सहकार्य किया। परिणामतः एक तरफ अँग्लो सॅक्सन विश्व का अन्धानुकरण करने वाले
तथाकथित आधुनिक भारत के प्रवक्ता और दूसरी तरफ चिरपुरातन, नित्यनूतन भारत की
विरासत के समर्थक मानो दो खेमों में विभाजित हुए। ठेंगड़ी जी, दीनदयाल जी,
एकनाथ जी आदि ध्येयनिष्ठ प्रचारक श्रीगुरु जी के नेतृत्व में भारतीय भावविश्व
के अधिष्ठान पर राष्ट्रीय पुननिर्माणि के कार्य में व्यग्र थे। ऐसे महानुभावों
को तत्कालीन अभिमतकर्ताओं से जूझना पड़ा। उन पर तथाकथित सेक्युलॅरिस्ट अभियोजन
चारों ओर से टूट पड़े। लेकिन अंतिम विजय भारतीय भावविश्व के समर्थकों की ही
हुई।
माननीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी ऐसे पराक्रमी महानुभावों के श्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं।
उनके भाषण और उन्होंने लिखे हुए लेख वर्तमान में हम लिए अनुपम प्रेरणास्रोत
हैं। इसी प्रेरणास्रोत के माध्यम से हम प्रतिनिधि हैं।
'जो लोग मानवता की सच्ची सेवा करना चाहते हैं उन्हें अपने सुख-दु:ख,
कीर्ति-प्रतिष्ठा तथा अन्य समस्त स्वार्थों को गठरी में बाँधकर पद में फेंक
देना चाहिए और भगवान के चरणों में आना चाहिए।' ...यही है शाश्वत विवेकानंद
वाणी।
ठेंगड़ी जी को विनम्र अभिवादन।
दत्तोपंत ठेंगड़ी : सामाजिक समरसता के भाष्यकार
प्राचार्य श्याम अत्रे
मुंबई (महाराष्ट्र)
ज्येष्ठ तत्त्वचिंतक श्री दत्तात्रेय बापूजी उपाख्य दत्तोपंत ठेंगड़ी जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पाँच दशकों से अधिक समय तथा आजीवन प्रचारक थे। संघ
विचारों को हृदय में धारण करने वाले, हिंदू धर्म एवं जीवन दर्शन के आशय को
समृद्ध बनाने वाले तथा आगे चलकर उस पर भाष्य करने वाले महान चिंतक थे। दूसरी
ओर इसी अवधि में सारे देश में भ्रमण करते समय सामान्य जनमानस में हिंदुत्व
विचार जगाने का कार्य आप कर रहे थे। आपने कितनी बार पूरे देश की खाक छानी
होगी, इसकी गिनती ही नहीं। साथ ही अपने पारदर्शी एवं आत्मीय आचरण द्वारा कितने
लोगों को अपने संघ विचारों के साथ जोड़ दिया होगा, इसकी गिनती भी कौन करे?
समूचा हिंदू समाज ही अपना ऐसी धारणा से वैचारिक मतभिन्नता के परे जाकर विभिन्न
विचार प्रणालियों के साथ धर्मों के धुरीणों के साथ अपनत्व का नाता आपने जोड़ा।
अपने असीम जनसंपर्क के माध्यम से जनमानस की नब्ज को सही ढंग से आप पहचानते थे
तथा यथार्थ का समुचित भान आपको निरंतर हुआ करता था। विचारों की दृढ़ता तथा
संगठन की रचना पर होने वाला पूरा अधिकार इनसे आप कृतिशील चिंतक माने गए। संघ
के वैकल्पिक रूप में हिंदुत्व दर्शन को तो आपने विकसित किया ही, पर उसके साथ
संघ परिवार के अंतर्गत कितनी संस्थाओं को, संगठनों को सैद्धांतिक बैठक आपने
उपलब्ध करा दी। संघ परिवार में से कितने ही संगठन एवं संस्थाओं के आप प्रणेता
एवं संस्थापक थे। मजदूर क्षेत्र में काम करने वाले 'भारतीय मजदूर संघ' नामक
संगठन की आपने स्थापना की तथा देश में अव्वल दर्जे के और पहले क्रमांक के
देशव्यापी मजदूर संगठन के कप में उसे आगे बढ़ाया। शिक्षा एवं विक्षार्थी
क्षेत्र में अपना प्रभाव निर्माण करने वाली 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्',
आर्थिक जनतंत्र, स्वाधीनता एवं स्वावलंबन आदि का पुरस्कार करने वाला 'स्वदेशी
जागरण मंच' किसानों को अपनी ताकत का लिहाज करा देने वाला 'भारतीय किसान संघ',
सभी धर्मों-पंथों का सूक्ष्म अध्ययन करके उनमें आपस में समझौते एवं सुलह के
पुल बांधने वाला 'सर्वपंथ समादर मंच', कलाओं के मूल्य को जनमानस में जगाने
वाली 'संस्कार भारती', आज देश की विषयसूची पर सबसे आगे होने वाला 'सामाजिक
समरसता मंच' एक ही नहीं, तो कितने सारे नाम भी कितने गिने जाएं! इन सभी
संगठनों को अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा 'समाज में प्रस्थापित किया। उन्हें
आगे बढ़ाया, उनका विकास किया। उन्हें तात्विक बैठक विकसित करा दी, इतना ही
नहीं, तो कुशल संगठन के नाते उनकी संगठनात्मक रचना भी आपने करा दी। आज ये सभी
संस्थाए-संगठन भारतीय समाज के निर्माण का तथा उनके स्तर को ऊपर उठाने का
राष्ट्रव्यापी कार्य कर रहे हैं। राष्ट्रजीवन के ऊपर अपनी मुहर भी उन्होंने
प्रभावी ढंग से लगाई है।
वैसे देखा जाए तो दत्तोपंतजी ग्रांथिक विद्वान नहीं थे अथवा ग्रंथालयीन संशोधक
या अभ्यासक नहीं थे, फिर भी अपनी प्रगल्भ एवं चातुर्य बुद्धिमत्ता के बल पर
अपनी वैचारिक धारणा को आपने व्यापक और मजबूत बना लिया था। अपने काफी कुछ
व्यस्त दिनक्रम में भी आप कुछ पढ़ने के लिए फुर्सत निकाला करते थे। निरंतर हो
रही यात्रा के दौरान कुछ न कुछ पढ़ने में मगन हुआ करते थे। उस दृष्टि से उनके
हर एक प्रवास में चुनिन्दा ग्रंथ आपके साथ हमेशा होते थे। मराठी, हिंदी और
अंग्रेजी सैकड़ों वैचारिक ग्रंथों का पठन ध्यानपूर्वक आपने किया। आपकी
स्मरणशक्ति एवं चिंतन क्षमता असीम थी। उसके फलस्वरूप अपने लेखन तथा
व्याख्यानों में अपने पढ़े हुए ग्रंथों के बहुत सारे फिर भी सही संदर्भ आप
दिया करते थे। आपका प्रतिपादन मंडन तर्कशुद्ध, साधार तथा विचार समृद्ध हुआ
करता था। आपके इस विशाल पठन द्वारा ही आपके जीवन संबंधी आकलन को समग्रता
प्राप्त हुई थी।
आपके कितने सारे भाषण तर्कशुद्ध वैचारिक प्रतिपादन का सुनिश्चित-आकर्षक हुआ
करता था। कोई वास्तुविशारद बढ़िया- आकर्षण गृहशिल्प का आरेखन करे अथवा कोई
शिल्पकार अपनी अनोखी शैली से सुंदर सा मोहक शिल्प निर्माण करे, इस कोटि का
प्रभावी आपका भाषण हुआ करता था। आपके बहुत से भाषण ग्रंथ बद्धहोकर प्रकाशित
हुए हैं, उनमें इसके दर्शन हो सकते हैं। कितने ही ग्रंथों के लिए आपने
प्रदीर्घ फिर भी विवेचक भूमिकायें लिखी हैं। उनके द्वारा आपके गाढे व्यासंग का
परिचय होता है। 'पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन' शीर्षक के द्विखंडात्मक
ग्रंथ के लिए आपने प्रदीर्घ प्रस्तावना लिखी है। प.पू. श्री गुरुजी गोलवळकर
लिखित 'राष्ट्र' शीर्षक के ग्रंथ की प्रस्तावना आपने लिखी है। ये दोनों
प्रस्तावनायें माने एक स्वतंत्र ग्रंथ की ही सामग्री जो है। दीनदयाल जी
प्रतिपादित 'एकात्म मानव दर्शन' पर आपने किया हुआ विस्तृत भाष्य आपके चिंतन की
परिधि का दर्शन कराता है। 'द थर्ड वे' और 'सामाजिक क्रांतिची वाटचाळ व डॉ.
अंबेडकर' ये आपके लिखे ग्रंथ, ये वैचारिक क्षेत्र में मानो मील के पत्थर ही जो
हैं। आपने हर एक उक्ति और कृति को राष्ट्रीय पुनरुत्थान के व्यापक संदर्भ का
परिणाम प्राप्त हुआ था। सामाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का आपका आकलन, समाज
एवं संस्कृति के बलस्थानों का आपको होने वाला ख्याल, इससे आपके लेखन में
यथार्थ का 'भान और साथ-साथ आदर्श में लगन भी थी। आपके लेखन तथ भाषणों में से
आपके विचार व्यूह का भेद बड़ी ही आसानी से होता चलता है तथा चिंतन के रूप में
आपकी महानता झलकती ही चलती है। इस पृष्ठभूमि पर 'समरसता' इस विषय से संबंधित
आपका गहरा चिंतन तथा 'सामाजिक क्रांतिजी वाटचाल व डॉ. अंबेडकर' इस ग्रंथ में
आपने रेखांकित किया हुआ समाज प्रबोधन का आलेख और संदर्भ में डॉ. अंबेडकर जी की
धारणा इन दो विषयों का ऊहापोह, इस लेख में किया जा रहा है।
'सामाजिक समरसता मंच' इस मंच की सन् 1983 में महाराष्ट्र में स्थापना हुई। उस
वर्ष दिनांक 14 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर जी का जन्म दिन था और संयोगवश उसी दिन
चैत्रशुक्ल प्रतिपदा थी माने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का भी जन्म दिन था। उस
पवित्र पर्व का औचित्य साधते, पुणे में दिनांक 14 अप्रैल 1983 के दिन 'सामाजिक
समरसता मंच' की स्थापना हुई। उसके पीछे दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की प्रेरणा थी। उस
दिन आयोजित विशाल सभा में दत्तोपंत जी ने 'समरसता' यह विषय सामाजिकता के आधार
पर विस्तार से प्रतिपादित करने वाला बीज भाषण प्रस्तुत किया। तभी से
महाराष्ट्र में मंच का कार्य आरंभ हुआ। सभी, सम्मेलन, परिषदें, बैठकें,
अभ्यासवर्ग आदि माध्यम द्वारा 'समरसता' इस विषय की बड़े पैमाने पर प्रगति होती
चली। उसे कितने ही कृति कार्यक्रमों का साथ मिला। आज समरसता यह विषय देशव्यापक
बन गया है और रा. स्व. संघ के कार्य में एक महत्वपूर्ण स्थान उसे प्राप्त हुआ
है। इस समूचे मार्गक्रमण में दत्तोपंत का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण और
मूल्यवान था। उसमें से सारभूत कुछ महत्वपूर्ण अंश को अब देखें!
समता शब्द के प्रचलित होते 'समरसता' इस कुछ अलग-सी संकल्पना की प्रस्तुति करना
कहाँ तक जरूरी है, ऐसा सवाल मंच की स्थापना से ही पूछा जा रहा है। इस सवाल से
यहाँ के विचार विश्व में किसी हदतक खलबली सी मची है। फिर भी कम से कम शुरू के
काल में यह विषय संघ और संघ परिवार तक ही सीमित है, ऐसा विरोध करने वालों ने
गृहित माना था, जिससे उनके विरोध में तीव्रता कहीं थी नहीं। और तो और 'समरसता'
इस संकल्पना का सही अर्थ क्या होगा तथा सामाजिक आशय उसकी व्यापकता कितनी कैसी
और साथ ही सामाजिक अभिसरण की दृष्टि से उसके परिणाम कितने व्यापक एवं दूरगामी
होंगे, आदि का अध्ययन करते केवल विरोध के लिए विरोध करने का सूत्र इस संकल्पना
के विरोधकों ने अपनाया हुआ दिखाई देता है। फिर भी इस संदर्भ में संघ की धारणा
बिल्कुल स्पष्ट होकर उस दृष्टि से उसकी कार्यवाही भी की जा रही है। यह धारणा
सकारात्मक होकर समाज एकात्म एकरस होना आवश्यक है। संक्षेप में समरसता यह
भारतीय राष्ट्रवाद का सामाजिक आशय है।
असल में संघ की धारणा ऐसी है कि समाज में दिखाइ दे रही विविधता यह एक
स्वाभाविक विषय ही है। इसके विपरीत विषमता यह मानवनिर्मित है। विविधता यह एक
स्वाभाविक के होते हुए भी अपनी विशेषताओं को कैसे निभाया जा सकता है तथा
उन्हें निभाते हुए भी समाज में एकात्मता का-समरसता का भाव कैसे निर्माण किया
जा सकता है, यह हिंदू संस्कृति ने और समाज ने पिछले हजारों वर्षों से दिखाया
है। उसी सांस्कृतिक धरोहर का संघ प्रतिनिधित्व करता है। और ध्यान देने लायक
यही, कि 'समता' यह ऐहिक संकल्पना होने के साथ समाजधारणा के लिए वह आवश्यक हो,
तो भी वह पर्याप्त नहीं होती। समता का साथ देने समाज में बंधुभाव एवं
ममत्वबुद्धि अगर हो, तो समरसता का रसायन बन जाता है। इसलिए विराम समाजधारणा
हेतु समता के साथ ही समरसता यह जीवनमूल्य भी आवश्यक होता है, ऐसी संघ की धारणा
है। इसलिए समता अथवा समरसता इस प्रकार का अंतद्वंद्व या संघर्ष समाज में खड़ा
करना उचित नहीं, संघ को भी वैसा कुछ अभिप्रेत नहीं।
किसी भी संकल्पना या मूल्यांकों को समाज द्वारा स्वीकृत कराना हो, तो उस
प्रक्रिया का आरंभ घर परिवार से ही करना चाहिए। इसलिए समरसता के इस भाव को
पहले संघ में और संघपरिवार में दृढ़ बनाने पर बल देना सहज स्वाभाविक है। लेकिन
यह विषय केवल संघ या संघ परिवार तक सीमित न होकर समूचा समाज यह उसका लक्ष्य
है। 'समरसता' यह व्यक्ति के तथा समाज के मानसिक परिवर्तन के साथ जुड़ी हुई
संकल्पना है। तभी तो वह धीमी गति से प्रदीर्घ काल तक चलने वाली प्रक्रिया है।
इस पृष्ठभूमि पर 'समता' एवं 'समरसता' इन संकल्पनाओं का समुचित आकलन होना
आवश्यक है। लगभग दो ढाई सौ बरसों पहले हुई फ्रेंच राज्यक्रांति के दौरान
'स्वतंत्रता', 'समता एवं बंधुता' इस तत्वत्रयी का बीजारोपण हुआ। इस
राज्यक्रांति की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य हॉब्ज, लॉक तथा रूसो,
व्हॉल्टेअर इन दर्शनिकों ने किया। उनके तत्वचिंतन में से इस तत्वत्रयी का
नवनीत हाथ लगा। उनसे प्राप्त हुई प्रेरणा से फ्रान्स की राज्यक्रांति हुई।
समता यह इन तीन संकल्पनाओं में से एक है। वह मूलतः ऐहिक एवं भौतिक रूप की है।
उसमें निहित सूत्र आम तौर पर सामाजिक विषमता के विरोध में है। इस विषमता के भी
कितने ही पहलू हैं। आम तौर पर विषमता हम अनुभव करते हैं, वह होती है आर्थिक,
सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में, साथ ही प्रकृति प्रदत्त स्वभाव एवं
संगोपन सिद्ध रूप में तथा जीवन व्यवहार में से अभिव्यक्ति में नैतिक एवं
सांस्कृतिक आयामों को इस संकल्पना के साथ जोड़ना जरूरी है। इस पर पाश्चात्य
चिंतकों ने गौर किया हुआ दिखाई नहीं देता और बात ऐसी, कि सभी क्षेत्रों हर
हालत में समता प्रस्थापित होना क्या आवश्यक तथा संभव भी होगा, यह भी एक सवाल
है। एक सुविख्यात ब्रिटिश चिंतक अपने निबंध में कहते हैं, 'सभी को पूर्ण तथा
समता के आर्थिक स्तर पर लाकर आर्थिक समता प्रस्थापित करना यह शायद असम्भव ही
होगा तथा वैसा करना यह शायद हानिकारक एवं अव्यवहार्य भी होगा।' आर्थिक समता के
संदर्भ में जो सत्य है, वह कुल मिलाकर समता इस संकल्पना के संबंध में ही सत्य
है। उन्हें जो समता अभिनेत्री है, वह अवसर उपलब्धि की समानता में है। भारतीय
चिंतक डॉ. अंबेडकर कहते हैं, 'स्वतंत्रता, समता और बंधुता ये तत्व मानो यह
त्रिमूर्ति है। उनमें से हर एक अलग स्वतंत्र है, ऐसा न माना जाए। इन तीन
संकल्पनाओं में से किसी एक ने दूसरी को अगर तलाक दिया तो के प्रयोजन की ही हार
होगी।' इन संकल्पनाओं के परस्परावलंकि अंबेडकर जी ने बिल्कुल समुचित शब्दों
में प्रतिपादित किया है। इसलिए उनका यह भाष्य बड़ा ही महत्वपूर्ण है।
समाज के सभी क्षेत्रों में सिर्फ समता प्रस्थापित करने से समाज के समक्ष सभी
समस्याएयें हल होंगी ऐसा उसका आशय नहीं। उस हेतु समता इस संकल्पना के साथ
भावात्मकता को जोड़ना चाहिए। यह भावात्मकता मानो हर एक व्यक्ति के मन में आपस
में हर दूसरे को लेकर होने वाला, आदर, प्रेम, आत्मीयता एवं बंधुभाव! फ्रेंच
राज्यक्रांति भी तत्वत्रयी में समता का जैसा कि निर्देश है, वैसा बंधुता का भी
स्वतंत्र निर्देश किया गया है। इसके माने यही कि पाश्चात्यों की 'समता' इस
संकल्पना में 'बंधुभाव' का समावेश नहीं होता। वैसा अगर होता, तो 'बंधुता' इस
संकल्पना का स्वतंत्र अलग निर्देश क्यों किया जाता? इसी में से 'समरसता' इस
संकल्पना की सीमायें स्पष्ट होती हैं। इसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जा
सकता है। पुरानेजमाने से चलते आए अस्पृश्य और दलित समाज को सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में अन्य समाज के समान केवल बराबरी का स्थान और
अवसर प्राप्त होने से क्या उनकी सभी समस्यायें हल हो पायेंगी? जो समस्यायें
आत्मसम्मान के साथ, सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ जुड़ी हुई हैं, स्वीकार्यता के
साथ, सामाजिक अभिसरण के साथ जुड़ी हुई हैं, उन्हें बंधुभाव को आत्मीय भाव के
साथ जोड़ना आवश्यक है। इसलिए समता के समर्थकों द्वारा समता अथवा समरसता ऐसा
द्वंद्व समाज में निर्माण करना उन्हें शोभा न देगा।
इस पृष्ठभूमि पर 'समरसता' इस संकल्पना पर हम सोचें! समता को समता का जब साथ
मिलता है, तब 'समरसता' निर्माण होती है। 'समरसता' संकल्पना समता को अस्वीकार
नहीं करती, तो समता के अधुरापन का ख्याल कर, उसे ममता का साथ मिलना चाहिए, इस
अधोरेखित करती है। समाज में से सभी घटकों में आपस में एक-दूसरे के लिए बंधुभाव
निर्माण हुआ, तो ही समता की यात्रा समरसता की दिशा में आगे बढ़ सकती है।
'समरसता' का भाव समूचे समाज में स्थायी बन गया, तो स्वाभाविक विविधता में भी
एकता, एकात्मता अनुभव होने लगती है। समाज में स्थिर बने ऊँच-नीच भाव झड़ने
लगते हैं। इसीलिए समता जितना ही समरसता के लिए आग्रह होना चाहिए। एकता यह
सामाजिक जीवन का मूल्य होता है। उसे प्रस्थापित करने समरसता को समर्थन देना
आवश्यक है। उसी के द्वारा जातिभाव के अभिनिवेश का विकास होगा और एकात्म, एकरस
एवं सुसंगठित समाज निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा इसमें कोई संदेह नहीं।
समरसता यह केवल बौद्धिक एवं सैद्धांतिक चर्चा का विषय नहीं। वह प्रत्यक्ष जीवन
में आचरण करने का, व्यवहार का विषय है। इसीलिए उसका बुद्धि के साथ भावना
द्वारा भी स्वीकार होना चाहिए। तभी जाकर उसका प्रत्यक्ष जीवन में आचरण हो
पाएगा। इस प्रकार समरसता के माध्यम से समाज में उचित होने वाला मानसिक
परिवर्तन लाना तथा उसके अनुसार प्रत्यक्ष जीवन में आचरण होना इसका अन्य कोई
विकल्प नहीं!
इस समरसता को जनमानस में दृढ़ बनाना यह तो एक लंबा रास्ता ही है, परंतु वही
एकमात्र मार्ग होने से सबसे नजदीक का मार्ग है। उसका विशेष यही, कि प्रत्यक्ष
आचरण करने की सर्वाधिक संभावना हाने वाला वह मार्ग है। इसलिए 'समरसता' इस विषय
को लेकर केवल तात्विक माथापच्ची न करते, समाज में समता के साथ ही समरसता कैसे
और किस मार्ग से लाई जा सके, यह समाजसुधारकों के समक्ष सबसे बड़ा आह्वान है।
इस आह्वान को कैसे निभाया जाता, किस गति से उसे निभाया जाता, इस पर इस राष्ट्र
का भविष्य निर्भर करता है।
समरसता, समता इन विषयों के संदर्भ में दत्तोपंत जी की विचार प्रणाली कैसी थी,
यह विशद हो, इस उद्देश्य से आपने कई बार किए हुए प्रतिपादन को साररूप में यहाँ
प्रस्तुत किया है। दत्तोपंत जी का गहरा अध्ययन, आपका किसी भी विषय से संबंधित
चिंतन कितना गहरा कितना समाज निष्ठ था, इसकी प्रतीति करा देने वाला यह विचार
व्यूह है। किसी भी सामाजिक समस्या की जड़ तक सीधे जा पहँचना, उस समस्या का
यथोचित आकलन करा लेना, उसके रूप स्वरूप का सर्वांग परिपूर्ण परिचय करा लेना,
तथा उस दिशा में आगे बढ़ते उसका उत्तर खोज निकालना, ऐसी किसी भी समस्या का
सामना करने की आपकी शैली थी। समस्या कैसी भी जटिल क्यों न हो, तो भी शांतचित्त
होकर उस उलझन को सुलझाये बगैर कोई हल निकलेगा नहीं, ऐसी आपकी धारणा थी। आज
समाज के समक्ष जो भी समस्यायें उभर आई हैं, वे सभी समरसता के अभाव में से
निर्माण हुई हैं। इसीलिए समाज में समरसता का भाग जागृत करना यही उसका इलाज हो
सकता है, ऐसी इस संदर्भ में आपकी धारणा थी।
अपने देहावसान के कुछ सप्ताह पहले दत्तोपंत जी ने 'सामाजिक क्रांतिची वाटचाल व
डॉ. अंबेडकर' यह बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखकर पूरा किया। तीन सौ पृष्ठों का
मूल विषय का विश्लेषण और अगले पृष्ठों में वीर परिशिष्ट, ऐसी इस ग्रंथ की रचना
है। अपने समूचे जीवन भर सारसर्वस्व इस ग्रंथके रूप में आपने अध्येताओं के साथ
सक्षम रखा है। दत्तोपंत जी को आंबेडकर जी के जीवन के अंतिम 5-6 बरसा में उनके
निकट सहवास का सौभाग्य मिला था। डॉ. अंबेडकर जी के जीवन एवं कार्य का सार तथा
उसके समाज के ऊपर हो रहे दूरगामी परिणाम, इन्हें लेकर आपने निरंतर चिंतन किया
था। इस ग्रंथ में आपने सौ से अधिक पाश्चात्य एवं भारतीय चिंतकों और लेखकों के
संदर्भ दिए है। उसकी व्यापकता को देखते अपने भरेपूरे व्यस्त जीवनक्रम के दौरान
भी आपने अपने लेखन के हेतु कितनी- कैसी पूर्व तैयारी की थी, यह दिखाई देता है।
इस ग्रंथ का दोहरा महत्व है। रा.स्व. संघ के विचारों के भाष्यकार के रूप में,
उन्नीसवीं सदी में हुए समाज प्रबोधन आंदोलन का मूल्यमापन एवं विश्लेशण आपने
किया है और तो और सामाजिक क्रांति के हो रहे मार्गक्रमण की पृष्ठभूमि पर आपने
बाबासाहब के व्यक्तित्व में तथा विचारविश्व में अवगाहन किया है। इस दृष्टि से
इस ग्रंथ का रूपस्वरूप कुछ अनोखा ही बना है। प्रतिपाद्य विषय के संदर्भ में
बाबासाहब के जीवन में से महत्वपूर्ण घटनाओं का जितना परामर्श लेना जरूरी है,
उतना ही लिया हुआ दिखाई देता है। वैसे तो लेखक का मूल उद्देश्य बाबासाहब की
मूल धारणा और वैचारिक दृष्टिकोण इनका चिकित्सकीय अध्ययन करने का है। सही मायने
में यह डॉ. आंबेडकर की रूढ़ जीवनी नहीं तथा केवल व्यक्ति विमर्श भी नहीं, उसका
स्वरूप विचार विमर्श का है।
महाराष्ट्र में प्रबोधन पर्व का शुभारंभ सन् 1832 में आचार्य बालशास्त्री
जांभेकर जी द्वारा प्रथम प्रकाशित 'दर्पण' नामक मराठी अंग्रेजी साप्ताहिक
पत्रिका से हुआ। तब तक अंग्रेजों ने अपनी सत्ता को स्थायी बनाना आरंभ किया था।
पाश्चात्य ढंग की शिक्षा, आधुनिक प्रशासन यंत्रणा और वैज्ञानिक सुधारों का
प्रयोग आदि साधनों के माध्यम से अंग्रेजों ने यहाँ परिवर्तन प्रक्रिया आरंभ
की। पिछली कई सदियाँ पराधीनता में तथा अराजक सदृश्य परिस्थिति में गुजारने
वाले भारतीयों के लिए यह परिवर्तन कुछ नया ही जो था। 19वीं सदी की पहली कम से
कम 4-5 पीढियाँ, इस परिवर्तन से अभिभूत हो गई थीं। इतना ही नहीं तो अंग्रेजी
राज को वे ईश्वरीय वरदान... ही मानते थे। अंग्रेजोंकी आधुनिकता के कारण ही इस
प्रक्रिया का मूल्यमापन करते हुए दत्तोपंत जी कहते हैं, 'इस प्राचीन समाज की
सांस्कृतिक विरासत मिट्टी में मिले और अंग्रेजी से पूरी तरह प्रभावित समाज
यहाँ निर्माण हो, यहाँ तक कि अंग्रेजों ने आरंभ किए आधुनिकीकरण के इरादे।
उन्नीसवीं सदी के प्रबोधन पर्व में चार प्रमुख परिवर्तन प्रवाह हैं, ऐसा लेखक
का विश्लेषण है और उसकी यथार्थ मीमांसा भी आपने की है। पहला नया, रानडे का
अध्यात्मनिष्ठ, उदार मतवादी, सर्वांगीण सुधारवाद नरम दल के इस प्रवाह में बाल
शास्त्री जांभेकर, लोकहितवादी रानडे, गोपाल कृष्ण गोखले का समावेश होता है।
दूसरा विष्णुशास्त्री चिपलूणकर और लो. तिलक इनका सामाजिक सुधारों की अपेक्षा
राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्ति का महत्व जताने वाला परंपरानिष्ठ, गरम आक्रमण
भावनात्मक तथा राष्ट्रवाद। तीसरा गो. ग. आगरकर का इहवादी विज्ञाननिष्ठ
व्यक्तिवादी सुधारवाद। इन तीनों प्रवाहों से अलग होकर बहने वाला म. फुले का
बहुजन एवं दलित समाज के उत्थान का क्रांतिकारी सुधारवाद यह चौथा प्रवाह।
पहले तीनों प्रवाहों पर भाष्य करते हुए लेखक कहते हैं, 'इन तीनों प्रवाहों में
सामाजिक समता, जातिनिर्मूलन, अस्पृश्यतानिवारण ये विषय केवल तात्विक स्तर पर
चर्चा के रूप में ही आगे बढ़ाये गए। इन सभी को अभिप्रेत प्रत्यक्ष सुधारों का
आशय व्यक्तिगत पारिवारिक स्तर पर उच्चवर्गीय समाज के घेरे के बाहर पहुँचा ही
नहीं। परिवर्तन के ये प्रवाह वास्तव में कार्य की दृष्टि से देखा जाए तो केवल
समाज के मध्यवर्गीय स्तर से ही जुड़े हुए सीमित रहे। इस वैचारिक आंदोलन को
कृतिशीलता का मजबूल साथ मिला नहीं क्योंकि यह उन प्रवाहों की सीमा ही जो
ठहरी।'
इन सीमाओं को छेद देते हये तथाकथित उच्चवर्णीय समाज के सुधारों की परिधि के
बाहर चलकर समाज जीवन के बिल्कुल गहरे स्तर पर होने वाले समाज घटकों के सुधार
का सर्व प्रथम क्रियाशील गहरे स्तर पर होने वाले समाज घटकों के सुधार का सर्व
प्रथम क्रियाशील समर्थन जिन्होंने किया, वे क्रियाशील सुधारक क्रांति के
अग्रदूत ने इन शब्दों में किया है। म. फूले ने अपने वैचारिक आंदोलन के माध्यम
से समाज जीवन का आमूलाग्र मंथन किया। इस क्रांति को आंदोलन का रूप दिया।
सुधारवाद से क्रांतिशीलता को जोड़ दिया। "अपनी समाज रचना के अंतर्गत जन्मजात
ऊँच-नीच, ऊँचनीच भाव एवं अस्पृश्यता ये ही सामाजिक विषमता के मुख्य कारण हैं।"
ऐसा उनका विश्लेषण था। ऐसा करने के लिए समाज के जो अंग उत्तरदायी थे, उनके ऊपर
उन्होंने करोड़ टीका-टिप्पणी की। उन्होंने शूद्रातिशूद्रों की लड़कियों के लिए
पहली पाठशाला खोली। पाँव फिसली हुई महिलाओं के लिए प्रसूतिगृह और गर्भालय
खोला। अपने घर के सामने वाला पानी का हौज अस्पृश्यों सहित समूचे समाज के लिए
खुला कर दिया। किसानों के सम्मेलन आयोजित किए, ब्राह्मणों के दमनकारी दाँवपेच
खुल कर समझाये। सार्वत्रिक और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के सिद्धांत का समर्थन
करते 'झरना सिद्धांत' को अस्वीकार किया। 'सत्यशोधक समाज स्थापित करते अपने
कार्य को संस्थात्मक रूप दिलाया तथा समाजधारणा के लिए धर्म की होने वाली जरूरत
को देखते परिष्कृत रूप में 'सार्वजनिक सत्यधर्म' शीर्षक से नई रचना करने का
प्रयास उन्होंने किया। नारी प्रतिष्ठा के संदर्भ में उन्होंने व्यक्त किए हुए
विचार आज भी क्रांतिकारी दिखाई देते हैं। उनके लेखन और वाणी में होने वाली
कठोरता की अपेक्षा तथा ऊजड़ अभिव्यक्ति की अपेक्षा होने वाले सत्व को, आशय को
और मूलगामी चिंतन को अगर महत्वपूर्ण माना, तो म. फूले की महानता का सही परिचय
हो पाएगा।
इसके पश्चात् दत्तोपंतजी ने सन् 1890 से 1920 इस संधिकाल के दौरान सामाजिक
क्रांति के मार्गक्रमण का संक्षेप में समालोचना की है।
सत्यशोधक समाज के मूल तत्व का महात्मा फुले के अनुयायियों को सही आकलन न होने
से ब्राह्मण-ब्राह्मणेत्तर आंदोलन में हुआ परिवर्तन, 'सार्वजनिक सत्यधर्म' का
हुआ विस्मरण, इन्हें देखते शिष्यों ने ही गुरु को पराजित किया, ऐसे निष्कर्ष
पर लेखक पहुँचे हैं। फिर भी इस संधि काल के दैरान इस प्रवाह को बहता रखने के
लिए कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज, बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़, महर्षि
विठ्ठल राम जी शिंदे आदि ने किए हुए कार्य को दाद देते हुए, उसका महत्व भी
विशद किया है। अंबेडकर क्रांति की यात्रा का रूप ऐसा ही कुछ था।
उस समय की सामाजिक परिस्थिति की ओर देखते, बाबासाहब ने अपने बचपन में दिल
दहलाने वाली अस्पृश्यता जो अनुभव की, वह शायद कुछ खास मानी न जाए, तो भी
इंग्लैंड-अमेरिका के विश्वविद्यालयों से एक से बढ़कर एक उपाधियाँ पाकर भारत
लौटे हुए बाबा साहब को जो भी कुछ भुगतना पड़ा, उसे देखते विद्वताप्राप्त
बाबासाहब की ओर देखने के सवर्णों के दृष्टिकोण में तनिक भी परिवर्तन-सुधार हुआ
नहीं, अस्पृश्यता के अपमानास्पद भोग उन्हें भुगतने पड़े, यह बड़ी ही दु:ख देने
वाली शर्मनाक बात है। बाबासाहब ने पाई हुई उपाधियाँ, उसमें होने वाले विषयों
की व्यापकता, उस हेतु उन्होंने किया हुआ प्रचंड वाचन-पठन, सहे हुए कष्ट, हर एक
उपाधि हेतु लिखा हुआ विद्यमान ग्रंथ, ऐसा बाबासाहब के ज्ञानार्जन का इतिहास
युवा वर्ग को प्रेरणा पाने के लिए पढ़ना चाहिए।
सन् 1923 में भारत लौटने के पश्चात् सन् 1935 में येवला में धर्मांतरण घोषित
करने तक की बाबासाहब के जीवन की कालावधि रचनात्मक कार्य की, संघर्ष की, आंदोलन
भरी ही रही। उनका प्रत्येक विचार एवं कृति एक ओर दलित समाज के उद्धार हेतु थी,
तो दूसरी ओर हिंदू धर्म की आचार प्रणाली पर प्रहार करते इस समाज को एकात्म,
एकरस बनाना यह उनका जीवित कार्य था। उनकी भूमिका 'हिंदू धर्म सुधारक' थी। वे
खुद को 'प्रॉटेस्टंट हिंदू' अथवा 'नॉन कन्फर्मिस्ट हिंदू' कहा करते थे। पहले
'मूकनायक' और उसके बाद 'बहिष्कृत भारत' इन नियतकालिकों में जातिव्यवस्था,
ऊँच-नीच, अस्पृश्यता तथा सामाजिक विषमता आदि पर कठोर आघात किया करते, हिंदुओं
के आचारधर्म पर कठोर टिप्पणियाँ करते चले। पहले 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' और
बाद में 'समाज-समता संघ' इनकी स्थापना करते, समाज प्रबोधन के आंदोलन को
उन्होंने संस्थात्मक रूप दिलवाया। महाड के चवदार तालाब का सत्याग्रह, पुणे में
पर्वती और नाशिक का कालाराम मंदिर-वहाँ के मंदीर प्रवेश सत्याग्रह, स्थान
स्थान पर आयोजित अस्पृश्यता परिषदें, आदि ही प्रयासों द्वारा दलित मुक्ति
आंदोलन को उन्होंने विभिन्न आयाम दिलवाये। महाड परिषद में 'हर एक हिंदू के
जन्मसिद्ध अधिकारों का घोषणापत्र' प्रस्तुत किया। 'अॅनिहिलेशन ऑफ कास्ट' नामक
ग्रंथ में 'हिंदू धर्म में सुधार' के मार्ग अधोरेखित किए। उनके सभी आंदोलनों
का केंद्रबिंदु 'दलित मुक्ति' तथा 'हिंदू धर्म में सुधार' यही था। यहाँ के
सवर्ण हिंदू समाज को इसका आकलन हुआ नहीं। तब जाकर उन्होंने हताश होकर
'दुर्भाग्य से मैं अस्पृश्य समाज में पैदा हुआ। यह तो मेरा अपराध नहीं, फिर भी
मरते समय मैं 'हिंदू होकर मरूँगा नहीं', ऐसा घोषित किया। वास्तव में उसके 21
वर्ष बाद उन्होंने धर्मांतरण किया, क्योंकि तबतक हिंदू समाज की मानसिकता में
जरा भी परिवर्तन आया नहीं था, इसे वे देख रहे थे। इस संदर्भ में 'टाइम्स ऑफ
इंडिया' में प्रकाशित पत्र में उन्होंने लिखा था, 'अस्पृश्यों के धर्मांतरण से
आम तौर पर देश के ऊपर कौन-सा असर होगा, यह गौर करने लायक है। यदि वे मुसलमान
धर्म में या ईसाई धर्म में गए, तो वे अराष्ट्रीय बन जाएंगे। वे अगर मुसलमान बन
गए, तो मुसलमानों की संख्या दुगनी हो जाएगी और उससे उनकी प्रभुसत्ता बढ़ेगी।
वे अगर ईसाई बन गए, तो ईसाइयों की संख्या 5-6 करोड़ होगी। उसके परिणामस्वरूप
ब्रिटिश शासन की इस देश के ऊपर की पकड़ का मजबूत होना आसान होगा। इसके विपरीत
वे अगर सिक्ख बने, तो उससे हिंदुस्थान के भविष्य की कहीं हानि हो पाएगी... वे
अंतर्राष्ट्रीय न बनेंगी।' आगे चलकर बाबासाहब ने बौद्ध धर्म का गहरा अध्ययन
किया और उस धर्म में वे प्रविष्ट हुए। इस प्रकार सब कुछ तय करते समय उनकी
धारणा हिंदूहित की तथा राष्ट्रहित की ही रही, इस पर तथाकथित सवर्ण समाज ने
गंभीरता से कहीं गौर ही किया नहीं। बाबासाहब कहते हैं, "जो धर्म इस देश की
प्राचीन संस्कृति को हानि पहुँचायेगा अथवा अस्पृश्यों को अंतराष्ट्रीय बना
देगा, ऐसे धर्म को हरगिज हम स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि इस देश के इतिहास
में 'विध्वंसक' के रूप में अपना नाम गिना जाए, ऐसा मैं नहीं चाहता।' बाबासाहब
की महानता और साथ ही धर्मांतरण के पीछे होने वाली प्रखर देशभक्ति और विशुद्ध
समाजनिष्ठा, क्या इन सभी घटनाओं की ओर धारणा द्वारा अधोरेखित नहीं होती?
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी को डॉ. अंबेडकर जी के सहवास का प्रदीर्घ काल तक लाभ होने
से सामाजिक क्रांति का महत्वपूर्ण चरण होने वाले बाबासाहब की धर्मांतरण संबंध
में होने वाली वैचारिक धारणा का तथा मानसिक आंदोलन का पारदर्शी चित्र उन्होंने
इस ग्रंथ में रेखांकित किया है।
बाबा साहब ने अर्थविषयक गहरे चिंतन के आधार पर विद्वत्मान्य ग्रंथों का लेखन
किया, फिर भी ग्रांथिक विद्वान अर्थतज्ञ के रूप में आपको स्वीकार करने के लिए
राजी नहीं, उनके विचारों की कहीं दाद भी देना नहीं चाहते, इसका दत्तोपंतजी को
खेद था। बाबासाहब के राजनीतिक एवं वैधानिक जीवन का तथा संविधानकार के रूप में
उन्होंने किए हुए 'भीम' कार्य का चिकित्सक समालोचन दत्तोपंतजी ने किया है।
'बाबासाहब और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' इस अध्याय में कितने ही नये विषयों पर
उन्होंने प्रकाश डाला है। बाबासाहब को अपने समाज के संदर्भ में जो भी चिंतायें
सता रही थीं, उनका भी चित्रण मार्मिक संदर्भ देते हुए दत्तोपंत जी ने किया है।
बाबासाहब एक युगपुरूष ही थे तथा जैसे ही काल बीतता चलेगा, वैसे ही उनके कार्य
की महानता जनमानस पर अंकित होगी, ऐसा विश्वास दत्तोपंत प्रकट करते हैं। आपके
इस विश्वास को सार्थक करने वाला अभ्यासपूर्ण ग्रंथ माने 'सामाजिक क्रांतिची
वाटचाल व डॉ. अंबेडकर' ऐसा कहा जाता है। इसके फलस्वरूप दत्तोपंत जी केवल
सामाजिक क्रांति के ही न होकर डॉ. अंबेडकर जी के विचारविश्व के भाष्यकार के
रूप में हमारे समक्ष व्यक्त होते हैं, यही आपका महत्वपूर्ण योगदान है।
देश की एकता
- अखंडता के स्तम्भः डॉ अंबेडकर
भगवान दास गोंडाने
एडवोकेट
पूर्व प्रदेश महामंत्री, भा.म.संघ
इन्दौर, (म.प्र.)
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने कहा है :- 'संकल्प में अनन्त शक्ति है। जो व्यक्ति
किसी उत्तम कार्य का संकल्प कर लेता है, वह अपने संकल्प मात्र से बड़ी-बड़ी
बाधाओं को पार कर लेता है।'
जब कभी समाज का कोई भाग अथवा वर्ग कमजोर रह जाता है, तब समाज के शोषित,
पीड़ित, मेहनतकश वर्ग के लोगों के उत्थान एवं शोषण से मुक्त कराने के लिए कोई
न कोई मसीहा जन्म लेता है।
ऐसा ही हुआ और मध्य प्रदेश के औद्योगिक प्रमुख क्षेत्र जिला इन्दौर की तहसील
महू के कालीपल्टन नामक स्थान पर 14 अप्रैल 1891 को महार रेजिमेन्ट के सूबेदार
श्री रामजी सकपाल के यहाँ पूज्य भीमाबाई की कोख से रामजी परिवार में चौदहवें
रत्न के रूप में भीमराव ने जन्म लिया जो आगे चलकर शोषित, पीड़ित होते हुए भी
कुशाग्र बुद्धि के कारण डॉ. भीमराव अंबेडकर बने जिसे स्नेह और आदर से आज 'बाबा
साहब' के नाम से स्मरण किया जाता है।
डॉ. बाबा साहब के चौदह भाई-बहनों में से 5 भाई-बहन ही जीवित रहे जिनमें तीन
भाई और दो बहनें, बाबा साहब के अलावा बड़े भाई बलराम तथा आनंदराव, बड़ी बहनें
मंजुला एवं तुलसी ही जीवित रहे।
सूबेदार श्री रामजी के पिता श्री मालोजी महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के
मदनगढ़ कस्बे से पाँच मील दूर अंबावाड़े नामक छोटे से गाँव के थे। जिसके कारण
भीमराव का उपनाम अंबावाडेकर पड़ा था। मगर पाठशाला में शिक्षक द्वारा भीमराव के
उपनाम को पुकारने में कठिनाई आती थी, तो ब्राह्मण शिक्षक ने इस महार जाति के
अछूत छात्र को अपना स्वयं का उपनाम अंबेडकर देकर उसका गौरव बढ़ाया तथा उसे
अंबावाडेकर से अंबेडकर पुकारा। आज समूचा मानव समाज डॉ. भीमराव अंबेडकर के रूप
में उन्हें जानता है।
महार जाति महाराट्र की एक प्राचीन और बहादुर जाति है। सामाजिक अत्याचारों और
छुआछूत के भयानक आक्रमणों के बावजूद इसी जाति ने अंबेडकर जैसे उच्च कोटि के
विद्वान, विधिवेत्ता, सच्चे देशभक्त, दार्शनिक, निर्धन-स्नेही को जन्म दिया।
ऐसी जाति को अछूत अथवा निम्न नहीं कहा जा सकता है। महार जाति नागवंशियों के ही
रक्त मांस में से है। इतिहास से ज्ञात होता है कि किसी समय महाराष्ट्र में
नागवंशियों का शासन था।
भीमराव गरीबी, दरिद्रता, छुआछूत के कारण पाठशाला में बैठकर विद्या अध्ययन नहीं
कर सकते थे। उन्हें कक्षा के बाहर सवर्ण जाति के बच्चों से पृथक अपने घर से
लाए टाट पर बैठना पड़ता था। सामाजिक तिरस्कार, छुआछूत तथा निर्धनता के साथ
लड़ाई लड़ते हुए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने देश-विदेशों में अर्थशास्त्र, दर्शन
शास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, विधि इत्यादि विषयों पर गहरा अध्ययन
कर वे स्वयंमेव एक शिक्षा निकाय (विश्वविद्यालय) बन गए। बाबा साहब ने एम, ए.,
एम.एस.सी., डी. लिट, बार एट लॉ की डिग्रियाँ प्राप्त की। डॉ. अंबेडकर
विधिवेत्ता से भारतीय संविधान के शिल्पकार बने तथा भारत के प्रथम विधि मंत्री
भी बने।
डॉ. बाबा साहब जीवन पर्यंत सामाजिक शोषण व अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहे तथा
समाज के शोषित, पीड़ित तथा दलित वर्ग के लिए संघर्ष करते रहे।
बाबा साहब ने 13 अक्टूबर 1935 को कहा था कि- मैं हिंदू पैदा हुआ हूँ मगर हिंदू
नहीं मरूँगा।" जिससे आभास होता है कि वे हिंदू धर्म का त्याग करेंगे। मगर बाबा
साहब ने दूसरे धर्मो को स्वीकार करने से पर्व अनेकों धर्मो का अध्ययन किया तथा
गंभीरता से चिंतन किया कि मेरे हिंदू धर्म त्यागने से देश की एकता व अखंडता पर
कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इसलिए उन्होंने इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म को
स्वीकार करने के स्थान पर भारत के माटी के धर्म, बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन
करके 13 अक्टूबर 1935 को धर्मांतरण करने की इच्छा के 20 वर्ष पश्चात् 15
अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार
किया।
बाबा साहब ने बौद्ध धर्म स्वीकार करके इस देश की एकता व अखंडता को कायम रखते
हुए पूरे संसार को अचरज में डाल दिया तथा सच्चे राष्ट्रवादी सिद्ध हुए। बाबा
साहब ने बौद्ध और हिंदू धर्म को एक वृक्ष की दो डालियाँ के रूप में निरूपित
किया था।
वर्ष 1990-91 में बाबा साहब का जन्म शताब्दी वर्ष के रूप में समूचे राष्ट्र
एवं मानव समाज में मनाया गया। ऐसे पुण्य अवसर पर महामानव दलितों के मसीहा को
भारत का सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' मिला है। जो दलित वर्ग का सम्मान हो सकता
है। मगर जहाँ पर बाबा साहब की मृत्यु के 34 वर्ष पश्चात् उन्हें भारत का
सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' गैर कांग्रेस ने दिया। यह सम्मान 34 वर्ष बाद
दिया जाना उनकी बौद्धिक क्षमता व उनके कद के बराबर दिखाई प्रतीत नहीं देता है।
आवश्यकता यह थी कि म.प्र. के इन्दौर की महू तहसील में उनका जन्म हुआ है और
उनकी जन्मस्थली काली पल्टन 67 नम्बर सैनिक बेरेक्स जहाँ पर 150 फीट x 150 फीट
का भूखंड वर्षों से वीरान पड़ा हुआ था, लाखों अनुयायियों के मन में यह श्रद्धा
थी कि बाबा साहब की जन्मस्थली को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित कर
मक्का, येरुशलम, नेपाल की लुम्बिनी की तरह विश्व प्रसिद्ध बनाया जाए और लाखों
अनुयायी यहाँ आकर इस राष्ट्र भक्त, भारत माता के सच्चे सपूत को अपना विनम्र
नमन कर श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें। मगर यह दूर का सपना दिखाई देता है।
पवित्र जन्मस्थली महू में कछुआ चाल से निर्माण चल रहा है। म.प्र. की भाजपा
सरकार को युद्ध गति से इस पवित्र जन्मस्थली को आकार देना चाहिए तथा साथ ही
बाबा साहब अंबेडकर सामाजिक शोध संस्थान, महू जो एक वर्ष से महानिदेशक विहीन है
व विकास की राह देख रहा है, में महानिदेशक नियुक्त करना चाहिए।
जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में श्रद्धेय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी पूजनीय बाबा
साहब की जन्मस्थली महू के आयोजन में पधारे थे। वैसे तो इस अवसर पर श्री मान्
राजीव गांधी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्रीमान् कांशीराम जी इत्यादि नेता
अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाने आए थे।
इन सभी के आने की प्रतिक्रिया तो थी ही मगर श्रद्धेय ठेंगड़ी जी के आगमन की
विशेष प्रतिक्रिया थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक ठेंगड़ी जी क्यों
आए थे? आखिर संघ क्या करना चाहता है?
श्रद्धेय ठेंगड़ी जी का डॉ. बाबा साहब अंबेडकर राष्ट्रीय सामाजिक शोध संस्थान,
महू के सेमिनार में भाषण था। श्रद्धेय ठेंगड़ी जी द्वारा जो विचार प्रकट किए
गए, उन्हें सुनकर पूज्य बाबासाहब के अनुयायी यह कहने लगे कि जो विचार व
जानकारी श्रीं ठेंगड़ी जी ने दी है वह तो हम भी नहीं जानते हैं।
यह सत्य है कि विभिन्न पुस्तकों व लेखों के माध्यम से पूज्य बाबा साहब को
जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। पिछले तीस वर्षों में श्रद्धेय ठेंगड़ी जी के
भाषणों व विचारों के माध्यम से मानो साक्षात दर्शन के अवसर प्राप्त हुए हों,
ऐसा मैं महसूस करता हूँ।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर के साथ श्रद्धेय ठेंगड़ी जी व स्व. रामभाऊ जोशी जी को
कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ एवं मैंने श्रद्धेय ठेगड़ी जी व स्व. रामभाऊ
जोशी जी के सान्निध्य में रहकर श्री बाबा साहब के विचारों को करीब से जाना।
मैं यह महसूस करता हूँ कि मुझे बाबा साहब को देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो
सका, मगर में इस पर भी अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ। मैंने पूजनीय बाबा
साहब का श्रद्धेय ठेगड़री जी के विचारों के माध्यम से उनको एक वास्तविक पहलू
से देखा है। हो सकता है श्री बाबा साहब की जन्म शताब्दी के अवसर पर महू में ही
श्रद्धेय ठेंगड़ी जी के मन में सर्वधर्म समादर मंच (पश्चात् सर्वपंथ समादर
मंच) जैसे संगठन बनाने की कल्पना आई हो।
हम सभी के लिए यह भी गर्व की बात है कि श्रद्धेय ठेंगड़ी जी अपनी मृत्यु के दो
दिन पूर्व पूज्य बाबा साहब अंबेडकर के जीवन पर एक व्यापक पुस्तक को अंतिम रूप
देकर हम सभी को पूज्य बाबा साहब की अनुपम स्मृति भेंट कर गए।
इस अवसर पर पूजनीय बाबा साहब अंबेडकर तथा बाबा साहब के प्रति अटूट श्रद्धा
रखने वाले राष्ट्रवादी चिंतक श्रद्धेय ठेंगड़ी जी को शत्-शत् नमन करते हैं।
सोपान - 3
(कुछ प्रमुख बिंदु)
v अपने समाज में अस्पृश्यता के कलंक की तीव्रता कितनी थी, वह मेघमाया की
दीर्घदृष्टि से जाना जा सकता है। उन्होंने राजसत्ता से माँग की, हमें तुलसी और
पीपल की पूजा करने का अवसर मिले।" वीर मेघमाया की इस छोटी सी माँग में एक लंबे
युग की दिशा थी, दर्शन था। नहीं तो ऐसा विचार किसे आता है? हमें तो इतना ही
विचार आता है कि दो एकड़ जमीन दो, जिससे बच्चे सुखी होंगे। वीर मेघमाया ने ऐसे
भौतिक सुख या व्यक्तिगत स्वार्थ की कोई माँग नहीं की। उन्होंने समस्त समाज के
सुख की कल्पना की।
v डॉ. बाबा साहब अंबेडकर निर्भय क्रांतिवीर थे। उनकी व्यथा अपार थी। सवर्ण
समाज के अत्याचारों से उन्हें दलित समाज को ऊपर उठाना था, परंतु किसी बदले की
भावना से नहीं। उन्होंने दूसरों को मार-काटकर बड़ा होने की बात कभी नहीं की।
अपने सत्य को, अपने व्यक्तित्व को पूरी शक्ति से समाज के सामने रखने की
प्रेरणा दूँगा।" ऐसा भाव, उनके समग्र चिंतन में रहा था।
v केवल समभाव काफी नहीं है। समभाव में ममभाव को जोड़ना चाहिए-
समभावममभावत्र्समरसता। ऐसी समरसता ही समाज के रोग की रामबाण दवाई बन सकती है।
v दुर्भाग्य से आजादी के पश्चात् समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ आ गई हैं।
समाज की महान परंपरा मानो मर गई है। इस देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसे भगत
सिंह, सुखदेव, राजगुरु, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर आदि का नाम लेने में
शर्मिंदगी महसूस होती है। ऐसी विकृतियों में से समाज को बाहर लाने की आवश्यकता
है। देश के लिए जीने-मरनेवाले सब महापुरुष हमारे अपने हैं।
v वंचितों के लिए लड़ते विगत सदी के दो महामानव इसके उदाहरण हैं। अमेरिका में
मार्टिन लूथर किंग और भारत में डॉ. बाबा साहब अंबेडकर। इन दोनों ने अपना जीवन
दबे-कुचले हुए समाज को न्याय दिलवाने में खपा दिया था।
v डॉ. बाबा साहब हमें समता-ममता का संदेश देते हैं। उनका स्वप्न था-
'जाति-विहीन समाज रचना', अर्थात् समग्र समाज एकात्म और समरस बने, कोई ऊँचा
नहीं, कोई नीचा नहीं।
v बाबा साहब के उस समय का किया गया निर्णय और उस निर्णय के पीछे निहित भावना
बहुत ही श्रेष्ठ थी। उन्होंने कहा, मैं हिंदू धर्म छोड़ दूँगा। हिंदू समाज में
जो विकृतियाँ आ गई हैं, उन विकृतियों के लिए ही मेरा विरोध है। परंतु मैं
हिंदुस्तान से प्रेम करता हूँ। मैं जीऊँगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूँगा तो
हिंदुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण, मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण
हिंदुस्तान के लिए काम आए, इसलिए मैं जन्मा हूँ। मैं हिंदू धर्म छोड़ दूंगा
परंतु मैं ऐसे धर्म को अंगीकार करूँगा, जो हिंदुस्तान की धरती पर ही जन्मा हो।
मुझे ऐसा ही धर्म स्वीकार है जो विदेशों से आयात किया हुआ नहीं हो। इसी कारण
मैं बौद्ध धर्म अंगीकार करता हूँ।"
v डॉ. बाबा साहब ने दलितों को अस्पृश्यता की यातनाओं से मुक्ति दिलवाने के लिए
जिस प्रकार से राष्ट्रद्रोह नहीं किया, उसी प्रकार धर्मद्रोह भी नहीं किया।
v बाबा साहब की एक विशिष्टता थी। वे सत्य के लिए लड़ते थे, परंतु उनके जीवन
में नफरत का कहीं कोई स्थान नहीं था। वे समाज को तोड़ना नहीं, जोड़ना चाहते
थे। उन्होंने समाज को हमेशा टोका है, चेतावनी दी है, पर तोड़ा नहीं। समता-ममता
के लिए जीवन भर उनका मंथन चलता रहा।
v आजकल समता का शब्द मार्क्स के तत्व ज्ञान के बारे में आता है। हमनें भी उसका
प्रयोग करना याने दूसरो से उधारी करने जैसा है। हमारा स्वतंत्र दृष्टिकोण है।
यह बात लोगों के ध्यान में नहीं आएगी। समरसता यह शब्द हमारे अपने तत्वज्ञान का
परिचायक है। भारतीय विचार दर्शन में इसकी जड़ है।
खंड
- 9
सोपान
- 4
सोपान
- 4 (संस्मरण)
1. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी : एक देव दुर्लभ कार्यकर्ता डॉ. अशोक कुकड़े
2. श्रमदेव के निर्माता: मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी डॉ. गोविन्द नि. हड़प
3. श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी : एक विलोभनीय व्यक्तित्व श्रीनिवास जोशी
4. महान चिंतक एवं दूरदर्शी : मा ठेंगड़ी जी करतार सिंह राठोर
5. आपात्काल और ठेंगड़ी जा का सान्निध्य केशव पांडुरंग गोखले
6. छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भी आदर प्रभाकर शंकर रनले
7. मा. ठेंगड़ी जी ने किया कार्लमार्क्स का पराभव आबा साहब पटवारी
सोपान - 4
श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी : एक देव दुर्लभ कार्यकर्ता
डॉ. अशोक कुकड़े
(निवृत्त पश्चिम क्षेत्र संघचालक)
लातूर (महाराष्ट्र)
द्वितीय सरसंघचालक पू. बालासाहब देवरसजी ने पू. गुरुजी के पश्चात् जब कार्यभार
सम्भाला, तो एक शब्दप्रयोग किया था। उन्होंने कहा- 'पूर्व दोनों सरसंघचालक
बहुत श्रेष्ठ व्यक्ति थे। मैं बहुत ही सामान्य कार्यकर्ता हूँ। किंतु मेरे साथ
देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं की टोली है। उनका निर्देश था- मा. एकनाथ रानडे, मा.
भाऊराव देवरस, मा. माधवराव मूळे, मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे कार्यकर्ताओं की
ओर, वास्तव में वे स्वयं भी इसी मालिका के मोती थे, उपरोक्त सभी कार्यकर्ता
प्रत्यक्ष पू. डॉक्टरजी और पू. गुरुजी इन दोनों से संस्कार और संघनीति की
शिक्षा पाए हुए लोग थे। इसी कारण ये सभी कार्यकर्ता, संघ विचार-व्यवहार, पूरे
देश भर में भिन्न भिन्न समाज जीवन के क्षेत्रों में प्रस्थापित करने में सफल
रहे।
मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी ऐसे देवदुर्लभ कार्यकर्ता थे, जिन्होंने आजीवन संघविचार
अत्यंत प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों, भिन्न भिन्न क्षेत्रों में प्रसारित
किया- सुप्रतिष्ठित किया। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। संघविचार का मूलगामी
चिंतन तो उनका प्रभावी और दृढ़ विचार था, किंतु उनका उपयोजन (Application) कई
अन्य क्षेत्रों में करने में उन्होंने विलक्षण प्रतिभा प्राप्त की। संघ के
प्रचारक के नाते जिस क्षेत्र में उनको काम करने की सूचना मिली, वहाँ उन्होंने
मूल विचार के आधार पर और भारतीयता के आधार पर बलशाली नये संगठन निर्माण किए।
भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ ये दोनों संगठन तो उनकी प्रतिभा और संगठन
कुशलता के दृश्य रूप रहे। परंतु वनवासी कल्याण आश्रम, राजनीति का क्षेत्र,
स्वदेशी जागरण मंच ये भी उनके योगदान का लाभ उठा सके।
प्रस्तुत लेखक का उनके साथ कई बार संवाद हो सका। विचारों की स्पष्टता और
व्यवहार की विनम्रता का अनुभव तो सहज ही हो पाता था। चर्चा तो होती रही नित्य
संघकार्य या जिस क्षेत्र में मैं जुटा हूँ वह वैद्यकीय सेवा कार्य, दोनों
विषयों में उनका गहरा चिंतन था और उसके आधार पर उचित मार्गदर्शन भी, उनके
बौद्धिक वर्ग उच्च स्तर के होते थे। काफी अंग्रेजी अवतरण उसमें होते थे। उनकी
मेधावी प्रतिभा का दर्शन उसमें होता था, कभी कभी कुछ कठिन से लगते थे। क्योंकि
वे एक मूलगामी चिंतक अभ्यासक थे। इसी चिंतन के आधार पर उन्होंने 'Third way'
इस विषय की प्रस्तुति की-राष्ट्र, राज्य, धर्म ऐसे गहन विषयों पर टिप्पणी की,
व्यापक लेखन किया, हिंदूराष्ट्र की विचार धारा चिंतन की कसौटी पर भी टिक पाए,
ऐसी उनकी प्रस्तुति अक्षरवाङ्गमय में बद्ध हुयी है, अपनी विचारधारा का यह बहुत
ही बड़ा योगदान रही है।
वे आजीवन प्रचारक रहे, जाहिर है, 1977 में जनता पार्टी का शासन आने के
पश्चात्, केंद्रीय मंत्रिमंडल के कृतित्व के आधार पर उनका स्थान निश्चित था,
परंतु उन्होंने नकारा, संगठन क्षेत्र में ही योगदान करते रहे, इसी कारण आज
सैकड़ों कार्यकर्ता, भिन्न भिन्न क्षेत्रों में उनसे प्रेरणा लेकर कार्य कर
रहे हैं।
नागपुर के रेशम बाग में संघ मुख्यालय में मा. दत्तोपंतजी की स्मृति में एक
सभागार का निर्माण किया गया है। उनकी वहाँ स्थापित प्रतिमा निरंतर अनेकों को
प्रेरणा देती रहेगी। उन्होंने जो विचार ग्रंथित किए हैं वे अक्षण्ण मार्गदर्शी
रहेंगे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, शतप्रतिशत राष्ट्र-समाज-संघ समर्पित, एक
देवदुर्लभ कार्यकर्ता के नाते, संघ के इतिहास में स्व. दत्तोपंत जी का नाम
अमिट रहेगा।
इस छोटे से लेख के माध्यम से उनका पुण्यस्मरण कर रहा हूँ।
इति शम्।
श्रमवेद के निर्माता : मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी
डॉ. गोविंद नि. हड़प
अखिल भारतीय शैक्षणिक प्रकोष्ठ
भारतीय शिक्षण मंडल
नागपुर (महाराष्ट्र)
राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक सभी क्षेत्रों में सुस्पष्ट मार्गदर्शन
करने का सामर्थ्य भारतीय जीवन पद्धति में है। उसमें मानवता है। जनता में नया
उत्साह निर्माण करने का सामर्थ्य भारतीय विचारधारा में है। संभ्रमावस्था में
जीवन यापन करने वालों का मार्गदर्शन करने का सामर्थ्य भारतीय तत्वज्ञान में
है। इसका गहरा सर्वव्यापी अध्ययन करने के बाद मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के मन
में भारतीय मजदूर संघ की वैचारिक पृष्ठभूमि निर्माण हुयी। इन सभी का
सूक्ष्मातिसूक्ष्म अध्ययन कर 17 नवंबर 1969 में भारतीय मजदूर संघ की करोड़ों
लोगों की ओर से एक राष्ट्रीय माँग पत्रक राष्ट्रपति डॉ. वी.वी. गिरी को
प्रस्तुत किया। इस माँग पत्रक का पूरा अध्ययन करने के बाद यह अनुभव होता है कि
यह माँगपत्र सभी क्षेत्र के सभी पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक अत्यंत
संक्रमण का काल था क्योंकि राष्ट्रीय श्रम आयोग द्वारा अह्वान सरकार को
प्रस्तुत किया था। राष्ट्रीय श्रमनीति का पुनर्निर्धारण इसी अह्वान से होना
था। यह माँग पत्र इतना बहुआयामी था कि देश के सभी वर्गो का इसमें समावेश था।
सभी मजदूरों की आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला यह माँगपत्र था जिसमें
मजदूरों के कर्तव्य और अनुशासन का भी उल्लेख किया गया था। इसमें एक सत्य यह भी
था कि 'एक वर्ग विशेष की माँग में भी जनसंख्या के दूसरे वर्ग का कर्तव्य और
अनुशासन निहित है। इस माँग पत्र में समाज के सभी वर्गो (All Organs of
Society) का अंतर्भाव होता था। निजी विनियोजक और राज्य सेवा प्रदाता और
प्रबंधक इन सभी का प्रमुख लक्ष्य सामाजिक तथा आर्थिक विकास है। विभिन्न
विभागों के घटक या सामाजिक संस्था (लोकल सेल्फ गव्हर्नमेंट संस्था),
विश्वविद्यालय, मीडिया, सामाजिक संस्थाओं इन श्रमिकों के प्रति विशिष्ट
कर्तव्य है। जो उन्हें पालन करना चाहिए। इन सभी बिंदुओं को सर्वसमावेशक
राष्ट्रीय माँगपत्र में रखा गया था तथा समाज के सभी वर्गो से इसे जोड़ा गया
था। इसलिए राष्ट्रपति महोदय ने इस मांगपत्र को 'श्रमवेद' से संबोधन से
गौरवान्वित किया था तथा इस वेद के निर्माता ऋषिवर मा. दत्तोपंत जी थे।
प्रथम परिचय
नागपुर में संघशिक्षा वर्ग 1962 में जब मैं तृतीय वर्ष शिक्षार्थी था। तब उसके
बौद्धिक से तथा वर्ग के दरम्यान एक बैठक में परिचय दृढ़ हुआ। उस समय मैं बी.
काम. पार्ट- दो का छात्र था। मैंने उनसे यह प्रश्न पूछा कि औद्योगिक
अर्थशास्त्र में अन्य श्रमिक संगठनों के साथ सूची में भारतीय मजदूर संघ का नाम
क्यों नहीं है? उस समय उन्होंने कहा था हमारा काम इतना अधिक नहीं है। इसलिए
नहीं है। लेकिन निकट भविष्य में मजदूर क्षेत्र में देश हित, मजूदर हित और
उद्योग हित इस त्रिसूत्री पर भारतीय मजदूर संघ निश्चित रूप से बढ़ेगा और बाद
में मजदूर संघ प्रथम क्रमांक का संगठन बना। यह अगाध विश्वास उनके बोलने में
था। बैठक में मुझे उन्होंने पूछा- आप क्या बनना चाहते हो? तब मैं बोला मैं
प्राध्यापक बन कर Ph.D करना चाहता हूँ। तब उन्होंने कहा आप प्रयास करो निश्चित
सफल होगे। मैंने उनके इस कथन को उनका आशीर्वाद माना और शिरोधार्य किया। आज न
केवल Trade Union विषय को लेकर मेरा Ph.D हुआ तथा इस विषय को लेकर मेरे
मार्गदर्शन में 21 विद्यार्थियों ने भी इस विषय का अध्ययन कर Ph.D प्राप्त की
है।
महाल में दक्षिणामूर्ति चौक नागपुर में हमारा मकान था। मेरे बड़े भाई श्री
बलूजी हड़प और मैं उसमें रहते थे। एक दिन श्री आबाजी पुराणिक और मा. दत्तोपंत
जी हमारे घर के सामने से गुजर रहे थे। NOBW का कार्यालय गांधी गेट के नजदीक
लघाटे बिल्डिंग में था। शॉर्ट कट होने से पैदल जा रहे थे। यह घटना 1964 की है।
उस समय मैं एम. कॉम. पार्ट-1 में पढ़ रहा था। वे दोनों घर आए। संघ शिक्षा वर्ग
की मुलाकात उन्हें याद थी। उन्होंने मुझे पाठ्य-विषय पूछा- मैंने Labour and
Urban Problem in India. ऐसा बताने के बाद Ph.D इसी विषय से करो ऐसा मुझे
सुझाव दिया था। वह दिन आज भी मेरे स्मरण में है। तब से मैंने ट्रेड यनियन्स पर
अनुसंधान करने का ठान लिया। 1966 में लाखनी में अर्थवाणिज्य का प्राध्यापक बना
और Ph.D का विषय 'स्टडी ऑफ ट्रेड यूनियन्स इन जिनिंग प्रेसिंग एण्ड कॉटन
टेक्सटाईल इंडस्ट्री इन विदर्भ- 1870 से 1970 लिया और काम करना शुरू किया।
इसमें माननीय गोविंद राव आठवले जी का सहकार्य रहा। उस समय मैं नागपुर की संघ
की संती शाखा में मुख्य शिक्षक था। किसी के भी घर वे सहजता से जाते थे। और
अपनी अलग ही छाप छोड़ते थे। उसका अनुभव मैंने लिया। 1967 में नागपुर के संघ
शिक्षा वर्ग में शिक्षक था उस समय भी मुलाकात होती थी और उनसे संदर्भ ग्रंथों
के नाम भी मिलते थे। कार्यकर्ता के हृदय में कोई बात कैसे डालना और उसे उसके
लिए प्रेरित कैसे करना इसका अनुभव मैंने संघशिक्षा वर्ग में मा. दत्तोपंत जी
के सान्निध्य में लिया।
1971 में मैं मुबई में Ph.D के कुछ संदर्भ के लिए तीन महीने गिरगांव के संघ
कार्यालय में था। भारतीय टेक्सटाईल संघ के कार्यालय में दादर गया। वहाँ मा.
दत्तोपंत जी से भेंट हुयी। उन्होंने मुझसे पूछा आप किनसे मिले-उसमें दत्ता
सामंत, दत्ता देशमुख, बगाराम तुळपुळे नि. शा देशपांडे होसिंग, किशोर देशपांडे,
जॉर्ज फर्नानिंडीश आदि थे। उनके कार्य का ट्रेड यूनियन्स पर क्या असर था। मिल
मैनेजमेंट तथा लेबर कमिश्नर से भी मिलने की सलाह दी। उनके साथ मई में मुंबई से
पूना में ट्रेन में गया था। ट्रेन में भी उनका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। पूना
के संघ कार्यालय में मोतीबाग में मैं तीन दिन था। उस समय मैं विद्यार्थी परिषद
के काम में था। 1977 में Ph.D होने के बाद मा. गोविंदराव आठवले के आग्रह के
कारण संघ की आज्ञानुसार भंडारा जिला भा.म.संघ का संगठनमंत्री के नाते दायित्व
1978 में प्राप्त हुआ और मेरे अनुसंधान का उपयोग होने का अवसर प्राप्त हुआ।
विदर्भ प्रदेश की एक बैठक में उन्होंने कहा था। भारतीय मजदूर संघ का हर एक
कार्यकर्ता संगठन करने के प्रयत्न में जुटा रहता है। क्योंकि वह ध्येयवादी है,
आदर्शवादी है। अन्य लोगों के समान कार्य करते समय उसकी कुछ त्रुटियाँ होंगी भी
किंतु उसकी अपने ध्येय के साथ उसकी एकात्मकता है और ध्येय का अखंड चिंतन है तो
इन त्रुटियों का परिमार्जन भी होगा। इस कारण वह केवल 'स्वयं' के विषय में
विचार करना भी भूल जाता है। 'मैं' 'मेरा' आदि समाप्त हो जाता है और यदि ऐसे
व्यक्ति हैं तो फिर स्वाभाविक रुप से भा.म.संघ का काम निश्चित रूप से बढ़ेगा।
ध्येय अच्छा होते हुए भी कार्यकर्ता में ध्येय के प्रति आत्मसमर्पण की भावना
रही तो कार्य में दोष पैदा होने की संभावना नहीं रहती। बैठक में उन्होंने कहा
कार्य का आरंभ स्वयं से करो, अपना संगठन यदि हम ठीक करे तो बाकी सब बातें ठीक
हो सकती हैं। इससे कार्यकर्ताओं का मास्टर माइंड ग्रुप अच्छे से बन सकता है जो
दूसरे के साथ तालमेल बराबर बैठा सकता है।
कार्यकर्ताओं की बैठक में एक बार उन्होंने पूछा था किन कार्यकर्ताओं को
भा.म.सं. के कारण घर में समय न दे सकने से गाली खाना पड़ती है? उत्तर में
उन्होंने कहा कि यदि घर में ऐसी गाली खानी पड़ती है तो यह अच्छे कार्यकर्ता का
लक्षण है। उसी समय बैठक में उन्होंने कहा जिस मोहल्ले में हम रहते हैं, वहाँ
की चाय की टपरी, पान की टपरी, या होटल, मोची, सायकल रिपेरिंग शॉप, हेयर कटिंग
सैलून सभी से अपने कार्यकर्ता का संपर्क होना चाहिए तभी हमारा व्यवहार और
कार्य साथ बढ़ने में मदत मिलेगी। प्रात: की बैठक हो, अभ्यास वर्ग हो, अधिवेशन
हो उनका हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता था। हरेक बार उनसे नई-नई जानकारी मिलती
थी उससे कार्य प्रवणता बढ़ती थी।
1987 इंडियन लेबर इंस्टिट्यूट द्वारा कलकत्ता में एक सप्ताह की ट्रेड यूनियन
लीडरशिप कार्यशाला थी। उसमें भा.म.सं. की ओर से मुझे भेजा गया था। वहाँ से
वापस आने के बाद जब उनसे मुलाकात हुयी तब वहाँ की पूरी जानकारी उन्होंने मुझसे
ली और बड़े एकाग्रता के साथ करीब एक घंटा सुनकर विस्तृत जानकारी ली। और बाद
में पूछा- वहाँ आए हुए अन्य यूनियन वालों से बाद में संपर्क रखा है क्या? सबके
साथ अपने व्यवहार से ही भा.म.सं. के कार्यकर्ता की पहचान होती है यह उनका
मानना था।
1988 से 2001 तक 13 साल नागपुर के तरुण भारत में मैं कामगार जगत् स्तंभ हर
सप्ताह तरुण भारत के सौजन्य से लिखता था। जब उनसे नागपुर में संघ कार्यालय में
या भा.म.सं. की बैठक में मुलाकात होती थी तब वे मुझे कहते कि मैं कामगार जगत्
पढ़ता हूँ। आप देश हित, मजदूर हित और उद्योग हित भा.म.सं. की इस त्रिसूत्री
आधारित लिखते हो लेकिन कुछ शब्द सम्हालकर इस्तेमाल करते जाइये ऐसा मुझे
उन्होंने बडोदरा के अ.भा. अधिवेशन के समय भेंट होने पर बताया था। कितनी बातें
वे ध्यान में रखते थे और कार्यकर्ताओं का उत्साह कैसे बढे इसकी ओर उनका हमेशा
ध्यान रहता था।
मेरा मा. दत्तोपंत जी ठेंगड़ी से विद्यार्थी जीवन से संपर्क रहा। मेरे लिए तो
दत्तोपंत जी पारस के समान थे। मेरी कार्यप्रवणता उनके मार्गदर्शन से ही आज तक
बनी रही है। कार्यकर्ताओं से संपर्क, जानकारी, कार्यकर्ताओं के मन में उत्साह,
उमंग पैदा करने में उनकी क्षमता अलौकिक थी। उन्होंने सही मायने में 'श्रमवेद'
को सबके सामने जीकर प्रस्तुत किया।
श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ीजी
- एक विलोभनीय व्यक्तिमत्व
श्रीनिवास जोशी
,
पूर्व महामंत्री
भारतीय रेलवे मजदूर संघ,
डोम्बिवली (महाराष्ट्र)
मा. दत्तोपंत ठेंगड़ीजी एक विलोभनीय व्यक्तिमत्व वाले महापुरुष थे। उनके संपर्क
में जो भी आता वह प्रभावित हो जाता और उसका जीवन समृद्ध हो जाता था। उस
महापुरुष में असंख्य सद्गुण थे। उनमें से कुछ सदगुणों का परिचय देने का यह
छोटा सा प्रयास कुछ प्रसंगों के माध्यम से कर रहा हूँ :-
(1) नेतृत्व प्रस्थापित करने के लिए नेता के पास उच्च दर्जे का वक्तृत्व होना
चाहिए जो ठेंगड़ी जी के पास था। मेरा सौभाग्य है कि उनका उत्कृष्ट वक्तव्य
सुनने का प्रथम अवसर मुझे अगस्त 1955 में दादर (मुंबई) में जनसंघ के एक
कार्यकर्ता सम्मेलन में मिला। अपना भाषण समाप्त करने की उनकी खासियत थी जिससे
भाषण का अंत व सार दीर्घकाल तक दिमाग में रह जाता था। उपरोक्त भाषण का समापन
इस प्रकार रहा :- Vote for Communist is a vote for treachery, a vote for PSP
is a vote for confusion, a vote for Congress is a vote for corruption &
a vote for Jansangh is a vote for Nationalism (साम्यवाद को वोट देने का अर्थ
है विश्वासघात को वोट देना। समाजवाद को वोट का अर्थ है संभ्रान्ति को वोट,
काँग्रेस को वोट का अर्थ है भ्रष्टाचार को वोट और जनसंघ को वोट का अर्थ है
राष्ट्रवाद को वोट देना।)
(2) ठेंगड़ी जी कुशल संघटक थे। संघटक को कार्यकर्ता के संपर्क में; विशेषतः
कार्यकर्ता के सुख दुःख में सहभागी होना ही चाहिए। एक बार रेशम बाग, नागपुर की
एक बैठक में मेरा जाना हुआ था। रात को एक आवश्यक कार्य हेतु मैं अपने कक्ष में
जा रहा था तो देखा की ठेंगड़ी जी पृ० डॉ० साहब की समाधि के पास टहल रहे थे। मैं
उनके चिंतन में दखल न हो इस नाते बचकर जाने लगा लेकिन उन्होंने मुझे देख लिया
और अपने पास बुला लिया। उस समय रात के 11 बज रहे थे। आपने मझसे पूछा नींद आ
रही है क्या?" मैंने कहा नहीं तो उन्होंने मेरे समक्ष प्रस्ताव रखा कि "चलिए
मेरे साथ" महाल (नागपुर का एक हिस्सा) में रेलवे के एक कार्यकर्ता (श्री ढोक
जी, जो अस्वस्थता के कारण बैठक में शामिल नहीं हो सके थे) से मिलने व उसकी
स्वास्थ्य कुशलता पूछने के लिए। उनके घरवाले अचंभित हो गए। लेकिन हमारा स्वागत
बड़े प्रेम से किया। आधा घंटा वहाँ बिता कर बाहर आए और वहाँ से धरम पेठ में एक
परिचित (ऍडव्होकेट प्रधान) के घर पर हम लोग गए। उनकी माताजी जो चारधाम की
यात्रा करके लौटी थीं तथा प्रसाद के लिए ठेंगड़ी जी को आग्रह से बुलाया था।
वहाँ से रात को 12:30 बजे रिक्शे पर सवार होकर हम लोग डॉ. हेडगेवार भवन वापस आ
गए। रिक्शे से उतरने के पश्चात् रिक्शे वाले को पैसे देकर भवन में जाना था।
लेकिन उन्होंने रिक्शेवाले को रोक कर उससे परिचय लिया- नाम क्या? कहाँ रहते
हो? कितने बच्चे हैं? उत्तर में रिक्शेवाले ने बताया- नाम हामिद, परिवार में 2
बच्चे व धर्मपत्नि हैं। ऐसा परिवार, बच्चे पढ़कर क्या करेंगे? उन्हें तो
रिक्शा ही चलानी है तो पढ़ने की क्या जरूरत है? उस पर ठेंगड़ी जी ने उसके पीठ
पर हाथ रखकर उसे समझाया। उस समय हामिद के चेहरे पर जो प्रसन्नता के भाव मैंने
देखे उसे मैं भूल नहीं सकता। इस प्रसंग से श्रमिकों के प्रति उनके दिल और
दिमाग में जो आस्था थी उसका परिचय दृढ़ हो गया। उस रात को मुझे डॉ. हेडगेवार
भवन में विश्राम करने के लिए (क्योंकि उस समय रात के एक बज चुके थे) रोक लिया।
(3) ठेंगड़ी जी अनेक भाषा के जानकार थे, मराठी, अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत,
मलयालम, बांग्ला आदि भाषा के तो विशेषज्ञ थे, संगीत में भी रुचि रखते थे।
भा०म० संघ की बैठक का समापन उनके मार्ग दर्शन से ही होता था। उनके समापन मार्ग
दर्शन के पूर्व "बढ़ रहे हैं हम निरंतर" यह गीत हमेशा गाया जाता था, उस समय
उनकी आँखों से आँसू निकल आते थे तथा कई बार उन्हें आँखें पोंछते हुए देखा गया।
संवेदनशीलता का यह अनोखा परिचय रहा।
(4) ठेंगड़ी जी पू. श्रीगुरुजी, महामानव डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा गांधी
के तत्वज्ञान के मर्मज्ञ भी थे। 'बाबा साहब का पुत्रवत स्नेह उन्हें प्राप्त
था। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी तथा दीनदयाल जी तो श्रीगुरुजी के दायें व बायें हाथ
हैं। ऐसा विश्वास कार्यकर्ताओं में दृढ़ हो गया था।
(5) दूसरों की बात अत्यंत तन्मयता के साथ सुनना यह उनकी एक और विशेषता थी। एक
प्रवास के दौरान हम 5-6 कार्यकर्ता उनके साथ थे। उस संपूर्ण यात्रा के दौरान
हम सभी कार्यकर्ताओं को अपनी-अपनी बात रखने का अवसर प्राप्त हुआ तथा प्रदीर्घ
चर्चा भी की। चर्चा का विषय चुनने की पूर्णरूप से स्वतंत्रता हमें मिल गई।
चर्चा में हम लोग अपनी बात रख रहे थे कि एक स्टेशन पर दो अपरिचित यात्री
(दोनों पति-पत्नी थे) आ गए। प्राथमिक बातचीत के उपरान्त ठेंगड़ी जी उनके साथ
बंगला भाषा में बात करने लगे, तो यात्री में जो महिला थी उन्होंने ठेंगड़ी जी
को बड़ा भाई मान लिया और ट्रेन से उतरने से पूर्व ठेंगड़ी जी के पैर छूकर
आशीर्वाद भी ले लिए। सर्वथा अपरिचित लोगों के साथ आत्मीयता कैसे बढ़ाई जाए यह
सबक उस दिन हमें सीखने को मिला।
(6) परिवार में घर के बुजुर्ग बच्चों की परवरिश पर विशेष ध्यान देते हैं और
बदले में बच्चों के मस्तिष्क में बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव पैदा हो जाता
है। एक अभ्यास वर्ग के एक सत्र में दुनिया के ख्याति प्राप्त संघटकों के जीवन
की जानकारी ठेंगड़ी जी दे रहे थे। उसमें मुहम्मद पैगंबर, येशू मशीह आदि
महापुरुषों के जीवन की घटनायें बता रहे थे। उन महान संघटकों के कड़ी में पू०
श्रीगुरुजी का नाम भी आया तथा श्रीगरुजी की महानता का वर्णन करते समय ठेंगड़ी
जी अचानक गद्गद हो गए और ऐसी अवस्था पैदा हो गई कि उनके मुख से शब्द निकलना
मुश्किल हो गया। उनकी अवस्था देखकर उस सत्र को वहीं पर समाप्त करना पड़ा।
(7) एक लंबे प्रवास में (सन 2001) मैं अकेला उनके साथ था। उस लंबी यात्रा के
कई प्रसंग विस्तार पूर्वक से बता नहीं सकता पर पूरे समय में आदर्श नेता कैसा
हो उसका जीता-जागता उदाहरण मेरे सामने आया। उसमें से संक्षेप मे कुछ प्रसंग :-
जलगाँव स्टेशन पर एक कार्यकर्ता भोजन का डिब्बा लेकर आया। भोजन में भिंडी की
सब्जी थी, भोजन के बाद उन्होंने मुझे बताया जिस बहन ने भोजन बनाया उन्हें
बताइये कि भोजन स्वादिष्ट था ही परंतु सब्जी अति सुंदर व स्वादपूर्ण थी। उनका
डिब्बा कैसे लौटाओगे" ये भी पूछ लिया। (ऐसी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना यह
भी कार्यकर्ता के लिए आवश्यक है)। रात को जब सोने का समय हो चला तो मैं उनके
पैर दबाने के लिए उनके बिस्तर पर पहुँचा तो एकदम से उठकर बैठ गए और मुझे पैर
दबाने से रोक दिया। एक पुण्य काम से मुझे वंचित होना पड़ा। उसी यात्रा में
मैंने अनेक शंकाए उनके सामने रखीं जिनका समाधान मुझे प्राप्त हुआ और मेरा जीवन
कृतार्थ हो गया।
(8) अपने कार्यकर्ता को नैतिक समर्थन कैसे देना यह भी सीखने का मौका एक बार
मुझे मिला। उनके साथ एक बार एक कार्यकर्ता के घर जाना हुआ। कार्यकर्ता घर पर
नहीं था पर परिवार में परिचय था इसलिए कार्यकर्ता की माताजी अपने बेटे की
शिकायत करने लगी। उस पर ठेंगड़ी जी क्या कहेंगे यह जानने कि उत्सुकता थी।
ठेंगड़ी जी ने कहा- भाभीजी कार्यकर्ता के बारे में जितनी मात्रा में शिकायत की
जाती है उस पर कार्यकर्ता का मूल्यांकन हम लोग करते हैं। इस उत्तर में और बेटे
की तारीफ सुनकर बड़ा अच्छा माहोल बन गया और प्रसन्नता है साथ वहाँ से हम लोग
निकल पड़े।
ठेगड़ी जी में असंख्य गुण थे, जिनका वर्णन करने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है
परंतु उनमें से कुछ सद्गुणों की सूची नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
बलदण्ड शरीर यष्टि, सादगी पूर्ण रहन-सहन, अर्थशास्त्र के ज्ञाता होने के कारण
इस युग के आर्य चाणक्य" थे, पू० श्रीगुरुजी के 2 प्रमुख गुण - धैर्य व समर्पण,
उनमें विद्यमान थे। हँसते खेलते दूसरों का मार्ग दर्शन करना यह भी जानते थे।
करुणा पूर्ण व्यवहार से अनेक लोगों का मत परिवर्तन उन्होंने किया था।
ध्येयवादी व मौलिक चिंतक थे। सिद्धहस्त लेखक व उत्कृष्ट वक्ता थे।
स्व. ठेंगड़ी जी का सहवास मुझे बहुत सरलता से मिला, इस पर मेरा मानना है कि
मेरे पिछले जन्म का संचित पुण्यफल (बकाया पुण्यफल) मय सूद मुझे प्राप्त हो
गया। जिनके कारण यह सौभाग्य मुझे मिल गया उनके प्रति आभार!
महान चिंतक एवं दूरदर्शी मा. ठेंगड़ी जी
करतार सिंह राठौर
उपाध्यक्ष
भारतीय मजदूर संघ
जालंधर (पंजाब)
यह प्रसंग वर्ष 2003 की तिथि 21,22,23 नवंबर को गुजरात प्रदेश के अंकलेश्वर
नगर में संपन्न हुए भारतीय मजदूर संघ के तीन दिवसीय अखिल भारतीय कार्यकर्ता
अभ्यास वर्ग के समय का है। अभ्यास वर्ग के समापन कार्यक्रम में मा. दत्तोपंत
जी के समारोप भाषण का अवसर था। सभी कार्यकर्ता सावधानीपूर्वक दत्तचित्त होकर
मा. ठेंगड़ी जी का उद्बोधन सुनने की लालसा एवं उत्कण्ठा लिए हुए पंक्तिबद्ध
बैठे थे।
मा. ठेंगड़ी जी ने उद्बोधन प्रारंभ किया। उनकी शारीरिक दुर्बलता दिख रही थी
किंतु उनकी वाणी में वही पूर्व परिचित ओज एवं प्रवाह था। उन्होंने संगठनात्मक,
आंदोलनात्मक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति तथा नीति संबंधी विचार रखे। सरकार की
नीतियों व भविष्य में कैसी स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं और मजदूर संघ की
शक्ति का क्या प्रभाव समाज एवं सरकार पर रहेगा, इस ओर इंगित किया।
अपने उद्बोधन के समापन के पूर्व उन्होंने घोषणा की कि आगामी पंद्रह वर्षों तक
आप देखेंगे कि भारत में भारतीय मजदूर संघ के अतिरिक्त समस्त श्रमिक संघ या तो
विलुप्त या फिर मृतप्रायः हो जाएँगे।
मा. ठेंगड़ी जी ने वर्ष 1970 में कानपुर अधिवेशन में यह घोषणा की कि वर्ष 1989
तक साम्यवाद का भारत में सूर्यास्त हो जाएगा और यह भी कि यू.एस.एस.आर. टूट कर
विखर जाएगा तथा 2010 तक पूँजीवाद भी नि नि:स्तेज हो जाएगा। ये भविष्यवाणीयाँ
सत्य सिद्ध हुईं हैं। इन घोषणाओं के पीछे उनका गहन अध्ययन तथा परिस्थितियों का
सटीक आकलन रहता था। अपने गंभीर चिंतन के बल पर वे पूर्वानुमान लगाते थे जो सही
होते थे। उन्हें दूरदृष्टि प्राप्त थी। अतः उक्त घोषणा कि भारत में पंद्रह
वर्षों याने वर्ष 2017-2018 तक मजदूर संघ को छोड़कर शेष सभी श्रमिक संघ
मृतप्रायः हो जाएँगे। इस पर चर्चा करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। मा. ठेंगड़ी
जी कह रहे हैं तो ऐसा होगा ही फिर भी कार्यकर्ताओं में व्यक्तिगत चर्चा चलने
लगी कि ऐसा कैसे होगा। उस समय तक बेशक भारतीय मजदूर संघ अन्य श्रमिक संघों से
आगे था। मगर अन्य संगठनों की भी अपने अपने औद्योगिक क्षेत्र में अच्छी पकड़
थी। भारतीय मजदूर संघ क्या इतनी शक्ति अर्जित कर लेगा कि शेष सभी संगठन इसके
सम्मुख निस्तेज हो जाएँगे।
उपरोक्त कुछ ऐसे प्रश्न मन में उपजे जिसे लेकर हम उत्तर क्षेत्र के कार्यकर्ता
अभ्यास वर्ग से वापस लौटते हुए दिल्ली में रुके और तत्कालीन उत्तर क्षेत्र
संगठन प्रभारी श्री रामदास पांडे से मा. ठेंगड़ी जी से मिलने की इच्छा प्रकट
की। उन्होंने भेंट का समय तय कर दिया और नियत समय पर उत्तर प्रदेश महामंत्री
श्री देवनाथ सिंह, हरियाणा प्रदेश महामंत्री श्री जंगबहादुर, हिमाचल प्रदेश
महामंत्री श्री सुरेंद्र ठाकुर, मेरे तथा श्रीरामदास सहित हमलोग श्री ठेंगड़ी
जी के पास बैठे और अपने मन की जिज्ञासा प्रकट की कि क्या आपको सचमुच ऐसा लगता
है कि आगामी पंद्रह वर्षों तक अन्य सभी श्रम संघ विलुप्त अथवा मृतप्रायः हो
जाएँगे।
मा. ठेंगड़ी जी ने थोड़ा गंभीर होते हए किंतु सहज भाव से कहा कि हाँ मुझे ऐसा
ही लगता है। जो सच है वह मैंने आपको बताया है। आगे आप देखें कि क्या होता है।
इतना कह कर उन्होंने 'एक हिंदू दलित की व्याख्या' यह पुस्तक उन्होंने हम सब को
स्नेहपूर्वक भेंट में दी और बैठक समाप्त हुई।
आज वर्ष 2016 में हम मा. ठेंगड़ी जी की उक्त भविष्यवाणी को अक्षरशः चरितार्थ
होते देख रहे हैं। जब भारतीय मजदर संघ को छोडकर अन्य सभी श्रमिक संगठन वस्तुतः
शक्तिरहित हो चुके हैं और दो एक वर्षों के उपरान्त वे कदाचित् दम तोड़ते नजर
आएँगे।
मा. ठेंगड़ी जी महान विचारक, मनीषी तथा दूरदर्शी महामानव थे। ट्रेड यूनियन
क्षेत्र में हमें उनके सान्निध्य उनके मार्गदर्शन में कार्य करने का सुअवसर
प्राप्त हुआ यह हमारा परम सौभाग्य है। उनकी पुण्य स्मृति को मैं शत् शत् नमन
करता हूँ।
वर्धमान मिल आंदोलन
लुधियाना स्थित वर्धमान मिल में मजदूर माँगों को लेकर वर्ष 1982 में भारतीय
मजदूर संघ के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन हुआ। पंजाब प्रदेश संगठन का मैं उन
दिनों सचिव था और श्री राजकृष्ण भक्तजी ने उक्त आंदोलन की कमान मुझे सौंपी। यह
आंदोलन तीन वर्ष तक चला। आंदोलन के प्रारंभिक काल में परिस्थिति जन्य हालात
एवं प्रबंधन के विपरीत स्टैण्ड तथा मजदूरों के आक्रोश का परिणाम यह हुआ कि
गोलियाँ चलीं और एक मैनेजर एक मजदूर तथा एक अन्य कर्मचारी सहित तीन लोगों की
मृत्यु हो गई। आंदोलन तीव्र होता चला गया। सभी प्रकार की उत्तेजना के बावजूद
मजदूर अन्याय के प्रतिकार हेतु कटिबद्ध थे किंतु अनुशासन में रहे।
इस आंदोलन को दिल्ली से स्व. बड़े भाई तथा मा. ठेंगड़ी जी का मार्गदर्शन भी
प्राप्त था। आंदोलन के कारण 52 मजूदरों को जेल जाना पड़ा और फौजदारी मुकदमा
चला। प्रबंधन मुकदमा वापस लेने व मजदूरों की रिहाई की जो शर्ते रख रहा था, वह
हमें स्वीकार नहीं थी। वार्ताओं के कई दौर चले किंतु कोई समझौता नहीं हुआ।
अंततः मिल मालिक मा. ठेंगड़जी जी से वार्ता करने दिल्ली पहुँचे। उन्होंने एक
घंटे तक मा. ठेंगड़ी जी से बात की। मा. ठेंगड़ी जी चुपचाप सुनते रहे और अंत
में केवल इतना ही बोले कि दोषियों को सजा मिले और निर्दोष मुक्त किए जाएँ।
फलतः एक को छोड़कर शेष 51 मजदूर जेल से रिहा किए गए और उन पर मुकदमे भी वापस
हुए।
उक्त आंदोलन की विशेष बात यह है कि तीन वर्ष की अवधि में आंदोलन कितना भी उग्र
हुआ पर फैक्ट्री की एक सुई का भी नुकसान नहीं हुआ। हमारी लड़ाई अन्याय से है
मशीनों से नहीं। भारतीय मजदूर संघ के इस सिद्धांत को मजदूरों ने सिद्ध कर
दिखाया। समझौता हो जाने के पश्चात् कारखाना पूर्ववत चालू हुआ और मजदूर मालिक
के आज सौहार्दपूर्ण संबंध हैं तथा हमारी यूनियन मान्यता प्राप्त है।
आपात्काल और ठेंगड़ी जी का सान्निध्य
केशव पांडुरंग गोखले
पुणे (महाराष्ट्र)
1975-76 के आपात्काल में अनेक बार मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की रहने की
व्यवस्था मुंबई की उपनगरी अंधेरी में हमारे घर में हुई थी। घर काफी बड़ा था
जिसमें प्रकाश और हवा की कोई कमी नहीं थी। हमारे घर के सभी लोग उन्हें पंत नाम
से पुकारते थे। उनके घर में होने के कारण संबंधों में घनिष्ठता बढ़ी। आज भी उन
40 वर्षों पूर्व की यादें ताजी लगती हैं।
परहित चिंता प्रधान-किसी भी परिवार में रहते समय उनका कहना था कि उनके
वास्तव्य के कारण परिवारवालों को किसी भी प्रकार की असुविधा न हो। मुंबई में
पानी की कमी होने के कारण स्नान करते समय सावधानी से पानी का उपयोग करना,
यजमान को लोकल पकड़नी पड़ती है। इसलिए अथितियों ने उनके बाद में स्नान करना,
सारा व्यवहार अपने घर में जैसा हम करते हैं वैसा ही इस परिवार के साथ रहते समय
करना ऐसी बातें पंत अपने सभी कार्यकर्ताओं को पहँचते ही कहकर उन्हें सतर्क कर
देते थे।
परिवार के साथ एकात्मता- मैं, मेरी पत्नी, मेरी बेटियाँ और मेरे माता-पिता इन
सभी से पंत बड़ी आत्मीयता से बातें करते थे। सबके साथ अपनत्व प्रस्थापित करने
में वे कुशल थे। उनमें संभाषण करने की कला विद्यमान थी। हम भी नागपुर के ही
होने के कारण पुरानी यादों का उल्लेख करने में समय आनंदपूर्ण वातावरण में कैसे
बीत जाता था, इसका पता ही नहीं चलता था।
संगठन और समाज पर विश्वास- आपात्काल में एक बार एक कार्यकर्ता ने आवेश में आकर
बात करते करते कहा कि उस समय के अपने देश के प्रधानमंत्री का कोई का कोई
घातपात हुआ तो अच्छा ही होगा। पंत ने उसके इस कथन से अपनी असहमति प्रकट कर कहा
कि आज यदि प्रशासन अति कठोर से व्यवहार करता होगा तो भी कुछ काल बीतने के बाद
उसमें शिथिलता आएगी। ठीक उसी समय हम सब अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर उसका मुकाबला
कर सकेंगे और यशस्वी भी होंगे। आज जब शासन कड़ाई से बर्ताव कर रहा है। तब हमने
अपना अस्तित्व और संगठन सुरक्षित रखना है।
मनोबल ऊँचा रखना है। उपने संगठन की शक्ति और अपना समाज इन दोनों पर पूरा
विश्वास रखकर हम कुछ दिन निकालें क्योंकि यह आपात्काल अधिक दिनों तक कायम रह
नहीं सकेगा।
प.पू. श्रीगुरुजी के प्रति अत्यादर- एक बार पंत को एक महत्वपूर्ण बैठक में
उपस्थित होना था। उस दिन उनके पेट में बहुत गड़बड़ी थी। वे बेचैन थे। मेरी
माताजी ने थोड़ी घरेलू दवा उन्हें दी थी। इसलिए थोड़ा आराम हुआ था। वे तो बैठक
में गए। बैठक यशस्वी हुई। उस बैठक में जब चर्चा चल रही थी तब एम.एम. जोशी जी
ने पंत को उनकी बेचैनी का कारण पूछा था। पंत उनके इस प्रश्न से बहुत अधिक
अस्वस्थ हुए। बैठक के बाद जब वे घर वापस आए तो उन्हें अस्वस्थ देखकर मैंने
उनकी अस्वस्थता का कारण पूछा। मेरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि केवल
3-4 घंटे की पेट की तकलीफ को मैं लोगों से छिपा नहीं सका। किंतु प.पू. गुरुजी
तो शरीर में 103°, 104° फारनहाईट के बुखार को भी छिपा सकते थे और किसी को भी
जरा सा भी शक होता नहीं था कि उन्हें बुखार होगा। ऐसा श्रीगुरुजी का व्यवहार
था। श्रीगुरुजी के महान व्यक्तित्व के कारण और उनके तपोबल के कारण ही वह उनके
लिए सहज था किंतु मुझे मेरी मर्यादा का इस घटना ने ज्ञान करा दिया और इसलिए
मैं बहुत अस्त व्यस्त हूँ।"
सर्वांगीण विचार की दृष्टि- हम सब एक बार दोपहर का भोजन प्रारंभ ही करने वाले
थे तब मेरे कार्यालय में मेरे ऊपर के अधिकारी का मुझे फोन आया तो मैं उठकर फोन
के पास गया और उनके साथ बात करने लगा। उस समय मैं टाटा कन्सास्टिंग इंजिनियर्स
कंपनी में प्रधान इंजीनियर के पद पर कार्यरत था। बड़ा ठेका देने के संबंध में
हमारी बातचीत 30-40 मिनट तक हुई। ठेका देने के पहले सरासर विचार करना पड़ता
है। 3-4 पहलू बड़े महत्व के थे। बात पूरी कर निर्णय क्या लेना यह निश्चित हुआ
तब फोन रखकर मैं भोजन करने वापस आया। तब पंत ने पछा कि इतनी देर क्यों लगी।
मैंने हमारी जो चर्चा अधिकारी सहित हई उसका ब्योरा दिया। पंत ने मेरी बातें
सुनकर ठेका देने संबंधी अपना मत दो-तीन मिनट के बाद दिया। मुझे तब आश्चर्य हुआ
कि जो निर्णय हमने 40 मिनट में दिया था। ठीक वही निर्णय पंत ने हमें दो-तीन
मिनट में ही दिया था। तब मुझे ज्ञात हुआ कि पंत की सर्वांगीण विचार करने की
दृष्टि में अति सहजता थी और अचूक निर्णय लेने की विलक्षण क्षमता उनमें थी।
वाचन में रुचि-रात में सोने के पूर्व कुछ पढ़ने की उनकी आदत थी। घर में जो भी
मासिक पत्रिका होती थी वे उसे पढ़ लेते थे। किसी भी गंभीर विषय को लेकर कोई
पुस्तक हमारे यहाँ तो उन्होंने पढ़ी नहीं थी। कार्यकर्ताओं में बातचीत व चर्चा
करते समय अनेकानेक संदर्भो का उल्लेख वे कर देते थे। प्रवास और बैठकों में तथा
वार्तालापों के व्यस्त कार्यक्रमों के रहते वे कब किताबों को पढ़ लेते थे यह
एक आश्चर्यजनक बात थी। पंत को वाचन में गहरी रुचि थी।
सरासार विचार का व्यवहार हो- एक बार हवाई अड्डे से मैं ऑटो रिक्शा से घर आया
तब रिक्शेवाले ने मुझसे थोडा ज्यादा किराया माँगा। उस पर हमारा वाद विवाद चला।
उसी समय पंत बाहर जाने के लिए निकले थे तब उन्होंने वह सुन लिया था। फिर वे
मुझसे बोले कि थोड़ा ज्यादा किराया माँग रहा है तो उन्हें उतना किराया दे दो।
उनसे विवाद मत करो। पैसा ज्यादा लेकर रिक्शावाला चला गया। तब पंत ने मुझसे कहा
देखो, तुम तो हवाई जहाज से बहुत किराया देकर आए हो; रिक्शा वाले की कमाई उस
तुलना में कम होती है। इसलिए उसने थोड़े ज्यादा रुपये माँगे तो तुमने दे देने
चाहिए। हर बात को कानून के दायरे में बाँध नहीं सकते। इसलिए सारे पहलुओं को
विचार में लेकर निर्णय लेना उचित होता है। अपना व्यवहार सरासर विचार करने के
बाद ही योग्य ऐसा होना चाहिए।"
समाज सुधार की मौलिकता- पंत की सूटकेस एक बार हवाई अड्डे पर चुराई गई। यह बात
ध्यान में आते ही वे संबंधित अधिकारी से मिले और तुरंत कार्रवाई करने की
प्रार्थना की। इस अधिकारी ने धोती कुर्ता वाले सामान्य व्यक्ति की तरफ ध्यान
नहीं दिया। उनकी प्रार्थना को उपेक्षित किया। बाद में पंत ने उसके ऊपर वाले
अधिकारी के पास जाकर बताया और प्रार्थना की कि उन्हें उनकी सूटकेस जल्द ही
मिले। किंतु दुर्भाग्य की बात हई और वहाँ पर भी पंत को निराशा हाथ लगी। अंत
में पंत ने अपने खिसे में से अपनी खासदार की पहचान निकाल कर उस अधिकारी को
दिखाई तब कहीं जाकर तेजी से हलचल हुई और 10-15 मिनट में ही पंत की सूटकेस
उन्हें मिल गई। इस प्रसंग पर पंत बोले कि जब तक मामूली से काम के लिए प्रलोभन
वा भय नहीं दिखाया जाता तक तब काम नहीं होता- यह स्थिति रही तो समाज कैसे
प्रगति करेगा? सत्ता में कौन रहते हैं यह मुद्दा गौण है। समाज को ही मूल से
परिवर्तित कर सुधारना अनिवार्य है।
कुछ बातें भगवान पर छोड़ें- बाहर के दरवाजे की घंटी बजने पर पंत दरवाजा खोलने
के लिए तुरंत उठकर जाते थे। अनेक बार उन्हें वैसा करने से रोकने के बाद भी वे
मानते नहीं थे। उन्हें सुरक्षा विषय की बात कही तो भी वे कहते थे मेरे घर में
होने पर कोई मझे खोजने के लिए आएंगे तो मैं उन्हें मिलूँगा ही। सतर्क रहना यह
बात ठीक है किंतु 24 घंटे अपने सर पर तलवार लटकाकर क्यों रहें? ऊपर वाले पर
कुछ बातें छोड़ देनी चाहिए।
घर पर पुलिस आई तब से- आपात्काल में पंत हमारे यहाँ रुके थे। किंतु सुबह बाहर
निकलते समय कहकर गए थे कि दोपहर तक वापस लौट आएँगे। किंतु वैसा नहीं हुआ। शाम
के साढे सात बजे घर पर पुलिस उन्हें खोजने आई। मेरा पूर्वेतिहास उन्होंने
पूछा। घर की तलाशी ली। मुझे डर इस बात का लग रहा था कि इतने में पंत अगर घर आए
तो पकड़े जाएंगे। किंतु सौभाग्यवश वैसा कुछ हुआ नहीं। पुलिस कमिश्नर ने थोड़ा
हमें डाँटा फटकारा और वे चले गए। आधे घंटे के बाद मा. सुरेश राव केतकर घर आए।
उन्हें हमने कहा कि पंत को बताइये कि वे अब हमारे घर ना आवें, अन्यथा वे पकड़े
जाएँगे। वे भी चले गए। शाम को श्री रमण भाई शाह को हमारे घर के नीचे से ही
पकड़ कर ले गए।
उसी दिन शाम के समय हमारे कॉलोनी में ही श्री भट के यहाँ गया और उन्हें सब
बताया और कहा कि शाखा में होने वाले कार्यक्रम में मैं नहीं आ पाऊँगा। यह कहकर
मैं बाहर आया तो पुलिस ने रोका और पूछा कि कहाँ गए थे। मैंने बताया की भट के
घर गया था। तब से सारी फौज उनके घर के चारों ओर निगरानी में लगाई गई। हमारा घर
इसलिए निगरानी से बच गया था। उसी रात साढ़े नौ बजे हमारे घर पंत हाथ में बैग
लेकर आए। मैंने उन्हें दिनभर की कहानी सुनाई तो वे तुरंत बैग घर में ही छोड़कर
बाहर निकल गए। जब कुछ देर के बाद पंत की लिखी चिट्ठी लेकर एक व्यक्ति बैग लेने
आए तब हमने बैग दे दिया। बाद में पंत का हमारे घर आना रुक गया।
भाग्यशाली परिवार- हमारा परिवार बहुत ही भाग्यवान रहा। वह इसलिए कि आपातकाल
में श्री माधवराव मले, श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, श्री मोरोपंत पिंगले, श्री
आबाजी थत्ते हमारे घर 10-15 दिन बारी बारी से आकर रुकते थे, रहते थे। उन्हें
सब प्रकार से अच्छा खाना खिलाना, उनका वास्तव्य सुखमय व आराम का करना यह हमारे
भाग्य में था। आपात्काल के कारण ही यह संभव हो पाया। अन्यथा यह संभव नहीं हो
पाता।
उपरोक्त सभी अधिकारी व्यक्तियों के मार्गदर्शन पाने में हमारे परिवार के सभी
लोग भाग्यशाली रहे। उनका स्नेहाशीर्वाद, प्यार और अपनत्व हमेशा के लिए स्मरणीय
रहेगा।
छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भी आदर
प्रभाकर शंकर रनले
पुणे (महाराष्ट्र)
पुणे के पाषाण मुहल्ले में मा. दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के रहने की व्यवस्था की गई
थी। मुझे उनकी व्यवस्था में रहने का सौभाग्य पाप्त हुआ। उनके वास्तव्य काल में
उन्हें मिलने के लिए अनेक प्रतिष्ठित, गणमान्य व्यक्ति आते थे। मेरे वहाँ
व्यवस्था में रहते मा. अशोक जी सिंघल, मा. प्रवीण तोगड़िया, मा. गिरीराज
किशोर, मा. किशोर जी व्यास, मा. सुदर्शन जी इत्यादि महानुभाव आदि थे।
एक स्वतंत्र कमरे में इन प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ बैठकर बातचीत चर्चा आदि
होती थी। इन प्रतिष्ठितों में कतिपयों के लिए झेड प्लस सुरक्षा व्यवस्था थी।
चर्चा के समय शरबत जलपान के पदार्थ उन्हें देने के पूर्व झेड प्लस कमांडोज ने
मुझे एक एक चम्मच खिलाना पिलाना और बाद में मैंने उनके कमरे में जाकर उन्हें
देना ऐसा कार्यक्रम चलता था। उस समय मुझ पर म. वि. का महासंघ के प्रदेश
कोषाध्यक्ष तथा कल्याण निधि का विश्वस्त ऐसा दायित्व था।
बातचीत चर्चा समाप्त होने पर प्रतिष्ठित व्यक्ति दिल्ली की ओर प्रस्थान करने
हेतु बाहर की ओर आते थे। उस समय स्वयं मा. ठेंगड़ी जी मेरा नाम बताकर पूरा
परिचय उनको करा देते थे। मैं तो चुपचाप दरवाजे पर खड़ा रहता था। लेकिन मेरा
परिचय प्रतिष्ठितों को करा दिए बिना मा. ठेंगड़ी जी कभी उन प्रतिष्ठितों के
साथ दरवाजे से बाहर निकलकर फाटक तक नहीं गए। मेरी अनदेखी उन्होंने कभी नहीं
की। श्री प्रभाकर शंकर रनले जी अपने स्वयंसेवक हैं और भा.म.सं. के कार्यकर्ता
हैं। ऐसा मेरे परिचय करा देने में उन्होंने कभी भूल नहीं की। ऐसे समय मेरी
आँखों से आँसू निकल आते थे। लगता था कि मैं तो एक छोटा कार्यकारी मुझे ठेंगड़ी
जी इतना महत्व क्यों दे रहे हैं? उनकी यह सादगी और कार्यकर्ता के प्रति मन में
जो आत्मीयता का, अपनत्व का भाव रहता है उसी के कारण यह सब संभव हो सकता है।
यही विचार मेरे मन को प्रसन्नता देता था और मा. ठेंगड़ी जी की महानता के प्रति
मेरे मन में वे बहुत उच्च श्रेणी के श्रद्धेय महापुरुष हैं ऐसे भाव जग जाते
थे। मेरे आँस वही दर्शाते थे।
चर्चा के बाद इसलिए हर प्रयाण के पूर्व में सर्वप्रथम मा. ठेंगड़ी जी का
चरणस्पर्श करने के पश्चात् ही अन्य प्रतिष्ठितों के पाँव छूता था। एक समय मा.
ठेंगड़ी जी ने मुझसे पूछ ही लिया कि ऐसा मैं क्यों करता हूँ? उत्तर में मैंने
मा. ठेंगड़ी जी से कहा की सर्वप्रथम आप ही मेरे श्रद्धास्थान में हैं। आपके
कारण ही इन प्रतिष्ठितों को देखने का सौभाग्य मुझे मिला है इसलिए मैं वैसा
करता हूँ।
एक और प्रसंग याद आता है। मा. ठेंगड़ी जी पूना के दीनदयाल अस्पताल में
स्वास्थ्य लाभ करने हेतु आए थे। उनकी व्यवस्था में उस समय मैं ही वहाँ था।
औषधि लेने के कारण उन्हें ग्लानि आती थी और रात को जब ग्लानि का प्रभाव समाप्त
होता था तब वे जग जाते। ऐसा ही एक रात जगने के बाद उन्होंने मुझसे पीने के लिए
पानी माँगा। मैंने पानी दिया और उन्होंने पी लिया। इतने में सामने की दीवार पर
लगी घड़ी में उन्होंने देखा और मुझसे कहा कि प्रभाकर तू अब तक यहाँ क्यों रुका
है, घर क्यों नहीं गया? घर में सब लोग चिंता करते होंगे कि तू अब तक घर क्यों
नहीं पहुँचा? उनके ये प्रश्न सुनकर मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। उस आवेग
पर मैं काबू नहीं कर पाया। इतनी अस्वस्थता होने पर भी दूसरों के हितों की
चिंता करने वाला यह व्यक्ति कितना श्रेष्ठ पुरुष है ऐसा लगता था और अधिक लिखने
को नहीं है। बस इतना ही।
'मा. ठेंगडी जी ने किया कार्लमार्क्स का पराभव'
आबा साहब पटवारी
ह्युस्टन (USA)
एक तरफ 'Workers of the world unite, you have nothing to lose but your
chains'. प्रतिपादन करने वाला कार्लमार्क्स का वर्ग विग्रहवादी तत्वज्ञान और
दूसरी तरफ Workers unite the world' प्रतिपादन करने वाला समन्वयवादी
तत्वज्ञान। 'वसुधैव कुटुम्बकम', यह पुरातन भारतीय विचारधारा को युगानुकुल
परिभाषा में प्रस्तुत करने में कामयाबी प्राप्त करने वाले हैं महर्षि दत्तोपंत
ठेंगडी जी। आज क्या दशा है मार्क्सवादी विचारप्रणाली की! और 'under
capitalism, consumer is the king' प्रतिपादन करने वाली पूँजीवादी विचारधारा
की! इन दोनों विचारधाराओं को परास्त कर वर्गविग्रह नहीं अपितु
वर्गसमन्वय-एकता-समरसता की ओर संसार को उद्युक्त करने की नींव रखने वाले
ठेंगडी जी ने मार्क्सवादी और पूँजीपवाद को पराभूत किया है।
'Dictatorship of the rural proletariat' का आखरी नतीजा तो मुट्ठीभर तथाकथित
नेताओं की मनमानी डिक्टेटरशिप जिस की वजह से हजारों-लाखों विरोध करने वाले
सामान्य नागरिकों को अपनी जान न्योछावर करनी पड़ी। आज साम्यवादी रूस का विघटन
हो चुका है और चीनी भस्मासुर संसार को भयावह लग रहा है। इसी पार्श्वभूमि पर आज
जागतिक विचारकों को भारतीय तत्त्वज्ञानी महर्षि दत्तोपंत ठेंगडी जी के विचार
स्वीकार्य लग रहे हैं। आज भारत में जो परिवर्तन दिखाई दे रहा है विशेषतः
राजनैतिक क्षेत्र में उसका मूल दत्तोपंत जी के मूलभूत प्रतिपादन में है, ऐसा
विचारकों का मानना है।
1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना दत्तोपंत जी की एक विशेष देन है। आज
भारतीय मजदूर संघ संसार का सर्वश्रेष्ठ संगठन माना जाता है। केवल भारत में ही
नहीं, संसार में सर्वाधिक सदस्य संख्या और उद्योगों में प्रभाव बनाए रखा है।
'हम काम का उचित दाम लेंगे और देश के लिए काम करेंगे' यह विचार दत्तोपंत जी ने
भारतीय मजदूर संघ के माध्यम से प्रस्तुत किया। आज तक मजदूरों का अपने राष्ट्र
के प्रति भी कुछ लेना-देना है, इस सोच को जागतिक मजदूर नेताओं के विचार में न
कोई स्थान था, न चिंतन। पहली बार दत्तोपंत जी ने यह बताया कि राष्ट्रोत्थान
में मजदूरों का सहभाग अनिवार्य है।
दत्तोपंत जी ने न केवल विचार प्रसृत किए बल्कि उन विचारों को अमल में लाने
वाले कार्यकर्ताओं का निर्माण भी किया। भारतीय किसान संघ, अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद्, सहकार भारती, समरसता मंच आदि संस्थाओं के निर्माण में
दत्तोपंत जी का जो महत्वपूर्ण हिस्सा रहा उसका कारण था उनकी विचार प्रणाली, जो
भारतीय तत्त्वज्ञान पर निर्धारित थी। हमारे संविधान के निर्माता डॉ. बाबा साहब
अंबेडकर जी के विचारों को आज अपनाया जा रहा है। शुरू में उनके बहुमूल्य
विचारों को प्रभावी रूप से प्रतिपादन करने वाले और परामर्श लेने वाले प्रमुख
वक्ता दत्तोपंत जी ही थे। जीवनभर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के नाते
आपने इस तत्त्वज्ञान को प्रभावी रूप में समाज में बिखराया। अन्यान्य क्षेत्र
में दत्तोपंत जी के साथ एकात्म मानवतावाद के उद्गाता मा. दीनदयाल जी, भूतपूर्व
पंतप्रधान अटल जी, ऋषितुल्य नानाजी, विवेकानंद केंद्र के निर्माता एकनाथ जी
रानडे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक द्वारा पिछले 10 वर्ष जो सामाजिक
अभिसरण हुआ उसी की देन है आज केंद्र में भारतीय विचारधारा प्रभावित सरकार की
स्थापना। ऐसा प्रतिपादन करने में कोई अतिशयोक्ति नहीं। यह वास्तविकता है।
खंड -
9
सोपान -
5
सोपान
- 5 (परिशिष्ट) (पुस्तक विमोचन अवसर पर उद्बोधन)
1. अलौकिक प्रतिभावान - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. मोहनराव भागवत
2. समरसता के प्रणेता - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. भय्या जी जोशी
3. ज्ञान मार्तण्ड - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. दत्तात्रेय जी होसबाले
4. आधुनिक चाणक्य - दत्तोपंत ठेंगड़ी - संत पू. स्वामी अवधेशानंद गिरी
5. सामंजस्य समन्वय के पैरोकार - दत्तोपंत ठेंगड़ी - मा. डॉ. कृष्णगोपाल
सोपान-
5
अलौकिक प्रतिभावान
- दत्तोपंत ठेंगड़ी
मा. मोहनराव भागवत
पू. सरसंघचालक
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)
('दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के प्रथम दो खण्डों के विमोचन [30
अगस्त, 2015, नई दिल्ली] के अवसर पर प.पू. सरसंघचालक मा. मोहनराव जी भागवत का
अविस्मरणीय उद्बोधन)
आज के कार्यक्रम के अध्यक्ष और भारतीय मजदूर संघ के भी अध्यक्ष श्री बैजनाथ
राय जी, महामंत्री श्री विरजेश उपाध्याय जी, जिस ग्रंथमाला के प्रथम दो खण्डों
का विमोचन आज यहाँ पर हुआ है उसके संपादनकर्ता श्रीमान् अमर नाथ डोगरा जी और
उसके लिए सामग्री संकलित करने का भीम प्रयास करने वाले श्रीमान् रामदास पांडे
जी, दिल्ली प्रदेश मजदूर संघ अध्यक्ष श्रीमान् भाटी जी, उपस्थित महानभाव
माता-बहनों!
'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' ऐसे शीर्षक से नौ खण्डों की ग्रंथमाला
प्रकाशित् होने जा रही है जिसके प्रथम दो खंड आज प्रकाशित हुए हैं। जीवन दर्शन
तो बहुत कठिन बात है। उसको करना और भी कठिन है। जीवन दर्शन के लिए दृष्टि
चाहिए। दत्तोपंत जी ने जो बहुत सारा साहित्य लिखा है उसमें से एक ग्रंथ के
प्रकरण का शीर्षक है 'तान् प्रति नैष यत्नः' उनके लिए हमारा यह प्रयास नहीं
है। अभी जो कहा गया कि इस खंड को स्पर्श करना याने दत्तोपंत जी को स्पर्श करना
है लेकिन दत्तोपंत जी को स्पर्श करना है क्या- यह पहला सवाल है।
दत्तोपंत जी अपने जैसे लोगों का वर्णन बौद्धिक वर्गों में करते थे। संघ शिक्षा
तृतीय वर्ष के एक बौद्धिक वर्ग के प्रारंभ में उन्हें मैंने सुना। उन्होंने
कहा हम सब यहाँ पागल लोग बैठे हैं। दुनिया में हिंदुस्तान विचित्र देश है।
इसमें पागलों की परंपरा भी चलती है। पिता ने स्वयं राज्य दिया। सौतेली माता ने
मंथरा के कहने पर उसमें कुछ बाधा डाली। लेकिन सारा जनमत राज्य देने के पक्ष
में था। पिता भी कह रहा था कि मैं अपने वचन में फँस गया हूँ किंतु तुम मेरे
वचन का मान मत रखो। इनकी जगह जिनको राज्य मिलने वाला था वह भाई भी इसके लिए
तैयार नहीं था और उन्हें ही राजा बनाया जाना चाहिए ऐसा उसका भी मानस था। यह सब
पता होने पर भी और सामने चल कर आई राजसत्ता को लात मारकर चौदह साल का वनवास और
उसमें तरह तरह के कष्ट, सतत संघर्ष-ऐसा पागलपन का प्रसंग हुआ। उस प्रकार के
पागलपन की परंपरा चलती आई है- चल रही है।"
श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध, महाराणा प्रताप, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और विभिन्न
क्षेत्रों में कार्यरत स्वयंसेवक कार्यकर्ता बंधुगणों के बारे में बताते हुए
दत्तोपंत जी कहते थे कि ऐसे पागलों की परंपरा के लोग हम हैं। 'तान् प्रति नैष
यत्नः' उनके लिए हमारा यह प्रयास नहीं है। उनको यह अभिप्रेत था कि जिनके सर पर
यह पागलपन सवार नहीं है उन्हें हमें कुछ कहना नहीं है। यह पागलपन जिनके सर पर
सवार है उनको इन खण्डों में प्रकाशित सामग्री से समाधान मिल सकता है और वह
दर्शन कर सकेंगे क्योंकि उन को दृष्टि है।
अपने स्वार्थ के लिए नहीं जीना। विश्व में किसने कितना जमा किया यह बड़प्पन
नहीं है- कौन कितना उपयोगी हुआ यह बड़प्पन है। इन मुलभूत बातों के प्रति जिनकी
मति स्थिर है उनके लिए यह ग्रंथ है। यह बात है कि जिसकी अभी कोई मान्यता बनी
नहीं है ऐसे किसी ने गलती से भी अगर इस ग्रंथ को पढ़ लिया तो पढ़ने के बाद
उसकी भी शायद वैसी मान्यता बन जाएगी। यह सामर्थ्य उसका है और इसलिए वह दृष्टि
लेकर जब हम पढ़ेंगे तो हमको दर्शन हो जाएगा। जिस परंपरा की बात बताई उस पर
चलने वाले अभी हैं और वह परंपरा खंडित नहीं हुई है। अपने देश में अभी भी चल
रही है। जब जब विपरीत समय आया तो यह और प्रबल होकर सामने आई है।
यह जो परंपरा है उसका पालन करने वाले लोगों की दृष्टि है वह इसका दर्शन कर
सकते हैं क्योंकि उनको दृष्टि है। परंपरा को तो समझा जा सकता है, पढ़ा जा सकता
है किंतु परंपरा का आचरण कैसे हुआ यह प्रत्यक्ष देखना और जो देखा हुआ है उसका
वर्णन पढ़ना यह दो अलग बातें होती ही हैं और इसलिए डोगरा जी ने आपको जो यह कहा
कि बहुत है - हम इतना कर नहीं सकते - हमको इस प्रकार की लेखन विधा का अभ्यास
नहीं है- वगैरा वगैरा - यह एक विनम्र स्वीकार रूप में उन्होंने कहा है। यहाँ
कोई बहुत प्रतिभा संपन्न और इस विधा में अभ्यस्त आदमी होता तो भी ऐसे जीवन को
पूरी तरह से शब्दों के माध्यम से खड़ा करना या उनके ही शब्दों के माध्यम से
उसका संर्पूण दर्शन करवा देना यह सर्वथा संभव नहीं होता। यह सत्य है। ऐसे कोई
छोटे मोटे अथवा कुछ विशेष प्रतिभा संपन्न लोग होंगे जिनका दर्शन करवाया जा
सकता है किंतु जिनका मन, बुद्धि, चित्त विशेष प्रकार का बना है ऐसे लोगों को
देखे बिना उनका सौ प्रतिशत दर्शन करवा देना संभव नहीं है। इस मर्यादा को ध्यान
में रखते हैं तो भी यह जो 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' के नौ खण्डों का
उद्यम आप ने अपने हाथ में लिया है वह बहुत कठिन कार्य है। इस मर्यादा को मानने
और उसके भीतर रहते हुए दर्शन करवा देना कठिन कार्य है।
जैसा कि बताया गया है कि अनेक विषयों पर दत्तोपंत जी ने बिल्कुल मूलगामी विचार
प्रस्तुत किए हैं। मनुष्य की सारी दृष्टि बदल देने वाले मनुष्य की बुद्धि को
झकझोरने वाले ऐसे विचार उन्होंने दिए हैं जिनका तल पाना कठिन है किंतु यह
(संकलन व लेखन कार्य) करना आवश्यक तो है और करने के बाद जितना भी होगा उसका
लाभ ही है।
'अधिकस्य अधिकं फलम्' किंतु 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'
अधिक करेंगे पूर्ण करेंगे तो अधिक फल, पूर्ण फल प्राप्त होगा लेकिन पूर्ण नहीं
हो सकता थोड़ा करेंगे तो उसका भी फल प्राप्त होगा। आगे ही बढ़ेंगे।
दत्तोपंत जी को भारतीय मजदूर संघ के, संघ के विचार को आधार बनाकर चलने वाले
विभिन्न संगठनों के सब कार्यकर्ता जानते थे। संघ सृष्टि में कुछ नाम ऐसे हैं
जिनका विस्मरण कभी होगा ही नहीं परंतु उनको शब्दरूप में पूरा खड़ा करना कठिन
है। यह जितना सच है किंतु ऐसे कभी कभी नाम स्मरण से भी बदल होता है। नामस्मरण
का भी परिणाम होता है।
"धर्मो विवर्धति युधिष्ठिर कीर्तनेन।
शत्रु विनश्यति धनंजय कीर्तनेन॥
पापं प्रणश्यति वृकोदर कीर्तनेन।
माद्रिसुतो कथ्यताम न भवन्ति रोगाहा॥"
ऐसा पुराने प्रातः स्मरण में हम कहते हैं। धर्मराज के कीर्तन स्मरण से धर्म का
वर्धन होता है। भीम स्मरण से पाप का नाश होता है- अर्जुन के कीर्तन से शत्रु
का नाश होता है किंतु इस का अर्थ यह नहीं कि अभी यहाँ कीर्तन किया और तत्काल
वहाँ कुछ परिणाम् हो गया ऐसा नहीं होता। होता यह है कि इस प्रकार के कीर्तन से
व्यक्ति की कुछ योग्यता बनती है- बढ़ती है। ऐसे जिनके नाम कीर्तन से संघर्ष
वृत्ति के विचार को जीवन के हर पहलु में आगे बढ़ाने की योग्यता बढ़ती है ऐसी
संघर्ष वृत्ति के आदर्श महापुरुषों में दत्तोपंत जी का स्थान था और रहेगा।
बाकी सब आप जानते हैं कि वे प्रतिभा विलक्षण थे।
समय कैसा है- दो ही रास्तों का बोलबाला है। पूँजीवाद और दूसरा साम्यवाद। एक
अधूरे विचार दर्शन के आधार पर विगत दो हजार वर्षों से यही चला आ रहा है। तीसरा
रास्ता दुनिया को मालूम नहीं। तीसरा रास्ता जिनके पास है जिन्हें मालूम है
उनकी दुनिया में कोई सुने ऐसी उनकी स्थिति नहीं। दुनिया की बात छोड़ दें तो
उनके अपने देश में भी उनकी सुनने वाले कोई नहीं। उस समूह की जिनकी उस कार्य के
साथ सहानुभूति रखने वाले लोग भी उस विचार को गया बीता दकियानूसी विचार मानें
उस स्थिति में भी एक अन्य विचार के आधार पर तरह तरह के कामों के दर्शन खड़े
करना- उस विचार का पूरा मंडन करना, यह कितना कठिन काम है। कितनी बौद्धिक
प्रतिभा उस काम में लगी तो यह काम करने वालों में दत्तोपंत हैं।
जैसे हम कहते हैं कि पू. डाक्टर साहब के विचारों के भाष्य का - डॉ. साहब के
विचार याने बहुत सरल भाषा में छोटे छोटे सूत्र किंतु उसके पीछे जो व्यापक
दर्शन है उसे विषद् करके आधुनिक समय और संदर्भ में सिद्ध करने वाले प.पू. श्री
गुरुजी हैं। जिन्हें हम पू. डाक्टर जी के भाष्यकार मानते हैं। ऐसे ही इन
विचारों के आधार पर जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों में जाकर स्वयंसेवकों ने जब
उद्यम प्रारंभ किए तो वहाँ जाकर उस कार्यक्षेत्र, वहाँ के विचारों का परिष्कार
करना- वहाँ की समस्याओं को समझना-सुलझाना और उस कार्यक्षेत्र को एक स्वदेशी
विचार दर्शन के आधार पर, संपूर्ण दर्शन, सत्य दर्शन के आधार पर कार्य खड़ा
करना- एक तीसरा पर्याय देने की पूर्व तैयारी करना और यह जब स्वयंसेवकों ने
प्रारंभ किया तो उन्हें प. पू. श्री गुरुजी के भाष्य में से जो दिग्दर्शक
निर्देशक ऐसे अंश मिले उनका आगे दत्तोपंत जी ने भाष्य किया। यह भाष्यकारों की
ऐसी परंपरा है और ऐसा भाष्य करने के लिए बहुत-बहुत ऊँचाई चाहिए-बहुत गहराई
चाहिए।
इस प्रकार दत्तोपंत जी के कर्तृत्व, व्यक्तित्व और उनके जीवन कार्य का आकलन
प्रस्तुत करने के लिए उसी प्रकार का व्यक्ति चाहिए। अब हम जैसे हैं और हम पर
वह आ पड़ी है तो हम वह कर रहे हैं- करना भी चाहिए। राह देखते बैठे रहेंगे तो
कोई दूसरा करने वाला नहीं है। हमें ही करना पड़ेगा। जितना आप को करना है वह आप
कर रहे हैं। आज नहीं तो कल शायद वैसा कोई दूसरा मिल जाएगा जिसको और बुद्धि
होगी तो वह उस ढंग से करेगा किंतु उसके लिए चल रहे कार्य को रोकना नहीं है।
जितना हमको करना है तो उसको करना।
मराठी की एक कविता में कवि कहता है :-
तुझया संग कवि कधि जन्मनां....
तुम्हारी स्तुति करने के लिए तुम्हारे जैसा ही कवि चाहिए। वह कब जन्म लेगा।
पता नहीं। वह जन्म नहीं लेगा तो तब तक गाडी रुकी रहेगी क्या? यह परंपरा आगे
चलनी चाहिए आगे बढ़नी चाहिए।
हमको भी एक अधिकार प्राप्त है। जैसे बुद्धि का अधिकार, शक्ति का अधिकार, वैसे
ही भक्ति का भी अधिकार होता है। जिसको यह प्राप्त है उसकी दूसरी योग्यता नहीं
केवल हमारी भक्ति है। भक्ति में हम जैसा देखते हैं जानते हैं वैसा लिखते हैं।
तो उन शब्दों को भी वही सामर्थ्य प्राप्त होता है होना चाहिए जो बुद्धि के
आधार पर सारा समझ कर शब्द तैयार किए जाते हैं वह सटीक होते हैं। उतने ही सटीक,
उनका जैसा सामर्थ्य रहता है वैसा ही सामर्थ्य भक्ति के आधार पर लिखे हुए
शब्दों का भी रहना चाहिए क्योंकि हमें भक्ति का अधिकार प्राप्त है। हम उस
भक्ति और निष्ठा मार्ग पर चलने वाले लोग हैं इसलिए उसे हम कर सकते हैं। करना
भी चाहिए। यह विश्वास मन में लेकर के आगे ही बढ़ना चाहिए।
'जीवन दर्शन' के दो खंड तो प्रकाशित हो गए हैं। प्रस्तावित योजना के मताबिक
अभी सात खंड बाकी हैं। वह भी हो जाएंगे। आगे बढ़ते तथा चलते हुए शायद आप के
ध्यान में आए कि कुछ और भी साथ में करना है तो वह भी करना चाहिए। जितना होता
है उतना सब करना क्योंकि इसकी आवश्यकता है।
जैसा मैंने कहा कि जीवन तत्त्व बता के नहीं चलता। तत्त्व के आधार पर दर्शन
देना पड़ता है। यह ठीक है कि आत्मीयता के आधार पर सारी दुनिया एक है- एक छोटे
अथवा अधूरे सारांश के रूप में एकात्म मानव के आधार पर मैं कहता हूँ कि सारी
मानवता एकात्म है यह बोल के नहीं होता। सारी दुनिया एक है - यह बताओ कि उस
आधार पर यह नाटक कैसे लिखा जाएगा। कविता में क्या होना चाहिए जिससे यह दृष्टि
कविता में से आए कि मजदूरों की समस्याओं का इसके आधार पर समाधान कैसे निकलेगा।
परीक्षा यही होती है कि प्रयोग करने के लिए समय नहीं रहता है क्योंकि प्रयोग
करने के लिए भी जो मान्यता और जो सामर्थ्य चाहिए और वह कमाना है तो प्रचलित
व्यवस्थाओं से हो कर ही जाना पड़ता है।
अब एकात्म मानव की प्रासंगिकता। लोग कहते हैं उदाहरण बताओ - उदाहरण हम क्या
बताएंगे भई-हाथ में कुछ सूत्र आने के बाद ही उसके उदाहरण उत्पन्न हो सकते हैं।
उसके पहले उदाहरण कहाँ से आएँगे। अब जिन स्वयंसेवको के हाथ में वह सूत्र आए
हैं वह रखें वह उदाहरण। पं. दीनदयाल जी ने जब एकात्म मानववाद का सोचा तब उनको
कोई कहता कि आप का कागज लिखा तो ठीक किंतु प्रत्यक्ष बताइए तो बताने के लिए
करना होगा और करने के लिए जो मान्यता प्रतिष्ठा चाहिए तो वह तो जब मिलेगी तब
मिलेगी अब जो चल रहा बै उसमें से हम आगे बढ़ेंगे।
दत्तोपंत जी को नागपुर भारतीय मजदूर संघ अधिवेशन में डॉ. म. गो. बोकरे मिले।
स्वयंसेवकों द्वारा चलाए हुए कार्यो के किसी कार्यक्रम में डॉ. बोकरे पहली बार
आए। वे पहले कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर कम्युनिस्ट थे। बाद में गांधी
विचार के बन गए। उसमें जब उनका समाधान नहीं हुआ तो संयोग से संघ विचार से उनका
परिचय हो गया। भारतीय मजदूर संघ का पता चला तो सारा अध्ययन किया। साहित्य
वगैरा पढ़ा तो उनको सन्तोष हुआ। स्वदेशी जागरण मंच के अधिवेशन में उन्हें
अतिथि के नाते आमंत्रित किया गया था। वे आए। उद्घाटन के बाद कार्यकर्ता सत्र
और दत्तोपंत जी का भाषण और वह भाषण हो गया। डॉ. बोकरे का भाषण पहले था
उन्होंने एक प्रश्न किया कि तत्त्व दर्शन जो आपके पास है वह अचूक है किंतु
इतना अचूक दर्शन तत्त्व अपने पास होते हुए भी आप भी वही कुछ करते हो जो बाकी
लोग करते हैं- याने वही जिंदाबाद-मुर्दाबाद, आप भी बंद करते हो यह करते हो, वह
करते हो किंतु जो श्रेष्ठ दर्शन आप के पास है उसका प्रयोग क्यों नहीं करते हो।
दत्तोपंत जी ने कहा आपकी बात सही है। अभी हम जो चल रहे हैं, कर रहे हैं वह जो
हमारा तत्त्व दर्शन है उसके मुताबिक नहीं चल रहे हैं। हम कृति में जो कर रहे
हैं जिस तंत्र में हम चल रहे हैं उसमें हम वह नहीं कर रहे हैं जो हमारे दर्शन
में है। हमें जो करना चाहिए अभी हम वह नहीं कर रहे हैं। हम जो विद्यमान तंत्र
है उसमें चल रहे हैं क्योंकि हमारी स्थिति 'Square pegs in round holes' जैसी
है। गोल छेद हैं और चौकोर खूटियाँ उनमें ठुँकी हुई हैं। हमारी चौकोर खूटियाँ
हैं और उसके लिए चौकोर छेद चाहिए किंतु छेद गोल हैं और उन्हीं में हमारी
खूटियाँ ठुँकी हुई हैं। यह जो गोल छेद हैं यह हमने नहीं बनाए किसी और ने बनाए
और उसने गोल बनाए किंतु हमको उन्हीं छेदों में अपनी खूंटियाँ ठोकनी हैं और ऐसा
करते हुए हमको प्रभावी भी बनना है। तब हम अपने ढंग के छेद बना भी सकेंगे और
अपनी खूंटियाँ भी ठोक सकेंगे।
तब तक जो समय है उस समय तक यह जो तर्क है उस तर्क पर लोग विश्वस्त हो जाएँ और
उस तर्क का बल अपनी संख्या से धीरे धीरे बढाएँ। इसके लिए वह तर्क कितना अचूक
होना चाहिए, अखंड होना चाहिए क्योंकि शास्त्र वही चलता है जो सदा, सर्वदा,
सर्वत्र सत्य है। आदमी कितना भी विद्वान रहा फिर भी सदा, सर्वदा, सर्वत्र क्या
क्या है इसकी कल्पना करके उस सत्य की खोज करके उसे स्थापित करना तो इसे कोई
असाधारण प्रतिभा वाला व्यक्ति ही कर सकता है। दत्तोपंत जी ऐसी ही असाधारण
प्रतिभा वाले व्यक्ति थे।
'जीवन दर्शन' के अगले खण्डों में उनके साहित्य का शायद वर्णन आएगा ही तो आप
देखेंगे कि कालिदास से लेकर खलील जिब्रान तक और वेद, उपनिषद्, फारसी ग्रंथों,
आर्थिक चिंतकों से लेकर चारु मजूमदार तक सर्वत्र उनकी गति है। उनको पता है कि
किस साहित्य में क्या है? उसमें कितना दम है? उसमें क्या अच्छा और सही है और
क्या क्या गलत है? उसमें से कितना और क्या लेना चाहिए और क्या छोड़ देना चाहिए
इस सबका उनका चिंतन था। उनका गहन चिंतन और प्रचंड अध्ययन था जो सतत चलता रहता
था।
दत्तोपंत जी के पास आप कभी भी जाएंगे तो देखेंगे कि कोई न कोई एक नई पुस्तक
उनके पास होती थी जिसे वह पढ़ते ही नहीं गहराई से अध्ययन करते थे और फिर उसके
मूल विचार को पकड़ कर उसका प्रतिपादन करते थे। खाली समय में कोई मनोरंजन
पुस्तक भी पढ़ते होंगे तो वह केवल समय काटने के लिए नहीं होता था उसके पीछे भी
कुछ हेतु रहता था। इतना प्रचंड वाचन उसका चिंतन और उस चिंतन के आधार पर ऐसी
तलस्पर्शी प्रतिभा कि वह उस विषय के प्रतिपादन को मूल से पकड़ लेंगे और उसका
आधार लेकर तथा हमारा गंतव्य क्या है उसका आधार लेकर कैसे आगे जाना, यह रास्ता
भी उनको स्पष्ट रहता था।
कई बार गपशप या औपचारिक रूप में भी उनसे प्रश्नोत्तर होते थे। उनके उत्तर एकदम
सटीक होते थे। उसके लिए दो चार उदाहरण भी आ जाते थे। परिचित जीवन के उदाहरण से
स्पष्ट करते थे। शास्त्रों से लेकर किस्से कहानियों के उदाहरण भी आ जाते थे और
ऐसा एक चहुँमुखी प्रतिभा का व्यक्तित्व होने के कारण भारतीय विचार के आधार पर
मजदूर क्षेत्र की संरचना के लिए आधारभूत दर्शन तैयार करने का उन्होंने कार्य
किया। एक नया विचार दिया। उसकी धाक बनी और इटली, चीन आदि उसका अध्ययन करने लगे
तो वह भी कहने लगे कि यह नया विचार है, हमारे लिए भी उपयोगी हो सकता है। यह
मजदूर संघ की बढ़ी हुई शक्ति के कारण नहीं अपितु उस विचार की अपनी आन्तरिक
मौलिकता और महत्त्व के कारण हुआ।
भारतीय कला का दर्शन क्या है? इसका मुझे लगता है कि सबके पास पहुँच सके ऐसा
पहला प्रतिपादन आधुनिक समय में दत्तोपंत की पुस्तक Hindu View of Arts (हिंदू
व्यू आफ आर्टस) है। किसान हो, मजदूर हो, विद्यार्थी हो, कलाकार हो, कोई
क्षेत्र हो, सब क्षेत्रों में परिष्कार के लिए उस क्षेत्र को राष्ट्र निर्माण
योगदान के लिए और अंततोगत्वा मानवता में योगदानकर्ता के योग्य बनाने के लिए
क्या भूमिका होनी चाहिए, क्या रचना होनी चाहिए, क्या दशा, दिशा, गंतब्य और
क्या गति होनी चाहिए उसका पूरा दर्शन उनके द्वारा दिया गया। ऐसे अलौकिक
प्रतिभावान वे महापुरुष थे।
आप में से जिन्हें दत्तोपंत जी से प्रत्यक्ष मिलने का, उनके निकट सान्निध्य
में बैठने, सुनने, सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे जरा याद करें कि
उन्हें कभी ऐसा लगा कि वे महापुरुष हैं। हाँ यह विचार आया होगा कि वे बड़े
हैं, विद्वान हैं, श्रेष्ठ हैं, बहुत योग्य हैं किंतु उनकी अनुपस्थिति में आज
जो मैं उनके लिए बोल रहा हूँ वैसा विचार उनकी उपस्थिति में कभी नहीं आया। जो
व्यक्ति वास्तव में महान होता है यह उसकी पहचान है। लोगों में - समाज में
अलौकिक नहीं होना। 'अलौकिक नो भावे लोकां प्रति' ऐसा वे बार बार कहते थे।
लोगों में अलौकिक मत बनो। अलौकिक होते हुए भी लौकिक रहो। ऐसा प्रत्यक्ष आचरण
उनका था। वे कभी ठेंगड़ी साहब नहीं बने। दत्तात्रेय उनका नाम था। किंतु बोलचाल
में घर के लोग जैसा पुकारते हैं।
दत्तोपंत उनका (प्रचलित) नाम था। पुराने और आयु में बड़े लोग तो उन्हें दत्ता
नाम से ही पुकारते थे। बड़ों के लिए अपने घर का एक कर्तत्वान तरुण और छोटों के
लिए श्रेष्ठ अनुकरणीय व्यक्तित्व किंतु अपना, अपनत्व से भरपूर इस प्रकार की
भावना अपने आचार व्यवहार से सब के मन में उत्पन्न हो ऐसा उनका आचरण रहता था।
इतने बड़े बड़े विषयों का विचार वे करते थे किंतु छोटे से छोटे कार्यकर्ता का
दुःख दर्द उनकी आँख से कभी ओझल नहीं रहता था। दु:ख दर्द केवल सुनते ही नहीं
उसका निवारण कैसे हो यह वे करते थे।
नागपुर संघ शिक्षा वर्ग बैठकों आदि में उनका आना होता था। एक कार्यक्रम के
निमित्त वे नागपुर आए हुए थे। उन दिनों मैं नागपुर का प्रचारक था। ऐसे ही रात
दस साढ़े दस बजे मिले तो पूछने लगे कि कल के कार्यक्रम की व्यवस्था वगैरा सब
ठीक ठाक हो गई है। मेरे यह बताने पर कि व्यवस्था सब हो गई है। बोले कि अच्छा
है तो अब फुरसत है। मैंने कहा फुरसत! हाँ फुरसत तो है। यह सुनने के बाद कहने
लगे तो चलो थोड़ा हो के आते हैं। एक दो कार्यकर्ताओं से मिल के आते हैं। मैंने
कहा चलो। मेरे पास स्कूटर था- उसे निकाला तो बोले थोड़ा रुको। एक कप चाय पीते
हैं और फिर चलते हैं। वे चाय पीते थे। रात ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे नागपुर में
स्कूटर पर मिलने निकलते थे। उन्होंने एक कप चाय पी और बोले चलो अब चलते हैं।
झोंपड़ीनुमा एक कमरे का मकान हो या दुमंजिला भवन सब उनके लिए एक समान होते थे।
सब घरों में जाना, सब कार्यकर्ताओं से मिलना, सबके प्रति एक जैसी आत्मीयता का
भाव उनका रहता था। रात एक डेढ़ बजे भी दत्तोपंत जी को मिलने जाने में संकोच
नहीं होता था। जिनको मिलने जाना है उनको कैसा कैसा नहीं लगता था। उन्हें हर्ष
होता था कि दत्तोपंत आए हैं।
स्कूटर पर मिलने निकले और एक घर पर पहुँचे। रात का करीब एक बजा था। घर के लोग
सो रहे थे। आवाज लगाई वे जाग नहीं रहे थे। दत्तोपंत जी ने कहा एक पत्थर उठाओ
और खिड़की पर मारो। मैंने पत्थर खिड़की पर मारा और वे जाग गए। दत्तोपंत आए हैं
यह देखकर उनको आनंद हुआ। भीतर जाकर बैठना। इसका उसका सबका हालचाल पूछना- एक कप
चाय पीना और फिर आगे निकलना दत्तोपंत जी का ऐसा ही चलता था।
एक कार्यकर्ता ने नित्य प्रति जो करना चाहिए उसे वे तीन चार संगठनों के प्रमुख
होने के बाद भी नित्य प्रति करते थे। उन्होंने ही बताया था कि उन्हें राज्यसभा
का सदस्य बनने के लिए कहा गया - वे बने और बनने के बाद प. पू. श्री गुरुजी से
उनका आशीर्वाद लेने उनके पास गए और कहा कि मुझे राज्यसभा में भारतीय मजदूरों
का प्रतिनिधित्व करना है। प. पू. श्री गुरुजी ने पूछा कि एक माता जैसे अपने
पुत्र से प्रेम का अनुभव करती है उस प्रकार का प्रेमभाव मजदूरों के प्रति
तुम्हारे मन में है क्या? मजदूरों के दु:ख दर्द के प्रति वैसी संवेदना अगर
तुम्हारे मन में है तो तुम मजदूरों का प्रतिनिधित्व कर सकते हो।
दत्तोपंत जी बाद में बताते थे कि प्रामाणिकता से बोलना है तो कहना पड़ेगा कि
उस समय तक मेरे मन की वैसी तैयारी नहीं थी। किंतु हमको तो दिखता था कि उनका मन
उस प्रकार का तैयार हुआ था। समाज का जितना भी पिछड़ा, दीन दु:खी, पीड़ित शोषित
वर्ग है उस सबके प्रति उनके मन में सदैव चिंता रहती थी और उसके लिए कुछ भी
करना पड़े वह सब वे करते थे। अन्त्योदय की जो कल्पना एकात्म मानव में है उस पर
साकार आचरण दत्तोपंत जी का था।
वे कुशल संगठक थे। वात क्या करना, कैसी करना और कहाँ करना याने पोथिक (किताबी)
प्रतिभा और तात्त्विक वैचारिक मंडन केवल इतनी बात नहीं थी। कोई भी विचार अगर
वास्तव में स्थापित करना है तो उस विचार का व्यावहारिक आचरण करके दिखाना पड़ता
है। दत्तोपंत जी हमारे विचार का आचरण सब अवस्थाओं में एक कार्यकर्ता और एक
नेता के नाते कैसा होना चाहिए इसका प्रत्यक्ष जीवन में वस्तुपाठ हम सब के लिए
है। यह सब उन्होंने जीवन भर किया।
वे बड़े हैं- बहुत ही प्रतिभासंपन्न हैं इसलिए उनको दूर रखने की आवश्यकता है
इन बातों का अनुकरण जिसको उनके जैसी बुद्धि मिली होगी वह कर लेगा- सबको नहीं
है लेकिन एक कार्यकर्ता के नाते एक नेता के नाते कैसा आचरण करना यह हम उन से
सीख सकते हैं, सीखना चाहिए, अनुकरण करना चाहिए। इसकी आवश्यकता है। क्योंकि ऐसे
कुछ मूर्धन्य मनीषियों के कारण हमारा विचार दर्शन आज सर्वत्र विजयी हो रहा है।
सब तरफ यश प्राप्त कर रहा है। उसके पीछे उन जैसे महापुरुषों के जीवन भर की
तपस्या है।
सब प्रकार की परिस्थितियों में दिल साफ और विवेक को मजबूत रखकर दत्तोपंत जी
अपने विचार को न छोड़ते हुए अपने गंतव्य को ध्यान में रखते हुए और अपनी दिशा
पर कायम रहते हुए भी सब परिस्थितियों में से रास्ता निकालकर आगे जाना यह वही
आदमी कर सकता है जिसका जीवन वैसा है। अपने लिए नहीं जीना। संगठन में अपनी
स्थिति के लिए भी नहीं जीना तो कार्य को आगे ले जा सकते हैं। ऐसे लोग ले जा
सकते हैं। ऐसा सबको पता लगेगा। दत्तोपंत जी को अपने विचार का पूरा पता था और
वह विजयी होकर रहेगा इस पर उनका पूरा विश्वास था। इस कारण दृढ़ निश्चय से वे
जटिल से जटिल समस्याओं का अचूक समाधान देने में सफल रहे। अपने विचार के प्रति
अटूट, अटल श्रद्धा, अखंड चिंतन और तपस्या ऐसा उनके जीवन में था।
संघ प्रार्थना में हम कहते हैं 'शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तए' और बौद्धिक में
कहते ही हैं कि हमारा ईश्वरीय कार्य है इसलिए सफल होगा ही किंतु यह ध्यान में
रखें कि ईश्वर हमारा कोई नौकर नहीं है कि यह उसका कार्य है तो सफल करेगा ही।
भले ही हम चुपचाप बैठे रहें तो ऐसा नहीं है। हम उस कार्य के लायक बनेंगे तब
उसका आशीर्वाद उस कार्य के लिए हमें प्राप्त होगा। कार्य सही है, सत्य है और
उसे जो करेगा उसके पीछे यह शक्ति खड़ी रहेगी और उसकी पीठ पर ईश्वर का हाथ
रहेगा पर उस कार्य के लायक अपने को बनाएँ।
यह सारा करते समय दत्तोपंत जी के सामने नई पीढ़ी थी जिससे उन्हें आशा थी और
उन्हें उस लायक बनाने के लिए वे प्रयासरत रहते थे।
"मंजिलें हर रोज मुटठी में दबाकर मैं चलूँगा।
यदि पास तुम हो नहीं मेरे,
तो आज मेरी गति कुछ भी नहीं है।।"
ऐसे एक छंद वाली कविता उन्होंने हमें रेशमबाग (नागपुर) में स्मृति मंदिर के
सम्मुख बिठाकर कवि के मुख से हमारे सामने कहलवाई। उन्हें आशा थी कि यह होगा और
हम सफल होंगे लेकिन जिस लक्ष्य की हम कल्पना करते हैं वह अभी दूर है। हम उस
दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और वहाँ तक हम पहुँचेंगे। इतना विश्वास होने के कारण
इतनी दूर तक हम आए। हम सफल होंगे ही। वे कहते थे किंतु इसके लिए एक जीवन काफी
नहीं है पर आगे की पीढ़ियाँ वहाँ पहुँचेंगी।
एक दिन ऐसे ही उन्होंने पूछा कि ऐसा होगा तो कैसा होगा - वैसा होगा तो क्या
होगा- कोई आधा घंटा पूछते रहे। मैं थोड़ा तंग भी पड़ने लगा। मेरी बुद्धि उतनी
नहीं है सो मैंने कहा दत्तोपंत जी यह आप बड़े लोगों के मामले हैं। आप इनका हल
निकालो और हमको बताओ किंतु हम आपको इतना बताते हैं कि आप जो भी दिशा तय करेंगे
उस रास्ते पर चलने के लिए अगर फिर से हमें पहले से प्रारंभ करना पड़े तो पाँच
शिशुओं को लेकर मोहिते के बाड़े में फिर से शाखा प्रारंभ करनी पड़े तो मैं
करूँगा। इस प्रकार विश्वासपूर्वक जैसा प.पू. श्री गुरुजी ने कहा था हम जो आज
की पीढ़ी के कार्यकर्ता हैं हमारी वही जगह है। यह सुनने के बाद उनको जो समाधान
हुआ और उनके चेहरे पर जो भाव मैंने देखा उसे मैं कभी भूल नहीं सकता हूँ।
यह समाधान उनको सदा रहा। नए कार्यकर्ताओं को देखकर उनके आगे बढ़ने के उत्साह
को देखकर यह समाधान वे साथ लेकर गए हैं। यह समाधान प्रत्यक्ष वैसे का वैसा जब
कभी इस ध्येय मंदिर के गर्भगृह में हम सब लोग पहुँचेंगे तब वहाँ भी साकार उनकी
आत्मा को दिखाई दे यह जिम्मेदारी हमारी आपकी है। उसके लिए बहुत परिश्रम करने
की आवश्यकता है। यह तपस्या सरल नहीं है। अभी जो गीत में कहा गया है कि ध्येय
मंदिर और तपस्या तो वह सारी समस्याओं का प्रत्यक्ष सामना करना पड़ता है। यह
काम आसान नहीं है। लेकिन हम उसे आसान कर लेते हैं क्योंकि उस रास्ते पर बढ़ने
का हमारा संकल्प है, मन में भक्ति है और साथ में है ऐसा पाथेय।
'जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के इन खण्डों का उपयोग क्या है? वह पूरे का पूरा जिसकी
योजना कल्पना की है उतना कर पाएँगे कि नहीं कर पाएँगे। सामग्री कितनी सारी
संकलित हुई तो भी लगता है कि एक दशांश ही है- और भी बहुत है। ऐसा सब अधूरापन
भी इसमें रहा तो भी जितना हमसे बन पाएगा उतना सब हम करेंगे और वह हमारे लिए
भाग्य है और उस पाथेय का उपयोग करने का हमको अधिकार है क्योंकि यह हमारी
प्रतिज्ञा है- हम संकल्पबद्ध हैं। हमको वही दिन देखना है जो उनको देखना है।
जिस दिन को जीवन भर की तपस्या से खींचकर उन्होंने इतने पास लाकर खड़ा किया है
बस कुछ और कदम चल कर हमें वहाँ तक पहुँचना है।
दत्तोपंत जी को जिन्होंने देखा उनके पुन:स्मरण के लिए और जिन्होंने नहीं देखा
उन्हें उनकी यह वाङ्गमयी मूर्ति देखने में इन खण्डों का उपयोग लासला है।
कार्यकर्ताओं ने 'जीवन दर्शन' के सारे खंड खरीद कर अपने घर में रखने ही चाहिए।
प्रतिदिन नित्यशः एक बार उनको पढ़ लेना चाहिए नहीं तो 365 दिनों में एक बार या
अधिक समय लगता हो तो दो साल में एक बार उनका परायण कर लेना चाहिए। बार बार
पढ़ेंगे तो नई बातें निकलेंगी- अपने ध्येय की- बुद्धि के उपयोग की बातें- अपने
चरित्र के उन्नयन की बातें। स्वार्थ मोह की आंधी में मन कभी डिगेगा नहीं।
अहंकार के टकराव में हम फिसल गए ऐसा कभी होगा नहीं क्योंकि यह जीवन की पुनीत
तपस्या से बाहर निकले हुए विचार उसमें हैं। उन शब्दों में सामर्थ्य है। यह है
उसका महत्व- उन शब्दों के पीछे तपस्या है यह महत्वपूर्ण विचार अपराजेय हैं।
मेरी एक और प्रार्थना है कि 'दत्तोपंत ठेंगड़ी- जीवन दर्शन' के अभी सात और खंड
प्रकाशित होंगे। उनको केवल अपने कार्यकर्ताओं के सामने प्रकाशित नहीं करना
अपितु संपूर्ण समाज के सम्मुख लोकार्पण करना। समाज के विभिन्न श्रेष्ठ चिंतकों
को बुलाकर उनके हाथों करवाना क्योंकि यह दत्तोपंत के विचार केवल दत्तोपंत के
नहीं हैं- भारतीय मजदूर संघ अथवा संघ के स्वयंसेवको के भी नहीं हैं- संपूर्ण
दुनिया और समाज की समस्याओं का समाधान देने वाला एकमात्र जो एक तारक उपाय आज
विश्व के पास है उसकी विरासत लेकर उन्होंने जो सोचा उसमें तात्कालिक उत्तर हो
सकते हैं- वह आगे चलकर बदल भी सकते हैं लेकिन मूल उसका जो अधिष्ठान है- सदा,
सर्वदा, सर्वत्र सत्य है। संपूर्ण दुनिया का खोया हुआ मूल वापस लाने वाला-
धर्म बताने वाला वह तत्त्वज्ञान है और सौभाग्य से वह हमें मिला है जिसे
दत्तोपंत जी लेकर आगे बढ़े हैं। इसलिए अब यह हमारा काम है कि उसका अधिक से
अधिक प्रचार हो। अधिक से अधिक लोग उसको पढ़ें।
क्या पता 'तान् प्रति नैष यत्नः' जिनके बारे में कहा गया है 'दत्तोपंत
ठेंगड़ी- जीवन दर्शन' के यह खंड पढ़ने के बाद उनमें भी परिवर्तन आ जाएगा। नई
पीढ़ी जिसकी अभी कोई भूमिका बनी नहीं है और नई पीढ़ी होने के कारण जो
स्वभावतया भव्यता और उदात्तता की ओर जाते हैं- सेवा और राष्ट्रभक्ति का
सर्वत्र ज्यादा आह्वान जिनको प्रभावित करता है उस नई पीढ़ी के पास इस विचार को
ले जाने से तो पूरे का पूरा समाज जिस भावना से अनुप्राणित होता है वह अपने देश
की सारे विश्व की मुक्ति का कारण रहेगा। इतना इसका महत्त्व है।
इसलिए मेरी प्रार्थना है कि जैसे जैसे 'जीवन दर्शन' के खंड प्रकाशित होते
जाएँगे वैसे वैसे उन्हें आपको लेना है और स्वयं अध्ययन करना है। छोटी छोटी बात
को भी पकड़ कर एक दो बात को अपने जीवन के आचरण में उतारना है। इस विचार के
प्रकाशन को लेकर अपने मंडल तक ही मर्यादित सीमित नहीं रखना है। इसके प्रकाशन
के समय से ही चिंता करना है कि यह अधिक से अधिक प्रसारित प्रचारित हो यह बात
सबके लिए है। बात चाहे संगठन शास्त्र की हो- मजदूर दर्शन या किसान दर्शन की
हो, कोई भी बात हो यह सर्वात्रिक है सर्वकालिक है। यह उसका शाश्वत महत्व समझ
कर और उस परिप्रेक्ष्य में आज के इस पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम को आप देखें
तथा इसका पूरा लाभ उठाएँ यह प्रार्थना मैं आपके सामने रखता हूँ।
मेरा यह चिंतन आपने शांतता से सुन लिया उसके लिए आप सभी का धन्यवाद करते हुए
मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ।
समरसता के प्रणेता
- दत्तोपंत ठेंगड़ी
मा. भय्या जी जोशी
सरकार्यवाह
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)
('दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के प्रथम दो खण्डों के विमोचन [14
अक्तूबर, 2015, नागपुर] के अवसर पर माननीय भय्याजी जोशी (सरकार्यवाह,
रा.स्व.संघ) का सारगर्भित उद्बोधन)
भारतीय मजदूर संघ, विर्दभ प्रदेश अध्यक्ष श्रीमान् रमेश पाटिल जी, प्रदेश
महामंत्री श्रीमान् अशोक भूताड़ जी, उपस्थित गणमान्य महानुभाव, कार्यकत्ता
बंधुगण एवं माताओं-बहनों।
आज अभी यहाँ पर 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' के प्रथम दो खंडों का विमोचन
हुआ है। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि इस कार्यक्रम में उपस्थित् रह कर
मुझे दत्तोपंत जी जैसे महान द्रष्टा (व्हिजनरी) और कुशल संगठक की पुण्य स्मृति
को नमन करने का अवसर मिला है। आज उनकी पुण्य तिथि है जिसे आप 'समरसता दिवस' के
रूप में मनाते हैं। समरसता दत्तोपंत जी का प्रिय विषय था और समाज में मजदूर
क्षेत्र में उन्होंने इस चर्चा को जोरदार ढंग से आगे बढ़ाया।
सामाजिक समरसता यह विषय चर्चा अथवा बहस का न होकर आचरण में लाने का है और
दत्तोपंत जी का ध्यान मुख्यतया विषय के इसी बिंदु पर अधिक रहता था। समभाव के
साथ ममभाव भी चाहिए। वर्तमान समाज का चित्र बदलने की अभिलाषा सभी की है किंतु
उसके लिए विषमता मुक्त तथा शोषणमुक्त समाज बनाने की आवश्यकता है और यह संकल्प
आज करना चाहिए।
समाज में व्यक्ति अपनी पहचान अपनी जाति से करता है और जाति ही से समाज का
विघटन हुआ है। व्यक्ति जन्म लेते समय कौन सी जाति में जन्म लेगा उसे मालूम
नहीं रहता। लेकिन जन्म होते ही उसकी पहचान जाति से ही की जाती है। जाति के
कारण ही संकुचित भावना निर्मित हुई है। देश का सर्वसामान्य व्यक्ति जब स्वयं
को केवल हिंदू कहेगा तब सब प्रकार की विकृतियाँ समाप्त हो जाएँगी। समरसतापूर्ण
विचार और आचरण से ही इस पर लगाम कसी जा सकती है।
समाज में अनेकानेक व्यक्ति सामाजिक विषयों पर बहस करते हैं किंतु मा. ठेंगड़ी
जी की भाँति ऐसे विरले ही होंगे जो केवल बहस नहीं अपितु समस्या का समाधान
प्रस्तुत करते हैं। हम जो कहते हैं उसे अपने आचरण और व्यवहार में अपनाएँ तो
समाज में वास्तविक समरसता लाई जा सकती है। वर्तमान में समाज जाति उपजातियों
में बँटा हुआ है और हम स्वयं अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने का कार्य
करते रहते हैं। सोच तो हमारी वायुयान गति से आगे बढ़ती है किंतु जब समाज
हितार्थ इसे चरितार्थ करने की बात आती है तो हमारी गति बैलगाड़ी समान हो जाती
है।
किसी भी व्यक्ति का सम्मान गुणों के आधार पर होना चाहिए। यह भी ध्यान रखने की
बात है कि जो व्यक्ति गुण संपन्न है उसके द्वारा उन लोगों के साथ अन्यायपूर्ण
व्यवहार न हो जो उसके समान गुणसंपन्न नहीं है। आत्मवत् सर्वभूतेषु को ध्यान
में रखकर हमें सभी का सम्मान करना चाहिए। समाज का एक सदस्य न होकर उसका अंग
बनें उसमें घुलमिल जाएँ और एकरूप हो जाएँ।
जैसा कि शरीर के सभी अंग अपने अपने कार्य को भली भाँति संपन्न करते हैं उसी
प्रकार समाज के सभी घटकों ने ध्यानपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
शरीर का कोई भी अंग किसी भी कारण से अगर अपना कार्य सही ढंग से न करे तो शरीर
की कैसी गति हो जाएगी उसी प्रकार समाज का कोई घटक अपने कर्तव्य का पालन सही
ढंग से नहीं करता तो पूरे समाज की व्यवस्था बिगड़ जाएगी।
समरसता के बारे में दत्तोपंत जी का गहन अध्ययन और स्पष्ट विचार तथा निष्कर्ष
था। उन विचारों का केवल संकलन नहीं अपितु उनका कार्यान्वयन होना चाहिए। यह
दायित्व हम सब पर है इसे हमें भूलना नहीं चाहिए।
ज्ञान मार्तण्ड
- दत्तोपंत ठेंगड़ी
मा. दत्तात्रेय होसबाले
सह-सरकार्यवाह
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)
('दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के तृतीय व चतुर्थ खण्डों के
विमोचन [06 फरवरी, 2016, हैदराबाद] अवसर पर मा. दत्तात्रेय होसबाले
(सह-सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ) व केंद्रीय श्रम मंत्री श्री बंडारू दत्तात्रेय।
मुख्य उद्बोधन मा. दत्तात्रेय होसबाले जी का हुआ जो इस प्रकार है :- )
माननीय अध्यक्ष श्री बैजनाथ जी, माननीय केंद्रीय मंत्री श्री बंडारु
दत्तात्रेय जी, राष्ट्रीय महामंत्री श्री विरजेश उपाध्याय जी, 'दत्तोपंत
ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' के लेखक संपादक श्री अमर नाथ डोगरा जी, माननीय प्रदेश
अध्यक्ष श्री मालेशम जी व पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सी. के. सजीनारायणन जी
तथा उपस्थित् बंधुगण!
आज मैं यहाँ उपस्थित हूँ। यह मेरा सौभाग्य है। मंच पर मैं मान्यवर डोगरा जी से
कह रहा था कि दत्तोपंत जी का पूरा नाम दत्तात्रेय है और आज मंच पर हम दोनों
दत्तात्रेय बैठे हैं। इसमें हमारा कर्तृत्व नहीं है। यह हमारे माता पिता ने
हमारे ऊपर बड़ी कृपा की है कि संघ सृष्टि में रहते हुए हमें एक महापुरुष का
नाम मिल गया। इसे भी हम अपना सद्भाग्य मानते हैं।
तीसरी एक और बात भी है कि दत्तोपंत जी जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना
की और जीवन भर उसका मार्गदर्शन किया ऐसे संगठन से संपर्क रखने का दायित्त्व
संघ ने मुझे दिया यह भी मेरा सौभाग्य है।
वर्ष में तीन-चार बार आपके साथ इस चिंतन धारा के साथ बैठता हूँ और मुझे कुछ न
कुछ सीखने का अवसर मिलता है। यद्यपि दत्तोपंत जी शरीरी रूप से यहाँ नहीं होते
किंतु मैं मानता हूँ कि भारतीय मजदूर संघ के प्रत्येक कार्यक्रम में वे किसी न
किसी रूप में उपस्थित रहते हैं।
मेरा एक और भी सौभाग्य है कि ऐसे महापुरुष के बारे में हम कहते हैं और
'दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला प्रकाशित भी कर रहे हैं तो उनके
निकट कुछ वर्ष बैठने का उनसे वार्ता करने, कथा कहानियाँ सुनने, चाय पीने,
हास्य विनोद करने और उनके असीम ज्ञान भण्डार से कुछ न कुछ सीखने और प्राप्त
करने का मुझे सुअवसर मिला है, इसे भी मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूँ।
दत्तोपंत ठेंगड़ी क्या थे इस प्रश्न का उत्तर है वे क्या नहीं थे। उन्हें
दुनिया इस रूप में जानती है कि वे भारत के सर्वप्रथम सब से बड़े मजदूर संगठन
के संस्थापक हैं। यह तो उनका एक परिचय है किंतु उन्होंने दर्जनों ऐसे संगठनों
का या तो निर्माण किया अथवा नींव के समय उस संगठन के आंदोलन की दशा-दिशा क्या
हो इस बारे में अत्यंत प्रगल्भता से एक वैचारिक अधिष्ठान देने का उन्होंने
प्रयास किया।
भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच और अनेक ऐसे संगठनों का निर्माण करते हुए
उनका अधिष्ठान दशा, दिशा व किस प्रकार की गतिविधियाँ और चेष्टाएँ चलाना चाहिए
इस बारे में मार्गदर्शन किया। स्वदेशी जागरण मंच की सर्वप्रथम बैठक में मैं
उपस्थित था। उन दिनों विद्यार्थी परिषद में मेरा दायित्त्व था और इसलिए ऐसे
संगठनों में दायित्त्व वाले कार्यकर्ताओं को वहाँ बुलाते थे। पहले मुंबई और
फिर दिल्ली में उन्होंने स्वदेशी की आज क्यों आवश्यकता है इस विषय पर अत्यंत
मार्मिक और मौलिक विचार रखा।
आज पैराडायम शिफ्ट अथवा व्यवस्था परिवर्तन, सिस्टमेटिक चेंज की बात हमारे
विचार परिवार में हम कहते हैं यानी किन व्यवस्थाओं में कहाँ कहाँ क्या
परिवर्तन लाया जाना चाहिए ऐसा विचार आज चलता है। भारत में एक नेहरू प्रणीत
विचारधारा आधारित व्यवस्था विकसित हुई है जिसे नेहरूवियन मॉडल कहते हैं। उसमें
एक पार्लियामेंट है, समाजवादी अर्थ नीति, तटस्थ विदेश नीति और राजनीतिक दृष्टि
से सैक्यूलरवाद यानी पार्लियामेन्टरी डेमोक्रेसी आर्थिक समाजवाद, तटस्थ विदेश
नीति और राजनीतिक सामाजिक दृष्टि से सैक्यूलरवाद इन चौखम्भों पर खड़ी हुई भारत
में एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था में हम बदल चाहते हैं तो चुनाव प्रणाली,
शिक्षा प्रणाली, अर्थ प्रणाली, न्याय प्रणाली आदि कई आयामों के बारे में हमें
सोचना पड़ेगा।
विविध क्षेत्र में काम करने वाले हम जो स्वयंसेवक हैं तो हमारा क्या विचार
होना चाहिए। यह हमें सोचना पड़ेगा। इसके दृष्टिगत् एक सप्ताह के ज्ञान यज्ञ का
दिल्ली में आयोजन किया गया था। उस ज्ञान यज्ञ में अपने विचार परिवार के जाने
माने तीन चार मूर्धन्य मनीषी उपस्थित रहे। उनमें स्वाभाविक ही एक दत्तोपंत
ठेंगड़ी थे जो कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन के लिए वहाँ उपस्थित थे। मा.
ठेंगड़ी जी ने कार्यकर्ताओं के अध्ययन चिंतन के लिए एक बैकग्राउंड पेपर तैयार
किया था जिसे 'नागपुर पेपर' नाम दिया गया।
'नागपुर पेपर' के पूर्व संघ की प्रतिनिधि सभा में एक प्रस्ताव लाने का विचार
हुआ था किंतु उस प्रस्ताव को लाने के पूर्व उस पर पहले चिंतन के कुछ आधारभूत
बिंदु बनें और उन बिंदुओं पर विचार विमर्श करने के पश्चात् प्रतिनिधि सभा में
प्रस्ताव लाया जाए ऐसा विचार हआ। इस पृष्ठभूमि के दृष्टिगत मा. ठेंगड़ी जी ने
'नागपुर पेपर' तैयार किए और उस पर व्यापक चर्चा हेतु उसे ज्ञान यज्ञ में
प्रस्तुत किया गया।
उस ज्ञान यज्ञ में विभिन्न संगठनों जैसे शिक्षा क्षेत्र, आर्थिक क्षेत्र आदि
में कार्यरत कार्यकर्ता अपने क्षेत्र और अपनी विचारधारा के अनुसार अलग-अलग
बैठकर गहरा चिंतन करते थे और फिर अपने सामूहिक चिंतन के निष्कर्ष को ऊपर जो
तीन चार प्रमुख लोग थे उसे सुनते थे और तत्पश्चात् उसे दशा-दिशा देते थे तो उस
विचार को दिशा देने वालों में मा. ठेंगड़ी जी एक थे।
शिक्षा क्षेत्र के ज्ञान यज्ञ में उपस्थित कार्यकर्ताओं में जब 'नागपुर पेपर'
पर चर्चा चली तो विद्यार्थी परिषद की ओर से मैं भी उस बैठक में उपस्थित था। उस
चर्चा मंथन में मैंने भाग लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि मा. ठेंगड़ी जी
ने हिन्दोस्तान में व्यवस्था परिवर्तन (Paradigm Shift) एक राष्ट्रवादी
हिंदुत्ववादी विचार और भारत की मिट्टी की सुगन्ध के आधार पर, इस देश की
आध्यात्मिक परंपरा, इस देश के इतिहास के प्रकाश में कैसे व्यवस्था परिवर्तन
(Paradigm Shift) होना चाहिए इस दृष्टिकोण से उन्होंने उपस्थित संगठन के लोगों
का बहुत गहराई से मार्ग दर्शन किया।
वैसे तो मा. ठेंगड़ी जी को सर्वप्रथम देखने का अवसर मुझे तब मिला जब मैं अपने
गाँव से कालेज शिक्षा के लिए बेंगलुरु आया था और विद्यार्थी परिषद का सदस्य
था। सर्वप्रथम उन्हें सुनने का अवसर तब मिला जब बेंगलुरु में उनके चार
उद्बोधनों की व्याख्यानमाला आयोजित की गई थी। उस व्याख्यानमाला में उन्होंने
कुल मिलाकर भारत की जो आधारभूत मौलिकता है वह धर्म और आध्यात्मिकता है। इस
धर्म के आधार पर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कैसा और कैसे विकास होना चाहिए
इसे उन्होंने बहुत विस्तारपूर्वक समझाया। वह मेरे जीवन का मा. ठेंगड़ी जी का
प्रथम दर्शन और उनके भाषण का प्रथम श्रवण था। उनके चार व्याख्यान सुनने के
पश्चात् मैंने गाँव में अपने बड़े भाई को एक लंबा पत्र लिखा। उस पत्र में
मैंने लिखा कि श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी संघ के एक अधिकारी (प्रचारक) हैं
जिन्होंने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की है उन्होंने इन चार दिनों के अपने
व्याख्यान में वैचारिक चिंतन के ऐसे कौन से आयाम हैं जिन्हें उन्होंने छुआ न
हो। उन्होंने वेद से लेकर उपनिषद्, भगवद्गीता, रामायण से लेकर महाभारत और
आधुनिक काल के सब प्रकार के भारत तथा विदेशी लेखकों के उद्धरण अपने भाषणों में
वे देते रहे। कभी संस्कृत के श्लोक तो कभी इंग्लिश के कोटेशन, कभी हजरत
मुहम्मद पैगम्बर के कोई वाक्य तो कभी चीन के माओत्से तुंग का दर्शन, तो कहाँ
कहाँ से वह कैसे सम्यक सटीक उदाहरण खोज लाते हैं, तो आखिर में मैंने अपने बड़े
भाई को लिखा कि 'I could see a man who is encyclopedia in himself .' (मैंने
एक ऐसे व्यक्ति को देखा है जो स्वयं में ज्ञानकोश है।) मा. ठेंगड़ी जी वास्तव
में ज्ञान के भण्डार थे।
ऐसे महापुरूष के जीवन और विचार पर हम 'दत्तोपंत ठेंगड़ी- जीवन दर्शन'
ग्रंथमाला लेकर आए हैं। मान्यवर अमरनाथ डोगरा जी और भारतीय मजदूर संघ के आप
सभी कार्यकर्त्ता साधुवाद के पात्र हैं और मैं आपका हार्दिक अभिनंदन करता हूँ
कि आपने इस उपक्रम को अपने हाथ में लिया और कर भी रहे हैं किंतु यह जीवन दर्शन
आप चाहे जितने खंड करें मुझे लगता है कि वह जितना विचारधन हमारे हाथ लगेगा
उतना ही हम कर पाएँगे। मैं अभी पुस्तक की सूची में देख रहा था कि जो मुझे
मालूम है वह तो पुस्तक (ग्रंथमाला) में नहीं है। जैसाकि मैंने अभी बेंगलुरु
व्याख्यानमाला के बारे में बताया- उन चार भाषणों की पुस्तिका अंग्रेजी में छपी
थी किंतु जीवन दर्शन में उस पुस्तिका से कुछ भी नहीं है। इससे पता चलता है कि
मा. ठेंगड़ी जी के कितने ही इस प्रकार के भाषण उद्बोधन लेख न जाने और भी कहाँ
कहाँ होंगे। हम तो इतना ही कर रहे हैं जितना विचारधन हमारे हाथ लगा है। किंतु
क्या यह केवल उतना ही है।
हम आँगन में खड़े होकर देखते हैं तो आकाश कितना बड़ा दिखता है और मैदान में
खड़े होकर देखते हैं तो यह और भी बड़ा दिखता है लेकिन आकाश हमारी दृष्टि की
परिधि में जितना आता है क्या केवल उतना ही बड़ा होता है वह तो क्षितिज के उस
पार भी होता है जो हमें दिखाई नहीं देता है। हम महासागर के किनारे खड़े होकर
कहते हैं बाप रे बाप महासागर कितना विशाल होता है। जबकि समुद्र जितना हमारी
दृष्टि में आया उससे कहीं कई गुणा बड़ा होता है। वैसे ही मा. ठेंगड़ी जी का
व्यक्तित्व और कर्तृत्व हम कही भी खड़े होकर देखें हमें उतना ही दिखाई पड़ता
है जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है। वास्तव में उनका व्यक्तित्व उससे कहीं अधिक
बड़ा अधिक विशाल बहु आयामी है।
दत्तोपंत जी एक ऋषितुल्य व्यक्ति थे- स्वयं ऋषि ही थे। हमारे यहाँ कहते हैं कि
ऋषि ऋण चुकाना चाहिए। मा. ठेंगड़ी जी उस ऋण को नहीं चुकाये। उसको वे हम पर
छोड़ कर गए हैं। इसलिए उस ऋषि ऋण को चुकाने का कार्य आने वाली पीढ़ियों पर है।
ऋषी ऋण चुकाने का ज्ञान हम लेते हैं अपने पूर्वजों से और उस ज्ञान को अपने
जीवन में लेकर उसका विस्तार करके अगली पीढ़ी को देना चाहिए। केवल हमने जितना
लिया उसे ही लौटाना यह नहीं अपितु जितना लिया जाए उसका विस्तार करना- उसमें
जोड़ना और फिर उसे लौटाना तब ही ऋषि ऋण लौटाना होता है। मा. ठेंगड़ी जी अपने
जीवन में उसे नहीं लौटाए बल्कि उसका विस्तार किए- उसमें और भी जोड़ा और शेष हम
सब पर छोड़ कर गए हैं। मा. ठेंगड़ी जी ने अब हम पर जो ऋषि ऋण छोड़ा है वह इतना
अधिक है कि उसे शायद ही हम एक दो जन्म में चुका पाएँगे।
मा. ठेंगड़ी जी का चिंतन जीवन के हर क्षेत्र में चला। कोई आयाम उससे अछूता
नहीं बचा। भारतीय विचार केंद्रम (केरल) के मा. पी. परमेश्वरनजी के हाथों
तिरुअनन्तपुरम में स्थापना हुई। उसके उद्घाटन में मा. ठेंगड़ी जी गए तो उद्घाटन
भाषण में कहा कि विचार 'भारतीय' क्यों। विचार तो सार्वदेशिक होता है। इस
प्रश्न को उठाते हुए उन्होंने 'विचार' और 'भारतीय विचार' क्या है इसे
विस्तारपूर्वक रखा। संस्कार भारती के उद्घाटन में गए तो 'हिंदु व्यु आफ आर्टस'
और कला तथा संस्कृति पर अपना व्यापक विचार रखा। कल्चरल पालिसी के बारे में
बताया। सहकार भारती के कार्यकर्ताओं ने उनसे मार्गदर्शन करने का आग्रह किया तो
उन्होंने सहकारिता के बारे में नई-नई बातें बताईं। ग्राहक पंचायत के
कार्यकर्ता उनसे मिले और कहा कि कुछ पाथेय चाहिए तो उन्होंने बताया 'Consumer
is the king without kingdom' (उपभोक्ता राज्यविहीन राजा है)। विद्यार्थी
परिषद के कार्यकर्ताओं ने उनसे पूछा कि विद्यार्थी और छात्र संघ में जो संकट
है उसमें हम रहें या न रहें। हम छात्रसंघ चुनाव में जाएँगे तो हमारी रचनात्मक
शक्ति का ह्रास होता है और व्यक्ति निर्माण और राष्ट्र निर्माण का हमारा जो
लक्ष्य है उसके लिए समय ही नहीं रहता। हर वर्ष चुनाव के मैदान में उतरें और
उसी में एक दूसरे से झगड़े होकर हम जो लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं वह न
होकर हमारी शक्ति इन चुनावी झंझटों ही में नष्ट होती है तो हम अपने निर्धारित
गंतव्य को कैसे प्राप्त करेंगे। जब यह विचार उनके सामने आया तो मा. ठेंगड़ी जी
बोले कुछ समय के लिए हम छात्र संघ नेतृत्व छोड़ें पर लीडरशिप नहीं छोड़ना। तो
यह नेतृत्व क्या है, लीडर कौन हो तो इस पर वह बोले कि 'One who aspires to be
a leader should not be elected as a leader. One who doesn't aspire to be a
leader should be made a leader.' (जो नेता बनने की इच्छा आकाँक्षा रखता हो
उसे नेता नहीं चुनना, किंतु जो बनना नहीं चाहता हो उसे ही नेता बनाना)।
यह बात मैंने पहली बार वर्ष 1978 बेंगलुरु में मा. ठेंगड़ी जी द्वारा
व्याख्यानमाला में उनके भाषण में सुनी। लीडरशिप के बारे में जब विषय आया तो
उन्होंने डोनाल्ड फ्लिप की पुस्तक 'Lincoln on leadership' से उत्तर दिया।
मैनेजमेंट का जब विषय निकला तो उन्होंने पीटर इक्कर का उल्लेख किया।
इकोनोमिक्स की बात आई तो उन्होंने 'Economics Treatment' पुस्तक पढ़ने को कहा
और स्वदेशी जागरण मंच के समय जो बताया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और अन्यान्य
वैश्विक संस्थाएँ जो दूसरे देशों के संसाधन चूस रही हैं तो उस बारे यह पुस्तक
पढ़ो।
इतना सब मा. ठेंगड़ी जी पढ़ते हैं विस्तृत अध्ययन करते और बताते हैं तो उन्हें
इसके लिए समय कहाँ से मिलता है। वे समय कैसे निकालते हैं। यह तो पता नहीं
किंतु वे हमेशा अनेकानेक पुस्तकों, ग्रंथों से नए नए उदाहरण और नई नई बातें
उद्धृत करते थे। यह उनका अध्ययन था। उनकी क्षमता थी और यह सब होने पर भी यह
मैं कर रहा हूँ यह भावना नहीं। मा. ठेंगड़ी जी को अहंकार नहीं था यह कहने के
लिए भी मेरी योग्यता नहीं है।
कई बार हम देखते हैं कि कोई संगठन स्थापना करने वाला व्यक्ति अपने बारे में
कैसा सोचता है। दो चार पुस्तकें लिखने वाला व्यक्ति अपने बारे में कैसा महसूस
करता है। यह हम समाज में देखते हैं। किंतु अपने जीवन में जिन्होंने दर्जनों
संगठनों का निर्माण अथवा निर्माण में मूल्यवान योगदान दिया, हजारों
कार्यकर्ताओं को खड़ा किया इनका मार्गदर्शन किया जिन्हें वे व्यक्तिशः जानते
थे। सैकड़ों पुस्तकों का लेखन किया और सैकड़ों की प्रस्तावनाएँ लिखीं। हजारों
पुस्तकों को वे दिमाग में रखते ही नहीं थे समय समय पर उनसे सटीक उद्धरण
प्रस्तुत करने की क्षमता भी रखते थे। सैकड़ो संस्थाओं का मार्गदर्शन करने के
लिए जो सदा तत्पर रहते थे और उनके प्रति सच्ची आत्मीयता प्रकट करते थे ऐसा
व्यक्ति प्रचार प्रसिद्धि का प्रतिरोधी, प्रसिद्धि विमुख, आत्मविलोपी ऐसे मा.
ठेंगड़ी जी थे।
भारतीय चिंतन में त्याग क्या है। मा. ठेंगड़ी जी के पागलपन के संदर्भ में हम
उल्लेख करते हैं। और अभी तो श्री अमर नाथ डोगरा जी ने भी ने उसका उल्लेख किया
कि भारत में अपने निज हित को दूर रखकर समाज हित, राष्ट्रहित, मानव हित,
प्रकृति हित इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले लोगों का इस मिट्टी में
जन्म हो ऐसे लोग पागल लोग हैं। इस प्रकार का पागलपन हम सब पर सवार है। ऐसा मा.
ठेंगड़ी जी कहते थे। भारत की मिट्टी उसी की है जिसके सर पर ऐसा पागलपन सवार
है।
'त्यागेन अमरत्व प्राप्येत मनुष्यः' व्यक्ति अमर कैसे बनता है। अमरत्व कैसे
प्राप्त करता है। विलियम शेक्सपीयर इंग्लिश साहित्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर
हैं तो उन्होंने अमरत्व (Perpetuation) कैसे प्राप्त किया, इस बारे में दो
बातें बताईं। एक यह कि आप के संतान होनी चाहिए। संतति के कारण मनुष्य जीवित
रहता है। क्योंकि संतति अपने पूर्वजों का स्मरण करती है और इसलिए मनुष्य अपनी
संतति को प्रेम करता है। उसे लगता है कि मैं ही अगली पीढ़ी में विद्यमान हूँ
इसलिए मैं शाश्वत हूँ। यानी शेक्सपीयर के अनुसार संतति के कारण मनुष्य शाश्वति
प्राप्त करता है।
दूसरी बात उन्होंने काव्य के बारे में बताई कि मनुष्य का किसी काव्य, साहित्य
अथवा कथा कहानी या नाटक में नाम दर्ज हो जाने से वह शाश्वत हो जाता है।
Through progeny or by writing literature one can make himself perpetuated'
यह पश्चिम का चिंतन है। भारत के चिंतन में त्याग के बारे में आग्रह करते हुए
इस विषय में ऐसा कहा गया है कि 'न प्रज्ञायेन कर्मना न धनेन' न तो संतति न कोई
बड़े कार्यो से और न ही धन से इन तीनों में से नहीं अपितु मनुष्य कैसे शाश्वत
हो सकता है, कैसे अमरत्व प्राप्त कर सकता है तो 'त्यागेन मनुष्य प्राप्येत
अमरत्व' मनुष्य अपने त्याग के कारण शाश्वत होता है। जिसका त्याग जितना बड़ा
उसका नाम उतना बड़ा।
मा. ठेंगड़ी जी ऋषि थे। इस अर्थ में वे ज्ञान की दृष्टि से तो थे ही पर मैंने
यह किया ऐसा उनके कहने अथवा हमारे सुनने में कभी नहीं आया। यह हमारे देश का
चिंतन है। यह हमारे भारतीय मजदूर संघ का चिंतन है। यही वह कहते हैं तो
ऋषितुल्य जीवन जीते हुए इस प्रकार अपने जीवन में जिन्होंने भारत के इस चिंतन
को अपनाया और अपनी आँखों के सामने उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया ऐसे महापुरुष के
बारे में हम विचार कर रहे हैं। उन का जीवन दर्शन यह है।
इतना सब होने पर भी मा. ठेंगड़ी जी एक सामान्य साधारण कार्यकर्ता के कंधे पर
हाथ रखकर दस कदम टहलने (Walking) पर उन्हें आनंद होता था। कई बार ऐसे ही
बेंगलुरु में रात दस ग्यारह बजे हम जैसे सामान्य कार्यकर्त्ता के स्कूटर पर
पीछे बैठकर मा. ठेंगड़ी जी किसी न किसी कार्यकर्ता के घर जाते थे। कोई डाक्टर
होगा, कोई इंजिनियर होगा, एडवोकेट अथवा मैकेनिक या क्लर्क या ड्राइवर होगा
अथवा मजदूर सबके घर जाना, बैठना एक कप चाय काफी पीना और बातचीत करना और फिर
वापस लौटना। वह बेंगलुरु, कलकत्ता, केरल, नागपुर अथवा दिल्ली में ऐसा ही यही
करते थे। सामान्य कार्यकर्ताओं के साथ हमेशा रहते थे। उनके सुख दुःख और विकास
के लिए आत्मीयतापूर्वक सबसे बात करते थे। इसलिए भारतीय मजदूर संघ में या उसके
बाहर कोई टैक्सी चालक या रिक्शा चालक होगा वह भी मा. ठेंगड़ी जी का सान्निध्य
और आत्मीयता प्राप्त करता था। समाज के विभिन्न लोगों, संगठन के उच्च
अधिकारियों के साथ चर्चा में जितनी गंभीरता और स्नेह आदर का भाव वे रखते थे
वैसा ही भाव उनका एक सामान्य कार्यकर्ता से गंभीर चिंतन में वे रखते थे। यह
सामान्य कार्यकर्ता इस गंभीर चिंतन के विषय के बारे में क्या जाने इसके साथ
वार्ता का क्या अर्थ ऐसा उनका भाव कभी देखा नहीं गया। वे कार्यकर्ता के विचार
को पूरा सम्मान देते थे। घंटों सुन सकते थे और सटीक उदाहरण देते हुए गंभीरतम
विषय को भी जैसे कार्यकर्ता समझे वैसा सरल बना देते थे। जैसी जितनी सरस सरल
उनकी वाणी वैसा ही सरल पारदर्शी उनका व्यवहार रहता था यह यहाँ बैठे हम सभी
कार्यकर्ता जानते हैं।
आस्था से परिपूर्ण मा. ठेंगड़ी जी का जीवन श्रेष्ठ और उच्च आदर्शवादी था। उसी
आस्था का उन्होंने संगठन में ताना-बाना बुनते हुए कार्यकर्ताओं का निर्माण
किया था। उनके लिए अपना पराया कोई नहीं था। जिस विचारधारा के विरुद्ध वे जीवन
भर लड़े और विजय पाई उसी विचार के अनुयायिओं से उनके व्यक्तिगत संबंध अत्यंत
स्नेहपूर्ण और मधुर रहते थे। वह हमारे विचार के विरोधी हैं किंतु हमारे शत्रु
नहीं हैं। वामपंथी लीडर पी. राममूर्ति जी को आप में से बहुत से कार्यकर्ता
जानते हैं। उदाहरण ऐसा है कि उनके बेटे अथवा बेटी के मंगल कार्य की योजना बन
रही थी और उसमें कुछ असमंजस थी। तो श्रीमती पी. राममूर्त्ति ने फोन कर के मा.
ठेंगड़ी जी को चैन्नई के अपने घर पर बुलाया। श्रीमती राममूर्ति मा. ठेंगड़ी जी
को अपना बड़ा भाई मानती थी। अपने विचार के धुर विरोधी के साथ भी कैसे
आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक संबंध हो सकते हैं। यह उसका योग्य उदाहरण है। ऐसे
उनके जीवन में अनेकानेक उदाहरण हैं। 'उदारचित्त मनुष्यम बसुधैव कुटुम्बकम'
विरोधी हो या सहयोगी वे किसी के भी परिवार के साथ ऐसे मधुर संबंध बना सकते थे
और स्नेह संपर्क के कारण किसी भी परिवार में मार्गदर्शन करने की क्षमता व
सामर्थ्य रखते थे।
मा. ठेंगड़ी जी ने जीवन के कितने ही वैचारिक आयामों में कार्य किया। कितने ही
कार्यकर्ताओं का स्नेह भाव से मार्गदर्शन किया और यह सब विचारदर्शन जो
उन्होंने दिया वह इस देश की मिट्टी का विचार है। भारत का विचार है। मा.
रंगाहरि जी जैसे कहते हैं 'It is not your sangh- it has come through you'
ऐसे ही भारत की वैचारिक गंगा मा. ठेंगड़ी जी, श्रद्धेय दीनदयाल जी जैसे
महापुरुषों द्वारा आज हमारे घाट तक पहुँच गई है। हम जिस घाट पर खड़े थे वहाँ
गंगा पहुँची है। वह ऐसे महापुरुषों के अनथक प्रयासों के कारण और उसके फलस्वरूप
भारतीय चिंतन उनके कारण हम तक पहुँचा 'It has come through them'. इसलिए हमारे
लिए वे गुरु हैं। ऐसे ही स्नेह से मित्रवत उमर हमें देखा और मातृवत्
वात्सल्यपूर्ण प्रेम उन्होंने हमें दिया।
मा. ठेंगड़ी जी भारतीय राष्ट्रनीतिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक
कार्मिक इन सारी व्यवस्थाओं के लिए आवश्यक मार्ग क्या हो- पथ क्या है उनका इस
दृष्टि से बहुत गहराई और दीर्घ चिंतन के उपरान्त समय समय पर विचार व्यक्त किए।
वह अन्यान्य मंचो पर किए होंगे। अन्यान्य अवसरों पर किए होंगे- इसके फ्रेम
वर्क भिन्न होंगे किंतु उस फ्रेम वर्क में उन्होंने काल सुसंगत और कालातीत जो
अधिष्ठान है उसका विचार रखा और वह विचार शाश्वत है। तो उस प्रकाश में उन्होंने
हर प्रकार के अवसर के लिए हर प्रकार के संगठन के लिए हर प्रकार के फ्रेमवर्क
के लिए विचार को उस समय के अनुसार कैसे रखना चाहिए कैसी शब्दावली में रखना
चाहिए उसे उन्होंने उसी प्रकार रखा।
उनके विचार की देन हैं विश्वकर्मा सैक्टर। इसलिए उन्होंने सूत्ररूप में जो तीन
वाक्य बताए 'राष्ट्र का औद्योगीकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण और श्रमिकों का
राष्ट्रीयकरण' यह उनके चिंतन का एक प्रकार से सार है। मात्र शब्दावली नहीं है।
जो ऐसा कहते हैं करते हैं ऐसे लोगों को देखना, उनको सुनना, उनके विचार पढ़ना
यह हमारे लिए सौभाग्य का विषय है।
मा. ठेंगड़ी जी उन पुस्तकों द्वारा शाश्वत हुए हैं। इन ग्रंथों में मा.
ठेंगड़ी जी के जो विचार समाहित किए गए हैं उन विचारों के कारण से उन्हें
अमरत्व प्राप्त हुआ है। उस अमरत्व को प्राप्त कराने में श्री अमरनाथ डोगरा जी
कार्य कर रहे हैं।
पुस्तकों के बारे में किसी ने कहा है- 'Books are like impatient souls and
they should be liberated by the people by picking them up from their
shelves.' (पुस्तकें अधीर आत्माओं की तरह हैं जिन्हें लोगों ने पुस्तक अल्मारी
से बाहर निकालते हुए स्वतंत्र करना चाहिए अर्थात् पढ़ना चाहिए) पुस्तकें बुक
शेल्फ में impatient soul की तरह बंद पड़ी रहेंगी awaiting liberation लेकिन
उन बंधे हुए हाथों का यदि विमोचन करना है तो समय समय पर उनको वहाँ से निकाल कर
पढ़ना भी चाहिए जिससे उनके बंधे हुए हाथों का हम विमोचन करें।
एक और बात 'दत्तोपंत ठेंगड़ी जीवन- दर्शन' प्रकाशन के लिए मैं साधुवाद देता
हूँ और शेष खंड अभी जो प्रकाशित होने हैं वह भी शीघ्रता से प्रकाशित हो जाएँ
ताकि जो जिज्ञासु लोग हैं उनकी प्यास बुझाने में यह काम संपूर्णता को प्राप्त
करे। धन्यवाद।
आधुनिक चाणक्य
- दत्तोपंत ठेंगड़ी
संत पू. स्वामी अवधेशानंद गिरि
('दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के पंचम व षष्ठम खण्डों के विमोचन
[23 जुलाई, 2016, हरिद्वार] अवसर पर पू. स्वामी श्री अवधेशानंद गिरि महाराज जी
का हृदयस्पर्शी पावन प्रवचन)
माननीय बैजनाथ जी राय, प्रदेश अध्यक्ष माननीय टंकार कौशल, ग्रंथमाला के संपादक
श्री अमरनाथ जी डोगरा, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के माननीय उपकुलपति डॉ.
महावीर प्रसाद, प्रदेश महामंत्री श्री अनिल राठी, कार्यकर्ता बंधुओं तथा ज्ञान
पिपासु श्रोतागण!
दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से संबंधित दो ग्रंथो का लोकार्पण करते हुए मुझे उनसे
जुड़ी एक घटना का स्मरण हो रहा है। हरिद्वार में भोपतवाला स्थित निष्काम सेवा
ट्रस्ट में विश्व हिंदू परिषद् के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक थी। बैठक
में सभी सम्प्रदायों के शीर्षस्थ आचार्य तथा शिखरस्त संत विद्यमान थे। बैठक
में दत्तोपंत जी का भाषण हो रहा था। वे न केवल शास्त्रों में निपुण थे, बल्कि
पाश्चात्य जीवन शैली पर भी उनका बड़ा गहरा अध्ययन था। उन्होंने कहा कि आधुनिक
होना एक भिन्न विषय है। हमने पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण मान लिया, जबकि वह
आधुनिकता नहीं है। अर्थ पर जिस प्रभावी ढंग से उन्होंने पूरा विषय रखा उसे
सुनकर अनेक संतों ने उस समय कहा कि उन्होंने अपने जीवन में चाणक्य को नहीं
देखा, लेकिन आज देख लिया। जीवन के अंतिम क्षणों में भी ठेगड़ी जी फुटपाथ के
खोके, नुक्कड़ या गुमटी पर चाय पीने के लिए जाते थे। वे राज्य सभा के 12 साल
तक सदस्य रहे, लेकिन चाय वे गुमटी पर ही पीते थे- गुमटी यानि वह स्थान जहाँ
श्रमिक चाय पीते हैं।
चाणक्य ने धर्म के प्रथम पक्ष यानी अभ्युदय को पकड़ा। धर्म के दो पक्ष हैं-
अभ्युदय और श्रेयश। श्रेयश यानी परलोक सिद्धि। श्रेयश का पहला सोपान अभ्युदय
से ही है। यदि आप जहाँ सफल, कुशल, योग्य, तज्ञ नहीं हैं, यदि आपकी यहा
स्वीकार्यता और मान्यता नहीं है तो यकीन मानिए वहाँ भी आपकी स्वीकार्यता और
मान्यता नहीं होगी। अभ्युदय का अर्थ है वैचारिक पावित्र्य, भावशुचिता, चिंतन
की पवित्रता, संकल्प की सुचिता, श्रम, प्रयोगात्मकता, सहज और निरंतरता। जो
गतिमान नहीं होता उसमे निरंतरता नहीं होगी और उसका जीवन सार्थक नहीं होता। जब
जीवन विचार, साधन, श्रम और कार्य में गतिरोध आता है जो जीवन ठहर जाता है। इसी
तरह अभ्युदय है। मैं कह सकता हूँ कि दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने धर्म के पहले पक्ष
यानी अभ्युदय को जिया। वे सबकी प्रगति चाहते हैं। इसमें श्रम और श्रमिक भी
शामिल हैं। मालिक और मजदूर अलग नहीं हैं। मजदूर का तीसरा सपना यानी श्रमिक ही
मालिक है उसे शीघ्र पूरा करिए। श्रमिक को बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए।
मुझे लगता है कि माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के पास आध्यात्मिकता थी। क्योंकि
जब भी व्यक्ति आध्यात्मिकता और सत्य को लेकर चलता है तो उसकी व्याप्ति अधिक
होती है। इतने वर्षो से यदि आप निरंतर बढ़ रहे हैं और कोई मजदूर संगठन आपके
निकट नहीं पहुँच सका है तो उसका कारण है आप मजदूर के केवल आर्थिक हितों की
चिंता नहीं करते, आप उसके अभ्युदय और श्रेयश दोनों की चिंता करते हैं। अभ्युदय
का मतलब केवल उसके मेहनताने की चिंता करना नहीं है। उसे अपना मानेंगे तभी उसकी
प्रगति होगी। वह काम को उसकी उपासना माने, धर्म और नियति माने। उसकी
सद्भावनाओं को ढूँढा जाए। उसे अवसर, भागीदारी और हिस्सा मिले। उसके स्वास्थ्य
और परिवार की चिंता की जाए। भारतीय मजदूर संघ इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है।
उसे न केवल मजदूर की चिंता है। बल्कि, उसे अच्छी तरह मालूम है कि उसे मजदूर के
अन्न, अक्षर और औषधि की भी चिंता है। जिस दिन आप मजदूर के अन्न, अक्षर और औषधि
की ईमानदारी से चिंता करेंगे, मजदूर आपका हिस्सा बन जाएगा। भारतीय मजदूर संघ
ने मजदूर के सम्मान, स्वाभिमान और उसकी निजता की रक्षा की है।
मैं अन्य मजदूर संगठनों का विरोध नहीं करता। किंतु एक संन्यासी होने से पहले
देश का एक जागरूक नागरिक होने के कारण मैं कह सकता हूँ कि भारतीय मजदूर संघ ने
कभी देश के विधान को चुनौती नहीं दी है और उनके आंदोलन कभी हिंसक नहीं हुए।
अन्य संगठनों के आंदोलनों की प्रकृति, नियति और उनके 'हिडन एजेंडे' आदरणीय
बैजनाथजी पहले ही यहाँ बता चुके हैं। मैं बताना चाहता हूँ कि भारतीय मजदूर संघ
के आंदोलन की प्रवृत्ति और मूल आत्मा भारतीय जीवन दर्शन है और कुछ नहीं है।
वहाँ भारत और भारतीयता दिखती है और एकात्म मानव दर्शन दिखता है। वहाँ प्रत्येक
व्यक्ति के हित की चिंता की गई है।
इस देश का यदि कोई भाग्य जगाएगा तो वह श्रमिक ही जगाएगा। इसलिए देश के सभी 48
करोड़ श्रमिकों तक पहुँचिए। उसी के हाथ में सोने की चिड़िया बनाने की चाबी है,
और किसी के पास नहीं बस उसके स्वाभिमान, सम्मान, अधिकार, निजता और स्वायत्तता
की चिंता कीजिए। उसके अन्न, अक्षर और औषधि की चिंता कीजिए। उसे और सामर्थ्यवान
बनाइए। उसके लिए शिक्षा के अवसर जगाइए। आपने एक बार उसका उसके स्वरूप से
चैतन्य करा दिया, भारतीयता और आध्यात्मिकता के दर्शन करा दिए तो यकीन मानिए
उससे बड़ा सामर्थ्यवान दूसरा कोई नहीं होगा। भारत का प्राणी न केवल भारत के
लिए जीता है वह पूरे संसार के हित के लिए जीता है। भारतीय मजदूर संघ की
अवधारणा यही जीवनशैली है।
एक सप्ताह पहले मैं त्रिनिदाद में था। वहाँ जिस परिवार ने मेरी सेवा की, उस
परिवार में दत्तोपंत ठेंगड़ी जी तीन बार रह चुके हैं। वहाँ अशोक सिंहल जी और
नरेंद्र मोदी जी भी रह चुके हैं। परिवार के सदस्य दत्तोपंतजी से जुड़े कुछ
अनुभव बता रहे थे। उन्हें परिवार में सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
लेकिन उसके बावजूद वे छोटी-छोटी गुमटियों में जाकर चाय पीना नहीं छोड़ते थे।
इसका मतलब है कि विदेश में जाकर भी दत्तोपंत जी वहाँ के मजदूर के मन और उसकी
पीड़ा को समझने का प्रयास करते थे। वे भारतीय मजदूर संघ से आपात्काल के दौरान
यानी 1976 में पदमुक्त हो गए। उसके बाद से उन्होंने कोई पद ग्रहण नहीं किया।
लेकिन उसके बावजूद 2004 तक यदि कोई मजदूर संघ का अघोषित अधिपति था तो वे
दत्तोपंतजी ही थे। उन्होंने मजदूर संघ को अपने रक्त से सींचा। वह उनके अन्तः
करण की उपज थी। जब एक व्यक्ति प्रत्येक मजदूर को अपनी संतान मान ले तो उसके
बाद जिस तरह का संगठन खड़ा होता है वह आज मजदूर संघ में दिखाई देता है।
मैं मजदूर संघ के दर्शन से अनभिज्ञ नहीं हूँ। इसकी पूरी प्रकति से वर्षों से
परिचित हूँ। एक खास पहचान तो मजदूर संघ की पूरी दुनिया में है वह है एक अहिंसक
संगठन की। वह पत्थर नहीं उठाएगा, उन्मुक्तता और आवेश पैदा नहीं करेगा। हाँ,
आंदोलन में गिरफ्तारी के समय कुछ छीनाझपटी हो सकती है। लेकिन उसकी प्रकृति
अहिंसक है। मैंने दत्तोपंत जी के दो बौद्धिक सुने। एक था विश्व हिंदू परिषद्
के कार्यक्रम में और दूसरा दिल्ली में। इसके अलावा कई बार उनके साथ बैठकर
चर्चा करने का अवसर भी मिला। उनसे आप किसी भी बिंदु पर चर्चा कर सकते हैं।
उनसे बात करते हुए लगता था कि मैं एक ऐसे मनीषी के समक्ष बैठा हूँ जिसने
वर्षों पहले चंद्रगुप्त को तैयार किया था। ऐसे चाणक्य से मुझे मिलने का
सौभाग्य मिला है।
सामंजस्य समन्वय के पैरोकार
- दत्तोपंत ठेंगड़ी
मा. डॉ. कृष्णगोपाल
सह-सरकार्यवाह
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ)
('दत्तोपंत ठेंगड़ी - जीवन दर्शन' ग्रंथमाला के सप्तम व अष्ठम खण्डों के
विमोचन [08 जनवरी, 2017, विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली] के अवसर पर माननीय डॉ.
कृष्णगोपाल (सह-सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ) का सारगर्भित उद्बोधन)
(विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में 8 जनवरी, 2017 को 'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन
दर्शन' के सातवें व आठवें खंड का विमोचन मा. डॉ. कृष्णगोपाल जी सह-सरकार्यवाह,
रा.स्व.संघ के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। मंच पर उनके साथ पाञ्चजन्य के
संपादक श्री हितेश कर दीनदयाल शोध संस्थान के सचिव श्री अतुल जैन, भा.म. संघ
के अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री श्री बी. सुरेंद्रन तथा ग्रंथमाला के संपादक
श्री अमरनाथ डोगरा उपस्थित थे। इस अवसर पर डॉ. कृष्ण गोपाल जी के प्रेरक
उद्बोधन के प्रमुख अंश :-)
'दत्तोपंत जीवन-दर्शन' के अभी यहाँ दो खंडों का विमोचन हुआ है उनमें मा.
ठेंगड़ी जी के विचार व कार्य का कार्यवृत्त है। मा. ठेंगड़ी जी का जीवन उनका
कार्य-उनके विचार उनका लेखन उस संबंध में हम सब लोग जानते हैं। ठेंगड़ी जी
आर्थिक जगत् के एक बड़े चिंतक थे। दूसरा एक लम्बे समय तक उन्होंने मजदूर
क्षेत्र को अच्छा सुसंगठित करके राष्ट्रीय विचार के अनुरूप बनाने का सफल
प्रयास किया है। तीसरा उन्होंने मजदूर के इस विचार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
रखा और विश्व ने पहली बार एक ऐसा विचार सुना जिसमें सामंजस्य है।
जैसा मैंने पहले सत्र में बताया भारत का मौलिक वास्तविक चिंतन यही है। संघर्ष
नहीं सामंजस्य, द्वेष नहीं समन्वय। अतः ठेंगड़ी जी ने यह विषय रखा कि मजदूर और
मालिक का, मजदूर, मालिक और सरकार का तथा मजदूर, मालिक, सरकार व समाज का,
उत्पादक व उपभोक्ता का आपस में सघर्ष नहीं अपितु सामंजस्य का संबंध होना
चाहिए, समन्वय होना चाहिए।
सबका हित एक साथ। एक का हित और बाकी सबके साथ झगड़ा यह नहीं होना चाहिए। सब
सबका हित सोचे- सरकार सबका हित सोचे, मालिक सबका हित सोचे, मजदूर सबका हित
सोचे। ऐसा एक नये प्रकार का विचार लेकर ठेंगड़ी जी ने विश्व परिदृश्य में
प्रवेश किया।
दुनिया के देशों को इस बात को सोचने पर मजबूर कर दिया कि संघर्ष एकमात्र नियति
नहीं है। Survival of the fittest यह ठीक नहीं है। मालिक और मजदूर का संघर्ष
हमेशा बना रहे यह किसी भी समाज के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं है। सामंजस्य कहा तो
लोग आश्चर्य से उन्हें देखने लगे। आज आवश्यकता इस बात की है कि सामंजस्य और
समन्वय के साथ सबके हित का ध्यान रखकर सब अपना अपना काम करें यह विचार ठेंगड़ी
जी ने दिया तो यह केवल मजदूरों के लिए नहीं था लेकिन मजदूरों के मंच से दिया।
मजदूरों के मंच से उन्होंने कहा कि जो मजदूर नहीं हैं उनका भी हित चाहिए-
उद्योग का भी हित चाहिए। ऐसा अनोखा अपने आप में एक विशेषता लिए हुए यह एक
विचार दर्शन था क्योंकि उनका भी मूल स्रोत कहीं न कहीं इस दर्शन का था जो इस
देश की सनातन हिंदू परंपरा के अंतर्गत ही था। इसलिए मा. ठेंगड़ी जी भारत के
हिंदू दर्शन की जो महान चिंतन परंपरा है उसके अग्रगण्य सुंदर स्वयं प्रकाशित
नक्षत्र के रूप में हमारे सामने हैं।
हमको आनंद होता है जब उनके नए नए ग्रंथ हमारे सामने आते हैं। आज दो ग्रंथ आए
हैं। मान्यवर डोगरा जी ने ठेंगड़ी जी को बहुत लम्बे समय तक बहुत निकटता से
अनुभव किया और उनकी लेखनी ने उनके विचार को उसमें प्रस्तुत किया है। मैं समझता
हूँ यह फर्स्ट हैंड रायटिंग (First hand writing) है। प्रथम दृष्टया जो
बिल्कुल बहुत निकट से देखा और अनुभव किया, जीवन में जीने का प्रयत्न भी किया
उसको उन्होंने प्रस्तुत किया। यह कठिन कार्य है। इस काम के लिए मैं उन्हें
बहुत बहुत बधाई देता हूँ और हृदय से उनका इस विषय में सम्मान भी करता हूँ।
आप लोग भी इन दोनों सुंदर पुस्तकों और ग्रंथमाला के सभी खंडों का अवगाहन
करेंगे, अध्ययन करेंगे ऐसी मैं सबसे विनती भी करता हूँ। दत्तोपंत जी से
संबंधित साहित्य प्रकाशन का यह जो प्रयास चल रहा है इससे उनका चिंतन प्रवाह
भारत और विश्व में चतुर्दिक पहुँचेगा ऐसा हमारा विश्वास है।