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कैसे बनेगी न्याय की भाषा हिंदी

रजनीश कुमार शुक्ल


यह बहुत बड़ी विडंबना है कि हमारे देश में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने की बात तो होती है परंतु देश के उच्च न्यायालयों की भाषा हिंदी हो इस पर लोग मौन हैं। राजभाषा पर संसदीय समिति ने 28 नवंबर 1958 को संस्तुति की थी कि सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए। इस संस्तुति को पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है, किंतु इस दिशा में आगे कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 की धारा 2 के अनुसार किसी भी प्रदेश के राज्यपाल राष्ट्रपति महोदय की पूर्व सहमति से उस प्रदेश के उच्च न्यायालय में हिंदी या उस प्रदेश की राजभाषा में उच्च न्यायालय की कार्यवाही संपादित करने की अनुमति दे सकते हैं। इसी अनुच्छेद का लाभ लेते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी में भी कार्यवाही की अनुमति दी गयी। परंतु इसी तरह की मांग जब अन्य राज्यों से की गई तो उनकी मांग को ठुकरा दिया गया। वर्ष 2008 में विधि आयोग को सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी में काम काज की संभावना पर अपनी संस्‍तुति देने का कार्य सौंपा गया था। किंतु जैसा की पहले से माना जा रहा था, विधि आयोग ने नकारात्मक रिपोर्ट दी और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर एक बार फिर प्रतिबंध लग गया। 27 जुलाई 2009 को संसद में विधि आयोग के 216वें प्रतिवेदन के संबंध में जानकारी देते हुए तत्‍कालीन विधि एवं न्याय मंत्री वीरप्पा मोईली का वक्‍तव्‍य था कि आयोग ने हिंदी को न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के कामकाज के लिए अव्‍यवहारिक बताया है। इसके पीछे राजनीति तो थी ही, भारतीय विधि शिक्षा का अभारतीय स्‍वरूप भी इसका महत्‍वपूर्ण कारण है। शिक्षा के भारतीयकरण के अभियान को नई शिक्षा नीति 2020 के द्वारा सफलता प्राप्त हुई है। लेकिन सर्वोच्च न्‍यायालय तथा उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं के प्रतिबंध को लेकर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है। भारत की स्वतंत्रता के 73 बरस तथा हिंदी को राजभाषा भाषा के रुप में स्वीकृति के 71 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्वभाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकी है। लेकिन यह ध्यान रहे कि न्याय व्यवस्था का प्रश्न मात्र भाषा का नहीं है। स्वयं न्याय की अवधारणा,विधि का विवेचन और उसके न्यायानुकूल होने का प्रश्न भी महत्‍त्‍वपूर्ण है। न्याय व्यवस्था का आधार विधिशास्त्र है। विधि का लेखन जिस भाषा में होता है, वह साधारण भाषा है। प्रत्येक साधारण भाषा स्वाभाविक रुप से अपने परिवेश के आधार पर ही अर्थ संस्थान का निर्माण करती है। अनुदित विधि हमेशा अर्थ बोध के ल्रिये मूल भाषा की मुखापेक्षी होती है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्‍च न्यायालयों का मुख्य कार्य विधि को संविधान तथा प्राकृतिक न्याय के आलोक में व्याख्यायित करने का है, साथ ही अवर न्यायालयों के निर्णय का न्यायिक पुनरीक्षण भी करना होता है। ये दोनों कार्य भाषाई विश्लेषण पर आधारित निर्वचन प्रणाली की अपेक्षा करते हैं। यह कार्य किसी भी विधिक पाठ अथवा संविधि की व्याख्या से जुड़ा हुआ कार्य है। अतः इसमें किसी भी विधि पाठ का अर्थ बोध या वाक्यार्थ बोध सुनिश्चित करना अपेक्षित होता है। यह एक प्रकार की विशिष्ट प्रणात्री की अपेक्षा करता है। अभी तक भारत में विधि के निर्वचन हेतु जिस सिद्धांत का बहुशः प्रयोग होता है वह मैक्सवेल का 'ऑन दी इंटरप्रिटेशन ऑफ स्टेट्यूट्स' नामक ग्रंथ है। यह किताब लंबे काल से ब्रिटिश विधि के क्षेत्र में व्याख्या की बाईबिल समझी जाती है। व्याख्या की वैकल्पिक विधि के अभाव का बोध मात्र वह कारण है जो कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में हिंदी में काम काज की संभावना पर पानी फ़ेर देता है। यह किताब अंग्रेजी भाषा की भाषाशास्त्रीय संरचना के अन्तर्गत विधिक तथ्यों को वस्तुनिष्ठतापूर्वक निर्धारण की पद्धति को प्रस्तुत करती है। यह ध्यान रहे कि यह किताब स्वयं में कोई विधि नहीं है अपितु विधिशास्त्र की एक ऐसी किताब है जो परंपरा द्वारा विधि की प्रमाणिक व्याख्या प्रणाली के रूप में स्वीकृत हो गयी है।कोई संविधान, संविधि, अधिनियम अथवा विधि भाषा में ही प्रलेखित होते हैं। किंतु सामान्य भाषा का स्वरूप ऐसा है कि इसमें निर्वचन भेदपूर्वक अर्थ भेद की संभावना तो रहती ही है। ऐसे में निर्वचन की एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता होती है जो विधिवाक्य (नियम) की भाषा के अभिप्रेत अर्थ को वस्तुनिष्ठ रूप से प्रस्तुत कर सके तथा विविध सन्दर्भों में अर्थ बोध करा सके। यह सच है कि हिंदी भाषा में इस तरह की प्रणाली का विकास नहीं हुआ है। अतः सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के हिंदी में काम काज में कठिनाई स्वाभाविक है। यदि हिंदी को तथा हिंदी के साथ ही साथ अन्य भारतीय भाषाओं को वास्तविक रूप से न्यायिक काम काज की भाषा बनाना है तो संविधि की व्याख्या का सिद्धांत तैयार करना होगा। यह कार्य अनुवाद से संभव नहीं है। क्‍योंकि सांविधिक व्याख्या या निर्वचन, निर्वाच्य से जुड़े सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संदर्भों पर आधारित तो होती ही है संविधि की भाषा के भाषाशास्त्रीय नियमों पर भी आश्रित होती है। इसलिये हिंदी में संविधि की व्याख्या के लिये एक मौलिक व्याख्याशास्त्र की आवश्यकता है। मैक्सवेल की निर्वचन प्रणाली ब्रिटिश विधि व्यवस्था तथा उसके परंपरागत विधिशास्त्र पर आधारित है। भारतीय सन्दर्भ उसमें नहीं है। यही कारण है कि जटिल विषयों पर प्रस्तुत निर्णय समस्त शास्त्रीय शुद्धता के बाद भी आम जन को चौंकाने वाला हो जाता है। हिंदी के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग को संभव बनाने तथा निर्ववन को भारतीय समाज के अनुकूल बनाने का एक मात्र तरीका है कि मैक्सवेल को अपदस्थ किया जाये एवं भारतीय प्रणाली, संस्कृति को प्रकट करने वाली व्याख्या विधि को स्थापित किया जाये। स्वाभाविक तौर पर इसके लिये भारतीय इतिहास की ओर झांकना होगा। 1857 से भारतीय विधि के इतिहास विकास को समझने के स्थान पर विधिशास्त्र के संपूर्ण भारतीय इतिहास को समझना होगा जो 1857 के सदियों पूर्व से प्रारम्भ होता है। ऐसी स्थिति में हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से मीमांसा की निर्वचन विधि की ओर जायेगा, जो विधि सहित विविध शास्त्रों की व्याख्या प्रणाली के रूप में सहस्रों वर्षों से भारत में स्वीकृत रही है। साथ ही इसमें अनुभवाश्रित एक ऐसी विशिष्ट गतिशीलता है जो इसे मैक्सवेल की अपेक्षा अधिक उपयोगी और वस्तुनिष्ठ बनाती है। यह बात मैं मात्र इस आधार पर नहीं कह रहा हूँ कि भारत में पुरातन काल से ही इसका प्रयोग होता रहा है। इसलिये कह रहा हूँ कि 20वीं और 21वीं शताब्दी में भी इस दिशा में अनेक कार्य हुए हैं। यदि ये कार्य हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में हुए होते तो इसके आधार पर व्याख्या की एक ऐसी प्रणाली का विकास किया जा सकता था जो कि मैक्सवेल को खारिज कर सकता था। किंतु इस दिशा में कार्य करने वाले सभी विद्वानों ने भाषा के महत्‍व की ओर ध्यान नहीं दिया। किंतु इनके अध्ययन से एक बात तो प्रमाणित हुई ही है कि यह प्रणाली व्याख्या की वह अनुभवाश्रित पद्धति है जो मैक्सवेल की अपेक्षा अधिक वस्तुनिष्ठ विवेचन में सक्षम है। इसी शक्ति के बल पर मैक्सवेल को अपदस्थ किया जा सकता है। मैकाले को नकार कर भारतोचित शिक्षा की आवश्यकता को नई शिक्षा नीति 2020 पूर्ण करती है। अब समय आ गया है कि न्‍याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिये मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा। हिंदी के राजभाषा बनने के इतने वर्षों बाद इस कार्य का संकल्प हर ऐसे अध्येता को लेना चाहिये जो हिंदी में लिख सकता है, विश्लेषण कर सकता है।


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