मूलतः तेलुगुभाषी प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा पिछले 16 वर्षों से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में बाबासाहेब अंबेडकर दलित और जनजातीय अध्ययन केंद्र के निदेशक व प्रोफेसर के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। इस विश्वविद्यालय में वे तीसरी बार संस्कृति विद्यापीठ के अधिष्ठाता बने हैं। वे भारत में 16 वर्षों के अनुभव वाले सबसे वरिष्ठ दलित प्रोफेसर हैं। वैसे उनके शिक्षक जीवन के 25 वर्ष पिछले साल ही पूरे हो गए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पीएच.डी. करने के बाद लेल्ला कारुण्यकरा 1997 में स्कूल ऑफ अंबेडकर स्टडीज, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में इतिहास के सहायक प्रोफेसर बने। वे वहां 2005 में एसोसिएट प्रोफेसर बने। उन्होंने वहां एम.ए. इतिहास कार्यक्रम के लिए 'दलित इतिहास' जैसा नवीन पाठ्यक्रम तैयार किया। डॉ. लेल्ला कारुण्यकरा वहां 2007 तक इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे। वे वहां विद्या परिषद और विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड के सदस्य भी थे।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा की विशेषज्ञता आधुनिक बौद्ध इतिहास, दलित इतिहास और अंबेडकर विचारों में है। वे दलित मानवाधिकारों के राष्ट्रीय अभियान और दलित इतिहास कांग्रेस जैसे दलित आंदोलनों से लंबे समय से जुड़े रहे हैं। वे जिस भी शिक्षण संस्थान में रहे, वहां दलितों का संगठन खड़ा किया और संस्था गठन करने के लिए महापुरुषों की तिथियों को चुना। उन्होंने 6 दिसंबर 2000 को अंबेडकर विश्वविद्यालय दलित छात्र संघ (एयूडीएसयू) की स्थापना की, ताकि विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे दलित और आदिवासी छात्रों के अधिकारों की रक्षा हो सके। उन्होंने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण बहाल करने के लिए अथक प्रयास किया। जब इसे उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में चुनौती दी गई तो उन्होंने सभी मंचों और निकायों पर इसका बचाव भी किया। डॉ. लेल्ला कारुण्यकरा ने 6 दिसंबर 2006 को विश्वविद्यालय के दलित और आदिवासी शिक्षकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी एससी-एसटी टीचर्स एसोसिएशन की स्थापना की।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा 2007 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में बाबासाहेब अम्बेडकर दलित और जनजातीय अध्ययन केंद्र के निदेशक व प्रोफेसर बनकर आ गए। यहां भी उन्होंने 6 दिसंबर 2009 को वर्धा में दलित समाज में सांस्कृतिक चेतना लाने के उद्देश्य से एक सांस्कृतिक संगठन 'पवित्र दलित परिवार' (पीडीपी) की स्थापना की। 2010 में उन्होंने पीडीपी की एक पहल के रूप में 'मान्यवर काशीराम इंस्टीट्यूट ऑफ एंगेज्ड अंबेडकरिज्म' की स्थापना की। उसने 14 और 15 अक्टूबर 2010 को नागपुर में विजयादशमी के अवसर पर पीडीपी का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, जिस दिन अंबेडकर का बौद्ध धर्म में रूपांतरण हुआ था। पीडीपी का दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन 2-3 जून 2012 को लखनऊ में आयोजित किया गया था।
26 जुलाई 2017 को प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकरा ने विश्वविद्यालय के एससी, एसटी और ओबीसी शिक्षकों के कल्याण के लिए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग शिक्षक संघ की स्थापना की। उन्होंने इसका संविधान भी लिखा। इस संगठन के गठन के लिए उन्होंने 26 जुलाई की तारीख का चयन इसलिए किया क्योंकि भारत के इतिहास में पहली बार 26 जुलाई 1902 को छत्रपति शाहू महाराज ने कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्ग के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की शुरुआत की थी।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा ने दुनिया भर में दलित ज्ञान का प्रसार करने के लिए 2020 में दलित ज्ञान यूट्यूब चैनल शुरू किया। 21 फरवरी 2022 को प्रो. कारुण्यकारा ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा विश्वविद्यालय में 'अंबेडकर स्टडी सर्कल' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के लेखन और भाषणों का अध्ययन और उन पर चर्चा करना है। उन्होंने 'अंबेडकर स्टडी सर्कल' की स्थापना के लिए 21 फरवरी को इसलिए चुना क्योंकि बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर ने 21 फरवरी 1948 को ही भारत के संविधान का मसौदा तैयार किया था। प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा 'अंबेडकर स्टडी सर्कल' (एएससी) के संस्थापक अध्यक्ष हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में स्थापित अंबेडकर प्रतिमा के नीचे विद्यार्थी और शिक्षक एकत्र होकर हर हफ्ते अंबेडकर लेखन पर चर्चा करते हैं। 6 दिसंबर 2022 को, उन्होंने दलित जाति या समुदाय के भीतर एकता लाने के लिए 'अंबेडकराइट्स फॉर दलित यूनिटी' के एक समूह की स्थापना की। दलित जाति धर्म और जातियों से विभाजित है। 'लव योर दलित' दलितों में भाईचारा लाने का मूल विचार है। एएफडीयू (अंबेडकराइट्स फॉर दलित यूनिटी) युवा अंबेडकरवादियों का एक अनौपचारिक समूह है, जो दलित समाज के भीतर जाति और धर्म आधारित नफरत के खिलाफ काम कर रहा है। पक्के अंबेडकरवादी प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा दलित बौद्ध संघ के संस्थापक हैं।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा ने 25 अक्टूबर 2022 को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित नॉलेज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य प्रशिक्षण कार्यक्रमों, संगोष्ठियों, सम्मेलनों, कार्यशालाओं आदि का आयोजन करके दलित ज्ञान का प्रसार करना और पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन करना है। इसका उद्देश्य दलित ज्ञान में प्रमाणपत्र और उन्नत प्रमाणपत्र कार्यक्रम आयोजित करना भी है। प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकरा ने इसकी स्थापना के लिए 25 अक्टूबर को इसलिए चुना क्योंकि यह थॉमस बैबिंगटन मैकाले का जन्मदिन है, जिन्हें लॉर्ड मैकाले के नाम से जाना जाता है, जो कारुण्यकरा के शब्दों में 'आधुनिक भारतीय समाज के जनक' थे, जिन्होंने सभी भारतीयों के लिए कानून के समक्ष शिक्षा और समानता का अधिकार दिया। उन्होंने मनु कानून को मैकाले कानून से बदल दिया। कारुण्यकरा मानते हैं कि भारतीय समाज महात्मा फुले और बी.आर. मैकाले की सामाजिक क्रांति के कारण आगे बढ़ा।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा दलित विद्यार्थियों, शिक्षकों व कर्मियों के उत्थान के लिए सदा-सर्वदा प्रयासरत रहे हैं किंतु कक्षा में पढ़ाते समय अथवा कोई भी अकादमिक परामर्श देते समय डॉ. लेल्ला कारुण्यकरा कभी किसी छात्र की जाति, धर्म, लिंग, वर्ग या संप्रदाय, क्षेत्र आदि नहीं देखते। उनके लिए हर छात्र महज एक विद्यार्थी होता है। छात्रों को पढ़ाई के दौरान ही जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग आदि शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति आगाह करके उन्हें इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की चेष्टा करते हैं ताकि आगे चलकर उनके विद्यार्थी एक बेहतर समाज की रचना में अपनी भूमिका निभा सकें। ध्यान देने योग्य है कि दलित जाति को संगठित व शिक्षित करने तथा बाबा साहेब के स्वतंत्रता, समता और बंधुता के संघर्ष को आगे बढ़ाने में लगे लेल्ला करुण्यकरा गैर दलितों के न्याय के प्रश्न पर भी उतने ही मुखर रहते हैं। इन पंक्तियों के लेखक समेत पांच एसोसिएट प्रोफेसरों को प्रोफेसर पद पर प्रोन्नत करने में लेल्ला कारुण्यकरा की बड़ी अकादमिक भूमिका रही। तब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आंतरिक गुणवत्ता सुनिश्चायन प्रकोष्ठ (आईक्यूएसी) के निदेशक थे।
आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के कोत्तूर, एलुरु के मूल निवासी लेल्ला आरोग्यम और लेल्ला राहेल की संतान के रूप में 18 जून 1966 को जन्मे लेल्ला कारुण्यकरा का नाम पहले लेल्ला कैनेडी था। लेल्ला कैनेडी ने 12 नवंबर 1999 को बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उसके बाद उनका वर्तमान नामकरण लेल्ला कारुण्यकरा हुआ। उन्होंने श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु जी. प्रज्ञानंद से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। जी. प्रज्ञानंद नागपुर में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के समारोह में शरीक हुए थे। लेल्ला कारुण्यकरा ने मद्रास क्रिश्चियन कालेज से इतिहास में एमए किया और सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए दिल्ली चले गए। वहां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके शोध निर्देशक प्रो. दावा नोरबू ने उनसे कहा कि वे सिविल सर्विस की तैयारी न करें, दलित समाज के लिए चिंतन व लेखन करें क्योंकि समाज को उन जैसे मेधाओं की बहुत जरूरत है। उसके बाद उन्होंने शिक्षा को वृत्ति बनाया और दलित चिंतन व लेखन में जुट गए। उन्होंने लखनऊ में इंदुबाला जी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया।
'दलित पहचान का इतिहास' लिखने वाले प्रो. कारुण्यकरा एक क्रांतिकारी सामाजिक सिद्धांत 'शुद्ध दलित सिद्धांत' पर काम कर रहे हैं। वे सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अंबेडकर का अध्ययन करने के लिए 'सांस्कृतिक अंबेडकर' पर भी काम कर रहे हैं।
लेल्ला कारुण्यकरा का दलित चिंतन :
जाने-माने दलित चिंतक प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा की पुस्तक 'हिस्ट्री आफ दलित आईडेंटिटी' एक दृष्टांत है कि दलित पहचान के अध्ययन का क्या दृष्टिकोण होना चाहिए। यह पुस्तक दलित पहचान के ऐतिहासिक संदर्भ की खोज करती है। दलित पहचान के सवाल को विभिन्न विद्वानों ने दो अलग-अलग दृष्टिकोणों से निपटाया है, अर्थात् अधिकार परिप्रेक्ष्य और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य। अधिकार परिप्रेक्ष्य ने कानून आधारित आख्यान का निर्माण किया जो दलितों को दिए गए संवैधानिक अधिकारों के इर्द-गिर्द घूमता है। यह कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकताओं के आधार पर दलित पहचान को देखता है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ-साथ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने दलित पहचान को परिभाषित करने के लिए अधिकार परिप्रेक्ष्य को अपनाया है। दलितों को मानवाधिकारों से वंचित करने का विचार दलित पहचान की परिभाषा तय करता है। लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता दलित को वंचित के रूप में परिभाषित करने के लिए अधिकारों के दृष्टिकोण को अपनाते हैं मानव अधिकार। अतः उनके लिए दलित का अर्थ वंचित, दबा हुआ है। लेल्ला कारुण्यकरा दलित पहचान को सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखते हैं। वे मानते हैं कि अधिकार परिप्रेक्ष्य पीड़ित कथा का निर्माण करता है और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य विजेता कथा का निर्माण करता है। अधिकारवादी दृष्टिकोण दलितत्व की निंदा करता है और सांस्कृतिक दृष्टिकोण इसका जश्न मनाता है। सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य दलित पहचान को ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक यथार्थ के आधार पर देखता है। अधिकार परिप्रेक्ष्य नकारात्मक दलित पहचान का निर्माण करता है और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य सकारात्मक दलित पहचान का निर्माण करता है।
कारुण्यकरा कहते हैं कि दलित संसार विभिन्न रंगों के फूलों वाला एक सुंदर बगीचा है। कुछ दलित भगवान को मानते हैं और कुछ दलित भगवान को नहीं मानते। बौद्ध दलित, ईसाई दलित, सिख दलित, मुस्लिम दलित, हिंदू दलित और आध्यात्मिक दलित भी हैं जो भगवान में विश्वास करते हैं लेकिन किसी भी धर्म का पालन नहीं करते हैं। हालाँकि दलित विरोधियों ने उन्हें अलग-अलग जातियों में बाँट दिया और उन्हें आपस में लड़ा दिया, लेकिन उनकी एकता उनकी दलित पहचान में निहित है। दलित इतिहास, संस्कृति और पहचान दलितों को एक जाति और एक समुदाय में प्रेरित और एकजुट करती है। दलित समाज की अनेकता में एकता का उत्सव ही दलित संस्कृति का मूल है।
पुस्तक के पहले ही अध्याय में लेल्ला कारुण्यकरा 'दलित शब्द की व्युत्पत्ति' पर प्रकाश डालते हैं और बताते हैं कि दलित मूल रूप से एक हिब्रू शब्द है। दलित शब्द की उत्पत्ति हिब्रू जातीयता और हिब्रू राष्ट्रीयता से हुई है। हिब्रू में इसका अर्थ है ईश्वर द्वारा चयनित। इसलिए यह एक पवित्र शब्द है। कारुण्यकरा कहते हैं कि कुछ लोग मानते हैं कि दलित एक फ्रांसीसी शब्द है और कुछ मानते हैं कि दलित एक द्रविड़ शब्द (तमिल और तेलुगु) है और कुछ अन्य मानते हैं कि दलित एक संस्कृत शब्द या मराठी शब्द है। कारुण्यकरा कहते हैं कि दलित न तो फ्रेंच है न द्रविड़ और न ही संस्कृत या मराठी शब्द।
दूसरे अध्याय का शीर्षक है दलित संस्कृत का शब्द क्यों नहीं है। कारुण्यकरा कहते हैं कि यह भ्रांत धारणा है कि दलित शब्द संस्कृत का शब्द है क्योंकि यह दल शब्द से उत्पन्न हुआ है। लेकिन तथ्य यह है कि मूल शब्द 'दल' न केवल संस्कृत में मौजूद है बल्कि तेलुगु और तमिल और द्रविड़ भाषाओं में भी मौजूद है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दलित शब्द संस्कृत, फ्रेंच, तेलुगु और तमिल से बना है। कोई भी शब्द मूल रूप से किसी एक भाषा में ही उत्पन्न होता है और उस भाषा से वह अन्य भाषाओं में जाता है। केवल इसलिए कि मूल शब्द दल का दलित शब्द से मेल है, यह नहीं कहा जा सकता कि दलित शब्द की उत्पत्ति दल शब्द से हुई है।
दलित शब्द की यात्रा शीर्षक तीसरे अध्याय में कारुण्यकरा बताते हैं कि दलित शब्द ने हिब्रू भाषा से देश-विदेश की अन्य भाषाओं में यात्रा की है। भारत में पालि, तेलुगु, मराठी, तमिल, गुजराती आदि भाषाओं में दलित शब्द का प्रयोग होता है। इस शब्द ने संभवतः पालि से मराठी साहित्य में प्रवेश किया। मराठी साहित्य ने दलित शब्द को लोकप्रिय जरूर बनाया पर इसका मतलब यह नहीं है कि दलित मराठी है। दलित शब्द को आमतौर पर दो अर्थों में संदर्भित किया जाता है। मुख्य रूप से दलित शब्द एक व्यक्ति या जाति को एक पहचान के रूप में संदर्भित करता है। दूसरी बात यह है कि दलित शब्द किसी व्यक्ति या जाति की पिछड़ी या दबी हुई स्थिति को संदर्भित करता है। प्राथमिक अर्थ इतिहास से पैदा हुई पहचान है और द्वितीय अर्थ दलितों की सामाजिक-आर्थिक पिछड़ी स्थिति से बना अनुमान है। इसलिए, द्वितीय अर्थ गलत है। मूल रूप से दलित शब्द पहचान को संदर्भित करता है न कि सामाजिक स्थिति को। दलित दलित है चाहे वह सामाजिक और आर्थिक रूप से अमीर हो या गरीब क्योंकि दलित शब्द केवल एक पहचान को संदर्भित करता है न कि सामाजिक और आर्थिक स्थिति को। दलित शब्द किसी व्यक्ति की उच्च या निम्न स्थिति को संदर्भित नहीं करता है। यह एक ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जो ऐतिहासिक रूप से एक विशेष जाति से संबंधित है।
करुण्यकारा कहते हैं कि दलित शब्द सामाजिक रूप से अनुसूचित जाति को संदर्भित करता है और दार्शनिक रूप से यह भारतीय जाति को संदर्भित करता है जिसमें अनुसूचित जाति (दलित), अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) और अन्य पिछड़ी जाति (बहुजन) शामिल हैं। अंबेडकर के बाद भी कई संगठनों और बुद्धिजीवियों ने खुद को दलित पहचान से जोड़ा। दलित पैंथर ऐसे उल्लेखनीय संगठनों में से एक था। बी.आर. अंबेडकर द्वारा स्थापित अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ के अनुसार दलित का अर्थ है 'क्रांतिकारी'। इसलिए, इसने अंबेडकर को दलितों के राजा (दलितों का राजा) की उपाधि दी। महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स ने यही अर्थ अपनाया। दलित पैंथर्स का अर्थ क्रांतिकारी बल है। दलित शब्द के लिए जातिवादी नकारात्मक और अशोभनीय अर्थ का प्रचार करने का प्रयास करते हैं। सकारात्मक दलित पहचान भारत में आर्य आधिपत्य के लिए एक सीधी चुनौती है। दलित पैंथर्स आंदोलन का जन्म 1972 में बॉम्बे (मुंबई) में हुआ था और यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों और अन्य लोगों के लिए मानवीय गरिमा और आत्म-सम्मान को पुनः प्राप्त करने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन बन गया, जिन्हें वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा बहिष्कृत कर दिया गया था।
पुस्तक का 'अंबेडकर और दलित पहचान' शीर्षक चौथा अध्याय दिलचस्प और लंबा है। यह बताता है कि अंबेडकर दलित पहचान को कितने प्यार से रखते थे और गर्व के साथ इसका प्रचार करते थे। पुस्तक का पांचवां अध्याय, 'अंबेडकर के बाद की दलित पहचान' इस बात की पड़ताल करता है कि कैसे दलित पहचान अधिक लोकप्रिय हो रही है और आधुनिक समय के दलित इसे गर्व और सम्मान के साथ कैसे अपना रहे हैं। छठा अध्याय 'आरएसएस विपक्ष और कोर्ट केस' के बारे में है। सातवाँ और अंतिम अध्याय है, 'दलित अस्मिता: मिथक और तथ्य' जो दलित पहचान के बारे में सच्चाई और इसके बारे में मिथकों का प्रचार करने वाले दलित विरोधियों की पोल खोलता है।
लेल्ला कारुण्यकरा का बौद्ध चिंतन :
जाने-माने दलित चिंतक व इतिहासकार प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा की पुस्तक 'माडर्नाइजेशन आफ बुद्धिज्मः कंट्रीब्यूशन आफ अंबेडकर ऐंड दलाइलामा फोर्टिन' बेहद तात्पर्यपूर्ण है। यह अंबेडकर और दलाई लामा चौदहवें की विरासत पुनरुद्धार की निरंतरता पर एक ठोस अध्ययन है। छठी ई.पू. में बौद्ध धर्म का उदय भारत के इतिहास में पहली सामाजिक क्रांति थी। 14 अक्टूबर 1956 को अंबेडकर का बौद्ध धर्म में परिवर्तन उन क्रांतिकारी आदर्शों का पुनरुद्धार था। बुद्ध की भूमि में दलाई लामा चौदहवें की उपस्थिति गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित क्रांतिकारी आदर्शों की निरंतरता का प्रतीक है। समानता, सामाजिक न्याय और लोकतंत्र ये तीन सिद्धांत हैं, जिनके साथ अंबेडकर और दलाई लामा चौदहवें द्वारा शुरू किया गया संपूर्ण पुनरुद्धार आंदोलन जुड़ा हुआ है। एक धर्म और दर्शन के रूप में बौद्ध धर्म का आधुनिकीकरण पुनरुद्धार की पूर्व शर्त है। प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा ने इस पुस्तक में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाओं को समझने के लिए ऐतिहासिक पड़ताल की है। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने आधुनिकीकरण को पहली और सबसे महत्वपूर्ण शर्त माना है। यह पुस्तक बौद्ध धर्म में हुई आधुनिकीकरण प्रक्रिया की सामग्री और प्रकृति की पहचान करने के लिए अंतःविषय दृष्टिकोण पर आधारित है। प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा ने बौद्ध धर्म के बारे में अम्बेडकर और दलाई लामा की समझ में उत्तर आधुनिकतावाद की विशेषताओं की सही पहचान की है। उत्तर आधुनिक जड़ें परंपरा के आधुनिकीकरण का परिणाम हैं। अंबेडकर और दलाई लामा चौदहवें द्वारा बौद्ध धर्म की परंपरा का आधुनिकीकरण किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म की उत्तर आधुनिक समझ, यानी दलित बौद्ध धर्म या आदि बौद्ध धर्म का संश्लेषण हुआ।
प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा की पुस्तक 'माडर्नाइजेशन आफ बुद्धिज्मः कंट्रीब्यूशन आफ अंबेडकर ऐंड दलाइलामा फोर्टिन' मुख्य रूप से बौद्ध परंपरा को आधुनिक बनाने में अंबेडकर और दलाई लामा चौदहवें के योगदान पर प्रकाश डालती है और बताती है कि बौद्ध धर्म का आधुनिक इतिहास बौद्ध धर्म के पुनरुद्धार का इतिहास है। सबसे महत्वपूर्ण कारक जो बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिए सहायक रहा है, वह इस धर्म का आधुनिकीकरण है। आधुनिकीकरण एक सतत प्रक्रिया है। इसलिए बौद्ध धर्म का पुनरुद्धार जारी है। आधुनिकीकरण एक सामाजिक प्रतिमान है, जो आधुनिक माने जाने वाले को समर्थन देने के लिए समर्पित सामाजिक दृष्टिकोण या कार्यक्रमों का प्रतिनिधित्व करता है। आधुनिकीकरण एक प्रकार का परिवर्तन है, और निश्चित रूप से सकारात्मक परिवर्तन है। यह एक सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि यह लोगों के सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाता है। सामाजिक दृष्टिकोण काफी हद तक धर्म से प्रभावित हैं। इस प्रकार धर्म को ऐसे सामाजिक कार्यक्रम और सामाजिक दर्शन के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है जो समाज की समसामयिक समस्याओं का सामना करने के लिए बाध्य कर सके। बौद्ध धर्म के आधुनिकीकरण में जरूरतों के अनुरूप और आधुनिक समाज द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का सामना करने के लिए बुद्ध के धम्म की नई व्याख्याएं शामिल हैं। लेल्ला कारुण्यकरा कहते हैं कि धार्मिक मूल्यों और विश्वासों में परिवर्तन समकालीन समाज या सामाजिक समूहों की आवश्यकताओं के दृष्टिकोण से धार्मिक दर्शन की नई व्याख्याओं का परिणाम है। धार्मिक मूल्य और विश्वास आम तौर पर धार्मिक व्यवस्था के सामाजिक दर्शन पर आधारित होते हैं। यदि एक धार्मिक दर्शन की व्याख्या सामान्य रूप से विशेष सामाजिक समूहों या समाज की आवश्यकताओं के अनुसार की जाती है, तो धर्म स्वयं आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है। बदलती परिस्थितियों में नई चुनौतियों का सामना करने के लिए किसी भी धर्म के अस्तित्व के लिए यह मूल स्रोत है। अंबेडकर और दलाई लामा चौदहवें ने इसी तर्ज पर बौद्ध धर्म के आधुनिकीकरण में योगदान दिया। उनके लिए बौद्ध धर्म के आधुनिकीकरण का उद्देश्य न्याय, समानता और लोकतांत्रिक समाज की स्थापना करना है।
लेल्ला कारुण्यकरा इस सवाल से टकराते हैं कि क्या बुद्ध के धम्म को आधुनिक बनाने की जरूरत है? गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को तब तक सब कुछ प्रश्न करने की अनुमति दी जब तक कि उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिल जाता और उस उत्तर की सामाजिक उपयोगिता होनी चाहिए। यह पुस्तक बौद्ध विचारों के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है और बौद्ध धर्म पर मौजूदा साहित्य के अतिरिक्त नहीं है। इसने सामाजिक उपयोगिता के संदर्भ में आधुनिक मनुष्य के लिए धर्म की प्रासंगिकता को बढ़ा दिया है। आधुनिक भारत में बौद्ध समाज द्वारा सामना की जाने वाली पेचीदगियों के बारे में अधिक जानने के लिए धम्म के पश्चिमी अनुयायियों के लिए यह अत्यधिक उपयोगी है। यह पुस्तक बौद्ध धर्म, अंबेडकर विचार और दलितों के इतिहास के छात्रों के लिए भी समान रूप से उपयोगी है।
भारत के इतिहासकार पारंपरिक रूप से कठिनाइयों का सामना करते हैं क्योंकि उन्होंने हिंदू सांस्कृतिक व्यवस्था के बाहर, विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं की पहचान करने के लिए एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारत का अध्ययन करना शुरू किया। बी.आर. अंबेडकर पहले भारतीय इतिहासकार थे जिन्होंने स्वदेशी सांस्कृतिक परंपराओं और सामाजिक मूल्यों पर अपने ऐतिहासिक संदर्भ में चर्चा की। उन्होंने विशेष रूप से दलित-बहुजन बौद्ध परंपरा के दृष्टिकोण से भारतीय इतिहास का अध्ययन करने के लिए एक अलग दृष्टिकोण अपनाया। नैटिविटी या स्थानीय पहचानें ऐतिहासिक चिंतन के अंबेडकरवादी दृष्टिकोण का आधार बनती हैं। स्वदेशी संदर्भ में व्यक्ति या समूह की सामाजिक पहचान कार्यप्रणाली का मुख्य भाग है। लेल्ला कारुण्यकरा ने इस पुस्तक में 'दलित' शब्द का प्रयोग स्वदेशी के पर्याय के रूप में किया है। स्वदेशी के लिए 'दलित' का प्रयोग करने के लिए एक मजबूत ऐतिहासिक औचित्य है। सिंधु सभ्यता से लेकर बुद्ध के युग तक और आधुनिक दलित-बहुजन आंदोलनों तक एक व्यापक सांस्कृतिक धारा रही है। इसके अतिरिक्त एक सामाजिक इतिहासकार को स्वदेशी इतिहास, परंपरा और प्रतीकों की जड़ों को स्पष्ट रूप से पहचानने के लिए उचित शब्दावली अपनाने की आवश्यकता है। सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर मजबूत दलित आंदोलनों के उदय ने सामाजिक वैज्ञानिकों को एक सकारात्मक ऐतिहासिक संदर्भ में दलित इतिहास का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया। एक ऐतिहासिक शब्द के रूप में दलितवाद, सभी वैकल्पिक सांस्कृतिक विचारों को समाहित करता है, यानी एक तरफ चार्वाक, बौद्ध धर्म, कबीर, फुले, पेरियार, दूसरी तरफ सिखवाद, भारतीय इस्लाम और भारतीय ईसाई धर्म, अंबेडकरवाद को जोड़ने वाले संदर्भ के रूप में। अम्बेडकरवाद दलितवाद का मूल विचार है जिसमें सभी 'बहुजन' विचार धाराएँ शामिल हैं। आज इसे 'दलित-बहुजन' विचारधारा के नाम से जाना जाता है। इसलिए स्वदेशी संस्कृति को दलित-बहुजन द्वारा एक वैकल्पिक संस्कृति के रूप में पेश किया जाता है।
लेल्ला कारुण्यकरा लिखते हैं कि बुद्ध का बौद्ध धर्म, अपने अस्तित्व के 2500 वर्षों के दौरान, भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी, अन्य धर्मों और दर्शनों के साथ मिले भीषण संघर्षों के बीच महिमा और पतन दोनों के रूप में जीवित रहा है। पहली मुठभेड़, जब 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में भारतीय क्षितिज पर बौद्ध धर्म अस्तित्व में आया, वेदवाद, वेदों का पंथ, जिसे प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यता की प्रेरक शक्ति कहा जाता है, के साथ आया। लेल्ला कारुण्यकरा कहते हैं कि वैदिक धर्म के कर्मकांड और बलिदान धीरे-धीरे एक खूनी पंथ में विकसित हो गए जिसने पुजारियों का एक समुदाय बनाया जो व्यक्तिगत लाभ के लिए देवताओं की पूजा का प्रचार करता था। निन्दा की कला व्यवहार में काफी थी। वेद भी मनुष्य के चार गुना वर्गीकरण के आधार पर एक विशेष सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख करते हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-वर्ण व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। वह सामाजिक स्तरीकरण बाद में जातिवाद और अस्पृश्यता के अत्याचार में बदल गया। वर्गीकरण स्वाभाविक नहीं था, यह मनमाने ढंग से कुछ वर्गों के वर्चस्व के लिए विकसित किया गया था। इसके बाद, तथाकथित उच्च वर्ग, विशेष रूप से ब्राह्मण, वैदिक कर्मकांडों के लाभार्थी थे और निचली जातियाँ उनके द्वारा गुलामों के समूह में धकेल दी गईं; उन्हें उप-मानव के रूप में जीने पर मजबूर किया गया। लेल्ला कारुण्यकरा लिखते हैं कि यह बुद्ध ही थे, जिन्होंने पहली बार वैदिक पंथ की सामाजिक व्यवस्था, हठधर्मिता और पुरोहितवाद का विरोध किया। बुद्ध ने पुरुषों की समानता, बंधुत्व और सार्वभौमिक भाईचारे के आधार पर एक नई सामाजिक व्यवस्था बनाई। यह वह था, जिसने सबसे पहले देवताओं को जानवरों के बेकार बलिदान की निंदा की और पुरुषों को सिखाया।
लेल्ला कारुण्यकरा का मत है कि बौद्ध धर्म का आधुनिकीकरण पुनरुद्धार प्रक्रिया का एक हिस्सा है। यह है कि पुनरुद्धार आधुनिकीकरण की ओर ले जाता है और आधुनिकीकरण पुनरुद्धार में योगदान देता है। आधुनिक भारत में बौद्ध पुनरुद्धार पर एक संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है ताकि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को बनाने वाले सामाजिक और धार्मिक तत्वों को समझा जा सके। पुनरुत्थान का श्रेय मुख्य रूप से आधुनिक भारत में अंबेडकर और दलाई लामा को दिया जा सकता है। लेल्ला कारुण्यकरा लिखते हैं कि अंबेडकर द्वारा शुरू की गई पुनरुद्धार की घटना ने वास्तव में बौद्ध धर्म के दर्शन और संस्कृति का आधुनिकीकरण किया है। लेल्ला कारुण्यकरा बताते हैं कि भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए ऐतिहासिक आवश्यकता क्या है और पुनरुद्धार किस प्रकार आधुनिकीकरण से संबंधित है? वह सामाजिक और दार्शनिक संदर्भ क्या है जिसमें अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित और आधुनिक बनाया? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए कारुण्यकरा बौद्ध पुनरुद्धार में दलाई लामा चौदहवें के योगदान और तिब्बती बौद्ध संदर्भ में बौद्ध धर्म और दर्शन के आधुनिकीकरण की ऐतिहासिक आवश्यकता से इसके संबंध पर प्रकाश डालते हैं। कारुण्यकरा कहते हैं कि प्राचीन भारत मुख्यतः बौद्ध समाज था। आधुनिक भारत में बौद्ध आबादी की अल्पसंख्यक स्थिति हमें हिंदू प्रभुत्व के इतिहास पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करती है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)