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भूल कर जब राह - जब जब राह... भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आँख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिए -
जगत के उन्माद का
परिचय लिये, -
और आगत-प्राण का संचय लिये, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिये -
प्राणमय संचार करते शक्ति औ' छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर से तुम्हारे, कवि,
एक - ऋतुओं के विहँसते सूर्य!
काल में (तम घोर) -
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शान्त-शीतलतम।
हाँ, तुम्ही हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं -
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस -
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परम्परा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे!
[1939]
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