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कविता

कहीं कोई मर रहा है उसके लिए

चंद्रकांत देवताले


झुक-झुक कर चूम रहे फूल जिसके होठों को
बतास में महक रही चंदन-गंध
जिसकी जगमगाती उपस्थिति भर से

जिसकी पदचापों की सुगबुगाहट ही से
झनझनाने लगे खामोश पड़े वाद्य
रोशन हो रहे दरख्तों-परिंदों के चेहरे

उसे पता तक नहीं
सपनों के मलबे में दबा
कहीं कोई मर रहा है
उसके लिए...

 


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