किसानों में चेतना
1. गत वर्षों ने भारतीय किसानों के भीतर दर्शनीय जागृति एवं संगठन शक्ति की असाधारण बाढ़ देखी है। यही नहीं कि उसने देश के सभी सार्वजनिक तथा जनतांत्रिक आंदोलनों में पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा भाग लिया है; वरन एक श्रेणी की हैसियत से अपनी स्थिति को भी उसने समझा है। साथ ही, सामंत शाही और साम्राज्यशाही के सम्मिलित निर्दय शोषण के मुकाबले में अपनी हस्ती कायम रखने के लिए उसने अपने जानों की बाजी लगा दी। इसीलिए उनकी वर्ग संस्थाएँ बहुत बड़ी हैं और शोषण के विरुध्द उनके संघर्ष ऊँचे दर्जे को पहुँच गए हैं, जैसा कि उनकी देशव्यापी बहुतेरी फुटकर लड़ाइयों से स्पष्ट है। इस जागरण और इन संघर्षों के अनुभवों ने उसमें एक नवीन राजनीतिक चेतना ला दी है। वे किन ताकतों से लड़ रहे हैं इस असलियत का पता पा गए हैं। अपनी गरीबी एवं शोषण की वास्तविक दवा भी उसने जान ली है। उनकी दृष्टि अपनी प्रकृत्या अलग रहने की हालत एवं संकुचित स्थानीयता के साथ बँधी नहीं है। उनने जान लिया है कि अनेक गुप्त-प्रकट रूपों में उनके शोषण-दोहन के लिए ही जीवित तथा उसी के बल पर फलने-फूलनेवाले पूँजीवाद को मिटना होगा, सो भी प्रधानत: उन्हीं के प्रयत्नों एवं कामों से ही-ऐसे कामों से जिन्हें वे देश की पूँजीवाद-विरोधी अन्यान्य शक्तियों के साथ मिलकर करेंगे। उनने यह भी महसूस किया है कि कुछ तो भूतकालिक सामंत प्रथा के फलस्वरूप और कुछ साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद के गठबंधन के द्वारा जानबूझ कर किए गए प्रयत्नों के चलते दोहन की ऐसी प्रथा पैदा हो गई है जिसने उन्हें गुलाम एवं दरिद्र बना डाला है। उसे भी मिटाना होगा। फलत: वे इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि हमारी आए दिन की लड़ाइयों का लाजिमी तनीजा होगा स्वयं पूँजीवाद के ऊपर जबर्दस्त क्रांति कारी धावा तथा उसके फलस्वरूप उसका सत्यानाश। इस प्रकार के वे शासन-सत्ता को हथियाएँगे जिससे उन्हें जमीन मिलेगी, कर्ज के भार से फुर्सत होगी, शोषण उनका पिंड छोड़ेगा और उनके परिश्रम के फलों का पूर्ण उपभोग उनके लिए निरबाधा होगा। यह पहली बात है।
2. दूसरी यह है कि हाल के वर्षों में प्रांतीय सरकारों की ओर से किसानों को नाममात्र की सुविधाएँ देने का मायाजाल रचा गया है। इन सुविधाओं के ज्वलंत खोखलेपन ने, इन्हें प्राप्त करने में होनेवाली जबर्दस्त दिक्कतों ने और कृषि संबंधी किसी भी बुनियादी सवाल को हल करने में प्रांतीय सरकारों की प्रकट असमर्थता ने इस तथाकथित स्वराज्य का पर्दाफाश भलीभाँति कर दिया है। इससे किसानों की यह धारणा और भी जबर्दस्त हो गई है कि वर्तमान आर्थिक तथा राजनीतिक प्रथा को मिटा कर उसकी जगह ऐसी प्रणाली को ला बिठाना होगा जिसका विधान स्वयं जनता ऐसे प्रतिनिधियों के द्वारा तैयार करेगी जिनका चुनाव व्यापक बालिग मताधिकार के आधार पर होगा। यही तो किसान-मजदूरों का पंचायती राज्य होगा जिसमें सब कुछ करने-धरने की शक्ति संपत्ति को उत्पादन करनेवाली जनता के हाथों में होगी। इस प्रकार संयुक्त किसान-सभा को कहने का गर्व है कि जमींदारों एवं पूँजीपतियों के सम्मिलित शोषणों से अपने आप को मुक्त करने तथा उसके लिए अपेक्षित बलिदान के लिए आज भारतीय किसानों का दृढ़ संकल्प पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा है।
किसान-मजूरों का मेल
3. सभा को यह उल्लेख करने में खुशी है कि मुल्क में और बाहर दूसरी भी जबर्दस्त शक्तियाँ और बातें हैं जो न सिर्फ किसानों को बल्कि भारतीय जनता को भी इन्हीं एवं ऐसे ही लक्ष्यों की ओर तेजी से खींच रही हैं। युध्द में किसानों के साथी और क्रांति के अग्रदूत जो कारखानों के मजूर हैं उनके संगठन और संघर्ष उस हद्द को पहुँच गए हैं जहाँ पहले कभी पहुँचे न थे। मजूरों के संगठन आंदोलन में ज्यादा ताकत आई है और मजूरों की राजनीतिक चेतना बढ़ी है। सभा चाहती है कि मजूरों और किसानों के संगठनों एवं आंदोलनों के बीच निकटतर संबंध की लड़ी जुटें। इसलिए यह अखिल भारतीय संयुक्त किसान कमिटी को आदेश देती है कि एतदर्थ उचित कार्यवाही करे। साथ ही मुल्क में मजूर आंदोलन की इस बढ़ती हुई शक्ति को छिन्न-भिन्न करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस तथा दूसरे भेदकारी लोग जो कुचक्र चला रहे हैं उसकी भर्त्सना यह सभा करती है।
रियासती जनता का संघर्ष
4. भारतीय जन समूह का तृतीयांश मुद्दत से रियासतों के द्वारा बलात उन पर लादे गए पिछड़ेपन के नीचे संघर्ष करता आ रहा है। देश में जनतंत्र के आंदोलन के फलस्वरूप और इधार आकर आमतौर से किसान-आंदोलन और विशेषत: किसानों के जागरण के चलते भी रियासतों की जनता में हाल में अपूर्व जागृति हुई है। रियासती जनता का संघर्ष भी अधिकांश में किसानों का ही संग्राम है। जो न सिर्फ नागरिक एवं राजनीतिक हकों तथा आजादियों के लिए किया जा रहा है, बल्कि आर्थिक छुटकारे-मुक्ति─के लिए भी। इसलिए इस बात का उल्लेख करने में खुशी होती है कि रियासतों की पीड़ित जनता भी अपने आप को समझने लगी है और इस प्रकार शेष भारत के साथ अपनी मैत्री की जबर्दस्त शृंखला जोड़ रही है। भारत की करोड़ों श्रमजीवी जनता के उध्दार के लिए जो संग्राम माथे पर मँडरा रहा है उसमें यह मैत्री एक निराला भाग लेगी।
जनता में हलचल
5. इसके सिवा मुल्क में एक व्यापक जागरण है ─युवकों, छात्रों, स्त्रियों और दूसरे लोगों में-और सभी क्रियाशील हैं, संगठित हो रहे हैं, संघर्षपरायण हैं। सबों की दृष्टि एक ही दिशा में लगी है कि समस्त सत्ता और अधिकार उत्पादन करनेवाले जन समूह के हाथों में आ जाए और इस प्रकार वह जनता अपने लक्ष्य और भविष्य, जीवन के बारे में निर्णय एवं कार्य करने में पूर्ण स्वतंत्र हो जाए।
किसान-सभा का लक्ष्य और काम
6. भारत में समाजवादी गणतांत्रिक राज्यों का ऐसा संघ स्थापित करना जिसमें सारी सत्ता श्रमजीवी शोषित जनता के हाथों में हो और इस तरह किसानों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा दूसरे शोषणों से पूर्ण छुटकारा दिलाना संयुक्त किसान आंदोलन का लक्ष्य है।
7. संयुक्त किसान आंदोलन का प्रधान काम है किसानों को संगठित करना ताकि वे अपनी तात्कालिक आर्थिक एवं राजनीतिक माँगों के लिए लड़ें और इस तरह श्रमजीवियों को हर तरह के शोषणों से छुटकारा दिलाने की अंतिम लड़ाई के लिए वे तैयार किए जाएँ।
8. किसान-मजूर (मजूर-किसान) राज्य की स्थापना के लिए होनेवाली घमासान में सक्रिय भाग तथा नेतृत्व के द्वारा उत्पादनकारी जनता के हाथों में सर्वोपरि आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ता सौंपने के लिए संयुक्त किसान आंदोलन कृत प्रतिज्ञ है।
किसानों का कार्यक्रम अनिवार्य राष्ट्रीय कार्यक्रम है
9. भारत के आर्थिक जीवन का ज्वलंत तथ्य है अपार किसान जनसमूह की अत्यंत विपन्नावस्था एवं दलनकारी गरीबी ─उस जन समूह की जो हमारी जनसंख्या का 80 प्रतिशतहै। फलत: कोई भी राजनीतिक या आर्थिक कार्यक्रम जो इन किसानों की जरूरतों तथा माँगों को भुलाने की धृष्टता करता है किसी भी खयाली दौड़ से राष्ट्रीय कार्यक्रम कहा नहीं जा सकता है। किसी संस्था को, जो भारतीय जनता के प्रतिनिधित्व का दावा करती है, दिवालिए एवं अत्यंत शोषित किसानों-रैयतों, टेनेंटों तथा खेत-मजदूरों-के स्वार्थों को अपने कार्यक्रम में अग्रस्थान देना ही होगा, यदि उसे अपने दावे को सत्य सिध्द करना है।
किसान उपेक्षित दल है
10. भारतीय किसानों की भयंकर दशा ऐसी है कि उसे दुहराने की जरूरत नहीं है। जमींदार, ताल्लुकेदार, मालगुजार, इनामदार, जन्मी, खोत, पवाईदार तथा अन्य भूस्वामी एवं मध्यवर्त्ती लोग किसानों को हजारों तरह से सताते रहते हैं। भूस्वामी किसानों के कंधों पर अखरनेवाली मालगुजारी की प्रणाली का जुआ लदा हुआ है। खेत-मजूर अगर कुछ मजूरी पाते भी हैं तो वह पेट भरने के लिए पूरी नहीं होती। उन्हें गुलामों की सी दशा में रहना और काम करना पड़ता है। वे उन कानूनों से प्राय: वंचित ही रखे गए हैं जो उनकी दशा कुछ सुधार सकते थे और जिन्हें व्यवस्थापक सभाएँ इस मुद्दत के दरम्यान पास कर सकती थीं। इसका कारण सिर्फ यही है कि व्यवस्थापकों ने अब तक यह माना ही नहीं है कि किसानों को संतुष्ट करना उनका फर्ज है। यह भी इसीलिए कि इस देश में खुद राष्ट्रीय राजनीतिक आंदोलन ने किसानों की बुनियादी और तात्कालिक समस्याओं से कोई ताल्लुक ही नहीं रखा है।
कांग्रेस सरकार ने आशा पर पानी फेरा
11. किसानों की वर्तमान दुर्दशा का मौलिक कारण है जमीन के बंदोबस्त, मालगुजारी और कर्ज देने की प्रणाली और यह चीज और कुछ नहीं है। सिवाय उस तरकीब के जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने मुकम्मल बनाया है और जिसके द्वारा किसानों को सीधो न मार कर ज्यादे से ज्यादा उनसे चूसा जाए। इसीलिए स्वभावत: किसानों ने आशा की थी कि कोई भी जनतांत्रिक सरकार, जिससे किसानों की भक्ति का दावा होगा, इस बंदोबस्त तथा ऋण के आदान-प्रदान की प्रणाली को मौका पाते ही फौरन खत्म कर देगी।
12. 15 अगस्त, 1947 को राष्ट्रीय नेताओं को जब राजनीतिक सत्ता हस्तांतरित की गई तो किसानों में बड़ी आशाएँ बँधीं। उसने उम्मीद की कि ब्रिटिश राज्य की जगह जो कांग्रेस की सरकार बनी है वह हमारे शोषकों से हमारे स्वार्थों को बचाएगी। उनने उमंग पूर्वक आशा की कि यह सरकार जमींदारी, अन्यान्य भूस्वामित्व की प्रथाओं एवं मध्यवर्त्ती दलों को जल्द मिटा देगी जिसकी प्रतिज्ञा कांग्रेस की चुनाव घोषणा में की गई थी। वे सोच रहे थे कि लगान, मालगुजारी तथा कर्ज देने की मनहूस प्रणाली को यह सरकार किसी भी क्षण मिटा देगी। उन्हें विश्वास था कि अब हमीं जमीन के मालिक होंगे और यही नहीं कि खेती-बाड़ी के सुधरे हुए उत्तम तरीकों के लिए यह सरकार हमें सारी सुविधाएँ देगी और इस तरह हम सहयोग मूलक खेती भी कर सकेंगे; प्रत्युत यह ऐलान कर देगी कि जमीन और उसकी उपज सबसे पहले किसान के परिवार तथा आश्रितों के उत्तम भरण-पोषण में ही लगेगी और इस प्रकार वर्तमान रैयतवारी इलाकों के किसानों की भी दशा अच्छी होगी।
13. लेकिन अब उनकी आँखें खुलने लगी हैं। 15 अगस्त को जो शासन व्यवस्था कायम हुई उसमें उनका विश्वास घटने लगा है। प्रांतों एवं केंद्र में जो कांग्रेसी सरकारें हैं वह किसानों तथा शोषित जनसमूह के स्वार्थों की रक्षा करना तो रहा, उनके शोषकों के पक्ष की वकालत करने और बचाने में लगी हैं। यद्यपि वे गत कई सालों से शासनारूढ़ हैं, फिर भी जमींदारी तथा मध्यवर्त्ती स्वार्थों एवं लगान, मालगुजारी और ऋणदान के सड़े-गले और पुराने तरीकों को मिटाने और उनके स्थान पर नई सामयिक प्रणाली को कायम करने की योजनाओं पर उनने पानी फेर दिया है। उनने बहुत विलंब के बाद अन्यमनस्कता के साथ जो कृषिसुधार समिति और उसी तरह की दूसरी समितियाँ कायम की है और जो कछुवे की चाल से काम कर रही है वही इस बात का पक्का प्रमाण है, अगर प्रमाण की जरूरत समझी जाए। इसीलिए समय-समय पर समाचार-पत्रों के द्वारा तथा प्रकारांतर से जो ऐलान होते रहते हैं कि मुआविजा दे कर जमींदारी मिटाने के अमुक-अमुक प्रस्ताव एवं कार्यविधियाँ प्रांतीय सरकारों के विचाराधीन हैं वे किसानों को घपले में रखने की सिर्फ चालें हैं। इस प्रकार अपने शोषक जमींदारों को मुआविजे की भारी रकम देने के लिए किसानों के दिमाग को तैयार भी किया जाता है।
14. चंद प्रांतीय सरकारों ने किसानों के लिए मरहम-पट्टी के जो दो-चारकाम किए और कानून बनाए हैं वे एक तो विविध दोषपूर्ण हैं। दूसरे अंततोगत्वा वे धोखे की टट्टी सिध्द हुए हैं। उन कामों और कानूनों ने एक ओर तो निहायत खर्चीली कचहरियों में किसानों को बलात घसीट कर बर्बाद किया है। दूसरी ओर आखिरकार उन्हें वहाँ भी हरा दिया है। इसके फलस्वरूप किसानों के वर्ग शत्रुओं की हिम्मत बढ़ी है।
15. तिस पर भी जले पर नमक डालने के लिए प्रांतीय सरकारों ने विभिन्न दमनकारी तरीकों का सहारा लिया है। दृष्टांत के लिए किसान-सभाओं, राजनीतिक दलों और कमिटियों को गैर-कानूनी करार देना, किसान नेताओं की धर-पकड़, मीटिंगों तथा प्रदर्शनों पर प्रतिबंध, शांत किसानों पर लाठीचार्ज और गोली दागना, उनको और उनके नेताओं को जेल में देना तथा नजरबंद करना। इन सब बातों का नतीजा यह हुआ है कि किसानों एवं जनसाधारण की नागरिक स्वतंत्रता छिन गई है। और इस तरह किसी भी जनप्रिय सरकार की बुनियाद ही हिला दी गई है। कांग्रेसी सरकारों के भीतर स्थिर स्वार्थ वालों का प्रभाव कितना बढ़ रहा है और कांग्रेस एवं उसकी सरकारें किस और जा रही हैं इसका पक्का प्रमाण ये ऊपर लिखी बातें हैं।
किसान-मजूर राज्य क्यों ?
16. यह सब कुछ मिटा देना होगा। मौजूदा शासन-प्रणाली के भीतर हमारा लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। फिर भी, यदि किसानों को बर्बादी से बचना है तो उन्हें अपने लक्ष्य के लिए लड़ना और उसे प्राप्त करना ही होगा। यदि शासन-प्रणाली उनके रास्ते का रोड़ा बनती है जैसा कि वर्तमान प्रणाली बेशक है, तो इसे मिट जाना ही होगा। इसी तरह किसानों की लड़ाई किसान-मजूर (मजूर-किसान) राज्य की लड़ाई परिणत हो जाती और मिल जाती है। यही कारण है कि संयुक्त किसान-सभा ने किसान-मजूर (मजूर-किसान) राज्य की स्थापना के संबंध में अपने संकल्प की घोषणा की है। इसी ढंग से किसान आंदोलन समाजवादी आंदोलन का प्रधान अंग बन जाता है।
17. ऐसी परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि अब राजनीतिक आंदोलन के भीतर आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र भी लाए जाएँ और उसे इस देश में इस तरह विकसित किया जाए कि मजूरों और किसानों से इसे शक्ति और स्फूर्ति मिले। उन सभी बाधाओं को मिटाने की भी कोशिश इसे करनी होगी जो देश की संपत्ति के उत्पादक जन समूह की भरपूर भलाई की ओर ले जानेवाले सच्चे और स्थिर साधनों और कामों के रास्ते में आ खड़ी होती हैं। खेत और रोटी के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई का अटूट संबंध किसान-मजूर (मजूर-किसान) राज्य संबंधी उनकी लड़ाई से है।
संघर्ष करने का मार्ग
18. संयुक्त किसान-सभा के मानी हैं किसानों का एका। जो ताकतें किसानों को विपदा एवं दरिद्रता की गहराई में बेरहमी से घसीट रही है उनको परास्त करने के लिए सभी किसानों को मिल जाना होगा। किसान-सभा किसानों के संगठन के द्वारा उन्हें अपने पाँवों पर खड़ा कर के किसानों को सिर्फ इस योग्य नहीं बनाती कि वे जमींदारों, मालमुहकमे के अफसरों, साहूकारों तथा उनके दलालों के हाथों होनेवाली हजारों परेशानियों एवं जबर्दस्ती के व्यवहारों को मिटा दें, वरन भारत में समाजवादी प्रजा सत्तात्मक राष्ट्रों के संघ शासन की स्थापना रूपी उनके अंतिम लक्ष्य की ओर बहुत ज्यादा उन्हें अग्रसर करती है। और इस प्रकार उस लक्ष्य की प्राप्ति के आंदोलन को इतना दृढ़ करती है जितना और कुछ कर नहीं सकता।
19. सौभाग्य से देश में सर्वत्र किसान अपनी मौलिक समस्याओं के बारे में राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से अधिकाधिक जानकार होते जा रहे हैं। किसानों के इसी जागरण का प्रतीक यह अखिल भारतीय संयुक्त किसान-सभा है। उनने समझ लिया है कि यदि हमें अपने लक्ष्य की ओर मुस्तैदी से बढ़ना है तो अपना जुझारू वर्ग संगठन तैयार करना ही होगा। किसान-सभा केवल रैयतों, काश्तकारों और भूमिहीन मजूरों का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती, किंतु बहुत जगहों में टुँटुपुँजिए भूमिपतियों अर्थात भूस्वामी किसानों की भी नुमायंदगी करती है। शब्दांतर में यह सभा उन सबों का प्रतिनिधित्व करती, उनके बारे में बोलती और उनके लिए लड़ती है जो जमीन पर कमाई कर के खेती से जीविका चलाते हैं। पूँजीवाद, जमींदारी प्रथा और महाजनों ने जो जंजीरें उन पर कस रखी हैं उन्हें तोड़ने के लिए किसानों के इन विभिन्न दलों को परस्पर मिल जाना और लड़ना होगा। संक्षेप में उन्हें पूर्ण राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता के लिए युध्द करना होगा जमींदारों तथा पूँजीपतियों के भारत का स्थान वह भारत लेगा जिसमें सारी शक्ति श्रमजीवी जनसमूह के हाथों में होगी। ऐसे भारत की स्थापना के लिए जो संघर्ष होगा यह अन्यान्य बातों के अलावे भारत के किसानों के अभाव अभियोगों एवं माँगों पर आधारित कार्यक्रम की बुनियाद पर ही सफलता से चलाया जा सकता है।
20. इन बुनियादी परिवर्तनों के लिए चालू लड़ाई के दौरान में ही किसानों को उन बातों के लिए भी जूझना होगा जो वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के भीतर प्राप्त की जा सकती हैं। सिर्फ इसी ढंग से वे अपने आपको बड़ी जुझार के लिए तैयार कर सकते हैं जिसे उन्हें अपने दिमागों में हमेशा रखना होगा।
दो मोर्चे की लड़ाई
21. अब हमारे सामने जो प्रश्न आ खड़े होते हैं वे हैं; यह कैसे हो? हम अपने संगठित आंदोलन को कैसे दृढ़ करें और इस तरह किसानों को अंतिम आक्रमण के लिए तैयार करें? राजनीतिक सत्ता को हथियाने के लिए दिमागी तौर पर तैयार करने के साथ ही वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के भीतर मिल सकनेवाली थोड़ी-बहुत सुविधाएँ किसानों को कैसे दिलाई जाएँ? उनमें वर्गचेतना कैसे लाई जाए?
22. दो मोर्चे हैं जिन पर हमारा संघर्ष अविराम रूप से चालू रखना होगा। एक ओर तो पार्लिमेंटरी (वैधानिक) कार्यक्रम और हलचलें हैं जो स्थिर स्वार्थ एवं प्रतिक्रिया के दुर्ग पर निर्णायक धावा बोलने के लिए किसानों को बहुत कुछ तैयार कर सकती हैं, बशर्ते कि वे परिक्षित एवं विश्वसनीय नेताओं के द्वारा क्रांति कारी दृष्टि से चलाई जाएँ। इन हलचलों से यही नहीं होता कि किसानों को समय-समय पर सहायता एवं सुविधाएँ मिली जाती हैं, फिर चाहे वह कितनी ही अल्प क्यों न हों। किंतु एक ओर तो इनके चलते देश के कर्णधारों और उनकी सरकार का भंडाफोड़ होता है। दूसरी ओर धीरे-धीरे किसानों को यकीन हो जाता है कि वैधानिक संघर्ष तथा तरीके केवल धोके की टट्टी हैं। बेशक यह अंतिम बात तभी होती है जब पार्लिमेंट के भीतर की लड़ाई बाहर की प्रत्यक्ष लड़ाइयों के साथ-साथ चलती है। वस्तुत: जनता के छुटकारे के लिए बाहरी हलचलों पर ही निर्भर किया जा सकता है, करना होगा। वैधानिक संघर्ष सिर्फ उन्हीं के सहायक होते हैं। बेशक ये बाहरी एवं अवैधानिक हलचलें किसानों के एकमात्र वर्ग संघर्ष ही तो हैं।
वर्ग संघर्ष क्यों ?
23. 15 अगस्त 1947 को मुल्क को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल चुकने और इसीलिए राष्ट्रीयता को आमतौर से अब तक जैसा समझा तथा भारत में उसका प्रयोग किया जाता था उसकी वह आकर्षक शक्ति, जो वर्ग संघर्षों के रोकने का काम करती थी, खत्म हो जाने के कारण अब समय आ गया है कि वर्ग संघर्ष निर्बाध रूप से विकसित किए एवं चलाए जाएँ। जब तक नव प्राप्त आजादी का दायरा इस तरह बढ़ाया नहीं जाय कि उसके भीतर आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता भी आ जाए और इस तरह वह ऐसी बन जाय कि उसे जन साधारण एवं धानोत्पादक जनता बखूबी महसूस कर सके तब तक किसी भी तरह यह आजादी उनकी नहीं बन सकती और न वास्तविक तथा प्रभावशाली बनाई जाने के लिए उनके दैनिक जीवन में इसका प्रयोग ही हो सकता है। खोखली राजनीतिक स्वतंत्रता न तो किसानों का और न संयुक्त किसान-सभा का ही लक्ष्य है। स्वभावत: ही यह स्वयमेव लक्ष्य बनने लायक किसी भी तरह नहीं है। यह तो एक लक्ष्य का साधन मात्र है और वह लक्ष्य है समाज में मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का निर्मूलन और इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सर्वांगीण विकास एवं पूर्ण उन्नति के सभी साधनों को उसके लिए सुलभ बनाना।
24. महामना लेनिन के शब्दों में अंधविश्वास एक ऐसा बध्दमूल तथा पुराना रोग है जिसने जन समूह को ग्रस रखा है। यह एक नियम सा है कि जनसाधारण मध्यम वर्गीयों के नेतृत्व एवं संगठन में इसलिए विश्वास करते हैं कि वे मध्यवर्गीय देश के लिए कष्ट सहते हैं। यही कारण है कि इनकी लंबी डींगों तथा नकली आँसुओं, जिन्हें ये यह कह कर बहाते हैं कि उफ, जनता कितनी मुसीबतों एवं विपदाओं में पड़ी कराह रही है, के करते ये जनसाधारण ठगे जाते हैं। ये जन समूह एक क्षण के लिए भी यह सोचने-विचारने तथा विश्लेषण का कष्ट नहीं करते कि आखिर ये नेता किस वर्ग के हैं, उनकी संस्था भी किस श्रेणी की है और उनका मेलजोल किस आर्थिक वर्ग के साथ है; हालाँकि यह ठोस बात है कि हरेक व्यक्ति किसी-न-किसी वर्ग के स्वार्थ का प्रतिनिधित्व करता ही और इसीलिए उसकी रक्षा के लिए संगठन भी बनाता ही है, और कोई भी शख्स न तो तटस्थ रह सकता और न एक से अधिक आर्थिक वर्गों के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हकीकत तो यह है ─कितना अनर्थ है ─कि जनता इस विश्लेषण-विवेचन की जरूरत महसूस करती ही नहीं। प्रत्युत अपनी नादानी से उसकी यह धारणा होती है कि ये सभी लोग एवं संगठन ऐसे हो सकते हैं जो न तो उसमें से हैं और न उसके अपने हैं; फिर भी उसका प्रतिनिधित्व एवं उसके स्वार्थों की रक्षा कर सकते हैं! किसानों तथा मजूरों की जो कानूनी लूट अविराम चालू है और फलस्वरूप उन पर जो विपदाएँ आती रहती हैं उनके मूल में यही भयंकर अनर्थकारी नादानी और अंधविश्वास है। उनकी इस बीमारी को हटाना होगा और सिर्फ वर्ग संघर्ष ही इसकी रामबाण दवा है।
25. इसके सिवाय जिन परिस्थितियों एवं भौतिक दशाओं में वह रहता है उनके चलते और स्वभाव से भी किसान व्यक्तिवादी होता है और सदा डेढ़ चावल की अपनी खिचड़ी ही पकाता रहता है। महाशय बुखारिन के शब्दों में वह एक श्रेणी के रूप में ''अपने नन्हें से खेत से आगे देख सकता ही नहीं।'' यदि हम चाहते हैं कि दृढ़ता के साथ आसन जमाए बैठे स्थिर स्वार्थों पर सुसंयोजित तथा सुसंगठित आक्रमण कर के उसे विजयी बनाएँ तो आवश्यक रूप में किसानों की व्यक्तिवादिता और इसे अलग ही रहने की मनोवृत्ति को निर्मूल करना ही होगा। एतदर्थ किसान समुदाय में वर्ग भावना लानी होगी जिसे वर्ग संघर्ष आसानी से पैदा कर देगा।
26. सरकार के संबंध में साधारण मनुष्यों का खयाल है कि विशुध्द न्याय तथा उचित व्यवहार के लिए बनी यह एक तटस्थ संस्था है। इसीलिए उन्हें यह विश्वास रहता है कि सरकार उनके साथ न्याय करेगी ही। लेकिन सत्य तो इसके विपरीत है। पूँजीवादी अथवा सामंत वादी समाज की सरकार शोषक दल के द्वारा चालाकी से तैयार किया गया ऐसा यंत्र है जो धान पैदा करने वालों को दबाकर सदा मातहती में रखे, जिससे वे उस दल का कुछ बिगाड़ न सके। किसानों एवं जनसाधारण के भीतर सरकार के संबंध में जो यह भ्रांत धारणा है वह उन्हें व्यक्तिवादी तथा अलग ही रहनेवाले बना देती है। इसीलिए जरूरत है कि वर्ग-संघर्ष के द्वारा वह उनके दिमाग से निकाल दी जाए। ये वर्ग संघर्ष सरकार को विवश करते हैं कि उसका बुर्का उतर जाए, वह शोषकों का खुल के पक्ष ले और इस प्रकार अपना श्रेणी समर्थक रूप प्रकट कर के जनता को झलका दे कि उसकी असलियत क्या है।
27. इसके अलावा ये वर्ग संघर्ष किसानों तथा मिहनतकश जनता को विवश करते हैं कि वह महसूस करे कि उनकी अकर्मण्यता एवं व्यक्तिवादिता में कितने बड़े खतरे हैं। पीड़ित जनता को विभिन्न स्तरों के बीच सहयोग की जो नितांत आवश्यकता है उसे भी ये संघर्ष महसूस करवाते हैं जो बात दूसरी तरह हो नहीं सकती। यही तरीका है जिससे इन पीड़ितों का जबर्दस्त संयुक्त मोर्चा बनाया जा सकता है।
किसानों के दावे का खरीता
28. परंतु वह संघर्ष और वह युध्द किसानों की खास जरूरतों एवं दावों-माँगों पर आधारित होना चाहिए। इसलिए उसी दृष्टि से किसानों के दावों का निम्नलिखित खरीते स्वीकृत किए जाते हैं। प्रांतीय संयुक्त किसान-सभाओं को हक होगा कि अपनी स्थानीय आवश्यकताओं के दावों को भी इनमें जोड़ दें ─
(1) क्योंकि जमींदारी (यू.पी., उत्कल, बंगाल, बिहार, मद्रास, आसाम) तालुकेदारी (यू. पी., गुजरात), मालगुजारी (मध्य प्रांत), इस्तिमरारदारी (अजमेर,) खोती (दक्षिण), जन्मी (मालाबार), इनामदारी, पबाईदारी, जागीरदारी, आदि वर्तमान प्रथाएँ मध्यवर्तियों (जो खुद खेती नहीं करते) के हाथों में बहुत अधिक जमीनों का स्वामित्व लगान की भारी रकम की वसूली तथा उसके उपभोग का अधिकार देती हैं ─उन्हीं मधर्यवत्तियों के हाथों में जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत में बनाया और पाला-पोसा और इसीलिए ये प्रथाएँ किसानों के लिए अन्यायपूर्ण, अनुचित, भार तथा उत्पीड़क हैं, भूमि की पूरी पैदावार एवं तन्मूलक राष्ट्रीय संपत्ति की वृध्दि के मार्ग में रोड़े हैं और इसी के साथ-साथ पूर्ण आर्थिक तथा राजनीतिक प्रगति में मुल्क के लिए जबर्दस्त बाधा स्वरूप है; साथ ही ये जमींदार वगैरा बहुत ही खतरनाक जोंक हैं जो करोड़ों किसानों से अत्यधिक लगान लेने और उन्हें सताने के साथ-साथ सिंचाई के साधनों को दुरुस्त नहीं रखते तथा खेती में सहायता देने या उपज बढ़ाने के लिए भी कुछ नहीं करते; इसलिए जमींदारी की ये सभी प्रथाएँ तथा जमीन के ऊपर जो भी मध्यवर्ती स्वार्थ हैं सबके सब बिना मुआविजा दिए ही फौरन मिटा दिए जाएँगे, सभी जमीनों पर असली एवं जोतने कोड़नेवालों का अधिकार होगा और उन्हें क्रमिक वृध्दिशील कृषि आयकर देना पड़ेगा।
(2) क्योंकि मालगुजारी वसूली एवं जमीन के बंदोबस्त के वर्तमान तरीके जिन्हें सरकार के रैयतवारी इलाकों में जारी कर रखा है, अत्यंत उत्पीड़क तथा परेशान करनेवाले सिध्द हो चुके हैं, जिनके चलते किसानों की दरिद्रता बढ़ती जा रही है, इसीलिए ये सभी तरीके तथा वसूलियाँ फौरन उठा दी जाएँगी और उनकी जगह क्रमिक वृध्दिशील कृषि आयकर चालू होगा जो पाँच प्राणियों तक के खानदान पर सालाना 1200/- या अधिक आय पर ही लगेगा।
(3) क्योंकि गाँवों में प्रचलित उत्पीड़क ऋणग्रस्तता एवं अत्यधिक सूद के दर के चलते किसान निर्दयतापूर्वक सताए तथा ऋण भार से बहुत ही दबाये जाते हैं; क्योंकि अधिकांश किसानों की जमीनें या तो दूरवर्त्ती (काश्त न करनेवाले) जमींदारों साहूकारों या शहरी शोषक वर्गों के हाथों में चली जा चुकीं या धीरे-धीरे चली जा रही हैं। और क्योंकि सरकार, उसकी जाब्ता दीवानी तथा कचहरियाँ हमेशा सूदखोरों की मददगार बन कर किसानों को तबाह करती आ रही हैं; इसलिए पुराने ऋणों तथा उनके सूदों की जवाबदेही से किसान फौरन पूर्ण मुक्त किए जाएँगे एवं किसानों की चालू जरूरतों के लिए सस्ते दर पर कृषि-ऋण की व्यवस्था सरकार चटपट करेगी।
(4) क्योंकि भूमिहीन किसानों, खेत-मजूरों तथा ऐसे लोगों को, जिनके पास पाँच प्राणियों के परिवार के वास्ते उत्ताम, मध्यम या निकृष्ट जमीनें 10 से लगायत 25 एकड़ से कम है, खेती के लिए जमीन दी जाएगी, जिसमें वे भरसक पंचायती खेती करेंगे; लेकिन जिसे बेच न सकेंगे, और क्योंकि कुल कृषियोग्य एवं बंजर जमीनों का आधा किसानों के पास न हो कर सरकार और जमींदारों के हाथ में है; इसलिए ऐसी सभी जमीनें कृषियोग्य बना कर उक्त किसानों एवं मजूरों को दे दी जाएगी।
(5) मालगुजारी तथा लगान का सभी बकाया रद्द होगा और सेल्स टैक्स फौरन उठाया जाएगा।
(6) सभी अलाभकर जमीनों का लगान, मालगुजारी तथा भावली (उपज के रूप में) लगान खत्म हो जाएगा।
(7) जब तक वर्तमान लगान तथा मालगुजारी की प्रथा का स्थान क्रमिक वृध्दिशील कृषि-आयकर नहीं ले लेता तब तक कोई जमींदार किसी भी दशा में उस रकम से ज्यादा लगान न ले सकेगा जो वैसी ही भूमि के लिए पड़ोसी प्रांतों या जिलों के रैयतवारी किसान सरकार को देते हैं। जो रैयत दखिलकार या जमीन के स्वामी हैं उनके अधीनस्थ किसानों को सुविधा दिलाने, उनके हकों को निश्चित करने तथा उनकी रक्षा के लिए उचित काश्तकारी कानून बनेंगे।
(8) जमींदार, तालुकेदार, ईमानदार, मालगुजार, इस्तिमरारदार, जन्मी, खोत तथा दूसरे मध्यवर्तियों की सीर, खास या बकाश्त जमीनों को दरअसल जोतने वाले सभी रैयतों को उन जमीनों पर खेतों का दवामी (सनातन) हक फौरन दिया जाएगा। हाँ, उन जमीनों को वे हस्तांतरित न कर सकेंगे। यदि इन जमीनों के हक के बारे में तकरार हो तो वह किसानों और रैयतों का ही माना जाएगा।
(9) जमींदारों के सभी रैयतों तथा रैयतवारी के रैयतों को लगान माफी का हक तुरंत मिलेगा अगर फसल मारी जाए। जहाँ जमींदार या मध्यवर्ती पाए जाते हैं सर्वत्र जमीनों को पुन: बंदोबस्ती, लगान या मालगुजारी की सभी तरह की वृध्दि तथा सर्वेसेटलमेंट को सरकार रोक देगी।
(10) जमींदारों तथा पूँजीपतियों की खेती संबंध एवं अन्य आय पर चटपट क्रमिक वृध्दिशील आयकर, मृत्यु कर एवं उत्ताराधिकार कर लगाए जाएँगे।
(11) सभी तरह की सामंती एवं परंपरा प्राप्त वसूलियाँ, बलात्, कम पैसा दे कर या बिना पैसा दिए काम कराना, जिसमें बेगार तथा गैरकानूनी वसूलियाँ भी शामिल हैं, उठा दी जाएँगी और दंडनीय होंगी।
(12) ऋण, लगान या मालगुजारी न दे सकने की दशा में किसान गिरफ्तारी या कैद से फौरन ही बरी किया जाएगा।
(13) सभी कामचलाऊ होल्डिंग (जमीन के तख्ते), पशुशालाएँ, निवास-स्थान, घरेलू चीजें, दुधार एवं अन्य पशु, खेती के औजार तथा साधन अदालती डिग्री या लगान एवं मालगुजारी की वसूली के लिए कुर्क न होंगे-ऐसा ऐलान फौरन कर के उस पर अमल होगा।
(14) सूदखोरों के सूद का दर दो रुपये सैकड़ा सालाना से ज्यादा न होगा और चक्रवृध्दि ब्याज गैर कानूनी होगी। सभी सूदखोरों को लाइसेन्स लेना होगा; सरकार समय-समय पर उनके बही खतों को जाँचेगी और बेकायदगी या जाल होने पर ऐसी सजा दी जाएगी जो आदत छुड़ा दे।
(15) 20 साल या अधिक मुद्दत के लिए सरकारी, सहयोग समितियों के या भूमिबंधकी बैंकों के द्वारा अधिक से अधिक दो रुपए सैकड़ा सालाना सादे सूद पर कर्ज दिया जाएगा और सर्वत्र भूमिबंधकी बैंक जल्द चालू होंगे।
(16) खेती संबंध चीजों की आवाजाही का तथा थर्ड क्लास का किराया घटाया जाएगा। सड़कों एवं नहरों के जरिए आवाजाही का प्रसार शीघ्र होगा।
(17) किरासन तेल, चीनी, तंबाकू, दियासलाई आदि पर जो चुंगी (अप्रत्यक्ष) कर है वे फौरन उठाए जाएँगे। देहातों में कारखाने की बनी चीजों, कपड़े चीनी, नमक, लोहा, सीमेंट कोयला, किरासन तेल आदि के नियंत्रित दाम पर मिलने का पूरा-पूरा तथा उचित प्रबंध होगा।
(18) फौरन ही लिफाफे का दाम दो पैसे और पोस्टकार्ड का एक पैसा कर दिया जाएगा।
(19) विनिमय एवं मुद्रानीति में आवश्यक हेर-फेर कर के या अन्य प्रकार से खेती की पैदाबार का मूल्य एक उचित दर पर पक्का कर के जारी होगा और कायम रखा जाएगा।
(20) किसानों तथा मजूरों को पूर्ण और निरवाध सुरक्षित हक होगा कि खेती-गिरस्ती और जीविका के लिए, चरने को घास, लकड़ी, ईंधन, पत्थर और बालू आदि पहाड़ी एवं जंगली चीजों का उपयोग करें। चराई का कर उठा दिया जाएगा। चराई एवं जंगल की लकड़ियों के बँटवारे का प्रबंध ग्राम पंचायत के हाथ में होगा। जंगल के तालाब, नदियाँ आदि सब किसानों तथा उनके पशुओं के लिए खुली होंगी। जंगली जानवरों से अपनी-अपनी फसलों तथा पशुओं की रक्षा के लिए किसानों को बंदूक आदि रखने का लाइसेन्स होगा। ऐसे जानवरों को मारने पर उन पर केसन चलेगा और अगर इसके लिए कोई जमींदार निजी तौर पर दंड दे तो उसे सजा मिलेगी।
(21) सभी प्रकार की सार्वजनिक जमीनों, चाहे जैसे भी उनका श्रीगणेश हुआ हो, तथा गोचर भूमि का प्रबंध ग्राम पंचायतें करेंगी।
(22) किसी किसान परिवार के पास 50 एकड़ से ज्यादा जमीन न रहने दी जाएगी।
(23) जमींदारों तथा मध्यवर्तियों के पास की 50 एकड़ से ज्यादा जमीन छीन कर भूमिहीन किसानों को दी जाएगी। ऐसे लोगों को भी जिनके पास 5 प्राणियों के परिवार के लिए 10 एकड़ से कम है यह जमीन दी जाएगी, ताकि उनके पास अपनी खेती के लिए 25 एकड़ तक हो जाए।
(24) जमींदारीं से छिनी भूमि का एक भाग सरकारी साहाय्य से सम्मिलित खेती के लिए रख छोड़ा जाएगा जहाँ दीन किसान एवं भूमिहीन मजूर उस खेती के लिए बसाए जाएँगे।
(25) किसानों के हकों को उनकी संघशक्ति के जरिए सुरक्षित रखने के 'किसान संघ' कानून बनेगा।
(26) सभी खेत-मजूरों के लिए भरण पोषण योग्य मजूरी की निश्चित व्यवस्था होगी तथा मजूरों की क्षतिपूर्ति का कानून उनके लिए भी लागू होगा।
(27) खेत-मजूरों, गाँव के गरीबों एवं शिकमी किसानों की अपने वास की भूमि से दूनी पर, जिसमें वासभूमि भी शामिल हो, कायमी हक बिना लगान के होगा।
(28) खानों के इलाकों में किसानों को सतह (ऊपर) की भूमि पर खेती का स्थायी हक होगा और जब तक उन्हें वैसी ही सुविधा अन्यत्र नहीं दी जाती वे वहाँ से हटाए न जाएँगे।
(29) गाँवों की जो कम-से-कम आधी जनसंख्या खेती में आज ही नहीं खप सकती, उद्योग-धंधों में लगाई जाएगी। इसी दृष्टि से राष्ट्र की अधीनता में मुस्तैदी से उद्योग-धंधों के विस्तार की सयिनीति सरकार अपनाएगी जिसमें खयाल रखा जाएगा कि उद्योग धंधों की अनुकूल स्थापना यत्र-तत्र हो और पिछड़े इलाकों का खास खयाल रख जाए।
(30) प्रांतीय एवं केंद्रीय करों का बँटवारा सरकार इस प्रकार करेगी कि अलग-अलग या दोनों को मिला कर तीन चौथाई कर का भार धनिक वर्ग पर हो।खर्च का प्रबंध भी ऐसा होगा कि तीन चौथाई खर्च मजूरों एवं किसानों के हितार्थ हो।
(31) चीनी के संरक्षण कानून से किसान पूर्ण लाभ उठाएँ इसी विचार से गन्ने (ऊख) का कम-से-कम उचित मूल्य निधर्रण सरकार के लिए अनिवार्य होगा जो क्रमिक वृध्दिशील होगा। इसी प्रकार जूट, रुई, नारियल तथा अन्य किराना (व्यापारिक) चीजों के उपजानेवालों के लिए भी लाभकारी मूल्य तय करके सरकार उनकी पूर्ण रक्षा करेगी।
(32) सहकारी तथा सरकारी क्रय-विक्रय का प्रसार सरकार करेगी और इस तरह मध्यवर्तियों के हाथों किसानों का शोषण मिटाएगी।
(33) बनियों के द्वारा सभी तरह की धर्मादा वसूलियाँ दंडनीय होंगी और इस मद में जो भी धन मौजूद हो किसान-सभाओं के हवाले कर दिया जाएगा।
(34) सरकार खेती तथा कल-कारखानों में उत्पन्न वस्तुओं के मूल्य में पारस्परिक सामंजस्य रखेगी।
(35) अकाल से किसानों के रक्षार्थ सरकार सिंचाई एवं जल निकास का प्रसार करेगी, किसानों को आपदाओं से बचाने के लिए अन्य उपाय भी करेगी तथा ऐसे इलाकों के लिए 'जलाशय जीर्णोध्दार निधि' की स्थापना करेगी जिससे ठीक समय पर सिंचाई के साधनों एवं जलशियों की मरम्मत और प्रगति की जाए।
(36) सरकार बाग-बगीचों एवं कम जमीनों में अधिक उत्पादन का प्रसार करेगी तथा किसानों को सस्ते परीक्षित बीज देगी। वह उपयोगी खादें देगी, खेती के नवीनतम प्रकारों का प्रचार करेगी और संयुक्त किसान-सभा के सहयोग तथा परामर्श से अपने खेती और व्यापार संबंधी कामों को चलाएगी।
(37) सरकार किसानों के लिए पशु बीमा, अग्नि बीमा तथा स्वास्थ्य बीमा का उपाय करेगी।
(38) गाँवों के नागरिक कामों के प्रबंध के लिए ग्राम पंचायतों की स्थापना होगी जिनके जिम्मे सिंचाई के पानी एवं जंगल की जरूरी चीजों के प्रबंध का भार रहेगा। गल्ले आदि की वसूली सरकार इन्हीं पंचायतों के सहयोग से करेगी।
(39) शारदा कानून जैसे मामलों में सरकार किसान संस्थाओं को अधिकार देगी कि उन सभी अफसरों तथा विशेषत: सार्वजनिक कार्य विभाग, आबकारी विभाग, माल-महकमे, रेलवे और पुलिस महकमे वालों को, जो किसान मजूरों से घूस लेते हैं, दुरुस्त करें। साथ ही जिन किसान मजदूरों को दबा कर घूस वसूला जाता है उन्हें दंड से मुक्त करेगी।
(40) किसानों के लिए भी दिवालिया कानून मुस्तैदी से पास होगा।
(41) राष्ट्र की सभी चुनी संस्थाओं के लिए बालिगम ताधिकार एवं प्रत्यक्ष, सीधो तथा गुप्त मतदान की व्यवस्था होगी।
(42) भारतीय संघ के सभी किसान विरोधी, मजूर विरोधी तथा जनतंत्र विरोधी कानून, फरमान और नियम-कायदे फौरन हटा दिए जाएँगे और सभी किसान एवं मजूर कैदी, चाहे दंड प्राप्त या नजरबंद हों, फौरन रिहा होंगे।
(43) सभी किसानों की जो जमीनें एवं संपत्तियाँ सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आंदोलनों में भाग लेने से या उनकी शक्ति के बाहर के कारणों के चलते लगान या मालगुजारी न दे सकने के कारण जब्त कर ली गई हैं उन्हें वापस दे दी जाएँगी।
(44) मैट्रिकुलेशन तक की बच्चे-बच्चियों को शिक्षा फौरन अनिवार्य एवं मुफ्त कर दी जाएगी, ऊँची शिक्षा किसानों के लिए सुलभ बनाई जाएगी, मुस्तैदी से गाँवों में दवा-दारू एवं सफाई की सहायता पहुँचाने का तथा पीने के पानी का काफी प्रबंध होगा और राष्ट्रीयगृह निर्माण संबंधी नीति को सरकार चटपट अपनाएगी।
(45) सरकार किसानों को हर्बा हथियार रखने का अधिकार देगी।
(46) स्थानीय, म्युनिसिपल, व्यवस्थापक तथा अन्य सभी सार्वजनिक संस्थाओं के मेंबरों की नामजदगी फौरन उठा दी जाएगी।
नोट-अंग्रेजों के 'अनेकोनोमिक होल्डिंग' का अर्थ 'अलाभकर भूमि' किया है। जिस भूमि पर किसान परिवार के पूर्ण परिश्रम के बाद भी उसके भरण-पोषण से ज्यादा उपज न हो वह 'अनेकोनोमिक' कही जाती है। विपरीत उसके 'एकोनोमिक' है, जिसे 'लाभकर' कहते हैं।
5 प्राणियों के लिए क्रमश: कम उपजाऊ 10, 15, 20, 25 एकड़ भूमि 'एकोनोमिक' मानी जाती है। 'एकोनोमिक' की दूनी से ज्यादा जमीन किसी के पास न रहने पाएगी। पूर्व की 22, 23 धाराओं का यही आशय है।