(1)
शास्त्रों का अध्ययन
अपारनाथ मठ में ही संस्कृत पाठशाला थी। उसमें व्याकरण, न्याय, वेदांतादि सभी विषयों की पढ़ाई होती थी। हमने सोचा कि बिना व्याकरण अच्छी तरह पढ़े दर्शनों के पढ़ने में मजा न आएगा। इसलिए उसे ही शुरू करने का निर्णय किया। सो भी लघुसिद्धांत कौमुदी तो कुछ पढ़ी चुके थे। संस्कृत का बोध भी अच्छा था। इसलिए सिद्धांत कौमुदी आरंभ किया। उस समय श्री हरिनारायण त्रिपाठी उपनाम तिवारी जी की ख्याति कौमुदी पढ़ाने में काशी में सर्वोपरि थी। सौभाग्यवश अपारनाथ में वही पढ़ाते थे। फिर तो सोने में सुगंध मिली और हमने खूब मनोयोगपूर्वक उसे पढ़ना शुरू किया। उसकी फक्किकाओं और कठिन स्थलों को हृदयंगम किया। उसके कई पाठ वहाँ होते थे। मैं सभी सुनता था और जो बातें तिवारी जी बताते थे एक-एक कर के सभी लिख लेता था डेरे पर जा कर। इस प्रकार एक लंबा और मोटा नोटबुक तैयार हो गया। वह छात्रों के बहुत ही काम का था। पीछे एक छात्रा ने ही अपने अभ्यास के लिए उसे लिया और मैं उससे वापस लेना भूल गया। फलत: वह नोटबुक गायब हो गया। नहीं तो सिद्धांत कौमुदी की वह सुंदर टीका होती और छपा दी जाती।
सन 1911 ई. के मध्य तक मैंने सिद्धांत कौमुदी पढ़ डाली। लोग कहा करते हैं कि कौमुदी पढ़ने के लिए तो बारह वर्ष का समय चाहिए। छ: वर्ष तो आम तौर से लोग लगाते ही थे। यों पढ़ लेना तो उतना कठिन नहीं। मगर काशी में उसकी पढ़ाई की जो रीति है और विशेष कर तिवारी जी जिस प्रकार उसे पढ़ाते थे उसमें तो ज्यादा समय लगना स्वाभाविक था। पोथी भी तो बहुत बड़ी है। मगर उसके रोज कई पाठ पढ़ने के फलस्वरूप मैंने प्राय: ढाई वर्ष में ही उसे पूरा कर डाला। निस्संदेह तिवारी जी उसकी हर-बात की तहों को खोल देते थे। फलत: सैकड़ों छात्रा सिर्फ उसी का पाठ सुनने के लिए उनके पास जमा हो जाया करते थे।
लेकिन यह नहीं कि मैं केवल कौमुदी के ही पाठ से संतुष्ट रहता। थोड़े ही दिनों के बाद न्याय का भी पाठ आरंभ कर दिया। दोनों साथ-साथ चलने लगे। आगे चल कर जब सिद्धांत कौमुदी के बाद शब्देंदु शेखर, परिभाषेंदु शेखर आदि के पाठ चलने लगे और फिर भूषण, मंजूषा, महाभाष्य का समय भी आया, तो ईधर सांख्य, मीमांसा, वेदांत, योग आदि दर्शनों के भी पाठ मैंने साथ ही शुरू कर दिए। इतना ही नहीं। दिन में समय बचने पर साथ पढ़नेवालों और दूसरों को कौमुदी आदि पढ़ाता भी था। मैंने देखा कि जो मुझसे पूर्व बहुत वर्षों से सिद्धांत कौमुदी पढ़ रहे थे, वही मुझसे भी उसे ही पढ़ने आते थे! मैंने तय कर लिया कि पाँच-सात वर्षों के भीतर दर्शनों का पूरा मंथन कर लेना चाहिए। इसीलिए दिन-रात लगा रहता था। अपने पाठों का अभ्यास दिन में तो कर सकता न था। क्योंकि कई पाठों के पढ़ने और दूसरों को पढ़ाने में ही सारा दिन गुजर जाता था। इसलिए रात में अभ्यास करता था। उस समय नींद न सता सके, इसीलिए समय बचा कर दिन में ही थोड़ा सो लिया करता था। तभी से दिन में सोने की मेरी आदत कुछ ऐसी हो गई कि आज तक छूटी ही नहीं। हालत यह है कि यदि दिन में थोड़ी देर भी न सोऊँ तो दिमाग में बहुत गर्मी सी बनी रहती है और एक प्रकार की सुस्ती तथा बेचैनी मालूम पड़ती है। बारहों महीने दिन में भोजन के बाद जरूर सो लेता हूँ। दिन में सोने को आयुर्वेदवाले बुरा बताते हैं। मगर मेरी तो उलटी गंगा बहती है। शायद पित्त प्रकृतिवालों को दिन में सोना हानिकारक न हो। वरन लाभकारी होता है, ऐसी भी बात है। चाहे जो हो, अनुभव से ही मैं कह सकता हूँ कि दिन की इस संक्षिप्त निद्रा से मुझे तो सदा लाभ ही हुआ है।
(2)
स्वभाव , बाधाएँ और मधुकरी
मेरा तो कुछ ऐसा स्वभाव ही रहा है कि एकांत में रहूँ और दिन-रात के भीड़-भक्कड़ से बचूँ। अधिक-से-अधिक कुछ समय तक ही भीड़ चाहिए। मगर दिन-रात नहीं। एक बात और। पहले तो समझता था कि संन्यासी लोग महात्मा ही होते हैं। मगर पीछे निकट से देखा कि उनमें भी वही संसार है। पुत्र के स्थान पर चेले, परिवार की जगह गुरुभाई, साथी और भक्तजन, मकान की जगह मठ नहीं तो कुटिया─ये चीजें उन्हें परेशान किए रहती हैं। रुपया-पैसा एकत्र करने की फिक्र भी कम नहीं रहती। प्रत्युत मठ बनने पर तो यह चिंता गृहस्थों की अपेक्षा भी बढ़ जाती है। अंतर इतना ही रहता है कि वेदांत के ब्रह्मज्ञान की भागीरथी की धारा में स्नान कर लेने के कारण नरक और यम यातना की चिंता उन्हें नहीं रहती। वे साँड़ की तरह निश्चिंत विचरते रहते हैं। मरने पर गृहस्थों की ही तरह उनके भी कोई-न-कोई मरणोत्तर संस्कार और भोज (भंडारे) होते ही हैं। इन सब बातों को देख कर मैं ऊबा। अपारनाथ में दूसरी बाधाएँ एवं नियंत्रण भी थे। फलत: कुछी दिनों बाद मैं एक अलग स्थान में स्वतंत्र रूप से रहने लगा। वहाँ भीड़ कम थी, स्वतंत्रता थी और निराश्रय संन्यासी ही रहते थे, जो इच्छानुसार चले भी जाते थे। पीछे तो वहाँ भी रहना असंभव हो गया और एक रुपया किराए का एक मकान ले कर ललिताघाट के ऊपर फूटे गणेश मुहल्ले में फूटे गणेश के ऊपरवाले छोटे से कमरे में रहने लगा। वहीं तो एक बार नीचे गिर जाने से मेरी टाँग टूटी। इसका उल्लेख आगे होगा।
अपारनाथ में रहने के समय तो क्षेत्रों में ही भिक्षा (भोजन) करता था। लेकिन वहाँ से हटने पर मैंने मधुकरी वृत्ति का आश्रय लिया। मगर वह भी कुछ दिन तक चल कर फूटे गणेश पर आने के बाद बंद हो गई। फिर कुछ चुने-चुनाए ब्राह्मण गृहस्थों के घर भोजन करना शुरू किया। यह अंत तक चलता रहा। संन्यासियों के लिए मधुकरी भिक्षा सर्वोत्तम मानी गई।
जैसे मधु कर (भ्रमर) अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ले कर अपना काम चलाता है। इससे फूलों की क्षति जरा भी होने नहीं पाती, यहाँ तक कि मालूम भी नहीं पड़ता कि उनसे रस लिया गया है। ठीक उसी प्रकार अनेक गृहस्थों के घर से एक-एक रोटी या थोड़ा-थोड़ा पका-पकाया भोजन ले कर अपना काम चला लेने को मधुकरी वृत्ति कहते हैं। काशी में प्राय: अनेक संन्यासी और गैरिक वस्त्रधारी ऐसा बराबर करते आए हैं। मकान के पास जा कर 'नारायण हरे' कहते ही गृहस्थ समझ जाते और रोटी, भात, दाल, साग कुछ-न-कुछ दे जाते हैं। जिन महल्लों में बराबर ऐसा होता आया है वहीं पर इसमें आसानी होती है। इसमें कई प्रकार के पदार्थ मिल जाते और खाने में भी मजा आता है। बहुत साधु लोग तो भीषण वैराग्य की बदहजमी मिटाने के लिए मधुकरी का अन्न जमा करने के बाद जिस झोले में वह रहता है उसे ही गंगा में डुबो कर निकाल लेते हैं। फिर खाते हैं। इससे अन्न में स्वाद नहीं रह जाता। फलत: जिह्वा चसकने नहीं पाती। लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं किया।
संन्यासियों की दो पाठशालाएँ थीं ─एक अपारनाथ में और दूसरी टेढ़ी नीम मुहल्ले में। उनके दो दलों की प्रतिद्वंदता से ही यह बात हुई थी। असल में दसनामी संन्यासियों में, जो दंडी नहीं होते हैं, यह प्रणाली है कि कुछ लोग पढ़-लिख के एक दल कुछ साधुओं और पंडितों का बना लेते हैं और अपने आप उसके अधिष्ठाता बन के जहाँ-तहाँ घूमते तथा पुजवाते फिरते हैं। उस दल को मंडली और उन्हें मंडलीश्वर कहते हैं। ऐसे दो मंडलीश्वर बन गए थे। उनकी आपस में होड़ चली थी। इसी से दो पाठशालाएँ थीं। उनमें उनका अपना-अपना आधिपत्य चलता था। वहाँ रहने और पढ़नेवालों को भी कभी-कभी उनके पास जा कर विधिवत अभिवादन आदि करना पड़ता था।
मैं पहले एक में पीछे दूसरी में पढ़ता रहा। लेकिन यह सब शिष्टाचार मुझसे निभ नहीं सकता था। मैं क्यों ऐसा करने लगा?उन मंडलीश्वरों को तो मैं एक प्रकार से पतित और पथभ्रष्ट समझता। संन्यासी बन कर इस प्रपंच और धन संग्रह से, इस ठाटबाठ से क्या मतलब?फलस्वरूप पहले अपारनाथ में बाधा आई तो उसे छोड़ा। पीछे दूसरी में भी, जो पीछे से खुली थी, बाधा देख उसे भी त्यागा। फिर तो यों ही पंडितों के घर जा-जा कर पढ़ा करता था।
कुछ दिनों के बाद मैंने यह समझा कि ब्राह्मण को तो दंडग्रहण करना आवश्यक है। दंडग्रहण किए (दंडी बने) बिना संन्यासी होई नहीं सकता। कारण, धर्मशास्त्रों की यही आज्ञा है जो मैंने स्वयमेव बार-बार पढ़ी थी। इसलिए मैंने श्री दंडी स्वामी अद्वैतानंद जी सरस्वती महाराज के चरणों में जा कर फिर से संन्यास की संक्षिप्त विधि के अनुसार दंड धारण कर लिया और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्धि पाई। इस बात से दसनामी साधु लोगों से और भी तनाव हो गया। फलत: उनकी पाठशालाएँ मुझे छोड़नी पड़ीं। इस दंडी ग्रहण का हाल आगे मिलेगा। इसलिए भी अलग मकान ले कर रहने की नौबत आई।
(3)
अग्नि परीक्षा
संस्कृत पढ़ने के दिनों में मेरी जो अग्नि परीक्षा हुई और उसमें जो मैं पूर्णतया उत्तीर्ण हुआ उसका मुझे अभिमान है। मैं मानता हूँ कि बाधाएँ मुझे विचलित नहीं कर सकती है, यदि मैं किसी काम के लिए दृढ़ संकल्प कर लूँ। वेद, वेदांग और दर्शनों को मथ डालने का तो मैंने संकल्प कर ही लिया था। उसी बीच पूर्वोक्त बाधाएँ आई। उनका सामना करता रहा।
बीच-बीच में खुश्की हो जाती और सिर में दर्द होने लगता। असल में काशी के जलवायु का यह दोष है कि वह खुश्क है, खास कर गंगा जी का जल। इसीलिए बहुत से लोग सुबह-शाम बाहर चले जाते और कुएँ का जल पिया करते हैं। इससे खुश्की से बचते हैं। मगर मुझे तो दम मारने की फुर्सत न थी। फिर बाहर कई मील दूर जाता कैसे?यह भी बात थी कि एक बार रूखा-सूखा खाने से और मस्तिष्क का काम ज्यादा करने से खुश्की सताया करती थी। काशी में पढ़नेवाले ही इस रोग के शिकार प्राय: होते हैं और सूखी खाँसी में फँस जाते हैं। मेरी भी यही हालत कभी-कभी हो जाती थी। पर, करता क्या?भोगता रहता और पढ़ने में डँटा था।
आखिर एक पंजाबी 'अवधूत' जी कहे जानेवाले विरक्त और केवल लँगोटीधारी साधु ने मेरे लिए काशी के ही एक वैश्य को कह के शाम के लिए दूध का प्रबंध करवा दिया। वही खुश्की से बचानेवाला हो गया।'अवधूत' जी सिर्फ एक लँगोटी रखते, शहर से बाहर गंगा पार में रहते और जाड़े में एक मामूली चादर रखते थे। मैंने उन्हें बराबर ऐसा ही देखा। लगातार बहुत वर्षों तक कोई लोभ-लालच या चसका उनमें कभी न पाया। दिन में शहर आ जाते और कुछ सज्जनों के यहाँ और कभी मेरे यहाँ बैठ कर शाम को चले जाते। एक सच्चे साधु को मैंने माने गाँव में पाया था और दूसरे ये थे। इन्हें मैं भूल नहीं सकता।
गर्मियों के दिनों में मैं रहता फूटेगणेश पर, भोजन करता सरायगोवर्धन मुहल्ले में दोपहर को, जो वहाँ से एक मील से कम नहीं और फिर लौट कर थोड़ी देर बाद एक मील पर बंगाली टोले के आगे सोनारपुरा में न्याय पढ़ने जाता था। यह मेरी दिनचर्या न जाने कितने दिनों तक रही। दूसरे-दूसरे पंडितों के घर पाठशालाओं में भी पढ़ने जाना पड़ता था। लेकिन इसमें आनंद आता था।
मुझे नव्यन्याय के दो अच्छे पंडितों से काशी में और एक तीसरे से मिथिला में काम पड़ा था। तीनों ही अपने ढंग के निराले थे। एक थे बंगाली श्री शंकर भट्टाचार्य दूसरे थे मैथिल श्री जीवनाथ मिश्र। तीसरे पंडित श्री बालकृष्ण मिश्र दरभंगे में मिले थे। कुछ दिन उनसे भी बाधा, सत्प्रतिपक्ष आदि नवीन न्याय के ग्रंथ मैंने पढ़े थे। ऐसे तो औरों से भी काम पड़ा था। मगर इन तीनों ने मुझे बहुत आकृष्ट किया। ज्यादा ग्रंथ तो मैंने भट्टाचार्य जी से ही पढ़े थे। उनके समझाने की रीति निराली थी। वे ग्रंथ के आशय को हृदयंगम कराने में सारी शक्ति लगा देते थे। यही बात कमवेश पं. बालकृष्ण मिश्र में पाई गई।
पं. जीवनाथ मिश्र जरा तेजी से बातें कहते जाते थे। हालत यह थी कि सव्यभिचार और सामान्य निरुक्ति जब उनसे पढ़ता था तो उनकी घुड़दौड़ चलती थी। वे क्या बोलते हैं मैं यही याद रखता था। उन कठिन ग्रंथों की पंक्तियों पर रुक के यदि वहीं ठीक-ठीक समझने लगता तो पीछे पड़ जाता, और वे छलाँग भर के आगे निकल जाते। इसलिए उनकी बातें दिमाग में नोट कर लेता और रात में उसी दिमागी नोट के आधार पर सामान्य निरुक्ति आदि जैसे क्लिष्टतम ग्रंथों को ठीक समझ लेता। कभी समझने में गड़बड़ी न हुई। इसमें मुझे लाभ यह हुआ कि शीघ्र ही वे ग्रंथ पढ़ सका। पीछे तो सभी बातें कागज पर नोट कर लेता। अन्य पंडितों की भी बताई सभी बातें हू-ब-हू पीछे नोट कर यदि कभी-कभी उन्हें दिखाता तो आश्चर्य करते।
साहित्य के ग्रंथों को पढ़ने में मेरी ज्यादा रुचि न थी। कारण, प्राय: उनमें अश्लीलता ज्यादा होती है। फिर भी शिशुपाल वधा, किरातार्जुनीय और नैषधा आदि पढ़ ही गया। इनमें ऐसी बातें कम पाई जाती हैं। नैषधा ने तो मुझे सबसे ज्यादा आकृष्ट किया। मैं श्रीहर्ष की अलौकिक प्रतिभा पर मुग्ध हो गया। काव्य प्रकाश आदि के पढ़ने में तो अध्यापक ने कृपा कर के अश्लील वाक्यों के स्थान पर दूसरे श्लोक आदि के दृष्टांत दे कर मुझे पढ़ाया। अत: मैं उनका आभारी रहा। पर, मेघदूत जैसे भ्रष्ट ग्रंथों को पढ़ने की हिम्मत न कर सका।
व्याकरण और नवीन न्याय के पढ़ने की भी सारी सुविधाएँ काशी में थीं। मगर प्राचीन न्याय, मीमांसा, योग और सांख्य के पढ़ने में जिस संकट का सामना करना पड़ा वह मैं ही जानता हूँ। इन विषयों के योग्य अध्यापक बहुत ही कम थे। जो थे भी वह पढ़ाने से अलग रहना चाहते थे। यह उस काशी की बात है जिसे संस्कृत विद्या की नगरी कहते हैं। वेदांत का पाठ तो फिर भी चलता था मगर मीमांसा और प्राचीन न्याय की बुरी दशा थी। आपोदेवी, न्याय प्रकाश और अधिकरण रत्नमाला को ही मीमांसा नहीं कहते हैं। असल मीमांसा ग्रंथ तो है शाबरभाष्य, श्लोकावार्तिक, तंत्रवार्तिक आदि। इन्हें कोई पढ़ाता न था। केवल प्रथमोक्त दो-तीन को ही पढ़ा कर इतिश्री कर लेते थे।
श्री पार्थ सारथि मिश्र की जो टीका कुमारिल भट्ट की टुप्टीका पर तंत्र रत्न के नाम से बनी है वह तो आज तक छपी भी नहीं। मैंने दरभंगे में वह अपने हाथों लिखी। प्रभा कर के मत के ग्रंथ तो कोई जानते भी न थे। शाबरभाष्य जो छपा है अशुद्धियों से भरा है। उसे शुद्ध करनेवाले कोई नहीं! यही दशा प्राचीन न्याय-दर्शन के भाष्य, उसके वार्त्तिक और उस पर श्री वाचस्पति मिश्र की लिखी तात्पर्य टीका आदि ग्रंथों की है। सभी के सभी अशुद्धियों से भरे हैं। न्याय कुसुमांजलि और आत्मतत्त्व विवेक को भी यथार्थत: पढ़ना असंभव सा था। आत्मतत्त्व विवेक तो अत्यंत कठिन होने के कारण बहुत ही अशुद्ध छपा है। उसका थोड़ा अंश, जो वहाँ की संस्कृत-परीक्षा में हैं, टीका-टिप्पणी के साथ छपा है सही। लेकिन बाकी को कौन पूछे?
(4)
अंधेर खाता
एकाध नमूना सुनाता हूँ। न्यायवार्तिक की तात्पर्य टीका काशी के लाजरस प्रेस में छपी है। उसके प्रकाशन करानेवाले प्रसिद्ध काशी के विद्वान पं. गंगाधर शास्त्री जी हैं। उन्होंने उसके प्रूफ को ठीक किया है। उसके हेत्वाभास प्रकरण में एक स्थान पर 'कृतृरासदिवेत्यादि' आता है। उसका अर्थ न तो उन्हें मालूम हुआ और न किसी और पंडित को ही। उन्होंने उसके आरंभ में ही उक्त वाक्य के तीन अर्थ लिखे हैं, एक अपना किया हुआ, दूसरा पं. शिवकुमार शास्त्री का और तीसरा पं. सुधाकर द्विवेदी का। मगर तीनों ही गलत और जबर्दस्ती किए गए हैं। मैं उसे देख कर हैंरान था कि यह क्या बात है। आखिर श्री भोजराज रचित एक छोटा सा ग्रंथ राजमार्तंड पढ़ रहा था। उसमें भद्रा के भोग के समय के प्रकरण में 'कृतृरास दिवेदरभूत दिवा' इत्यादि श्लोक मिलता है। उसे देखते ही तात्पर्य टीका का वह वाक्य याद आया और अर्थ समझते देर न लगी। असल में भोज ने 'कृतृरास' श्लोक में संकेत के तौर पर 'कृ' कृष्ण के 'तृ' तृतीया के, 'रा' रात्रि के, 'स' सप्तमी के अर्थ में लिखा है। आगे भी इसी प्रकार के अर्थों में अक्षर या शब्द लिखे हैं। इस प्रकार अपना काम निकाला है। मगर तात्पर्य टीका में वाचस्पति का कहना है कि यदि कोई वह वाक्य किसी और स्थान पर बोले तो निरर्थक या अपार्थक ही होगा। उनका वह संकेत तो घरेलू है। मगर इस मोटी बात को महामहोपाध्याय लोग तक न समझ सके!!
इसी प्रकार मीमांसा दर्शन का शाबर भाष्य लीजिए। वह बहुत क्लिष्ट है। काशी में जो उसकी प्रति छपी है वह वैसी ही अशुद्ध है जैसी पहले की। मगर मैं एक-दो पंडितों से पढ़ने गया। क्योंकि सुना कि वे पढ़ाते हैं। मगर उनकी तो स्पेशल दौड़ती थी और मैं उनके मुख की ओर ताकता रह जाता था। कुछ समझ न सकता। न जाने औरों की क्या बात थी। वे छात्र भी समझते क्या बला होंगे?शक है खुद पंडित जी समझते थे या नहीं। मेरे जानते तो वह भी कोरे ही थे। क्योंकि उन्हें अशुद्धियों का पता ही न था। हालाँकि मैं आगे-पीछे न जाने कितनी बार विचार करने और दूसरे ग्रंथों की सहायता लेने के बाद उन अशुद्धियों को समझता था। मैं यह भी मानता था कि कुछ और ही पाठ होना चाहिए। पीछे चल कर दरभंगे में महामहोपाध्याय पं. चित्रधार मिश्र जी से बातें होने पर उन्होंने उनमें एकाध अशुद्धियों के बारे में अपनी एक लंबी दास्तान सुनाई। उनने बताया कि उन्हें भी कैसे धोखा हुआ था और पीछे किसी दूसरे ग्रंथ के पढ़ते समय पता क्यों कर लगा था कि सचमुच अशुद्धि है। मैंने पहले से ही वहाँ दूसरा पाठ माना था और जो मैंने सोचा था वहीं उन्होंने भी बताया।
मीमांसा के बारे में कही चुका हूँ। मालूम होता था कि जो न्यायप्रकाश आदि दो-तीन ग्रंथ पढ़-पढ़ाए जाते थे वे भी तोते की रटन की ही तरह। मैंने न्यायप्रकाश की कितनी ही बातों का रहस्य तब समझा जब स्वतंत्र रूप से विधि-विवेक, न्यायरत्न माला आदि ग्रंथों का संग्रह और मनन किया। पीछे तो मेरे पास कई ऐसे सुबोध विद्यार्थी आते थे प्राचीन न्यायादि पढ़ने के लिए ही, जिन्हें मीलों से ज्यादा चलना पड़ता था। जब मैं काशी छोड़ने लगा तो ऐसे कितने ही छात्र रो पड़े। क्योंकि प्राचीन दर्शनों की जो अवहेलना विद्या के केंद्र काशी में हो रही थी वह उन्हें असह्य थी। शास्त्रर्थ की जो एक बीमारी सी वहाँ चल पड़ी थी उसके करते व्याकरण और नव्य-न्याय की फक्किकाओं, पंक्तियों और परिष्कारों का अभ्यास कर लेना ही पर्याप्त माना जाता था। शास्त्रों का गंभीर मंथन खत्म सा हो रहा था और इस ओर किसी की दृष्टि न थी।
मैंने देखा कि व्याकरणाचार्य वेदांत की पोथियाँ पढ़ाने बैठ जाता है और नव्यन्याय का पंडित प्राचीन न्याय और मीमांसा का अध्यापक बनने की हिमाकत करता है। खूबी तो यह है कि कोई नियंत्रण नहीं। विद्यार्थी भी ऐसे सीधे और बेवकूफ कि एक ही गुरु जी से सब चीजें पढ़ना चाहते। जिन पंडितों की ख्याति हो गई थी, वह भी सोचते थे कि उनके पास तो छात्रों का समूह आता है। अगर उनने किसी विषय को पढ़ाने में असमर्थता दिखाई तो उनकी अप्रतिष्ठा हो जाएगी। इसलिए पढ़ाए चले जाते थे। यही नहीं, यदि कहीं समझ में न भी आए तो भी रुकते न थे। अप्रतिष्ठा का भूत जो सर पर सवार था। क्योंकि विद्यार्थी मान बैठता कि शायद पंडित जी को यह ग्रंथ ठीक-ठीक समझ में आता नहीं।
मैंने दो ही तीन पंडितों को इसका अपवाद पाया। वह जहाँ समझ न सकते वहाँ रुक जाते। पं. शिवकुमार शास्त्री तो न्यायदर्शन के भाष्य को पढ़ाते समय एक स्थान पर कई दिन रुके रहे और जब तक समझ न लिया आगे न बढ़े। एक पंडित जी और थे जो कहीं न समझने पर रुक जाते। यदि कहीं दैवात छात्र के दिमाग में उसका सही अर्थ आ गया और उसने बता दिया तो बेखटके उसे मान लेते और आगे बढ़ते। पं. अच्युतानंद त्रिपाठी जी संन्यासी पाठशाला में दर्शन पढ़ाया करते थे वही ऐसा करते थे। सारांश यह कि ''अपने भी गए और दूसरों को साथ लेते गए'' इस सिद्धांत के अनुसार काम करनेवाले पंडितों की बात कितनी बुरी है, इसे कौन समझता था? वैयाकरण न्याय क्या पढ़ाएगा यदि वह नैयायिक न हो?लेकिन न तो वह पढ़ाने से इन्कार करता और न उसका भोंदू विद्यार्थी ही समझता कि हम दूसरे से पढ़ें। एक बार तो मैंने एक अच्छे वैयाकरण से जिनका नाम बताना अनुचित समझता हूँ, ट्रेन में यों ही बातें कीं। उसी सिलसिले में न्याय की कोई बात आ गई। मैं जानता था कि वे कोरे वैयाकरण हैं। फिर भी न्याय की बात को भी मेरे सामने स्पष्ट करने की कोशिश करने में वे जरा भी न हिचके। मैं भीतर ही भीतर हँसा। सन 1922 में लखनऊ जेल में मैं बहुत अंग्रेजीदां लोगों के साथ था जिनमें कई प्रोफेसर भी थे। एक सज्जन को व्याकरण की सिद्धांत-कौमुदी पढ़ने की इच्छा हुई। वे एक प्रोफेसर-साहब के पास उसे पढ़ने की सोचने लगे। जब उनने मुझसे यह बात कही तो मैंने कहा कि उक्त प्रोफेसर साहब सभी विषयों के प्रोफेसर नहीं हैं। मैं जानता हूँ वे सिद्धांत कौमुदी नहीं जानते। मगर पढ़ने के इच्छुक सज्जन ने कहा कि ''वाह, प्रोफेसर हैं तो क्यों न पढ़ायेंगे?'' आखिर वे पढ़ने के लिए उनके पास गए भी और प्रोफेसर साहब ने भी शान में आ कर यह कभी नहीं कहा कि वे सिद्धांत कौमुदी नहीं जानते। हालाँकि कोई-न-कोई बहानेबाजी कर के वे आज, कल, करते रहे और अंत तक ऐसा मौका नहीं ही दिया कि कौमुदी की पोथी उनके सामने खुलने के साथ ही उनकी पोल भी खुले। इस प्रकार यह मर्ज बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ नजर आया। मैं इसे अंधेर खाता ही मानता हूँ।
(5)
परिचय और दंड ग्रहण
मैं तो सन 1915 तक काशी में बराबर संस्कृत अध्ययन में लगा रहा। शायद ही कभी बीमारी की दशा में बाहर जाता। यह बात भी आगे मिलेगी कि बाहर जाता था कैसे। फिर 1915 में ही दरभंगे के श्री रामेश्वरलता विद्यालय में पढ़ने गया जब न्याय के हेत्वाभास के कुछ ग्रंथों के पढ़ने में काशी में कठिनाई हुई। साथ ही, मीमांसा के भी कुछ ग्रंथों का संग्रह करना था। वहाँ इसकी संभावना थी। इस प्रकार सात वर्ष निरंतर दिन-रात सरतोड़ परिश्रम कर के संस्कृत वाङ्मय का मंथन किया। मैं कह सकता हूँ कि इससे मुझे अपार संतोष हुआ। वेदांत दर्शन के अद्वैतवाद और संसार की अनिर्वचनीयता तथा मिथ्यात्व की पुष्टि न्याय के तथा दूसरे ग्रंथों से हुई। इस प्रकार मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। खंडन खंडखाद्य, पदार्थ खंडन आदि ग्रंथों के तर्कों ने मेरे हृदय पर अचूक प्रभाव पैदा किया। योगी न मिले तो न सही। लेकिन उनके अभाव में जो मनस्तुष्टि प्राप्त करनी थी यह हो गई यह निर्विवाद हैं।
इसी दरमियान, या यों कहिए कि सन 1909-10 में ही काशी में ही एक संन्यासी स्वामी पूर्णानंद जी से मेरी मुलाकात हो गई। उन्होंने मेरी पूछताछ की। घर कहाँ था आदि भी जाना। वह भी गाजीपुर जिले के ही करंडा परगने के रहनेवाले पूर्व के भूमिहार ब्राह्मण थे। वे मेरे पास आते-जाते रहते। कभी-कभी आवश्यकता होने पर दर्शनों की पुस्तकें भी खरीदवा कर या जैसे हो मुझे दिला दिया करते थे।
उनका संबंध, पीछे पता चला, भूमिहार ब्राह्मण महासभा और उसके कार्यकर्ताओं से था। लेकिन उस समय न मैंने यह बात कभी जानने की इच्छा ही की और न उन्होंने बताई ही। पर, मेरी बुद्धि और परिश्रम देख कर वे दिल से चाहते थे, जैसा कि और समझदार लोग भी, कि अच्छी प्रकार से पढ़-लिख के प्रगाढ़ विद्वान बनूँ। पीछे पता चला कि वे भीतर से चाहते थे कि विद्वान बन कर संसार में पुजवाऊँ, रुपए एकत्र करूँ, और काशी में एक बड़ा मठ बनवाऊँ। जैसा गौड़ स्वामी या स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती आदि ने किया। मगर उन्हें मेरी मनोवृत्ति का पता न था। उन्होंने गलत रास्ता लिया और गलत आदमी के द्वारा अपनी आकांक्षा की पूर्ति चाही। परंतु, उस समय तो उन्हें ऐसा मालूम न था। अभी तक भी वे बराबर इस बात का उलाहना देते रहते हैं कि मैंने उनके लिए कुछ न किया। लेकिन यह तो मेरी मजबूरी थी और है। जब मठ ही बनाना था तो घर-बार क्यों छोड़ा?क्या अमीरों और सेठों की─राजा-महाराजाओं की─दरबारदारी करने के ही लिए मेरा जन्म हुआ था? क्या इसीलिए मैंने घर-बार त्यागा था?
हाँ, तो उन्हीं के द्वारा सराय गोवर्धन मुहल्ले के कुछ प्रतिष्ठित भूमिहार ब्राह्मणों से भी मेरा परिचय हुआ। कभी-कभी मैं उधर जाया करता था भी। वे लोग एकाध पुस्तकें भी खरीद देते थे। स्वामी पूर्णानंद जी यद्यपि स्वयं दंडी न थे, तथापि मुझसे उसकी चर्चा बराबर किया करते थे। वे जोर देते थे कि मुझे दंडी होना चाहिए। मैं भी इस बात को समझने लगा था। धर्मशास्त्रों के पढ़ने से मेरी धार्मिक भावना कहती थी कि मैंने दंडी न बन के भारी भूल की है, अब भी उसका सुधार करना चाहिए। जब उनने बार-बार कहना शुरू किया तो यह भावना दृढ़ हुई। उन्होंने अत्यंत वृद्ध और किसी गृहस्थ के एक जीर्ण-शीर्ण मकान में रहनेवाले गुरु महाराज से भी मेरा कई बार दर्शन और वार्त्तालाप कराया। आखिर में सभी बातें तय हो गईं और सन 1911 में मैंने विधिवत दंड ग्रहण किया। आखिर मैं भी दंडी स्वामी बन ही गया। पीछे तो स्वामी पूर्णानंद जी भी दंडी बने।
ईधर मैंने कई बार ये गप्पें सुनीं कि ''मेरे दंडी बनने में सर्यूपारीण या कान्यकुब्ज ब्राह्मणों ने बड़ी बाधाएँ पहुचाईं और कहा कि भूमिहार ब्राह्मणों को दंडी होने का अधिकार नहीं।
फलत: जब शास्त्रर्थ में मैंने उन्हें हराया, तब कहीं दंडी बन सका। इसी चिढ़ से तो भूमिहार ब्राह्मणों में पौरोहित्य आदि का आंदोलन पीछे चल कर मैंने चलाया, आदि-आदि।'' लेकिन ये सारी बातें सोलहों आने निराधार हैं। मेरे सामने तो कोई ऐसा मौका कभी आया ही नहीं।यह ठीक है कि मेरे वंशवाले भूमिहार ब्राह्मणों से अब विवाह-शादी आदि के द्वारा संबद्ध हो गए हैं। फिर भी मैं तो जुझौतिया ब्राह्मण हूँ , जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ। फिर झगड़ा कैसा?भूमिहार ब्राह्मणों से तो विवाह आदि के द्वारा मैथिल, कान्यकुब्ज और सर्यूपारीण ब्राह्मण भी मिले ही हैं। यह बात सप्रमाण तथा सविवरण अन्यत्रा सिद्ध की गई है। तो क्या इतने ही से वे सभी कभी ऐसी बातें अपने बारे में सुनते हैं?क्या उनके बारे में कभी कोई ऐसा विवाद हुआ है? सबसे बड़ी बात तो यह है कि न तो मेरे ही समय में और न गुरु महाराज या उनके गुरु के ही समय में ऐसी बात सुनी गई। हालाँकि ऐसी चर्चा होने पर मैंने उनसे स्वयं ही यह जिज्ञासा की थी। उनका शरीरांत तो प्राय: सौ वर्ष की अवस्था में हुआ था।
(6)
मेरे गुरुदेव
जिनसे मैंने दंड ग्रहण किया उन गुरुदेव महाराज का नाम था श्री स्वामी अच्युतानंद सरस्वती। वे संस्कृतज्ञ न थे। केवल गीता आदि का पाठ कर लेते थे। लेकिन प्रेम और भक्ति की मूर्ति ही थे। मेरे जैसे तार्किक और रूखे मनुष्य के दिल को भी उन्होंने बलात अपनी ओर आकृष्ट किया था, यही क्या कम है? जब कभी भक्ति की बात आ जाती तो ईधर बोलते जाते और उधर आँखों से प्रवाह चलता था! यह तो मैंने सैकड़ों बार देखा। जरा सी भी भगवान की बात निकली कि आँखें छलछला आई! जब अत्यंत वृद्ध और अशक्त प्राय हो गए तभी विश्वनाथ बाबा के मंदिर में जा कर दर्शन करना बंद किया। तब चर्चा होने पर स्वयं ही कह बैठते जलपूर्ण आँखों के साथ ही, कि ''क्या वे मंदिरनाथ हैं? वह तो विश्वनाथ हैं। वे तो सर्वत्र हैं। फिर मंदिर में क्यों जाऊँ? वे कैद तो हैं नहीं उन पंडों के हाथ।'' नित्य दर्शन का फल अंत में यह अनुभव और अपार संतोष! यही तो भक्ति का असल रूप हैं।
वे सदा श्वेत भस्म लगाते थे। भेंट होने पर हमें भी देते थे। रुद्राक्ष की माला पहने रहते। उनकी सुमिरनी (हाथ में पड़ी रहनेवाली हरदम जपने की छोटी माला) बराबर चलती रहती। उसे कभी विराम नहीं मिलता। संयोगवश जब वह हाथ में नहीं रहती तो उँगलियों पर अँगूठा ही घूमा करता और सुमिरनी का काम उसी से निकल जाता। उँगलियोंवाला यह अभ्यास तो बहुत ज्यादा हो गया था। एक प्रकार से साँस की तरह उनकी यह स्वाभाविक चीज हो गई थी। इसीलिए निद्रा के समय भी उनकी उँगलियों पर अगूँठा घूमता ही रहता था। जानें कितनी बार मैंने स्वयं यह दृश्य देखा, जब कि अकस्मात मैं पहुँच गया और वे नींद में थे।
उनकी आँख और उनके दाँत मरते दम तक ठीक रहे। चश्मा लगाने की उन्हें जरूरत उस सौ वर्ष की उम्र में भी न हुई। दाँतों से वृद्धावस्था में भी चबेनी चबा लेते थे। मैं हैंरत में रहता। उन्हें सुँघनी सूँघने की सख्त आदत थी। पीछे तो यह हालत थी कि बाजार की बनी जिस सुँघनी के नाक में छुलाते ही हम छीं-छीं करने लग जाते उसका उन पर कुछ असर ही न होता। इसलिए काली मिर्च की अत्यंत महीन बुकनी उसमें मिला कर सूँघा करते थे। तब कहीं उसकी तेजी का भान उनको होता था। उनका कहना था कि बाल्यावस्था से ही सुँघनी से उनका संसर्ग हो गया था। वह यह भी कहते थे कि मस्तिष्क के विकार को यह रहने नहीं देती। उसमें गर्मी का नाम नहीं रहता। इसीलिए आँखें ठीक हैं और दाँत भी। मैंने औरों से भी ऐसा सुना है। कह नहीं सकता कि बात क्या है। इसकी पूरी-पूरी जाँच हो तो ठीक। क्योंकि आज कल तो दाँतों और आँखों की बीमारी से प्राय: सभी परेशान हैं। इसलिए अगर यह सच हो तो बड़ी आसान दवा है।
गुरु जी महाराज अतिथि-सत्कार में एक ही थे। पास में खाने-पीने की चीजें बराबर अपनी कुटिया में रखते और जो जाता उसे बिना कुछ खिलाए मानते ही न थे। मेरी तो सदा से खाने-पीने के बारे में सख्त नियम की आदत रही है। लेकिन उनका निश्छल स्वभाव मुझे भी विवश करता। सीधे वह इतने थे कि सभी बातें कह देते। छिपाते एक भी न। कभी-कभी ऐसा करने से अप्रतिष्ठा की संभावना रहती है। क्योंकि अपनी कमजोरियाँ और छिद्र सभी को विदित हो जाते हैं। मगर उन्हें कोई परवाह न थी। उनका हृदय अगाध और स्वच्छ गंगा जल की तरह शुद्ध था। वहाँ छल-कपट की गुंजाईश थी ही नहीं। मैं कई ऐसी घटनाएँ जानता हूँ जिन्हें प्रकट करने की हिम्मत किसी को भी नहीं होती। मगर उन्होंने उन्हें कभी नहीं छिपाया। फलत: मरते दम-तक उनकी पूजा होती ही रही। भगवान में तो उनका अपार विश्वास था। खाने-पीने की फिक्र उन्हें इसीलिए न थी। उनका भंडार भरपूर भी शायद इसी से रहता था।
कभी-कभी ऐसा होता कि अपने बचपन की बातें सुनाते थे। कहा करते कि एक रुपए की तीन मन पक्की तोल खेसारी कोई पूछता न था। हम गाँव के बनिए के पास तौल कर जबर्दस्ती रख आते थे कि वर्ष-दो वर्ष में जब हो सके इसका दाम देना। इसी प्रकार खेती की और चीजों के बारे में भी कहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश की यह बात वह कहते थे। बनारस जिले में ही उनका जन्म स्थान था गंगा से दक्षिण। कहते थे कि एक गौ उनने पाली थी। उसकी सेवा अपने हाथों करते थे। वह कामधेनु थी। जब चाहे उससे दूध दुह लेते थे। कोई संन्यासी या महात्मा यदि समय-कुसमय पहुँच जाए तभी ऐसा करना पड़ता था। उनने महात्माओं की सेवा खूब ही की थी।
अंत में उनका एक उपदेश सुनाऊँगा जो और किसी से मुझे नहीं मिला। उन्होंने साधु और असाधु की जो परिभाषा अपने शब्दों में की वह स्मरणीय होने के साथ ही काव्यमय थी। एक दिन उन्होंने इसी प्रसंग में कहा कि ''गुणग्राही साधु, अवगुणग्राही असाधु। अवगुणग्राही साधु, गुणग्राही असाधु''। फिर मुझसे चट पूछा कि इसका मतलब समझा? मेरी समझ में तो आया नहीं। अत: मैंने कहा कि नहीं। यह महाभारत के कूटश्लोक के तरीके की चीज थी। फिर समझता कैसे? तब उन्होंने समझाया कि ''साधु का यह काम है कि दूसरों के गुणों को ही देखे। उनके हजार अवगुणों पर दृष्टि करे ही न। इसी प्रकार अपने सह्त्र गुणों पर दृष्टि न रख यदि एक भी अवगुण हो तो बार-बार उसी पर दृष्टि लाए। विपरीत इसके असाधु वह है जो गैर के हजार गुणों को छोड़ उसके ऐब को ही देखता फिरे। पर अपने सह्त्र छिद्रों को न देख एकाध गुण भी यदि अपने में पाया जाए तो मुनादी करता रहे।'' यह एक नई चीज मुझे उनसे मिली इतनी नई और ऊँची कि कह नहीं सकता। मैं उनकी सेवा नहीं कर सका इसका दु:ख मुझे सदा रहेगा। कुछ समय तो पढ़ने से ही फुर्सत नहीं थी। पीछे सार्वजनिक कामों से ही। इस बीच शीघ्र ही वे इस छल-प्रपंच से भरी दुनिया को छोड़ कर चल बसे। संतोष यही रहा कि शरीरांत के समय मैं उनके चरणों में ही था।
(7)
ज्योतिष विद्या और कर्मकांड
पढ़ने की बात खत्म करने के पूर्व दो बातें कहनी हैं। एक तो ज्योतिष की और दूसरे मिथिला जाने की। जब मैं श्रीहर्ष का खंडन खंड खाद्य पड़ता था, जो वेदांत का अत्यंत उच्च कोटि का क्लिष्टतम ग्रंथ माना जाता है, तो उसमें मैंने वैद्यक और ज्योतिष के सिद्धांतों की कई बातें पाईं। उस समय ठीक-ठीक उनका अभिप्राय समझ न सका। पढ़ानेवाले भी न आयुर्वेद जानते थे न ज्योतिष। इसलिए जैसे-तैसे काम चला लिया। लेकिन उसी समय से ज्योतिष की ओर विशेष ध्यान गया और वैद्यक की ओर भी। ज्योतिष की बात तो कुछ पहले भी चलती ही थी। पीछे चल कर मैंने वैद्यक के कुछ प्राचीन ग्रंथों का संग्रह किया और थोड़ा-बहुत उन्हें देखा भी। पर, विशेष जानकारी न कर सका। हालाँकि कुछ तो जान ही लिया। मगर ज्योतिष में विशेष माथा-पच्ची करने की नौबत पड़ी। जब मैंने कर्मकलाप नामक कर्मकांड की पुस्तक लिखी। क्योंकि उसमें हिंदी में सारी बातें समझा दी गई हैं ताकि हिंदी पढ़े-लिखे भी समझ सकें, तो उसमें ज्योतिष की बातें भी लिखनी जरूरी हो गईं। उसके बिना कर्मकांड अधूरा ही रह जाता है। इसीलिए गणित और फलित ज्योतिष के सभी ग्रंथों का संग्रह कर के उसमें अधिक शक्ति लगानी पड़ी। यह पढ़ने का समय भी न था कि जा के किसी से पढ़ लेता। इसलिए सोलहों आने अपने ही बल पर सारा काम करना पड़ा। अंत में सफलता मिल के ही रही। जब एक बार तय कर लिया कि इसे पूरा करना है, तो फिर विफलता का क्या प्रश्न? उसमें मेरी कितनी सफलता हुई या तो कर्मकलाप के ज्योतिष प्रकरण के पढ़नेवाले पंडित ही बता सकते हैं।
यही बात कर्मकांड के संबंध में भी है। यों तो स्मार्त्त या साधारण गृहस्थ जीवन से संबंध रखनेवाला कर्मकांड भी बहुत कठिन तथा जाल की तरह विस्तृत है। मगर वैदिकत कर्मकांड तो अत्यंत दुष्प्रवेश और दुरूह है। अभाग्यवश सिवाय संध्योपासनादि नित्य कर्मों के बाकी में मेरा कोई प्रवेश शुरू से ही न था। उसका मौका ही न लगा। पीछे मीमांसा दर्शन के ग्रंथों के पढ़ने के समय वैदिक कर्मकलाप का प्रसंग आया सही। उसमें मेरा प्रेम भी हुआ। मगर उन कर्मों के बतानेवाले कोई थे ही नहीं। इसलिए पुस्तकों और पद्धतियों के संग्रह और उनके मंथन में ही लग गया। फलत: उसमें भी सफलता मिली। कर्मकलाप नाम की पुस्तक में मैंने इस ज्ञान को रख दिया। उस पुस्तक के बारे में काशी के एक बुकसेलर ने मुझे बताया कि ─वैदिककर्मकांड के विज्ञ अग्निहोत्री पं. प्रभुदत्ता जी शास्त्री एक बार उसकी दूकान पर आए। कर्मकलाप को देख कर कौतूहलवश उठा ले गए कि देख के वापस कर देंगे। लेकिन उन्होंने पुस्तक न लौटा कर उसका दाम ही दिया। साथ-साथ इतना पूछा भी कि स्वामी जी क्या पहले से कर्मकांड कराते थे? मुझे इससे खुशी हुई कि मेरा परिश्रम सफल हुआ और मेरा वह कर्मकांडज्ञान भ्रांत सिद्ध न हुआ।
(8)
मिथिला यात्रा
पढ़ने के ही सिलसिले में मुझे दरभंगा जाना पड़ा सन 1915 ई. में। सत्प्रतिपक्ष और बाध आदि नव्यन्याय के ग्रंथों के पढ़ने का ठीक अवसर काशी में न लगा। ये ग्रंथ बड़ी कठिनाई से दक्षिण-भारत की कांचीपुरी से हमें मिल सके। कुछ मीमांसा संबंधी जिज्ञासा भी थी जो काशी में पूरी न हो सकी थी। इसीलिए दरभंगा आ कर श्री रामेश्वर लता विद्यालय में ठहरा। वहीं कई मास रह के श्री पं. बालकृष्ण मिश्र से न्यास के ग्रंथ और काव्य प्रकाश पढ़ा। मैं उनकी कुशाग्रबुद्धि का कायल था। मुझे जितने पंडित मिले उसमें सबसे तीक्ष्ण बुद्धि यही दीखे। मगर केवल पच्चीस रुपए मासिक पाते थे! यह थी महाराजा दरभंगा की विद्वत्प्रतिष्ठा। मेरे ही आग्रह से उन्होंने धर्म समाज संस्कृत काँलेज, मुजफ्फ़रपुर में प्रार्थना-पत्र भेजा। स्वीकृत होने पर वहाँ सभवत: पचास रुपए के मासिक पर गए। पच्चीस रुपए मासिक तो उनके खाने-पीने को ही चाहिए था। वे दिन-रात पठन-पाठन में मस्तिष्क खपाते रहते थे। काव्यरचना भी अच्छी करते थे। बिहारी की सतसई को संस्कृत दोहों में उनने लिखा था। मगर छपवा न सके। कहते थे कि जब उन्हें पता लगा कि किसी और ने भी संस्कृत दोहों में उसे लिखा है तो मैंने छपवाने का इरादा ही छोड़ दिया। जब मैं दरभंगे से चलने लगा तो अपनी एक पुस्तक के ऊपर अपने हाथों यह श्लोक लिख कर वह पुस्तक उन्होंने मुझे दी। वह न्याय की है।
प्रेमैव मास्तु यदि स्यात्सुजनेन नैव ,
तेनापि चेद् गुणवता न समं कदाचित।
तेनापि चेद् भवतु नैव कदापि भंगो ,
भंगोऽपि चेद् भवतु वश्यमवश्यमायु:॥
वहीं पर महामहोपाध्याय पं. चित्रधार मिश्र मीमांसक से मेरा परिचय हुआ। उनके साथ मीमांसा पर कथनोपकथन होता रहता। वर्ष के दिनों में मैंने उनके पास से हस्तलिखित तंत्ररत्न-नामक बड़ी सी पुस्तक ले कर अपने हाथों उसकी नकल की। पीछे सुंदर जिल्द बनवा कर उसे पास रखा। दो मास के लगातार परिश्रम के बाद उतनी बड़ी पुस्तक लिखी जा चुकी। यह तो असंभव सा काम था। कोई भी उसका आकार देख कर कह सकता है। वहीं पर मैंने पं. रघुनाथ शिरोमणि की पुस्तक 'पदार्थ खंडन' की भी प्रतिलिपि हाथों लिखी। असल में ये दोनों पुस्तकें छपी न थीं।
पं. बालकृष्ण मिश्र हिंदू विश्वविद्यालय में अब अच्छी जगह पर हैं। उनने खूब उन्नति की है। दरभंगे की एक घटना है। उन दिनों मेरा भोजन बनाने के लिए एक मैथिल ब्राह्मण रखा गया था। वही बाजार से सामान भी खरीद लाता था। मुझे एक दिन शक हुआ कि वह चोरी करता है। इसलिए मैं इसका पता लगाने में सतर्क हुआ। असल में चोरी से मुझे सख्त नफरत है। आखिर एक दिन एक पैसे की चोरी पकड़ी। फिर, तो उसे अपने पास से हटा ही दिया। मैंने उससे कहा कि तूने मुझसे पैसे माँग क्यों न लिए? एक-दो पैसे की क्या बात थी कि चोरी की?वहाँ पढ़ने के समय मेरा खर्च मुजफ्फ़रपुर के वकील बाबू योगेश्वर प्रसाद सिंह और दरभंगे के वकील बाबू धारणीधार जी देते थे। दोनों से मेरी उस समय घनिष्ठता थी। वे लोग मेरे सामाजिक और धार्मिक व्याख्यानों पर मुग्ध थे।
(9)
दुर्गा सप्तशती और फूटे गणेश
मेरे जीवन की एक और बात है जिसका संबंध संस्कृत पठन के जमाने से ही विशेष संबंध रखता है। हालाँकि वह चीज पीछे तक रही हैं। वह है नियमित रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ। काशी में ही मैंने दुर्गा सप्तशती का नियमित रूप से प्रतिदिन पाठ शुरू किया। वह बहुत समय तक चलता रहा है। नवरात्र के दिनों में तो क्रमश: एक, दो, तीन करते-करते आखिरी दिन नौ पाठ तक करता था। कभी-कभी संपुट पाठ भी कर डालता था। जानें कब और कैसे मेरे मन में शुरू में यह बात आई। पीछे तो यह मेरे जीवन का एक अंग ही बन गई। न जानें दुर्गा सप्तशती की कितनी पुस्तकें मैंने खरीदीं और मँगाईं। क्योंकि आज की छपी पुस्तकों में बड़ी ही अशुद्धियाँ हैं। उन्हें ठीक करना जरूरी था। यह काम अनेक पुस्तकें कर सकती थीं। इसके सिवाय हर अध्याय के उपसंहार में ऐसी बातें लिखी रहती हैं जो पाठ के समय पढ़ी नहीं जानी चाहिए। कुछ और भी नियम हैं। इन सब बातों के लिए मैंने और-और ग्रंथ भी ढूँढ़े। अंत में पं. बालकृष्ण मिश्र जी के पास एक प्रखर तांत्रिक की हस्तलिखित पुस्तक मिली। उसकी सहायता से मैंने अपनी पुस्तक का संशोधन दरभंगे में किया। वहाँ एक छपी पुस्तक भी मिली और पं. बालकृष्ण जी ने इस छपी पुस्तक को ही प्रामाणिक बताया। इसलिए मैं बहुत दिनों तक उसी का पाठ करता रहा। बहुतों की धारणा है कि दुर्गा सप्तशती के इस चिरकाल के अनुष्ठान का ही फल है कि मेरी बुद्धि इतनी तेज है। कौन कहे, क्या बात है? बुद्धि तो पहले भी तेज ही थी।
काशी में ही पढ़ने के समय फूट गणेश के मंदिर के ऊपर एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगा था। जहाँ तक याद है, सन 1913-14 की बात है। एकांत स्थान था। इससे कोई बाधा नहीं रहती थी। एक बार ऐसा हुआ कि पास-पड़ोस में रहनेवाले एक बड़े से बंदर को कुछ लोगों ने चिढ़ाया और खदेड़ा। वह अचानक मेरे कमरे के ऊपर आ गया। बहुत क्रुद्ध था। मैं उससे बचना चाहता था। कमरे में घुस के दरवाजे बंद कर सकना जल्दी में असंभव देख मैं दोनों हाथों से एक खंभा पकड़ के लटक गया। लेकिन उसने मेरे हाथों पर हमला किया। फलत: हाथ छूट गए। मैं नीचे जा पड़ा और बाएँ पाँव की एड़ी के ऊपर का हिस्सा एक किनारदार पत्थर के खंभे में जोर से जा टकराया। नतीजा हुआ कि और कहीं तो चोट नहीं लगी, हालाँकि नीचे-ऊपर सर्वत्र पत्थर की ही दीवार, फर्श आदि थे। लेकिन एड़ी के ऊपर जोड़ की हड्डी टूट गई। मैं बड़े कष्ट में रहा। जैसे-तैसे उठा कर ऊपर कमरे में पहुँचाया गया। हड्डी ठीक करवाने वगैरह की कोशिश मित्रमंडली करने लगी। मैं तो चल-फिर सकता न था। उस समय स्वामी पूर्णानंद सरस्वती ने रात-दिन साथ रह के मेरी बहुत सेवा की। क्योंकि मैं तो अकेला ही रहता था। जाड़े के दिन थे। धीरे-धीरे और तकलीफ तो दूर हुई। सूजन भी हटी। मगर जहाँ हड्डी टूटी या खिसकी थी वहाँ कुछ सूजन रही गई। उसके भीतर कोई नोकीली-सी चीज चुभती-सी मालूम होती थी। फिर भी मैं अच्छी तरह चल-फिर सकता था। गर्मियों में, महीनों बाद, अचानक आजमगढ़ के टीकापुर ग्राम में, जो कंधरापुर थाने में है, श्री मथुरा प्रसाद सिंह रईस के यहाँ गया। वहाँ पहले भी जाया करता था। वहीं पर एक हड्डी सुधारनेवाले कारीगर ने फिर से टूटी हड्डी का स्थान कुछ ढीला कर के चुभनेवाली हड्डी तो ठीक कर दी। मगर जरा-सी हड्डी अपनी जगह से जो हटी थी वह हटी ही रह गई। बहुत देर होने से वह अपनी जगह पर की जा सकती न थी। खैर, चुभना और सूजन खत्म हो गई। अब कोई तकलीफ न थी।
काशी में रहने के समय मैं जिन छात्रों को न्याय और वेदांत आदि पढ़ाया करता था उनमें दो-तीन तो द्रविड़ ब्राह्मण थे। उनके नाम भूलता हूँ। मगर पं. मुक्तिराम शर्मा और ब्रह्मचारी रामेश्वरदत्ता के नाम खूब ही याद हैं। पंडित मुक्तिराम शर्मा ने तो प्राचीन-न्याय के न्याय कुसुमांजलि आदि ग्रंथ मुझसे पढ़े थे। ब्रह्मचारी जी तो न्याय और वेदांत आदि सभी कुछ पढ़ते थे। वह थे बड़े ही पटु तथा वाद-विवाद में प्रवीण। चलता-पुर्जा भी खूब थे। लेकिन वाम मार्ग का संसर्ग हो गया था। इसलिए उसी तांत्रिक रति से पूजा-पाठ किया करते थे जिसमें मद्यमांसादि का सेवन भी आता है। मैंने एक दिन फूटे गणेश पर ही पढ़ाते समय कुछ अंदाज किया कि आज वे वैसी पूजा कर के आए हैं। मैंने पूछा तो उनने स्वीकार भी किया। पीछे तो गुजरात या, काठियावाड़ में या उधर कहीं नर्मदा तट में वे जा जमे। वहाँ भक्त-मंडली भी एकत्र की। सुना हैं, वेदांत के उच्चकोटि के ग्रंथ अद्वैतसिद्धि का हिंदि में अनुवाद उन्होंने किया और छपवाया है।मैंने न तो वह अनुवाद देखा है और न उनसे फिर कभी मेरी मुलाकात ही हुई है। मुक्तिराम जी भी फिर कभी मिल न सके।
काशी में रहने के समय की एक घटना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मठों से अलग हो कर मैं जब ईधर-उधर रहता था उसी समय, फूटे गणेश पर जाने के पूर्व लक्ष्मी कुंड के पास एक बड़े से मकान में रहता था। वहीं अंग्रेजी पढ़नेवाले छात्र भी रहते थे। उसी समय कुछ बंगाली लड़के (युवक) बगल के ही मैदान में गेंद वगैरह खेला करते थे। मुझे क्या मालूम कि इनमें कुछ ऐसे भी थे जो पीछे चल कर बनारस षडयंत्रा केस में फँसे थे। उन दिनों तो मैं राजनीति से कहीं दूर था। उसी मकान में एक दिन छात्रों की चीजें रात में चोर ले गया। पुलिस जाँचने आई। मुझे साधु देख उसने पूछा-ताछा। पीछे पता चला कि मेरे घर भी पुलिस गई थी और जाँच की थी। साधुओं की यह इज्जत!
(10)
गुजरात की ओर और फिर वापस
सन 1912 की बात है। मेरे साथी पं. हरिनारायण जी एक बार फिर मेरे पास आए और संन्यास लेने को आतुर दिखे। आखिर गुरु जी के पास लिवा ले गया। और उन्हें संन्यास दिलाया। गर्मियों के दिन थे। प्राय: जून होगा। उसके बाद उनने आग्रह किया कि यहाँ खबर पा कर घरवाले परेशान करेंगे। उनने यह भी कहा कि दर्शन पढ़ने की उत्कट अभिलाषा है और आपसे बढ़ कर पढ़ानेवाला अब कौन मिलेगा, ताकि जीवन भर की इच्छा को पूरी कर सकूँ?इसका सीधा अर्थ था कि काशी छोड़ कर कहीं बाहर चलना चाहिए। मैं तैयार तो था नहीं। मगर उनका आभार तो मानता ही था। पहले तो उन्होंने बहुत कुछ सिखाया था। उसका ऋण मेरे मत्थे पर था। आज स्वयं मुझसे सीखना चाहते थे। फिर इन्कार कैसे करता? आखिर ऋण तो चुकाना ही था। बस, चलने की तैयारी हो गई। इस बार, लेकिन पैदल चलने की बात न रही। पुस्तकें भी साथ अधिक लेनी थीं। इसलिए रेल से चले।
जहाँ तक याद है, काशी से एकाएक दिल्ली गए। वहाँ से भिवानी जा पहुँचे। शहर के पास बाहर की ओर एक मंदिर था। उसके हाते में बाहर की ओर छोटी-छोटी कोठरियाँ थीं। ये धर्मशाले का काम देती थीं। लावारिस और आश्रय विहीन लोग उनमें ठहरते थे। हमें तो मंदिर के पुजारी ने एक सुंदर मकान में मंदिर के पास ही ठहराया। एक दिन उसने रुपयों के मोह की एक दिलचस्प कहानी हमें सुनाई। एक कोठरी दिखा कर कहता था कि इसी में बहुत दिन पूर्व एक भिक्षु ब्राह्मण रहता और भीख माँग कर गुजरा करता था। एक दिन उसे हैंजा हो गया। उसका पुर्सांहाल तो कोई था नहीं। मैं उससे पूछने गया कि पैसे हों तो दवा ला दूँ। उसने कहा कि पास में पैसे कहाँ? फिर तो जैसी-तैसी दवा होती रही। आखिर लावारिस ही तो था। धीरे-धीरे बीमारी भीषण हो गई। मैंने उसके घर का पता पूछा। फिर कहा कि पैसे हों तो दे, ताकि घर पर तेरे लड़के को तार दे दूँ। उसने फिर वही जवाब दिया कि पैसे कहाँ? बाद में वह मर गया। हमने जैसे-तैसे उसका दाह आदि करवा दिया। हाँ, बीमारी की दशा में आखिरी बात जो भिखमंगे ने की थी वह उसने बताई। बोला कि कोठरी के बाहर राख की ढेर थी जिस पर बराबर आग जला कर वह तापता रहता था। मगर बीमारी की दशा में कोठरी में रहता था। जब मरने का समय आया तो उसने कहा कि मेरी खाट दरवाजे के सामने कर दीजिए। हमने भी सोचा कि मरना तो हुई। फिर इसकी अंतिम इच्छा क्यों न पूरी कर दें। इसलिए खाट सामने कर दी गई और वह उस राख की ढेर पर ही नजर लगाए मर गया। जब हमने उसका दाह करवा के वह राख हटवाने की कोशिश और उसे उठवाने लगे तो उसमें से झनाझन रुपए गिरे। पूरे तीन सौ थे! उनकी मुहब्बत उसे ऐसी थी कि न तो दवा में उसने एक पाई खर्च की और न तार देने में। तार देने से उसका लड़का तो ले जाता। आखिर उन्हीं रुपयों की ओर नजर लगाए वह मरा। इसीलिए दरवाजे के सामने उसने खाट करवाई थी। कोठरी के कोने से राख देख सकता न था। इसे कहते हैं रुपए का मोह। रुपए न उसी के काम आए और बाल-बच्चों के ही।
भिवानी से हम फुलेरा होते जयपुर के रास्ते अजमेर पहुँचे। वहाँ से पुष्करराज गए। पुष्कर शहर और वहाँ का हाल देखा। भारत में ब्रह्मा जी का मंदिर केवल पुष्कर में ही है। और कहीं भी नहीं। मंदिर में गए। दर्शन किया। यह ठीक है कि हम इस बार रेल से ही चलते रहे। मगर पास में पैसे न थे। और लोग ही टिकट कटवा देते। दंडी संन्यासी हो कर पैसे कैसे रखते? पुष्कर की यात्रा तो पैदल ही थी। वहाँ रेल कहाँ? फिर जूना (पुराना) पुष्कर देखने चले। पुष्कर संस्कृति में झील या तालाब को ही कहते हैं, जो प्राकृतिक हो और किसी का खुदवाया न हो। जूना पुष्कर दो पहाड़ियों के बीच में है। वहीं से आजकल अजमेर शहर के लिए पानी लाया जाता हैं। घूमघाम कर हम अजमेर लौटे और रेल पर चढ़ कर सिद्धपुर होते मेहसाना चले आए। बीच में सिद्धपुर के सिवाय कहीं न रुके। मेहसाना तो अहमदाबाद के निकट है। उसके पास ही पाटन नामक बड़ा शहर दस-बारह मील पर है। यह बड़ौदा राज्य का एक बड़ा हेडक्वार्टर है। हमने पाटन जाने की सोची और चल पड़े। यद्यपि मेहसाना से रेल भी पाटन तक आती है। मगर हम पैदल ही चले।
पाटन पहुँचने के पूर्व एक बात सिद्धपुर के बारे में कह देनी है। हमने भागवत आदि ग्रंथों में पढ़ा था कि श्री देवहूति के गर्भ से कपिल भगवान का अवतार सिद्धपुर में हुआ था। इसलिए हम वहाँ उतरे थे कपिल जी के जन्मस्थान का जो मंदिर बताया जाता है उसके पास एक बावड़ी है। उस समय लंबी दाढ़ी और जटावाले एक बूढ़े ब्रह्मचारी बाबा उस मंदिर के अधिष्ठाता थे। दंडी देख कर उनने हमारा आदर किया। यह ठीक है कि केवल गेरुवावस्त्र देख कर लोग उतनी प्रतिष्ठा नहीं करते थे। पर, दंड देख कर मानते थे। हम कई दिन वहाँ रहे। वहीं सरस्वती नदी का दर्शन हुआ उसमें स्नान किया। थोड़ा जल था। बराबर धारा जारी थी। वहाँ दंडी संन्यासियों का एक अच्छा मठ है। वहाँ गए तो बाहरी ढोंग बहुत देखा। मगर प्राय: सबके-सब 'लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर' थे। आदर-सत्कार होता है और अच्छा खाना कपड़ा मिलता ही है। फिर पढ़े-लिखे कौन बेवकूफ?
विपरीत इसके दूसरे साधु और गेरुवाधारी पढ़-लिख के अच्छे-अच्छे पंडित होते हैं। कारण, बिना पढ़े उन्हें पूछे कौन? जहाँ पहले समय में श्री मधुसूदन सरस्वती आदि जैसे अकाट्य विद्वान होते थे जिनने वेदांत आदि के सर्वोत्कृष्ट ग्रथों को तैयार किया, तहाँ आज दंडियों में प्राय: मूर्खों की ही मंडली है। उनका काम मैंने जगह-जगह यही पाया कि मठ में जमा होने पर किस क्षेत्र में क्या भोजन आज मिला। किसका कौन गोत्र है आदि व्यर्थ बातों में ही समय गुजारते हैं! एक मठ के अध्यक्ष दंडी ने काशी में मुझसे कहा कि एक बार एक दंडी ने उनसे शिकायत की कि अमुक स्वामी तो नाक टेढ़ी कर के हमें चिढ़ाते हैं। इस पर मैंने कहा कि तुम हाथ चमका कर उन्हें चिढ़ा दो। यह तो हालत है। मठ बने हैं। खाने के लिए क्षेत्र भी पहले से ही हैं इसलिए घर में कामकाज के योग्य न रह जाने पर आ कर दंडी बाबा बन जाते हैं। सिद्धपुर में भी यही पाया। मेरे दंड से एक दंडी जी का खूँटी पर टँगा वस्त्र (सोला) अचानक छू गया तो बिगड़ उठे। मैंने उत्तर दिया कि बिगड़ना तो मुझे चाहिए कि दंड जिसे विष्णु मानते हैं, आपकी नापाक धोती से छू गया। उलटे आप ही जामे से बाहर हो गए? यही तो उनका धरम-करम रह गया है।
जो दाढ़ीवाले ब्रह्मचारी बाबा मुझे सिद्धपुर में मिले उस तरह के ब्रह्मचारी उस प्रदेश में बहुत रहते हैं। यह एक पंथ जैसा हो गया है। एक खासा दल उनका पाया जाता है। कुछ तो पढ़े-लिखे भी होते हैं। मगर अधिकांश वही (पूजा-पाठ) करनेवाले और जनता की प्रवंचना में प्रवीण। खाना-पीना खूब मिलता है। पैसे भी काफी आते रहते हैं। इन महाशयों में अधिकांश के चरित्र भी भयं कर होते हैं। उस प्रदेश में वेदांत और ब्रह्मज्ञान का बाहुल्य होने के साथ ही पर्दे के अभाव में स्त्री-पुरुषों के मिलने में कोई रुकावट न होने के कारण ऐसा होना ठीक ही है। उसके बाद तो मुझे भी कई ऐसे ही ब्रह्मचारी मिले। फलत: एक बार तो मैंने यहाँ तक सोचा कि ऐसे चालीस ब्रह्मचारियों के पता लगा के 'ब्रह्मचारी चालीसा' लिखूँ। मगर यह ख्याल ही रह गया।
हाँ, तो मेहसाना से कंधो पर पुस्तकों का बोझ बैल की तरह लादे हुए हम लोग पाटन पहुँचे। पहले पहल वहीं शाम के वक्त बाहर से आनेवाली गायों का समूह देखा। उनकी सींगें बैलों की जैसी थीं। आकार भी उसी प्रकार के थे। हम पूछताछ करते-कराते नागरवाड़ा मुहल्ले में पहुँचे। दंडी स्वामियों के भक्त नागर तथा अन्य गुजराती ब्राह्मणों से वहाँ मुलाकात हो गई। हम निकट के ही एक मंदिर के पास में बने कोठे पर ठहराए गए। चातुर्मास्य का समय सिर पर था। धर्मशास्त्रों के अनुसार हम भ्रमण कर नहीं सकते थे।
संन्यासियों के लिए पर्यटन का समय आठ मास और एक स्थान पर विश्राम करने का चार मास है। इसे ही चातुर्मास्य कहते हैं। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन ये चार महीने चातुर्मास्य कहाते हैं। अब तो दंडियों ने श्रावण और भाद्रपद केवल इन दो को ही चातुर्मास्य नाम दे रखा है। दो ही महीने वे न तो घूमते और न नदी-नाले पार करते हैं। पोथियों में तो लिखा है कि वर्ष में भूमि पर हवा में तथा चारों ओर नए नए जीव भर जाते हैं और चलने-फिरने से उनका नाश अत्यधिक होता है। साथ ही नदी-नाले भर जाने से पार होने में बह जाने का डर रहता है। इसीलिए दंडी लोग भ्रमण न करें।
मगर अब तो रेलें, मोटरें, हवाई जहाज, सड़कें; पुल बन गए हैं। पैदल चलने की जरूरत भी नहीं। फिर भी यह नियम सख्ती के साथ क्यों पाला जाता है, समझ में नहीं आता। रेलें तो चलती ही रहती हैं और लारियाँ भी। उनसे हिंसा होती ही रहती है। संन्यासियों के चलने से उनके द्वारा हिंसा बढ़ तो जाएगी नहीं। इसे ही कहते हैं लकीर का फकीर होना।
हमें काशी में तो इस बारे में एक ऐसी दिलचस्प बात सुनाई गई कि तरस भी आया, हँसी भी और क्रोध भी। चातुर्मास्य का समय था। लेकिन पानी नहीं पड़ा था। इसलिए काशीवाला असीनाम का नाला सूखा था। कुछ दंडी लोग नाले के पार रहते थे और वहीं खाते-पीते थे। मगर उनके महंत नाले के दूसरी तरफ मठ में रहते थे। एक दिन महंत को जरूरत हुई कि पार रहनेवाले दंडियों को कोई बात समझाई जाए। बस, आदमी भेजा गया और हुक्म हुआ कि नाले के किनारे उसी पार आ कर वे लोग खड़े रहें। ईधर न आएँ, नहीं तो धर्म नष्ट हो जाएगा! स्वयं महंत जी गए, इसी पार खड़े हो कर उपदेश दिया और वापस आए। महंत जी की यह दशा थी कि मठ तो था ही, रुपए-पैसे भी काफी रखते थे, चरित्र भी कुछ ऐसा ही तैसा था। लेकिन इन सब बातों से तो धर्म नष्ट होता न था। वह तो सिर्फ सूखे नाले में पाँव देने से बह जाता!'पेड़ काटि तैं पल्लव सींचा' इसे ही कहते हैं। धार्मिक दुनिया भी ऐसी अंधी है कि इसे ही ठीक मानती है! धार्मिक मामलों में अक्ल के लिए गुंजाईश नहीं!
असल में हमारी तो इच्छा थी ही कि ठहरें। वहाँ के ब्राह्मणों ने भी हठ किया कि ठहरें। वे लोग कुछ पढ़ना-लिखना स्वयं भी चाहते थे। एक वृद्ध ब्राह्मण को, जो मरणावस्था में थे, दंडी बनना भी था, जिससे अंत में सद्गति हो जाए! इसलिए तय पाया कि सावन और भादों तो यहीं रहें! आगे देखा जाएगा।
उसी पाटन में एक नगर ब्राह्मण भाई उमाशंकर जी के घर पर पहले पहल श्री डाँ. सुमंत मेहता से, जो गुजरात के प्रसिद्ध जन-सेवक और त्यागी हैं, मेरी मुलाकात हुई। श्री उमाशंकर भाई के अलावे अयाची मणिशंकर मगनलाल नामक गुजराती ब्राह्मण ने हमारी बहुत ही सेवा की। उनके पिता अयाची मगनलाल जी ने मरने से थोड़े दिन पूर्व संन्यास की दीक्षा हमारे साथी से ली। हमारा पढ़ना-पढ़ाना बराबर जारी रहा। मणिशंकर जी का वंश ही 'अयाची' ब्राह्मण कहा जाता है। उन्होंने कभी पौरोहित्य कर्म या पुरोहिती न की। इसीलिए अयाची कहे जाते हैं। यों तो नागर ब्राह्मण भी प्राय: पुरोहिती नहीं ही करते। लेकिन मणिशंकर जी के वंश के संबंध में यह खास बात थी। इसी से उन्हें वंशगत पदवी ही 'अयाची' की मिल गई थी।
वहाँ दो-तीन मास का समय बहुत ही आनंद से कटा। वहाँ से दो ही तीन मील पर सरस्वती थी, जो आगे जा कर लुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी उसके तट पर जाते थे। वहाँ पीलु के वृक्षों की झाड़ियाँ बहुत थीं।
लेकिन इसी मुद्दत में हमें जो उस प्रांत का सामाजिक अनुभव हुआ और हमने जो कुछ वहाँ देखा-सुना उससे हमारी उत्कट इच्छा हुई कि हम काशी की तरफ वापस चलें। हमारे साथी ने हमें बहुत समझाया। पर, हमारी हिम्मत उधर रहने की न हुई। चाहे यह दोष हो या गुण बाल्यावस्था से ही मैं स्त्रियों के संसर्ग से दूर रहा हूँ। मेरा कुछ स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि ऐसा संसर्ग मुझे पसंद नहीं। मगर वहाँ तो यह बहुत था। यह बात मुझे असह्य थी। एक सच्ची बात यह भी है कि मेरे जैसे जवान संन्यासी के लिए इस प्रकार का ज्यादा संसर्ग कदापि वांछनीय नहीं। पर, मैं यह बात कहता किससे? बस, यही सोचा कि लौट चलूँ। पढ़ने में जो बाधा आ गई थी वह भी इसी प्रकार खत्म होती दीखी। बस, अंत में हमारा और हमारे साथी का संबंध एक बार फिर छूटा। रेल्वे पार्सल से पुस्तकें रवाना कर के हमने वहाँ से काशी तक का एक ही टिकट खरीदा। रास्ते में कहीं रुकना न था। गाड़ी पर खाना-पीना तो हम कभी करते न थे। पर, यदि लंबी यात्रा में प्यास सताए तो? इसके लिए हमने सौंफ बाँध ली। वह गले को तर रखती है। सोचा, इसे ही प्राय: मुख में डाल कर चूसेंगे।
इस प्रकार फिर काशी आ पहुँचे और फिर पूर्ववत पठन-पाठन जारी किया। बीच में जो चार-पाँच मास गुजर गए इसके लिए खेद जरूर हुआ।
(11)
बीमारी में
काशी में रहने के समय अत्यधिक परिश्रम के करते सन 1909-14 के बीच कई बार बीमार पड़ने की नौबत आई। मगर दवा करने का तो मेरा स्वभाव था ही नहीं। न जाने क्यों वैद्यों, डाँक्टरों और हकीमों से आज भी मैं घबराता हूँ। मैं पसंद नहीं करता कि वे मेरा शरीर छुएँ। यही बात पहले थी। उधर दो-एक बार अनजान में कुनाइन और कच्चा लोहा खिलाए जाने के कारण मैं और भी सतर्क हो गया था। 'दूध का जला छाछ को भी फूँक कर पीता है की हालत थी।
जीवन में दो ही बार भाँग पीने का मौका मिला है। सो भी अनजान में। एक बार तो बचपन में किसी बारात में, जब कि उसके फलस्वरूप सभी साथी नशे में चूर हो गए। एक मैं ही उस नशे से न जाने कैसे बच गया। फलत: उन सबों की तथा उनके कपड़े-लत्तो की हिफाजत की। दूसरी बार काशी में अनध्याय के दिन कई साथी बाहर कुएँ पर ले गए कि घूमें और जल पीएँ। वहीं उनने ठंडई के नाम पर उसमें भाँग मिला कर मुझे भी पिला दी। मालूम तो हुई नहीं। पीछे वापस आ कर जब रात में मैं छत पर सोया था कि एकाएक नींद खुली। पता लगा कि सारी छत चक्कर काट रही हैं। घबरा कर औरों से कहा। चट उनने चावल धो के उसका पानी मुझे पिलाया और फौरन कै हो जाने से मुझे शांति मिली। फिर सो गया।
यह चावल का पानी कै कराने के लिए बड़ा ही मुफीद और सुलभ है। साँप काटने पर कै कराना बड़े काम का है और इससे आसानी से हो सकता है। नशे में तो कहना ही क्या? फिर चाहे वह भाँग का नशा हो, शराब का, या और किसी का। लेकिन फिर मैंने तय कर लिया कि भाँग के निकट भी न जाऊँगा। पान तो कभी खाया ही नहीं। बचपन की बात शायद हो कि कभी खाया हो। लेकिन अट्ठारह वर्ष की उम्र से ले कर आज तक तो उसे छुआ भी नहीं। यही बात तंबाकू की भी है। उसे तो कभी न मुँह से लगाया और न नाक से। मुँह के भीतर देने की कौन कहे?
जब कभी ज्वर से पीड़ित हो जाता तो यही करता कि चुपचाप पड़ा रहता। दवा-दारू का नाम भी नहीं लेता। जब कई दिन हो जाते और उससे पिंड छूटता नजर नहीं आता तो ज्वर की हालत में ही टमटम पर बैठ के स्टेशन जाता और गाड़ी से देहात में जा पहुँचता। कभी-कभी तो खूब तेज ज्वर में, लोगों के हजार मना करने पर भी, बाहर गया और या तो रेल में ही ज्वर से पल्ला छूटा या देहात में कहीं परिचित स्थान पर पहुँचते न पहुँचते ही। लेकिन यह ठीक बात है कि ज्वर जरूर छूट गया। मुझे भी आश्चर्य है कि जहाँ ज्वर में लोग हवा लगने से डरते हैं, बाहर जाना तो दूर रहे, तहाँ मैंने क्यों उलटा किया और फिर भी फल अच्छा ही हुआ। असल में जब मेरे मन में बार-बार यह होने लगता कि अब बाहर चलने से ही बुखार हटेगा तो फिर किसी की बात न मानता और बाहर चला ही जाता।
एक बार की बात तो खूब याद है कि ज्वर के वेग में ही ट्रेन में बैठ कर आजमगढ़ जा रहा था। मऊ जंक्शन पर ट्रेन बदली और उतरने के समय ज्वर के मारे गिर पड़ा। फिर किसी प्रकार ट्रेन में चढ़ा। लेकिन आजमगढ़ जाते-जाते चंगा हो गया। हालाँकि दर्द देह में था। पर, देहात में जाते ही वह भी छूट गया। इसी प्रकार तेज ज्वर की हालत में ही बड़ी लाइन से एक बार बक्सर गया। वहाँ पहुँचते-पहुँचते ज्वर तो भाग गया। अत: स्टेशन से पैदल ही गंगा पार कर के भरौली गया।
बीमारियों में मुझे तो ज्वर की ही शिकायत हुई चाहे जब कभी हो, और मैंने सदा नियमपूर्वक अनशन कर के ही उसे भगाया है। ईधर तो दस-बारह वर्षों से बीमार पड़ा ही नहीं। मगर इससे पूर्व साल में एक बार और कभी-कभी दो बार बीमार पड़ता था। प्राय: पंद्रह दिनों के अनशन से ज्वर मुक्त होता था। फिर दो-तीन मास में अनशन की कमजोरी दूर होती थी। लेकिन दूसरा चारा न था। जब से जलचिकित्सा जानी और उसका अभ्यास किया तब से तो उसके छूट जाने पर, जब कभी ज्वर मालूम हुआ तो स्टीम बाथ के बाद हिपबाथ ले लिया और दिन भर में तीन बार ऐसा कर के ज्वर को भगा दिया। औरों के ज्वर को भी इसी प्रकार भगाया है। ज्वर में नहाने से लोग घबराते हैं। मगर परिणाम देखने पर वह घबराहट स्वयमेव भाग जाती है।
(12)
भूमिहार ब्राह्मण सभा में
सन 1914 के दिसंबर महीने की बात है। स्वामी पूर्णानंद सरस्वती और उनके कई साथियों ने बार-बार कह-सुन के मुझे राजी किया कि मैं सन 1914 ई. में होनेवाले भूमिहार ब्राह्मण महासभा के अधिवेशन में बलिया चलूँ। यूरोपीय महायुद्ध को छिड़े हुए अभी ज्यादा दिन न हुए थे। आखिर मैं तैयार हो गया और वहाँ गया।
मुझे ठीक याद नहीं कि दो बार वहाँ बोला या ज्यादा। मगर यह ठीक है कि एक बार संस्कृत भाषा के महत्त्व के बारे में बोलते हुए जर्मनी का नाम मैंने लिया। क्योंकि मेरा कटु अनुभव था कि हमारे पतन के करते जर्मनी के मोक्ष मूलर जैसे विद्वानों ने संस्कृत के, जाने, कितने ग्रंथों का उद्धार किया। जो वेद ग्रंथ छपे न थे उन्हें, खास कर ऋग्वेद को उनने छपवाया। प्रभाकर के मत की मीमांसावाली पुस्तक, जो प्रभाकर की लिखी हुई है, यहाँ मिलती ही नहीं। उसकी हस्तलिखित प्रति एक बार यहाँ जर्मनी से ही आई थी। जर्मनी की बात कहने से मेरा मतलब यहाँ के ब्राह्मणों को धिक्कारने से था। भूमिहार ब्राह्मणों को भी ब्राह्मण के नाते यही बात सुनाई। कोई राजनीतिक मतलब तो मेरा था नहीं। राजनीति तो मैं जानता भी न था कि कौन सी चिड़िया है। सच बात तो यह है कि लड़ाई का भी कोई महत्त्व और रहस्य मैं जानता तक न था। केवल सुना था कि जर्मनी और इंग्लैंड के मध्य युद्ध छिड़ा है। मगर जर्मनी का नाम इस प्रकार लेना भी शायद अक्षम्य अपराध था। फलत: सभापति के इशारे से एक सज्जन ने आ कर मुझसे धीरे से कहा कि जर्मनी की बड़ाई न करें।
असल में जमींदारों और राजा-महाराजाओं का जवाब था और वह ठहरे स्वभावत: राजभक्त। इसलिए यह बात वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? पीछे मुझे पता चला कि भूमिहार ब्राह्मणों के नाम पर सभा खड़ी कर के वे लोग अपना काम निकालते और समाज की ओर से राजभक्ति का विश्वास सरकार को सदा दिलाते थे। इस प्रकार पहली बार राजनीति की हवा ने मेरे अंतस्तल में एक बार अनजान में जबर्दस्त ठो कर मारा। हालाँकि मैं उस समय उसे महसूस कर न सका।
वहाँ एक बार मैं और बोला और सबों को ब्राह्मण धर्म बताया। मैंने शास्त्रों के वचनों के आधार पर यह सिद्ध किया कि ''पुरोहिती करना ब्राह्मणों के लिए जरूरी नहीं है।
प्रत्युत इसे आचार्य लोग एक प्रकार से निंदित ही समझते रहे है। ब्राह्मण के लिए भी खेती-गिरस्ती पुरोहिती से कहीं अच्छी है और उसके अभाव में ही पुरोहिती करने का हक उसे है' आदि-आदि। मनु का उद्धरण दे कर मैंने खेती और व्यापारवाली बात सिद्ध की, जैसा कि उन्होंने चतुर्थाध्याय के शुरू में ही ब्राह्मण की जीविकाओं को गिनाते हुए 'ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा' 'प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्' 'सत्यानतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते' आदि वचनों द्वारा बताया है।
महाभारत के शांति पर्व का 'ब्राह्मणा द्विविधा राजन धर्मश्च द्विविधा: स्मृत:। प्रवृत्तश्च निवृत्तश्च निवृत्तोऽहं प्रति ग्रहात' उध्दृत कर मैंने बताया कि प्रवृत्त और निवृत्त या याचक और अयाचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण सदा से होते आए हैं। फलत: आप लोग निवृत्त या अयाचक हैं। मेरी ये सब बातें सबों को नई दुनियाँ की अनोखी चीजें प्रतीत हुईं और उनकी आँखें अचानक खुलीं। उन्होंने देखा कि यह क्या है? वह तो अपने आपको गिरा हुआ समझते थे। लेकिन यहाँ तो उलटा ही सुना। विपरीत ही पाया। वे सभी भौंचक थे।
मैं भी उनकी भावभंगी देख कर एक प्रकार से क्षुब्धा सा हुआ और मेरे दिल पर चोट सी लगी। मैं समझता था कि जब भूमिहार ब्राह्मण में (ब्राह्मण) शब्द जुटा है, जैसे कान्यकुब्ज ब्राह्मण, मैथिलब्राह्मण आदि में। सुनता भी था कि वे लोग 20-25 वर्ष से लगातार यह सभा करते हैं, तो ब्राह्मणता का अभिमान तो उनमें होगा ही। मुझे तो इसकी कल्पना भी न थी कि वे लोग अपने को इतना गिरा समझते हैं। मेरा तो सदा संस्कार ही ब्राह्मण का रहा।
उपनयन संस्कार और संध्योपासनादि भी बराबर ब्राह्मणोचित ही हुआ। वंश भी ऐसा ही था। इसलिए मैं भी आश्चर्यचकित हो गया और दिल में एक बार सहसा यह बात आ कर फौरन चली गई कि क्या मैं इन्हें स्वाभिमान के मार्ग पर ला नहीं सकता? क्या मेरा यह काम नहीं है?क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं कि इनके ब्राह्मणत्व को जाग्रत करूँ।
इसके बाद मैं फिर काशी आ गया और पढ़ने में लगा। लेकिन इस धक्के ने, जो मानसपटल पर अचानक लगा था, मेरे जीवन के मध्यभाग (संन्यास जीवन) के मध्यखंड के अंत का श्रीगणेश अनजान में ही किया। इसे मैं लक्षित न कर सका। पर, वह अपना काम भीतर ही भीतर अदृश्य रूप से करता रहा और इस प्रकार मध्य भाग के उत्तर खंड की तैयारी हो गई।