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रचनावली

स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली
खंड 3

सहजानन्द सरस्वती

संपादन - राघव शरण शर्मा

अनुक्रम दूसरा : गीता भाग पीछे     आगे

पूर्वापर संबंध

गीताहृदय का अंतरंग भाग या पूर्व भाग लिख चुकने के बाद, जैसा कि उसके शुरू में ही कहा जा चुका है, उसके मध्‍य के गीताभाग का लिखा जाना जरूरी हो जाता है। जिस जानकारी की सहायता के ही लिए वह भाग लिखा गया है और इसीलिए अंतरंग भाग कहा जाता भी है, उसके बाद उसी बात का लिखना अर्थ सिद्ध हो जाता है। अंतरंग भाग के पढ़ लेने पर गीता हृदय के इस दूसरे भाग के पढ़ने की आकांक्षा खुद-ब-खुद हो जाएगी। लोग खामख्वाह चाहेंगे कि उसके सहारे गीतासागर में गोता लगाएँ। उसके पढ़ने से इसके समझने में - गीता का अर्थ और अभिप्राय हृदयंगम करने में - आसानी हो जाएगी। इसीलिए इसे पूरा किया जाना जरूरी हो गया।

हमने कोशिश की है कि जहाँ तक हो सके श्लोकों के सरल अर्थ ही लिखे जाए जो शब्दों से सीधे निकलते हैं। बेशक, गीता अत्यंत गहन विषय का प्रतिपादन करती है, सो भी अपने ढंग से। साथ ही इसकी युक्ति दार्शनिक है, यद्यपि प्रतिपादन की शैली है पौराणिक। इसलिए शब्दों के अर्थों के समझने में कुछ दिक्कत जरूर होती है, जब तक अच्छी तरह प्रसंग और पूर्वापर के ऊपर ध्‍यान न दिया जाए। हमने इस दिक्कत को बहुत कुछ अंतरंग भाग में दूर भी कर दिया है। फिर भी उसका आना अनिवार्य है। अत: ऐसे ही स्थानों में श्लोकों के अर्थ लिखने के बाद छोटी या बड़ी टिप्पणी दे दी गई जिससे उलझन सुलझ जाए और आशय झलक पड़े।

आशा है, यह भाग पूर्व भाग के साथ मिल के लोगों को - गीता-प्रेमियों को - संतुष्ट कर सकेगा। गीतार्थ-अवगाहन के लिए उनका मार्ग तो कम से कम साफ करी देगा।

(शीर्ष पर वापस)

प्रवेशिका

जिनने ज्यादा गौर नहीं किया है, या जो ध्‍यान से गीता नहीं पढ़ते, लेकिन इतना जानते हैं कि गीता महाभारत में ही लिखी है और उसी बड़ी पोथी में से अलग करके इसका पठन-पाठन तथा प्रचार होता है, वह आमतौर से ऐसा ही समझते हैं कि महाभारत के युद्ध के आरंभ होने के पहले ही उसका प्रसंग आने के कारण वह महाभारत की पोथी में भी उद्योग पर्व के बाद ही या भीष्म पर्व के शुरू होने के पहले ही लिखी गई होगी। यदि और नहीं तो इतना तो खयाल उन्हें अवश्य होता होगा कि गीतोपदेश को सुनने के बाद ही लड़ाई की बात धृतराष्ट्र को मालूम हुई होगी और भीष्म आदि की मृत्यु की भी।

मगर दरअसल बात ऐसी है नहीं। यह सही है कि युद्धारंभ के पहले ही कृष्ण और अर्जुन के बीच गीतावाला संवाद हुआ, जिसे आज की भाषा में एक तरह का चखचुख भी कह सकते हैं। यदि देखा जाए तो गीता के दूसरे अध्‍याय के शुरू में, गीता के असली उपदेश के पहले, जो बातें कृष्ण एवं अर्जुन के बीच हो गई हैं वह चखचुख जैसी ही हैं। कृष्ण कहते हैं कि भई, ऐन लड़ाई के समय पर ही यह बड़ी बुरी कमजोरी तुममें कहाँ से आ गई? राम, राम, इसे दूर करो और फौरन कमर बाँध के तैयार हो जाओ। नामर्द की तरह कमर तोड़ के यह बैठ क्या गए हो? इस पर अर्जुन अपने इस काम के, इस मनोवृत्ति के समर्थन के लिए दलीलें करता और कहता है कि पूजनीय गुरुजनों के चरणों पर चंदन, पुष्पादि चढ़ाने के बदले उनके कलेजे में तीर बेधूँ? यह नहीं होने का। इन्हें मार के इन्हीं के खून से रंगे राजपाट जहन्नुम जाएँ। मैं इन्हीं हर्गिज नहीं मारने का। यही न होगा कि न लड़ने पर राजपाट न मिलेगा? तो इसमें हर्ज ही क्या है? इन्हें न मारने पर तो भीख माँग के गुजर करना भी कहीं अच्छा है। यह राजपाट ठीक है या वह भिक्षावृत्ति, इसका भी निर्णय तो हो पाता नहीं। मैं तो घपले में पड़ा हूँ। यह भी तो निश्चय नहीं कि हमीं लोग खामख्वाह जीतेंगे ही। ऐसी दशा में मुझे तो भिक्षावाला पक्ष ही अच्छा मालूम होता है।

यह प्रश्नोत्तर चखचुख ही तो है। असली चखचुख तो ऐसे संकट के ही समय हुआ करती है। फर्क यही है कि अर्जुन और कृष्ण की बातों का तरीका अत्यंत परिमार्जित था, गंभीर था, जैसा कि गीता के शुरू के श्लोकों से पता चल जाता है। हाँ, इसके बाद अर्जुन ने यह जरूर किया कि अपनी ही बात पर अड़े न रहे। किंतु कृष्ण से साफ ही कबूल किया कि मेरी अक्ल इस समय काम नहीं कर रही है। इसीलिए कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक फैसला कर पाता हूँ नहीं। आप कृपा करके मेरी भलाई के लिए जो बात उचित हो वही कहिए। मैं आपकी शरण आया हूँ। नहीं तो मेरे हृदय में जो महाभारत इस समय हो रहा है और जिसके करते सारी इंद्रियाँ शिथिल होती जा रही हैं, वह मुझे मार डालेगा। उसकी शांति भूमंडल के चक्रवर्त्ती राज्य की तो क्या स्वर्ग की भी गद्दी मिलने से नहीं हो सकती है। इतना कहने के बाद, मैं तो लड़ुँगा हर्गिज नहीं, ऐसा बोल के अर्जुन चुप हो गए। उसी के बाद, कुछ मुस्कराते हुए कृष्ण ने दूसरे अध्‍याय के ग्यारहवें श्लोक से गीतोपदेश शुरू किया।

बात यह है कि भीष्म के आहत हो जाने, किंतु मरने के पूर्व, वीर क्षत्रियोचित शरशय्या पर उनके पड़ जाने की खबर जब धृतराष्ट्र को संजय ने दी, तो धृतराष्ट्र के कान खड़े हुए। उसने समझा कि रंग बदरंग है। तभी उसने संजय से घबरा के पूछा कि बोलो, बोलो, क्या हो गया? यह हालत कैसे हो गई, लड़ाई का श्रीगणेश कैसे हुआ; पहले किसने क्या किया और यह नौबत आने तक दूसरी बातें क्या-क्या हो गईं? शुरू में बात यों हुई कि लड़ाई की सारी तैयारी देख के और अवश्यंभावी संहार का खयाल करके व्यास धृतराष्ट्र के पास आए। यह तो मालूम ही है कि धृतराष्ट्र उनके पुत्र थे। इसलिए भी और सांत्वना देने के साथ ही आगाह कर देने के लिए भी उनका आना जरूरी था। वही तो अब पथप्रदर्शक बच गए थे। बाकी लोग तो लड़ाई के मैदान में ही डटे थे। उनने समझा कि शायद अंधे धृतराष्ट्र को यह देखने की इच्छा हो कि अंतिम समय तो भला पुत्रों और संबंधियों को देख लूँ। भीष्मपर्व के पहले अध्‍याय में लड़ाई की तैयारी देखने और संहार का लक्षण जानने की बात कहके दूसरे में धृतराष्ट्र के साथ व्यास का संवाद लिखा गया है। वहाँ व्यास के यह कहने पर कि चाहो तो आँखें ठीक कर दूँ और सब कुछ देख लो, धृतराष्ट्र ने यही उत्तर दिया कि जिंदगी भर तो कुछ देख न सका। तो अब आँख लेके भला यह वंशसंहार देखूँ? इसकी जरूरत नहीं है। हाँ, कृपया ऐसा प्रबंध कर दें कि पूरा वृत्तांत अक्षरश: जान सकूँ।

इस पर व्यास ने धृतराष्ट्र के मंत्री संजय को बता के कहा कि अच्छा, तो इस संजय की ही आँखों में ऐसी शक्ति दिए देता हूँ कि यह रत्‍ती-रत्‍ती समाचार तुम्हें सुनाएगा। इसे हरेक बात की जानकारी बैठे-बैठे ही हो जाया करेगी। दिन में या रात में, प्रत्यक्ष-परोक्ष जो कुछ भी होगा, यहाँ तक कि लड़नेवाले लोग मन में भी जिस बात का खयाल करेंगे, सभी की पूरी जानकारी इसे हो जाया करेगी। लेकिन इसी के साथ व्यास ने एक बार और भी धृतराष्ट्र को समझाने की कोशिश की कि वह दुर्योधन को समझा के अब भी रोक दे, अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। व्यास को तो पता था ही कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन की एक ही राय है। मगर धृतराष्ट्र पर तो इसका असर होने जाने का था नहीं। यही बातें दो और तीन अध्यायों में आई हैं। जब उनने देखा कि धृतराष्ट्र के मन में उनकी बात घुस नहीं रही है, प्रत्युत अभी तक उसे दुर्योधन आदि अपने ही पुत्रों की जीत की आशा लगी है, तब उनने उसका यह भ्रम मिटाने के लिए इतना ही बता दिया कि जो जीतता या हारता है उसकी हालत पहले से ही कैसी होती है। इसे ही शुभ-अशुभ लक्षण भी कहते हैं। फिर व्यास चले गए। इसके बाद धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा कि आखिर यह भूमि कितनी बड़ी है, जिसे जीतने के लिए यह मार-काट होने वाली है। भीष्मपर्व के चौथे से लेकर बारहवें अध्‍याय तक उसी भूमंडल के सभी विभागों का वर्णन किया गया है। इसके बाद संजय कुतूहलवश कुरुक्षेत्र की ओर चले गए। फिर वहां से लौट के धृतराष्ट्र को सुनाया कि लो, अब तो भीष्म आहत हो के पड़े हैं। यह बात तेरहवें अध्‍याय से शुरू होती है और यहीं से गीतापर्व का श्रीगणेश होता है।

उसके बाद धृतराष्ट्र का रोना-गाना शुरू हुआ। फिर तो उसने भीष्म के आहत होने के सारे वृत्तांत के साथ ही युद्ध की सारी बातें पूछीं और संजय ने बताईं। दोनों पक्षों की तैयारी की भी बात संजय ने कही। जिस प्रकार आज भी फौजों की नाकेबंदी होती है और अनुकूल जगह पर लड़ने वाले आदमियों, घुड़सवारों या तोपखाने आदि को रखा जाता है। ठीक उसी प्रकार पहले भी रखा जाता था। इसी को व्यूह-रचना कहते थे। आज की ही तरह यह रचना कई तरह की होती थी। मगर उस समय की परिस्थिति तथा अस्त्र-शस्त्र की प्रगति के अनुसार गाड़ी के गोल चक्के की सूरत में जब लोगों को खड़ा करते थे तो उसे चक्रव्यूह कहते थे। इसमें दुश्मन चारों ओर से घिर जाता था। इसे ही आज घेरना (encirclement) कहते हैं। जब कछुए की सूरत में रखते जहाँ बीच में तोप आदि ऊँची जगह पर रहें तो उसे कूर्मव्यूह कहते थे। गीता के पहले अध्‍याय में इन्हीं व्यूहों का जिक्र है। ज्यादा फौज कम फौजों के अगल-बगल (Flank) में भी खड़ी हो जाती और आसानी से विजय पाती थी। इसीलिए धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था कि हमारी फौज तो ग्यारह अक्षौहिणी - प्राय: 11-12 लाख - है, उसे उनकी सात ही अक्षौहिणी कैसे घेरेगी, या उसका सामना करेगी? संजय ने इसी के उत्तर में कहा कि कौन, कहाँ कैसे खड़े हैं और किसे कैसे खड़ा किया गया था। पश्चिम ओर पूर्व रुख पांडवों की और पूर्व ओर पश्चिम रुख कौरवों की सेना खड़ी थी। सारी तैयारी कैसे पूरी हुई, यह बात भी उसने कही। अंत में कह दिया कि दोनों फौजें इस प्रकार आ के आमने-सामने डट गईं। शुरू में दुर्योधन पक्ष के सेनापति भीष्म और पांडव पक्ष के भीम थे, यह भी बताया।

इस प्रकार तेरहवें से शुरू करके चौबीस तक के अध्‍याय में ये बातें कह के गीतापर्व की एक तरह की भूमिका पूरी की गई है। फिर पचीसवें से लेकर बत्तीसवें तक में गीता के कुल अठारह अध्‍याय पूरे हुए हैं। पूरी तैयारी और आमने-सामने डट जाने की बात सुन के ही गीता के पहले श्लोक में धृतराष्ट्र ने पूछा कि उसके बाद फौरन मारकाट ही शुरू हो गई या कुछ और भी बात हुई? उसके उत्तर में ही समूची गीता आ गई। इसी सिलसिले में एक और भी मजेदार बात हो गई थी।

गीतोपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गए तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गए। हालत यह हो गई कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार है। उधर कौरव सेना वालों को बड़ी खुशी हुई कि लो, बिना मारे ही दुश्मन मरा। सचमुच युधिष्ठिर नामर्द है। नहीं तो ऐसे वीर बाँकुड़े भाइयों और कृष्ण की मदद के होते हुए भी क्यों दुर्योधन के पाँव पड़ने आता?

इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गए और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। पहले के तीन तो हर तरह से माननीय थे। शल्य भी था माद्री का भाई और भीम आदि का मामा। वह मद्रदेश का राजा था। उसने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय है और जिसका जिक्र हम पूर्व भाग में कर चुके हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार है, 'अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज, बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।' यही श्लोक भीष्मपर्व के 43वें अध्‍याय का 41वाँ, 56वाँ, 71वाँ तथा 82वाँ है। इसका सीधा अर्थ यही है कि 'महाराज, अन्नधन का गुलाम आदमी होता है, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात है। इसलिए कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया है।'

जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें उन लोगों ने जब संसार का पक्का नियम ऐसा बता दिया और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल कर ली, तो मानना ही पड़ेगा कि यह बड़ी बात है। इसीलिए इस अप्रिय सत्य पर पूरा ध्‍यान न दे के जो लोग कोरे अध्‍यात्म की राग अलापते रहते हैं वे कितने गहरे पानी में हैं यह बात स्पष्ट हो जाती है। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य तो ऐसा कहें और हम अध्‍यात्म से जरा भी नीचे न आएँ यह विचित्र बात है! लेकिन जैसा कि हम दिखला चुके हैं, गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती है। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी है। शायद कोई ऐसा समझ ले कि उन महानुभावों ने यों ही ऐसा कह दिया है। इसलिए उसी के बाद जो श्लोक चारों जगह आए हैं वे सोलहों आने एक से न होने पर भी अभिप्राय में एक से ही हैं। वह इस बात को और भी खोल देते हैं। हम द्रोण के कहे श्लोक को लिख के उसी का अर्थ बता देना काफी समझते हैं। एक श्लोक यों है, 'ब्रवीम्येतत्क्लीबवत्तवां युद्धादन्यत् किमिच्छसि। योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्योजयो मया' (57)। इसका भावार्थ यह है कि 'यही कारण है कि आज मैं तुम्हारे सामने दब्बू की तरह बातें करता हूँ। लड़ुँगा तो दुर्योधन के ही पक्ष में मगर विजय तुम्हारी ही चाहूँगा।' उनने साफ मान लिया कि युधिष्ठिर के सामने अन्नधन के ही लिए दबना पड़ा।

उसके बाद युधिष्ठिर सदल वापस आ गए और कुछ अन्य राजनीतिक चालों के बाद महाभारत की भिड़ंत शुरू हुई जिसका वर्णन 44वें अध्‍याय से शुरू हुआ है। इस प्रकार अब तक जो कुछ कहा गया है उससे गीता के उपदेश की परिस्थिति का पूरा पता लग जाने से उसका तात्पर्य सुगम हो जाता है। इसीलिए गीता के प्रतिपादित विषय में प्रवेश के लिए और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

हाँ, कुछ नाम शुरू में आए हैं, उन्हें यहीं जान लेना अच्छा है। धृतराष्ट्र दुर्योधन का पिता था और संजय धृतराष्ट्र का मंत्री यह तो कही चुके हैं। भीष्म, द्रोण और कृप को भी लोग जानते ही हैं। भीष्म बड़े बूढ़े और सबके पितामह थे। इसीलिए उन्हें भीष्मपितामह भी कहते हैं। शेष दो व्यक्ति आचार्य थे। उनने शिक्षा दी थी। अश्वत्थामा द्रोण का पुत्र था और विकर्ण था दुर्योधन का भाई। युयुधन एवं सात्यकि एक ही व्यक्ति के नाम हैं। भूरिश्रवा को ही सौमदत्ति (सोमदत्ता का पुत्र) कहते थे। धृष्टद्युम्न द्रुपद का बेटा था और द्रुपद था द्रौपदी का पिता तथा पांचाल देश का राजा। विराट मत्स्यदेश का राजा था। धृष्टकेतु शिशुपाल के लड़के का नाम था। चेकितान यदुवंशियों में एक योद्धा था। वसुदेव यदुवंशी ही थे, जिनके पुत्र कृष्ण थे। युधामन्यु और उत्तमौजा भी पांचाल देश के ही निवासी थे। शिबिदेश के राजा को ही शैब्य लिखा है। कुंती जिस राजा को गोद में दी गई थी उसके वंश का नाम ही कुंतिभोज था। उसी राजा का पुत्र पुरुजित नाम वाला था। इसीलिए पुरुजित और कुंतिभोज ये दो नाम न होके एक ही हैं। पुरुजित के ही वंश का नाम कुंतिभोज है। सुभद्रा कृष्ण की बहन थी। उसकी शादी अर्जुन से हुई थी। इसीलिए सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु को ही सौभद्र कहा है। द्रौपदेय कहा है द्रौपदी के प्रतिबिंध्य आदि पाँचों बेटों को। काश्य और काशिराज एक ही आदमी - काशी के राजा - को कहा गया है। शिखंडी को तो सभी जानते हैं। वह नपुंसक था और उसी की ओट में भीष्म मारे गए। क्योंकि नपुंसक पर वार वह करते न थे। हृषीकेश एवं गोविंद कृष्ण का ही नाम है। गुडाकेश, पार्थ, सव्यसाची अर्जुन को ही कहते हैं। भारत अर्जुन को भी कहा है और धृतराष्ट्र को भी। कृष्ण के ही कुल को वृष्णिकुल और इसीलिए कृष्ण को वार्ष्णेय भी कहते हैं। गोविंद, अरिसूदन, मधुसूदन, माधव नाम भी उनका है और भगवान या श्रीभगवान भी। अर्जुन को परंतप भी कहा है और पार्थ भी। पार्थ का अर्थ पृथा (कुंती) का पुत्र। कुंती के पुत्र होने से ही अर्जुन कौंतेय कहे गए हैं।

गीता के शुरू में ही जो व्यूढ़ शब्द आया है उसका अर्थ है व्यूह के आकार में बनी या खड़ी फौज। व्यूह का अर्थ पहले ही बताया जा चुका है। वहीं महारथ शब्द भी आया है। यह फौजी शब्द है। जैसे जो दस या ज्यादा शत्रु के हवाई जहाजों को खत्म कर दे उसे फ्रेंच या अंग्रेजी भाषा में एस (ace) कहते हैं। उसी तरह ये महारथ आदि शब्द भी पहले बोले जाते थे। योद्धा लोगों की ही यह संज्ञाएँ थीं और थीं ये चार - अर्द्धरथ, रथ, महारथ और अतिरथ। जो एक से भी अच्छी तरह न लड़ सके वह अर्द्धरथ, जो एक से लड़ सके वह रथ, जो अकेले दस हजार योद्धाओं से भिड़े वह महारथ और जो असंख्य लोगों से भिड़ जाए वह अतिरथ कहा जाता था - 'एको दस सहस्राणि योधयेद्यस्तु धान्विनाम। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च स वै प्रोक्तो महारथ:। अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्तु स:। रथस्त्वेकेन योद्धा स्यात्तन्न्यूनोऽर्द्धरथ: स्मृत:।'

अब एक ही बात जानने के लिए रह जाती है और है वह कुरुक्षेत्र की बात। छांदोग्य और बृहदारण्यक जैसे प्राचीनतम उपनिषदों में बार-बार कुरुदेश और कुरुक्षेत्र का नाम आता है। मनुस्मृति में भी ब्रह्मर्षिदेश को बताते हुए दूसरे अध्‍याय में उसके अंतर्गत कई प्रदेशों का नाम गिना के कहा है कि 'कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल, और शूरसेन इन्हीं चार देश को मिला के ब्रह्मर्षि देश कहा जाता है' - "कुरुक्षेत्र च मत्स्याश्च पांचाला: शूरसेनका:। एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्त्तादनन्तर:।" उसी ब्रह्मर्षिदेश का नाम पीछे कान्यकुब्ज हो गया। वर्तमान गुड़गाँव, रोहतक आदि जिले कुरुक्षेत्र के ही भीतर हैं। उनसे पश्चिम बहुत दूर तक का प्रदेश ब्रह्मावर्त्त कहा जाता था। जाबालोपनिषद् के पहले ही मंत्र में कुरुक्षेत्र का नाम आया है। परशुराम के बारे में यही माना जाता है कि उसी मैदान में उनने बार-बार क्षत्रियों का संहार किया। दिल्ली के पास का पानीपत का मैदान इधर भी कितनी ही लड़ाइयों का केंद्र रहा है। वह कुरुक्षेत्र का ही मैदान है। उसी में महाभारत का महायुद्ध भी हुआ था। भारत के लिए यह कत्लगाह है।

महाभारत के शल्यपर्व के कुल छब्बीस श्लोकों में इस कुरुक्षेत्र की चौहद्दी, इसके मुख्य स्थान आदि दिए गए हैं जो पुराने जमाने के नाम हैं। वहीं यह भी लिखा है प्रजापतियों की यह पुरानी यज्ञशाला है। यहीं पर देवताओं ने भी बड़े-बड़े यज्ञ किए थे। इसीलिए इसकी धूल तक पापनाशक मानी गई है। कुरुक्षेत्र का शब्दार्थ है कुरु का क्षेत्र या खेत। कुरु था कौरव-पांडवों का मूरिस या पूर्वज। वहीं लिखा है कि इस जमीन को वह बराबर जोतता रहता था। इंद्र ने उसे बार-बार रोका। पर उसने न माना। जोतने का मतलब कुछ साफ नहीं है सिवाय इसके कि कहा गया है कि भविष्य में जो यहाँ मरें उन्हें स्वर्ग मिले इसीलिए जोतना जारी था। अंत में इंद्र ने जब यह वरदान दिया कि जाइए यहाँ तप करने या लड़ने में जो मरेंगे वह जरूर स्वर्गी होंगे, तब उसने जोतना छोड़ा। इसीलिए कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र या धर्मभूमि कहते हैं।

आगे श्लोकों के अर्थ में आवश्यकतानुसार बाहर से जोड़े गए शब्द कोष्ठक में दिए हैं, यह याद रहे।

इसके अलावे कहीं-कहीं श्लोकार्थ के बाद छोटी-बड़ी टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। वे साफ हैं।

पुराने समय में हाथ से पकड़ के जिन तलवार आदि हथियारों से हमला करते थे उन्हें शस्त्र कहते थे और जिन तीर आदि को फेंकते थे उन्हें अस्त्र कहते थे। उस समय फौज को भी बल कहते थे।

(शीर्ष पर वापस)



पहला अध्‍याय

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षे त्रे कुरुक्षे त्रे समवेता युयुत्सव:।

मामका: पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥1॥

धृतराष्ट्र ने पूछा - संजय, धर्म की भूमि कुरुक्षेत्र में जमा मेरे और पांडु-पक्ष के युद्धेच्छुक लोगों ने क्या किया? 1।

संजय उवाच

दृष्ट्वा तु पांडवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।

आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥2॥

संजय ने कहा - उस समय पांडवों की सेना व्यूह के आकार में (सजी) देख के राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जा के बात बोला (कि) -2।

पश्यैतां पांडुपु त्रा णामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढ़ां द्रुपदपु त्रे ण तव शिष्येण धीमता॥3॥

आचार्य, पांडु के बेटों की इस बड़ी सेना को (तो) देखिए। इसकी व्यूह रचना आप के चतुर चेले द्रुपद-पुत्र (धृष्टद्युम्न) ने की है। 3।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।

युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ:॥4॥

इसमें शूर, बड़े धनुर्धारी (और) युद्ध में भीम एवं अर्जुन सरीखे सात्यकि, विराट, महारथी द्रुपद -4।

 

धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्।

पुरुजित कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव:॥5॥

धृष्टकेतु, चेकितान, वीर्यवान काशिराज, कुंतिभोज पुरुजित, नरश्रेष्ठ शैव्य -5।

युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान।

सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:॥6॥

पराक्रमी युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, अभिमन्यु और द्रौपदी के बेटे - ये सबके-सब महारथी हैं। 6।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥7॥

द्विजवर, हमारे जो चुने-चुनाए लोग हैं। उन्हें भी (अब) गौर से सुनिए। मेरी फौज के जो संचालक हैं उन्हें आपकी जानकारी के लिए बताता हूँ। 7।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय:।

अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥8॥

(वे हैं), आप, भीष्म, कर्ण, युद्ध विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा। 8।

अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे तयक्तजीविता:।

नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा:॥9॥

दूसरे भी बहुत से वीर हैं जिनने मेरे लिए प्राणों की बाजी लगा दी हैं, जो अनेक तरह के शस्त्र चलाने में कुशल हैं और सभी युद्धविद्या में निपुण हैं। 9।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।

पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥10॥

भीष्म के द्वारा रक्षित (संचालित) हमारी वह सेना काफी नहीं है। (लेकिन) इन (पांडवों) की यह भीम के द्वारा संचालित सेना तो काफी है।

इस श्लोक के अर्थ के संबंध में विशेष विचार पहले ही के पृष्ठों में किया जा चुका है। 10।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिता:।

भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवंत: सर्व एव हि॥11॥

(इसलिए) जिसकी जो जगह ठीक हुई है उसी के अनुसार आप सभी लोग नाकों पर डटे रह के केवल भीष्म की ही रक्षा करें। 11।

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्ध : पितामह:।

सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं द ध्मौ प्रतापवान्॥12॥

(इतने ही में) दुर्योधन को खुश करने के लिए सभी कौरवों में बड़े-बूढ़े और प्रतापशाली भीष्मपितामह ने सिंह की तरह जोर से गर्जकर (अपना) शंख फूँका (शंख फूँकना युद्धारंभ की सूचना है)। 12।

तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा:।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥13॥

उसके बाद एक-एक शंख, नफीरी (शहनाई), छोटे-बड़े नगाड़े और गोमुखी (ये सभी बाजे) बज उठे (और) वह आवाज गूँज उठी। 13।

तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधव: माण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रद ध्म तु:॥14॥

उसके बाद सफेद घोड़े जुते बड़े रथ में बैठे हुए कृष्ण और अर्जुन ने भी अपने दिव्य - अलौकिक या असाधारण - शंख (प्रतिपक्षियों के उत्तर में) फूँके। 14।

पांचजन्यं हृषीकेशो देवद त्तं धनंजय:।

पौंड्रं द ध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर:॥15॥

कृष्ण ने पांचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त और भयंकर काम कर डालने वाले भीमसेन ने पौंड्र नामक बड़ा शंख फूँका। 15।

अनंतविजयं राजा कुंतीपुत्रो युधिष्ठिर:।

नकुल: सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥16॥

कुंती के पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय, और नकुल एवं सहदेव ने (क्रमश:) सुघोष तथा मणिपुष्पक (नाम के शंख बजाए)। 16।

काश्यश्च परमेष्वास: शिखंडी च महारथ:।

धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजित:॥17॥

महाधनुर्धारी काशिराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि -17।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश: पृथिवीपते।

सौभद्रश्च महाबाहु:शंखान्दध्मु: पृथक पृथक॥18॥

द्रुपद, द्रौपदी के सभी बेटे और लंबी बाँहों वाले अभिमन्यु इन सबने हे पृथिवीराज (धृतराष्ट्र), अलग-अलग शंख फूँके। 18।

स घोषो धार्त्त राष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।

नभश्य पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥19॥

आकाश और जमीन को बार-बार गुँजा देने वाले उस घोर शब्द ने दुर्योधन के पक्षवालों का हृदय चीर दिया। 19।

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्त्त राष्ट्रान्कपि ध्व ज:।

प्रवृ त्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पांडव:॥20॥

उसके बाद दुर्योधन के पक्ष वालों को बाकायदा तैयार देख के (और यह जान के कि अब) अस्त्र-शस्त्र छूटने ही वाले हैं, महावीर की चिंहयुक्त ध्वजावाले अर्जुन ने, -20।

अर्जुन उवाच

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये रथं थापय मेऽच्युत॥21॥

हे महीपति, कृष्ण से यह बात कही कि अच्युत, दोनों फौजों के (ठीक) बीच में मेरा रथ खड़ा कर दीजिए। 21।

यावदेतान् निरीक्षेऽहं यो द्धु कामानवस्थितान्।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥22॥

ताकि लड़ाई के मंसूबे वाले इन तैयार खड़े लोगों को देखूँ (तो कि आखिर) इस लड़ाई की दौरान में मुझे किन-किन के साथ लड़ना है। 22।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागता:।

धार्त्त राष्ट्रस्य दुर्बु द्धै र्युद्धे प्रियचिकीर्षव:॥23॥

ये जो युद्ध में नालायक दुर्योधन के खैरखाह बनके यहाँ आए हैं और लड़ेंगे उन्हें (जरा मैं) देखूँगा (कि आखिर ये हैं कौन लोग)। 23।

संजय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥24॥

संजय ने कहा कि हे धृतराष्ट्र, अर्जुन के ऐसा कहने पर कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में सर्वश्रेष्ठ रथ खड़ा करके -24।

भीष्मद्रोणप्रमुखत: सर्वेषां च महीक्षिताम्।

उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति॥25॥

भीष्म, द्रोण तथा सभी राजाओं के सामने ही कहा कि अर्जुन, जमा हुए इन कुरु के वंशजों को देख ले। 25।

यहाँ कुरुवंशियों से तात्पर्य दोनों पक्ष के सभी लोगों से है। इसीलिए आगे 'सेनयोरुभयो:' लिखा है।

त्रा पश्यत्स्थितान्पार्थ: पितृनथ पितामहान।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पु त्रा नृपौ त्रा न्सखींस्तथा॥26॥

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।

वहाँ अर्जुन ने देखा (कि ये तो अपने) पिता, पितामह, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पोते, मित्र, ससुर और स्नेही (लोग ही) दोनों ही सेनाओं में खड़े हैं। 26-27।

तन्समीक्ष्य स कौंतेय: सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥27॥

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

उन अपने ही सगे-संबंधियों को खड़े देख अर्जुन को परले दर्जे की दया ने घेर लिया (और) विषादयुक्त हो के वह ऐसा बोला। 27-28।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥28॥

सीदन्ति मम गा त्रा णि मुखं च परिशुष्यति।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥29॥

अर्जुन बोला - हे कृष्ण, इन अपने ही लोगों को युद्ध की इच्छा से यहाँ जमा देख के मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुँह बहुत सूख रहा है, मेरे शरीर में कँपकँपी हो रही है और रोएँ खड़े हो रहे हैं। 28-29।

गाण्डीवं स्रंसते हस्ता त्त्व क् चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:॥30॥

गांडीव धनुष हाथ से गिरा जा रहा है, त्वचा (समस्त शरीर) में आग-सी लगी है, खड़ा रहा सकता हूँ नहीं और मेरा मन चक्कर-सा काट रहा है। 30।

निमि त्ता नि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥31॥

हे केशव, लक्षण उलटे देख रहा हूँ। अपने ही लोगों को युद्ध में मार के खैरियत नहीं देखता। 31।

न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥32॥

हे कृष्ण, (मैं) विजय नहीं चाहता, न राज्य ही चाहता हूँ और न सुख ही। हे गोविंद, राज्य, भोग और जिंदगी (भी) लेकर हम क्या करेंगे? 32।

येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥33॥

जिनके लिए हमें राज्य, भोग और सुखों की चाह थी ये वही लोग (तो) प्राणों और धनों (की माया-ममता) को छोड़ के युद्ध में डटे हैं! 33।

आचार्या: पितर: पु त्रा स्तथैव च पितामहा:।

मातुला: श्वशुरा: पौ त्रा : श्याला: संबंधि नस्तथा॥ 34॥

आचार्य, बड़े-बूढ़े, लड़के, दादे, मामू, ससुर पोते, साले और संबंधी (लोग) -34।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।

अपि त्रौलोक्यराजस्य हेतो: किं नु महीकृते॥ 35॥

(यदि) हमें मारते भी हों (तो भी) हे मधुसूदन, मैं इन्हें त्रौलोक्य (संसार) के राज्य के लिए भी मारना नहीं चाहता; (फिर इस) पृथ्वी की (तो) बात ही क्या? 35।

निहत्य धार्त्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन:॥36॥

हे जनार्दन, धृतराष्ट्र के संबंधियों को मार के हमें क्या खुशी होगी? (उलटे) इन आततायियों को मार के हमें पाप ही लगेगा। 36।

स्मृतियों में छ: तरह के लोगों को आततायी कहा गया है। 'जो आग लगाएँ, जहर दें, हाथ में हथियार लिए डटे हों, किसी की धन-संपत्ति छीनते हों, जमीन (खेत) छीनते हों और दूसरों की स्‍त्री को हरें - यही छ: - आततायी कहे जाते हैं' - "अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापह:। क्षेत्रदारापहर्त्ता च षडेते ह्याततायिन:" (वसिष्ठस्मृति 3।16)।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्त्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥37॥

इसलिए हमें अपने ही बंधु-बांधव कौरवों को मारना ठीक नहीं हैं। हे माधव, भला अपने ही लोगों को मार के हम सुखी कैसे होंगे? 37।

यद्यप्येते न पश्यंति लोभोपहतचेतस:।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥38॥

यद्यपि लोभ के चलते चौपट बुद्धिवाले ये (दुर्योधन वगैरह) कुल के संहार के दोष और मित्रों की बुराई करने के पाप को समझ नहीं रहे हैं। 38।

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मा न्निवर्त्ति तुम्।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यभि दर्ज नार्दन॥39॥

(तथापि) हे जनार्दन, कुल के संहार के दोष को जानते हुए भी हम इस पाप से बचने के लिए (यह बात) क्यों न समझें? 39।

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा : सनातना:।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥40॥

कुल के क्षय होने से सनातन-चिरंतन या पुराने-कुलधर्म चौपट हो जाते हैं और धर्मों के नष्ट हो जाने पर समूचे कुल को अधर्म दबा लेता है। 40।

यहाँ धर्म और अधर्म शब्द संकुचित धर्मशास्‍त्रीय अर्थ में नहीं आए हैं। इसीलिए कुलधर्म कहने से ऐसी अनेक बातें, अनेक कलाएँ और बहुतेरी हिकमतें भी ली जाती हैं जिनके बारे में कही कोई लेख नहीं मिलता। किंतु जो परंपरा से व्यवहार में आती हैं। क्योंकि पूजा-पाठ आदि बातें तो पोथियों में लिखी रहती हैं। फलत: उनके नष्ट होने का सवाल तो उठता ही नहीं। वह कायम रही जाती हैं और किसी न किसी प्रकार उनका अमल हो ही सकता है। मगर जिनके बारे में कुछ भी कहीं लिखा-पढ़ा नहीं है उनका तो कोई उपाय नहीं रह जाता। जब उन्हें जानने और उन पर अमल करनेवाले ही नहीं रहे तो वे बचें कैसे? हमने साँप के जहर उतार देने और मृतप्राय आदमी को भी चंगा करने का ऐसा तरीका देखा है जो न लिखा गया है और न लिखा जा सकता है। वह तो अजीब चीज है जो समझ में भी नहीं आती है। मगर उस पर अमल होते खूब ही देखा है। इसी तरह की हजारों बातें होती हैं। इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जब किसी वंश का वंश ही खत्म हो जाता है और केवल नन्हे-नन्हे या गर्भ के बच्चे एवं स्त्रियाँ ही बच रहती हैं तो नादानी और अज्ञान के गहरे गढ़े में वह वंश डूब जाता है। फलत: बचे-बचाए प्राणीजान पाते ही नहीं कि क्या करें। इसीलिए अधर्म शब्द उसी अंधकार के मानी में आया है।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।

स्‍त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:॥41॥

हे कृष्ण, अधर्म के दबाने पर कुलीन स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं (और) स्त्रियों के बिगड़ जाने पर, हे वार्ष्णेय, वर्णसंकर हो जाता है। 41।

इस पर विशेष विचार पहले के पृष्ठों में हो चुका है।

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥42॥

(और यह) वर्णसंकर कुलघातियों को और (समूचे) कुल को (भी) जरूर ही नरक ले जाता है। क्योंकि इनके पितर या बड़े-बूढ़े पिंड और तर्पण की क्रियाओं के लुप्त हो जाने से पतित हो जाते हैं - नीचे जा गिरते हैं (और जब बड़े बूढ़े ही पतित हो गए तब तो अधोगति एवं अवनति का रास्ता ही साफ हो गया)। 42।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो 'हि' आया है - हि ऐषां (ह्येषां) - वह कारण का सूचक है। साधारणतया यह शब्द कारण सूचक ही होता है। इसका मतलब यह है कि पूर्वार्द्ध में जो नरक और पतन की बात कही गई है उसी की पुष्टि में हेतुस्वरूप आगे बातें लिखी गई हैं। यही कारण है कि 'पितर:' शब्द को व्यापक अर्थ में लेके हमने बड़े-बूढ़े अर्थ कर लिया है। पहले भी 34वें श्लोक में 'पितर:' का यही अर्थ है। इसीलिए सिर्फ किसी स्थान या लोक विशेष में, जिसे स्वर्ग या पितृलोक कहते हैं, रहनेवालों के ही अर्थ में हमने उस शब्द को नहीं लिया है। हमारे अर्थ में वे भी आ जाते हैं। इसीलिए पिंड और उदक क्रिया का भी व्यापक ही अर्थ है। फलत: अन्न-जल आदि से आदर सत्कार एवं अतिथि पूजा वगैरह भी इसमें आ जाती है। साधारणत: समझा जानेवाला पिंडदान एवं तर्पण तो आता ही है।

दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।

उत्साद्यन्ते जातिधर्मा : कुलधर्माश्च शाश्वता:॥43॥

वर्णसंकर पैदा करनेवाले कुलघातियों के इन दोषों के करते सनातन जाति धर्मों और कुलधर्मों का नाश हो जाता है। 43।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥44॥

हे जनार्दन हम ऐसा सुनते हैं कि जिन लोगों के कुलधर्म (आदि) निर्मूल हो जाते हैं उन्हें जरूर ही नरक में जाना पड़ता है। 44।

अहो बत महत्पापं क र्त्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता॥45॥

ओह, अफसोस, हम बहुत बड़ा पाप करने चले हैं। क्योंकि राज्य और सुख के लोभ से अपने ही लोगों को मारने के लिए तैयार हो गए हैं! 45।

यदि मामप्रतीकारमश स्त्रं शस्त्रपाणय:।

धार्त्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥46॥

(विपरीत इसके) अगर मैं शस्त्र-रहित हो के अपने बचने का भी कोई उपाय न करूँ (और ये) शस्त्रधारी दुर्योधन के आदमी मुझे मार (भी) डालें तो भी मेरा भला ही होगा। 46।

 

 

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥47॥

संजय बोला - चिंता और अफसोस से उद्विग्न चित्त अर्जुन ऐसा कह के (और) धनुष बाण को छोड़ के युद्ध के मैदान में ही रथ में बैठ गया। 47।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्‍याय:॥1॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका अर्जुन-विषादयोग नामक पहला अध्‍याय यही है।

अर्जुन का विषाद, युद्ध की हानियाँ और फलस्वरूप लड़ने में अर्जुन का जो विराग इस अध्‍याय में दिखाया गया है वह सभी युद्धों की समाजघातकता को बता के उनकी निंदा करता है। जिनने बीसवीं शताब्दी के साम्राज्यवादी युद्धों को देखा और जाना है वह बखूबी समझ सकते हैं कि इनसे कुल, जाति, देश और उनके धर्मों का जितना भयंकर संहार होता है और सभी प्रकार के पतन का सामना वे किस कदर जमा कर देते हैं। उनके चलते समूचे देश के देश की हर तरह की प्रगति किस प्रकार रुक जाती और समाज अवनति के अतलगर्त्त में जा गिरता है यह बात उन्हें साफ विदित है। इसीलिए अर्जुन की बातें वे आसानी से समझ सकते हैं। फलत: इनमें उन्हें कोई अलौकिकता मालूम न होगी।

 

 

 

 

 

 

 

दूसरा अध्‍याय

पहले अध्‍याय में जो कुछ कहा गया है वह अर्जुन के अपने विचार थे जो बेरोक बाहर आए थे। उनसे उसकी मनोवृत्ति पर पूरा प्रकाश पड़ता है। कृष्ण ने देखा कि यह तो अजीब बात है। लड़ाई के मैदान में ऐन मौके पर यह ज्ञान-वैराग्य की बात और तन्मूलक कर्तव्यविमूढ़ता, या यों कहिए कि निठल्ले बैठ जाना तो निराली चीज है। सो भी युद्ध में सबके अग्रणी और नेता - पेशवा - का ही बैठ जाना। अतएव वह कुछ घबराये सही। मगर फिर खयाल किया कि आखिर अर्जुन भी तो आदमी ही ठहरा और आदमियों को ऐसे मौकों पर मानवसुलभ कमजोरियाँ दबाती ही हैं। मालूम होता है, यही बात अर्जुन की भी है। वह कुछ दयार्द्र हो जाने के कारण ही कमजोरी दिखा रहा है। हिंसा का भीषण रूप यहाँ आँखों के सामने नाच रहा है। इसीलिए यह कमजोरी स्वाभाविक है। उनने यह भी खयाल किया कि इसी भावोद्रेक और प्रेमप्रवाह के करते वह अपने आपको शायद भूल गया है कि उसे वहाँ क्या करना है - वह इस युद्ध-क्षेत्र में क्या लक्ष्य और कौन मिशन (mission) ले के आया है। वह यह भी इसीलिए नहीं सोच रहा है कि इसमें उसकी बदनामी है। इसलिए यदि यह बात उसे याद दिला दी जाए और इसके चलते होने वाली हानि सुझा दी जाए तो शायद फिर तैयार हो जाए। आखिर ऐन लड़ाई के समय का यह आगा-पीछा अब तक सब किए-कराए पर पानी जो फेर देगा। इसीलिए दूसरे अध्‍याय का श्रीगणेश कृष्ण की इन्हीं बातों से ही हुआ। इसीलिए संजय ने यही बात धृतराष्ट्र से कही भी। फलत: इस अध्‍याय के शुरू में ही -

संजय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।

विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥ 1

संजय ने कहा - इस तरह कृपा से ओतप्रोत, आँसू भरी बेचैन आँखों वाले और विषादयुक्त उस उर्जन से मधुसूदन ने आगे वाली बात कही। 1।

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्य की र्त्ति करमर्जुन॥ 2

श्रीभगवान बोले - अर्जुन, ऐसे संकट के समय में - लड़ाई के मैदान में - तुम में यह गंदगी कहाँ से आ गई? गंदगी भी ऐसी कि जिसे भले लोग कभी अपनाते नहीं, जो उन्नति की ओर तो ले जाने वाली नहीं। (हाँ) बदनामी फैलानेवाली (जरूर) है। 2।

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥ 3

पार्थ, नामर्दी मत दिखाओ। यह तुम्हें शोभा नहीं देती। ओ दुश्मनों को तपानेवाले, हृदय की (इस) नाचीज कमजोरी को छोड़ के खड़ा हो जाओ। 3।

अब अर्जुन ने देखा कि कृष्ण को मेरे दिल की बातों का ठीक-ठीक पता नहीं है। वह समझते हैं कि मैं केवल माया-ममता की कमजोरी से ऐसा कर रहा हूँ इसलिए जरूरत इस बात की है कि सारी बातें खोल के उनके समाने रख दी जाए, ताकि परिस्थिति का पूरा पता उन्हें लग जाए। इससे यह भी होगा कि यदि संभव होगा और उचित समझेंगे तो कोई रास्ता भी सुझाएँगे। नहीं तो युद्ध में तो अब पड़ना हई नहीं। इसलिए -

अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।

इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ 4

अर्जुन कहने लगा - हे मधुसूदन - मधुदैत्य के नाशक -, हे अरिसूदन - शत्रुनाशक -, (चंदन, पुष्पादि से) पूजा करने योग्य भीष्मपितामह तथा द्रोणाचार्य के साथ इस युद्ध में वाणों से लड़ूँ कैसे? 4।

गुरूनह त्त्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।

हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान॥ 5

गुरुजनों - बड़े-बूढ़ों - को न मार के इस दुनिया में भीख से भी गुजर करना कहीं अच्छा है। अर्थलोलुप गुरुजनों को मारकर तो यहीं पर (उन्हीं के) खून से रंगे पदार्थों को भोगना होगा। 5।

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।

यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्त्तराष्ट्रा:॥ 6

यह भी तो नहीं मालूम कि हमारे लिए (दोनों में) कौन-सी चीज अच्छी है (और यह भी नहीं जानते कि) हम (उन्हें) जीतेंगे या वे लोग ही हमें जीतेंगे। जिन्हीं को मार के हम जीना नहीं चाहते वही धृतराष्ट्र के बेटे सामने ही डटे हैं। 6।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध के बारे में तो कोई विवाद नहीं। उसका अर्थ तो सभी लोग एक ही समझते हैं। मगर पूर्वार्द्ध में गड़बड़ है और कुछ लोग भटक के दूसरा ही अर्थ कर डालते हैं। असल में यदि इससे पूर्व के श्लोक से इसे जोड़ के उसी प्रसंग में इसे भी मान लें तो यह दिक्कत न हो। इसी के साथ एक बात और भी करनी होगी। हमें इस श्लोक के 'कतरत्' और 'गरीयस्' शब्दों का भी खयाल करना होगा। हमारे जानते तो इसका सीधा अर्थ इस तरह है। पहले श्लोक में जो कहा गया है कि गुरुजनों को न मार के भिक्षावृत्ति से गुजर करना कहीं अच्छा है; क्योंकि उन्हें मारने पर तो परलोक की कौन कहे यहीं पर खून में सने पदार्थों को ही भोगना होगा, उससे दो पक्ष सिद्ध होते हैं। एक तो है युद्ध न करके भिक्षावृत्ति तक के लिए तैयारी और दूसरा है लड़कर के इसी शरीर से खूनी पदार्थों का भोग। इनमें पहले पक्ष को यद्यपि अर्जुन ने अच्छा ठहरा दिया है। फिर भी इस बात की पूरी जानकारी तो उन्हें है नहीं। इसीलिए अगले श्लोक में इसी जानकारी की बात जानने के लिए 'विज्ञ:' शब्द बोलते हैं। जिस विद धातु से यह शब्द बना है उसी से वेद, वेत्ता, विद्वान आदि शब्द बनते हैं। उसका अर्थ है पूरी जानकारी और वही हमें नहीं है यही बात 'न चैतद्विद्मः' - 'यही तो नहीं जानते' - शब्दों में कहते हैं। इसीलिए आगे के भी सातवें श्लोक में पाँचवें जैसा ही 'श्रेय:' शब्द कहके कहते हैं कि जो मेरे लिए अच्छा हो सो कहिए।

एक बात और भी है। पाँचवें में सिर्फ इतना ही कहा है कि गुरुजनों को न मार के भीख माँगना भी अच्छा है और यह सर्वसाधारण बात है। इसका यह मतलब तो हर्गिज नहीं होता कि यह चीज सभी के लिए अच्छी है। हो सकता है क्षत्रिय के लिए ठीक न हो के भी औरों के ही लिए ठीक हो। यह चीज अच्छी है यह आम लोगों की धारणा ही तो उनने कही है, न कि अपने लिए भी उसे खामख्वाह अच्छा कह दिया है। इसीलिए सातवें श्लोक में 'मे' शब्द देकर साफ कहते हैं कि मेरे लिए जो बात 'श्रेय' हो, ठीक हो वही कहिए। यही वजह है कि पाँचवें के उत्तरार्द्ध में जो दलील देते हैं कि रोटी-पैसे के ही लिए दुर्योधन के यहाँ फँसे गुरुजनों को मार के उन्हीं के खून से रँगे पदार्थ यहीं भोगने होंगे, उससे यह झलकता है कि यदि मरने के बाद नरक आदि की बात होती तो एक बात भी थी। तब देखा जाता। तब सोचते कि चलो, यहाँ तो आराम कर लें, आगे देखा जाएगा। मगर यह तो कुछ ऐसी चीज हो जाती है कि उन्हीं के खून से रँगे पदार्थ ही हमें यहाँ मिलते हैं। उसमें एक बात और भी हो जाती है कि ये बेचारे हमारे बड़े-बूढ़े जिन्हीं चीजों को लेके एक प्रकार से पथभ्रष्ट हुए वही चीजें आखिर उनसे हम छीन ही लें, सो भी उनका खून करके, यह कैसा तो लगता है। यह तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि वे लोग तो पथभ्रष्ट हुए ही थे। मगर अब हम भी ऐसा करके वैसे ही हो जाएँगे और यह ठीक नहीं लगता। गुरुजनों को 'अर्थकाम' कहने का यही मतलब है। इसी अर्थ में 'कामकामी' (2। 70) शब्द आया है।

इस प्रकार अर्जुन का मन कुछ अजीब पसोपेश और घपले में पड़ा है। क्या वह इन बातों को करते हुए भी यह नहीं जानता कि आखिर क्षत्रिय का ही धर्म तो लड़ना है, दूसरे का नहीं? फिर वह यों ही निश्चय कैसे कर लेता कि भीख माँगना ही अच्छा? मगर इतने पर भी उसके पसोपेश की गुंजाइश सिर्फ इसलिए रह जाती कि आखिर युद्ध में सीधे अपने ही लोगों एवं गुरुजनों को ही मारना पड़े यह तो कोई जरूरी नहीं है। लड़ाई तो ऐसी भी हो सकती है जिसमें यह कुछ भी न करना पड़े। ऐसी दशा में वैसी ही लड़ाई क्षत्रिय का धर्म क्यों न माना जाए, न कि ऐसी? यह शंका तो स्वाभाविक थी। उधर कृष्ण इसी में प्रोत्साहित कर रहे थे। रोकते तो थे नहीं। इसलिए यह भी खयाल होता था कि यदि यह बुरी होती तो वह ऐसा कदापि नहीं करते। यही था पूरा घपला। अर्जुन इसी की सफाई के लिए कहता है कि हमें यह भी तो पता नहीं कि इन दोनों पक्षों में कौन-सा हमारे लिए उत्तम है, अच्छा है।

'गरीयस्' और 'कतरत्' शब्द भी यही अर्थ ठीक है ऐसा सूचित करते हैं। पहले 'गरीयस्' शब्द को ही लें। यह शब्द, गुरु शब्द से बना है और गुरु शब्द का अर्थ है भारी, वजनी, बड़ा, श्रेष्ठ, अच्छा। इसलिए 'गरीयस्' शब्द का अर्थ हो जाता है ज्यादा अच्छा, ज्यादा वजनदार, और भी अच्छा, और भी श्रेष्ठ। अर्जुन के कहने का यही आशय है कि यों तो दोनों ही पक्ष अच्छे हैं, वजनी हैं, श्रेष्ठ हैं। क्योंकि तर्क-दलीलें दोनों ही पक्षों में हैं जिन्हें मैं दे भी चुका हूँ। मगर दोनों में भी ज्यादा वजनदार, ज्यादा अच्छा, ज्यादा श्रेष्ठ कौन है इसका पता मुझे नहीं लगता। मेरे लिए यही तो बड़ी दिक्कत है। मेरी हालत तो 'दोलाचलचित्तवृत्ति:' है, मेरा दिमाग तो झूले की तरह दोनों ही ओर बराबर जा रहा है - कभी इधर और कभी उधर। फलत: निर्णय नहीं कर सकता है।

अब इसी के साथ 'कतरत्' शब्द को भी मिला के देखें। ये दोनों ही शब्द यहाँ पर नपुंसक-लिंगी ही हैं। पुल्लिंग होने पर 'कतर:' और 'गरीयान्' होते। 'कतर' शब्द दो में से एक को चुन लेने, अलग कर लेने के मानी में आता है। इसका अर्थ है दो में कौन-सा? दो से ज्यादे में से चुनना हो तो 'कतम' शब्द बोलते हैं। इसी तरह 'न:' शब्द का अर्थ है हमारा या हमारे लिए। सब मिला के अर्थ हो जाता है कि हमारे लिए इन दोनों पक्षों में कौन-सा पक्ष ज्यादा अच्छा है। जहाँ कोई निश्चित लिंग न हो वहाँ नपुंसक ही बोला जाता है। यहाँ भी वही बात है। दो पक्ष, दो बातें, दी चीजें हैं और इनके लिंग का कोई ठिकाना है नहीं। मगर जब 'न:' का अर्थ करते हैं 'हम लोगों में' या 'हम लोगों में से', तो वह साफ ही पुलिंग हो जाता है। तब तो साफ ही पता चलता है कि अर्जुन अपना और दुर्योधन का खयाल करके ही कहता है कि हम दोनों में कौन वजनी है, कौन जीतेगा, यह मालूम नहीं। मगर उस दशा में उसे 'कतरो नो गरीयान्' ऐसा ही कहना उचित था। श्लोक भी ठीक ही रह जाता है। इसलिए मानना पड़ता है कि यह बात नहीं है। साफ ही पुलिंग की जगह नपुंसक देने से निस्संदेह वही अर्थ ठीक है जो हमने माना है।

जो लोग इस नपुंसकवाली बात को मान के भी आगे के 'यद्वाजयेम' आदि को इसी के साथ मिलाते हुए यह अर्थ करते हैं कि 'हम जीतें या हमें वे लोग जीत लें - इन दोनों में श्रेयस्कर कौन है, यह भी समझ नहीं पड़ता', उनका भी कहना ठीक नहीं है। पहले की सारी दलीलें ऐसे अर्थ के विरुद्ध जाती हैं। शायद 'जयेम' और 'जयेसु:' का विधिलिंग देख के वे लोग इस भ्रम में पड़ गए हैं। मगर यहाँ तो चाहे विधिलिंग हो या भविष्य की क्रिया हो हर हालत में भविष्य ही अर्थ होगा 'जीतेंगे'। पहले के श्लोक में 'भुंजीय' क्रिया भी तो ऐसी ही है। मगर वहाँ उनने भी भविष्य ही अर्थ किया है। फिर यहाँ भी वही क्यों न किया जाए? विधिलिंग और आशीर्लिंग का भविष्य भी अर्थ होता है यह तो 'भविष्यति लिंगलौटौ' (3। 3। 173) सूत्र में पाणिनि ने खुद माना है। अर्जुन का तो यही कहना है कि हम यह भी तो नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे लोग। इस पूर्वार्द्ध में अर्जुन ने एक तो यही कहा है। इसके पहले दूसरा यह कि इन दोनों बातों में कौन ज्यादा अच्छी है। यह भी नहीं जानते।

इन दोनों को एक साथ घोलमट्ठा करके ऐसा कहना कि हम जीतें या वह जीतें इन दोनों में हमारे लिए कौन बात अच्छी है यह मालूम ही नहीं है, कुछ अच्छा जँचता भी नहीं। भविष्य की अनिश्चित बात को अभी तौलना ठीक नहीं लगता। मारना और मरना तो निश्चित है, चाहे जीते कोई। इसलिए उसके बारे में अच्छे-बुरे का खोद-विनोद ठीक हो सकता है। मगर जो चीज अनिश्चित है उसके भले-बुरे का क्या विचार? उसी में से किसी एक को पहले ही चुन लेने का क्या प्रसंग? और जीत-हार में किसी एक को चुनने का तो यों भी प्रश्न नहीं उठता। हार तो कोई भी नहीं चाहता। फिर अर्जुन क्यों चाहने लगा? यह तो परले दर्जे की नादानी ही होगी। हाँ, उस सिलसिले में मरने-मारने का प्रश्न और उसे चुनने या पसंद करने न करने की बात जरूर उठती है। हमने उसे माना भी है। अर्जुन ने वही बात 'या नेवहत्वा' में कही भी है। श्लोक में 'यद्वा' और 'यदिवा' शब्द भी जीत की संदिग्धता ही को सूचित करते हैं। उनका ऐसा ही अर्थ होता है। 'यदि' शब्द तो खामख्वाह शक की सूचना करता है। उसी का साथी 'यद्वा' शब्द भी यहाँ यही काम करता है।

इस श्लोक में तो अर्जुन साफ-साफ कहता है कि एक तो यही पता नहीं कि भिक्षावृत्ति ही हमारे लिए ठीक है, या मारकाट के बाद मिलने वाला राजपाट। दूसरे; अगर हम राजपाट की ही बात ठीक मान भी लें तो यह भी तो पता नहीं कि हमीं जीतेंगे या वही लोग। इसलिए यह तो 'गुनाह बेलज्जत' सी ही बात लगती है। मारकाट भी करें और राजपाट भी न हाथ लगे, यह तो और भी बुरा होगा। यह भी नहीं कि लड़ने में अपने लोगों की मारकाट न होगी। यहाँ तो साफ ही देखते हैं कि जिन्हें मारने से हटना चाहते हैं वही दुर्योधनादि ही सामने डटे हैं। यह अर्थ इतना स्वाभाविक और मौजूँ है कि इसमें ननु नच करने की जगह रही नहीं जाती।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥ 7

कुछ भी निश्चय न कर सकने के फलस्वरूप मुझे कुछ सूझता ही नहीं और धर्म के निर्णय के बारे में मेरी बुद्धि घपले में पड़ गई है। (इसीलिए) आप से पूछता हूँ। मेरे लिए जो ठीक हो वही पक्का-पक्की कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ। मुझ शरण में आए को - शरणागत को - सिखाइए - रास्ता बताइए। 7।

यहाँ धर्म का अर्थ है कर्तव्य और वह कर्तव्य-अकर्तव्य दोनों का ही वाचक है। अर्जुन का कहना यही है कि मैं कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर सकता नहीं। मेरी अक्ल काम करती ही नहीं। वह चकरा उठी है। इसका कारण वह बताता है। कार्पण्यरूपी दोष। कृपण शब्द से कार्पण्य बनता है और इसका अर्थ है कृपणता। उसके जानते कृपणता ही वह दोष वा बुराई है जिसने बुद्धि को घपले में डाल दिया है। शराब या भाँग के नशे में जैसे दिमाग चकराता है वैसे ही यहाँ कृपणता के नशे से बुद्धि चकरा गई है। कहाँ नशा और दोष एक ही चीज है। कृपण और कृपणता किसे कहते हैं इसके संबंध में बृहदारण्यक उपनिषद के तीसरे अध्‍याय के आठवें ब्राह्मण का दसवाँ मंत्र इस तरह है - 'यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गिविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मण:।' इसका आशय यही है कि 'गार्गि; इस अविनाशी आत्मा को जाने बिना ही जो मर जाता है वही कृपण है, और जो इसे जान के मरता है वही ब्राह्मण है।'

गीता को जब उपनिषद का ही रूप मानते हैं तब तो कृपण और कृपणता के अर्थ के संबंध में उपनिषद के उक्त वचन का सहारा लेना ही होगा। आमतौर से कंजूस के अर्थ में कृपण शब्द बोला है। मगर वह मतलब तो यहाँ है नहीं। अर्जुन की कंजूसी का यहाँ सवाल ही है क्या? उसे कुछ खर्चना तो है नहीं। यह भी नहीं कि युद्ध में शक्ति खर्चने से डरता हो। उसके सामने तो मरने-मारनेवाला सवाल चट्टान की तरह खड़ा है। उसी को ले के स्वर्ग, नरक और धर्मनाश, कुलनाशादि की समस्याएँ उठ पड़ी हैं। फिर खर्च की कंजूसी की क्या बात? वह यह खुद-ब-खुद कहता भी कैसे कि मैं कंजूसी कर रहा हूँ? और अगर कंजूसी होती तो फिर कृष्ण का जवाब दूसरे ढंग का क्यों होता? वह तो आत्मा की अजरता, अमरता और अविनाशिता से ही शुरू करते हैं। इससे भी पता चलता है कि आत्मा के यथार्थ स्वरूप के न जानने को जो बृहदारण्यक में कृपणता के नाम से पुकारा है उसी से यहाँ अभिप्राय है। नहीं तो प्रश्न कुछ और उत्तर कुछ दूसरा ही हो जाएगा न? मर्ज दूसरा और दवा निरालीवाली बात जो हो जाएगी। इसलिए कृपण शब्द का वास्तविक अर्थ तो यही है। कंजूस के अर्थ में तो वह इसीलिए बोला जाता है कि वैसा आदमी भी अज्ञानी होता है। वह अपनी चीज का ठीक उपयोग या खर्च जानता नहीं। इसीलिए तो मुनासिब मौके पर ही उलटा खिंच जाता और काम बिगाड़ देता है जिसके फलस्वरूप दूसरे ढंग से कहीं ज्यादा खर्च हो जाता है। आत्मा को ठीक-ठीक न जानने वाले भी उलटा ही काम करते रहते हैं। इसीलिए अर्जुन जानना चाहता है कि आत्मतत्त्व क्या है, आत्मा का असली रूप क्या है, बुरे-भले कर्मों का क्या रहस्य है, आदि बातें उसे अच्छी तरह समझा दी जाए। ताकि उसके दिमाग का अँधेरा दूर हो के कर्तव्य पथ प्रशस्त हो सके। इसीलिए 'उपहतस्वभाव' में जो स्वभाव शब्द है और जिसका अर्थ पहले ही आत्मा का असली रूप या हस्ती किया जा चुका है वह भी ठीक ही है। अज्ञान के चलते आत्मा के स्वरूप का उपहत, विकृत या मरने-मारने वाला मालूम होना ठीक ही है।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।

अवाप्य भूमावसपत्नमृ द्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥ 8

क्योंकि भूमंडल का निष्कंटक समृद्ध राजपाट देवताओं का आधिपत्य - इंद्र का पद - मिल जाने पर भी मुझे तो (ऐसी चीज) नजर नहीं आ रही है जो इंद्रियों (तक) को सुखा डालने वाले मेरे इस शोक को दूर कर सके। 8।

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप।

न योत्स्य इति गोविंदमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥ 9

संजय कहने लगा - शत्रु को तपाने वाला अर्जुन हृषीकेश - कृष्ण - से इस तरह कह के और (उन्हीं) गोविंद से (यह भी) कह के कि (हर्गिज) न लड़ूँगा, चुप हो गया। 9।

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत।

सेनयोरुभयोर्म ध्ये विषीदन्तमिदं वच:॥ 10

(इस पर), दोनों फौजों के बीच (खड़े) शोकाकुल अर्जुन से कृष्ण (उसका) कुछ उपहास करते हुए से कहने लगे। 10।

यहाँ यह जान लेना होगा कि अर्जुन की इन आखिरी बातों से कृष्ण को पता चल गया कि यह मर्ज बहुत गहरा है। उनने बखूबी समझ लिया कि उनका पहला खयाल कि अर्जुन सिर्फ माया-ममता में पड़ के ही मानव स्वभाव सुलभ कमजोरियों के करते आगा-पीछा कर रहा है, गलत है। यदि यह बात होती तो पहली ही ललकार से काम चल गया होता। मगर यहाँ तो बात ही दूसरी मालूम हुई। अर्जुन तो बहुत गहराई में घुस चुका था। आमतौर से धर्मशास्त्रों के आदेशों और धर्म के अनुशासनों का अब उस पर तब तक असर नहीं हो सकता था जब तक उसकी असली कमजोरी दूर न कर दी जाए। जब तक उसे यह पता न लग जाए कि आत्मा अविनाशी है, वह किसी को मारती नहीं और न खुद मरती है, तब तक उसमें युद्ध की मुस्तैदी आ नहीं सकती।

असल में जो साधारण समझ के या बिना समझवाले लोग होते हैं उन्हें तो पशुओं की तरह नीति एवं धर्मशास्त्रों के वचनों की लाठी से ही हाँक ले जाते हैं और जहाँ चाहें भिड़ा दे सकते हैं। उनके लिए यही बात काफी होती हैं। मगर जो आगे बढ़ गया और भले-बुरे का विचार स्वतंत्र रूप से खुद ही कर सकता है उसके सामने ये आदेश और वचन बेकार होते हैं। इतना ही नहीं। गुरुजनों की आज्ञा भी उस पर कोई असर डाल नहीं सकती। जब तक उसके दिमाग में वह बात जँच न जाए। यही कारण है कि कृष्ण जैसे महापुरुष की भी बात का प्रभाव अर्जुन पर जरा भी न पड़ सका और वह टस से मस न हो सका।

इसीलिए कृष्ण को भी गहराई में जाना पड़ा। इस प्रकार जिस सूक्ष्म एवं दार्शनिक दिमाग से वह दलीलें कर रहा था उसी का आश्रय ले के उसे निरुत्तर करना और मनाना पड़ा। वह बार-बार भीष्म, द्रोण आदि के मरने और अपने मारने की बातें करता था। इसलिए लाचार हो के कृष्ण को सबसे पहले इस मरने-मारने का रहस्य बताना एवं भंडाफोड़ करना ही पड़ा। उनने साफ ही देखा कि इसे तो आत्मा के ककहरे का भी ज्ञान नहीं है - यह जानता ही नहीं कि वह क्या चीज है। यह तो समझता है कि सचमुच वह मरने-मारने वाली कोई चीज है। यही कारण है कि वह धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा; पुण्य-पाप और स्वर्ग-नरक का ताल्लुक आत्मा से ही जोड़ के हिचकता है। क्योंकि युद्ध में जब आत्मा ने हिंसा की तो पाप भागी होके खामख्वाह नरक जाएगी ही। इसीलिए वह हिंसा से बचना चाहता है। फलत: कुलसंहार के भयंकर दोषों से उसकी आत्मा काँपती है। क्योंकि वह उसमें अपनी और दूसरों की भी - सभी की - अधोगति देखता है।

इस प्रकार आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना ही यह सारी बला है, यह कृष्ण को साफ नजर आया। उनने देख लिया कि उस स्वरूप के जानते ही यह सारा परदा कुहासे की तरह फट जाएगा। इसीलिए उनने आत्मा के ही स्वरूप को ले के गीतोपदेश आरंभ किया। यदि आत्मा अकर्त्ता और अविनाशी सिद्ध हो जाए तो फिर स्वर्ग-नरक और पाप-पुण्य का सवाल उठता ही कहाँ है? इसलिए पहले जड़ को ही साफ करना उनने उचित समझा और जरूरी भी। क्योंकि आगे चल के जो कर्मों और कर्मयोग का विवेचन उनने किया है वह भी आत्मज्ञान के बिना नहीं समझा जा सकता और न वह योग ही हासिल हो सकता है। यह बात पहले विस्तार के साथ बताई जा चुकी हैं। कर्मयोग का भी मूलाधार आत्मविवेक ही माना गया है। इसीलिए आत्मविवेक पहले और कर्म का विवेक पीछे इसी दूसरे ही अध्‍याय में आया है। शेष अध्यायों में तो उसी का प्रकारांतर से स्वतंत्र रूप से स्पष्टीकरण किया जाकर एक-एक चीज पर काफी प्रकाश डाला गया है।

यहाँ जो प्रहास या उपहास की बात कही गई है उसका भी मतलब समझ लेना होगा। 'इव' शब्द देकर पूरा प्रहास रोका गया है। कहने का मतलब यह हो जाता है कि ऐसा मालूम पड़ता था कि कृष्ण अर्जुन का उपहास कर रहे हैं - उसकी मखौल उड़ा रहे हैं। अगले श्लोक में उनके कहने का जो तरीका है उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है। वह कहते हैं कि बातें तो बड़ी अक्ल की करते हो। मगर अफसोस ऐसे पदार्थों का करते हो जिनका करना चाहिए ही नहीं। यह एक तरह का परिहास ही तो है। यदि किसी विपक्षी से बातें करनी हों तो यही बात परिहास हो जाएगी। मगर अर्जुन तो शिष्य बन के शरण में आ चुका है। वह इहलोक तथा परलोक के सुखों से पूरा विरागी भी हो चुका है, जिससे साफ हो जाता है कि वह आत्मज्ञान का पूर्ण अधिकारी बन चुका है। भला ऐसे आदमी का उपहास कृष्ण जैसा विवेकी महापुरुष कैसे कर सकता है? यह तो उनकी महत्त्व के विपरीत अत्यंत छोटी बात और विवेकशून्यता हो जाएगी। उपहास तो प्रतिवादी, प्रतिपक्षी या शत्रु का करते हैं, या उसका जो समानता का दावा करे। जो शरणागत हो, शिष्य हो, संसार और स्वर्गादि के सुखों से विरागी हो, उन्हें कुछ न समझता हो और ज्ञानप्राप्ति की ही जिसे भूख हो उसका उपहास कैसा? इसीलिए कह दिया है कि कृष्ण अर्जुन का उपहास करते जैसे मालूम हुए। जिस तरह उनने उपदेश देना शुरू किया उसे बाहर से देख के सारी बातों को न जानने वाला कोई भी आदमी उपहास ही मान सकता है। यही वैसा कहने का आशय है।

असल बात यह है कि उस समय की कृष्ण की भावभंगी अजीब और मनोवृत्ति निराली थी। उनकी विलक्षण दशा थी। वैसे संकट के समय एकाएक अर्जुन की वैसी हालत देख के, जिसका उन्हें या किसी को जरा-सा आभास भी पहले न मिला था, उन्हें आश्चर्य से दंग हो जाना पड़ा कि यह क्या हो गया! इस लड़ाई को ले के वह काफी दौड़े-धूपे। परेशान भी पूरे हो चुके थे। इसी के करते उनके सगे भाई बलराम एक तरह से विरागी भी हो गए थे। दुर्योधन के साथ न सिर्फ उनकी, बल्कि औरों की भी, काफी तनातनी हो चुकी थी और मामला बहुत दूर तक पहुँच चुका था। ऐसी दशा में जिस चीज की जरा भी आशा-आशंका न थी वही हो जाने से एक तो उन्हें लड़कपन जैसे जँची भी। आखिर वह बच्चा तो था नहीं। उसकी तर्क-दलीलों से ही साफ झलकता है कि काफी समझदार और दूरंदेश था। फिर उसने मैदाने जंग में आने के जरा भी पहले इसका क्यों न इशारा तक किया? आखिर जो बातें वह वहाँ कह गया। वह कोई नई तो थीं नहीं। उन्हीं के लिए तो वर्षों से सारी तैयारी हो रही थी। इसीलिए अर्जुन का लड़कपन समझ के उन्हें कुछ क्रोध भी आया। हँसी भी आई! साथ ही, उन्हें एकाएक भारी अंदेशा भी हो गया कि कहीं सचमुच सारा गुड़ गोबर ही न हो जाए। क्योंकि ऐसी आकस्मिक घटनाओं के चलते जो न हो जाए उसी में आश्चर्य हो सकता है। अर्जुन का वह बच्चों जैसा रोना-धोना, उसकी वह परेशानी और बेचैनी, उसकी वह निराली मनोवृत्ति वगैरह देख के उन्हें दया भी हो आई। उनका बहुत पुराना प्रेमी तो था ही और उसी की यह दशा! इसके सिवाय जब इतनी गंभीर बातों का उपदेश करना था और बारीकियों की तह में अच्छी तरह घुसना एवं उसे भी घुसाना था, तो गंभीरता का होना भी जरूरी था।

इस प्रकार उनमें आश्चर्य, क्रोध, हँसी, दया; अंदेशा और गंभीरता आदि अनेक बातों तथा भावनाओं एक ही साथ जमघट हो गया। उन्हीं के साथ आगे-पीछे की जानें कितनी ही घटनाओं की स्मृति भी आ धमकी। ऐसे मौके पर तो स्वभावत: हजारों बातें याद आई जाती हैं। ऐसी दशा में कृष्ण का उस समय का, जब उनने गीतोपदेश शुरू किया, स्वरूप, चेहरा और भावभंगी - ये सभी - निराले ढंग के थे, अजीब थे, अलौकिक थे। आधे दर्जन से ज्यादा खयालों और भावनाओं का, जो प्राय: एक साथ कभी पाई जाती ही नहीं और परस्पर विरोधी-सी हैं, एक साथ सम्मिलित एक अलौकिक चीज थी, जिसका ठीक-ठीक वर्णन किया जा सकता नहीं। इसीलिए यहाँ यद्यपि 'परिहास करते हुए की तरह' कह के ही खत्म किया। तथापि अंत में अठारहवें अध्‍याय के 77वें श्लोक में तो उस रूप को - कृष्ण की उस दशा और भावभंगी को - अत्यंत अद्भुत, अत्यंत निराला, न भूतो न भविष्यति, कह दिया है। वहाँ संजय साफ ही कहता है कि कृष्ण के उस अद्भुत रूप को बार-बार बखूबी याद करके मुझे महान आश्चर्य हो रहा है - मैं आश्चर्य में डूब रहा हूँ और रह-रह के मुझमें आनंद का प्रवाह भी बह रहा है - 'तच्च संस्मृत्य सस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:'। सचमुच ही वह अकथनीय, अनिर्वचनीय आकृति थी।

कुछ लोगों ने 'इव' देखकर ही प्रहास का अर्थ मुस्कुराहट करके संतोष किया मगर यह तो प्रहास शब्द के साथ ज्यादती है। प्रहास, परिहास और अवहास ये शब्द प्राय: एक ही मानी में आते हैं। अवहास में कुछ अपमान की बात भी साफ मालूम होती है जो शेष दो में पाई नहीं जाती। किंतु अर्थात आती है। केवल मुस्कुराने का सवाल तो वहाँ था नहीं। वहाँ तो पेचीदा पहेली खड़ी थी जिसे सुलझाना था। इसलिए तो सारी दलीलें दी गई है। केवल मुस्कुराहट की बात कहने पर सारी परिस्थिति का अनादर करना हो जाएगा।

अब रही एक ही बात। आत्मा को अविनाशी, अजन्मा अकर्त्ता सिद्ध करने के पूर्व यह प्रश्न हो सकता है कि जब भीष्मादि का मरना-मारना सामने है तो देखना चाहिए कि भीष्मादि कहने से कौन-सी चीज समझी जाती है। भीष्म शब्द से दो ही वस्तुओं का बोध हो सकता है - या तो शरीर का या उसमें रहने वाली आत्मा का। इन दोनों को ही मान के कृष्ण ने उत्तर देना उचित समझा और दिया भी है। मगर पहले आत्मा की ही बात उठा के पीछे देह की इसीलिए उठाई है कि आमतौर से लोग भीष्म आदि शब्दों से आत्मा को ही समझते हैं, न कि देह को। अर्जुन ने भी स्वर्ग, नरक आदि की बातें उठा के खुद मान लिया है कि भीष्म का अर्थ है आत्मा। क्योंकि शरीर तो यहीं रह जाता, सड़-गल या जल जाता है। वह तो स्वर्ग या नरक में जाता है नहीं। वहाँ जाने वाली चीज तो शरीर से जुदा आत्मा ही है। इसीलिए उसी आत्मा की बात ले के पहले कृष्ण ने कहना शुरू किया। मगर जो लोग भीष्मादि कहने से उनके भौतिक शरीरों या इंद्रियादि को ही समझते हैं उन्हें भी मुँह तोड़ उत्तर देना ही चाहिए, इसीलिए आगे 'मात्र-स्पर्शा:' (2। 14) 'अंतवंत इमे' (2। 18) तथा 'अथ चैन' (2। 26) में उनकी बात भी आई है। इसीलिए पहले -

श्रीभगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिता:॥ 11

श्री भगवान ने कहा - (यह अजीब बात है कि एक ओर तो) तू उन्हीं की चिंता करता है जिनकी करना न चाहिए और (दूसरी ओर) अक्ल की बातें बोलता है! (क्योंकि) पंडित लोग (तो) मरे-जियों की चिंता करते ही नहीं। (शोक या चिंता के मानी हैं यहाँ परवाह करना)। 11।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम॥ 12

ऐसा तो हो सकता नहीं कि हम पहले कभी न भी थे, तुम्हीं न थे (या) ये राजे ही न थे और यह भी नहीं कि इसके बाद भी हम सभी न होंगे। 12।

आत्मा को अविनाशी सिद्ध करने में कृष्ण की जो दलील यहाँ है उसका आशय यही है कि सभी आत्माओं के तीन विभाग हो सकते हैं - कहने वाली (कृष्ण की) सुनने वाली (अर्जुन की) और शेष उन सभी की जो या तो वहाँ लड़ने को मौजूद थे या और जगह थे। लेकिन मरने-मारने का प्रसंग होने के कारण ही और जगह वालों का नाम न लेके सिर्फ रणक्षेत्र में मौजूद तीन तरह के लोगों की ओर इशारा किया है। इसीलिए 'ये राजे' - "इमे जनाधिपा:" - कहने का अभिप्राय केवल राजा लोगों से ही न होके जो वहाँ मौजूद थे सभी से है। यह ठीक है कि कुछ को छोड़ सभी राजे या क्षत्रिय ही थे - उन्हीं की प्रधानता थी। इसीलिए सभी को राजे - 'जनाधिपा:' कह दिया। जैसे जहाँ ब्राह्मण अधिक हों उस गाँव को ब्राह्मणों का गाँव कह देते हैं। क्योंकि आखिर कुछ और लोग तो गाँव में खामख्वाह होंगे। नहीं तो काम कैसे चलेगा?

जो कुछ तर्क युक्ति दी है उससे यह साफ हो जाता है कि जब सभी आत्माएँ मौजूद ही हैं तो वर्तमान के लिए तो कोई बात हई नहीं। रह गई भूत और भविष्य की बात सो तो साफ ही कह दिया है कि न तो पहले ही ऐसा कोई समय था जब हम सभी मौजूद न थे और न आगे ही ऐसा वक्त होगा जब हम न रहें। नतीजा यह हुआ कि जो पदार्थ सभी समयों में रहे वह तो नित्य एवं अविनाशी ही हुआ। नित्य या अविनाशी का लक्षण ही यही है कि जो तीनों कालों में - सदा - रहे। फिर आत्मा के मरने का सवाल आता ही कहाँ से है? मरने का अर्थ ही है न रहना, और आत्मा को तो आगे भी सदा रहना ही है।

यदि किसी का खयाल हो कि पहले वाली आत्मा दूसरी थी, वर्तमान वाली और ही है और आगे तीसरी ही होगी। भूत, वर्तमान, भविष्य में एक ही कैसे रहेगी? भूत, वर्तमान और भविष्य की शरीरें तो निश्चय ही तीन हैं। फिर उनमें रहने वाली आत्माएँ भी तीन क्यों न हों? तो उसका उत्तर यह है कि -

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहांतरप्राप्ति र्धीर स्तत्र न मुह्यति॥ 13

जिस तरह आत्मा या जीव के इस शरीर की लड़कपन, जवानी, बुढ़ापा (ये तीन दशाएँ होती हैं), ठीक उसी तरह दूसरी देहों - जन्मों की प्राप्ति भी है। (इसलिए) उस बात में समझदार (कभी) धोखे में नहीं पड़ता है। 13।

इसके संबंध में ज्यादा बातें पहले ही कही जा चुकी हैं और यह बात खूब साफ की जा चुकी है। कहने का निचोड़ यही है कि जिस प्रकार इस जन्म में बालपन, बुढ़ापा और जवानी के तीन विभिन्न एवं भूत, वर्तमान तथा भविष्य कालवर्ती शरीरों में एक ही आत्मा सभी मानते हैं, जरा भी शक नहीं करते और न धोखे में पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार तीन या ज्यादा जन्मों की भूत, वर्तमान और भावी देहों में भी एक ही आत्मा क्यों न मानी जाए? तर्क-युक्ति तो दोनों जगह एक ही है। एक शरीर की तीनों अवस्थाएँ भूत, वर्तमान और भविष्य की तो हईं। बाल्यावस्था की अपेक्षा यद्यपि जवानी एवं बुढ़ापा भविष्य की चीजें हैं। फिर भी बाल्य के गुजरने पर जवानी ही वर्तमान होती है, बालपन भूत और बुढ़ापा भावी। श्लोक में तीन अवस्थाएँ जो शरीर की दिखाई गई हैं वह एक दूसरे से बिलकुल ही जुदी हैं और उन्हीं में सारा शरीर गुजर जाता है। इन तीन अवस्थाओं से यहाँ कोई खास मतलब यह नहीं है कि कितने वर्ष तक कौन-सी रहती है। यहाँ बाल की खाल खींचना है नहीं।

इस प्रकार तर्क दलीलों से आत्मा की अमरता सिद्ध हो गई। मगर संसार का काम सिर्फ तर्क दलीलों से ही तो नहीं चलता। यहाँ तो कुछ ठोस बातें हैं जिनसे इनकार किया जा सकता है नहीं, और उन्हीं के अनुसार यह बराबर देखा जाता है कि प्रियजनों के संयोग-वियोग से सुख-दु:ख होते ही हैं। चाहे आत्मा अमर हो या उससे भी बढ़ के हो। मगर शरीरांत होने पर सगे-संबंधियों को अपार कष्ट होता ही है, और यही बात इस युद्ध के चलते विस्तृत रूप में होने वाली है। फिर क्यों न इससे किनाराकशी की जाए? भीष्मादि कहने से शरीर भी तो लिए ही जाते हैं और उनका नाश होता ही है। इसी बात का उत्तर यों देते हैं -

मा त्रा स्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ 14

हे कौंतेय, भौतिक पदार्थों के संबंध सरदी-गरमी की तरह कभी सुख और कभी दु:ख देते रहते हैं (जरूर)। मगर यह ठहरे तो आने-जाने वाले ही और इसीलिए चंदरोजा ही। (अतएव) इन्हें तो बरदाश्त करना ही होगा हे भारत! 14।

मात्र स्पर्श ही गीता (5। 21-22) में बाह्य स्पर्श कहा है। स्पर्श नाम है संबंध का। बाह्य कहते हैं भौतिक को। वहीं देखने से यह साफ हो जाता है।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ 15

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ, सुख-दु:ख में एक रस रहने वाले जिस पुरुष को ये पदार्थ उद्विग्न नहीं कर पाते वही अमृतत्व - मुक्ति - प्राप्त करता है। 15।

'सम दु:ख-सुख' का यह मतलब नहीं कि दोनों को एक बना दें। ऐसा तो होना असंभव है। दोनों दो चीजें हैं। फिर एक कैसे होंगी? यह भी न कि दु:ख या सुख जरा भी मालूम ही न हों। चेतन पुरुष के लिए यह भी अनहोनी चीज है। किंतु जैसे पानी की लकीर बनते ही मिट जाती है ठीक वैसे ही दिल-दिमाग पर जब ये दोनों नाममात्र का ही असर करें तभी मनुष्य सम दु:ख-सुख कहा जाता है। सारांश यह कि दिल-दिमाग की गंभीरता (serenity or balance) को ये बिगाड़ न सकें। यही गीता का साम्यवाद है जो अभी पहली बार आया है।

इस प्रकार आत्मा को अविनाशी या नित्य और शरीरादि को अनित्य तो बता दिया। इससे काम भी चल गया। मगर कौन-सा पदार्थ नित्य और कौन-सा अनित्य है इसे कौन जानें? हरेक पदार्थ को गिन-गिन के देखना और समझना तो असंभव है। क्योंकि पदार्थ ठहरे अनंत। फिर सभी को जाना कैसे जाए? और अगर किसी को न जान सके तो उसी को लेकर भ्रम और गड़बड़ हो सकती है कि यही आत्मा तो नहीं है? इस तरह अनिश्चय का वायुमंडल बना रह सकता है। फलत: पूर्व के प्रतिपादन से पूरा काम चलता दीखता नहीं। इसीलिए एक तो नित्य और अनित्य या सत्य और मिथ्या के बारे में कोई दार्शनिक नियम, लक्षण तथा परिभाषा चाहिए। ताकि बेखटके पहचान हो सके। दूसरे, आत्मा की पहचान भी पक्की होनी चाहिए कि वह कौन है। नहीं तो शायद घपला हो जाए। ऐसे मामले में जितनी सफाई हो जाए उतना ही अच्छा।

एक बात और भी है। ऐसी शंका कर सकते हैं कि यह क्यों न माना जाए कि इस शरीर में जो आत्मा है उसका अस्तित्व इससे पहले न था? वह अस्तित्व तो पहले-पहल इसी शरीर में ही आया है, हुआ है। इसी तरह यह भी क्यों न मान लिया जाए कि इसी शरीर के अंत के साथ आत्मा का भी अंत हो जाता है और आगे उसे पा नहीं सकते? यह भी प्रश्न हो सकता है। अतएव इसका पूरा-पूरा समाधन हो जाना जरूरी है। आगे के 16वें से लेकर 25वें श्लोक तक यही बात समझाई गई है। उसमें भी पहले शुरू किया है इस आखिरी शंका को ही लेकर कि इस शरीर में जो आत्मा है वह पहले न थी।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्त त्त्व दर्शिभि:॥ 16

जो पदार्थ पहले न हो उसका अस्तित्व होई नहीं सकता - वह बनी नहीं सकता, (और) जो मौजूद है - सत्तावाला है - उसका नाश या खात्मा भी नहीं हो सकता। इन दोनों बातों का निर्णय तत्त्वदर्शी लोगों ने (ही) कर दिया है। 16।

यहाँ अंत शब्द तत्त्वदर्शी शब्द के साथ होने से निश्चय या निर्णय के ही अर्थ में आया है। क्योंकि तत्त्वदर्शी तो दार्शनिक होते हैं। जिस बात का आखिरी फैसला वाद-विवाद के बाद कर लेते हैं उसे ही सिद्धांत, राद्धांत तथा कृतांत भी कहते हैं। इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है। वह यह है कि जिन पदार्थों के बारे में अंत या अंतिम बात हो चुकी, फैसला हो चुका वही सिद्धांत है। 'सांख्ये कृतांते' (18। 13) में कृतांत शब्द और उसके अंत शब्द का यही अर्थ है।

इस तरह सिद्ध हो जाता है कि यदि आत्मा नाम का कोई पदार्थ पहले न होता तो उसका अस्तित्व इस शरीर में होता ही नहीं। इसी तरह जब यहाँ वह है तो आगे भी रहेगा। क्योंकि जो चीज है वह खत्म हो नहीं सकती। इसलिए आत्मा अनित्य है। उसकी पहचान यों है -

अविनाशि तु त द्धिद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्क र्त्तु मर्हति॥ 17

अविनाशी तो वही वस्तु - आत्मवस्तु - जानो जो इस समूचे जगत को फैलाती, बनाती है और जो इसमें व्याप्त है - इसकी रग-रग में घुसी है। इस अविनाशी - निर्विकार - का नाश कोई भी कर नहीं सकता। 17।

जो सभी पदार्थों का स्व है, निजी रूप है, अपना रूप है, स्वरूप है वही तो उसकी आत्मा है, सबकी आत्मा है। यह स्व कहाँ नहीं है? यह तो सभी जगह है, सभी में है। आखिर अपना तो सभी का कुछ न कुछ होता ही है। इसीलिए वह आत्मा अविनाशी है। क्योंकि स्व तो रहेगा ही। और नहीं, तो जो पदार्थ नष्ट होगा उसके नाश की हस्ती, सत्ता तो रहेगी ही और वह भी तो स्व है। कभी पदार्थ के रूप में वह स्व, वह आत्मा नजर आती है तो कभी पदार्थ के नाश के रूप में कभी विधि रूप में (Positively) तो कभी निषेध रूप में (negatively)। इसीलिए तो उसे अविनाशी और नित्य मानना ही होगा। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कभी यह स्व, यह आत्मा रहेगी न। क्योंकि जब कुछ न होगा, तो और नहीं तो न होने का स्व या अस्तित्व तो रहेगा ही। कम से कम उसे तो उस समय मानना ही होगा। नहीं तो यह कहेंगे कैसे कि कुछ नहीं रह गया है? इसीलिए उसे नाश की आत्मा मान के नित्य और अविनाशी मानते है। जब विधि और निषेध उसी के रूप हैं और सभी पदार्थ भी उसी के हैं तो यह भी ठीक ही है कि उसी ने सबका प्रसार किया है, जगत का यह ताना बाना फैलाया है।

मगर शरीर, घड़ा, कपड़ा, रोटी, जमीन वगैरह की क्या हालत है? ये तो सर्वत्र फैले हैं नहीं। शरीर में कपड़े का, कपड़े में शरीर का पता कहाँ है? दोनों में घड़े का और घड़े में भी दोनों की सत्ता है कहाँ? इसी प्रकार सभी पदार्थों को एक-एक करके देख सकते हैं। यहाँ तो अपनी-अपनी डफली बज रही है। किसी का किसी से ताल्लुक नहीं है, नाता-रिश्ता हई नहीं। सभी अपने ही तक सीमित हैं। यह तो घोर विभिन्नता है, अजीब जुदाई है, निराली फूट है। यह अनोखा गृहयुद्ध (Civil war) है भयंकर गृहकलह है। यही तो वास्तविक कौरव-पांडव का महाभारत है। यहाँ कोई किसी को पूछता नहीं। फलत: सभी आपस में एक दूसरे से टकरा के खत्म हो जाते हैं। कभी घड़े से टकरा के शरीर खत्म होता है, तो कभी शरीर से टकरा के घड़ा और दोनों से टकरा के कपड़ा। यही हालत सभी पदार्थों की है। ठीक ही है। मेल में, ऐक्य में जीवन है, जिंदगी है, सृष्टि है। परमाणुओं का परस्पर या प्रकृति का पुरुष से संयोग होने से ही मेल होने से हो तो सृष्टि होती है। विपरीत इसके उनकी जुदाई या पार्थक्य होने से ही प्रलय होती है, विनाश होता है। जब गुण आपस में मिलते हैं तभी सृष्टि होती है और ज्योंही तन गए कि प्रलय आ धमकी। यही बात जगत के सभी पदार्थों की है। मगर इन सभी के भीतर मालिक बनके स्व बैठा है, आत्मा मौजूद है और इन बच्चों के घरौंदों के बनने-बिगड़ने का तमाशा देख रही है। वह निरंतर न रहे तो आखिर यह तमाशा देखे कौन? यही बात इस तरह कहते हैं -

अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माषु ध्य स्व भारत॥ 18

इन शरीरों के मालिक अविनाशी तथा अचिंत्य (आत्मा) के ये शरीर तो विनाशी ही कहे गए हैं - माने गए हैं - । इसलिए युद्ध करो हे अर्जुन! 18।

जब इन शरीरों का नाश होना ही है तो फिर युद्ध में आनाकानी क्यों? ये शरीर अगर लड़ाई में खत्म न हुए तो कहीं और ही जगह दूसरी ही चोट खा के या बीमारी से ही खत्म होंगे ही। और नहीं तो बिजली गिरने, पानी में डूबने या हिंसक जानवरों के आक्रमण से ही खत्म होंगे। तब हर्ज ही क्या कि यहीं रणांगण में खत्म हों? फर्क इतना ही है कि यहाँ 'समर मरण अरु सुरसरि तीरा। राम काज क्षणभंग शरीरा।' है। यहाँ मरने से यश है, शान है, कर्तव्य पालन का संतोष है, मनस्तुष्टि है, और अंत में सद्गति है। मगर और जगह दूसरी तरह मरने में यह बात नहीं होने से जबर्दस्त घाटा है। इसलिए जरूर लड़ो।

आत्मा को जो अप्रमेय कहा है और जिसका अर्थ है कि बुद्धि या दिमाग भी जिसे पकड़ नहीं सकता, जो उसकी भी पहुँच के बाहर की चीज है, उसका मतलब साफ है। यदि वह किसी की पकड़ या कब्जे में आ जाए तो एक तो उसका स्वातंत्र्य जाता रहे। दूसरे पराधीन होने पर वह जिसके अधीन होगी उसके हाथों उसका सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ तक कि खात्मा भी। दिमाग या बुद्धि आदि भी तो शरीर आदि की तरह भौतिक पदार्थ ही ठहरे, जिनकी अपनी-अपनी खिचड़ी अलग पकती रहती है। इसीलिए उनका खात्मा भी होता है। और अगर आत्मा भी उनकी मातहती में आ जाए तो वह कैसे बच पाएगी? तब तो उसकी खैरियत न होगी लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। बुद्धि भले ही चली जाए, खत्म हो जाए। मगर उसके स्व को निषेध रूप में रहना ही है और वही स्व है आत्मा। फिर आत्मा बुद्धि के पंजे में कैसे रहे? वह तो साफ ही उसकी पहुँच से बाहर है। यही कारण है कि उसके बारे में तरह-तरह के खयाल होते हैं। कोई उसे मरणशील मानता है, तो कोई उसे मारनेवाली ही कहता है। कोई नित्य मानता है, तो कोई अनित्य। जब बुद्धि ठोकरें खा के वहाँ तक पहुँची नहीं सकती, तो आखिर और हो ही क्या सकता है? जब वहाँ तक बुद्धि पहुँचती ही नहीं तो उसे मारने-मरने वाली कहना केवल नादानी है, उलटी बात है। क्योंकि इससे तो ऐसा हो जाता है कि बुद्धि ने उसे पहचान लिया है, उसकी हकीकत जान ली है, वह उस तक पहुँच चुकी है। मारने-मरने की बात तो शरीरादि में ही है और यह है आपसी टक्कर, जैसा कि अभी कहा है। आत्मा में यह बातें मानना कोरा अज्ञान है, मूर्खता है। यही बात आगे यों लिखी हैं -

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हंति न हन्यते॥ 19

(इसलिए) जो इस आत्मा को मारनेवाली मानता है और जो इसे मरनेवाली समझता है उन दोनों ही को असलियत मालूम नहीं है। क्योंकि यह तो न मारनेवाली है (और) न मरनेवाली। 19।

जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 20

(क्योंकि) यह (आत्म वस्तु) न तो कभी जनमती है और न मरती है (और यह भी इसीलिए कि) यह पहले न रह के पीछे होती जो नहीं और हो के उसके बाद नहीं रहती भी नहीं। इसीलिए यह जन्मरहित, नित्य-काल से जो घिरी न हो - हमेशा रहने वाली और प्राचीन (से भी प्राचीन) चीज है (जो) शरीर नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। 20।

इसमें एकाध बातें कुछ समझने की हैं, हालाँकि वह नई नहीं हैं। जो बात 'नासतो विद्यते' में कही जा चुकी है वही यहाँ दूसरे शब्दों में कही गई है। श्लोक के पूर्वार्द्ध के आधे में आत्मा के जनमने-मरने का निषेध है। शेष आधे में उसका कारण दिया गया है। जन्म लेने का मतलब ही है पहले न रह के पीछे होना या अस्तित्व में आना। परंतु आत्मा में यह बात नहीं है। वह तो पहले भी थी ही। फिर उसका जन्म हो कैसे? इसी तरह मरने के मानी है कभी रह के बाद में न रहना। मगर आत्मा में तो यह भी बात नहीं है। उसके कभी भी न रहने का तो सवाल ही नहीं है। तब उसका मरना कैसे संभव है?

आत्मा को बुद्धि पकड़ तो सकती नहीं। फिर भी उधर जाने की कोशिश करती रहती है। उसके लिए आत्मा तक पहुँचने की सीढ़ी यही है कि जो चीजें उसकी पकड़ में आती जाएँ उन्हें छाँटती चली जाए। इसी को उपनिषदों में 'नेति-नेति' की रीति या निषेध प्रक्रिया कहा है। इस तरह सब भौतिक पदार्थों को छाँटते-छाँटते जो सभी का मूलाधार बच रहेगा आत्मा वही पदार्थ होगा। क्योंकि निराधार तो कोई चीज होती नहीं। इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में यही निषेधवाली रीति का अनुसरण है। इसीलिए 'अज' का अर्थ है जन्मरहित या जन्म लेने वालों से निराला। नित्य का अर्थ है जो समय से बँधा न हो। अनित्य पदार्थों को समय घेरे रहता है, वह समय के ही पेट में, उसके भीतर रहते हैं। मगर आत्मा के बारे में यह बात नहीं है। नित्य शब्द यद्यपि निषेध रूप में मालूम नहीं होता, तथापि ऐसा ही अर्थ करना ही होगा। शाश्वत का भी यही अर्थ है। जब समय से घिरा नहीं है तब उसे हमेशा रहने वाला कहने के मानी क्या हैं? इसका सीधा अर्थ है कि वह समूचे समय से घिरा है। मगर यह बात पहले कथन के विरुद्ध हो जाती है। जो समय से घिरा न हो वही समूचे समय से घिरा हो, यह कुछ अजीब-सी बात हो जाती है। बात दरअसल यह है कि हरेक भौतिक पदार्थ कुछ न कुछ समय से घिरे रहते हैं - किसी वक्त जन्म के कभी खत्म हो जाते हैं। यह भी बात है कि समय तो उनके जन्म के पहले भी था और खत्म होने के बाद भी रहता ही है। इसीलिए प्रत्येक भौतिक पदार्थों की यही बात है कि किसी न किसी समय के ही भीतर रहते हैं। समूचे समय के भीतर कोई भी नहीं रहता है। मगर आत्मा तो उनसे भिन्न है। क्योंकि निषेध की बात कह चुके है। इसीलिए उसे समूचे समय से घिरी वस्तु या हमेशा रहने वाली कह देते हैं। न कि सचमुच समय का अधिकार उस पर है। इसीलिए शाश्वत शब्द भी निषेधात्मक ही है। यही हालत पुराण की भी समझिए। पीछे जितने पदार्थ मिलते जाते हैं सभी का निषेध करते हैं कि यह आत्मा नहीं है यह आत्मा नहीं है। इस तरह पीछे बढ़ते जाने पर जो पुरानी से भी पुरानी चीजें मिलें उनका भी निषेध करने के बाद अर्थत: यह दिया जाता है कि वह तो पुरानों से भी पुरानी है। जब जन्म होता ही नहीं तो खामख्वाह उसे पुराने से भी पुरानी कहना ही पड़ता है?

इस तरह अज और पुराण शब्द पीछे की तरफ जा के आत्मा को ढूँढ़ते और उसकी ओर इशारा करते हैं। उत्तरार्द्ध का 'न हन्यते' आगे की तरफ जा के ढूँढ़ता और इशारा करता है और नित्य एवं शाश्वत शब्द बीच में रह के वही काम करते हैं। जैसे आवश्यकता पड़ने पर यदि कोई चूहा किसी को बिल्ली का परिचय कराना चाहे तो बिल्ली के निकट तो वह जा सकता नहीं; किंतु दूर से ही इशारा करता है कि देखा वह है, वह या जैसे उल्लू पक्षी सूर्य की ओर इशारा करे; ठीक उसी तरह बुद्धि आत्मा की ओर सिर्फ इशारा करती ह कि देखो वह है, वह । वह उसे ठीक-ठीक बता नहीं सकती।

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हंति कम्॥ 21

(इसलिए) हे पार्थ, जो पुरुष - मर्दाना - इस आत्मा को जन्मरहित, विकार शून्य, अविनाशी और काल के घेरे से बाहर जानता है - मानता है, समझता है, अनुभव करता है - वह (भला) किसे मरवाता (और) किसे मारता है? 21।

अब यह प्रश्न होता है कि तो मरना-मारना आखिर कहते हैं किस चीज को? दुनिया में मरने-मारने जैसी चीज नहीं है, यह तो कही नहीं सकते हैं। यह तो आए दिन की चीज है, हमारे रोज के व्यवहार की बात है। हम हमेशा ही यह मरा, वह मरा, इसने मारा, उसने मारा, फलाँ ने मरवाया, की बातें करते ही रहते हैं। सभी लोग ऐसी ही बातें करते हैं। यह तो कही नहीं सकते कि सबके-सब पागल हैं। इसलिए इतना तो मानना ही होगा कि यह कोई चीज है। अब रही बात कि वह क्या चीज है? और अगर यह कुछ भी है तो फिर उसके लिए चिंता-फिक्र करना मुनासिब ही है। फिर भी इसकी चिंता न करके खुशी की चीज इसे कैसे मानें? इसका उत्तर इस तरह देते हैं -

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ 22

जिस तरह पुराने कपड़ों को (खुशी-खुशी) छोड़ के (कोई भी कपड़ा पहने) आदमी दूसरे नए कपड़े पहनता है। ठीक उसी तरह देह धारण करने वाली - देही - आत्मा पुराने शरीरों को छोड़ के दूसरे नए शरीरों में पहुँचती है - उन्हें स्वीकार करती है। 22।

यहाँ कई बातों का खयाल करना होगा। पहली बात तो यह कि जन्म-मरण नए-पुराने कपड़े बदलने जैसी ही बातें हैं। जब ताजे से ताजे कपड़ों को भी खुशी-खुशी छोड़ के एकदम नए कपड़े पहनने में लोग आनंद मनाते हैं तो मरने में गम क्यों मनाया जाए? यह तो उलटी बात होगी। इस श्लोक में 'जीर्ण' शब्द का फटा-पुराना अर्थ नहीं है। नए शरीरों का भी तो त्याग होता ही है और नए कपड़ों का भी। महाभारत में अभिमन्यु जैसा कोरा जवान भी तो मारा गया था। तो क्या उसके बारे में कोई और सिद्धांत लागू होगा? या कि उसके संबंध में गम मनाना ही ठीक था? ये बातें तो ठीक नहीं। इसलिए जीर्ण शब्द का अर्थ है त्यागने के योग्य या जिसके त्यागने का समय आ गया था। 'जृ' धातु, जिससे यह शब्द बना है, का अर्थ भी वय की हानि ही है, नी अवस्था - उम्र - का पूरा हो जाना। जिसे छोड़ेंगे उसकी अवस्था तो छोड़नेवाले के लिहाज से पूरी हो ही जाती है। या नहीं तो, यों समझें कि अधिकांश लोग तो पुराने ही थे। इसीलिए जीर्ण शब्द प्रयुक्त हुआ है। मगर पहली ही बात ज्यादा युक्तिसंगत लगती है।

दूसरी बात है नए शरीर के ग्रहण करने या जन्म लेने की। कोई ऐसा मान सकता है कि पुराने के छोड़ने और नए कपड़े के पहनने में तो देर नहीं लगती। किंतु छोड़ने के बाद फौरन ही नया पहन लेते है। बीच में समय गुजरने पाता ही नहीं। जब यही उदाहरण दिया गया है मरने और जनमने का, तब तो नया जन्म भी फौरन ही होना चाहिए। बीच में जरा भी समय नहीं लगना चाहिए। लेकिन यह समझ गलत होगी। कपड़े का दृष्टांत केवल इसी मानी मानी में दिया है कि एक तो कपड़े वाले की ही तरह शरीर वाला - देही - जीव शरीर से जुदा है। दूसरे वह पुराने शरीर को छोड़ के नए को खुशी से स्वीकार करता है। बस। इससे आगे दृष्टांत का कोई भी मतलब नहीं है। नहीं तो हमें यह भी मानना पड़ जाएगा कि जैसे धोती वगैरह के बदलने में ऐसा होता है कि नई धोती को पहले ऊपर से पहन लेते और पीछे पुरानी को हटाते है, शायद उसी तरह जीव भी नए शरीरों को धारण करके ही पीछे पुराने शरीरों को छोड़ता हो। और अगर इतनी दूर जाने की या तो जरूरत नहीं है; या जाने में अड़चन है; क्योंकि यह बात सरासर असंभव है, तो फौरन ही शरीर ग्रहण करने की बात तक जाने में भी वही अड़चन है। इसीलिए वहाँ तक जाने की जरूरत नहीं है।

हमने जो यह कहा है कि नए शरीरों को धारण करने के बाद ही पुरानों के छोड़ने की भी कल्पना की जा सकती है, वह केवल कल्पना ही नहीं है और न गीता के इस श्लोक से ही उसकी संभावना मानी जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्‍याय के चौथे ब्राह्मण के तीसरे मंत्र में जोंक या कीड़े का दृष्टांत देकर कहा गया है कि जिस प्रकार एक तृण पर रेंगने वाला कीड़ा जब उसके आखिरी सिरे पर पहुँचता है तो जब तक दूसरे तृण का सहारा उसे न मिल जाए पहले तृण से अपने शरीर को कभी नहीं समेटता है, हटाता है। ठीक उसी तरह इस शरीर के त्याग के बारे में भी आत्मा की हालत है। मगर यह बात कोई अक्षरश: लागू न कर ले, इसीलिए आगे फौरन कह दिया है कि इस शरीर को छोड़ने के बाद अविद्या - सूक्ष्म और कारण शरीर - का आश्रय ले के आत्मा दूसरे शरीर में जाती है - 'तद्यथा तृणजलायु का तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानमुपसंहरति।'

इसी कथन से समाधन भी हो जाता है। इस स्थूल शरीर के छोड़ने पर भी अविद्या नामक अज्ञान तो रहता ही है। वही तो जन्म-मरण का कारण है। उसी अविद्या से बना सूक्ष्म शरीर भी तो रहता ही है। उसी के आधार से आत्मा इस स्थूल शरीर से बाहर जाती है और समय पा के दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है। गीता के पंदरहवें अध्‍याय के 'ममैवांशो जीवलोके' (15। 7-8) आदि दो श्लोकों में साफ ही यह बात कही भी गई है कि चक्षु आदि इंद्रियों और मन आदि को ही ले के वह जीव शरीर छोड़ता और नए शरीर में जाता है। यही उसकी सवारी है। अपने लक्ष्य स्थान दूर देश में पहुँचने के लिए। हम भी यह चीज पहले ही अच्छी तरह समझा चुके हैं। असल में फौरन ही दूसरे शरीर का मिलना असंभव भी तो है। कोई बने-बनाए शरीर में घुसा तो देते नहीं, जैसी बनी-बनाई कोट में शरीर घुसाते हैं। शरीर तो गर्भ में बनता है। सो भी पूरे दस महीने तक लग जाते हैं। मगर इस दस महीनों के पहले भी तो यह मानना ही होगा कि यह जीव माता और पिता दोनों के ही रज-वीर्य में रहता है। तभी तो दोनों के संयोग से बच्चे के शरीर का श्रीगणेश होता है।

फिर भी इतने से ही काम चलता नही। रज और वीर्य तो अन्न से बनता है। इसलिए यह भी मानना ही होगा कि रज-वीर्य में जाने के पहले वह जीव अन्न में था जिसे स्‍त्री-पुरुष दोनों ने खाया था। अब प्रश्न है कि अन्न में कहाँ से कैसे आया? इसका उत्तर छांदोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषदों में लिखी पंचाग्नि-विद्या के प्रकरण में मिलेगा। वहीं लिखा गया है कि जीव मेघ में हो के वृष्टि के द्वारा अन्न या फलादि में आता है। मेघ में भी क्रमश: चंद्रलोक, आकाश, वायु और धूम में होता हुआ आता है। यह बात भी पहले कर्मवाद के प्रकरण में विस्तार से लिखी जा चुकी है कि वह चंद्रलोक में कैसे पहुँचता है। गीता में भी उत्तरायण-दक्षिणायन मार्गों का जो वर्णन (8। 24-25) आया है उसमें लिखा है कि अग्नि, धूम आदि के जरिए ही वहाँ पहुँचता है। यह तो बड़ी ही गंभीर और अलौकिक बात है। मगर है यह सही। इसी प्रकार कर्मों के चलते एक जगह शरीर छोड़ने के बाद वही जीव हजारों कोस पर जा के जन्म लेता है। तब फौरन कैसे शरीर ग्रहण करेगा? बीच में तो काफी समय जरूर ही लगेगा।

प्रश्न हो सकता है कि आत्मा का भी अंत क्यों न हो जाए? जब और चीजें खत्म होती हैं तो वह भी खत्म हो जाए, नष्ट हो जाए। पानी में डूब के, सड़ के, आग में जल के, हवा से सूख के या अस्त्र-शस्त्रादि की चोट से सभी पदार्थ नष्ट होते ही हैं। तब यह क्या बात है कि आत्मा भी इसी तरह नष्ट नहीं हो जाती? इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि -

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

न चेनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ 23

इसे शस्त्र काटते ही नहीं, न अग्नि जलाती है। पानी भी भिगोता नहीं और न हवा सुखाती है। 23। (क्यों? इसीलिए कि, - )

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥ 24

यह काटा जा सकता नहीं, जलाया भी नहीं जा सकता। यह न (तो) भिगोया ही जा सकता है और न सुखाया जा सकता ही है। (इसीलिए) यह (आत्मा रूप पदार्थ) समय के घेरे से बाहर, सर्वत्र मौजूद, सभी का आधार, अचल और हमेशा रहने वाला है। 24।

यहाँ सनातन शब्द का वही अर्थ है जो पहले शाश्वत का कह चुके हैं। इसी प्रकार जो 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) में आत्मा का सब पदार्थों में घुसा रहना कहा गया है वही सर्वगत के मानी हैं। सबों के आधार की बात जो पहले आई है वही स्थाणु का अर्थ है। सिर्फ अचल शब्द नया है। मगर अव्यय शब्द पहले जा चुका है। उसके ही मानी में अचल आया है। विकार या गड़बड़ होने के लिए पूरी वस्तु को या उसके कुछ हिस्से को ही हिलाना-डुलाना जरूरी हो जाता है। जब तक उसमें चाल या क्रिया (action) न हो, किसी तरह की भी गड़बड़ या खराबी - विकार - का होना असंभव है। परंतु जो सर्वत्र मौजूद है उसमें क्रिया होगी कैसे? क्रिया का अर्थ ही है एक स्थान से दूसरे में पहुँचना या जाना।

श्लोक में जो अच्छेद्य आदि शब्द आए हैं उनका अर्थ हमने किया है काटा जा सकता नहीं, आदि। इन शब्दों के बनने में व्याकरण का जो 'ण्य' प्रत्यय लगा है उसे कृत्य प्रत्यय कहते हैं और पाणिनि के 'शकि लिंग च' (3। 3। 172) सूत्र के अनुसार कृत्य और लिंग प्रत्यय 'सकने' अर्थ में भी आते हैं। यहाँ यही अर्थ ठीक बैठ जाता है भी। जब हथियार वगैरह काट सकते ही नहीं, जब उनकी ताकत ही नहीं कि आत्मा को काट सकें, तो फिर काटें कैसे? इस तरह पहले श्लोक में नहीं काटने आदि की जो बात कही गई है उसका कारण इस श्लोक में स्पष्ट कर दिया है। आखिर ये शस्त्रादि काट या जला भी सकें तो कैसे? जब यह आत्मा ही है तो जैसे हमारी और आपकी, अर्जुन और कृष्ण की आत्मा है, वैसे ही अस्त्र, शस्त्र, आग, पानी, हवा वगैरह की भी। यह तो सभी की स्व है, सभी का स्वभाव है, सभी का अस्तित्व है, सत्ता है। तब यह कैसे हो कि अग्नि अपने आपको ही जलाए? क्योंकि तब तो खुद अग्नि ही खत्म हो जाएगी न? फिर औरों को जलाएगी कैसे? जब वह रही ही नहीं, जब उसका अस्तित्व रही नहीं गया तो वह जलाए किसे? यही बात पानी, हवा आदि की भी है। भला अपने आपको ही ये खत्म करें! यह हिम्मत किसे होगी? यह तो सोचना भी भूल है।

पहले के 6 और 7 श्लोकों में जो 'भुंजीय', 'जयेम' आदि में लिंग आया है उसका भविष्य के अलावे यह 'सकना' भी अर्थ हो सकता है। उसका तब यह मतलब होगा कि इन गुरुजनों को मार के ज्यादे से ज्यादा खून से रँगे पदार्थों को भोग ही तो सकते हैं। और कौन कहे कि कौन जीत सकता है? हम जीत सकते हैं या वही लोग, अभी से यह कौन बताए?

हाँ, तो इस श्लोक में जो आत्मा को अचल कहा उसकी तो वजह साफ ही है। जब वह स्थूल, या व्यक्त पदार्थ नहीं है जो इंद्रियों के कब्जे में आ सके तो उसे हिलाए-डुलाएँगे कैसे? और जब वह बुद्धि की भी पकड़ के बाहर है तो यह बात और भी असंभव है। इसलिए उसे निर्विकार - विकारशून्य - ही मानना पड़ेगा। यही बात आगे इस तरह कहते हैं -

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ 25

यह आत्मा व्यक्त (स्थूल पदार्थ - दृष्टि में आने वाली - तो) है नहीं और न बुद्धि की ही पकड़ में आ सकती है। (इसीलिए) यह निर्विकार कही जाती है। अतएव इसे इस तरह जान लेने पर तुम्हारा बार-बार रोना-धोना ठीक नहीं है। 25।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥ 26

और अगर तुम इसे बराबर जनमने और मरने वाली ही मानते हो, तो भी ओ बहादुर - शक्तिशाली भुजा वाले - तुम्हारा इस तरह अफसोस करना अच्छा नहीं है। 26।

पहले श्लोक में अनुशोचितम् में जो अनु शब्द आया है। उसी की जगह यहाँ उत्तरार्द्ध में एवं आया है। उसका भी वही अर्थ है कि बार-बार शोक करना या रोना-धोना ठीक नहीं है।

जातस्य हि ध्रु वो मृत्यु र्ध्रु वं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥ 27

क्योंकि पैदा होने वाले की मौत ध्रुव - अवश्यंभावी - है। मरे हुए का जन्म भी ध्रुव है। इसलिए जिन बातों में किसी का वश हई नहीं उन्हीं के बारे में तुम्हारी यह चिंता-फिक्र कभी मुनासिब नहीं हो सकती है। 27।

जब जन्म और मरण को कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती - जब ये दोनों बातें अनिवार्य हैं - तो इनके बारे में हाय-हाय कैसी? यदि आसमान के तारे टूटें और इससे हम लोगों का भारी नुकसान हो जाए, या अगर भूकंप से चारों ओर हड़कंप पड़ जाए तो भी कोई समझदार हाय-हाय क्यों करेगा, कि उफ, हम ये बातें रोक न सके?

इतना ही नहीं। जिन शरीरों के मरने या नष्ट होने का खयाल करके हाय-तोबा का यह पँवारा फैला रहे हो आखिर उनकी हकीकत भी तो देखो और विचारो। ये चीजें तो सिर्फ 'चार दिनों की चाँदनी' है, सपने की संपत्ति है, जादूगर के तमाशे है। क्या यह नहीं होता कि सपने में भी हम बंधु-बांधवों से मिलते-जुलते, बातें करते और मौज करते हैं? हम हजार कोस दूर कहीं पड़े हैं, या जेल के भीतर बंद हैं। फिर भी सपने में स्वजनों के साथ हमारा मधुर मिलन तो हो ही जाता है और उससे आनंद भी होता ही है। मगर एकाएक नींद खुली और सब मजा किरकिरा! सभी प्रेमी, स्वजन और गुरुजन गायब! ऐसी बेमुरव्वती की कुछ पूछिए मत! लेकिन क्या इसके लिए हम माथा पटकते, छाती पीटते या हाय-हाय करते हैं? क्यों? इसीलिए न, कि यह मिलन कुछी देर पहले लापता था, सपने में मिलने वाले ये स्वजन लापता थे, नजर के ओझल थे, दीखते न थे। फिर बीच में कुछ देर के लिए आ गए, दिख गए, मिल गए! और फिर? फिर थोड़ी ही देर बाद एकाएक गायब हो गए, लापता हो गए, कहीं दीखते ही नहीं, हजार ढूँढ़ो सही, मगर मिलते ही नहीं! मालूम पड़ता है, जिस अदर्शन से अव्यक्त दशा से व्यक्त हुए थे, आए थे, दीखने लगे थे, पुनरपि उसी हालत में चले गए, उसी अव्यक्त और अदर्शन में जा मिले!

इसीलिए महाभारत के अंत के स्‍त्रीपर्व में अव्यक्त न कहके अदर्शन शब्द ही आया है - 'अदर्शनादापतिता: पुनश्चादर्शनं गता:। न ते तव न तेषां त्वं तत्र का परिदेवना' (2। 13)। इसका आशय यह है कि ये सभी अदर्शन से ही आए थे और पुनरपि वहीं चले गए। न तो वाकई में ये तुम्हारे हैं और न तुम इनके। फिर इसमें अफसोस क्या? इसी श्लोक का 'तत्रकापरिदेवना' गीता के अगले श्लोक में भी है। हर्बर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) नामक पश्चिमी दार्शनिक ने अपनी पुस्तक 'मूल सिद्धांत' (First principles) में यही बात यों लिखी है कि यदि किसी पदार्थ का पूरा परिचय प्राप्त किया जाए तो पता लगेगा कि वह किसी अदृश्य दशा से निकल के कुछ दिनों बाद फिर उसी दशा में चला जाता है - 'An entire history of anything must include its appearance out of the imperceptible and its disappearance into the imperceptible' (page 253) यही बात स्वयं कृष्ण इस तरह कहते हैं -

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तम ध्या नि भारत।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ 28

हे भारत, सभी भौतिक पदार्थ आरंभ में - पहले - अव्यक्त ही होते हैं, अदृश्य ही रहते हैं, बीच में व्यक्त और दृश्य होते हैं और अंत में फिर खामख्वाह अदृश्य हो ही जाते हैं। तब इसमें चिंता क्या? 28।

इस पर अब एक ही बात उठती है और वह यह है कि - कहना-सुनना और तर्क-युक्ति तो यह सब कुछ ठीक है और बात भी दर हकीकत यही है। मगर दिक्कत यही है कि हमें ऐसी मालूम होती नहीं। अगर हमारे नित्य के अनुभव में यह चीज आ जाए तभी न हम समझें कि दुरुस्त है? नहीं तो जंगल में पका फल हमारे किस काम का? उस तक हमारी पहुँच हो तभी न हमारी भूख बुझे? ये सभी बातें तो सपने के साम्राज्य या बच्चों के खिलवाड़ की मिठाई जैसी ही हैं। इसीलिए इनसे असली काम तो होता नहीं, पेट तो भरता नहीं और यही है ठोस चीज। निरी बातों से तो कुछ होता जाता नहीं।

और नहीं तो कम से कम पढ़े-लिखों को तो इन बातों का अनुभव हो। नहीं तो कैसे जानें कि ये चीजें सही हैं, सत्य हैं? बड़े-बूढ़े बताएँ तो भी मान सकते हैं। मगर सो भी तो नहीं है। और यह बात भी क्या है कि ऐसी खाँटी और पक्की चीज जनसाधारण की समझ में न आए? वह सौदा ही कैसा जो आम लोगों की पहुँच के बाहर हो? वह उनके किस काम का, यों चाहे वह सोना ही क्यों न हो? लाख अच्छा-भला क्यों न हो? आखिर किसी वस्तु की सचाई-झुठाई की तराजू भी तो यह जनसाधारण का अनुभव ही है और इस आत्मा के बारे में वही अनुभव लापता ठहरा! और हमें समझाना भी तो जनसाधारण को ही है न? तब इसे क्योंकर माना जाए? इसी का उत्तर आगे देते हुए कहते हैं कि यह कुँजड़े की साग-भाजी नहीं है कि दर-दर मारी फिरे। यह तो जौहरी का अमूल्य रत्न है जिसे बिरले ही परख पाते हैं -

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।

आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ 29

इस (आत्मा) को जाननेवाला कोई बिरला ही होता है। (जानकर भी दूसरों को इसे) बताने वाला तो (और भी) बिरला होता है। (यदि कोई बताने वाला हुआ भी तो) इसके संबंध में बात सुनने वाला (तो उससे भी) बिरला होता है। (खूबी तो यह है कि) इसे पढ़-सुन के भी कोई जानता ही नहीं - शायद ही कोई मुश्किल से जाने। 29।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥ 30

(इसलिए जब) हे भारत, सभी के देह की मालिक यह (आत्मा) कभी भी मारी जा सकती है नहीं, तो (नाहक) किसी भी भौतिक पदार्थ के बारे में तुम्हारा अफसोस करना अच्छा नहीं है। 30।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धार्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ 31

अपने धर्म का खयाल करके भी तुम्हारा (युद्ध से) डिगना उचित नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए (तो) धर्म-युद्ध से बढ़ के कोई चीज हो ही नहीं सकती। 31।

धर्मशास्त्र की बात पहले तो चला सकते न थे। क्योंकि अर्जुन स्मृतियों के कोरे विधानों और आदेशों को आँख मूँद के मानने को तैयार न था। वह तो कोई अनाड़ी या साधारण आदमी था नहीं कि स्मृतियाँ अपनी लाठी से उसे हाँक सकें। वह तर्क-दलील की कसौटी पर कसके ही किसी चीज को भली-बुरी मानने को तैयार था। इसीलिए कृष्ण ने पहले यही किया और दार्शनिक युक्तियों से उसे माकूल किया। उसके बाद स्मृतियों के आदेश भी मजबूती के साथ काम कर सकते थे। इसीलिए पीछे उनकी चर्चा भी दो श्लोकों में आ गई है। मगर यह यों ही है। इसका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं है। इसीलिए गीताधर्म या गीता की अपनी चीजों के भीतर इसकी गिनती नहीं। यह वैसी ही बात है जैसी अपयश और मान-अपमानवाली 33-37 श्लोकों में कही बातें। वह तो गीताधर्म में आती हईं नहीं, यह निर्विवाद है। वे कही गई हैं व्यावहारिकता की दृष्टि से ही अर्जुन में केवल गरमी लाने के लिए। गीता व्यावहारिक मार्ग को ही पकड़ के अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है और यश-अपयश की बात सबसे ज्यादा चुभने के कारण ही व्यावहारिक है।

धर्म-युद्ध कहने का मतलब यह है कि युद्ध के समय क्या किया जाए क्या न किया जाए, आदि बातों के लिए कुछ सर्वसम्मत नियम-कायदे हमेशा से माने जाते रहे हैं। हेग की परंपरा (Hague Convention) के नाम से वर्तमान समय में भी ऐसी अनेक बातें सर्वमान्य समझी जाती हैं। इन्हीं में घायलों की सेवा-शुश्रूषा, युद्धबंदियों के साथ सलूक, जो स्थान खुले (open) घोषित कर दिए गए उन पर आक्रमण न करना, आम जनता (Civil population) पर प्रहार न करना जहरीली गैस का प्रयोग न करना आदि बातें आ जाती हैं। हालाँकि अपनी-अपनी गर्ज से आज कभी इन नियमों में किसी को कोई तोड़ता है, तो किसी को दूसरा ही। फलत: नात्सी जर्मनी के इस युद्ध में उसके पक्ष के सभी ने ही इन्हें तोड़-ताड़ के खत्म कर दिया है। महाभारत के भीष्म पर्व के देखने से पता चलता है कि युद्धारंभ के पहले ऐसे सभी नियम दोनों पक्षों ने साफ-साफ स्वीकार कर लिए थे। अतएव इन्हीं नियमों के अनुसार होने वाले युद्ध को धर्मयुद्ध और इन्हें तोड़-ताड़ के होने वाले को अधर्मयुद्ध कहा है। यहाँ धर्म शब्द का दूसरा अर्थ असंभव है। धर्मशास्त्र में लिखा युद्ध ही धर्म युद्ध है यह भी मतलब यहाँ नहीं है। सभी युद्ध तो धर्म शास्त्र में ही लिखे रहते हैं। इसलिए जब तक उनके संबंध में लागू पूर्वोक्त नियमों को नहीं कहते तब तक धर्मयुद्ध कहना बेकार है। और जब स्वधर्म कही चुके हैं, तो फिर दुहराने का क्या प्रयोजन?

जो लोग यहाँ स्वधर्म की बात लिखी देख के इसकी मिलान आगे के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47) से करते हैं वह भी भूलते हैं। यह प्रकरण ज्ञान का ही है। 'ऐषा तेऽभिहिता' (2। 39) से ही कर्मयोग का प्रकरण शुरू होता है। इसलिए बीच में ही उसकी बात यहाँ कैसे आ सकती है? इसी प्रकार 'श्रेयान् स्वधर्म: (3। 35 तथा 18। 47) में भी स्वधर्म शब्द स्मृतियों के धर्मों के लिए ही नहीं आया है। वह तो व्यापक अर्थ में कर्ममात्र का ही वाचक है। यह बात हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके हैं। इन नियमों के साथ लड़ी जाने वाली लड़ाई भी धर्मशास्त्र-सम्मत होनी चाहिए, यही आशय यहाँ है। 'श्रेयस' शब्द के बारे में भी जान लेना चाहिए कि मोक्ष के अर्थ में उसका खासतौर से प्रयोग गीता में कहीं शायद ही हुआ हो, जैसा कि कठोपनिषद् के 'अन्यच्छ्रेरयोऽन्यदुतैव' तथा 'श्रेयश्च प्रेयश्च' (1। 2। 1-2) में आया है। तीसरे अध्‍याय के शुरू के दूसरे श्लोक के 'श्रेय:' शब्द को कल्याण या मोक्ष के अर्थ में ले सकते हैं और इसका कारण भी आगे लिखा है कि कहाँ ऐसा अर्थ होता है। मगर यहाँ कल्याण ही अर्थ उचित लगता है। इसीलिए आगे 'श्रेय: परमवाप्स्यथ' (3। 11) में श्रेय: का विशेषण परं हो जाने से परमश्रेय या परमकल्याण का अर्थ मोक्ष ठीक लगता है। क्योंकि वही तो आखिरी कल्याण है। असल में प्रशस्य शब्द से ही यह श्रेयस शब्द 'प्रशस्यस्य श्र:' (5। 3। 60) पाणिनि सूत्र की सहायता से बनता है। इसमें प्रशस्य का अर्थ है प्रशंसनीय या प्रशंसा के योग्य अर्थात अच्छा। उसी से बने श्रेयस शब्द का प्रयोग करते हैं ऐसी ही जगह जहाँ कइयों में एक को अच्छा समझ के चुन लेना हो। इससे स्वभावत: ज्यादा अच्छा सभी से अच्छा इसी मानी में श्रेयस शब्द आता है और हमने यही लिखा है। जब दो में एक को अच्छा लिखते हैं तो उतने ही से यह बात अर्थात सिद्ध हो जाती है कि वह बहुत अच्छा है। दूसरे की अपेक्षा कहने का यही अर्थ होता है। गीता में आमतौर से ऐसा ही पाया जाता है भी। इसी के अर्थ में 'विशिष्यते' शब्द आया है। दोनों का ठीक-ठाक एक ही अर्थ है। हाँ, जहाँ किसी का मुकाबिला न हो, या दो में एक को चुनना न हो वहीं पर मोक्ष आदि अर्थ आते हैं, जैसा कठोपनिषद् का दृष्टांत दिया गया है। वहाँ श्रेयस शब्द का स्वतंत्र प्रयोग है।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।

सुखिन: क्षत्रि या : पार्थ लभंते युद्धमीदृशम्॥ 32

हे पार्थ, अकस्मात या आप ही आप खुले स्वर्ग के द्वार के रूप में हाजिर इस तरह का युद्ध तो खुशकिस्मत क्षत्रियों को ही मयस्सर होता है। 32।

अथ चे त्त्व मिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।

तत: स्वधर्मं की र्त्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ 33

और अगर तुम यह धर्मयुद्ध न करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति दोनों को गँवा के (केवल) पाप बटोरोगे। 33।

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।

संभावितस्य चाकीर्त्ति र्मरणादतिरिच्यते॥ 34

(इतना ही नहीं), लोग तुम्हारे अखंड अपयश - हमेशा रहने वाली बदनामी - की चर्चा भी करते रहेंगे। और प्रतिष्ठित (पुरुष) के लिए (यह) अपयश तो मौत से भी बढ़कर (बुरा) है। 34।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।

षां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ 35

(यही नहीं), महारथी लोग भी समझेंगे कि तू डर के मारे ही युद्ध से भाग गया है। (फलत:) जो लोग (आज) तुझे ऊँची नजर से देखते हैं उन्हीं की नजरों में तू गिर जाएगा। 35।

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिता:।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्॥ 36

(इसी प्रकार) तेरे दुश्मन भी तुझे बहुत-सी गालियाँ देंगे (और) तेरी ताकत की भी शिकायत करेंगे। भला, उससे बढ़ के बुरा और क्या हो सकता है? 36।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ 37

(यह भी तो देख कि) यदि युद्ध में मर जाएगा तो स्वर्ग जाएगा और अगर जीतेगा तो राजपाट मिलेगा। (इस प्रकार तेरे दोनों ही हाथों में लड्डू है।) इसलिए ओ कौंतेय, लड़ने का निश्चय करके खड़ा हो जा - डट जा। 37।

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 38

जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख में एक रस रह के युद्ध में डट जा। ऐसा होने पर तुझे पाप छूएगा भी नहीं। 38।

इसी श्लोक के साथ ही अध्‍यात्म विवेक के प्रकरण का इस अध्‍याय में अंत हो के आगे कर्मयोग का प्रसंग शुरू होता है। उसके शुरू के आठ श्लोक भूमिका की तरह हैं। नवें या गीता के 47वें श्लोक में कर्मयोग का निरूपण शुरू हुआ है। इस श्लोक में भी समत्व या समता की बात कही गई है। जिसे समदर्शन भी कहते हैं। यह दूसरी बार समदर्शन की बात आई है। पहली बार, जैसा कि कह चुके हैं, 15वें श्लोक के 'समदु:खसुखं' में आ चुकी है। इसलिए इस श्लोक का अर्थ समझने में उसे भी दृष्टि के सामने रखना पड़ेगा, खासकर उसके पूर्वार्द्ध 'यंहि न व्यथयन्त्येते' आदि को। नहीं, तो बहुत गड़बड़-घोटाला हो सकता है।

बात यह है कि जब कम पानी वाले तालाब या गढ़े में मछुए मछली मारना चाहते हैं, तो उसके पानी को नीचे-ऊपर इतना ज्यादा हिला-डुला, चला और मथ देते हैं कि पानी और कीचड़ मिल के एक हो जाते हैं। इससे मछलियाँ घबरा के ऊपर आ जाती या थक-थका के ढीली पड़ जाती हैं। फलत: पहले की तरह तेजी से इधर-उधर भाग-फिर सकती हैं नहीं। इस तरह उनके पकड़ने में आसानी हो जाती है और बात की बात में वे मछुओं के कब्जे में आ जाती हैं। नहीं तो उन्हें पकड़ने में मछुओं को बहुत परेशानी होती है। इसी तरह दही को भी मथानी से ऐसा मथ देते हैं कि पानी और दही एक हो जाते हैं। बंदर जब किसी पेड़ पर पहले-पहल चढ़ता है तो अकसर उसकी डालों को पकड़-पकड़ के झकझोर देता है और सारे पेड़ को कँपा देता है, बेचैन कर देता है। जब छोटा-सा शिकार जबर्दस्त शिकारी कुत्ते के हाथ लगता है तो उसे पकड़ के शुरू में ही वह ऐसा झकझोरता है कि शिकार के होश ही गायब हो जाते हैं और कुत्ता उसे आसानी से खा जाता है।

यही दशा मन की है। वह आत्मा को अपनी मर्जी के मुताबिक नचाने के पहले उसे अपने कब्जे में सोलहों आना करना चाहता है और उसी की तरकीब करता रहता है। मात्रास्पर्श या भौतिक पदार्थों के संबंध की जो बात पहले कही जा चुकी है वह उसी तरकीब का एक भाग है। मन इंद्रियों की पीठ ठोंकता है और वह भले-बुरे सभी पदार्थों के साथ जुट जाती है। यही तो है मात्रास्पर्श। गुरुजनों, इष्ट-मित्रों, बंधु-बांधवों एवं पुत्र-कलत्र आदि का ताल्लुक और है क्या यदि मात्रास्पर्श नहीं है? जो सहृदय न हो, जड़-पत्थर हो या पत्थर जैसा हो, पागल हो उसमें या तो इंद्रियाँ होती ही नहीं, या वह काम करती ही नहीं। इसीलिए वैसों को क्या सुख-दु:ख होगा?

इस प्रकार मात्रास्पर्श होने के बाद ही बुरी-भली चीजों का अनुभव होता है उनकी जानकारी होती है, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, अपने-पराए आदि की जानकारी होती है। जैसा कि आग को छूते ही गरमी का अनुभव हुआ करता है और बर्फ को छूते ही सरदी का। उसी के बाद हाथ-पाँव जलते या ठिठुरते हैं और फौरन तकलीफ या आराम का, दु:ख और सुख का अनुभव होता है। फिर तो इनसान या तो आनंद में विभोर हो जाता है, या कलेजा पीट के बेहोश। यदि सुख-दु:ख हल्के रहे तो यह बात कम हुई। मगर अगर काफी हुए तो यह हालत भी परले दर्जे की हो गई! मन के जाल की बात को लेकर हम आनंद-विभोरता या तकलीफ वाली बेसुधी को ही यहाँ ले रहे हैं। इस तरह जब यही बात बार-बार होने लगी तो मन ने समझ लिया कि आत्माराम पर हमारा पूरा कब्जा हो गया। वह ताड़ जाता है कि अब तो बंदर अच्छी तरह फँस गया, इसलिए इसे जैसे चाहें नचा सकेंगे। युद्ध में भी पहले जय-पराजय, बाद में लाभ-हानि और अंत में सुख-दु:ख होता है जिसका जिक्र श्लोक में आया है।

मगर ऐसा भी होता है कि किन्हीं मस्तराम फकीर के पास चाहे आप अच्छी से अच्छी या बुरी से बुरी चीजें लाएँ, उन पर उनका कोई असर होता ही नहीं! क्यों असल में वहाँ उलटी बात जो है। कहाँ तो दूसरों के मनीराम - मन - आत्माराम को नाचने और फँसाने की कोशिश में रहते तथा सफल भी होते हैं और कहाँ मस्तराम के आत्माराम ने ही उलट के मनीराम पर मुसक चढ़ा दी है। यहाँ तो मन ही मस्तराम के कब्जे में पड़ा रो रहा है। उसकी आई-बाई ही हजम है। इसीलिए उसके सभी के सभी चेले-चाटी और दूत-मनहूस है, बेकार-सी पड़ी हैं। तब मात्रास्पर्श कैसे हो और आगे की लीला भी कैसे खड़ी हो? यहाँ तो सारा नाटक ही बंद है। यह भी नहीं कि मस्तराम पत्थर हैं या मुर्दा, जिससे सुख-दु:ख आदि जानते ही नहीं। वह तो सब कुछ जानते ही हैं। मगर जान लेना दूसरी चीज है और उसमें चिपक जाना निराली बात है। स्‍त्री को विरागी भी देखता है और लंपट भी। मगर दोनों के देखने में फर्क है - बहुत बड़ा बुनियादी फर्क है। यही बात सुख-दु:खादि के मुतल्लिक भी है।

पंदरहवें श्लोक में जो 'व्यथयन्ति' लिखा है वही इस फर्क को ठीक-ठीक बताता है। उसका अर्थ गढ़े के पानी या दही के मथने और बंदर या कुत्ते के झकझोरने के दृष्टांत में बताया जा चुका है। भौतिक पदार्थों के संसर्ग जिसे व्यग्र, उद्विग्न, परेशान या बेचैन नहीं कर सकते, नहीं कर पाते वही सुख-दु:ख में सम है, एक रस है। समदु:ख-सुख है, समदर्शी है। उसके दिल-दिमाग की गंभीरता, स्थिरता और एकरसता बिगड़ पाती नहीं। वह इन अंधड़-तूफानों के हजार आने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल रहता है, न कि घास-पात या पेड़-पल्लव की तरह काँपता और बेचैन हो जाता है। उसके दिल-दिमाग की ममता और गंभीरता (Serenity and balance) कभी बिगड़ती (upset) नहीं। फिर पाप-पुण्य का क्या सवाल? ये तो बहुत नीचे दर्जे की चीजें हैं और वह इतना ऊँचा उठा है कि जैसे चाँद को कोई छू नहीं सकता चाहे हजार कोशिश करे, वैसे ही उसे पुण्य-पाप छू नहीं सकते, उसके निकट फटक नहीं सकते। वह तो मस्त है। बेशक, दुनिया की बेचैनी देख-देख के मुस्कुरा उठता है, कभी-कभी हँस देता है। इस चीज का ज्यादा विचार पहले ही हो चुका है। यहाँ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु।

बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्म बंधं प्रहास्यसि॥ 39

यहाँ तक (तो) आत्मतत्त्व की जानकारी - अध्‍यात्मज्ञान की खूबी और बारीकी - तुम्हें बताई जा चुकी। अब योग की भी जानकारी - कर्म की पूरी जानकारी और उसकी बारीकी - वाली वह बात भी सुन लो जिसके करते कर्मों के बंधन से अपना पिंड छुड़ा लोगे। 39।

इस पर बहुत अधिक बातें लिखी जा चुकी हैं। इसका स्पष्टीकरण भी बूखबी किया जा चुका है। इसलिए यहाँ या आगे कुछ भी लिखना बेमानी है। फिर भी जिस कर्मयोग का निरूपण आगे चल के 47वें श्लोक में शुरू करेंगे वह सचमुच निराली चीज है, गीता की अपनी खास देन है। इसीलिए और कहीं वह पाई जाती नहीं। अधूरी-सी कहीं मिले भी तो क्या? सर्वांगपूर्ण कहीं भी नहीं मिलती। इसीलिए उसके पूर्व अर्जुन का दिमाग उसके अनुकूल कर लेना जरूरी था। सर्वसाधारण परंपरा के अनुसार वह वैसी बात एकाएक सुन के चौंक उठता कि यह क्या चीज है? यह तो अजीब बात है जो न देखी न सुनी गई ऐसा खयाल करके वह उस बात से हट सकता था। कम से कम यह तो जरूर हो जाता कि उसका दिल-दिमाग उसमें पूरी तौर से लगता नहीं। उसमें उसे चसका तो आता नहीं, मजा तो मिलता नहीं। फिर तो वैसे गंभीर विषय को हृदयंगम करना असंभव ही हो जाता। इसीलिए उससे पहले के सात श्लोकों में उसी का रास्ता साफ कर रहे हैं।

कर्मकांड एवं धर्माधर्म के निर्णय तथा अनुष्ठान का सारा दारमदार सिर्फ मीमांसाशास्त्र और मीमांसकों पर ही है। उनका अपना यही खास विषय है। इसीलिए उनने इस संबंध की बहुत-सी बातें लिखते हुए लिखा और माना है कि कर्मों के करने में कौन-कौन से विघ्न होते हैं, कैसा हो जाने पर सारा किया-कराया चौपट हो जाता है, क्या हो जाने पर पुण्य के बदले पाप ही पाप हो जाता है और सांगोपांग कर्म पूरा न हो जाने पर उसका फल नहीं मिलता। इस तरह की हजारों बातें और बाधाएँ कर्ममार्ग में बताई गई हैं, खतरे खड़े किए गए हैं। यदि इनसे बचने का कोई भी रास्ता हो तो कितना अच्छा हो? तब तो लोग आसानी से मीमांसकों का मार्ग छोड़ के वही मार्ग पसंद करें। गीता ने लोगों की इस मनोवृत्ति का खयाल करके पहले तो यही किया है कि कर्मयोग में इन खतरों का रास्ता ही बंद कर दिया है। वहाँ थोड़ा-बहुत या अधूरा काम होने पर भी न तो पाप का डर है, न विफलता की परेशानी और न दूसरी ही दिक्कत।

मीमांसकों के मार्ग में दूसरी दिक्कत यह होती है कि उन्हें परेशानी बड़ी होती है। पहले तो हजारों तरह के उद्देश्यों को ले के कर्म किए जाते हैं। फिर एक-एक उद्देश्य की शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं और शाखा-प्रशाखाओं की भी शाखा-प्रशाखाएँ। लोभ-लालच का कोई ठिकाना भी तो होता नहीं। ज्योंही सफलता हुई या उसकी आशा नजर आई कि नई-नई कामनाएँ पैदा होने लगती हैं। यह भी होता है कि शक-शुबहे में कभी मन इधर जाता है और कभी उधर - कभी आगे बढ़ने को मुस्तैद होता है, तो कभी पीछे खिसक पड़ता है। इस तरह हजारों तरह की आशा-आकांक्षाओं, कल्पनाओं एवं उमंग-मनहूसियों के घोर जंगल में भटकता रहता है और कभी भी चैन मिलता नहीं। गीता ने इस सारी बला से भी बचने का रास्ता कर्मयोग को ही माना है। उसने साफ कह दिया है। फिर तो लोग उधर उत्सुक होंगे ही।

मीमांसकों की एक तीसरी चीज यह है कि वह स्वर्ग, धन, राज्य आदि सुख साधनों की गारंटी करते हैं। वे कहते हैं कि विविध कर्मों के अलावे दूसरा उपाय हई नहीं कि ये सभी चीजें हासिल की जा सकें। यह भी नहीं कि इन्हें कोई चाहता न हो। ये सभी लोगों की अभिलषित हैं। इसमें कोई भी शक नहीं। परंतु हजार युद्धादि के संकटों को पार करने पर भी इन सभी की गारंटी है नहीं। स्वर्गादि तो युद्ध से शायद ही मिल सकें। यह तो कर्म मार्ग ही ऐसा है कि इन सभी पदार्थों को प्राप्त करवा देता है। उससे आसान रास्ता, सभी बातों पर गौर करने के बाद, दूसरा रही नहीं जाता।

बेशक उनकी यह बात काफ़ी मोहनी रखती है। मगर गीता ने कह दिया है कि ये पदार्थ बड़ी दिक्कत से यदि मिलें भी तो इनके लिए, और इनके परिणाम स्वरूप भी, जन्म-मरण का सिलसिला निरंतर लगा ही रह जाता है। जन्म-मरण के कष्ट किसे पसंद है? यह भी बात है कि मनोरथों में जब इस तरह मनुष्य फँस जाता है तो उसे कोई और बात सूझती ही नहीं। स्वर्गादि की हाय-हाय के पीछे एक तरह से वह अंधा हो जाता है। उसे चैन तो कभी मिलता नहीं। यह करो, वह करो, यह क्रिया बिगड़ी, उस कर्म में विघ्न, इसकी तैयारी, उसकी पूर्ति की हाय तोबा दिन-रात लगी ही तो रहती है। अगर इतनी बेचैनी के बाद यदि ये चीजें मिलीं भी तो किस काम की? यह भी बात है कि मिलने पर चसका लग जाने से फिर जन्म, पुनरपि क्रिया, फिर मरण, यह ताँता टूटता ही नहीं। मनुष्य विषयासक्त हो के विवेक मार्ग से जानें कितनी दूर जा पहुँचता है और कोई निश्चय कर पाता नहीं। मगर कर्मयोग इन सभी झंझटों से पाक साफ है।

चौथी बात उनकी यह है कि वेदों की आज्ञा जब यही है तो किया क्या जाए? उनके आदेशों को कौन टाले? हिम्मत भी ऐसी किसकी हो सकती है? इसलिए चाहे हजार दिक्कत मालूम हो, फिर भी इसमें आना ही पड़ेगा। इसका उत्तर गीता साफ ही देती है कि ये तो सांसारिक झमेले हैं, दुनिया की झंझटें हैं जिनमें ये कर्म हमें फँसाते हैं। हमें चैन लेने तो ये देते नहीं। वेदों का काम भी तो यह आफत ही है न? वह भी तो इस त्रिगुणात्मक संसार में ही हमें फँसाते हैं। आखिर वह भी तो त्रिगुण के भीतर ही हैं। इसीलिए तो 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' ही है। लेकिन जिसे दुनिया की, सांसारिक पदार्थों की परवाह न हो वह क्या करे? वह इन वेदों के झमेले में क्यों पड़े? वेदों से अभिप्राय है उसके कर्मकांड भाग से ही। क्योंकि वही वेदों का प्रधान भाग है - प्राय: सब कुछ है। ज्ञान कांड तो बहुत ही थोड़ा है - एक लाख में सिर्फ चार हजार! वेदों के एक लाख मंत्रों में पूरे छियानबे हजार कर्मकांड के और केवल चार हजार ज्ञानकांड के माने जाते हैं। 'लक्षं तु वेदाश्चत्वार:' कहा है। गृहस्थों के यज्ञोपवीत के छियानबे चतुरंगुलों का अभिप्राय उन्हीं छियानबे हजार से है। संन्यासी को यज्ञोपवीत नहीं है। उसका ताल्लुक चार ही हजार से जो है और है वह छियानबे के बाहर! बस, गीता ने कह दिया कि - 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी'। संसार की त्रैगुण्य की परवाह छोड़ दो और वेदों के दायरे से बाहर आ जाओ। फिर तो कर्मयोग का रास्ता साफ है।

ऐसी दशा में आखिरी और पाँचवाँ सवाल यही हो सकता है कि इस प्रकार संसार के भौतिक पदार्थों से लापरवाह होने से काम कैसे चलेगा? वेदों का आश्रय लेते हैं क्या उन पर रहम करके, या किसी की मुरव्वत से? उनके बिना हमारा काम चलता जो नहीं। वेदों में तो छोटे-बडे सभी कर्म आते हैं और उनके बिना हमारी रोज की जरूरतें भी पूरी हो पातीं नहीं। जब हम संसार से बिरागी हो जाएँगे तो वेदों की परवाह नहीं करेंगे, यह कहना जितना आसान है इस पर अमल करना उतना ही सहज नहीं है। क्योंकि तब हमारी जरूरतें कौन पूरा करेगा? हमारी चीज-वस्तु की रक्षा भी कौन करेगा? एक यह बात भी है कि वैदिक कर्मकांड से संकटों से तो हम जरूर बच जाएँगे। मगर उनके चलते जो आनंद मिलता है उसकी कमी कैसे पूरी होगी? वह तो रही जाएगी न? कर्मयोग के आनंद में स्वर्ग का आनंद कैसे मिलेगा? यह तो असंभव है।

इसका सीधा उत्तर गीता यही देती है कि इसमें सभी चीजें आ जाती हैं। कुएँ, तालाब, नदी वगैरह सभी का काम एक अकेला समुद्र जैसा लंबा-चौड़ा जलाशय ही दे सकता है। फिर इन चीजों को अलग जरूरत नहीं रह जाती। उसी प्रकार जिसने कर्मयोग का रहस्य जान लिया उसे सभी वैदिक कर्मों के फलों की - आनंद की प्राप्ति होई जाती है। उसके भीतर अमृत-समुद्र की जैसी गंभीरता होती है मस्ती रहती है। फिर और चीजों की जरूरत ही क्यों हो? जरूरत की चीजों की प्राप्ति और रक्षा - योग-क्षेम - भी होता ही रहता है। यह तो आगे 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22) में कहा ही है।

यही पाँच बातें, या यों कहिए कि मीमांसकों की पाँच मुख्य दलीलों के उत्तर क्रमश: 40 से 46 तक के सात श्लोकों में दिए जाके कर्मयोग की पूरी भूमिका तैयार कर दी गई है। इनमें पहले दो (40-41) श्लोकों में क्रमश: पहली दो बातें आती हैं। फिर बाद के तीन (42-44) श्लोकों में तीसरी आती है। अनंतर 45वें चौथी और 46वें में पाँचवीं आ जाती है।

नेहाभिक्रमनाशाऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रा यते महतो भयात्॥ 40

इस (योग) में (किसी भी) कदम - काम - का नाश तो होता नहीं - कोई भी कदम बेकार नहीं जाता, इसमें पाप (का सवाल) हई नहीं और इस (महान) धर्म का थोड़ा भी (अनुष्ठान) (इसके करने वाले को) महान भय से बचा लेता है। अर्थात इसमें कोई खतरा भी नहीं है कि कहीं अधूरा रह जाने में उलटा ही परिणाम हो जाए। इसका परिणाम सदा ही सुंदर होता है। 40।

यहाँ अभिक्रम का अर्थ हमने कदम किया है और यही अर्थ उस शब्द का दरअसल है भी। कोई भी काम शुरू करने के मानी में कदम उठाना या बढ़ाना बोलते हैं। अंग्रेजी में इसी को स्टेप (Step) कहते हैं। कहने का आशय यहाँ यही है कि इस कर्मयोग के सिलसिले में उठाया गया कोई भी कदम बेकार नहीं जाता। इसी प्रकार महान भय से रक्षा का भी यही अभिप्राय है कि जैसे और कामों में खतरे हुआ करते हैं और अगर किसी आफत से बचने के लिए कोई उपाय किया जाए तो जब तक वह पूरा न हो जाए उस आफत से छुटकारा नहीं होता, सो बात यहाँ नहीं है। न तो यहाँ कोई खतरा है और न यही बात कि काम पूरा न हुआ तो आफत से पिंड न छूटेगा। यहाँ तक कि आवागमन जैसे बड़ी से बड़ी बला से भी छुड़ा लेता है इस चीज का थोड़ा भी अनुष्ठान। फिर तो निर्वाणमुक्ति ध्रुव हो जाती है।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनंदन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ 41

हे कुरुनंदन (अर्जुन), इसमें तो एक ही (तरह) की बुद्धि रहती है (सो भी) निश्चयात्मक। (विपरीत इसके और मार्ग में) अनिश्चयात्मक बुद्धिवालों की बुद्धियाँ (एक तो) असंख्य होती हैं। (दूसरे उनमें भी हरेक की) अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं। 41।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित:।

वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:॥ 42

 

कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥ 43

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहृतचेतसाम्।

व्यवसायात्मिका बुद्धि : समाधौ न विधीयते॥ 44

हे पार्थ, वेद के कर्म-प्रशंसक वचनों को ही सब कुछ मान के उनके अलावे असल चीज दूसरी हई नहीं ऐसा कहनेवाले, वासनाओं में डूबे हुए मनवाले और स्वर्ग को ही अंतिम ध्‍येय माननेवाले नासमझ लोग इस तरह के जिन लुभावने (वैदिक) वाक्यों को दुहराते रहते हैं उन (वचनों का तो सिर्फ यही काम है कि) भोग और शासन की प्राप्ति के लिए ही अनेक तरह के बहुत से कर्मों की बताएँ। (इस तरह) उनका नतीजा यही है कि लोग बार-बार जनमते तथा कर्म करते रहें। जिन भोग एवं शासन के लोलुप लोगों की बुद्धि वैसे ही वचनों में फँस चुकी है। उनके दिमाग में तो (कभी) निश्चयात्मक बुद्धि पैदा ही नहीं होती। 42। 43। 44।

इन तीन श्लोकों में जिन लोगों का सुंदर चित्र खींचा गया है वही कर्मकांडी मीमांसक लोग हैं। उन्हें नासमझ कहके फटकार सुनाई गई है। 'अपाम सोमममृता अभूम' - 'सोमयाग में सोम का रस पी के हम लोग अमर बन गए,' स्वर्ग में देवताओं की इस तरह की गोष्ठी और बातचीत का उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों में पाया जाता है। कठोपनिषद् के प्रथमाध्‍याय की द्वितीयवल्ली के शुरू के पाँच मंत्रों में कल्याण या मोक्ष के मुकाबिले में स्वर्गादि पदार्थों तथा उनके इच्छुकों की घोर निंदा की गई है। इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुंडक के दूसरे खंड के शुरू के दस मंत्रों में विस्तार के साथ लिखा गया है कि कर्मकांडी लोग किन-किन कर्मों को कैसे करते और उन्हें कौन-कौन से फल कैसे मिलते हैं। वहीं दसवें मंत्र 'इष्टपूर्त्तं मन्यमाना वरिष्ठा:' में 'प्रमूढ़ा' शब्द आया है जो गीता के इन श्लोकों के 'अविपश्चित:' के ही अर्थ में बोला गया है। उस मंत्र में जो बातें लिखी हैं उनका उल्लेख भी कुछ-कुछ इन तीन श्लोकों में पाया जाता है। इनके सिवाय 'दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत्,' 'ज्योतिष्ठोमेन स्वर्गकामो यजेत्,' तथा 'वाजपेयेन स्वराज्यकामो यजेत्' आदि ब्राह्मण वचनों में कर्मठों के कर्मों एवं उनके फलों का पूरा वर्णन मिलता है। वहाँ इनकी प्रशंसा के पुल बाँधे गए हैं। इन्हीं प्रशंसक वचनों को वेदवाद और अर्थवाद कहते हैं। इन्हें पढ़ के लोग कर्मों में फँस जाते हैं। इसी का निर्देश इन श्लोकों में है। पूर्वोक्त मुंडक के वचनों में 'एक ने प्लवाह्येते अदृढ़ा यज्ञरूपा:' (1। 2। 7) के द्वारा इन यज्ञयागों को कमजोर नाव करार दिया है, जिस पर चढ़नेवाले अंत में डूबते हैं। गीता ने भी इसलिए इनकी निंदा की है।

इनमें चसक जाने पर मनुष्य को दूसरी बात सूझती ही नहीं। एक बार इन्हें करके जब इनके रमणीय फलों को भोगता है, या ऐश्वर्य - शासन और इंद्र आदि की गद्दी - प्राप्त कर लेता है तो फिर बार-बार इन्हीं के करने पर उतारू होता है। यही चसका है। इसका नतीजा यही होता है कि जन्म ले के इन्हें करता, मरके फल भोगता और चसक के स्वर्गादि फल भोगने के बाद पुनरपि जनमता और कर्म करता है। यही चक्कर चलता रहता है। एक कोढ़ी और गंदे स्वभाव के आदमी की कहानी है कि वह साल भर में कभी शायद ही नहाता हो। जाड़ों में तो हर्गिज नहीं। मगर घोर जाड़े में मकर की संक्रांति के दिन तड़के ही जरूर नहा लेता था। क्यों? क्योंकि उसने सुना था कि माघ के महीने में सूर्योदय के ठीक पहले पानी बहुत तेज चिल्लाता है कि यदि महापापी भी हममें एक गोता लगा ले तो उसे फौरन पवित्र कर दें - 'माघमासि रटन्त्याप: किंचिदभ्युदिते रवौ। महापातकिनं वापि कं पतन्तं पुनीमहे।' यही है वेदवादों और अर्थवादों की मोहनी शक्ति जिसका उल्लेख यहाँ है।

इस श्लोक में समाधि शब्द का अर्थ दिमाग या अंत:करण लिखा गया है। अनेक माननीय भाष्यकारों ने यही अर्थ किया है और यह घटता भी है अच्छी तरह। मगर समाधि का अर्थ योग करना भी ठीक ही है। 'समाधिस्थस्य' (2। 54) के व्याख्यान में हमने इस ओर भी इशारा किया है। यहाँ 'समाधि के लिए' यही अर्थ 'समाधौ' का है जैसा कि 'यतते च ततो भूय: संसिद्धौ' (6। 43) में 'संसिद्धौ' का अर्थ है। 'संसिद्धि के लिए'। यहाँ अभिप्राय यही है कि आगे जिस योग का निरूपण है उसके लिए जो मूलभूत जरूरी बुद्धि है वह ऐसे लोगों को होती ही नहीं।

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥ 45

हे अर्जुन, वेद तो (प्रधानतया) त्रैगुण्य या सांसारिक बातों के ही प्रतिपादक हैं। तुम इन बातों को छोड़ो, राग-द्वेषादि द्वन्द्व - जोड़े - दो दो - से रहित हो, हमेशा सत्त्वगुण की ही शरण लो, योगक्षेम की परवाह छोड़ दो, मन को वश में करो और आत्मतत्त्व में रम जाओ। 45।

यहाँ कुछ बातें जान लेने की हैं। साधारणतया खयाल हो सकता है कि जब त्रैगुण्य शब्द यहाँ आया है जिसका अर्थ है तीनों गुणों से बनाया त्रिगुणात्मक, तो यहाँ तीनों ही गुण बुरे बताए गए हैं। मगर सत्त्वगुण तो प्रकाशमय होने से ज्ञानवर्द्धक है। इसलिए उसे क्यों बुरा कहा। इतना ही नहीं। आगे उत्तरार्द्ध में लिखते हैं कि बराबर सत्त्वगुण की शरण लो - 'नित्यसत्त्वस्थ:'। यदि बुरा होता तो सत्त्व की शरण जाने की बात कहते क्यों? तब तो परस्पर विरोध हो जाता न? इसलिए सत्त्व को बुरा कहना ठीक नहीं। हाँ, रज और तम तो बुरे जरूर ही हैं। उनके बारे में कोई शक नहीं।

असल में तीनों गुणों का क्या स्वरूप है, काम है और यह करते क्या हैं, इसका पूरा विवरण गीता के चौदहवें अध्‍याय में मिलता है। वहाँ देखने से पता चलता है कि जीवात्मा को बांधने और फँसाने का काम तीनों ही करते हैं। इसमें जरा भी कसर नहीं होती। सत्त्व यदि ज्ञान और सुख में फँसा देता है तो बाकी और-और चीजों में। मगर फँसाते सभी हैं। इसलिए 'बध्‍नाति', 'निबध्‍नन्ति' आदि बंधन वाचक पद वहाँ बार-बार सभी के बारे में समानरूप से आए हैं। इसीलिए जो मनुष्य इनके पंजे से छूट जाता है उसे उसी अध्‍याय के अंत में गुणातीत - तीनों गुणों से रहित उनके पंजे से बाहर - कहा गया है। इन तीनों से अपना पल्ला कैसे छुड़ाया जाए, यह प्रश्न करके उत्तर भी लिखा गया है। इसी तरह 'त्रिभिर्गुणभयैर्भावै:' (7। 13-14) आदि दो श्लोकों में, बल्कि इनके पूर्व के 12वें में भी यही लिखा है कि त्रिगुणात्मक पदार्थ ही लोगों को मोह में, भ्रम में, घपले में डालते हैं।

तब सवाल यह जरूर होता है कि आगे इसी श्लोक में सत्त्व की शरण की बात क्यों कही गई? बात असल यह है कि आखिर इन तीनों से पिंड छूटने का उपाय भी तो होना चाहिए, और जैसा कि चौदहवें अध्‍याय के अंत में कहा है, 'विषस्य विषमौषधाम्' के अनुसार जैसे जहर को जहर से ही मिटाते हैं, और 'कण्टकेनेव कण्टकम्' के अनुसार काँटे से ही काँटे को हटाते हैं, ठीक उसी तरह गुण की ही मद से गुणों से पिंड छुड़ाना होगा। दूसरा उपाय है नहीं। गुणों में भी दो तो चौपट ही ठहरे। हाँ, सत्त्व का काम है ज्ञान, प्रकाश, सुझाव, आलस्य त्याग, फुर्ती और मुस्तैदी। इसीलिए कहा गया है कि सत्त्व का ही आश्रय बराबर ले के उक्त विशेषताएँ हासिल करो और अंत में तीनों से ही छुटकारा लो। बराबर, निरंतर, नित्य सत्त्वगुण का आश्रय लेने को कहने का आशय यही है। जब-जब रज और तम दबा के आलस्य आदि में फँसाना चाहें तब-तब मुस्तैद हो के सत्त्वगुण की मदद से लड़ना और उन्हें भगाना होगा। तभी काम चलेगा। यही बात शांतिपर्व के धर्मानुशासन के 110वें अध्‍याय के 'ये च संशांतरजस: संशांततमसश्च ये। सत्त्वे स्थिता महात्मनो दुर्गाण्यतितरन्ति ते' (15), में भी 'सत्त्वे स्थित:' शब्द से बताई गई है। पहले यह कहा है कि उनके रज और तम एकबारगी दब गए हैं। फिर सत्त्व के कायम रहने की बात आई है। इससे साफ हो जाता है कि सत्त्व नित्य रहता है, बराबर रहता है। क्योंकि दोनों शत्रु शांत जो हो गए! खत्म जो हो गए!

शांतिपर्व के इसी श्लोक का 'महात्मान:' शब्द गीता के 'आत्मवान' के ही अर्थ को कहता है। महात्मा लोगों की आत्मा महान होती है। इसका तात्पर्य यह है कि उनका मन छोटी-छोटी, संसार की क्षुद्र बातों में न पड़ के बहुत ऊपर चला जाता है, बड़ा बन जाता है, आत्मतत्त्व में लग जाता है। यही वजह है कि वह द्वन्द्व या राग-द्वेष, शत्रु-मित्र, सुख-दु:ख आदि से अलग हो जाता है। उसे इस बात की भी फिक्र नहीं होती कि अमुक चीज नहीं है, उसे कैसे लाऊँ और मिली हुई की रक्षा कैसे हो आदि-आदि। इसे ही योग - जोड़ना या प्राप्त करना और क्षेम - रक्षा करना - कहते हैं। वह इससे भी मुक्त हो जाता है। हमने यही लिखा भी है।

शांतिपर्व के 52वें तथा 158वें अध्यायों में जो कुछ भीष्म को आशीर्वाद तथा अर्जुन को उपदेश दिया गया है वहाँ भी बार-बार यह 'सत्त्वस्थ' पद आया है। 'ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ। नच ते क्वचिदासत्तिर्बुद्धे: प्रादुर्भविष्यति॥ सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति। रजस्तमोऽभ्यां रहितं घनैर्मुक्तइवोडुराट्' (52। 17-18), 'ये न हृष्यन्ति लाभेषु नालाभेषु व्यथन्ति च। निर्ममा निरहंकारा: सत्त्वस्था: समदर्शिन:॥ लाभालाभौ सुखदु:खे च तात प्रियाप्रिये मरणं जीवितं च। समानि येषां स्थिरविक्रमाणां बुभुत्सतां सत्त्वपथे स्थितानाम्। धर्मप्रियांस्तान् सुमहानुभावान्दान्तोऽप्रमत्तश्च समर्च्चयेथा:' (158। 33-35) इन श्लोकों में अक्षरश: गीता के इस श्लोक की ही बात है।

यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:॥ 46

(जिस तरह) जितना काम छोटे-बड़े जलाशयों से निकलता है वह सभी केवल एक ही विस्तृत जलराशिवाले समुद्र या जलाशय से चल जाता है; (उसी तरह) वेदों से जितना काम चलता है आत्मज्ञानी विद्वान का वह सबका-सब (यों ही) चल जाता है - पूरा हो जाता है। 46।

इस श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका निष्कर्ष यही है कि छोटे जलाशय का काम बड़े से, दोनों का उससे भी बड़े से और अंत में सभी का काम सबसे बड़े-से - बड़े से बड़े से - चल जाता है। अत: उसके मिलने पर बाकियों की परवाह नहीं की जाती। आत्मज्ञान हो जाने पर सांसारिक सुखों और भौतिक पदार्थों की परवाह नहीं रह जाती है। क्योंकि आत्मा तो आनंद सागर ही ठहरी। बृहदारण्यक के चौथे अध्‍याय के तृतीय ब्राह्मण के 32वें मंत्र के 'ऐषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' से शुरू करके समूचे लंबे 33वें मंत्र में लोक-परलोक के सभी सुखों एवं आनन्दों का तारतम्य दिखाते हुए आखिर में आत्मानंद को ही सबके ऊपर माना है। कहा है कि भी उसी के भीतर शेष सभी समा जाते हैं। अन्य उपनिषदों में भी यही बात आती है। यहाँ इसी की ओर इशारा है।

इस श्लोक में ब्राह्मण शब्द का अर्थ ब्राह्मण जाति न हो के आत्मज्ञानी ही है, यह बात पहले ही कृपण शब्द की व्याख्या के सिलसिले में कही जा चुकी है। इसीलिए 'ब्राह्मणस्य' के आगे 'विजानत:' शब्द आया है जो विज्ञ या विद्वान का वाचक है।

इस श्लोक का अर्थ करने में किसी-किसी ने उस अर्थ पर तानाजनी की है और उसे खींचतानवाला बताया है जो हमने किया है। ऐसे लोगों का कहना है कि 'सर्वत: संप्लुतोदके' का अर्थ समुद्र या समुद्र जैसा महान जलाशय न करके बाढ़ या जल-प्लावन कर लेना ही ठीक है। इससे श्लोक का यह अर्थ हो जाएगा कि जैसे जल-प्लावन होने पर जितना प्रयोजन ताल-तलैया का रह जाता है, अर्थात कुछ भी प्रयोजन रह जाता नहीं, वैसे ही आत्मज्ञानी विद्वान के लिए भी उतना ही प्रयोजन वेदों से रह जाता है - अर्थात कुछ भी नहीं रह जाता है। इस प्रकार आत्मज्ञानी के लिए वेदों की निष्प्रयोजनता का प्रतिपादन खुले शब्दों में वे लोग इस श्लोक में मानते हैं।

बेशक, इस अर्थ में वैसी खींचतान नहीं है। जैसी हमारे अर्थ में है। हालाँकि, उनके अर्थ में भी द्रविड़ प्राणायाम जरूर है। क्योंकि कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता यह बात श्लोक के शब्दों से सिद्ध न हो के अर्थात सिद्ध होती है। लेकिन ऐसा अर्थ मानने में एक बड़ी अड़चन है। असल में साफ-साफ वेदों को निष्प्रयोजन या बेकार कह देने की हिम्मत किसी भी सनातनी ग्रंथ या महापुरुष को नहीं होती। वेदों का स्थान हिंदू-समाज में इतना ऊँचा है कि उनके बारे में स्पष्ट निंदासूचक शब्द बोला और लिखा जा सकता नहीं। ऐसी बात अब तक तो पाई गई है नहीं। ऐसी दशा में गीता जैसे सर्वप्रिय ग्रंथ यह बात कहे, सो भी स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के ही मुखों से, यह बात ठीक जँचती नहीं। इसीलिए तो इससे पहले के 'त्रैगुण्यविषया' श्लोक में जहाँ मुनासिब था यह कह देना कि तुम तीनों वेदों की परवाह छोड़ो - 'निस्त्रिवेदो भवार्जुन' या 'निस्त्रैविद्यो भवार्जुन', वहाँ यही कहा कि तुम त्रैगुण्य-रहित या संसार के पदार्थों से अलग हो जाओ - 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'। यदि श्लोक को गौर से पढ़ा जाए और उसका आशय देखा जाए तो वह यही है कि वेदों के इस जाल से बच जाओ। मगर ऐसा न कहके यही बात घुमा के कहो कि सांसारिक बातों की लालसा छोड़ दो। इससे भी अर्थात वैदिक कर्मकांड छूट ही जाएँगे। फिर भी स्पष्टत: ऐसा नहीं कहा। ठीक इसी तरह यहाँ भी कह दिया है कि वेदों का काम आत्मज्ञान से भी चल जाता है। मगर उस सीधे अर्थ में तो कुछ न कुछ छींटा वेदों पर आई जाता है। यदि गौर से देखा जाए। इसी से शंकर ने वह अर्थ नहीं किया है। हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है।

एक बात और भी है। यदि 'सर्वत: संप्लुतोदके शब्दों का सर्वत्र जल-प्लावन अर्थ होता है, तो 'संप्लुतोदके' की जगह 'संप्लुते दके' लिखना कहीं अच्छा होता। दक और उदक शब्दों का अर्थ एक ही है पानी। मगर उदक शब्द रखने पर संप्लुत के साथ उसका समास करना पड़ता है, जिसकी जरूरत उन लोगों के अर्थ में कतई रह जाती नहीं। वह तो तब होती है जब समुद्र अर्थ करना हो इसीलिए बहुब्रीहि समास करना पड़ता है। 'संप्लुतोदके' लिखने पर समास की गुंजाइश रह जाने से लोग वैसा कर डालते हैं। मगर यदि वैसा अर्थ इष्ट न होता तो साफ-साफ 'संप्लुते दके' लिख देते। फिर तो झमेला ही मिट जाता। इससे भी पता चलता है कि ऐसा अभिप्राय हुई नहीं।

शांतिपर्व के मोक्षधर्म के 241वें अध्‍याय वाला 'ये स्म बुद्धिं परां प्राप्ता धर्मनैपुण्यदर्शिन:। न ते कर्म प्रशंसन्ति कूपं नद्यां पिवन्निव' (10) श्लोक देखने से पता लगता है कि वह भी परमज्ञान या आत्मज्ञान की ही बात कहता है। उसमें साफ ही कहा है कि इस परा या सर्वोच्च बुद्धि - ब्रह्म-विद्या - क्योंकि उपनिषदों में ब्रह्मविद्या को ही परा विद्या कहा है - को जिनने हासिल कर लिया है वे कर्मों की बड़ाई नहीं करते, उनकी ओर रुजू नहीं होते। इसमें दृष्टांत देते हैं कि पीने आदि के लिए जो मनुष्य नदी में पानी पा लेता है वह कूप की परवाह नहीं करता। इससे भी पता लगता है कि जल-प्लावन से यहाँ अभिप्राय न हो के क्रमश: छोटे-बड़े और उनसे भी बड़े जलाशयों से ही मतलब है। इसी मानी में नदी और कूप का नाम लेना ठीक हो सकता है।

इस प्रकार यहाँ तक कर्मयोग की भूमिका पूरी करके अगले दो श्लोकों में उसी योग का स्वरूप बताया गया है। कर्म के संबंध की हिकमत, तरकीब, चातुरी या उपाय होने के कारण ही इसे कर्मयोग कहते है। इसका बहुत ज्यादा विवेचन और विश्लेषण पहले किया जा चुका है। शांतिपर्व के राजधर्मानुशासन के 112वें अध्‍याय में भी योग शब्द उपाय या हिकमत के मानी में यों आया है, 'त्वमप्येवंविर्धं हित्वा योगेन नियतेन्द्रिय: वर्त्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत' (17)। यहाँ 'योगेन' शब्द का अर्थ नीलकंठ ने अपनी टीका में 'उपायेन' ऐसा ही किया है। शांतिपर्व के 130वें अध्‍याय में भी 'अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते। विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकर पर' (12) श्लोक में नीलकंठ लिखता है कि 'अयोग उपायाभाव:' - "अयोग शब्द का अर्थ है उपाय का न होना।" इससे भी योग शब्द उपायवाचक सिद्ध होता है। योग का स्वरूप दो श्लोकों को मिला के पूरा हुआ है -

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ 47

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ 48

तुम्हारा अधिकार केवल कर्म में है; (कर्मों के) फलों में हर्गिज नहीं। कर्मों के फलों का खयाल (भी) न करो। कर्म के त्याग में तुम्हारा हठ न रहे। हे धनंजय, योग में ही कायम रह के, आसक्ति या करने का हठ छोड़ के तथा वे खामख्वाह पूरे हों यह परवाह छोड़ के कर्मों को करो। इसी समता या लापरवाही - बेफिक्री और मस्तागी - को ही योग कहते हैं। 47। 48।

पहले दो बार कहे गए समत्व में और इसमें क्या अंतर है और इसका मतलब क्या है ये सारी बातें पहले ही अत्यंत विस्तार के साथ लिखी चा चुकी हैं। यह तीसरा समत्व कुछ और ही है यह भी वहीं लिखा गया है।

कर्मयोग में असल चीज योग ही है, जिसका रूप अभी बताया गया है। वह विवेक या ज्ञानस्वरूप ही है। यह बात पहले कही जा चुकी है। 46वें श्लोक में इसी योग के संबंध की भूमिका स्वरूप जो 'विजानत: ब्राह्मणस्य' कहा है उससे यह बात निस्संदेह सिद्ध हो जाती है कि इस योग के मूल में आत्मतत्त्व का पूर्ण विवेक ही काम करता है। उसके बिना इस योग - कर्मयोग - का स्वरूप तैयार हो ही नहीं सकता। इसीलिए जो लोग ऐसा समझते हैं कि कर्मयोग में भी वास्तविक चीज एवं मूलाधार कर्म ही है और योग या बुद्धि - हिकमत, तरकीब - के रूप में जो ऊँची मनोवृत्ति काम करती है, वह सिर्फ सहायक है, उसके स्वरूप को मार्जित और शुद्ध होने में केवल मदद करती है, वह भूलते हैं। यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। कर्म तो उसका एक कार्यक्षेत्र जैसा है। असल चीज तो वह बुद्धि ही है। उसके मुकाबिले में कर्म को ऊँचा दर्जा देने का सवाल हई नहीं। किंतु -

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:॥ 49

हे धनंजय, विवेक-बुद्धिरूपी योग की अपेक्षा कर्म कहीं छोटी चीज है। (इसलिए) उसी विवेक बुद्धि की ही शरण जा। क्योंकि जो लोग उस विवेक बुद्धि से रहित होते हैं वही तो फल की आकांक्षा करते (और इसलिए कर्म करते हैं)। 49।

यहाँ भी कृपण शब्द का वही अर्थ है जो पहले कहा गया है, अर्थात विवेक बुद्धि या आत्मतत्त्व के ज्ञान से रहित।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्॥ 50

इस संसार में (उस) विवेकबुद्धिवाला (मनुष्य ही तो) पुण्य-पाप दोनों से पिंड छुड़ा लेता है। इसलिए (उस) बुद्धयात्मक योग (की ही प्राप्ति) के लिए यत्न करो। वह योग ही तो कर्मों (के करने) की चातुरी या विशेषज्ञता है, कुशलता है। 50।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलंत्यक्त्वा मनीषिण:।

जन्मबंधविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥ 51

क्योंकि बुद्धियुक्त मनीषी - पहुँचे हुए - लोग ही कर्मों से होने वाले (सभी) फलों से नाता तोड़ के जन्म (मरण) के बंधनों से छुटकारा पा जाते (तथा) निरुपद्रव पद - निर्वाणमुक्ति - प्राप्त कर लेते हैं। 51।

अब सवाल यह होता है कि तो यह बुद्धि प्राप्त होती है कब और इसकी प्राप्ति की पहचान क्या है? यह तो कोई विचित्र-सी चीज है, अलौकिक-सा पदार्थ है, नायाब वस्तु है, और जैसा कि पहले दिखलाया जा चुका है, जीते ही मौत के समान असंभव-सी है। इसलिए इसकी प्राप्ति आसान तो हो सकती नहीं। यह भी नहीं कि यह कोई स्थूल या साधारण भौतिक पदार्थ हो। यह तो असाधारण चीज है। बाहरी नजरों से देखी भी नहीं जा सकती। तब हम कैसे जानेंगे कि अब यह हासिल हो गई? इसका उत्तर यह है -

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ 52

जब तेरी अक्ल इस बुद्धि भ्रम के कीचड़ से पार हो जाएगी (तो) उस समय तुझे सभी बातों से विराग हो जाएगा, (फिर चाहे वह) जानी-सुनी हों या जानने योग्य हों। 52।

श्रु तिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समा धा वचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ 53

(इस प्रकार वेदशास्त्रों की सभी बातों से मन के विरागी हो जाने पर) उनके करते घपले तथा दुविधे में पड़ी तेरी अक्ल जब अंत:करण या दिमाग के भीतर ही रुक के वहीं सदा के लिए जम जाएगी तभी (समझना कि) बुद्धिरूपी योग प्राप्त हो गया। 53।

इन दोनों श्लोकों में जो बातें कही गई हैं। उनका जरा-सा स्पष्टीकरण जरूरी है। यह तो पहले ही कर्तव्याकर्तव्य के विवेचन में बता चुके हैं कि वेदशास्त्रों के अनेक वचनों और ऋषि-मुनियों के बहुतेरे उपदेशों के करते लोगों की अक्ल कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाने के बदले और भी दुविधे में पड़ जाती है। उसकी हालत ठीक वही हो जाती है जैसे अँधेरी गुफा में पड़ी कोई चीज अंदाज से ही टटोलने वाले की। वह कोई निश्चय कर पाता नहीं और भीतर ही भीतर ऊब जाता है। निश्चय की जितनी ज्यादा कोशिश वह करता है उतना ही ज्यादा दुविधा और पचड़ा बढ़ जाता है। ठीक 'ज्यों-ज्यों भीगै कामरी त्यों-त्यों भारी होय' या 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की' की हालत हो जाती है। मगर करे क्या? वेदशास्त्रों को छोड़ते भी तो नहीं बनता। जितना पढ़-सुन चुका होता है उसका भी बार-बार खोद-विनोद करता ही जाता है। नए-नए जो भी वचन पढ़ने-सुनने योग्य होते हैं उन्हें भी पढ़ता जाता है। समझदारी की यही तो दिक्कत है। यदि अपढ़-अजान होता तो यह कुछ नहीं होता। तब तो गलत-सही किसी बात को पकड़ के बैठ रहता कि यही ठीक है। इसीलिए तो नादानी को बहुत हद तक दिक्कतों की ढाल माना है। मगर हो क्या? यह बेचारा तो समझदार ठहरा।

इसीलिए पहले श्लोक में कहा है कि जब योगरूपी विवेक बुद्धि मिल जाएगी तो यह सभी पढ़ने-पढ़ाने एवं विचार-विमर्श की परेशानी एकाएक जाती रहेगी। तब दिल चाहेगा ही नहीं कि एक भी पन्ना उलटे या एक बात का भी खोद-विनोद करें। जैसे पका फल डाल से अकस्मात अलग हो जाता है, वैसे ही ये सभी बातें दिल से हट जाती हैं या दिल ही इनसे अलग हो जाता है। वह इन्हें पूछता भी नहीं। इसी को निर्वेद या वैराग्य कहा है।

जब मन या दिल विरागी बन गया तो फिर वेदशास्त्र के हजार तरह के वचनों के करते जो बुद्धि की परेशानी थी, बेकली और बेचैनी थी उस पर भी परदा पड़ जाता है, वह भी आप ही आप जाती रहती है - मिट जाती है। जैसे कोई आदमी बड़ी परेशानी में चारों ओर दौड़-धूप करता-कराता तबाह हो, मगर अंदेशे या परेशानी के मिटते ही शांत हो जाएँ और सुख की साँस लें। ठीक वही हालत बुद्धि की हो जाती है। उसकी सारी दौड़-धूप बंद हो जाती है। हमेशा के लिए वह निश्चल एवं निश्चिंत बन जाती है। यही बात दूसरे श्लोक में कही गई है। यह भी बात योग के प्रताप से ही होती है। इसलिए इसे भी योगप्राप्ति की पहचान बताया है।

यहाँ पर अचला और निश्चला ये दो शब्द आए हैं जिनका अर्थ एक ही है। इसीलिए खयाल हो सकता है कि दो में एक बेकार है। मगर बात यह है कि बुद्धि में जो स्थिरता आ गई वह दो तरह की हो सकती है। एक तो तात्कालिक या कुछ समय के ही लिए। दूसरी हमेशा के लिए। कहीं ऐसा न समझ लें कि तात्कालिक शांति और स्थिरता से ही काम चल जाता है। इसीलिए लिखा है कि निश्चल बुद्धि जब अचल हो जाती है। निश्चल को अचल कह देने से ही उसकी शांति एवं स्थिरता में स्थायित्व का अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। निश्चल का अक्षरार्थ भी है। चलने से बरी और अचल का अर्थ है जो कभी न चले। बरी तो थोड़े समय के लिए भी रहा जा सकता है।

समाधि शब्द का भी मनमाना अर्थ किया जाता है। अभी तक केवल दो ही बार यह शब्द आया है। एक बार इस श्लोक में। दूसरी बार इससे पूर्व 'समाधौ न विधीयते' (44) में। हमने दोनों जगह एक ही अर्थ अंत:करण या दिमाग किया है। समाधि का अर्थ है जिस दशा में या जहाँ मन स्थिर हो, बुद्धि स्थिर हो, और दिमाग या अंत:करण ही ऐसी चीज है जहाँ से मन या बुद्धि की दौड़ बार-बार हुआ करती है। मगर ज्योंही यह दौड़ रुकी कि वहीं वे दोनों शांत हो जाते हैं। एकाग्रता की दशा में यही होता है। इसीलिए हमने यही अर्थ मुनासिब समझा है। जहाँ के हैं वहीं रुक गए, यही तो शांति, स्थिरता या निश्चलता है और यही निश्चयात्मकता भी है। क्योंकि निश्चय न रहने पर बीस चीजों में उनकी दौड़ जारी ही रहती है।

इतना कह देने से यह तो हो गया कि योगी की पहचान मालूम हो गई। मगर इतने से ही तो काम चलता नहीं दीखता। पहले जब गोलमटोल बात थी तो अर्जुन भी चुप थे। कृष्ण ने भी अपने ही मन से शंका उठा के जवाब दे दिया। मगर कर्मयोगी की पहचान सुनने के बाद स्वभावत: अर्जुन को नई जिज्ञासाएँ पैदा हुईं और उसे पूछना पड़ा। उसे यह सुनते ही एकाएक खयाल आया कि जो कुछ भी पहचान योगी की बताई गई है वह तो भीतरी है, बाहरी नहीं। बुद्धि की स्थिरता या पढ़ने-लिखने से वैराग्य यह तो मनोवृत्ति ही है न? फिर यह बाहर कैसे हो और दूसरों की पहचान में कैसे आए? अपना काम तो शायद इससे चल जाए। क्योंकि हर आदमी अपनी मनोवृत्ति को बखूबी समझ सकता है। मगर बाहर के लोग कैसे जानें कि कौन योगी है? यह नहीं कि दूसरों के जानने की जरूरत ही न हो। यदि दूसरे न जानें तो उन्हें उपदेशक कैसे मिलेगा? क्योंकि जो खुद योगी न हो वह तो उपदेश कर सकता नहीं। फलत: यदि हमें योग का रहस्य जानना है तो योगी के पास ही जाना होगा। मगर बिना पहचाने जाएँगे कैसे? इसीलिए पहचान की जरूरत है, और इसके लिए बाहरी लक्षण, जो उठने-बैठने, बोलने आदि से ही जाना जा सके, मालूम होना चाहिए।

इसके सिवाय जो लक्षण, जो पहचान बताई गई है वह बहुत ही संक्षिप्त है। उसमें एक ही बात है, या ज्यादे से ज्यादे दो बातें हैं। मगर ज्यादा बातें पहचान के रूप में मालूम हो जाएँ तो आसानी हो। इन ज्यादा लक्षणों और बाहरी पहचानों से यह भी लाभ होगा कि जो खुद योगी होगा वह भी अपने आपको समय-समय पर तौलता रहेगा। आखिर योग की पूर्णता एकाएक तो हो जाती नहीं। इसमें तो समय लगता ही है। इस दरम्यान में त्रुटियों एवं कमजोरियों का पता लगा-लगा के उन्हें दूर करना जरूरी हो जाता है। इन्हीं त्रुटियों और कमजोरियों का आसानी से पता लगता है। बाहरी लक्षणों से ही। क्योंकि अपनी कमजोरी अपने आपको जल्द मालूम न होने पर भी दूसरे चटपट जान जाते हैं। फलत: उनकी बातों से सजग हो के योगी खुद अपनी मनोवृत्ति पर कड़ी नजर रखता और उसे ठीक करता है। यही सब खयाल करके -

अर्जुन उवाच

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ 54

अर्जुन ने पूछा - हे केशव, जिसकी बुद्धि स्थिर तथा समाधि में अचल हो गई है - जो योगी बन चुका है - उसकी परिभाषा - लक्षण - क्या है? वह किस तरह बोलता है, कैसे बैठता और कैसे चलता? 54।

यहाँ 'समाधिस्थ' शब्द का वही अर्थ है जो 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' में 'योगस्थ' का है। यदि गौर से देखा जाए, और हम पहले विस्तार के साथ लिख भी चुके हैं, तो इस योगी की भी वैसी ही समाधि होती है जैसी पतंजलि के योगी की। यह प्राणायाम भले ही नहीं करे। फिर भी कर्म से बालभर भी इधर-उधर इसकी दृष्टि, इसकी बुद्धि जाने पाती ही नहीं। वहीं जम जाती है, रम जाती है। इसीलिए यह समाधिस्थ और योगस्थ कहा जाता है।

श्रीभगवानुवाच

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।

आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ 55

श्रीभगवान ने कहा, हे पार्थ, जब मन के भीतर घुसी सभी कामनाओं को जड़-मूल से खत्म कर देता और आत्मा में ही - अपने आप में ही - अपने से ही - खुद-ब-खुद संतुष्ट रहता है तभी उसे स्थितप्रज्ञ या अचलबुद्धिवाला कहते हैं। 55।

दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।

वीतरागभयक्रोध : स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ 56

दु:खों से जिनका मन उद्विग्न न हो सके, सुखों (की प्राप्ति) के लिए जो परेशान न हो और राग, भय एवं द्वेष - क्रोध - ये तीनों ही - जिसके बीत गए या खत्म हो चुके हों वही मननशील - मुनि - स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 56।

इन दो श्लोकों में योगी या स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताया गया है। इस प्रकार अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर हो जाता है। बाद के 57वें में 'किस तरह बोलता है' का और 58वें में 'कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। उसके बाद के (59-70) बारह श्लोकों में उसी उत्तर के प्रसंग में आई बातों पर विचार करके 71वें में 'कैसे चलता है' का उत्तर दिया गया है। इस तरह सभी प्रश्नों के उत्तर के रूप में कर्मयोगी का पूर्ण परिचय दे के उसकी वास्तविक दशा का चित्र खींचा गया है। उसी दशा को ब्रह्मनिष्ठा या ब्राह्मीस्थिति भी कहते है, यही बात अंतिम श्लोक में कह के समूचे प्रकरण एवं अध्‍याय का भी उपसंहार कर दिया गया है।

यहाँ जो दो श्लोकों में दो लक्षण कहे गए हैं उनमें पहला तो नितांत भीतरी पदार्थ है जिसका पता बाहर से लगना प्राय: असंभव है। किसे पता लग सकता है कि दूसरे आदमी की सभी वासनाएँ खत्म हो गईं? अपने ही भीतर वह मस्त है यह भी जानना क्या संभव है? आसान है? इसीलिए दूसरे श्लोक वाली बातें कही गई हैं। इन बातों के जानने में आसानी जरूर है। तकलीफों में सिर और छाती पीटना, हाय-हाय करना आसानी से जाना जा सकता है। इसी तरह आराम पाने के लिए जो बेचैनी होती है उसका भी पता लगे बिना रहता नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि राग, भय और क्रोध तो छिपनेवाली चीजें हैं नहीं। खासकर भय और उससे भी बढ़ के क्रोध हर्गिज छिप सकता नहीं। इस प्रकार इन लक्षणों से योगी को आसानी से पहचान सकते हैं। सभी तरह के लोग इन लक्षणों से फायदा उठा सकते हैं, यही इनकी खूबी हैं।

य: सर्व त्रा नभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।

नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 57

जो किसी भी पदार्थ में ममता नहीं रखता - चिपका नहीं होता; इसीलिए जो बुरे-भले (पदार्थों) के मिल जाने पर न तो उनका अभिनंदन ही करता है और न उन्हें कोसता ही है, उसी की बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 57।

इसके उत्तरार्द्ध में योगी के बोलने की बात अभिनंदन न करने और न कोसने की बात के रूप में साफ ही आई है। योगी के बोलने की यही खास बात है कि वह न तो किसी की स्तुति करता है और न निंदा।

यदा संहरते चायं कूर्मो s गांनीव सर्वश:।

इंद्रियाणोन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 58

जब यह (योगी) अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से एकबारगी ठीक उसी तरह समेट लेता है जैसे (संकट के समय) कछुआ अपने सभी अंगों को, (तब) उसकी बुद्धि स्थिर मानी जाती है। 58।

कछुए के चलने-फिरने से एकाएक रुक जाने और सभी गरदन, पाँव आदि को खींच लेने की बात कहके 'योगी कैसे बैठता है' का उत्तर दिया गया है। वह अपनी सभी इंद्रियों का दरवाजा ही बंद कर देता है। फिर न तो किसी मनोरंजन पदार्थ के लिए कहीं आना होता है और न जाना। यों शरीर-यात्रार्थ नित्य क्रियादि के करने में आने-जाने पर कोई भी रोक नहीं होती। 61वें श्लोक में भी इंद्रियों के ही रोकने की बात दुहराई गई है और कहा गया है कि इंद्रियाँ जिसके वश में हों वही स्थिर बुद्धिवाला है।

इंद्रियों को विषयों से रोक देने की बात सुन के सवाल होता है कि यदि योगी की यही बात है तो हठयोगी तपस्वी को भी क्या कभी गीता का कर्मयोगी कह सकते हैं? वह भी तो आखिर विषयों से किनाराकशी करी लेता है। अपनी इंद्रियों पर वह इतनी सख्ती के साथ लगाम चढ़ाता है कि वे टस से मस होने पाती हैं नहीं। सरदी-गरमी और भूख-प्यास पर उसका कब्जा साफ ही नजर आता है। मगर ऐसे हठी तपस्वियों और योगियों में तो जमीन-आसमान का अंतर है। यह कैसे होगा कि गीता का योगी तपस्वी के साथ मिल जाए - उसी तपस्वी से जिसका वर्णन स्मृतिग्रंथों में पाया जाता है? तब तो यह योगी और योग गीता की अपनी चीज रह जाएगी नहीं। वह एक प्रकार से बहुत ही आसान चीज हो जाएगी। इसीलिए इसका स्पष्टीकरण आगे के बारह श्लोकों में करना जरूरी हो गया। क्योंकि यह विषय जरा गहन है। यह भी बात है कि क्या केवल विषयों के रोकने मात्र की ही जरूरत होती है, या और कुछ भी जरूरी होता है, यह भी जान लेना आवश्यक है। नहीं तो धोखा हो सकता है, होता है।

विषया वि निवर्त्तंते निराहारस्य देहिन:।

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्त ते॥ 59

आहार छोड़ देने वाले मनुष्य के विषय तो (स्वयं) हट जाते हैं। (मगर उनके प्रति) रागद्वेष बने रह जाते हैं। ये भी निवृत्त हो जाते हैं (सही; लेकिन) ब्रह्म-रूपी आत्मा को देखने पर ही, आत्मतत्त्व के ज्ञान के बाद ही। 59।

यहाँ आहार शब्द विचित्र है। सर्वसाधारण में प्रचलित आहार शब्द का अर्थ है भोजन। यह भी माना जाता है कि केवल खाना-पीना - अन्न - छोड़ देने से ही सभी इंद्रियाँ अपने आप शिथिल हो के पस्त और अकर्मण्य हो जाती हैं। फलत: विषयों तक पहुँच नहीं सकती हैं। हालत यहाँ तक हो जाती हैं कि निराहार या अनशन करनेवाले के कान में हारमोनियम बजाइए तो भी उसे कुछ पता ही नहीं चलता है। नासिका के पास इतर-गुलाब लाइए तो भी उसे गंध का पता नहीं चलता। इसीलिए छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक - अध्‍याय - के नवें खंड में लिखा भी है कि यदि दस दिन भोजन न करे तो उसके प्राण भले ही न जाएँ, फिर भी सुनना, सोचना, विचारना वगैरह तो खत्म ही हो जाता है - 'यद्यपि दशरात्रीर्नाश्नीयाद्यद्युहजीवेदथवाऽद्रष्टाऽश्रोताऽमन्ताऽ- बोद्धाऽकर्त्ताऽविज्ञाता भवति' (9। 1)

दूसरी ओर यह मानने वाले भी बहुत से लोग हैं कि आहार का अर्थ केवल अन्न न हो के इंद्रियों के पदार्थ या विषय को ही आहार कहना उचित है। आहार शब्द का अर्थ भी यही होता है कि जो अपनी ओर खींचे। विषय तो खामख्वाह इंद्रियों को खींचते ही हैं। पहले श्लोक में सिर्फ भोजन की बात न आ के विषयों की ही बात आई है। बादवाले श्लोक में भी इंद्रियों के विषयों की ओर ही खिंच जाने और मन को खींच ले जाने की बात कही गई है। छांदोग्योपनिषद् के सातवें प्रपाठक के अंत में यह भी लिखा गया है कि आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि और सत्त्व की शुद्धि से पक्की एवं चिरस्थाई स्मृति, जिसे स्मरण या तत्त्वज्ञान कहते हैं, होती है, जिससे सारे बंधन कट के मुक्ति होती है - 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्ष:' (7। 26। 2)। यदि इस वचन से पहले वाले इसी 26वें खंड के ही वाक्य पढ़े जाए या सारा प्रकरण देखा जाए तो साफ पता चलता है कि यहाँ आहार शब्द का अर्थ इंद्रियों के विषय ही उचित हैं, न कि भोजन। यही ठीक भी है। केवल भोजन तो ठीक हो और बाकी काम ठीक न रहें तो सत्त्वगुण या उस गुण वाले अंत:करण की शुद्धि कैसे होगी और उसकी मैल कैसे दूर होगी? तब तो खामख्वाह रज और तम का धावा होता ही रहेगा। फलत: वे सत्त्व या सत्त्व-प्रधान अंत:करण को रह-रह के दबाते ही रहेंगे। इसीलिए चौदहवें अध्‍याय के अंत में गीता में भी गुणों से पिंड छूटने के लिए ऐसी चीजें बताई गई हैं जो भोजन से निराली और विभिन्न विषय रूप ही हैं।

यह ठीक है कि जब अनशन करने वाले लोग कहें कि इंद्रियों को वश में करने के लिए आत्मतत्त्व विवेक की जरूरत है नहीं; केवल निराहार होने से ही काम चल जाएगा, तो उनके उत्तर में इस श्लोक में यह कहने का सुंदर मौका है कि हाँ, इंद्रियाँ तो रुक जाती हैं जरूर। मगर रस या चसका तो बना ही रहता है, जिसे राग और द्वेष के नाम से पुकारते हैं इसीलिए तत्त्वज्ञान की जरूरत है। क्योंकि वह रस तो उसी से खत्म होता है। इस प्रकार श्लोक की संगति भी बैठ जाती है। मगर यह संगति तो विषयों की बात मान लेने पर भी बैठ जाती ही है। क्योंकि हठी तपस्वी लोग एकदम निराहार तो नहीं हो जाते। शरीररक्षार्थ कुछ तो खाते-पीते हईं। हाँ, काम-चलाऊ मात्र ही स्वीकार करते और शीत-उष्ण की सख्ती के साथ सह के इंद्रियों को बलपूर्वक रोक रखते हैं। आखिर उनका भी तो जवाब चाहिए। ऐसे ही लोग ज्यादा होते हैं भी। इसीलिए गीता ने उनका और दूसरों का भी उत्तर इसी श्लोक में दिया है। राग और द्वेष को ही यहाँ रस कहा गया है। इन्हीं का दूसरा नाम काम एवं क्रोध और भय तथा प्रीति भी है। इसे गीता ने खासतौर से संग कहा है।

इसी के लिए आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान जरूरी माना गया है। वही योग का मूलाधार है। उसी के लिए सबसे पहले महान यत्न करना जरूरी है। मगर कुछ लोग ऐसा गुमान कर सकते हैं कि आत्मज्ञान जैसी दुर्लभ चीज के लिए परेशान होने और मरने की क्या जरूरत है? इंद्रियों के रोकने का ही ज्यादे से ज्यादा यत्न और अभ्यास करके यह काम हो सकता है कि वे आगे चल के कभी भी विषयों की ओर न ताकें। आखिर राग-द्वेष लाठी से तो मारते नहीं। होता है यही कि उनके रहते इंद्रियों के लिए खतरा बना रहता है कि कभी विषयों में जा फँसेंगी। यही बात न होने का उपाय अभ्यास है। अभ्यास करते-करते ऐसी आदत पड़ जाएगी कि अंत में विषय भूल जाएँगे। मगर ऐसे गुमानवाले न तो इंद्रियों की ही ताकत जानते हैं और न राग-द्वेष की मोहनी और महिमा ही। यह राग-द्वेष ही ऐसी रस्सी है जो विषयों को इंद्रियों से और इंद्रियों को मन से जोड़ती है। जब तक यह रस्सी जल न जाए कोई उपाय नहीं। तब तक इंद्रियाँ खुद तो विषयों में जाएँगी ही। मन को भी घसीट लेंगी। यही बात आगे यों कहते हैं -

यततो ह्यपि कौंतेय पुरुषस्य विपश्चित:।

इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:॥ 60

हे कौंतेय, पूरा समझदार पुरुष के (हजार) यत्न करते रहने पर भी (ये) बेचैन कर देने वाली इंद्रियाँ मन को (अपनी ओर) बलात खींच लेती हैं। 60।

इस श्लोक में 'पुरुषस्य विपश्चित:' कहने का प्रयोजन यही है कि ऐरे-गैरे की तो बात ही मत पूछिए। विवेकी और मुस्तैद - मर्दाने - लोगों की भी दुर्गति ये बदजात इंद्रियाँ कर डालती हैं। इसी तरह 'हरन्ति' शब्द का आशय यह है कि हमें पता नहीं लगने पाता और चुपके से मन उधर खिंच जाता है। हम हजार चाहें कि ऐसा न हो। मगर इंद्रियाँ तो ललकार के ऐसा करती हैं और हमें पता तब चलता है जब एकाएक देखते हैं कि मनीराम गायब हैं!

इस बात का बहुत ही सुंदर आलंकारिक वर्णन कठोपनिषद् के प्रथमाध्‍याय की द्वितीयवल्ली में इस तरह किया गया है। जब कोई भला आदमी घोड़ागाड़ी पर चढ़ के पक्की सड़क के रास्ते कहीं जाए तो उसे सजग रह के चलना तो होता ही है। नहीं तो घोड़े कहीं बहक जाएँ और गाड़ी नीचे जा गिरे। उसकी यात्रा में वह खुद होता है। कोचवान, लगाम, घोड़े, गाड़ी ये भी होते ही हैं। सड़क भी होती है और उसके किनारे दोनों ओर अकसर नीचे और गहरे गढ़े भी होते हैं। यदि उस नीची जगह में हरी घास लहलहाती हो तो क्या कहना? घोड़े तो घास की ओर जरूर ही जोर मारते हैं। उन्हें लक्ष्य स्थान पर पहुँचने से क्या मतलब? वह यह भी क्या समझने गए कि यदि नीचे उतरे तो गाड़ी और गाड़ी के मालिक वगैरह के साथ खुद भी उन्हें जख्मी होना या मरना होगा? उन्हें तो हरी घास की चाट होती है, उसका चसका होता है। बस, बाकी बातें भूल जाती हैं। ऐसी दशा में यदि कोचवान जरा भी लापरवाह हुआ या ऊँघा और लगाम जरा भी ढीली हुई तो सारा गुड़ गोबर हुआ। रथ या गाड़ी के मालिक को भी पूरा सतर्क रहना होता है।

उपनिषद में आत्मा को रथी या गाड़ी का मालिक और सवार करार दे के बुद्धि को कोचवान - सारथी, - मन को लगाम - प्रग्रह - और इंद्रियों को घोड़े की जगह माना है। शरीर ही रथ - गाड़ी - और संयतजीवन ही पक्की सड़क मानी है। इस संयम से हटना खंदक में जाना है जहाँ इंद्रियों के विषय लहलहाती घास है। लक्ष्य स्थान है निर्वाणमुक्ति या ब्रह्मनिष्ठा। जीवन की लंबी यात्रा तय करनी है। फलत: आत्मा यदि सतर्क न रहे, बुद्धि को ताकीद न करे कि लगाम को कस के पकड़ो तो घोड़े जरूर ही ग में जाए और सबको चौपट करें। कितना सरस, पर कितना काम का, यह वर्णन है! इसलिए वहाँ कह दिया है कि जिसकी बुद्धि चुस्त और मन कब्जे में है वही जीवनयात्रा सकुशल पूरी करके विष्णु के परम पद - मोक्ष - तक पहुँच जाता है -

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च॥ 3

इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुमनीषिण:॥ 4

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।

तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथे:॥ 5

यस्तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा।

तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथे:॥ 6

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्क: सदाऽशुचि:।

न स तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति॥ 7

यस्तु विज्ञानवान भवति समनस्क: सदाशुचि:।

स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जा ते॥ 8

विज्ञान-सारथिर्यस्तु मन:-प्रग्रहवान्नर:।

सोऽ ध्व न: पारमाप्नोति तद्विष्णो: परमं पदम्॥ 9

इसलिए इस विषय की विषमता को समझ के हमेशा सजग रहना ही होगा तभी काम चल सकता है। इसीलिए आत्मज्ञान की भी जरूरत है। यदि रथ का मालिक ही जगा न हो तो खुदा ही खैर करे। तब तो सारा मामला ही चौपट। इसलिए -

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 61

उन सबों - इंद्रियों - को रोक - कब्जे में कर - के आत्मा में ही मन को रमाये हुए डटा रहे। क्योंकि (इस प्रकार) जिसके वश में इंद्रियाँ हों वही स्थितप्रज्ञ है। 61।

यहाँ 'मत्पर:' में 'मत्' का अर्थ साकार कृष्ण नहीं है। इसका तो प्रसंग हई नहीं। यहाँ तो आत्मज्ञान का ही प्रसंग है। इसीलिए ब्रह्म या परमात्मा रूपी आत्मा से ही यहाँ तात्पर्य है। कहते हैं कि, जिस प्रकार अत्यंत चंचल और क्रियाशील भूत को शांत करने की लिए कभी किसी चतुर व्यक्ति ने बहुत लंबे बाँस पर लगातार चढ़ने-उतरने का काम उसे दिया था - क्योंकि वह उससे काम माँगता ही रहता था और इस तरह बेचैन कर डालता था, यहाँ तक कि झपकी मारने भी न देता था, - ठीक उसी तरह आत्मा में ही जब मन रम जाए - जब अंत:करण से आत्मा तक ही आने-जाने की उसे इजाजत हो, न कि जरा भी इधर-उधर-तभी वह शांत होता है। तभी इंद्रियाँ भी कब्जे में रहती हैं। इस मामले में कितना सतर्क रहने की जरूरत है, किस तरह लोग धोखा खा जाते हैं। और नीचे जा गिरते हैं, पद-पद पर इसमें कितना खतरा है और अनजान में भी जरा-सी रिआयत करने से किस तरह सब किए-कराए पर पानी फिर जाता है, इसका बारीक से बारीक विवेचन और ब्योरा आगे के दो श्लोक यों करते हैं -

ध्‍यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजा ते।

संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ 62

क्रो धा द्भवति सम्मोह: सम्मोहातस्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ 63

विषयों - इंद्रियों के विषयों या भौतिक पदार्थों - का खयाल करते ही मनुष्य के (दिल में उनके प्रति) राग या आसक्ति पैदा हो जाती है। राग से (उनकी प्राप्ति की) इच्छा होती है। इच्छा से क्रोध होता है। क्रोध से जबर्दस्त अंधकार जैसा मोह पैदा हो जाता है। उस सम्मोह का फल होता है। हर तरह की स्मृति - स्मरण या याद - का खात्मा। स्मृति के खत्म हो जाने से विवेक शक्ति जाती रहती है। विवेकशक्ति के चौपट हो जाने पर वह खुद चौपट हो जाता है। 62-63।

यहाँ जितनी बातें एक के बाद दीगरे कही गई हैं उनका क्रम क्या है और प्रक्रिया कैसी है, इसे अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। यह ठीक है कि जब तक किसी चीज का खयाल न हो उससे मन चिपकता नहीं, उसमें सटता नहीं। देखते हैं कि फोटोग्राफ के प्लेट या पटरी पर उस हर पदार्थ का बहुत बारीक असर (impression) पड़ जाता है जो उसके सामने से गुजरता है। इसी को संस्कार कहते हैं। यदि किसी सुगंधित वस्तु को कहीं रख दें तो उसके हट जाने पर भी उसका कुछ न कुछ असर रही जाता है। इसी तरह दिमाग के सामने जो चीज आती है उसका भी असर उस पर पड़ता ही है। दिमाग तो भीतर है। इसलिए उसके सामने बाहरी चीजें इंद्रियों की खिड़कियों से ही होकर पहुँचती हैं। सो भी वे खुद नहीं; किंतु अंत:करण या मन हू-ब-हू उन्हीं के आकार का बन के भीतर लौटता है। इसी तरह वे दिमाग के सामने आती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इंद्रियों की खिड़कियाँ बंद रहने पर भी चीजों के आकार को मन दिमाग के सामने खड़ा कर देता है। यह इसीलिए होता है कि पहले इंद्रियों के रास्ते कभी वे भीतर आई थीं और अपना असर छोड़ गई थीं। बस उसी असर के आधार पर मन उनका स्वरूप तैयार कर लेता है। इसी को खयाल, स्मरण, या ध्‍यान कहते हैं, चिंतन कहते हैं। इन श्लोकों में पहली बात यही कही गई है।

उसका नतीजा यह होता है कि उन चीजों से मनीराम लिपट जाते हैं, उनमें आसक्त हो जाते हैं, फिदा हो जाते हैं। यह ठीक है कि यह आसक्ति यों ही नहीं हो जाती। कितनी ही चीजें रोज दिमाग के सामने गुजरा करती हैं। मगर सबों के साथ संग या आसक्ति कहाँ देखते हैं? हाँ, जो चीजें बार-बार सामने आ जाएँ, जिनका बार-बार खयाल हो उनमें आसक्ति होती है। या ऐसा भी होता है कि यदि चीज में कोई विलक्षणता हो तो पहली बार सामने आने पर ही मनीराम उस पर लट्टू हो जाते हैं। यह बात वस्तु की अपनी विशेषता और सामने आने की परिस्थिति पर ही अवलंबित है। यही है दुनिया का तरीका। यही दूसरी बात यहाँ कही गई है।

आसक्ति होने पर उसे प्राप्त करने की इच्छा, आकांक्षा या तमन्ना होती ही है। उसी के लिए रास्ता साफ करना आसक्ति का काम है। इच्छा को ही काम भी कहते हैं। इसका दर्जा तीसरा है। यह असंभव है कि इच्छा हो ही न और आसक्ति यों ही रह जाए।

काम के बाद क्रोध का दर्जा आता है - उसी का चौथा नंबर है। जिसे काम या इच्छा न हो उसे क्रोध से क्या ताल्लुक? उसमें तो क्रोध का दर्शन भी न होगा। इच्छा से क्रोध यों ही नहीं होता। किंतु उसके मौके आते रहते हैं। इच्छित वस्तु न प्राप्त हुई, उसकी प्राप्ति में देर हुई या बीच में कोई जरा भी अड़ंगा आ गया, तो चट क्रोध उमड़ पड़ता है। इच्छा जितनी ही तेज होगी, क्रोध भी उतना ही तेज होगा और शीघ्र होगा भी। क्योंकि तब तो जरा भी बाधा या विलंब बरदाश्त हो सकेगी नहीं। यह भी होता है कि मिली हुई चीज किसी वजह से दूर हो जाती है, हट जाती है और क्रोध भड़क उठता है। तात्पर्य यह है कि बलवती इच्छा के बाद इच्छित पदार्थ की जुदाई, उसका पार्थक्य या अलग होना ही इच्छा को क्रोध में परिणत कर देता है। जैसी इच्छा होगी वैसा ही क्रोध भी होगा।

यहाँ एक बात याद रखने की है। बहुत लोग गीता के 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' का सीधा अर्थ 'काम से क्रोध होता हैं' करने के बजाए बीच में अपनी ओर से पुछल्ला लगा देते हैं कि काम - इच्छा - की पूर्ति में बाधा पड़ने से क्रोध होता है। वे यह भी समझते हैं कि उनने अर्थ का स्पष्टीकरण कर दिया। मगर ऐसा करने में वह भूल जाते हैं कि गीता का असली अभिप्राय ही चौपट हो जाता है। गीता के काम से क्रोध की उत्पत्ति सीधे ही कहने का मतलब यही है कि क्रोध की असल बुनियाद और अनर्थ का मूल कामना ही है। इसलिए उसी को दूर करना होगा। उन लोगों के अर्थ में यह बात - कामना को ही अनर्थ बताने की बात - नहीं रह जाती है। क्योंकि ज्यों ही उनने बाधा का नाम लिया कि सबने समझ लिया कि असली बला कामना नहीं है। क्योंकि कामना होने पर भी तो खामख्वाह क्रोध होता ही नहीं। वह होता तो है जब कामना की पूर्ति में बाधा आ जाए। और अगर बाधा न आए तो? तब क्रोध क्यों होगा? इस तरह जो महत्त्व कामना को मिलना चाहिए वही मिल जाता है बाधा को। फलत: कामना से ध्‍यान हट जाता है - जैसा चाहिए वैसा खयाल कामना के मुतल्लिक रहता नहीं। पीछे चाहे हजार कहें कि बाधा तो होती ही है, ऐसा तो संभव नहीं कि सदा हर हालत में कामनाएँ पूरी हों, आदि-आदि। मगर वह बात रह जाती नहीं - वह मजा और स्वारस्य रह जाता नहीं। और जब बाधाएँ अवश्यमेव आती ही हैं, तब उनके जिक्र की जरूरत ही क्या है? गीता के तीसरे अध्‍याय के अंत में 'काम एष क्रोध एष' में तो साफ ही काम और क्रोध को एक ही कहा भी है।

पाँचवीं श्रेणी में मोह या सम्मोह आता है जो क्रोध से पैदा होता है। मोह तो एक तरह का परदा है जो दिमाग पर, विवेकशक्ति पर पड़ जाता है। जब वही परदा खूब जबर्दस्त और गाढ़ा हो तो उसे सम्मोह कहते हैं। हमारी आँखों के सामने हजारों चीजें पड़ी हों और बीच में परदा न हो तो हम सबको ठीक-ठीक देखते, जिन्हें चाहते उन्हें चुन लेते, उनके बारे में कुछ दूसरा खयाल करते और सोचते-विचारते हैं। मगर अगर बीच में कोई परदा आ जाए तो यह सारी बात रुक जाती है। यही हालत दिमाग की भी है। युगयुगांतर की देखी, सुनी और जानी हुई बातें संस्कार के रूप में उसमें पड़ी रहती हैं। उनका एक तरह का सूक्ष्म चित्र पड़ा रहता है। समय-समय पर दिमाग उन्हें देखता, विचारता, चुनता और उनसे काम लेता रहता है। उन चीजों और उसके बीच कोई परदा नहीं होता। हाँ, नींद, नशा, बीमारी आदि के करते मोटा या महीन परदा कभी-कभी आ जाया करता है और ऐसा हो जाता है कि वे ओझल हो गईं। यही बात क्रोध के समय भी होती है। कहते हैं कि क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है - उसे सूझता ही नहीं। इसका यही मतलब है। क्रोध का परदा बड़ा खतरनाक होता है। वह बुरी तरह भटकाता और गुमराह करता है। जिससे महान अनर्थ हो जाता है। यह बात नींद वगैरह में नहीं होती है। क्रोध में तो इनसान क्या से क्या कर बैठता है। इसलिए उसे सम्मोह कहा है। इसीलिए गीता के तीसरे अध्‍याय के अंत के (36-43) आठ श्लोकों में इसी क्रोध को सभी पापों का मूल कारण, महापाप, आवरण, कुंभकर्ण जैसा पेटवाला, असली शत्रु, आग और कभी पूरा न होनेवाला बताया है। उससे सुंदर चित्रण हो सकता है नहीं। क्रोध होते ही दिमाग में भादों की घोर अँधेरी छा जाती है। 'त्रिविधं नरकस्येदं' (16। 21-22) आदि दो श्लोकों में काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार तथा आत्मा के नाशक कह दिया है।

सम्मोह से स्मृति का खात्मा हो जाता है और यही छठी बात है। घोर अँधियारी में सूझने क्यों लगा? अँधियारी का तो काम ही है कि किसी चीज का पता लगने न दे। स्मृति या स्मरण के भ्रंश का अर्थ इतना ही है कि स्मृति हमेशा के लिए खत्म न हो के तत्काल जाती रहती है। यह तो कही चुके हैं कि दिमाग में सारी बातों के सूक्ष्म चित्र हैं। वह भौतिक या बाहरी कान, आँख आदि तो है नहीं। इसलिए प्रत्यक्ष अनुभव तो उन बातों का होता नहीं। किंतु वह स्मरण हो आती हैं। यही दिमाग का देखना है और क्रोध के चलते यही हो पाता नहीं; रुक जाता है। जितनी बातें पहले देखी-सुनी, पढ़ी-लिखी या जानी थीं एक की भी याद नहीं हो पाती। सब चौपट!

इसका परिणाम यह होता है कि भले-बुरे, कर्तव्य-अकर्तव्य, आत्मा-अनात्मा आदि का विवेक हो पाता नहीं - यह विवेक-शक्ति ही कुंठित हो जाती है और अपना काम कर पाती नहीं। यही सातवीं चीज होती है। विवेक या विचार है क्या चीज यदि जानी-सुनी बातों का जोड़-बटोर और मिलान नहीं है? समय-समय पर सभी तरह की बातें हम जानते रहते हैं और उनका संस्कार दिमाग में पड़ा रहता है। कभी कुछ जानते तो कभी कुछ। एक बार एक चीज जानते; तो दूसरी बार दूसरी और कभी-कभी पहले की विरोधी। एक लंबी बात का एक अंश आज, एक कल, दो परसों इस तरह भी जानते रहते हैं। एक दिन जिसे सही जानते हैं, दूसरे दिन उसी को अंशत: या पूरा-पूरा गलत जानते हैं। ये सारी जानकारियाँ - सारी बातें - फोटो की तख्ती पर के चित्र की तरह दिमाग में पड़ी रहती हैं। दिमाग का यही काम है कि समय-समय पर इन्हें जोड़ बटोर कर - इन्हें स्मरण करके - एकत्र करके - और काट-छाँट के एक नई बात, नई चीज, नया निश्चय तैयार करे। इसे ही विवेक कहते हैं। विवेक का अर्थ है काट-छाँट, जोड़-बटोर करना, चावल को भूसे से जुदा करके राशि बनाना। मगर जब जानी-सुनी बातें याद ही नहीं, उनकी स्मृति ही नहीं, तो विवेक कैसे होगा? तब अक्ल और बुद्धि कैसे होगी - समझ क्योंकर होगी? इस तरह भौतिक पदार्थों का ही विवेक जब नहीं हो पाता, तो फिर आत्मा का विवेक और उसका तत्त्वज्ञान कैसे होगा? वह तो गहन विषय है। इसलिए उसके संबंध की बातों का जाना-सुना जाना तो और भी लापता हो जाएगा, उड़ जाएगा, खत्म हो जाएगा।

और जब बुद्धि ही नहीं तो मनुष्य को चौपट ही समझिए। यही आठवीं और अंतिम बात है। अब बाकी रही क्या गया, जब चौपट ही हो गए? पत्थर, वृक्ष और पशु-पक्षियों से मनुष्य में यही तो फर्क है कि यह बुद्धि रखता है, समझदार है - rational being - है। और भले-बुरे का विचार करता है, कर सकता है। मगर जब इसमें यही बात न रह गई तो मनुष्य क्या खाक रहा? तब तो चौपट हो ही गया।

अब सवाल यह होता है कि तो आखिर किया क्या जाए? अगर किसी चीज का खयाल न करें तो क्या पत्थर बन जाएँ? यों तो खयाल करने पर पीछे देर से पत्थर बनने की नौबत आती है, जैसा अभी कहा है। बल्कि खामख्वाह पत्थर बन जाने की भी नौबत नहीं आती है। हाँ, मनुष्यता जरूर चली जाती है। मगर यदि खयाल करें ही न, तब तो सोलहों आना पत्थर बनी चुके। और अगर ऐसा नहीं करते तो शरीर-रक्षा एवं जीवन-यात्रा करते हुए मनुष्यता की भी रक्षा करने का कोई बीच का रास्ता नजर आता नहीं। आखिर विवेकी के लिए भी तो शरीर, इंद्रियादि की रक्षा जरूरी है। नहीं तो विवेक-विचार वह करेगा क्या खाक? मगर इसके लिए तो पदार्थों का खयाल जरूरी हो जाता है। आखिर भूख लगने पर ही तो खाएगा और प्यास लगने पर पानी पिएगा। मल-मूत्रादि का त्याग भी बिना खयाल के होगा नहीं। उधर खयाल में आसक्ति का खतरा ही ठहरा। तो फिर किया क्या जाए? इसी का उत्तर - इसी पहेली का समाधन - आगे के दो श्लोक इस तरह करते हैं -

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्वि धे यात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ 64

प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि : पर्यवतिष्ठते॥ 65

राग और द्वेष से शून्य तथा अपने कब्जे में रहने वाली इंद्रियों के द्वारा (आवश्यक) विषयों को भोगने वाले पुरुष का तो मन अपने अधीन रहने के कारण (चित्त की) प्रसन्नता (ही) प्राप्त होती है। प्रसन्नता होने पर इस (मनुष्य) की सारी तकलीफें खत्म हो जाती हैं। क्योंकि प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही सर्वथा स्थिर हो जाती है। 64। 65।

यहाँ पर कई बातें जानने योग्य हैं। पदार्थों के खयाल या संसर्ग मात्र से ही कुछ होता जाता नहीं। विरागी पुरुष भी तो आखिर खाता-पीता और जीवनयात्रा करता ही है। उसके दिमाग के सामने भी पदार्थ आते ही रहते हैं। मगर वह तो चौपट होता नहीं? क्यों? इसीलिए न, कि पूर्व कथन के अनुसार उसके भीतर पदार्थों के लिए रस नहीं है, संग और आसक्ति नहीं है, राग-द्वेष नहीं है? वह तो पदार्थों से उदासीन रहता है। केवल अनिवार्य आवश्यकता से ही उनसे काम लेता है। मलमूत्र त्याग का ही दृष्टांत लें। हर आदमी के लिए यह प्रतिदिन जरूरी बात है। मगर क्या कभी ऐसा भी देखा-सुना गया कि कोई आदमी मल-मूत्र त्याग में आसक्ति रखता हो? ऐसी तो कभी होता नहीं। क्यों? इसीलिए न कि मजबूरन लोगों को यह काम करना ही पड़ता है। नहीं तो शरीर रहेगी न? अनिवार्य आवश्यकता के अतिरिक्त इस काम में और कोई वजह होती ही नहीं। इसीलिए उसमें फँसने का सवाल उठता ही नहीं। वैराग्ययुक्त विवेकी पुरुष ठीक इसी तरह खानपान वगैरह भी करता है। उनकी नजर में मल-मूत्र त्याग और खानपान आदि में जरा भी अंतर नहीं है - दोनों ही शरीर-रक्षा के लिए अनिवार्य हैं। उसे न तो मल-मूत्र में राग-द्वेष है, आसक्ति है, चसका है और न खानपान आदि में ही। फिर वह फँसेगा क्यों? बस, यही बात हमें करनी होगी यदि हम भी कल्याण चाहते हैं, चौपट होना नहीं चाहते और सभी अनर्थों से बचना चाहते हैं। 'रागद्वेषवियुक्तै:' में जो वियुक्त शब्द है वह यही बात बताता है कि हम इन बातों में जरा भी चसकें न, लिपटें न, जैसा कि मल-मूत्र त्याग में नहीं लिपटते।

पहले के 60वें श्लोक में 'इंद्रियाणि प्रमाथीनि' आदि उत्तरार्द्ध में यह कहा गया है कि इंद्रियाँ पुरुष को बेचैन कर देती हैं, मथ देती हैं जैसे मथानी से दही मथा जाए और मन को जबर्दस्ती खींच ले जाती हैं। मथने की बात हम 'व्यथयन्ति' की व्याख्या में बखूबी बता चुके हैं। उसका उलटा यहाँ कह दिया है कि 'आत्मवश्यै:' - अर्थात इंद्रियाँ अपने काबू में हो जाती हैं, अपने मन के अधीन रहती हैं। आत्मा का अर्थ स्वयं और मन दोनों ही हैं। जब चसका और राग-द्वेष नहीं हैं, तो इंद्रियों को यह शक्ति होती ही नहीं कि मन को खींच सकें। क्योंकि वही तो रस्सी हैं जिनके द्वारा उनके साथ मन जुटा है। इसीलिए जब चाहती हैं उसे अपनी ओर खींच लेती हैं। मगर वह रस्सी ही अब गई है टूट। फिर हो क्या? मगर मनीराम कौन से भले हैं? यह हजरत तो खुद इंद्रियों की पीठ ठोंकते और ललकारते फिरते हैं कि वाह-वाह, खूब किया। ऐशी दशा में यदि इंद्रियाँ इनके हाथ आ गईं तो इन्हें तो मजा ही हुआ। अब पीठ ठोंकने में और भी आसानी जो होगी। इसलिए कह दिया है कि 'विधेयात्मा'। असल में मनीराम यह काम जरूर करते। मगर वे तो खुद परेशान हैं। वे आत्मा के सोलह आने कब्जे में जो हैं। इसीलिए कुछ कर नहीं सकते! कहाँ तो 'आ फँसे' वाली हालत है। असल में राग-द्वेष के खत्म होते ही सारी परिस्थिति ही उलट जाती है। कहते हैं कि किसी ऊँटनी का बच्चा उसके साथ चलते-चलते जब थक गया तो माँ से गिड़गिड़ा के बोला कि माँ, जरा ठहर जा। बहुत थक गया हूँ। थोड़ी दम तो मार लूँ। इस पर ऊँटनी ने उत्तर दिया कि बेटे, मैं भी क्या कम थकी हूँ? मैं भी तो दम मारना चाहती हूँ। मगर मेरी नकेल दूसरे के हाथ जो है और वह दाढ़ीजार रुकना नहीं चाहता। इसलिए बेबसी है। बस, ठीक यही हालत मन और इंद्रियों की है। जब ये मन से पूछती हैं कि क्यों भई, हुक्म दो तो जरा मजा लें, तो मनीराम चट कह बैठते हैं कि बोलो मत बहनो, बड़ी बेबसी है, सारा मजा किरकिरा है। वह और भी बिगड़ जाएगा।

इस तरह पहले श्लोक के स्पष्टीकरण के बाद इसके तथा दूसरे के 'प्रसाद' और सब दु:खों की हानि की बात रह जाती है। दुनिया का नियम यही है कि कोई भी अच्छे से अच्छा और बड़े से बड़ा काम करने के बाद यदि मनस्तुष्टि या चित्त की प्रसन्नता न हो तो वह काम बेकार माना जाता है और सारा परिश्रम व्यर्थ ही समझा जाता है। विपरीत इसके अगर उसके बाद प्रसन्नता हो गई, तबीअत खुश हो गई तो सब किया दिया सफल माना जाता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि असली चीज भला-बुरा काम नहीं है, किंतु उसके अंत में होने वाली मनस्तुष्टि ही, जिसे यहाँ प्रसाद कहा है और 'प्रसन्नचेतस:' में प्रसन्नता भी कहा है। दोनों का अर्थ एक ही है।

बात यों हैं कि वेदांत सिद्धांत के अनुसार हृदय में या अंत:करण में आत्मा का लहलहाता प्रतिबिंब मानते हैं। जैसे साफ-सुथरे दर्पण मुख का प्रतिबिंब पड़ता है और उसे देख के हम खुश या रंज होते हैं जैसा मुख प्रतीत हो। ठीक उसी तरह सत्त्वप्रधान अंत:करण का दर्पण भी चमकदार है। उसी में आत्मा का प्रतिबिंब मानते हैं। आत्मा को आनंद स्वरूप भी मानते हैं। वह आनंद का महान स्रोत है। इसीलिए आत्मा के प्रतिबिंब का अर्थ है उसके आनंदसागर का प्रतिबिंब। जो लोग उसका अनुभव करते हैं वह आनंद में मस्त रहते हैं - उसी में गोते लगाते रहते हैं। वेदांती यह भी मानते हैं कि आनंद या सुख तो केवल आत्मा में ही है। केवल वही आनंदरूप है। भौतिक पदार्थों में सुख का लेश भी है, 'यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति' (छांदोग्य. 7। 23। 1)।

लेकिन जिस तरह जल में पड़ा प्रतिबिंब तभी दीखता है जब जल निश्चल एवं निर्मल हो; जरा भी हिलता-डोलता न हो। वैसे ही आत्मानंद का प्रतिबिंब तभी अनुभव में आता है जब अंत:करण निर्मल और निश्चल हो। आईना मैला और बराबर नाचता हो तो प्रतिबिंब दिखेगा कैसे? इसीलिए योगी और आत्मदर्शी लोग बराबर ही चित्त की शांति और निर्मलता की कोशिश करते हैं। गीता ने भी इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। राग-द्वेष आदि ही चित्त की मैल हैं। उसकी चंचलता तो सभी को विदित है। क्षण भर में दिल्ली से कलकत्ता और वहाँ से तीसरी जगह जा पहुँचता है। कहीं भी टिकना तो वह जानता ही नहीं। बंदर या पारे से भी ज्यादा चंचल उसे कहा गया है। बिजली से भी ज्यादा तेज वह दौड़ता है। अब रही विषय सुख या भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बात। वेदांतियों का इसमें कहना यही है कि जब मनुष्य को किसी चीज की सबसे ज्यादा चाट होती है तो वह दिन-रात उसी का खयाल करता रहता है। इस प्रकार उसका मन एकाग्र हो जाता है। फलत: अंत:करण की चंचलता दूर हो जाने के कारण उसमें आत्मानंद का लहलहाता प्रतिबिंब नजर आता है। मगर मन निश्चल एवं एक ही जगह बँधा होने पर भी बाहर की उसी चीज में लगा है जिसकी चाट या प्रचंड अभिलाषा है। इसीलिए उस आत्मानंद को अनुभव कर नहीं सकता, उसे देख या जान नहीं सकता। वह बाहर जो टँगा है। भीतर आ जो नहीं सकता। मगर ज्यों ही वह चीज मिली कि चट भीतर लौटा और उस आत्मानंद का अनुभव करके मस्त हो जाता है। इस तरह उसे जिस आनंद का अनुभव होता है वह तो आत्मानंद ही है। फिर भी अभिलषित पदार्थ के मिलने पर ही उसका अनुभव होने के कारण ऐसा भ्रम हो जाता है, ऐसा माना जाने लगता है कि उस पदार्थ में ही आनंद है। उस पदार्थ के ही चलते मन - अंत:करण - की एकाग्रता हुई है जरूर। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी हुआ है। इसीलिए उस विषय को आनंद के अनुभव का सहकारी कारण भले ही माना जाए। मगर उसमें आनंद तो हर्गिज नहीं है। ऐसा मानना तो सरासर भ्रम है। आनंद तो केवल भूमा में है - महान से भी महान पदार्थ रूपी आत्मा में ही है।

यही कारण है कि एक ही चीज से एक आदमी को आनंद मिलता है और दूसरे को नहीं। यदि आनंद उस वस्तु का स्वभाव होता, उस वस्तु में ही रहता तो अग्नि की गरमी की तरह सभी को समान रूप से ही उसका अनुभव होता। परंतु ऐसा होता नहीं। खूब भूखे आदमी को भरपेट सत्‍तू या सूखी रोटी खिलाइए तो वह आनंद-विह्वल हो उठता है। लेकिन अमीर का तो वही चीजें देख के भी कष्ट होता है, खाने की तो बात ही जाने दीजिए। यदि भौतिक पदार्थ में ही आनंद होता तो ऐसा कदापि न होता। इसी तरह वही हलवा-पूड़ी भूखे को खिलाइए और पेटभरों को भी। भूखे तो खा के आनंद से लोटपोट हो जाएँगे। मगर पेटभरे लोग आनंद मनाने या खुश होने के बदले उसमें हजार ऐब ही निकालेंगे कि पूड़ी जरा नर्म सिंकी, खर न थी, घी अच्छा न था, सूजी खराब थी, कुछ अच्छी गंध आती न थी, मालूम होता है चीनी खाँटी न थी, घी शुद्ध न था, आदि-आदि। क्यों? इसीलिए न, कि भूखे का मन और अंत:करण उस अन्न की रट लगाए एकाग्र था, निश्चल था; फलत: उसे पाते ही उसने आत्मानंद का उक्त रीति से पूर्ण अनुभव किया? मगर पेटभरों का मन तो एकाग्र था नहीं। क्योंकि हलवा-पूड़ी की रट थी नहीं। उनका पेट जो भरा था। इसीलिए वह चीजें मिलने पर भी उनमें कोई फर्क न हुआ। इसीलिए उनका मन आत्मानंद का अनुभव कर न सका। वह तो बंदर की तरह पहले भी दौड़ता रहा और खाने के समय एवं उसके बाद भी। फिर आत्मानुभव हो तो कैसे? वह आनंद मिले तो कैसे?

देखा जाता है कि सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है। उसमें कुछ रस तो होता नहीं। केवल हड्डी की महक से कुत्ते को खयाल होता है कि जिस तरह ताजी और रसीली हड्डी में खून का रस मिलता है उसी तरह इसमें भी मिलेगा। इसीलिए खूब जोर से उसे चबाता है। जब कुछ नहीं मिलता तो और भी जोर लगाता है। नतीजा यह होता है कि हड्डी की नोकों से उसके जबड़े छिल जाते हैं और उनका खून हड्डी में टपक पड़ता है। कुत्ता उसी को चाट के खुश होता है। फिर तो पहले से भी ज्यादा जोर लगाता है। फलत: और भी जख्म होते हैं जो ज्यादा खून टपकाते हैं। यही बात देर तक चलती है जब तक वह थक के छोड़ नहीं देता। कुत्ता अपने ही खून को मिथ्या ही हड़डी का समझ के खुश होता है। क्योंकि अपने खून का स्वाद उसे उस हड़डी के ही बहाने मिल पाता है। इसी से उसे भ्रम होता है कि हड़डी में ही खून है। ठीक इसी तरह हरेक आदमी हमेशा मौका पड़ने पर अपने ही आत्मानंद का अनुभव करता है। मगर स्वतंत्र रूप से ध्‍यान और समाधि के द्वारा वह आनंद लूटने का शऊर तो उसे होता नहीं। वह तो विषयों के बहाने ही उसे कभी-कभी लूटता है, उसका अनुभव करता है। इसीलिए उसे भ्रम हो जाता है कि विषयों - भौतिक पदार्थों - में ही सुख है। उसे अनुभव भी उस आत्मानंद के एक तुच्छ कण का ही हो पाता है क्योंकि जरा-सी देर के बाद ही उसका मन फिर चंचल जो हो जाता है। वह उसमें डूब तो सकता नहीं। इसीलिए बृहदारण्यक के चौथे अध्‍याय में लिखा है कि इसी परमानंद के एक छींटे से सारे संसार का काम चलता है - 'एषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' (4। 5। 32)।

इस लंबे विवेचन से यह साफ हो गया कि चित्त की प्रसन्नता ही असल चीज है। उसके होते ही परमानंद का अनुभव होने लगता है। फिर तो संसार के सारे कष्ट भाग जाते हैं मन तो एक ही होता है न? और जब वही आत्मानंद में डूब चुका तो दु:खों का अनुभव कौन करे? 'इक मन रह्यो सो गयो स्याम संग कौन भजै जगदीस'? और जब अनुभव होता ही नहीं, तो दु:ख रही क्या चीज? वह अन्न-वस्त्रादि की तरह कोई स्थाई या ठोस चीज तो है नहीं? वह एक विलक्षण प्रकार की मानसिक वृत्ति ही तो है, जिसका अस्तित्व उसके अनुभव के साथ ही रहता है। अनुभव के बिना वह लापता रहता है, लापता हो जाता है। इस तरह जब मन आत्मानंद में डूबा है तो दु:ख रूपी उसकी वृत्ति भी हो इसका मौका ही कहाँ रहा? इसकी फुरसत ही कहाँ रही? जब आत्मज्ञानी या योगी राग-द्वेष में बँधाता नहीं तो उसके मन की एकाग्रता हमेशा ही बनी रहती है। उसमें बाधा तो कभी पड़ती नहीं। वह निरंतर अविच्छिन्न रहती है। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी निरंतर अविच्छिन्न रहता है। मन वश में है यह तो 'विधेयात्मा' से स्पष्ट ही है। इसीलिए कह दिया है कि सभी तकलीफों का खात्मा हो जाता है। न तो मानसपटल की गंभीरता कभी भंग होती है और न यह बला आती है। इसी अविच्छिन्न गंभीरता का ही नाम प्रसाद है।

जिनने गौर से 'ध्‍यायतो विषयान्' आदि दो श्लोकों को पढ़ के उसी तरह बाद के 'रागद्वेषवियुक्तैस्तु' आदि दो श्लोकों को भी पढ़ा होगा उन्हें साफ पता लगा होगा कि पहले दो श्लोकों में जो बात शुरू की गई थी कि रागद्वेषादि के वशीभूत होने से कैसी दुर्गति होती है, उसी के बीच में ही बादवाले दो श्लोकों के जरिए सिर्फ एक शंका को दूर किया गया है जो उठ खड़ी हुई थी और जिसका स्वरूप हम अच्छी तरह बता चुके हैं। वह शंका एकाएक उठ गई और मौजूँ भी थी। इसीलिए अपनी बात पूरी न करके पहले उसी का उत्तर देना जरूरी हो गया। तभी तो श्रोता आगे की उस प्रधान विषय से संबंध रखने वाली बातें अच्छी तरह सुन सकेगा। इसीलिए बादवाले श्लोकों के शुरूवाले शब्द के साथ ही 'तु' जुटा हुआ है। इसका अर्थ 'तो' होता है। यह वहीं आता है जहाँ बीच में ही कोई दूसरी या उलटी बात प्रासंगिक रूप में खड़ी हो जाए और जिसका उत्तर देना जरूरी हो जाए। ऐसी बात आगे भी गीता में 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 17) आदि श्लोकों में आई है। इसीलिए असली प्रसंग अभी पूरा नहीं हुआ है यह तो मानना ही पड़ेगा।

जो लोग ऐसा समझते हों कि वह प्रसंग तो पहले के उन दो ही श्लोकों में पूरा हो गया उन्हें जरा भी सोचने पर अपनी भूल मालूम हो जाएगी। देखिए न? उन दोनों के अंत में यही तो कहा जाता है - 'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति'। मगर क्या अर्थ है? अगर पत्थर में बुद्धि नहीं है तो क्या वह चौपट हो गया? ऐसा कौन मानता है? विपरीत इसके बुद्धि न होने से ही तो उसे तकलीफ-आराम किसी बात का अनुभव नहीं होता। यह तो मानते ही हैं कि यह अनुभव ही तो संसार है, आफत है, बला है, बुरी चीज है। आनंद का अनुभव तो होता भी शायद ही है। होता तो है अधिकतर कष्ट का ही। इसलिए इस दृष्टि से तो पत्थर अच्छा ही ठहरा। और आत्मा तो सर्वत्र है, सबों की है यह कही चुके हैं। फिर पत्थर उससे जुदा कैसे माना जाएगा? इसलिए चौपट होने का मतलब क्या?

और क्या पागलों में मस्ती नहीं होती? उनकी समझ चली गई और वे सभी आफतों से अलग हो गए! मौज में विचरते फिरते हैं! नंगे हैं तो भी फिक्र नहीं है! गालियाँ पड़ रही हैं या आशीर्वाद मिल रहा है। मगर लापरवाह और बेगम हैं! फिर यह कैसे कहा जाए कि बुद्धि या समझ के चले जाने से ही मनुष्य नष्ट हो जाता है? यह भी नहीं कि पागल लोग फौरन मर जाएँ। वे तो बहुत दिनों तक पड़े रहते हैं, जैसे दूसरे लोग। हाँ, यह जरूर होता है कि सभी रोग-बीमारियाँ लापता हो जाती हैं। लेकिन यह तो मनमाँगा वरदान ही समझिए।

एक बात और भी है। माना कि राग-द्वेष छोड़ के और उनके फंदे में हर्गिज न पड़ के ही शरीरोपयोगी पदार्थों का सेवन करना चाहिए। मगर क्या इतने से ही सब आफतें खत्म हो जाएँगी? जन्म-जन्मांतर के संस्कार और राग-द्वेषों के बीज तो अंत:करण में पड़े ही रहते हैं। वह एकाएक तो चले जाते नहीं। इस शरीर में भी अभी-अभी हमने आसक्ति छोड़ के पदार्थों का सेवन शुरू किया है। मगर इससे पहले तो यह बात थी नहीं। तब तो आसक्ति थी ही। उसी के करते दिमाग में पहले के पदार्थ बैठे हैं जो खामख्वाह उमड़ पड़ेंगे और दिक करेंगे। आखिर सपने की तकलीफें ऐसी ही तो होती हैं। दिमाग में बीज रूप में पड़े पदार्थ ही तो सपने में उभड़ के जाने कौन-कौन-सी आफतें ढाते रहते हैं। राग-द्वेष रहित हो के खानपान करने वाले के भी ये सपने कायम ही रहते हैं। वे एकाएक तो मिट जाते नहीं। फिर क्या हो? यह गंदगी धुले कैसे? मिटे कैसे? किस साबुन से अच्छी तरह रगड़ के धोई जाए? यह तो हजारों जन्मों की पुरानी मैल है न? इसीलिए इसे हटाने में बहुत ज्यादा मिहनत, बार-बार की लगातार रगड़ दरकार होगी। सो क्या है यह तो मालूम है नहीं।

और जो यह कह दिया कि स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश हो जाता है - 'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाश:', इसके क्या मानी हैं? क्या सचमुच ज्ञान रही नहीं जाता और आदमी पत्थर हो जाता है? यह बात तो ठीक नहीं। क्रोध के बाद भी आदमी तो आदमी ही रहता है। रोज ही यह बात देखी जाती है। फिर पत्थर होने की कौन-सी बात? और अगर यह नहीं है तो बुद्धि के नाश के मानी भी क्या हैं? किस क्रोधी की बुद्धि खत्म हो जाती है? थोड़ी देर तक खास ढंग का कोई परदा-सा पड़ा रहता है। मगर पीछे तो पीछे, उस समय भी समझदारी के दूसरे काम तो वह करता ही रहता है। आखिर उस समय भी उसके सभी काम पागलों जैसे ही होते नहीं। यह ठीक है कि वह कुछ काम उस समय बेविचार के - विवेकशून्य - कर डालता है जिससे मुसीबतें बढ़ जाती हैं। इसी तरह बढ़ती रहती हैं भी। मगर इसे बुद्धिनाश तो कभी नहीं कह सकते। उसकी बेचैनी और परेशानी जरूर बढ़ जाती है, इसमें कोई शक नहीं है। इसके करते यह भी संभव है, उसे आराम न मिले। ऐसा ही प्राय: होता भी है। बेचैनी और परेशानी की आग बढ़ जाने पर चैन कहाँ? आराम कहाँ? मगर वह चौपट नहीं होता। उसे बुद्धि भी रहती ही है।

इस तरह की अनेक बातों के रहते ही, और सुनने वाले के मन में इस प्रकार की शंकाओं के बनी रहने पर भी यह कह देना कि मूल प्रसंग पहले दो श्लोकों में ही पूरा हो गया, कोई मानी नहीं रखता। इसीलिए आगे के श्लोक उसी बात को पकड़ के यही बातें खुद पेश करते और इनसे बचने के उपाय सुझाते हैं। हमें यहीं पर यह जान लेना होगा कि जो कुछ अभी कहा गया है अगले श्लोक उसे मानते हैं। बुद्धिनाश का वही मतलब है जो अभी कहा गया है। उस समय विवेक से काम लिया जा सकता नहीं। इस तरह बेचैनी और मुसीबतें बढ़ती जाती हैं। और जो आदमी मुसीबतों में घिरा है वह तो मरने से भी बदतर है। उससे तो मरा कहीं अच्छा। अशांत जीवन तो जहर ही समझिए, चौपट ही मानिए। आखिर शांति ही तो असल चीज है न?

आगे के श्लोकों ने जन्मजन्मांतर के पुराने संस्कारों और राग-द्वेष के बीजों को जलाने के लिए - इस गहरी से गहरी गंदगी को मिटाने के लिए - जिस नए साबुन का नाम लिया है, जिस लगातार चिरकालीन रगड़ का आविष्कार किया है उसे भावना कहते हैं। यही नाम उसे दिया भी है। जैसे रंग को गाढ़ा करके कपड़े पर चढ़ाने में कपड़े को रह-रह के रंग में डुबोते और सुखाते हैं। सोने को भी रह-रह के गर्म करके पानी में डुबाते और इस तरह उसे टंक बनाते हैं। मामूली लोहे को भी बार-बार आँच दे के पीटते और पानी में डुबाते हैं ताकि इस्पात हो जाए। ठीक यही बात रागद्वेषादि मैलों को धो बहाने के लिए भी की जाती है, करनी पड़ती है। बार-बार सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करके मन को रोकते और आत्मतत्त्व-में ही लगाते हैं। हर मौके पार सजग रह के यही करते हैं। इसे ही पातंजल योग में ध्‍यान, धारणा और समाधि कहा है। इन तीनों को मिला के संयम नाम दिया है - 'त्रयमेकत्र संयम:' (3। 4) गीता ने भी आगे 'संयमी' (2। 69) में यही कहा है। इनमें ध्‍यान नीचे दर्जे की चीज है। उसके बाद धारणा आती है। ध्‍यान करते-करते मजबूती आने पर धारणा और उसकी मजबूती होने पर समाधि का समय आता है। इन तीनों के पूरा होने पर - संयम की पूर्णता हो जाने पर - अंत:करण की, बुद्धि की सारी की सारी युग-युगांतर की मैल जल-धुल जाती है। फिर तो वह निर्मल हीरे की ही तरह धप-धप हो जाती है। इसके बाद अखंड विज्ञान का व्यापक एवं सनातन - अचल - प्रकाश होता है। इसीलिए पतंजलि ने भी कहा है - 'तज्जयात् प्रज्ञालोक:' (3। 5)। उस प्रचंड प्रकाश - उस द्वादश आदित्य - के सामने अज्ञान और अंधकार का पता कहाँ?

इसी संयम, इसी भावना के करते मन आत्मा के ही रंग में रंग जाता है - कभी भी इधर-उधर टस से मस नहीं होता। उसमें अब ऐसा करने की योग्यता एवं शक्ति ही नहीं रह जाती है। इसीलिए निर्वात समुद्र के जल की तरह एकरस, गंभीर और शांत रहता है। उसकी यह निश्चलता, निष्क्रियता, शांति अखंड हो जाती है। फलत: योगी उसमें लहलहाते आत्मानंद का अनुभव दिन-रात सोते-जागते करता ही रहता है। एक क्षण के लिए भी उसके सामने से वह आनंद - वह मजा - ओझल हो पाता नहीं, हो सकता नहीं। मगर जो यह नहीं कर सकता है; जिसे भावना का अवसर नहीं मिला वह हमेशा बेचैन और परेशान रहता है, त्यंत अशांत रहता है। फिर उसे सुख कहाँ? उसे सुख मयस्सर क्यों हो?

हमें यह भी जान लेना होगा कि इस भावना के लिए विवेक की तो जरूरत हई। वही तो इसके मूल में है। जब तक हमें बखूबी आत्मतत्त्व का और रागद्वेषादि का पता न चल जाए और यह न मालूम हो जाए कि इनमें कैसे फँसते हैं तब तक हम मन को रँगेंगे कैसे? तब तक उसे सब आफतों से खींच के आत्मा या कर्म में ही लगाएँगे कैसे? सभी बातें जान लेने पर ही तो आगे कदम बढ़ायेंगे। इसीलिए भावना के पहले बुद्धि या विवेक जरूरी है। रँगने की सारी प्रक्रिया अच्छी तरह जब तक न जाने सुंदर रंग चढ़ाएगा कैसे?

मगर यही बुद्धि चौपट होती है जिस रीति से उसी का वर्णन पहले 'ध्‍यायतो विषयान्' में किया गया है। इसलिए वहाँ कहे गए विषयों के खयाल से लेकर स्मृति-विभ्रम तक की सारी बातें, जिनका परिणाम बुद्धि नाश है, एक ही जगह मिला के योगभ्रष्टता कहते हैं। छठे अध्‍याय में जिस योगभ्रष्ट और योगभ्रष्टता की बात कही गई है वह भी कुछ इसी तरह की चीज है। उसमें पातंजल योग भी भले ही आ जाए। मगर यह तो हई, यह बात पक्की है। यदि हम गौर से उन सभी बातों को देखें जो इन दो श्लोकों में लिखी हैं तो हमें मानना ही होगा कि जो लोग गीतोक्त योगी नहीं होते हैं, मुक्त नहीं होते हैं, किंतु उस स्थान से गिर पड़ते और पतित हो जाते हैं - च्युत और अयुक्त हो जाते हैं, उन्हीं में ये बातें अक्षरश: पाई जाती हैं। फलत: उन्हें बुद्धि होती ही नहीं। फिर भावना कैसी? भावना के अभाव में शांति भी कहाँ? और जब शांति ही नहीं, तो सुख कैसा? आनंद कहाँ? यही बात आगे के 66वें श्लोक में कहने के उपरांत बादवाले दो श्लोकों में इसी का विवरण दे के उपसंहार किया है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्॥ 66

अयुक्त को बुद्धि ही नहीं होती। जिसे बुद्धि ही न हो उसे भावना भी नहीं होती। जिसे भावना न हो उसे शांति नहीं मिलती। जिसे शांति ही नहीं उसे सुख कहाँ? 66।

यहाँ एक जरा-सी बात सोचने की है। श्लोक के देखने से पता चलता है कि यहाँ कोई शृंखला है जिसकी लड़ें एक के बाद दीगरे आई हैं। यदि नीचे से ही शुरू करें तो सुख के पहले शांति तथा उसके पहले भावना की तीन लड़ें मिल जाती हैं। शुरू में भी योग के बाद बुद्धि के आने से योग और बुद्धि की भी लड़ें जुटती हैं। मगर बीच में 'न चाबुद्धस्य भावना' कहने के बजाए 'न चायुक्तस्य भावना' कह दिया है, जिससे बुद्धि के साथ भावना की लड़ी जुट जाने से आगे भावना से शांति की जुटान आदि को ले के पूरी शृंखला तैयार हो जाने के बजाए टूट-सी जाती है, प्रसंग विशृंखल हो जाता है। यह कुछ ठीक जँचता भी नहीं कि योग का बुद्धि से और बुद्धि का ही भावना से सीधा संबंध जोड़ने के बजाए योग का ही सीधा संबंध दोनों से जुटे। यह असंभव-सा भी लगता है। क्योंकि यदि योग जुट चुका है बुद्धि के साथ, तो फिर भावना से कैसे जुटेगा? और अगर ऐसा मानें भी तो फिर शांति और सुख के साथ भी उसी को सीधे क्यों न जोड़ा जाए? इसीलिए हमने दूसरे अयुक्त शब्द का अबुद्ध ही अर्थ किया है और कहा है कि बिना बुद्धि के भावना होती ही नहीं। असल में, जैसा कि पहले ही कह चुके हैं, योग में भी बुद्धि ही वास्तविक चीज है। इसीलिए 'बुद्धियोगाद्धनंजय' (2। 49) में बुद्धि को ही योग कहा भी है। इसीलिए जान पड़ता है, यहाँ भी 'अबुद्धस्य' की जगह 'अयुक्तस्य' कह दिया है। ताकि बुद्धि पर ही जोर दिया जा सके।

इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ 67

क्योंकि (विषयों में) रमने वाली इंद्रियों के पीछे जब मन लग जाता - चल जाता - है तो (अपने साथ ही) बुद्धि को भी (विवश करके) वैसे ही खींच लेता है जैसे मझधार में पड़ी नाव को वायु (विवश करके इधर-उधर खींचता और अंत में डुबो देता है)। 67।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।

इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 68

इसीलिए हे महाबाहो, जिसकी सभी इंद्रियाँ (अपने-अपने सभी) विषयों से पूरी तरह खींच ली गई हैं उसी की बुद्धि स्थिर होती है। 68।

इन दो श्लोकों में दो बातें हैं, जिन पर दो शब्द कह देना है। जिस तरह हवा के झकोरे में पड़ी नाव विवश हो के इधर-उधर भटकती और अंत में डूबती या छिन्न-भिन्न होती है; फिर भी नाववाले कुछ कर नहीं सकते। ठीक उसी तरह इंद्रियों का साथी मन हो जाने पर हालत होती है। बुद्धिरूपी नाव के लिए इंद्रियों का वेग हवा के झकोरे का काम करता है। उसकी सफलता के लिए जिस मझधार की जरूरत है उसका काम वही मन पूरा कर देता है। मझधार न होने पर हवा के तेज से भी तेज झोंके नाव का खाक नहीं बिगाड़ सकते। इंद्रियाँ भी मनुष्य का कुछ कर नहीं सकती हैं यदि उनका साथी मन न मिल जाए। मन के मिलने का अर्थ ही है रागद्वेष-पूर्वक पदार्थों का भोगा जाना। फिर तो सब ज्ञान-ध्‍यान खत्म। बुद्धि का भी होश फाख्ता ही समझिए। असल चीज यह मनीराम ही है। यही जिधर चलते हैं उधर ही सब कुछ होता है। जब ये इंद्रियों की ओर चले तो बुद्धि पर भी वारंट जारी हुआ और जबर्दस्ती बाँध-छान के उधर ही घसीटी गई! और अगर ये हजरत बुद्धि की तरफ आ गए तो इंद्रियाँ बेकार-सी हो गईं। वे हाथ जोड़ें बुद्धि की ही मातहती करती और हुक्म बजाती हैं। इन्हें तो खींचने की भी जरूरत नहीं होती। खुद हाथ जोड़े हाजिर रहती हैं और बुद्धि के काम में मदद करती हैं। वह तो अपना काम निर्बाध करती ही रहती हैं।

इसलिए विषयों से इंद्रियों को बखूबी रोक रखने का यह मतलब हर्गिज नहीं है कि खाना-पीना, देखना-सुनना, पढ़ना-लिखना सब कुछ बंद हो जाए। तब तो आफत ही आ जाएगी और कोई भी काम हो ही न सकेगा। आखिर भावना के लिए भी तो शरीरोपयोगी काम करना जरूरी होता ही है। मर जाने से तो कुछ होगा नहीं। जबर्दस्ती करने में तो मरने में भी फजीती होगी। श्लोक में 'निगृहीत' शब्द है। निग्रह कहते हैं दंड को। जिस तरह दंडित आदमी, बंदी या कैदी काम-धाम तो सब कुछ करता है; मगर उसकी आजादी जाती रहती है; वह तकुवे की तरह सीधा बन के शैतानियत छोड़ देता है। ठीक यही हालत इंद्रियों की होती है। ये भी कैदी की तरह हुक्म बजाती हैं, सब कुछ करती हैं, और तकुआ बन जाती हैं।

परंतु यह बात असंभव जैसी मालूम होती है और साधारण आदमी के दिमाग में घुसती ही नहीं। विषयों को जरूरत भर काम में इन्हीं इंद्रियों के द्वारा लाएँगे भी और हमें कुछ पता भी न चलेगा कि इनमें क्या मजा है, यह कुछ अजीब बात है। जिन्हीं इंद्रियों से विषयों को भोगेंगे, उनका अनुभव करेंगे वही तो उसी के साथ उनका मजा भी बताई देंगी। इसके लिए उन्हें दूसरा काम, दूसरा यत्न तो करना होगा नहीं। यह काम एक ही साथ होगा। असल में भोग का अर्थ ही है मजा लेना, सुख-दु:ख का अनुभव करना। भोग इसी को कहते ही हैं - 'सुखदु:खान्यतरसाक्षात्कारो भोग:'। फिर यह क्या बात कि मजा न आए; हम चसकें नहीं, या मन में ये बातें न आएँ?

इसका उत्तर भी सुंदर है। जिसे फाँसी की सजा हो, फाँसी दी जाने वाली ही हो उसे आप चाहे सुंदर से भी सुंदर पदार्थ खिलाइए और कोमल से भी कोमल शैया पर सुलाइए। मगर जरा पूछिए तो सही कि उसे कुछ भी मजा आता है? उसे तो पता ही नहीं चलता कि वह क्या खा-पी रहा है और कहाँ सो रहा है। उसका मन मौत में जा के अटक जो गया है। उसके सामने तो मौत बराबर खड़ी है। जरा भी हटती नहीं। फिर मजा आए तो कैसे? यहाँ तो मौत आई हुई है और हटती ही नहीं, दूसरों को जगह देती ही नहीं। इसी तरह नृत्यकला में कुशल नटी को खड़ा कीजिए और उसकी कला की जाँच कीजिए तो देखिए क्या होता है। उसके सिर पर पानी से भरा एक पात्र रख के बिना उसे हाथ से पकड़े नाचने को कहिए। वह बराबर बाजे-गाजे के ताल-सुर में ही ठीक-ठीक नाचेगी, जरा भी फर्क न पड़ेगा। मगर उसका मन निरंतर उस जलपूर्ण पात्र में ही लगा होगा। नहीं तो जरा भी चूकते ही वह नीचे जा गिरेगा और नटी नृत्यकला की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएगी।

ठीक यही हालत योगी, समदर्शी और आत्मतत्त्वज्ञ मस्तराम की भी समझिए। इनके मनीराम तो उधर ही टँगे रहते हैं, फँसे और लटके रहते हैं। दूसरे काम की इन्हें फुरसत हई नहीं। फिर चसका लगे तो कैसे? मजा आए तो कैसे? नटी के ताल-सुरवाले नृत्य की तरह मस्तराम भी खाना-पीना सब कुछ करते ही हैं। मगर मजा नहीं रहता, रस नहीं मिलता! उनके लिए सारी दुनिया जैसे अँधरे की चीज हो, भादों की घोर अँधियाली की बात हो। इसलिए जिन चीजों में दूसरों को मजा आता है उनका उन्हें पता ही नहीं चलता। अँधियाली की चीजों का पता किसे चले, सिवाय उल्लू के? मगर जिस तरह मस्तराम लगे हैं, जिधर वे जगते हैं, जिधर उन्हें प्रखर प्रकाश और उजियाली है, जहाँ उनके लिए बिना लैंप, चाँद, सूरज और आग के ही खुद-ब-खुद अखंड प्रकाश है - 'आत्मैवास्य ज्योतिर्भवति', 'अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योतिर्भवति' (वृहदा. 4। 3। 6-8), वहाँ बाकी लोगों के लिए काली अँधियाली है, भादों की रात है। फलत: वे लोग कुछ भी जान पाते नहीं। आखिर दोनों मजा मारेंगे कैसे? एक को तो छोड़ना ही होगा। यही बात आगे का श्लोक कहता है। 'पश्यतो मुनै:' का अर्थ ही यह है कि उसकी भीतरी आँखें बराबर खुली हैं -

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥ 69

सब लोगों के लिए जो रात है उसमें संयमी - योगी - जागता है। (और) जिसमें लोग जागते हैं निरंतर भीतरी आँखें खुली रखने वाले उस मुनि - मननशील - के लिए वही रात है। 69।

इस तरह पदार्थों के भोग की बात जो कही गई है उसका निचोड़ कह देना जरूरी है। क्योंकि सभी तो इतने गहरे पानी में उतर सकते नहीं कि इन लंबी-चौड़ी बातों को समझ सकें। साथ ही, ऐसे आदमी की क्या हालत रहती है जो औरों को भी साफ-साफ मालूम हो जाती है, यह बता देना भी जरूरी है। ताकि योगी भी अपने आपको लोकमत की तराजू पर बराबर तौलता रहे। दूसरे लोग भी उसकी पहचान करके उससे फायदा उठा सकें, कुछ सीख सकें। इसीलिए नर्त्तकी या फाँसीवाले की अपेक्षा एक तीसरा दृष्टांत, जो सब दृष्टियों से अनुकूल हो, पेश करके 'कैसे बैठता है' प्रश्न के उत्तर का और इस प्रसंग की सारी बातों का एक तरह का उपसंहार अगले श्लोक में करते हैं। बचे-बचाए आखिरी प्रश्न 'कैसे चलता है' का उत्तर तो उसके बादवाले श्लोक में दिया गया है।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शांतिमाप्नोति न कामकामी॥ 70

सभी तरफ से निरंतर पानी के आते रहने पर भी जिसका पानी जरा भी बढ़ता नजर नहीं आता और ज्यों का त्यों बना रहता है - जिसमें जरा भी उफान नहीं आता, ऐसे समुद्र में घुस के उसी का रूप बन जाने वाले पानी की ही तरह सभी भौतिक पदार्थ जिस (पुरुष) के पास आते हैं (और उसकी गंभीरता में जरा भी फर्क डाल नहीं सकते), वही शांति प्राप्त करता है, न कि पदार्थों के लिए हाय-हाय मचाने वाला। 70।

इस श्लोक में जो खूबी है वह यही कि इससे योगी और आत्मज्ञानी के बाहरी लक्षण का पता लगने के साथ ही इसमें कही गई बात बहुत मार्के की है। यहाँ 'समुद्रमाप:' और 'यं प्रविशन्ति' में द्वितीयांत शब्द आए हैं 'समुद्रं' तथा 'यं'। हालाँकि - समुद्र में पानी जाता है, इस मानी में 'समुद्रे' जैसी सप्तमी विभक्ति चाहिए और 'यं' की जगह भी 'यस्मिन्' चाहिए। किंतु वैसा कहने पर कुछ ऐसा मालूम होने लगता है कि चाहे जो हो, फिर भी पानी समुद्र में निराली ही चीज है। क्योंकि वह पानी के पात्र की तरह आधार बन जाता है। पात्र में रहने वाले पानी की ही तरह वहाँ जाने वाला भी उससे जुदा आधेय बनता है। मगर द्वितीय विभक्ति में यह बात नहीं रह जाती है। उससे तो साफ ही मालूम होता है कि पानी समुद्र का ही रूप बन गया - उसी में विलीन हो के तद्रूप बन गया। या यों कहिए कि पानी अपने आप में ही जा मिला। इसी तरह पदार्थ भी जब योगी के पास जाएँ तो ऐसा हो जाए कि अपने आपके ही पास आए हैं। क्योंकि आत्मा तो सभी की है और योगी सभी की आत्मा बन चुका है, वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) बन चुका है। फिर अपने आपसे ही अपनी लड़ाई या अपने ही करते अपने में उफान और बेचैनी कैसी? वहाँ तो भेद रही न गया। फिर बेचैनी का क्या सवाल? वहाँ तो मालूम पड़ता है, न कोई आया न गया! जैसी दशा पदार्थों के मिलने के पूर्व थी वैसी ही मिलने पर और बाद में भी रह गई! जरा भी फर्क नहीं आया!

विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।

निर्ममो निरहंकार: स शांतिमधिगच्छति॥ 71

(इसलिए) सभी पदार्थों को छोड़ के - उनकी जरा भी परवाह न करके - जो पुरुष नि:स्पृह विचरता है और जिसमें माया-ममता - अहंता ममता - जरा भी नहीं होती, वही शांति प्राप्त करता है - उसी को शांति मिलती है। 71।

अहंता और ममता ही तो सारी खुराफातों की जड़ हैं। मैं और मेरा यही तो है अहंता और ममता। अहम् और मैं, मेरा और मम एक ही अर्थ में आते हैं और यही है जहर जिससे सभी मरते हैं। यह खयाल ही है कालानाग जिसके डसते ही सभी मर जाते हैं। योगी में यही नहीं होता। फिर पदार्थों की उसे क्या परवाह? किसी दंडी महात्मा से जब एक ने, जो बड़ा मगरूर मालदार था, पूछा कि महाराज, संन्यासी किसे कहते हैं? तो उनने चट उत्तर दिया कि तुमसे ले के ब्रह्मा तक को जो तृण के बराबर भी न समझे वही संन्यासी है। यही लापरवाही और बेफिक्री मस्ती की असली निशानी है। इसीलिए ऐसा आदमी मस्त हो के सर्वत्र विचरता है और शांति उसके चरण चूमती रहती है। उसका तो मन जहीं जाता है वहीं समाधि है - 'यत्रयत्रमनोयाति तत्रतत्रसमाधय:'। निर्मम के बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ 72

हे पार्थ, यही ब्राह्मी स्थिति (कही जाती ) है। इसे हासिल कर लेने पर फिर मोह नजदीक फटक सकता नहीं। अंत समय में भी इस दशा में आ जाने वाला (मनुष्य) निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। 72।

यह श्लोक आत्मविवेक और योग के समूचे निरूपण का और इसीलिए दूसरे अध्‍याय का भी उपसंहार है। जिस मस्तीवाली हालत का वर्णन अभी-अभी किया है उसी का नाम यहाँ ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। चाहे उसे योगी की दशा कहिए, स्थितप्रज्ञ और स्थिरबुद्धि की हालत कहिए, युक्त और मस्त की मौज कहिए, साम्यावस्था या समदर्शन कहिए। सब एक ही बात है - एक ही चीज के अनेक नाम हैं। इस मस्ती में आने पर प्रियतम, सर्वप्रिय आत्मा या माशूक से सपने में भी जुदाई होती ही नहीं। फिर मोह या भूलभुलैया कैसी? इसीलिए मस्तराम सदा मुक्त ही है। उसे कहीं आना-जाना है नहीं - न बैकुंठ, न ब्रह्मलोक। उसका तो शरीर ही उससे अलग होता है, न कि वह किसी से भी अलग हो सकता है। यह मस्ती यदि पहले से ही हो तो सोने में सुगंध ही समझिए। नहीं तो शरीरांत से पहले भी आ जाने पर निर्वाण मुक्ति धरीधराई है। निर्वाण का अर्थ है जाने-आने से रहित। उसकी तो आत्मा ब्रह्म रूप हई। फिर आना-जाना कहाँ और कैसा?

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगोनामद्वितीयोऽध्‍याय:॥ 2

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में (जो) उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र (है उस) में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है। उसका सांख्य-योग नामक दूसरा अध्‍याय यही है।

तीसरा अध्‍याय

तीसरे अध्‍याय का श्रीगेणश अर्जुन के प्रश्न से ही होता है। वह प्रश्न भी कर्म के ही बारे में किया गया है। इससे साफ हो जाता है कि दूसरे अध्‍याय के 39वें श्लोक में जिस योग या कर्मयोग के निरूपण का सूत्रपात किया गया था, वही उस अध्‍याय के अंत तक होता रहा है। क्योंकि बीच में यदि कोई दूसरी बात खासतौर से आने को होती तो अर्जुन का यह प्रश्न यहाँ न हो के वहीं हो जाता। जब कर्म के ही संबंध में यह सवाल है तब तो उसका पूरा निरूपण हो जाने और उसके मुतल्लिक सारी बातें सुन लेने के बाद ही फौरन इसे आना चाहिए। नहीं तो यों ही हवाई बात होने के कारण प्रधान विषय से इसका ताल्लुक रही न जाएगा। इसीलिए और बातों के निरूपण का प्रसंग आते ही अर्जुन फौरन खामख्वाह यही प्रश्न पहले ही पूछ बैठता और इस प्रकार कृष्ण को मौका ही न देता कि दूसरा विषय छेड़ दें। क्योंकि तब तो कर्म की बात नीचे पड़ जाती और वह नया विषय ही ऊपर आ जाता। इसीलिए यह तो निर्विवाद है कि कर्मयोग वाली बात ही इसके पहले या यों कहिए कि दूसरे अध्‍याय के अंत तक आई है।

यह भी तो विदित हो ही चुका है कि इस कर्मयोग के निरूपण के सूत्रपात से लेकर अंत तक जो बातें कही गई हैं उन पर अध्‍यात्मज्ञान, तत्त्वविवेक, मनोनिरोध और मस्ती की मुहर कदम-कदम पर लगी हुई है। मालूम होता है कि ये सभी बातें कर्मयोग के प्राण की तरह, जीवन बिंदु की तरह हैं। फलत: इनके अलग करते ही कर्मयोग कुछ रही नहीं जाएगा - वह निरा कर्म रह जाएगा। क्योंकि इन बातों को कर्मयोग से अलग करने का सीधा अर्थ हो जाएगा कर्मयोग से योग को ही निकाल के कर्म को उसी रूप में छोड़ देना और अकेले रहने देना जिस रूप में आमतौर से हमेशा से पाया जाता है। कर्म के उस रूप को ही ले के गीता ने अपने निराले करिश्मे और अलौकिक मंतर-यंतर के रूप में उसे परिमार्जित एवं शुद्ध करने का उपाय निकाला है। गीता के इस उपाय के पहले का कर्म खाँटी, लोहे या पारे के ढंग का है। जिसका जरा भी प्रयोग मारक बन जाता है, अनेक व्याधियों को पैदा करता है - जन्म-मरण के चक्र एवं उससे उत्पन्न संकटों का अनवरत प्रवाह जारी रखता है। गीता का उपाय उस लोहे या पारे को भस्म करके - मार के - अमृत बना देता है, रस बना देता है, जिसके सेवन से न सिर्फ व्याधियाँ दूर होती हैं, किंतु अपार शक्ति मिल जाती है। इसीलिए कृष्ण ने इस उपाय की, इस तरकीब की, इस हिकमत और बुद्धि की - अक्ल और युक्ति की - खूब ही प्रशंसा की है कि इस बुद्धिरूप योग की अपेक्षा कर्म अत्यंत तुच्छ है - 'दूरेणह्यवरंकर्म' (2। 49)। उसी श्लोक में इस योग, उपाय या हिकमत को बुद्धि ही कहा भी है। उसके पहले के 'यावानर्थ उदपाने' (2। 46) में भी इस ज्ञान या बुद्धि की प्रशंसा की है और कहा है कि इसी से सब काम चल जाता है।

इसी के साथ 'एषातेऽभिहिता' (2। 39) में यह साफ ही कह दिया है कि दो मार्ग स्वतंत्र रूप से पाए जाते हैं - एक है सांख्य या सांख्ययोग का मार्ग और दूसरा है योग या कर्मयोग का मार्ग। संक्षेप में इन्हें सांख्य और योग या ज्ञान और कर्म के मार्ग भी कहते हैं तथा ज्ञानयोग एवं कर्मयोग भी । यह भी साफ ही है कि कर्मयोग के मार्ग में भी यह ज्ञान लगा ही है। अर्जुन बहुत ज्यादा बारीकी समझ सका भी नहीं। उसने सीधे और साफ देख लिया कि ज्ञान या बुद्धिवाला सांख्य मार्ग हर तरह से उत्तम बताया गया है। उसके मुकाबिले में दूसरे या कर्म के मार्ग की कोई गिनती नहीं है। यदि कर्म कर्मयोग बन जाता भी है तो इस अध्‍यात्मज्ञान के करते ही। फिर तो निस्संदेह यही सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ है, उसने यही निष्कर्ष निकाला। मगर इसी के साथ उसने यह भी देखा कि 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:' (2। 37) तथा 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38) में साफ ही मुझे युद्ध करने की आज्ञा दे के इस युद्धात्मक घोर कर्म में ही लगाया जा रहा है और बार-बार कहा जा रहा है कि सोच-फिक्र न कर, चिंता मत कर, आदि-आदि। वह कृष्ण को अपना सबसे बड़ा हितेच्छु मानता था। इसीलिए वह आगा-पीछा में पड़ गया कि यह क्या बात है? एक ओर तो ज्ञान मार्ग सर्वोत्तम बताया जा रहा है। दूसरी ओर मेरे लिए हिंसामय युद्ध ही कर्तव्य कहा जा रहा है! वह घबरा गया और इसी पसोपेश में पड़ के कुछ भी निश्चय न कर सकने के कारण कृष्ण से -

अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।

तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥1॥

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।

तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥2॥

अर्जुन ने पूछा - हे जनार्दन, हे केशव, यदि कर्म की अपेक्षा बुद्धि - ज्ञान - को ही श्रेष्ठ मानते हैं तो फिर (हिंसात्मक युद्ध जैसे) घोर कर्म में मुझे क्यों लगाते हैं? (असल में) आपके बीच-बीच में मिले-जुले वचनों से ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे मुझे घपले में डाल रहे हों। इसलिए पक्कापक्की निश्चय करके दोनों में एक को ही मुझे बताइए, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूँ। 1। 2।

यहाँ कृष्ण पर दो इलजाम लगे मालूम होते हैं। पहला यह कि साफ-साफ नहीं बोल के कभी ज्ञान की बात और बड़ाई करते हैं तो कभी कर्म की, और कभी फिर उलट के कर्म की, तब ज्ञान की। इससे सफाई तो हो पाती नहीं। किंतु उलटे सुननेवाला घपले में पड़ जाता है। इसीलिए दूसरा इलजाम यही है कि बुद्धि को पसोपेश और घपले में डालते हैं। मगर असल में तो ये इलजाम हैं नहीं। भला, अर्जुन जैसे शरणागत के साथ कृष्ण ऐसा क्यों करने लगे? वह तो किसी के भी साथ ऐसा नहीं कर सकते थे। फिर अर्जुन की तो बात ही जाने दीजिए। इसीलिए - और अर्जुन उन पर यह इलजाम लगाता भी कैसे? यह तो बड़ी भारी गुस्ताखी और छोटे मुँह बड़ी बात हो जाती - इसलिए भी दूसरे श्लोक में दो बार 'इव' आया है, जिसका अर्थ यही है कि मुझे मालूम होता है कि आप ऐसा कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें मेरी समझ का ही दोष हो। अर्जुन वह दोष अपने माथे पर ही लेने को तैयार भी था। क्योंकि वह तो शरणागत शिष्य बन चुका था। फिर दूसरी हिम्मत करता तो कैसे? इसीलिए वह अब ऐसी सफाई चाहता है जिससे बखूबी समझ जाए और संदेह की गुंजाइश रही न जाए।

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥3॥

श्री भगवान ने उत्तर दिया - हे पापरहित (अर्जुन), इस संसार में दो प्रकार के मार्ग हमने पहले ही - पूर्व समय में - ही बताए हैं (एक तो) ज्ञानियों का ज्ञानयोग और दूसरा योगियों का कर्मयोग। 3।

यहाँ 'पुरा' शब्द का कुछ लोग 'पहले' अर्थ करके दूसरे अध्‍याय में कही गई दो निष्ठाओं या बताए गए दो मार्गों को ही पुरा शब्द से लेते हैं; क्योंकि तीसरे अध्‍याय के पहले वह बात आ चुकी है। मगर यह बात ठीक नहीं है। पुरा का अर्थ है असल में पूर्व समय में। यही अर्थ गीता में इसी पुरा शब्द का आगे दो बार माना भी गया है। वहाँ किसी ने भी इसका दूसरा अर्थ स्वीकार नहीं किया है। एक तो तीसरे ही अध्‍याय में 'सहयज्ञा: प्रजास्सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:' (3। 10) में और दूसरा 'यज्ञाश्च विहिता: पुरा' (17। 23) में। गीता में तीन ही बार यह शब्द आया है। इसमें दो बार तो सभी ने 'पूर्व समय में' यही अर्थ करके 'सृष्टि के आदि या युगों के आरंभ में' यही मानी लगाया है। यही ठीक भी है। फिर दूसरा अर्थ हो गया कैसे? दूसरे अर्थ में तो यह भी दिक्कत है कि पुरा का अर्थ होगा पूर्व स्थान में। तभी तो 'दूसरे अध्‍याय में' यह अर्थ हो सकेगा। मगर 'पूर्व स्थान में' यह इस शब्द का अर्थ आज तक कहीं किसी ने माना ही नहीं है। यह भी दिक्कत है कि ऐसी दशा में 'लोकेऽस्मिन्' शब्द का कोई मेल खा सकेगा नहीं। क्योंकि दूसरे अध्‍याय ने तो साफ ही 'एषातेऽभिहिता' में 'तुझे कहा' ऐसा लिखा गया है। नहीं तो फिर वहाँ भी 'ते' की क्या जरूरत थी? वहाँ भी 'लोके' कह देते, ताकि यहाँ बेखटके वही मान लिया जाता। 'लोक एषोदिता साख्ये बुद्धिर्योगे त्विमांशृणु' ऐसा सुंदर श्लोक भी अनायास बन सकता था। और अगर आगे लिखी कर्मयोग की परंपरा पुराने समय वाली ही मानी गई है, तो कर्मयोग का उपदेश भी पुराने समय का ही क्यों न माना जाए? क्योंकि बिना ऐसा हुए उसकी परंपरा पुराने समय वाली कैसे होगी? फिर उसी का स्मरण यहाँ भी पुरा शब्द से क्यों न माना जाए? गीता में जहाँ पहले कही बात को ही याद कर लेना हो वहाँ तो 'पुरा' जैसा कोई शब्द न कह के केवल इतना ही कह देते हैं कि यह बात कह चुके हैं। जैसे 'दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु' (16। 6)। यदि ऐसी ही बात होती तो यहाँ भी वैसा ही कहते। उसी (16। 6) श्लोक में पुराने जमाने की बात है उसे 'द्वौ भूतस्वर्गौ लोकेऽस्मिन्' (16। 6) कहा है और वही 'लोकेऽस्मिन्' यहाँ भी है। फिर वैसा ही अर्थ यहाँ भी क्यों न हो?

यहाँ निष्ठा का अर्थ है मार्ग या रास्ता, जिसे अंग्रेजी में कोर्स (Course) या प्रोसेस (Process) कहते हैं। स्कूल्स ऑफ थाट्स (School of thoughts) भी उसी को कहा जाता है। निष्ठा का शब्दार्थ है किसी बात में अपने को लगा देना, अर्पित कर देना, उसी में जीवन गुजार देना। ये दोनों मार्ग और दोनों विचारधाराएँ ऐसी हैं जिनमें एक-एक में जाने कितने सहस्र, कितने लक्ष महापुरुषों ने अपने जीवन लगा दिए हैं, अपने को मिटा दिया है। इसका जिक्र आगे चौथे अध्‍याय में है। महाभारत तथा अन्यान्य ग्रंथों एवं उपनिषदों में भी इसका वर्णन बहुत ज्यादा आया है। कृष्ण अपनी आत्मा को सभी ऋषि-मुनियों की आत्मा के रूप में ही अनुभव करते हुए बोलते हैं कि मैंने ऐसा कहा है। फलत: कृष्ण का उपदेश उन सभी का ही उपदेश है। कृष्ण की इस मनोवृत्ति पर हम काफी प्रकाश पहले ही डाल चुके हैं। सांख्य और योग का भी अर्थ बता चुके हैं।

न कर्मणामना रंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥4॥

(लेकिन कोई भी) आदमी कर्मों को शुरू न करके कर्मत्याग या संन्यास प्राप्त कर सकता नहीं। (और खामखा) कर्मों के त्याग से ही सिद्धि नहीं मिलती - इष्ट या कल्याण की - मोक्ष की - प्राप्ति नहीं हो जाती। 4।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥5॥

(यह भी तो है कि) कोई भी क्षणभर भी बिना कर्म किए रही नहीं सकता। क्योंकि प्रकृति के गुणों से मजबूर हो के सभी को कर्म करना ही होता है। 5।

कर्मेंद्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इंद्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥6॥

(इसलिए) जो (हाथ, पाँव आदि) कर्म करने वाली इंद्रियों को (जबर्दस्ती) रोक के मन से इंद्रियों के विषयों को याद करता रहता है वह ढोंगी कहा जाता है। 6।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेंद्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥7॥

(विपरीत इसके) हे अर्जुन, जो तो इंद्रियों को मन के अधीन करके कर्मेंद्रियों से काम करना शुरू कर देता है। (और फलादि के लिए) हाय-हाय करता नहीं रहता वही अच्छा है। 7।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:॥8॥

(इसलिए) तुम अपने लिए निश्चित कर्म (जरूर) करो। क्योंकि न करने से करना कहीं अच्छा है। (आखिर) कर्म सर्वथा छोड़ देने पर तुम्हारी शरीर-यात्रा भी तो न चल सकेगी। 8।

यहाँ पर 4 से 8 तक के श्लोकों के बारे में कुछ जरूरी बातें जान लेने की हैं। चौथे का आशय यही है कि बिना कर्म किए कर्म का त्याग या संन्यास असंभव है और खामख्वाह कर्म छोड़ देने से ही कुछ होता जाता नहीं। इसमें दो बातें हैं। एक यह कि जब कर्म करते ही नहीं तो उसे छोड़ने के मानी क्या होंगे? जो चीज हमारे पास हई नहीं उसे त्यागना क्या? यह तो प्रवंचना मात्र है, महज झूठी बात है। इसी को 'अशक्त: परम: साधु:' या 'वृद्धवेश्या तपस्विनी' कहते हैं। असल में जब तक वर्णमाला पढ़ न लें उससे पिंड छूटता ही नहीं। जब कभी ग्रंथों के पढ़ने का प्रश्न उठता है तो वह वर्णमाला पहाड़ की तरह सामने खड़ी हो जाती है कि हमें पूरा करो - पार करो। बड़े ग्रंथों के पढ़ने का अर्थ है वर्णमाला के पढ़ने का त्याग। मगर वह त्याग हो पाता नहीं जब तक वर्णमाला पढ़ ली न जाए। ठीक यही बात संन्यास या कर्म-त्याग की है। निदिध्यासन और समाधि, जो आत्मविज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि सभी विज्ञानों के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं, बिना कर्मों के त्याग के होई नहीं सकते। कर्मों का तो पँवारा ऐसा है कि चौबीस घंटे उनसे फुरसत होती ही नहीं। अगर यही रहे तो निदिध्‍यासन और समाधि कैसी? उनका मौका ही कहाँ होगा? इसलिए उनके करने का अर्थ ही है कर्मों का त्याग। मगर जब तक कर्म न करें निदिध्‍यासन आदि की योग्यता होगी ही नहीं। फिर कर्मों के त्याग का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसकी जरूरत होती है कहाँ? और अगर इतने पर भी खामख्वाह त्याग किया जाए तो साफ ही कह देते हैं कि इससे कुछ भी होता जाता नहीं। यह तो ठगी और प्रवंचना है। यह तो अपने आपको और संसार को भी ठगना है। इसीलिए जभी कभी वास्तविक कर्मत्याग या संन्यास की बात उठे तो उसी समय स्पष्ट हो जाता है कि पहले कर्म करें। पीछे त्याग की जरूरत होगी और अवश्य होगी। मगर अभी नहीं।

दूसरी बात यह है कि खामख्वाह यों ही कर्म छोड़ देने से काम बनने के बजाए बिगड़ता ही है। श्लोक में जो सिद्ध शब्द है उसका यही अभिप्राय है कि कोई काम नहीं बनेगा, वह लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा जिसके लिए कर्मत्याग करते हैं। बल्कि उलटे बिगड़ेगा। जब खेत जोत-गोड़ के तैयार किया ही नहीं गया है और पानी-वानी दे के बीज उगने योग्य बनाया गया ही नहीं है तो दूसरा होगा ही क्या, सिवाय इसके कि बीज और परिश्रम दोनों की बेकार जाएँ? यह तो निरी बच्चों वाली बात हो जाएगी, या पागलों की-सी ही। इसीलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि पहले तो हरेक आदमी को कर्म करना ही होगा। कर्म से ही दरअसल प्रगति का श्रीगणेश होता है, और संन्यास तो प्रगति के इसी सिलसिले की एक आवश्यक (unavoidable) सीढ़ी (step) है। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्द्ध की उत्तरार्द्ध से मिलान करने पर 'नैष्कर्म्य' का अर्थ संन्यास ही है, न कि और कुछ। अर्जुन के दिमाग की सफाई करनी थी। इसीलिए शुरू से ही क्या कर्तव्य है, यही बात उठा के अंत तक जाना जरूरी हो गया है। नहीं तो वह फिर भी घपले में पड़ जाता, यदि चुनी-चुनाई बातें ही कही जातीं।

इसके बाद पाँचवें श्लोक में तो यह बात भी खत्म कर दी गई है कि खामख्वाह यों ही कर्मों का त्याग संभव है। चौथे उत्तरार्द्ध में यह बात मानकर ही, कि कर्मों का त्याग संभव है, उत्तर दिया है कि उससे सारा गुड़ गोबर होने के अलावे कोई मतलब पूरा नहीं होता। मगर अब तो जड़ को ही उड़ा देते हैं यह कह के कि कर्मों का त्याग ही असंभव है। प्रकृति के तीन गुण माने जाते हैं। इस बात का विस्तृत विवेचन पहले कर चुके हैं। ये परस्पर-मिथुन कहे जाते हैं जिसका मतलब यही है कि तीनों ही सर्वत्र मिले-जुले रहते हैं। इन तीनों में रज का तो काम ही है क्रिया या कर्म। उसका तो स्वरूप ही है कर्म या हलचल (action and motion)। फिर यह कैसे संभव है कि कोई भी पदार्थ एक क्षण भी निष्क्रिय रहे। तीनों गुणों के अलावे तो कोई भी भौतिक पदार्थ है नहीं। ऐसी दशा में शरीर या इंद्रियादि यदि क्षण भर भी निष्क्रिय रहें तो इसके साफ मानी हैं कि उनमें गुण हई नहीं। मगर यह तो बात है नहीं। संसार ही त्रैगुण्य माना गया है। तब अपना स्वभाव कोई कैसे छोड़ेगा? शरीरादि का तो स्वभाव ही है हिलना-डोलना या हलचल। जब हमारी आँखें इसका पता नहीं भी पाती हैं तब भी प्रयोगशाला में जाने या यंत्रों के प्रयोग से पता लगता है कि क्रिया बराबर चालू है। उसे विराम नहीं। इसीलिए कह दिया है कि कर्म या क्रिया की तो मजबूरी है। इससे पिंड छूट सकता ही नहीं। संसार का अर्थ ही है क्रियाशील या चलने वाला।

इसीलिए जो लोग जबर्दस्ती कर्म करने वाली इंद्रियों को रोकते हैं, रोकना चाहते हैं, उनका काम अप्राकृतिक है, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। क्योंकि जबर्दस्ती तो कर्म करने के लिए खुद प्रकृति कर रही है, पदार्थों का स्वभाव ही कर रहा है, और हम चले हैं उसे ही रोकने। फलत: हमारा यह हठ, हमारी यह जबर्दस्ती अप्राकृतिक - अस्वाभाविक - नहीं है, तो और है क्या? और अस्वाभाविक चीज तो चलने वाली नहीं, वह तो कभी होने की नहीं। इसीलिए दंभ और पाखंड चलता है, ठगी होती है। ऊपर से तो देखने के लिए कर्मेंद्रियाँ रुकी हैं। मगर भीतर ही भीतर उनका काम जारी है। क्योंकि ऐसे लोग मन को तो रोक सकते हैं नहीं। वह तो ऐसे पामरों के कब्जे के बाहर रहता ही है। उलटे यही लोग मन के कब्जे में रहते हैं। उधर मनीराम ने सभी इंद्रियों को पीठ ठोंक दी है। इसलिए भीतर ही भीतर - छिपे रुस्तम - उनका काम जारी है। इसे ही कहते हैं 'डूब के पानी पीना', या 'खुदामियाँ से चोरी'। ज्ञानेंद्रियों को तो यों भी ऐसे लोग नहीं रोकते। वे रोक सकते भी नहीं। उन्हीं के साथ आँख दबा के कर्मेंद्रियाँ भी मौज करती हैं। हमने काशी में ग्रहण के समय एक बार घाट के ऊपर छोटे से मंदिर के पास एक संन्यासी बाबा को देखा कि आसन मारे मूँड़ी नीचे किए आँखें मूँदे बैठे हैं। बगल में एक कपड़ा फैला पड़ा है कि लोग उस पर पैसे चढ़ाएँगे! हमने गौर किया तो पता लगा कि वह नीचे-नीचे रह-रह के कपड़े और पैसों को देखा करते हैं। इसे ही कहते हैं, 'ऊपर-ऊपर राम-राम, नीचे-नीचे सिद्ध काम!' इसका पता तो सपने में लगता है जब यह चोरी खुल जाती और जाने क्या क्या अनर्थ होते हैं, कौन-कौन-सा प्रपंच फैलता है। सपने में तो यह चोरी छिप सकती है नहीं। इसीलिए ऐसों को पाखंडी और मिथ्याचार कहकर छठे श्लोक में दुतकारा है।

यही कारण है कि सातवें श्लोक में सबका निचोड़ निकाल के कह दिया है कि जो लोग मिथ्याचारी और पाखंडी नहीं बनना चाहते वह उनके विपरीत काम करें। वह यह कि सबसे पहले सभी इंद्रियों पर और खासकर ज्ञानेंद्रियों पर तो जरूर ही, मन का नियंत्रण एवं अंकुश रखें। असल में मन का इंद्रियों पर नियंत्रण न रहने से जहाँ ज्ञानेंद्रियाँ विषयों में फँसाने के साथ ही कर्तव्य कर्मों से विमुख करके वाहियात कामों में लगा देती हैं, तहाँ कर्मेंद्रियाँ भी ज्यादती कर बैठती हैं। फलत: किसी भी काम की सीमा लाँघ के उसे भी खराब कर देती हैं। इस तरह सब किए-कराए पर पानी फिर जाता है। इसीलिए सभी पर मन का नियंत्रण जरूरी कहा गया है।

उसके बाद कर्मेंद्रियों से सभी कर्मों को शुरू कर दें। जरा भी आगा-पीछा न करें। यहाँ जो 'कर्मयोगमारभते' कहा है उसका सीधा अर्थ यही है कि काम करना शुरू कर दे। यहाँ दूसरे अध्‍याय वाले कर्मयोग से मतलब नहीं है। उसका तो प्रसंग हई नहीं। यहाँ तो ऐसे लोगों की बात है जो सबसे नीचे पड़े हुए हैं। इस श्लोक में 'यस्तु' में जो 'तु' है वह भी यही सूचित करता है कि इससे पहले जो कुछ कहा है उसके ही मुकाबिले में दूसरी बात यहाँ कही जा रही है। और पहले तो पतित या मिथ्याचारी की ही बात आई है जो दरअसल कर्म नहीं करता है। हठी नालायक जो ठहरा और विषय लंपट भी। उसी के मुकाबिले में इस श्लोक में यह कहना जरूरी हो गया कि उन नहीं करने वाले पाखंडियों की अपेक्षा वे कहीं अच्छे हैं जो कुछ कर्म करते हैं और इंद्रियों पर मन का अंकुश भी रखते हैं। इसीलिए ऐसे आदमी को 'स विशिष्यते' - 'वह कहीं अच्छा है' कहा है। इस 'विशिष्यते' क्रिया का दूसरा अर्थ हो भी नहीं सकता है। नहीं करने से करना अच्छा है - 'अकरणात्करणं श्रेय:' (something is better than nothing) यही बात यहाँ कही गई है। न कि पहले कहे गए पतित-पाखंडी के साथ इस कर्मी की तुलना है। ऐसा करना तो इसका भी अपमान करना हो जाएगा। इसीलिए उस तुलना का सूचक कोई 'तत:' या 'तस्मात्' आदि पंचमी विभक्ति वाला पद यहाँ है भी नहीं। आगे यह बात और भी साफ हो जाती है जब खुल के कह देते हैं कि नहीं करने से करना अच्छा है, 'कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:' (3। 8)।

ऐसी दशा में ऐसा आदमी गीता का वह महान कर्मयोग कैसे जानने गया कि उसे करेगा? यह तो गधे को शासन की गद्दी पर बिठाने जैसी ही बात हो जाएगी। यह भी तो जानना चाहिए कि यहाँ जो 'आरभते' क्रिया है और जिसका अर्थ है 'शुरू करता है', वह कर्मयोग में लागू होती भी नहीं। वह तो केवल कर्म में लागू होती है। कर्म ही या कर्म का करना ही शुरू होता है, न कि कर्मयोग। योग तो बुद्धि है यह सभी मानते हैं। तब उसको शुरू कैसे किया जाएगा? सो भी कर्मेंद्रियों से? वह तो मार्ग है, निष्ठा है, विचारधारा है। उसका आरंभ हर आदमी कर सकता नहीं। उसका आरंभ बहुत पहले उसके प्रर्वतक आचार्य ने किया था। अब आरंभ कैसा? यदि मान भी लें, तो हाथ-पाँव आदि कर्मेंद्रियों से उसका आरंभ कैसे होगा? यदि आरंभ का अर्थ है उस मार्ग में प्रवेश, तो भी वह कर्मेंद्रियों से होता नहीं। वह तो मन और बुद्धि से या अधिक से अधिक ज्ञानेंद्रियों से ही हो सकता है। इसीलिए कर्मयोग का यहाँ अर्थ है कर्मों का योग, जोड़ना या करना; और इसका श्रीगणेश कर्मेंद्रियाँ ही करती हैं। इसीलिए आत्मा या मन की शुद्धि के लिए जो कर्म किया जाता है वह भी गीता के कर्मयोग में आता नहीं। क्योंकि उसमें तो शुद्धि रूप फल की इच्छा हई। फिर भी उसे कर्म कहके उसके करने वाले को भी योगी कह दिया है - 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये' (5। 25)। 'दैवमेवापरे यज्ञं योगिन:' (4। 25) में भी योगी का अर्थ आत्मज्ञानी से भिन्न ही है। इसका विचार वहीं किया है।

इसीलिए यहाँ जो 'असक्त:' शब्द आया है उसका अर्थ उस कर्मयोगी की ही तरह कर्मासक्ति एवं फलासक्ति का त्याग, ऐसा जो लोग करते हैं वह भूलते हैं। 'भूखे बंगाली की भात भात' की तरह सर्वत्र एक ही बात देखना उचित नहीं। पूर्वापर और प्रसंग भी देखना होगा, और है वह मामूली कर्म करने वालों का ही। फिर एकाएक वह परले दर्जे की अनासक्ति यहाँ आ धमकी कैसे? उसकी तो यहाँ गुंजाइश हई नहीं। यहाँ तो असक्त कहने का केवल इतना ही प्रयोजन है कि, जैसे इससे पूर्ववाला आदमी कर्म का सोलह आना विरोधी होता है और उसे देखना नहीं चाहता ठीक उसके विपरीत होने से कहीं यह ऐसा न हो जाए कि दिन-रात कर्मों या फलों के लिए हाय-हाय ही करता रहे। क्योंकि तब तो यह कुछ करी न सकेगा। यह तो उसी हाय-हाय में इतना व्यस्त रहेगा कि इसके हाथ-पाँव ठीक-ठीक काम करी न सकेंगे। इसीलिए कह दिया कि ऐसा न हो - ऐसी हाय तोबा न रहे। साधारणत: फल वगैरह की इच्छा तो रहेगी ही। क्योंकि यह तो साधारणत: कर्मी ही ठहरा। मगर गीता के कर्मी की गिनती में उसे आने के लिए इस इच्छा-आकांक्षा को बेलगाम नहीं छोड़ देना होगा, बेहद परेशान होना न होगा। यही अभिप्राय है और यही युक्तिसंगत भी है। गीता की गिनती में आने का प्रयोजन भी है। क्योंकि आगे ऐसे ही आदमी के लिए 19वें श्लोक में परमात्मा की प्राप्ति लिखी है। वहाँ भी यही 'असक्त:' शब्द कर्म के साथ ही आया है। तात्पर्य यह है कि हाय-हाय छोड़ देने से अंत:करण की स्थिरता और शांति के रूप में शुद्धि हो के परमात्मा की प्राप्ति का रास्तामात्र खुल जाता है। कुछ यह नहीं होता कि कर्मों से ही ठेठ परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

आगे बढ़ने के पहले यहीं पर उनने 8वें श्लोक में स्पष्ट ही कह दिया है कि कुछ न करने और निठल्ले बैठ रहने से तो कुछ करना कहीं अच्छा है। इसीलिए तुम अपने लिए पक्का-पक्की ठहराए गए कर्मों को जरूर ही करो। ऐसे ही कर्मों को नियत (assigned) नाम गीता में बार-बार दिया गया है। 'नियतस्य तु संन्यास' (18। 7), 'नियतं क्रियतेऽर्जुन (18। 9), 'नियतं संगरहितं' (18। 23) आदि में यह बात पाई जाती है। नियत या निश्चित कहने का यह मतलब है कि यों तो खान पान आदि कर्म सभी लोग करते ही हैं। इनमें तो सभी की मजबूरी है। मगर इनके सिवाय कुछ ऐसे कर्म हैं। जिनमें ऐसी मजबूरी न होने पर भी उनका करना समाजहित की दृष्टि से और अपने अंतिम कल्याण या उदात्त स्वार्थ (enlightened self interest) के खयाल से भी जरूरी हो जाता है। ऐसे कर्म या तो समाज के द्वारा ही हरेक के लिए तय कर दिए गए हैं, या ऋषि-मुनियों, औलिया-पैगंबरों तथा बड़े-बूढ़ों ने उन्हें बताया है और समाज ने या खुद व्यक्तियों ने भी उन्हें अपनाया है। इसीलिए वे नियत और नित्य (assigned and fixed) माने जाते हैं। आश्रितों की रक्षा, देश या घर-बार के लिए लड़ना, पीड़ितों की सेवा, संध्या, पूजा, नमाज, प्रार्थना (Prayer) आदि ऐसे कर्मों में आते हैं। जब कर्मों के करने न करने की बात कहीं भी आती है तो इन्हीं से मतलब होता है न कि सामान्य कर्मों से। मल-मूत्र त्याग, खानपान आदि तो बिना कहे ही मजबूरन करने ही होते हैं। उनके बारे में करने का विधानया उसकी ताकीद बेकार है। मगर नियत कर्मों में आलस्य आदि के चलते लापरवाही हो सकती है, हो जाती है। इसीलिए इन पर जोर देना और इनके लिए ही नियम-कायदे बनाना जरूरी हो जाता है। जब संन्यास और कर्मत्याग का सवाल आता है तो इन्हीं कर्मों के त्याग से मतलब होता है।

एक बात और भी जान लें तो अच्छा हो। जहाँ तक कर्मों के त्याग या संन्यास से ताल्लुक है, गीता ने चार सूरतें मानी हैं।

1. मन की शुद्धि हो जाने पर तत्त्वज्ञान के साधन-स्वरूप निदिध्‍यासन और समाधि के सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग।

2. तत्त्वज्ञान के बाद मस्ती आ जाने पर खुद-ब-खुद कर्मों की ओर मानसिक प्रवृत्ति न होने से अलंबुद्धया स्वरूपत: कर्मों का वैसे ही छूट जाना जैसे पके फल का डाल से।

3. मोह और भ्रम में पड़ के प्रवंचना बुद्धि से या शरीर, इंद्रियादि के कष्ट के खयाल से ही कर्मों को स्वरूपत: छोड़ देना।

4. फलेच्छा, अभिनिवेश, कर्म करने की आसक्ति और हठ आदि का ही त्याग न कि स्वरूपत: कर्मों का त्याग। इनमें चौथे को तो कर्म का त्याग वस्तुत: कही नहीं सकते। इस दशा में तो कर्म बने ही रहते हैं। गीता ने भी 'नियतं संगरहितं' (18। 23) में इसे सात्त्विक कर्म ही गिनाया है। इसलिए इसे तो छोड़ ही देना चाहिए। इस पर विचार करने का प्रश्न आता ही नहीं।

रह गए तीन। बेशक इन तीनों को कर्मत्याग या संन्यास शब्द से समझ सकते हैं जरूर। इनमें जो तीसरा है उसकी बात इसी अध्‍याय के शुरू में ही और आगे भी आई है। इसलिए शेष दो या पहले तथा दूसरे को ही पहले देखना चाहिए। 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (4। 41), 'संन्यासस्तु महाबाहो' (5। 6) और 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' (6। 3) श्लोकों में पहले को यानी समाधि आदि के लिए कर्मों के त्याग को आवश्यक और उचित बताया है। 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' (18। 66) में इसी का उपसंहार भी किया है। इसी तरह 'यस्त्वात्मरतिरेवस्यात्' (3। 17) से स्पष्ट है कि दूसरा संन्यास या स्वयमेव कर्मों का छूट जाना भी गीता को मान्य है। इसकी आवश्यकता एवं महत्त्व भी वह समझती है। द्विविध निष्ठाओं का जो वर्णन दूसरे, पाँचवें और छठे अध्यायों में खासतौर से आया है और दोनों को जो वहाँ परम कल्याण या मोक्ष के देने वाले माना है, उससे भी इसकी कर्तव्यता निर्विवाद सिद्ध हो जाती है। इस बात का अधिक विवेचन पहले ही किया गया है।

अब रहा तीसरा या मोह और कष्ट के डर से कर्मों का त्याग। इसी की बहुत ज्यादा निंदा तीसरे अध्‍याय के इन्हीं श्लोकों में बार-बार की गई है। इसका विवेचन हमने अभी किया है। 'नियतस्य तु' (18। 7) और 'दु:खमित्येव' (18। 8) में भी तामस और राजस कह के इस संन्यास को निंदित बताया है। 'न बुद्धिभेदं जनयेत्' (3। 26) में भी इसी बात पर पूरा जोर दिया गया है कि सर्वसाधारण लोग हर्गिज कर्म न छोड़ें। इस प्रकार इस विवेचन ने संन्यास का मार्ग अर्जुन के दिमाग में साफ कर दिया है और कर्म करने का भी।

अब आगे जो कुछ विवेचन इस कर्म का किया जा रहा है वह इसी दृष्टि से कि समाज का काम चलाने, उसे कायम रखने और उसकी प्रगति के लिए कर्म अनिवार्य रूपेण आवश्यक है। इनके बिना एक क्षण भी समाज का काम चल नहीं सकता है। यज्ञचक्र के रूप में इन कर्मों का जो वर्णन किया गया है उसका रहस्य तो पहले ही बताया जा चुका है। यज्ञों का संकुचित अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है, यह बात 10 से 13 तक के श्लोकों से ही, जो यज्ञचक्र के निरूपण के ठीक पहले आए हैं, सिद्ध हो जाती है। दसवें श्लोक में जो 'प्रसविष्यध्वम्' तथा 'कामधुक्' शब्द आए हैं उनका अर्थ है फलना, फूलना और विस्तार प्राप्त करना। इनके भीतर तो संसार के सारे काम आ जाते हैं। कोई भी बचने नहीं पाता। यह बात सर्वसाधारण के द्वारा आमतौर से माने गए घृत आदि की आहुति रूपी यज्ञों से तो होने की नहीं। यह दावा तो इन यज्ञों के समर्थक भी नहीं करते कि इन्हीं से सब काम हो जाएगा। फलत: खेती, गिरस्ती आदि की जरूरत हई नहीं। कामधेनु कहने से भी यही बात सिद्ध होती है कि यह सब कुछ देने वाली चीज है। 'इष्टान् भोगान्' (3। 12) में यही कह भी दिया है। इसीलिए देव शब्द का अर्थ भी रूढ़ नहीं है। यहाँ खास ढंग के देवताओं से मतलब न हो के दिव्य या अलौकिक शक्ति, प्रतिभा आदि संपन्न सभी पदार्थों को देव कहते हैं। इसीलिए गीता ने यज्ञों का अनेक विस्तृत रूप स्वयं बताया है। हमने भी इस पर पूरा प्रकाश डाला है। यज्ञ के रूप में ही कर्मों पर जोर देने के लिए ही आगे के श्लोक लिखे गए हैं।

कुछ अर्द्धदग्ध एवं अक्षरकट्टू लोग अपनी असली मनोवृत्ति को छिपा के केवल इस दलील के आधार पर ही कर्मों से पिंड छुड़ाना चाहते हैं कि ये तो जन्म-मरणादि बंधन के कारण हैं। फिर इन्हें क्यों करें? उनका उत्तर यह है कि -

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन :

तदर्थ कर्म कौंतेय मुक्तसंग समाचर॥9॥

हे कौंतेय, (जब कि) यज्ञ के लिए किए गए कर्मों के अलावे बाकी कर्मों से ही लोग बंधन में फँसते हैं, तो तुम आसक्ति या हाय-हाय छोड़ के यज्ञार्थ कर्मों को ही ठीक-ठीक करो। 9।

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।

अनेन प्रसविष्य ध्व मेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥10॥

पूर्व समय - सृष्टि के आरंभ काल - में ब्रह्मा ने लोगों - प्रजा - को यज्ञ के साथ ही पैदा करके कह दिया कि इस (यज्ञ) के जरिए खूब फलो-फूलो और तरक्की करो (और) यह तुम्हारे लिए कामधेनु का काम दे। 10।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥11॥

इस यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को संतुष्ट करो, पुष्ट और समुन्नत करो और वे देवता तुम्हें भी वैसा ही करें। (इस तरह) परस्पर एक दूसरे को सुखी-संपन्न बनाते हुए परम कल्याण - मोक्ष - प्राप्त करो। 11।

इष्टान् भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।

तैर्द त्ता नप्रदायैभ्यो यै भुंक्ते स्तेन एव स:॥12॥

क्योंकि यज्ञों के द्वारा तृप्त और प्रसन्न किए गए देवता तुम्हें सभी अभिलषित पदार्थ देंगे। इसीलिए उन्हीं के दिए इन पदार्थों को उन्हें भेंट न करके जो (स्वयमेव) हड़प लेता है वह अवश्यमेव चोर है। 12।

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सकिल्बिषे:।

भुं जते ते त्चघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥13॥

यज्ञ के बाद बचे-बचाए पदार्थों को भोगने वाले सत्पुरुष सभी पापों और बुराइयों से छुटकारा पा जाते हैं। (लेकिन) वे पापी लोग तो पाप को ही भोगते हैं जो केवल अपने ही लिए (पदार्थ) पकाते हैं - तैयार करते हैं। 13।

इस श्लोक के 'यज्ञशिष्टाशिन:' में अश् धातु भोजनार्थक है। मगर जिस भुज् धातु से भोजन शब्द बनता है उसी से भोग भी बनता है। इसीलिए भोजन या अशन का अर्थ केवल पेट में डालना ही नहीं है। मार खाने, धोखा खाने में भी तो खाना आता है। मगर ये तो पेट में रखने की चीजें हैं नहीं। उसी प्रकार यहाँ भी समझना होगा। यज्ञ के बाद जो शेष रहे उसी पदार्थ को खाना-पहनना या अपने निजी काम में लाना यही 'यज्ञशिष्टाशन' का अर्थ है। उसी तरह 'पचंति' में पच् धातु का अर्थ पकाना है और भात-रोटी आदि के पकाने को ही आमतौर से पकाना कहते हैं। मगर फसल पक गई, घड़ा पक गया, आम पक गया, फोड़ा पक गया में तो तैयार होना ही अर्थ है। महाराष्ट्र में फसल को ही पाक कहते है। यहाँ भी तैयार करना ही अर्थ उचित है। सभी प्रकार के पदार्थों को तैयार करके पहले उन्हें यज्ञार्थ अर्पण करना चाहिए। इसका अभिप्राय यही है कि उनके कुछ अंश यथाशक्ति समाजहित या परोपकार के कामों में लगा के शेष को ही निजी काम में लाना उचित है। अन्न पका के भगवान या देव-पितरों को अर्पण करना भी इसी में आ जाता है।

ऐसा करने के बाद जो पदार्थों को भोगता है वही महापुरुष यज्ञशिष्टाशी है। विपरीत इसके जो सब कुछ निजी कामों में ही खर्च करता है वही पापी है। उसके पदार्थ को दरअसल पाप ही कहा है, यद्यपि देखने में वह स्थूल पदार्थ प्रतीत होता है। असल में ऐसे स्वार्थी बनने पर समाज एक मिनट भी टिक सकता नहीं। जब हरेक को अपनी-अपनी ही सूझी तो समाज रहेगा कैसे? वह तो उसी क्षण खत्म हो गया। ऐसे स्वार्थी होने पर कोई भी कायम नहीं रह सकता। जब तक एक दूसरे की फिक्र और परवाह कम-बेश न करें सभी मर-मिटेंगे। किसी का भी काम चल सकेगा ही नहीं। इसीलिए ऐसे काम को पाप और बुराई कहा है। मनु ने यज्ञशिष्ट पदार्थ को अमृत कहा है। उनका यज्ञ उतना व्यापक नहीं था। केवल देवपितरों के लिए जो कर्म होते थे उन्हीं को उनने यज्ञ माना था। इसीलिए यज्ञ के सिवाय दूसरे परोपकारी कामों में जो चीज लगे उसके शेष को उनने विघस नाम दिया था। 'यज्ञशिष्टामृतभुज:' (4। 31) में गीता ने भी यज्ञशिष्ट को अमृत ही कहा है। जो बात गीता के 13वें श्लोक में लिखी है वही मनुस्मृति में भी यों लिखी है कि 'अघं स केवलं भुंक्ते य: पचत्यात्मकारणात्। यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते' (3। 118)। इस श्लोक में गीता के ही अधिकांश को अक्षरश: दे दिया है। पूर्वार्द्ध तो प्राय: जैसे का तैसा ही गीता के श्लोक का उत्तरार्द्ध है। पूर्वार्द्ध में भी गीता के उत्तरार्द्ध का आधा प्राय: ज्यों का त्यों और उसके 'संत:' की जगह पर ही 'सतां' दे दिया है। पुराने समय में इस यज्ञ का इतना ज्यादा महत्त्व था कि ऋग्वेद में भी गीता के 'भुंजतेतेत्वघं पापा:' की ही तरह लिख दिया है कि 'नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी' (10। 117। 6) । मंत्र के देखने से यह भी पता चलता है कि ऋग्वेद के समय यज्ञ का व्यापक अर्थ गीता की ही तरह माना जाता है। इसीलिए अर्यमा और सखा की पुष्टि की बात इसमें आई है। अर्यमा मेघ सरीखे देवता को और सखा बंधुबांधव को कहते है।

आगे जिस यज्ञचक्र का वर्णन है उसका संक्षिप्त रूप प्राय: इसी तरह का मनुस्मृति में यों पाया जाता है, 'अग्नौप्रास्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा' (3। 76)। महाभारत के शांतिपर्व (340। 38। 62) में भी इस यज्ञ की बात विस्तृत रूप से आई है। मगर गीता के यज्ञ चक्र की खूबी कहीं है नहीं। हमने इसका पूर्ण विवरण पहले ही लिखा है।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥14॥

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥15॥

अन्न से प्राणी और सत्ताधारी पदार्थ बनते हैं - उत्पन्न होते हैं। वृष्टि से अन्न पैदा होता है। यज्ञ से वृष्टि होती है। कर्मों से यज्ञ बनता है - यज्ञ का स्वरूप तैयार होता है। कर्म वेद (जैसे ज्ञानभंडार) से ही मालूम होते हैं - जाने जाते हैं और वेद जैसा ज्ञानभंडार अविनाशी (समष्टि महाभूत परमात्मा) से पैदा होता है। इसीलिए सभी बातों को अवगत कराने - जनाने - वाले वेदरूपी ज्ञान भंडार का तात्पर्य यज्ञ करने में ही है। यज्ञ ही उसका आधार भी है। 14। 15।

एवं प्रवर्तितं चक्रं ना नु र्त्त यतीह य:।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥16॥

(इसलिए) हे पार्थ, इस प्रकार जारी किए गए (यज्ञ) चक्र को इस दुनिया में जो (आदमी) कायम नहीं रखता (उसका) जीवन पापमय है, वह केवल इंद्रियों को ही तृप्त करने वाला है। (इसीलिए) उसका जीना बेकार है। 16।

यहाँ यज्ञचक्र के सिलसिले में इतनी सख्ती के साथ इसके चालू रखने की बात कही गई है कि संदेह होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि गीता के मत से कर्मों का त्याग कभी हो ही नहीं सकता। जब कर्म ही संसार की स्थिति, वृद्धि और प्रगति के लिए कामधेनु है, जब इन्हीं के द्वारा सब कुछ हो सकता है, जब यज्ञचक्र के रूप में कर्मों का सिलसिला जारी नहीं रखने वाले की जिंदगी व्यर्थ है, वह पापमय जीवन ही गुजारता है एवं पामर विषयलोलुपों की तरह एकमात्र इंद्रियों का ही पोषक है, ऐसा स्वयं गीता का आदेश है, तब तो यह खयाल होना स्वाभाविक ही है कि किसी भी दशा में कर्मों से जिसका ताल्लुक टूटा वह पापी और बदमाश ही माना जाएगा। कम से कम गीता का तो यही सिद्धांत होगा - वह तो इसी पर मुहर लगाएगी। ऐसी दशा में शुकदेव, वामदेव, जड़भरत आदि की तरह जिनके कर्म खुद-ब-खुद पके फल की तरह छूट गए हैं, गिर गए हैं और जो मस्ती की लापरवाह - बेफिक्र - जिंदगी गुजारते हैं, उनका क्या होगा? वे भी वही 'अघायुरिन्द्रियारामा मोघं पार्थ स जीवति' वाले घोर अभिशाप के शिकार होंगे? होना तो चाहिए। मगर यह तो असंभव; अप्राकृतिक, अस्वाभाविक तथा केवल हास्यजनक बात मालूम पड़ती है। वह तो इतने ऊँचे हैं कि उन तक यह अभिशाप कभी पहुँच ही नहीं सकता। यह अजीब पहेली है! यह निराली समस्या है! जो अपनी आत्मा में ही - आत्मानंद में ही - रम गए हैं, उसी में तृप्त हैं और उसी में संतुष्ट हैं; जिनकी अपनी तृप्ति से ऐसा हो गया है कि फिर कभी दूसरी ओर जाई नहीं सकते - जो सदा के लिए संतुष्ट हो चुके हैं, उनके संबंध में सचमुच यह पेचीदा पहेली ही है जिसका सुलझाना असंभव लगता है। मगर गीता इसको - बीच में ही एकाएक पेश इस समस्या को - आगे के दो श्लोकों में आसानी से सुलझा के पुनरपि इस कर्म के यज्ञचक्र की बात को ही पकड़ती और आगे बढ़ती है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥17॥

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥18।

(लेकिन) जो मनुष्य तो आत्मा में ही रम गया है, आत्मा ही में तृप्त है। और आत्मा में ही संतुष्ट है उसका कुछ भी कर्तव्य रही नहीं जाता है। न तो उसके करने से कुछ बनता ही है और न नहीं करने से बिगड़ता ही। सभी भौतिक पदार्थों में कोई भी ऐसा हई नहीं जिसका आश्रय वह किसी भी काम के लिए ले। 17। 18।

यहाँ अर्थ शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ में आया है जैसा कि बातचीत में ऐसे मौके पर आया करता है। आमतौर से काम, चीज या बात शब्द जिस मानी में बोले जाते हैं, ठीक उसी मानी में यह अर्थ शब्द आया है। यहाँ के सभी अर्थ शब्दों का यही मतलब है। इसीलिए सीधा अर्थ यही हो जाता है कि उसके करने-न करने से न तो कुछ बनता-बिगड़ता है और न दुनिया की कोई भी ऐसी चीज रही जाती है जिसकी प्राप्ति की कोशिश करने की उसे जरूरत हो। फिर उसके लिए कर्म करना जरूरी होगा क्यों? आखिर कर्मों की जरूरत होती है अपने या दूसरों के किसी मतलब के ही लिए न? मगर जिसके कर्मों से किसी का कोई भी मतलब सिद्ध होने वाला हो ही न, वह क्योंकर उन्हें करें? हाँ, यदि न करने से कुछ भी बिगड़ने वाला हो, किसी का भी बिगड़ने वाला हो, तो भी एक बात है। मगर यहाँ तो वह बात भी नहीं है। सबसे बड़ी बात, सब बातों की एक बात यह है कि राई से लेकर पर्वत तक या चींटी से लेकर भगवान तक से कोई न कोई काम निकालने के ही लिए क्रिया या कर्म की जरूरत पड़ती है। मगर मस्तराम के लिए तो यह भी बात नहीं है। उनके कर्मों के फलस्वरूप किसी से भी कोई काम सधने-बनने का हई नहीं!

श्लोक में 'कश्चिदर्थ-व्यपाश्रय:' आया है। उसका खास महत्त्व और मतलब है किसी भी काम के लिए हमें तो किसी न किसी छोटे-बड़े पदार्थ का आश्रय - सहारा - लेना ही होता है। मगर मस्तराम के लिए ऐसा कोई पदार्थ रही नहीं जाता। उसके लिए तो सभी अपनी आत्मा ही हैं - आत्मा से जुदा कोई हई नहीं। कही चुके हैं कि वह 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' हो जाता है। तब किसका सहारा ले? किसकी ओर नजर दौड़ाए? किधर बढ़े, चले? कोई दूसरा हो तब न? यहाँ तो सब कुछ वही है - 'आत्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति' (वृहदा. 4। 4। 23), 'यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्केन कं जिघ्रेत्...केनकं विजानीयात्' (वृह. 4। 5। 15)। वह तो अपने आपको ही सर्वत्र देखता है, सुनता है, पढ़ता है, समझता है। क्योंकि उसकी नजरों में दूसरा कोई हई नहीं, द्वैत मिट गया, 'दुई' जाती रही, 'दुई रा चूं बगर करदम यकी दीदम दो आलम रा। यकी जूयम यकी बीनम यकी खानम यकी दानम।' फिर तो बिना कुछ किए ही सब कुछ हाजिर है! शाहंशाह जो ठहरा! प्रकृति को हिम्मत कि उसकी दरबारदारी न करे? इसीलिए हर चीजें उसी का आश्रय लेती हैं, अनायास अधीन हो जाती हैं। महाभारत के 'यदा च नाहमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि। तदा मे सर्वदा भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा' आदि कई श्लोकों में यही दिखाया है कि सभी चीजें उसके चाहे बिना ही हाजिर रहती हैं! जो लोग उसे खिलाते-पिलाते या शरीर-सेवा करते हैं उनका मनोरथ और उनकी सभी जरूरतें अकस्मात पूरी होती रहती हैं! तब और चाहिए ही क्या?

कुछ लोगों ने यह कोशिश की है कि 'तस्य कार्यं' आदि में षष्ठी विभक्ति का संबंध अर्थ लगा के यहाँ यह अभिप्राय बताएँ कि उसे अपने लिए कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है। इसीलिए जो कुछ करता है वह परोपकार और लोकसंग्रह के ही लिए। मगर वह भूल जाते हैं कि 'कृत्यानां कर्त्तरि वा' (2। 3। 71) और 'कर्त्तृकर्मणो कृति' (2। 3। 65) इन पाणिनीय सूत्रों के रहते उनका यह मतलब पूरा होने का नहीं। यह तो कर्त्ता के ही अर्थ में षष्ठी बताते हैं, न कि संबंध में। एक बात और भी तो देखें कि पहले तो साधारण कर्मियों की ही बात कही गई है, जैसा कि बता चुके हैं। इसके बाद भी वही बात है। तो फिर बीच में यह कर्मयोगी की बात कैसे आ गई? और उसका प्रसंग भी कौन-सा आ गया? लोकसंग्रह की बात तो 'कर्मणैव हि' (3। 20) श्लोक में फौरन ही आगे कही गई है। फिर एक श्लोक पहले भी उसे कहने का क्या मौका? यही नहीं 20 से 26 तक के श्लोकों में इस लोकसंग्रह और परोपकार की बात बहुत विस्तार से लिखी गई है। फिर यहाँ कैसे बेमौके आ गई? सो भी अधूरी? किसी-किसी को बारह महीने हरियाली ही सूझने की बात ठीक नहीं। सर्वत्र एक ही चीज को देखने और बताने की कोशिश उचित नहीं है।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पुरुष:॥19॥

इसलिए आसक्ति छोड़ के - पूर्व बताए ढंग की हायहाय छोड़ के - अपना कर्तव्य कर्म ठीक-ठीक करते रहो। क्योंकि आसक्ति छोड़ के कर्मों को करने से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 19।

लेकिन यदि परमात्मा को प्राप्त करना न हो तो? जो लोग आत्मज्ञानी और जीवन्मुक्त हैं। उन्हें न तो कोई सांसारिक-पदार्थ ही प्राप्त करने योग्य रहते हैं और न परमात्मा ही। वह तो खुद ही परमात्मा - निर्वाणब्रह्म - हो जाते हैं। फिर वह क्यों कर्म करेंगे? वह तो नहीं ही करेंगे न? नहीं-नहीं, वह भी करेंगे, यदि पूरे मस्तराम परमहंस न हो गए हों। यदि पूछें कि क्यों? तो सुनिए -

कर्मणैव हि संसद्धिमास्थिता जनकादया:।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्क र्त्तु मर्हसि॥20॥

आखिर संसिद्धि - ब्रह्मनिर्वाण - को प्राप्त हुए जनक आदि भी (तो) कर्म करते ही रहे - उनने कर्म को ही अपना साथी बराबर बनाए रखा। इसलिए लोकसंग्रह - संसार का पथप्रदर्शन - करने का ही खयाल करके भी (तो) तुम्हें कर्म करना ही होगा - करना ही चाहिए। 20।

यहाँ जो लोग यह मानते हैं कि जनकादि को कर्म से ही मोक्ष मिला, वह एक तो यह भूल जाते हैं कि मोक्ष ज्ञान से ही मिलता है। यह बात हम बहुत ही खूबी के साथ बता चुके हैं। उनने दूसरी जगह यही माना है। यदि मान भी लें कि कर्म से भी मुक्ति होती है, तो भी यह तो वे भी नहीं मानते कि निरे कर्म से मुक्ति होती है। वे तो ज्यादे से ज्यादा यही मानते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों के समुच्चय से - दोनों की सम्मिलित शक्ति से - ही मोक्ष मिलता है। मगर यहाँ तो 'कर्मणा एव' लिखा है, जिसका अर्थ है सिर्फ कर्म से। यह कैसे होगा? इसीलिए यहाँ कर्मणा इस तृतीया को 'कर्त्तृकरणयोस्तृतीया' (प. 2। 3। 18) के अनुसार साधन वाचक न मान के 'विनाऽपि तद्योगं तृतीया' के अनुसार 'सह' शब्द के न रहने पर भी उसका अर्थ प्रतीत होने पर ही तृतीया हो जाती है, यही मानना उचित है। हम इसीलिए, कर्म के साथ ही रहे, बराबर कर्म करते ही रहे, उसे कभी न छोड़ा यही अर्थ किया भी है।

सबसे मार्के की बात यहाँ, यह है कि इससे पहले के श्लोक में 'तस्मात्' कह के एक बात का उपसंहार कर लिया है, ऐसा स्पष्ट है। इसलिए इस श्लोक में कोई दूसरी नई बात शुरू हो के आगे चल रही है, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इस श्लोक के पूर्वार्द्ध की मिलान उत्तरार्द्ध के साथ करने से और उसी के अनुसार आगे बढ़ने से सब बात ठीक हो जाएगी। नहीं तो यह पूर्वार्द्ध यों ही बीच में ही लटका रह जाएगा। क्योंकि उत्तरार्द्ध का तो साफ ही आगे से संबंध मानना होगा। जिस लोकसंग्रह का इसमें उल्लेख सूत्र रूप से है उसी का भाष्य आगे के पूरे छह श्लोक करते हैं। जनक को लोकसंग्रह करने वाला और पथदर्शक कर्मयोगी मानते भी हैं। इसलिए उत्तरार्द्ध के साथ मिला के हमने जो अर्थ किया है वही यहाँ पर उचित और ठीक है।

यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तद नुवर्त्त ते॥21॥

बड़े लोग जो-जो करते हैं वही-वही काम जनसाधारण भी करते हैं। बड़े जितना करते और जिसे सही मानते लोग भी उतना ही करते और उसी को सही मानते हैं। 21।

यहाँ 'प्रमाणं' का अर्थ प्रमाण या सही भी है और नापजोख भी। 'यत्प्रमाणं' शब्द जब समस्त माना जाए तब तो इसका अर्थ है 'जितना'। और अगर यत् तथा प्रमाणं अलग-अलग दो शब्द स्वतंत्र माने जाएँ तब 'जिसे सही' यह मानी हैं।

न मे पार्थास्ति क र्त्त व्यं त्रिषु लोकेषु किं चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं व र्त्त एव च कर्मणि॥22॥

हे पार्थ, तीनों लोक - सारे संसार में - मेरा कुछ भी कर्तव्य रह नहीं गया है। ऐसा भी नहीं कि कोई वस्तु मुझे हासिल न हो (और) उसे प्राप्त करना हो। फिर भी (देखो न) कर्म में लगा ही रहता हूँ। 22।

यदि ह्यहं न व र्त्ते यं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।

मम वर्त्मा नु वर्त्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥23॥

क्योंकि हे पार्थ, अगर मैं (खुद) कभी भी आलस्यरहित हो के कर्म करने से हिचकूँ तो सभी लोग मेरा ही रास्ता (चट) अख्तियार कर लेंगे। 23।

इस संबंध में यह याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण की रासलीला का इस कथन से स्पष्ट विरोध होने के कारण वह प्रक्षिप्त तथा पीछे जोड़ी गई चीज है। शिशुपाल से बढ़कर कृष्ण का शत्रु कोई न था जो खुले आम गाली-गलौज करता और उनके सच्चे-झूठे ऐबों के बारे में लेक्चर देता फिरता था। युधिष्ठिर के यज्ञ में जब कृष्ण की पूजा की गई तो उसे बरदाश्त न हो सकी। फलत: उसने बहुत कुछ अंटसंट बक डाला। उन्हें नीचा दिखाने के लिए यहाँ तक किया कि उनके मुरारि, मधुसूदन आदि नामों के अर्थ तक उसने बदल दिए, उन्हें खानदानी भगेड़ा बताया, वगैरह-वगैरह। मगर यह हिम्मत तो उसे भी न हुई कि कह डाले कि कृष्ण व्यभिचारी था, उसने गोपियों के साथ शरारत की, बदमाशी की। यदि उसे जरा भी गंध इस बात की मालूम होती तो ऐसा करने से वह हर्गिज न चूकता। फिर तो तिल का ताल बना छोड़ता। इससे स्पष्ट है कि कृष्ण का चरित इतना ऊँचा था कि उनके कट्टर से भी कट्टर दुश्मन तक को यह हिम्मत न थी कि इस बारे में जबान भी खोले। यदि गोपियों की रासलीला की गंध भी उस समय होती तो शिशुपाल क्या-क्या न कर डालता, कह डालता? इसलिए मानना होगा कि उस समय इसका नाम भी न था, चर्चा भी न थी। यह बात पीछे जुटी है, जोड़ी गई है।

श्री कुमारिल की लिखी तंत्रवार्तिक नाम की मीमांसा की पोथी की एक महत्त्वपूर्ण चर्चा भी इस मामले में प्रकाश डालती है। मीमांसादर्शन के सूत्रों पर जो शबर भाष्य है उसी की टीका का नाम तंत्रवार्तिक है। दरअसल भट्टपाद कुमारिल की समूची टीका तीन भागों में बँटी है। पहले अध्‍याय के प्रथम पाद की टीका का नाम है श्लोकवार्त्तिक। उस अध्‍याय के शेष को लेकर तीसरे अध्‍याय के अंत तक की टीका को ही तंत्रवार्तिक कहते हैं। शेषांश की टीका कही जाती है टुप्टीका। उसी तंत्रवार्त्तिक में प्रथमाध्‍याय के तीसरे पाद के सातवें सूत्र 'अपिवा कारणाग्रहणे प्रयुक्तानि प्रतीयेरन्निति' के व्याख्यान में एक स्थान पर नास्तिक की शंका के रूप में लिखा है कि हिंदू लोग जिस कृष्ण को महान पुरुष मानते हैं उनकी हालत यह थी कि शराब पीते थे। उनने मामा की लड़की से शादी भी की थी। दरअसल रुक्मिणी उनके मामू की ही तो पुत्री थी। इस प्रकार धर्माचार्यों और अवतारों पर एक के बाद दीगरे दोषारोपण करके सनातन धर्म की निंदा की गई है। किंतु जहाँ ब्रह्मा, व्यास आदि के बारे में उसने व्यभिचार आदि की बातें लिखी हैं तहाँ कृष्ण के बारे में उसे सिर्फ पूर्वोक्त दोष ही नजर आए हैं। लेकिन यदि भट्टपाद के समय में रासलीला की बात प्रसिद्ध होती तो वह नास्तिक के मुँह से जरूर ही वही बात कहलवाते। वह साधारण लोगों के समझ में आने की बात भी थी। मगर शराब पीने या मामू की कन्या से शादी करने की बात तो कुछ ऐसी ही है। फलत: मानना होगा कि नौवीं शताब्दी तक, जब कि भट्टपाद हुए, रासलीला का पता कहीं न था। यह तो उसके बाद ही पोथियों में घुसेड़ी गई मालूम पड़ती है। खूबी तो यह है कि कुमारिल ने समाधान करते हुए जहाँ लिखा है कि रुक्मिणी सचमुच मामू की लड़की न थी, वहीं यह भी लिखा है कि जो कृष्ण संसार के लिए आदर्श-स्थापक थे वही खुद विरुद्ध काम भला कैसे कर सकते थे? फिर उनने गीता के उन्हीं श्लोकों को उद्धृत भी कर दिया है कि 'मम वर्त्त्मानुवर्त्तेरन्मनुष्या: पार्थ सर्वश:। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते' (3। 23। 21)। उनका यह उद्धरण बड़े काम का है और वस्तुस्थिति को बताता है।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

संकरस्य च कर्त्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥24॥

(नतीजा यह होगा कि) यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सभी लोग - सारी दुनिया - ही चौपट हो जाए। (इस तरह) मैं ही वर्णसंकर करने का जिम्मेदार बन जाऊँ (और) इस सारी प्रजा का नाशक हो जाऊँ। 24।

खयाल हो सकता है कि जब सभी को एक ही लाठी से हाँका जाता है, जब कर्मों का करना विद्वान-अविद्वान या ज्ञानी-अज्ञानी के लिए समान रूप से ही जरूरी है, तो फिर दोनों में फर्क रही क्या जाता है? ज्ञानी को विद्वत्ता ने उसे क्या किया? यह तो कुछ उलटी-सी बात हो गई। अविद्वान को आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्त्यात्मिक ये तीन ही कष्ट होते हैं। मगर विद्वान होने पर बड़े-बड़े पोथों के अभ्यास करने का कष्ट, यदि कुछ भूले तो उसका, अगर कहीं विवाद में हारे तो उसका और न हारने पर जबर्दस्त साँड़ की तरह गर्व का, इस तरह कुल सात कष्ट हो जाते हैं। कहाँ चले थे तीनों से पिंड छुड़ाने और कहाँ चार और जुट गए! 'चौबे गए दूबे बनने तो छब्बे होके लौटे' वाली बात हो गई! इसीलिए नारद ने सनत्कुमार से कहा था कि महाराज, कोई रास्ता बताइए, नहीं तो यह तो बला हो गई और लेने के देने पड़ गए! जितना ही पढ़ा और पोथी-पुराण उलटा उतनी ही आफत बढ़ती गई, जैसा कि (छांदोग्य 7। 1। 1-3) तथा 'वेदाभ्यासात्पुरातापत्रयमात्रेण दु:खिता। पश्चात्त्वभ्यासविस्मारभंगगर्वैश्च शोकिता' (पंचदशी 11। 19) में लिखा है। जब दोनों ही गधे की तरह दिन-रात कर्मों में खटते-मरते ही रहेंगे, तो सचमुच ही दोनों में फर्क होगा क्या? इसका उत्तर यह है -

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥25॥

हे भारत, कर्मों में लिपटे-चिपटे अनजान लोग जिस तरह उन्हें (पूरा दिल लगा के) करते हैं विद्वान भी वैसा ही दिल लगा के करे। (मगर फर्क यही रहे कि एक तो वह) उनकी तरह लिपटा-चिपटा न रहे या हाय तोबा न करे। दूसरे उसका लक्ष्य लोकसंग्रह ही रहे। 25।

जो लोग खयाल करते हैं कि निजी स्वार्थ न रहने और आसक्ति खत्म हो जाने पर कर्म उतनी खूबी और लगन के साथ नहीं किए जा सकते, उनका उत्तर भी इसी में आ गया है। विद्वान का अपना तो समस्त संसार ही हो जाता है - उसका परिवार तो बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गया। इसीलिए उसकी लग्न कर्मों में और भी तेज हो जाती है। यह हाय-तोबा न रहने के कारण उसकी सारी दृष्टि इधर-उधर न बँट के कर्म पर ही रहने से कर्म और भी खूबी तथा सुंदरता के साथ पूरा होता है। यही तो है कर्म के ऊपर समस्त शक्ति का केंद्रीभूत (Concentration) होना। हाय-तोबा खत्म हो जाने से बेचैनी - परेशानी - भी नहीं रहती। वह बराबर मस्त भी रहता है।

जिनका विचार हो कि विद्वान स्वयं तो कर्म लगन के साथ जरूर करे। मगर अज्ञानियों को कुछ समझाता-बुझाता भी रहे कि वे कर्म में आसक्ति छोड़ें और अपनी प्रगति का रास्ता साफ करें, उन्हीं के लिए आगे के चार (26-29) श्लोकों की बातें हैं। दरअसल अविद्वान और अज्ञानी जनों को दो दलों में बाँट सकते हैं। एक तो ऐसे लोगों का, जो कुछ न कुछ समझते हैं सही। फिर भी विद्वानों के समान या उनके समाज के लायक नहीं होते। उन्हें अक्षरकट्टू कहिए, टटुपुँजिये समझदार कहिए, या अर्द्ध-दग्ध कहिए। मगर उनमें इतनी ही विशेषता होती है कि वे बातें समझते हैं, समझाने से कम-बेश समझ सकते हैं। इसीलिए वे गीता की गिनती में और गीताधर्म की ओर अग्रसर होनेवालों में भी आ सकते हैं, यद्यपि उनका दर्जा सबसे नीचे होता है। ऐसे ही लोगों के बारे में 'असक्त: स विशिष्यते' (3। 7) कहा गया है। उन्हें समझाना-बुझाना ठीक ही होता है - उसका कुछ न कुछ परिणाम होता ही है, फिर चाहे जल्द हो या देर से हो।

मगर दूसरा दल ऐसों का होता है जो चींटे की तरह कर्मों से लिपटते हैं, ऊँट की पकड़ पकड़ते हैं। वे जिस चीज को पकड़ते हैं उसे छोड़ना जानते ही नहीं। वे इतने सीधे और भोले होते हैं कि विवेक और अक्ल से उन्हें ताल्लुक होता ही नहीं। वे तो सिर्फ देखा-देखी करते हैं। उन्हें समझाइएगा तो शायद ही समझें इसीलिए सीधे कह दीजिए कि यह काम करो और वे उसमें तन-मन से लिपट पड़ेंगे। सच पूछिए तो उन्हीं के लिए कह सुनाने की अपेक्षा कर दिखाने की जरूरत कहीं ज्यादा होती है। पहले जो कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर लोकसंग्रह का विवरण बताया है वह ऐसों ही के लिए हैं। लोकसंग्रह के लोक या लोग ऐसे ही सीधे जन हैं। उन्हीं का संग्रह या सन्मार्ग पर जाना, यही लोकसंग्रह है। उन्हें इधर-उधर भटकने न दे के एक रास्ते में बाँध रखा जाता है।

ऐसे ही लोगों के बारे में एक पंडितजी के श्राद्ध करवाने की बात कही जाती है। पंडितजी का यजमान इतना सीधा था कि ठीक ही आँख मूँद के चलता था। पिंडदान के समय पहले ही पंडितजी ने उससे कह दिया कि मैं जो बोलूँ वही तुम भी बोलना। उनका आशय तो था मंत्रों से, कि मैं जो मंत्र जैसे पढूँ तुम भी वैसे ही पढ़ते जाना। मगर वह था इतना सीधा कि उसने ऊँट की पकड़ पकड़ ली। जब पंडित ने श्रीगणेश करते हुए उससे कहा कि तैयार हो जाओ, तो वह भी चट बोल बैठा कि तैयार हो जाओ। इस पर पंडितजी ने रंज हो के कहा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ। फिर तो वह भी बोल उठा कि मैं तुमको पिंडदान के लिए तैयार हो जाने को कहता हूँ! अजीब बात थी! पंडित जी जो बोलते थे वह भी वही दुहराता जाता था। उनने लाख कोशिश की कि उसे समझा के ठीक करें। मगर घंटों इस हुज्जत में लगने पर भी कुछ नतीजा न हुआ। उसने तो उनकी शुरूवाली बात पकड़ ली थी। बस, ऐसे ही लोगों से यहाँ मतलब है। उन्हें समझाने की कोशिश करना बला मोल लेना है, जैसी कि पंडितजी की हालत हुई, रेशानी हुई, और अंत में क्रोध में पटका-पटकी तक हो गई, जिसमें उसने पंडितजी को धर दबोचा। मजबूत तो था ही। खूबी तो यह कि इतने पर भी वह समझता था कि मैं श्राद्ध ही कर रहा हूँ और यही श्राद्ध है! ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश करने पर वह कहीं के नहीं रह जाते। वह तो ऊँट की पकड़वाली एक ही अक्ल जानते हैं, जैसा कि हितोपदेश का मेढक केवल भागने की एक अक्ल - एक बुद्धि जानता था। उपदेश देने में वह बुद्धि भिन्न हो जाती है, टुकड़े-टुकड़े हो जाती है, बँट जाती है और वह आदमी कहीं का रह जाता नहीं।

न बुद्धिभेदं जन ये दज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्॥26॥

कर्मों में लिपटे-चिपटे भोले अज्ञानी जनों की (उस ऊँट की पकड़वाली एक) अक्ल को छिन्न-भिन्न (हर्गिज) न करे। किंतु योगी विद्वान स्वयं सभी कर्मों को करता हुआ (देखा-देखी) उनसे भी करवाए। 26।

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्त्ताऽहमिति मन्यते॥27॥

(क्योंकि यद्यपि) प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कर्म किए जाते हैं (न कि आत्मा करती है। तो भी) जिनकी आत्मा अहंता-ममता - मैं और मेरे के खयाल - के करते बिलकुल ही मोह में - घोर अँधरे में - फँसी है; फलत: जिन्हें (कुछ भी नहीं सूझता) वह अपने आपको ही करने वाले माने बैठे होते हैं। 27।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।

गुणा गुणेषु व र्त्तंत इति म त्त्वा न सज्जते॥28।

हे महाबाहो, (इसके विपरीत) जो लोग गुणों और कर्मों के हिसाब-किताब और ब्योरे को पूर्ण रूप से जानते हैं - उसकी असलियत को देखते हैं - (कि किस गुण के साथ किस कर्म का कैसा ताल्लुक है) वह तो, यही जानकर कि गुणों से बनी कर्मेंद्रियाँ ही उन्हीं से बने कर्मों में लगी हैं, उन कर्मों में लिपटते नहीं। 28।

प्रकृतेर्गुणसंमूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान् कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥ 29॥

(लेकिन) जो प्रकृति के गुणों की इन सभी बातों को कतई जानते ही नहीं, वे गुणों के कर्मों में खुद फँस जाते हैं। (इसीलिए) सारी बातों को पूर्ण रूप से न जान सकने वाले उन नादानों को सभी बातों का जानकर आदमी (हर्गिज) घपले में न डाले। 29।

हमने पहले गुणवाद के प्रकरण में इन तीनों गुणों के सभी पहलुओं पर पूर्ण प्रकाश डाला है। वहीं बताया है कि किस तरह गुण आपस में मिल के चलते और सभी कर्म करते-कराते हैं। इंद्रियों का भी विवरण अच्छी तरह दिखाया गया है कि कौन-सी इंद्रियाँ किस गुण से बनी हैं। इंद्रियों को और समूचे संसार को भी - इसीलिए कर्मों को भी - गुण क्यों कहते हैं यह भी बताया गया है। ऊपर के तीन (27-29) श्लोकों में यही बातें कही गई हैं। इसीलिए कर्मों और इंद्रियों को भी गुण कहा है और गुणों तथा कर्मों के बँटवारे या विभाग की भी बात इसीलिए कही गई है।

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्‍यात्मचेतसा।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा यु ध्य स्व विगतज्वर:॥30॥

(इसलिए तुम) आत्मज्ञान के बल से सभी कर्मों को मुझमें - भगवान में - अर्पण करके (और) सभी तरह की आसक्तियों एवं ममताओं से रहित हो के मस्ती के साथ लड़ो। 30।

यहाँ जो 'अध्‍यात्मचेतसा' दिया है, ठीक इसी तरह की बात 'चेतसा सर्व-कर्माणि' (18। 57) में आई है। गौर से देखने से मालूम होता है कि दोनों जगह एक ही बात कही गई है। मगर अठारहवें अध्‍याय वाले श्लोक के उत्तरार्द्ध में 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य' शब्द भी आया है। उससे पूर्व के (50-56) श्लोकों में ज्ञाननिष्ठा की ही बात आई है। सो भी सबसे ऊँचे दर्जे की - परा - ज्ञाननिष्ठा की बात। उसी के सिलसिले में छठे अध्‍याय के ध्‍यानयोग की ही तरह वहाँ भी ध्‍यानयोग का और उसके साधन-स्वरूप नियमित भोजन आदि का वर्णन आया है। इससे स्पष्ट हो जाता है समाधि वगैरह के द्वारा पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभव की बात वहाँ कही गई है। यही वजह है कि उसी समाधि की सिद्धि के लिए कर्मों का स्वरूपत: त्याग भी जरूरी हो जाता है। यह बात वहाँ भी आई है। मगर आत्मज्ञान होने के बाद भी शायद कर्मों के त्याग पर हठ होने लगे, इसीलिए यह कहने की जरूरत हुई है कि पीछे तो कर्मों के स्वरूपत: संन्यास की जरूरत नहीं होती। यों स्वयमेव छूट जाए यह बात दूसरी है। तो फिर होता है क्या? होता है यही कि तत्त्वज्ञान के फलस्वरूप कर्मों को अपने में, आत्मा में तो सटने देते नहीं - कर्म आत्मा में तो रहने पाते नहीं। वहाँ से तो निकाल बाहर कर दिए गए! फिर वे रहें कहाँ यह सवाल होने पर उत्तर मिलता है कि जहाँ सारी दुनिया रहती है। यह दुनिया तो भगवान में ही रहती है यह बात 'मयिसर्वमिदं प्रोतं' (7। 7), 'यो मां पश्यति सर्वत्र' (6। 30), 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19), 'यस्यान्त: स्थानि भूतानि' (8। 22), 'मत्स्थानि सर्वभूतानि' (9। 4) आदि में साफ ही कही गई है। इसीलिए 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' (5। 10) में भी कर्मों को ब्रह्म में ही स्थापित कर देने की बात कही गई है। वही बात यहाँ भी है। ज्ञानी यही समझता है कि मैं तो कुछ कर्त्ता-वर्त्ता नहीं। सृष्टि का काम चलता है तो चले। इसमें अड़ंगा डालने वाला मैं कौन? मैं ऐसा करूँ भी क्यों? जिसकी यह सृष्टि है वह जाने और उसका काम जाने। मुझे इसकी फिक्र कि ये मेरे कर्म कहाँ रहेंगे और क्या करेंगे? इन सभी वाहियात खुराफातों का भार मेरे ऊपर तो है नहीं। यही है तत्त्वज्ञानपूर्वक कर्मों का भगवान में अर्पण, निक्षेप, स्थापना या संन्यास।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यंते तेऽपि कर्मभि:॥31॥

जो मनुष्य हमारे इस सिद्धांत के अनुसार काम करने की बराबर कोशिश करेंगे और मेरी बातों में श्रद्धा रखने के साथ ही निंदा की जरा भी भावना न रखेंगे उनका भी कर्मों से छुटकारा होगा। 31।

इस श्लोक में यद्यपि 'अनुतिष्ठन्ति' शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि मेरे मत के अनुसार अनुष्ठान या काम करते हैं। फिर भी यह ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरार्द्ध में जो 'वे भी - तेऽपि' लिखा है उससे पता चलता है कि तत्त्वज्ञानियों के अलावे ये कोई दूसरे ही हैं। तत्त्वज्ञानियों के कर्मों से छुटकारे की बात तो पहले कही चुके। अब उसका कोई मौका हई नहीं। अब तो नई बात कहनी है। तत्त्वज्ञानियों के लिए श्रद्धा और निंदा न करने की बात भी नहीं आती। वे तो इन सभी बातों से बहुत दूर और ऊपर होते हैं। उनके नजदीक भी कर्म नहीं फटक पाता। फिर उससे छुटकारे का क्या सवाल? इसीलिए अनुष्ठान या काम करने की कोशिश करते हैं, यही अर्थ हमने किया है। यही उचित भी है। इसलिए नित्य या बराबर कहना भी ठीक होता है। क्योंकि बराबर कोशिश किए बिना सफलता नहीं मिलती है। ज्ञानी के लिए तो बराबर की बात हई नहीं। उसके लिए यह कहना बेकार है। उस कोशिश में ही श्रद्धा का होना और निंदा-बुद्धि का न होना भी सहायक होता है। इसीलिए जरूरी है। श्रद्धा एवं अनसूया का इतना ही अर्थ है कि ईमानदारी के साथ दिलोजान से यत्न किया जाए।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान् विद्धि नष्टानचेतस:॥32॥

विपरीत इसके जो लोग मेरे इस सिद्धांत की निंदा करते हुए इसके अनुष्ठान का यत्न नहीं करते, समझ लो कि उन्हें किसी बात की जरा भी जानकारी नहीं है। हैं वे निर्बुद्धि और चौपटानंद ही। 32।

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृते र्ज्ञा नवानपि।

प्रकृतिं यांति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥33।

ज्ञानी भी (तो) अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलता है। (क्योंकि) सभी को प्रकृति के अनुकूल ही चलना होता है। इसमें रोकथाम क्या करेगी? 33।

इस श्लोक और इसके बाद के दो श्लोकों को समझने के लिए एक तो इसके स्थान और प्रसंग को ठीक-ठीक जानना होगा। दूसरे पूर्व के पाँच (26-30) श्लोकों के अर्थ पर दृष्टि देना पड़ेगा। यह जानने में कुछ दिक्कत नहीं है कि इस श्लोक का असली स्थान 'मयि सर्वाणि' (3। 30) के बाद ही है। क्योंकि बीच के दो श्लोक यों ही प्रासंगिक हैं। कहीं लोग ऐसा न समझ लें कि कृष्ण किसी प्रकार अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए सारा प्रपंच रच रहे और आडंबर फैला रहे हैं, इसीलिए 'ये मे मतमिदं' आदि दो (31, 32) श्लोकों में यह कह दिया गया है कि यह सर्वोपयोगी ध्रुवसिद्धांत है जो सबों के लिए समान रूप से लागू है। अत: जोई इसके अनुसार चलें या चलने की कोशिश ईमानदारी से करें उन्हीं का कल्याण हो जाएगा। विपरीत इसके जो ऐसा न करेंगे वे चौपट भी जरूर हो जाएँगे। फलत: इन दो श्लोकों का कोई सैद्धांतिक महत्त्व नहीं है। ये यों ही उठी शंका या खामख्‍याली को दूर कर देते हैं। इसीलिए बीच में इनके आ जाने पर भी इनके बाद के 33वें श्लोक का संबंध इनके पहले के 30वें के साथ ही रहता है।

अब जरा पीछे वाले उन पाँचों के अर्थों पर गौर करें। उनमें यही कहा गया है कि नासमझ एवं सीधे-सादे लोगों के सामने ज्ञान कथन न सिर्फ बेकार है, बल्कि खतरनाक भी है। क्योंकि वे दुविधे में पड़ जाते हैं। उनकी बुद्धि ऐसे घपले में आ जाती है कि वे न तो घर के रहते और न घाट के। इतना ही नहीं। यदि समझदार और बड़े-बूढ़े लोग कर्म न करें तो वह देखा-देखी वैसा ही करते हैं। फलत: चौपट हो जाते हैं। ज्ञानियों और बड़े-बूढ़ों की भीतरी बातें वे क्या जानने गए? वे तो ऊपर से कर्मों का त्याग देख के खुद भी वैसा ही कर बैठे - कर बैठते हैं। इसीलिए ज्ञानियों के कर्मत्याग में यह बड़ा खतरा है। इसी से कृष्ण ने इसे रोका है और कहा है कि परमात्मा में ही कर्मों को छोड़ के ज्ञानी लोग उन्हें करते चलें। वे तो यह समझते ही हैं कि कर्म तो गुणों में हैं, प्रकृति के भीतर हैं, हममें तो हैं नहीं, हम तो उनसे बेलाग हैं।

ज्ञानी जनों के इसी खयाल के साथ कि हममें तो कर्म हैं नहीं, किंतु गुणों में ही हैं, यदि यह खयाल भी आ मिले, जो पीछे के सत्रहवें श्लोक में आ गया है कि मस्तराम को कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता; फलस्वरूप वे लोग - आमतौर से यदि यही मान बैठें कि जब कर्मों का ताल्लुक हमसे हई नहीं तो फिर हम करें ही क्यों? जब 'गुणागुणेषु वर्तन्ते' ही है तो फिर हम नाहक माथापच्ची क्यों करें? परेशानी क्यों उठाएँ? तो क्या होगा? नासमझ लोग तो प्रकृति के गुणों के बारे में निरे कोरे हैं, कुछ भी नहीं जानते। इसलिए वे भले ही कर्मों में चिपटें उनके लिए कर्म ठीक भी हैं। मगर हम ज्ञानीजन उनमें क्यों मरे-पिचें? हमें तो अपनी बात पहले देखनी है, पीछे दूसरों की, यदि यह खयाल पक्का हो जाए तो कर्म छूटी जाएँगे। कम से कम कर्मों के लिए एक भारी खतरा तो खड़ा हो ही जाएगा और सारा उपदेश बेकार जाएगा। बस, इसी का उत्तर आगे के श्लोक देते हैं।

ये श्लोक तीन बातें कहते हैं। श्लोक भी तीन ही हैं। इसीलिए क्रमश: तीनों की एक-एक बातें हैं। पहला - 33वाँ - तो इतना ही कहता है कि मस्तराम को देख के दूसरे ज्ञानी कैसे हाथ-पाँव रोक देंगे, यदि वे चाहें भी? प्रकृति के गुणों की जो बात उनके बारे में कही जाती है उसकी आधी ही बात क्यों ली जाए और पूरी क्यों नहीं? एक तो मस्तराम की प्रकृति निराली और शेष ज्ञानी जनों की दूसरी ठहरी। प्रकृति के मानी तो यहाँ शरीर, इंद्रिय, अंत:करणादि होंगे न? प्रकृति का कोई दूसरा रूप तो होगा नहीं, जब हर आदमी के प्रति उसका विचार किया जाएगा। ऐसी दशा में मस्तराम के मन आदि दूसरे और शेष जनों के निराले ही ठहरे। और अगर मस्तराम के मन आदि कर्मों से हट भी जाए या कर्म ही पके फल की तरह उनसे हट जाए, तो इसका दूसरे के मन, इंद्रियादि से क्या संबंध? दूसरे के मन, इंद्रिय आदि क्यों हटेंगे? वे तो दूसरे हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के ही अनुसार सभी चलते हैं। दूसरी बात यह भी है कि प्रकृति के गुणों की जैसी यह बात है कि कर्मों का ताल्लुक उन्हीं से है, न कि आत्मा से; ठीक वैसी यह बात भी तो है कि गुण कर्मों को कभी छोड़ नहीं सकते; मजबूरन कर्म करना ही पड़ता है - 'कार्यतेह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:' (3। 5)? फिर यदि कोई भी ज्ञानी जन जबर्दस्ती हाथ-पाँव रोक के कर्म से हटना चाहेंगे तो यह कैसे होगा? उनकी यह रोकथाम क्या कुछ भी कर सकेगी? वह तो महज बेकार साबित होगी।

तब फौरन यह प्रश्न उठता है कि यदि हाथ-पाँव आदि इंद्रियों की रोकथाम हो ही नहीं सकती, जब रोकथाम बेकार है, क्योंकि वह कुछ भी कर सकती ही नहीं, तो ज्ञानेंद्रियों की रोकथाम भी कैसे संभव है? आखिर सभी इंद्रियाँ तो गुणों से ही बनी हैं न? और जब प्रकृति या उसके गुणों पर ही कब्जा नहीं है, तो फिर इंद्रियों पर कैसे होगा, चाहे ज्ञानेंद्रियाँ हों या कर्मेंद्रियाँ, ऐसी हालत में इंद्रियों के निग्रह, रोकथाम या नियमन का सवाल ही बेकार हो जाता है। और अगर यही बात मान लें, तो 'इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:' (2। 58), 'तानि सर्वाणि संयम्य' (2। 61) तथा 'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि' (2। 68) में इंद्रियों के निग्रह पर जो सबसे ज्यादा जोर दिया गया है और जो स्थितप्रज्ञ और योगी के लिए बुनियादी एवं मौलिक वस्तु माना गया है वह कैसे ठीक होगा? यही नहीं। इंद्रियनिग्रह तो अध्‍यात्मशास्त्र और योग की सबसे मुख्य बात मानी जाती है और वही अब झूठी साबित होती है।

इसका उत्तर बादवाला श्लोक यों देता है। आखिर शरीरयात्रा के लिए इंद्रियों की क्रिया जरूरी है और ज्ञान या विवेक के भी लिए। हाँ, इनके विषयों के साथ जो रागद्वेष हैं उन पर जरूर ही नियंत्रण चाहिए - राग और द्वेष को ही खत्म करना चाहिए। यह बात बराबर संभव भी है। प्रकृति के ही गुणों में सत्त्व ऐसा है कि यदि उसकी प्रगति हो, पूर्ण विकास हो तो रागद्वेष को मिटा दे और हमें उनके चंगुल में कभी फँसने न दे। वह खतरे से पहले ही आगाह जो कर देता है।

इसीलिए अर्जुन ने शुरू में ही जो कहा था कि मुझे यदि कर्म में भी लगाते हो, तो लगाओ, मगर हिंसात्मक युद्ध में क्यों खामख्वाह धकेलते हैं, उसका भी उत्तर हो जाता है। बाद का 35वाँ श्लोक यही उत्तर देता है कि यद्यपि युद्ध हिंसात्मक है, तो भी क्षत्रिय के लिए और खासकर अर्जुन के लिए तो वह स्वधर्म है, उसका निजी कर्तव्य है। अठारहवें अध्‍याय में तो साफ ही कहा है कि युद्ध क्षत्रिय का स्वाभाविक धर्म है, 'क्षात्रं कर्म स्वभावजम्' (18। 43) इसलिए 'स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत:' (18। 45) तथा 'स्वभावनियतं कर्म' (18। 47) में स्पष्ट कह दिया है कि ऐसे स्वधर्मों एवं स्वाभाविक कर्मों के करने में पाप और बुराई का तो सवाल ही नहीं। प्रत्युत इन्हीं से कल्याण होता है। 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं' (4। 13) का भी यही आशय है। प्रकृति कहिए, या स्वभाव कहिए। बात तो एक ही है। अर्जुन को यही कहा गया है कि स्वधर्म को छोड़ परधर्म में जाना खतरनाक है। वह तो 'देशी मुर्गी बिलायती बोल' वाली बात हो जाएगी। फिर तो ऐसा करने वाले कहीं के न रह जाएँगे।

इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्‍तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥34॥

प्रत्येक इंद्रिय के विषय के साथ राग और द्वेष नियमित रूप से लगे हैं। इसलिए उनके वश में कभी न जाए। क्योंकि इस आत्मा के बटमार और लुटेरे वही दोनों हैं। 34।

श्रे यान्स्वधर्मो त्रिगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥35॥

दूसरे के बहुत अच्छी तरह पूरे किए गए धर्म की अपेक्षा अपना धर्म (देखने में) खराब या अधूरा रहने पर भी कहीं अच्छा है। (इसलिए) अपने धर्म के पीछे मर-मिटना ही अच्छा है। दूसरे का धर्म तो खतरनाक है। 35।

लेकिन यह तो आमतौर से देखा जाता है कि लोग गलत रास्ते पर जाते हैं और अपना कर्तव्य पालन नहीं करते। युद्ध की निंदा करना और इसे बुरा ठहराना यह आम बात है। लोग इससे हिचकते और भागते भी हैं - वही लोग जिनका यह स्वधर्म है। सभी बातों में यही देखा जाता है कि आमतौर से लोग पाप या कुकर्म की ही ओर झुकते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि नाहक की मारकाट, निर्दयता, दुराचार-व्यभिचार मिथ्या भाषण आदि ही स्वाभाविक तथा प्राकृतिक चीजें हैं। जैसे चटाई के किनारे को पकड़ के मोड़ने में ऐसा होता है कि जब तक दबाव रहता है तभी तक मुड़ी रहती है और ज्योंही दबाव हटा कि ज्यों की त्यों हुई। ठीक वैसे ही मन और इंद्रियों पर जब तक दबाव है, कुकर्म से बचती हैं। मगर ज्योंही दबाव हटा कि फिर वही पाप और कुकर्म। कुत्ते की पूँछ की-सी हालत है। जब तक दबाओ तभी तक सीधी रहती है, नहीं तो फिर टेढ़ी की टेढ़ी । जैसा उसका टेढ़ापन या चटाई का सीधापन स्वाभाविक है, वैसे ही, मालूम पड़ता है, बुराई ही इंद्रियों का स्वभाव है। इसी से देखते हैं कि युग-युगांतर से ऋषि-मुनि, अवतार, पीर-पैगंबर और औलिया हजारों और लाखों हुए। उनने उपदेश भी दिया। मगर संसार में उसी असत्य, उसी व्यभिचार, उसी निर्दयता आदि का ही बोलबाला है! मानो कुछ हुआ ही नहीं! गोया यही असली एवं अकृत्रिम बातें हैं और सत्य आदि ही कृत्रिम हैं! यहीं नहीं; बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कभी न कभी इनमें फँसी गए हैं! जब समाज के लिए सत्य आदि ही आवश्यक हैं और ठीक भी हैं और जब प्राकृतिक धर्मों का ही करना जरूरी है, उन्हीं को करना ही चाहिए, तो यह उलटी बात क्यों होती है, यही बड़ी-सी पहेली अर्जुन के सामने खड़ी है। इसीलिए -

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥36॥

अर्जुन ने पूछा - हे वार्ष्णेय, भला (बताइए तो सही कि) हजार न चाहने पर भी यह मनुष्य बुरा कर्म किसके दबाव से - क्यों - कर डालता है? मालूम पड़ता है, जैसे किसी ने जबर्दस्ती करवाया हो! 36।

इसीलिए दुर्योधन के बारे में कहा जाता है कि उसने कहा था कि, यह जानते हुए भी कि पांडवों का हक देना उचित है, मैं दे नहीं सकता। साथ ही, द्रौपदी आदि के साथ वाले दुर्व्यवहार को बुरा समझते हुए भी मैं उससे बाज नहीं आ सकता। मालूम पड़ता है, कोई बड़ी भारी शक्ति भीतर बैठी जबर्दस्ती करवा रही है - 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:। केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि'। क्या चोर नहीं समझता कि चोरी बुरी है? क्या व्यभिचारी नहीं समझता कि यह काम खराब है? फिर भी सभी वही करते ही हैं! प्रश्न होता है कि नहीं चाहते हुए भी करने का रहस्य क्या है?

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥37॥

श्रीभगवान ने उत्तर दिया - यह काम - राग - है और यही क्रोध - द्वेष - भी है। इसकी उत्पत्ति रजोगुण से होती है। इसका पेट कभी भरता ही नहीं। यह पुराना पापी है। इस दुनिया में इसी को बैरी समझो। 37।

धूमेनाव्रियते व ह्नि र्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥38॥

जैसे धुएँ से आग छिपी रहती है, जिस तरह मैल से आईना छिपा होता है, (या) जिस प्रकार गर्भ की झिल्ली में बच्चा छिपा रहता है, उसी तरह उस काम ने इस (ज्ञान) को छिपा दिया है। 38।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौंतेय दुष्पूरेणानलेन च॥39॥

ज्ञानियों के सदा के इस शत्रु ने, जिसे काम कहते हैं, जो कभी पूरा होता ही नहीं और जिसका अंत भी नहीं होता या जो आग की तरह भीतर ही भीतर जलाता रहता है, ज्ञान को छिपा रखा है। 39।

इंद्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥40॥

इंद्रियाँ, मन और बुद्धि (यही तीन) इसके अड्डे हैं। इन्हीं के द्वारा ज्ञान या भले-बुरे के विवेक पर परदा डाल के यह काम आत्मा को भटका देता है - किंकर्तव्यविमूढ़ कर देता है। 40।

तस्मा त्त्व मिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥41॥

इसलिए हे भरतश्रेष्ठ, पहले तुम इंद्रियों को ही नियंत्रण में ला के ज्ञान और विज्ञान को चौपट करने वाले इस बदमाश को जड़ से जरूर खत्म करो। 41।

इंद्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परस्ततु स:॥42॥

(और पदार्थों की अपेक्षा) इंद्रियाँ ऊँची या बड़ी हैं, इंद्रियों से भी बड़ा मन है, मन से ऊपर बुद्धि है और जो बुद्धि के भी ऊपर है वही वह (आत्मा है)। 42।

एवं बुद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥43॥

हे महाबाहो, बुद्धि के भी ऊपर रहने वाली आत्मा को इस प्रकार जानकर और स्वयमेव मन को रोक के, वश में करके बड़ी दिक्कत से पकड़े जाने वाले कामरूपी इस शत्रु को खत्म करो। 43।

यहाँ दो-एक जरूरी बातें जाने बिना अंत के चार-पाँच श्लोकों के अर्थ समझने में दिक्कत होगी। इसीलिए वे बातें कह देना जरूरी हैं। यह तो दूसरे अध्‍याय में ही कह चुके हैं कि काम और क्रोध एक ही चीजें हैं। उसी की सफाई यहाँ की गई है। सोलहवें अध्‍याय के अंत में इन्हीं दो के साथ लोभ भी जुट गया है 'काम:क्रोधस्तथा लोभ:' (16। 21)। जिस तरह काम और क्रोध एक हैं, उसी तरह लोभ भी काम से भिन्न नहीं है। असल में इस काम, कामना, वासना या इच्छा के ही ये क्रोध और लोभ दो रूप हैं, जो परिस्थितिवश बन जाते हैं - काम को ही क्रोध के रूप में और लोभ के रूप में परिणत हो जाना पड़ता है। जिसे कामना नहीं उसे क्रोध और लोभ से भी कोई ताल्लुक नहीं है। क्रोध से कैसे भीतर अंधकार हो जाता है यह 'क्रोधाद्भवति सम्मोह:' के अर्थ में स्पष्ट दिखा चुके हैं। उसी को आवरण या पर्दे के रूप में यहाँ कहा है।

यह काम ही विवेकी जनों का असल शत्रु है। इसका नाश इसीलिए जरूरी है। मगर इसके अड्डे का पता चले तब न इस पर धावा बोलें? इसलिए इंद्रिय, मन और बुद्धि इन तीनों को ही इसका अड्डा बता दिया है। यह रहता तो है दरअसल अंत:करण में और उसी के रूप हैं मन और बुद्धि। मगर इंद्रियों के बिना बाहर तो मन या बुद्धि जा नहीं सकती और बाहरी पदार्थों में ही रागद्वेष होते हैं। बाहरी से तात्पर्य है भौतिक पदार्थों से। इसीलिए इंद्रियों को भी अड्डा करार दिया है। बुद्धि यदि ठीक हो, विवेकयुक्त हो तो भी काम रहेई न। इसीलिए उसे भी इसका डेरा कहा है। यों तो असली डेरा मन ही है। इस प्रकार तीन अड्डे हो गए। लिखा है भी कि इन तीनों की मदद से ही देह के मालिक - देही - आत्मा को यह काम भटका देता है।

अब रहा इसे खत्म करने का उपाय। असली बला तो इंद्रियाँ ही हैं। न वे बाहर मनीराम को जाने देंगी और न कामना होगी। इसलिए यह तो आसानी से जाना जा सकता है कि इस तरफ पहला कदम जो बढ़ेगा वह इंद्रियों पर नियंत्रण, अंकुश या कब्जा रखने से ही शुरू होगा। इसीलिए कह दिया है कि इंद्रियों को सबसे पहले बिना सोचे-विचारे ही आँख मूँद के कब्जे में करो। उसके बाद आगे का उपाय सोचो। ऐसा कहने का यह अर्थ कभी नहीं है कि सिर्फ इंद्रियों को रोक कर ही इसे खत्म करेंगे। तब तो आगे के श्लोकों में कही बातें बेकार हो जाएँगी। केवल इंद्रियों के रोकने से यह मर भी नहीं सकता। इसके दूसरे भी तो अड्डे हैं और वही असली हैं - बुनियादी हैं। बिना मन और बुद्धि को वश में किए इंद्रियाँ सोलह आने वश में हो भी नहीं सकती हैं। इसीलिए हमने कहा है कि उनका रोकना नींव या श्रीगणेशायनम: ही समझिए।

असली उपाय यह बताया है कि इंद्रियाँ शरीर और अन्य पदार्थों से बड़ी या उनके ऊपर हैं। वही शरीर को दौड़ाती रहती हैं। सिनेमा, गान, भोज में खींच ले जाती हैं। यद्यपि विषय इंद्रियों को भी खींचते हैं। तथापि उन्हें यहाँ छोड़ दिया है। क्योंकि अड्डों को ही पकड़ना था। इंद्रियों के ऊपर है मन और मन के ऊपर बुद्धि। आत्मा तो सभी का मालिक है। देह में ही ये सब हैं और देही वही है। यह बात पहले अच्छी तरह समझाई जा चुकी है। अब काम यों होता है कि पहले आत्मा का तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं। फिर बुद्धि से उसके आनंद का अनुभव करते हैं। इस तरह बुद्धि को उसमें फँसा देने पर - क्योंकि वह आनंद हई ऐसा कि एक बार मजा आने पर बुद्धि वहाँ से हट सकती ही नहीं - मन भी उधर ही खिंचेगा। कोचवान के ही हाथ में लगाम होती है न? और मन है लगाम और बुद्धि कोचवान। फिर तो इंद्रियाँ भी खिंच गईं और बाहरी पदार्थों में न जा के आत्मा में ही लग गईं। तब काम महाराज रहेंगे कहाँ? कुछ समय इंतजार करके हमेशा के लिए उन्हें आत्महत्या करनी पड़ती है जब पूर्ण निराश हो जाते हैं। फलत: ज्ञान और विज्ञान का ही बोलबाला रहता है। इन दोनों का अर्थ बताया जा चुका है।

इंद्रिय और मन आदि को जो एक दूसरे के ऊपर कहा है यही...विषय, महान और अव्यक्त को जोड़ के कठोपनिषद् में भी दो बार यों आई है, 'इंद्रियेभ्य: परा ह्यर्था ह्यर्थेभ्यश्च परं मन:। मनसस्तु परबुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:'।10। 'महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: । पुरुषान्नपरं किंचित्सा काष्ठा सा परागति:' 11। (1।3), तथा 'इंद्रियेभ्य: परं मनो मनस: सत्त्वमुत्तम्। सत्त्वादधिमहानात्मामह तोऽव्यक्तमुत्तमम्। 7। अव्यक्तात्तु पर: पुरुषो व्यापकोऽलिंगएव! यज्ज्ञात्वामुच्यते जंतुरमृतत्त्वं च गच्छति'। 8। (2। 6)। यहाँ सत्त्व का अर्थ है बुद्धि और महान आत्मा का अर्थ है महत या महतत्त्व। अव्यक्त नाम है प्रकृति का। क्रम तो यही है। मगर गीता को इस विस्तार से कोई काम नहीं है। वह तो बुद्धि को ही आत्मा में लगा के मन और इंद्रियों को अपनी ही ओर खींच लेना और इस तरह काम, राग या अभिलाषा को मार डालना चाहती है। उसने यही बताया भी है।

आखिरी श्लोक जो में दुरासद शब्द है उसका अर्थ है बड़ी कठिनाई से पकड़ा जाने वाला। असल में इस राग या काम के इतने स्थूल, सूक्ष्म और विभिन्न रूप हैं कि जल्द उनका पता लगना असंभव है। काम की हालत भी यह है कि धोखा दे के फँसा लेता है और पता ही नहीं चलता है कि फँस गए हैं। भक्ति और उपासना के नाम पर जानें कितने ही प्रपंच रचे जाते हैं जो पतन के ही मार्ग हैं। मगर पता ही नहीं लगता और लोग उनमें फँस जाते हैं; इसीलिए इसे दुरासद कहा है ताकि लोग सजग रहें।

इस अध्‍याय में साधारण से साधारण कर्मों से ही शुरू किया है और अंत तक उसी की बात कहते आए हैं। मामूली से मामूली कर्मों से लेकर ऊँचे से ऊँचे या कर्मयोग तक का वर्णन इसमें आ गया है। 'मयि सर्वाणि' (3। 30) में आखिर है क्या यदि कर्मयोग नहीं है? इसलिए समूचे अध्‍याय पर कर्म की ही छाप लगी है। यही कारण है कि ज्ञान की जो बात आई है वह गौण या अप्रधान है। वह या तो उसी का साधन है या मस्ती का ही; जैसा कि 'यस्त्वात्मरति:' (3। 17) में कहा है। फलत: कर्म की प्रधानता के कारण इस अध्‍याय का विषय कर्म ही है। जैसे दूसरे अध्‍याय का विषय सांख्य या ज्ञान है। ज्ञान से ही शुरू करके बीच में और अंत में भी उसी का वर्णन है। कर्म तो बीच में ही आया है, सो भी अप्रधान रूप से ही।

इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्‍याय:॥3॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका कर्मयोग नामक तीसरा अध्‍याय यही है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

चौथा अध्‍याय

अब तक कृष्ण ने जो उपदेश अर्जुन को दिया है उससे उसकी आँखों का परदा हट गया और उसे नई दुनिया दीख पड़ी। उसने तो कुछ दूसरा ही समझ रखा था। लेकिन इन दो अध्‍यायों के उपदेशों के बाद पाया कुछ और ही। दूसरे अध्‍याय के उपदेशों के उपरांत अर्जुन के दिमाग की सफाई हो पाई न थी। क्योंकि उसके सामने तो असली मसला था युद्ध का। यों तो सारे कर्मों की ही समस्या उसे सुलझानी थी। कारण, उसकी तर्क-दलील ने इनके पुराने आधारों और दुर्गों को ही ध्‍वंस कर दिया था। धर्मशास्‍त्रीय विधान उसके सामने लापता थे - पस्त थे। तो भी उसका असली संकट था मरने-मारने वाला यह जघन्य कृत्य जिसे युद्ध कहते हैं। सामने तत्काल वही था भी। उसी को ले के उसे इतना बड़ा विराग भी हुआ था और स्वतंत्र बुद्धि से उसने सारे विधानों को तौल के उन्हें कच्चा तथा नाकाफी ठहराया था। इसीलिए तीसरे अध्‍याय के शुरू में ही उसने अपना मनोभाव साफ व्यक्त कर दिया था कि खैर एक तो कर्म ही बुरे और तुच्छ हैं। फिर उनमें भी यह घोर कर्म! मुझे इसमें फँसाने का क्या काम है यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है, यह उसने साफ कह दिया था। अब तक ज्ञानमार्ग की खूबियाँ वह जान सका था जरूर। मगर कर्मों की पेचीदगी उसे विदित हो सकी न थी। यह समस्या अभी उलझी हुई थी।

मगर कृष्ण ने तीसरे अध्‍याय में जो कुछ भी कहा उससे सारी बातें आईने की तरह झलक उठीं। अब उसके मन में शक-शुभे की जरा भी गुंजाइश रही नहीं गई थी। अगर कहें तो कह सकते हैं कि एक प्रकार से गीता का काम इतने से ही पूरा हो जाता है। असली और मुख्य जो दो बातें गीता की हैं वे इन्हीं दोनों में आ गई हैं। यह ठीक है कि इनके कुछ पहलू छूटे हैं और उन्हीं का निरूपण आगे के 4, 5, 6, अध्‍यायों में हो जाने पर शेष गीता में इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण करके 18वें में उपसंहार किया है। इस दृष्टि से तीसरे अध्‍याय के अंत में ज्ञान-विज्ञान का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। उससे पता चलता है कि जिस ज्ञान और विज्ञान की बात आगे पुनरपि सातवें अध्‍याय में शुरू होती है और नवें में फिर जिसका जिक्र करते हैं वही गीता की असल चीज है। उसके वर्णन दूसरे और तीसरे अध्‍यायों में मुख्यतया आ भी चुके हैं। हाँ, जो कुछ उनके खास पहलू बचे थे उन्हीं का आगे छठे अध्‍याय तक निरूपण है, विवेचन है।

हाँ, तो पिछले अध्‍यायों के उपदेशों से अर्जुन को कुछ खास बातें भी मालूम हो गईं जिनका उसे स्वप्न में भी खयाल न था। आत्मा की अजरता, अमरता और अविनाशिता का जो सुंदर से सुंदर वर्णन हुआ है और मरण-जीवन को जिस अपूर्व ढंग से बताया गया है कि दरअसल ये क्या हैं, उनने उसकी आँखें खोल दीं। उसने एक नई दुनिया ही सचमुच देखी जिसकी कभी आशा भी न थी। मगर इससे भी निरालापन तीसरे अध्‍याय में और दूसरे के मध्‍य में भी उसने कर्म के बारे में पाया। जानें कहाँ की अलौकिक बातें और खूबियाँ मालूम हुईं। खासकर कर्म का जो सर्वांग रहस्य उसके सामने पूरे ब्योरे के साथ आ गया उसका तो उसे सारे पोथी-पुराणों और वैदिक ग्रंथों के मंथन से भी आभास तक न मिल सका था। इस मामूली से कर्म के भीतर इतनी बारीकियाँ छिपी हैं यह जान के स्वभावत: वह आश्चर्यचकित-सा हो रहा है यह बात कृष्ण भी ताड़ गए थे। वह सोचता था कि इसमें अभी जानें और कितनी बातें होंगी। मगर उसे ताज्जुब था कि इतनी महत्त्वपूर्ण बातें लोगों को अब तक मालूम क्यों न थीं? यदि किसी एक को भी मालूम होतीं तो वह जरूर ही कह-सुन गया होता, लिख-पढ़ गया होता। हो न हो, यह एकदम नई बातें कृष्ण के ही अलौकिक मस्तिष्क की उपज हैं - बिलकुल ही ताजी और नई हैं!

इससे जहाँ एक ओर उसे गर्व और फर्क हो सकता था कि भगवान ने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की जो सारा रहस्य समझाया, अत: मैं धन्य हूँ। तहाँ दूसरी ओर इस बात की भी गुंजाइश थी कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि केवल युद्ध में जुझाने के ही लिए नई-नई युक्तियाँ, जो आज तक देखी-सुनी भी न गईं, पेश की जा रही हैं। जब इस तरह की बातें कहिए-सुनिए तो आमतौर से ऐसे खयाल अकसर हुआ करते हैं कि देखो न, कितना गुरुघंटाल है कि युक्तियों के नए जाल में फँस के अपना काम निकाल लेना चाहता है! यह भी बात है कि यदि धर्म-कर्म के मामले में लोगों को यह पता लग जाए कि एकदम नई बात कही जाती है जो पहले कभी


आई न थी और प्रचलित धारणा या रीति-रिवाज के खिलाफ है, तो लोग एकाएक भड़क उठते हैं। यह चीज हमेशा ही देखी गई है। इसलिए कृष्ण के इस अनूठे उपदेश में भी इसकी संभावना थी और काफी थी। कृष्ण जैसे विज्ञ महापुरुष को इसे ताड़ते देर भी नहीं लग सकती थी। यदि इससे बचने के लिए यह कहा जाता कि नहीं-नहीं, यह तो पुरानी बात है, प्राचीनतम है, जिसे कृष्ण ने फिर दुहराया है, तो शंका हो सकती थी कि उन्हें यह मालूम कैसे हो सकी? जब साधारणत: इसका उपदेश होता-जाता ही नहीं और न चर्चा ही सुनी जाती है जब यह लापता है, तो एकाएक कृष्ण को मालूम कैसे हो गई? यह भी तो दिमाग में आ सकने वाली बात नहीं है कि उन्हें यों ही विदित हो गई।

पूर्ण व्यवहारकुशल होने के नाते, और अर्जुन की भावभंगी को देखकर भी, कृष्ण के मन में स्वयमेव ये सारे खयाल आ जाने जरूरी थे। आ गए भी। इसी लिए उनने अर्जुन को प्रश्न करने का मौका तक नहीं देकर स्वयमेव चौथे अध्‍याय के आरंभ के दस श्लोकों में इस बात का पूरा खुलासा कर दिया। असल में प्रश्न के उत्तर देने पर वह मजा नहीं आता जो बिना पूछे ही अपने मन से ही ताड़ के उत्तर देने में आता है। इससे एक तो सुनने वाला बाग़-बाग़ हो जाता है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता कि जो विचार उसे खटक रहे थे उनकी पूरी सफाई हो गई। इसी के साथ इससे उपदेशक की पहुँच और पूर्ण योग्यता पर भी उसे विश्वास हो जाता है। यह भी होता है कि सुनने वाले के मन में खयाल न भी उठें। ऐसी दशा में इनका उत्तर तत्काल न दिए जाने पर आगे चल के यही प्रश्न उठ सकते और विषय को कम से कम किरकिरा तो जरूर बना दे सकते हैं। क्योंकि बहुत संभव है कि उस उपदेशक के न रहने पर दूसरे लोग सारी बातों का रहस्य पूर्णतया हृदयंगम न कर सकने के कारण उन खयालों और प्रश्नों के यथार्थ और दिल में बैठ जाने वाले उत्तर न दे सकें । इसीलिए बिना कहे सुने ही -

श्रीभगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥1॥

श्री भगवान ने कहा - मैंने (खुद) विवस्वान - सूर्य - को (सृष्टि के आरंभ काल में ही) इस चिरस्थाई योग का उपदेश दिया था। (उसके बाद कालांतर में) विवस्वान ने मनु को (इसे) बताया था और मनु ने इक्ष्वाकु को। 1।

एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।

स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप॥2॥

हे परंतप, इस प्रकार परंपरा - गुरुशिष्य प्रणाली - से चले आने वाले इस योग को राजर्षि लोग (जरूर) जानते थे। (मगर) वही योग दरम्यानवाले वाले लंबे समय के चलते यहाँ लापता हो गया था। 2।

स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥3॥

यह वही प्राचीन योग है जिसे आज मैंने तुमसे कहा है। (क्योंकि) तुम मेरे साथी और भक्त (दोनों ही) हो (और) यह भी अत्यंत गोपनीय चीज है। 3।

यहाँ दो एक जरूरी बातें जान के आगे बढ़ें तो ठीक हो। आज तो कुछ इतना साफ पता चलता नहीं कि बात क्या है। मगर स्मृति-ग्रंथों एवं इतिहास-पुराणों को देखने से यही पता लगता है कि भगवान ने जो भी सृष्टि की वह आदित्य, सूर्य या विवस्वान से ही शुरू हुई। उनने विवस्वान को बनाया, उत्पन्न किया। विवस्वान में मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को। उसके बाद आगे का विस्तार चला। इतना तो सही है, जिसे पहले के लोग भी मानते थे और आज का विज्ञान भी मानता है, कि सूर्य अपार शक्तियों का केंद्र है। वैदिक मंत्रों में इसका बहुत कीर्त्तन आता है। गायत्री मंत्र, जो हिंदुओं का प्रतिदिन जपने का सर्वप्रधान मंत्र है, सविता या सृष्टि के विस्तार करने वाले के रूप में ही सूर्य का ध्‍यान करने की बात कहता है। सूर्य से कैसे जीवसृष्टि का विकास हुआ यह बात यहाँ कहने की है नहीं। हमें तो गीता की परंपरा से ही मतलब है।

यह भी रिवाज पहले था कि अपने पुत्रों को पिता ही आवश्यक एवं गोपनीय बातें बता दिया करता था। इसीलिए पिता-पुत्र का ही नाता गुरु-शिष्य का भी हो जाता था। हाँ, जब किसी कारण से पिता उपदेश न कर सके, या वह ऐसी बातें न जानता हो जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण और आवश्यक हैं तभी दूसरे गुरु से वह सीखी जाती थीं। बस, यही गुरु-शिष्य की प्रणाली पहले थी जिसे परंपरा शब्द से यहाँ याद किया है। इसे परंपरा ही कहते भी हैं। इस प्रकार अपने-अपने पुत्रों को ही जब लोग उपदेश करते थे तो इसी नियम के अनुसार भगवान ने अपने पुत्र विवस्वान को, विवस्वान ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को उपदेश किया था। इस प्रकार अन्यान्य उपदेशों के साथ ही गीतोक्त इस गीताधर्म या योग का भी उपदेश सृष्टि के आरंभ में ही हुआ था। महाभारत के शांतिपर्व के 346, 347, 348 आदि अध्‍यायों में इस बात का विशेष वर्णन पाया जाता है कि प्रत्येक सृष्टि के शुरू में किस तरह ऐसी बातों की परंपरा चलती है। वहीं लिखा है कि सत्ययुग में भगवान ने विवस्वान को इसे बताया था। 'उनने उसके बाद त्रेतायुग के शुरू में ही मनु को बताया, मनु ने लोगों के कल्याण तथा फलने-फूलने के ही उद्देश्य से अपने पुत्र इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने बहुत लोगों को बताया। इस तरह सभी लोगों की जानकारी में आ जाने के कारण यह धर्म कायम रहा। मगर प्रलय होने पर फिर यह चीज नारायण के ही पास वापस चली जाएगी' - "त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ। मनुश्चलोकभृत्यार्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ। 59। इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थित:। गमिष्यति क्षयान्ते च पुनर्नारायणं नृप। 52।" यह जान लेना होगा कि यह बात किसी एक ही या खास धर्म के ही लिए नहीं है। प्रसंगवश किसी एक के कहने पर भी प्राचीन ग्रंथों से यही सिद्ध होता है कि सभी आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण बातें इसी परंपरा के अनुसार प्रचलित हुईं। उन्हीं में यह गीता का योग भी एक है। हिंदुओं के दार्शनिक ग्रंथों तक में यह मिलता है कि समाजोपयोगी सभी कलाओं का - यहाँ तक कि बरतन, वस्त्रादि बनाने का भी - इसी प्रकार उपदेश किया गया। इसीलिए पंतजलि ने योगदर्शन में लिखा है कि भगवान ही सबों का गुरु है - गुरुओं का भी गुरु है - 'पूर्वेषामपि गुरु: कालेनान-वच्छेदान्' (1। 26)

दूसरे श्लोक में जो लिखा है कि राजर्षि लोग इसे जानते थे - 'इमं राजर्षयो विदु:,' यह भी एक निराली चीज है। गीता में लोक-संग्रह के दृष्टांत के रूप में कृष्ण ने अपना और जनक का नाम कहा है। खुद तो क्षत्रिय कुल में जनमे थे ही। जनक भी ऐसे ही थे। उपनिषदों में भी जानश्रुति पौत्रायण, प्रवाहण, प्रतर्दन आदि क्षत्रियों का ही विशेष उल्लेख ऐसे मामलों में पाया जाता है। प्रवाहण को तो साफ ही राजन्यबंधु लिखा है। यहाँ तक कि पंचाग्निविद्या के प्रकरण में छांदोग्य (5। 3। 7) तथा बृहदारण्यक (6। 2। 8) दोनों ही उपनिषदों में साफ ही लिखा है कि जब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से साफ ही कह दिया कि प्रवाहण के पंचाग्नि-विद्या-संबंधी प्रश्नों का उत्तर मैं भी नहीं दे सकता; क्योंकि मैं भी यह जानता ही नहीं, और इसके बाद जब दोनों बाप-बेटों ने प्रवाहण के पास जा के साफ ही कह दिया कि हम तो क्या हमारे बाप-दादे तक भी इसे नहीं जानते थे, इसलिए आप ही बताइए, तो उसे पहले तो बड़ा ताज्जुब और संकोच हुआ। फिर उसने कहा कि यदि ऐसा है तब क्या करूँगा, बताऊँगा जरूर ही, 'यथा मात्वं गौतमावदो यथेयं न प्राक्त्वत्त: पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति' (छां. 5। 3। 7), 'सहोवाच यथा नस्त्वं गौतम मापराधास्तव च पितामहा यथेयं विद्येत: पूर्व न कस्मिंश्चन ब्राह्मण उवास' (वृह. 6। 2। 8)। इतना ही नहीं, वहाँ तो यह भी लिखा है कि कोई भी ब्राह्मण यह विद्या तब तक जानता ही न था। छांदोग्य में यह भी लिख दिया है कि शासनकार्य क्षत्रिय ही करते थे और उन्हीं को इसकी खास जरूरत भी होती थी। इसीलिए ही शायद दूसरे जान न सके। किंतु वही लोग जानते थे - 'तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रियस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मैहोवाच' (5। 3। 7) जो भी हो, बात बड़ी मजेदार है। यह ब्राह्मणों के इस दावे पर आघात भी करती है कि विद्या उन्हीं की चीज है और वही दूसरों को सिखाते हैं, सिखा सकते हैं। परंतु हमें यहाँ केवल इतना ही कहना है कि विद्वान क्षत्रिय राजे ही राजर्षि कहे जाते थे। वही इस योग को भी जानते थे। जनक के बारे में तो आख्यायिका ही है कि शुकदेव आदि महापुरुष उन्हीं से ब्रह्मविद्या सीखने गए थे।

कृष्ण के कहने का तात्पर्य यही है कि इस लंबी मुद्दत में, जिसमें कि त्रेतायुग का अधिकांश और प्राय: सारा द्वापर गुजरा, कोई इस योग का सिखाने-पढ़ाने वाला रही नहीं गया। इसीलिए धीरे-धीरे लोग इसे भूल गए। जब परंपरा या पठन-पाठन की प्रणाली चालू रहे तभी ऐसी बातें प्रचलित रहती हैं। जब वही न रही तो इनका मिट जाना या लुप्त हो जाना स्वाभाविक ही है। महाभारत वाले युद्ध का समय तो द्वापर का अंत या द्वापर और कलि का संधिकाल ही माना जाता है और इक्ष्वाकु से लेकर तब तक की मुद्दत बहुत बड़ी थी इसमें कोई शक हई नहीं। फलत: यह विद्या भूल गई। यह आम लोगों के समझ की तो चीज हई नहीं। इसे तो विशेषज्ञ और पूरे जानकार ही बता सकते हैं और वे होते ज्यादा हैं नहीं। फिर कौन किसे बताएँ? इसीलिए कृष्ण ने अर्जुन को साथी, श्रद्धालु तथा प्रेमी समझ के ही बताया है। यही कह भी दिया है। गोपनीय और दुर्बोध चीज यदि यों ही सबों को बताई जाए तो एक तो लोग समझेंगे उसे खाक नहीं। दूसरे उसकी कीमत भी जाती रहेगी। समझदार लोग भी मान बैठेंगे कि कोई ऐसी ही वैसी चीज है। फलत: उस तरह भी खत्म होई जाएगी।

पहले तो नहीं। मगर कृष्ण की यह बात सुन के अर्जुन को चट खयाल आया कि ऐं, यह क्या कह रहे हैं कि मैंने सृष्टि के शुरू में विवस्वान को यही बात सिखाई थी? यह तो असंभव है, गैरमुमकिन है। कृष्ण का तो जन्म-कर्म सब कुछ मैं जानता ही हूँ। मेरे तो मामू के पुत्र ही ठहरे। फिर यह कैसे कह दिया कि मैंने विवस्वान को इसका उपदेश दिया? यह कैसे मानूँ? इसी बात को इस तरह -

अर्जुन उवाच

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥4॥

अर्जुन ने पूछा - आपका जन्म तो इधर हाल में ही हुआ है। और विवस्वान तो बहुत पहले पैदा हुए थे। (तब) कैसे मानूँ कि आपने ही शुरू में (उन्हें यह चीज) बताई थी? 4।

श्रीभगवानुवाच

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥5॥

श्रीभगवान ने उत्तर दिया - हे अर्जुन, हे परंतप, मेरे और तुम्हारे भी बहुतेरे जन्म हो चुके हैं। मैं उन सबों को ही जानता हूँ। (हाँ) तुम नहीं जानते। 5।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥6॥

बेशक, मैं जन्म-रहित हूँ, मेरी आत्मा निर्विकार है और मैं सभी सत्ताधारियों का शासन करने वाला भी हूँ। (ताहम) अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही मैं अपनी माया से ही जन्म लेता हूँ। 6।

यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥7॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥8॥

हे भारत, जभी-जभी धर्म का ह्रास या खात्मा होता है और अधर्म की वृद्धि हो जाती है तभी-तभी मैं अपना शरीर बनाता हूँ। (इसलिए) भले लोगों की रक्षा, बुरे लोगों के नाश और धर्म की जड़ को मजबूत करने के लिए मुझे समय-समय पर जन्म लेना ही होता है। 7। 8।

इस अवतार के सिद्धांत का क्या दार्शनिक रहस्य है और उस पर 'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय' (4। 6), में दिव्यं (4। 9) में 'दिव्यं' तथा 'आत्ममायया' कहने से क्या प्रकाश पड़ता है, आदि बातों का विस्तृत विवेचन कर्मवाद और अवतारवाद के प्रकरण में पहले ही किया जा चुका है। इन श्लोकों का अभिप्राय समझने के लिए उसे पढ़ लेना जरूरी है। हाँ, यह बात जुदी है कि अर्जुन के प्रश्न और कृष्ण के उत्तर से यह प्रश्न पैदा हो जाता है कि क्या उस समय तक पुनर्जन्म तथा अवतारवाद का सिद्धांत प्रचलित या सर्वमान्य नहीं हुआ था? क्योंकि यदि होता तो अर्जुन भी जानता ही रहता। फिर पूछता क्यों? और कृष्ण भी अवतार कह के ही आगे बढ़ जाते। दलीलें न देते। मगर यह विषय बड़ा है और गीता हृदय के तीसरे भाग के लिए ही इसे छोड़ना ठीक है। यहाँ यही कहना है कि 'बहूनि मे व्यतीतानि' श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को ऐसा ही मुँहतोड़ उत्तर दिया है जैसा उसका प्रश्न था। उनने साफ ही कह दिया है कि तुम्हें मेरे इस कथन से बेशक आश्चर्य हुआ होगा। यह बात तुम्हारे माथे में आई ही न होगी। मगर इसमें आश्चर्य क्या है? ऐसी हजारों बातें हैं जो तुम्हारे माथे में आ न सकी हैं। तुम्हें क्या पता कि हमारे और तुम्हारे हजारों जन्म हो चुके? खूबी तो यह कि तुम्हें उनकी जरा भी, यहाँ तक कि अपने जन्मों की भी, जानकारी तक नहीं है। फिर मेरे जन्मों को कैसे जानोगे? मगर मैं तो सब कुछ जानता हूँ न? मैं तो अपना भी और तुम्हारा भी शुरू से आज तक का कच्चा चिट्ठा जानता हूँ। तुम कितनी बार कहाँ कैसे जन्मे, तुमने क्या-क्या किया, मैं भी कब-कब कहाँ कैसे जन्म ले के क्या-क्या करता रहा, यह सब कुछ बखूबी जानता हूँ, जैसे आँखों के सामने ही यह बातें नाच रही हों।

जानने का यह मतलब नहीं है कि लोगों से सुन के या किताबें पढ़ के जानकारी हासिल कर ली जाए। ऐसी जानकारी तो अर्जुन को भी हो सकती थी। इतिहास पढ़-सुन के तो सभी लोग जानें कितनी ही बातें जान जाते हैं। फिर अर्जुन में ही क्या कमी थी कि इतना भी नहीं जान पाता? और वैसे समझदार आदमी के लिए, जिसने स्मृतिकारों की भी धज्जियाँ शुरू में ही उड़ाई थीं और उनके तर्कों को अमान्य कर दिया था, कृष्ण का यह कहना कि तुम कुछ नहीं जानते हो कहाँ तक ठीक हो सकता है, यदि उस जानकारी का यही अभिप्राय हो? इसीलिए पाँचवें श्लोक में जो 'वेद' क्रिया लिखी है, उसका अर्थ प्रत्यक्ष अनुभव या साक्षात्कार ही है। इसीलिए आगे के 9वें श्लोक में इसी जानकारी के मानी में इसी विद धातु से बने और वेद के ही अर्थ में प्रयुक्त वेत्ति क्रिया का 'तत्त्वत:' विशेषण दिया गया है। इससे तत्त्वज्ञान ही उसका अभिप्राय सिद्ध होता है और तत्त्वज्ञान का अर्थ हमेशा साक्षात्कार ही माना जाता है। वह ऐसा ज्ञात हो जैसे कि आँखों के सामने कोई चीज खड़ी हो। कृष्ण को पूर्ण आत्म-साक्षात्कार रहने के कारण ऐसा ही ज्ञान था। मगर अर्जुन को न था। उसे अगर कुछ भी थी तो केवल धुँधली स्मृति या पढ़ी-सुनी बातों की याद मात्र। इसीलिए उसे धीरे से कृष्ण ने हँसते-हँसते इन्हीं शब्दों में एक कनेठी दे दी कि तुम्हें क्या मालूम कि मैंने कब कहाँ जन्म लिया था, मैं कब कहाँ मौजूद था! वेद शब्द उपनिषदों में ऐसे ही देखने के मानी में बराबर आया है।

इसीलिए कृष्ण ने आगे यह भी कह दिया है कि जिस तरह मैं यहीं बैठा अपने तमाम अवतारों और तुम्हारे तथा दूसरों के अनेक जन्मों की सारी बातें जैसे आँखों देख रहा हूँ, वैसा ही अनुभव जिसे हो वही जीवन्मुक्त है। मुझमें और उसमें जरा भी भेद नहीं रह जाता। अपने भीतर जो कुछ होता हो जैसे उसका करारा और ताजा प्रत्यक्ष अनुभव होता है वैसा ही अनुभव जब सारे संसार के संबंध में होने लगे, जिसे 'आत्मौपम्येन सर्वत्र' (6। 32) में कहा है, तभी 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) कहना चरितार्थ होगा। यों ही बातें करने और पढ़ी-सुनी बातें दुहराने से ही नहीं। अतएव इसी दर्शन एवं अनुभव की कोशिश होनी चाहिए।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥9॥

हे अर्जुन, हमारे इस अलौकिक जन्म और कर्म को जो इसी तरह - मेरी ही तरह - ठीक-ठीक साक्षात अनुभव करता है वह शरीर को छोड़ के - मरने पर - फिर जन्म नहीं लेता (और) मुझी में मिल जाता है - मेरा ही रूप बन जाता है। 9।

वीतरागभयक्रो धा मन्मया मामुपाश्रिता:।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:॥10॥

(यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी) जिनके राग, भय एवं क्रोध निर्मूल हो गए थे, जो मुझ आत्मा के सिवाय और की परवाह न करके आत्मा में ही रम चुके थे (और इस तरह) जो ज्ञान रूपी तप के प्रभाव से पवित्र हो चुके थे ऐसे बहुत से लोग मेरा स्वरूप - परमात्मा या ब्रह्म - बन चुके हैं। 10।

दसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध के देखने से तो और भी साफ हो जाता है कि पूर्व जो जानकारी की बात कही गई है वह आत्मसाक्षात्कार रूप ही, जिसके होते ही वामदेव एकाएक बोल बैठे कि मैं ही तो मनु, सूर्य आदि सब कुछ बना था - 'तद्धैतत्पश्यन्ऋषिर्वामदेव: प्रतिपेदेऽहमनुरभवं सूर्यश्च' (वृहदा. 1। 4। 10)। इसीलिए इसी मंत्र में आगे साफ ही कह दिया है कि आज भी जिसे ऐसी दृष्टि मिल जाए वह भी समस्त संसार का रूप बन जाता है - समस्त जगत को अपना स्वरूप ही देखने लग जाता है - 'तदिदमप्येतर्हि या एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति॥' यह भी देखा जाता है कि इसी मंत्र में 'वेद' शब्द आया है और देखने या दृष्टि के मानी में ही 'पश्यन्' आया है इसीलिए हमने जो पहले कहा है वही अर्थ वेद का है। 9वें श्लोक में दिव्य कहने का यह भी अभिप्राय है कि अवतारों के जन्म और कर्म असाधारण होते हैं; न कि हम लोगों जैसे। उनकी दृष्टि और शक्ति दबी न हो के व्यापक होती है। पूर्व के 6-7 श्लोकों में जो आत्मा शब्द बार-बार आया है उसका भी यही अभिप्राय है कि आखिर मैं तो आत्मा ही ठहरा। इसीलिए जो मुझे आत्मा माने-जानेगा वह तो मेरा रूप हई, होई जाएगा।

ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मा नुवर्त्तंते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥11॥

हे पार्थ, जो लोग जिस दृष्टि से मेरे निकट आते हैं - मुझे जानते-मानते हैं - मैं (भी) उन्हें वैसा ही मानता-जानता हूँ। (यह समझ लो कि) सभी मनुष्य मेरे ही रास्ते पर चलते हैं। 11।

कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥12॥

इस संसार में जो कर्मों की सिद्धि चाहते हैं। वह (सभी प्रकार के) देवताओं का यज्ञपूजन करते हैं। क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों के फलों की प्राप्ति जल्दी ही होती है। 12।

इन दो श्लोकों में जो बात कही गई है वह है तो गीता की अपनी खास चीज ही। इसका बहुत विस्तृत निरूपण भी हमने श्रद्धापूर्वक कर्मों के विचार के समय किया है। मगर इसका ताल्लुक पहले के श्लोक से भी है। गीता का यह एक मुख्य मंतव्य है कि जोई दिल-दिमाग में आए ईमानदारी के साथ वही जबान से बोलें और हाथ-पाँव से करें तो कल्याण ही कल्याण समझिए। यही स्वधर्म-पालन का वास्तविक अर्थ है और यही बात इन दो श्लोकों में भी कही गई है। पहले श्लोक से मिलान करने पर यह अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि जिनको वह दिव्यदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसे आत्मसाक्षात्कार कहते हैं, वह तो ब्रह्मरूप ही होते, ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाते हैं 'ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति' (वृहदा. 4। 4। 6)। लेकिन जिनकी वह दृष्टि न हो वह अनेक प्रकार के होते हैं। कोई तो ईश्वर को आराध्‍यदेव मान के पूजा-यज्ञ करते, कोई इंद्र-उपेंद्रादि के रूप में उसे पूजते-मानते, कोई और भी देवी-देवता की ही सूरत में उसे याद करते और संतुष्ट करना चाहते, कोई पितरों के रूप में ही उसको तृप्त करते और कोई भूत, प्रेतादि मानकर ही मंत्रतंत्रादि से उसे अनुकूल करना चाहते हैं। इसी दृष्टि की विभिन्नता के अनुकूल उनके उद्देश्य भी अलग-अलग होते हैं। यही बात, 'कामैस्तैस्तै:' आदि (7। 20। 23) और 'यजंतेसात्त्विका' (17। 4) में भी कही गई है।

इस प्रकार भगवान को आत्मा समझने पर जब मनुष्य भगवान का रूप बन जाता है तो अन्य देवता-देवी आदि जिस किसी रूप में भगवान को मनुष्य समझे मानेगा वह वहीं होगा, इसमें शक की जगह हई कहाँ? बेशक ईमानदारी का सवाल है। दिल से ऐसा ही मान के काम करने वालों की ही बात है। श्रद्धा का यही मतलब है। आमतौर से ऐसी पूजा करने वाले सचमुच श्रद्धा और विश्वास के साथ ही ऐसा करते हैं। जो लोग मन में समझें कुछ और करें कुछ वे ऐसे शायद ही होते हैं। वे लोग इन पूजापाठ के झमेलों में पड़ते भी नहीं। इसीलिए यह कहना भी ठीक ही है कि सभी मनुष्य मेरे ही रास्ते पर चलते हैं। क्योंकि नियम यही है। अपवाद में ही शायद कोई ऐसा न करते हों। भगवान तो सभी की आत्मा ठहरे। वैसा ही अनुभव वह करते भी थे जब बोल रहे थे। इसीलिए जब मनुष्य किसी भी देव-दानव की पूजा करेगा तो जरूर ही भगवान की ही ओर जाएगा। उसका रास्ता वही होगा जो भगवान का है - जो उसकी ओर ले जाता है। यह ठीक है कि वह सीधा राजमार्ग न हो के पगडंडी और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है, जो चक्कर काट के जाता है। इसीलिए तो महिम्नस्तोत्र में पुष्पदंत ने साफ ही कह दिया है कि चाहे किसी की पूजा करें या किसी को जानें-मानें; मगर घूम-फिर के सभी भगवान की ही तरफ जाते हैं। जैसे वर्षा या बर्फ़ का सभी पानी घूम फिर के समुद्र में ही जाता है, - 'रुचीनां वैचित्रयादृजुकुटिल नानापथजुषाम् नृणामे को गम्यस्त्वमसि परसामर्णव इव।'

मनुष्य-लोक में सिद्धि, कर्मों के फलों की प्राप्ति या कर्मों में सफलता जल्दी होती है, यह भी ठीक ही है। जो सुविधाएँ, जो अनुकूलताएँ मनुष्य को हासिल हैं वह पशु-पक्षी या देव-दानव किसी को भी नहीं मिली हैं, नहीं मिल सकती हैं। यहीं की कमाई से तो उन शरीरों में जाया जाता है। इसीलिए उन्हें भोग-योनि या भोगने वाले शरीर और मानव देह को कर्म-योनि माना है। भला पढ़ने-लिखने, सोचने-विचारने से, समाधि आदि करने की सुविधाएँ और किसे प्राप्त हैं, सिवाय मनुष्य के? यहाँ तक कि वह अपने यत्न से भगवान हो जाता है। मगर दूसरे ऐसा कर नहीं सकते। देवता लोगों का तो ज्यादे से ज्यादा यही होता है कि अपनी जगह से फिर इसी मनुष्य लोक में आते हैं। वे यहीं यत्न करके सब कुछ प्राप्त करते भी हैं - 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति' (9। 21) इसीलिए इसी शरीर में अलभ्य अवसर मिलता है कि दिव्य दृष्टि तथा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर लें।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि क्यों लोग सीधे भगवान में न लग के देवी-देवताओं में फँसते हैं? वे गलत या चक्करवाले रास्ते में क्यों पड़ते हैं? सीधा रास्ता क्यों नहीं पकड़ते? यदि कहा जाए कि प्रकृति या स्वभाव के अनुसार ही ऐसा होता है और प्रकृति तो हरेक की भिन्न-भिन्न होती ही है, तो प्रश्न होता है कि जुदा-जुदा प्रकृति या विभिन्न स्वभाव के शरीर बने ही क्यों? इनकी जरूरत ही क्या थी? और इन्हें बनाया किसने? यदि कहें कि भगवान ने बनाया तो उसने ऐसा क्यों किया? विभिन्नता लाने में उसका प्रयोजन क्या था? और अगर उसने ही यह सब कुछ किया तो समूचे करने-धरने की जवाबदेही उसी पर आनी चाहिए, न कि किसी और पर। इतना ही नहीं। इतना बड़ा पँवारा फैलाने, असंख्य प्रकार के शरीरों एवं पदार्थों के बनाने का संकट और इस काम का बुरा-भला नतीजा क्या उसे न भोगना पड़ेगा? अगर नहीं, तो दूसरे लोग अपने कर्मों का फल क्यों भोगें और वह न भोगे? नियम-कायदा तो एक ही ढंग का होगा न? होना चाहिए न?

इन्हीं बातों का उत्तर आगे लिखा है। उसका मतलब यही है कि सृष्टि में अनेक प्रकार के कामों का बँटवारा गुणों के ही अनुसार बने स्वभाव के ही अनुकूल हुआ है। जिसके दिल-दिमाग, शरीर और इंद्रियों में जिस गुण की प्रधानता है उसी के अनुसार उसके कर्म होते हैं। ऐसी गुण विभिन्नता होने ही क्यों पाई इसका उत्तर भी यही है कि पहले जन्म के कर्मों के अनुसार ही सभी बातें होती हैं। जो जिस चीज का अभ्यास करेगा उसे वही याद आएगी और उधर ही वह झुकेगा। इसीलिए कहा गया है कि मरने के समय उससे पहले के अभ्यास के अनुसार जो बात, जो चीज याद आएगी उसी शरीर में उसी के अनुकूल वाली परिस्थिति में जन्म लेगा। इस तरह आगे बढ़ते जाएँगे। शुरू में क्यों ऐसा हुआ यह प्रश्न तो होता ही नहीं; क्योंकि संसार का शुरू न मान के इसे अनादि मानते हैं। यह ठीक है कि कर्मों और गुणों की सारी व्यवस्था भगवान के बिना नहीं हो सकती है। इसीलिए वही यह सब कुछ करते हैं। मगर न तो इसका फल ही वे भोगते और न इनसे परेशानी ही उठाते! क्योंकि उन्हें तो आत्मज्ञान है न? वह तो अपने को अकर्त्ता और अभोक्ता बेलाग - देखते हैं न? श्लोक में जो चातुर्वर्ण्य या चारों वर्णों की बात है यह दृष्टांत के रूप में भारत में उस समय प्रचलित चीज को ही खयाल करके है। असल में कर्मों के अनेक विभागों और उनकी व्यवस्था से ही मतलब है। श्लोक में कर्म शब्द पूर्व के या प्रारब्ध कर्म और आगे होने वाले कर्म - इन दोनों - का ही वाचक है। इसका पूरा विवरण कर्मवाद में मिलेगा।

चातुरर्व र्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।

तस्य क र्त्तार मपि मां वि द्धय्कर्त्तार मव्ययम्॥13॥

चारों वर्णों को मैंने ही गुणों और कर्मों के बँटवारे के अनुकूल ही बनाया है। (लेकिन) इनका बनाने वाला होता हुआ भी मैं निर्विकार और अकर्त्ता हूँ, ऐसा जान लो। 13।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्‍यते॥14॥

(क्योंकि) न तो मुझमें कर्म चिपकते ही हैं और न मुझे उन कर्मों के फलों की आकांक्षा ही है। (फिर मुझे इनसे ताल्लुक ही क्या? यही नहीं;) जो कोई दूसरा भी मुझे इसी तरह साक्षात्कार कर लेता है वह भी कर्मों से (हर्गिज) बँध नहीं सकता। 14।

यहाँ उत्तरार्द्ध में जो 'अभिजानाति' क्रिया है उसका पहले की ही तरह साक्षात्कार ही अर्थ है। इसीलिए तत्त्व की जगह 'अभि' शब्द उसमें जुटा है, जिससे उसका अर्थ होता है अच्छी तरह जानना। इसी को विज्ञान भी कहते हैं। अभिजानाति के ही अर्थ में अभिज्ञान बनता है, जिसका अर्थ है पहचान या परिचय करा देने वाला। शकुंतलावाली अँगूठी देखते ही दुष्यंत की आँखों के सामने उसकी मूर्ति नाच उठी। इसीलिए अभिज्ञान शाकुंतल में उसी अँगूठी को अभिज्ञान माना गया है। जो लोग ईश्वर के अकर्त्तृत्व और नि:स्पृहत्व का अपने ही भीतर साक्षात्कार करने लगे, अनुभव करने लगे, वह तो स्वयं ईश्वर ही हो गए। फिर उन्हें कर्मों का बंधन कैसा?

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।

कुरु कर्मैव तस्मा त्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥15॥

(यही कारण है कि) मुक्ति चाहने वाले पुराने लोगों ने भी ऐसा ही समझ के कर्म किया था। इसीलिए तुम भी पुराने लोगों के द्वारा किए गए इस अत्यंत प्राचीन कर्म को ही करो। 15।

इस श्लोक में 'मुमुक्षुभि:' के साथ 'अपि' को जोड़ के यह अर्थ किया है कि मुमुक्षु या मुक्ति चाहने वाले लोगों ने भी कर्म किया था। इसका आशय यह है कि जो लोग पूर्ण आत्म ज्ञान वाले जीवन्मुक्त थे उनने तो किया ही था । मगर इस दशा की प्राप्ति की इच्छा या मोक्ष की कामनावालों ने भी किया था। इसलिए तुम्हें भी हर हालत में यही करना होगा, चाहे मुक्त हो, या मुमुक्षु - मोक्ष चाहने वाले। अब इसमें एक ही दिक्कत रह जाती है 'कि ऐसा ही समझ के' - 'एवं ज्ञात्वा' - का मेल दोनों अर्थों से कैसे खाएगा। ऐसा समझने के तो मानी हैं यही समझना कि न तो मुझमें कर्म लिपट सकते और न मुझे उनके फलों से कोई काम है। और मुक्त या आत्मज्ञानी भले ही ऐसा समझे और उसका समझना ठीक ही है। फिर भी जो मोक्ष की इच्छा वाला है वह ऐसा साक्षात्कार कैसे कर सकता है? यह तो उसके लिए असंभव है। इसीलिए उसके संबंध में इसका यही आशय है कि ऐसे साक्षात्कार को उद्देश्य करके ही उसने भी कर्म किया। ऐसा उद्देश्य तो ठीक ही है। उससे बंधन तो हर हालत में होगा ही नहीं।

अब यहाँ पर एक नई बात उठ खड़ी होती है। कृष्ण के दिल में यह खयाल आ सकता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कर्म करो, कर्म करो यही बात रह-रह के कहने से अर्जुन समझ बैठे कि कृष्ण को कोई गर्ज है, तभी तो बार-बार ऐसा कहते रहते हैं, यहाँ तक कि जब तक जो बात पूछता भी नहीं हूँ तभी तक वह बात भी इस अभागे कर्म के बारे में कह डालते और चट कह बैठते हैं कि कर्म करो ही। यह समझना कोई अस्वाभाविक भी नहीं। खूबी तो यह थी कि कृष्ण एक तो बहुत बातें यों ही बोल गए। दूसरे बातें ही कह जाते तो भी एक बात थी। मगर वह तो कर्म करो, करो का तूफान-सा मचाये हुए थे। इसलिए शक-शुभे और ऐसे खयालों की गुंजाइश जरूर थी और पूरी थी।

इसी के साथ यह बात भी थी कि अब तक कर्म और उसके त्याग या संन्यास की बात आई जरूर थी और उसे कब मानना और कैसे मानना, कब नहीं मानना वगैरह बातें भी कही गई थीं जरूर। मगर कर्म और कर्म त्याग या उलटाकर्म - विकर्म - किस सूरत में कैसे होता है और क्यों, यह चीज अब तक कही गई न थी। यह बड़ी बात है। किन-किन हालतों में कैसे कर्म ही कर्म का त्याग या विकर्म बन जाएगा - क्योंकि अकर्म शब्द जो आगे आया है उसका कर्म त्याग और विकर्म - विपरीत कर्म - भी अर्थ है, इसीलिए 17वें श्लोक में विकर्म शब्द आया भी है - और किस दशा में कैसे अकर्म ही कर्म बन जाएगा, इसका जानना निहायत जरूरी था। नहीं तो कर्म का एक महत्त्वपूर्ण पहलू छूट ही जाता। इसलिए भी कृष्ण को आगे की बातें कहनी पड़ी हैं।

जो लोग ऐसा समझते हैं कि आगे के श्लोकों में कर्म और अकर्म की परिभाषा या उनके लक्षण लिखे हैं वह भूलते हैं। यदि यह बात होती तो बार-बार इन्हीं शब्दों का प्रयोग न करके कुछ और शब्द बोलते। तभी तो पता चलता कि कर्म यह है और अकर्म यह है। मगर कृष्ण ने तो ऐसा नहीं किया है। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि उन्हें परिभाषा नहीं करनी है। किंतु यही बतलाना है कि जिसे आमतौर से लोग कर्म मानते हैं वही कर्म त्याग और विकर्म भी कैसे बन जाता है और जिन्हें अकर्म - कर्म त्याग या विकर्म - मानते हैं वही कर्म कैसे बन जाते हैं। यही वजह है कि पहले (16वें) श्लोक में प्रथमांत और द्वितीयांत कर्म तथा अकर्म बोलने के बाद और 18वें में ये बातें बताने के पूर्व 17वें में 'कर्मण:' 'अकर्मण:' और 'विकर्मण:' इन तीनों को षष्टयंत रखते हैं। इससे एक तो पहले या आगे के अकर्म शब्द से विकर्म भी लेना होगा यह अभिप्राय निकलता है। दूसरा यह कि इन तीनों के स्वरूप या लक्षण को न जान के इनके संबंध में ही कुछ जानना जरूरी है।

श्लोक में कवि शब्द का अर्थ है अत्यंत सूक्ष्म और भूत-भविष्य को भी देख सकने वाला। उसकी भीतरी आँखें ऐसी हैं कि गहन से गहन और बारीक से भी बारीक बातें देख सकें। वेदों में 'कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:' शब्दों में परमात्मा को कवि कहा है।

असल में चौथे अध्‍याय का निजी विषय यहीं से शुरू होता है।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।

ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥

कर्म क्या है (और) अकर्म क्या है इस संबंध में अलौकिक विद्वानों को भी घपले में पड़ जाना पड़ा है। इसीलिए तुम्हें कर्म (की सारी बातें और बारीकियाँ) बता दूँगा जिन्हें जानकर गलती और बुराई से बच सकोगे। 16।

कर्मणो ह्यपि बो द्ध व्यं बो द्ध व्यं च विकर्मण:।

अकर्मणश्च बो द्ध व्यं गहना कर्मणो गति:॥17॥

कर्म के संबंध में भी बहुत कुछ जानना जरूरी है और विकर्म के संबंध में भी (इसी तरह) अकर्म - कर्म त्याग - के संबंध में भी अनेक बातें जानने की हैं। क्योंकि कर्म की बात बड़ी पेचीदा है। 17।

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥

जो आदमी कर्म में ही अकर्म - कर्म त्याग और विकर्म - (भी) देखता है और अकर्म - कर्म त्याग एवं विकर्म - में ही कर्म (भी), वही सब लोगों में बुद्धिमान है और योगी है और वही सब कुछ कर सकता है। 18।

यहाँ कई बातें विचारणीय हैं। सबसे पहली बात तो यही है कि सीधे ढंग से यह हर्गिज नहीं मान लेना चाहिए कर्म के बराबर अकर्म ही देखना चाहिए या अकर्म में कर्म ही। आपातत: देखने से तो यही प्रतीत होता है कि यहाँ आलंकारिक विरोधाभास के रूप में ही गीता के सिद्धांत का वर्णन है। इसलिए विरुद्ध या उलटी ही बातें देखने का सिद्धांत इसमें होना चाहिए ऐसा ही मालूम होता है। मगर गीता तो अलंकार का ग्रंथ है नहीं। यह तो हमारे प्रतिदिन के व्यवहारों, हलचलों, संघर्षों एवं कर्मों के करने-न करने के दार्शनिक सिद्धांत बता के तत्संबंधी कायदे-कानून का संग्रह (Manual) जैसा ग्रंथ है। इसीलिए जो बातें बराबर होती हैं और जिन्हें व्यावहारिक या असली बातें कहते हैं उन्हें मिटा देने या भुला देने से तो गीता का काम चल सकता नहीं। तब तो यह कीचड़ में ही जा फँसेगी और इसका मूल्य भी न रह जाएगा। तब गीता वह चमकता हीरा न रह जाएगी जैसा मानी जाती है।

इस दृष्टि से देखने पर इस श्लोक का अर्थ ऐसा हो जाता है कि जो आदमी कर्म में कर्म तो देखता ही है, या यों कहिए कि कर्म को कर्म तो जानता-मानता हई; लेकिन उसमें अकर्म यानी कर्म का त्याग और विकर्म भी समझता है। इसी तरह जो अकर्म यानी कर्म के त्याग में भी कर्म का त्याग तो समझता ही है; मगर कर्म और विकर्म या विरोधी कर्म-निंदित कर्म-भी देखता है। ऐसे ही जो अकर्म यानी विकर्म या निषिद्ध कर्म को भी विकर्म तो मानता ही है; मगर उसे कर्म-त्याग और कर्म भी जानता है। वह सबों में बुद्धिमान है, वही युक्त या योगी है और वह बेधड़क कोई भी - सभी - कर्म कर सकता है, करता है। उसे कोई काम करने में खतरा तो नजर आता नहीं। फिर हिचक क्यों होगी? इस तरह आत्मज्ञानी या योगी की दृष्टि या नजर को कर्म के बारे में बहुत ही व्यापक बन जाने की बात इस श्लोक में कही गई है। निचोड़ यही है कि वह हमेशा यही मानता है कि कोई भी कर्म, जिसे व्यवहार, समाज या शास्त्र ने अनुमोदित किया है, कर्म भी हो सकता है, कर्म-त्याग भी और विकर्म, दुष्कर्म, या पाप भी। इसी तरह वह यह भी मानता है कि शास्‍त्रीय या समाज-अनुमोदित कर्मों का त्याग भी त्याग तो रहता ही है। साथ ही साथ वह कर्म और विकर्म भी बन सकता है और विकर्म भी विकर्म होने के साथ ही कर्म या कर्म-त्याग हो जाता है, हो जा सकता है। मालूम होता है, कोई जादू-मंतर या करामात है जो इनके रूपों को बदल देती है अगर उसका प्रयोग किया जाए और अगर न किया जाए तो ये ज्यों के त्यों रह जाते हैं। कोई ऐसी जड़ी-बूटी, ऐसी औषधि है जिसे गीता ने बताया है।

अब इन तीनों का दृष्टांत ले सकते हैं। हल जोतने की बात लीजिए। एक हलवाहा ईमानदारी से हल चलाता है। यही उसका कर्म है। यह कर्म बना रहेगा जब तक वह मजदूरी या खेती-गृहस्थी के सफल होने के खयाल से ही यह काम करता रहेगा। मगर ज्योंही इन नतीजों या परिणामों - फलों - की परवाह उससे जाती रही; फलत: कर्माशक्ति या फलासक्ति छोड़ के वह हल चलाने लगा; जैसा कि किसी ने पकड़ के जड़भरत से हल चलवाया था। बस वही कर्म अकर्म बन गया। क्योंकि पहली - कर्म की - हालत में जो उसे डर-भय रहता था या काम बिगड़ने का खतरा रहता था वही तो इसे कर्म बनाए हुए था और वही अब जाता रहा। जिससे वह उस कर्म से बेलाग हो गया। लेकिन ऐसा भी होता है कि हमारे पड़ोसी से हमारी कटाकटी चल रही है। पद-पद पर हम उसे चिढ़ाना और दिक करना चाहते हैं। ऐसी ही हालत में उसकी खेती का ऐन मौका बिगड़ रहा है। हजार कोशिश करके भी वह न तो हल ही पा सकता है और न चलाई सकता है। फलत: तिलमिलाया हुआ है। ठीक उसी समय हमने अपना हल उठाया और उसे दिखा के बिना जरूरत ही हम किसी खेत में चलाने लगे। ऐसा भी हो सकता है कि पड़ोसी की जैसी ही अपनी जरूरत को पूरा करने के बजाए हमने उसके किसी प्रचंड शत्रु को ही जान-बूझ के अपना हल उसके सामने ही दिया। बस, यह हमारा विकर्म या दुष्कर्म हुआ। क्योंकि नाहक दूसरे का दिल दुखाना ही उसका लक्ष्य जो है।

इसी तरह कर्म के त्याग को भी लें। यदि हमारे सामने किसी गरीब या निर्दोष को कोई जालिम पीटता हो तो उसकी रक्षा करने के लिए दौड़ पड़ना हमारा कर्तव्य है। मगर हम उसे नहीं करते हैं। यही कर्म का त्याग हुआ। मगर इसकी तीन हालतें होने से इसके भी तीन रूप हो जाते हैं। यदि हम जान-बूझ के उसकी मदद को न जाएँ तो यही कर्म त्याग होगा या विकर्म या पाप। यदि चाहते हुए और भरसक यत्न करने पर भी न जा सकें; क्योंकि किसी ने हमें कस के पकड़ लिया या बाँध दिया हो, तो कर्म का त्याग या अकर्म होते हुए भी यही हो गया हमारा कर्म, जिसे अच्छा काम, सत्कर्म या पुण्य कहिए। मगर ऐसा भी हो सकता है कि हम ऐन मौके पर इधर समाधिस्थ हो गए और उधर वह पीटपाट शुरू हुई। हमने सारी तैयारी पहले से ऐसी कर ली थी कि रुकना कथमपि संभव न था। या ऐसा भी हो सकता है कि हममें आत्मानंद की ऐसी मस्ती हो कि सुध-बुध होई न। ऐसी दशा में उसकी मदद के लिए हमारा न जाना सचमुच कर्म-त्याग है।

अब रही विकर्म की बात। साधारणत: हिंसा बुरी है, विकर्म है। फिर भी लोग इसे बराबर करते ही रहते हैं। इसीलिए वह विकर्म का विकर्म ही रहेगी जब तक हम रोजी-रोजगार, पेट या महज बैरविरोध आदि के खयाल से यह चीज करते रहेंगे। मगर आखिर धर्म-व्याध भी तो कसाई का ही काम करता था। हालत यह थी कि एक तो कोशिश करके थक चुका था; फिर भी उससे उसका पिंड छूट न सका। दूसरे उसके करने या न करने में - होने या न होने में - और उसके परिणामस्वरूप पैसे मिलें या न मिलें, या और कुछ हो या न हो, उसे किसी बात की जरा भी परवाह न थी - उसे अव्वल दर्जे की बेफिक्री थी, मस्ती थी। इसीलिए यह विकर्म उसके लिए अकर्म या कर्मों का सच्चा त्याग था। ऐसा हर समझदार, हर आत्मज्ञानी कर सकता है, करता है। लेकिन मान लें कि वही धर्म-व्याध या दूसरे ही इतनी दूर तक न पहुँचे हों। जीविकार्थ उन्हें कुछ न कुछ खामख्वाह करना भी पड़े। इसी के साथ कसाई का काम उनका खानदानी पेशा होने के कारण - जैसी कि धर्म-व्याध की बात थी - उन्हें सुलभ होने पर भी इससे बचने की सारी कोशिश उनने कर ली। मगर मजबूर हो गए और दूसरी जीविका मिली ही नहीं। ऐसी दशा में केवल जीविका के खयाल से ही वही विकर्म या हिंसा का काम करने पर भी वही उनके लिए कर्म या सत्कर्म हो जाएगा। मनुस्मृति के 12वें अध्‍याय में लिखा है कि विश्वामित्रादि ऋषियों ने कुत्ते आदि का मांस खा-खिला के घोर दुष्काल में प्राण तथा धर्म बचाए। छांदोग्य उपनिषद् (1। 10। 1-7) में लिखा है कि हाथी के जूठे उड़द खा के उषस्ति ऋषि ने प्राणों और धर्म दोनों की ही रक्षा की! इसलिए ऐसा तो होता ही रहता है।

हमने जो कुछ लिखा है वह अक्ल में आने वाली चीज है। व्यवहार में भी ऐसा होता आया है, होता है और होता रहेगा भी। इसीलिए गीता के इस श्लोक का भी अर्थ ऐसा ही करना उचित है जो व्यवहार के अनुकूल हो। यह मान लेना कि कर्म को हमेशा अकर्म ही समझते और देखते रहें, निरी नादानी है। वैसी मनोवृत्ति जब तक न हो यह कैसे हो सकता है और यह मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही मनोवृत्ति केवल योगी के वश की नहीं है। माना कि उसने खुद ऐसी ही मनोवृत्ति की और वह असंग भी है। मगर कर्मों का ताल्लुक तो आखिर दूसरों से भी होता है न? और अगर वे ऐसा न समझें तो भी क्या उनके लिए भी वह अकर्म ही हो जाएगा? यह उलटी बात होगी। एक ही कर्म किसी के लिए सत्कर्म, किसी के लिए दुष्कर्म और किसी के लिए अकर्म या कर्मत्याग हो सकता है। अपनी अपनी भावना के अनुसार। यही बात हरेक कर्म में निरपवाद लागू है। पूजा-पाठ, समाधि तक में हिंसा तो होती ही है। और नहीं तो साँस लेने या शरीर की रगड़ से ही जानें लक्ष-लक्ष कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अष्टावक्र ने अपनी गीता में कहा है कि नादान की निवृत्ति या कर्मत्याग भी प्रवृत्ति या कर्म बन जाता है और विवेक की प्रवृति भी निवृत्ति बन जाती है; 'निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते। प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी' (18। 61)। इसमें 'भी' के अर्थ में जो 'अपि' शब्द है वही हमारे आशय को व्यक्त कर देता है। 20वें श्लोक के 'प्रवृत्तोऽपि' वगैरह भी यही बात व्यक्त करते हैं।

हमने पहले ही कहा है कि चौथे अध्‍याय का अपना विषय इसी श्लोक से शुरू होता है। इसके पहले तो दूसरे, तीसरे अध्‍याय के ही प्रसंग की बातें आई हैं। यदि कोई भी विवेकी गौर करे तो यह जरूर मानेगा कि कर्म करने और उसके त्याग या संन्यास की यह बारीकी निहायत जरूरी चीज है जो छूटी थी। इसीलिए गीता के चौथे अध्‍याय ने इसे पूरा किया है। इसमें भी असल चीज है कर्मत्याग या संन्यास ही। इसी के बारे में तो उलझनें पैदा होती हैं और लोग अंट-संट कर बैठते हैं, मान बैठते हैं। लोगों को धोखे और भ्रम भी तो संन्यास या कर्मत्याग को ही ले के होते हैं। इसीलिए उसका खासतौर से स्पष्टीकरण यहाँ जरूरी था। यह संन्यास ज्ञान का साधन है और ज्ञान के बल से ही यह होता भी है। इस प्रकार एक तरह से इन दोनों का परस्पर संबंध है - ये दोनों अन्योन्याश्रय वाले हैं यह बात भी आगे स्पष्ट की जाएगी। इस तरह यही चीजें इस अध्‍याय के मुख्य विषय हैं। इसीलिए इसे ज्ञानकर्मसंन्यासयोग के नाम से ही अंत में कहेंगे भी।

इस बात का निरूपण इस 18वें श्लोक से ही शुरू हो के 37वें तक चला जाता है। बीच-बीच में एकाध बार ज्ञान की बात प्रसंग से आई है। अन्यथा आगे के 19 श्लोक इसी एक ही श्लोक के व्याख्यान स्वरूप हैं। अनेक प्रकार से उनमें यही बात-इसी श्लोक का अभिप्राय-व्यक्त किया गया है। यह बात उन श्लोकों के अर्थ लिख चुकने पर ही हम बताएँगे। तभी समझ में आसानी होगी भी।

यस्य सर्वे समारंभा: कामसंकल्पवर्जिता:।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पंडितं बुधा : ॥19॥

जिस (आदमी) के सभी काम कामना तथा फल आदि की आसक्ति के बिना ही होते हैं, (इसलिए) जिसने ज्ञानरूपी आग में सभी कर्म जला दिए हैं, विद्वान लोग उसी को पंडित कहते हैं। 19।

त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किं चित्करोति स:॥20॥

(क्योंकि) ऐसा आदमी कर्मों और उनके फलों की आसक्ति को मिटा के बेपरवाह और हमेशा मस्त रहता है। (इसीलिए) वह कर्मों को करता हुआ भी (दरअसल) कुछ भी नहीं करता है। 20।

निराशीर्यत्तचि त्ता त्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।

शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥21॥

जो सभी इच्छा-आकांक्षाओं को लात मार चुका है, जिसने मन और बुद्धि को अपने काबू में कर लिया है (और) जिसने सभी डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लिया है, (ऐसा आदमी) केवल देह या इंद्रियों से ही कर्मों को करता हुआ भी पाप और बुराई के पास जाता तक नहीं। 21।

यदृच्छालाभ संतु ष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।

सम: सि द्धा वसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निबध्‍यते॥22॥

यों ही जो कुछ भी मिल जाए उसी से जो संतुष्ट हो, रागद्वेष - हर्ष-विषाद - काम-क्रोधादि द्वन्द्वों से जो बहुत दूर हो गया हो, जिसमें बैरविरोध या दूसरों की सफलता से होने वाली जलन न हो और जिसके दिल पर काम के पूरा होने या न होने का कोई प्रभाव न पड़े वह आदमी सभी कर्मों को करके भी बंधन में हर्गिज नहीं पड़ता। 22।

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।

यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते॥23॥

जो आसक्तिशून्य है, जो सभी बंधनों से रहित है, (इसीलिए) जिसकी बुद्धि आत्मज्ञान में ही डूबी है - जो स्थितप्रज्ञ है - और जो (केवल) यज्ञ के ही लिए कर्म करता है उसके कर्म जड़-मूल से खत्म हो जाते हैं। 23।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥24॥

(जिस यज्ञ में ऐसी भावना है कि) आहुति आदि के साधन स्स्रुव आदि ब्रह्म ही हैं, घृतादि हवन के पदार्थ भी ब्रह्म हैं, ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी यजमान ब्रह्मरूपी हवन क्रिया करता है, उस समूची यज्ञात्मक क्रिया को ब्रह्म का रूप मिल जाने से वह पूर्ण समाधि ही हो गई। इसलिए उससे ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है। 24।

दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजु ह्व ति॥25॥

दूसरे योगी इंद्र आदि देवताओं के ही यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। कुछ और लोग ब्रह्मरूपी अग्नि में ही देहधारी आत्मा का हवन ज्यों का त्यों कर देते हैं। 25।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमागिनषु जु ह्व ति।

शब्दादीन्विषयानन्य इंद्रियाग्निषु जु ह्व ति॥26॥

(चौथे प्रकार के) कुछ लोग श्रोत्र आदि इंद्रियों का हवन संयमरूपी आग में करते हैं। (पाँचवें) दलवाले शब्द आदि विषयों का हवन ज्ञान-इंद्रियरूपी अग्नि में ही करते हैं। 26।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयम योगाग्नौ जु ह्व ति ज्ञानदीपिते॥27॥

(छठे प्रकार के) लोग सभी इंद्रियों की तथा प्राण की भी सभी क्रियाओं का हवन मन के संयमरूपी अग्नि में, जो ज्ञान के द्वारा खूब धौंकी जा चुकी है, करते हैं। 27।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योग यज्ञास्तथाऽपरे।

स्वा ध्या यज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:॥28॥

दूसरे भी कल्याणार्थ यत्न करने वाले लोग हैं जिनके व्रत या यज्ञों के नियम बड़े ही सख्त हैं। (ये पाँच दलों में विभक्त हैं और वे हैं) अन्नादि पदार्थों से यज्ञ करने वाले, तपरूपी यज्ञ के करने वाले, अष्टांग योगरूपी यज्ञ करने वाले, सद्ग्रंथों के पाठरूपी यज्ञ के कर्त्ता और ज्ञान यज्ञ के करने वाले। 28।

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगतीरु द्ध्वा प्राणायामपरायणा:॥29॥

(तीन तरह के और भी लोग हैं जो यज्ञ करते हैं और उनमें) एक तो अपान में प्राण का ही हवन यानी पूरक करते हैं। दूसरे प्राण में ही अपान का हवन यानी रेचक करते हैं। तीसरे प्राण और अपान दोनों की क्रिया रोक के कुंभक में ही लगे रहते हैं। 29।

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:॥30॥

यज्ञशिष्टामृतभुजो यांति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम॥31॥

(पंदरहवें प्रकार के) कुछ और भी हैं जो खानपान आदि पर सख्त संयम करके इंद्रियों की क्रियाओं को प्राण की क्रियाओं में ही हवन कर देते हैं। (इस तरह) ये सभी यज्ञ करने वाले इन्हीं यज्ञों के द्वारा (अपने दिल-दिमाग की सभी) गंदगियों को धो डालते हैं (और) यज्ञशिष्ट - यज्ञ के बाद बचे हुए - अमृत को ही भोगते हुए सनातन - नित्य - ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं। हे कुरुसत्तम् - कुरुवंश के दीपक, - जो यज्ञ नहीं करता उसका तो काम यहीं नहीं चल सकता। परलोक का तो कहना ही क्या ? 30। 31।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

कर्मजान् वि द्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥32॥

इस प्रकार अनेक तरह के यज्ञ वेद में प्रमुख रूप से कहे गए हैं। कर्मों से ही वे सभी तैयार होते हैं ऐसा जान लो; (क्योंकि) ऐसा जानने से ही मुक्त होगे। 32।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥33॥

हे परंतप, घृतादि भौतिक पदार्थों से किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ कहीं अच्छा है। (क्योंकि) हे पार्थ, (आखिर) सभी कर्मों का अंतिम ध्‍येय ज्ञान ही तो है और ज्ञान से ही कर्मों का खात्मा भी होता है। 33।

तद्वि द्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्त त्त्व दर्शिन:॥34॥

तो यह याद रखो, नम्रतापूर्वक शरण में जाने, (यथाशक्ति) सेवा करने (और अवसर पा के) पूछने पर ही तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे। 34।

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥35॥

हे पांडव, जिस ज्ञान को हासिल कर लेने से तुम्हें ऐसा मोह न होगा (और) जिसके चलते सभी पदार्थों को अपने आप में देखोगे और मुझमें भी। 35।

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥36॥

अगर तुम सभी पापियों से कहीं बढ़-चढ़ के भी पापी हो। (तो भी) सभी पापों - पाप समुद्र - को इस ज्ञान की नाव से ही पार कर जाओगे। 36।

यथैधांसि समि द्धो ऽग्निर्भस्मात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥37॥

हे अर्जुन, जिस तरह धक्धक् जलने वाली आग समूचा ईंधन (बात की बात में ही) भस्म कर डालती है। उसी तरह ज्ञानरूपी आग भी सभी कर्मों को भस्म कर देती है। 37।

अब आगे ज्ञान की प्राप्ति के अन्य साधनों का विचार तीन श्लोकों में करके 41वें में पुनरपि इसी कर्म-अकर्म का उपसंहार करेंगे। फिर अंतिम श्लोक में अध्‍याय के उपदेश का निचोड़ कह के अर्जुन को तैयार हो जाने की बात कहेंगे। इसलिए उचित है कि यहीं पर पीछे के 19 (19-37) श्लोकों का सिंहावलोकन करके देखें कि उनसे कहाँ तक 18वें के कर्म-अकर्मवाले सिद्धांत का स्पष्टीकरण होता है और संक्षेप में उनमें कहा भी क्या गया है।

सबसे पहले शुरू के पाँच (19-23) श्लोकों को ही लें। इनमें 21वें को छोड़ शेष चारों में कर्मों के करते रहने पर भी मनुष्य कर्मरहित, अकर्म या कर्मत्यागी कैसे हो जाता है यही बात कही गई है। बेशक, चारों में कुछ न कुछ नई बातें भी हैं। फिर भी इन सबों को मिला लेने पर ही हम इस निश्चय पर पहुँच पाते हैं कि किस दशा में - कैसी मनोवृत्ति रहने पर - मनुष्य के कर्म अकर्म बन जाते हैं और कर्मों के करते रहने पर भी कर्मत्याग या संन्यास का काम पूरा हो जाता है। संन्यास का भी तो प्रयोजन यही है कि कर्मों के बंधनों से छुटकारा हो जाए और वही बात यों भी हो जाती है। इसलिए यहाँ अर्थत: संन्यास है, न कि स्वरूपत:। क्योंकि स्वरूपत: तो कर्म करते ही रहते हैं।

तो अब यह देखें कि इन श्लोकों में क्या-क्या बातें हैं जो कर्म को अकर्म बनाती हैं। तत्त्वज्ञान तो चारों में ही स्पष्टतया और अर्थात भी आया ही है। मगर उसके फलस्वरूप जो मनोवृत्ति होती है उसी से हमारा मतलब है। पहले श्लोक में काम और फलादि की कल्पना या उनकी आसक्ति, इन दोनों का पूर्ण त्याग आया है। मगर इसे संकल्प के रूप में कहा है। दूसरे - 20वें - में कर्म और फल की आसक्ति त्याग के साथ बेपरवाही और सदा रहने वाली मस्ती आई है। 22वें में कर्म के पूरे होने-न होने में बेपरवाही - समत्व - के साथ शरीरयात्रा के लिए बेफिक्री, जोई मिले उसी से संतोष, हर्ष-विषाद आदि के लेश का भी न होना और दूसरों की सफलता देख के जलन का न होना यही बातें कही गई हैं। 23वें में हर तरह की असंगता, सभी बंधनों से छुटकारा तथा बुद्धि के तत्त्वज्ञान में डूब जाने के अलावे यह भावना होना कि ये कर्म यज्ञार्थ हो रहे हैं, यही बातें कही गई हैं। इन सबों के मिलाने से ऐसा हो जाता है कि आत्मसाक्षात्कार से ही कर्मों से छुटकारा होता है - वे जल जाते हैं। मगर इसकी - साक्षात्कार की - पहचान क्या है, यही देखना है और यही असल चीज है। इस दृष्टि से पता लगता है कि पहली चीज है बुद्धि का आत्मा की ही ओर टँग जाना और मन का उसी में रम जाना। मगर इसका पता लगता है तब जब कामना, संकल्प, कर्म तथा फल की आसक्ति, ये सभी छूट जाते हैं और हमेशा तृप्ति बनी रहती है। लेकिन ये सभी भीतरी बातें हैं। इसीलिए इनका पता कैसे लगे? यही कारण है कि यह कह दिया है कि न तो किसी आदमी या देवता वगैरह की परवाह हो, न खाने-पीने आदि के लिए हाय-हाय, न किसी से भी बैर-विरोध, न हर्ष-द्वेष और राग और न किसी से चिपकना। इसी के साथ यह भी रहे कि काम पूरा हुआ तो क्या, न पूरा हुआ तो क्या? फलत: निश्चिंत रहे। ये बाहरी पहचान हैं। अंत में इनके साथ यह भी जोड़ दिया कि यज्ञ के लिए ही कर्म कर रहे हैं, कर्म हो रहे हैं यदि यह भावना हो जाए तो सुंदर हो। जरूरी नहीं है कि यह भावना होई। मगर हो तो सुंदर।

अब रहा बीच का 21वाँ श्लोक। इसमें विकर्म को ही अकर्म या कर्म-त्याग बन जाने की बात कही गई है। क्योंकि किल्विष या पाप का प्रश्न तो वहीं पैदा होता है न? इसका भी रास्ता साधारणत: वही है जो कर्म को अकर्म बनाने का। मगर श्लोक में कुछ खास बातें कही गई हैं। यही इसकी विशेषता है। जो कुछ कहा गया है उसका निचोड़ यही है कि कोई भी काम करने में शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि के एक साथ होने पर ही वह पूरा होता है और उसकी पूर्ण जवाबदेही होती है। लेकिन यदि मन और बुद्धि को उधर से खींच लें और केवल शरीर या इंद्रियों को ही - क्योंकि बाहरी इंद्रियाँ या हाथ-पाँव आदि शरीर में ही आ जाते हैं; इसीलिए श्लोक में 'शारीरं' कहा है - उसे करने दें, तो जवाबदेही छूट जाती है। यही बात श्लोक में 'यत्तचित्तात्मा' और 'केवलं शारीरं' से कही गई है। 'केवल शरीर से' यह तो 'यत्तचित्तात्मा होने या मन और बुद्धि को काबू में कर लेने का परिणाम ही है। इसकी पहचान के लिए 'त्यक्तसर्वपरिग्रह:' कहा है। सब लवाजिम और डल्ले-पल्ले से नाता तोड़ लेना - न कोई आगे हो न पीछे, न घर-बार हो और न दूसरी ही कोई जरा भी संपत्ति। तभी तो पक्की पहचान होती है कि सचमुच इस आदमी का मन किधर है। कुछ भी घर-गिरस्ती या कपड़ा-लत्ता होने पर मन उसी में जाता ही है।

यहाँ यह भी जान लेना होगा कि यद्यपि संकल्प और आसक्ति को आमतौर से एक ही मानते हैं, तथापि दोनों में कुछ न कुछ फर्क है। संकल्प भी आसक्ति का ही एक रूप है। मगर कोई भी काम शुरू होने के पहले जो आसक्ति होती है चाहे, उस काम के पूरे होने की या फल की, या दोनों की ही, उसके फलस्वरूप जो मन में उसके बारे में तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं कि यों करेंगे, त्यों करेंगे वही संकल्प है। काम शुरू होने पर उसके खत्म होने-न होने के बाद तक जो कर्म और फल से मन का चिपकना है वही आसक्ति है। इसीलिए मौलिक भेद न होने पर भी कुछ न कुछ भेद हई। इसीलिए दोनों को जुदा-जुदा कहा गया है। गीता में कई बार ऐसा मौका आया है। यहीं यह भी जान लेना चाहिए कि यह 'सम:सिद्धावसिद्धौ' तीसरे अध्‍याय में तो आया नहीं। यहीं पर इस अध्‍याय में एक बार और तीन बार द्वितीय अध्‍याय में आया है। मगर पहले दो बार ज्ञान के संबंध में और बाद में एक बार कर्म के संबंध में। यहाँ भी कर्म के ही संबंध में इसमें और 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' में पूर्ण समानता है। ज्ञान और कर्म के समत्व का भेद पहले ही बताया जा चुका है।

23वें श्लोक में यज्ञार्थकर्म - यज्ञायकर्म - की बात आ जाने से 24वें से लेकर 31वें तक 8 श्लोकों में यज्ञों की ही बात आ गई है। इनमें भी 30वें के पूर्वार्द्ध तक साढ़े छ: श्लोकों में कुल पंदरह प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। शेष डेढ़ में उनकी महत्ता बताई गई। यज्ञ सब पापों और बुराइयों को धो देते हैं, और यज्ञ के बाद ही बचे-बचाए पदार्थों को अमृत समझ उन्हें भोगनेवालों को ब्रह्म की प्राप्ति भी होती है, यही दो बातें कही गई हैं। मगर 31वें के उत्तरार्द्ध में जो यह कहा है कि यज्ञ न करने वाले का तो काम यहीं नहीं चल सकता, परलोक की बात तो दूर रहे, वह यह सूचित करता है कि गीता का यज्ञ बहुत ही व्यापक है। फलत: इसके भीतर समाजोपयोगी कार्य भी एक-एक करके आ जाते हैं। असल में जिन पंदरह यज्ञों को गिनाया है उनके भीतर दुनिया के सभी काम आ जाते हैं। खूबी तो यह है कि पंदरह तरह के यज्ञों को गिना के अंत में यह कह दिया है कि इस तरह के बहुतेरे यज्ञ वेदों में आते हैं - 'एवं बहुविधा या वितता ब्रह्मणो मुखे'। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि नमूने के रूप में या दल और किस्म के रूप में ही ये पंदरह गिनाए गए हैं। दरअसल हरेक के पेट में सैकड़ों-हजारों तरह के यज्ञ आ सकते हैं।

यज्ञों के बारे में थोड़ा और भी विचारें तो अच्छा हो। तीसरे अध्‍याय में भी 'यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र' (3। 9) में यज्ञार्थ कर्म की बात आई है। वही यहाँ भी है। गौर से देखने से यह भी पता चलता है कि दोनों श्लोकों में एक ही बात है। इसीलिए संग या आसक्ति का त्याग वगैरह भी दोनों में ही आए हैं। अगर वहाँ 'कर्मबंधन' से छूटने की बात है तो यहाँ कर्मों के समग्र या जड़मूल से खत्म हो जाने की बात है। मगर दोनों का आशय एक ही है। हाँ, एक अंतर जरूर है और है वह महत्त्वपूर्ण। यहाँ 'ज्ञानावस्थितचेतस:' कहने से बुद्धि का ज्ञान में या आत्मचिंतन में डूबना लिखा है। उसके आगे जो 'ब्रह्मार्पणं' (4। 24) श्लोक है उससे भी यही सिद्ध होता है। इसमें तो कर्म को समाधि का रूपांतर बना दिया है और कह भी दिया है। जब ब्रह्म के सिवाय और कोई खयाल हई नहीं तो समाधि तो पूरी होई गई। मगर जैसा कि वहीं कह चुके हैं, तीसरे अध्‍याय में यह बात नहीं है। वहाँ जनसाधारण की बात ही आई है, हाय-हाय छोड़ के कर्म करने की जरूरत उन्हें बताई गई है और उन्हीं कर्मों से यज्ञ के स्वरूप का निर्माण कहा गया है। इस तरह एक पहेली-सी खड़ी हो जाती है। मगर इसका समाधान भी है।

असल में तीसरे अध्‍याय की स्थिति से आगे तक की स्थिति को ही दृष्टि में रख के चौथे अध्‍याय में कर्म, अकर्म और यज्ञ का निरूपण आया है। यह तो ठीक ही है कि पूर्ण ज्ञानी के कर्मों की बात यहाँ बार-बार आई है। मगर 30वें के 'यज्ञक्षपितकल्मषा:' और पूरे 31वें श्लोक से ही सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण ज्ञानी से नीचे दर्जे के लोगों के लिए भी यज्ञ की बात यहाँ कही गई है। क्योंकि ज्ञानी को पाप से ताल्लुक ही क्या? उसका पाप तो ज्ञान ही जला देता है। वही कर्म को भी जलाता है। साथ ही, यज्ञ शेष अमृत का भोग करने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, इस कथन से भी पता चलता है कि ऐसा करते-करते जब उनका अंत:करण निर्मल हो जाता है तभी पूर्ण ज्ञान के द्वारा ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। क्योंकि ज्ञानी तो ब्रह्मरूप हई। फिर खा-पी के ब्रह्म को क्या खाक प्राप्त करेगा? मुमुक्षुओं के भी कर्म करने की बात इसी अध्‍याय में पहले कही गई भी है। 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) से भी पता लगता है कि कर्म से अंत:करण की शुद्धिरूपी संसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान प्राप्त होता है। क्योंकि वहाँ 'योगसंसिद्ध:' शब्द का सिवाय इसके दूसरा अर्थ संभव नहीं कि 'कर्मों के करने से जिसका अंत:करण शुद्ध हो गया है'। उसके आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्' (4। 41) से भी स्पष्ट है कि कर्म करते-करते अंत:करण की पवित्रता हो जाने पर ही कर्मों का स्वरूपत: संन्यास करना जरूरी हो जाता है, ताकि निदिध्‍यासन और समाधि यथोचित रीति से हो सकें और पूर्ण आत्मसाक्षात्कार हो जाए। जब तक कर्म न करे तब तक उसका संन्यास असंभव है, यह तो 'नकर्मणामनारम्भात्' (3। 4) में कही चुके हैं। इसलिए यहाँ यह कहना कि 'योग यानी कर्म करके ही जिसने कर्मों का संन्यास किया है' ठीक ही है। इसीलिए यही बात 'आरुरुक्षोर्मुने:' (6। 3) में तथा 'संन्यासस्तु महाबाहो' (5। 6) में भी कही गई है। हम इस पर विशेष प्रकाश भी डाल चुके हैं। यही कारण है कि 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि' (4। 37) और 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं' (4। 19) के साथ इस 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' को मिला देने पर 'सर्वं कर्माखिलं पार्थ' (4। 33) में 'परिसमाप्यते' के पर्यवसान के दोनों ही अर्थ करने जरूरी हो जाते हैं। एक तो यह कि सभी कर्मों का फल दरअसल ज्ञान ही है। दूसरा यह कि ज्ञान के बाद सभी कर्म-जड़ मूल से खत्म हो जाते हैं। 'समग्रं प्रविलीयते' और 'सर्वंकर्माखिलं परिसमाप्यते' का बहुत सुंदर मेल भी है, यदि शब्दों के अर्थों पर गौर करें।

इतना ही नहीं। यदि यज्ञों के स्वरूपों को भी देखें तो पता चलता है कि आत्मज्ञानी के सिवाय दूसरों के भी यज्ञ उनमें आए हैं। 'ब्रह्मार्पणं' आदि श्लोक में ठीक आत्मज्ञानी का ही यज्ञ है। मगर उसके बाद जो देवयज्ञ आदि का वर्णन है वह तो निश्चय ही आत्मज्ञानियों के यज्ञ का नहीं है। वह भला देवताओं का यज्ञ क्यों करने लगे? उनकी नजरों में देव-दानव वगैरह तो हई नहीं। यज्ञ भी स्वतंत्र कोई चीज नहीं है। शेष चौदह यज्ञों का भी यही हाल है। 'ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं' में भी ब्रह्मरूप में देही आत्मा का चिंतन चलता है। इसीलिए वह यज्ञ भी आत्मज्ञान के पहले की चीज है इसी प्रकार ज्ञानयज्ञ भी बड़ा व्यापक है। इसीलिए गीता के अंत (18। 70) में गीता के पढ़ने-पढ़ाने को भी ज्ञानयज्ञ कह दिया है। फलत: ज्ञानयज्ञ आत्मज्ञान को ही कहते हैं यह तो माना जा सकता नहीं। जब 'ब्रह्मार्पणं' आदि आत्मज्ञानरूपी यज्ञ से पृथक ही ज्ञानयज्ञ गिनाया है तो वह जरूर ही दूसरे ही प्रकार का है।

बात असल यह है कि यज्ञ में किसी न किसी पदार्थ की आहुति अग्नि आदि में दी जाती है। इसी समानता के खयाल से जहाँ एक पदार्थ को दूसरे के पास ला के खत्म किया वहीं यज्ञ नाम दे दिया गया है। आहुति के बाद उसके पदार्थ खत्म तो होई जाते हैं। विषयों में जाने पर इंद्रियों की परेशानी जाती रहती है। मालूम पड़ता है कि वह खत्म हो गई। इंद्रियों के पास आ के विषय तो खत्म होते ही हैं। ब्रह्म के रूप में आत्मा का चिंतन करने से उसका देहयुक्त रूप तो खत्म होई जाता है। मन के रोकने से इंद्रियों की और प्राण की भी क्रियाएँ खत्म होई जाती हैं। पूरक में प्राण की क्रिया होती नहीं। क्योंकि वायु बाहर जाए तब न? वहाँ तो भीतर ही खींचा जाता है और वही है अपान की क्रिया। रेचक में वायु, बाहर ही निकालते हैं। इसीलिए वहाँ अपान की ही क्रिया गायब है। कुंभक में दोनों की ही क्रिया रुक जाती है। यद्यपि प्राणायाम तीनों को ही मिला के या अलग-अलग भी कहते हैं। मगर पूरक-रेचक को जुदा गिना देने के बाद प्राणायाम के मानी हैं केवल कुंभक। इसी प्रकार सभी यज्ञों के बारे में जानना होगा। 'सर्वेऽप्येते यज्ञविद:' (4। 30) में विद का अर्थ ज्ञान नहीं, किंतु लाभ है। अत: यज्ञविद: का अर्थ है यज्ञ करनेवाले।

यहाँ आत्मज्ञान के सिवाय दूसरे यज्ञों के वर्णन करने का आशय यही है कि जिनकी मनोवृत्ति बहुत ऊँची नहीं उठ सकी है वह भी धीरे-धीरे उस दशा में पहुँच जाएँ। इसीलिए सभी क्रियाओं में यज्ञ की भावना का उपदेश है। 'यत्करोषि' (9। 27-28) में जिस प्रकार सभी क्रियाओं में भगवान की पूजा या भेंट की भावना का उपदेश किया गया है; ठीक वही बात यहाँ है। भगवान की भेंट की ओर स्वभावत: लोगों का खयाल जा सकता है। इसलिए वह एक आसान उपाय है। मगर जो लोग भगवान को नहीं मानते या उतनी दूर नहीं जा सकते - क्योंकि यह भावना आसान नहीं है - उन्हें यज्ञ की भावना के द्वारा तैयार करने का यह रास्ता है। आखिर यज्ञ, सैक्रिफाइस (sacrifice) या कुर्बानी तो सभी धर्म-मजहबों की चीज है। समाजहित की दृष्टि से तो धर्म न मानने वालों के लिए भी मान्य है। इसीलिए इस सुगम और व्यापक मार्ग का उपदेश यहाँ किया है। इसका परिणाम यह होगा कि पदार्थों को भोगते हुए भी अलग-अलग खाना, सोना आदि बुद्धि या भावना न करके सर्वत्र यज्ञ की ही बुद्धि करते रहने से मन की एकाग्रता हो जाएगी। फिर तो उसे यज्ञ से मोड़ के आत्मा में लगाना अगला ही कदम होगा। 'यथाभिमतध्यानाद्वा' (योग. 1। 39) में पतंजलि ने यही माना है। यही सबसे आसान मार्ग है भी।

इसीलिए 'कर्मजान्विद्धितान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे' में जो कहा है कि इन यज्ञों को कर्मों से ही होने वाले मानने से ही मुक्ति या कर्मों से छुटकारा होगा, उसका भी अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। यज्ञों को कर्मजन्य जानने से छुटकारे का मतलब यही है कि अलग-अलग कर्मों की भावना तो रही ही नहीं। अब सभी कर्म यज्ञ बन गए। फिर तो करने वाले का यह खयाल होगा ही नहीं कि हम खाते-पीते हैं, खेती करते हैं आदि-आदि। किंतु वह तो बराबर यही समझता रहेगा कि यज्ञ हो रहा है। इस तरह कर्म की स्वतंत्रता खत्म हो गई। वे बन गए यज्ञ और यज्ञ बनने का फल अभी बताई गई एकाग्रता ही है। हमने जब यह जान लिया कि कोई और काम तो होता नहीं कि उसके भले-बुरे फल होंगे। यहाँ तो केवल यज्ञ हो रहा है। तो फिर कर्मों के फल हमें मिलेंगे कैसे? हाँ, यदि ऐसी भावना न रहती तो भिन्न-भिन्न कर्मों की कल्पना करके हम उनके फलों में फँसते। मगर अब तो यज्ञ का ही फल मिलेगा और वह होगी मन की एकाग्रता। इसीलिए इन कर्मों से यज्ञ हो रहा है या इन कर्मों के रूप में ही यज्ञ हो रहा है यह ज्ञान कर्मों से छुटकारे के लिए आवश्यक है।

एक ही बात और रह जाती है जो इस श्लोक में आई है। जब यज्ञों के भीतर आत्मज्ञान या ब्रह्मसमाधि भी आ गई, जिसका वर्णन 'ब्रह्मार्पणं' में किया है, तो उसे कर्मजन्य कैसे कहा जाएगा, प्रश्न हो सकता है। परंतु यहाँ तो साफ ही उस समाधि को उसी श्लोक में 'कर्मसमाधि' कह दिया है। वहाँ तो क्रिया में ही ब्रह्म की भावना अथ से इति तक है, और अगर कर्म होगा ही नहीं - क्रिया होगी ही नहीं - तो यह भावना होगी कैसे? इसीलिए वह भी कर्मजन्य ही है, इसमें कोई शक नहीं। इसी से उसे सभी यज्ञों से श्रेष्ठ कहा है। 28वें श्लोक वाला ज्ञानयज्ञ यद्यपि व्यापक है और आत्मज्ञान के अलावे बाकियों को ही यहाँ ज्ञानयज्ञ मानना उचित प्रतीत होता है; फिर भी 33वें श्लोक में ज्ञानयज्ञ कहने, प्रसंग को देखने तथा उत्तरार्द्ध में सिर्फ ज्ञान शब्द होने से भी 'श्रेयान्द्रव्यमयात्', (4। 33) में ज्ञानयज्ञ शब्द से केवल आत्मज्ञान का समझा जाना रुक नहीं सकता। यद्यपि यज्ञों को 'यज्ञक्षपितकल्मषा:' के द्वारा पवित्र करने वाले कहा है; तथापि 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' (4। 38) में ज्ञान को जो सबसे बढ़ के पवित्र करने वाला कहा है उससे भी उसकी यज्ञरूपता सिद्ध हो जाती है। यह ज्ञान अद्वैत आत्मा का ज्ञान ही है यह बात 'ये न भूतान्यशेषेण्' (4। 35) श्लोक से स्पष्ट हो जाती है। क्योंकि जब आत्मा और ब्रह्म एक ही होंगे तभी तो सभी पदार्थ आत्मा में और ब्रह्म में भी नजर आएँगे।

इस प्रकार 35वें श्लोक तक कर्म को अकर्म कर देने की बात कह दी गई और विकर्म को ही अकर्म बन जाने की भी। 36वें में भी विकर्म को ही अकर्म बना दिया है। क्योंकि वृजिन या पाप का प्रश्न तो विकर्म में ही होता है, सुकर्म या कर्मत्याग में नहीं। यह ठीक है कि यहाँ समस्त वृजिन कहने से जब पाप का समुद्र लेंगे - सभी पाप लेंगे - तो संचित और पुराने पाप भी आई जाएँगे। मगर इससे क्या? यह तो और भी सुंदर हुआ कि भूत और भविष्य काल के विकर्म भी अकर्म बन गए और सिद्धांत की व्यापकता हो गई। इसी तरह 37वें श्लोक में ईंधनों का दृष्टांत देकर कर्म समूह के जला देने की जो बात कही गई है उससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ज्ञान से न सिर्फ वर्तमान कर्म अकर्म बन जाते हैं। किंतु भूत और भावी कर्म भी, और इस तरह कर्म के अकर्म बन जाने का भी सिद्धांत व्यापक बन जाता है।

रह गई अकर्म या विकर्म के कर्म बन जाने की बात। सो तो बड़ी मोटी है। इसमें ज्यादा कहने की जरूरत है नहीं। 'कर्मेंद्रियाणि संयम्य' (3। 6-7) आदि श्लोकों में ही यह बात साफ-साफ कह भी दी गई है। उससे बढ़ के सफाई के साथ और क्या कहा जा सकता है? इसी प्रकार कर्म में विकर्म या विकर्म में कर्म की भी बात है। वह धर्मशास्त्रों में भी पाई जाती है और ज्ञान की अपेक्षा नहीं करती। असल में आत्मज्ञान के फलस्वरूप जो परिवर्तन कर्म या अकर्म में होता है, उसी का निरूपण यहाँ है, न कि और कोई। जो चीजें परिस्थिति के ही करते बदल जाती हैं, न कि ज्ञान के करते, उनका ताल्लुक दरअसल गीता से है नहीं। इसीलिए गीता ने या तो तीसरे अध्‍याय की तरह प्रसंगवश उनके बारे में कुछ कह दिया है या छोड़ दिया है। क्योंकि उनकी बखूबी जानकारी स्मृतियों से और अन्य ग्रंथों से भी हो सकती है। कर्मयोग का मूलाधार आत्मज्ञान होने के कारण और इस अध्‍याय में ज्ञान का प्रसंग होने के कारण भी ज्ञान से होने वाली कर्म-अकर्म की बातें ही यहाँ कही गई हैं।

सिर्फ 34वें श्लोक की एक बात रह जाती है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्त्वदर्शी गुरु के पास जा के पहले तो उसके सामने नम्रतापूर्वक आत्मसमर्पण करना होगा। उसके बाद यथाशक्ति सेवा करना जरूरी है। जब नम्रता और सेवा से गुरु महाराज संतुष्ट दीखें तभी मौका पा के आत्मा-परमात्मा के बारे में प्रश्न करना उचित है। यही गीता ने माना है। अर्जुन ने यही किया भी था। ऐसा नहीं कि चट पहुँचे और पट प्रश्न ही कर दिया। फिर सूखे काठ की तरह तने पड़े रहे। जो आत्मज्ञानी और मस्त होगा वह इस पर कभी आँख भी न फेरेगा। प्रश्न का उत्तर देना और समझाना-बुझाना तो दूर रहा। किसी मस्त से, जो बड़े-बड़े मिट्टी के ढेलों के बीच पड़ा रहता था, जब किसी महाराजा ने तरस खा के पूछा कि कहिए कैसे कटती है तो उसने चट उत्तर दिया कि कुछ देर तो तेरी जैसी और कुछ देर तुझसे अच्छी! राजा ने समझा था कि ढेलों में कष्ट होता होगा। मगर यहाँ तो उलटी बात सुनने को मिली! असल में नींद के समय तो ढेला, काँटा या पलँग का पता नहीं रहता। इसीलिए सभी की बराबर कटती है। हाँ, जगने पर मस्त तो मस्त ही झूमते हैं। मगर राजे-महाराजे हजार चिंता में मरते हैं। यही वजह है कि मस्तराम की उस समय अच्छी कटती है। फिर वे किसी की परवाह क्यों करने लगे?

'यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहं' (4। 35) श्लोक महत्त्वपूर्ण है। आत्मज्ञान की बात यों तो पहले भी बार बार 2, 3, 4, अध्‍यायों में आई है। उसके प्राप्त होने पर आत्मज्ञानी योगी या मस्तराम की क्या दशा होती है। यह बात भी कितनी ही बार कितने ही ढंग से कही गई है। मगर अभी तक यह कहीं नहीं बताया गया कि उस ज्ञान का रूप कैसा होता है। यह एक बुनियादी और मौलिक बात है जो अब तक छूटी है। ज्ञान का एक यह जबर्दस्त पहलू है जिस पर प्रकाश पड़ना जरूरी था। यह बात इसी श्लोक में पहले-पहल आई है। यही कारण है कि इस अध्‍याय के अंत में जो समाप्तिसूचक वाक्य 'इतिश्री' आदि है उसमें इस अध्‍याय को, इसमें प्रतिपादित मुख्य विषय के कारण ही, 'ज्ञान-कर्म-संन्यास योग' नाम दिया गया है। कर्म-संन्यास की बात भी इस अध्‍याय में आई है यह तो पहले ही कहा है मगर आगे 'योगसंन्यस्तकर्माणं' (4। 41) में साफ ही कर्म-संन्यास आया है न कि अकर्म शब्द के अर्थ के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से आया है। अध्‍याय के अंत में यह संन्यास और इसी के बाद 42वें में 'योगमातिष्ठ' के द्वारा कर्म का करना कह के अध्‍याय को खत्म किया है। इसीलिए आगे अर्जुन को शंका करने का मौका फौरन ही मिल गया है। यह भी कितना अच्छा है कि पहले ज्ञान और पीछे कर्म संन्यास आया है। फलत: 'ज्ञान-कर्म-संन्यासयोग' नाम देना उचित हो गया!

हाँ, तो उस ज्ञान को जरा देखा जाए। यह तो पहले ही कह चुके हैं कि इस श्लोक में अद्वैत ज्ञान का ही प्रतिपादन है। मगर अद्वैत के मानी केवल यही नहीं है कि जीव और ईश्वर या आत्मा और परमात्मा की एकता है, जैसा कि कह चुके हैं। यह एकता तो हई इसके बिना तो यह संभव होई नहीं सकता कि सभी भूतों या सत्ताधारी पदार्थों को - सारे संसार को - आत्मा में और परमात्मा में - दोनों में ही - देखा जा सके। अगर दोनों दो होते तो यह कैसे संभव था कि जो चीजें आत्मा में दीखतीं वही एक-एक करके परमात्मा में भी नजर आतीं? दो पृथक पदार्थों में ऐसा होना, ऐसा देखा जाना असंभव है। असल में दोनों एक ही हैं। मगर मोह, भ्रम या अज्ञान की भूलभुलैया के चलते अलग-अलग - भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। किंतु आत्मा का साक्षात्कार होते ही यह ज्ञानी मस्त हो के भीतर ही भीतर अपनी पुरानी नादानी पर और दुनिया की भी मूर्खता पर हँसता है कि देखिए न, हम इन्हें दो मानते थे! हालाँकि दोनों एक ही हैं! उफ, ऐसी अंधेर कि एक को दो कर दिया! सो भी ऐसे दो, कि एक दूसरे में जमीन आसमान का फर्क! क्या गजब है! इसी के साथ वह सारे संसार के पदार्थों को अपने ही भीतर - अपनी आत्मा में - अपने आप में - एक-एक करके सिनेमा के चित्रों की तरह साफ-साफ चलते फिरते और काम करते देखता है! उन्हें परमात्मा में भी देखता है! वह तो प्रत्यक्ष ही देखता और मानता है कि मैं ही परमात्मा हूँ और मुझी में यह सारी दुनिया है! संसार के पदार्थों के रग-रग में अपने परमात्मा को - अपने आपको - ओत प्रोत एवं विधा हुआ देख के वह आश्चर्य एवं आनंद में मस्त हो जाता है। यही दशा होने पर हो तो वामदेव बोल उठे कि मैं ही, मनु, सूर्य और सभी कुछ हूँ! यह श्लोक अर्जुन से कहता है कि ज्ञान होने पर तुम्हारी भी यही हालत हो जाएगी, याद रखो! फलत: जब तक ऐसी मस्ती की दशा न आ जाए उसके लिए निरंतर यत्न करना ही होगा।

लेकिन यह अद्वैत तो तभी पूर्ण और सच्चा होगा जब आत्मा-परमात्मा की एकता के अनुभव के साथ ही यह भी दीखने लगे कि यह जगत इस जगत के सभी पदार्थ हमसे - आत्मा से - पृथक नहीं हैं। तभी वास्तविक अद्वैत ज्ञान होगा। यह बात भी इस श्लोक में है। 'अशेषेण भूतानि' कहने से सत्ताधारी हरेक भौतिक पदार्थ के बारे में ऐसा देखने की बात साफ हो जाती है। मगर यह कैसे संभव है। जब तक आत्मा के अलावे अन्य पदार्थों की स्वतंत्र, जुदी सत्ता का अभाव न माना जाए - उनके पृथक अस्तित्व का अभाव न माना जाए? सोने के कड़े कंगन आदि को देख के कोई भी अनुभव कर सकता है कि इनमें सर्वत्र सोना ही सोना है, ये चीजें सोने में ही हैं, सोने से अलग नहीं हैं। इसी प्रकार मिट्टी के अनेक बरतनों के बारे में भी मिट्टी ही मिट्टी का अनुभव करके कह सकता है कि ये सभी पात्र मिट्टी में ही हैं, मिट्टीमय हैं, मिट्टी से जुदे नहीं हैं। लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि इन बरतनों के बारे में कहा जाए कि ये सोने में ही हैं, सोने से अलग नहीं हैं। या कंगन, कड़े आदि के बारे में कहा जाए कि ये मिट्टी ही हैं, मिट्टी से अलग नहीं हैं। क्योंकि इन दोनों में - सोने और मिट्टी में - कोई मेल है नहीं। दोनों की मौलिक विभिन्नता है। मगर श्लोक में जो अनुभव बताया गया है वह तो ठीक इसी तरह का है, इसी प्रकार का होना चाहिए कि ये सभी पदार्थ आत्मा में ही हैं, आत्मा से अलग नहीं हैं।

यहाँ दिक्कत यह पड़ती है कि संसार में असंख्य आत्माएँ हैं और उनकी चैतन्य शक्ति की समानता को देखते हुए यदि किसी प्रकार कहा जा सके भी कि ये सभी आत्माएँ मुझमें ही हैं, मुझसे जुदी नहीं हैं; या जब आत्मा-परमात्मा की एकता है तो आत्मा-आत्मा की एकता भी अर्थ सिद्ध है; इसलिए एकता के खयाल से अगर ठीक ही कह सकें कि सभी आत्माएँ मुझसे जुदी नहीं हैं। तो भी जो अचेतन भौतिक पदार्थ हैं उन्हें कैसे कहें कि ये मेरी आत्मा से - मुझसे - अलग नहीं है? किंतु 'भूतानि अशेषेण' कहने से तो वे भी आते ही हैं। भूत कहने से ही आत्मा के सिवाय शरीरादि सभी आ जाते हैं। जब अशेषेण कह दिया तब तो कोई छूट ही नहीं सकता। इसलिए उनकी भी तन्मयता का ज्ञान आत्मा को, हमें होना ही चाहिए। हाँ, एक ही बात हो सकती है। जैसे सपने में देखे पदार्थों के बारे में जगने पर अनुभव होता है कि मुझसे अलग या मेरे अलावे और कोई चीज जो दीखती थी, कहाँ थी? वहाँ सपने में भी सब कुछ मैं ही था, मेरे अलावे और तो कुछ था नहीं। या जैसे रस्सी में भ्रम से माने गए साँप के बारे में उजाले में यही अनुभव होता है कि यह तो रस्सी ही है; यही साँप मालूम पड़ती थी; इसके अलावे कोई साँप-वाँप तो है नहीं। ठीक यही बात संसार के बारे में भी हो कि मुझसे अलग कहाँ कोई चीज है? मैं ही तो सर्वत्र हूँ, सब में हूँ। मेरे अलावे तो और कुछ हई नहीं। तभी श्लोक का अर्थ ठीक-ठीक जँचेगा। तभी वास्तविक अद्वैतवाद भी सिद्ध होगा।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥38॥

क्योंकि (वस्तुत:) इस दुनिया में ज्ञान से बढ़ के पवित्र - शुद्ध करने वाली - चीज दूसरी हई नहीं। कर्मों के फलस्वरूप जिसका अंत:करण - मन - शुद्ध हो गया है वही इसे समय पा के अपने में ही हासिल कर लेता है। (बाहर जाने या ढूँढ़ने की जरूरत नहीं होती)। 38।

जो समझते हैं कि मन की शुद्धि और स्थिरता के बाद फौरन ही ज्ञान हो जाएगा, उन्हीं के लिए यहाँ 'कालेन' - समय पा के - कहा गया है। इसे प्राप्त करने में समय लगता है, देर होती है। क्योंकि भावना, निदिध्‍यासन और समाधि की जरूरत तो होती है और उसमें काफी समय लगता है। इसी बात का स्पष्टीकरण अगले दो श्लोक करते हैं। 'आत्मनि' - आत्मा में - कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मा का ही तो ज्ञान होना है और उसी में तो जगत को देखना है, भीतर ही ढूँढ़ना है तीर्थ में या कहीं और तो जाना-वाना है नहीं।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति॥39॥

जो श्रद्धा वाला है, जिसने अपनी इंद्रियों को बखूबी काबू में कर लिया है और जो इस बात में दिन-रात मुस्तैद है, उसी को ज्ञान होता है। ज्ञान पर अखंड शांति का अनुभव फौरन ही होने लगता है। 39।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥40॥

(विपरीत इसके) जो कुछ जानता ही नहीं, जिसे श्रद्धा भी नहीं है और जिसके मन में संशय ने घर कर लिया है वह चौपट ही हो जाता है। (क्योंकि हर बात में शक करने वाले का न तो यहीं काम चल सकता है और न परलोक में ही। उसे चैन तो कभी मिलता ही नहीं। 40।

यहाँ अज्ञ कहने का अभिप्राय यही है कि आत्मज्ञान के उपायों के बारे में भी कुछ न जानता हो; इसीलिए न तो उसका इंद्रियों पर काबू ही हो और न मुस्तैदी ही। पहले श्लोक की यही बातें ज्ञान के लिए मूल रूपेण आवश्यक हैं और यही उसमें हैं नहीं। वह कोरा ही है, यही तात्पर्य है। श्रद्धा हृदय की चीज है। केवल तर्क-दलीलों पर ही निर्भर न करके विश्वास करना ही पड़ता है। तभी ज्ञान होता है। मगर जो श्रद्धालु नहीं हैं, उनका हृदय नीरस होता है। फलत: केवल दिमागी तर्कों से ही वे निश्चय करना चाहते हैं। परिणाम यह होता है कि बात-बात में शक करते रहते हैं। क्योंकि 'तर्कोऽप्रतिष्ठ:' के अनुसार तर्क तो कहीं जा के स्थिर हो नहीं सकता। वह तो पहरेदार सिपाही है और वह पहरेदार सिपाही क्या जो बराबर चलता न रहे और स्थिर या खड़ा हो जाए? और जब कहीं किसी बात पर स्थिरता नहीं, निश्चय नहीं, तो सर्वत्र संशय का एकच्छत्र राज्य समझिए। फिर तो मौत ही मौत है। क्योंकि खान-पान आदि में भी संशय हो सकता है कि पाचक ने जहर तो नहीं दे दिया है, बाजार से मँगाई चीजों में ही किसी शत्रु ने विष तो नहीं मिला दिया है, आदि-आदि। इसीलिए इस दुनिया का काम ही जब नहीं चल पाता तो ऐसा लोगों का परलोक क्या बनेगा खाक?

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।

आत्मवन्तं न कर्माणि निब ध्न न्ति धनंजय॥41॥

हे धनंजय, जिसने कर्म करते-करते अंत में उसके संन्यास की दशा प्राप्त कर ली है, जिसने आत्मज्ञान के बल से संशय को खत्म कर दिया है (और इसीलिए) जिसने आत्मा को पा लिया है कर्म उसे बंधन में डाल नहीं सकते। 41।

यहाँ 'आत्मवन्तं' कहने का अभिप्राय यही है कि वह आत्मावाला हो गया है, यानी जो आत्मा खोई थी उसे प्राप्त कर लिया है। उसका प्राप्त करना तो उसे जान लेना ही है। इसीलिए इसके पहले 'ज्ञानसंछिन्नसंशयं' कहा है। संशय की अँधियारी में ही तो आत्मा लापता थी और यह संशय पैदा हुआ था अज्ञान से, जैसा कि आगे लिखा है। अब ज्ञान के दीपक ने उसी को मिटा दिया। मगर ज्ञान को पक्का और दृढ़ होने के लिए समाधि की जरूरत है। उसके बिना वह मजबूत होई नहीं सकता। किंतु कर्मों को करते रहने पर समाधि के लिए फुरसत कहाँ? इसीलिए कर्मों का संन्यास भी बता दिया है। किंतु यह संन्यास मिथ्याचार और दंभ न हो, नकली न हो, इसीलिए कह दिया कि कर्मों के करते-करते अंत:करण की शुद्धि हो जाने पर जब संन्यास की योग्यता हो जाए और उसका अवसर आ जाए तभी संन्यास करना ठीक है। यहाँ और आगे योग का अर्थ है कर्म।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥42॥

इसीलिए हे भारत, अज्ञान से पैदा होनेवाले (और) हृदय में ही घर बना के जमनेवाले इस संशय (रूपी प्रचंड शत्रु) को आत्मा के ज्ञानरूपी तलवार से कत्ल करके उठ खड़े हो (और युद्धात्मक) कर्म करो। 42।

यहाँ ज्ञान को तलवार कहने का आशय यही है कि जैसे तीखी तलवार से ही जबर्दस्त शत्रु को मार सकते हैं; कमजोर या भोथरी तलवार से कोशिश करने पर उलटे खतरा रहता है। वैसे ही ज्ञान खूब दृढ़ और शक-सुभे से बिलकुल ही अछूता जब तक न हो जाए इस अज्ञान का और तन्मूलक संशय का भी खात्मा होता ही नहीं। इसलिए दीर्घकाल तक यत्न करके पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना निहायत जरूरी है। उपनिषदों की आख्यायिकाएँ इस बात के प्रबल प्रमाण हैं कि कच्चे ज्ञानवाले का संशय उसे कैसे परेशान करता है।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽ ध्या य:॥4॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग नामक चौथा अध्‍याय यही है।

पाँचवाँ अध्‍याय

चौथे अध्‍याय में जो कुछ भी कहा गया है वह अर्जुन के और दूसरों के भी बड़े ही काम का है। इसमें शक की जगह नहीं है। अर्जुन चुपचाप ध्‍यानपूर्वक इसीलिए सुनता भी रहा। कर्म-अकर्म के विशद निरूपण और ज्ञान के स्वरूप के प्रतिपादन ने उसे मुग्ध कर दिया था। अंत में जो यह कहा गया है कि कर्मों के करते-करते संन्यास प्राप्त कर लेने पर ही ज्ञान होता, आत्मा की प्राप्ति होती और कर्मों के बंधन से छुटकारा मिल जाता है, उससे भी उसे पूरा संतोष हुआ। फलत: भीतर ही भीतर अपने तात्कालिक कर्तव्य की उधेडबुन वह करने ही लगा था कि एकाएक निराली बात अध्‍याय के आखिरी श्लोक में कह दी गई! उसे तो यह देखना था कि मैं किस दशा में हूँ। आया मुझे अभी कर्म ही करना चाहिए, या अब मेरी योग्यता ऐसी हो गई है कि संन्यास ले लूँ। क्योंकि उपदेश सुनने के बाद उसे सोचना-विचारना और परिस्थिति के अनुसार ही काम करना था। वह उसी उधेडबुन में लगा भी था। तब तक चटपट आज्ञा हुई कि खड़े हो जाओ और युद्धात्मक कर्म में जुट जाओ।

इससे उसके मन में खलबली मचना और संदेह होना जरूरी था। क्योंकि कृष्ण को क्या पता कि वह किस दशा में है, उसकी योग्यता क्या है? उसका पता तो आत्मनिरीक्षण के बाद अर्जुन को ही लग सकता था। निरीक्षण की कसौटी भी उसे चौथे अध्‍याय में मिली ही थी। फिर कृष्ण को यह कहने की क्या जरूरत थी कि तुम्हें तो कर्म ही करना है, न कि संन्यास लेना? तब तो उपदेश की कोई जरूरत थी ही नहीं। किंतु सीधे आज्ञा देनी थी, फौजी फरमान जारी कर देना था कि लड़ना होगा। मगर जब उपदेश हो रहा है और तर्क-दलील के साथ बरा-बार कहा जा रहा है कि जानो, समझो, सोचो, विचारो 'बोद्धव्यम्, विद्धि', तब यह क्यों हुआ? तब यह आज्ञा कैसी कि लड़ो? तब तो यह उपदेश का नाटक ही माना जाएगा न? कम से कम इस प्रकार का खयाल उसके दिमाग में बिजली की तरह एकाएक दौड़ जाना स्वाभाविक था। फलत: कृष्ण से उसका चटपट प्रश्न करना जरूरी हो गया कि एक ही साँस में दोनों बातें क्यों कहते हैं? या तो कर्म ही कहिए और बात खत्म कीजिए; या संन्यास की ही बात कहिए और सोचने दीजिए कि आया मैं उसका अभी अधिकारी हो पाया हूँ या नहीं। यह झमेला ठीक नहीं। साफ-साफ बोलिए। इसीलिए -

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

एच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥ 1

अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण, आप (पहिले तो) कर्मों के संन्यास की बात कहते हैं और (फौरन ही) उन्हें करने को कहते हैं! (यह क्या?) इन दोनों में जो अच्छा हो वही मुझे पक्का-पक्की बताइए। 1।

यहाँ 'कर्मणां' इस षष्ठी विभक्ति के बाद 'संन्यास' और 'योगं' लिखने से स्पष्ट हो जाता है कि संन्यास कहते हैं कर्मों के त्याग को और योग कहते हैं उनके करने को। इसीलिए हमने 'कर्मेंद्रियै: कर्मयोगं' (3। 7) आदि में 'करना' यही अर्थ किया है। यही वहाँ जँचता भी है। ऐसी दशा में यहाँ, चौथे अध्‍याय के अंत में या ऐसी ही और जगहों में भी योग का दूसरे अध्‍याय वाला कर्मयोग अर्थ जो लोग कर डालते हैं, फिर भी अपने अर्थ में खींचातानी देख पाते नहीं, उनसे हमें इतना ही अर्ज करना है कि खींचतान किसी की मौरूसी नहीं है। इसलिए वे खुद अपने बारे में ही सोचने का कष्ट करें।

अर्जुन के पूछने का यह भी अभिप्राय है कि यदि ज्ञान के लिए संन्यास जरूरी न हो और कर्म से ही काम चलता हो, तो साफ-साफ कहते क्यों नहीं? आखिर आत्मज्ञान तो आवश्यक है। उसके बिना तो काम चलने का नहीं । अब अगर उसके लिए खामख्वाह संन्यास जरूरी न हो, तो यही बात साफ-साफ कह दीजिए। क्योंकि अब तक के कथन से तो पता चलता है कि दोनों की जरूरत है। मैंने समझी है भी दोनों की जरूरत समानरूप से ही। इसीलिए किसी को भी अपने मौके पर छोड़ा नहीं जा सकता। दोनों के ही अलग-अलग मौके आते भी हैं। लेकिन अगर आप ऐसा मानते हों कि मेरी समझ गलत है और दोनों की जरूरत समान नहीं है; किंतु कर्म की ही आवश्यकता अनिवार्य है; इसलिए वही हर हालत में अच्छा है - कर्तव्य है, तो यही बात निश्चित रूप से साफ-साफ कह दीजिए। या अगर आप यह मानते हों कि जरूरत तो दोनों की इक-सी ही है; दोनों के ही अपने-अपने अवसर भी आते हैं, फिर भी कर्म की विशेषता इसलिए है कि वह पहली सीढ़ी है; फलत: उस पर पाँव दिए बिना संन्यास की दूसरी सीढ़ी पर या तो पहुँची नहीं सकते या पहुँचने में खतरा है; साथ ही, कर्मों के करने में दिक्कतें और परेशानियाँ जो होती हैं, उन्हीं के करते लोग जी चुरा के उनसे भागना चाहते हैं; यही कारण है कि कर्म पर जितना जोर देना जरूरी हो जाता है उतना संन्यास पर नहीं; यही नहीं, कर्म पर ही जोर देने और उसी को अच्छा बताने पर जब लोग उसमें पड़ जाएँगे तो संन्यास का मौका तो स्वयं आई जाएगा और उसे लोग करी लेंगे; तो यही बात स्पष्टतया कह दीजिए।

कृष्ण खासतौर से इसी आखिरी अभिप्राय से ही बातें कर रहे थे। उनके कहने का आशय भी यही था। इसीलिए उसी को स्पष्ट करने के लिए पुनरपि -

श्रीभगवानुवाच

संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ 2

श्रीभगवान ने उत्तर दिया - (बेशक), कर्मों का संन्यास और उनका करना (ये दोनों ही) परम कल्याण - मोक्ष - के देनेवाले हैं। लेकिन इनमें संन्यास से योग - कर्मों का करना - ही अच्छा है। 2।

ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बंधात्प्रमुच्यते॥ 3

हे महाबाहु, उसी को सदा संन्यासी मानना चाहिए जिसे न राग है, न द्वेष - जो न कुछ हटाना चाहता है, न कुछ लेना। क्योंकि जो (इस प्रकार) राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित है वही आसानी से बंधनों से छुटकारा पा जाता है। 3।

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पंडिता:।

एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥ 4

सांख्य - संन्यास (और) योग को - दोनों को - दो चीजें नासमझ लोग (ही) मानते हैं। (क्योंकि) यदि एक पर भी अच्छी तरह कायम रहे तो दोनों का फल मिली जाता है। 4।

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥ 5

जो स्थान संन्यास से मिलता है वही योग से भी। (इसलिए इस तरह) संन्यास तथा योग को जो एक ही समझता है (दरअसल) वही समझदार है। 5।

संन्यास्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चरेणाधिगच्छति॥ 6

हे महाबाहु, बिना योग के संन्यास की सिद्धि - प्राप्ति - असंभव है। (विपरीत इसके) जो योगयुक्त है अर्थात कर्म करता है उसे संन्यास की प्राप्ति शीघ्र ही होती है। 6।

आगे बढ़ने के पहले इन पाँच श्लोकों के संबंध में कुछ बातें कह देना जरूरी है। एक तो यह कि दूसरे श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय वही है जो उससे पहले हमने अर्जुन के प्रश्न के अभिप्राय के विवेचन के सिलसिले में आखिर में कह दिया है। कर्म के खतरों को ध्‍यान में रख के ही उस पर जोर देना कृष्ण जरूरी समझते हैं। उनके जानते वास्तविक संन्यास में कोई खतरा है नहीं और कच्चे संन्यास को रोकने के लिए कर्मों पर ही जोर देना जरूरी हो जाता है। मगर सर्वसाधारण के सामने हर बात इतनी सफाई के साथ कही तो जा सकती नहीं। क्योंकि सब लोग इसे समझ पाते नहीं और भटक जाते हैं। इसीलिए यही बातें दूसरे तरीके से कही जाती हैं जिन्हें वेदवाद या अर्थवाद का तरीका गीता ने भी माना है और पुराने लोगों ने भी। कृष्ण ने भी यही तरीका यहाँ अपनाया है।

असल में संन्यास की सीढ़ी कर्मों के बाद आने के कारण ऊँची तो हई। उसकी जवाबदेही भी बड़ी है। इसीलिए शास्‍त्रों ने उसकी प्रशंसा काफी की है। मगर दिक्कत यह होती है कि जन-साधारण प्रशंसा के कारणों और रहस्यों को न समझ सकने के कारण उसके बाहरी रूप पर ही लट्टू हो के उसी ओर झुक पड़ते हैं। फलत: कर्मों से हटने का खतरा बराबर रहता है। इसीलिए तीसरे श्लोक में यह दिखाया गया है कि असली संन्यासी वही है जो रागद्वेष एवं काम-क्रोध से शून्य हो, जिसमें बैर-विरोध आदि होई नहीं। उसे ही मुक्ति मिलती भी है। अब यदि यही काम-क्रोधादि का त्याग कर्म करने वाले में आ जाए तो उसके दोनों ही हाथ में लड्डू हैं। वह योगी का योगी - कर्मी - तो ठहरा ही। साथ ही, यदि देखा जाए तो संन्यासी भी हो गया और इस तरह उसने मुक्ति का रास्ता साफ कर लिया। इससे फायदा यह होता है कि एक तो पाखंड और मिथ्याचार के रूप में संन्यास को प्रश्रय नहीं मिलता। दूसरे जन-साधारण उससे हिचक जाते और सोचने लगते हैं कि तब तो कर्म ही अच्छा है। क्योंकि हम काम-क्रोधादि से शून्य तो हो सकते नहीं और इसमें ऐसा होना जरूरी भी नहीं, जबकि संन्यास में नितांत आवश्यक है। इसलिए आइए, कर्म ही करें और यथासंभव काम-क्रोधादि को भी रोकें, ताकि आगे का भी रास्ता धीरे-धीरे साफ होता चले।

एक बात और भी है। यदि यह निश्चय हो कि संन्यास और योग के फलस्वरूप जो स्थान या पद मिलते हैं, या मुक्ति होती है वह दो चीजें हैं, तो स्वभावत: खयाल होगा कि संन्यास के ऊँचे दर्जे की चीज होने के कारण उसके फलस्वरूप जिस वस्तु की प्राप्ति होगी वह अवश्य ही श्रेष्ठ होगी, और श्रेष्ठ पदार्थ कौन नहीं चाहता? इसलिए उसी की आतुरता और लोभ के चलते बहुत लोग फिर भी संन्यास पर जोर मार सकते हैं और असमय ही उस ओर पाँव बढ़ा दे सकते हैं। अतएव यह बताने की जरूरत है कि दोनों के दो फल न हो के दोनों का सम्मिलित फल एक ही है। चाहे संन्यासी हों या कर्मी हों, या आगे-पीछे दोनों ही हों, जाएँगे हर हालत में एक ही स्थान पर। एक ही स्थान के रास्ते के ये दो विभाग हैं, न कि और कुछ। ऐसी दशा में एक तो बेचैनी और लोभ जाता रहेगा। दूसरे यह खयाल होगा कि जब रास्ते को पूरा ही करना है और पहले भाग के पूरा करने पर ही दूसरा आएगा तो जल्दबाजी क्यों करें? ऐसा करने से मिलेगा भी क्या? यही बात आगे के दो - 4, 5 - श्लोकों में स्पष्ट की गई है।

कुछ लोगों का भ्रम हो सकता है और हो भी गया है कि श्लोकों के अनुसार यद्यपि फल है एक ही; तथापि दोनों मार्ग उसकी प्राप्ति के लिए स्वतंत्र हैं; न कि एक ही लंबे मार्ग के ये दो पड़ाव हैं। मगर बात ऐसी नहीं है। चौथे श्लोक के पूर्वार्द्ध के देखने से यह खयाल जरूर हो जाता है कि दोनों - संन्यास और योग - को जो एक कहा है वह इसीलिए कि इन दोनों स्वतंत्र मार्गों से एक ही जगह पहुँचते हैं। मगर जब उसी के उत्तरार्द्ध पर गौर करते हैं तो यह खयाल मिट जाता है और दोनों मिला के एक ही रास्ता पूरा होता दीखता है। उत्तरार्द्ध का अर्थ यह है कि 'यदि एक रास्ते पर भी ठीक-ठीक चलें तो भी दोनों के फल मिल जाते हैं।' इसमें दो बातें हैं। पहली है दोनों के फल के मिलने की। यदि दोनों का फल स्वतंत्र रूप से एक ही होता तो इतना ही कहना काफी था कि 'वही फल मिलेगा' - "तदेव विन्दते फलम्।" यह कहने की क्या जरूरत थी कि एक पर चलने पर भी दोनों का फल मिलता है? दोनों कहने से तो दोनों का सम्मिलित फल मिलता है, यही अर्थ निकलता है। एक कहने के बाद दोनों का - उभयो: - कहने पर दूसरा अर्थ होई नहीं सकता। नहीं तो इतना ही कहना पर्याप्त था कि चाहे किसी रास्ते पर चलिए नतीजा एक ही होगा।

लेकिन 'एक पर भी ठीक-ठीक चले' - "एकमप्यास्थित: सम्यक्" यह भाग तो और भी सफाई कर देता है। इसमें जो 'ठीक-ठीक' विशेषण लगा है वह यही बताता है कि रास्ते की पाबंदी अच्छी तरह होना जरूरी है। जल्दबाजी में एक रास्ते को छोड़ के दूसरे पर जाने में खतरा है। यह तो संभव नहीं कि तीसरा भी रास्ता हो जिसमें भटक जाएँ और दो में एक पर भी चल न सकें। क्योंकि जब दोई का नाम लेते हैं और तीसरे की चर्चा भी नहीं करते तब उसका प्रश्न आता ही कहाँ है? और जब तीसरा यहाँ उपस्थित हई नहीं तब तो इतना ही कहना काफी है कि एक पर या किसी पर भी चलने पर वहीं पहुँचेंगे। भटकने की बात हई नहीं। हो भी क्यों? जो लोग मोक्षमार्गी हैं उनके भटकने की बात गीता क्यों कहे? वह तो सारी बातें जानते हैं। उनने तो जान लिया है कि दो रास्ते हैं। जानना शेष यही है कि आया ये दोनों ही एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, या एक ही रास्ते के दो पड़ाव और विभाग हैं। अगर पड़ाव की बात नहीं है तो इतना ही कहना काफी था कि चाहे किसी पर भी चलिए वहीं पहुँचिएगा। ठीक-ठीक चलना तो हई। गलत जाने की तो बात हई नहीं है।

मगर जब 'ठीक-ठीक' या 'सम्यक्' कहा है तो इससे कृष्ण का यही आशय जाहिर होता है कि हरेक पड़ाव को पूरा कर लेना होगा। नहीं तो जल्दबाजी करने में रास्ता पूरा न होगा। लक्ष्य स्थान पर पहुँच भी न सकेंगे। अनजान या आतुरता में कोई जल्दी ही संन्यासी बन जाने की कोशिश न करे, इसीलिए यह चेतावनी है। क्योंकि ऐसा करने पर रास्ते पर ठीक-ठीक चलना नहीं हो सकेगा। पाँचवें श्लोक में स्पष्ट भी कर दिया है कि संन्यास और योग से जब एक ही जगह पहुँचना है तब घबराहट की क्या बात? योग में भी तो रास्ता तय करी रहे हैं। उसके पूरा होते ही संन्यास वाला पड़ाव या वह स्थिति भी अपने आप आएगी ही। तब क्यों हों?

अब आखिरी बात यही रह जाती है कि एक ही मार्ग के दो पड़ाव होने पर भी पहले संन्यास आता है, या योग, कौन कहे? पहले संन्यास ही क्यों न माना जाए? ऐसा सोचना असंभव नहीं । असल में आलस्य और अकर्मण्यता के करते स्वभावत: लोग सोचते रहते हैं कि मुक्ति भी मिल जाए और विशेष कुछ करना न पड़े तो अच्छा हो। यह भी खयाल होता है कि जभी तक कर्मों के फंदे से बचें तभी तक सही। पीछे देखा जाएगा। इसीलिए ऐसा खयाल होना जरूरी है कि पहले संन्यास ही क्यों न हो। तीसरे अध्‍याय के शुरू में ही यह खयाल दिखाया भी गया है। इसी का उत्तर छठे श्लोक में दिया है कि संन्यास बाद की चीज है पहले तो योग ही आता है। इसीलिए योग के बिना संन्यास का होना असंभव है। यदि सच्चा संन्यास चाहते हैं तो पहले योग या कर्म करना आवश्यक है। इस पर तीसरे अध्‍याय के शुरू में ही हमने काफी प्रकाश डाला है।

छठे श्लोक में ब्रह्म का अर्थ संन्यास है यह पता गौर से पूरे श्लोक के पढ़ने से ही लग जाता है। हमने यह बात बहुत पहले बखूबी सिद्ध भी की है। इसलिए जो लोग ब्रह्म का परब्रह्म या परमात्मा अर्थ करते हैं वह भूलते हैं। जब पूर्वार्द्ध में संन्यास की बात है तो उत्तरार्द्ध में एकाएक परब्रह्म कैसे और कहाँ से आ गया? शुरू में तो उसका प्रसंग भी नहीं आया है। इसी प्रकार पूर्वार्द्ध में जो 'दु:खमाप्तुम्' शब्द है उसका भी अर्थ है कि मिलना या प्राप्त करना असंभव है। जो लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि कष्ट से मिलता है वह अक्षरों का अर्थ भले ही ठीक करते हों; मगर तात्पर्य गलत बताते हैं। ऐसा मुहावरा है कि असंभव की जगह कह या लिख दें कि कष्टसाध्‍य है। जैसे अंग्रेजी से इसका कोई काम नहीं है, के मानी में 'इट् हैज लिटिल यूज' (It has little use) बोलते हैं; मगर लिटिल का थोड़ा अर्थ नहीं करते। वैसे ही संस्कृत में भी ऐसा लिखने-बोलने की रीति है।

योग या कर्म करते-करते कैसे मन और इंद्रियों पर काबू रख के पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जाता है और इस प्रकार कर्मों से छुटकारा प्राप्त किया जाता है, या यों कहिए कि कर्मों के करते रहने पर भी आत्मज्ञान के बाद वे आत्मा में कैसे नहीं लिपटते या आत्मा उनमें नहीं चिपकती, यही बात आगे दूर तक कही गई है। कर्मों से कैसे अंत:करण की, मन की शुद्धि होती है इत्यादि बातें आगे के बीस (7-26) श्लोकों में पूरी हुई हैं बल्कि यों कहिए कि कुल अध्‍याय ही इसी में पूरा हो गया है। क्योंकि 26वें के बाद दोई श्लोकों में पातंजल योग और समाधि की बात, ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति के लिए, कह के 29वें में अध्‍याय को ही पूरा कर दिया है।

योगयुक्तो विशु द्धा त्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ 7

कर्म करते-करते जिसका मन या अंत:करण अत्यंत निर्मल और इसीलिए अपने काबू में हो गया है (और उसके फलस्वरूप) इंद्रियाँ भी काबू में हैं वह खुद सभी सत्ताधारी पदार्थों की आत्मा ही हो जाता है। (इसीलिए) कर्म करते हुए भी वह उसमें सटता नहीं। 7।

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन्श्वसन्॥ 8

प्रलपन्विसृजन्गृ ह्व न्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इंद्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्त्तन्त इति धारयन्॥ 9

(इस प्रकार) पूर्ण अवस्था को प्राप्त योगी तत्त्वज्ञानी हो जाने पर देखता-सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, सोता, साँस लेता, बोलता, मल-मूत्र त्यागता, पकड़ता और पलकें मारता हुआ भी यही धारणा रखता है कि यह तो इंद्रियाँ ही अपने कामों में लगी हैं; मैं तो कुछ भी करता-कराता हूँ नहीं। 8। 9।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा॥ 10

(लेकिन जो इस तरह पहुँचा हुआ न भी हो ऐसा भी) जो कोई भगवान को समर्पण करके और हाय-हाय तथा आसक्ति छोड़ के कर्मों को करता है वह (भी) पाप से वैसे ही नहीं सटता जैसे कमल का पत्ता पानी में रह के भी पानी से नहीं सटता। 10।

 

कायेन मनसा बु द्ध या केवलैरिन्द्रियैरपि।

योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ 11

(क्योंकि) कर्म करने वाले समझदारी से काम ले के और आसक्ति एवं हाय-तोबा को छोड़ के मन की शुद्धि के लिए केवल शरीर से, केवल इंद्रियों से और केवल मन से कर्म करते रहते हैं। 11।

युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शांतिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्‍यते॥ 12

(इस तरह) समझदार और मन पर काबू रखने वाले कर्मों के फलों से नाता तोड़ के ब्रह्मनिष्ठा - जीवन्मुक्ति - की शांति हासिल कर लेते हैं। (विपरीत उनके) जो लोग समझदार और मन को दबाने वाले नहीं हैं वे फलों में लिपट के जन्म-मरण आदि के बंधनों में फँसते हैं। 12।

ऊपर के तीन - 10-12 - श्लोकों को देखने और एक साथ मिलाने से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें जो बातें कही गई हैं वह आत्मज्ञानी की नहीं हैं। किंतु साधारण कर्मियों की ही हैं, जिन्हें योगी भी कहा है और युक्त भी। यही ठीक है कि वह गीता की गिनती में आने वाले हैं, न कि लंपट। लंपटों की तो उलटे 12वें श्लोक के उत्तरार्द्ध में निंदा की है, उनकी दुर्दशा लिखी है। इसीलिए 10वें श्लोक वाले 'ब्रह्मण्याधाय' - "ब्रह्म में स्थापित करके" का अर्थ हमने 'यत्करोषि' (9। 27-28) के अनुसार भगवान को समर्पण रूप पूजा ही किया है। ज्ञानियों को तो पहले ही कह दिया कि वह कर्म से अपना ताल्लुक मानते ही नहीं हैं। फिर वे क्या उन्हें ब्रह्म में रखेंगे? उन्हें कर्मों से लिपटने का सवाल भी कहाँ आता है? असल में ये तो वही लोग हैं जो या तो भगवान की पूजा की ही भावना से कर्म करके मन की शुद्धि प्राप्त करते हैं, या सीधे इसी खयाल से कि कर्म से मन:शुद्धि हो। मगर यों तो निराधार कर्म होगा नहीं। मन:शुद्धि के लिए करने के भी तो कोई मानी नहीं जब तक कर्मों को कहीं एक जगह बाँध या एक ही लक्ष्य में लगाया न जाए। फिर चाहे वह ईश्वर-पूजा हो, यज्ञ हो, या ऐसी ही और कोई चीज। इसलिए पहले - 10वें - से मिलाकर ही 11वें का अर्थ करना जरूरी हो गया है। 12वें में भी जो कर्म के फल के त्याग से ब्रह्मनिष्ठावाली शांति की प्राप्ति कही गई है वह भी क्रमश: मन की शुद्धि आदि के द्वारा ही होती है, न कि सीधे कर्मों से ही। क्योंकि केवल फल के त्यागने पर भी कर्म तो रही जाता है, और जब तक दोनों न छूटें वह शांति मिलेगी कैसे? मगर वह तो छूटेंगे ज्ञान के बाद ही और वह प्राप्त होगा मन की शुद्धि आदि के द्वारा ही। जब अध्‍याय के शुरू में ही सभी प्रकार के कर्मों की बात आई है तब तो ऐसे मन:शुद्धयर्थ कर्मों का यहाँ निरूपण ठीक ही है।

अब रह जाती है 11वें श्लोक के उत्तरार्द्ध की एकाध बात। एक तो बुद्धि से कर्म होते नहीं हैं। वे तो होते हैं सिर्फ शरीर या इंद्रियों से ही और दोनों का मददगार होने के कारण मन भी उसी दल में आ सकता है। मगर अगर बुद्धि या अक्ल ठीक हो, समझदारी से काम ले के कर्मों या उनके फलों की हाय-हाय को छोड़ दें और फलों में भी आसक्ति छोड़ दें, तो उन कर्मों से यज्ञ की पूर्ति या भगवान की पूजा की भावना के द्वारा मन की शुद्धि हो जाती है। फिर तो वे कर्म केवल शरीर, मन या इंद्रियों के ही रह जाते हैं। अर्थात मन उनके करने में मददगार होने पर भी फल में नहीं सटता। बुद्धि भी नहीं चिपकती। ऐसी दशा में सबों की सम्मिलित चीज वे रहें तो कैसे? सम्मिलित होने के लिए तो आसक्ति और हाय-तोबा जरूरी है। 'केवलै:' कहने का यही मतलब है। यह 'केवलै: विशेषण 'कायेन मनसा' का भी है। हमने ऐसा ही अर्थ लिखा भी है।

अब आगे अध्‍याय के अंत तक जो कुछ कहा गया है वह आत्मज्ञानियों के ही कर्मों के संबंध में है। उनकी क्या भावना होती है, किस प्रकार सर्वत्र उनकी समदृष्टि होती है, इत्यादि बातें अत्यंत विशद रूप में आई हैं।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ 13

मन और इंद्रियों को अपने अधीन रखने वाला देह का मालिक जीव मन के द्वारा विवेक से सभी कर्मों का संन्यास करके नौ दरवाजे वाले पुर में आराम से रहता है (और) न कुछ करता है, न करवाता है। 13।

जैसे कोई महाराजा या बड़ा आदमी किसी गढ़ में रहता है जिसके दरवाजे होते हैं; वही दशा यहाँ रूपक के रूप में बताई गई है। शरीर ही वह गढ़ है। चक्षु, श्रोत्र, नासिका के छ: छिद्र, मुख और मल-मूत्र त्याग के छिद्र यही नौ दरवाजे हैं। जीवात्मा गढ़ का मालिक है और मन उसका मंत्री है। इंद्रियाँ नौकर-चाकर हैं। वशी कहने के मानी यही हैं कि वह सभी नौकर, मंत्री आदि पर अंकुश रखता और सतर्क रहता है। इसीलिए विवेक से काम ले के मन से ही कर्मों का संन्यास कर डालता है। क्योंकि इंद्रियाँ ही तो दरअसल कर्म करती हैं। विवेक न होने से सभी कर्मों को अपने आप में मानता था। अब विवेक होने से मन ने उन कर्मों को आत्मा से अलग करके जहाँ वे वस्तुत: हैं वही मान लिया। यही हुआ संन्यास। देही कहने के मानी हैं कि जीते-जी यह काम करना पड़ता है। नहीं तो मरने पर छुटकारा हो न सकेगा। पुर या गाँव में रहने की बात का मतलब यह है कि जब शरीरादि के कर्मों को अपने में मानता था तो शरीर के साथ अपने-आपको एक करके कहता और समझता था कि घर में हूँ, पलंग पर हूँ, गाड़ी में हूँ, आदि-आदि। अब जब शरीरादि से अपने को जुदा समझ गया तो कहता और समझता है कि शरीर भले ही घर में, बाहर या सवारी में बैठे; लेकिन मैं तो शरीर में ही बैठा हूँ।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्त्तते॥ 14

(ऐसी दशा में) वह जीव सबका मालिक बन जाने पर न तो अपने आप में कर्म करने की भावना लाता है, न लोगों से ही कर्म करवाता या करवाने का खयाल करता है और न कर्मों के फलों से संबंध या ताल्लुक ही पैदा करता है। (किंतु) यह सब कुछ प्रकृति के गुणों का ही पसारा है। 14।

नाद त्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥ 15

(इसलिए) सर्वत्र फैला हुआ वह जीव न तो किसी के पुण्य का साथी या भागीदार है और न पाप का। (दरअसल बात यह है कि) अज्ञान ने ज्ञान को छिपा दिया है। (जिससे लोग बात समझ सकते नहीं। फलत: सभी) जीव भ्रम में पड़ के ही ऐसा मानते हैं कि (हम पुण्य-पाप के भागी हैं)। 15।

इन दो श्लोकों में कुछ लोग प्रभु और विभु शब्दों का अर्थ परमात्मा कर डालते हैं। मगर उसका तो कोई भी प्रसंग यहाँ हई नहीं। जब जीवत्मा को वशी कह दिया तब तो 'एकोवशी' (श्वेता. 6। 12) के अनुसार उसी को प्रभु और विभु मानना ही होगा। श्वेताश्वतर में यह लिखा भी है साफ ही। प्रभु का अर्थ भी मालिक या शासक और विभु का सर्वत्र रहने वाला है, और आत्मा ऐसा ही पदार्थ है। 'शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:' (15। 8) तथा 'परमात्मेति चाप्युक्त:' (13। 22) में भी यह बात साफ लिखी है।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ 16

(लेकिन) जिनकी आत्मा का वह अज्ञान ज्ञान ने मिटा दिया है उन्हें तो वही ज्ञान उसी शुद्ध आत्मा को सूर्य की तरह प्रकाशित कर देता है। (फलत: वे अपने को पुण्य-पाप के भागी नहीं मानते)। 16।

तद्वु द्ध यस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥ 17

जिनकी बुद्धि उसी आत्मा में लग चुकी है, मन भी वहीं लगा है, उसी में जो खुद रम गए हैं और उससे अन्य किसी की परवाह नहीं करते, ऐसे ही लोग ज्ञान से समस्त पापों को बखूबी धोके जन्म-मरण-रहित पद - मुक्ति - प्राप्त कर लेते हैं। 17।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

शुनिचैव श्वपा के च पंडिता: समदर्शिन:॥ 18

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥ 19

पंडित लोग विद्या एवं सदाचरण से युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और कुत्ता खा जाने वाले प्राणी में (केवल) सम नामक वस्तु को ही देखते हैं - समदर्शी होते हैं। (इस तरह) जिनका मन इस साम्यावस्था में डँट गया - जम गया - वह तो जीते जी ही सृष्टि - जन्म-मरण - पर विजय पा जाते हैं - इससे छुटकारा पा जाते हैं। क्योंकि निर्विकार एक रस ब्रह्म ही सम है। इसलिए वे ब्रह्मनिष्ठ हो जाते हैं। 18। 19।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।

स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥ 20

(इसीलिए) स्थिर बुद्धि वाला, हर तरह के मोह से रहित (जो) ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी है (वह) न तो प्रिय पदार्थ मिलने से खुशी के मारे लोट-पोट होता है और न अप्रिय मिलने से घबराता है - सिर पीटता है। 20।

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विंदत्यात्मनि यत्सुखम्।

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते॥ 21

भौतिक पदार्थों में (इस तरह) मन न रमने पर ब्रह्म में ही जिसका मन जम जाता है वह पुरुष जब आत्मा में ही सुख का अनुभव करने लगता है (तो) अक्षय सुख को प्राप्त कर लेता है। 21।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।

आद्यन्तवंत: कौंतेय न तेषु रमते बुध:॥ 22

क्योंकि भौतिक पदार्थों से जो आनंद मिलता है वह (तो) आने-जाने वाला - अस्थाई - होने से (अंत में) दु:ख का ही कारण बन जाता है। इसीलिए समझदार लोग उसमें कभी नहीं फँसते हे कौंतेय। 22।

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:॥ 23

जो मनुष्य मरने के पहले ही इसी शरीर में काम और क्रोध के वेग को दबा देता है वही योगी है, वही सुखी है। 23।

याऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ 24

जिस योगी को अपने में ही आनंद मिले तथा अपने में ही प्रकाश मिले (और) जिसका मन अपने ही में रम जाए वही ब्रह्मरूप हो के निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त करता है। 24।

लभंते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।

छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥ 25

जिनके मन काबू में हैं, जिनकी दुविधाएँ मिट चुकी हैं, जिनके सभी मैल धुल चुके हैं (और) जो सभी पदार्थों के हित में निमग्न हैं ऐसे ही विवेकी निर्वाण ब्रह्म को हासिल करते हैं। 25।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्त्तते विदितात्मनाम्॥ 26

जिनने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जिनके मन काबू में हैं (और इसीलिए) जो काम-क्रोध से शून्य हैं, ऐसे यतियों - संन्यासियों - को दोनों दशा में - जीते-जी और मरने पर भी - निर्वाण ब्रह्म प्राप्त ही प्राप्त है। 26।

यहाँ यति शब्द का अर्थ यत्न करने वाला न हो के संन्यासी ही है। क्योंकि आत्मज्ञान हो जाने पर यत्न करने वाला कहना कुछ जँचता नहीं। आगे 28वें में मुनि का भी संन्यासी ही अर्थ उचित है। इसीलिए यहाँ, यह प्रश्न हो सकता है कि संन्यासियों की यह दशा कब और कैसे होती है? इसका उत्तर यों है -

स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो:।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौं ॥ 27

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।

विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स:॥ 28

बाहरी विषयों को बाहर ही रोक के, दोनों दृष्टियों को भौं के बीच में ही टिका के और नासिका के रास्ते बाहर-भीतर जाने-आने वाले प्राण-अपान को मिला के - कुंभक करके - एकमात्र मोक्ष यानी आत्मा में ही खयाल जमाए हुए जो मननशील संन्यासी अपने मन और बुद्धि को बखूबी काबू में रखता तथा इच्छा, भय और क्रोध से सर्वथा नाता तोड़ लेता है वह हमेशा ही मुक्त है। 27। 28।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति॥ 29

सब यज्ञों और तपस्याओं के भोगने वाले, सब लोगों के बड़े से बड़े शासक और सबों के कल्याण चाहने वाले मुझ परमात्मा को जानकर ही (वह) शांति प्राप्त करता है। 29।

इससे पूर्व के दो श्लोकों में ध्‍यान, समाधि या पातंजल योग का संक्षिप्त वर्णन किया है। उसके फलस्वरूप जो ज्ञान होता है और जिससे मुक्ति होती है उसी का जिक्र इस श्लोक में है। इस श्लोक का आशय यही है कि आत्मा और परमात्मा को एक ही देखना यही आत्मज्ञान है। समाधिस्थ संन्यासी यही अनुभव करता है कि मैं ही खुद सब चीजों का करने-धरने वाला हूँ, सारे संसार के कार-बार का चलाने वाला हूँ। असल में 'अहं हि सर्वयज्ञाना भोक्ता च प्रभुरेव च' (9। 24) आदि में जो कुछ कहा गया है उसी का यहाँ उल्लेख है। जिन कर्मों का वर्णन इस अध्‍याय में आया है वह तो नीचे से लेकर ऊँचे के दर्जे तक के सभी हैं। नवें अध्‍याय में स्पष्ट ही कहा है कि लोग भगवान को ठीक-ठीक न जान के औरों की पूजा आदि करने के कारण ही पतित हो जाते हैं; हालाँकि सब पूजा, यज्ञादि का फल भगवान ही देते हैं, फिर चाहे वह देवी-देवता आदि किसी के निमित्त ही क्यों न किए जाएँ। उसी श्लोक में प्रभु भी भगवान को कहा है। वही बातें इस श्लोक में लिखी गई हैं। लिखने का आशय यही है कि वास्तविक संन्यासी इधर-उधर न भटक के वस्तुत: भगवान के ही खयाल से सब कुछ करता है, न कि देवी-देवताओं के लिए। यह भी नहीं कि भगवान तानाशाह है। वह तो सबका सुहृद है, कल्याणकामी है। इसीलिए उसे अपनी आत्मा का स्वरूप जान लेने की पहचान यही होगी कि हम भी सबसे सुहृद बन जाएँ, हम भी 'सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु' का अमली पाठ करने लगें। भागवत में भी कहा है कि हम सभी भगवान के आदेशों में अपने स्वाभाविक कर्मों के द्वारा, इस तरह बँधे हैं जैसे बनिये के लादने का बैल। इसीलिए जो कुछ भी हम करते हैं वह भगवान की भेंट के ही रूप में, 'यद्वाचि तंत्यांगुणकर्मदामभि: सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिता:। सर्वे वहामो वलिमीश्वराय प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पद:' (5। 1। 14)।

पूर्व के दो श्लोकों में जो ध्‍यान और प्राणायाम है वह योगदर्शन के ही अनुसार है। योगी लोग भी मानते हैं कि दोनों भौं और नासिका की जड़ की संधि में नजर टिकाने से मन एकाग्र होता है। प्राणायाम उसी में सहायक होता है। यह भी माना जाता है कि प्राणायाम से जैसे मन एकाग्र होता है उसी तरह मन की एकाग्रता से प्राणों की क्रिया भी स्वयं बंद हो जाती है। यहाँ दोनों को मिला दिया है।

पचीसवें श्लोक में जो 'सर्वभूतहितेरता:' कहा है उसका कुछ विवरण प्रकारांतर से पहले आ गया है। विशेष विवेचन आगे मिलेगा। इस अध्‍याय में चार बार 'सम' आया है। उनमें आखिरी बार 27वें श्लोक में मिलाने के अर्थ में है। शेष तीन बार 18-19 में समदर्शन के मानी में है, जिसे आत्मज्ञान कहते हैं।

इस अध्‍याय में संन्यास की ही बात शुरू करके अंत तक उसी का विवेचन होने से यही इसका विषय माना गया है। शंकर ने इस अध्‍याय का विषय 'प्रकृतिगर्भ' लिखा है। इसका अभिप्राय बता चुके हैं और कह चुके हैं कि इसका भी अर्थ संन्यास ही है। हमने पहले जो उल्लेख अमेरिका के रक्त आदिवासियों का किया है उससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक दशा (back to the nature) में माया-ममता का स्वत: त्याग रहता है, और संन्यास में यही चाहिए।

इति श्रीमद्भगवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे संन्यास योगो नाम पञ्चमोऽध्याय:॥ 5

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मविद्या प्रतिपादक योग शास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका संन्यासयोग नामक पाँचवाँ अध्‍याय यही है।

छठा अध्‍याय

पाँचवें अध्‍याय में जिस संन्यास का विशेष निरूपण आया है और सच्चे संन्यासी की मनोवृत्तियों का जो विशेष विवरण दिया गया है उसी को कुछ आचार्यों ने प्रकृतिगर्भ या प्राकृतिक अवस्था भी कहा है। काम-क्रोध, राग-द्वेषादि का सर्वथा त्याग, भीतर ही मस्ती का अनुभव, सबके हित की कामना आदि बहुत से लक्षण पूर्ण संन्यासी के बताए गए हैं। माया-ममता का तो उनमें नाम भी नहीं होता है। मिट्टी से लेकर हीरे तक एवं कुत्ते से लेकर विद्या-सदाचार-संपन्न ब्राह्मण तक में उन्हें कोई विभेद नजर नहीं आ के सर्वत्र एक रस आत्मा और ब्रह्म का ही दर्शन होता है, यही नजारा दीखता है। यह तो आसान बात है नहीं, ऐसा खयाल किसी को भी हो सकता है जिसने गौर से सारी बातें सुनी हों। इसीलिए उसके मन में स्वभावत: यह जिज्ञासा पैदा हो सकती है कि ऐसा आदर्श संन्यास कैसे प्राप्त होगा? वह यह बात जरूर ही जानना चाहेगा।

अंत के 27-28 श्लोकों में जो दिग्दर्शन के रूप में इस संन्यासावस्था की प्राप्ति के साधनों का वर्णन आया है उससे यह जिज्ञासा और भी तेज हो सकती है, न कि शांत होगी। एक तो यह बात अत्यंत संक्षिप्त रह गई। दूसरे बहुत ही कठिन है। प्राणायाम या दृष्टि को टिकाने की बात कहने में जितनी आसान है समझने और करने में उतनी ही कठिन। जब तक इसका पूरा ब्योरा न मालूम हो जाए और यह भी ज्ञात न हो जाए कि इस साधन में सफलता होने की पहचान क्या है, तब तक काम चल सकता भी नहीं। यह काम, कब कहाँ, कैसे किया जाए और करनेवालों की रहन-सहन वगैरह कैसी हो, आदि बातें भी जानना निहायत जरूरी है। इन्हीं के साथ यह भी जानना आवश्यक है कि आया किसी भी दशा में कर्मों का स्वरूपत: त्याग या संन्यास भी जरूरी है या नहीं। यह इसलिए कि छठे में सभी साधनों के बताने के समय यदि उन्हीं के साथ नित्य-नैमित्तिक कर्मों के बंद कर देने - संन्यास लेने - की बात न आए तो समझेंगे कि यह कोई वैसी जरूरी चीज नहीं है। कर्मों के स्वरूपत: त्याग की जरूरत किस दशा में कैसे है, यह बात ब्योरे के रूप में पाँचवें अध्‍याय में आई भी नहीं है। परंतु कर्म-अकर्म के इस महान झमेले में है यह निहायत जरूरी चीज। इसलिए इसकी भी जिज्ञासा का अर्जुन के मन में पैदा होना जरूरी था।

किंतु अर्जुन प्रश्न करे यह मौका खुद कृष्ण देना नहीं चाहते थे। क्योंकि ये बातें कुछ ऐसी-वैसी तो नहीं हैं कि ध्‍यान में न आएँ। जिस चीज का उपदेश वह कर रहे थे ये बातें उसके प्राणस्वरूप ही कही जाएँ तो भी कोई अत्युक्ति नहीं हो सकती है। जब तक इन पर पूरा प्रकाश न डाला जाए, आत्मब्रह्मदर्शन, आदि का निरूपण अधूरे का अधूरा ही रह जाएगा। इसीलिए कृष्ण ने बिना पूछे ही स्वयमेव इनकी सख्त जरूरत महसूस करके इन्हें उपदेश करना शुरू कर दिया। फलत: यदि छठे अध्‍याय का विषय ध्‍यानयोग माना गया है तो ठीक ही है। समूचे का समूचा अध्‍याय हरेक पहलू से इसी चीज पर प्रकाश डालता है। पातंजल योग और समाधि भी ध्‍यान के भीतर ही आ जाने वाली चीजें हैं। लेकिन कृष्ण यह अनुभव भी कर रहे थे कि यदि अथ से इति तक इसी ध्‍यान और स्वरूपत: कर्मत्याग की ही बात करेंगे तो लोगों को धोखा हो सकता है। परिणामस्वरूप इसके सामने कर्म करने की महत्ता वे भूल सकते हैं। क्योंकि ध्‍यान-वान के बारे में लोगों की कुछ ऐसी ही ऊँची धारणा पाई जाती है कि और बातें इसके सामने तुच्छ मानते हैं। इसीलिए शुरू में कर्मों के करने पर जोर दे के ही आगे बढ़ते हैं। इस तरह बहुत बड़े धोखे तथा खतरे से जनसाधारण को बचा लेते हैं। इन्हीं सब विचारों से -

श्रीभगवानुवाच

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्नचाक्रिय:॥ 1

श्रीभगवान बोले - जो कोई भी कर्मों और उनके फलों की परवाह न करके (केवल) कर्तव्य समझ उन्हें करता रहता है वही संन्यासी भी है और योगी भी। (न कि कर्मों के साधन) अग्नि (आदि) को और (खुद) कर्मों को ही छोड़ देनेवाला। 1।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव।

न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥ 2

हे पांडव, जिसे संन्यास कहा गया है उसे योग ही जानो। क्योंकि जो कोई सभी संकल्पों को त्याग न दे वह योगी हो नहीं सकता है। 2।

यहाँ कुछ बातें जान लेने की हैं। इन दोनों श्लोकों में जो संन्यास और योग को एक कह दिया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि इसी अध्‍याय में आगे 'तं विद्याद्दु:खसंयोगं योगसंज्ञितम्' (6। 23) में वस्तुत: वियोग को योग कहा है। सिर्फ इसीलिए यह बात है कि यद्यपि नाम तो उसका योग ही है, तथापि काम उसका उलटा है, वियोग है। क्योंकि वह दु:खों के संबंध का वियोग कर देता है, दु:खों को कभी पास में फटकने नहीं देता है। यहाँ भी संन्यास और योग हैं तो दो चीजें और हैं परस्पर विपरीत भी। मगर इनका काम मिल जाता है, एक हो जाता है। इसीलिए नाम से नहीं, किंतु काम से ही, दोनों की एकता बताई गई है। इसका प्रयोजन कही चुके हैं कि जनसाधारण कहीं कर्मों से विमुख न हो जाएँ, इसीलिए कह दिया है कि भई, तुम तो कर्म करते हुए भी संन्यासी ही हो। फिर चिंता क्या?

इसी के साथ एक निहायत जरूरी बात भी कर्म करने वालों के सामने बड़ी ही कुशलता से रख दी गई है। जहाँ यह कहा गया है कि तुम तो योगी के योगी और संन्यासी के संन्यासी हो और इस तरह दुहरा फायदा उठाते हुए 'आम के आम गुठली के दाम' को चरितार्थ करते हो। फिर परवाह नाहक ही किसकी करते हो? तहाँ उन्हें चढ़ाने-बढ़ाने के साथ ही धीरे से यह भी कह दिया गया है कि हाँ, योगी बनने के लिए भी इतना तो करना ही होगा कि सभी संकल्पों को त्याग दिया जाए। इसके बिना तो काम चली नहीं सकता। इस तरह ठीक-ठीक योगी बनने की शर्तें भी रख दी गईं और जल्दबाजी के खतरे से भी बचा लिया गया। इसी के साथ यह भी ज्ञात हो गया कि सच्चे संन्यासी बनने के लिए संकल्पों का त्याग आवश्यक है। यह न हो, तो सिर्फ कर्मों को या उनके साधन अग्नि आदि को ही छोड़ देने से कोई भी संन्यासी नहीं बन जाता। ऐसे लोग तो वंचक ही होते हैं। यहाँ सब संकल्पों का त्याग और कर्मफल की परवाह न करना ये दोनों एक ही चीज हैं। दोनों में जरा भी फर्क नहीं है। इसीलिए हमने 'कर्मफल' शब्द का कर्म और उनके फल यह दोनों ही अर्थ माना है और लिखा भी है। इसके लिए या तो कर्म और फल को दो जुदे - असमस्त - पद मान लें, या अगर दोनों का समास मानें तो समुच्चय द्वन्द्व मान के काम चलाएँ, जैसे करपादम आदि में होता है। संकल्प कर्मों और उनके फलों - दोनों - का ही होता है, और जब तक दोनों के बारे में बेफिक्र न हो जाएँ संकल्पत्याग असंभव है।

दूसरे श्लोक में जो 'असंन्यस्तसंकल्प:' शब्द आया है उसमें भी एक खूबी है। संन्यास के बारे में जब विवाद ही है तो ऐसे मौके पर 'संन्यस्त' शब्द न दे के 'संत्यक्त' शब्द देना ही उचित था। क्योंकि संन्यास शब्द के अर्थ के बारे में जब झमेला ही है और यह तय नहीं हो पाया है कि उसमें किसी चीज का स्वरूपत: त्याग भी आता है या नहीं, तो ऐसी दशा में उसे लिखने से शक तो रही जाएगा और अर्थ की सफाई हो न सकेगी। इसीलिए 'संत्यक्त' शब्द देना ही ठीक था। मगर ऐसा न करके संन्यस्त शब्द देने से यह आशय टपकता है कि संन्यास के भीतर स्वरूपत: त्याग आता है। क्योंकि संकल्पों का तो स्वरूपत: त्याग ही विवक्षित है। अब बात रही यह कि वह स्वरूपत: त्याग कर्मों का है या संकल्पों का या और चीजों का। यदि यह माना जाए कि संन्यास का अर्थ केवल संकल्पों का ही स्वरूपत: त्याग है, तो 'संन्यस्तसंकल्प:' में संकल्प शब्द देने की क्या जरूरत थी? उसका काम तो संन्यस्त शब्द से ही हो जाता इससे पता चलता है कि संन्यास का अर्थ केवल संकल्पत्याग नहीं। अब यदि और चीजों का भी त्याग मानें तो वे चीजें कौन-कौन-सी हैं, यह कैसे जाना जाए? इसलिए मानना ही होगा कि सामान्यत: सभी कर्मों, संकल्पों और रागद्वेषादि के स्वरूपत: त्याग को ही संन्यास कहते हैं। इनमें संकल्पत्याग को सबसे जरूरी समझ और उसके बिना कर्मों का त्याग कोरा ढोंग मान के ही यहाँ 'संन्यस्त संकल्प:' लिखा गया है।

इसी संकल्पत्याग को ले के आगे बढ़ने में सबसे पहले यह बताना आवश्यक हो जाता है कि संकल्पत्याग के होते हुए भी कर्मों के स्वरूपत: त्याग का असली अवसर कब और किसलिए आता है। कर्म की आवश्यकता कहाँ तक है, उसका काम है क्या, तथा उसके त्याग अर्थात संन्यास की भी आवश्यकता कब और किसलिए है यही बातें आगे कहते हैं -

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते॥ 3

(कोई भी) मननशील योग - ज्ञान या समाधि - में जाने एवं उसे प्राप्त करने की इच्छा वाला बन जाए इसका कारण कर्म है - इसी के लिए कर्म करने की जरूरत है। उसी को (आगे चल के) ज्ञान तथा समाधि में आरूढ़ - पक्का - बना देने के लिए ही कर्मों के त्याग की जरूरत है। 3।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥ 4

क्योंकि जब सभी संकल्पों का त्याग कर देने वाला मनुष्य न तो इंद्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही चिपकता है तभी वह योगारूढ़ माना जाता है। 4।

इन श्लोकों के अर्थों के बारे में बहुत कुछ बातें पहले ही लिखी जा चुकी हैं। उन्हें जाने बिना इनका आशय समझना असंभव है। यहाँ इतना ही कहना है कि जो लोग शम का अर्थ मन की शांति मानते हैं उन्हें भी अगत्या कर्मों का स्वरूपत: त्याग मानना ही होगा। क्योंकि आखिर मन की शांति का अर्थ क्या है? यही न, कि उसकी हलचलें, क्रियाएँ बंद हो जाएँ, उसकी चंचलता जाती रहे? उसकी चंचलता का भी यही अर्थ है न, कि बिजली की तरह बड़ी तेजी से एके बाद दीगरे हजारों पदार्थों पर पहुँचता है? और अगर यह चीज बंद हो जाए तो होगा क्या? यही न, कि मन किसी एक ही पदार्थ में जम जाएगा, वहीं स्थिर हो जाएगा? एक पदार्थ भी वह कौन-सा होगा? जब योगी और योगारूढ़ की बात है तब तो मानना ही होगा कि वह एक पदार्थ आत्मा ही होगी। उसी को परमात्मा कहिए या ब्रह्म कहिए। बात एक ही है। अब जरा सोचें कि जब मनीराम आत्मा में ही रम गए, जम गए, टिक गए तो फिर संध्या-नमाज की तो बात ही नहीं, क्या कोई भी क्रिया हो सकती है? क्या पलक भी मार सकते या शरीर भी हिला सकते हैं? क्या प्राण की भी क्रिया जारी रह सकती है? यह तो मन:शास्त्र का नियम ही है कि जब तक मन किसी पदार्थ में न जुटे उसमें कोई क्रिया होई नहीं सकती। यह तो दर्शनों की मोटी और पहली बात है। फिर शम माननेवाले क्रिया कैसे करेंगे यह समझ से बाहर की चीज है। खूबी तो यह कि यह ध्‍यान का ही अध्‍याय है और ध्‍यान-समाधि के साथ नित्यनैमित्तिक क्रियाएँ भी होंगी यह तो उलटी गंगा का बहना है। यह भी नहीं कि मिनट-दो मिनट या घंटे-दो घंटे की समाधि से ही काम चल जाएगा। यहाँ तो लगातार दिनों, हफ्तों, महीनों और बरसों करने की नौबत आएगी। तब कहीं जा के सफलता की आशा कर सकते हैं। बीच में बहुत ही थोड़ा विराम कभी-कभी मिलेगा। आगे जो 'अनेकजन्मसंसिद्ध:' (6। 45) और 'यतचित्तेन्द्रियक्रिय:' (6। 12) लिखा है उसका आखिर दूसरा अर्थ है क्या? इसी छठे अध्‍याय को पढ़ के भी जो यह कहने की हिम्मत करें कि ध्‍यान और समाधि के साथ ही वर्णाश्रमादि के धर्मों का पालन भी हो सकता है उन्हें कुछ भी कहना बेकार है।

तीसरे श्लोक के पूर्वार्द्ध में ज्ञान की इच्छा और कामना की बात कही गई है। इसका पता आसान है और सबों को लग सकता है। इसीलिए इसके बारे में ज्यादा कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। मगर योगारूढ़ होना और उसे पहचानना अत्यंत कठिन है। बल्कि एक प्रकार से यह बात असंभव ही समझिए। यही कारण है कि चौथे श्लोक में योगारूढ़ का लक्षण, उसकी पहचान बताई गई है। इसका दूसरे शब्दों में मतलब यह है कि जब तक वैसी दशा पूरी तौर से न हो जाए तब तक ध्‍यान एवं समाधि करते रहना और तदर्थ सभी कर्मों का पूर्णत: संन्यास करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। जब तक आत्मज्ञान की इच्छा या आत्मा की जिज्ञासा नहीं पैदा होती तभी तक कर्म करना होगा। उसी से वह जिज्ञासा होगी ही मगर ज्योंही यह जिज्ञासा पैदा हो के दृढ़ हो गई कि कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके ध्‍यान, धारणा, समाधि के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की सिद्धि में फौरन लग जाना होगा। साक्षात्कार पूरा-पूरा होने तक यह काम जारी रखना ही होगा, यही दोनों श्लोकों का तात्पर्य है।

शायद यह खयाल हो कि इस प्रकार जीते-जी मुर्दा बनने की क्या जरूरत है? योगारूढ़ होना और मुर्दा बन जाना तो बराबर ही है। फर्क यही है कि मुर्दे को कुछ मालूम नहीं पड़ता, चाहे जो कीजिए। मगर योगारूढ़ को तो होश होता है, ज्ञान होता है। फिर भी किसी सुख-दु:खादि को जरा भी अनुभव न करना यह असाधारण बात है जो असंभव जैसी है। इसीलिए तो जीते-जी मुर्दा बन जाना पड़ता है। फलत: दूसरे ढंग से काम चल जाए तो इस योगारूढ़ होने के मार्ग को दूर से ही सलाम कर लेना चाहिए। यह तो हो नहीं सकता कि परम कल्याण और मोक्ष का कोई दूसरा रास्ता होई न। इसीलिए दूसरे ही मार्ग का अवलंबन क्यों न किया जाए? नाहक ही इंद्रियों और मन को संकट में डाल के उन्हीं के द्वारा अपने आपको - आत्मा को - भी विपदा में डालना, संकट के अतल गर्त्त में डुबाना मुनासिब नहीं है। इस तरह के विचार जनसाधारण के लिए बहुत संभव हैं। इसीलिए इस प्रसंग को आगे बढ़ाने और योगारूढ़ की अवस्था का पूर्ण विवेचन करने के पहले दो श्लोकों में इस खयाल को हटाते हुए कहा गया है कि इसके सिवाय मोक्ष का और मार्ग हई नहीं। इसीलिए लाचारी है कि यही मार्ग अपनाया जाए। इससे आत्मा को गर्त्त में गिराने के बदले उलटे उसका उद्धार है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन:॥ 5

बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे व र्त्ते तात्मैव शत्रुवत्॥ 6

अपना उद्धार खुद-ब-खुद करना चाहिए। आत्मा को - अपने आपको - संकट में कभी न डालना - कभी नीचे न गिराना - चाहिए। क्योंकि अपना मददगार या दुश्मन स्वयं हर आदमी ही होता है। जिसने अपने मन को स्वयं जीत लिया वही अपना मददगार है। जिसने मन पर काबू नहीं किया शत्रुता के मौके पर (वही) मन (उसके) शत्रु का काम करता है। 5। 6।

जितात्मन: प्रशांतस्य परमात्मा समाहित:।

शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:॥ 7

जिसने मन को जीत लिया है (और इसीलिए) जिसका अंत:करण अत्यंत शांत है, उसे शीत-उष्ण, सुख-दु:ख और मान-अपमान की दशा में (भी) बराबर समाधि में परमात्मा का ही साक्षात्कार होता रहता है - उसकी मस्ती बराबर बनी रहती है, चाहे कुछ हो। 7।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।

युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:॥ 8

ज्ञान और विज्ञान की प्राप्ति से जिसका मन तृप्त है - मस्त है, जो किसी भी दशा में विचलित नहीं होता, जिसकी (सभी) इंद्रियाँ अपने वश में हैं (और इसीलिए) जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर (और) सोना सभी एक से ही हैं, ऐसा ही योगी युक्त या योगारूढ़ कहा जाता है। 8।

कूट नाम है लोहार की निहाई का। हजारों लोहे उस पर आके टेढ़े-सीधे और नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। मगर वह ज्यों की त्यों अचल बनी रहती है। इसीलिए विकार-शून्य और अचल को ही कूटस्थ कहते हैं - अर्थात जो कूट की तरह बना रहे। जाल-फरेब को भी कूट कहते हैं। संसार का प्रपंच ही मायाजाल है और उसमें ही आत्मा का रहना है। मगर उनसे उसका स्पर्श नहीं है।

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्‍यस्थद्वेष्यबंधुषु।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥ 9

सुहृद्, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, प्रत्यक्ष-अपकारी, संबंधी, साधु और पापी - सबों - में जिसकी समबुद्धि है - इनमें किसी की ओर जो खिंच जाता नहीं - वही श्रेष्ठ है। 9।

अकारण ही जो सबका हित चाहे वह सुहृद कहा जाता है, परिचय होने पर जो हित चाहे वह मित्र, जो बुराई करे वह अरि, जो किसी का पक्ष न ले वह उदासीन, जो दोनों का पक्ष लेकर कलह मिटाना चाहे वह मध्‍यस्थ, जिसके प्रति बहुत ज्यादा जलन हो वह द्वेष्य, जो संबंध के करते ही हित चाहे वह बंधु, जो सबका उपकार करे वह साधु और बुरा काम करने वाला पापी कहाता है। उदासीन और मध्यस्थ का फर्क यही है कि जहाँ मध्यस्थ को दोनों पक्षों की परवाह होती है तथा उदासीन को किसी की भी नहीं होती। अरि और द्वेष्य में यही अंतर है कि जहाँ द्वेष्य के प्रति दिल में प्रचंड जलन होती है तहाँ अरि के प्रति इसका होना जरूरी नहीं है। इसलिए अरि शब्द व्यापक है। मित्र और बंधु में यही फर्क है कि जहाँ बंधु के साथ घनिष्ठता तयशुदा बात है तहाँ मित्र के साथ घनिष्ठता न होते हुए भी परिचय मात्र ही काफी है। सुहृद स्वभावत: परहित चाहता है, चाहे कर सके या न कर सके। मगर साधु का तो यह काम ही है। वह परहित करता ही है। ये दोनों ही बदले में कुछ नहीं चाहते।

यहाँ तक युक्त, योगारूढ़, आत्मज्ञानी या संन्यासी का स्वरूप और लक्षण बता के अप्रत्यक्ष रूप से यह भी कह दिया कि ऐसा होने के लिए किस तरह के लोहे के चने चबाने जरूरी हैं। अब अगले आठ श्लोकों में उन उपायों को विस्तार के साथ बताते हैं जिन पर अमल करने पर ही इन लोहे के चनों के चबाने की योग्यता होती है। इनमें भी शुरू के पाँच में ध्‍यान और समाधि के उपाय बता के और छठे में उसी पर जोर दे के शेष दो में खतरों और नियमों के बारे में सावधान किया है। उसके बाद के छह (18-23) श्लोकों में ध्‍यान और समाधि में लगे चित्त की तौल बताई है कि उसकी क्या हालत समाधि के दरम्यान रहती है। क्योंकि उसी समय उसे आसानी से पकड़ सकते और गलती सुधार सकते हैं। उस समय लोग पूरे तैयार और सतर्क भी रहते हैं। यह अभ्यास धीरे-धीरे कैसे शुरू किया जाए और यह कमजोरी और गलती कैसे चटपट पकड़ी जा के दूर की जाए, यह बात उसके बाद के तीन (24-26) श्लोकों में कह के तदनंतर छ: (27-32) श्लोकों को योगारूढ़ पुरुष का पूरा चित्र खींच दिया है और यह बताया है कि उसकी मनोवृत्ति कैसी होती है। उसके आत्मज्ञान या साक्षात्कार का स्वरूप क्या होता है यह बात पुनरपि यहाँ दूसरी बार इन्हीं श्लोकों में से दो (29-30) में कही गई है। पहली बार पाँचवें अध्‍याय में आई है, यह वहीं कहा जा चुका है।

योगी युंजीत सतत मात्मानं रहसि स्थित:।

एकाकी यतचि त्ता त्मा निराशीरपरिग्रह:॥ 10

ध्‍यान करने वाला संन्यासी निरंतर एकांत स्थान में अकेला ही रह के बुद्धि और मन पर कब्जा रखे हुए, बेफिक्र सारा लवाजिम छोड़ के ही मन को एकाग्र करने का यत्न करे। 10।

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।

नात्युच्छ्रिन्तं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥ 11

जो न तो बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा हो, जिसमें क्रमश: कुश, मृगचर्म और वस्त्र एक के ऊपर एक पड़े हों और जो हिले-डोले न ऐसा निजी आसन (वहाँ) किसी पवित्र स्थान पर बिछा के - । 11।

त्रै काग्रं मन: कृत्वा यतचि त्ते न्द्रियक्रिय:।

उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ 12

मन और इंद्रियों की बाहरी क्रियाओं को रोके हुए मन को एकाग्र करके उसे शुद्ध करने के ही लिए उसी आसन पर बैठे (तथा) ध्‍यान (एवं) समाधि का अभ्यास करे। 12।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ 13

प्र शांता त्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थित:।

मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:॥ 14

धड़, सिर और गरदन तीनों ही सीधे - तने - और निश्चल रखे हुए घबराहट छोड़ के बैठे, अपनी नासिका के अग्र भाग पर ही दृष्टि जमाए रहे और इधर-उधर न देखे। मन की बेचैनी बिलकुल ही न हो, डर-भय जरा भी न हो, (खान-पान आदि में) ब्रह्मचारी के ही नियमों का पूरा पालन करे। मुझमें ही मन लगाए तथा मुझको ही सब कुछ समझे हुए मन को भरपूर काबू में करके समाधि में बैठे। 13-14।

यहाँ जो 10वें श्लोक में 'यतचित्तात्मा' कहके 'आत्मानं युंजीत' भी कहा है इससे दोनों में परस्पर विरोध जैसा लगता है। जब मन और बुद्धि को काबू में कर लिया तो फिर मन के एकाग्र करने का क्या सवाल? यह या तो पुनरुक्ति जैसी हो जाती है, या यों कहिए कि एक का कहना बेकार है। मगर दरअसल मन-बुद्धि को संयत कहने का यही अभिप्राय है कि पहले जैसी चंचलता और घबराहट उनमें न रह गई है। वे कुछ ठंडे पड़ गए हैं। तभी समाधि की सफलता हो सकती है। या यह कि यतचित्तात्मा का अर्थ है मन-बुद्धि की क्रिया का रोकना मात्र। उसके बाद होनेवाली एकाग्रता 'आत्मानं युंजीत' के द्वारा बताई गई। इसी तरह 12वें में मन की एकाग्रता और उसकी तथा इंद्रियों की क्रिया के रोकने की बात है। प्रश्न होता है कि मन की एकाग्रता के बाद फिर उसकी क्रिया के रोकने के क्या मानी? बात असल यह है कि पहले जब मन कहीं एक चीज में बँधेगा तभी तो उसकी तथा इंद्रियों की क्रिया भी रुकेगी। वस्तुत: क्रिया रुकने से एकाग्रता और एकाग्रता से क्रिया का रुकना ये दोनों ही एक दूसरे के आश्रित हैं, ठीक वैसे ही जैसे प्राण के रोकने से मन का रुकना और मन के रुकने से प्राण का रुक जाना। आगे 35वें श्लोक के व्याख्यान में इस पर और भी लिखा गया है।

अथवा 'यत्तचित्तेन्द्रियक्रिय:' में चित्त का अर्थ बुद्धि ही है, जैसा कि 10वें में। बुद्धि की चंचलता का भी रुकना आवश्यक है। इसीलिए जो अंत में पुनरपि 'युंज्याद्योगम्' लिखा है वह यद्यपि व्यर्थ-सा प्रतीत होता है, तथापि उसका अभिप्राय यही है कि योग की पूर्णता और स्थायित्व प्राप्त करे। ऐसा न हो कि मन की एकाग्रता चंदरोजा ही हो। 'आत्मानं युंजीत' और 'योगं युंज्यात!' का यह भी अभिप्राय है कि आत्मा में ही मन को लगाए, न कि और पदार्थ में इसीलिए आगे जो 'मच्चित:' और 'मत्पर:' में (मत्) कहा है उसका भी अर्थ आत्मा ही है। नहीं तो आत्मा से अलग परमात्मा का खयाल हो सकता था। 'मच्चित' और 'मत्पर' कहने का आशय यही है कि एक में चित्त लगा के कभी-कभी दूसरे का भी खयाल करने की बात यहाँ नहीं होगी। आत्मा के सिवाय और किसी का भी खयाल न रहेगा। इसे ही अनन्य-चिंतन भी कहते हैं।

13वें श्लोक में एक बार तो धड़, गरदन और सिर को अचल और तना हुआ रखना कहा है। फिर स्थिर होना भी बताया है। यह तो पुनरुक्ति ही हुई। इसीलिए हमने घबराहट और बेचैनी छोड़ने की बात लिखी है। ऐसी भी तो बेचैनी होती है कि शीघ्र ही काम पूरा हो जाए। वह न रहे इसी मानी में स्थिर शब्द आया है। यों भी इस मानी में बोला जाता है। इसी प्रकार जहाँ यहाँ नासिका के अग्र भाग में नजर जमाने को लिखा है तहाँ पाँचवें अध्‍याय के अंत में भौंहों के बीच में जमाने की बात है। असल में योगियों के यहाँ ये दोनों ही बातें पाई जाती हैं, कोई एक करता है तो कोई दूसरी। इसीलिए दोनों ही लिखी गई हैं। भौंहों की बात आगे भी 'भ्रुवोर्मध्ये' (8। 10) में आएगी। जिसकी जब जैसी रुचि, प्रवृत्ति या अनुकूलता हो तब वह वैसा ही करता है। किंतु परिणाम एक ही होता है।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शांतिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ 15

इस प्रकार निरंतर आत्मा में मन को जोड़ता हुआ उसे सोलह आने काबू में कर लेने वाला योगी उस ब्रह्मनिष्ठा रूपी शांति को प्राप्त कर लेता है, जिसका अंतिम परिणाम आवागमन से छुटकारा है। 15।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकांतमनश्नत:।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ 16

हे अर्जुन, निश्चित परिणाम से अधिक खाने वाले की समाधि हो नहीं सकती, और न बिलकुल ही न खाने वाले की ही। (इसी तरह) बहुत ज्यादा सोनेवाले या अधिक जागनेवाले की भी (नहीं होती)। 16।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ 17

(किंतु) उचित मात्र में जो खान-पान और धूम-धाम करता है, दूसरी क्रियाएँ भी निश्चित परिमाण में ही करता है और सोता-जागता भी है नियमित रूप से ही, उसी की समाधि सब कष्टों की नाशक होती है - पूर्ण या सफल होती है। 17।

सोने-जागने वगैरह की बात तो सभी जानते हैं। हालाँकि योगी लोगों ने इनमें भी बहुत नियम-कायदे - बनाए हैं। खानपान का नियम ऐसा ही है कि पेट का आधा अन्न से और एक चौथाई जल से भर के शेष चौथाई खाली रखे, - 'अन्नेन पूरयेदर्धं चतुर्थं तु जलेन वै मारुतस्य प्रचारार्थं चतुर्थमवशेषयेत्'। नहीं तो परिपाक ठीक नहीं होता और आलस्य रोगादि बढ़ते हैं। क्या खाना, कब खाना आदि के भी नियम हैं।

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ 18

जब काबू में बखूबी आया हुआ मन आत्मा में ही जा के टिक जाता (तथा) अन्य सभी पदार्थों से नि:स्पृह (हो जाता है) तभी कहा जाता है कि (मनुष्य) युक्त या योगारूढ़ हो गया। 18।

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।

योगिनो यत्तचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:॥ 19

मन को आत्मा में टिकाने का अभ्यास करने वाले योगी का मन काबू में आ जाने पर ठीक वैसे ही हिलता-डोलता नहीं जैसे बहने वाली हवा से रहित स्थान में दीया की शिखा नहीं हिलती है। 19।

यात्रोपरमते चि त्तं निरु द्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ 20

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बु द्धि ग्राह्यमतीन्द्रियम्।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥ 21

यं लब्धवा चा परं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।

यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥ 22

तं विद्याद् दु:खसंयोग-वियोगं योगसंज्ञितम्॥

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ 23

जिस दशा में योग के अभ्यास के फलस्वरूप काबू में आया हुआ मन शांत और निश्चल हो जाता है, जिस दशा में अपने भीतर ही स्वयमेव अपने को देख के पूर्ण संतोष हो जाता है, इंद्रियों की पहुँच के बाहर केवल बुद्धि से अनुभव किया जाने वाला अपार सुख जिस दशा में जाना जाता है, जिस दशा में जम जाने पर मनुष्य की आपा बिसर जाती है और उस वास्तविक दशा से फिर वह च्युत भी नहीं होता है, जिसे पा जाने के बाद उससे बढ़ के दूसरा कोई भी लाभ माना नहीं जाता और जिस दशा में स्थिर हो जाने पर बड़े से बड़ा भी कष्ट मनुष्य को विचलित नहीं कर सकता, दु:ख के संबंध को सदा के लिए मिटा देने वाली उस दशा को ही योग शब्द से समझना चाहिए। जो मन कभी ऊबना जानता ही नहीं उसी के द्वारा दृढ़ निश्चय के साथ उस योग की सिद्धि का अभ्यास किया जाना चाहिए। 20। 21। 22। 23।

यहाँ मन के न ऊबने के बारे में दृष्टांत देते हुए गौडपादाचार्य ने मांडूक्योपनिषद् की कारिकाओं में लिखा है कि एक ही कुश की नोक डुबो-डुबो के बाहर छिड़कते हुए ही समुद्र को सुखा डालने की हिम्मत जिसे हो वही मन को काबू में कर सकता है, 'उत्सेकउदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकविन्दुना। मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदत:।' (3। 41)। टिट्टिभ पक्षी के नर-मादे का अपनी चोंचों से ही उलीचते-उलीचते समुद्र को सुखा के अपने अंडे उसमें से बाहर निकालने के दृढ़ संकल्प का भी दृष्टांत दिया जाता है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य स मंत त:॥ 24

शनै: शनैरुपरमेद्बु द्ध या धृ तिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मन:कृत्वा न किंचिदपि चिंत येत्॥ 25

यतो यतो निश्चरित मनश्चंचलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वंश न ये त्॥ 26

संकल्प से पैदा होने वाली सभी कामनाओं को निर्मूल करके तथा मन से ही सभी इंद्रियों को चारों ओर से रोक के धैर्य-सहकृत बुद्धि के बल से धीरे-धीरे हर चीज से मन को हटाए और आत्मा में टिका के दूसरा कोई खयाल न करे। चंचल होने के कारण कहीं भी टिक न सकने वाला मन जिस-जिस चीज को ले के बाहर भागे उस-उससे उसे हटाते हुए केवल आत्मा में ही लगा के काबू में करे। 24। 25। 26।

यहाँ धीरे-धीरे सब ओर से हटाना और फिर भी यदि मन उधर भागे तो वहाँ से बार-बार लौटाना बताया गया है। असल में समाधि के लिए यही बुनियादी बात है। जो ऊबना जानता ही नहीं वही यह काम कर सकता है, ऐसा कहने की जरूरत इसी से स्पष्ट हो जाती है। एकाएक न तो अन्य चीजों से यह मनीराम हटी सकते और न हटने पर भी फिर उनमें जाने से बाज आई सकते हैं। यह तो नटखट बंदर हैं। बड़ी हिम्मत और बड़े भारी दृढ़ संकल्प से ही इन्हें काबू में किया जा सकता है। इसीलिए 'स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा' कहा है।

प्रशांतमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।

उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ 27

क्योंकि बिलकुल ही शांत मनवाले, शांत या दबे-दबाए रजोगुण वाले, निर्दोष (और इसीलिए) ब्रह्म स्वरूप हो जाने वाले इस योगी के पास सर्वोत्तम सुख - आत्मानंद - खुद आ जाता है। 27।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ 28

इस प्रकार सदा आत्मा में मन को लगाता हुआ (उसके फलस्वरूप) पापशून्य योगी आसानी से ही ब्रह्मरूपी अखंड सुख - निरतिशय ब्रह्मानंद - प्राप्त करता है। 28।

यदि गौर से देखा जाए तो पूर्व के 'शनै:-शनैरुपरमेद्' श्लोक का ही एक तरह का व्याख्यान बाद के इन तीन श्लोकों में है। इसमें भी उसके पूर्वार्द्ध का 'यतोयत:' में, उत्तरार्द्ध के पहले आधे का 'प्रशांतमनसं' में और शेष चतुर्थांश का 'युंजन्नेवं' में स्पष्टीकरण है।

आगे के चार श्लोक उस आत्मसाक्षात्कार के बाद की हालत बताते हैं। खासकर पहले दो तो उस साक्षात्कार का रूप स्पष्ट करते हैं शेष दो ज्ञानी की व्यावहारिक दशा बताते हैं कि संसार के साथ उसका सलूक कैसा होता है। इन आखिरी दो में भी पहला है दूसरे की एक तरह की भूमिका ही। दूसरा - 32वाँ - ही उसका बाहरी व्यवहार चित्रित करता है।

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥ 29

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ 30

जिसका मन पूर्ण योगयुक्त हो गया है उसकी सर्वत्र समदृष्टि - ब्रह्म या आत्म दृष्टि - होती है। (इसीलिए वह) सभी पदार्थों में अपने आप को और अपने में सब पदार्थों को देखता है। (इसी तरह) जो मुझ परमात्मा को (भी) सबों में और सबों को मुझ परमात्मा में देखता है उससे जुदा न तो कभी मैं होता हूँ और न वह मुझसे अलग होता है। 29। 30।

ये दोनों ही श्लोक 'येनभूतान्यशेषेण' (4। 35) से एकदम मिल जाते। फलत: उसी के विवरण रूप ही हैं। इन दोनों ने अद्वैत या जीव, ब्रह्म और जगत की एकता का चित्र खींच दिया है।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।

सर्वथा वर्त्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते। 31

सभी पदार्थों में ओत-प्रोत - मौजूद - मुझ परमात्मा को जो योगी इस प्रकार - की एकता की दृष्टि से देखता है वह चाहे किसी भी दशा में रहने पर भी बराबर मुझमें ही डूबा रहता है। 31।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ 32

हे अर्जुन, चाहे सुख हो या दु:ख, (दोनों को ही) सभी पदार्थों में जो अपने जैसा ही अनुभव करता है - जो अपने सुख-दु:ख, जैसे ही दूसरों के सुख-दु:ख का अनुभव करता रहता है - वही परले दर्जे का योगी माना जाता है। 32।

अब अर्जुन ने देखा कि ओ बाबा, यह तो बीहड़ बात है - यह संन्यास तो आसान नहीं है। क्योंकि संन्यास का जो असली प्रयोजन ध्‍यान और समाधि की सिद्धि है वह मेरे पहुँच के बाहर की चीज है। मेरे मनीराम तो ऐसे भयंकर हैं; चंचल हैं कि न तो कहीं टिकना ही जानते और न आत्मा में जुटना ही चाहते। फिर यह साम्यबुद्धि और समदर्शन रूपी समाधि पूर्ण होगी कैसे? ऊँहूँ। यह नहीं होने की, असंभव है। इसी भाव से वह -

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात स्थितिं स्थिराम॥ 33

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलव द्दृ ढम।

एतस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम॥ 34

अर्जुन कहने लगा - हे मधुसूदन, यह जो समदर्शन रूपी योग आपने (अभी-अभी) बताया है, मन की चंचलता के करते इसी की मजबूती का होना मैं (संभव) नहीं समझता। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन तो चंचल है, बुरी तरह मथ देने, बेचैन कर देने वाला है, बलवान है और बड़ा मजबूत है। (इसीलिए) मैं तो इसे बाँध रखने को हवा को बाँध रखने की ही तरह कतई नामुमकिन मानता हूँ। 33। 34।

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम।

अभ्यासेन तु कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते॥ 35

श्रीभगवान बोले - हे महाबाहु, बेशक मन चंचल (और इसीलिए आमतौर से) काबू में नहीं आने वाला है। फिर भी हे कौंतेय, अभ्यास और वैराग्य के बल से ही काबू में आता है। 34।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो कुछ लिखा है ठीक वही बात 'अभ्यासवैराग्यां तन्निरोध:' (1। 12) योगसूत्र में अक्षरश: पाई जाती है। इसका व्याख्यान करते हुए व्यास भाष्य में लिखा है कि 'चित्तनदीनामोभयतोवाहिनी, वहति कल्याणाय, वहति पापाय च। यातुकैवल्यप्राग्भारा विवेक विषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसार-प्राग्भाराऽविवेक विषय निम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोत: खिलीक्रियते। विवेक दर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोतउद्धाट्यतइत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोध:।' इसका आशय यह है कि "निरंतर बहने वाली नदी की ही तरह मन भी नदी ही है जो कल्याण की ओर भी बहती है और पाप की ओर भी। इनमें यदि आत्म-ज्ञान के विषयों की ओर झुकाव हो के यह नदी बहे तो कैवल्य और मोक्ष की तरफ जाकर बँध जाती है। विपरीत इसके यदि विवेक शून्य विषयभोग की ओर झुकाव हो के बहे तो जन्म-मरणादि रूपी संसार की तरफ जाती और वहीं बँध जाती है। फलत: विवेक का सोता रुक जाता है। इसलिए वैराग्य का यह काम है कि पहले सांसारिक विषयों का दरवाजा बंद कर दे - ऐसा बाँध बना दे कि विषयों की ओर मन जाने ही न पाए। अनंतर विवेक का अभ्यास करते-करते विवेक के सोते को खोदकर जारी करने का काम कर डाले। फिर तो मन आसानी से उधर ही चला जाएगा।" जब तक पानी का नीचे की ओर का बहाव पहले रोक दिया न जाए उसे ऊँची जमीन या बंद सोते की ओर ले जाएँगे कैसे? वह तो बह के खत्म ही हो जाएगा। इसीलिए संसार से विरागी बनना पहला काम है, जिससे उधर बहकने से यह मन रुके तो सही। फिर जैसे-ऊँची जमीन को खोद के नाली बनाते और पानी ले जाते हैं; खोदने में भी बार-बार कुदाल चलानी होती है; वैसे ही मन को बार-बार आत्मा में लगाने का यत्न करना ही मोक्ष की ऊँची भूमि को खोदकर नाली या सोता बनाना है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि जब पहले मन रुकता और एकाग्र होता है, तभी आत्मा में लगाया जा सकता है। यही बात पहले आई है। आगे इसी का स्पष्टीकरण यों है -

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ 36

(बेशक) मैं मानता हूँ कि जिस मन पर काबू नहीं उससे यह योग सिद्ध हो नहीं सकता। (विपरीत इसके) काबू में आए मन से कोशिश करने पर (पूर्वोक्त) उपाय और हिकमत से सिद्ध हो सकता है। 36।

यहाँ उपाय तो कुछ बताए हैं नहीं। इसलिए पहले ही बताए उपाय लेने चाहिए।

हाँ, तो इतना सुनने पर अर्जुन की निराशा जाती रही जरूर। मगर इसकी कठिनाई का विचार करके उसे खयाल आया कि एक जन्म में तो यह पूरा होने का नहीं। यदि दूसरे-तीसरे आदि जन्मों में पूरा करने का खयाल करें तो ठीक नहीं। क्योंकि एक जन्म में जो कुछ भी किया-दिया और पढ़ा-लिखा होता है वह तो अगले जन्म में भूल ही जाता है। आखिर इसके पहले भी तो हमारा जन्म हुआ था मगर हमें उसकी एक भी बात कहाँ याद है? हमें तो उसका कुछ भी पता नहीं। ऐसी दशा में फिर भी वही असंभव-सी बात आ जाती है। यही ठीक है कि शायद किसी सौभाग्यशाली पुण्यात्मा की समाधि इसी जन्म में पूर्ण हो जाए। मगर आमतौर से लोग अत्यंत चंचल मनवाले ही होते हैं। फलत: उनके यत्न से इसी शरीर में सफलता होगी तो नहीं ही। फिर उनकी क्या गति होगी? वे तो दोनों ओर से गए। एक तो कर्म-धर्म छोड़ा। इसीलिए उससे जो सद्गति होती सो तो हो पाई नहीं। दूसरे योग भी पूरा हुआ ही नहीं कि इसी का मजा मिलता। इसलिए उनकी तो वही दशा हुई कि 'दोनों ओर से गए पाँड़े। न मिला हलवा न मिला माँड़े।' लेकिन फिर मन में दूसरा खयाल आया कि आखिर यह भी तो एक महान कार्य ही है। तो क्या इसके पूरा न होने पर भी इसका कुछ न कुछ सुंदर फल नहीं होना चाहिए? इसी पसोपेश और दुविधे में पड़े हुए -

अर्जुन उवाच

अयति: श्र द्ध योपेतो योगाच्चलितमानस:।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ 37

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ 38

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।

त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्यु पपद्यते॥ 39

अर्जुन ने पूछा - हे कृष्ण, श्रद्धायुक्त होने पर भी पूरा यत्न न कर सकने के कारण जिसका मन (किसी भी वजह से) योग से हट गया वह मनुष्य योग-सिद्धि तो प्राप्त कर सकता नहीं। (तब) उसकी क्या दशा होती है? हे महाबाहु, कहीं ऐसा तो नहीं होता कि बादल के टुकड़े की तरह इधर-उधर भटकता हुआ, किंकर्तव्यविमूढ़ और ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग में टिक न सकने वाला वह मनुष्य कहीं का नहीं होता। (और यों ही) चौपट हो जाता है? हे कृष्ण, इस मेरे संशय को मिटाइए। क्योंकि आप से बढ़ के इस शक को दूर करने वाला कोई हो सकता नहीं। 37। 38। 39।

यहाँ यह बात याद रखने की है कि यत्न में पूर्णता और श्रद्धा यही दो चीजें सफलता की कुंजी हैं। इनमें श्रद्धा तो वश की चीज है और वह योगभ्रष्ट में भी है। मगर यत्न में तो हजार बाधाएँ उठ सकती हैं। इसी से इसमें पूर्णता कठिन है। ताहम श्रद्धा के रहते कभी-न कभी वह हो के ही रहेगी। यही 'अयति: श्रद्धयोपेत:' इन दो विशेषणों का मतलब है।

बादल के छींटे या टुकड़े की यह हालत होती है कि उसे हवा इधर-उधर घसीटती और भटकाती रह के गला-पचा देती है। न तो वह बरसी सकता है और न घने बादलों में जा के मिली सकता।

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति। 40

श्रीभगवान ने कहा - हे पार्थ, न तो यहाँ और न परलोक में ही उसकी कोई बुरी गति होती है। क्योंकि, ओ मेरे प्यारे, कल्याण के मार्ग पर चलने वाले किसी की भी दुर्गति हो नहीं सकती। 40।

प्राप्य पुण्यकृतां लोमानुषित्वा शाश्वती: समा:।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ 41

योगभ्रष्ट - समाधि की सिद्धि न प्राप्त कर सकनेवाला - (मनुष्य) उत्तम कर्म करने वालों के लोकों में जाके (और वहाँ) बहुत वर्ष - मुद्दत तक - रह के पवित्राचरण वाले श्रीमानों के घर जनमता है। 41।

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम।

एत द्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम॥ 42

या नहीं तो योगियों के ही समाज में जा पहुँचता है। असल में इस प्रकार का जो जन्म है वह संसार में अत्यंत दुर्लभ है। 42।

यहाँ श्रीमानों के घर में जन्म लेने की बात कह के फिर योगियों के कुल में जाने की बात कही गई है। ऐसे जन्म को बहुत ही दुर्लभ भी कहा है। प्रश्न यह होता है कि श्रीमान के घर और योगी के कुल में क्या फर्क है? कुछ लोगों ने उत्तर दिया कि धनियों के घर संपत्ति के चलते योगाभ्यास में बाधा होती है। वहाँ आराम में ही फँसने का मौका ज्यादा रहता है। विपरीत इसके योगी कहने का अर्थ गरीब के घर में जन्म लेना है। फलत: वहाँ अभ्यास का मौका पूरा रहता है। इसीलिए यह जन्म पहले की अपेक्षा दुर्लभ है। यह बात इस चीज पर निर्भर है कि मरने से पूर्व उसकी क्या दशा थी। यदि अभ्यास में ज्यादा प्रगति कर चुका था; तब तो उसी की चिंता करते-करते ही शरीरांत होने से 'यं यं वापि' (8। 6) के अनुसार खामख्वाह योगियों के ही घर जनमेगा। योगी से मतलब जनकादि जैसे गृहस्थ से ही है। अंतर यही है कि जनक थे श्रीमान और यहाँ वह बात न होगी। मगर प्रश्न होता है कि मंदालसा तो राजा की पत्नी थी। फिर भी उसके बच्चे आत्मज्ञानी ही होते थे। बचपन से वह यही शिक्षा देती थी। इसलिए ज्ञानी होने के लिए श्रीहीन या दरिद्र होना तो जरूरी नहीं है, अस्तु। और अगर उसकी प्रगति ऐसी ही तैसी थी, तब तो इस योग की धुन होगी नहीं। फलत: धनियों के यहाँ ही जनमेगा।

अच्छा, अब यदि श्रीमान का अर्थ 'समाधि और योग के साधनों से संपन्न' यही करें तो क्या बुरा होगा? तब श्लोक का सीधा अर्थ यही होगा कि या तो जनक, मंदालसा आदि के घर जन्म लेके वहीं अपना काम पूरा करता है; या अगर किसी वजह से वहाँ ऐसा न हो सका तो प्रह्लाद आदि की तरह वहाँ से भाग के योगियों के समाज में जा पहुँचता है और वहीं काम पूरा करता है। यहाँ कुल शब्द गुरुकुल के कुल जैसा ही मान लें तो क्या अच्छा हो - गुरुकुल और योगिकुल। क्योंकि तब योग के अभ्यास करने वालों को ही समाज होने से आसानी भी हो जाती है। इस श्लोक में 'जायते' न लिख के 'भवति' लिखा है। यहाँ इसका भी अभिप्राय 'जा पहुँचना' अच्छी तरह मेल खा जाता है। दो जन्म जुदा-जुदा मान के केवल दूसरे की बड़ाई करने की अपेक्षा एक ही जन्म मान के उसी की प्रशंसा भी ठीक ही जँचती है। क्योंकि अर्जुन का तो प्रश्न था योगभ्रष्ट के ही बारे में। अगर इसमें दो भाग करें तो पहले भाग में आनेवाले की दशा का ठीक-ठीक पता कैसे चलेगा? ऐसा होने पर उत्तर भी अधूरा ही रह जाएगा। अगर आगेवाले श्लोकों में समान तौर पर दोनों की ही बात मान लें तो बीच की यह विभिन्नता वाली बात कुछ यों ही रह जाती है। ठीक जँचती भी नहीं। यदि 44वें श्लोक पर गौर करें तो यह पता चलता है कि उसका मन पूर्व जन्म के अभ्यास के करते ही खिंच के इस जन्म में भी योग में ही जा लगता है। ऐसी दशा में तो श्रीमानों के यहाँ जनमने पर भी योग में ही लगेगा। फिर वह अपेक्षाकृत हलके दर्जे का कैसे माना जाए? बल्कि खिंच जाने का मतलब हमारे ही बताए अर्थ में यों मेल भी खा जाता है कि वहाँ गड़बड़ होने पर वहाँ से भाग के योगियों के समाज में जा पहुँचता है। समाज भी कोई बड़ा हो यह जरूरी नहीं है, जिससे विघ्न-बाधा की बात उठ खड़ी होगी। वहाँ तो ऐसे ही लोग होंगे जो योग की धुन वाले हैं और वे होंगे थोड़े ही।

यहीं पर प्रसंगवश एक बात और भी कहे देते हैं। अर्जुन के प्रश्न और उसके उत्तर हमारे ढंग से तो ठीक मिल जाते हैं। जब वर्णाश्रम के सभी कर्म-धर्म उसने छोड़ रखे हैं तो उसके उभयभ्रष्ट होने की बात स्वयं आ जाती है। कारण वे तो छूटे ही थे, अब योग भी छूट गया। परंतु जो लोग यह बात नहीं मानते और बराबर यही चिल्लाते हैं कि गीता के मत से धर्म-कर्मों को किसी भी दशा में छोड़ नहीं सकते। वे इन प्रश्नोत्तरों को कैसे ठीक कहेंगे? उनके मत के अनुसार दोनों ओर से भ्रष्ट होने या गिर जाने का सवाल आता ही कहाँ है? वह जब मानते ही हैं कि योग के अभ्यास के समय भी नित्य-नैमित्तिक आदि धर्मों को वह योगी करता ही रहता है, तो फिर उनका फल कौन रोकेगा? वह तो अवश्य ही मिलेगा। इसलिए योग का फल न भी मिला तो क्या मुज़ायक़ा? कर्मों का फल तो मिलेगा ही - एक तो मिलेगा ही। ऐसी दशा में दोनों तरफ से चौपट होने या भ्रष्ट होने का प्रश्न उठता ही नहीं। यदि मान भी लें कि अर्जुन ने भूल से ही ऐसा कह दिया था, तो कृष्ण को तो भूल सुधार लेना था। उन्हें चटपट पहले यही कहना था कि उभयभ्रष्टता की बात तो गलत है। पीछे और बातें भी कह सकते थे। मगर ऐसा न कह के उनने भी तो मान लिया कि यही बात है। इसलिए अगत्या कबूल करना ही होगा कि जो संन्यासी या योगी समाधि का अभ्यास करता है उसे धर्म-कर्म छोड़ना ही पड़ता है। उसके लिए कोई चारा हई नहीं।

तत्रतं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनंदन॥ 43

हे कुरुनंदन, वहाँ उसे पूर्व जन्मवाली बुद्धि ही मिल जाती है। इसीलिए योग-सिद्धि के लिए और भी ज्यादा यत्न करता है। 43।

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते॥ 44

उस पूर्व जन्म के अभ्यास के ही फलस्वरूप वह जबर्दस्ती उधर ही खिंच जाता है। (यही कारण है कि) योग की जानकारी एवं प्राप्ति की इच्छा वाला भी शास्‍त्रीय विधि-विधान की परवाह नहीं करता। 44।

असल में पहले श्लोक में यह कहने पर कि वह इस जन्म में और भी ज्यादा यत्न योग-सिद्धि के ही लिए करता है, यह प्रश्न स्वयमेव पैदा हो जाता है कि कैसे? दूसरे लोग ऐसा नहीं करते, वही क्यों करता है? इसका उत्तर इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में दिया गया है कि पूर्व जन्म का वह प्रबल संस्कार ही उसे योग की ओर बलात घसीट ले जाता है। फलत: इच्छा न रहने या परिस्थितियों के विपरीत होने पर भी उसे उसी काम में लगना ही पड़ता है।

इस पर जो जबर्दस्त प्रश्न पैदा होता है वह यह कि, माना कि संस्कार जबर्दस्त है और उधर घसीटता भी है सही। मगर जब उसने कहीं जन्म लिया तो ब्रह्मचर्यादि आश्रमों से ही हो के तो संन्यासी बनेगा और समाधि का अभ्यास करेगा। यह तो संभव नहीं कि एकाएक संन्यासी ही बन जाए। क्योंकि वेदशास्‍त्रों के विधि-विधान इस संबंध में मौजूद ही रहते हैं, जो इन आश्रमों को क्रमश: पूरा करने पर ही पूरा जोर देते हैं। ऐसी दशा में जब ये इधर खींचेंगे और पूर्व संस्कार उधर, तो ज्यादे से ज्यादा यही हो सकता है कि दोनों की खींचतान में वह किसी ओर या तो झुके ही नहीं या थोड़ा-बहुत दोनों के अनुसार करे। वह सिर्फ पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार योगाभ्यास ही करेगा, यह कैसे होगा?

इसी का उत्तर इस श्लोक के उत्तरार्द्ध में है कि जब योग-सिद्धि की लगन उसमें पैदा हो गई, तो फिर वह शास्‍त्रीय-विधि-विधान की परवाह क्यों करेगा? कर्मकांड का तो प्रयोजन ही यही है कि लगन, यह उत्सुकता, यह धुन और यह जिज्ञासा पैदा हो जाए। यह तो पहले ही कहा जा चुका है। यह भी बताया जा चुका है कि यह शब्द ब्रह्म का अर्थ वेदशास्त्रदि ही है। और जब यह धुन और लगन पैदा हो गई, तो फिर उन कर्मों या कर्मों के प्रतिपादक वचनों और तन्मूलक आश्रमों की परवाह वह करेगा क्यों? आत्मज्ञानी तो नहीं ही करता है। वह भी नहीं करता है यह मानी हुई बात है। यही कारण है कि उन वचनों पर अमल करने के लिए जोर देने वाले पिता, आचार्य आदि शासकों की भी परवाह वह नहीं करता। प्रह्लाद आदि के बारे में यही बात पाई जाती है। उस पूर्व-अभ्यास और उससे उत्पन्न संस्कार की यही तो अपूर्व शक्ति है।

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विष:।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥ 45

(इस तरह) बहुत मुस्तैदी से योग की सिद्धि के लिए यत्न करने वाला विशुद्धान्त: करण योगी (लगातार) अनेक जन्मों के प्रयत्न से ही वह सिद्धि (और) उसके फल स्वरूप परमगति प्राप्त कर लेता है। 45।

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ 46

हे अर्जुन, यह योगी तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी बड़ा माना जाता है और कर्मियों से भी ऊँचा स्थान रखता है। इसलिए तुम (जरूर ही) योगी बनो। 46।

यहाँ बहुत गहरे पानी में उतरने की जरूरत नहीं है; हालाँकि कुछ लोगों ने इसकी बड़ी कोशिश कही है। यहाँ खींचतान की अपेक्षा सीधा अर्थ ही ठीक जँच जाता है। सत्रहवें अध्‍याय के 'देवद्विजगुरुप्राज्ञ' आदि (17। 14-16) श्लोकों में जिन तीन प्रकार के तपों को गिनाया है उन्हीं के करने वाले तपस्वी हुए। ज्ञान और विज्ञान का विभेद बताते हुए पहले ही कह चुके हैं कि सिर्फ पढ़-सुन के जो जानकारी किसी बात की हो जाती है वही ज्ञान और उसे जिनने प्राप्त कर लिया वही हुए ज्ञानी। सभी प्रकार के श्रोत-स्मार्त्त या दूसरे ही सत्कर्मों के करने वाले हो गए कर्मी। मगर इन तीनों से ही तो काम पूरा होता नहीं। आत्मा के साक्षात्कार के लिए, जिसे विज्ञान भी कहते हैं, कुछ और भी विशेष यत्न और उपाय करने होते हैं, जिन्हें निदिध्‍यासन, ध्‍यान, योग या समाधि कहते हैं। इन्हें करने वाले ही योगी कहे गए हैं। इससे साफ है कि योगी का काम है इन तीनों की कमियों को पूरा करना। ये तीनों योगी के लिए मार्ग साफ करते हैं, योग की तैयारी करते हैं। यह तो योगी ही का काम है कि उस योग को पूरा करे। वही आखिरी सीढ़ी है। उस पर चढ़ना ही होगा। तभी लक्ष्य स्थान पर पहुँच सकेंगे। इसलिए योगी को सबों से श्रेष्ठ कहना सर्वथा युक्तिसंगत एवं उचित है।

इस तरह कहने के लिए तो योगी को सबसे ऊँचा बना दिया। मगर आखिर योगी भी तो सभी प्रकार के होते हैं। पूर्णयोग या योग की सिद्धि के पहले जानें कितनी ही छोटी-मोटी सीढ़ियों से उसी योग की दशा में ही गुजरना पड़ता है, जैसा कि 'शनै:-शनै:' और 'अनेकजन्मसंसिद्ध:' से स्पष्ट है। इसलिए इन सब हालतों से सफलतापूर्वक गुजरते हुए यदि ब्रह्मानंद में गोते लगाने हैं तो दो बातें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। एक तो अपने लक्ष्य की प्राप्ति में अटल विश्वास, जिसे श्रद्धा कहते हैं। यह विश्वास जब किसी भी हालत में जरा भी डिग न सके तभी लक्ष्य-सिद्धि हो सकती है। यही बात पहले 'योगोऽनिर्विण्णचेतसा' में कही गई है। दूसरी यह कि वह लक्ष्य अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार ही है, अपनी ही आत्मा को सबमें ओत-प्रोत देखना ही है, इसी निश्चय के साथ शुरू से ही पूरी लगन और धुन के साथ मन को उसी में लगाया जाए। इसी को भजन कहते हैं। मन को ही अंतरात्मा भी कहते हैं। जो ऐसा करता है वही योगारूढ़ है, वही योगियों में भी सबसे ऊँचे दर्जे का है, वही युक्ततम है। यही बात अंतिम श्लोक यों कहता है -

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥ 47

सभी योगियों में भी जो मुझ आत्मारूपी परमात्मा में श्रद्धा के साथ मन को जमा के उसी में डूबा रहता है मेरे मत से वही युक्ततम है। 47।

इस अध्‍याय में छ: बार सम शब्द का प्रयोग आया है और वह है 8, 9, 13, 29, 32, 33 श्लोकों में। इनमें 13वें में तो एक सीध में या तने रखने के अर्थ में ही है। शेष पाँच में से 8, 9 और 29 में अद्वैत-आत्मज्ञान वाला समदर्शन ही इसका अभिप्राय है। उस दर्शन का जो परिणाम व्यवहार में होना चाहिए वही 32वें में आया है। फलत: उससे भिन्न अर्थवाला यह भी नहीं है। इसी का उल्लेख मात्र 33वें में आया है। इससे स्पष्ट है कि कर्मयोगवाला


'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' इनमें एक भी नहीं है। यह ठीक है कि यह समदर्शन उसका आधार जरूर है। इसके बिना वह होई नहीं सकता।

इस अध्‍याय का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ध्‍यान या समाधि है यह तो हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके हैं। इसी समाधि के सिलसिले में इस अध्‍याय में भी 'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा' में एक बार तीसरे अध्‍याय की ही तरह ज्ञान-विज्ञान शब्द भी आ गया है।

इतिश्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे ध्‍यानयोगो नाम षष्ठोऽ ध्या य:॥ 6

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक योग शास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ध्‍यानयोग नामक छठा अध्‍याय यही है।

सातवाँ अध्‍याय

जैसा कि हमने पहले ही गीता के अध्‍यायों की संगति के सिलसिले में कहा है और अवसर पा के बीच के गत पाँच अध्‍यायों में लिखा है, गीता के मुख्य प्रतिपाद्य विषयों का निरूपण यहीं पूरा हो जाता है। इन छ: अध्‍यायों के बाद कोई भी प्रतिपादनीय मुख्य विषय रह जाता नहीं है। यों तो, जैसा कही चुके हैं, दो और तीन अध्‍यायों में ही ज्ञान और कर्म रूप दोनों ही मुख्य विषय आ चुके हैं। मगर उनके कुछ प्रधान पहलू रह जाते हैं और उन्हीं का निरूपण शेष तीन अध्‍यायों में किया गया है। इस तरह ज्ञान के स्वरूप, संन्यास और ध्यान या समाधि पर पूरा प्रकाश पड़ गया है। यही ज्ञान है। इन विषयों और उनके मुख्य पहलुओं पर पूरा प्रकाश डालने के लिए जो कुछ भी निरूपण अब तक हुआ है उससे इन विषयों का केवल परोक्ष या दिमागी ज्ञान काफी हो जाता है। इसी से इस समूचे निरूपण एवं प्रतिपादन को भी ज्ञान कहते हैं, जैसे तेरहवें अध्‍याय में ज्ञान के साधनों और उपायों को ही 'एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं' (13। 11) में ज्ञान कहा है।

लेकिन इतने से ही काम नहीं चलता। एक तो ज्ञान को ही और भी मजबूत बनाने के लिए बार-बार उसके संबंध में खोद-विनोद करने और सोचने-विचारने की जरूरत होती है। इसी चीज को पुराने लोग मनन कहते आए हैं। पहले पढ़ या सुनके जो ज्ञान होता है उसी की मजबूती इस मनन से होती है। पढ़ने-सुनने को श्रवण कहते हैं। श्रवण और मनन के बाद जो तीसरी बात की जाती है, जिससे जानी-सुनी चीज की प्रत्यक्ष जानकारी हो जाए, उसी का नाम निदिध्‍यासन है। उसका निरूपण छठे अध्‍याय में किया गया है। मगर यह निदिध्‍यासन उन्हीं के लिए है जो साक्षात्कार या प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते हैं। उनके उपदेशक तथा आचार्य तो यह करते नहीं। क्योंकि उन्हें तो पहले से ही साक्षात्कार होता है। लेकिन वह शिष्यों को, जिन्हें उनने श्रवण, मनन कराया है, इतनी मदद दे सकते हैं। जिससे उनका निदिध्‍यासन आसानी से हो सके। इसी को आज की भाषा में प्रयोग (experiment) कहते हैं। इससे सुनने और विचारनेवालों को इतनी आसानी हो जाती है कि पीछे यही काम वह खुद भी कर सकते और दूसरे को सिखा सकते हैं। इस प्रयोग के बिना उन्हें दूसरों को उपदेश देने की पूर्ण योग्यता शायद ही हो सके। जिसे पहले कहा था उसी को पीछे कर दिया - कह सुनाए को कर दिखाया। इस पर पहले भी लिखा गया है।

सातवें से लेकर दसवें और बारहवें से लेकर अठारहवें अध्‍याय तक मनन का ही काम किया गया है। हाँ, अठारहवें में सभी बातों का उपसंहार भी किया है। अधिकांश में उसे उपसंहार का ही अध्‍याय कहना चाहिए। यों तो उपसंहार करने में भी पूरा मनन होई जाता है। केवल ग्यारहवें अध्‍याय में निदिध्‍यासन के सहायतार्थ उन्हीं बातों का प्रयोग (experiment) करके अर्जुन को साफ-साफ दिखा दिया गया है। आत्मा से जुदा परमात्मा है नहीं और यह जगत भी परमात्मा से पृथक न हो के उसी का स्वरूप है, यही बात अर्जुन को उस अध्‍याय में प्रत्यक्ष दिखाई गई है। फलत: यह प्रयोग नहीं है तो और है क्या? मालूम होता है, किसी प्रयोगशाला में बैठ के कोई पक्का जानकार चेले को प्रयोग के द्वारा चीजें दिखा रहा है। मनन की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है, सो भी निरंतर। इसीलिए प्रयोग के बाद भी मनन जारी रखा गया है। यदि मनन न रहे तो सारा प्रयोग बेकार हो जाए और भूल जाए। यह भी भूलना न चाहिए कि श्रवण की तरह मनन के समय भी ज्ञान होता ही है। उसके बिना मनन होगा कैसे? इसीलिए आगे जो विज्ञान के लिए मनन के रूप में बातें कही गई हैं उन्हें केवल विज्ञान न कहके 'ज्ञानं विज्ञानसहितम्' (9। 1) या 'ज्ञानं सविज्ञानं' (7। 2) में ज्ञान के सहित विज्ञान या ज्ञान-विज्ञान दोनों ही कहा है। विज्ञान में तो संशय की गुंजाइश रही नहीं जाती। इसीलिए सातवें के शुरू में ही 'असंशयम' कह दिया है।

छठे अध्‍याय के अंत में जो आत्म-साक्षात्कार के लिए यह कहा है कि मुझ परमात्मा में ही मन लगा के मुझी में डूब जाओ, तभी काम पूरा होगा, उसी बात को ले के सातवें अध्‍याय का श्रीगणेश होना इसीलिए उचित भी है। जब साक्षात्कार की आखिरी बात और उसका अंतिम एवं ध्रुव मार्ग यही बताया गया है तब तो मनन और निदिध्‍यासन कराने के साधनों के रूप में उसी पर विशेष प्रकाश डालना ही होगा। यह बात ऐसी भी नहीं कि किसी के प्रश्न करने पर कही जाए। यह तो आम बात है। सभी जानकार यही करते हैं। इसके लिए प्रश्न करने की कोई जरूरत हई नहीं। इसीलिए अर्जुन के प्रश्न के बिना ही स्वयमेव -

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युं जन्मदाश्रय:।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ 1

श्रीभगवान बोले - हे पार्थ, मुझ परमात्मा में मन को जोड़ के और मुझी को सब कुछ समझ के योग का अभ्यास करते हुए मुझे पूरी तौर से निस्संदेह जिस तरह जान सकोगे वही बात सुनो। 1।

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ 2

(लो,) मैं तुम्हें ज्ञान और विज्ञान दोनों पूरा-पूरा अभी बताता हूँ, जिसे जानने के बाद इस दुनिया में और कुछ भी जानने योग्य रही न जाएगा। 2।

यहाँ 'इदं वक्ष्यामि' का 'वक्ष्यामि' पाणिनि के वर्त्तमान सामीप्ये वर्त्तमानवद्वा' (3। 3। 131) के अनुसार फौरन कहने के ही मानी में बोला गया है। ऐसे मौके पर 'लो, जाता हूँ,' आदि के ही अर्थ में 'एष गच्छामि, एष गमिष्यामि, इदं गमिष्यामि' आदि बोलने की पुरानी रीति है। और इसके बाद ही चौथे श्लोक से वही बात फौरन शुरू भी तो हो गई है। बीच में जो तीसरा श्लोक आया है वह तो इस विज्ञान की दुर्लभता और कठिनाई को ही बताता है, ताकि उधर पूर्ण रूप से लोगों का ध्‍यान आकृष्ट हो सके और हम गौर से सारी बातें सुन सकें, विचार सकें।

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥ 3

(एक तो) हजारों आदमियों में (शायद ही कोई) योगसिद्ध और ज्ञानप्राप्ति के लिए कोशिश करता है (और) योग की सिद्धि को प्राप्त हुए इन यत्न करनेवालों में भी (शायद ही) कोई मुझ परमात्मा को यथार्थत: जानता - मेरा साक्षात्कार करता - है। 3।

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥ 4

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रधान या मूल प्रकृति - इस प्रकार यह मेरी प्रकृति - माया - ही के आठ विभाग हैं। 4।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत॥ 5

हे महाबाहु, यह तो अपरा या नीचे दर्जेवाली मेरी प्रकृति है। (लेकिन) इससे निराली जीवरूपी मेरी उस परा या श्रेष्ठ प्रकृति को भी तो जान लो, जो इस (समूचे) जगत को कायम रखती है। 5।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥ 6

इन्हीं (दोनों प्रकृतियों) से ही सभी पदार्थ बनते हैं ऐसा निश्चय कर लो। (अंततोगत्वा तो इस तरह) मुझसे ही सारा संसार पैदा होता है और मुझी में समा जाता है। 6।

मत्त: परतरं नान्यत किंचिदस्ति धनंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रो मणिगणा इव॥ 7

(क्योंकि) हे धनंजय, मुझसे बड़ा (तो) कोई हई नहीं। यह सब कुछ (दृश्य जगत) मुझमें उसी तरह पिरोया हुआ है जैसे माला के दाने सूत में। 7।

यहाँ चौथे श्लोक का अर्थ समझने के लिए पूर्व का गुणवाद प्रकरण पढ़ लेना जरूरी है। वहीं इसका पूर्ण स्पष्टीकरण मिलेगा। परमात्मा के सिवाय इस दृश्य तथा अदृश्य जगत के मूल में दो पदार्थ हैं, जिन्हें जीव और माया या प्रधान कहते हैं। प्रधान को ही प्रकृति भी कहते हैं। प्रकृति का अर्थ है मूल कारण। यहाँ पर जीव और प्रधान दोनों को ही प्रकृति कहा है, जिनमें प्रधान नीचे दर्जे की और जीवात्मा ऊँचे दर्जे की है। इन्हीं दो से सारे जगत का पसारा हुआ है। मगर इन दोनों का भी पसारा अंत में ब्रह्म या परमात्मा से ही है। फलत: उसके सिवाय और कोई सत्य पदार्थ हई नहीं । इन दोनों में जीवात्मा तो परमात्मा का रूप ही है। किंतु प्रकृति, माया या प्रधान अनिर्वचनीय, अनादि और मिथ्या है। इस तरह ब्रह्म-आत्मा के अलावे सत्य वस्तु जब कोई हई नहीं तो द्वैत या विभिन्नता का प्रश्न उठता ही कहाँ है? ये सारी बातें भी गुणवाद के ही प्रसंग से वहीं लिखी हैं। माले के दाने और सूत का दृष्टांत देकर इतना ही कहा है कि जैसे सूत के बिना दाने अलग हो जाएँगे और माला रही न जाएगी, साथ ही, जैसे हर दाने के भीतर सूत मौजूद है, ठीक उसी तरह परमात्मा या आत्मा के बिना सभी पदार्थ बिखर जाएँगे और यह जगत रही न जाएगा। सूत की तरह परमात्मा ने ही सब पदार्थों को पकड़ रखा है, रोक या धार रखा है। आखिर आत्मा तो सभी की होती है न? फलत: उसके बिना कोई चीज रहेगी ही कैसे? इसलिए वही सबों को जरूर ही धारण करनेवाली है। यह बात भी पहले खूब बता चुके हैं।

आगे के पाँच (8-12) श्लोकों में थोड़ा-सा नमूने के तौर पर इस बात का विवरण दिया गया है कि परमात्मा या आत्मा सूत की तरह पदार्थों में कैसे व्याप्त हैं, पदार्थ उनमें पिरोए हुए हैं। इसका विशेष विवरण कुछ तो नवें (16-19) और बहुत अधिक दसवें अध्‍याय में दिया गया है। जो भी हो, इस विवरण के पढ़ने से मालूम पड़ता है कि या तो कोई विशेषज्ञ और पूरा जानकार आदमी किसी पाठशाले में बैठ के अपने शिष्यों को यह बात समझा रहा है कि किस प्रकार ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलाने से, संयोग से ही पानी बनता है; इसीलिए इन दो अदृश्य वायुवों के अलावे पानी की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, हस्ती नहीं है, या कोई वेदांती जिज्ञासुओं एवं मुमुक्षुओं को बता रहा है कि सपने में जितनी चीजें नजर आती हैं, जो पदार्थ देखे जाते हैं, वह देखने वाले से वस्तुत: जुदा हैं नहीं; हालाँकि जुदा तो साफ ही मालूम होते हैं। इसीलिए जागने पर देखने वाले के सिवाय और कुछ भी पाया जाता नहीं। सिर्फ नींद के ही करते यह सारा तूफान और प्रपंच बन गया होता है। क्योंकि दरअसल नींद के ही चलते उस देखने वाले को होश नहीं रहता, उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती। इसीलिए दुनिया भर की अंट-संट चीजें बात की बात में यों ही रच-बना के देखता-सुनता है। ठीक उसी तरह भगवान की माया के ही करते उसे भी आपा बिसर जैसा गया है। फलत: सपने की तरह सारे जगत को यों ही बात की बात में बना के देख रहा है। नहीं तो दरअसल उसके अलावे और कुछ है वै नहीं। इसीलिए जैसे नींद के पहले कोई चीज न रहने पर भी सपने में देखने वाले से ही सपने की सारी चीजें बन के नींद खुलते ही उसी में जा मिलती हैं, उसी तरह यह सारा जगत परमात्मा से ही बन के उसी में जा मिलता है।

रसोऽहमप्सु कौंतेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।

प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥ 8

हे कौंतेय, (देखो न,) मैं ही तो जल में (उसका सार) रस हूँ। चंद्र और सूर्य का सार प्रकाश भी मैं ही हूँ। सब वेदों में (उनका सार) प्रणव या ऊँकार भी मैं ही हूँ। आकाश में शब्द (और) मनुष्यों में पौरुष - मर्दानगी - भी मैं ही हूँ। 8।

पुण्यो गंध : पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥ 9

पृथ्वी में सुगंध, अग्नि में तेज, सभी पदार्थों में जीवन (और) तपस्वियों में तप मैं ही हूँ। 9।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम॥ 10

हे पार्थ, सभी पदार्थों का सनातन मूलकारण मुझी को जानो। बुद्धिमानों में बुद्धि तथा तेजस्वियों में तेज मैं ही हूँ। 10।

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥ 11

हे भरतर्षभ, बलवानों में कामना और राग से रहित जो बल है वह मैं ही हूँ। प्राणियों में जो कामना धर्म की विरोधी नहीं हो वह भी मैं ही हूँ। 11।

ये चैव सा त्त्वि का भावा राजसास्तामसाश्च ये।

मत्त एवेति तान् विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥ 12

(इस तरह संक्षेप में) जितने भी सात्त्विक, राजस और तामस पदार्थ पाए जाते हैं सबके सब मुझ परमात्मा से ही बने हैं। (लेकिन याद रहे कि) मैं उनमें नहीं हूँ, (किंतु) वही मुझमें हैं। 12।

ऊपर के इन पाँच श्लोकों में इस सृष्टि के मूल कारण का जो उल्लेख आया है वह कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यह ठीक है कि सृष्टि के कुछी पदार्थों को चुन के उन्हीं के बारे में चार श्लोकों में कह दिया है कि उनकी आत्मा, उनका हीर, उनकी असलियत मैं ही हूँ, आत्मा ही है, परमात्मा ही है। किंतु पाँचवें श्लोक में तो सात्त्विक, राजस, तामस शब्दों में त्रैगुण्य या सभी पदार्थों को सामान्य रूप से लेकर वही बात कह दी गई है। कुछ चुने-चुनाए पदार्थों के बारे में ऐसा करने का एक खास प्रयोजन अंत में इसी अध्‍याय में कहेंगे। यहाँ यही देखना है कि उनमें भी पाँच भूतों में पृथ्वी, जल, तेज और आकाश इन चार को ही पृथक-पृथक गिनाया है और वायु को इस रूप में छोड़ दिया है। इन चारों के जो असली गुण या परिचायक हैं, इनकी जो विशेषताएँ (characteristics) हैं, और इसीलिए जिन्हें इनकी आत्मा कह सकते हैं, उन्हीं को परमात्मा का रूप बना दिया है। सचमुच ही यदि भूत से गंध को, आकाश से शब्द को, अग्नि से तेज को और जल से रस को निकाल लें तो उन पदार्थों का अपना क्या रह जाएगा? उन्हें फिर भी पृथ्वी, जल आदि के नाम से कोई पुकारेगा भी क्या? तब तो वे लापता ही होंगे। उनके अस्तित्व का कोई भी प्रमाण रही न जाएगा। भूमि में दार्शनिकों ने गंध ही सब कुछ माना है। जहाँ वह न भी मालूम हो वहाँ भी रहता ही है। लोहे, पत्थर वगैरह में मालूम न होने पर भी उनके भस्म में स्पष्ट ही मालूम होता है।

रह गया वायु। असल में यदि देखा जाए तो इस भौतिक सृष्टि के मूल में जो पाँच भूत हैं उनमें वायु का ही महत्त्व सबसे ज्यादा है। अन्य पदार्थों के बिना तो सभी पदार्थ कुछ देर टिक भी सकते हैं। मगर हवा के बिना एक मिनट भी टिकना असंभव हो जाता है। उसे प्राण भी इसीलिए कहा है कि वह सबों को कायम रखता है, उनमें हलचल या क्रिया जारी रखता है। असल में क्रिया ही तो अस्तित्व का लक्षण है और वह है वायु की ही चीज। इसीलिए छठे अध्‍याय में कहा है कि वायु को रोक देना या उसकी क्रिया बंद कर देना असंभव है। तब तो दुनिया ही खत्म हो जाएगी। शरीर के भीतर खून का संचार क्षण भर भी रुका कि मरे। पदार्थों के भीतर से नए-पुराने परमाणुओं का जाना-आना रुका कि वे खत्म हुए। यही कारण है कि वायु के हीर को - सार को - लेने की अपेक्षा समूचे वायु को ही 'जीवनं सर्व भूतेषु' (7। 9) में जीवन शब्द से ले लिया है। जीवन का सीधा अर्थ है प्राण। मगर दरअसल उसके मानी हैं अस्तित्व जिससे कायम रहे, या स्वयं अस्तित्व ही। वायु को जीवन भी कहते हैं। पानी भी तो दो वायुवों के सम्मिश्रण से ही बनता है। इसीलिए उसे भी कहीं-कहीं जीवन कहा गया है। वायु को भूतों में न गिनने का एक और भी कारण अंत में इसी अध्‍याय में हमने दिखाया है।

इस प्रकार जगत के मूलभूत पंचभूतों को ही आत्मा का रूप बना दिया है। इसके बाद कुछ खास-खास चीजें चुन ली हैं। इनमें सूर्य और चंद्र भी आए हैं। सचमुच ही ये दोनों जगत के बड़े काम के हैं। चंद्र के बारे में तो पंदरहवें अध्‍याय में कह दिया है कि अमृत या रस के रूप में सभी अन्नादि को पुष्ट करता है जिन्हें खा के सभी पुष्ट और जीवित रह सकते हैं। इसी प्रकार सूर्य समस्त शक्तियों का भंडार, सभी शक्तियों का देने वाला पहले भी माना गया है। आज के विज्ञान ने भी ऐसा ही माना है। अब यदि इन दोनों के प्रकाश को हटा लें तो इनमें रहेगा ही क्या? असल में सूर्य को तो 'प्रकाश का पुंज ही' कहा है, 'तेजसांगोलक: सूर्य:' चंद्रमा में भी सूर्य का ही प्रकाश माना जाता है। उसे प्रकाश का स्वतंत्र पुंज नहीं माना है। यही कारण है कि दोनों का सार प्रकाश ही बताया गया है। यदि प्रकाश के अलावे इन दोनों में और भी स्थूल पदार्थ मानें, जैसा कि आज के वैज्ञानिक बताते हैं, तो भी क्या? प्रकाश निकाल लेने पर इन दोनों को चंद्र और सूर्य तो कोई भी न कहेगा। बस यहाँ यही आशय है।

हिंदू लोग वेदों को सर्वमान्य और सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। उन्हें ज्ञानागार भी मानते हैं। असल में वेद शब्द का अर्थ ही है ज्ञान या ज्ञान देने वाला। इसीलिए वेद कहने से सभी सद्ग्रंथों और ज्ञान देने वाली पोथियों से मतलब होता है। फिर चाहे वह किसी धर्म की हों, या उन्हें धर्म से कोई वास्ता न भी हो, और केवल औषधियों आदि की हजारों वैज्ञानिक जानकारियाँ कराएँ। पुराने लोग प्रणव या ॐकार को ही सब वेदों का निचोड़ मानते थे, ॐकार: सर्ववेदानां सारस्तत्त्वप्रकाशक:।' ॐ में भी अ, उ, म ये तीन अक्षर माने गए हैं, जिनमें प्रधानता अकार की ही है। अकार ही समस्त व्यंजनों के उच्चारण का सहायक माना गया है। ऐसा भी लगता है कि सभी स्वर अक्षरों के मूल में यह अकार ही है। क्योंकि उनके उच्चारण में पहले अकार का ही आभास होता है। अब तो नई वर्णमाला में इस प्रकार से ही शेष स्वरों को बनाने भी लगे हैं। इस प्रकार सभी अक्षरों के मूल में अकार के होने से और सभी ग्रंथों के इन अक्षरों से ही बने होने के कारण सबों के मूल में यह अकार आ जाता है, और वही है आत्मा का रूप।

पुरुषों में पौरुष या मर्दों में मर्दानगी, तपस्वियों में तप, बलवानों में बल, तेजस्वियों में तेज और बुद्धिमानों में बुद्धि यही पाँच चीजें और भी ली गई हैं। असल में अर्जुन जैसे तेजस्वी, बली, बुद्धिमान और मर्द का खयाल करके ही ये बातें कही गई हैं। वह तो तप करने के लिए भी जंगल की शरण लेने को तैयार ही था। इसीलिए तप भी आ गया है। इन पाँचों की दुनिया में भी बड़ी कदर है। अर्जुन भी कहीं समझता हो कि मैं कुछ हूँ। इसलिए साफ ही कह दिया कि ये सभी चीजें परमात्मा रूपी ही हैं। फिर तुम्हारी अलग हस्ती हई क्या? तुम स्वतंत्र करी क्या सकते हो?

इन सभी पदार्थों के सिलसिले में दोई बातें और आई हैं। एक तो पृथ्वी के गंध को पुण्य या सुंदर गंध कहा है, जिससे पता लगता है कि दुर्गंध परमात्मा का रूप नहीं है। दूसरे काम या कामना को भी कहा है कि वह धर्म-विरोधी न हो तो भगवान का रूप ही है। फलत: धर्म-विरोधी कामना या अभिलाषा उसका रूप नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि गीता ने दुर्गंध की स्वतंत्र सत्ता न मान के उसे विकार या खराबी ही माना है, और सृष्टि के प्रसंग में विकार या खराबी के कहने के मानी हो जाते हैं सृष्टि के नाश के। इसीलिए उसे छोड़ दिया। इसी तरह 'धर्मो धारयतेप्रजा:' के अनुसार धर्म उसी को कहते हैं जो सृष्टि को कायम रखने में सहायक हो। फलत: धर्म-विरोधी चीज सृष्टि का नाशक बन जाएगी। यही कारण है कि सृष्टि की बातें गिनाने में प्रलय के सामानों को छोड़ दिया है।

अंत में तो 'बीजं मां सर्वभूतानां' में यह भी कह दिया है कि यह तो नमूने के रूप में कुछी पदार्थों को गिनाया है। असल में तो सभी पदार्थों का सनातन बीज परमात्मा ही है। आम का बीज गुठली भले ही हो। मगर वह तो सनातन नहीं है। वह तो खुद भी नष्ट हो जाती है और पैदा होती है। फलत: उसका भी बीज कोई न कोई हई। इस तरह बढ़ते-बढ़ते अंत में ऐसी जगह पहुँचना होगा जिस बीज का नाश नहीं होता, जो सदा रहता है और जिससे सभी पदार्थ क्रमश: बनते हैं, पैदा होते हैं। वही है मूल कारण या सनातन बीज और वह आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं है।

आखिरी श्लोक में जो यह कहा है कि सभी पदार्थ मुझ परमात्मा में ही हैं, न कि मैं ही उनमें हूँ, उसका कुछ मतलब है। अब तक रस, गंध आदि के रूप में सभी पदार्थों के जिन मूल कारणों को बताया है उन्हें देखने से पता चलता है कि वे उन्हीं पदार्थों में रहते हैं। सप्तमी विभक्ति लगा-लगा के यही कहा भी गया है। माला के दाने का जो दृष्टांत दिया है उसमें भी सूत दानों के भीतर ही है, न कि दाने सूत के भीतर। इससे कोई ऐसा न समझ ले कि परमात्मा के आधार ये भौतिक पदार्थ ही हैं, इसलिए कहना पड़ा कि मैं उनमें नहीं हूँ, किंतु वही मुझमें हैं - वे मेरे आधार नहीं हैं, किंतु मैं उनका आधार हूँ। पदार्थों को आधार मानने से अंततोगत्वा उनका स्वतंत्र अस्तित्व मानना ही पड़ता और इस तरह अद्वैतवाद या सर्वभूतात्मभूतात्मावाला गीताधर्म लागू हो पाता नहीं। इसलिए ऐसा कहना जरूरी हो गया। इस कथन का तात्पर्य यही है कि इस प्रकार हर पदार्थों का विश्लेषण करते-करते अंत में इनका पता कुछ नहीं लगता। एक आत्मरूपी परमात्मा ही सबों के मूल में रह जाता है। उसी में इनकी कल्पना सपने की तरह हुई है। इसीलिए इन्हें देख के इनके मूल का अंवेषण करने से ही काम चलेगा जो इनमें न हो के इनसे स्वतंत्र है। इसका विस्तृत विवेचन छांदोग्योपनिषद् के छठे अध्‍याय के आठवें खंड में आया है। वहाँ बार-बार लिखा है कि 'अन्नेन शुंगेनापोमूलमन्विच्छादिभ: सोम्य शुंगेन तेजो मूलमन्विच्छतेजसा सोम्य शुंगेन सन्मूलयन्विच्छ सन्मूला: सोम्येमा प्रजा सदायतना: सत्प्रतिष्ठा:।'

अंत में सात्त्विक आदि शब्दों से जो भौतिक पदार्थों को याद किया है उसका दूसरा प्रयोजन भी है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ऐसी जानकारी सबों को क्यों नहीं होती? इसका समाधान जरूरी है। यों तो तीनों गुणों के भीतर जगत आई जाता है। फिर भी इन त्रिगुणात्मक पदार्थों की यह खूबी है कि ये अपने भीतर ही लोगों को फँसा लेते हैं। इनके फँसाने के कौन-कौन से तरीके हैं यह बात गुणवाद में विस्तृत रूप से कही जा चुकी है। नतीजा यह होता है कि इनसे आगे हम बढ़ने पाते ही नहीं। इनका फंदा ऐसा ही जो ठहरा। लोभी बनिये की तरह हम बारह महीने, तीस दिन जीवन भर यही सोचते रह जाते हैं कि बच्चों के लिए थोड़ा यह कर लें, वह कर लें, तो फिर भगवान को याद करने कहीं अलग चलेंगे। जरा मंदिर बना लें, तीर्थ कर लें, दान-पुण्य कर लें, कथा-वार्ता सुन लें, तो फिर विरागी बनेंगे। ऐसा ही सोचते-सोचते और करते-करते जीवन खत्म हो जाता है और आगे बढ़ पाते नहीं। इसीलिए कह दिया है कि इन पदार्थों में मैं नहीं हूँ, यही मुझमें हैं। इन्हें छोड़ो तो मुझे पाओगे। बिना ऐसा किए आत्मा-परमात्मा को पहचानना असंभव है। ये माया के ही गुण और पदार्थ हैं और माया तो ठगने वाली ही ठहरी न? उसने उसी रस्सी में फाँस लिया है। उसकी हजार चालें हैं। जब तक इनसे हट के परमात्मा की ओर बिलकुल ही लग न जाएँ तब तक न तो माया से - इस बड़ी नींद से - पिंड ही छूटेगा, न जगेंगे ही और न इन पदार्थों का पूर्वोक्त रहस्य समझ सकेंगे। यही बात आगे के श्लोकों में कही गई है। वहाँ इस जगने का, इस ज्ञान का महत्त्व सुझाया गया है। यह भी बताया गया है कि परमात्मा की ओर मुखातिब होने वाले भी लोग भटक जाते हैं। इसलिए सजग रहना होगा।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ 13

इन त्रिगुणात्मक पदार्थों में ही फँस के भूला हुआ यह संसार इनसे निराले और अविनाशी मुझ भगवान को ठीक-ठीक समझ पाता नहीं। 13।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते॥ 14

(ऐसा इसीलिए होता है कि) विलक्षण चमत्कार वाली, जिससे पार न पाया जा सके ऐसी (तथा) अनेक गुणों - फँसाने के साधनों - वाली मेरी माया ही तो आखिर यह सब कुछ है। (इसीलिए) जो लोग केवल मुझ परमात्मा में ही लग जाते हैं वही इस माया से पार पाते हैं। 14।

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यंते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥ 15

(विपरीत इसके) जो मनुष्यों में अधम, दुष्कर्मी, आसुरी प्रकृतिवाले (और) मूढ़ हैं - विवेकशून्य हैं (और) जिनका ज्ञान माया ने हर लिया है वह तो मुझमें कभी लगते नहीं। 15।

चतुर्विधा भ जंते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

र्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञाना च भरतर्षभ॥ 16

हे अर्जुन, हे भरतर्षभ, (जो) सुकर्मी जन मुझ परमात्मा में लगते हैं वे चार प्रकार के होते हैं - धन चाहने वाले, कष्ट में पड़े हुए, ज्ञान की इच्छावाले और ज्ञानी। 16।

यहाँ यद्यपि श्लोक में क्रम दूसरा है तथापि असली क्रम इन चारों का वही है जो हमने लिखा है। श्लोक में छंद रचना के लिए ही उलट-फेर करना पड़ा है। दरअसल भगवान की ओर मुखातिब होने वाले भी पहले धन-संपत्ति में ही फँस जाते हैं, वहीं तक रह जाते हैं। यदि कोई आगे बढ़ा भी तो एकाध भारी संकट आते ही उसी से त्राण चाह के वहीं फँस जाता है। हाँ, जो इन दो फंदों से पार हो जाते हैं उनमें पहले तो यही भावना होती है कि मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो। यह ठीक भी है। भटकना तो यह है नहीं। क्योंकि यही असली सीढ़ी है। इसी इच्छा से भगवान की तरफ जाने और उसमें लग जाने वाले ही पीछे ज्ञानी होते हैं, जो समस्त जगत को अपना स्वरूप ही देखते हैं। इस तरह यदि देखा जाए तो परमात्मा की ओर जाने वाले सभी के सभी लोग पामरों से तो अच्छे ही हैं।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ 17

एक - अद्वैत ब्रह्मात्मा - ही में लीन ज्ञानी उन (चारों) में (भी) श्रेष्ठ है। क्योंकि मैं ज्ञानी का सबसे प्यारा हूँ और वह भी मेरा सबसे प्यारा है। 17।

आखिर आत्मा से - अपने आप से - बढ़कर अपना प्यारा होगा कौन? और ये ब्रह्म एवं ज्ञानी तो परस्पर एक दूसरे की आत्मा होई चुके हैं। वे एक दूसरे से जुदा नहीं हैं, पृथक नहीं हैं। एक की हस्ती - सत्ता - दूसरे से जुदा हई नहीं। ज्ञान के यही मानी हैं।

उदारा: सर्व एवैत ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमांगतिम्॥ 18

(यों तो) सभी अच्छे ही हैं। (लेकिन) ज्ञानी तो मेरी (अपनी) आत्मा ही हैं। क्योंकि वह मुझी में मन को जोड़ता तथा मुझसे बढ़ के दूसरा कुछ भी मानता ही नहीं। 18।

बहूनां जन्मना मंते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ 19

बहुत जन्मों (में यत्न करते-करते तब कहीं सब) के अंत में ज्ञान प्राप्त करके 'यह सब कुछ भगवान ही हैं' इस प्रकार मुझ परमात्मा में जो लग जाता है वही अत्यंत दुर्लभ महात्मा है। 19।

लेकिन कोई ऐसा न समझ बैठे कि इस प्रकार चार ही ढंग के लोग भगवान की ओर बढ़ते हैं, इसीलिए गीता के श्रद्धावाले सिद्धांत के अनुसार, जिसका पूरा वर्णन पहले ही किया जा चुका है, यह बताना जरूरी हो गया कि और भी लोग हैं जो घूम-घाम के भगवान की ओर जाते हैं, न कि सीधे। फर्क यही है कि ये चार सीधे जाते हैं। इसलिए इन्हें वहाँ औरों की अपेक्षा शीघ्र पहुँचने का मौका है। बेशक, इन चारों की अपेक्षा शेष लोग भूले हुए जरूर माने जाने चाहिए। क्योंकि वे यह समझते हैं कि भगवान तो केवल मुक्ति देता है, बाकी पदार्थ तो दूसरे देवता लोग ही दे सकते हैं, देते हैं। अपनी अनेक प्रकार की कामनाओं के करते वे अंधे हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि भला ये तुच्छ चीजें भगवान क्या देंगे! इसीलिए भटकते भी तो हैं। क्योंकि उन्हें जानना चाहिए था कि जो कुछ भी देना-दिलाना या करना-कराना हो केवल भगवान ही करते हैं। औरों की ओर नजर करना ठीक वैसा ही है जैसे कुत्ते का खून-मांस के लिए सूखी हड़डी चबाना। वे बेचारे ऐसा इसीलिए करते हैं कि गुण-कर्म के अनुसार उनकी प्रकृति ही ऐसी होती है।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यंतेऽन्यदेवता:।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ 20

अनेक प्रकार की कामनाओं के चलते समझ खराब हो जाने से (बहुतेरे लोग) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न देवताओं की शरण में उन्हीं-उन्हीं के नियमों के अनुसार जाते हैं। 20।

यहाँ प्रकृति का स्वभाव अर्थ है। उसमें दो बातें आती हैं। एक तो उसी के अनुसार भगवान को छोड़ के सामान्यत: राजस, तामस आदि खयाल से दूसरे देवताओं की ओर झुकते हैं। दूसरे विशेष रूप से कौन किस देवता की ओर झुकेगा इसमें भी प्रकृति से पैदा हुई रुचि कारण है। इस पर विशेष प्रकाश पहले ही डाल चुके हैं।

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्र द्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ 21

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।

लभते च तत: कामान्मयैव विहितान् हितान्॥ 22

जो-जो भक्त जिस-जिस देवता की पूजा श्रद्धा से करना चाहता है उस-उसकी उसी श्रद्धा को मैं - परमात्मा - अचल बना देता हूँ (और) वह उसी श्रद्धा के साथ उस (देवता) की आराधना करता भी है। (मगर) उसके बाद अपनी इच्छा के अनुकूल मेरे ही दिए पदार्थों को पाता है। 21। 22।

इन श्लोकों के श्रद्धा और भक्त शब्द महत्त्व रखते हैं। इन दोनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जब तक अपने लक्ष्य में पूर्ण विश्वास के साथ सच्चे दिल और ईमानदारी से कोई काम न करे तब तक सफलता नहीं मिलती है और अगर ये बातें हैं तो वह चाहे कुछ भी करे सब ठीक ही है। जो श्रद्धा-भक्ति भगवान के संबंध में होती है वही यहाँ भी है। फर्क यही है कि लक्ष्य और रास्ता बदल गया है। लेकिन यदि श्रद्धा-भक्ति में कमी हो गई तो सब चौपट ही समझिए। तब तो कोई भी लक्ष्य सिद्ध होगा नहीं। श्रद्धा के अचल होने के यही मानी हैं।

अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।

देवान्देवयजो यांति मद्भक्ता यांति मामपि॥ 23

(फर्क यही होता है कि) उन नासमझों को जो फल मिलता है वह अचिर-स्थाई होता है। (क्योंकि) देवताओं के पूजक (ज्यादे से ज्यादा) देवताओं तक ही पहुँच पाते हैं। (लेकिन) मेरे भक्त तो मुझ तक भी पहुँच जाते हैं - मेरा स्वरूप भी हो जाते हैं। 23।

यहाँ 'मामपि' में जो अपि शब्द है उससे 'मुझे भी' ऐसा अर्थ हो जाता है। अर्थात भगवान के भक्त भगवान तक तो पहुँचते ही हैं। लेकिन दूसरे पदार्थों तक भी उनकी पहुँच होती है - उन्हें दूसरे पदार्थ भी प्राप्त होई जाते हैं। न कि वे भूखे-प्यासे मरते हैं। इसीलिए कह दिया है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22)। 'आर्त्तो जिज्ञासु' (7। 16) में भी कही दिया है कि भगवान की भक्ति दूसरे-दूसरे उद्देश्यों से भी होती है। इसीलिए यहाँ यह कह देना जरूरी था कि मेरी भक्ति से दूसरी चीजें भी मिलती हैं। मैं तो मिलता ही हूँ। मगर 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' के अनुसार देवताओं के पूजक अधिक से अधिक उन्हीं तक जा सकते हैं।

यदि यह प्रश्न हो कि वह लोग ऐसा क्यों करते हैं? सभी भगवान को ही क्यों नहीं भजते? क्योंकि यहाँ तो दोनों हाथों में लड्डू है, तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं 'हृतज्ञाना:' और 'प्रकृत्या नियता: स्वया' इन्हीं शब्दों से। उसी का विवेचन आगे के दो श्लोकों में है। असल में ऐसे लोग चाहते तो हैं कि भगवान की ओर चलें। चलते भी हैं। लेकिन समझ तो होती नहीं। इसीलिए भौतिक वायु-मंडल में पैदा हो के उसी में पले ये लोग उस परिस्थिति को डाँक सकते नहीं। फलत: इन्हीं भौतिक स्थूल पदार्थों का ही देवी-देवताओं के रूप में भगवान समझ के पूजने लगते हैं। उनका भगवान कोई दूसरा तो होता नहीं। वैसा निराकार और अविनाशी भगवान तो उनकी नजरों से ओझल है। बीच में वह ठगने वाली एवं अनेक युक्ति फैलाने वाली माया जो आ गई है और उसी में वे फँस गए हैं।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं म न्यंते मामबुद्धय:।

परं भावमजा नंतो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ 24

नाहं प्रकाश: स र्व स्य योगमायासमावृत:।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥ 25

मेरे निर्विकार, सर्वोत्तम एवं सबसे बढ़े-चढ़े अदृश्य स्वरूप को नासमझ लोग नहीं जानते (फलत:) मुझे स्थूल या भौतिक रूप ही मान लेते हैं। (क्योंकि) मैं तो अनेक हिकमत वाली माया से छिपा होने के कारण सर्वसाधारण की नजर में आता नहीं। (इसीलिए) ये मूढ़ लोग मुझ अजन्मा (और) अविनाशी को ठीक-ठीक समझ पाते नहीं। 24। 25।

इस पर प्रसंगवश फौरन ही यह प्रश्न उठता है कि जब भगवान और जनसाधारण के बीच माया का बहुरंगा परदा है और वही भगवान को छिपाए हुए है, जिससे लोग उसे देख नहीं सकते, तो वह भी लोगों को, इस बाहरी दुनिया को कैसे देख सकेगा? वह परदा तो समानरूप से दोनों की ही दृष्टि रोकेगा। प्रत्युत जब भगवान माया से घिरा है, आवृत है, बल्कि समावृत है, अच्छी तरह घिरा है, तब तो उसकी दृष्टि और भी संकुचित होनी चाहिए। विपरीत उसके जनसाधारण तो उसके सिवाय बाकी सभी पदार्थों को बखूबी देख सकते हैं। क्योंकि उनके लिए तो केवल भगवान ही पर्दे में है न? इसका चट-पट उत्तर दे के ही आगे बढ़ते हैं। उत्तर यों है -

वेदाहं समतीतानि वर्त्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ 26

हे अर्जुन, मैं तो पुराने गुजरे हुए, वर्त्तमान एवं भविष्य सभी पदार्थों को देखता हूँ। लेकिन मुझी को कोई नहीं देखता। 26।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यांति परंतप॥ 27

हे भारत, हे परंतप, रागद्वेष से पैदा होने वाले द्वन्द्व के झमेले के चलते सभी प्राणियों को जन्म से ही भूल-भुलैया में पड़ जाना होता है। 27।

येषान्त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भ जंते मां दृढव्रता:॥ 28

(लेकिन) जिन पुण्यकर्मा लोगों के पाप खत्म हो चुके हैं, वे द्वन्द्वों के झमेले से छुटकारा पा के मुझ परमात्मा को ही बड़ी मुस्तैदी से पकड़ लेते हैं। 28।

बीच में प्रसंगवश जो इन तीन श्लोकों में लिखी बातें आ गई हैं उनके बारे में कुछ और भी जान लेना आवश्यक है। यह ठीक है भगवान पर परदा होने से उसकी भी दृष्टि संकुचित होने का प्रश्न पैदा होता है। उसका उत्तर देना भी इसीलिए जरूरी हो जाता है। इसी से कह भी दिया है कि भगवान तो त्रिकालदर्शी है और सब कुछ जानता है। मगर लोग ही उसे जान नहीं सकते। इसका कारण भी यही है कि इस माया की नींद ने भगवान को सुलाया तो है नहीं कि उसकी जानकारी जाती रहे और वह सपने देखने लगे। यह तो जीवों या जनसाधारण की ही नींद है, जिससे उनकी आँखें बंद हैं। फलत: वे परमात्मा को, जो उन्हीं की आत्मा है, देख नहीं सकते। इसीलिए जरूरत भी इस बात की है कि भगवान में लगन लगा के इस नींद एवं माया को मिटाया जाए, जैसा कि पहले इसी अध्‍याय में कह दिया है।

लेकिन इस प्रश्न की जरूरत ही क्या थी, यह पूछा जा सकता है। यदि भगवान की दृष्टि भी तंग हो जाए तो हमारा क्या बिगड़ता है? अर्जुन का क्या घटता था? उसका काम तो वैसे ही चलता रहता। आखिर उसकी दृष्टि संकुचित से विस्तृत तो हो गई नहीं। यह बात पहले कही जा चुकी ही है।

दरअसल अर्जुन की और दूसरे लोगों की भी हानि जरूर ही थी यदि भगवान की नजर भी तंग हो। क्योंकि तब तो गीता का जो उपदेश है वह खासकर सृष्टि के संबंध में जो बातें कृष्ण कह रहे थे उन पर अविश्वास करने की ही नौबत आ जाती।जब साधारण लोगों जैसी ही या उनसे भी गई गुजरी समझ उपदेशक के पास हो तो उसकी बात का क्या ठिकाना? उसमें विश्वास करेगा ही कौन? इसलिए ही यह कहना पड़ा ।

लोगों की दृष्टि ऐसी क्यों होती है और भगवान की नहीं यह बात 27वाँ श्लोक बताता है। यह ठीक है कि जीव और परमात्मा एक ही हैं। दोनों में वस्तुगत्या कोई भी फर्क नहीं है। फिर भी जीवों के साथ अनादिकाल से काम-क्रोध तथा रागद्वेष का भारी पचड़ा लगा है और यही सब गुड़गोबर करता है। यह बात बार-बार कही गई है। तीसरे अध्‍याय के अंत में तो इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश भी डाला गया है कि इन रागद्वेषों के चलते क्या-क्या अनर्थ होते हैं और खत्म कैसे किया जा सकता है। किंतु ये दोनों भगवान में हैं नहीं। इसलिए वहाँ कोई गड़बड़ हो पाती नहीं। इन रागद्वेषों के चलते अपने-पराए, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र आदि द्वन्द्वों के बखेड़े उठ खड़े होते हैं। फिर तो मनुष्य का मानस पटल पक्का अखाड़ा ही बन जाता है, उसकी गर्द उड़ जाती है, धज्जियाँ उड़ जाती हैं और चारों ओर अंधेरा जैसा छा जाता है। यही है द्वन्द्व से होने वाला मोह। इसी को दूसरे अध्‍याय में क्रोध के भीतर ही शामिल कर दिया है। उसके बाद वाले सम्मोह को ही यहाँ मोह कह दिया है। यही है किंकर्तव्य विमूढ़ता या भ्रम या अज्ञान। यह बात जन्म के साथ ही होती है। फिर तो ये रागद्वेष जरा भी मौका नहीं देते कि हम सँभल सकें। यही बात 'सर्गे यांति' (7। 27) में कही गई है। इसीलिए शुरू से ही इससे पिंड छूटने पर मन भगवान में जा सकता है यह बात 28वें श्लोक में आई है। ताकि इन्हें खत्म करने में हम जनमते ही लग पड़ें।

अब फिर पुराने प्रसंग यानी 25वें श्लोक की बात को पकड़ के आगे बढ़ते हैं। क्योंकि बीच के तीन श्लोक प्रसंगवश ही आए थे। हाँ, तो यह समस्त संसार ब्रह्मरूप ही है यही बात चलती थी। अगर शुरू के चार (8-11) श्लोकों पर, जिनमें खास पदार्थों का वर्णन आया है, गौर करें तो पता चलेगा कि उन्हें तीन दलों में बाँट सकते हैं, जिन्हें पुराने लोगों ने आध्‍यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक कहा है। पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश तो भूत हैं। इसीलिए इनके गंध, रस आदि का वर्णन आधिभौतिक हुआ। क्योंकि गंध, रसादि भूतों में ही रहते हैं। अत: अधिभूत हो गए। इसी प्रकार चंद्र और सूर्य की बात आधिदैविक हो गई और बुद्धि, बल, तेज, तप, जीवन और काम ये छ: हो गए आध्‍यात्मिक। शरीर के भीतर ही तो ये पाए जाते हैं। यह भी एक कारण कि वायु को भूत में न रख के जीवन के रूप में यहीं रख दिया है। नहीं तो दो बार कहना पड़ता। क्योंकि अध्‍यात्‍म में प्राण जैसी प्रसिद्ध चीज को छोड़ नहीं सकते थे। उपनिषदों में भी उसे कहीं नहीं छोड़ा है। चंद्र-सूर्य में चमक और दिव्य तेज होने से उनका दल आधिदैविक हई। इन आध्‍यात्मिक आदि चीजों पर विशेष प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। वहीं यह भी बताया गया है कि अधियज्ञ नाम की चौथी चीज क्यों और कैसे आई है। यह भी बता चुके हैं कि किस प्रकार सुख-दु:ख, बल, बुद्धि से बढ़ते-बढ़ते आत्मा को ही अंत में अध्‍यात्‍म मानने लगे। ब्रह्म की बात तो बार-बार सर्वत्र आई ही है और कर्म की भी। 'प्रणव:' 'सर्ववेदेषु' कहने से भी इस कर्म की तरफ इशारा होता है। क्योंकि 'ब्रह्मणोमुखे' कहके वेदों में कर्मों की ही प्रधानता मानी है।

इस प्रकार अधिभूत, अध्‍यात्‍म, अधियज्ञ, अधिदैव आदि के रूप में जो लोग ब्रह्म का निरंतर मनन करते हैं वही विज्ञान के अधिकारी होते हैं। इसीलिए इस सातवें अध्‍याय में संक्षेप से अध्‍यात्‍म आदि का उल्लेख नमूने के तौर पर ही हुआ है। मनन करने वाले इसी नमूने को बढ़ा के हजारों पदार्थों में इस बात का मनन-चिंतन कर सकते हैं और अंत में अद्वैत आत्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। यों कहिए कि उन्हीं को पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान या ब्रह्म का पूर्ण साक्षात्कार होता है। जिनने ऐसा कर लिया है उनकी बुद्धि चक्कर या भ्रम में - सम्मोह में - पड़ ही नहीं सकती। यहाँ तक कि मरणकाल की अपार वेदना के समय भी वह विचलित नहीं हो पाती। क्योंकि वह जिधर ही जाती है अध्यात्मादि के रूप में आत्मा ही आत्मा पाती है। यही है बहुत बड़ी विशेषता इस विवेचन की। संक्षेप में यही बातें कहते हुए दो श्लोकों में अध्‍याय का उपसंहार इस प्रकार करते हैं -

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य य तंति ये।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नम ध्या त्मं कर्म चाखिलम्॥ 29

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्त चेतस:॥ 30

(फलत:) जन्म और मरण से छुटकारे के लिए जो मुझमें ही मन लगा के यत्न करते हैं वही उस पूर्ण ब्रह्म को, अध्‍यात्‍म को और समस्त कर्मों को जानते हैं। (इसी तरह) अधिभूत, अधिदैव एवं अधियज्ञ के रूप में भी जो मुझ परमात्मा को साक्षात अनुभव करते हैं; पूर्ण समाधि में मन लगानेवाले वही लोग मरण के समय भी मुझ परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं। 29। 30।

यहाँ जरा से जन्म समझना ही ठीक है। वही मरण की साथिनी है और सर्वत्र आया करती है। असल में जन्म के कष्ट का तो अनुभव रहता नहीं। इसीलिए कष्ट दिखाने के लिए जरा लिखा है। मरण का कष्ट खुद देखते ही हैं। जन्म का कष्ट माँ अनुभव करती है, न कि बच्चा। जन्म कहने से जीवन भर के कष्ट आ जाते हैं। इसी प्रकार कर्म का अर्थ केवल यज्ञयागादि न हो के सृष्टि का सारा व्यापार ही है, जैसा कि आठवें अध्‍याय में लिखा है। आत्मज्ञानी को सृष्टि के समस्त व्यापार नजर आने लगते हैं कि कैसे क्या बनता है, जमीन आदि कैसे बनती है, बनी है। तभी तो उसे निस्संदेह अद्वैत ज्ञान होता है।

इस अध्याय का विषय ज्ञान-विज्ञान है यह तो कही चुके हैं।

इति श्री. श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय:॥7॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में, जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवाँ अध्याय यही है।

आठवाँ अध्‍याय

सातवें अध्‍याय के अंत में जो बातें दो श्लोकों में कही गई हैं उनके ही करते अर्जुन को प्रश्न करने का मौका लग गया और आठवें अध्याय का श्रीगणेश उसी प्रश्न से होता है। अर्जुन ने क्यों प्रश्न किया और उसका आशय क्या है, आदि बातों पर पूरा प्रकाश, इन श्लोकों की विस्तृत व्याख्या एवं उत्तर का पूर्ण विवेचन पहले ही किया जा चुका है। सारी बातें ठीक-ठीक समझने के लिए वह विवेचन समझ लेना निहायत जरूरी है। यहाँ इतना ही कह देना है कि अंत के दो श्लोकों में जो बातें कही गई हैं वह शास्त्रप्रसिद्ध हैं। पुराने दार्शनिक इन्हें बखूबी जानते थे। इतना ही नहीं। जैसा कि सातवें अध्याय के अंत में हमने इन श्लोकों के ही प्रसंग में कह दिया है, ये बातें स्वयं सातवें अध्‍याय में भी आई हैं। यह भी ठीक है कि वहाँ उनके प्रसंग में अध्‍यात्‍म, अधिभूत आदि शब्द नहीं आए हैं। इसीलिए अर्जुन को यह खयाल होना जरूरी था कि यह कौन-सी भाषा बोलते और क्या बातें कह रहे हैं। उसके लिए जैसे यह एकदम निराली चीज थी। इसी के साथ कर्म की बात भी कुछ खटकी। क्योंकि कर्म-अकर्म की बात बहुत बार बड़ी सफाई से कह के चौथे अध्‍याय में ही यह भी कह दिया है कि कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखनेवाला ही योगी है और वह सभी कर्म करता है, कर सकता है 'स: युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्' (4। 18)। फिर यह क्या बला आई कि जरामरण से छुटकारे के लिए जो लोग यत्न करते हैं और अधिभूतादि को जानते हैं वही सभी कर्मों को जानते हैं? उसे यह कुछ अजीब-सी बात लगी। इसीलिए खटकी भी।

ब्रह्म की बात यद्यपि कोई नई न थी; तथापि ब्राह्मी स्थिति की जो बात दूसरे अध्‍याय में कही जा चुकी है और 'लभंते ब्रह्मनिर्वाणं' (5। 25) तथा 'सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शं' (6। 28) में जो ब्रह्म या ब्रह्मानंद की प्राप्ति कही गई है; उसकी अपेक्षा यह कोई नई चीज ब्रह्म शब्द से तो नहीं कही जा रही है, यह शंका उसे हो सकती थी। क्योंकि समाधि के द्वारा ब्रह्मज्ञान की बात कहने के बाद यहाँ एकाएक यह कह देना कि पूर्ण या कृत्स्न ब्रह्म को ऐसे ही लोग जानते हैं, जरूर घपले में डालनेवाला प्रतीत होता है। यह कृत्स्न रूप से जानने योग्य कोई और ही ब्रह्म है क्या, यह खयाल इसीलिए हो आया। ब्रह्म हैं भी अनेक यह कह चुके हैं। इसलिए भी ऐसा खयाल अनुचित नहीं कहा जा सकता है।

मरणकाल के बारे में भी शंका का होना जरूरी था। भला उस अपार वेदना के समय किसी का चित्त एकदम एकाग्र कभी रह सकता है? यह तो निराली बात होगी। जब तक वह मनुष्य दुनिया से न्यारा कोई अलौकिक पदार्थ न माना जाए तब तक यह नहीं हो सकता। ऐसा होना तो ठीक वैसा ही है जैसा लपट के बीच में बर्फ की ठंडक का अनुभव! इसीलिए खासतौर से जोर दे के पूछना पड़ा कि प्रयाण के समय कैसे यह बात होगी? कैसे मन काबू में रहेगा? अधियज्ञ संबंधी प्रश्न पर तो विशेष प्रकाश पहले ही डाला गया है कि इसका क्या आशय है। इन्हीं सब बातों को मन में रख के -

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किम ध्या त्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ 1

अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिनमधुसूदन।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि:॥ 2

अर्जुन ने पूछा - हे पुरुषोत्तम, हे मधुसूदन, वह ब्रह्म क्या (चीज) है? कर्म क्या है? अधिभूत भी कौन कहा गया है? अधिदैव किसे कहा जाता है? इस शरीर में अधियज्ञ कौन है और क्यों है? मरणकाल में भी मन को काबू रख के लोग आपको कैसे देखते हैं? 1। 2।

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽ ध्या त्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:॥ 3

अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥ 4

श्रीभगवान बोले - हे देहधारियों में श्रेष्ठ, जो किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता वही ब्रह्म है, पदार्थों का जो अपना रूप है वही अध्‍यात्‍म कहा जाता है, पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति (आदि) जिससे हो उसी त्याग या क्रिया को कर्म नाम दिया गया है, पदार्थों की विनाशिता ही अधिभूत है और व्यापक परमात्मा ही अधिदैवत है। इस शरीर में अधियज्ञ तो मैं ही हूँ। 3। 4।

प्रश्नों के जो उत्तर दिए गए हैं उन पर भी पहले ही प्रकाश डाला गया है जरूर। मगर एक चीज स्पष्ट नहीं हुई है। इसीलिए उसी के संबंध में कुछ कहना आवश्यक हो जाता है। प्रश्नों के देखने से पता चलता है कि कुल आठ प्रश्न किए गए हैं। यद्यपि सातवें अध्‍याय के अंत में कही गई जिन बातों को ले के ये प्रश्न हुए हैं वह सात ही हैं, तथापि अधियज्ञ के बारे में दो प्रश्न होने के कारण ही इनकी संख्या आठ हो जाती है। अधियज्ञ के बारे में औरों की ही तरह सीधे ही यह सामान्य प्रश्न करने के बजाए कि अधियज्ञ क्या है या कौन है; उसने एक तो यह पूछ दिया कि इस शरीर के भीतर अधियज्ञ कौन है? दूसरे यह कि यदि है तो कैसे है, क्योंकर है? इसके बाद ही प्रयाणकाल वाली बात आने के कारण अर्जुन सोचता था कि शरीर में ही अधियज्ञ का जानना जरूरी है। क्योंकि यज्ञचक्र का संबंध सृष्टि से होने के कारण उसका अनुष्ठान हर हालत में अनिवार्य होने से मरण के समय वह बाहर तो हो सकता नहीं। इसलिए शरीर में ही यदि उसका पता लग जाए तो यह बड़ा लाभ हो जाए कि मरणकाल में भी यज्ञक्रिया निर्विघ्न होती रहे। इसीलिए उसने यह भी प्रश्न कर दिया कि यदि ऐसा कोई अधियज्ञ है तो कैसे? इसका अभिप्राय इतना ही है कि पूरा इत्मीनान हो जाए। कभी शक-शुभा न हो सके।

अभी तक दो श्लोकों में जो उत्तर दिए गए हैं वह तो सिर्फ छ: प्रश्नों के ही हैं। जो अधियज्ञ शरीर में है वह कैसे है, का उत्तर अभी बाकी ही है और प्रयाणकाल में परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय भी अभी तक नहीं बताया गया है। इनमें प्रयाणकाल वाले प्रश्न का उत्तर आगे के आठवें श्लोक से शुरू हो के तेरहवें श्लोक में पूरा हुआ है। बात बहुत बड़ी है। वह केवल जानने की ही चीज न हो के करने या अनुष्ठान की वस्तु है। इसीलिए उसकी रीति बताने में कुछ विस्तार करना ही पड़ा है। रह गए बीच के 5 से 7 तक के तीन श्लोक। बस, इन्हीं में कथं या कैसे का उत्तर आया है। अर्जुन ने तर्क-दलील पूछी थी। इसीलिए कृष्ण को युक्तियाँ देनी पड़ीं। फिर तो उत्तर लंबा होना ही था। उत्तर का निचोड़ यही है कि मनुष्य जब अंत समय में मुझी को स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तभी मुक्ति पाता है, तो फिर अधियज्ञ इस देह में नहीं तो और कहाँ है? अंतकाल में बाहर तो जाना-आना हो सकता नहीं। अंत में जिस चीज में मन टिकता है मरने के बाद वही बनना पड़ता है यह भी नियम है। इसलिए मरण के समय मुझ में ही मन को टिकाना जरूरी हो जाता है। नहीं तो सब किए-कराए पर पानी जो फिर जाएगा। परंतु यह तो हो सकता नहीं, यदि यज्ञपुरुष या परमात्मा कहीं बाहर हो। इसलिए मानना पड़ता है कि शरीर के भीतर ही यज्ञपुरुष या अधियज्ञ के रूप में परमात्मा मौजूद है, जिससे उसमें मन आसानी से जोड़ा जा सकता है। जो लोग यह मानने को तैयार न हों उन्हें तो यह स्वीकार करना ही होगा कि आत्मज्ञानी मरने के समय यज्ञचक्र को छोड़ देने से पापी और इंद्रियों का पोषक हो गया। इसीलिए उसका जीवन व्यर्थ गया, 'अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति' (3। 16)। हमारा मतलब उन लोगों से ही यहाँ है जिनके आत्मज्ञान का पूर्ण परिपाक मरण के पूर्व नहीं हो सका है, जिनमें मस्ती नहीं आई। क्योंकि वैसे मस्तों के लिए तो कोई कर्तव्य रही नहीं जाता है।

यह भी बात है कि व्यष्टि और समष्टि या पिंड और ब्रह्मांड दोनों में ही हर चीज को देखते तथा मानते हैं। 'द्वाविमो पुरुषौ' (15। 16) के अनुसार पुरुष तो शरीर में हई तथा अध्‍यात्‍म और अधिभूत भी। सिर्फ अधियज्ञ का पता लगना बाकी है। और वही पूछा भी गया है।

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥ 5

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौंतेय सदा तद्भावभावित:॥ 6

हे कौंतेय, अंतकाल में - मरने के समय - शरीर त्यागते हुए मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़ के जो प्रयाण करता है - मर जाता है - वह मेरा ही स्वरूप हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। (क्योंकि) शरीरांत के समय जिस-जिस पदार्थ को स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है - कारण हमेशा उसी पदार्थ की भावना उसके भीतर रही है - उसी-उसी का रूप बन जाता है। 5। 6।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर यु ध्य च।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥ 7

इसलिए हर समय मुझी को लगातार याद करो और लड़ते भी रहो। (इस तरह) मुझमें ही मन और बुद्धि को लिपटा देने पर निस्संदेह मुझको ही प्राप्त होंगे। 7।

इन तीन श्लोकों में जो सिद्धांत बताया गया है कि अंत समय में मन जिसमें जम जाता है, फलत: जिसकी स्मृति प्रबल हो उठती है, मरने के बाद आत्मा को वैसा ही शरीर मिलता है, यह पुनर्जन्म का सिद्धांत है। लेकिन यह बात यों ही अकस्मात नहीं हो जाती। मरने के समय कथावार्त्ता सुन-सुना के ही जो लोग काम निकालना चाहते हैं वह भूलते हैं। इसीलिए तो गीता ने 'सदा तद्भावभावित:' और 'मय्यर्पितमनोबुद्धि:' कह दिया है। जिस बात का निरंतर अभ्यास किया है, जिसकी भावना प्रबल है, जिसमें मन और बुद्धि दोनों ही को लगा दिया है, या यों कहिए कि इन दोनों को जिसके हवाले कर दिया है, उसी की प्रबल स्मृति अंतकाल में होगी और मरने पर वही पदार्थ, स्थान या शरीर प्राप्त होगा। आगे के (8-13) श्लोकों में भी यही बात विस्तार के साथ कही गई है। 'प्रयाणकाले' प्रश्न का उत्तर भी इन्हीं में है।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थनुचिन्तयन्॥ 8

हे पार्थ, (इसीलिए) अभ्यास रूपी उपाय से एकाग्र तथा अन्य किसी भी पदार्थ में जा नहीं सकने वाले मन से दिव्य परमपुरुष - पुरुषोत्तम परमात्मा - का निरंतर चिंतन करता हुआ (मनुष्य) उसी को प्राप्त करता है। 8।

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयां समनुस्मरेद्य:।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥ 9

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।

भ्रुवोर्म ध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥ 10

जो (आदमी) प्रयाण - मरण - काल में योग के बल से भौंहों के मध्‍य में प्राण को दृढ़ता से टिका के भक्तियुक्त एकाग्र मन से दूरदर्शी - सर्वज्ञ - पुरातन, अनुशासन करने वाले, परमाणु से भी परमाणु - अत्यंत - सूक्ष्म - सब पदार्थों के आधार, अचिंतनीय स्वरूपवाले, सूर्य सदृश प्रकाशमान और अज्ञान से दूर रहने वाले दिव्य परम पुरुष को निरंतर याद करता है वह उसी को प्राप्त होता है। 9। 10।

यदक्षरं वेदविदो व दंति वि शंति यद्यतयो वीतरागा:।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं च रंति त्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ 11

वेदों के ज्ञाता जिसे अक्षर - अविनाशी - कहते हैं, रागद्वेषादि से रहित संन्यासी जिस रूप में मिल जाते हैं (और) जिसकी (प्राप्ति की) इच्छा वाले (आजन्म) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उसी पद (की प्राप्ति कैसे होती है यह बात) तुम्हें संक्षेप में अभी बताता हूँ। 11।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुद्धय च।

मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ 12

ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहारन्मामनुस्मरन्।

य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ 13

सभी (इंद्रियों के) छिद्रों को रोक के, मन को हृदय में ही अटका के और अपने प्राणों को मस्तक में ले जा के योग की धारणा में लगा हुआ जो (आदमी) ओंकार रूपी एकाक्षर ब्रह्म का (मन से ही) उच्चारण करता और मुझ परमात्मा को ही निरंतर याद करता हुआ शरीर छोड़ के प्रयाण करता है। वही परमगति - मुक्ति - प्राप्त करता है। 12। 13।

यहाँ इन चार श्लोकों के बारे में कुछ बातें जानने योग्य हैं। पहली बात यह है कि यहाँ योगबल का अर्थ पातंजल योग ही है, जिसमें प्रधानरूप से प्राणायाम आ जाता है। इसीलिए योगधारणा का भी उल्लेख है। योग के आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्‍यान, धारणा, समाधि में सातवाँ अंग धारणा है, जैसा कि 'यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार ध्‍यान धारणा समाधयोऽष्टावंगानि' (पातं. 2। 29) से स्पष्ट है। इसके बिना मरणकाल में यह बात असंभव है।

दूसरी बात यह है कि 10वें श्लोक में जो भौंहों के बीच में प्राण को टिकाने की बात कही गई है वह आगे 12वें श्लोक में लिखी धारणा की पहली सीढ़ी है। योगियों ने प्राण के टिकाने के कई अड्डे माने हैं जिनसे घूमता हुआ वह अंत में मस्तक में पहुँच के वहीं रुक जाता है। इस तरह समाधि पूर्ण हो जाती है। इन्हीं अड्डों को वे लोग चक्र कहते हैं। नाभि से ही प्राण को ऊपर ले चलते हैं। प्राण का सनातन अड्डा नाभि को ही मानते हैं। इसी से इसे मूलाधार चक्र भी कहते हैं। यहाँ से आखिरी स्थान मस्तक या ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचने के पहले और भी चार स्थानों से उसे गुजरना होता है। इन चारों में आखिरी स्थान भौंहों के बीच है। अभ्यास की पुष्टि के ही लिए यह एक तरह की कसरत ही समझिए। यहीं से ब्रह्मरंध्र में जाके काम पूरा होता है। यही कारण है कि भौंहों की बात कह के आगे की बात कहने से पूर्व 11वें श्लोक में सजग कर दिया है कि लो, उसे भी सुनाए देता हूँ। असल में वह सूक्ष्म और कठिन बात है। इसीलिए सजग कर दिया है। यहाँ 'प्रवक्ष्ये' का भी वही अर्थ है जो सातवें अध्‍याय में कहा है। यानी अभी कहे देता हूँ। न कि भविष्यकाल इसके मानी हैं।

जो लोग दसवें श्लोक की बात से बारहवें वाली को स्वतंत्र मानते हैं वह दरअसल यह चीज जानते ही नहीं। ये दोनों ही एक दूसरे से मिली-जुली आगे-पीछे की सीढ़ियाँ हैं। इसीलिए 11वें में पद का अर्थ ॐकार अक्षर या पद करना भी ठीक नहीं है। अक्षर ब्रह्म तो इस अध्याय के शुरू में ही आया है। आगे जो ॐकार के उच्चारण की बात कही गई है उससे लोगों को कुछ भ्रम हो जाता है जरूर। मगर वहाँ भी समझने की बात है। एक तो यही बात बुद्धि में नहीं समाती कि प्रयाणकाल में ॐकार का जबान से उच्चारण कैसे होगा। उस समय यह शक्ति रहती ही है कहाँ? यदि शक्ति रहे भी तो दूसरी बात यह है कि जब प्राण को भौंहों के बीच दृढ़ता से टिकाने के बाद ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचा देते हैं, धारणा या समाधि की दशा में मन को भी वहीं टिकाए अचल रखते हैं और इसी के लिए इंद्रियों के सभी द्वार बंद कर दिए जाते हैं, तो फिर जबान हिलेगी कैसे? इसीलिए वहाँ बात ही दूसरी है।

दरअसल बात यों है कि योगियों का यह कहना है कि मूर्द्धा या ब्रह्मरन्ध्र में निरंतर ओं ओं की गंभीर धवनि होती रहती ही है। किंतु हम लोग उसे सुन पाते नहीं। कान मूँदने पर घर्र-घर्र की जो आवाज मालूम होती है वह उसी का विकृतरूप माना जाता है। हाँ, प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचा के समाधि करने पर वह अखंड ॐकारनाद सुनाई पड़ता रहता है। यही उसका उच्चारण है। उच्चारण तीन प्रकार का माना भी जाता है - बोल के, केवल जबान हिला के और केवल मन से। सो वहाँ मानसिक ही है। मन वहीं एकाग्र है और वह नाद उसी को सुनाई देता है। इतने से ही उसे मानसिक उच्चारण कहते हैं। योगी यह भी मानते हैं कि वह नाद इतना मधुर है कि मन और प्राण दोनों ही उसी में भूल जाते हैं, लुब्धा हो जाते, रम जाते हैं। उस ॐकार को ब्रह्म का प्रतीक या सूचक मान के उसे तथा ब्रह्म को एक भी कह देते हैं, जैसा कि विष्णु के प्रतीक शालिग्राम को ही विष्णु कह देते हैं।

लेकिन ये सारे काम उन्हीं के लिए हैं जिनके ज्ञान का परिपाक नहीं हुआ है। फलत: जिन्हें मस्ती नहीं आई है। क्योंकि जब तक कोर-कसर न रहे यह प्रपंच करने की जरूरत ही क्या है? इसीलिए पूर्ण ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार वाले को यह सब नहीं करना होता है। यही बात आगे के श्लोक में यों लिखी है -

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ 14

हे पार्थ, अनन्य चित्त से - मन को अन्य पदार्थों में जाने न देकर - जो मुझ परमात्मा को नित्य ही याद करता है उस सदा योगारूढ़ योगी के लिए तो मैं सुलभ ही हूँ। 14।

मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मान: संसिद्धिं परमां गता:॥ 15

परम संसिद्धि - जीवन्मुक्ति - की दशावाले महात्मा जन मुझ परमात्मा का ही रूप हो के दु:ख के घर (और) बार-बार होने वाले (इस) पुनर्जन्म से रहित हो जाते हैं। 15।

आब्रह्मभुवनाल्लो का: पुन राव र्त्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौंतेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ 16

हे अर्जुन, हे कौंतेय, ब्रह्मलोक तक के सभी स्थानों से पुन: लौटना - जन्म लेना - पड़ता ही है। केवल मुझे प्राप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता। 16।

यहाँ यह न भूलना चाहिए कि गीता में जो बार-बार स्मरण या याद करने की बात आती रहती है और भक्ति की भी, वह माला जपने और नाचने-कूदनेवाली नहीं है। ज्ञानी को भी भक्त ही कहा है और वही सर्वोत्तम है। मगर वह तो नाचता-कूदता नहीं। भक्ति का तो अर्थ ही है समाधि या मन को आत्मा में ही डुबो देना, टिका देना। इसीलिए स्मरण का भी अर्थ है तदाकार वृत्ति या मन के सामने आत्मा के अलावे और किसी का न होना ही।

यहाँ जो कह दिया कि ब्रह्मलोक तक भी जा के वापस आना और जन्म लेना पड़ता है वह कुछ नई-सी बात हो गई। क्योंकि साधारणतया यही माना जाता है कि ब्रह्मलोक जाने वाले मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए अब जरूरत पड़ गई कि जरा विस्तार से यह बात समझा दी जाए। फलत: खुद ब्रह्मा की भी आयु की ओर इशारा करते हुए इस बात का स्पष्टीकरण आगे के तीन श्लोक करते हैं। ब्रह्म को ही हिरण्यगर्भ और प्रजापति भी कहते हैं। यहाँ अव्यक्त शब्द आया है, जो ब्रह्मा की ही नींद की अवस्था के अर्थ में है - अर्थात जब ब्रह्मा कुछ करते दीखते नहीं। जो लोग अव्यक्त का यहाँ प्रकृति या प्रधान अर्थ करते हैं वह भूल जाते हैं कि रोज-रोज के प्रलय में आकाशादि महाभूत, महान तथा अहंकार तो रहते ही हैं। महान इसी ब्रह्मा का ही दूसरा नाम है। अव्यक्त का अर्थ है जो दीखे नहीं। इसी तरह अदृश्य बह्म की वह निद्रावस्था, प्रधान या प्रकृति और स्वयं अविनाशी ब्रह्म तीनों ही अव्यक्त कहे जाते हैं। आगे के श्लोक यह बात स्पष्ट दिखाते हैं कि ब्रह्मा का तो यह टकसाल ही है। दिन भर कुम्हार के बरतनों की तरह सृष्टि बनाना और रात में उसका खात्मा हो जाने पर पुन: प्रात: वही काम करना। ब्रह्मा के दिन-रात बड़े हैं यह भी बताया है। यह ठीक है कि यहाँ ब्रह्मा की मृत्यु की बात नहीं कही गई है और न ब्रह्मलोक से लौटने की ही। मगर जब उनकी भी दिन-रात है तो इसका अभिप्राय अर्थत: वही है। आखिर दिन-रात तो काम ही है आयु का हिसाब लगाना-बताना, और जब आयु पूरी होगी तो ब्रह्मलोक से हटना तो होगा ही। यह हटना ही हुआ वहाँ से लौटना। क्योंकि ब्रह्मा को फिर शरीर नहीं मिलता। आयु के अंत में ज्ञान के द्वारा वह मुक्त हो जाते हैं और उन्हीं के साथ दूसरे भी, जो वहाँ रहते हैं। यह बात आगे 'यत्रकालेत्वनावृत्तिं' (8। 23-26) आदि चार श्लोकों में लिखी है। फिर नए ब्रह्मा आते और नया कारबार चलता है। ब्रह्मा की आयु पूरा होने को महाप्रलय और रोज-रोज रात में उनके सोने को खंड प्रलय कहते हैं। कहा जाता है, इस तरह पूरे सौ साल तक ब्रह्मा भी कायम रहते हैं। तब कहीं जा के मुक्त होते हैं। इस प्रकार ब्रह्म लोक में जाने पर तत्काल मुक्ति न हो के देर से होती है। इस देर के करते ही उसे लौटना मानते हैं। लौटने में भी तो आखिर देर ही होती है न?

सहस्रयुगपर्यंतमहर्यद्ब्रह्मणो विदु:।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जना:॥ 17

ब्रह्मा की दिन-रात (का हिसाब) जानने वाले जानते हैं कि (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि इन चार) युगों के हजार बार गुजरने पर ब्रह्मा का एक दिन और उतने ही की रात होती है। 17।

यहाँ 'तेऽहोरात्रविद:' में 'ते' का 'वे' अर्थ नहीं है। यह तो यों ही आ गया है। जब किसी खास व्यक्ति को न कह के अनिश्चित रूप से कहते हैं तभी ऐसा बोलते हैं। अंग्रेजी में भी 'दे से' (they say) बोलते हैं 'ऐसा कहते हैं' इसी अर्थ में।

अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।

रा त्र्या गमे प्रलीयंते त त्रै वाव्यक्तसंज्ञके॥ 18

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रा त्र्या गमेऽवश: पार्थ प्रभवन्त्यहरागमे॥ 19

दिन आते ही - शुरू होते ही - अव्यक्त - ब्रह्मा की निद्रावस्था - से ही सारे व्यक्त पदार्थ पैदा होते हैं। रात आने पर फिर उसी अव्यक्त नामक दशा में विलीन हो जाते हैं। हे पार्थ, भौतिक पदार्थों का यह वही समूह बार-बार पैदा हो के रात आते ही मजबूरन नष्ट हो जाता और दिन आते ही फिर बन जाता है। 18। 19।

पहले भी 'अव्यक्तादीनि' (2। 28) में यही बात कही जा चुकी है। यहाँ भी वही आशय है।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥ 20

उस अव्यक्त या स्वापावस्था वाले ब्रह्मा से भी परे - बढ़कर - जो अव्यक्त है वही सभी पदार्थों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। 20।

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निर्वित्तन्ते तद्धाम परमं मम॥ 21

इसी (दूसरे) अव्यक्त को ही अक्षर या अविनाशी कहा गया है। वही परम गति (भी) है, जिससे प्राप्त हो जाने पर लौटना नहीं होता। वही मेरा परम धाम (भी) है। 21।

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥ 22

हे पार्थ, जिसके ही भीतर ये सभी पदार्थ मौजूद हैं और जो इन सबों में व्याप्त है वह परम पुरुष केवल अनन्य भक्ति के द्वारा प्राप्त हो सकता है। 22।

यहाँ पर हम यदि गौर से देखें तो पता चलेगा कि ब्रह्मलोक से लौटने की जो बात चली थी उसी के प्रसंग में पुनरपि निर्वाण मुक्ति की बात तीन (20-22) श्लोकों में कह दी गई है। ताकि लोग दोनों का आमने-सामने मुकाबिला करके देखें कि कौन-सी चीज अच्छी है - आया ब्रह्मलोक का मार्ग पकड़ के वहाँ जाना और लंबी प्रतीक्षा के बाद ब्रह्मा के साथ मुक्त होना, जो वस्तुगत्या पुनर्जन्म के बाद मुक्त होने के समान ही है, या आत्मसाक्षात्कार के द्वारा तत्काल मुक्त होना, जिसमें यह आना-जाना और लंबी प्रतीक्षा की गुंजाइश नहीं है।

इसलिए फिर उसी ब्रह्मलोक वाली बात पर ही आ के उसके संबंध की शेष बातें आगे के श्लोकों में बताते और अध्‍याय का उपसंहार करते हैं। यहाँ पर अब तक जो कुछ गीता के श्लोकों में कहा गया है उससे तो यही पता चलता है कि ब्रह्मलोक में भी जा के लोग वापस ही आते हैं, जन्म लेते हैं। मगर परंपरा से जो बात मानी जाती है उसके साथ इस कथन का कुछ विरोध हो जाता है। माना तो यही जाता है कि स्वर्गादि लोकों में जा के वहाँ से वापस आना और जन्म लेना पड़ता है। गीता में भी 'त्रैविद्या मां सोमपा:' (9। 20-21। 12) आदि दो श्लोकों में यही माना गया है। विपरीत इसके ब्रह्मलोक के बारे में कुछ और ही धारणा पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि वहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, उपासक आदि ही जाते हैं, जिनका ज्ञान पूर्णतया परिपक्व नहीं हुआ रहता है। छांदोग्य, बृहदारण्यक प्रभृति उपनिषदों में जो पंचाग्नि विद्या का प्रकरण है, जिसका विचार हम पहले कर भी चुके हैं, उसमें भी यही लिखा है कि ऐसे लोगों को कोई मानस या अमानव पुरुष ब्रह्मलोक में ले जाता है, जहाँ से वे फिर वापस नहीं आते, 'पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकानृगमयति तेषु ब्रह्मलोकेषु परा: परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्ति:' (वृह. 6। 2। 15)। इस प्रकार पुरानी परंपरा एवं उपनिषदों के साथ गीता का साफ ही विरोध हो जाता है।

इसीलिए पूर्व कथन का स्पष्टीकरण करते हुए यही बात आगे के श्लोक स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि ब्रह्मलोक जा के मुक्त होने में देर होती है और लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। इसीलिए उसे साक्षात मुक्ति न मान के क्रम-मुक्ति कहते हैं। क्रमश: अर्थात देर से मुक्ति होती जो है। यही आशय है वहाँ से लौटने की बात कहने का भी। आगे जो उत्तरायण-दक्षिणायन या शुक्ल-कृष्ण मार्ग कहे गए हैं उनका पूरा विवरण कर्मवाद के विवेचन में दिया जा चुका है। श्लोकों का अर्थ भी वहीं समझाया गया है।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।

प्रयाता यांति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥ 23

हे भरतर्षभ, योगीजन जिस काल में मरने पर - प्रयाण करने पर - नहीं लौटते और लौटते भी हैं वह काल अभी बताए देता हूँ। 23।

यहाँ भी वक्ष्यामि का अर्थ पहले जैसा ही है, न कि भविष्यकाल।

अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल:षण्मासा उत्तरायणम्।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥ 24

अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छ: महीने, इनमें प्रयाण करने वाले ब्रह्म के उपासक जन (क्रमश:) ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। 24।

यहाँ 'ब्रह्मविद:' का अर्थ ब्रह्मज्ञानी न होके बह्म के उपासक और अपूर्ण ज्ञानी ही है। इसीलिए ब्रह्म की प्राप्ति में क्रमश: लिख दिया है।

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण:षण्मासा दक्षिणायनम्।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्त्तते॥ 25

धूम, रात, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छ: महीने, इनमें प्रयाण करने वाला योगी चंद्रमा की ज्योति तक पहुँच के वापस आता है। 25।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।

एकया यात्यनावृत्तिमन्य याव र्त्तते पुन:॥ 26

इस प्रकार जगत के ये शुक्ल-कृष्ण मार्ग चिरंतन माने जाते हैं। (इनमें) एक से (जाने पर) आना-जाना पुन: नहीं होता है। (मगर) दूसरे से होता है। 26।

इन श्लोकों में योगी उसे कहते हैं जो पूर्ण तत्त्वज्ञानी न हो और या तो कर्ममार्ग में ही दत्तचित्त हो या उससे आगे बढ़ के ज्ञान की ओर झुका हो एवं तदनुकूल ही उपाय करता हो। ये दोनों रास्ते चिरंतन हैं। सृष्टि के साथ ही इनका ताल्लुक है यह बात बखूबी बता चुके हैं।

नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥ 27

वेदेषु यज्ञेषु तप: सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥ 28

हे पार्थ, जो कोई भी योगी इन मार्गों को भीतरी दृष्टि से देख लेता है वह (कभी फिर) मोह में नहीं फँसता। इसीलिए हे अर्जुन, तुम हमेशा ही योगयुक्त हो जाओ। (क्योंकि) वेदों (के पढ़ने), यज्ञों (के करने), तपस्याओं और दानों के जितने उत्तम फल कहे गए हैं, उन सबों से बढ़कर फल इस बात के पूर्ण जानकार योगी को मिलता है। (वह तो) मूल - लक्ष्य - स्थान पर ही पहुँच जाता है। 27। 28।

इन श्लोकों के योगयुक्त, विदित्वा, जानन आदि शब्दों के अर्थों पर गौर करने से योगी का अर्थ है पूर्ण आत्मज्ञानी और आत्मसाक्षात्कार वाला मस्तराम। जिसे ऐसा ज्ञान हो जाता है वही तो हस्तामलक की तरह इन सभी मार्गों को रत्‍ती-रत्‍ती देखता है। उसकी दृष्टि के सामने ये सारी चीजें झलक जाती हैं। भीतर ही भीतर हँसता हुआ वह यह भी सोचता है कि हमने यह क्या पँवारा फैला दिया है। हम तो मकड़ी या रेशम के कीड़े की ही तरह अपने ही बनाए तार में खुद-ब-खुद अब तक फँसे छटपटा रहे थे!

पोथी-पत्रा पढ़ के या दूसरों से सुन के जो भी जानकारी इन मार्गों की होती है उससे यहाँ तात्पर्य हई नहीं। क्योंकि उस जानकारी से मूल स्थान या परब्रह्म की प्राप्ति कैसे होगी? ऐसा जानने वाला मोह से छुटकारा कैसे पा जाएगा? अगर क्रममुक्ति ही इसका भी मतलब माना जाए तो वह तो कही जा चुकी ही है। फिर दुहराने का क्या प्रयोजन? उसमें मोह की निवृत्ति का भी क्या सवाल? जब पहले मोह से छुटकारे की बात नहीं कही गई जब कि उसका पूरा निरूपण किया गया है, तो यहाँ कहने का क्या अवसर? इसके अलावे हमेशा योगयुक्त होने का भी तो उपदेश यहाँ दिया गया है। ठीक इसी प्रकार 'तस्मात्सर्वेषु कालेषु' (8। 7) में भी आया है और वहाँ तो निर्विवाद रूप से मन को आत्मा में ही लीन करने की बात है, जिसका अर्थ आत्मसाक्षात्कार ही है। इसीलिए यहाँ भी वही अर्थ उचित है।

अंतिम श्लोक में वेदेषु प्रभृति शब्दों का अर्थ वेदों का पढ़ना आदि मान के हमने वैसा ही लिखा है। केवल वेदों से तो कोई पुण्य होता नहीं, जब तक उन्हें पढ़ा न जाए। नहीं तो कोई उन्हें पढ़ेगा क्यों? वेद तो हईं और सभी लोगों को महान पुण्य यों ही मिल जाएगा!

इस अध्‍याय का श्रीगणेश ही हुआ है सातवें अध्‍याय के अंत की बात को लेकर। वह बात ब्रह्म से ही शुरू होकर कइयों को शामिल कर लेती है। उसी ब्रह्म को अक्षर भी कहा है। समूचे अध्‍याय में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अक्षर ब्रह्म का ही निरूपण है। उसी के ज्ञान का अंत में उपसंहार भी है। अतएव ठीक ही अक्षर ब्रह्म ही इस अध्‍याय का विषय है। उसी अक्षर ब्रह्म को तारक ब्रह्म भी कहते हैं। तारने से ही तारक कहा जाता है।

इति श्री. अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽ ध्या य:॥ 8

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका अक्षर ब्रह्मयोग नामक आठवाँ अध्‍याय यही है।

नौवाँ अध्‍याय

सातवें अध्‍याय में ज्ञान-विज्ञान का निरूपण शुरू करके जिन पंचभूत आदि का उल्लेख किया था उन्हीं को अध्‍यात्‍म, अधिभूतादि के रूप में कह के उस अध्‍याय का उपसंहार किया गया है। यों कहिए कि अध्‍यात्‍म आदि के रूप में हजारों पदार्थों में से कुछ एक को ही नमूने के तौर पर वहाँ दिया गया है। शेष का अंवेषण विचार एवं मनन करने वाले उसी तरह कर सकते हैं। इसी सिलसिले में अर्जुन ने अध्‍यात्‍म आदि के बारे में शंका उठा दी कि यह क्या चीजें हैं और शरीर में इनका पता है या नहीं? उसी के उत्तर में समूचा आठवाँ अध्‍याय पूरा हो गया। इससे अर्जुन को संतोष भी हो गया कि दरअसल बात है क्या।

ऐसी दशा में आठवें अध्‍याय के बाद हम फिर सातवें अध्‍याय के ही मुख्य विषय ज्ञान-विज्ञान पर स्वभावत: पहुँच जाते हैं। क्योंकि प्रासंगिक बात पूरी हो जाने पर मूल विषय का मौका खुद-ब-खुद आ जाता है। यही कारण है कि नौवाँ अध्‍याय इसी बात को ले के ही शुरू होता है। फलत: उसके पहले ही श्लोक में ज्ञान-विज्ञान पुनरपि आ गया है। शायद उसका महत्त्व अर्जुन के दिमाग में अच्छी तरह न आया हो। एतएव इस संबंध में बहुत ज्यादा माथा-पच्ची करना भी वह पसंद न करे। इसी वजह से इसी ज्ञान-विज्ञान को राजविद्या और राजगुह्य नाम दे के इसकी महत्ता दिखानी पड़ी। विद्याओं के राजा को राजविद्या और गुह्यों या गोपनीय (secret) पदार्थों के राजा को राजगुह्य कहते हैं। राजा का अर्थ है सरदार या शिरोमणि। इसका मतलब यह है कि जितनी भी गुप्त से गुप्त बातें जानी जा सकती हैं उन सबों की अपेक्षा यह चीज कहीं महत्त्व रखती है। इसीलिए इसकी जानकारी सबों से बढ़ के जरूरी है। यदि इस अध्‍याय का विषय राजविद्या-राजगुह्य बताया गया है तो इसका यह आशय कदापि नहीं है कि यह कोई और ही चीज है। यह तो उसी ज्ञान-विज्ञान का ही दूसरा नाम है। यह नाम उसी चीज की महत्ता के पहलू पर जोर देने के ही लिए उसे दिया गया है, यह तो अभी-अभी कहा है। नामांतर और प्रकारांतर से एक ही बात का प्रतिपादन उसमें सरसता लाने के साथ ही आकर्षक भी होता है।

अगर हम इसमें प्रतिपादित विषय की जानकारी के लिए खास तौर से नजर डालें कि कौन-सी बात कब और कैसे कही जा रही है तो पता चलेगा कि शुरू के तीन श्लोक तो भूमिका के ही रूप में हैं। वे इसी बात को दिल में बैठा देने के लिए हैं कि इसका बार-बार विमर्श और मनन अत्यंत आवश्यक है। उसके बाद के तीन (4-6) श्लोकों को भी देखने से पता लग जाता है कि वे सातवें अध्‍याय के शुरू के दो (6-7) श्लोकों के ही स्थान में आए हैं। फलत: इनमें कुछ तो वही बातें ज्यों की त्यों हैं और कुछ उन्हीं का विवरण एवं स्पष्टीकरण है। उनके बाद के आठ (7-15) श्लोकों पर ध्‍यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि वे भी एक प्रकार से सातवें अध्‍याय के ही सात (13-19) श्लोकों के रूपांतर हैं। प्राय: वही बातें इनमें प्रकारांतर से कही गई हैं। इसी प्रकार 20वें से 25वें तक के छ: श्लोक भी सातवें के 20वें से 26वें तक के सात श्लोकों के ही रूपांतर हैं और यह बात बहुत साफ है। इसी तरह और भी बची-बचाई बातें मिलती-जुलती हैं; हालाँकि कहने और प्रतिपादन की रीति नई है, विलक्षण है और यही इसकी खूबी है। मनन में इसी की जरूरत होती भी है।

अब आइए जरा विज्ञान के मुख्य विषय को भी देखें। सृष्टि के विभिन्न पदार्थों को ले के उनका विश्लेषण करना और इस प्रकार उन्हें आत्मा-परमात्मा का रूप सिद्ध करना यही तो मुख्य बात है। सातवें अध्‍याय के शुरू में यही आई है भी। नौवें अध्‍याय के चार (16-19) श्लोकों में यह बात पाई जाती है। सातवें अध्‍याय के पाँच (8-12) श्लोकों में भी इसी तरह की बात आई है। उस अध्‍याय के 'अहं कृत्स्नस्य जगत:' (7। 6) तथा 'ये चैव सात्त्विका:' (7। 12) के ही स्थान पर 'गतिर्भर्ता' (9। 18, 19) आदि दो श्लोक प्रतीत होते हैं। इनमें कुछ ज्यादा ब्योरा भी नहीं मिलता है, सिवाय इसके कि उन्नीसवें के पूर्वार्द्ध में सूर्य की बात 'तपामि' - तपता हूँ - कहने से प्रतीत होती है। शेष श्लोकों में अधिकांश वेद के ही क्रतु, यज्ञ, मंत्र आदि तथा ऋक्, साम, यजु: मंत्रों को ही कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवें अध्‍याय के पृथ्वी आदि सभी पदार्थों को तो अध्यात्म, अधिभूतादि के रूप में उसी अध्याय में और आठवें में भी ले लिया है। वहीं उस पर प्रकाश भी काफी डाला है। उसका केवल 'प्रणव: सर्ववेदेषु' (7। 8) बच गया है जरूर। इसीलिए उसी का विशेष विवरण और विश्लेषण इस अध्‍याय में करके उस बात को अच्छी तरह समझाया है। ऐसा लगता है कि 'प्रणव: सर्ववेदेषु' सूत्र है। वेद तो आखिर शब्द ही है न? और शब्द के बिना अर्थ का पता नहीं लगता। फलत: शब्द अर्थ में व्याप्त है। यहाँ तीसरे श्लोक में उसी व्यापक वस्तु का उल्लेख है, न कि दूसरे का। अत: उससे ही शुरू करने का मतलब यही प्रतीत होता है। इसी के साथ यज्ञों पर भी कुछ विशेष प्रकाश दूसरे रूप में इसी अध्‍याय में पड़ गया है, जब कि 'त्रेविद्या मां' में यज्ञों के स्वर्गादि फलों के साथ ही और बातें भी कही गई हैं। यह पहलू पहले उठाया नहीं गया था। फिर भी अधियज्ञ करने से बात तो दिमाग में थी ही। नहीं सब बातों का खयाल करके -

श्रीभगवानुवाच

इदं तु गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ 1

श्रीभगवान कहने लगे - दोष दृष्टि तथा निंदा बुद्धि से रहित तुम्हें अत्यंत गोपनीय ज्ञान-विज्ञान अभी और भी बताता हूँ। इसे जान के बुराई से छुटकारा पा जाओगे। 1।

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमु त्त मम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं क र्त्तु मव्ययम्। 2

अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।

अप्राप्य मां निवर्त्तंते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥ 3

यह सभी विद्याओं एवं गोपनीय वस्तुओं का राजा है, पवित्र है, उत्तम है, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य है, धर्म के अनुकूल है, अविनाशी है (और) आसानी से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है। 2। हे परंतप, इस धर्मयुक्त बात में श्रद्धा नहीं रखने वाले मनुष्य मुझ तक पहुँच न सकने के कारण जन्म-मरण रूपी संसार में निरंतर चक्कर काटते रहते हैं। 3।

यहाँ 'प्रत्यक्षावगमं' और 'कर्त्तुं सुसुखं' विशेषण बड़े काम के हैं। पहला विशेषण तो विज्ञान के अत्यंत अनुकूल है। विज्ञान की बातें जब तक प्रत्यक्ष न हों उनकी कोई कीमत होती ही नहीं और यह उसी प्रत्यक्ष की तैयारी ठहरी। इसी तरह 'कर्त्तुं सुसुखं' के मानी हैं जो आसानी से किया जा सके, समझा जा सके। उसमें दुविधे की गुंजाइश नहीं है। वह तो हीरे की तरह चमकने वाली प्रत्यक्ष चीज है। इसीलिए उसकी पहचान स्वर्गादि पदार्थों की अपेक्षा कहीं आसान है। जब तक उसे जान पाते नहीं तभी तक दिक्कत है। जानते ही सारी परेशानी चली जाती है। तेज धारा वाली नदी के पार दस साथी उतरे। फिर इस खयाल से कि कहीं तैरने में कोई बह तो नहीं गया, गिनती करने लगे। नतीजा यह हुआ कि पहली गिनती में एक की कमी प्रतीत हुई ! घबरा के दूसरे, तीसरे आदि सभी ने गिना और सबों ने नौ ही संख्या पाई! अब तो आफत थी! छाती पीट के लगे सभी रोने कि दसवाँ गायब है, अब क्या करें! सुनते ही कुछ लोग दौड़ आए और पूछा तो पता लगा कि इनका दसवाँ साथी ही बह गया! पूछने वालों में जब एक ने गिना तो दस-के दस ठहरे! इस पर उनने उनमें एक से कहा कि गिनो तो, कहाँ दसवाँ गायब है? उसने एक-एक करके नौ को गिना और अपने को न गिन के चट कहा कि देखिए न, नौ ही तो हैं। इस पर पूछने वाले ने कहा कि तू अपने को तो गिनता ही नहीं! बस, सबों की आँखें खुल गईं! दसवाँ तो हरेक खुद था और इतना नजदीक था कि कुछ पूछिए मत। मगर दूर से भी दूर हो गया था! किंतु चतुर उपदेशक के बताते ही फिर ऐसा निकट, ऐसी पहुँच के भीतर हो गया कि वैसा कोई भी नहीं रहा! यही बात यहाँ भी है। भूला हुआ अर्जुन कृष्ण के उपदेश से आसानी से अपने आपको समझेगा। स्वर्ग-नरक को क्या इतना जल्द देख सकते हैं? क्या खेती या रोजगार में भी इतनी शीघ्र सफलता हो सकती है?

जो लोग 'आचरण करने में सुखकारक' ऐसा अर्थ इस 'सुसुखं कर्त्तुं' का करते हैं वे या तो संस्कृत समझते ही नहीं, या नाहक खींचतान करते हैं। वैसे अर्थ में ऐसा प्रयोग संस्कृत के विद्वान कभी नहीं करते, उनसे मेरा यही नम्र निवेदन है।

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमू र्त्ति ना।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥ 4

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥ 5

यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान।

तथा सर्वाणि भू तानि मत्स्थानीत्युपधारय॥ 6

मुझ अव्यक्त - अदृश्य - मूर्ति ने ही समूचे जगत को व्याप्त कर रखा है। सभी पदार्थ मुझी में हैं, मैं उनमें (हर्गिज) नहीं हूँ। (लेकिन) मेरा ईश्वरी करिश्मा तो देखो कि ये पदार्थ मुझमें (वस्तुत:) हैं भी नहीं! सभी पदार्थों को कायम रखने वाली मेरी आत्मा पदार्थों का भरण-पोषण भी करती है। (और) उनमें रहती ही नहीं! जिस तरह सभी जगह फैली विस्तृत हवा हमेशा आकाश में ही रहती है उसी प्रकार सभी पदार्थ मुझमें हैं यही समझो। 4। 5। 6।

इन तीन श्लोकों में जगत के विस्तार के निरूपण की भूमिका का श्रीगणेश होता है, जैसा कि सातवें अध्‍याय के भी शुरू के सात श्लोकों में पाया जाता है। वहाँ भी आठवें श्लोक से विस्तृत निरूपण शुरू होता है। इनमें आखिरी श्लोक में जो दृष्टांत दिया है उसका आशय यह है कि वायु की उत्पत्ति आकाश से ही मानते हैं। इसलिए आकाश में ही हवा रहती भी है। ऐसा ही कहते भी हैं कि आकाश में हवा है या हई नहीं, आदि-आदि। वह हवा विस्तृत है और चारों ओर फैली है। उसे कोई रोक नहीं है और न उसके फैलने या चलने से आकाश का कुछ भी बिगड़ता-बनता है। पदार्थों की भी ठीक यही दशा है। परमात्मा से ही बने और सर्वत्र फैले हैं। टूटते-फूटते भी रहते हैं और आते-जाते भी। मगर इससे परमात्मा का कोई भी बनाव-बिगाड़ नहीं है, वह निर्लेप है। असल में सूत से कपड़ा तैयार होने पर ऐसा होता है कि कपड़े के फाड़ने, जलाने या हटाने पर सूत भी टूटता, जलता या हटता है। कहीं यही बात परमात्मा में भी न हो, इसीलिए उसे निर्लेप बताना जरूरी हो गया है। सूत ने ही कपड़े को धार रखा है। उसी से वह कायम भी है। तब उसकी खराबी से सूत में भी खराबी की बात देख के परमात्मा में भी वही खयाल होना जरूरी था।

चार और पाँच श्लोकों में जो कुछ कहा है वह परस्पर विरोधी जैसा प्रतीत होता है। मगर वह विरोध हट जाएगा यदि जगत को परमात्मा में कल्पित या मायामय मान लें। जब मरुभूमि में सूर्य की किरणें बालू पर चमकती हैं तो दूर से मालूम पड़ता है कि कोई नदी या पानी की धारा मरुभूमि में बह रही है। फिर प्यासा आदमी उधर ही बढ़ता भी है। मगर वह ज्यों-ज्यों बढ़ता है धारा भी त्यों-त्यों आगे बढ़ती जाती है। वह धारा मरुभूमि में है भी और नहीं भी है। यदि उस भूमि में न होती तो वहाँ प्रतीत क्यों होती? दूसरी जगह तो नहीं दीखती है। किंतु अगर सचमुच होती तो पहुँचने पर चाहे वह दूर भले ही चली जाती; फिर भी वह भूमि भीगी तो जरूर रहती है। लेकिन सो तो होता नहीं। पथिक चाहे कितनी ही दूर चला जाए। फिर भी मरुभूमि वही सूखी की सूखी ही मिलती है! बस, यही हालत इन पदार्थों की है। ये भी परमात्मा में मरुभूमि की धारा की ही तरह हैं, दीखते हैं। किंतु वस्तुत: नहीं हैं।

यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि यदि सभी पदार्थ परमात्मा से ही उत्पन्न होते हैं तो उसमें रहते हैं कैसे और कहाँ? और अगर रहते हैं तो इनके करते कितना उपद्रव और तूफान होता होगा! अनंत प्रकार की भली-बुरी चीजें हैं। फिर तो जहाँ ये रहें उसकी दुर्दशा किए बिना छोड़ेंगी थोड़े ही। यह तो दिमाग में आने की बात ही नहीं कि यों ही निेर्लेप और निर्विकार छोड़ दें। यह शंका कोई नई नहीं है। छांदोग्य उपनिषद् के समूचे छठे अध्‍याय में आरुणि ऋषि का अपने पुत्र श्वेतकेतु के साथ वाला संवाद आत्मा के ही बारे में पाया जाता है। उसके 12वें खंड में श्वेतकेतु की भी ऐसी शंका के उत्तर में आरुणि ने वटवृक्ष का बीज मँगवा के फोड़ने को कहा था। फोड़ने पर पूछा कि देखो तो उसके भीतर है क्या? पुत्र ने कहा कि कुछ भी नहीं। इस पर आरुणि ने कहा कि उस बीज के भीतर जहाँ कुछ भी नहीं देखते हो वहीं बड़े से बड़ा वटवृक्ष मौजूद है। तभी तो उसी में से बाहर निकलता है। बालू के कण, चने या गेहूँ के भीतर से तो कभी वह निकलता पाया गया नहीं। यदि वटबीज में न रहने पर भी वहाँ से वह वृक्ष निकलता, तो गेहूँ, चना या बालू में भी तो नहीं ही है। फिर वहाँ से भी क्यों नहीं निकलता? अगर मानें कि उसी नन्हे से बीज में वह महान वृक्ष मौजूद है, तो कैसे कहाँ समाया है? इतना बड़ा पेड़ उस बीज को बुरी तरह छिन्न क्यों नहीं कर छोड़ता? उसे लापता क्यों नहीं कर देता? जब इन प्रश्नों का उत्तर श्वेतकेतु दे न सका और आश्चर्यचकित हक्काबक्का-सा रह गया, तो आरुणि ने कहा कि पुत्र, तर्क-दलीलों से ही सर्वत्र काम नहीं चलता। किंतु श्रद्धा भी करनी होती है, विश्वास भी करना होता है। इसलिए श्रद्धा करो और कोरी दलील के पीछे परेशान मत हो -'यं वै सोम्यैतमणिमानं न निभालय से एतस्य वै सोम्यैषोऽणिम्न एवं महान न्यग्रोधस्तिष्ठति। श्रद्धत्स्वसोम्य' (6। 12। 2-3)।

प्रकारांतर से गीता में इसी बात का उत्तर 'सर्वभूतानि' आदि आगे के श्लोक देते हैं। जिसे प्रकृति कहा है उसी को दैवी माया भी तो कही दिया है। वह दिव्य एवं अलौकिक शक्ति रखती है, चमत्कार रखती है जो बुद्धि में समा न सके। पहले के श्लोक के 'योगमैश्वरम्' शब्दों में जो ईश्वरी योग या चमत्कार - करिश्मा - कहा है वह भी इस माया का ही चमत्कार है। प्रलय के समय वह अपने करिश्मे से वटबीज में वृक्ष की तरह सारे जगत को अपने भीतर हजम कर लेती है। वहाँ तो पता भी नहीं लगता है कि किस कोने में है, या कि नहीं ही है। फिर सृष्टि के समय महान वटवृक्ष की तरह सारे जगत का प्रसार वही प्रकृति खुद करती है। यह बात बराबर चलती रहती है। यदि वह प्रकृति, वह ईश्वरी माया न रहती तो यह बात असंभव थी। वट के बीज में भी उसी का करिश्मा है।

सर्वभूतानिकौंतेय प्रकृतिं यांति मामिकाम्।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥ 7

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥ 8

हे कौंतेय, सृष्टि के नाश-प्रलय-के समय सभी पदार्थ मेरी प्रकृति में ही विलीन हो जाते हैं। फिर सृष्टि के आरंभ में मैं उन्हें रचता हूँ। अपनी प्रकृति में का सहारा लेकर ही मैं बार-बार इस समूचे पदार्थ-समूह - जगत - को बनाता रहता हूँ जो प्रकृति के कब्जे में आने के कारण मजबूर है (कि पैदा हो और नष्ट हो)। 7। 8।

न च मां तानि कर्माणि निब ध्न न्ति धनंजय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥ 9

मयाऽ ध्य क्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।

हेतुनानेन कौंतेय जगद्विप रि वर्त्तते॥ 10

हे धनंजय, सृष्टि-प्रलय के उन कामों में आसक्ति-शून्य और तटस्थ की तरह रहने वाले मुझको वे कर्म बंधन में नहीं डालते हैं। मेरे अध्यक्ष होने (मात्र) से ही प्रकृति स्थावर-जंगम जगत की रचना कर डालती है। इस जगत का (इस तरह) बार-बार बनना-बिगड़ना - सृष्टि-प्रलय का यह चक्र - (भी) इसीलिए चालू रहता है। 9। 10।

यहाँ कल्प शब्द देखकर कुछ लोगों को भ्रम हो गया है कि आठवें अध्‍याय के 'अव्यक्ताद्वयक्तय:' (8। 18) में जो सृष्टि एवं प्रलय की बात आई है उसी से यहाँ भी मतलब है; क्योंकि पौराणिक भाषा में ब्रह्मा के दिन को ही कल्प कहते हैं। मगर बात दरअसल यह नहीं है। क्लृप धातु से यह कल्प शब्द बनता है। उसका अर्थ है जो वस्तु पहले से न हो उसे तैयार करना या बनाना। यह दूसरी बात है कि यह बनाना केवल दिमागी हो, या ठोस हो या दोनों की तरह का। इस तरह इसका वही अर्थ हो जाता है जो सृष्टि, विसृष्टि आदि शब्दों का है। यह शब्द पौराणिक अर्थ में आया है इसमें कोई प्रमाण नहीं है। कल्पादि का अर्थ है सृष्टि की आदि का आरंभ। कल्पक्षय का अर्थ है उसी का प्रलय या संहार। हमने तो अभी-अभी कहा है कि सातवें अध्‍याय के इसी प्रसंग में जो सृष्टि की रचना आदि कही गई है और प्रकृति का भी उल्लेख है वही बात यहाँ भी है। यही बात तेरहवें अध्‍याय के क्षेत्रनिरूपण के अवसर पर 'महाभूतान्यहंकार:' (13। 5) में भी कही गई है। गीता में जब-जब भगवान ने स्वयं सृष्टि रचना की बात कही है, तब-तब यही बात ज्यों की त्यों आती गई है। आठवें अध्‍याय में तो ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि रचना और उसके मिटाने या प्रलय की बात प्रसंगवश आई है। वह साक्षात भगवान के द्वारा रचना का प्रसंग तो है नहीं। फिर उसे यहाँ दुहराने का क्या सवाल?

सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ सृष्टि-रचना के सिद्धांत का दार्शनिक विश्लेषण एवं विवेचन तथा निरीश्वर सृष्टिवाद का खंडन है, जैसा कि 'मयाध्यक्षेण' और 'हेतुनानेन' (9। 10) से स्पष्ट प्रतीत होता है। प्रकृति का सहारा ले के किस प्रकार क्यों यह विश्व का सारा पसारा किया जाता है, इस मामले में सृष्टि के समस्त पदार्थों की क्या मजबूरी है, वह प्रकृति के वश में किस प्रकार है, ईश्वर की क्यों क्या जरूरत इसमें पड़ी, आदि सारी बातों पर पूरा प्रकाश कर्मवाद के प्रकरण में डाला जा चुका है। अंततोगत्वा सबों के कामों को मिलाने और सभी का लेखा-जोखा ठीक रखने (for coordination and super regulation) के लिए ही ईश्वर का मानना जरूरी हो जाता है, यह बात वहीं हमने लिखी है। इतने पर भी किस प्रकार इन सारे कामों में वह नहीं फँसता और निर्लेप रहता है यह भी वहीं तथा दूसरे स्थानों में कही चुके हैं। यदि इनमें से ईश्वर ही हटा दिया जाए या प्रकृति को ही हटा दें तो यह जो बाकायदा संसार का चक्र चल रहा है, खत्म हो जाएगा। कम से कम अनियमित तो होई जाएगा। प्रकृति और उसके गुण तो बहुत बड़े नियामक (regulator) हैं। इन्हीं से प्राणियों के स्वभाव बनते हैं, जिनके अनुसार कर्म-काम-किए जाते हैं और वही काम ईश्वर के व्यापक नियमन (super regulation) में उसके सहायक बनते हैं। अनादिकाल से यह चक्र चालू है। इसीलिए किसी के ऊपर इसके शुरू करने की जवाबदेही हई नहीं। ऐसा क्यों हुआ यह प्रश्न भी उठता ही नहीं।

यहाँ पुन: एक प्रश्न वैसा ही उठता है जैसा चौथे अध्‍याय में शुरू में उठा था और जिसका उत्तर अवतारवाद के रूप में अर्जुन को दिया जा चुका है। इसीलिए अर्जुन को तो शंका करने की गुंजाइश रह नहीं गई। उसने यहाँ इसी से शंका की भी नहीं। मगर कृष्ण ने जो कुछ आगे कहा है उसी से पता लगता है कि उस समय काफी ऐसे थे जो कृष्ण को भगवान मानने को तैयार न थे। शिशुपाल उन्हीं में एक था। हालाँकि उसके ऐसा मानने-न मानने में राजनीतिक या दूसरे भी कारण थे। इसीलिए केवल उसी के न मानने को लेकर वैसी बात कृष्ण जैसा महापुरुष कभी बोल नहीं सकता था जो उनने वहाँ कही है। या यों कहिए कि चौथे अध्‍याय में ही कही बात को उनने पुनरपि सख्ती के साथ, और जैसे गुस्से में, दुहराया है। मालूम होता है तब तक सचमुच अवतारवाद का सिद्धांत सर्वमान्य नहीं हो पाया था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि जनसाधारण कृष्ण को भी अपने में ही एक समझें, मनुष्य ही मानें। उनमें चमत्कार था, प्रतिभा थी, विलक्षण शक्ति थी यह तो सही है। मगर ये बातें तो मनुष्यों में पाई जाती ही हैं, इतने से ही भगवान तो नहीं हो जाता, नहीं माना जाता। फिर कृष्ण को ही क्यों माना जाए? और जब वह बार-बार यह कहते रहते हैं कि मेरी अध्यक्षता से ही प्रकृति यह करती है, वह करती है, यह सब मेरा ही करिश्मा है आदि-आदि, तब तो साफ ही वह ईश्वरता का दावा करते हैं। इसलिए यह भी संभव था कि लोगों की ही तरह अर्जुन के भी मन में इस तरह के खयाल कुछ-कुछ उठें। इनकी रोक चौथे अध्‍याय के उस उत्तर से पूरी-पूरी हो पाती नहीं, जो कृष्ण ने दिया था कि मैं सब कुछ जानता हूँ, किंतु तुझे पता नहीं। आखिर योगी महात्मा भी तो भूत-भविष्य की बातें जानते ही हैं, यह अर्जुन को भी मालूम था ही। व्यास और संजय की ही बातें इसमें प्रमाण हैं। इसीलिए सृष्टि तथा प्रकृति को अपनी ही चीज और अपना ही काम कहने के बाद कृष्ण ने खुद यह महसूस किया कि उस धारणा का प्रतिवाद जरा सख्ती से कर दिया जाए। सृष्टि के ही संबंध में भगवान का प्रश्न खामख्वाह आने से उसके लिए यही मौका मौजूँ भी था। ऐसा मौका फिर शायद ही आता। इसीलिए उनने कहना शुरू किया कि -

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ 11

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥ 12

मेरे विलक्षण, निराले, निर्विकार (तथा) सर्वोत्तम स्वरूप को नहीं जान सकने के कारण ही मूर्ख लोग मानव शरीरधारी मेरा तिरस्कार करते हैं - मुझे भगवान नहीं मानते हैं। (ये लोग) फिजूल आशाएँ बाँधते, फिजूल कर्म करते, फिजूल पढ़ते-लिखते (एवं) उलटी समझ रखते हैं। (क्योंकि) भुलावे में डालने वाली राक्षसी एवं आसुरी - राजसी एवं तामसी - प्रकृति - स्वभाव - से मजबूर हैं। 11। 12।

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥ 13

सततं कीर्त्तयन्तो मां यतंतश्च दृढव्रता:।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥ 14

हे पार्थ, इनके विपरीत दैवी - सात्विक - प्रकृतिवाले महात्माजन मुझे संसार का मूल कारण मान के अनन्य मन से मुझी को भजते हैं। (वे लोग) सदा भक्तिपूर्वक दृढ़ संकल्प के साथ मेरा कीर्त्तन करते हुए, प्रकारांतर से (भी) यत्न करते हुए और मेरा नमस्कार करते हुए निरंतर मुझी में लग के मेरे ही निकट पड़े रहते हैं - मेरी ही उपासना करते हैं। 13। 14।

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥ 15

दूसरे (महात्माजन) ज्ञानयज्ञ से ही मेरी पूजा करते हुए उपासना करते हैं। (यह ज्ञानयज्ञवाली उपासना तीन प्रकार की होती है - ) एक ही परमात्मा के रूप में, भिन्न-भिन्न पदार्थों के रूप में अनेक तरह की और विराट् के रूप में। 15।

ज्ञानयज्ञ तो बहुत ही व्यापक है। उसके भीतर सद्ग्रंथों का पाठ भी आ जाता है, जैसा कि पहले कह चुके हैं। मगर यहाँ ज्ञानरूपी यज्ञ से ही अभिप्राय है। वह तीन तरह का है। एक तो यही है कि समस्त जगत अद्वितीय ब्रह्म से जुदा नहीं है। और वह ब्रह्म मैं ही हूँ। इस प्रकार अपनी आत्मा ही सर्वत्र नजर आती है। दूसरी कोई भी चीज नहीं। दूसरा यह कि जब पृथ्वी, जल, सूर्य, चंद्र आदि पदार्थों को देखते हैं, तो ये पदार्थ नजर तो आते हैं। मगर इन सबों में भगवान की और आत्मा की ही भावना की जाती है। इस प्रकार बहुत रूप में भगवान का अलग-अलग खयाल करके अभ्यास किया जाता है। या यों कहिए कि इनके रूप में ही अनेक देवताओं की ही पूजा की जाती है। तीसरा यह कि समस्त जगत भगवान ही है। इसमें जगत को देखते हैं जरूर। मगर अलग-अलग चंद्र, सूर्यादि के रूप में नहीं। किंतु भगवान के रूप में ही। हरा चश्मा लगाने पर पदार्थ नजर तो आते हैं। मगर सबका रंग एक ही हरा दीखता है। इसमें और विराट दर्शन में केवल इतना ही अंतर है कि जहाँ चश्मेवाले को पृथक-पृथक पदार्थ नजर आते हैं तहाँ विराटदर्शी सभी पदार्थों को एक ही विस्तृत वस्तु के रूप में देख के उनमें भगवान की ही सूरत देखता है। वे उसके इस काम में आईने का काम करते हैं। सब मिल के एक आईना हैं जिनमें वह आत्मा-परमात्मा को देखता है। साथ ही, आईने को भी देखता है। पहले प्रकार के ज्ञानयज्ञवालों की नजर में आईना-वाईना कुछ नहीं है। केवल आत्मा ही आत्मा है। यही दोनों में फर्क है।

अब इसी विश्वदर्शन, ज्ञानयज्ञ या विराटदृष्टि के प्रसंग से यह कहने का मौका आ गया कि कौन-कौन से मुख्य-मुख्य पदार्थ भगवान के रूप हैं। बेशक, यहाँ भी अधिक पदार्थों को नहीं गिनाया है। फिर भी पहले - सातवें अध्‍याय - की अपेक्षा ज्यादा जरूर हैं। किंतु सातवें से यहाँ जो सबसे बड़ी विशेषता है वह यही है कि जब कि वहाँ पदार्थों के रस आदि को ही सत - सार - के रूप में खींच के भगवान का रूप बताया है, तब यहाँ वैसा न करके समूचे पदार्थों को ही उसका रूप कह दिया है। इस प्रकार सातवें की अपेक्षा एक कदम आगे बढे हैं। एकाएक ऐसी भावना कठिन थी, असंभव थी। इसलिए पहले पदार्थों के निचोड़ से ही शुरू करके यहाँ ठेठ पदार्थों तक पहुँच गए। यह ठीक है कि यहाँ भी गिने-चुने पदार्थ ही हैं फलत: कमी रह जाती है जो आगे पूरी होगी। यहाँ पदार्थों को चुनने में यह बुद्धिमत्ता की गई है कि मामूली पदार्थ न ले के यज्ञ, मंत्र, वेद, ॐकार आदि ऐसे ही विलक्षण पदार्थों को लिया है। जिनके बारे में ईश्वर-बुद्धि होने में कोई आनाकानी आमतौर से हो न सके। यदि प्रतिदिन के प्रयोग के मामूली पदार्थ लिए जाते तो खामख्वाह अर्जुन को और दूसरों को भी आश्चर्य होता कि ऐं, यह क्या कह रहे हैं!

अहं ऋतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥ 16

मैं ही ऋतु हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही स्वधा हूँ, औषधियाँ (यज्ञीय अन्नादि) मैं ही हूँ, मंत्र मैं ही हूँ, घी मैं ही हूँ, अग्नि मैं ही हूँ, (और) आहुति (भी) मैं ही हूँ। 16।

ऋतु कहते हैं वैदिक या श्रौत यज्ञयागों को। यज्ञ नाम है स्मार्त्त यज्ञों या कर्मों का। श्राद्धादि पितृकर्मों को स्वधा कहते हैं। पितरों के कर्मों का भेद न करके देवताओं के कर्मों के ही दो भेद किए हैं - श्रौत और स्मार्त्त। श्रुतियों या वेदों में लिखे कर्म श्रौत कहे गए। पीछे जब स्मृतियाँ और सूत्र-ग्रंथ बने तो उनने जिन नए कर्मों का प्रचार किया वही स्मार्त्त कहलाए। यही मोटी पहचान दोनों की है। असल में यज्ञयागादि करने वाले लोग पहले अग्नि को निरंतर जलाए रखते थे। वैदिक मंत्रों से ही शुरू में उसकी स्थापना की जाती थी जिसे आधान कहते थे। यही अग्नियाँ दो प्रकार की होती थीं - श्रौत और स्मार्त्त। इन्हीं में या इन्हीं से किए जाने वाले कर्म क्रमश: श्रौत और स्मार्त्त कहे गए। यही निचोड़ है। यह जरूरी नहीं है कि श्रुतियों में कहे गए कर्म श्रौत अग्नि में ही हों, न कि स्मार्त्त में। सूत्रग्रंथ भी दो प्रकार के हैं - श्रौतसूत्र और स्मार्त्तसूत्र। दर्शपूर्ण मासादि वैदिक यज्ञयाग श्रौतसूत्रों में और विवाह, श्राद्धादि घर-गिरस्ती के कर्म स्मार्त्त सूत्रों में पाए जाते हैं। घर-गिरस्ती के सर्वसाधारण कर्म ही आमतौर से स्मार्त्त कहे जाते हैं।

औषध या औषधि का अर्थ दवा नहीं है। 'औषध्य:फलपाकान्ता:' कोष के अनुसार जिनके फल पकने पर वह खुद भी पक और सूख जाएँ वही गेहूँ, जौ आदि के पौधे औषधि कहे जाते हैं। यहाँ औषधि का अर्थ है देवताओं तथा पितरों के कर्मों में प्रयुक्त होने वाले अन्नादि।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च॥ 17

मैं ही इस जगत के लिए पिता, माता, धाय (पिलाने-खिलाने वाली, जिसे धाई भी कहते हैं) तथा पितामह - दादा - हूँ। जानने योग्य, पवित्र या शोधक पदार्थ, ॐकार, ऋक, साम एवं यजु: भी मैं ही हूँ। 17।

यहाँ ऋक आदि तीनों शब्द उन नामों वाले वैदिक मंत्रों के ही हैं। जिन मंत्रों को गाते हैं। उन्हें साम कहते हैं। जिनके बारे में पिंगल और छंदों के नियम लागू हैं उन्हें ऋक और जो इन दोनों के अलावे खिचड़ी जैसे हैं, उन्हीं को यजु: कहते हैं। साममंत्र जिस मंत्र संग्रह में ज्यादा या सभी थे उसी को सामवेद, ऋक्मन्त्र जहाँ अधिकांश थे उसे ऋग्वेद और यजुर्मंत्र जिसमें ज्यादातर थे उसे यजुर्वेद कहा गया। अथर्ववेद का संग्रह सबसे पीछे हुआ। इसमें सभी तरह के छूटे-छुटाए मंत्र संगृहीत हुए। यह एक तरह से वेदों का परिशिष्ट है। त्रयी या तीन ही वेद कहने का भी यही आशय है। आखिर मंत्र भी तो तीन ही हैं। इन तीनों के अलावे तो मंत्र होते ही नहीं। मंत्र शब्द उन्हीं का वाचक जो है।

वेद, पवित्र और ॐकार ये तीन पदार्थ जुदे-जुदे हैं; न कि ॐकार के ही शेष दोनों विशेषण हैं। यद्यपि ॐकार का उल्लेख सातवें अध्‍याय में ही हो चुका है; तथापि वहाँ उसका स्वतंत्र रूप न होके वेदों का निचोड़ ही उसे माना है। विपरीत उसके यहाँ स्वतंत्र रूप में ही वह आया है और है यहाँ वह ब्रह्म का प्रतीक।

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ 18

जहाँ पहुँचा जाए वह, पोषक, स्वामी, साक्षी, सबका आधार, शरण, सुहृद जिससे उत्पत्ति हो, जिसमें पदार्थ लीन हों या जा मिलें, जिसमें कायम रहें सभी चीजों या कर्मों का कोष और पदार्थों का निरंतर कायम रहने वाला बीज (भी मैं ही हूँ)। 18।

सातवें अध्‍याय का बीज मूल कारण के मानी में आया है। मगर यह बीज साधारण बीज के ही अर्थ में है। बीज तो बराबर कायम रहता ही है। यदि वह न रहे तो कोई पदार्थ पैदा कैसे हो? इसीलिए उसे अव्यय या निरंतर कायम रहने वाला कह दिया है। गति का अर्थ है जहाँ तक जाया जाए या गंतव्य स्थान और लक्ष्य।

तापम्यहमहं वर्ष निर्गृ ह्वा म्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥ 19

हे अर्जुन, मैं ही (सूर्य की किरण के रूप में) तपता हूँ, वृष्टि या जल को रोक रखता और जमा करता हूँ और वर्षता भी हूँ। अमृत, मृत्यु, सत् और असत् भी मैं ही हूँ। 19।

यहाँ पूर्वार्द्ध में सूर्य का ही तीन रूपों में वर्णन है। सूर्य की किरणें तीन प्रकार की होती हैं। एक तो तपने वाली जो जल को ऊपर उठाती या खींचती हैं। दूसरी उसे जमा करके मेघ का रूप देने वाली और तीसरी उसे बरसाने वाली। यह बात श्लोक में लिखी है। संसार के कुछ पदार्थ अमर हैं और शेष मरने वाले। ये दोनों ही जिन पदार्थों या विशेषताओं के करते ही ऐसे बने हैं उन्हीं को अमृत और मृत्यु कहा है। सत्-असत् का अर्थ है स्थूल-सूक्ष्म या कार्य-कारण। सूक्ष्म पदार्थ दीखते नहीं। इसी से खयाल होता है कि वे नहीं हैं, असत् हैं। इसी प्रकार कार्य बन जाने पर कारण की स्वतंत्र सत्ता मालूम पड़ती ही नहीं। इसीलिए पुराने लोगों ने कारण को ही असत् भी कहा है। वह लापता-सी चीज होती है। उसे ही ढूँढ़ते भी हैं। कार्य तो सामने ही होते हैं।

इस प्रकार इन चार श्लोकों में विभिन्न रूप से मुख्य-मुख्य पदार्थों को परमात्मा का रूप गिना दिया। इस प्रकार अनेक रूप से उसके चिंतन एवं ज्ञानयज्ञ के साथ इसका मेल भी हो गया और ज्ञान-विज्ञान के संबंध में एक सीढ़ी आगे बढ़ भी गए। मगर इस विभिन्नता के खयाल, इस तरह के ज्ञानयज्ञ या इस आगे की सीढ़ी का असली प्रयोजन यह विभिन्नता तो है ही। इसके द्वारा तो दरअसल विश्वव्यापी एकता, एकरसता तथा अद्वैत की ही ओर बढ़ना और अंत में वहाँ पहुँच के टिक जाना ही लक्ष्य है। इसलिए जिनकी दृष्टि इस लक्ष्य से, और इसीलिए एकत्वरूपी ज्ञान यज्ञ से भी, विचलित हो के इस अनेकता में फँसती है वह चूक जाते हैं, यह बात सदा याद रखने की है। चूकने वाले भी दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जो विभिन्न पदार्थों में एक भगवान की ही भावना करते हैं। उनकी चूक यही है कि अनेक पदार्थों को भी देखते हैं। फिर भी उनने रास्ता पकड़ लिया है। फलत: कुछ विलंब से असली जगह पर ही जा पहुँचेंगे। यह ठीक है कि उनसे भी पहले विराटदर्शी पहुँचेंगे। क्योंकि वे इनसे कुछ आगे जो हैं। वे अलग-अलग पदार्थों को देखते तो नहीं। हाँ आईने की तरह जगत को एक देखते हैं। इसीलिए सचमुच उनके सामने दोई रह गए - आत्मा या परमात्मा और आईना। विपरीत इसके पहलेवालों के सामने तो अनंत पदार्थ चट्टान की तरह पड़े हैं। इन सबों को तोड़ के इनकी ही तरह एक करना है, राजमार्ग बनाना है। इसमें परेशानी तो होगी ही। समय भी लगेगा। फिर भी ये दोनों ही आगे-पीछे लक्ष्य पर पहुँचेंगे ही। फिर तो सर्वत्र उन्हें आत्मा ही दीखेगी। इसीलिए इनके बारे में चिंता नहीं की गई है।

मगर जो चूकने वाले दूसरे प्रकार के हैं, वह जगत के विभिन्न पदार्थों में या तो विभिन्न देवताओं की भावना करते हैं, या इन्हीं पदार्थों से किन्हीं इंद्र, महेंद्रादि देवताओं का ही यजन-पूजन करते हैं। ये दोनों ही लक्ष्य से बहुत दूर चले जाते हैं। इसीलिए इन्हें कष्ट भी भोगने पड़ते हैं। इन्हीं दोनों की दुर्गति की बात आगे के क्रमश: 20, 21 तथा 23-25 श्लोकों में कही गई है। इनमें भी इंद्रादि की पूजा करने वाले तो और भी नीचे हैं; क्योंकि वे काल्पनिक देवताओं को मान के निरे खयाली संसार में ही विचरते और स्वर्गादि के सुख चाहते हैं। विपरीत इनके दूसरे ऐसे हैं जो दृश्य पदार्थों को ही भगवान न मान के उसकी जगह देवताओं की ही भावना करते हैं। वे भूले तो हैं जरूर। मगर उनका संसार निरा खयाली नहीं। उपनिषदों में ऐसों का उल्लेख बहुत आया है। इसीलिए वे कुछ ऊँचे हैं। यही कारण है कि शुरू के दो श्लोकों में पहले लोगों की बातें कह के और प्रसंग से बीच के 22वें में असली लक्ष्य की याद दिला के पुन: तीन श्लोकों में दूसरे लोगों की गाथा सुनाते हैं।

त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयंते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥ 20

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभंते॥ 21

तीनों वेदों में बताए कर्मों के जानने वाले (लोग) यज्ञों के द्वारा मेरा पूजन करके सोमलता का रस पीते (और इस तरह) पापरहित हो के स्वर्ग-प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। वे इंद्र के सुंदर लोक - स्वर्ग - में जा के वहाँ देवताओं के दिव्यभोगों को भोगते हैं। (पीछे) वही लोग उस विशाल स्वर्ग के भोगों को भोग चुकने के बाद (अपना) पुण्य पूरा हो जाने पर (पुन:) मर्त्यलोक में ही आ धमकते हैं। तीनों वेदों में बताए धर्मों के करने वाले भोगेच्छक लोग इसी तरह आवाजाही जारी रखते हैं। 20। 21।

यहाँ सोमपा शब्द का अर्थ है सोमरस के पीनेवाले। असल में वैदिक यागों में से यहाँ एक का उल्लेख नमूने के तौर पर ही हुआ है। ज्योतिष्टोम नामक वैदिक याग स्वर्ग के ही उद्देश्य से किया जाता था। इसमें प्रधान पदार्थ सोमलता ही मानी जाती थी। घी आदि की जगह प्रधान आहुति इसी लता के रस की दी जाती थी। ऐसा माना जाता है कि बर्फानी प्रदेश में ही यह लता होती है। उसे मँगवा के पत्थरों से कूटते और रस निचोड़ते थे। उसी रस से देवताओं के लिए आहुतियाँ दे के बचे-बचाए या यज्ञशिष्ट रस को यजमान वगैरह पीते थे। इसीलिए 'सोमपा:' शब्द आया है। इस प्रकार बड़े से भी बड़े वैदिक यज्ञयागादि का परिणाम यही आना-जाना ही तो है।

विपरीत इसके जो अनन्य भाव से आत्मचिंतन में लग जाते हैं वह न सिर्फ इस आवाजाही और जन्म-मरण के चक्र से ही बचते हैं; बल्कि इस संसार में भी उन्हें किसी पदार्थ की कमी नहीं रहती है। अत: उसके मुकाबिले में यह कितनी ऊँची चीज है - 'यह ज़वाल और यह जलाल'! इसीलिए उसके साथ इसका कोई भी मुकाबिला नहीं हो सकता है। यही बात प्रसंग से अगले श्लोक में कह के फिर वही बात चालू करते हैं -

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ 22

जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझमें ही निरंतर लगे रहने वाले उन लोगों का योगक्षेम मैं (खुद) करता हूँ। 22।

जो आवश्यक पदार्थ अप्राप्त हों उन्हें जुटाना योग है। जुटने पर उनकी हिफाजत को क्षेम कहते हैं।

येऽप्यन्यदेवता भक्तायजंते श्रद्धयान्विता:।

तेऽपि मामेव कौंतेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥ 23

हे कौंतेय, अन्य देवताओं के भी जो भक्तजन श्रद्धा से उनका यजन करते हैं वे भी यजन तो मेरा ही करते हैं। (फर्क यही है कि) विधिपूर्वक या उचित रीति से नहीं करते। 23।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।

न तु मामभिजानन्ति तत्तवेनातश्चयवन्ति ते॥ 24

क्योंकि सभी यज्ञों का भोगनेवाला - उनके द्वारा आराध्‍य देवता - और फल देने वाला भी मैं ही हूँ। लेकिन वे मुझे यथार्थ रूप में जानते ही नहीं। इसी से चूक जाते हैं। 24।

यांति देवव्रता देवान् पितृन्यांति पितृव्रता:।

भूतानि यांति भूतेज्या यांति मद्याजिनोऽपि माम्॥ 25

(बात यों है कि) देवताओं के व्रत-पूजन करने वाले उन्हीं तक पहुँचते हैं। पितरों के व्रतवाले उन तक, भूतों के पूजक भूतों तक और मेरे पूजक मुझ तक भी पहुँचते हैं। 25।

यहाँ 'अपि माम्' में अपि 'को माम्' के बाद ही लगा के अर्थ करना ठीक है जैसा कि 'यांति मामपि' (7। 23) में किया गया है। वहाँ तो वैसा हई। मगर यहाँ भी अभिप्राय वही होने के कारण अर्थ भी वही होना चाहिए। इसी प्रकार जो 'तत्त्वेन' शब्द 24वें में आया है उसका तात्पर्य यही है कि अन्य देवताओं के रूप में भगवान के पूजने वालों को भगवान का तत्त्वज्ञान - यथार्थ ज्ञान - नहीं होता। इसी से वे चूकते हैं, उनका पतन होता है। कारण, तत्त्वज्ञान या आत्म रूप से भगवान का साक्षात्कार ही असल चीज है। 'त्रैविद्या' और 'येऽप्यन्य' श्लोकों में - दोनों ही जगह - 'माम्' आया है। इससे स्पष्ट है कि दोनों ही प्रकार के लोग एक ही श्रेणी के हैं। इनमें जो फर्क है वह बताया जा चुका है। श्रद्धा का उल्लेख होने से यह सिद्ध हो जाता है कि उसके बिना जो कुछ किया जाता है वह बेकार है।

इस प्रकार चूके तथा पथभ्रष्ट लोगों की दशा का वर्णन करने का फल यह होता है कि जो लोग आत्मज्ञान और भगवान के मार्ग पर चलते हैं और जिनका वर्णन 'अनन्याश्चिन्तयन्त:' तथा इससे पूर्व के 'एकत्वेन पृथक्त्वेन' श्लोक में आया है उनकी ओर बलात ध्‍यान आकृष्ट हो जाता है। प्रयोजन भी इस निरूपण का यही है। बिना धूप में जले छाया का महत्त्व या शीतल जल का पूरा स्वाद नहीं मिलता है। फलत: पुनरपि उसी मुख्य विषय पर आ गए। जैसा कि कहा गया है, उस उचित मार्ग पर चलने वाले भी कई तरह के लोग होते हैं। इसलिए यह बताना जरूरी हो गया कि उसके द्वारा आत्मसाक्षात्कार या सर्वत्र आत्मा-परमात्मा के ही दर्शन की दशा में कैसे पहुँचा जाता है। उन विभिन्न दर्शियों के दो विभाग करके पहले का काम घृत, सोम आदि के द्वारा इंद्रादि देवताओं के रूप में - न कि स्वतंत्र रूप से - भगवान का पूजन कहा गया है। दूसरे का सीधे भौतिक पदार्थों को ही भगवान की जगह देवता के रूप में पूजन की बात बताई गई है। ठीक उसी प्रकार यहाँ भी विभिन्न-दर्शी लोगों को दो दलों में बाँट के पहले का काम पत्र, पुष्पादि के द्वारा स्वतंत्र रूप से भगवान का पूजन बताया गया है। दूसरे के बारे में सभी कामों को भगवान की पूजा ही मान लेने और उसी भाव से उन्हें करने की बात कही गई है। असल में भगवान की ओर बढ़नेवाले लोगों में पहला दल तो सभी पदार्थों को अलग-अलग मानता ही है। इसीलिए वह पत्र, पुष्पादि से ही पूजन करता है। हाँ, जब दूसरा दल सभी पदार्थों को एक करके आत्मा-परमात्मा का आईना मानता है तो यह उचित ही है कि वह जो कुछ भी करे उसे भगवान की पूजा ही माने। 26वें श्लोक में पहले दल की और उसके बाद के डेढ़ श्लोकों में दूसरे की बात कह के 28 वें के उत्तरार्द्ध में उसका फल संन्यास और उसके द्वारा आत्मसाक्षात्कार के फलस्वरूप मुक्ति ही बताई गई।

पत्रां पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥ 26

जो (श्रद्धा) भक्ति से मुझ परमात्मा को पत्ते, फूल, फल (या) जल अर्पण करता है, मन पर काबू रखने वाले उस मनुष्य की भक्तिपूर्वक भेंट को मैं स्वीकार करता हूँ। 26।

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौंतेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ 27

हे कौंतेय, जो दान, यज्ञ, योग, तप, या और भी कोई काम करते हो वह सब कुछ मुझी को अर्पण करो - सब कुछ मेरी ही पूजा मानो। 27।

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबंधनै:।

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥ 28

इस प्रकार कर्मों से उत्पन्न और उन्हीं में पुन: मनुष्यों को जोड़ने वाले बुरे-भले फलों से तुम्हारा पिंड छूट जाएगा। (उसके बाद क्रमश:) संन्यास मूलक योग या समाधि में अपने मन को लगा के तुम मुक्त होगे। (और इस तरह) हमें प्राप्त कर लोगे। 28।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥ 29

(यद्यपि) मैं सभी पदार्थों में एकरस हूँ (और इसीलिए) न मेरा कोई शत्रु है न मित्र, (तथापि) जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मुझमें और मैं उनमें हूँ। 29।

यहाँ 28वें श्लोक में 'कर्मबंधनै:' पद के दो अर्थ हैं और दोनों का परस्पर संबंध है। कर्मों से फलों का बंधन है, ताल्लुक है। अर्थात कर्मों से फल पैदा होते हैं। इसी के साथ फलों से भी कर्मों का बंधन या ताल्लुक है। क्योंकि फलों के भोगने पर कर्मों में चसका पैदा हो जाता है और जी चाहता है कि ऐसे ही कर्म और भी करें। मगर भगवान के अर्पण करने पर तो यह कोई भी बात नहीं होती। फलत: मन की शुद्धि हो जाने से कर्मों का स्वरूपत: संन्यास होता है। अनंतर समाधि में लग जाने पर आत्म-दर्शन हो के मुक्ति मिल जाती है।

इस पर यह खयाल हो सकता है कि जब भगवान सर्वत्र एकरस है और उसके लिए न तो कोई अपना है, न पराया, तो फिर यह क्या कि ज्ञानीजन उसे प्राप्त कर लेते हैं और दूसरे नहीं? उसके संबंध में यह क्या बखेड़ा है? वह तो सभी को प्राप्त ही है। क्योंकि सभी जगह मौजूद है। इसीलिए प्राप्त करने या पहुँचने की भी कोई बात नहीं हो सकती है। ऐसी दशा में भक्तजनों का उस तक पहुँचना भी कुछ उलटी-सी बात लगती है।

इसका सीधा और स्पष्ट उत्तर 29वाँ श्लोक देता है। कोई बढ़ई दिन भर बीसियों गृहस्थों के घर जा-जा के उनका काम करता रहा। फिर कुछ दिन रहते ही फुरसत पा के घर चला। जाड़े के दिन थे। इसीलिए कन्धे पर अपना बसूला रख के ऊपर से उसने दोहर डाल ली थी। घर के नजदीक पहुँची रहा था कि एकाएक खयाल आया कि ऐं, बसूला क्या हो गया? मैं उसे कहाँ छोड़ आया? बस, उलटे पाँव लौट पड़ा, सभी जगह दौड़ता फिरा और पूछ-ताछ करके हार गया पर बसूला मिल न सका। लाचार मनहूस मन से घर वापस चला। पहुँचते ही दरवाजे पर जलती धूनी के पास गया। जाड़े की शाम तो थी। इसी से आग की जरूरत भी थी। आग के पास उदास बैठा ही कि बच्चे ने पूछा कि पिताजी, आज उदास क्यों हैं? उत्तर मिला कि क्या कहें? जाने कहाँ बसूला ही खो गया और कमाने का आधार वही एक था! बच्चा इस पर कहता ही क्या? थोड़ी देर बाद आग की गरमी से देह में गरमी आने पर जो उसने दोहर उतार के रखनी चाही तो बसूला हाथ लग गया! अब तो उसकी खुशी का ठिकाना न था! उसने कहा, धत्तेरे की! बसूला तो पास ही था और मैं दौड़ता फिरा! बस, यही बात परमात्मा और आत्मा के मिलने-न मिलने की भी समझिए।

नौवें अध्‍याय में जो कुछ कहना था, यहीं पूरा हो गया। फिर भी अभी पाँच श्लोक रह जाते हैं। उनमें कोई नई बात नहीं कही गई है। किंतु जो लोग किसी भी हालत में इस तरफ कदम बढ़ाते है उन्हीं के लिए प्रोत्साहन उन श्लोकों-का विषय है। अभी-अभी 27वें श्लोक में जो यह कहा गया है कि खाने-पीने, भोगराम या दूसरे भी कामों को भगवान को ही अर्पण कर दो, वह तो बहुत व्यापक चीज है। ऐसा होने पर तो बुरे से बुरे कर्म इसी श्रेणी में चले आ सकते हैं। तो क्या यह ठीक और मुनासिब होगा कि ऐसे कर्मों को भी भगवान को अर्पण किया जाए? यदि हाँ, तो फल क्या होगा? यही न, कि ऐसे दुष्कर्मी लोग भगवान की अन्य प्रकार की पूजा का नाम न लेंगे - उसी का जिसे लोग सचमुच पूजा मानते हैं? फलत: यह तमाशा, नाटक और प्रवंचना के अलावे दूसरा कुछ न माना जाना चाहिए। यह बहुत मोटी बात है और आमतौर से सभी लोग इसे बखूबी समझते हैं। फिर भी आश्चर्य है कि ऐसी बात न सिर्फ कही गई है, बल्कि उसका ऊँचे से भी ऊँचा फल बताया गया है। इसी का उत्तर आगे के चार श्लोक इस तरह देते हैं -

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामन्यभाक्।

साधुरेव स मंतव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥ 30

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।

कौंतेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥ 31

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यांति परां गतिम्॥ 32

किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥ 33

अगर पक्का दुराचारी भी हो, फिर भी मुझ परमात्मा को अनन्य भाव से भजे, तो उसे साधु ही मानना होगा। क्योंकि (अब तो) उसका व्यवसाय उचित ही है। (इसलिए) शीघ्र ही वह धर्मात्मा हो जाता है। (और धीरे-धीरे उक्त रीति से) अखंड शांति-मुक्ति-बखूबी प्राप्त कर लेता है। हे कौंतेय, मन में बिठा लो कि मेरे भक्त की दुर्गति कभी होती ही नहीं। हे पार्थ, (यहाँ तक कि) जो नीच एवं दूषित योनिवाले स्‍त्री, वैश्य और शूद्र भी हैं वे भी मेरा आश्रय ले के (क्रमश:) परम गति हासिल कर लेते हैं। तो फिर पुण्यजन्मा ब्राह्मणों तथा क्षत्रिय भक्तों का क्या कहना? (इसलिए) इस सुख से रहित और चंद्ररोजा शरीर को पा के मुझी को भजो। 30। 31। 32। 33।

इन चार श्लोकों में पहले में जो अनन्य भाव से भजने की बात कही गई है वह ठीक वही है जो 'यत्करोषि' में कही गई है। 32वें के 'मां व्यापाश्रित्य' का भी कम-बेश वही आशय है। यह ठीक है कि ऐसे लोग एकाएक वैसा कर नहीं सकते। इसीलिए 'भजते' का अर्थ है भजन का यत्न करता है - उस ओर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता है। श्रद्धा से उस ओर बढ़ने से ही रास्ता साफ होने लगता है। क्योंकि यदि पूरा बढ़ जाए तो अत्यंत दुराचारी-सुदुराचार: कहने के कुछ मानी नहीं रह जाते। फलत: 'सम्यग्व्यवसित:' में कह दिया है कि उसका यह व्यवसाय, यह उद्योग उचित ही है। वह उद्योग और यत्न करता है यही आशय है। जल्द ही धर्मात्मा होने की भी बात इसीलिए कही गई है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा करने के कुछ समय बाद उसका दुराचार धीरे-धीरे बंद हो के वह धर्मात्मा बनता है, होता है। मगर शुरू से ही अनन्य भक्त हो जाने पर तो इसकी जरूरत हई नहीं। बिना धर्मात्मा हुए अनन्य भक्त कैसा? यदि अजामिल आदि की जैसी बात कहें, तो भी ठीक नहीं। क्योंकि अजामिल दुराचारी भले ही रहा हो। मगर सुदुराचार या अत्यंत दुराचारी हर्गिज न था। हम तो उसे प्राय: धर्मव्याध जैसा ही मानते हैं। 'न मे भक्त: प्रणश्यति' का भी यही तात्पर्य है कि मेरी तरफ भावना करके जो भी थोड़ा-बहुत किया जाता है वह कभी नष्ट नहीं होता। किंतु धीरे-धीरे सूद के साथ बढ़ता है।

बत्‍तीसवें और तैंतीसवें श्लोक में स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रों को पापयोनि या छोटा और ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को पुण्यजन्मा कहा है। क्योंकि 'पापयोनय:' के विपरीत 'पुण्या:' शब्द ब्राह्मणों एवं राजर्षियों - क्षत्रियों - दोनों ही - का विशेषण है। देखने से यही उचित भी प्रतीत होता है। 'भक्ता:' भी दोनों ही के लिए आया है। इससे सिद्ध हो जाता है कि गीता और महाभारत के समय हमारी वर्णव्यवस्था न तो आज जैसी थी और न जैसी शुरू में थी वैसी भी थी। आज तो ब्राह्मणों को ही ऊँचा स्थान प्राप्त है। क्षत्रिय उनसे नीचे हैं। इसी प्रकार वैश्यों का स्थान शूद्रों से ऊँचा है। आज इन्हें पाप-योनि तो हर्गिज नहीं मानते, यद्यपि स्त्रियों को दुर्भाग्य से ऐसा ही मानते हैं। यहाँ गीता में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय तथा वैश्य एवं शूद्र को समकक्ष कह दिया है। चौथे अध्‍याय में जो 'राजर्षयो विदु:' कहा है उससे भी क्षत्रियों का दर्जा यदि ऊँचा नहीं तो ब्राह्मणों के समकक्ष तो सिद्ध होई जाता है। विपरीत इसके शुरू में चारों वर्णों को शरीर के चार अंगों की जगह मान के यह दिखाया था कि यह वर्ण-विभाग और कुछ नहीं, केवल समाज-के संचालनार्थ कामों का बँटवारा है। इसमें ऊँच-नीच का प्रश्न नहीं। प्रत्युत चारों की अपने-अपने स्थान पर समान ही उपयोगिता है। हमने यही बात पहले लिखी भी है। लेकिन गीता पहले दो को श्रेष्ठ और शेष दो को कनिष्ठ - नीच - कहती है!

छांदोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों की पंचाग्नि विद्यावाली बात लिखते हुए हमने पहले बताया है कि उस जमाने में क्षत्रियों का दर्जा ब्राह्मणों के समकक्ष जैसा ही था, अगर ऊँचा न भी था। कम से कम ब्राह्मणों का यह दावा तब तक न हो पाया था कि सब विद्याएँ वही जानते हैं और उन्हीं से संसार को सीखनी होंगी, सीखनी चाहिए, जैसा कि मनुस्मृति में लिखा है कि 'एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रंशिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:' (2। 20)। इसलिए यह मानने की काफी गुंजाइश है कि ब्राह्मण ग्रंथों एवं प्रधान उपनिषदों के समय से मिलता-जुलता ही समय गीता का है। या यों कहिए कि वही समय महाभारत का है। उपनिषदों की जब खूब प्रधानता थी तभी गीता बनी। इसीलिए न सिर्फ उपनिषदों को बातें इसमें रूपांतर से बहुत ज्यादा आईं; बल्कि इसकी सर्वमान्यता के ही खयाल से इसे भी रूपांतर में उपनिषद् ही कहना पड़ा। नहीं तो उपनिषदों के सामने इसे कौन पूछता? यह तो नियम ही है कि जिसकी चलती बनती है उसके ही पीछे चलने से काम बनता है। पीछे तो उपनिषदों को भी लोग भूल से गए। मगर यह विषय स्वतंत्र रूप से विचारने का है। यहाँ तो यों ही प्रसंग से थोड़ा-सा इशारा कर दिया है।

आगे के अंतिम श्लोक में इस अध्‍याय का उपसंहार कुछ इस तरह करते हैं कि जो बातें प्रधान रूप से, लक्ष्य के रूप में, कही गई हैं। वे इसमें आ जाए -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥ 34

हमीं में मन लगाओ, हमारे ही भक्त हो जाओ, हमारा ही यज्ञ करो (और) हमारा ही नमस्कार करो। इस प्रकार हमीं को सब कुछ समझते हुए हमीं में मन को जोड़ देने से हमीं को प्राप्त हो जाओगे। 34।

बेशक, इस श्लोक को जाहिर तौर पर देखने से तो यही पता लगता है कि पूर्ण पहुँचे हुए ज्ञानीजनों की ही बात इसमें है। मगर इतने अधिक विशेषण भक्तजन के पीछे लगे हैं कि संदेह पैदा करते हैं। भगवान का यजन करे, उसे नमस्कार करे और इसी के साथ मन को उसमें एकबारगी जोड़ दे, यह बात समझ में आती नहीं। मन को उसी में बाँध देने का तो अर्थ ही है कि शेष क्रियाएँ बंद हो जाएँगी। और अगर दोनों ही तरह की क्रियाएँ चलेंगी तो 'मन्मना:', 'मद्भक्त:' और 'आत्मानं एवं युक्त्वा' इन तीन विशेषणों की सफलता कैसे होगी? तब तो एक ही से काम चलेगा। तीनों के देने का तो प्रयोजन ही है - खासकर जब उन्हीं के साथ 'मत्परायण:' भी जुट जाता है - कि चौबीसों घंटे आत्मा-परमात्मा में ही डूबा हुआ मस्त पड़ा है। इसीलिए हम इस श्लोक का यही आशय मानते हैं कि नमस्कार, यजन आदि के जरिए धीरे-धीरे उस अंतिम दशा में पहुँचने को लक्ष्य करके ही यह लिखा गया है। फलत: नौवें अध्‍याय में जो कई प्रकार के विवेकी जन 'एकत्वेन' आदि के द्वारा कहे गए हैं वे सभी इसमें आ जाते हैं।

इस अध्‍याय में केवल एक ही बार सम शब्द आया है। वह समदर्शन के ही ढंग की बात का सूचक है, जैसा कि 'निर्दोषंहि समं ब्रह्म' (5। 19) में है। 7-8 अध्‍याय में तो यह आया ही नहीं है।

इति श्री. राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽ ध्या य:॥ 9

श्रीमद्भवद्गीता के रूप में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका राजविद्या राजगुह्य नामक नौवाँ अध्‍याय यही है॥9॥

दसवाँ अध्‍याय

सातवें अध्‍याय में जिस ज्ञानविज्ञान का आरंभ हुआ था वही नौवें के अंत तक चलता आया है। मगर यह निरूपण केवल आंशिक और संकुचित रूप में ही हुआ है, यह हमने पहले ही बता दिया है। इसका कारण भी समझा दिया है। ठीक ही है, इतने गहन और गूढ़ विषय का, जिसके बारे में कृष्ण ने कह दिया है कि यह बात इस लंबी मुद्दत में लुप्त हो गई है, 'योगो नष्ट: परंतप:' (4। 2), एकाएक विस्तृत निरूपण करना अर्जुन को और दूसरों को भी चकाचौंध में डालना हो जाता। फलत: इसका बखूबी समझना और भी असंभव बन जाता। क्योंकि लोग चटपट कह बैठते कि यों ही जानें क्या-क्या अंट-संट बके जाते हैं। जो अक्ल में समाता ही नहीं। इतना ही नहीं, तब तो इससे लोगों को एक प्रकार की अश्रद्धा ही हो जाती। इसीलिए धीरे-धीरे प्रवेश करते-करते कृष्ण ने अर्जुन के मन में चसका और लगन पैदा करने के साथ ही इस गहन विषय में उसकी बुद्धि के प्रवेश का रास्ता भी साफ कर दिया। अर्जुन को अब इसमें वह कठिनाई नहीं प्रतीत होती थी जो पहले दीखती थी। उसका मन भी इधर झुकता नजर आया। यह बात दसवें अध्‍याय के पहले ही श्लोक के 'प्रीयमाणाय' शब्द से प्रकट हो भी जाती है। इसीलिए उसी श्लोक में कृष्ण ने साफ ही कह दिया कि अभी और भी मेरी मजेदार और महत्त्वपूर्ण बातें सुनो "भू य एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:"।

एक बात और भी है। कहा जा सकता है कि भगवान से इस जगत के बनने की बात तो लुप्त हुई नहीं है। जिस योग के लोप होने की बात चौथे अध्‍याय में कही गई है उसके भीतर तो इसके सिवाय दूसरी अनेक बातें भी हैं और उन्हीं का विलोप हो जाने से वहाँ मतलब हो सकता है। फिर भी यह तो ठीक ही है कि जिस चीज को भगवान खुद कहेंगे वह जितनी खूबी तथा आसानी से जानी जा सकेगी वैसी दूसरों की जबानी हर्गिज नहीं। आखिर इस चीज के करने वाले, इस लीला के फैलाने वाले और मूल कारण तो वही हैं न? यह नाटक तो भगवान का ही फैलाया हुआ है न? इसीलिए इसका कच्चा चिट्ठा, इसकी हकीकत जितनी वह जानेंगे उतनी और कोई क्या जानेगा? क्योंकि वह तो उन्हीं से या दूसरों से ही सीख-सुन के जानेगा और कहेगा न? फिर उसके कहने में वह मजा कैसे आएगा जो ठेठ भगवान के कहने में? दूसरे ऋषि-मुनि या उपदेशक तो उसके ही बनाए हुए हैं न? फिर यह कैसे आशा की जाए कि वे रत्‍ती-रत्‍ती बातें बखूबी जान सकेंगे? और जो भी जानें वे भी उस तरह कैसे समझा सकेंगे? ऐसे तो विरले ही हो सकते हैं जिन्होंने आत्मज्ञान के द्वारा इन सभी चीजों का साक्षात्कार कर लिया हो। क्योंकि 'मनुष्याणां सहस्रेषु' (7 ।3) की भी बात तो आखिर इसी सिलसिले में कही गई है। और अगर किसी बिरले माई के लाल ने ऐसी योग्यता भी प्राप्त की तो भी उसका मिलना आसान तो नहीं है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि भगवान स्वयमेव सारी दास्तान सुनाएँ। जब उन्हीं की कृपा से विवेक आदि सद्गुण औरों को मिलते हैं, जिससे वे ये बातें जान के दूसरों को भी जनाएँ; मन, इंद्रिय आदि को काबू में करके पहले इस विषय को अच्छी तरह स्वयं देख लें; अनंतर दयार्द्र हो के अन्यों को भी बताएँ, तो क्यों न भगवान से ही यह चीज जानी जाए? दसवें अध्‍याय के कुल 42 श्लोकों में जो शुरू के पूरे अठारह श्लोक इन्हीं बातों के कहने में खत्म हुए हैं उसका यही रहस्य है।

उनमें भी पहले पूरे ग्यारह श्लोकों में स्वयं कृष्ण ने इस विषय की गहनता के खयाल से ही सब कुछ कहा है और बताया है कि इसे बिरले ही जानते हैं, सो भी मुझ भगवान की ही अनुकंपा से। तभी तो जो अर्जुन चुप बैठा था उसे एकाएक खयाल हो आया है कि ओहो, जब ऐसी बात है तब तो मुझे खुद कृष्ण से ही अनुरोध करना चाहिए कि वे स्वयमेव ये बातें बताएँ और कहें किस प्रकार उनने यह विश्व का नाटक फैलाया है। कहीं ऐसा न हो कि मेरी इस चुप्पी का कुछ और भी अर्थ लगा के या तो इसे कतई छोड़ ही दें, या अगर सुनाएँ भी तो उस विस्तार के साथ नहीं जिसकी जरूरत है और उस मनोयोग से भी नहीं जिसके करते विषय में जीवन आ जाता है। इतना ही नहीं। आगे तो कृष्ण को ही इस 'कह सुनाऊँ' के बाद ही 'कर दिखाऊँ' भी करना था। तभी तो दिल में यह बात जा के बैठ सकती थी। इसलिए जब खुद ही वह कहेंगे तो दिखाने या प्रयोग करने में भी न तो हिचकेंगे और न आधे मन से उसे करेंगे ही। इसीलिए उसने जोर दिया कि नहीं-नहीं, महाराज, आप ही कृपा कीजिए और सुनाइए। उसके भीतर विषाद के करते जो गड़बड़ पैदा हो गई थी उसी के चलते जानें कितनी ही बातें भूल ही गई थीं। उन्हीं में कुछ एकाएक अब याद भी हो आईं। इसीलिए तो जहाँ पहले उसने कृष्ण के बारे में कहा था कि आप तो अभी पैदा हुए हैं; फिर यह कैसे मानूँ कि सृष्टि के आदि में आपने विवस्वान से यही बातें कही थीं; तहाँ अब उसने यह भी कह दिया कि हाँ, हाँ, भगवन, आपके बारे में बड़े-बड़े महर्षियों से भी सुना था वही, जो आप खुद कह रहे हैं! क्षमा करें, मेरी बुद्धि ही जानें क्या हो गई थी कि कुछ याद ही नहीं पड़ता था! आपकी महिमा तो अपरंपार है, इसमें कोई शक नहीं है। यह भी नहीं कि यह आपकी प्रशंसामात्र है। यह तो वस्तुस्थिति है। इसलिए अब तो आपको अपनी लीला सुनानी ही होगी, चाहे जो कुछ हो जाए।

इसके बाद तो भगवान के लिए कोई चारा ही न था। फलत: फौरन ही 19वें श्लोक से ही उन्हें शुरू कर देना ही पड़ा। पूरे 24 श्लोकों में इसे पूरा करके भी अंत में उनने कह दिया कि इस पँवारे का कहीं अंत थोड़े ही है; मैंने तो यह नमूने के तौर पर ही कुछ कह दिया है, 'नांतोऽस्ति मम', 'एषत्द्देशत: प्रोक्त:' आदि। इसीलिए जो लोग शुरू के 18 श्लोकों को पढ़ के या तो ऊब जाते, या खयाल करते हैं कि भगवान की विभूति या प्रपंच-लीला के निरूपण वाले इस अध्‍याय में प्राय: आधे श्लोक बेकार ही क्यों दूसरी बातों में लगा दिए गए हैं, उन्हें अब पता लग गया होगा कि इस बात की जरूरत थी। असल में यों तो इस विषय की अहमियत को जनसाधारण समझी नहीं सकते। इतनी भूमिका के बाद भी उनके दिमाग में यह बाद शायद ही जमे। उनके लिए तो यह दूसरी दुनिया की विदेशी जैसी चीज ही है। फिर मन लगे तो कैसे लगे? इसीलिए इतनी भूमिका भी कुछ विशेष काम उनके दिमाग पर कर पाती नहीं। मगर अर्जुन के बारे में यह बात न थी। वह तो बहुत कुछ ऊँचा उठ चुका था। इसीलिए इस भूमिका ने उसे न सिर्फ प्रोत्साहित किया; बल्कि उसमें चसका भी पैदा कर दिया। फलत: वह इसमें लिपट ही तो पड़ा। नतीजा यह हुआ कि दसवें के शेष और पूरे ग्यारहवें अध्‍याय में उसने कृष्ण से 'कह सुनाऊँ' तथा 'कर दिखाऊँ' दोनों करवा के ही छोड़ा।

एक बात यहीं पर और भी जान के आगे बढ़ने में अच्छा होगा। 'एतां विभूतिं योगं च' (10। 7) में तथा 'विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च'। (10। 18) में एक ही साथ योग और विभूति शब्द आए हैं। इसके सिवाय सोलहवें में भी कई बार विभूति शब्द आया है। इन दोनों में विभूति का अर्थ तो 'बहुत रूप हो जाना या बन जाना' साफ ही है। जो कुछ कहा गया है उससे भी साफ हो जाता है। मगर उसी के साथ जो योग है उसका स्पष्टीकरण इस अध्‍याय में कहीं नहीं मिलता। अंत के 40-41 श्लोकों में भी कई बार विभूति शब्द ही आया है, न कि योग। इससे यही मालूम होता है कि इस अध्‍याय में विभूतियों का ही वर्णन है, विस्तार है। इसीलिए तो इसे विभूतियोग नामक अध्‍याय कहते हैं; जैसा कि औरों को ज्ञान-विज्ञानयोग आदि नाम दिए गए हैं।

तब प्रश्न होता है कि यहाँ योग का अर्थ आखिर है क्या? योग शब्द जिन अर्थों में गीता में बार-बार आया है वह तो इसका अर्थ है नहीं। इसके तो ज्यादे से ज्यादा चमत्कार, करिश्मा, ऐश्वर्य आदि ही अर्थ किए जा सकते हैं। मगर तब क्या विभूति से काम नहीं चल जाता कि इसकी भी जरूरत हुई? यह प्रश्न उठता है। आखिर विभूति भी तो चमत्कार या करिश्मा ही है। जादूगर जब नई-नई चीजें बताता है तो उसे करिश्मा ही तो कहते हैं।

असल में दसवें और ग्यारहवें अध्‍यायों में यों ऊपर से देखने से दो जुदी बातों का वर्णन मालूम होने पर भी इनके विषय को एक ही मान के उसे दो भागों में केवल बाँटा गया है। इनमें पहला है 'कह सुनाऊँ' वाला और दूसरा 'कर दिखाऊँ' का। दोनों को एक ही समझने के लिए ही यहीं पर एक ही साथ विभूति और योग शब्द शुरू में ही कहे गए हैं। यही कारण है कि विभूति के खत्म होते ही, 'कह सुनाऊँ' के पूरा होते ही अर्जुन ने ग्यारहवें में चट-पट 'कर दिखाऊँ' के बारे में प्रश्न कर दिया है और जरा भी देर न की है। कृष्ण के भी 'कर दिखाने' का उसके नौवें श्लोक से शुरू करने के ठीक पहले आठवें के अंत में 'दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्' में योग आ गया है। जो कुछ दिखाया गया है उसे ही वहाँ ईश्वरीय योग कहा है। इससे स्पष्ट है कि विश्व रूप का दिखाना ही योग है। दिखाने के भीतर ही देखना भी आ जाता है। इसीलिए विश्वरूप दर्शन में दर्शन का अर्थ देखना-दिखाना दोनों ही है। अतएव दसवें के 'न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं' (10। 2) में जो प्रभव शब्द है उसका अर्थ प्रभुता या ऐश्वर्य करके उसके भीतर विभूति और योग दोनों को ही समझना होगा। कृष्ण के कहने का अभिप्राय यही है कि मैं किस प्रकार इस विश्वप्रपंच को बनाता और फैलाता हूँ इसे देवता, महर्षि आदि कोई भी ठीक-ठीक नहीं जानते, नहीं जान सकते। जानें भी कैसे? यदि उस समय होते तब न? इन्हें तो मैंने ही उसी सिलसिले में पीछे से बताया है। इस प्रभव शब्द का अर्थ उत्पत्ति या उत्पत्तिस्थान आदि करना उचित नहीं है। उसमें वह मजा नहीं आता जो हमारे बताए अर्थ में है।

श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:।

त्ते ऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥ 1

श्रीभगवान बोले - हे महाबाहो, मेरी और भी (एक) बड़ी बात सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हित के खयाल से तुम्हें (केवल) इसीलिए कहूँगा कि तुम्हें मजा आ रहा है। 1।

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।

अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥ 2

मैं विश्वप्रपंच कैसे फैलाता हूँ इसे न तो देवगण जानते हैं और न महर्षि लोग ही। क्योंकि मैं ही तो सभी देवताओं और महर्षियों का बनाने वाला ठहरा। 2।

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।

असम्मूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ 3

मनुष्यों में जो (बिरला ही) पूर्ण जानकार होता है वही मुझ अजन्मा, अनादि और सभी प्रपंच के बनाने-चलाने वाले को अच्छी तरह जानता है (और इसीलिए) सभी पापों से छुटकारा (भी) पाता है। 3।

बुद्धि र्ज्ञानम सम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।

सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥ 4

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश:।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा : 5

विवेकशक्ति, विवेक, मोह का संसर्ग कतई न होना, क्षमा, सत्य, इंद्रियों पर काबू, मन पर काबू, सुख, दु:ख, पदार्थों का होना, न होना, भय, अभय, अहिंसा, सब में समबुद्धि या सबके साथ समानता का व्यवहार, संतोष, तप, दान, यश, अपयश (आदि) ये सभी विभिन्न पदार्थ मैं ही पैदा करता हूँ। 4। 5।

जिन बीस पदार्थों को प्रधानतया इन दो श्लोकों में गिनाया है उनका इस प्रसंग में इतना ही उपयोग है कि आत्मसाक्षात्कार या दिव्य-दृष्टि प्राप्त करने और तदनुकूल ही दूसरों को उपदेश करने के लिए ये जरूरी हैं। इनके बिना वह नजर और वह दृष्टि एक तो मिली नहीं सकती। मिलने पर भी दूसरों को इन्हीं के अनुकूल पथदर्शन में किसी की प्रवृत्ति होई नहीं सकती, जब तक ये गुण उसमें पूर्णरूप से आ न गए हों। जिसे सुख-दु:ख का कटु अनुभव न हुआ हो, जो क्षमाशील न हो, जिसने भय-अभय की खूबियाँ और कारनामे कभी देखे ही नहीं, वह क्या लोकसंग्रह करेगा? यही चीजें और ऐसी ही दूसरी भी उसे उस ओर जबर्दस्ती लगाती हैं, उसके दिल को पिघला देती हैं।

महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा:प्रजा:॥ 6

सबसे पूर्व या सृष्टि के आरंभ के सात महर्षि और चार मनु - ये सभी - मुझी से मेरे मन के संकल्प से ही पैदा हुए थे, जिनने दुनिया में ये प्रजाएँ पैदा कीं - यह जनता पैदा की। 6।

इस श्लोक में जो 'पूर्वे' शब्द है वह 'महर्षय: सप्त' और 'चत्वारो मनव:' के बीच में आने के कारण दोनों ओर जुटता है। "लोभ: प्रवृत्तिरारंभ: कर्मणामशम: स्पृहा" (14। 12) में 'कर्मणां' का भी वही हाल है। वह 'आरंभ:' और 'अशम:' दोनों से ही जुटता है। इसी को देहलीदीपकन्याय कहते हैं। बीच द्वार में जो दीपक रहता है वह बाहर-भीतर दोनों ही तरफ उजाला करता है। वही बात यहाँ भी है। इस तरह इसका अर्थ यह हो जाता है कि पूर्व के, शुरू के या यों कहिए कि सृष्टि के आरंभ के सप्त महर्षि या सप्तर्षि और शुरू के ही चार मनु, ये ग्यारह भगवान के मानसपुत्र हैं, मन के संकल्प से ही उत्पन्न हुए लोग हैं। इसीलिए इन्हें भगवान के प्रतिनिधि मान के इनके द्वारा हुए सृष्टिविस्तार को भगवान का ही विस्तार, उसी की विभूति मानते हैं। 'मद्भावा:' शब्द का यही अर्थ है कि ये लोग मेरे ही स्वरूप हैं। अत: मेरी जगह पर ही काम करते हैं। आखिर समूची सृष्टि का विस्तार खुद भगवान अकेले तो कर सकते नहीं। इसीलिए उनने अपने सहायक पैदा किए। पैदा करना भी क्या था? उनने मन में खयाल किया और ये आ हाजिर हुए। मानसपुत्र का यही मतलब है।

असल में प्रत्येक कल्प या सृष्टि में चौदह मनु माने जाते हैं जिन्हें मन्वंतर भी कहते हैं। हरेक मनु के शासनकाल और काम के समय को ही अंतर या पहले और दूसरे के बीच का समय कहने के कारण हरेक को मन्वंतर कहा गया। यही है पौराणिक कल्पना। इसी के साथ यह भी बात है कि हरेक मनु या मन्वंतर के लिए भिन्न-भिन्न सप्तर्षि लोग पुराणों में गिनाए गए हैं। मगर गीता ने न तो चौदह मनुओं को ही माना है और न सब मिला के पूरे 98 महर्षियों या सप्तर्षियों को ही। गीता की रचना के समय तक इस कल्पना का यह विस्तार हो पाया न था, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए इसका नाम उसने न लिया। मालूम होता है तब तक केवल चार ही मनुओं और सात ही महर्षियों की कल्पना हो पाई थी। इसीलिए उसने इन्हीं दो को लिखा। यदि पीछे और भी हों तो गीता को उनसे मतलब भी क्या हो सकता है? सृष्टि के शुरू में उसका विस्तार कैसे हुआ यही बात बतानी है। क्योंकि जोई सुने वही समझदार पूछ सकता है कि अकेले भगवान ने भला यह सब कुछ कैसे बना डाला? इसलिए बनी-बनाई सभी चीजों और सभी पदार्थों के वर्णन के पहले ही कृष्ण ने ऐसा कह दिया जिससे किसी को शंका के लिए जगह रही नहीं जाती। ऐसी दशा में पीछे बने मनुओं या ऋषियों से गीता को प्रयोजन ही क्या? उनने सृष्टि के प्रारंभिक विस्तार में मदद तो दी न थी।

अब प्रश्न होता है कि ये कौन से चार मनु और सात महर्षि थे? क्योंकि गीता में तो उनका नाम है नहीं। इसलिए खामख्वाह जिज्ञासा होती ही है। खासकर चौदह मनुओं और 98 महर्षियों की बात इधर चालू हो जाने के कारण यह उत्कंठा और भी बढ़ जाती है कि आखिर ये सात ही ऋषि और चार ही मनु कौन से हैं।

इसके उत्तर में हमें गीताकालीन या उससे पूर्व प्रचलित साहित्य से ही सहायता मिल सकती है और वह साहित्य है ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रंथों, निरुक्त और बृहदारण्यक आदि उपनिषदों का ही। शेष साहित्य तो पीछे का ही माना जाता है। अब यदि देखें तो बृहदारण्यक में गोतम या गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप और अत्रि इन सात का उल्लेख यों मिलता है, 'इमावेव गोतमभरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव विश्वामित्र जमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेवं वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रि:' (2। 2। 4)। इसी के पहले 'तस्यासत ऋषय: सप्ततीरे' यह मंत्र का प्रतीक लिख के उसी का व्याख्यान इस ब्राह्मण में किया गया है। क्योंकि उपनिषद् तो ब्राह्मण-ग्रंथ का ही एक भाग है। इससे स्पष्ट है कि उस मंत्र में भी इन्हीं सात महर्षियों का उल्लेख है। इसी प्रकार यदि वेदों के सूक्तों या उन मंत्र-समूहों को, जिनमें एक-एक विषय का प्रतिपादन है, देखें तो पता चलता है कि उनके कर्त्ता या ऋषि प्राय: यही सात महर्षि पाए जाते हैं क्योंकि हरेक मंत्र के ऋषियों को पहले से ही लोगों ने लिख रखा है।

इसी तरह जब मनुओं के संबंध में जाँच-पड़ताल करते हैं तो पता चलता है ऋग्वेद के आठवें मंडल के 51, 52 तथा दसवें के 62 सूक्तों में कई बार वैवस्वत, सावर्णि एवं सावर्ण्य नामक तीन मनुओं का उल्लेख पाया जाता है। दृष्टांत के लिए 51-52 सूक्त के पहले मंत्रों को देखें। वे यों हैं 'यथा मनौ सावरणौ सोममिन्द्रापिब: सुतम्। नीपातिथौ मघवन्मेधातिथौ पुष्टिगो श्रुष्टिगौ तथा', 'यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिब: सुतम्। यथात्रितेच्छन् इंद्र जुजोष स्यायौ मादयसे स च'। इसी तरह दसवें मंडल के 62वें सूक्त में सावर्णि तथा सावर्ण्य का उल्लेख है। इसका सावरणि और उसका सावर्णि ये दोनों एक ही हैं। इसी तरह निरुक्त के 'मनु: स्वायंभुवोऽब्रवीत्' (3। 1। 5) में स्वायंभुव मनु का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार वैवस्वत, सावर्णि, सावर्ण्य और स्वायंभुव यही चार मनु गीता में माने गए हैं। हमारे जानते यही प्रामाणिक और उचित बात भी है और गीता के इस श्लोक का यही अर्थ मुनासिब भी है।

मगर कुछ लोगों ने, जो इस बात का बहुत बड़ा दावा करते हैं कि उनके अर्थ में खींचातानी नहीं है, इस श्लोक का निराला ही अर्थ किया है। उनके दिमाग में यह बात बैठ चुकी थी कि गीता में भागवत या नारायणीय धर्म का ही प्रतिपादन है और वह भी ऐसा ही जैसा उसे वह समझते हैं। वह कहते हैं कि वह भागवतधर्म है तत्त्वज्ञानमूलक भक्ति प्रधान कर्मयोग। कर्मयोग का भी अर्थ वह यही करते हैं कि कर्मों का स्वरूपत: त्याग कभी नहीं करके उन्हें करते-करते ही मर जाना। वह केवल फलासक्ति का त्याग ही मानते हैं। वह इस श्लोक के पूर्वार्द्ध को तीन टुकड़ों में बाँटते हैं। वे हैं महर्षय: सप्त, पूर्वे चत्वार:, तथा मनव:। फिर इनके अर्थ यों करते हैं कि सात महर्षि, उनके पहले के चार और मनु। उनके कथन से मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु यही सात ऋषि हैं। इनका वर्णन महाभारत के शांतिपर्व के 335 और 340 अध्‍यायों में आया है। अब रहे इन महर्षियों से भी पहले के चार। उन्हें भागवतधर्म में चतर्व्यूह के नाम से पुकारते हैं और वे हैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध। इनकी उत्पत्ति का क्रम इन सप्तर्षियों से भी पहले माना गया है। इनका उल्लेख भी उसी प्रसंग में ही महाभारत में आया है। मनु शब्द से भी उनने सात मनु लिए हैं, जिनमें छ: तो गीता से पहले गुजर चुके थे और सातवाँ उसी समय गुजर रहा था। उनके नाम क्रमश: ये हैं - स्वायंभुव, स्वारोचिष, औत्तम या औत्तमी, तामस, रैवत, चाक्षुष और वैवस्वत। उस समय वैवस्वत ही गुजर रहा था। बाकी मनु तो गुजरे न थे और न वर्तमान ही थे; फिर उनका उल्लेख गीता क्यों करती? संक्षेप में उनका यही कथन है, उनकी यही दलील है। उनने यह भी लिख मारा है कि आने वाले ही मनुओं में सावर्णि है।

हमें कहना यही है कि केवल पौराणिक बातों के आधार पर गीता के श्लोक का अर्थ करना कभी उचित नहीं है, खासकर जबकि वे खुद मानते हैं कि गीता का समय बहुत पुराना और ब्राह्मणग्रंथों के समकालीन या उनके बाद का ही है। परंतु पौराणिक काल तो बहुत इधर का है। गीता के 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं' (10। 35) श्लोक के, जो इसी अध्‍याय का है, अर्थ में ही उनने ये सारी बातें स्वीकार की हैं। हम तो कही चुके हैं कि ऋग्वेद में ही सावर्णि का उल्लेख है और उसी को ये महाशय भावी मनु मानते हैं! बृहदारण्यक में लिखे और वेदों में भी माने गए सात महर्षियों को न मान के महाभारत या पुराणों के सात को मानने में भी हमें आश्चर्य ही होता है! क्या सचमुच ज्यादा माननीय ये पुराण आदि ही हैं? मगर वे भी तो ऐसा नहीं मानते। तब मनु और ऋषियों के ही बारे में ऐसा मानने में कौन-सा औचित्य है? इस तरह कहाँ-कहाँ से खींच-खाँच के पदार्थों को लाना, उन्हीं के बल पर श्लोक का अर्थ करना और फिर भी यह मानना कि यह खींचातानी नहीं है, कुछ अजीब-सी चीज हैं!

जरा और भी तो देखिए। अगर यही अर्थ करना है तो फिर केवल 'महर्षय:' कहने से भी यही सात लिए जाते, जैसे मनव: कहने से सात ही आपने माने हैं। और अगर 'मनव:' के साथ 'सप्त' विशेषण की जरूरत नहीं हुई तो महर्षय: के साथ भी क्या जरूरत थी? आखिर जिन पौराणिक वचनों के बल से यह अर्थ किया गया है वे तो कहीं चले जाते नहीं। वे तो 'सप्त' के रहने पर भी रहते और न रहने पर भी। फिर व्यर्थ ही उसके लिखने की क्या आवश्यकता थी। यह भी बात है कि जब सावर्णि, सावर्ण्य नाम दो मनुओं को भी हम पहले होने वाले ही बता चुके हैं; इसीलिए ऋग्वेद में उनका उल्लेख भी है, तो सात से ज्यादा तो होई गए। फिर सात मनु कहने की हिम्मत उनने कैसे की? केवल बहुवचनांत 'मनव:' पद से तो ज्यादा भी ले सकते हैं। कम से कम नौ तो लेना ही होगा। इसी तरह यदि 'महर्षय:' कहने से उनके बताए सात लिए जाएँ, तो बृहदारण्यक वाले सात तो जरूर ही लिए जाने चाहिए। फिर 'महर्षय:' का विशेषण यह 'सप्त' कैसे उचित होगा? इसी प्रकार चत्वार: का अर्थ यदि वासुदेव आदि चार ही हों, तो आगे जो यह कहा है कि वह मेरे मानव संकल्प से ही पैदा हुए 'मानसा जात:', वह कैसे युक्ति-युक्त होगा? वासुदेव के ही मानससंकल्प से स्वयमेव वासुदेव ही पैदा हों, यह कैसी बात? और इसकी जरूरत भी क्या थी? वासुदेव तो मौजूद थे ही। फलत: संकल्प के द्वारा केवल तीन को ही पैदा करते तो ठीक होता और काम भी चलता। वासुदेव तो कृष्ण को और भगवान को भी कहते ही हैं। गीता ने भी 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19) में यही कहा भी है। फिर वासुदेव ने ही अपने को भी क्यों और किसलिए नाहक पैदा किया? आखिर यह जादू या करिश्मे की बात न हो के सृष्टि का दार्शनिक विवेचन है न? फिर ये बेसिर-पैर की बातें कैसी?

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत:।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय:॥ 7

मेरी अभी कही जाने वाली इस विभूति और योग का जो ठीक साक्षात्कार कर लेता है उसे सुदृढ़ योग की प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय (जरा भी) नहीं है। 7।

यहाँ 'एतां विभूतिं' का अर्थ है कि जिस विभूति का वर्णन अभी होने वाला है। 'तत्त्वतो वेत्ति' का अर्थ तत्त्वज्ञान या आत्मरूपेण साक्षात्कार ही है। इसीलिए उत्तरार्द्ध के योग का अर्थ 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' (2। 48) वाला ही योग है। क्योंकि आत्मसाक्षात्कार के बाद वही योग प्राप्त होता और अचल रहता है। यहाँ इस कथन के दो अभिप्राय हैं। एक यह कि महर्षियों तथा मनुओं के अलावे भी जोई इसे जान जाए वही वैसा ही हो जाता है। दूसरा यह कि इसे जाने बिना काम चलने का नहीं। जो जानेगा वही पक्का योगी होगा। इसलिए इसे जानने का यत्न पूरा-पूरा होना चाहिए। इस तरह अर्जुन के दिमाग को इसके लिए तैयार किया गया है।

जो लोग समझते हैं कि भगवान बड़ा दयालु है; अतएव उसकी प्रार्थना वगैरह करने से वह कृपा करता और निस्तार करता है, वह भूलते हैं। यहाँ कृपा का प्रश्न हई नहीं। भगवान तो समस्त शक्तियों का सर्वप्रधान स्रोत है। वहीं से सारी चीजें चलती हैं, फैलती हैं, विराट या विश्वरूप के निरूपण और विभूतियों के विवेचन के भीतर यही आशय छिपा है। यह तो मालूम ही है कि जो सोते में जाएँगे, डुबकी लगाएँगे वह शीतल होंगे, स्नान करेंगे, पवित्र होंगे। इसमें सोते की दया-माया का कहाँ सवाल आता है? पके फलों से लदे पेड़ के पास जाने पर फल भी मिलेंगे और वृक्ष की कृपा की बात आएगी भी नहीं। यही है वास्तविक दृष्टि। इसी दृष्टि से हमें उधर जाना चाहिए, उधर बढ़ना होगा। आगे वाले चार श्लोक इसी का स्पष्टीकरण करते हैं।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्त्तते।

इति मत्वा भ जंते मां बुधा भावसमन्विता:॥ 8

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोध यंत : परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥ 9

मैं ही सभी चीजों का मूल स्रोत हूँ और मुझी से सभी चीजें बाहर जाती हैं, विवेकी लोग यही समझ के पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ मुझे भजते हैं। अपने चित्त और इंद्रियों को मुझी में लगा के परस्पर एक दूसरे को समझाते-बुझाते और निरंतर मेरी ही चर्चा करते हुए वे मुझमें ही रमते और संतुष्ट रहते हैं। 8। 9।

यहाँ प्राण का अर्थ इंद्रियाँ ही हैं। उपनिषदों में उन्हें भी प्राण कहा है। वायुरूपी प्राणों को कहीं भी रोकें। मगर आत्मा या परमात्मा में उन्हें कभी लगा नहीं सकते, यह मानी हुई बात है।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयांति ते॥ 10

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ 11

निरंतर मुझी में लगे (और) मुझे ही प्रेमपूर्वक भजने वाले उन लोगों को वह आत्मसाक्षात्कार रूपी बुद्धियोग प्राप्त करवा देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं। (यह यों होता है कि) उन्हीं पर अनुकंपा करके (तथा) उनकी आत्मा के रूप में ही विदित हो के उस प्रचंड ज्ञानदीप से उनके अज्ञान-मूलक हृदयांधकार को खत्म कर देता हूँ। 10-11।

बस, इतना कहना था कि अर्जुन का दिमाग साफ हो गया, उसमें चसक आ गई, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं और उसने सोचा कि कहीं यह स्वर्ण सुअवसर मेरी चुप्पी के ही करते हाथ से यों ही चला न जाए; इसलिए फौरन ही अपनी सफ़ाई देता हुआ और यह कहता हुआ कि आप ही यह बात अपने मुँह से ही कहें तभी इस विषय के साथ पूर्ण न्याय हो पाएगा।

अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवि त्रं परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥ 12

आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।

असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥ 13

अर्जुन कहने लगा - आप ही परब्रह्म, ज्योतियों की ज्योति और पवित्र से भी पवित्र हैं। आपको ही सभी ऋषि (तथा खासकर) देवर्षि नारद, असित, देवल (और) व्यास सनातन दिव्य पुरुष, आदि देव-देवताओं के भी देव-अजन्मा और सर्वव्यापी बताते हैं। आप स्वयं भी तो मुझसे यही कह रहे हैं। 12। 13।

सामान्यत: ऋषियों को कह के फिर नारद, असित, देवल और व्यास का खासतौर से नाम लेना यह सूचित करता है कि उन दिनों इनकी ही अधिक धाक थी और सभी लोग आमतौर से इन्हीं की बातें मानते थे। ऋषि के मानी हैं ज्ञानी या द्रष्टा - सूक्ष्मदर्शी। ऋषियों में भी जो मनुष्य माँ-बाप से जन्म न लेकर ब्रह्मा वगैरह के मानसपुत्र थे वही देवर्षि कहे जाते थे। ऋषि लोग ही उस जमाने के नेता, उपदेशक, कानून बनाने वाले (Lawgiver) और रहनुमा थे।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:॥ 14

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्य त्वं पुरुषोत्तम।

भूतभावन भूतेश देव देव जगत्पते॥ 15

हे केशव, आप जो कुछ मुझे बता रहे हैं मैं उसे सही मानता हूँ। भगवन, आपकी व्यक्ति - आपकी हस्ती - को ठीक-ठीक न तो देवता ही जानते हैं और न दानव लोग ही। हे पुरुषोत्तम, हे भूतभावन, हे भूतेश, हे देवदेव, हे जगत्पति आप खुद अपने आप ही अपने को जानते हैं। 14। 15।

यहाँ भूतभावन का अर्थ है पदार्थों को पालने तथा कायम रखने वाला। भूतेश का अर्थ है पदार्थों का शासक और नियामक। जैसे बोलचाल में कहते हैं कि आप की हस्ती, आपकी शख्सियत को कोई नहीं जानता, आपकी व्यक्ति को भला कौन जाने, आदि-आदि; ठीक वैसा ही यहाँ भी है।

यहाँ यह कहना, कि मैं आपकी सभी बातें सही मानता हूँ, इस बात की सफाई है कि पहले जैसा संदेह अब मेरे मन में रह नहीं गया, आप विश्वास रखें; फलत: आपका उपदेश जरा भी व्यर्थ न जाएगा।

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय:।

याभिर्विभूतिर्भिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥ 16

(इसलिए) आप अपनी सभी दिव्य विभूतियों को जरूर ही कह सुनाइए - उन्हीं विभूतियों को जिनके द्वारा सभी जगहों में व्याप्त हो के सर्वत्र मौजूद हैं। 16।

कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया॥ 17

हे योगिन, आपका किस प्रकार सदा चिंतन करते हुए (आपको) जान सकूँगा? और, भगवन (खासतौर से) किन-किन पदार्थों में आपका चिंतन किया जाना चाहिए? 17।

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन!

भूय: कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥ 18

हे जनार्दन, अपनी विभूति और योग - दोनों ही - को और भी विस्तार से कहिए। क्योंकि (आपके वचनरूपी) अमृत - मधुर वचनों - को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती है। 18।

अब श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि जरा भी देर करना ठीक नहीं। क्योंकि सब परिस्थिति बनी बनाई मौजूद है। इसलिए चटपट -

श्रीभगवानुवाच

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतय:।

प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥ 19

श्रीभगवान ने कहा - हे कुरुश्रेष्ठ, लो अभी-अभी अपनी प्रधान दिव्य विभूतियों को (संक्षेप में) तुम्हें सुनाए देता हूँ। (क्योंकि) मेरी (इन विभूतियों के) विस्तार का अंत हई नहीं। 19।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।

अहमादिश्च म ध्यं च भूतानामन्त एव च॥ 20

हे गुडाकेश, सब पदार्थों के भीतर - हृदय, अंत:करण या मर्म में - रहने वाली आत्मा मैं ही हूँ। पदार्थों का आदि, मध्य और अंत भी - उनका सब कुछ - मैं ही हूँ। 20।

आदित्यानामहं विष्‍णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥ 21

(बारह) सूर्यों में विष्णु नामक सूर्य मैं हूँ, सभी प्रकाशवान पदार्थों में किरण वाला सूर्य, (उनचास) पवनों में मरीचि नामक पवन और (रात में जगमगाने वाले) तारों में चंद्रमा मैं हूँ। 21।

पहले श्लोक में सामान्य वर्णन के बाद 21वें से चुनचुन के विशेष वर्णन शुरू हुआ है।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।

इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥ 22

वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ (और जीवधारियों में) चेतनता हूँ। 22।

रुद्राणां शंकरश्चास्मि वि त्ते शो यक्षरक्षसाम्।

वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्॥ 23

(ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ, यक्ष-राक्षसों में कुबेर (हूँ), (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ (और) चोटीवालों में सुमेरु (हूँ)। 23।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।

सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर:॥ 24

हे पार्थ, पुरोहितों में (सबके) मुखिया बृहस्पति मुझी को समझो। सेनापतियों में कार्त्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ। 24।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय:॥ 25

महर्षियों में भृगु (और) वाणी में एक अक्षर - ॐकार - मैं हूँ। यज्ञों में जपयज्ञ और न हिलने-डोलने वालों में हिमालय हूँ। 25।

अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।

गंधर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:॥ 26

सभी वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ नामक गंधर्व और सिद्धों में कपिल मुनि (मैं हूँ)। 26।

उच्चै श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥ 27

घोड़ों में (अमृत के साथ उत्पन्न) उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा मुझे समझो, बड़े हाथियों में ऐरावत - इंद्र का हाथी - और मनुष्यों में राजा (भी मुझे ही समझो)। 27।

आयुधानामहं वज्रं धे नूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि:॥ 28

हथियारों में वज्र (तथा) दुही जानेवालियों में कामधोनु हूँ। संतानोत्पादक काम मैं हूँ (और) सर्पों - रेंगनेवालों - में वासुकि नामक सर्प मैं हूँ। 28।

अनंतश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्॥ 29

नागों यानी दिव्य - विलक्षण - सर्पों में शेषनाग हूँ। (और) जलजंतुओं में वरुण। पितरों में अर्यमा नामक पितर और (लोगों को सुधारने के लिए) दंड करने वालों में यम हूँ। 29।

प्र ह्ला दश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥ 30

दैत्यों में प्रह्लाद और गिनने या हिसाब लगाने वालों में काल - समय - मैं हूँ। पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ। 30।

पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाहन्वी॥ 31

पवित्र करने, सुखाने या चलने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूँ। जलजंतुओं में मगर और सोतों में भागीरथी गंगा मैं हूँ। 31।

सर्गाणामादिरन्तश्च म ध् यं चैवाहमर्जुन।

अध्‍यात्‍मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्॥ 32

हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, मध्‍य और अंत मैं हूँ। (सभी) विद्याओं में अध्‍यात्‍म विद्या - आत्मज्ञानशास्त्र - (और) विवाद करने वालों में वाद मैं हूँ। 32।

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च।

अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख:॥ 33

अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व मैं हूँ। मैं ही अविनाशी काल हूँ (और) जगत को कायम रखने वाला सर्वव्यापी भी मैं हूँ। 33।

मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।

कीर्त्ति : श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृ ति: क्षमा॥ 34

सबको मारने वाली मौत और आगे होने - पैदा होने या प्रगति करनेवालों की उत्पत्ति तथा प्रगति मैं हूँ। स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा (भी मैं हूँ)। 34।

वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छंदसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:॥ 35

(अनेक प्रकार के) सामों में बृहत् नामक साम और छंदों में गायत्री हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष - अगहन - और ऋतुओं में वसंत हूँ। 35।

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि स त्त् वं सत्त्ववतामहम्॥ 36

छलने वालों में जुआ (और) तेजस्वियों में तेज हूँ। (विजयियों का) विजय, (उद्योगियों का) उद्योग (और) सात्त्विक पदार्थों का सत्त्वगुण मैं हूँ। 36।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पांडवानां धनंजय :
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना: कवि:॥ 37

वृष्णियों में कृष्ण (और) पांडवों में अर्जुन हूँ। मुनियों में व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य हूँ। 37।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥ 38

दूसरे को दबाने वालों में दंड हूँ (और) विजयेच्छुओं में नीति हूँ। गोपनीयों में मौन (और) ज्ञानियों में ज्ञान मैं हूँ। 38।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति बिना यत्यस्यानम्या भूतं चराचरम्॥ 39

हे अर्जुन, सभी पदार्थों का जो बीज है सो भी मैं ही हूँ। (क्योंकि) स्थावर और जंगम पदार्थों में ऐसा एक भी नहीं है जो मेरे बिना टिक सके। 39।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।

एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥ 40

हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का आर-पार नहीं है। यह तो मैंने विभूतियों का विस्तार (केवल) संक्षेप में (नमूने के तौर पर ही) कहा है। 40।

यद्यद्विभूतिमत्सत्तवं श्रीमदू र्ज्जि तमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसंभवम्॥ 41

(सबका निचोड़ यही है कि) जो-जो पदार्थ चमत्कार वाले, गुणवाले या शक्तिशाली हों उन-उनको मेरे ही तेज के अंश से ही बने मानो। 41।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत॥ 42

अथवा, हे अर्जुन, इस तरह बहुत बातें जानने से तुम्हारा क्या होगा? (तुम यही समझ लो कि) इस समूचे जगत को मैं अपने एक कोने में रखे हुए पड़ा हूँ। 42।

इस अध्‍याय के इधर के प्राय: 22 श्लोकों में ऐसी बातें आई हैं जिनके बारे में कुछ कह देना जरूरी है। 20वें में पदार्थों का आदि, मध्‍य, अंत कहा है और 32वें में सर्गों का। यहाँ सर्ग का अर्थ है सृष्टि। जितनी बार सृष्टि हुई है सभी से यहाँ मतलब है। इसीलिए अंत का अर्थ है प्रलय। मगर 20वें में एक ही सृष्टि के पदार्थों से तात्पर्य है। इसी प्रकार 25वें में महर्षि, 26वें में देवर्षि तथा 37वें में मुनि आए हैं। ऋषि कहते हैं द्रष्टा या ज्ञानी (seer) को। वैदिक मंत्रों के द्रष्टा और कर्त्ता ऋषि माने जाते हैं। मुनि कहते हैं मनन करने वालों को। दार्शनिक वाद-विवाद मुनियों का ही काम है। ऋषि लोग तो सत्य बातें कह देते हैं। वे न तो विवाद में ही पड़ते और न विशेष तर्क-दलील देते हैं। देवर्षि की बात कही जा चुकी है। सनक, सनंदन आदि देवर्षि ही माने जाते हैं। 29वें में संयमन का अर्थ है जीवों को सुधारने के लिए दंड करना। 38वें में दमन का अर्थ सुधार न हो के दबाना या मिटाना ही है। 25वें में जपयज्ञ को सब यज्ञों से श्रेष्ठ मान लिया है। तभी तो उसे भगवान का रूप बताया है। मगर 'श्रेयान्द्रव्य' (4। 33) में ज्ञानयज्ञ को ही उत्तम कहा है। असल में ज्ञान वैसा यज्ञ नहीं है जैसे अन्य यज्ञ। आमतौर से यज्ञ-व्यवहार होता है औरों में ही, न कि ज्ञान में। बेशक सद्ग्रंथों का पाठ वगैरह ज्ञानयज्ञ है और है यह अन्य यज्ञों जैसा ही। ऐसे ज्ञानयज्ञ से भी जपयज्ञ तो उत्तम हई। जप तो मानसिक भी होता है। वह बिना मन की एकाग्रता के हो सकता भी नहीं। इस प्रकार ध्‍यान या समाधि भी जपयज्ञ में आ जाती है। इसीलिए 'ॐ मित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्' (8। 13) वाली बात समाधि में ही आई है। यह भी बात है कि 'श्रेयान्द्रव्य' (4। 33) में सिर्फ द्रव्ययज्ञों से ही ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बताया है। मगर यहाँ तो सभी यज्ञों से जपयज्ञ को उत्तम कहा है।

पवन का उल्लेख 31वें में है और राम का भी। क्रिया से शुद्धि होती है। अग्नि, वायु, जल या मिट्टी से ही शुद्धि होती है और ये सभी क्रियाशील हैं। इसीलिए शोधकों या क्रियाशीलों में वायु की प्रधानता मानी गई है। इसी तरह राम का अर्थ दशरथपुत्र ही है, न कि परशुराम। यह ठीक है कि प्रसिद्ध शस्त्रधारी परशुराम ही माने जाते हैं। मगर उन्हें भीष्म ने पछाड़ा था। दशरथपुत्र राम से भी वह हारे थे। शस्त्रधारण क्षत्रियों का ही काम है भी। इसीलिए दशरथपुत्र राम को ही यहाँ लेना ठीक है। उस समय यह काम ब्राह्मणों के लिए उचित नहीं माना जाता था, यह भी इससे सिद्ध हो जाता है।

वेदों में सामवेद की प्रधानता की बात 22वें में और 35वें में बृहत्साम की बात है। यह ठीक है कि ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। मगर साम तो गान है। मालूम होता है यह ज्ञान उस समय ज्यादा प्रचलित था। इसीलिए सामगान के यज्ञायज्ञी, बृहत, रथंतर आदि अनेक प्रकारों का भी उल्लेख इशारे से करके उन सबों में बृहत्साम को ही श्रेष्ठ माना है। साम की ही प्रसिद्धि उस समय थी, यही इससे सिद्ध होता है।

हाँ यहाँ जो 'तेजस्तेजस्विनामहम्' (10। 36) कहा है वही सातवें अध्‍याय (7। 10) में भी ज्यों का त्यों आया है। वहाँ का प्रसंग देखने से पता चलता है कि वह लड़ने-भिड़ने वाला तेज नहीं है। क्योंकि लड़ने में काम तथा राग होते ही हैं और वहाँ इसी की रोक है। फलत: ब्रह्मतेज या ब्रह्मवर्चस आदि से ही वहाँ मतलब है। क्षत्रियादि में भी यह तेज होता ही है। हाँ, यहाँ लड़ने-भिड़ने वाले ही तेज से तात्पर्य है, पूर्वापर से यही पता लगता है।

34वें में जो कीर्त्ति आदि को स्‍त्री कहा है उससे पता चलता है कि कभी ये आदर्श स्त्रियाँ ही थीं जिन्हें आज निर्गुण के रूप में ही माना जाता है। पुराणों में ये दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ मानी गई हैं। चाहे जो हो, पहले ये आदर्श स्त्रियाँ अवश्य थीं। इससे यह भी इशारा है कि साधारण स्‍त्री-समाज उस समय ऊँचा न था। यही कारण है कि 'स्त्रियो वैश्या' (9। 32) में आमतौर से स्त्रियों को नीच कहा है।

33वें में द्वन्द्वसमास को ही औरों से अच्छा कह दिया है। इसमें जितने पद मिले होते हैं सभी के अर्थ प्रधान होते हैं। अन्य समासों की तरह कोई किसी का विशेषण या अप्रधान नहीं होता है। शायद इसी से उसे पसंद किया हो। या इसका नया-नया अंवेषण होने से उस समय यही ज्यादा प्रसिद्ध रहा हो, कौन कहे? यह ठीक है कि द्वन्द्व तो दुनिया का नियम है और इसे सहर्ष स्वीकार करने वाले ही प्रगति करते हैं। संभवत: यहाँ यही आशय हो भी।

30वें में गिननेवालों में काल या समय को बड़ा माना है। वैसी गिनती और हिसाब सचमुच कोई नहीं कर पाता। आप सोए रहें या जगे। उसका हिसाब ठीक चलता रहता है। वह हिसाब पूरा होते ही पदार्थों का पकना, तैयार होना, सूखना, खत्म होना वगैरह होता रहता है। यह काम क्षणभर भी नहीं रुकता। मगर 33वें में जो अक्षय काल की बात कही गई है वह पहले की तरह किसी की अपेक्षावाला काल नहीं है। यहाँ तो स्वतंत्र रूप से काल को भगवान का रूप ही माना है।

36वें में जो व्यवसाय और सत्त्व की बात है उसमें व्यवसाय का अर्थ है दृढ़ निश्चय तथा तन्मूलक उद्योग। इसी प्रकार सत्त्व का अर्थ सत्त्व गुण भी है और तन्मूलक बल भी। यह बल लड़ने वालों का ही है, न कि सातवें की तरह काम राग-शून्य।

यहाँ उपसंहार में 'यच्चापि सर्व' (10। 39) में जो कुछ कहा है सातवें में 'बीजं मां' (7। 10) में भी वही है। ठीक ही है। उपसंहार तो सर्वत्र एक ही होगा न?

'मासानां मार्गशीर्ष:' (10। 35) में जो मार्गशीर्ष को और महीनों से श्रेष्ठ कहा है उसकी बड़ी महत्ता है। इससे अंवेषण करने वालों ने यह अर्थ निकाला है कि उस समय या उसके पूर्व साल का आरंभ मार्गशीर्ष से ही होता था। जैसे आज वर्ष के आरंभ के बारे में चैत्र की स्मृति बनी है और रंग, होली आदि के द्वारा उसे याद करते हैं। बंगाली लोग वैशाख की ही स्मृति महीने भर गा-बजा के जगाते हैं। मेष की संक्रांति की स्मृति तो सभी हिंदू मानते हैं। वही बंगला का वैशाख है। असल में यह विषय गहन है। हरेक महीनों के नाम नक्षत्रों के नामों से ही बने हैं। पाणिनीय व्याकरण का 'सास्मिन्पौर्णमासीति' (4। 2। 21) सूत्र भी यही कहता है। इसके सिवाय साल के ही नाम समा वर्ष, शरद आदि भी हैं। जब दिन रात सम या बराबर होते होंगे तभी किसी समय वर्ष का आरंभ होता होगा। इसी प्रकार वर्षा के श्रीगणेश के समय या शरद ऋतु में भी कभी शुरू होता होगा। मगर यह स्वतंत्र विषय भविष्य के लिए रहे।

41वें श्लोक में 'विभूति मत' शब्द आने से विभूति के मानी केवल पदार्थ न हो के चमत्कार-युक्त पदार्थ है। इसलिए विभूति में भी योग आ जाता है। मगर वास्तविक योग आगे है। आगे ग्यारहवें अध्‍याय के 47वें श्लोक में विराट रूप दिखा के कहेंगे भी कि मैंने अपने योग से, 'आत्मयोगात्', इसे दिखाया है।

इति. विभूतियोगो नाम दशमोऽध्याय:॥ 10

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका विभूतियोग नामक दसवाँ अध्‍याय यही है।

ग्यारहवाँ अध्‍याय

अर्जुन ने दसवें अध्‍याय में जो विराट रूप का विस्तृत विवरण सुना उससे उन्हें ऐसी आतुरता हुई कि उसे जल्द से जल्द आँखों से देखने को लालायित हो उठे। चुन-चुन के प्राय: सभी पदार्थों को भगवान का रूप बताना तो केवल कहने की एक रीति है। चमत्कार-युक्त पदार्थों पर ही तो पहले दृष्टि जाती है और एक बार जब उन्हें परमात्मा का रूप मान लिया, जब एक बार उनमें वह भावना हो गई, तब तो आसानी से सभी में वही भावना हो सकती है। कहने का कौशल यही है कि इस बुद्धिमत्ता से बातें बताएँ कि कुछी बातें कहने से काम चल जाए और सुनने वाला बाकियों को खुद-ब-खुद समझ जाए। कहते हैं कि किसी ने दूसरे से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है? उत्तर मिला कि तिनकौड़ी। फिर प्रश्न हुआ कि बाप का? जवाब मिला छकौड़ी। इसके बाद तो पूछने वाले ने स्वयमेव कह दिया कि बस, ज्यादा कहने का काम नहीं। अब तो मैं खुद तुम्हारे सभी पुरुषों तक के नाम जान गया। क्योंकि इसी प्रकार दूना करता चला जाऊँगा। ठीक वही बात यहाँ भी हुई है। जब सिंह को भगवान मान लिया, तो शेष पशुओं को भगवान से अलग मानने के लिए कोई दार्शनिक युक्ति रही नहीं जाती। सभी तो एक से हाड़-मांसवाले हैं। यही बात अन्य पदार्थों में भी लागू है। इस प्रकार चुने-चुनाए पदार्थों के नाम लेने से ही सबों का काम हो गया। यह भी बात है कि आखिर जब आँखों से प्रत्यक्ष देखने का मौका आए तो सबों को जुदा-जुदा देखना असंभव भी है। थोड़े से चुने पदार्थों को ही देखते-देखते तो परेशानी हो जाएगी। लाखों तरह के पदार्थ जो ठहरे। इसलिए नमूने के रूप में जिन्हें दसवें में गिनाया है ग्यारहवें में उन्हीं को देखने में आसानी होगी, मजा भी आयगा और बात दिल में बैठ भी जाएगी कि ठीक ही तो कहते हैं। जैसा कहा वैसा ही देखते भी तो हैं। जरा भी तो फर्क है नहीं। नहीं तो सबों का देखना असंभव होने से नाहक की परेशानी (Confusion) हो जाती और काम भी वैसा नहीं बनता।

इसीलिए आगे अर्जुन ने स्वयमेव कह दिया है कि भगवन, आप जो कहते हैं वह अक्षरश: सही है। इसमें शक-शुभे की गुंजाइश है नहीं। हाँ, कमी यही रह गई है कि जरा इन्हें आँखों देख नहीं लिया है। तो क्या देख सकता हूँ? यदि हाँ, तो बड़ी कृपा हो, अगर आप दिखा दें। इस कथन से और चटपट प्रश्न कर देने से भी उनकी आतुरता का पता चल जाता है। जो देखा नहीं, सुना है, उसको देख लेना ही काफी है, यही उनका आशय है। इससे अब तक के मन की पुष्टि हो के निदिध्‍यासन में प्रत्यक्ष सहायता भी हो जाएगी। फिर तो स्वतंत्र रूप से युद्ध के बाद अर्जुन यही काम कर सकेंगे। ग्यारहवें अध्‍याय के पढ़ने से पता चलता है कि कोई विशेषज्ञ अपनी प्रयोगशाला (laboratory) में बैठ के उन्हीं बताई बातों का प्रयोग (experiment) शिष्यों के सामने कर रहा है। ताकि उन्हें वे बखूबी हृदयंगम कर लें, जिन्हें अब तक समझाता रहा है। अर्जुन को शक था कि भला ये चीजें देख सकेंगे कैसे? इसीलिए उसने कहा भी। जनसाधारण भी तो यही मानते हैं कि भला कहीं दो हवाओं - ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन - के सम्मिश्रण से ही पानी बन सकता है। मगर प्रयोगशाले में जब उनकी आँखों के सामने विलक्षण आला और यंत्र लगा के प्रत्यक्ष दिखाया जाता है तब मान जाते और आश्चर्य में डूब जाते हैं। अर्जुन की भी वही दशा हुई। आश्चर्यचकित होने के साथ ही वह घबराया भी। क्योंकि यहाँ भयंकर और बीभत्स दृश्य भी सामने आ गए जो दिल दहलाने वाले थे 'दिव्यं ददामि ते चक्षु:', 'न तु मां शक्य से' (11। 8) के द्वारा कृष्ण ने दिखाने के पहले अर्जुन को दिव्य दृष्टि क्या दी, मानो कोई विलक्षण आला या यंत्र आँखों पर लगा दिया।

हाँ, तो देखने की ही आतुरता से चटपट -

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यम ध्या त्मसंज्ञितम्।

त्त्व योक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥ 1

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

त्वत्त: कमलप त्रा क्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥ 2

अर्जुन बोल उठा - मेरे ऊपर दया करके आपने अध्‍यात्‍म नामक जो परम गोपनीय बात कही है उससे मेरा यह मोह तो खत्म हो गया। हे कमलनयन, मैंने आपके मुख से पदार्थों के उत्पत्ति-प्रलय विस्तार के साथ सुने और आपका विकारशून्य माहात्म्य भी (सुन लिया)। 1। 2।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥ 3

मन्य से यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥ 4

हे परमेश्वर, हे पुरुषोत्तम, जैसा आप कहते हैं वह तो ठीक ही है। (अब केवल) मैं आपका वह ईश्वरीय रूप देख लेना चाहता हूँ। प्रभो, यदि आप ऐसा मानते हों कि मैं उसे देख सकता हूँ तो, हे योगेश्वर, अपना अविनाशी रूप मुझे दिखाइए। 3। 4।

यहाँ प्रसंग से एक बात कह देनी है। अब तो अर्जुन ने मान लिया कि कृष्ण का जो कुछ भी अपने बारे में कहना है वह अक्षरश: सही है, उसमें जरा भी शक नहीं है। और कृष्ण ने अपने अवतार की बात के साथ ही यह भी तो कही दिया है मुझे मनुष्य शरीरधारी समझ जो लोग मेरा तिरस्कार करते हैं वह बिगड़े दिमागवाले बदबख्त लोग ही हैं। इतना ही नहीं। 'यद्यदारचित श्रेष्ठ:' (321-26) आदि श्लोकों में उनने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मैं स्वयमेव सभी कर्म इसीलिए करता हूँ कि मेरी देखादेखी जनसाधारण भी ऐसा ही करें। नहीं तो यदि मैं उलटा करूँ तो वह भी वैसा ही करेंगे। क्योंकि उनके पास समझ तो होती नहीं कि तर्क-दलील करके अपने फ़ायदे की बातें करें। वे तो आँख मूँद के यही सोचते हैं कि जब खुद कृष्ण ही ऐसा करते हैं तो हम क्यों न करें? यह जरूर ही अच्छा काम होगा। नतीजा यह होगा कि मेरे चलते सारी दुनिया चौपट हो जाएगी।

इससे गोपियों के साथ रासलीला वाली बात बिलकुल ही बेबुनियाद और निराधार सिद्ध हो जाती है। भला, जो महापुरुष औरों के बारे में और अपने बारे में भी इतनी सख्ती से बातें करे कि लोगों को जरा भी विपथगामी होने का मौका हमें अपने आचरणों के द्वारा नहीं देना चाहिए, वही ऐसा जघन्य और कुत्सित कार्य कभी करेगा, यह दिमाग में भी आने की बात है क्या? जो लोग ऐसी वाहियात बातों के समर्थन में लचर दलीलें पेश किया करते हैं उन्हें गीता के इन वचनों को जरा गौर से पढ़ना और इनके अर्थ को समझना चाहिए। तब कहीं बोलने की हिम्मत करनी चाहिए। हमने जो इन श्लोकों में स्पष्टीकरण में बहुत कुछ लिखा है उससे उनकी भी आँखें खुल जाएँगी, यह आशा कर सकते हैं। गोपियाँ वेद की ऋचाएँ थीं, अनन्य भक्त थीं आदि-आदि जो कल्पनाएँ की जाती हैं और इस तरह बाल की खाल खींची जाती है उससे पहले यह क्यों नहीं सोचा जाता है कि इतनी गहरी और बारीक बातें क्या जनसाधारण समझ सकते हैं? और अगर यही बात होती तो फिर यह कहने की क्या जरूरत थी कि वे तो हमारी देखादेखी ही करेंगे और चौपट हो जाएँगे? तब तो कृष्ण चाहे जो भी करते। फिर भी लोग कभी पथ-भ्रष्ट होते ही नहीं।

बस अर्जुन का यह कहना था और कृष्ण ने अपना नाटक फौरन ही फैला ही तो दिया। वे तो पहले से ही इसके लिए तैयार बैठे थे कि आखिरी काम यही करना होगा। उनके जैसा विज्ञ सूक्ष्मदर्शी भला ऐसा समझे क्यों नहीं? इसीलिए -

श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥ 5

श्रीभगवान कहने लगे - हे पार्थ, मेरे सैकड़ों (और) हजारों तरह के बहुरंगी, अनेक आकारवाले दिव्य रूपों को देख लो। 5।

अर्जुन पीछे कहीं घबरा न जाए, इसीलिए उसे पहले ही सजग कर देते हैं कि अजीब चीजें देखने को मिलेंगी, जो कभी दिमाग में भी नहीं आई होंगी।

पश्यादित्यान्वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥ 6

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि॥ 7

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।

दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥ 8

हे भारत, (द्वादश) आदित्यों, (आठ) वसुओं, (एकादश) रुद्रों, दोनों अश्विनी कुमारों, (तथा उनचास) मरुतों को देख लो (और) पहले कभी न देखे बहुतेरे आश्चर्य-जनक पदार्थ भी देख लो। हे गुडाकेश, आज यहीं पर मेरे शरीर में ही चराचर जगत को एक ही जगह देख लो और जो कुछ और भी देखना चाहते हो (सो भी देख लो)। लेकिन अपनी इन्हीं आँखों से तो मुझे (उस तरह) देख सकते नहीं। (अत:) तुम्हें दिव्यदृष्टि दिए देता हूँ। (फिर बेखटके) मेरा ईश्वरी योग या करिश्मा देख लो। 6। 7। 8।

यहाँ सातवें श्लोक में जो यह कहा है कि और भी जो कुछ देखना चाहते हो देख लो, 'यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि', उसका मतलब यही मालूम पड़ता है कि अर्जुन ने जो शुरू में ही कहा था कि यह भी तो निश्चय नहीं कि हमीं जीतेंगे या वही लोग, उसको कृष्ण भूले नहीं हैं और इशारे से ही कह देते हैं कि यह भी अपनी आँखों देख लो कि कौन जीतेगा। सचमुच आगे जो यह दिखाई पड़ा कि भीष्मादि सभी भगवान के मुँह में घुसे जा रहे हैं वह तो नई बात ही थी न? उसकी तो अब तक चर्चा भी नहीं हुई थी। वह बात अर्जुन के मन में थी जरूर। इसीलिए तो उसने शक जाहिर किया था। ताहम उसकी खुली चर्चा हुई न थी। फिर भी देखने को वह भी मिली। पूछने पर कृष्ण ने आगे कहा भी कि सबों का संहार करने चला हूँ।

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरि:।

दर्शयामास पर्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥ 9

संजय ने (धृतराष्ट्र से) कहा - हे राजन् महायोगेश्वर कृष्ण ने ऐसा कह के चटपट अर्जुन को (अपना इस तरह का) विलक्षण ईश्वरीय रूप दिखा ही तो दिया। 9।

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥ 10

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगं धा नुलेपनम्।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्॥ 11

उस रूप में बहुत ज्यादा मुँह और आँखें हैं, बहुतेरी निराली दर्शनीय बातें हैं, बहुत से दिव्य अलंकार हैं, अनेक प्रकार के दिव्य (एवं) सजे-सजाए हथियार हैं, दिव्य मालाएँ (तथा) वस्त्र सजे हैं, दिव्य सुगंधित पदार्थों का लेप लगा है। वह सब तरह से आश्चर्यमय, दिव्य, अनंत और विश्व-व्यापक है। 10। 11।

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।

यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन:॥ 12

अगर एक ही साथ आकाश में हजार सूर्य निकल पड़ें तो उनका जो प्रकाश हो वही (शायद) उस महात्मा की प्रभा के जैसा हो सकता है। 12।

त्रै कस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।

अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तदा॥ 13

वहाँ उस समय देवताओं के भी देवता कृष्ण के शरीर में अर्जुन को एक ही जगह समूचा संसार अनेक रूप में विभक्त दिखाई पड़ा। 13।

तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजय :

प्रणम्य शिरसा देवं कृतांजलिरभाषत॥ 14

अब तो धनंजय - अर्जुन - के रोंगटे खड़े हो गए (और) वह आश्चर्य में डूब गया। (फिर) सिर झुका भगवान को प्रमाण करके हाथ जोड़े हुए कहने लगा। 14।

अर्जुन उवाच

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान्।

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥ 15

अर्जुन कहने लगा - हे देव, आपके देह के भीतर सभी देवताओं को, विभिन्न पदार्थों के संघों को, कमल के आसन पर बैठे सबों के शासक ब्रह्मा को, सभी ऋषियों को और अलौकिक सर्पों को देख रहा हूँ। 15।

अनेकबाहूदरवक्त्रने त्रं प श्यामि त्वां सर्वतोऽनंतरूपम्।

नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥ 16

आपके अनेक बाहु, पेट, मुँह (एवं) आँखों से युक्त अनंतरूप को ही चारों ओर देख रहा हूँ। हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, न तो आपका अंत, न आदि और न मध्‍य ही देख पाता हूँ। 16।

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।

पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥ 17

मुकुट, गदा और चक्र धारण किए, तेज की राशि, चारों ओर प्रकाश फैलाए, जिस पर नजर टिक न सके ऐसा, सब तरफ दहकते सूर्य एवं अग्नि के समान देदीप्यमान और अपरंपार आप ही को देखता हूँ। 17।

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।

त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥ 18

तुम्हीं जानने योग्य परम अक्षर अर्थात ब्रह्म (हो), तुम्हीं इस विश्व के आखिरी आधार (हो), तुम्हीं विकारशून्य हो, सनातन धर्म के रक्षक हो (और) मेरे जानते तुम्हीं सनातन पुरुष हो। 18।

अनादिम ध्या न्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशव क्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥ 19

आदि, मध्‍य, अंत - तीनों - से रहित, अनंत शक्तिशाली, अनंत बाहुवाले, चंद्र-सूर्य जिसके नेत्र हों, दहकती आग जैसे जिसके मुख हों और जो अपने तेज से इस विश्व को तपा रहा हो, मैं आपको ऐसा ही देख रहा हूँ। 19।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हिं व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।

दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥ 20

आकाश और जमीन के बीच की इस जगह को और सभी दिशाओं को भी अकेले आप ही ने घेर रखा है। इसीलिए, हे महात्मन्, आपके इस उग्र रूप को देख के सारी दुनिया काँप रही है। 20।

अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीता: प्रांजलयो गृणन्ति।

स्वस्तीत्यक्त्वा महर्षिसिद्धसंघा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:॥ 21

देखिए न, (कुछ) देवताओं के झुंड आपके भीतर घुसे जा रहे हैं, (और) कुछ मारे डर के हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहे हैं। महर्षियों एवं सिद्धों के दल (भी) 'स्वस्ति हो' की पुकार के साथ बहुत ज्यादा स्तुतियों के द्वारा आपका गुणगान कर रहे हैं। 21।

रुद्रादित्या वसवो ये च सा ध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।

गंधर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥ 22

जो भी रुद्र, आदित्य, वसु, साध्‍य, विश्वदेव, दोनों अश्विनी कुमार मरुत, पितर तथा गंधर्वों, यक्षों एवं असुरों के गिरोह के गिरोह हैं सभी विस्मित हो के आप ही को देख रहे हैं। 22।

रूपं मह त्ते बहुवक्त्रने त्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्॥ 23

हे महाबाहु, बहुत मुँहों तथा नेत्रोंवाला, अनेक बाहुओं, जंघों एवं पाँवों से युक्त, बहुतेरे पेट वाला और बहुत-सी डाढ़ों के करते भयंकर यह तुम्हारा विशाल रूप देख के लोग घबराए हुए हैं और मैं भी व्यथित हूँ। 23।

नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।

दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितांतरात्मा धृतिं न विंदामि शमं च विष्णो॥ 24

हे विष्णो, आकाश चूमते हुए, चकमक, रंग-बिरंगे, मुँह फैलाए तथा जलते हुए लंबे नेत्रों से युक्त आपको देख के मेरी आत्मा दहल उठी है और मुझमें न तो धैर्य है और न चैन। 24।

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसंनिभानि।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास॥ 25

डाढ़ों के करते विकराल (तथा) प्रलयकाल की अग्नि के समान (दहकते) हुए आपके मुँहों को देख के ही मुझे न तो दिशाएँ सूझती हैं और न चैन ही मिल रहा है। (इसलिए) हे देवेश, हे जगदाधार, प्रसन्न हो जाइए - कृपा कीजिए। 25।

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा: सर्वे सहैवावनिपालसंघै:।

भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यै:॥ 26

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।

केचिद्विलग्ना दश नांत रेषु संदृ श्यंते चूर्णितैरुत्तमांगै:॥ 27

राजाओं के गिरोह के साथ ही ये सभी धृतराष्ट्र के बेटे आपके भीतर - पेट में - तेजी से घुसे जा रहे हैं। भीष्म, द्रोण और यह कर्ण भी हमारे दल के प्रमुख योद्धाओं के साथ, डाढ़ों से विकराल दीखने वाले आपके भयंकर मुँहों में, तेजी से दौड़े जा रहे हैं। किसी-किसी की तो यह हालत है कि दाँतों के बीच में ही सट गए हैं और उनके सिर चूर्ण-विचूर्ण नजर आ रहे हैं। 26। 27।

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: समुद्रमेवाभिमुखा द्र वंति

तथा तवामी नरलोकवीरा वि शन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥ 28

जिस तरह नदियों की बहुत-सी तेज धाराएँ समुद्र की ही ओर दौड़ी चली जाती हैं, उसी तरह आपके धक्धक् जलते मुखों में नरलोक के ये वीर बाँकुड़े घुसे जा रहे हैं। 25।

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:।

तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा:॥ 29

जिस प्रकार खूब तेज आग में पतिंगे बड़ी तेजी से घुस मरते हैं, वैसे ही आपके मुखों में ये लोग भी बड़ी तेजी से घुस रहे हैं। 29।

लेलिह्यसे ग्रसमान: समंताल्लोकान्समग्रान्वद नैर्ज्व लदि्भ:

तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो॥ 30

(और) आप अपने जलते मुँहों में चारों ओर से सभी लोगों को निगल के जीभ चाट रहे हैं! हे विष्णो, आपकी उग्र प्रभाएँ अपने तेज से समस्त जगत को घेर के खूब तप रही हैं। 30।

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।

विज्ञातुमिच्छामि भवंतमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥31॥

हे देवताओं में श्रेष्ठ, मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आप प्रसन्न हों (और भला) बताएँ तो (सही कि) यह उग्र रूपवाले आप हैं कौन? मैं आदि (पुरुष) आपको जानना चाहता हूँ। क्योंकि आपको क्या करना मंजूर है यह मैं जान नहीं पाता हूँ। 31।

श्रीभगवानुवाच

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्त्तुमिह प्रवृत्त:।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा : 32

श्रीभगवान कहने लगे - मैं लोगों का संहार करने वाला मोटा-ताजा काल हूँ (और) यहाँ लोगों का संहार करने में लगा हूँ। (इसीलिए) तुम्हारे बिना भी - तुम कुछ न करो तो भी - परस्पर विरोधी फौजों में जितने योद्धा मौजूद हैं (सभी) खत्म होंगे ही। 32।

तस्मा त्त्व मुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥ 33

इसलिए, हे सव्यसाची (अर्जुन), तुम तैयार हो जाओ, यश लूट लो (और) शत्रु को जीत के समृद्धियुक्त राज्य (का सुख) भोगो। मैंने तो इन्हें पहले ही मार डाला है। अतएव केवल एक बहाना बन जाओ। 33।

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्॥

मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥ 34

मेरे हाथों (पहले ही) मरे-मराए द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्यान्य वीर बाँकुड़ों को तुम मार डालो, घबराओ मत (और) लड़ो। युद्ध में शत्रुओं को (जरूर) जीतोगे। 34।

संजय उवाच

एतच्छ्रत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमान: किरीटी।

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य॥35॥

(तब) संजय (धृतराष्ट्र से) बोला - किरीटी (अर्जुन) कृष्ण की यह बात सुन के हाथ जोड़े काँपता हुआ कृष्ण को नमस्कार करके अत्यंत भय के साथ रुँधे गले से पुनरपि कहने लगा। 35।

अर्जुन उवाच

स्थाने हृषीकेश तव प्र कीर्त्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा:॥ 36

अर्जुन बोला - हे हृषीकेश, (यदि) आपके गुणगान से संसार हर्ष-प्रफुल्लित होता और अनुरागी बनता है (तो) ठीक ही है (और अगर) राक्षस लोग (आपके) डर से इधर-उधर भागते फिरते हैं तथा सिद्ध लोगों के सभी संघ (आपका) अभिवादन करते हैं (तो यह भी उचित ही है)। 36।

कस्माच्च ते न नमेरन् महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिक र्त्रे

अनंत देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यतु॥ 37

हे महात्मन्, गुरुओं के भी गुरु (और) ब्रह्मा के (भी) आदि कारण तुम्हें वे प्रणाम क्यों न करे? हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास, स्थूल (एवं) सूक्ष्म (तथा) उससे भी परे जो अक्षर ब्रह्म है वह तुम्हीं हो। 37।

त्वमादिदेव: पुरुष: पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वम नंत रूप॥ 38

तुम आदिदेव (और) सनातन पुरुष (हो), तुम्हीं इस विश्व के परम आधार (हो), तुम्हीं ज्ञाता, ज्ञेय और परम ज्योतिस्वरूप (हो)। हे अनंतरूप, तुमने विश्व को व्याप लिया है। 38।

वायुर्यमोऽर्ग्निवरुण: शशांक: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।

नमो नमस्तेऽतु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥ 39

वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, प्रजापति - ब्रह्मा, कश्यप, दक्ष आदि - और उनके भी दादा हो। आपको हजार बार नमस्कार है और पुनरपि आप ही को बार-बार नमस्कार है। 39।

यहाँ प्रजापति का अर्थ ब्रह्मा, दक्ष, मरीचि, कश्यप आदि सभी हैं। एकवचन कहने में कोई हर्ज नहीं है। तभी तो सभी लिए जाएँगे, न कि खास तरह से एकाध ही। यह कहना कि ये ब्रह्मा के बेटे हैं गलत बात है। मनु, सप्तर्षि आदि की ही तरह ये सभी मानस हैं। मनु आदि भी प्रजापति ही हैं। सबको भगवान ने संकल्प से ही पैदा किया। ब्रह्मा को पितामह भी कहते हैं और वह प्रजापतियों में ही आ गए। इसीलिए भगवान को ही प्रपितामह या उनका दादा कहा है।

नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।

अनंतवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:॥ 40

हे समस्त जगत्स्वरूप, आपको आगे से नमस्कार, पीछे से नमस्कार, और सब ओर से नमस्कार है। आप अनंतवीर्य तथा अमित पराक्रम वाले हैं। आप ही सभी पदार्थों के रग-रग में व्याप्त हैं। इसीलिए सभी के स्वरूप ही हैं। 40।

वीर्य कहते हैं वीरता या शक्ति को, सामर्थ्य को। उसके अनुसार आगे बढ़ने या काम को पराक्रम कहते हैं।

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥ 41

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥ 42

साथी समझ के (और) आपकी महिमा को इस तरह न जान के (कभी) जो आपको अपमान के रूप में हे कृष्ण, हे यादव, हे साथी इस तरह मैंने प्रमाद से या प्रेम के चलते ही कह दिया हो, और हे अच्युत हँसी-मजाक में जो घूमने-फिरने, सोने, बैठने या भोजन के समय अकेले में या लोगों के सामने आपका अपमान कर दिया हो, उसके लिए अपरंपार महिमावाले आपसे क्षमा चाहता हूँ। 41। 42।

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥ 43

हे संसार भर में अतुल प्रभाव वाले, तुम इस चराचर संसार के पिता हो, पूज्य (हो), (और) गुरु के भी गुरु (हो)। तुम्हारी बराबरी का तो कोई हई नहीं, बड़ा कोई कैसे होगा? 43।

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीडयम्।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥ 44

इसीलिए साष्टांग प्रणाम करके ईश्वर और स्तुति-योग आपको खुश करना चाहता हूँ। हे देव, जैसे पुत्र का अपराध पिता, साथी का साथी और स्‍त्री का पति क्षमा कर देता है वैसे ही - आप मेरी भूलें भी क्षमा कर दें। 44।

यहाँ उत्तरार्द्ध में 'प्रियाया:' का 'अर्हसि' के साथ संबंध होने पर व्याकरण के अनुसार 'प्रियाया अर्हसि' यही होना चाहिए, न कि संधि के करते अकार विलुप्त हो जाएगा, या 'प्रियाया' के 'या' के आकार में मिल जाएगा। किंतु गीता में तो ऐसा बहुत बार हुआ है। और तो और, इसी से तीन ही श्लोक पहले हे सखे, इति का हे सखे इति की जगह हे सखेति कर दिया है। वहाँ भी ठीक इसी तरह का नियम लागू है। मगर इसकी परवाह गीता उतनी नहीं करती। स्मरण रखना चाहिए कि गीता का समय मान्य उपनिषदों के ही आस-पास है और उनमें ऐसा पाया ही जाता है। लेकिन कुछ लोग इसी को प्राचीन भाष्यकारों की भारी भूल मानते और 'प्रयायार्हसि' में षष्ठी की जगह चतुर्थी मान के 'प्रियायअर्हसि' ऐसी संधि करते हैं। काफी लेक्चर भी उनने दे डाला है। किंतु वे इतना भी न सोच सके कि पिता-पुत्र और साथी-साथी के दो विशेष दृष्टांत देने के बाद प्रिय को प्रिय माफी दे यह कहना कैसे उचित होगा। हाँ, यदि 'प्रिय:' - की जगह 'प्रिय' ऐसा संबोधन होता, तब शायद 'हे प्रिय' के लिए 'प्रिय' कह देने से काम चल सकता। लेकिन यहाँ तो सो है ही नहीं। अर्जुन अपने को पुत्र न कहके प्रिय कहे यह भी ठीक नहीं। सखा आदि की बात के लिए तो माफी माँगी चुका है।

यहाँ दो या तीन 'इव' की भी बात नहीं उठ सकती है। ऐसा तो बार-बार मिलेगा कि ऐसे मौकों पर तीन की जगह एक ही या दोई शब्द आते हैं। स्त्रियों का दृष्टांत आलंकारिक नहीं, किंतु वस्तुस्थिति है। जो माफी पुत्र या साथी को भी नहीं दी जाती वह स्‍त्री को दी जाती है, बशर्ते कि वह प्रिया हो और उसमें दिल लगा हो। इसीलिए उसका दृष्टांत दिया है। ऐसा भी होता है कि पुत्र को भी जो माफी नहीं मिलती वह साथी को मिलती है। इसीलिए क्रमश: ऊँचे दर्जे के दृष्टांत आए हैं।

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।

तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास॥ 45

जो कभी न देखा था उसे देख के मेरे रोंगटे खड़े हो गए हैं और भय से मेरा मन व्याकुल है। (इसलिए) हे देव, हे देवेश, हे जगन्निवास, कृपा कीजिए (और) वही (पुराना) रूप मुझे फिर दिखाइए। 45।

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तामिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥ 46

(अभी) जो आप मुकुट (एवं) गदा लिए (तथा) चक्रधारी बने हैं (उसकी जगह) मैं आपको पहले ही की तरह देखना चाहता हूँ। हे चतुर्भुज, हे स्वामिन, हे सहस्त्रबाहु, हे विश्वमूर्ति, (आप) वही (पुराना) रूप बन जाइए। 46।

इन दो श्लोकों के पदविन्यास को देख के और उस पर पूरा गौर न करके बहुतेरे टीकाकार धोखे में पड़ गए हैं। फलत: उनने यह अर्थ कर लिया है कि आप किरीट, गदा और चक्र लिए चतुर्भुज रूप बन जाइए, यही अर्जुन चाहता है। परंतु आगे जब कृष्ण ने अपना विराट रूप हटा के अर्जुन की इच्छा पूर्ण कर दी है, तो 51वें श्लोक में अर्जुन जो यह कहता है कि आपका सीधा-सादा मनुष्य रूप देख के अब कहीं मुझे होश हुआ है और मेरा मिजाज ठीक हुआ, वह कैसे संगत होगा? चतुर्भुज रूप तो मनुष्य का था नहीं और न चक्रधारी ही। किसने कहाँ कहा कि किरीट और गदाधारी रूप आदमी का होता है और कृष्ण का भी वही रूप था? कहा जाता है कि जन्म के समय ही उनने ऐसा रूप देवकी-वसुदेव को दिखाया था। मगर उसे फौरन हटाना पड़ा। यही नहीं, 'किरीटिनं गदिनं' (11 । 17) आदि से तो स्पष्ट ही है कि विराट रूप ही ऐसा था। फिर अर्जुन उसे ही कायम रखने को कैसे कहता? उसे ही देख के तो उसके देवता कूच कर गए थे न? और जो रूप सामने ही था उसे 'वह' या 'उसी तरह' का कहना कैसे उचित था? उसे तो 47वें में ठीक ही यह - इदम् - कहा है। 'यह' के मानी ही है मौजूद या हाजिर। 'वह' - तेनैव, तदेव - और 'उसी तरह' - तथैव - तो सामने की चीज को न कह के परोक्ष या दूर की चीज को ही कहते हैं। और सच कहिए तो कृष्ण का सीधा-सादा आदमी वाला रूप ही उस वक्त सामने न था। अर्जुन उसे ही देखने को परेशान भी था।

इसीलिए हमने अर्थ किया है कि जो अभी किरीट, गदा चक्र को धारण करने वाला आपका रूप है उसे ही पुराने और आदमी के रूप में देखना चाहता हूँ। क्योंकि यह आदमी का न होके भगवान का ही रूप है। इसमें 'तथा' और 'तेनैव' भी ठीक बैठते हैं। यही वजह है कि हमने 'चतुर्भुजेन' शब्द को एक न मानकर दो - चतुर्भुज+इन - माना है और 'सहस्त्रबाहो तथा विश्वमूर्ते' की ही तरह इन दोनों को भी संबोधन ही माना है। 'इन' शब्द का अर्थ है स्वामी और श्रेष्ठ। इस तरह हे चतुर्भुज, हे स्वामिन, ऐसा अर्थ हो जाता है। एक यही शब्द कठिनाई पैदा करता था और वही अब दूर हो गई।

इस पर -

श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमा त्मयो गात्।

तेजोमयं विश्वम नंत माद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्॥ 47

श्रीभगवान कहने लगे - हे अर्जुन, (तेरे ऊपर) प्रसन्न हो के ही मैंने तुझे अपनी सामर्थ्य से यह (वही) तेजमय, अनंत, मूलभूत, विलक्षण विश्वरूप दिखाया है जिसे तुझसे अन्य (किसी) ने भी पहले देखा न था। 47।

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरु ग्रै :।

एवंरूप: शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥ 48

हे कुरुवीर शिरोमणि, न वेद (पढ़ने) से, न यज्ञ (करने) से, न (सद्ग्रंथों के) अध्ययन से, न दान से, न अन्य क्रियाओं से (और) न कठिन तपस्याओं से ही (इस) मनुष्य लोक में तुम्हारे अलावे दूसरा कोई मुझे इस रूप में देख सकता है। 48।

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोर मीदृङ्ममेदम्।

व्यपेत भी: प्रीतमना: पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥ 49

मेरा यह ऐसा घोर रूप देख के तुम्हें (अब) व्यथा मत हो और घबराहट या किंकर्तव्यविमूढ़ता भी मत हो। (किंतु) निर्भय हो के खुशी-खुशी तुम पुनरपि मेरे उसी रूप को यह अच्छी तरह देख लो। 49।

इस श्लोक से और भी साफ हो जाता है कि कृष्ण ने असली पुराने नररूप को ही फिर से बना लिया था। क्योंकि पुनरपि - फिर भी - उसी रूप को देख लो, ऐसा कहते हैं। इसका तो आशय यही है न, कि जिसे पहले देखा था उसी को फिर देखो? दुबारा देखने का और मतलब होगा भी क्या? जो चतुर्भुज रूप सामने ही है उसी को पुन: देखना क्या? इसीलिए जब फिर मानव रूप बनाया है तो कहते हैं यही अच्छी तरह देख लो - 'इदं प्रपश्य'। इतना कहना था कि फौरन वही रूप नजर आ गया।

ठीक यही बात -

संजय उवाच

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूय:।

आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुन: सौम्यवपुर्महात्मा॥ 50

संजय कहने लगा (कि), कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा कह के (फौरन ही) अपना रूप फिर दिखा दिया और (इस तरह) सीधा-सादा स्वरूपवान बन के महात्मा कृष्ण ने उस डरे हुए अर्जुन को पुनरपि आश्वासन दिया। 50।

अर्जुन उवाच

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।

इदानीमस्मि संवृत्त: सचेत: प्रकृतिं गत:॥ 51

(इस पर फौरन ही) अर्जुन ने कहा (कि) हे जनार्दन, आपका यह सौम्य - सीधा-सादा मानव रूप देख के मुझे अभी होश हुआ है और मिजाज भी ठीक हुआ है। 51।

श्रीभगवानुवाच

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिण:॥ 52

(तब), श्रीभगवान कहने लगे (कि आज) तुमने जो मेरा रूप देखा है इसका दर्शन अत्यंत दुर्लभ है। देवता लोग भी बराबर ही इस रूप के दर्शन की आकांक्षा रखते हैं। 52।

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥ 53

तुमने अभी-अभी मुझे जिस तरह देख लिया है इस रूप में मैं वेद, तप, दान और यज्ञ (किसी भी उपाय) से देखा नहीं जा सकता। 53।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च त त्त्वे न प्रवेष्टुं च परंतप॥ 54

हे अर्जुन, हे परंतप, किंतु अनन्य भक्ति से ही मुझे इस प्रकार जाना, आँखों देखा और उसी रूप में - वैसा ही स्वयं भी हो के - उसमें प्रवेश किया (भी) जा सकता है। 45।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।

निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पांडव॥55॥

(इसीलिए) हे पांडव, जो मेरे ही लिए - पदार्थ - कर्म करे, मुझी को अंतिम (लक्ष्य वस्तु) माने, मेरा ही भक्त हो, आसक्तिशून्य हो और किसी भी पदार्थ से बैर न रखे, वही मुझे प्राप्त करता है। 55।

यहाँ संक्षेप में ही दो-तीन बातें जान लेनी हैं।

पहली बात यह है कि यद्यपि 48वें तथा 53वें श्लोक में वेद आदि की बातें एक ही हैं, जिससे व्यर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है; फिर भी पहले श्लोक में अर्जुन को आश्वासन देने के ही लिए वह बातें कही गई हैं कि कहाँ तो वेदादि के बल से भी जो दर्शन नहीं हो सकता है वही तुझे मिला है और कहाँ तू उलटे घबराता और बेहोश होता है! यह क्या? राम, राम! लेकिन वही बात दूसरे श्लोक में अनन्य भक्ति के साथ वेदादि के मुकाबिले के लिए ही आई है; ताकि इस भक्ति का पूर्ण महत्त्व समझा जा सके।

दूसरी बात यह है कि यहाँ जो कई बार कहा है कि कभी किसी और ने यह रूप नहीं देखा, उसका मतलब यह है कि यह तो आत्मदर्शन का प्रयोग था जो अर्जुन के ही लिए किया गया था। इससे पहले यह प्रयोग किसी ने किया ही नहीं। अगर कभी किसी ने देखा भी हो तो कौतूहलवश ही। क्योंकि उसे यह दृष्टि कहाँ मिली और न मिलने पर वह इस दृष्टि से कैसे देखता? प्रयोग तो करता न था।

तीसरी बात है अंतिम श्लोक की। इसमें जो कुछ कहा गया है वह आत्मदर्शी की बात न हो के उधर अग्रसर होने वाले की ही है, जो अंत में सब कामों के फलस्वरूप आत्मदर्शन करके ब्रह्मरूप बनता है। प्रसंग और शब्दों से यही सिद्ध होता है।

इति श्री. विश्वरूपदर्शनं नामैकादशोऽ ध्या य:॥ 11

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका विश्वरूप दर्शन नामक ग्यारहवाँ अध्‍याय यही है।

बारहवाँ अध्‍याय

यह तो पहले ही कह चुके हैं कि दसवें अध्‍याय में जिस योग का उल्लेख विभूति के साथ हुआ है वह विराटदर्शन या विश्वरूपदर्शन का ही दूसरा नाम है। इसे प्रमाणित भी किया जा चुका है। यदि यह बात न होती तो जहाँ अन्य सभी अध्‍यायों की समाप्ति वाले वाक्य में 'सांख्ययोग:', 'कर्मयोग:' आदि लिख के सांख्य, कर्म प्रभृति के साथ योग का उल्लेख बराबर ही किया गया है, तहाँ केवल इसी ग्यारहवें अध्‍याय में सिर्फ 'विश्वदर्शनं' इतना ही क्यों लिखा जाता? सभी प्रामाणिक भाष्यों एवं टीकाओं में यही पाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब यह विश्वरूपदर्शन निर्विवाद रूप से स्वयमेव योग है तो पुनरपि योग शब्द के नाहक पुनरुक्ति क्यों करना? जहाँ विवाद की गुंजाइश हो वहीं उसका लिखा जाना ठीक था।

इस प्रकार विश्वरूपदर्शन की बात खत्म करके आगे बढ़ने की बात आती है। वहीं तेरहवें अध्‍याय में पाई भी जाती है। वहाँ उन्हीं पदार्थों का दार्शनिक ढंग से विश्लेषण तथा विवेचन किया है जिन्हें ग्यारहवें अध्याय में दिखाया गया है। यह बात वहीं विशेष रूप से बताएँगे और दिखाएँगे कि मनन का सिलसिला क्यों नहीं टूटना चाहिए। बल्कि यह बात तो पहले भी कही चुके हैं कि निदिध्‍यासन, समाधि या प्रयोग के बाद भी मनन की जरूरत होती ही है। नहीं तो सारी बातें भूल ही जाएँ और किया-कराया सब कुछ चौपट हो जाए। इसीलिए उससे पूर्व का यह बारहवाँ अध्‍याय भी मनन के ही रूप में प्रसंग से आ गया है। यह प्रसंग भी ग्यारहवें के अंत के चार और खासकर आखिरी दो श्लोकों के ही चलते आया है। इस प्रासंगिक बात को बीच में पूरा कर लेना भी जरूरी था। तभी असली बात का सिलसिला ठीक-ठीक चल सकता था।

बात यों हुई कि कृष्ण ने अपना साकार विराट रूप दिखा के अर्जुन से साफ कह दिया कि इसके जानने और देखने का कोई दूसरा उपाय नहीं है, सिवाय इसके कि अनन्य-भक्ति की जाए। उनने यह भी कह दिया कि जो कुछ भी किया जाए वह भगवदर्पण बुद्धि से ही। जब तक यह न होगा यह दर्शन असंभव है। यह ठीक है कि सिर्फ दर्शन हो के ही खत्म हो न जाएगा। किंतु दर्शक को मुक्ति भी मिलेगी। फिर भी इस दर्शन के रास्ते मुक्ति तक पहुँचना दुर्लभ चीज है। इससे अर्जुन के दिल में फौरन ही यह खयाल होना जरूरी था कि ऐं, कृष्ण तो इसी साकार की उपासना और भक्ति को यज्ञादि से भी बड़ी चीज मानते तथा इस साकार दर्शन को दुर्लभ कहते हैं। मगर यहाँ तो बराबर ही देखा-सुना जाता है कि निराकार ब्रह्म में ही विवेकी लोग दिन-रात लगे रहते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? यदि यही उत्तम मार्ग है तो लोग उसमें क्यों पड़ते हैं? यह भी नहीं कि मामूली लोग ही उधर जाते हैं। नहीं, नहीं। वह तो बड़े-बड़े अगड़धत्तों और विवेकियों का ही मार्ग है। बल्कि जनसाधारण के लिए तो वह दुर्लभ ही है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि वह मार्ग भी उत्तम ही है। खुद कृष्ण ने भी तो पहले उस पर बहुत ही जोर दिया है। फिर उत्तम क्यों न हो? मगर अभी-अभी इनने जो कुछ कह दिया उससे तो साकार की उपासना ही अच्छी साबित होती है! यह तो अजीब घपला है! यह पहेली तो निराली है!

इसीलिए उसने चटपट कृष्ण से पूछ ही तो दिया कि बात क्या है? रास्ते तो दोनों आपके ही बताए हैं। इसीलिए अब साफ-साफ कहिए न, कि इन दोनों में कौन अच्छा है? इन दोनों पर चलने वालों में जोई अच्छे और कुशल होंगे मैं उन्हीं को पसंद करूँगा। 'योगवित्तमा:' शब्द देने का भी मतलब है। योग तो उपाय ही ठहरा, जिसे मार्ग कहिए या रास्ता। इन दोनों मार्गों के जानकार और इन पर अमल करने वाले लोग योगवित् हुए, यह भी ठीक ही है। मगर दोनों में ज्यादा कुशल कौन हैं, अच्छे कौन हैं, योगवित्तम कौन हैं यही बता दीजिए तो काम चले, यही आशय अर्जुन का है। दरअसल ग्यारहवें अध्‍याय के समूचे प्रसंग में अंत के वचनों को सुन के ही अर्जुन को एकाएक यह खयाल हो आया और उसने फौरन उसे जाहिर कर दिया। उसने बहुत ज्यादा इस बारे में सोचा-विचारा नहीं। नहीं तो शायद उसे ऐसा पूछने की जरूरत होती ही नहीं। उसे खुद-ब-खुद संतोष और समाधान हो जाता।

क्योंकि छठे अध्‍याय के बाद भी कृष्ण ने निराकार आत्मा में लगने तथा उसके अनन्य चिंतन की बात कही ही है। छठे अध्याय में या उससे पहले तो यह बात खूब ही आई है। सांख्ययोग तो दरअसल यही है भी और उसी से गीता का श्रीगणेश हुआ है। ज्ञान का जो रूप पहले भी और खासकर चौथे तथा छठे अध्‍याय में आया है वह कितना महत्त्वपूर्ण है! उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने पर भी कितना जोर दिया है! यही नहीं। यदि ग्यारहवें अध्‍याय के अंतवाले इन श्लोकों को ही देखें तो उनमें क्या लिखा है? उनमें यह कहाँ कहा गया है कि ज्ञानमार्ग या निराकार ब्रह्म की समाधि से भी यह साकार चिंतन या सगुण की भक्ति श्रेष्ठ है? वहाँ तो इतना ही कहा है कि वेद, तप, दान और यज्ञ से भी यह दर्शन होने को नहीं। इसलिए अनन्य भक्ति करो। यह तो नहीं कहा कि ज्ञान और समाधि से भी यह होने को नहीं। यदि वेद, तप, दान और यज्ञ से इस उपासना को श्रेष्ठ बताया, तो बुरा क्या किया? यह तो ठीक ही है। ये चारों तो बेकार हैं यदि इनके करते भगवान में भक्ति न हो। यह भी नहीं कि यज्ञ शब्द से ज्ञान भी लिया जाए। ऐसा करना तो दूर की कौड़ी लाना हो जाएगा। हम तो यह भी कह चुके हैं कि ग्यारहवें अध्‍याय का यज्ञ शब्द ज्ञान को छोड़ के और यज्ञों को ही, और आमतौर से प्रसिद्ध यज्ञों को ही बताता है। जिस ज्ञान से इस भक्ति को तरजीह देनी हो, जिससे इसे श्रेष्ठ कहना हो उसी का नाम सीधे न लिया जाकर यज्ञ के रूप में ही उसे ला के इसकी विशेषता बताई जाए, यह निराली समझ का काम है। जब आगे बारहवें में स्पष्ट ही वही बात अर्जुन कहता है, तो कृष्ण को उससे पहले कहने में क्या हिचक हो सकती थी, यदि उनका वही आशय होता?

इसीलिए अगत्या मानना ही होगा कि कृष्ण का ऐसा कोई आशय न था। नहीं तो साफ ही बोल देते। सो भी तीसरे अध्‍याय में अर्जुन के यह कहने के बाद, कि गोलमोल बातें कह के, ऐसा लगता है कि आप मुझे घपले में डाल रहे हैं, कृष्ण के लिए यह जरूरी हो गया था कि स्पष्ट कहें। उनने बराबर ऐसा ही किया भी है। इसीलिए पुनरपि अर्जुन को यह इलजाम लगाने का मौका नहीं मिल सका है। मगर अगर ऐसा ही मानें, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, तब तो यहीं पर उस इलजाम का सुंदर मौका था और अर्जुन को वही कहना भी चाहता था। लेकिन यह तो अर्जुन भी नहीं कहता है कि साकार उपासना को कृष्ण ने श्रेष्ठ कहा है। वह तो इतना ही मानता है कि दोनों ही पर कृष्ण का जोर काफी है। मगर ग्यारहवें अध्याय में प्रसंग साकार का ही है। इसीलिए उसने खुद पूछा कि आया दोनों रास्ते बराबर ही हैं या इनमें कोई श्रेष्ठ भी है। दोनों पर बराबर ही जोर देना उसे मालूम हुआ था जरूर। फिर भी हरेक तो दोनों को कर नहीं सकता। इसलिए दोनों में एक को उसे चुनना ही होगा। इसी से वह पूछता भी है कि कौन-सा एक अच्छा है।

अच्छा, मान लें कि अर्जुन दोनों में किसी एक की विशेषता ठीक ही समझ न सका था। इसीलिए तो उसने पूछा। फिर भी कृष्ण ने उत्तर में साकारोपासना को उत्तम करार दे दिया। लेकिन यह भी अजीब बात है। ग्यारहवें अध्याय के अंत में साकार की बात संभव थी। उसी का तो वहाँ प्रसंग ही था। इसलिए स्वभावत: अर्जुन का झुकाव उसी ओर होना था। ताहम निश्चय न कर सकने के कारण ही उसने पूछ दिया। इतना तो मानना ही होगा। किंतु जरा यह भी तो सोचें कि आखिर वह पूछता ही क्या है। यही न, कि दोनों में योगवित्तम कौन हैं? और योग का अर्थ 'समत्वं योग उच्यते' तो हो नहीं सकता। क्योंकि उसमें छोटे-बड़े का क्या प्रश्न, उत्तम-मध्‍यम की क्या बात? वह तो एक ही तरह का होता ही है। और दोनों ही योगी हों यह तो गैरमुमकिन भी है। योग के मूल में तो आत्मदर्शन है न? वह साकारोपासक को होगा ही कैसे? तब तो यह उपासना ही बेकार होगी। इसलिए यहाँ योग का अर्थ उपाय, रास्ता या मार्ग ही मानना होगा। हम तो कही चुके हैं कि योग का उपाय अर्थ भी होता ही है। अर्जुन के पूछने का तो केवल इतना ही आशय है कि कल्याण का मार्ग जानते हैं तो दोनों ही। मगर उन जानने वालों में कुशल कौन है?

असल में मार्ग तो सबके लिए एक होता नहीं। वह तो योग्यता या अधिकार के हिसाब से ही जुदा-जुदा होता है। मार्ग जानने वाले की कुशलता का भी यही मतलब होता है कि जिसे जिसके योग्य समझे उसे वही बताए; न कि सब धान पूरे बाईस पसेरी ही तौलने लगे। तब तो अनर्थ ही होगा। किसी के लिए उसकी योग्यता के अनुसार जो मार्ग सर्वोत्तम हो सकता है वही दूसरे के लिए बेकार या हानिकारक भी हो सकता है। इसीलिए चतुर उपदेशक और जानकार की जरूरत होती है। अर्जुन के पूछने का यही आशय है। कृष्ण ने उत्तर भी इसी दृष्टि से दिया है। जनसाधारण के लिए तो साकारोपासना ही श्रेष्ठ है। कारण, निराकार की बात उनकी पहुँच के बाहर ही ठहरी। जंगल में फल पके भी तो गाँववालों के किस काम के?

कृष्ण के उत्तर का यही आशय है कि जनसाधारण को वहीं से शुरू करना होगा। उनके लिए वही श्रेष्ठ है, सर्वोपरि है। निराकार वाले तो बिरले ही होते हैं। उस दशा में तो लोग अपने आप पहुँच भी जाते हैं। इसलिए उस पर जोर देने की अपेक्षा इसी पर जोर देना उचित भी है। जनसाधारण की, आम लोगों की ही बात जो ठहरी। इसीलिए यदि ज्ञान-मार्ग से इसे उत्तम कहा है तो उसका ऊपर लिखा आशय समझ लेने से भ्रम न होगा। इसी बात को अर्थवाद की रीति, प्ररोचना या प्रशंसा भी कहते हैं। क्योंकि ऐसा करने से ही जनसाधारण इस तरफ झुकेंगे।

यही आशय मन में रख के -

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥ 1

अर्जुन ने पूछा (कि) इस तरह निरंतर भगवान में लगे हुए जो लोग तुम्हारी - भगवान की - साकार - उपासना करते हैं। और - जो अविनाशी, निराकार या अक्षरब्रह्म में लगे रहते हैं, इन उपाय जानने और करने वालों में सबसे चतुर कौन हैं? ।1।

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥ 2

श्रीभगवान ने उत्तर दिया (कि) मुझ (साकार भगवान) में मन को जुटा के निरंतर उसी में पूर्ण श्रद्धा के साथ लगे हुए जो लोग उपासना करते हैं, मेरे जानते वही अत्यंत कुशल जानकार हैं। 2।

ये त्वक्षरमनिर्देश्य: मव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रु वम्॥ 3

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरता:॥ 4

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्त चेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवदिभरवाप्यते॥ 5

विपरीत इनके जो सर्वत्र समदर्शी लोग सभी इंद्रियों को काबू में करके अक्षर, न बताए जा सकने वाले, अदृश्य सर्वव्यापी, चिंतन के अयोग्य, निर्विकार एकरस, क्रियाशून्य और स्थिर (ब्रह्म) की पूर्ण उपासना या समाधि करते हैं, समस्त संसार के हित में लगे हुए वे लोग (भी) मुझ भगवान को ही प्राप्त करते हैं (सही)। (मगर) निराकार में जिनके चित्त चिपक चुके हैं। ऐसे लोगों को (पहले) दिक्कतें बहुत ज्यादा (होती हैं)। क्योंकि शरीरधारियों के लिए अव्यक्त में जा लगना असंभव-सा ही होता है। 3। 4। 5।

यहाँ एकाध बातें विचारणीय हैं। इन श्लोकों में उन्हीं समदर्शियों का वर्णन है जिनका 'विद्याविनयसंपन्ने' (5। 18-21) में पाया जाता है। इसीलिए उनके बारे में, 'उपासते' के पहले 'परि' लगा के पूर्ण उपासना या समाधि के ही रूप में उनकी स्थिति का वर्णन किया है। पाँचवें श्लोक में 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' में जो 'आसक्त' पद आया है उससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि वे समाधि की पूर्णावस्था वाले ही हैं। ऐसी दशा में जो अंत में कहा है कि अव्यक्त में लगन का होना शरीरधारियों के लिए असंभव-सा ही है उसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि ऐसे लोगों को कोई कष्ट होता है। वे तो पहुँचे हुए हईं। उन्हें क्या दिक्कत होगी? वे तो दिक्कतें पार कर गए हैं। शायद 'दु:खं' पद को देख के लोग ऐसा आशय निकालना चाहते हैं। वे इसमें इससे पहले के 'क्लेशोऽधिकतर:' से भी सहायता लेते हैं। मगर यह क्लेश तो उस दशा में पहुँचने से पहले का ही है। वहाँ पहुँच के कैसा क्लेश? कहने का आशय यही है कि बहुत ही ज्यादा दिक्कत से बिरला कोई उस दशा में पहुँच पाता है। इसीलिए वह असंभव या अप्राप्यसी ही वस्तु है। 'दु:खं' विशेषण जब क्रिया में लगता है तो उसका कष्ट अर्थ नहीं होता, किंतु सब मिला के 'प्राय: असंभव' यही अर्थ हो जाता है। यह बहुत ही मार्के की बात है। किंतु इधर ध्यान न देके लोग ऊल-जलूल अर्थ कर बैठते हैं। हाँ, इस अर्थ से यह सिद्ध होता है जरूर कि वह मार्ग बहुत ही कष्टसाध्‍य है। कृष्ण का यही आशय है। ऊँचे दर्जे की बात ठहरी और वह जनसाधारण के लिए असंभव-सी हो तो ठीक ही है।

दूसरी बात 'सर्वभूतहितेरता:' की है। इसके पहले भी एक बार (5।25 में) आत्मज्ञानियों के ही संबंध में यह शब्द आया है। इसका अर्थ है 'सभी पदार्थों के हित में लगे हुए'। 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) भी उन्हीं को कहा गया है, जिसका अर्थ है कि सभी पदार्थों की आत्मा ही उनकी आत्मा बन गई है। इन दोनों के मिला देने पर इसका आशय यही हो जाता है कि सर्वत्र वे अपनी ही आत्मा देखते हैं। इसीलिए सभी के हितसाधन, भलाई या कल्याण ही में संलग्न रहते हैं। नीति का इससे उत्तम और व्यापक सिद्धांत होई नहीं सकता। इस पर अधिक विवाद करने की गुंजाइश यहाँ नहीं है। इसीलिए इसका विशद विवेचन आगे के लिए छोड़ देते हैं। मगर इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो लोग 'अधिकांश लोगों के अधिक से अधिक हित' (The greatest good of the greatest number) वाला सिद्धांत ही कर्त्तव्याकर्तव्य का निर्णायक तथा पथदर्शक मानते हैं उनसे गीता सहमत नहीं है। यह तो सभी पदार्थों के हित को ही अपना पथदर्शक मानती है। केवल स्वार्थ, दूरदर्शी स्वार्थ और उच्च स्वार्थ की गोलमाल बातों की तो यहाँ पूछ भी नहीं है। गीता तो मनुष्यों के हित से भी आगे जा के सभी प्राणियों तक पहुँचती है और उन्हें भी अपना के आगे बढ़ने पर सभी पदार्थों के हित को ही देखती है। क्योंकि करने वाले की आत्मा तो कहीं सीमित न हो के अपरिमित है। फलत: सभी पदार्थों को अपने गोद में रख लेती है।

गीता के इस महान मंतव्य के निकट केवल मार्क्स का ही सिद्धांत पहुँच पाता है। क्योंकि मार्क्स तो समूचे समाज का ही आमूल परिवर्तन करके उसका पुनर्निर्माण चाहता है जिससे किसी एक को भी किसी प्रकार की असुविधा जरा भी न रह जाए। प्रकृति, रोगव्याधि तथा मृत्यु आदि पर भी विजय प्राप्त की जा सके। सभी तरह की बीमारियों, प्राकृतिक उपद्रवों, युद्धों और संघर्षों पर मानव-समाज का ऐसा आधिपत्य हो जाए कि ये जड़मूल से मिट जाएँ और अखंड शांति सर्वत्र विराजने लगे। यदि मानव-समाज को आराम दे सकें भी तो प्राकृतिक उपद्रवों, रोगों और युद्धों से मनुष्यों, पशु-पक्षियों और जमीन, पहाड़, घर-बार वगैरह का संहार होता ही रहेगा। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी भूतों का हित हो गया? सभी भूतों के हितों का साधन किया जा रहा है? इन उपद्रवों को निर्मूल करने में जब तक सफलता न मिले तब तक यह बात कही जा सकती नहीं। इसलिए उस सफलता के लिए जो लोग दत्तचित्त हैं और समाज को नए साँचे में ढालना चाहते हैं सचमुच वही 'सर्वभूतहितेरता:' कहे जा सकते हैं। या नहीं, तो ऐसों के निकटवर्ती तो वे अवश्य ही माने जा सकते हैं। उनमें तथा सर्वभूतहितेरतों में बहुत ही कम अंतर रह जाएगा।

ऐ तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।

अनन्येनैव योगेन मां ध्या यंत उपासते॥ 6

तेषामहं समुद्ध र्त्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥ 7

हे पार्थ, (इनके विपरीत) जो लोग सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ (साकार भगवान) को ही सबसे बढ़ के मानते हुए तथा अनन्यभाव से मेरा ध्‍यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझी में अपने चित्त को चिपका देने वाले ऐसे लोगों का (इस जन्म) मरण रूपी संसार-सागर से जल्द ही उद्धार कर देता हूँ। 6। 7।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥ 8

(इसलिए) मुझी में मन जोड़ दे (और) बुद्धि को भी मुझी में लगा दे। (परिणाम यह होगा कि) इसके - मरने के - बाद या इतना कर लेने पर बेशक तू मुझमें ही निवास करेगा - मेरा ही स्वरूप हो जाएगा। 8।

अथ चि त्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥ 9

लेकिन यदि, हे धनंजय, मुझमें चित्त को निश्चल रूप से लगा नहीं सकता, तो (इस बात के) अभ्यासरूपी उपाय से ही मुझे (क्रमश:) प्राप्त करने का संकल्प कर ले। 9।

यहाँ 'आप्तुं इच्छ' - 'पाने की इच्छा कर ले' का ही अभिप्राय हमने 'संकल्प कर ले' लिखा है और यही उचित भी है। इच्छा मात्र से तो कुछ होता जाता नहीं, जब तक संकल्प न कर लें।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि॥ 10

(और अगर) अभ्यास भी न कर सके तो मदर्थ कर्म करने में ही लग जा। (क्योंकि) मदर्थ कर्मों को करते हुए भी (धीरे-धीरे) इष्टसिद्धि प्राप्त कर ही लेगा। 10।

अथैतदप्यशक्तोऽसि क र्त्तुं मद्योगमाश्रित:।

सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्॥ 11

लेकिन यदि मुझे ही अर्पण करते हुए यह करने में भी असमर्थ हो तो मन पर अंकुश रखके सभी कर्मों के फलों की परवाह छोड़ दे। 11।

आगे बढ़ने के पूर्व यहाँ कुछ विचार कर लेना जरूरी है। 6, 7 श्लोकों में जो बातें कही गई हैं उन्हीं का उपसंहार आठवें में है। न कि कोई नई बात। यही है साकार भगवान की अनन्य भक्ति, जिसका उल्लेख ग्यारहवें अध्‍याय के अंत में आया है और बारहवें के शुरू में जिसके बारे में ही प्रश्न हुआ है। मगर यह पूर्ण भक्ति है, उसकी आखिरी निष्ठा या स्थिति है। यह भी तो कही चुके हैं कि ग्यारहवें के अंतिम श्लोक में जो कुछ कहा गया है वह पूर्ण भक्ति ही न हो के पहले की सीढ़ियाँ भी उसी में आ गई हैं, हालाँकि उनका इतना स्पष्ट वर्णन होना वहाँ असंभव था। अतएव प्रश्न के बाद उनकी स्पष्टता अपने आप यहाँ हो जाती है और बाद के तीन (9-11) श्लोक यही काम करते हैं। इनमें 9वाँ पहली बात कहता है कि यदि पूर्ण भक्ति की दशावाला मन न हो पाया हो और इधर-उधर दौड़ता हो तो अभ्यास ही उसे काबू में करने का उपाय है। इस अभ्यास की बात पहले खूब ही आ चुकी है। लेकिन यदि वह बहुत ही गंदा हो और इतना चंचल हो कि अभ्यास भी न हो सके, तो दसवें श्लोक में बाद की सीढ़ी के रूप में कहा गया है कि 'यत्करोषि' (9। 27) के अनुसार भगवदर्पण बुद्धि से कर्म ही करते जाओ। फिर तो समय पा के अभ्यास को योग्यता आई जाएगी। किंतु यदि दुर्भाग्य से यह भी न हो सकने वाला हो और मन अत्यंत पतित हो, तो आखिरी बात यह है कि सभी भले-बुरे कर्मों के फलों को ही भगवान के अर्पण करके बेफिक्र बन जाओ। यही बात ग्यारहवें श्लोक में है। यदि ग्यारहवें अध्‍याय के अंतिम श्लोक के 'मत्कर्मकृन्मत्परम:' का यहाँ के दसवें के 'मत्कर्मपरम:' से मिलान करें तो पता चल जाएगा कि उस श्लोक में इन सीढ़ियों का समावेश जरूर है। इस प्रकार मन की निरंतर साकार भगवान में जोड़ देने की पूर्ण भक्ति के नीचे क्रमश: तीन सीढ़ियाँ हैं - अभ्यास, भगवदर्पण कर्म और कर्मफलों को ही भगवदर्पण करना। यही कारण है कि इन श्लोकों में क्रमसूचक पद न रहने पर भी हमने वैसा ही अर्थ किया है।

ये तीनों क्रमश: नीचे की सीढ़ियाँ कैसे हैं यह जान लेना भी जरूरी है। यह तो मोटी बात है कि उधर से हटने पर बार-बार मन को खींच के लगाना ही होगा। दूसरा रास्ता हई नहीं। इसे सभी लोग यों ही समझ भी सकते हैं। मगर जब मन इतना गंदा हो कि भगवान की ओर बिलकुल जाए ही नहीं, तो अभ्यास क्या करेंगे खाक? वज्र की धरती को मामूली कुदाल से खोद के उधर ही पानी बहाने का यत्न जिस तरह बेकार होता है वैसा ही यह भी है। कुदाल से तो वज्र कटे-टूटेगा ही नहीं उलटे कुदाल ही टूटेगी और परिश्रम बेकार होगा। फिर भी वैसी दशा में क्रियाओं में तो मन जाएगा ही। फिर चाहे भली में जाए या बुरी में। अतएव अब यह कर सकते हैं कि उन सभी क्रियाओं को, कर्मों को ही भगवदर्पण करें और इस प्रकार कर्मों के द्वारा ही मन को वहाँ तक पहुँचाने का यत्न करें; यदि सीधे नहीं जाता है। और अगर यहाँ भी वह चारों पाँव चित हो के वैसा करने से इनकार करे तो? ठीक भी है। कर्मों के करने में पहले से ही ऐसा खयाल हो जाना कि यह भगवान की पूजा है, आसान नहीं है। सो भी जब मन बहुत ही पापी और पतित है। कर्मों के कर लेने पर तो यह बात होई नहीं सकती। क्योंकि तब तो उन पर हमारा कोई अधिकार रही नहीं जाता। वे तो हाथ से छूटे हुए तीर हो गए। फलत: कर्मों के पहले या उनकी दौरान में भी यह खयाल होना प्राय: असंभव है। इसलिए अंत में यही बताया है कि फलों को ही भगवान के समर्पण करो। असल में कर्म करने के पहले तो जोश रहता है। इसीलिए कुछ भी सूझता ही नहीं। मगर कर चुकने पर ठंडक होती है और पश्चात्ताप होने लगता है कि उफ, ठीक नहीं किया। यह भी आम बात है कि पतित मन वाले ज्यादातर बुरे ही कर्म करते हैं। इसलिए पीछे दिमाग दुरुस्त होने पर सोच लिया कि चलो इनके फलों को ही भगवान को समर्पित करें। इस तरह भले फल तो शायद ही थे जो गए, मगर बुरे तो प्राय: सभी थे और सभी गए - खत्म हो गए। इसी आशय से 'सर्वकर्म फलत्यागं' कहा है। सर्व कहने से बुरे-भले सभी आ जाते हैं। इस प्रकार चक्कर काट के फल और कर्म के द्वारा मन को वहाँ तक पहुँचाते हैं। यही अंतिम सीढ़ी है।

कहते हैं कि किसी वेश्या का कोई नौकर था। वह प्रतिदिन सुंदर-सुंदर फूल उसके लिए चुन लाता था। एक दिन रास्ते में फूल लिए आ रहा था। अकस्मात उनमें दो-एक फूल नीचे गिर पड़े। उसने जो उन्हें उठाने की कोशिश की तो देखा कि फूल विष्ठा पर ही जा पड़े हैं। अब तो विवश था और कलेजा मसोसकर रह गया। फिर कुछ सोच के बोला, 'विष्णवे स्वाहा'। कभी सुना था कि विष्णु को अर्पण करने से पुण्य होता है। उसने जब कोई उपाय न देखा तो हार के पुण्य ही लूटना चाहा। कहानी तो बताती है कि उसी के करते उस पतित को भी बैकुंठ का दर्शन मिला। मगर हमें उससे मतलब नहीं है। हमें तो यहाँ इतना ही कहना है कि वेश्या के नौकर की ही तरह पीछे हार के कर्मों के फलों को भगवान के अर्पण किया जा सकता है। यह कोई असंभव बात नहीं है। हाँ, है यह सबसे नीचे की, छोटी और आखिरी बात।

अब हमें प्रसंगवश उन लोगों से एक प्रश्न करना है जो साकार भगवान की भक्ति को ही दरअसल सबसे बड़ी चीज गीता के मत से बताने पर तुले बैठे हैं। हमने गीता के ही श्लोकों के आधार पर, जो इसी अध्‍याय के इसी मौके के ही हैं, कम से कम चार प्रकार की भक्तियों को दिखाया है। इन्हें तो वह भी मानेंगे ही। क्योंकि यह तो हमारी अपनी मनगढ़ंत चीजें हैं नहीं। तो अब वही बताएँ कि इनमें कौन-सी भक्ति सबसे ऊँची है जिसका ढिंढोरा गीता ने पीटा है? ज्ञान और समाधि की अपेक्षा जो ऊँची चीज उन्हें जँचती है वह इनमें कौन-सी है? चारों तो हो नहीं सकती हैं। और अगर चारों ही हों, तो गजब होगा। क्योंकि सांख्य, ज्ञान या समाधि की अपेक्षा उस आखिरी भक्ति को भी श्रेष्ठ ठहराने की हिम्मत जिसे हो वह सचमुच बहादुर है, दिलेर है! अगर यह कहा जाए कि सबसे ऊपर वाली श्रेष्ठ है तो क्यों? गीता ने तो सबों को ही एक ही सिलसिले में गिनाया है। यह भी तो नहीं कहा है कि इनमें फलाँ से ही हमारा आशय है।

लेकिन अगर हमारी कही बात मानी जाए तब तो वस्तुस्थिति का सवाल होता ही नहीं। तब तो मार्ग का सवाल ही रहता है और अधिकारियों के हिसाब से ये चारों ही अच्छी हैं - जो जिसके योग्य हो, जिसका अधिकारी हो वह उसे ही करे। क्योंकि जनसाधारण के अनुकूल चारों ही हैं। इनमें भी जो सबसे नीचे की है वही सबसे ज्यादा लोगों के लिए संभव होने से उस दृष्टि से वही सबसे श्रेष्ठ है, इस कहने में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि वह ज्ञान की जगह लेने या सचमुच उससे भी ऊँचा दर्जा लेने तो जाती नहीं। यहाँ तो काम चलाने की ही बात है।

इसी अभिप्राय से आगे का - 12वाँ - श्लोक भी इस मौके पर ठीक-ठीक आ बैठता है। यों तो इस श्लोक की बड़ी फजीती की गई है। हरेक टीकाकार ने अपने ही खयाल के अनुसार इसे बुरी तरह घसीटा है। किंतु हमारे जानते जो इसका सीधा-सादा अर्थ है वह यों है। फलत्याग के द्वारा मन को थोड़ी-सी शांति और थोड़ा-सा चैन मिलना शुरू हो जाता है। जो धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। असल में जोश में आ के नासमझ लोग जितनी मुश्तैदी से भले-बुरे काम कर बैठते हैं, पीछे जोश ठंडा होने पर उतनी ही ज्यादा उन्हें बेचैनी और घबराहट होती है, अशांति होती है। क्योंकि उन कर्मों के भयंकर परिणाम आँखों के सामने नाचने जो लगते हैं। मगर ज्योंही उनने यह समझा कि फल तो भगवदर्पण हो गए, कि उन्हें खामख्वाह चैन और शांति की प्राप्ति फौरन ही हुई। यह स्वाभाविक बात है। चाहे पीछे कुछ हो, मगर तत्काल मन की घबराहट और उसका उद्वेग तो जाता रहा। और एक बार ऐसा होते ही उनने जो इसका तत्काल मजा चख लिया तो फिर यही बात रह-रह के करने लगे। इस तरह उलटे धक्के से मन की शांति होते-होते ध्‍यान की योग्यता होती है। फिर यह ध्‍यान चाहे सीधे भगवान में मन लगा के हो, या भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करके हो। यह तो आदमी की दशा और योग्यता पर ही निर्भर करता है। इसलिए ध्‍यान के भीतर भगवदर्थक कर्म भी आ गया। क्योंकि उसके द्वारा भी मन की एकाग्रता ही तो होती है। हाँ, सीधे ही तो और अच्छी बात हो। इस तरह जब एकाग्रता हुई और ध्‍यान का रास्ता खुला, तो जो बात पहले दिल में बैठती ही न थी वह भी बैठने लगी। अनन्य भावना से भगवान की भक्ति करें, चाहे निराकार की हो, या साकार की - निराकारवाली को ही आत्मदर्शन या समदर्शन भी कहते हैं - यह बात पहले तो दिल में बैठती ही न थी। मगर अब मन पर काबू होने से बैठी। यही है ज्ञान। इसके बाद ही फौरन अभ्यास की सीढ़ी आ जाती है। क्योंकि यह ज्ञान होते ही एकाएक मन पूर्ण स्थिर तो हो जाएगा नहीं। अतएव अभ्यास तो करना ही होगा। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अनन्य भक्ति आप ही हो जाएगी। यदि साकार में मन टिकाने का अभ्यास होगा तो उसकी नहीं तो निराकार की ही।

इस प्रकार देखने से पता चल गया कि अभ्यास से ज्ञान, ज्ञान से ध्‍यान और ध्‍यान से भी कर्मों के फलों के त्याग को जो बड़ा या अच्छा बनाया है वह केवल इसीलिए कि वह क्रमश: नीचे की ही सीढ़ियाँ हैं। फलत: आम लोगों के काम की चीजें वही हैं। न कि सचमुच ही उनका दर्जा ऊँचा है। ऐसा मानना तो निरा पागलपन ही न हो के इससे पूर्व के श्लोकों के उलटा जाना भी हो जाएगा। हाँ, हमने जो कुछ कहा है उसे मानने में ही यह बात न होगी। इसी के साथ 10वें श्लोक में 'क्योंकि' के अर्थ में जो 'हि' आया है वह भी दुरुस्त सिद्ध होगा। क्योंकि हमारे रास्ते से तो 12वाँ पहले के तीन श्लोकों की ही बातों की पुष्टि करता है न? 'त्यागाच्छान्तिरन्नतरम्' - 'त्याग के अनंतर ही शांति' यह भी हमारे अर्थ में ठीक-ठीक लग जाता है। इतना ही नहीं। अभ्यास के बाद निराकार और साकार दोनों की ही अनन्य भक्ति हो सकती है, हमारे इस कथन का 12वें के बाद वाले श्लोकों से भी पूरा संबंध जुट जाता है। क्योंकि उनमें जिस दशा का और जिस समदर्शन का विवरण 13 से 19 तक के श्लोकों में है उसमें और 'विद्याविनयसंपन्ने' (5। 18-21) वाले समदर्शन में जरा भी अंतर नहीं है। 'विद्याविनय' वाला आत्मज्ञानी का ही है यह तो सभी मानते हैं। इसलिए यहाँ भी उसी को मानने में कोई उज्र नहीं हो सकता है। साकार भक्ति का भी पर्यवसान उसी में है; क्योंकि उस समदर्शन के बिना तो मोक्ष होई नहीं सकता। यही कारण है कि स्थितप्रज्ञ, भक्त और गुणातीत - तीनों ही - के वर्णन एक से ही हैं।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञाना द्ध्या नं विशिष्यते।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥ 12

क्योंकि अभ्यास से अच्छा - काम का - तो ज्ञान है, ज्ञान से भी अच्छा ध्‍यान है (और) ध्‍यान से भी अच्छा - कारगर - है कर्मों के फलों का त्याग। (क्योंकि इस) त्याग से फौरन ही शांति मिलती है। 12।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।

निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥ 13

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मे मद्भक्त: स मे प्रिय:॥ 14

हमारा जो योगी भक्त किसी पदार्थ से द्वेष न करे, सबके साथ मैत्री और करुणा का भाव रखे, ममता और अहंता - माया-ममता - से रहित हो, सुख और दु:ख में एक रस रहे, क्षमाशील हो, बराबर संतुष्ट रहे, मन को काबू में रखे, दृढ़ निश्चयवाला हो और मन एवं बुद्धि को हममें ही जिसने अर्पित कर - बाँध - दिया हो वही हमारा प्रिय है। 13। 14।

यस्मान्नीद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥ 15

जिससे न तो लोग (किसी भी तरह) उद्विग्न हों, जो लोगों से भी उद्विग्न न हो सके और जो हर्ष, क्रोध, भय और उद्वेग - घबराहट या परेशानी - (इन सबों) से रहित हो वही मेरा प्रिय है। 15।

अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।

सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥ 16

जो मेरा भक्त बेफिक्र या बेपरवाह, पवित्र, चतुर (और) पक्षपात रहित (हो), जिसमें भय या परेशानी न हो (और) जो सभी प्रकार के संकल्पों से सर्वथा रहित हो वही मेरा प्रिय है। 16।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥ 17

जिस भक्त को न तो किसी चीज से खुशी हो और न रंजिश, जिसे न तो कोई चिंता हो न आकांक्षा और जो बुरे-भले सभी से नाता तोड़ चुका हो वही मेरा प्रिय है। 17।

सम: शत्रौ च मि त्रे च तथा मानापमानयो:।

शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥ 18

तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी संतु ष्टो येन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥ 19

जो शत्रु और मित्र में सम है - जिसके शत्रु-मित्र हई नहीं, मान-अपमान में भी जो सम है - विचलित नहीं होता, शीत-उष्ण, सुख-दु:खादि में भी जो एक ही तरह रहे, जिसे कहीं भी आसक्ति न हो, निंदा और स्तुति जिसके लिए एक-सी हों, जिसकी जबान काबू में हो, (आवश्यकता होने पर कामचलाऊ) जोई मिल जाए उसी से जो संतुष्ट हो जाए, जिसका कोई घरबार न हो और जो अचल बुद्धिवाला हो, वही मनुष्य मेरा प्रिय है। 18। 19।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥ 20

जो भक्तजन मेरी ऊपर बताई इन धर्मयुक्त (एवं) अमृततुल्य बातों के अनुसार श्रद्धापूर्वक चलते और मेरे सिवाय अन्य किसी की परवाह नहीं करते वह मेरे अत्यंत प्रिय हैं। 20।

यहाँ 13वें श्लोक में जो मैत्र और करुण शब्द हैं वह 'मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्' (योग. 1। 33) के अनुसार मैत्री तथा करुणा गुणवालों के ही वाचक हैं। जैसे साबुन से कपड़े की मैल हटाते हैं वैसे ही चित्त की मैल हटाने और उसे न आने देने के ही लिए ये दोनों गुण माने गए हैं। यदि सुखिया के साथ मैत्री न हो तो ईर्ष्‍या हो सकती है। इसी तरह दुखिया पर करुणा न हो तो दु:ख से द्वेष हो सकता है। यही दोनों भारी मैल हैं।

इसी प्रकार उद्वेग का अर्थ है घबराहट। जिसके आचरण या रहन-सहन से औरों को तथा औरों के कामों से जिसे परेशानी जरा भी न हो वही सच्चा भक्त है।

सर्वारंभपरित्यागी का अर्थ है किसी भी भले-बुरे काम का संकल्प न करे। क्योंकि संकल्प के बाद जो कामना होती है वही फँसाती है।

उदासीन के मानी हैं, 'कोई मरे कोई जिए, फक्कड़ घोल बताशा पिए' यानी दुनिया के झमेलों का जिस पर कोई असर न हो - जो किसी ओर न झुके।

यद्यपि इन श्लोकों में सम शब्द दोई बार आया है और उसी के अर्थ में तुल्य एक बार आया है; तथापि अंत के सात श्लोक समदर्शन का ही चित्रण करते हैं और यही है आत्मज्ञान। इस अध्‍याय में प्रतिपादित भक्ति का रहस्य तो बताई चुके हैं और वही इसका विषय है।

इति श्री. भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्याय:॥ 12

श्री. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका भक्ति-योग नामक बारहवाँ अध्‍याय यही है।

तेरहवाँ अध्‍याय

यह बात बारहवें अध्‍याय के शुरू में ही कह चुके हैं कि वह समूचा अध्‍याय ग्यारहवें के बाद प्रसंगवश आ गया है। इसीलिए उसे पूरा करने के बाद पुनरपि मुख्य विषय ज्ञान-विज्ञान एवं उसके पदार्थों पर आ जाना जरूरी है - उन्हीं पदार्थों पर जिनका सविस्तार निरूपण दसवें तथा प्रदर्शन ग्यारहवें अध्‍याय में हुआ है। वहाँ आत्मा से ही शुरू करके प्राण, चेतना, मन आदि सभी पदार्थों के साथ ही नदी, पहाड़ आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों का वर्णन आया है। उन्हीं में से कुछ प्रमुख पदार्थों के साथ ही कितनी ही रहस्यमय वस्तुओं को ग्यारहवें अध्याय में दिखाया भी गया है इस तरह दसवें और ग्यारहवें का पूरा मेल है। बल्कि यों कह सकते हैं कि दोनों मिल के वस्तुत: एक ही अध्‍याय हैं। इसी से विभूति और योग दोनों का ही उल्लेख दसवें में एक ही साथ किया भी है। इसे दो भागों में बाँटा तो गया है सिर्फ आसानी के लिए। जिससे दसवें में मौखिक विवरण और ग्यारहवें में उसी का प्रत्यक्ष प्रयोग होने से समझने में आसानी हो। यही वजह है कि तेरहवें अध्‍याय का श्रीगणेश दरअसल विभूतियों से ही शुरू होता है। यही उचित भी है। ग्यारहवें में जब उन्हीं विभूतियों का प्रदर्शन है तब तो मौखिक विचार या विवेचन-विश्लेषण के लिए विभूतियों को ही लिया जाना चाहिए। यह तो पहले ही कई बार कह चुके हैं कि मनन का काम चालू रहना ही चाहिए। यही कारण है कि ग्यारहवें के प्रयोग के बाद भी शेष अध्‍यायों में वह चालू है। तेरहवें में भी वही शुरू हो के आगे बढ़ता है।

यहीं यह भी जान लेने की चीज है कि तेरहवें तथा चौदहवें अध्‍याय में भी इस सृष्टि का ही विश्लेषण-विवेचन है। सोलहवें एवं सत्रहवें में इस विवेचन-विश्लेषण से होने वाले ज्ञान के संबंध की ही कुछ बातों का प्रकारांतर से निरूपण है। ज्ञान की असली बुनियाद क्या है, उसके लिए कौन-सी चीज जरूरी है, उसमें क्या-क्या बाधाएँ कैसे आती हैं, यही बातें सोलह तथा सत्रह अध्‍यायों में मुख्यत: आई हैं। रह गया बीच का पंदरहवाँ अध्‍याय। सो इसमें दोनों का मिश्रण है। कुछ दूर तक शुरू में मुख्यत: सृष्टि की बात है और अंत में प्रधानतया ज्ञान की ही बात आई है। इस प्रकार पाँच अध्‍यायों का बँटवारा प्राय: दो समान भागों में करके ज्ञानविज्ञान का निरूपण एक प्रकार से पूरा कर दिया गया है। अठारहवें में समस्त गीता का उपसंहार है। इसीलिए स्वभावत: ज्ञानविज्ञानी की भी बातें आई ही हैं, जैसा कि त्रिगुणात्मक पदार्थों के निरूपण से स्पष्ट है।

हाँ, विभूति संबंधी पदार्थों को देखने और जानने के बाद जो पहला सवाल किसी भी समझदार के मन में हो सकता है वह यही कि आखिर इन सभी भौतिक या प्राकृतिक पदार्थों का निर्लेप आत्मा से ताल्लुक क्या है और क्यों है? यदि कुछेक का संबंध रहे भी, तो भी सभी महाभूतों और पर्वतादि भीषण पदार्थों से क्या ताल्लुक? अगर यह भी मान लें कि क्लिष्ट से क्लिष्ट और भीषण से भीषण हिम-प्रदेशों तक में भी जीवों की सृष्टि तो मिलती ही है, उस जीव से सुना तो कोई पदार्थ हई नहीं, तो सवाल होता है कि काजी को शहर की फिक्र से दुबले होने तथा मरने की क्या जरूरत? अर्जुन चला था अपनी शंकाएँ मिटाने। उसे थी अपनी आत्मा के कल्याण की चिंता। फिर सारे संसार के इस पँवारे की क्या जरूरत? और अगर यही मान लें कि आत्मा तो एक ही है और उसी के ये अनंत रूप हैं; इसीलिए सभी की फिक्र करनी ही पड़ती है, तो प्रश्न होता है कि ये अनंत रूप हुए क्यों और कैसे? यह आत्मा इस भारी बला में आ फँसी क्योंकर? इन वाहियात पदार्थों से इसका मेल भी क्या है कि इनमें आ फँसी? यदि ये पूर्व जाने वाले हैं तो वह पच्छिम। फिर यह क्या हो गया कि दोनों की जुटान आ जुटी और सारी विडंबना खड़ी हो गई? इस तरह के प्रश्नों का उठना निहायत अनिवार्य है। कृष्ण इसे बखूबी समझते थे। यही कारण है कि बिना पूछे ही इनका उत्तर देना तेरहवें अध्‍याय के पहले श्लोक से ही शुरू कर दिया।

सचमुच गीता का यह अध्‍याय बहुत ही सुंदर है। इसकी व्यावहारिक उपयोगिता होने के साथ ही निरूपण की शैली कितनी सरस और चित्तकर्षक है! देखिए तो सही, आखिर खेतों का और खेतिहर किसान का भी क्या ताल्लुक होता है किसान जब चाहे छोड़ के भाग जा सकता है। उसी ने तो खेतों को अपनाया है। और उनके हानि-लाभ की जवाबदेही माथे पर अपने मन से ही ली है। परिणाम यह होता है कि वह खेतों के साथ बँध जाता है, उसका उनके साथ अपनापन हो जाता है, उन्हें वह अपना - निजी - मान बैठता है। हालाँकि जमींदार और सरकार पद-पद पर उसे उनसे बेदखल करने को तैयार रहती है। बेदखल कर भी देती है। फिर भी उसका अपमान पिंड नहीं छोड़ता और वह छाती पीट के मरता है। बेदखली के पहले भी न सिर्फ उनकी उपज के ही लिए जवाबदेह होता है; किंतु उनसे होने वाले हानि-लाभ का भी उत्तरदायित्व उसी पर होता है। वह उसी के पीछे मरता रहता है। इतना ही नहीं। यों तो उसने अपने मन से उन्हें हथियाया था। मगर अगर यों ही उन्हें छोड़ भागना चाहे तो जाने कितनी ही कानूनी-गैरकानूनी अड़चनें खड़ी हो जाती हैं, जिनके करते छोड़ के भाग भी नहीं सकता। इस बुरी गति के लिए बेशक उसकी नादानी, बेअक्ली और पस्तहिम्मती ही जवाबदेह हैं। यह बात हमारी नजरों के सामने रोज ही गुजरती है।

बस ठीक यही हालत आत्मा की है। वह खेतिहर है, खेती करने वाला है, खेतों की सारी बातें जानता है कि खेत कैसे हैं, किनमें क्या पैदा होता है, हो सकता है। वगैरह-वगैरह। वह क्षेत्रज्ञ है, क्षेत्र है। और ये इंद्रियादि भौतिक पदार्थ? यही तो खेत हैं, क्षेत्र हैं। यही तो लंबे-चौड़े चारों ओर फैले हैं और जाने हजारों तरह की बुरी-भली फसलें पैदा करते रहते हैं। इन्हीं के मालिक आत्माराम हैं। वह इन्हीं को ले के परेशान हैं, पामाल हो रहे हैं, जल-मर रहे हैं। इन खेतों के भी दो विभाग हैं, व्यष्टि और समष्टि। व्यष्टि या टुकड़े-टुकड़े के भीतर सभी के जुदे-जुदे शरीर वगैरह आ जाते हैं। समष्टि, जो एक जगह मिलीमिलाई चीज है, के भीतर, प्रधान या मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार आदि आ जाते हैं। यह बात हम पहले ही बखूबी बता चुके हैं। वहीं कह चुके हैं कि महत्; महत्तत्त्व या महान नाम समष्टि बुद्धि का ही है। इसी बात को इस तेरहवें के शुरू में ही अच्छी तरह लिख दिया है। आत्मा के शरीर के ही भीतर इस स्थूल शरीर और प्रकृति को लिखा है। उसके बाद इससे संबंध रखने वाली सभी चीजों का ब्योरा भी दिया है। इस तरह समूचे संसार को शरीर और शरीर वाले या शरीरी - देही - के रूप में दो हिस्सों में बाँट दिया है और कह दिया है कि यह सब ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा का ही - मेरा ही - पसारा है। जब शरीर की सारी बातों की जवाबदेही शरीरी पर ही है यह रोज ही देखते हैं; इसीलिए शरीर के सुख-दु:खों को भी उसे ही भोगना पड़ता है, तो फिर समूचे संसार की बला भी उसी के माथे क्यों न आए? जैसे रस्सी का काम है किसी पदार्थ को कहीं बाँध देना, फँसा देना; रस्सी को गुण या गोन भी कहते है; ठीक उसी तरह तीनों गुणों ने इस खेतिहर आत्माराम को शरीर में बाँध और फाँस दिया है। यही बात 'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (13। 21) में कही गई है। जिस तरह वेश्या किसी भोले-भाले को फँसा के उसे खराब कर डालती है, वैसे ही प्रकृति अपनी अनेक वेषभूषा बना के आत्मा को फँसा लेती और तबाह कर डालती है। यही बात 'पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान्' (13। 21) में कही गई है।

प्रश्न होता है कि क्षेत्रज्ञ इन क्षेत्रों में खुद ही बँध तो गया है। अब इनसे पिंड छूटने में दिक्कत भी है। वेश्या ने इस भोले-भाले को अनजान में फँसा लिया है सही। काफी बर्बाद भी कर डाला है। मगर क्या इस आफत से छूटने का कोई उपाय नहीं है? और अगर है तो कौन-सा?

उत्तर है कि उपाय जरूर है । जब हम सारी बातें ठिकाने से समझ जाएँ, अपनी हालत बखूबी जान जाएँ, हमारा क्या अधिकार है, हम क्या कर सकते हैं, फँसने की वजह क्या है, आदि चीजें जान लें, तो हिम्मत कर इन्हें उठा फेंकेंगे। दूसरा रास्ता है नहीं। इसके लिए खेतों का पूरा ब्योरा और शुरू से उनका इतिहास भी जान लेना जरूरी है कि ये कब कैसे तैयार हुए और हम इनमें कैसे-कैसे फँसे। क्योंकि इसी जानकारी से हमें काफी वजहें मिल जाएँगी, जिनके बल पर बाजीदावा दे के हट जाएँ। और माकूल वजह होने पर इसमें अड़चन भी क्यों होगी? यही बात शुरू के 'महाभूतान्यहंकार' प्रभृति श्लोकों में है। इनमें खेतों का कच्चा चिट्ठा है। 'अमानित्वमदंभित्व' आदि में जानकारी के उपाय बताए गए हैं जिससे हम पूरे आगाह हो जाएँ और हिम्मत ला सकें। वेश्या का कच्चा चिट्ठा जान लेने पर ही, उसके सभी गुणों - सभी कारनामों - को बखूबी समझ लेने पर ही, उसके जाल से छूट सकते हैं। इसीलिए प्रकृति का ब्योरा दिया गया है; ताकि जानकर सजग हो सकें। इन्हीं सब बातों को दिमाग में रख के -

श्रीभगवानुवाच

इदं शरीरं कौंतेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:॥ 1

श्रीभगवान कहने लगे (कि) हे कौंतेय, इस शरीर को (ही) क्षेत्र - खेत - कहा जाता है (और) जो इसे बखूबी जानता है उस (आत्मा) को ही उसके जानकार लोग क्षेत्रज्ञ या खेतिहर कहते हैं। 1।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षे त्रे षु भारत।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥ 2

हे भारत, सभी क्षेत्रों में (रहने वाला) क्षेत्रज्ञ भी मुझी को जानो। (इस तरह) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही ज्ञान मैं ठीक मानता हूँ। 2।

यहाँ 'भी' के मानी में जो 'च' आया है, और इसी की ओर इशारा करते हुए उत्तरार्द्ध में जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनों का उल्लेख है उससे भी, यही मानना पड़ता है कि 'भी' कहने से क्षेत्र ही लिया जाना चाहिए। इस तरह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों ही परमात्मा या ब्रह्म से जुदा सिद्ध नहीं होते। फलत: अद्वैतवाद स्थापित होता है। इसी अद्वैत ज्ञान को कृष्ण अपना मत, निजी मंतव्य कहते हुए सही बताते हैं। यहाँ सभी क्षेत्रों में के अर्थ में 'सर्वक्षेत्रेषु' कह के 'क्षेत्रज्ञ' जो एक वचन दिया है उसका आशय यही है कि एक ही आत्मा सबमें व्याप्त है। उसी के ये अनंतरूप हैं, शरीर हैं और सब कुछ है। इसीलिए अर्जुन के वास्ते सभी की जानकारी और चिंता जरूरी थी।

तत्क्षे त्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।

स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥ 3

वह क्षेत्र जो कुछ है, जितने प्रकार का है और उसके जितने विकार या कार्य हैं, (साथ ही) वह (क्षेत्रज्ञ) भी जो कुछ है और उसका जो प्रभाव है, सभी कुछ संक्षेप में मुझसे सुन लो। 3।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छंदो भिर्विवि धै : पृथक।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चेव हेतुमदि्भ र्वि निश्चितै:॥ 4

ऋषियों ने (यही बात) बहुत ढंग से वर्णन की है, वेद के अनेक मंत्रों ने जुदा-जुदा (कही है) और ब्रह्मप्रतिपादक उपनिषद् वाक्यों ने भी तर्कयुक्ति के साथ निश्चित रूप से बताई है। 4।

इस श्लोक में इस विषय के प्रमाणों को कह चुकने के बाद अगले श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पूर्वोक्त सारी बातें कहना शुरू करेंगे और इस प्रकार तीसरे श्लोक में छिड़ी बातों को बताएँगे। यही बात 18वें श्लोक तक जाएगी। उसके बाद इन्हीं का विशेष विश्लेषण चलेगा। यहाँ ऐसा कहने का प्रयोजन यही है कि यह एकदम कोई नई बात नहीं है। जिसे पहले पहल कृष्ण ही कह रहे हों। क्योंकि सृष्टि और उससे आत्मा का संबंध यह चीज बहुत ही पुरानी है। इसीलिए इस पर ऋषि-मुनियों, वैदिक मंत्रों और उपनिषदों का ध्‍यान जाना जरूरी था। और अगर फिर भी न गया है, तो हो न हो कुछ बात है, ऐसा खयाल हो सकता था। फलत: आगे के उपदेशों में अश्रद्धा की गुंजाइश भी हो सकती थी। इसलिए पहले ही कह दिया कि ये बातें अपने-अपने ढंग से पहले भी सबने खूब ही लिखी हैं। कर्म-अकर्म या कर्मयोग की बात तो जुदी है। इसलिए उसमें मतभेद या नवीनता की गुंजाइश हो सकती है। वह मानी भी जा सकती है। मगर जिस आत्मज्ञान के आधार पर वह बात कही गई है उसमें ही यदि गड़बड़ हो तो समूचा आधार ही खत्म समझिए। यह भी नहीं कि इसमें भी मतभेद रहेगा ही। यह तो कर्तव्य की बात न हो के वस्तुस्थिति या ठोस चीज (hard fact) की बात है न? और अगर इसमें ही मतभेद या नवीनता चले तो सर्वत्र अविश्वास ही अविश्वास हो जाएगा। इसीलिए यह कह देना जरूरी था कि इसमें सभी की एक ही राय है। हाँ कहने का तरीका जुदा-जुदा जरूर है।

इस श्लोक में ऋषियों, वैदिक मंत्रों और ब्राह्मणों या उपनिषदों के वचनों का निर्देश है। वैदिक मंत्रों के द्रष्टा या बनाने वाले बहुतेरे ऋषियों को तो मानते ही हैं। उन्हीं की ओर इशारा करते हुए उपनिषदों तथा ब्राह्मण ग्रंथों में प्राय: जगह-जगह लिखा पाया जाता है कि 'ऐसा तो ऋषि ने भी कहा है' 'तदुक्तमृषिणा' वेदमंत्रों के रूप में ही सही या और रूप में भी सही। हर हालत में ऋषियों ने पहले बहुत कुछ कहा है जरूर। वह लोग स्वतंत्र रूप से आत्मा और सृष्टि का विवेचन न करते, भला यह कैसे संभव था? उनका तो यही काम ही था। इस तरह एक तो उनका स्वतंत्र कथन है। दूसरे वैदिक मंत्रों में भी 'नासदीय सूक्त' में जो ऋग्वेद के दसवें मंडल का 129वाँ सूक्त माना जाता है तथा अन्यान्य बीसियों मंत्रों में ब्रह्म से इस सृष्टि के विस्तार का उल्लेख है। वैदिक मंत्रों को ही यहाँ छंद पद से लिया है। 'एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति' (ऋग्वेद 10। 114। 5), 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति' (ऋ. 1। 164। 46), 'देवानां पूर्येव्युगेऽसत: सदजायत' (ऋ. 10। 72। 2), तथा 'द्वासुपर्णा सयुजा' (1। 164। 20) आदि में कितना सुंदर और वाद-विवादात्मक वर्णन है! पुरुषसूक्त में, जो यजुर्वेद में भी पाया जाता है, यही बात कितनी विशद रूप में है। वैदिक मंत्रों के सिवाय वेद के ही ब्राह्मण भाग में जो उपनिषद् माने जाते हैं उनमें तो इस सृष्टि का वर्णन तर्क और युक्तियों के साथ आया ही है। यदि केवल छंदोग्य के छठे अध्‍याय को ही देखें तो तबीयत खुश हो जाए। यों तो प्रश्न, श्वेताश्वतर आदि में भी यही बातें आती हैं। वहाँ भी पूरा वाद-विवाद एवं गंभीर विवेचन पाया जाता है। मुंडकोपनिषद् (3। 1। 1) में तो ऋग्वेद का 'द्वासुपर्णा सयुजा' मंत्र ही ज्यों का त्यों आया है।

छांदोग्य के छठे अध्‍याय के दूसरे ही खंड में पहले कहा है कि सृष्टि के पहले केवल सत् या ब्रह्म था और उसी से सृष्टि हुई 'सदेवसोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्'। उसके बाद ही कुछ मतवादों का उल्लेख करके और यह कह के कि वह तो पहले असत् या शून्य ही मानते और उसी से सृष्टि का पसारा स्वीकार करते हैं, यह सुंदर तर्क दिया है कि भला यह कैसे होगा? भला, असत् से यह विरोधी सत् पदार्थ कभी पैदा हो सकते हैं? 'कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति होवाचकथमसत: सज्जायत'? भला, इससे बढ़के निश्चित और तर्कयुक्त बात और क्या हो सकती है? इसी अध्‍याय में पूर्वोक्त वटबीज का दृष्टांत दे के समझाया गया है। यह भी कहा गया है कि जल, अग्नि आदि से ही उसके मूल कारण ब्रह्म का पता लगता है। ऐसी ही हजारों युक्तियाँ दे के और विश्लेषण-विवेचन करके ब्रह्म का तर्क-दलील के साथ अत्यंत निश्चित प्रतिपादन किया गया है। इन्हीं वचनों का इस श्लोक में ब्रह्मसूत्रपद या ब्रह्म के सूचक एवं प्रतिपादक वाक्य कहा है। इस पर विशेष विचार पहले ही हो चुका है।

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।

इंद्रियाणि दशैकं च पंच चेंद्रिय गोचरा:॥ 5

इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं संघातश्चेतना धृ ति:।

एतत्क्षे त्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥ 6

पाँच महाभूत, जिन्हें पंचतन्मात्रा या सूक्ष्म भूत कहते हैं, अहंकार समष्टि बुद्धि या महत्तत्त्व, प्रकृति, ग्यारह इंद्रियाँ, इंद्रियों के पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, शरीर, जो इंद्रियों के संबंध से सुख-दु:ख का अनुभव करता है, चेतनता या बुद्धि और धैर्य-संक्षेप में यही क्षेत्र और उसके विकार - कार्य - कहे गए हैं। 5। 6।

इस पर यहाँ ज्यादा लिखने की जरूरत नहीं। पहले ही पूर्ण प्रकाश डाल चुके हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति, महान, अहंकार और पंचतन्मात्रा ये आठ-दस इंद्रियाँ और अंत:करण ये ग्यारह और इंद्रियों के रूप, रस आदि पाँच विषयों को मिला के सोलह, इस प्रकार कुल चौबीस पदार्थ मान के प्रकृति या प्रधान को मूल माना है। वही यहाँ तीसरी श्लोक का क्षेत्र है। जिन सात को उसके बाद गिनाया है ये प्रकृति-विकृति कहाते हैं। प्रकृति से पैदा होने से विकृति या विकार और कार्य कहे जाते हैं। खुद इंद्रियादि को पैदा करने के कारण ही प्रकृति या कारण भी कहे जाते हैं। तीसरे श्लोक में जो क्षेत्र के प्रकार का उल्लेख है वह यही सात हैं। प्रकृति-विकृति की जगह यादृक् या जितने प्रकार का कह दिया है। शेष सोलह और इच्छादि सात कुल तेईस को यहाँ विकार, विकृति या कार्य कहा है। सांख्य के सोलह की संख्या को कुछ और भी बढ़ा दिया है। दूसरा फर्क नहीं है। इसका और भी विस्तार हो सकता है। इसीलिए कह दिया है कि संक्षेप में ही इतने गिनाए हैं।

तीसरे श्लोक में 'जिससे जो बनता या होता है' - 'यतश्चयत्' - भी एक बात कही गई है। उसका उत्तर या विवरण आगे के पाँच श्लोकों में है। तीसरे श्लोक में इसके बाद ही क्षेत्रज्ञ की बात आ गई है, जिसका विवरण इन पाँच श्लोकों के बाद ही 12वें से 17वें तक में आया है। फिर 18वें में सभी का उपसंहार कर लिया है। यहाँ तक तो तीसरे श्लोक की बातें संक्षेप में ही कह दी गई हैं। इसीलिए 19वें से फिर विशेष विवरण और निरूपण क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ही बारे में चला है, न कि अन्य ब्योरे के बारे में। 18वें में लिखा है कि क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय - क्षेत्रज्ञ - को कह चुके। उससे पता चलता है कि पाँच श्लोकों में जो ज्ञान की बात आई है वही 'यतश्चयत्' का उत्तर या विवरण है। इन शब्दों का मोटा अर्थ यह है कि 'जिससे जो हो सके'। साढ़े चार श्लोकों में जो कुछ गिनाया है वह ज्ञानोत्पत्ति के साधन हैं। उनके बिना ज्ञान होई नहीं सकता। उनमें हरेक ज्ञान के लिए अनिवार्य रूप से अपेक्षित है, जैसा कि उनके नामों से ही स्पष्ट है। कुल 21 बातें गिनाई गई हैं और सभी ऐसी ही हैं। यों तो 'जन्म-मृत्युजराव्याधि' (13। 8) में चारों के अलग-अलग दु:ख एवं दोष देखने से आठ हो जा सकते हैं। फलत: 21 की जगह 27 हो जाएँगे। शेष आधे या 11वें के उत्तरार्द्ध में कह दिया है कि ये ज्ञान हैं और इनसे उलटी बातें हैं अज्ञान हैं। ज्ञान के साधन होने से ही इन्हें ज्ञान कह दिया है। इसी तरह अज्ञान के साधन या पैदा करने वाले अभिमान, दंभ, हिंसा आदि को अज्ञान भी इसीलिए कह दिया है। इससे साफ हो गया है कि किनसे ज्ञान पैदा होता है और किनसे अज्ञान। इस तरह जिससे जो पैदा होता है यह जो तीसरे श्लोक में कहा गया है उसका विवरण इन पाँचों में पूरा हो गया। पाँचों ने कह दिया कि अभिमान-शून्यता आदि से ज्ञान होता है और अभिमान आदि से अज्ञान।

अमानित्वमदंभित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम्।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:॥ 7

इंद्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।

जन्ममृत्युजराव्याधि दु:खदोषानुदर्शनम्॥ 8

असक्तिरनभिष्वंग: पुत्रदारगृहादिषु।

नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥ 9

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥ 10

अध्‍यात्‍मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥ 11

अभिमान-शून्यता, दंभ या दिखावटी काम की शून्यता, अहिंसा, क्षमा, नम्रता, आचार्य या उपदेश की सेवा-शुश्रूषा, पवित्रता, स्थिरता, मन पर काबू, इंद्रियों के विषयों से वैराग्य, अहंकार का त्याग, जन्म-मृत्यु-बुढ़ापा-रोग इन चारों के दु:खों और बुराइयों का निरंतर खयाल, पुत्र-स्‍त्री-घर-बार आदि में आसक्ति का त्याग तथा इनमें तन्मयता का न होना, बुरी-भली बातें हो जाने पर भी हमेशा चित्त में उनका असर होने न देना, भगवान या आत्मा में ऐसी अनन्य भक्ति जो कभी डिग न सके, एकांत स्थान का सेवन, लोगों के भीड़-भड़क्के में रुचि का न होना, अध्‍यात्‍मशास्त्र में निरंतर लगे रहना और तत्त्वज्ञान या आत्मसाक्षात्कार के प्रयोजन पर नजर रखे रहना, यही ज्ञान के साधन हैं। इनके विरुद्ध अभिमान, दंभ आदि अज्ञान को पैदा करते और बढ़ाते हैं। 7। 8। 9। 10। 11।

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥ 12

सर्वत: पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।

सर्वत: श्रुतिमल्लो के सर्वमावृ त्त्य तिष्ठति॥ 13

र्वेंद्रिय गुणाभासं स र्वेंद्रिय विवर्जितम्।

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥ 14

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चांति के च तत्॥ 15

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥ 16

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥ 17

जो जानने योग्य - क्षेत्रज्ञ - है और जिसके ज्ञान से मोक्ष मिलता है वही वस्तु अभी-अभी कहे देता हूँ। (वह वस्तु) आदि शून्य परब्रह्म ही है। वह न तो स्थूल और कार्य कहा जाता है और न सूक्ष्म और कारण ही। उसके हाथ, पाँव, आँख, सिर और मुँह सभी जगह हैं - अर्थात वह सर्वत्र मौजूद है। उसके कान (भी) सर्वत्र हैं। वह सभी पदार्थों को घेरे पड़ा है। सभी इंद्रियों के कामों में वह लिपटा-सा रहता है (जरूर)। (मगर वस्तुत:) सभी इंद्रियों से रहित है। कहीं भी चिपका नहीं है। (फिर भी) सबों को कायम रखता है। निर्गुण है। (साथ ही) गुणों (के कामों और फलों) को भोगता (भी) है। सभी पदार्थों के बाहर भी है और भीतर भी। (स्वयमेव) चर, अचर (पदार्थ रूपी भी) है। सूक्ष्म होने से ही बखूबी जाना नहीं जा सकता। दूर भी है (और) नजदीक भी। पदार्थों के बँटा न हो के सबमें एकरस है। (मगर) अलग-अलग जैसा लगता है। पदार्थों का भरण-पोषण करने वाला उसी को जानना चाहिए। वही सबको ग्रस लेने वाला और बनाने वाला भी है। वही ज्योतियों को भी ज्योति देने वाला (तथा) अँधेरे से परे माना जाता है। (वही) पूर्वोक्त ज्ञान है और ज्ञेय भी। ज्ञान के द्वारा प्राप्त करने योग्य भी वही है। वही सबों के हृदय में मौजूद है। 12। 13। 14। 15। 16। 17।

इन श्लोकों में जो कुछ भी वर्णन है वह आलंकारिक होने के साथ ही वास्तविक स्थिति से पूरा ताल्लुक रखता है। यही इसकी खूबी है। आत्मा के बारे में जो कुछ हमने पहले लिखा है यदि उसे अच्छी तरह से हृदयंगम कर लिया जाए तो ये सारी बातें बखूबी समझ में आएँ। इन्हें पढ़ के मजा भी आए। हाँ, एक बात कह देना जरूरी है। आत्मा तो ऐसी ठसाठस भरी हुई जैसी है कि उसमें विभाग करने या उसे अलग-अलग देखने की गुंजाइश हई नहीं, बशर्ते कि हमारी दृष्टि ठीक हो आखिर इंच भर भी, अणु या बाल भर भी कोई जगह है नहीं जो खाली हो। जहाँ कुछ नहीं वहाँ अनंत परमाणु ही मौजूद हैं, या अगर और नहीं तो दिशा और काल (Space and time) तो हईं, और वह है इन सबों की आत्मा। इसीलिए बीच-बीच में फाँक पड़ने की संभावना ही कहा है? फलत: चाहे हम कुछ बोलें, कहीं जाएँ, कहीं हाथ बढ़ाएँ किधर भी मुँह, सिर या आँखें करके इशारा करें, सर्वत्र सब कुछ जानने-सुनने के लिए वह मौजूद ही है। उसके बिना टिके कौन? और न टिकने में भी तो निषेध रूप से (Negatively) उसे रहना ही पड़ता है।

यहाँ ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य ये तीन बातें कही गई हैं। इनमें दो तो पहले ही आ चुकी हैं - ज्ञान और ज्ञेय। इसीलिए उचित समझते हैं कि उन्हीं का उल्लेख इन श्लोकों में माना जाए, न कि सर्वसाधारण ज्ञान और ज्ञेय का। 18वें श्लोक में भी, जो आगे आ रहा है, उसी ज्ञान और ज्ञेय का नाम लिया है। अतएव बीच में दूसरे ज्ञान और ज्ञेय को लेना हमने उचित नहीं समझा। तब तो जबर्दस्ती-सी हो जाती - अकांड तांडव बन जाता। एक बात और भी इस ज्ञान और ज्ञेय के ही संबंध में जान लेने की है। पहले भी 'क्षेत्रक्षेत्रयोर्ज्ञानं' (13। 2) में ज्ञान की बात आई है। वहाँ ज्ञेय की जगह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ आए हैं। बेशक 'अमानित्व' आदि में जो ज्ञान शब्द है वह ज्ञान के साधनों के ही लिए आया है। मगर इसके यह मानी हर्गिज नहीं कि उससे उन साधनों का ही बोध होता है, न कि ज्ञान का भी। उसका तो असली मतलब यही है कि इन्हीं साधनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, उसी से हम इन दोनों की हकीकत जान सकते हैं। फिर भी 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो:' इस षष्ठी के रहने के कारण उन दोनों के ज्ञेय या ज्ञान के विषय होने पर भी उस ज्ञेय और इस ज्ञेय में फर्क है। वहाँ ज्ञान ही प्रधान और वही दोनों अप्रधान हैं। क्योंकि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के जो रूप हैं और जिनका ज्ञान होता है वह तो मायामय हैं, कल्पित हैं। उनकी भी हकीकत तो ब्रह्मात्मा ही है। इसीलिए षष्ठी लिख के उन्हें अप्रधान या अमुख्य बना दिया है। मगर यहाँ तो साफ ही 'ज्ञेयम्' लिखा है। इसलिए यह मुख्य है। अतएव 'ज्ञानगम्यं' विशेषण यहाँ लगा दिया है। इसका आशय यह है कि ज्ञान के द्वारा अंत में हमें वहीं पहुँचना है। फिर वह असल और हकीकत क्यों न हो? ऊपर के श्लोकों में जिन अनेक रूपों में इस ब्रह्मात्मा को दिखाया है कहीं लोग उन रूपों को ही ठीक न मान बैठें इसलिए भी 'ज्ञानगम्यं' कह दिया, जिससे स्पष्ट हो गया कि ये सब रूप या ढंग केवल उसे जानने, देखने या नजर में लाने के लिए ही हैं न कि वही वस्तुगत्या इन रूपोंवाला है। इस तरह उसके प्रभाव की भी जानकारी हो जाती है। यह बात 'यत्प्रभावश्च' में पहले ही आई थी भी।

अब आगे के श्लोक में यहाँ तक कही गई सभी बातों का उपसंहार करते हुए इसकी आवश्यकता भी बता देते हैं। किंतु उसके बाद पुनरपि क्षेत्र या प्रकृति का विशेष ब्योरा जानना जरूरी है। क्योंकि उसके गुणों और चालों को जाने बिना उससे पार पा नहीं सकते। साथ ही, क्षेत्रज्ञ, उसमें किस तरह फँसता है यह भी जान लेना जरूरी होने के कारण उसका भी कुछ ब्योरा आगे दिया गया है। इस तरह 'यो यत्प्रभावश्च' इन दोनों का विशेष विवरण भी हो जाता है। खासकर 'य:' या 'जो' का विवरण बहुत जरूरी है। क्योंकि वह अभी अच्छी तरह बताया जा सका है नहीं।

इति क्षे त्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।

मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥ 18

संक्षेप में क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय यही कहे गए हैं। मेरा भक्त इसे ठीक-ठीक जान के मेरा ही रूप हो जाता है। 18।

उत्तरार्द्ध से तो यह भी स्पष्ट है कि जिस भक्ति की बात बारहवें अध्‍याय में आई है वह साधन ही है। उसका भी नतीजा अंत में यह ज्ञान ही है, जिसे विज्ञान या आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। आखिर भक्त कहने के बाद और मेरा स्वरूप बनने के पहले पूर्वकालिक क्रिया के रूप में जो 'विज्ञाय' बीच में आ गया है उसका स्वरसिक अभिप्राय और होई क्या सकता है? यदि हठ या पक्षपात छोड़ के देखें तो मानना होगा कि पहले भक्ति होने से भक्त बने, फिर विज्ञान हुआ और उसके बाद अंत में मुक्ति हुई। हाँ, यह विज्ञानी भी भक्त होता है। मगर वह तो 'चतुर्विधा:' (7। 16-19) के 'तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त:' शब्दों में ही कहा जा चुका है।

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृति संभ वान्॥ 19

प्रकृति और पुरुष यह क्षेत्र एवं आत्मा इन दोनों को ही अनादि समझो। (इनमें भी) (सभी पूर्वोक्त) विकारों और गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जानो। 19।

यहाँ अनादि कह देने से यह प्रश्न जाता रहा कि आत्मा के फँसने या प्रकृति के संसर्ग में आने की क्या जरूरत थी। क्योंकि यह चीज तो कभी शुरू हुई नहीं कि इसकी वजह बताई जाए। यह तो सदा से ऐसी ही बनी है।

कार्यकरणक र्त्तृत्त्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।

पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥ 20

कार्य और करण को बनाने में कारण प्रकृति ही है। पुरुष (तो सिर्फ) सुख-दु:खों के भोगने में ही कारण है। 20।

पूर्व के श्लोक के उत्तरार्द्ध में जो कहा गया है कि सभी विकारों या कार्यों और गुणों को प्रकृति ही पैदा करती है, उसी का स्पष्टीकरण इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में है। इसीलिए कार्य शब्द का अर्थ है व्यष्टि तथा समष्टि शरीर। इसी प्रकार करण के मानी हैं व्यष्टि-समष्टि सभी इंद्रियाँ, जिनमें बुद्धि आदि आ जाती हैं। इन्हीं से सब संसार चलता है। कहीं-कहीं कार्यकारण पाठ है। उस दशा में पूर्वोक्त महत्तत्वादि सात को कारण और शेष इंद्रियादि को कार्य कहने में ही तात्पर्य है। गुण शब्द के मानी हैं गौण या पीछे बनी इंद्रियादि और तीनों गुण भी। हर हालत में समस्त संसार ही आ जाता है। केवल एक ही बात की कमी रह जाती है जिसे सुख-दु:खादि का भोग कहते हैं। क्योंकि उसके बिना संसार पूरा कैसे होगा? यदि सुख-दु:खादि किसी को भोगना न हो तो संसार कैसा? तब तो सारा मामला ही फीका हो जाए। इसीलिए उसकी पूर्ति उत्तरार्द्ध कर देता है कि पुरुष या आत्मा के ही चलते भोग होते हैं। यदि वह न हो तो इंद्रियादि जड़ पदार्थ कुछ करी न सकें। इसीलिए तो पुरुष की सत्ता भी मानना जरूरी हो जाती है। प्रकृति एवं उससे बने पदार्थ तो जड़ हैं। अंधे हैं। वह भोग का काम करी नहीं सकते, सभी बातों को नियंत्रण के द्वारा मिला-जुला के (Coordinate) रख नहीं सकते और बिना इसके भोग हो नहीं सकता। भोग के मानी ही हैं सभी चीजों को जोड़-जाड़ के सामने लाना। जैसे समष्टि के नियमन आदि (Coordination) के लिए अगत्या ईश्वर की सत्ता माननी पड़ती है, वैसे ही व्यष्टि के लिए आत्मा की। आगे यही तर्क दिया भी है।

पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान्।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥ 21

क्योंकि पुरुष ही प्रकृति के संबंध से ही उससे उत्पन्न त्रिगुण पदार्थों को भोगता है। (इस तरह जो) इन गुणों में उसकी आसक्ति है वही उसके भले-बुरे जन्मों का कारण है। 21।

उपद्रष्टानु मंता च भ र्त्ता भोक्ता महेश्वर:।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुष: पर:॥ 22

(असल बात यह है कि) इस देह में (यह जो) परमपुरुष है वह तो अलग हो के सभी बातों को सिर्फ देखता (और इसी रूप में) अनुमोदन करता है, कायम रखता है और (अंत में उन्हें) भोगता भी है। (वही) महेश्वर और परमात्मा भी कहा गया है। 22।

साक्षी होने से ही उपद्रष्टा कहा गया है। चेतन के बिना जड़ पदार्थों का काम हो नहीं सकता। कहीं न कहीं मूल में चेतन चाहिए ही। यही अनुमोदन है जिसे हमने सम्मेलन और नियंत्रण (Coordination) कहा है। यदि ऐसी शक्ति न हो तो सभी चीजें तखड़-पखड़ हो जाएँ। भर्त्ता कहने का भी यही आशय है। इस तरह के दूर के संसर्ग से ही वह भोगने वाला बन जाता है। क्योंकि शीशे में दूरस्थ रक्तपुष्प का प्रतिबिंब पड़ के वह भी लाल नजर आता ही है उसी तरह इंद्रियादि के सारे अनर्थ उसमें प्रतिबिंबित होते हैं। यही भोग है। लेकिन यह प्रतिबिंब जैसा ही है। इसीलिए वस्तुत: यह आत्मा महेश्वर ही है, परमात्मा ही है।

य एवं वेत्ति पुरुष प्रकृतिं च गुणै: सह।

सर्वथा वर्त्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥ 23

(इसीलिए) जो पुरुष को और प्रकृति को भी गुणों के साथ इस तरह ठीक-ठीक जान जाता है वह चाहे किसी भी दशा में रहे, (फिर भी) पुनर्जन्म नहीं पाता। 23।

ध्यानेनात्मनि पश्यंति केचिदात्मानमात्मना।

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगे न चापरे॥ 24

अन्ये त्वेवमजा नंत : श्रुत्वान्येभ्य उपासते।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥ 25

कुछ लोग ध्‍यान से ही अपने ही भीतर अपने आप आत्मा को (इस प्रकार) देखते हैं - साक्षात करते हैं। दूसरे लोग सांख्ययोग से ही (ऐसा करते हैं) तथा तीसरे (दलवाले) कर्मयोग से ही। लेकिन इस प्रकार नहीं जान सकने वाले कुछ लोग तो दूसरों से सुन के ही उपासना करते हैं। सुनने के अनुसार ही पूरा अमल करने वाले वे भी जन्ममरण से छुट्टी पाई जाते हैं। 24। 25।

ये दोनों श्लोक कुछ अजीब से हैं। विशेष विचार न कर सकने वाले इनसे धोखे में पड़ के आत्मज्ञान के चार स्वतंत्र मार्गों का प्रतिपादन इन श्लोकों में मान बैठते हैं; हालाँकि 'लोकेऽस्मिन् द्विविधा' (3। 3) के अनुसार पहले वही लोग दोई स्वतंत्र मार्ग मानते हैं। इस तरह इन श्लोकों के करते उन्हें भी घपले में पड़ना पड़ा है। लेकिन सच पूछा जाए तो इनमें ऐसी कोई बात है नहीं।

24वें के पूर्वार्द्ध में उसी समाधि का वर्णन है जिसका सविस्तार निरूपण छठे अध्‍याय में और उससे पहले भी आया है। यही तो ज्ञानप्राप्ति की अंतिम सीढ़ी है। मगर जो वहाँ तक न पहुँच सके हों उनके ही लिए उसी श्लोक के उत्तरार्द्ध में नीचे की दो सीढ़ियाँ कही हैं। ऐसे लोग दो तरह के होते हैं, जैसा कि 'तत्स्वयं योगसंसिद्ध:' (4। 38) और 'संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये' (5। 11) में कहा गया है, उसी के अनुसार कर्मों के करते-करते जिनका मन शुद्ध हो चुका है ऐसे लोग एक दल में हैं। अभी तक जिनके मन की शुद्धि शेष ही है वही दूसरे हैं दल में। फलत: पहले ऊपर और दूसरे नीचे हैं। तदनुसार ही पहले दलवाले सांख्य की रीति के अनुसार गुणों का विवेचन आत्मा से करके उसे निश्चय करते हैं। क्योंकि जब तक ऐसा निश्चय न हो जाए समाधि होगी किसकी? बस यही है सांख्ययोग या सांख्य की रीति। परंतु जो दूसरे दलवाले ऐसे नहीं हैं वह कर्म करते रहते हैं जिसे कर्मयोग कहा है। वह कर्म की ही रीति या मार्ग है जिससे धीरे-धीरे मन शुद्ध होता है। यह भी बात है कि यह सभी बातें पूरी जानकारी से ही हो सकती हैं। यहाँ तक कि कर्मों का मार्ग भी बीहड़ होने के नाते बहुत जानकारी चाहता है। लेकिन जिन्हें यह जानकारी होई नहीं, वह क्या करें? ऐसे लोग ही तो दुर्भाग्यवश ज्यादा होते हैं। इसीलिए उन्हीं के खयाल से 25वें श्लोक में सबसे नीचे की सीढ़ी कही है। ऐसे लोग दूसरे जानकारों से सुन-सुना के ही धीरे-धीरे इस काम में लगते हैं और आगे बढ़ते हैं। कहने का आशय यही है कि कर्म करने वालों में भी वे लोग नीचे दर्जे के ही होते हैं। बेशक वे ऐसे नहीं जो गीता की गिनती में आएँ ही न । वैसों की तो यहाँ चर्चा ही नहीं है। तीसरे अध्‍याय के शुरू में ही गीता की गिनती में जिन्हें लिया है उन्हीं में ये भी आ जाते हैं। अतएव ये चारों स्वतंत्र मार्ग न हो के एक ही मार्ग की नीचे-ऊपर की सिर्फ सीढ़ियाँ हैं।

इस तरह ध्‍यान या समाधि के फलस्वरूप जो समदर्शन होगा वही ज्ञान का असली रूप है। उसी का वर्णन इस अध्‍याय के शेष श्लोकों में है। इसी वर्णन में उसकी महत्ता भी आ गई है और वह कब पूरा होता है यह भी कह दिया है। कुछ तर्क-दलीलें भी दी गई हैं। इसका श्रीगणेश कहाँ से होता है। यह भी बताया गया है। क्योंकि जब तक यह न जान लें कि क्या मर्ज है। तब तक औषधि क्या करेंगे? इसीलिए क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ या प्रकृति और पुरुष के पूर्वोक्त आलंकारिक संबंध से ही इसका निरूपण यों शुरू करते हैं जिसका उल्लेख शुरू में ही है, ताकि अंत में भी वह चीज याद आ जाए -

यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावरजंगमम्।

क्षेत्रक्षेत्रसंगोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥ 26

हे भरतवंश में श्रेष्ठ, जो कुछ भी स्थावर और जंगम पदार्थ हैं या बनते हैं वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संबंध से ही होते हैं यह जान रखो। 26।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥ 27

(इसीलिए) सभी पदार्थों में एकरस रहने वाले तथा उनके नष्ट होने पर भी नष्ट न होने वाले परमेश्वर (रूपी आत्मा) को जो देखता है - साक्षात करता है - (दरअसल) वही देखता है - यथार्थदृष्टिवाला है। 27।

यहाँ निषेध दृष्टि से (Negatively) ही आत्मा की सत्ता मानी गई है, जिसे उपनिषदों में नेति-नेति की दृष्टि या मार्ग बताया है।

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परांगतिम्॥ 28

क्योंकि सर्वत्र एकरस रहने वाले ईश्वर को ही जो देखता रहता है वह स्वयं आत्मा को नष्ट नहीं करता - उसका असली रूप जान जाता है। इसीलिए वह परमगति - मुक्ति - पा जाता है। 28।

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।

य: पश्यति तथात्मानमक र्ता रं स पश्यति॥ 29

(इसीलिए) जो यह देखता है कि सभी कर्म तो प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हैं; आत्मा को (इसी से) जो अकर्त्ता - कुछ भी न करने वाला - देखता है, वही (तो) देखने वाला है - जानकार है। 29।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनु पश्यति।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा॥ 30

जब (मनुष्य) जुदे-जुदे दीखनेवाले पदार्थों को एक ही रूप - आत्मरूप - में देखता है और उसी से इनका पसारा देखता है तभी ब्रह्मरूप हो जाता है। 30।

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय:।

शरीरस्थोऽपि कौंतेय न करोति न लिप्यते॥ 31

हे कौंतेय, अनादि एवं निर्गुण होने के कारण ही यह विकारशून्य परमात्मा (रूपी पुरुष या जीव) शरीर में रहने पर भी न तो कुछ करता है और न किसी में सटता है। 31।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।

सर्व त्रा वस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥ 32

यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।

क्षे त्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥ 33

जिस तरह सर्वत्र रहने पर भी अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण ही आकाश किसी से भी नहीं चिपकता, उसी तरह सभी शरीरों में रहने वाली आत्मा भी किसी से लिप्त नहीं होती। जिस तरह एक ही सूर्य सारे संसार को प्रकाशित करता है, उसी तरह (एक ही) क्षेत्रपति - खेतिहर या क्षेत्रज्ञ - सभी क्षेत्रों को प्रकाशित करता है। 32। 33।

यहाँ दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक तो आत्मा को एक ही माना है। सूर्य का दृष्टांत भी साफ-साफ इसी मानी में दिया है। क्योंकि 'एक ही सूर्य' ऐसा कह दिया है। यों तो आकाश के दृष्टांत से भी आत्मा की एकता ही - अद्वैतवाद ही - सिद्ध है। दूसरी बात है निर्लेपता की। आकाश इतना बारीक है, सूक्ष्म है कि उसे कोई भी गंदगी या मैल पकड़ सकती ही नहीं। मगर जो आत्मा आकाश में भी है वह कितनी सूक्ष्म होगी यह तो आसानी से जाना जा सकता है फिर वह क्यों न निर्लेप हो? इस पर प्रश्न होता है कि सभी शरीरों का पथदर्शन या हिलना-डोलना एक ही आत्मा से कैसे होगा? उत्तर है कि एक ही सूर्य तो संसार को चलाता है, रास्ता बताता है। फिर जो सूर्य का भी सूर्य हो - उसकी भी आत्मा हो - वह सारी अंधी प्रकृति को क्यों न चलाए?

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम॥ 34

इस तरह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ में क्या विलक्षणताएँ हैं, फर्क हैं यह बात और जड़ प्रकृति का अंत या नाश भी ज्ञानदृष्टि से जो लोग जानते हैं वही परब्रह्म तक पहुँचते हैं। 34।

पहले सातवें अध्‍याय में प्रकृति दो प्रकार की कही गई है, परा और अपरा। यहाँ अपरा प्रकृति से ही मतलब है। उसी की पहचान के लिए उसे भूतप्रकृति यानी पंचभूतों की जननी कह दिया है। आत्मा तो ऐसी है नहीं। जो सांख्यवादी प्रकृति का नाश नहीं मानते वे गलत हैं यही जनाने के लिए कह दिया है कि प्रकृति का मोक्ष या नाश होता ही है। मिथ्या जो ठहरी। नाश के बाद ही तो मुक्ति होती है।

इस अध्‍याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रूप में ही संसार का विवेचन होने से वही इस अध्‍याय का विषय है।

इति श्री. क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो नाम त्रयोदशोऽध्याय:॥ 13

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग नामक तेरहवाँ अध्‍याय यही है।

चौदहवाँ अध्‍याय

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, चौदहवाँ अध्‍याय भी सृष्टि का विवेचन-विश्लेषण ही करता है लेकिन यह करता है इस काम को एक प्रकार से स्वतंत्र रूप से। इसकी वजह भी है जिससे यह अध्‍याय ही स्वतंत्र हो गया है। तेरहवें अध्‍याय ने बहुत फैली-फैलाई सृष्टि की, जो काबू के बाहर-सी प्रतीत होती थी, काबू में कर दिया। क्योंकि खेतिहर या किसान और क्षेत्र या खेत के रूप में सारी बातें रख के इन्हें और इनको ही लेके बनी सृष्टि को भी जैसे छोटी-सी बना के काबू में कर दिया गया है। क्षेत्र से बाहर जब कुछ हई नहीं और उसके बिना सारी घर-गिरहस्ती ही चौपट है, तो काबू और कहते हैं किसे? इस तरह जो चीज समझ में समा भी नहीं सकती थी वह अब दूसरी ही जान पड़ने लगी। अब उसका रूप इतना छोटा हो गया कि उसके नाम से होने वाली घबराहट दूर हो के उस समूची चीज के समझने-विचारने में सरसता आ गई। इसने ही उसमें चसका भी पैदा कर दिया।

लेकिन इतने पर भी शरीर इंद्रियाँ, प्राण प्रभृति और विषयों एवं विकारों के रूप में यह सृष्टि विस्तृत की विस्तृत ही है। सबों का खयाल-विचार करते-करते मन में थकान या ऊब-सी भी हो जाती है। शरीर, इंद्रियाँ वगैरह कह देना जितना आसान है इनका विचार उतना आसान नहीं है। विचारिए और देखिए कि लंबी-चौड़ी दुनिया सामने खड़ी हो जाती है या नहीं। फिर तो उधेड़-बुन करते-करते नाकों दम हो जाती है, घबराहट पैदा हो जाती है। इसलिए जरूरत थी इस बात की कि और भी संक्षिप्त रूप में इसे रख दिया जाए। साथ ही, वह संक्षिप्त रूप ऐसा हो कि साफ-साफ मालूम पड़े, समझ में आए। सभी पदार्थों को उसने अपने उदरस्थ कर लिया हो यह भी स्पष्ट नजर आता रहे। यदि ऐसा उपाय निकल आए तो कितना सुंदर हो, कितनी आसानी हो! भला, सभी विषयों का पूरा-पूरा विचेचन कर सकना और उनके गुणदोष को समझ पाना किसकी ताकत की बात है? यह भी कहना कि सभी चीजें बंधन में ही डालती हैं या बुरी हैं कितना खोखला लगता है! आखिर संसार के भीतर ही तो उपदेशक, विवेक और समाधि प्रभृति भी हैं! तो क्या ये भी बुरे हैं? यदि नहीं, तो समस्त संसार को बुरा क्यों कहा? क्या ये संसार में आ जाते नहीं? ऐसी हजार पेचीदा बातें पड़ी हैं जिनका समाधान तेरहवें अध्‍याय से नहीं हो पाता। इसलिए भी जरूरत थी कि कोई सरल मार्ग निकलता, कोई निराला आईना आविष्कृत होता, जिसमें सारी चीजें झलक पड़तीं और उनकी बुराइयाँ साफ मालूम हो जातीं। इन्हीं सब खयालों से चौदहवें अध्‍याय की स्वतंत्र आवश्यकता पड़ी।

इसमें सारी सृष्टि को तीनों गुणों के भीतर 'गागर में सागर' की ही तरह रख के कमाल कर दिया है! फिर भी खूबी यह है कि इनमें सारी दुनिया आईने की तरह चमकती है और यह पता फौरन चल जाता है कि क्यों और कैसे हरेक चीज बंधन का कारण होने से बुरी है। इतना आसान और सुंदर रास्ता शायद ही कहीं कभी मिल सकने वाला था। एक बात यह भी है कि तेरहवें में जो यह कह दिया है कि 'गुणों के साथ लिपटने और फँसने से ही आत्मा का नीच-ऊँच योनियों में जन्म होता रहता है' - 'कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (13। 21), उसका स्पष्टीकरण भी हो जाना जरूरी था कि यह बात कैसे होती है। इस अध्‍याय में हरेक पदार्थ का विश्लेषण करके बुरे-भले सभी को तीन गुणों का ही रूप बता दिया है। यह बात भी है कि ये तीनों ही गुण बंधन में डालने वाले हैं। फलत: सभी पदार्थ आसानी से बंधनकारी सिद्ध हो गए। आखिर गुण तो रस्सी को ही कहते हैं न? और रस्सी से लिपटना ही तो बंधन है। इस अध्‍याय का व्यावहारिक संसार में सबसे ज्यादा महत्त्व इस बात में है कि इसने बता दिया है कि स्वभाव से ही परस्पर विरोधी और एक दूसरे को मिटा डालने वाले पदार्थ भी किस प्रकार आपस में अच्छी तरह मिल के साथ चल सकते, एक दूसरे की मदद कर सकते और सारा काम अंजाम दे सकते हैं। यह अपूर्व उपदेश तो शायद ही कहीं मिला हो या मिलेगा।

यही कारण है कि चौदहवें के शुरू में ही इसे सबसे श्रेष्ठ बताया गया है, सर्वोत्तम कहा गया है। भला, इससे बढ़ के ज्ञान का सुंदर, सर्व-सुलभ और विशद मार्ग होई क्या सकता है? दूसरी तरह से ज्ञान या जानकारी प्राप्त करने पर तो कभी धोखा भी हो सकता है। मगर इसकी जो सबसे बड़ी खूबी है वह यही कि कहीं भी किसी भी पदार्थ में धोखे की गुंजाइश रहने पाती नहीं। यह तो सबों का छिपा रूप नंगा कर देता है। यही वजह है कि इस अध्‍याय में प्रकृति से सीधे ही गुणों का विस्तार और पसारा शुरू कर दिया है। गीता की पौराणिक शैली की सबसे सुंदर खूबी इस अध्‍याय में यह पाई जाती है कि शुरू में ही आलंकारिक भाषा में संतानोत्पत्ति की जगह सृष्टि की उत्पत्ति की कल्पना करके ब्रह्म के द्वारा प्रकृति में गर्भाधान लिखा गया है और उससे पहले-पहल एक ही साथ तीन बच्चों का जन्म बताया गया है। एक तो यही विलक्षणता है कि एक ही साथ तीन बच्चे! इससे खामख्वाह लोगों का ध्‍यान आकृष्ट हो जाता है कि बात क्या है। फिर वे खोद-विनोद करने लग जाते हैं, मनन में पड़ जाते हैं। दूसरे जब वे बच्चे परस्पर विरोधी और एक दूसरे को खाने पर ही तुले जैसे हों तब तो और भी आश्चर्यजनक चीज हो जाती है कि ये माता-पिता भी खूब हैं जिनने ऐसे बच्चे जने! इस तरह ब्रह्म को पिता और प्रकृति को माता के रूप में चित्रित करने का प्रयोजन भी पूरा हो जाता है।

सृष्टि के संबंध में शुरू-शुरू का जो गोलमोल और सामान्य ज्ञान या खयाल है वही गर्भाधान है। उसी के बाद प्रकृति से गुण-विस्तार के द्वारा सृष्टि फैलती है यह बात गुणवाद में बखूबी समझाई जा चुकी है। इस अध्‍याय का आशय समझने के पहले उसे पढ़ लेना आवश्यक है।

चौथे श्लोक तक तो भूमिका के रूप में यही बात कही गई है। उसके बाद के पाँच (5-9) श्लोकों में गुणों के निजी स्वभाव और काम बता के अनंतर 9 (10-18) श्लोकों में यह बताया गया है कि इन तीनों गुणों की आपसी शर्त्तबंदी है, जिससे एक के बाद दीगरे क्रमश: तीनों मुखिया होते हैं। मगर हर समय एक ही मुखिया और शेष दो उसी के अनुयायी होते हैं। किसकी नायकता की क्या पहचान है यह भी बताया गया है। उसी के साथ किस गुण की प्रगति के समय शरीरांत होने से मनुष्य की क्या गति होती है यह भी कहा है। अनंतर दो (19-20) श्लोकों में इन गुणों से छुटकारा पाने पर ही मुक्ति होती है, यह बता के शेष सात श्लोकों में इनसे छुटकारा पाने का उपाय और छुटकारा पाए हुए की पहचान बताई गई है। छुटकारा पाए हुए को ही गुणातीत कहा है। इन्हीं सात में पहला - 21वाँ - श्लोक अर्जुन के प्रश्न का है। क्योंकि जब ऐसी बात है तो घबरा के या उत्सुकतावश इनसे पिंड छुड़ाने की बात फौरन ही पूछ लेना उसके लिए अनिवार्य हो गया था। यह विषय ऐसा जरूरी और काम का है कि बिना पूछे ही कृष्ण ने इसका कहना आरंभ कर दिया था। वे खुद-ब-खुद इसकी महत्ता और जरूरत महसूस कर रहे थे। इसका कारण हम बताई चुके हैं। इसीलिए अर्जुन के बिना कुछ कहे ही स्वयमेव -

श्रीभगवानुवाच

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:॥ 1

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधार्म्यमागता:।

सर्गेऽपि नोपजा यंते प्रलये न व्यथन्ति च॥ 2

श्रीभगवान कहने लगे (कि) सभी ज्ञानों में उत्तम ज्ञान, जिसे हासिल करके सभी मुनिगण यहाँ से (देह छोड़ने के बाद) परम कल्याण पा गए, मैं अभी-अभी कहता हूँ (सुनो) इस ज्ञान का आश्रय लेने पर मेरा स्वरूप हो जाने वाले न तो सृष्टि (के शुरू होने) पर जन्म लेते और न प्रलय में व्यथित होते या मरते हैं। 1। 2।

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।

संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ 3

सर्वयोनिषु कौंतेय मूर्त्तय: संभवन्ति या:।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं वीजप्रद: पिता॥ 4

हे भारत, महत्तत्त्व गर्भित प्रकृति ही मेरी स्‍त्री है और मैं उसी में गर्भाधान करता हूँ। उसी से सभी पदार्थों की उत्पत्ति होती है। हे कौंतेय, सभी (पशु आदि) योनियों में जितनी तरह की आकृतियाँ हैं उन सबों की माता (वही) प्रकृति और गर्भाधान करने वाला पिता मैं हूँ। 3। 4।

त्त् वं रजस्तम् इति गुणा: प्रकृति संभ वा:।

निब ध्नंति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥ 5

हे महाबाहु, सत्त्व, रज, तम यही (तीन) गुण प्रकृति से पैदा होते हैं (और) विकाररहित आत्मा को देह में फाँसते हैं। 5।

तत्र स त्त् वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।

सुखसंगेन ब ध्ना ति ज्ञानसंगेन चानघ॥ 6

हे निष्पाप, उनमें भी निर्मल होने के कारण प्रकाशक और निर्दोषी सत्त्व गुण सुख और ज्ञान में आसक्ति पैदा करके आत्मा को फँसाता है। 6।

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम्।

तन्निब ध्ना ति कौंतेय कर्मसंगेन देहिनम्॥ 7

हे कौंतेय, रजोगुण तृष्णा एवं आसक्ति को पैदा करने वाला (और) राग रूपी ही है, ऐसा समझो। वह कर्म में आसक्ति पैदा करके जीवात्मा को फँसाता है। 7।

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निब ध्ना ति भारत॥ 8

हे भारत, तमोगुण तो अज्ञान को पैदा करने और सभी जीवात्माओं को मोह में फँसाने वाला है। वह असावधनी, आलस्य और निद्रा के द्वारा ही फँसाता है। 8।

प्रमाद कहते हैं बातों का खयाल न होना, न रखना। खयाल रहते हुए भी कर्म में प्रवृत्त न होने को ही आलस्य कहते हैं।

त्त्वं सुखे संजयति रज: कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे संजयत्युत॥ 9

हे भारत, सत्त्व सुख में लिपटा देता है और रज कर्म में। (परंतु) तम तो ज्ञान को छेंक के असावधनी में ही लिपटाता है। 9।

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।

रज: सत्त्वं तमश्चैव तम: सत्त्वं रजस्तथा॥ 10

हे भारत, रज और तम को दबा के - अपने अधीन करके - ही सत्त्व आगे आता है। (इसी तरह) सत्त्व एवं तम को दबा के रज और सत्त्व तथा रज को दबा के तम (आगे आता - बढ़ता है)। 10।

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृ द्धं त्त्वा मित्युत॥ 11

जब इस शरीर के सभी द्वारों - इंद्रिय-छिद्रों - से अंधेरा हटके ज्ञान पैदा होता है तभी सत्त्व की वृद्धि जानें। 11।

लोभ: प्रवृत्तिरारंभ: कर्मणामशम: स्पृहा।

रजस्येतानि जा यंते विवृद्धे भरतर्षभ॥ 12

हे भरतश्रेष्ठ, रज के बढ़ने पर लोभ, काम में झुकाव, क्रियाओं का आरंभ, उनका लगातार जारी रहना और हाय-हाय ये बातें होती हैं। 12।

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जा यंते विवृद्धे कुरुनंदन॥ 13

हे कुरुनंदन, तम की वृद्धि होने पर (दिमाग के सामने) अंधेरा, कामों में झुकाव न होना, असावधनी और मोह या उलटी समझ, यही बातें होती हैं। 13।

यदा स त्त्वे प्रवृद्धेतु प्रलयं याति देहभृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते॥ 14

जब देहधारी सत्त्व की वृद्धि के समय मरता है तो उत्तम बातें जानने वालों के निर्मल लोक या समाज में ही जनमता है। 14।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥ 15

(इसी तरह) रज की वृद्धि में मरने पर कर्म में लिपटे लोगों में तथा तम की वृद्धि में मरने पर विवेकशून्य योनियों में जनमता है। 15।

कर्मण: सुकृतस्याहु: सा त्त्वि कं निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दु:खमज्ञानं तमस: फलम्॥ 16

सात्त्विक कर्मों का सुंदर, निर्मल, सात्त्विक फल बताते हैं, राजसी कर्मों का दु:ख और तामसी कर्मों का अज्ञान - अज्ञान की वृद्धि - फल (कहते हैं)। 16।

त्त्वा त्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥ 17

सत्त्व से ज्ञान की एवं रज से लोभ की ही वृद्धि होती है और तम से प्रमाद, मोह और अज्ञान (फैलते हैं)। 17।

ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था म ध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥ 18

सत्त्वगुण (की विशेषता) वाले ऊपर जाते या प्रगति करते हैं, रजोगुण वाले बीच में ही रह जाते - न प्रगति करते और न अधोगति, (और) निचले तमोगुणवाले अवनतिशील होते हैं। 18।

नान्यं गुणेभ्य: क र्त्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥ 19

जानकार - पूर्ण आत्मज्ञानी - ज्यों ही गुणों के सिवाय दूसरे को कर्मों का करने वाला नहीं मानता है और गुणों से निराली (आत्मा) को जान लेता है, (त्योंही) वह मेरा स्वरूप - मुक्त - हो जाता है। 19।

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।

जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥ 20

देह (धारण) के कारण इन तीन गुणों से पार जाने पर ही मनुष्य जन्म, मरण (और) बुढ़ापे के दु:खों से छुटकारा पा के मुक्ति हासिल करता है। 20।

अर्जुन उवाच

कैर्लिगैस्‍त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।

किमाचार: कथं चैतांस्‍त्रीन्गुणानतिवर्त्तते॥ 21

अर्जुन ने पूछा (कि) हे प्रभो, इन तीन गुणों से पार पाए (मनुष्य) के चिह्न क्या हैं? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीन गुणों से पार पाते हैं कैसे? 21।

श्रीभगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पांडव।

न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति॥ 22

श्रीभगवान ने कहा - हे पांडव, (तीनों गुणों के क्रमश: कार्य) प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह के होने पर न तो (उनसे) द्वेष रखता है और न यही चाहता है कि वे हट जाएँ। 22।

यही है पहले प्रश्न का उत्तर। गुणातीत की पहचान पूछी थी। वही इसमें कही गई है।

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।

गुणा व र्त्तंत इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते॥ 23

समदु:खसुखं स्वस्थ: समलोष्टाश्मकांचन:।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिंदात्मसंस्तुति:॥ 24

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मि त्रा रिपक्षयो:।

सर्वारंभपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते॥ 25

(अतएव) जो उदासीन की तरह रहता है, जिसे गुण हिला-डुला नहीं सकते, 'ये तो गुण ही अपना काम कर रहे हैं, (मुझे इससे क्या?)' इस प्रकार (खयाल किए) जो निश्चिंत पड़ा रहता है (और) जरा भी हिलता-डोलता नहीं, जिसके लिए दु:ख-सुख समान हैं, जो कभी बेचैन नहीं होता, जिसकी नजरों में मिट्टी का ढेला, पत्थर एवं सोना बराबर ही हैं, जिसके लिए प्रिय-अप्रिय एक से हैं, जो हिम्मतवाला है, जिसके लिए अपनी निंदा या स्तुति एक-सी ही है, जो मान-अपमान में ज्यों का त्यों रहता है, जिसके लिए शत्रु या मित्र के पक्ष हईं नहीं (और) जो सभी संकल्पों से बिलकुल ही बरी है, वही गुणातीत कहा जाता है। 23। 24। 25।

यही है दूसरे प्रश्न, 'गुणातीत का आचरण कैसा होता है' का उत्तर। आगे का 26वाँ श्लोक तीसरे का उत्तर है। तीसरे में इसका उपाय पूछा था।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।

स गुणान्समतोत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ 26

जो कभी भी न डिगनेवाली भक्ति के ही रास्ते मेरा सेवन करता है वही इन गुणों से बखूबी पार पा के ब्रह्मरूप हो जाता है। 26।

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यै कांति कस्य च॥ 27

क्योंकि अहम् - आत्मा - ही अविनाशी, निर्विकार, नित्य धर्मस्वरूप और बराबर बने रहने वाले सुख रूपी ब्रह्म का आधार है। 27।

तैत्तिरीय उपनिषद् की ब्रह्मानंद बल्ली के शुरू में ही लिखा है कि सत्य एवं ज्ञानरूप ही ब्रह्म है और है वह अनंत। जो उसे गुफा के भीतर विस्तृत आकाश में रहने वाला जान लेता है उसके सभी मनोरथ एक ही साथ ज्ञानरूपी ब्रह्म के रूप में पूरे हो जाते हैं, - 'सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां पर मे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान्कामान्सह। ब्रह्मणा विपश्चितेति।' इसके बाद उस गुफा का, जिसमें विस्तृत आकाश है, निरूपण शुरू हुआ है। संक्षेप यही है कि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय नामक कोषों का ही वर्णन वहाँ विस्तार के साथ गुफा के रूप में पाया जाता है। तलवार के म्यान को कोष कहते हैं। जिसके भीतर कोई चीज छिपी हो, छिपाई जा सके असल में कोष वही कहा जाता है। रेशम का कीड़ा अपने बनाए ही रेशम के कोये के भीतर छिप जाता है। वह निकाला न जाए तो मर भी जाता है। कोये को खुद भी काट के निकल आता है। उस कोये को कोश कहते हैं और यह कोश इसी कोष शब्द का बिगड़ा रूप है। आत्मा भी स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन शरीरों के भीतर छिपी है। एके बाद दीगरे उस पर पाँच म्यान चढ़े हैं। स्थूल शरीर को ही अन्नमय कोष कहते हैं। सूक्ष्म या लिंग शरीर के भीतर पाँच प्राण, दस इंद्रियाँ और मन, बुद्धि मिला के कुल सत्रह पदार्थ माने जाते हैं। इनमें पाँच प्राणों का प्राणमय, मन और कर्मेंद्रियों का मनोमय और बुद्धि तथा ज्ञानेंद्रियों का विज्ञानमय, ये तीन कोष हैं। अविद्या या अज्ञान को ही कारण शरीर और आनंदमय कोष कहते हैं। यह संसार अज्ञानमूलक ही तो माना जाता है। इस तरह इन्हीं पाँच कोषों के भीतर जो आत्मा है उसी का वहाँ उल्लेख है। उसे सत्य, ज्ञान और आनंदरूप कहा है। अंत में ब्रह्म को आनंदमय कोष का अंतिम भाग या पुच्छ स्थानीय मान के 'ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा' ऐसा लिखा है। असल में इन कोषों को पक्षी का आकार दे के पूँछ की जगह ब्रह्म को माना है। पूँछ के द्वारा ही पक्षी को पकड़ने से यहाँ मतलब है। ब्रह्म को पकड़ने से ही ये पाँचों कोष पकड़े जा सकते हैं, यही कहना है। इसीलिए शुरू में उसी ब्रह्मात्मा से आकाश आदि के द्वारा इन सबों की उत्पत्ति लिखी गई है, 'तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: संभूत:' आदि।

इस श्लोक में हमारे जानते यही बात लिखी है। कृष्ण का कहना है कि 'अहम्' ही अर्थात आत्मा ही तो ब्रह्म की भी प्रतिष्ठा है, मूलाधार है। यदि ब्रह्म का पता लेना है, उसे पकड़ना है तो आत्मा को ही पकड़ने से वह मिल सकता है, पकड़ा जा सकता है। इससे पहले के श्लोक में यह कहा है कि कभी न डिगने वाली भक्ति के द्वारा ही जो मेरा यानी आत्मा का सेवन करता है वही इन तीनों गुणों से - त्रिगुणात्मक संसार से - पार जा सकता है। उस पर शायद किसी को खयाल हो कि कृष्ण अपनी या आत्मा की भक्ति क्यों कहते हैं और ब्रह्म की क्यों नहीं बताते? क्योंकि वही तो सबका मूलाधार है और उसी के जानने से यह भव-जाल छँटता है। उसी का जवाब इस अंतिम श्लोक में है। कहते हैं कि असल चीज तो 'अहम्' है, आत्मा है। उसी के जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। यों ही ब्रह्म को कहाँ ढूँढ़ा जाए? और इस बात में उनने तैत्तिरीय की उस आनंदबल्ली को ही लिया है, जिसमें आत्मा को ब्रह्मरूप कहते हुए और यों ब्रह्म को लापता या परोक्ष - 'तस्मात्' - बताते हुए आत्मा से ही सृष्टि का पसारा माना है। अंत में सबकी प्रतिष्ठा या नींव ब्रह्म को कह के उसे आत्मस्वरूप ही कहा है। 'आनंदं ब्रह्मणो विद्वान' के द्वारा आनंदरूप भी कह दिया है। इसी से कृष्ण ने कह दिया कि सबकी प्रतिष्ठा या नींव तो 'अहम्' है, आत्मा है। यहाँ 'अहम्' कितना महत्त्वपूर्ण है! इसमें कितनी खूबी और सुंदरता है!

यदि आनंदबल्ली को देखा जाए तो वहाँ धर्म के रूप में जानें कितनी ही चीजें कही गई हैं। मगर ब्रह्मात्मा का जो असली स्वरूप सत्य, ज्ञान और आनंद है, कृष्ण ने इन्हीं तीन धर्मों को पकड़ा है, यही जगत के धारण करने वाले हैं। इसीलिए धर्म हैं। पंचदशी में विद्यारण्य ने इनकी यह खूबी समझाई है। इनमें सत्य को 'अमृतस्याव्ययस्य' पदों से, ज्ञान की 'शाश्वतस्य धर्मस्य' पदों से और आनंद को 'सुखस्यैकांतिकस्य' पदों से कह दिया है। धर्म हैं यों तो सभी। फलत: सभी के साथ 'धर्मस्य' को लगा भी सकते हैं। मगर नमूने के रूप में एक को ही कहा है।

इस अध्‍याय के गुणातीत प्रकरण में ही दो बार सम और चार बार उसी अर्थ में तुल्य शब्द आए हैं। यहाँ भी आत्मज्ञानी की ही समदृष्टि बताई गई है। इस अध्‍याय का विषय तो स्पष्ट है।

इति श्री. गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:॥ 14

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका गुणत्रय-विभागयोग नामक चौदहवाँ अध्‍याय यही है।

पंदरहवाँ अध्‍याय

यह तो हमने पहले ही कहा है कि पंदरहवाँ अध्‍याय मिला-जुला है। इसमें कुछ तो संसार का ही, इस सृष्टि का ही विवेचन-विश्लेषण है। कुछ ज्ञान की बातें भी हैं। आत्मा की जानकारी के लिए यत्नों की चर्चा तथा दूसरे उपाय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में कहे गए हैं। इसीलिए पिछले और अगले अध्‍यायों की संधि के रूप में इसका यहाँ आ जाना उचित ही है। सचमुच यदि देखा जाए तो शुरू के दस श्लोकों में किसी न किसी रूप में सृष्टि के निरूपण की प्रधानता है। फिर 'यतंतो योगिन:' आदि ग्यारहवें श्लोक से ज्ञान के साधनों की ही बात प्रधानतया पाई जाती है। 'द्वाविमौ' आदि अंत के पाँच श्लोकों में तो यह बात आई ही है। यदि उनसे पहले के श्लोकों में विराट् की कुछ बातें आ गई हैं, तो एक तो वे चिंतन और यत्न के साधन के रूप में ही आई हैं। दूसरे, यही तो आखिरी बार उनका उल्लेख है। या यों कहिए कि प्रकारांतर से उनके उपसंहार द्वारा उनसे बिदाई है।

चौदहवें अध्‍याय के अंत में जो आत्मा को सबका आधार या प्रतिष्ठा कह दिया है उससे आनंदबल्ली वाली बात सामने आ जाती है, जिसमें इस भौतिक सृष्टि के शरीर आदि के निर्माण का उल्लेख है। उसी के साथ-साथ यह सृष्टि भी दिमाग में खामख्वाह आ जाती है। उसी का जिक्र पंदरहवें अध्याय के शुरू में ही है। एक बात और भी है। यदि गुणों से या त्रिगुणात्मक संसार से पार जाना है, पार पाना है, तो क्या किया जाए यह जो प्रश्न उठा था, उसका उत्तर यही दिया गया है कि आत्मा में ही लग जाओ। वही ब्रह्म का भी आधार है, नींव है, प्रतिष्ठा है। इससे साफ हो जाता है कि शरीर के भीतर ही उसे ढूँढ़ना होगा। एतदर्थ क्रमश: भीतर या नीचे जाना होगा। क्योंकि एके बाद दीगरे बहुत से पर्दे उस पर पड़े हैं। मगर इसमें कुछ खतरे भी हैं। हमारा खयाल इससे संकुचित हो जा सकता है और हम बाहरी दुनिया की परवाह, उसके सुख-दु:ख की फिक्र छोड़ दे सकते हैं, जो बात गीता को आमतौर से पसंद नहीं है। इसी के साथ यह भी हो सकता है कि हम दुनिया से ऊँचे उठें ही न। हम तो अपनी आत्मा के अंवेषण में नीचे ही जाएँगे न? भीतर ही घुसेंगे न? गुफा में ढूँढ़ना जो है। मगर दुनिया का मजा लेने और जीवन को आनंदमय बनाने के लिए इस बात की जरूरत है कि हम उससे ऊँचे उठें, ऊपर जाएँ। समूचे संसार को फाँद के जब ऊपर जा पहुँचें तभी मस्ती आ सकती है। डर था, शायद यह बात न हो सके। इसीलिए चौदहवें के अंत में आत्मा के उल्लेख के साथ ब्रह्म का भी उल्लेख किया गया है। उसका सीधा मतलब यही है कि हम ढूँढ़ते-ढूँढते नीचे भी जाएँ और ऊपर भी। आत्मा की तलाश में नीचे और ब्रह्म की खोज में ऊपर बढ़ें। नतीजा यह होगा कि सबसे नीचे और सबसे ऊपर जाना ही होगा। इस तरह अंतिम छोरों के मिल जाने (Extremes meet) के अनुसार आत्मा और ब्रह्म एक हो जाएँगे और हमारा काम हर तरह से पूरा हो जाएगा। बिना सबके नीचे और ऊपर गए तो इन दोनों का ठीक-ठीक पता लग नहीं सकता है। 'अत्यतिष्ठद्दशांगुलम्' के द्वारा वैदिक ऋषियों ने तो ऐसा ही बताया है। और ऐसा होने पर दोनों का अंतिम मिलन अनिवार्य है। इसी बात का स्पष्टीकरण पंदरहवाँ अध्‍याय करता है।

कुछ और भी बातें हैं। 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19) में समस्त संसार को वासुदेव कह के इसी रूप में इसे देखने वाले ही पक्के और पहुँचे महात्मा बताए गए हैं। ज्ञान का आखिरी रूप यही कहा गया है। इधर हमारे यहाँ पुरानी से भी पुरानी परिपाटी है कि पीपल के वृक्ष को वासुदेव कहते और मानते हुए इसकी जड़ को सींचते रहते हैं। यह एक धार्मिक प्रथा है। पीपल को ही अश्वत्थ भी कहते हैं। उधर उपनिषदों में इस संसार को ही अश्वत्थवृक्ष के रूप में लिखा है। इसकी जड़, पत्ते आदि भी बताए गए हैं। कठोपनिषद् के द्वितीय अध्‍याय की छठी बल्ली का पहला ही मंत्र यों हैं, 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक् शाख एषोऽश्वत्थ: सनातन:। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदैवामृतमश्नुते'। गीता के पंदरहवें अध्‍याय का पहला श्लोक इसके पूर्वार्द्ध से बिलकुल ही मिलता-सा है। उपनिषद् ने कहा है कि इस अश्वत्थ की जड़ ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं और यह सनातन है, अनादि है। यह कब बना कोई कह नहीं सकता। मगर जिसे अविनाशी ब्रह्म कहते हैं और मोक्षावस्था में जिसकी प्राप्ति होती है वह इससे जुदा नहीं है। इसके मूल में वही है। गीता ने सनातन की जगह 'अव्यय' कह दिया है। मगर आशय वही है। इस प्रकार वासुदेव या ब्रह्मरूप में इस जगत को मानने तथा देखने की जो पुरानी प्रणाली है वह गीता के मत के अनुकूल ही है। इसीलिए उसी का श्रीगणेश इस अध्‍याय में किया है।

हम इस संसार को सचमुच ही मजबूत और सनातन न मान बैठें, इसीलिए अश्वत्थ नाम दिया गया है। अश्वत्थ का तो अर्थ ही है कि जो कल न रहे। यह तो सदा परिवर्त्तनशील है, कमजोर है और आत्मज्ञान से इसका खात्मा पलक मारते हो जाता है। आज ज्ञान हो और कल ही यह लापता! यह है भी तो भयानक ही। इसमें तो कष्ट ही कष्ट है। इसीलिए तो योगदर्शन में पतंजलि ने कहा है कि अर्थ से इति तक यह केवल दु:खमय ही है ऐसा विवेकी मानते हैं। साफ ही देखते हैं कि यहाँ तीनों गुणों की ऐसी आपसी कुश्ती और खींचतान है कि कुछ पूछिए मत, 'परिणामतापसंस्कार दु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:' (2। 15)। नैयायिकों ने भी संसार को दु:खात्मक ही माना है। यहाँ तक कि सुख को भी दु:ख ही कहा है। उनके मत से छ: इंद्रियाँ - पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और मन - उनके छ: विषय-ज्ञान और छ: विषय, शरीर, सुख और दु:ख यही इक्कीस दु:ख उनने माने हैं। उनके मत से यह संसार दु:खात्मक है और इन्हीं का ध्‍वंस मुक्ति है। मगर यहाँ तो उलटी ही गंगा बहती नजर आती है। सभी लोग फूले मस्त हैं, राजपाट, बाल-बच्चों और स्वर्ग-बैकुंठ के ही पीछे मस्त हैं। उन्हें तो संसार की दु:खरूपता दीखती ही नहीं। फिर इससे पार जाने का यत्न वे क्यों करने लगे? प्रश्न है कि ऐसा हुआ क्यों? बात तो उलटी है न? कष्टात्मक ही तो यह संसार है। तब यह ऐसा हुआ कैसे? इसके ऐबों को किसने छिपाया?

इसका उत्तर गीता पहले ही श्लोक के उत्तरार्द्ध में देती है कि वैदिक कर्मकांड ने ही तो आँखों में धूल झोंक दी है। दिन-रात उसी के पीछे पड़े रहते हैं और फुरसत मिलती ही नहीं! जहीं-तहीं वैदिक साहित्य में, वेदमंत्रों में स्‍त्री-पुत्रादि की प्रशंसा, स्वर्ग की बड़ाई, राजपाट की महिमा लिखी मिलती है। फलत: जनसाधारण यदि कभी ऊबें भी तो पुनरपि इसी वजह से उसी में पड़े रहते हैं। जैसे वृक्ष के हरे-भरे पत्ते उसे छेंके और घेरे रहते हैं। इसीलिए उसके तने और शाखा-प्रशाखाओं की नग्नता दूर से मालूम नहीं होती। किंतु ज्यों ही पत्ते हटे कि समूचा पेड़ नंग-धड़ंग, बेढंगा और भयावना नजर आता है। ठीक वैसे ही वैदिक मंत्रों और तन्मूलक साहित्य ने इस अश्वत्थ के लिए भी पत्ते का काम कर दिया है, जिससे हम इसकी भयावनी सूरत देख नहीं पाते। इस तरह हम देखते हैं कि ज्ञान की ओर बढ़ने में गीता का यह वर्णन कितना आलंकारिक एवं महत्त्वपूर्ण सहायक है, खासकर ऐसा कह के कि जो इसके नग्नरूप को जानता है। दरअसल वही वेद का ज्ञाता है। वह पर्दे के भीतर घुस जो जाता है।

पीपल में यह भी देखा जाता है कि ऊपर से बरोहें निकलती हैं। ये हैं दरअसल जड़ें ही। पकड़ी, बरगद और पीपल में ही ऊपर की डालों से निकल के नीचे लटकती हैं। बरोह के मानी हैं ऊपर से निकलनेवाली। बर+आरोह से ही बरारोह बनके बरोह हो गया। बर कहते हैं ऊपर को। यह बात कितनी खूबी के साथ जगत से मिलती है। ऊपर ठहरा ब्रह्म। वहीं से जगत की सारी जड़ें निकली तथा फैली हैं। यदि इन जड़ों का पता लगाना है तो ऊपर जाएँ। तभी इन्हें पाएँगे और काट देंगे। ऊपर जाने या संसार के पदार्थों से अलग होने में अगर हजार ढंग के ताल्लुक बाधक हैं, तो वैराग्य की शरण लें और मन को इनसे हटाएँ। इनमें आसक्ति का त्याग करें। यही त्याग तलवार का काम करता है इन्हें काट डालने में; ताकि ऊपर जा सकें। बिना इसके वह मूलाधार ब्रह्म मिलने का नहीं। इस तरह इसके काटने का उपाय है सही। फिर भी यह है दरअसल लोहे का चना। सांसारिक वासनाएँ इतनी मजबूती से जकड़ी और चारों ओर फैली हैं कि इनसे पिंड छुड़ाना मुश्किल है। इस तरह संसार के पार जाना वैराग्य और विवेक के सहारे आसान भी है और मुश्किल भी। क्योंकि जहीं जाइए एक फंदा लगा है और हम उसी में फँस जाते हैं।

कहते हैं कि किसी अच्छे पंडित ने मौत से पहले ही किसी प्रकार यह जान लिया कि मरने पर सूअर का शरीर पाऊँगा। उनने अपने बच्चों को यह बात कह दी। यह भी बता दिया कि कहाँ कब सूअर का शरीर मिलेगा। उनने पहचान भी बता दी कि फलाँ-फलाँ चिह्न होंगे; ताकि लड़के बेखटके पहचान सकें। फिर उनने कहा कि वह योनि तो बड़े कष्ट की है, यह जानते ही हो। इसलिए पता लगा के फौरन मार देना; ताकि कष्टमय जीवन से चटपट छुटकारा हो जाए। पीछे जब वह मर गए तो ठीक समय पर खोजते-पूछते उनके लड़के उस मुकाम पर पहुँची तो गए जहाँ वह सूअर बने विचरते थे। ढूँढ़ते-ढँढ़ते उनने पता भी पा लिया कि हो न हो, यही वही सूअर है। उसके बाद उसके मालिक से बातें करके सूअर के मारने का हर्जाना भी तय कर लिया। बाद में तलवार ले के उसके पास पहुँचे ही थे कि खत्म कर दें कि वह गिड़गिड़ा के बोल उठा कि 'नहीं-नहीं, मुझे मत मारो, तुम्हें शपथ है, मैं खूब मौज में हूँ'। देखा न? यही है भारी बंधन। आत्मा जहीं हो, मौज ही मालूम पड़ती है।

इसी से नीचे-ऊपर, इधर-उधर सर्वत्र ही जहाँ भी इस संसार की शाखाएँ हैं बंधन का ही काम करती हैं। क्योंकि आखिर त्रिगुणात्मक तो हईं और तिहरी रस्सी बड़ी मजबूत भी होती है। सभी जगह इंद्रियों के विषय सुंदर कोंपलों जैसे लुभावने दीखते हैं। यह पहले ही कहा जा चुका है कि बुरे-भले कर्मों के संस्कार के रूप में वासनाएँ पैदा होती हैं। फिर उनके फलों को भोगने के बाद दूसरे ढंग की वासनाएँ पैदा होती हैं, जिन्हें चसक कह सकते हैं। उन्हीं के करते हम पुनरपि कर्मों में लगते हैं, इस तरह यह चक्र चालू रहता है। यों तो वास्तविक मूल ब्रह्म हुई। मगर जिस मूल को काटना है, ताकि यह वृक्ष सूख जाए, वह तो यह वासनाएँ ही हैं। ये इतनी गहरी और नीचे पड़ी रहती हैं कि इन्हें पकड़ना कठिन है। यही हैं इस अश्वत्थ की अपनी निजी जड़ें। अश्वत्थ की जड़ें यों भी सचमुच बहुत गहराई में जाती हैं। वे बहुत ज्यादा होती भी हैं। वासनाओं की भी यही हालत है। ये भी अनंत हैं, बहुत फैली हैं। आशा की बात यही है कि पूर्ण-विवेक-दृष्टि के सामने न तो ये वासनाएँ और न संसार का यह लुभावना रूप ही टिक सकता है। केले की मूसली के छिलकी की तरह उधेड़-बुन करते जाइए और अंत में कुछ भी सार हाथ नहीं लगता। पता ही नहीं चलता कि कहाँ शुरू, कहाँ बीच और कहाँ अंत है। समूचे का समूचा निस्सार ही सिद्ध हो जाता है।

इस पंदरहवें अध्‍याय में जो खूबी है वह यही कि इसने हमारी पुरानी भावनाओं से फायदा उठा के वासुदेव के रूप में ही संसारवृक्ष को सामने ला दिया है। इस रूपक के द्वारा इसे काट बहाने की भावना भी जाग्रत कर दी है। नहीं तो कहाँ क्या करें और इसे कैसे खत्म करें यह अथाह समुद्र की-सी बात हो रही थी। इसमें उपनिषदों की भी सहायता इसे मिली है। उनका अनुसरण भी अच्छी तरह हो गया है। पहले की सारी बातें सुनने और गुणातीत अवस्था को जानने के बाद जो एक प्रकार की किंकर्तव्य-विमूढ़ता-सी अर्जुन को और दूसरों को भी हो सकती थी कि कहाँ से कैसे इन गुणों को काटना शुरू करें, वह भी इस प्रकार दूर हो गई। उसे खयाल करके ही तो कृष्ण ने बिना पूछे ही यह कहना शुरू भी कर दिया। चौदहवें अध्‍याय के अंत में यह कहा है जरूर कि आत्मा की भक्ति करें। मगर वह तो आसान नहीं। मन को बाहर से रोकना जो पड़ेगा। यह रोक किस चीज से कैसे शुरू करें, यही तो सबसे बड़ा सवाल था। ऐसी बात का मालूम हो जाना जरूरी था जहाँ से श्रीगणेश करते। कृष्ण ने इस वृक्ष को, इसकी जड़ों को और काटने के हथियार को भी बता के सारी समस्या ही हल कर दी। इस तरह गुणों के निरूपण से भी आसानी से फायदा उठाया जा सकता था। क्योंकि जब सभी चीजें बंधक हैं, खतरनाक हैं, तो उनसे मन को हटाने में दिक्कत वैसी न होगी जैसी पहले होती। इन्हीं सब विचारों को मन में रख के -

श्रीभगवानुवाच

र्ध्व मूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छंदां सि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित॥ 1

श्रीभगवान ने कहा (कि) ऊपर जिसकी जड़ें और नीचे शाखाएँ हों तथा वेदमंत्र जिसके पत्ते हों ऐसे (संसार रूपी) पीपल वृक्ष को सदा रहने वाला कहा गया है। (मगर) उसे जो यथार्थ रूप में जान जाता है वही वेदज्ञाता है। 1।

अधश्चो र्ध्व प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।

अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबं धी नि मनुष्यलोके॥ 2

(दरअसल) उसकी शाखाएँ नीचे-ऊपर (सर्वत्र) फैली हैं (जो) गुणों के चलते खूब बढ़ी हैं और विषय ही जिनकी कोंपलें हैं। (उसकी) जड़ें भी बहुत गहराई में जा के खूब फैली हुई हैं (और) इस दुनिया में कर्म करने में (चसका पैदा करके लोगों को उसमें) लगाती हैं। 2।

न रूपमस्येहतथोपलभ्यते नांतो न चादिर्नं च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगश स्त्रे ण दृढेन छि त्त्वा 3

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निव र्त्त न्ति भूय:।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृत्ति : प्रसृता पुराणी॥ 4

(लेकिन इसका जैसा सनातन और दृढ़) रूप (कहा जाता) है वैसा (तो विचारने पर) दीखता नहीं और न इसके आदि, अंत (और) मध्‍य (का ही पता चलता है)। (फिर भी) जिसकी जड़ें बहुत ही मजबूत हैं उस इस अश्वत्थ वृक्ष के बंधनों को (वैसे ही) मजबूत वैराग्य - आसक्तित्याग - रूपी शस्त्र से काट के - संसार से वैराग्य प्राप्त करके - अनंतर उस पद का अंवेषण करना चाहिए जहाँ जाने पर फिर वापस आना - जन्म-मरण - नहीं होगा। 'हम उसी आदिपुरुष - परमात्मा - की शरण आए हैं, जिससे यह पुरानी सृष्टि पैदा हुई', (इसी प्रकार) वह अंवेषण करना चाहिए। 3। 4।

निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्‍यात्‍मनित्या विनिवृत्तकामा:।

द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥ 5

अभिमान और मोह से रहित, आसक्ति के दोष से बरी, आत्मा में निरंतर लगे हुए, सभी कामनाओं से शून्य, सुख-दु:ख संज्ञक द्वन्द्वों से छुटकारा पाए पूर्णज्ञानी ही उस अविनाशी पद को पाते हैं। 5।

न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावक:।

यद् गत्वा न निव र्त्तंते तद्धाम परमं मम॥ 6

न तो वहाँ सूर्य का प्रकाश जाता है, न चंद्रमा का और न अग्नि का ही (और) जहाँ जाने पर फिर वापस नहीं आते वही मेरा परम धाम है। 6।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।

मन: षष्ठा नींद्रि याणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥ 7

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:।

गृहीत्वैतानि संयाति वायु र्गंधा निवाशयात्॥ 8

श्रो त्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥ 9

मर्त्यलोक में मेरा ही सनातन अंश जीव बन के प्रकृति में रहने वाली मनसंयुक्त छ: इंद्रियों को साथ खींच ले जाता है। जब (नया) शरीर धारण करता है और जब मरता है, इन इंद्रियों को वैसे ही साथ ले जाता है जैसे हवा गंध के आश्रय (पुष्पादि) से गंध ले जाती है। श्रोत्र, चक्षु, त्वक, रसना, घ्राण और मन (इन्हीं छ: इंद्रियों) का अधिष्ठाता बन के विषयों का सेवन करता है। 7। 8। 9।

पाँचवें श्लोक में ज्ञान के कुछ साधनों का वर्णन कर दिया है। अगर कोई यह प्रश्न करे कि यह कब संभव है कि संसार में लिपटा हुआ जीव ब्रह्मरूप हो जाए, तो उसी का उत्तर सातवें में यह दिया है कि वह तो ब्रह्म का ही रूप है। अंश कहने का तात्पर्य हिस्सा या भाग से नहीं है। क्योंकि निरवयव और निर्विकार ब्रह्म का भाग या चीड़-फाड़ कैसे हो सकती है? जैसे एक लोटा पानी घड़े भर पानी का अंश होने से उसी का रूप है वैसे ही जीव भी ब्रह्म का रूप है, इतना ही तात्पर्य है। सौ आईने रख के एक ही चंद्रमा के सौ प्रतिबिंब या सौ चंद्रमा देख लीजिए। यही दशा जीव की है। अंत:करण आईने की तरह है जिसमें ब्रह्म का प्रतिबिंब जीव बना है। बिंबरूप चंद्रमा, जो आकाश में है, प्रतिबिंब से न तो भिन्न है और न जरा भी दोनों के बीच फर्क है। ठीक इसी तरह प्रतिबिंब रूप जीव ब्रह्म से जरा भी भिन्न नहीं। इस तरह जितने शरीर हों उतने जीव बन भी गए और वे ब्रह्मरूप भी रहे।

प्रश्न होता है कि यदि जीव ब्रह्म का स्वरूप ही है तो फिर उसका आवागमन या जीवन-मरण कैसा? ब्रह्म तो सभी जगह है। इसीलिए उसमें क्रिया असंभव है। साथ ही, वह सांसारिक विषयों से नाता कैसे रखता है? वह तो सर्वत्र एकरस है। फिर विषयों को भोगने और सुख-दु:ख में पड़ने के मानी क्या हैं? इन्हीं बातों के उत्तर सातवें के उत्तरार्द्ध और शेष दो श्लोकों में दिए गए हैं। आईने के चलाने से उसमें रहने वाला चंद्रमा का प्रतिबिंब इधर-उधर डोलता है। यहाँ मन, इंद्रियादि को मिला के जो सूक्ष्म शरीर होता है वही आईना है। उसमें रहने वाले प्राण खूब चलते हैं। इंद्रियाँ और मन भी क्रियाशील हैं। बस इन्हीं के चलने से जीव का आवागमन माना जाता है। जब मनुष्य मरने लगता है तो जीव इसी सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर से निकल जाता है। वही घूमता-घामता पति-पत्नी के वीर्य और रज में प्रवेश करके नवीन शरीर के गर्भाशय में और पीछे नवीन शरीर में भी इसी सूक्ष्म शरीर के साथ प्रविष्ट होता है। इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही कर्मवाद प्रकरण में डाला जा चुका है। इसी प्रकार इन्हीं इंद्रियों के द्वारा ही विषयों का भोग भी करता है। विषयों में तो जाती हैं इंद्रियाँ ही। मगर यही उनका अधिष्ठाता है। इसीलिए इस पर ही जवाबदेही आती है। मालिक या अधिष्ठाता ही नौकरों की हार-जीत या कामों का जवाबदेह होता है। उनके करते सुख-दु:ख और हानि-लाभ का भी अनुभव करता है। यदि नाता तोड़ ले तो कुछ न हो। मगर शरीर से जीव का नाता तो ज्ञान से ही टूटता है न?

मरणोत्तर प्रयाण करने और फिर नए शरीर में आने के दरम्यान इंद्रियाँ तो रहती हैं वही पुरानी। मगर उनमें वह शक्ति नहीं होती जो शरीर में रहने के समय पाई जाती है। उस समय इनसे विषयों का भोग तो करना है नहीं। फलत: उनकी सूक्ष्म या बीज रूपी अवस्था ही उस समय रहती है, न कि ऐसी प्रकट और चलबल वाली। यही बात जानने के लिए उन्हें 'प्रकृतिस्थ' - 'प्रकृति में रहने वाली' कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि उस समय वे अपने सूक्ष्म या बीज रूप में ही रहती हैं। यही कारण है कि आत्मा का अधिष्ठातृत्व उस समय नहीं हो पाता है। जैसे इमली में नमक डालने से उसमें रहने वाली खटाई का पता जबान से नहीं चल पाता, वही बात उस समय इंद्रियों की भी होती है। आत्मा का संबंध रहते हुए भी वह उन्हें विषयों में प्रेरित कर नहीं सकती। इसलिए उसकी अधिष्ठातृता मुर्दा या बेकार-सी हो जाती है। मगर स्थूल शरीर में आने पर वह बात चालू हो जाती है और स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। इसी परिवर्तन की सूचना नौवें श्लोक का 'अधिष्ठाय' पद देता है।

इस पर यदि कोई कह बैठे कि ऐसा मालूम तो किसी को होता नहीं; फिर यह बात मानी कैसे जाए? तो इसी के उत्तर में अगले दो श्लोक आए हैं। और आगे उन्हीं का विस्तार किया गया है। मोटी बात यह है कि यदि अंधे सूर्य को नहीं देखते तो क्या वह गायब हो जाएगा? देखना तो आखिर आँखवालों का ही काम है न? यहाँ भी ज्ञान-दृष्टि और विवेक-शक्ति जिनके पास है वह जरूर देखते हैं। हाँ, जिनके पास यह चीज नहीं है वह नहीं देखते। मगर इसमें दोष उनका है, न कि वस्तु का। यदि ऐसे देखने वाले कम हैं तो इससे क्या? एक आँख वाला हजार और लाख अन्‍धों के मुकाबिले में किसी चीज को ठीक बता सकता है। उसकी ही बात मानी भी जाती है। आखिर बीमारी का अस्तित्व केवल डॉक्टर की ही बातों से माना जाता है; न कि लाखों दूसरों के न बताने से उसका इनकार हो जाता है।

उत्क्रा मंतं स्थितं वापि भुजानं व गुणान्वितम्।

विमूढ़ा नानुपश्यंति पश्यंति ज्ञानचक्षुष:॥ 10

तंता योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस:॥ 11

मरणोपरांत प्रयाण करते हुए, नया शरीर धारण करके उसमें स्थित या इंद्रियादि के साथ विषयों को भोगते हुए भी इस आत्मतत्त्व को अज्ञानी नहीं देख पाते; (किंतु) ज्ञान दृष्टिवाले ही देखते हैं। (जिन्हें यह दृष्टि न भी प्राप्त हुई है ऐसे) योगी भी (समाधि आदि के रूप में) यत्न करते हुए इस आत्मा की झाँकी अपने भीतर ही पा जाते हैं। (मगर) जिनके मन मलिन हैं ऐसे मूढ़ लोग हजार यत्न करके भी नहीं देख पाते हैं। 10। 11।

अंतिम श्लोक में यह बता दिया है कि आत्मदर्शन के लिए कोई भी यत्न करने के पूर्व मन पर काबू होना चाहिए और इंद्रियों पर नियंत्रण। नहीं तो 'मन न रंगायो तू रंगायो योगी कपड़ा' वाली बात होती है। इसी का जिक्र इसमें है।

यत्न के बारे में अब प्रश्न होता है कि वह किस तरह किया जाए? समाधिवाला यत्न तो सबके लिए सुलभ है नहीं और उसके लिए भी तो पहले तैयारी चाहिए। तो आखिर वह है कौन-सी? और जो लोग ऐसे नहीं हैं वह भी कैसे इस आत्मा को देख पाएँगे? आत्मा को भी तो आखिर में परमात्मा के रूप में ही देखना है न? सो कैसे होगा? परमात्मा को आत्मा का रूप कैसे जानेंगे?

इन्हीं बातों को समझाने के लिए आगे के चार (12-15) श्लोक हैं। इनमें ऊपर से ही शुरू करके धीरे-धीरे शरीर और अंत:करण के भीतर घुसने तथा आत्मवस्तु के देखने की रीति कही गई है। परमात्मा तो अत्यंत देदीप्यमान एवं सूर्य, चंद्र आदि को भी प्रकाश देने वाला पहले ही कहा गया है। इसलिए वहीं से शुरू करके पृथिवी में आते हैं वहाँ से जठरानल में जा के शरीर में घुसते हैं और अंत में हृदय में प्रवेश करके उस आत्मा को देखते हैं। योगी लोग भी यही रीति अपनाते हैं। योगसूत्रों में धारणा के प्रसंग से ये बातें आई हैं।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।

च्चंद्र मसि यच्चाग्नौ त्ते जो विद्धि मामकम्॥ 12

गामाविश्य भूतानि धारयाम्यहमोजसा।

पुष्णामि चौषधी : सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:॥ 13

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।

प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥ 14

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदांतकृद्वेदविदेव चाहम्॥ 15

सूर्य में रहने वाला जो तेज समस्त संसार को आलोकित करता है, जो (तेज) चंद्रमा में और जो अग्नि में है, वह (सभी) तेज मेरा ही जानो। पृथ्वी में प्रवेश करके अपने बल से मैं ही पदार्थों को धारण कर रखता हूँ। (नहीं तो पृथ्वी धँस जाती, टूट जाती और पहाड़ वगैरह का भारी बोझ बरदाश्त कर न पाती।) रसमय चंद्रमा बन के सभी अन्नादि औषधियों को पुष्ट करता हूँ। मैं ही जठरानल होके प्राणधारियों के शरीर में रहता और प्राण तथा अपान (की धौकनी) से प्रदीप्त हो के चार प्रकार के खाद्य पदार्थों को पचाता हूँ। मैं ही सबों के हृदयों में प्रविष्ट हूँ। मुझी से (लोगों को पदार्थों के) स्मरण और ज्ञान होते हैं, विस्मृति और भूल होती है। मैं ही सभी वेदों के द्वारा जाना जाता हूँ। वेदांत का बनाने वाला एवं वेदवेत्ता भी मैं ही हूँ। 12। 13। 14। 15।

यहाँ जो चार प्रकार के अन्न कहे गए हैं उन्हें भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य कहते हैं। जिनके खाने में दाँतों से काम लिया जाए ऐसी पूड़ी, पुआ, रोटी, चबेनी वगैरह भक्ष्य हैं। जिनमें दाँतों से काम लेने की जरूरत न हो ऐसे, दूध, दही, हलवा आदि भोज्य हैं। जबान से ही जो चाटे जाएँ वही कढ़ी, चटनी आदि लेह्य हैं। जिन्हें चूसा जाए ऐसे आम, ऊख आदि चोष्य हैं। 'अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमंत: पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते'। (वृहदा. 5। 9। 1।) आदि वचनों में जठरानल को वैश्वानर कहा है। इसी प्रकार 'येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा' (यजु. 32। 6) 'स दाधार पृथिवीम' (यजु. 25। 10) में पृथिवी का धारण करने वाला परमात्मा ही कहा गया है। उसी से यहाँ तात्पर्य है। इस अध्‍याय में शशांक और सोम को दो कामों के लिए उल्लिखित देख के एकाएक खयाल हो जाता है कि सोम और शशांक (चंद्रमा) दो पदार्थ तो नहीं हैं? दोनों में कुछ अंतर तो नहीं है?

आगे के तीन (16-18) श्लोक जीवात्मा और परमात्मा में कितना फर्क है। यही बात बता के उसी अंतर को दूर करने के लिए अर्थत: ज्ञान की आवश्यकता सुझाते हैं। क्योंकि यदि आत्मा को ब्रह्म का रूप ही मान लें तो फिर सारे यत्न ही बेकार हो जाएँगे। कोई भी क्यों आत्मज्ञानार्थ ध्‍यान, समाधि या श्रवण, मनन आदि करेगा? ऐसी दशा में गीतोपदेश की भी व्यर्थता हो जाएगी।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥ 16

उत्तम : पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:॥ 17

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम : 18

दुनिया में दो पुरुष हैं, क्षर या विनाशी तथा अक्षर या अविनाशी। सभी जड़ पदार्थ यानी प्रकृति क्षर है और निर्विकार आत्मा अक्षर। (इन दोनों से ही) उत्तम पुरुष तो तीसरा है जो परमात्मा कहा जाता है और जो अविनाशी, शासनकर्त्ता (एवं) सारी दुनिया के भीतर प्रवेश करके उसे कायम रखता है। क्योंकि मैं तो क्षर से निराला हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ। इसीलिए वेद में और लोक में भी पुरुषोत्तम विख्यात हूँ। 16। 17। 18।

यहाँ संसार में रहने वाले पदार्थों से ही शुरू करके देखा कि प्रकृति तो पूर्ण या सर्वत्र मौजूद है, व्यापक है, इसीलिए उसे पुरुष कहा। पुरुष का अर्थ ही है पूर्ण या व्यापक। इंच भर भी जगह प्रकृति या प्राकृतिक पदार्थों से शून्य नहीं है। यह ठीक है कि ये पदार्थ विनाशी हैं। फिर जागे बढ़े और सोचा कि जब ये पदार्थ विनाशी हैं तो इनके मूल में कोई होना ही चाहिए। इस प्रकार आत्मा का पता लगाया। अब यदि उसे भी विनाशी मानें तो उसका मानना ही बेकार होगा। क्योंकि उसका भी मूल कारण ढूँढ़ना होगा और उसे ही आत्मा मानेंगे। इस पर ज्यादा तर्क पहले ही लिख चुके हैं। इस प्रकार किसी न किसी को अविनाशी तो मानना ही होगा जिससे सभी पदार्थ बने। इसीलिए उसे कूटस्थ या निर्विकार कहा। क्योंकि कोई पदार्थ बिना विकार या खराबी के नाश हो नहीं सकता। साथ ही, वह भी पुरुष होगा, पूर्ण या व्यापक होगा। नहीं तो फिर विनाशी पदार्थ रूप पुरुष को वह बनाएगा कैसे? फलत: उसे पुरुष का भी पुरुष होना चाहिए। मगर ऐसा तो कुछ होता नहीं। इसलिए उसे भी पुरुष ही कह दिया।

किंतु उसका संसर्ग तो विनाशी से ही है, क्षर से ही है न? इन्हीं के बीच वह रहता जो है, सुखी-दु:खी होता जो है। कलाली के पास खड़ा रहने वाले की ही तरह कम से कम वह बदनाम होता ही है। परमात्मा में यही बात नहीं है। इसीलिए वह अक्षर पुरुष से उत्तम जरूर है। है तो वह इसी की जाति-बिरादरी का। मगर उत्तम है। क्षर के साथ तो उसका कोई मुकाबिला हई नहीं है वह तो इससे विपरीत है - लाख कोस दूर है। इसीलिए कह दिया कि यह क्षर से तो निराला हई, अलग हई, जुदा हई, भिन्न हई - 'यस्मात्क्षरमतीत:'। किंतु अक्षर से भी उत्तम है। इसीलिए पुरुषोत्तम कहा जाता है। जीव को, अक्षर पुरुष को भी यही बनना है। एतदर्थ उसकी मैल धोना जरूरी है, उसमें साबुन लगाना जरूरी है। मैल है क्षर या प्रकृति का संसर्ग और साबुन लगाना है आत्मज्ञान। यही है हमारे सभी प्रयत्नों का और मानवजीवन का चरम लक्ष्य। पुरुषोत्तम हो जाना ही सब कुछ है। यही बात नीचे के दो श्लोकों में कह के अध्‍याय पूरा कर दिया है।

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वविद्भजति माँ सर्वभावेन भारत॥ 19

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ।

एतद्बुद्धवा बुद्धिमान् स्यात्कृत्यश्च भारत॥ 20

हे भारत, पूर्ण विवेकी मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जान जाता है वही सब पदार्थों का जानकार है और मुझे संपूर्ण जगत के रूप में ही भजता है। हे अनघ, मैंने यह अत्यंत गोपनीय शास्त्र बताया है। हे भारत, इसे ही जानने पर बुद्धिमान हो सकते हैं और कृतकृत्य भी। 19। 20।

इन श्लोकों में और इनसे पहले भी जो आत्मा के ही लिए 'अहम्' 'माम्' आदि बार-बार आए हैं वे सचमुच ही अमूल्य हैं। ये शब्द आत्मा को किस सुंदर रूप में खड़ा करते और उसे संपूर्ण संसार का रूप बना देते हैं, ब्रह्म रूप बना देते हैं, वासुदेव बना देते हैं! इन्हें बलात तोड़-मरोड़ के साकार ईश्वर या कृष्ण के मानी में घसीटना कितनी बड़ी निर्दयता है! इसी की पुष्टि में कह दिया है कि इस आत्मा को जानने वाला सब कुछ जान जाता है। उसकी दृष्टि से कोई भी क्षर अक्षर बच पाता नहीं। इसीलिए अपने को आपको सभी पदार्थों का रूप देखता है, मानता है, बना डालता है, खुद सबों की आत्मा बन जाता है। यही है उसका सर्वभावेन भजन। उफ, कितना ऊँचा खयाल है, कितना ऊँचा आदेश है! एक पत्थर भी तोड़िए तो वह ज्ञानी अपने को ही टूटता देखता है! और चिहुँक उठता है! सहसा आह भर लेता है! उससे बढ़ के जन-सेवक, संसार-सेवक और कौन है? सचमुच ही उससे बढ़ के 'सर्वभूतात्मं भूतात्मा' तथा 'सर्वभूतहितेरत' कौन हो सकता है? इसीलिए उसे पुरुषोत्तम कहा है। व्यष्टि और समष्टि की या पिंड और ब्रह्मांड की एकता जो हो गई! उससे उत्तम और ऊँचा कोई भी, कुछ भी हई नहीं! यही कारण है कि उसे अब कुछ भी करना-धरना रह नहीं जाता! उसने सब कुछ कर धर लिया! वह कृतकृत्य हो गया! अब अगर कुछ भी करता है तो इसीलिए कि उसका स्वभाव ही वैसा हो गया, न कि उस करने-धरने में कुछ प्रयोजन देखता है। इस अध्‍याय का विषय यदि यही पुरुषोत्तम है तो उचित ही है। सारे अध्‍याय का पर्यवसान ही उसी में है।

इति. पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्याय:॥ 15

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका पुरुषोत्तम योग नामक पंदरहवाँ अध्‍याय यही है।

सोलहवाँ अध्‍याय

जिस ज्ञान के बाद कृतकृत्यता हो जाती है और मस्ती आ जाती है, जिस दृष्टि के चलते जर्रे-जर्रे और परमाणु-परमाणु में 'अहम्' नजर आता है, आत्मा ही दीखती है, वह कैसे प्राप्त हो यह बात अंतिम बार अच्छी तरह बता दी जाए तो बेड़ापार हो। यद्यपि पहले भी इसके उपाय बताए गए हैं; अभी-अभी पंदरहवें अध्‍याय में ही यही यत्न सुझाया गया है; तथापि उतना ही कहना काफी नहीं है। उसमें अभी कसर है, कुछ और भी कहना रह जाता है जिसे पूरा करना जरूरी है। वह कमी खासी है, महत्त्वपूर्ण है, न कि ऐसी ही तैसी। उसे पूरा न कर देने में खतरा है, भारी खतरा है, यह बात कृष्ण स्वयमेव समझते थे। यही कारण है कि उनने बिना कहे-सुने, बिना पूछे ही उसे पूरा कर दिया और इसमें पूरे दो 16-17 - अध्‍याय लगा दिए! यह कोई मामूली बात नहीं है, यह मानना ही होगा।

बात असल यह है कि ज्ञान की प्राप्ति के साधनों को बता देने पर भी दो चीजें रह गई हैं। एक तो यह कि इन साधनों पर चलने में खतरे क्या हैं, उन्हें अच्छी तरह से बता देना! दूसरे यह कि जो भी साधन कहे गए हैं उनमें बुनियादी और मौलिक चीज क्या है जिसके बिना बाकी बेकार हो जाते हैं। साधनों के इन दोनों पहलुओं को, या यों कहिए कि इन दो स्पष्ट पहलुओं के साथ-साथ उन साधनों को अंत में याद करा लेना जरूरी था। पहली बात निषेधात्मक (negative) है और दूसरी विधानात्मक (positive)। इस दृष्टि से भी इन्हें जान लेना जरूरी था। निषेधात्मक पहलू में सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह न सिर्फ ज्ञानप्राप्ति के ही लिए जरूरी है, किंतु उसके बाद भी आत्मज्ञानी पुरुष के व्यवहार में वह कसौटी का काम करता है और इस प्रकार समाज-हित-साधन में काम आता है। उसी प्रकार विधानात्मक पहलू भी ऐसा पारस है कि हजारों लोहे को सोना बना देता है। उसके हासिल हो जाने से मनुष्य के व्यावहारिक जीवन की हजारों विधिनिषेधवाली दिक्कतें हट जाती हैं और क्या करें, क्या न करें, इस तरह के उठने वाले रोज के पचड़ों से पिंड छूट जाता है। इस उधेड़बुन की जरूरत रही नहीं जाती है। इस दृष्टि से यह भी व्यावहारिक जीवन की कसौटी ही है। मगर दोनों की उपयोगिता का रूप दो होने से दोनों की महत्ता भी दो है। जिस प्रकार ये खुद निषेधात्मक और विधानात्मक हैं, उसी प्रकार इनकी उपयोगिता भी है। इस प्रकार इन दो अध्‍यायों का गीताधर्म की दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व है। यह बात हम पहले ही बखूबी समझा चुके हैं।

इन दो बातों में भी निषेधात्मक पहलू, अपेक्षाकृत सरल है। किसी चीज से बचना उतना कठिन नहीं है जितना किसी बात का संपादन करना। यह बात भी है कि निषेधात्मक पहलू कूड़ा-करकट हटा के सफ़ाई कर देता है। उसके बाद विधानात्मक वस्तु के लाने या कायम रखने में गंदगियों का खतरा नहीं रहने से आसानी हो जाती है। जब तक प्याले को धो-धा के निर्मल न बनाएँ उसमें दूध रखा कैसे जाएगा? और उस रखने के मानी क्या होंगे? वह गंदा और जहरीला न बन जाएगा? यही कारण है कि सोलहवें अध्‍याय में निषेधात्मक पहलू का ही विवेचन-विश्लेषण किया गया है। इसके पूरा हो जाने पर ही सत्रहवें अध्याय में विधानात्मक पहलू की बातें विस्तार के साथ लिखी गई हैं। इस तरह गीतोपदेश की प्रगति स्वाभाविक ढंग से हो सकी है। इसकी इस अपूर्व लोकप्रियता का यह भी एक कारण है।

इस दृष्ट से यदि हम सोलहवें अध्‍याय के प्रारंभ में कही गई दैवी संपत्तियों पर गौर करें, तो देखेंगे कि जो बातें यहाँ कही गई हैं वह अधिकांश या रूपांतर में सबकी-सब वही हैं जिनका उल्लेख 'अमानित्वमदंभित्व' (13। 7-11) आदि श्लोकों में हुआ है। संख्या बढ़ जाने पर खामख्वाह कुछ नई चीजें भी नजर आएँगी ही। जहाँ पहले कुल इक्कीस ही बातें कही थीं तहाँ अब पूरी सत्ताईस आ गईं! एक तो इसी से अंतर हो गया। दूसरे, गीता का काम हू-ब-हू दुहराना या 'मक्षिका-स्थाने मक्षिका' तो करना है नहीं। इसका तो काम है प्रकारांतर से उन्हीं बातों को इस तरह कहना कि सुनने वाले को ऊब न हो सके और बातें दिल में बखूबी बैठ भी जाएँ। आखिर कठिन तो हईं। इसीलिए दिल में उनका जमना आसान नहीं है। जरूरत भी उन पर प्रकारांतर से जोर देने की इसीलिए पड़ती है।

इसे यों समझें। पतंजलि ने योगसूत्रों में जिन यमों और नियमों को गिनाया है। वह योग के लिए नींव हैं। दीवार हैं। उनके बिना योग का महल खड़ा होई नहीं सकता। इसीलिए योग के आठ अंगों में पहले दो यही यम-नियम ही हैं। हम पहले ही उस सूत्र को लिख भी चुके हैं। यह योग है भी क्या यदि गीता की वह समाधि या ध्‍यान नहीं है जो ज्ञानपूर्णता के लिए अनिवार्य माना गया है और जिसका ब्योरे के साथ गीता ने वर्णन किया है? इसीलिए यम-नियम ही ज्ञान-प्राप्ति के मूल साधन हैं। दोनों ही पाँच-पाँच प्रकार के माने जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय - चोरी न करना - ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह या पदार्थों और लवाजिम का न जमा करना यही पाँच यम हैं, 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:' (2। 30)। इसी प्रकार शौच - शुचिता या पवित्रता - संतोष, तप, स्वाध्याय - सद्ग्रंथों का अभ्यास और ईश्वर-भक्ति यही नियम हैं, 'शौच संतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियम:' (2। 32)। इनका जो कुछ विवरण भाष्य, टीकाओं में तथा स्मृतियों में दिया गया है उसे पढ़ के इन्हीं के आईने में अगर पहलेवाले 21 और यहाँ के 27 को देखें तो साफ पता चलेगा कि वे यही दस हैं, वे नामांतर से इन्हीं का स्पष्टीकरण मात्र हैं।

इस सिलसिले में एक बात और भी ध्‍यान देने की है। पुराने लोगों ने प्राय: कहा है कि इन यम-नियमों में भी यमों को तो कभी छोड़ नहीं सकते। उन्हें तो सदा करना ही होगा। हाँ, नियमों को ज्ञान के बाद छोड़ सकते हैं, छोड़ दें, 'यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परस्त्यजेत्' ( भागवत 11। 10। 5)। पतंजलि ने भी यमों के बारे में लिखा है कि इनके पालन के लिए किसी खास देश, विशेष जाति, वंश, कुल, निश्चित समय या कारण जरूरी नहीं है कि उन सबों के पूरा न होने या न रहने पर ये यम छोड़ दिए जाएँ। ये तो महाव्रत हैं और इन्हें हर हालत में सब देश-काल में सभी आदमियों को करते ही रहना होगा, 'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्' (2। 31)। असल में इन यमों का दूसरों से, समाज-से संबंध होता है। यह बात नहीं है कि इन्हें जो पालन करे, जो इन पर अमल करे उसी का ताल्लुक और हिताहित इनसे होता है। यही कारण है कि इन्हें समाज-हित-साधन के खयाल से ही, या यों कहिए कि समाज की बुनियाद समझ के ही निरंतर करना जरूरी हो जाता है। इसी दृष्टि से इनका महत्त्व ज्यादा है। महाव्रत भी इन्हें कहने का यही अभिप्राय है।

विपरीत इसके नियमों को व्रत ही माना है। उनके देखने से ही साफ मालूम हो जाता है कि उनका ताल्लुक केवल उसी व्यक्ति से है जो उन पर अमल करे। इसीलिए अपनी जरूरत न रहने पर उन्हें वह छोड़ भी दे सकता है, छोड़ भी देता है। सोलहवें अध्‍याय में जो कुछ कहा गया है वह इन्हीं यमों के इसी पहलू पर पूर्ण प्रकाश डाल देता है।

बेशक, शुरू के श्लोकों में विधानात्मक बातें गिनाई गई हैं। इस तरह पूरे तीन श्लोकों को उनने ही ले लिया है। विपरीत इसके एक ही - चौथे - श्लोक में निषेधात्मक बात कही गई है। मगर जब हम गौर करें तो पता लगेगा कि दैवी संपत्ति के रूप में जो बातें कही गई हैं वह आसुरी संपत्ति के मुकाबिले के ही लिए; ताकि इनका महत्त्व झलक जाए और लोग मुस्तैदी से इन्हें संपादन करें। यही वजह है कि जहाँ तेरहवें अध्‍याय में एक भी आसुरी बात को न कह के साफ ही कह दिया था कि दैवी संपत्तियों एवं ज्ञान के साधनों से उलटी जितनी हैं वह सभी आसुरी संपत्ति तथा अज्ञान के साधन हैं और इस तरह कम से कम इक्कीस तो आ गई हैं, तहाँ यहाँ चौथे श्लोक में सिर्फ छ: का ही नाम ले के काम खत्म किया है। इससे यह मतलब तो हर्गिज नहीं निकलता कि बाकियों को छोड़ ही दिया है। यह भला कैसे होगा? फलत: इसका यही अभिप्राय है कि नमूने के रूप में छ: को गिना के इसीलिए छोड़ दिया है कि आगे के कुल पूरे 16 (7-22) श्लोकों में इन्हीं का विवरण मौजूद है, इनका नंगा चित्र खींच दिया गया है। बल्कि छठे श्लोक को भी उन्हीं में गिन सकते हैं। क्योंकि भूमिका के ही रूप में वह आया है। उसमें कहा गया है कि जरा गौर से सुनिए कि बात क्या है। इसीलिए छ: के मानी हैं कम से कम सत्ताईस दैवी संपत्तियों के विपरीत सत्ताईस आसुरी तो जरूर ही। अगर कुछ और भी आ जाएँ तो ठीक ही है। बीच में जो पाँचवाँ श्लोक है वही इस अध्‍याय के मुख्य विषय की ओर ध्‍यान दिलाता है। वह बताता है कि यही इसकी असल बात है। उसमें अर्जुन को आश्वासन देने की बात तो यों ही प्रासंगिक है; ताकि उसकी घबराहट जाती रहे।

तीन गुणों का पहले वर्णन आता रहा है। उनमें सत्त्वगुण के संपादन पर 'नित्यसत्त्वस्थ: (2। 45) में जोर दिया गया है। उसी गुण के फलस्वरूप कुछ विशेषताएँ शरीर में नजर आती हैं। शरीर और इंद्रियाँ हलकी होती हैं, भारी नहीं रहती हैं, आलस्य नहीं रहता है और प्रकाश प्रतीत होता है। यह बात चौदहवें (14। 11) में कही गई है। ऐसी ही दशा में जितनी भी सात्त्विक बातें मनुष्य में पाई जाती हैं उन्हीं को दैवी संपत्ति कहा है। विपरीत इसके रजोगुण एवं तमोगुण की वृद्धि की दशा में जो बातें चौदहवें (14। 12-13) में पाई जाती हैं तथा उन्हीं के फलस्वरूप उनका जितना भी परिवार हो वही आसुरी संपत्ति है। इसमें भी तामसी बातों पर ही ज्यादा जोर है। इस दल में उन्हीं की प्रधानता है। लेकिन जब राजसी बातें दैवी संपत्ति में आ सकती हैं नहीं, तो उन्हें आसुरी में ही जाना होगा।

अभिजात शब्द में जो 'अभि' आया है उसके चलते ऐसा अर्थ हो जाता है कि जो दैवी या आसुरी संपत्तियों में लिपटा और सना हुआ जो, जिसके चारों तरफ वही पाई जाएँ।

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसशुद्धि र्ज्ञा नयोगव्यवस्थिति:।

दानां दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्त्प आर्जवम्॥ 1

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शांतिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥ 2

तेज: क्षमा धृ ति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।

वंति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ 3

श्रीभगवान बोले - हे भारत, निर्भयता, अंत:करण की निर्मलता, ज्ञान एवं योग में जम जाना, दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, यज्ञ, सद्ग्रंथ-पाठ, तप, नम्रता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का त्याग, पदार्थों का त्याग, शांति, दूसरे का ऐब न देखना, पदार्थों पर दया, विषयों की ओर ज्यादा झुकाव न होना, कोमलता, लज्जा, चपलता का न होना, हिम्मत, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, दूसरों को सताने का खयाल न होना, मगरूरी का न होना - (यही चीजें) दैवी संपत्तिवालों में पाई जाती हैं। 1। 2। 3।

सत्त्व की शुद्धि का अर्थ है मन और बुद्धि की निर्मलता। वह तभी होती है जब सत्त्व गुण खूब वृद्धि पर होता है और रज, तम को अच्छी तरह दबाए रहता है। इसीलिए सत्त्व शब्द का प्राय: प्रयोग अंत:करण के मानी में होता है। क्योंकि वह तो सत्त्व-प्रधान होता ही है। संशुद्धि में सत्त्व की वह प्रधानता और भी काफी बढ़ जाती और जम जाती है।

ज्ञान एवं योग दो चीजें हैं। ज्ञान का अर्थ है पढ़-लिख या सुन के जानकारी। योग का अर्थ है उसी पर अमल।

दंभो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध : पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजात्स्य पार्थ संप दमासुरीम्॥ 4

हे पार्थ, दिखावटी बात, फूल के कुप्पा हो जाना, घमंड, क्रोध, कटुवचन और अज्ञान - (यही) आसुरी संपत्तिवालों में पाए जाते हैं। 4।

दैवी संप द्विमोक्षाय निबंधायासुरी मता।

मा शुच: संप दं दैवीमभिजातोऽसि पांडव॥ 5

दैवी संपत्ति जन्म-मरण से छुटकारा दिलाती है और आसुरी बंधन में डालती है ऐसा माना जाता है। हे पांडव, चिंता मत करो, तुम दैवी संपत्ति वाले ही हो। 5।

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥ 6

हे पार्थ, पदार्थों की (और इसीलिए प्राणियों की भी) सृष्टि दोई प्रकार की है - देव और असुर। इनमें दैवी प्रकृतिवालों को तो विस्तार से कही चुके हैं। (अब) असुरों को भी मुझसे सुन लो। 6।

'द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च' (वृहदा. 1। 3। 1।) के अनुसार सृष्टि के दोई विभाग माने गए हैं। इनमें दैव या दैवी प्रकृतिवालों का तो स्थितप्रज्ञ, भक्त, गुणातीत तथा अन्य अनेक रूपों में पहले वर्णन आया ही है। सो भी बार-बार। इनके विस्तृत वर्णन के कहने का आशय यही है कि असुरों या आसुरी स्वभाववालों का यदि वर्णन कहीं पहले आया भी है तो संक्षेप में ही। दृष्टांत के लिए 'अवजानंति मां मूढ़ा' (9। 11-12) में। इसी प्रकार 'कर्मेंद्रियाणि संयम्य' (3। 6) तथा 'भुंजते ते त्वघं पापा' (3। 13) में भी जरा-सा वर्णन है। तेरहवें अध्‍याय में असुरों का तो नहीं, मगर उनकी प्रकृति का जरा-सा 'अज्ञानं वदतोऽन्यथा' (13। 11) में उल्लेख है। इसी तरह के उल्लेख जरामरा आते गए हैं सही। मगर विस्तृत वर्णन कहीं न हो सका है। इसीलिए यहाँ एक ही बार पूरे का पूरा दे दिया गया है। हमने इस पर सभी पहलुओं से विचार करके पहले ही काफी प्रकाश डाला है।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥ 7

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्पर संभू तं किमन्यत्कामहैतुकम्॥ 8

असुर लोग कर्तव्य और अकर्तव्य जानते ही नहीं! उनमें पवित्रता, आचरण - जैसा कहना वैसा करना और सत्य का तो पता ही नहीं होता। सत्पदार्थ या ब्रह्म से ही यह जगत बना है, उसी में कायम है और अंत में उसी में जा मिलता है, ऐसा न मान के वह जगत को बिना ईश्वर के ही मानते हैं (और कहते हैं कि) कामवासना के वशीभूत स्‍त्री-पुरुष या नर-मादा के संबंध से पैदा होने के अलावे इसमें और हई क्या? ।7-8।

बहुत लोगों ने इस आठवें श्लोक के अर्थ में अपने संस्कृत के व्याकरणज्ञान का अजीर्ण मिटाया है। उनने कहा है कि अपर तथा पर शब्दों का समास होने पर अपरपर होगा न कि अपरस्पर; हालाँकि 'अपरस्परा: क्रियासातत्ये' (पा. 6। 1। 144) के अनुसार ही अपरस्पर बनता है। यहाँ क्रियासातत्य या काम का जारी रहना तो हई। सारा संसार ही निरंतर पदार्थों के सम्मिश्रण से ही बनता है। इसमें जरा भी विराम नहीं है। असुर लोग यदि यह भी कहने लगें कि दो पदार्थों के संयोग से कुछ भी नहीं बना है, जब कि हमेशा संयोग से ही असंख्य पदार्थ और जीव-जंतु पैदा हो रहे हैं, तो यह कितनी नादानी होगी? 'कामहैतुकम्' का भी मेल यहाँ बिना परस्पर संयोग के होई नहीं सकता। काम का अर्थ है प्रेरणा या इच्छा, चेतन प्राणधारियों की ही तरह जड़ों में भी प्रेरणा होती ही है और पदार्थों का परस्पर सम्मिश्रण हो के नया पदार्थ तैयार हो जाता है। यहाँ तक कि परमाणुवादी दार्शनिकों ने सृष्टि के आरंभ में परमाणुओं में ही परस्पर प्रेरणा मान के उनमें संयोग माना है। यह कहना भी कि 'असत्यम्' आदि पूर्व के तीन शब्दों की ही तरह नहीं के ही अर्थ में अपरस्पर शब्द में पहले का अकार है, ठीक नहीं है। उत्तरार्द्ध में यह बात नहीं है, किंतु पूर्वार्द्ध में है। उत्तरार्द्ध में तो 'कामहैतुकम्' आदि कई शब्द हैं। मगर किसी के साथ ऐसा अकार जुटा नहीं है। तब उन्हीं के साथी अपरस्पर में ही क्यों माना जाए? और निकट के साथियों को छोड़ दूरवर्तियों से उसकी मिलान भी क्यों की जाए?

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय:।

प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतसोऽहिता:॥ 9

जिनकी आत्मा पतित हो चुकी है ऐसे नासमझ लोग इसी विचार को ले के जगत के अहित बन जाते और उसके सत्यानाश के लिए (घोर से) घोर कर्म तक कर डालते हैं। 9।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दंभमानमदान्विता:।

मोहाद्गृहोत्वाऽसद्ग्राहान् प्रव र्त्तंते ऽशुचिव्रता:॥ 10

कभी पूरी न हो सकने वाली आकांक्षाएँ लिए, दिखावटी बात, घमंड तथा नशे में चूर और नापाक कामों में ही लगे (ये लोग) भूल से गलत बातों के हठ में आ के काम करते रहते हैं। 10।

चिंतामपरिमेयां च प्रल यांता मुपाश्रिता:।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:॥ 11

आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।

हंते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान्॥ 12

मरण तक कायम रहने वाली बेहिसाब फिक्र में डूबे हुए, 'खाओ-पिओ, मौज करो' यही जिनका सब कुछ निश्चय है, सैकड़ों आशाओं के फंदे में फँसे हुए तथा विषयों के भोग में ही लिपटे हुए (ऐसे लोग) अन्याय से ही धन-संचय का यत्न करते रहते हैं। 11। 12।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥ 13

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी॥ 14

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता:॥ 15

अनेकचित्तवि भ्रांता मोहजालसमावृता:।

प्रसक्ता: कामभोगेषु प तंति नरकेऽशुचौ॥ 16

यह चीज तो आज मैंने हासिल कर ली, यह (दूसरी) भी पा लूँगा ही, इतना धन तो मेरे पास हई (और) यह और भी मिली जाएगा, अमुक शत्रु तो मैंने खत्म करी दिया, दूसरों को भी मार डालूँगा, मैं सबका मालिक हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, सब तरह से संपन्न, बलवान और सुखी भी मैं ही हूँ। धनी हूँ, कुलीन हूँ। मेरे समान और कौन है? यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और मौज करूँगा। इसी तरह की भूल-भुलैयाँ में (वे लोग) पड़े रहते हैं। (इस तरह) अनेक (वाहियात) खयालों में ही भूले, मोह के जाल से अच्छी तरह घिरे और विषयभोग में डूबे (ऐसे लोग) गंदे नरकों में जा डूबते हैं। 13। 14। 15। 16।

आत्मसंभाविता: स्तब्धा धानमानमदान्विता:।

जंते नामयज्ञैस्ते दंभे नाविधिपूर्वकम्॥ 17

खुद अपनी तारीफ के पुल बाँधने वाले, उजड्ड तथा धन के अभिमान के नशे में चूर वे लोग दिखाने के लिए नाममात्र के यज्ञ भी कर डालते हैं। 17।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रो धं च संश्रिता:।

मामात्मपरदेहेषु प्र द्विषंतो ऽभ्यसूयका:॥ 18

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥ 19

अहंकार, बल, मनमानी घरजानी, काम तथा क्रोध के वशीभूत, अपने एवं दूसरे शरीरों में आत्मा के रूप में रहने वाले मुझसे बुरी तरह जलने वाले और हर चीज के निंदक (ही ये होते हैं)। इस तरह जलने या द्वेष करने वाले, उन निर्दय एवं नापाक नराधमों को मैं इस संसार की आसुरी योनियों में ही निरंतर डाला करता हूँ। 18। 19।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौंतेय ततो यांत्यधमां गतिम्॥ 20

हे कौंतेय, (ये) मूढ़ लोग लगातार (अनेक) जन्मों में आसुरी या गंदी और पतित योनियों में ही जन्म लेने के कारण मुझ (आत्मा-परमात्मा) को तो जान पाते ही नहीं। फलत: उनकी और भी अधम गति होती है। 20।

त्रिवि धं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥ 21

एतैर्विमुक्त: कौंतेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर:।

आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥ 22

आत्मा को चौपट करने वाले नरक के यही तीन द्वार हैं - काम, क्रोध, लोभ। इसलिए इन तीनों से पिंड (जरूर) छुड़ा लें। हे कौंतेय, नरक रूपी अंधकार के इन तीन द्वारों से जिसका पल्ला छूटा है वही अपने कल्याण का काम कर सकता है और फलस्वरूप परमगति प्राप्त करता है। 21। 22।

पहले भी 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' (2। 62) 'कामएष' (3। 37-43) में काम और क्रोध का इसी सिलसिले में पूरा वर्णन आ चुका है। वहाँ दोनों को एक ही कहा है। यहाँ भी वही बात है। केवल दोनों के साथ तीसरा - लोभ - जुट गया है। मगर यह भी दोनों से जुदा नहीं है। सच पूछिए तो काम के क्रोध रूप में परिणत हो जाने के लिए बीच में ही यह लोभ आता है और दोनों को जोड़ने वाली सीढ़ी का काम करता है। काम या इच्छा की तीव्रता ही तो लोभ है, जिसके चलते पदार्थ को अपने आप से जुदा न होने देने और न मिले हुए को चाहे जैसे हो प्राप्त कर लेने का खयाल भी आ जुटता है। फिर तो जरा भी बाधा या देर होने से वही काम जलते क्रोध का रूप खामख्वाह बन जाता है। हमने इन बातों का बहुत कुछ विवेचन पहले किया है।

अब तक जो कुछ निरूपण किया गया है उससे पूरा पता चल गया है कि ज्ञानमार्ग में और समाज के संचालन में असली खतरे कौन-कौन से हैं। उनका नग्न रूप पिछले सोलह श्लोकों में आ गया है, जिससे किसी भी सहृदय पुरुष का हृदय एकाएक सिहर जा सकता है। फलत: वह इनसे पूरी तौर से सजग हो सकता है। मगर यह निरूपण एक प्रकार का जंगल-सा हो गया है। इसलिए जनसाधारण उसमें आसानी से भटक जा सकते हैं। इसीलिए और आसानी तथा सरलता के भी लिहाज से, जैसे सृष्टि के पँवारे और विस्तार को अंत में तीन गुणों के रूप में ही बता दिया गया है वैसे ही, इन सारी जंगल जैसी विस्तृत बातों का भी काम, क्रोध, लोभ इन तीन के ही रूप में यहाँ निचोड़ दे दिया है। अब इन्हें आसानी से समझा और पकड़ा जा सकता है। ये सबों की समझ में आते भी हैं। इसीलिए सबों से बचने की अपेक्षा इन्हीं तीन से बचने की बात आसानी से कह के काम भी पूरा कर दिया है। इससे साफ है कि जब सबों की जड़ में यही हैं, जैसा कि 'ध्यायतो विषयान्' (2। 62) में साफ बता दिया है, तो फिर सबों से ही क्यों न बचेंगे?

अब प्रश्न होता है कि इनसे बचें कैसे? पिंड कैसे छुड़ाएँ? आखिर कोई प्रणाली या तरीका तो चाहिए ही। यों ही तो कुछ होगा नहीं। इसी का उत्तर यों है -

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य व र्त्त ते कामकारत:।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ 23

तस्माच्छास्त्रां प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म क र्त्तु मिहार्हसि॥ 24

जो शास्‍त्रीय प्रणाली को छोड़ के अपने मन से चलेगा उसका न तो कार्य ही सिद्ध होगा, न उसे आराम ही मिलेगा और न परमगति ही। इसीलिए तुम्हें उचित है कि कर्त्तव्याकर्तव्य की पक्की व्यवस्था करने में शास्त्र को ही प्रमाण मानो। शास्त्रविधान को जानकर ही तुम्हें इस दुनिया में सब कुछ करना होगा। 23। 24।

इस पर पूरा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।

इति. देवासुरसंपद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:॥ 16

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका दैवासुर - संपत्ति - विभागयोग नामक सोलहवाँ अध्‍याय यही है।

सत्रहवाँ अध्‍याय

गीता में श्रद्धा की बात पहले बहुत बार आ चुकी है। किसी भी काम की सफलता के लिए उसे बुनियादी तौर पर जरूरी माना गया है। 'श्रद्धावंतोऽनसूयंत:' (3। 31), 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' (4। 39), 'अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च' (4। 40), 'अयति: श्रद्धयोपेत:' (6। 37), 'श्रद्धा वान्भजते' (6। 47), 'श्रद्ध-यार्चितुमिच्छति', 'श्रद्धां तामेव', 'स तया श्रद्धया युक्त:' (7। 21-22), 'अश्रद्दधाना: पुरुषा:' (9। 3) तथा 'येप्यन्यदेवताभक्ता' (9। 23) आदि में सभी प्रकार की सफलता के लिए यह श्रद्धा आवश्यक मानी गई है। हमने जगह-जगह यह बात स्पष्ट भी कर दी है। फिर भी दार्शनिक ढंग से उसका विवेचन और विश्लेषण अभी तक नहीं हो पाया है और है यह निहायत जरूरी बात। ऐसी मौलिक बात यों ही एक श्रद्धा शब्द से या इसी के सूचक किसी और शब्द से ही कह दी जाए, यह तो अत्यंत नाकाफी है। इस बात का तो पूरा विवरण होना चाहिए। इसकी सारी भीतरी बातें खुल जानी चाहिए। जैसे सोलहवें अध्‍याय में यम-नियमों का हीर निकाल के रख दिया गया है और उस संबंध की सारी बातों का नग्न चित्र खींचा गया है, उससे कम जरूरत इस बात की नहीं है। प्रत्युत सोलहवें में तो अंततोगत्वा निषेधात्मक बात ही कही गई है न? परंतु यह है विधानात्मक। इसीलिए इसकी कठिनता तथा उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। ऐसी दशा में इसका विश्लेषण और भी ज्यादा होना चाहिए और यही बात सत्रहवें अध्‍याय में की गई है। गीताधर्म से इसका कितना गहरा एवं बुनियादी ताल्लुक है और इस निरूपण का असली आशय क्या है यह बात हमने खूब विस्तार के साथ पहले ही बता दी है। उसे पढ़े बिना इसके पढ़ने में न तो मजा आएगा और न यह बात ठीक-ठीक समझी ही जा सकेगी।

यह श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है। क्योंकि श्रद्धा तो मनुष्य में ही होती है और उसके हरेक गुण होते हैं तीनों गुणों के आधार पर बनी उसकी प्रकृति के ही अनुसार। यह बात भी अच्छी तरह प्रतिपादित हो चुकी है। यही वजह है कि श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती ही है। इसीलिए उसी श्रद्धा के अनुसार किए गए सभी कर्मों का भी तीन प्रकार का हो जाना जरूरी है। इसी दृष्टि से नमूने के रूप में ही भोजन, यज्ञ, तप, दान का वर्णन भी आ गया है। असल में भोजन का ताल्लुक तो सीधे श्रद्धा से है नहीं। हाँ, गुणों से तो हई। यह बात भी है कि जैसा भोजन होता है वैसा ही स्वभाव भी होता है। इस तरह भोजन का संबंध सभी चीजों से मूल रूप में हो जाता है। श्रद्धा भी इसीलिए भोजन के साथ घनिष्ठता के साथ जुट जाती है। इसीलिए पहले भोजन का ही विवरण दे के उसके बाद तीन प्रमुख कर्मों का विवरण दिया है। श्रद्धा के बिना जो कुछ भी किया जाता है वह गीता के दायरे के बाहर की चीज है। इसीलिए गीता उसे पूछती तक नहीं। वह गीता की गिनती में हई नहीं। वह तो न यहाँ का है, न वहाँ का। वह तो 'धोबी का कुत्ता न घर का है, न घाट का' इसीलिए गीता ने इस अध्‍याय के अंत में उसे असत्, व्यर्थ, रद्दी कह के एक प्रकार से धिक्कारा है।

तप में एक बात और भी आ गई है। वह कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में तीन प्रकार का होता है। फिर हरेक के तीन-तीन प्रकार, श्रद्धा के भेद से कहिए, गुण के भेद से कहिए, होने से तप के नौ प्रकार हो गए हैं।

इसका प्रसंग भी सोलहवें अध्‍याय के अंत वाले दो श्लोकों ने ला दिया है। वहाँ तो सीधा प्रसंग था काम, क्रोध एवं लोभ के ही मिटाने का। मगर वह तो निचोड़ ठहरे उन समूची संपत्तियों के ही जो समाज के लिए घातक हैं। फिर आत्मदर्शन जैसी नाजुक चीज का क्या कहना? इसे तो वे पलक मारते ही मटियामेट कर दें। इसीलिए जो मार्ग उनके मिटाने का वहाँ बताया गया है वह केवल काम, क्रोधादि तक ही सीमित न रह के कर्तव्य-अकर्तव्य क्षेत्र के विस्तृत दायरे के भीतर आ जाने वाली सभी बातों को ही उसने साथ में ले लिया है। फलत: कर्म या कर्तव्य मात्र के ही बारे में तय पाया गया कि शास्‍त्रीय विधान को जान के ही तदनुसार ही अमल करना चाहिए। ठीक भी है। हरेक बातों के जुदे-जुदे शास्त्र होते हैं। यहाँ तक कि खेल-कूद के लिए भी लंबे-चौड़े शास्त्र बन चुके हैं। इसलिए यह तो उचित ही है कि जो कुछ करना हो उससे पहले तत्संबंधी शास्त्र का अनुशीलन किया जाए, उसके जानकारों से ही पूछताछ की जाए। दूसरा चारा हई नहीं, यदि सफलता चाहते हैं।

इस पर एकाएक अर्जुन के भीतर खलबली का मच जाना और उसका चटपट प्रश्न कर बैठना स्वाभाविक था और इसी से इस अध्‍याय का श्रीगणेश भी हो गया। शास्त्र और उसका विधान ये शब्द कुछ ऐसे हैं कि जनसाधारण को खटक जाते हैं, इस मानी में कि वे बहुत बड़ी चीजें हैं जो उनकी पहुँच के बाहर की हैं। तिस पर भी तुर्रा यह है 'किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:' (4। 16) के द्वारा खुद कृष्ण ने ही पहले ही कह दिया है कि कर्म-अकर्म की पहेली ऐसी पेचीदा है कि बड़े-बड़े दिमागदार भी चकरा उठते हैं। तो फिर जनसाधारण उन दिमागदारों के बनाए शास्त्र को कैसे जान पाएँगे? यह तो निरी असंभव-सी बात है। और अगर न जानें तो सारा कारबार ही बंद हो जाए। क्योंकि ऐसा ही हुक्म हो गया। अर्जुन ने स्पष्ट देखा कि जिस पर हमारा कोई वश न हो उसी के पहिये में हमें और हमारे कर्त्तव्याकर्तव्य को बाँध देना कहाँ तक उचित है। उसे तो यह बात जँच न सकी। हाँ, जो चीज अपने वश की है और जिसे ईमानदारी तथा दृढ़ संकल्प कहते हैं, अपने लक्ष्य और उसकी सिद्धि के उपाय में अटल विश्वास कहते हैं, उसके ऊपर यदि कर्म-अकर्म की निर्भरता हो तो यह बात समझ में आती है। यही उचित भी है। इसी का दूसरा नाम श्रद्धा है। लेकिन अगर किसी ने श्रद्धा के साथ कर्म तो किया, फिर भी शास्‍त्रीय विधिविधान नहीं जानता है, तो उसकी क्या गति होगी, यह प्रश्न स्वाभाविक था। उसने समझा कि वह तो कहीं का न रहेगा, जैसा कि अभी कहा है। मगर यह तो ठीक नहीं जँचता।

निष्ठा, गति या हालत एक ही बात है और घबरा के यही जानने के लिए -

अर्जुन उवाच

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य य जंते श्रद्धयान्विता।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:॥ 1

अर्जुन ने पूछा (कि) हे कृष्ण, जो लोग शास्‍त्रीय विधि की पाबंदी न करके श्रद्धा के साथ यज्ञादि क्रिया करते हैं उनकी क्या हालत है? (उनकी गिनती किस श्रेणी में है?) सत्त्व, रज या तम में? 1।

असल में तीन गुणों के बाहर तो कोई जा सकता नहीं। इसीलिए स्वभावत: अर्जुन ने पूछा कि वे लोग सात्त्विक होंगे या राजस या तामस? कृष्ण ने उत्तर भी वैसा ही दे दिया कि जैसी श्रद्धा होगी वैसे ही वे लोग होंगे, चाहे शास्‍त्रीय विधि की पाबंदी करें या न करें। असल में उनके कहने का आशय यही है कि शास्‍त्रीय पाबंदी न रखने से नीचे से ऊपर तक अराजकता हो जाएगी और सब गड़बड़-घोंटाले में पड़ जाएगा। इसलिए कोई व्यवस्था तो चाहिए ही और वह हो सकती है केवल शास्‍त्रीय विधि ही। दूसरे की तो संभावना हई नहीं। यदि यों ही श्रद्धा के नाम पर छोड़ दिया जाए तो लाखों में शायद ही एकाध ठीक-ठीक उसके अनुसार करें। शेष तो अंधाधुंधी ही मचा देंगे। यदि दुनिया में ईमानदारी और सचाई ही सबों में होती और दृढ़ संकल्प ही पाया जाता, तो फिर उपदेश की जरूरत ही क्यों होती? यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। इसीलिए नियंत्रण रखना जरूरी है। मगर जो लोग सच्चे, ईमानदार और धुनवाले हैं उनके लिए तो छुट्टी ही है। उनके तो चरण चूमते हैं शास्‍त्रीय विधिविधान। कारण, इनका भी तात्पर्य है धीरे-धीरे वैसे ही लोगों को पैदा करना। यही बात -

श्रीभगवानुवाच

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥ 2

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥ 3

श्रीभगवान बोले (कि) देहधारियों की वह स्वाभाविक श्रद्धा तीन तरह की होती है - सात्त्विक, राजस और तामस। उसके बारे में और भी सुन लो। हे भारत, सबकी श्रद्धा सत्त्वगुण (की कमी-बेशी, प्रधानता-अप्रधानता) के ही अनुसार होती है। (क्योंकि) मनुष्य तो श्रद्धामय है। (इसीलिए) जिसकी जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही है। 2। 3।

प्रश्न हो सकता है कि इसकी पहचान क्या है? आखिर कैसे जानें कि कौन आदमी कैसा है? उत्तर सुनिए -

यजंते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा:।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजंते तामसा जना:॥ 4

अशास्त्रविहितं घोरं त प्यंते ये तपो जना:।

दंभा हंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता:॥ 5

कर्श यंत : शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।

मां चैवान्त: शरीरस्थं तान् विद्धयासुरनिश्चयान्॥ 6

सात्त्विक जन देवताओं का यजन-पूजन करते हैं, राजस लोग यक्ष-राक्षसों का और शेष तामस लोग प्रेतों तथा भूतगणों की यज्ञपूजा करते हैं। शास्‍त्रों में विहित न हो ऐसे तप को दंभ, अहंकार से युक्त और काम, राग, बलवाले जो लोग करते हैं (और इस तरह) शरीर के भीतर रहने वाले पदार्थ समूह को और अंत:करण में रहने वाले मुझ आत्मा को भी कमजोर करते रहते हैं, उन्हें आसुरी निश्चयवाले ही समझो। 4। 5। 6।

यहाँ पहले तो ऐसे लोगों के तीन भेद बताए गए हैं और उनकी पहचान दी गई है। देव से अभिप्राय है सात्त्विक दिव्यशक्तियों से ही; न कि साधारण देवताओं से। क्योंकि वे तो राजस और तामस ही हुआ करते हैं। 'एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:' (श्वेता. 6। 11), 'ये पूव देवा ऋषयश्च तद्विदु:' (श्वेता. 5। 6) तथा 'एष देवो विश्वकर्मा' (श्वेता. 4। 17) आदि में भगवान, विष्णु, विद्वान आदि को ही देव कहा है। यही उचित भी है। साधारण देवताओं के पूजक तो स्वर्गादि चाहते हैं और सत्त्व का काम है ज्ञान। इसीलिए यक्ष, राक्षस का अर्थ वैसे ही देवताओं से है। जो तामसी देवता हैं उन्हीं को प्रेत-भूत के नाम से गिनाया है। वे हजारों हैं और उन्हें जनसाधारण खूब मानते-जानते हैं। इसीलिए उनके गण का उल्लेख किया है। बाकियों के गण या समूह होने पर भी वे उतने परिचित नहीं हैं। मगर भूत-प्रेत तो घर-घर जुदे-जुदे हैं। जोई मर गए या गुजर गए उन्हीं को भूत-प्रेत कहते हैं। शब्दार्थ भी यही है।

यहाँ पाँचवें और छठे श्लोकों में जो कुछ कहा है वह यद्यपि शास्‍त्रीय विधि से बाहर वालों के ही कर्म हैं, तथापि उनसे मतलब श्रद्धाशून्य कर्मों से ही है। दिखावटी या अहंकारपूर्वक किए गए कर्म तो सदा श्रद्धाशून्य हुआ ही करते हैं। इसी तरह काम, राग या बलपूर्वक भी जो कुछ किया जाता है वह भी श्रद्धाशून्य ही होता है। श्रद्धा की वहाँ गुजर कहाँ? पहुँच कहाँ? इसीलिए तो आत्मा, इंद्रियों तथा रक्त-मांसादि के कृश करने की बात कही गई है। इंद्रियों या रक्त-मांसादि की कृशता उनकी कमजोरी और दुर्बलता कही है। मगर आत्मा की कृशता है उसका पतन, उसकी विवेकशून्यता। यदि कर्शयंत: की जगह कर्षयंत: पाठ हो तो भी नीचे खींचना या ले जाना - घसीटना - ही उसका अर्थ है और कोई फर्क नहीं है। इसीलिए श्रद्धा का पता वहाँ नहीं रहता। ऐसे कर्मों की गिनती गीता करती ही नहीं। अंतवाले (28वें) श्लोक में आमतौर से इन्हें दूषित ही ठहराया है। यहाँ भी उसी का नमूना बताया गया है। परंतु यह बात यों ही प्रसंग से आ गई है। प्रसंग तो त्रिविध गुणमूलक पदार्थों का ही है। इसीलिए आगे के श्लोकों में वही तीन प्रकार का वर्णन यों लिखा है -

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय:।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥ 7

सभी का प्रिय आहार भी तीन प्रकार का होता है (और) यज्ञ, तप तथा दान भी। इनके ये प्रकार सुन लो। 7।

आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना:।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया:॥ 8

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:॥ 9

यातयामं गतरसं पूर्ति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामे ध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥ 10

आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता, सुख एवं प्रसन्नता को बढ़ाने वाले, रसीले, चिकने या स्नेहयुक्त, कुछ देर में पचने वाले और चित्त को पसंद आने वाले आहार सात्त्विक जनों के प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, नमकीन, ज्यादा गर्म, चरपरे, रूखे तथा जलन पैदा करने वाले आहार राजस लोगों के प्रिय होते तथा दु:ख, शोक, बीमारी पैदा करते हैं। जिसे बने एक पहर गुजर गया हो ऐसा, नीरस, दुर्गंध-युक्त, बासी, जूठा और नापाक भोजन तामस लोगों को पसंद आता है। 8। 9। 10।

अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।

यष्टव्यमेवेति मन: समाधाय स सात्त्विक:॥ 11

अभिसंधाय तु फलं दंभा र्थमपि चैव यत्।

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥ 12

विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षिणम्।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥ 13

फल की आकांक्षा न रखने वाले लोग शास्‍त्रीय विधि के अनुकूल जो यज्ञ 'हमारा यह कर्तव्य है' इसी विचार से मन को निश्चल और एकाग्र करके करते हैं वही सात्त्विक यज्ञ है। हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ फलेच्छा रख के और दिखाने के लिए भी किया जाता है। उस यज्ञ को राजस जानो। शास्‍त्रीय विधि से रहित, अन्नदानशून्य, बिना मंत्र (और) बिना दक्षिणा के ही तथा श्रद्धा के बिना ही किए गए यज्ञ को तामस कहते हैं। 11। 12। 13।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥ 14

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥ 15

मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥ 16

देवता, ब्राह्मण, गुरु, विद्वान इन सबों की सत्कार-पूजा, पवित्रता, नम्रता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा (यही) शरीर का तप कहा जाता है। किसी को न चुभने वाला सत्य, प्रिय और हितसाधक वचन (बोलना) और सद्ग्रंथों का अभ्यास (यही) जबान की तपस्या है। मन की निर्मलता, हँसमुखपन, जबान पर काबू, मन पर नियंत्रण (और) निष्कपट व्यवहार यही मन की तपस्या कही जाती है। 14। 15। 16।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिवि धं नरै:।

अफलाकांक्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते॥ 17

सत्कारमानपूजार्थं तपो दंभेन चैव यत्।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलम ध्रु वम्॥ 18

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप:।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥ 19

पहले दर्जे की श्रद्धा से फलाकांक्षारहित, मन को एकाग्र किए हुए मनुष्यों के द्वारा किए गए उन तीनों ही प्रकार के तपों को सात्त्विक कहते हैं। मौखिक बड़ाई, इज्जत और पूजा के लिए और दंभ से भी जो तप किया जाता है, उस क्षणभंगुर और अनिश्चित फलवाले तप को यहाँ राजस कहा है। जो तप नासमझी से ऊँट की पकड़ की तरह हठात अपने को (केवल) पीड़ा दे के ही या औरों के विनाश के लिए किया जाता है उसे तामस कहा है। 17। 18। 19।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।

देशे काले च पा त्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥ 20

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥ 21

अदेशकाले यद्दानमपा त्रे भ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥ 22

देना चाहिए ऐसा समझ के ही जो दान उपकार के बदले में न हो के (जरूरत की जगह) जरूरत के समय दान के योग्य को ही दिया जाता है उसी दान को सात्त्विक माना है। जो दान, उपकार के बदले में या किसी प्रयोजन से बहुत रो-गा के दिया जाता है उस दान को राजस कहा है। (जो दान बिना जरूरत के और इसीलिए अनुचित) देश, काल और पात्र में बिना सत्कार के ही तिस्कारपूर्वक दिया जाता है उसे तामस कहा है। 20। 21। 22।

आगे बढ़ने के पूर्व यज्ञ, तप और दान के संबंध में दो-एक बातें कह देनी हैं। यह तो मोटी बात है कि दान के लिए देश, काल, पात्र का होना जरूरी है। देश से मतलब खामखा काशी, अयोध्‍या आदि तीर्थों से, काल से मतलब ग्रहण आदि से ही और पात्र से अभिप्राय ब्राह्मण, साधु आदि से ही नहीं है। जहाँ पानी, औषधालय, स्कूल आदि के बिना बहुत हर्ज हो वहीं पर कुआँ, तालाब, अस्पताल, स्कूल आदि बना देना देश में दान हुआ। इसी तरह जाड़े के दिनों में या अकाल वगैरह के समय भूखे-नंगों को वस्त्र, अन्नादि देना काल का दान हो गया। मगर हमारे पास एक ही सेर अन्न है। जिसे लेने को एक ओर दो-चार भूखे और दूसरी ओर साधु-फकीर या पुजारी के नाम पर मुश्चंड लोग खड़े हैं, तो दान के पात्र वहाँ भूखे ही होंगे, न कि चंड-मुचंड लोग। सारांश, जहाँ जिस समय जिन लोगों को कुछ भी देने से अधिक से अधिक लाभ समाज का या व्यक्तियों का हो वही दान देश, काल, पात्र का दान है।

लेकिन इन यज्ञादि के बारे में जो असल बात विचारने की है वह तो दूसरी ही है। पहले श्रद्धा को सात्त्विक, राजस, तामस तीन प्रकार का कहा है। मगर जब नमूने के लिए यहाँ यज्ञादि को दिखाने लगे तो कहीं तो श्रद्धा का नाम केवल सात्त्विक में ही लिया है जैसा कि बीच में तप में स्पष्ट ही देखा जाता है और कहीं - यज्ञ तथा दान में - वह भी नहीं किया है। बल्कि उसकी जगह यज्ञ में शास्‍त्रीय विधि का ही नाम लिया गया है। इसी के साथ यह भी देखा जाता है कि सात्त्विक तथा राजस यज्ञों को छोड़ केवल तामस में ही यह कह दिया कि वह श्रद्धा से रहित होता है और शास्‍त्रीय विधि से हीन भी। इससे दो बातें झलक जाती हैं। एक तो यह कि शास्‍त्रीय विधि और श्रद्धा साथ चलती हैं; हालाँकि अर्जुन का प्रश्न इससे विपरीत है। वह तो यही मान के है कि शास्‍त्रीय विधि न होके भी श्रद्धा हो सकती है। दूसरी यह कि तामस कर्मों से श्रद्धा होती ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तामसी श्रद्धा होती ही नहीं। मगर यह भी पूर्व के उस कथन के विपरीत है कि श्रद्धा तीन तरह की होती है।

दान की भी यह हालत है कि न तो उसमें श्रद्धा का ही उल्लेख है और न विधि का ही! इस तरह तप में भी जब सात्त्विक को श्रद्धापूर्वक कह के शेष दो में चुप्पी मारते हैं तो यह खामख्वाह हो आता है कि राजस और तामस तप में श्रद्धा होती ही नहीं। विपरीत इसके जब तामस यज्ञ को ही श्रद्धा के बिना किया गया कहते हैं तो एकाएक विचार हो आता है कि हो न हो सात्त्विक तथा राजस यज्ञों में श्रद्धा जरूर होती है। मगर अगर वहाँ होती है तो तप में भी क्यों नहीं, यह प्रश्न अनायास उठ खड़ा होता है। इस प्रकार सबों का विचार करने से अजीब घपला दीखता है, गड़बड़ मालूम पड़ती है। जब इसी के साथ 'ॐ तत्सदिति' (23-27) आदि पाँच श्लोकों को इसके बाद ही पढ़ते हैं तो यह खयाल होता है कि श्रद्धा के साथ ही 'ॐ तत्सत्' इस छोटे मंत्र का उच्चारण भी हर कर्म में जरूरी हो जाता है। इस तरह श्रद्धा की छाती पर शास्‍त्रीय विधि खामख्वाह बैठी-बैठाई-सी दीखती है। लेकिन तब तो अर्जुन के प्रश्न का उत्तर ठीक-ठीक मिलता नहीं। विपरीत इसके जब आखिरी या 28वाँ श्लोक देखते हैं तो कुछ उलटी ही समां नजर आती है। वह तो बेलाग कहता है कि चाहे शास्‍त्रीय विधि हो या न हो। मगर यदि श्रद्धा न हो तो सब किया-कराया चौपट! इस प्रकार एक विचित्र गोलमाल-सा हो गया है और किसी बात की सफाई मालूम पड़ती ही नहीं।

इसी सिलसिले में एक बात और भी पाई जाती है। जो यज्ञ और तप दंभपूर्वक या महज दिखावटी होते हैं उन्हें राजस कहा है। दोनों ही में दंभ शब्द पाया जाता है। मगर यदि पाँचवें तथा छठे श्लोकों को देखें तो दंभपूर्वक किया गया तप आसुरी माना गया है। उसी को शास्त्रविधि-शून्य भी कहा है। सात्त्विक, राजस, तामस कर्मों से उसे जुदा भी माना है, जैसा कि प्रसंग देखने से ही स्पष्ट हो जाता है। उसके विपरीत यहाँ ये दोनों एक तो राजस हो गए। दूसरे शास्‍त्रीय विधि के बाहर हैं यह तो लिखा गया ही है। बल्कि तामस यज्ञ को विधिहीन कहने से ही यह राजस विधि-युक्त अर्थत: सिद्ध हो जाता है। उसी का साथी तप भी वैसा ही माना जाना चाहिए। सोलहवें अध्‍याय में यह भी देखी चुके हैं कि दंभवाले यज्ञों को आसुरी कहा है। इस तरह पूर्वापर-विरोधक आ जाने से और भी दिक्कत पैदा हो गई है।

लेकिन दरअसल बात ऐसी है नहीं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जब उपसंहार या अंत में श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दानों का - क्योंकि हुत या हवन तो यज्ञ में ही आ जाता है - नाम ले के स्पष्ट ही उन्हें चौपट बताया है, तो इससे निर्विवाद हो जाता है कि उससे पहले सर्वथा श्रद्धाशून्य कर्मों का जिक्र हई नहीं। क्योंकि यह तो सामान्य रूप से सभी प्रकार के ही यज्ञों, दानों, तपों के बारे में कहना है। फिर बीच में किसी एकाध का नाम लेने का क्या मौका? वह तो व्यर्थ ही ठहरा न? उसकी जरूरत तो वहाँ है नहीं। उससे काम भी तो नहीं निकलता और अंततोगत्वा सभी कर्मों के बारे में 'अश्रद्धयाहुतं दत्तं' का कहना जरूरी होई जाता है। ऐसी दशा में यदि कहीं-कहीं अश्रद्धा आ गई है तो उसका आशय कदापि यह नहीं है कि उनमें श्रद्धा का सर्वथा या बिलकुल ही अभाव है। किंतु केवल यही कि श्रद्धा अधूरी है, कच्ची है। जब भोजन में नमक कम हो तो कभी-कभी कह बैठते हैं कि इसमें तो नमक हई नहीं। इसी तरह कहा जाता है कि आज तो हवा कतई हई नहीं। मगर हवा न रहे, यह तो संभव नहीं। इसलिए उसके मानी यही होते हैं कि कम है, बहुत थोड़ी है। यही बात यहाँ भी समझिए। पूरी श्रद्धा होने पर सात्त्विक, उसमें कमी होने पर पर राजस और नाममात्र की श्रद्धा या बहुत कम होने पर तामस यही मतलब होता है। मगर जहाँ श्रद्धा कतई हई नहीं वही आसुरी है। यही बात अंत में और 5-6 श्लोक में भी कही गई है।

असल में दैवी और आसुरी के अलावे तीसरा दल तो हई नहीं। इसीलिए राजस यज्ञ और तप में जो दंभ आया है उससे इस अध्‍याय के और सोलहवें के भी आसुरी स्वभाव का मेल हो जाना उचित ही है। हमने यह बात पहले कह भी दी है। मगर यह बात हमेशा याद रखने की है कि आसुरी कहने और राजस, तामस श्रद्धा का नाम लेने से यह कभी नहीं मानना होगा कि राजस और तामस यज्ञादि करने वाले श्रद्धाशून्य हैं। इसीलिए 'अश्रद्धया हुतं दत्तं' वाले में ही उसकी गिनती है। इसीलिए, 5-6 श्लोकों में जो दंभ आया है वही यज्ञ तथा तप में भी आ गया है, जिससे ये तीनों एक ही हो जाते हैं - इनमें जरा भी फर्क नहीं है, यह समझना भी भूल है। 5-6 श्लोकों की बात दूसरी है, निराली है और वही मिल जाती है। 'अश्रद्धया हुतं दत्तं' के साथ। न कि यज्ञ और तप के राजस, तामस आदि भेद मिलते हैं। दंभ शब्द के बारे में तो कही चुके हैं कि क्यों आया है। 5-6 श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह केवल अश्रद्धा की निंदा के ही लिए। न कि यहाँ उसका कोई खास प्रयोजन है। क्योंकि उसमें केवल तप की बात आती है। किंतु अंत वाले श्लोक में यज्ञ, तप, दान तीनों को ही चौपट बताया है। ऐसी दशा में यदि सिर्फ निंदा ही प्रयोजन न हो के किसी खास बात का प्रतिपादन मतलब होता तो उसकी जरूरत ही क्या थी? वह तो बेकार हो जाता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि पूर्ण श्रद्धा होने पर सभी कर्म सात्त्विक हो जाते हैं, फिर चाहे वह यक्ष-राक्षसों की पूजा हो या भूत-प्रेतों की। यह बात हम पहले 'येप्यन्यदेवता भक्ता:' (9। 23-25) आदि में अच्छी तरह बता भी चुके हैं। अगर फिर भी वैसे कर्मों में कसर रह जाती है या उन्हें तामस और राजस कहते हैं तो केवल इसीलिए कि वह रास्ता, वह समझ, उन कर्मों के करने की सारी बुनियाद ही गलत है। यही बात 'न तु मामभिजानंति' (9। 24) में कही जा चुकी है।

जो यह कहा गया है कि सात्त्विक यज्ञ और दान में श्रद्धा नहीं पाई जाती है, उसका उत्तर साफ है। जब वह सात्त्विक तप में लिखी है तो शेष दो में भी उसे समझ लेना ही होगा। इसमें कोई विशेष युक्ति की जरूरत है नहीं। सभी सात्त्विकों की एक-सी बात है न? यह भी तो देखते ही हैं कि तीनों के बारे में फलाकांक्षा या बदले के उपकार का खयाल करके ही करने को लिखा है। बल्कि यज्ञ और तप में तो 'अफलाकांक्षिभि:' यही शब्द दोनों जगह है और जब एक जगह 'श्रद्धया' से उसका संबंध है तो दूसरी जगह भी उसे मान लेना आसान है, अर्थ सिद्ध है। असल में तो प्रयोजन या फल की इच्छा का न होना ही पूर्ण श्रद्धा की पक्की निशानी है। ये दोनों साथ ही चलने वाली हैं। इसीलिए जहाँ श्रद्धा में कमी हुई कि फलाकांक्षा, उपकार का खयाल, दंभ आदि धीरे-धीरे घुसने लगे। इसलिए यदि तप में श्रद्धा कही भी गई है तो उसकी खास जरूरत नहीं है। फिर भी कहीं लोग ऐसा न समझ बैठें कि श्रद्धा के बिना भी सात्त्विक कर्म होते हैं, इसीलिए बीच में 'श्रद्धया' लिख दिया, जो पहले वाले यज्ञ में और बादवाले दान में भी माना जाएगा। श्रद्धा न कहके जो शास्त्रविधि कही गई है वह भी श्रद्धा का सूचक ही है। पूरी शास्त्रविधि में तो पूर्ण श्रद्धा रहेगी ही। उसके बिना तो शास्त्रविधि कभी पूरी होई नहीं सकती, यह पक्की बात है। प्राचीन विद्वानों और ऋषि-मुनियों ने यही माना भी है।

अब केवल एक ही बात रह जाती है और वह यह कि इसके बाद के पाँच श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह भी तो शास्त्र की विधि ही है न? किंतु उसकी जरूरत यहाँ क्या थी जब कि श्रद्धा की बात आई गई है? ऐसा प्रश्न किया जाता है सही। फिर भी शास्त्रविधि के उल्लेख का जो प्रयोजन अभी कहा है उसके बाद तो इसकी भी गुंजाइश नहीं रह जाती है। परंतु यहाँ कुछ खास बात है। बात यों है कि जो लोग शास्‍त्रीय विधि को जनसाधारण की पहुँच के बाहर की चीज मानते हैं और इसीलिए उसे हौवा समझते हैं उनका भी तो खयाल गीता को करना ही है। गीता धर्म तो सर्वसाधारण के ही लिए है, खासकर यह श्रद्धावाली बात। इसीलिए इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर गीता का ध्‍यान जाना अनिवार्य था और उसी ध्‍यान के परिणामस्वरूप ये पाँच श्लोक हैं।

जो लोग यह समझते हैं कि शास्‍त्रीय विधि बहुत बड़ा जाल और पँवारा है और इसलिए उससे और उसके नाम से ही बुरी तरह घबराते हैं उन्हें गीता का कहना है कि तुम नाहक ही ऐसा समझ के घबराते हो। देखो न, ब्रह्मवादी और मोक्षकांक्षी लोग भी इस शास्‍त्रीय विधि को कितनी आसान मानते हैं? जो कर्म यज्ञार्थ या भगवदर्पण होते हैं उन्हें भी किस आसानी से शास्‍त्रीय विधि से किया जा सकता है! फिर घबराने का क्या सवाल? एक ॐकार, तत् या सत् शब्द - तीनों में हरेक - ही ऐसा है कि इसके उच्चारण मात्र से शास्त्रविधि पूर्ण हो जाती है और अगर तीनों को मिला के ॐतत्सत् कह दिया तब तो कहना ही क्या? इन पाँच श्लोकों का यही आशय है और जब ब्रह्मवेत्ता, मोक्ष के इच्छुक या उत्तमोत्तम कर्मों के करने वाले ही ऐसा करते हैं तो इसे शास्‍त्रीय विधि न कहें तो और कहें क्या? आगे 'विधानोक्ता:' शब्द आया भी है। इस तरह गीता ने सर्वसाधारण के लिए - उनके भी लिए जो वेद-वेदांग जान पाते नहीं और ऐसे ही लोग ज्यादा हैं - भी शास्‍त्रीय विधि सुलभ कर दी। हाँ, जो वेद-शास्त्र के ज्ञाता हैं वह तो खामख्वाह लंबी-चौड़ी विधि करेंगे ही। किंतु गीता को उनकी कुछ ज्यादा परवाह है भी नहीं। जब ब्राह्मणों, वेदों तथा यज्ञों की उत्पत्ति इन्हीं तीन शब्दों का उच्चारण करके ही हुई तो फिर इनकी महत्ता का क्या कहना? यज्ञादि कर्मों के आधार तो वेद और ब्राह्मण ही हैं और जब वही और खुद यज्ञ भी इन्हीं शब्दों के उच्चारणपूर्वक ही प्रकट हुए तब और बचता ही है क्या?

श्रद्धा के बाद और 'अश्रद्धयाहुतं' के पहले इन पाँच श्लोकों की बातों का दूसरा मतलब होई नहीं सकता, शुरू से ही शास्त्रविधि का प्रश्न उठा भी है। फिर भी इस अध्‍याय में श्रद्धा की ही प्रधानता है और वही इसका विषय भी है। इसीलिए श्रद्धा के बाद ही शास्‍त्रीय विधान पर अपनी दृष्टि से प्रकाश डाल देना आवश्यक भी था। इसमें एक बात और भी है। ॐतत्सत् का उच्चारण और प्रयोग तो श्रद्धा के बिना होई नहीं सकता। जिन्हें इसमें या ऐसे कर्मों में पूरा विश्वास नहीं, निश्चय नहीं है वह भला ॐतत्सत् का नाम भी क्यों लेने जाएँगे? इस तरह गीता ने इस बहाने ही श्रद्धा की भी जाँच कर ली। नहीं तो इसके नाम पर प्रवंचना और ठगी का होना आसान था। इससे यह भी होगा कि श्रद्धा में अगर जरा भी कोर-कसर होगी या वह पूरी न होगी, तो इस उच्चारण से पूर्ण हो जाएगी। क्योंकि यह तो उसका राजमार्ग ही है। शुरू में ही हमने जो कहा था कि श्रद्धा आसान नहीं है, वह सबमें पाई जाती है नहीं और उसका संपादन जरूरी है, वह जरूरत भी इससे पूरी होती है। इस तरह एक ही तीर से कई शिकार हो जाते हैं।

आगे जो यह लिखा है कि ॐ, तत् और सत् ये तीनों ब्रह्म के नाम तथा ब्रह्मवाचक शब्द माने जाते हैं उसमें तो खुद गीता ही साक्षी है। 'ॐमित्येकाक्षरं ब्रह्म' (8। 13) तथा 'प्रणव: सर्वं' (7। 8) में ॐ को ब्रह्म कही दिया है। इसी प्रकार 'तद्बुद्धयस्तदात्मान:' (5। 17) आदि में जिस ज्ञान को तत् कहा है वह आत्मा-ब्रह्म स्वरूप ही है और इस श्लोक में उसी की संभावना है। ऐसा और भी आया है। यों तो बार-बार ब्रह्म को सत् कहा ही है। लेकिन 'न तदस्ति बिना यत्स्यात्' (10। 39) में स्पष्ट ही ब्रह्म की सत्ता सर्वत्र मानी गई है। उपनिषदों में भी 'ॐ मितिब्रह्म' (तैत्ति. 1। 7), 'तत्त्वमसि श्वेतकेतो' (छांदो. 6। 8-16) तथा 'सदेव सोम्येदमग्र' (6। 2। 1) आदि में यही बात पाई जाती है।

तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा॥ 23

ॐ, तत्, सत् यही तीन नाम ब्रह्म के माने गए हैं और सृष्टि के आरंभ में इन्हीं तीनों (के उच्चारण) से ब्राह्मण, वेद और यज्ञ बने (भी)। 23।

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।

प्रवर्त्तंते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम्॥ 24

तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।

दानक्रियाश्च विवि धा : क्रियंते मोक्षकांक्षिभि:॥ 25

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते॥ 26

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥ 27

इसीलिए ॐ का उच्चारण करके ही ब्रह्मवादियों की शास्‍त्रीय-विधिविहित यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाएँ हमेशा हुआ करती हैं। (इसी तरह) मोक्ष की इच्छावाले फल का खयाल न करके अनेक प्रकार की यज्ञ, दान, तप रूपी क्रियाएँ तद् का उच्चारण करके ही करते हैं। हे पार्थ, किसी चीज के अस्तित्व के लिए तथा अच्छा हो जाने के लिए भी सत् शब्द बोला जाता है। श्रेष्ठ कर्मों में भी सत् शब्द का प्रयोग होता ही है। यज्ञ, तप और दान में जो निष्ठा एवं दत्तचित्तता होती है उसे भी सत् कहते हैं। यज्ञार्थ या ब्रह्म के लिए जो भी कर्म हो सत् ही कहा जाता है। 24। 25। 26। 27।

यहाँ, यज्ञ, दान, तप का उल्लेख उदाहरण-स्वरूप ही है, जैसा कि पहले भी तीन का ही नाम आया है। यही प्रधान कर्म हैं भी। अगर तात्पर्य सभी कर्मों से है। यह तो सभी जानते हैं कि दान आदि क्रियाओं और उत्तम कर्मों को सत्कर्म कहते हैं। यज्ञादि करने वालों को भी कहते हैं कि आप तो अच्छा कर्म, सत्कर्म, समीचीन कर्म करते हैं, ठीक करते हैं। उसी से यहाँ मतलब है।

अश्रद्धया हुतं द त्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥ 28

(विपरीत इसके) जो हवन, दान, तप आदि श्रद्धा से नहीं किया जाता है वह असत् कहा जाता है। (इसीलिए) न तो वह मरने पर ही किसी काम का होता है और न यहीं पर। 28।

यहाँ यज्ञ की ही जगह हुत या हवन आया है। श्रद्धाशून्य कर्मों को असत् कह देने से बिलकुल ही साफ हो जाता है कि ॐ तत्सत् का श्रद्धा से ही संबंध है। फलत: श्रद्धा के बिना ये किसी भी कर्म में बोले जा सकते नहीं। श्रद्धा के हटते ही वह कर्म असत् जो हो जाएगा। फिर उसमें सत् शब्द के प्रयोग का अर्थ क्या होगा? यह तो उलटी बात हो जाएगी न? इस प्रकार सिद्ध हो जाता है कि अथ से इति तक इस अध्‍याय पर श्रद्धा की छाप लगी हुई है। फिर चाहे वह सात्त्विक हो, राजस हो या तामस। इसीलिए समाप्ति-सूचक संकल्प वाक्य में भी 'श्रद्धात्रयविभागयोग:' लिखा है। यहाँ जो विभाग शब्द है वह भी महत्त्वपूर्ण है और बताता है कि तीन गुणों के बीच में संसार के विभाग की ही तरह उन सभी कर्मों का, जिनकी गणना गीता करती है, तीन श्रद्धाओं के बीच बँटवारा हो गया है। वहाँ भी 'गुणत्रयविभागयोग:' ऐसा ही लिखा गया है। हमने जो कुछ अब तक कहा है, वह भी यही है। बेशक, इस अध्‍याय में कर्त्तव्याकर्तव्य की एक निराली, और गीता की अपनी, कसौटी कही गई है जिस पर काफी प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। यहाँ उससे ज्यादा लिखने का मौका है नहीं। लेकिन अभी इस संबंध में बहुत कुछ कहना जरूरी है, जो आगे के लिए ही छोड़ दिया जाना ठीक है।

इति श्री. श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:॥ 17

श्रीम. जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका गुणत्रय-विभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्‍याय यही है।

अठारहवाँ अध्‍याय

पीछे के सत्रह अध्‍यायों में ही गीता के सभी विषयों का आद्योपांत निरूपण हो गया। अब कुछ भी कहना बाकी न रहा। इसीलिए कृष्ण को भी स्वयं आगे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई। इसीलिए अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में ही बची-खुची बातें कहते हुए, या यों कहिए कि कही हुई बातों को ही दुहराते एवं शब्दांतर से उनका स्पष्टीकरण करते हुए, उनने सबों का उपसंहार इस अध्‍याय में किया। यदि गौर से देखा जाए तो इस अध्‍याय में न तो कोई नई बात ही कही गई है और न किसी बात को कोई ऐसा रूप ही दिया गया है जो पहले दिया गया न रहा हो, या जो बिलकुल ही नया हो। त्याग का ब्योरा, कर्त्ता, बुद्धि आदि की त्रिविधता, वर्णों के स्वाभाविक कर्म आदि में एक भी बात नई नहीं है और न यहाँ किसी को नया रूप ही मिला है। या तो गीता के बाहर ही ये बातें प्रचलित रही हैं या, ऐसा न होने पर भी, गीता में ही पहले आ गई हैं। जो लोग इससे पहले के अध्‍यायों को ध्‍यान से पढ़ गए हैं उन्हें यह बात साफ मालूम होती है। त्याग के बारे में कई मत कह देना यह गीता की बात न भी हो तो कोई नई तो है नहीं। इसकी बुनियादी चीजें, जिन्हें फलेच्छा और आसक्ति का त्याग कहते हैं, पहले जानें बीसियों बार कही जा चुकी हैं। सात्त्विकादि तीन विभाग तो चौदहवें में और सत्रहवें में भी आया ही है। कुछ चुने-चुनाए और भी दृष्टांत देने से ही नवीनता आ जाती नहीं। आत्मा का अकर्तव्य और गुणों का कर्तव्य भी पहले आई चुका है। सो भी अच्छी तरह। इस तरह प्रारंभ के चौवालीस श्लोकों तक पहुँच जाते हैं।

उसके बाद के पूरे 22 श्लोक में कुछ में जो स्वधर्मानुष्ठान की महत्ता बताई गई है और उसी के द्वारा कल्याण की बात कही गई है वह भी पहले खूब ही आई है। फिर संन्यास यानी स्वरूपत: कर्मों के त्याग की बात जरूरी बता के जिसके लिए वह जरूरी है उस समाधि या ध्‍यान का भी वर्णन कुछ श्लोकों में किया है। अनंतर उसी समदर्शन का वर्णन किया है जिसका बार-बार वर्णन आता रहा है। उसी में ज्ञानीभक्त नामक चौथे भक्त का भी जिक्र है। जो लोग ज्ञान के बाद भगवान में ही कर्मों को छोड़ के लोकसंग्रह के काम करते हैं उनका वर्णन करके हठ के साथ उलट-पलट करने या बातें न मानने से अर्जुन को रोका-समझाया है। यह भी कहा है कि यकीन रखो, तुम्हें प्रिय समझ के ही यह उपदेश दे रहा हूँ; न कि इसमें मेरा कुछ दूसरा भी मतलब है। फिर भी आँखें मूँद के कुछ भी करने को नहीं कहता। करो, मगर खूब सोच-समझ के! अंधपरंपरा अच्छी नहीं है। अंत में 66वें श्लोक में संन्यास यानी कर्मों के स्वरूपत: त्यागने का, जिसके बारे में अर्जुन का प्रश्न था, वर्णन कर दिया है। इस तरह गीतोपदेश पूरा किया है। अंत में ऐसा कहने का मौका भी इसीलिए आ गया है कि आत्मा में मन को हर तरह से बाँध देने का जो अंतिम उपदेश अर्जुन को दिया है वह तब तक संभव नहीं जब तक नित्य-नैमित्तिक या नियत धर्मकर्मों से छुट्टी न ली जाए? इसके बाद से अंत तक गीतोपदेश के नियम, शिष्टाचार और परंपरा आदि का ही वर्णन है। अंत में कृष्ण ने पूछा है कि बातें समझ में आईं या नहीं? इस पर अर्जुन ने उत्तर दिया है कि हाँ, सब समझ गया और आपकी बातें मानूँगा। इसके बाद के पाँच श्लोक तो संजय की उस समय की मनोवृत्ति की विचित्रता बताने के साथ ही कौन जीतेगा, कौन हारेगा यही बातें कहते हैं। एक श्लोक कृष्ण के उस निराले तथा अलौकिक स्वरूप की याद दिलाता है जो अर्जुन को उपदेश देने के समय था और जिसका वर्णन हमने पहले ही अच्छी तरह कर दिया है। अब इनमें नई बात कौन-सी आ गई है जिसके पीछे माथापच्ची की जाए?

यही वजह है कि अर्जुन ने आरंभ में प्रश्न भी नहीं किया। उसने तो केवल इच्छा जाहिर की। सो भी संन्यास या त्याग का न तो अर्थ ही जानने के लिए है और न उनके लक्षण ही। दोनों शब्दों के अर्थ तो एक ही हैं यह पहले ही बता चुके हैं। यह भी दिखा चुके हैं प्रश्न के बाद दोनों शब्द यहाँ भी एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। लक्षण की भी बात नहीं है। क्योंकि यहाँ लक्षण न कह के त्याग के बारे में नाना मत ही बताए गए हैं। इसे लक्षण तो कहते नहीं। चार मतों के सिवाय कृष्ण ने जो अपना मत कहा है वह भी न तो नया है और न लक्षण ही है। किंतु केवल कर्तव्यता की बात ही उसमें है। असल में ज्ञान के अलावे गीता की तो दोई खास बातें हैं। उनमें एक को कर्मों का संन्यास या स्वरूपत: त्याग कहते हैं तथा दूसरे को साधारणत: केवल 'त्याग' कहते हैं। मगर हैं ये दोनों कठिन तथा विवादग्रस्त। इसीलिए पहले बार-बार इनका जिक्र आया है। संन्यास का तो आया ही है। त्याग का भी 'संगं त्यक्त्वा धनंजय' (2। 48), 'त्यक्त्व कर्मफलासंगं' (4। 20) 'संग त्यक्वात्मशुद्धये' (5। 11), 'युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा' (5। 12) तथा अंत में 'सर्वकर्मफलत्यागं' (12। 11) आदि में जिक्र आया है। इसलिए अंत में अर्जुन यही जानना चाहता है कि जब ये दोनों इतने विलक्षण हैं, गहन हैं, और 'कवयोऽप्यत्रमोहिता:' (4। 16) में यह भी कहा गया है कि बड़े से बड़े चोटी के विद्वान भी इनके बारे में घपले में पड़ जाते हैं, तो इन दोनों की अलग-अलग हकीकत, असलियत या तत्त्व क्या है। उसके कहने का यही मतलब है कि इनके बारे में जो भी विभिन्न विचार हों उन्हें जरा सफाई और विस्तार के साथ कह दीजिए, ताकि सभी बातें जान लूँ। इसीलिए त्याग के ही बारे में पहले पाँच तरह के विचार कृष्ण ने दिखाए हैं - चार दूसरों के और एक अपना। संन्यास के बारे में तो ऐसे अनेक विचार हैं नहीं। इसीलिए अर्जुन के शब्दों में पहले आने पर भी कृष्ण के शब्दों में वह पीछे आया है। उसके बारे में केवल यही बात विस्तार से कहने की थी कि उसका मौका कब और कैसे आता है। यही उनने बताई भी है। वह अंतिम चीज भी तो है। इसलिए अंत में ही उसे कहना उचित भी था। कुछ लोग नादानी से कर्मों को हर हालत में छोड़ देना ही संन्यास समझते हैं। उससे निराली ही चीज संन्यास है, यह भी बात संन्यास का तत्त्व बताने से मालूम हो गई है। नहीं तो मालूम हो न पाती। इसीलिए जो लोग संन्यास के संबंध की जिज्ञासा का उत्तर पहले ही मान लेते हैं वह मेरे जानते भूलते हैं। क्योंकि उनके मन से तो पीछे संन्यास का जिक्र निरर्थक हो जाता है।

इसी अभिप्राय से ही -

अर्जुन उवाच

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।

त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥ 1

अर्जुन ने कहा (कि) हे महाबाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनाशक, संन्यास और त्याग दोनों ही की अलग-अलग हकीकत जानना चाहता हूँ। 1।

श्रीभगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:॥ 2

त्याज्यं दोषवदित्ये के कर्म प्राहुर्मनीषिण:।

यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे॥ 3

श्री भगवान ने कहा (कि) (कुछ) विद्वान सकाम कर्मों के त्याग को ही त्याग मानते हैं, (दूसरे) विवेकी जन सभी कर्मों के फलों के त्याग को ही त्याग कहते हैं, कोई-कोई मनीषी - मननशील पुरुष - कहते हैं कि कर्ममात्र का ही त्याग करना चाहिए जैसे बुराई का त्याग किया जाता है। और चौथे दलवाले कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को छोड़ना चाहिए ही नहीं। 2। 3।

यहाँ चार स्वतंत्र मत बताए गए हैं और चारों का ताल्लुक त्याग से ही है। अपना पाँचवाँ मत कृष्ण आगे बताते हैं। इनमें तीसरा ही मत ऐसा है जो कर्मों का त्याग हर हालत में हमेशा मानता है और कहता है कि जैसे दोष का त्याग हमेशा हर हालत में करते हैं वैसे ही कर्म का भी होना चाहिए। यहाँ 'दोषवत' का अर्थ है दोष की तरह ही। दोषवत का अर्थ दोषवाला भी होता है। इस तरह यह अर्थ होगा कि कर्म तो दोषवाला हई। इसी से उसे छोड़ ही देना ठीक है। मगर कर्म का यह स्वरूपत: त्याग संन्यास नहीं है यही गीता का मत है। यह मानती है कि ऐसा न करके केवल समाधि के पहले ही उसे त्यागने को संन्यास कहते हैं। यही बात 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' में आगे लिखी गई है। पूर्ण ज्ञान के परिपाक के हो जाने पर मस्ती की दशा में भी कर्मों का त्याग स्वरूपत: हो जाता है ऐसा गीता का मान्य है, जैसा कि 'यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्' (3। 17) में स्पष्ट है। मगर हर हालत में कर्मों का त्याग न तो उसे मान्य है और न संभव, जैसा कि 'नहि कश्चित्' (3। 5) से स्पष्ट है।

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सं प्रकीर्त्ति त:॥ 4

हे भरत श्रेष्ठ, हे पुरुषसिंह, उस त्याग के बारे में मेरा निश्चय भी सुन लो। क्योंकि त्याग तीन तरह के होते हैं। 4।

इस श्लोक के उत्तरार्द्ध का यह भी आशय हो सकता है कि 'क्योंकि त्याग के बारे में तीन बातें कही जा सकने के कारण वही तीन ढंग से जानने योग्य है।' इनमें पहली बात वह है जो पाँचवें श्लोक के पूर्वार्द्ध में आई है कि यज्ञ, दान, तप को न छोड़ के करना ही चाहिए। दूसरी उत्तरार्द्ध में पहले कथन के हेतु के रूप में ही आई है कि ये यज्ञादि मनीषियों को भी पवित्र करने वाले हैं। इसीलिए इन्हें करना ही चाहिए। तीसरी बात छठे श्लोक में है कि आसक्ति और फल दोनों को ही छोड़ के इन्हें करना चाहिए। इस प्रकार तीन बातें हो गईं। सारांश रूप में पहली यह कि यज्ञ, दान, तप को कभी न छोड़ें। दूसरी यह कि उन्हें जरूर करें; क्योंकि यह पवित्र करने वाले हैं। तीसरी यह कि इनके करने में भी कर्म की आसक्ति और फल की इच्छा को छोड़ ही देना होगा। यही तीन तरह की बातें त्याग को लेकर हो गईं।

यज्ञदानतप: कर्म न त्याज्यं कार्यमेव च।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥ 5

एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।

कर्त्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥ 6

यज्ञ, दान, तप इन कर्मों को (कभी) नहीं छोड़ना, (किंतु) अवश्य ही करना चाहिए। (क्योंकि) यज्ञ, दान, तप ये मनीषियों को भी पवित्र करते हैं। (फिर औरों का क्या कहना?) (लेकिन) इन कर्मों को भी, इनमें आसक्ति और फलेच्छा को छोड़ के ही, करना चाहिए, यही मेरा निश्चित उत्तम मत है। 5। 6।

चौथे श्लोक में जो सीधा-साधा अर्थ करके त्याग के तीन प्रकार कहे हैं वह ये हैं -

नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामस: परिकीर्तित्तत:॥ 7

दु:खमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभया त्त्य जेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥ 8

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्त्विको मत:॥ 9

जो कर्म जिसके लिए तय कर दिया गया है उसका त्याग तो उचित नहीं (और अगर) मोह से उसका त्याग (कर दिया गया) तो वह तामस (त्याग) कहा जाता है। शरीर के कष्ट के भय से दु:खदायी समझ के ही कर्म का त्याग जो करता है वह (इस तरह) राजस त्याग करके त्याग का फल हर्गिज नहीं पाता। हे अर्जुन, कर्तव्य समझ के ही आसक्ति एवं फल के त्यागपूर्वक जो निश्चित कर्म किया जाता है वही सात्त्विक त्याग माना जाता है। 7। 8। 9।

आगे के तीन श्लोक इस सात्त्विक त्याग की रीति और आकार बताने के साथ ही उसके कारण और परिणाम भी कहते हैं। ये तीनों बातें क्रमश: तीन श्लोकों में पाई जाती हैं।

न द्वेष्टयकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥ 10

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ 11

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिवि धं कर्मण: फलम्।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥ 12

संशयरहित विवेकी सात्त्विक त्यागी न तो बुरे कर्म से द्वेष करता है। (और) न अच्छे में आसक्त हो जाता है। जब कि देहधारी के लिए सभी कर्मों का त्याग करना संभव ही नहीं है, तो जो केवल कर्म के फल का त्याग करता है। वही (सात्त्विक) त्यागी कहा जाता है। बुरा, भला और मिश्रित यह तीन तरह का कर्म फल मरने के वाद सात्त्विक त्याग न करने वालों को ही मिलता है; न कि त्यागियों को भी कहीं (मिलता है)। 10। 11। 12।

पतंजलि ने योगदर्शन में लिखा है कि साधारण मनुष्यों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शुक्ल, कृष्ण और शुक्ल-कृष्ण या मिश्रित कहते हैं। इन्हीं को भले, बुरे और मिले हुए भी कहते हैं। इनके फल भी क्रमश: भले, बुरे और मिश्रित ही होते हैं। इन्हीं को इष्ट, अनिष्ट और मिश्र इस आखिरी श्लोक में कहा है। इसके विपरीत योगियों का कर्म चौथे प्रकार का होता है, जिसे अशुक्ल-कृष्ण कहते हैं। इसका अर्थ है - न भला, न बुरा। 'कर्माशुक्ल कृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्' (4। 7) योगसूत्र और उसके भाष्य को ध्‍यानपूर्वक पढ़ने से इसका पूरा ब्योरा मालूम होगा। बारहवें श्लोक के सात्त्विक त्यागी को उसी योगी के स्थान में माना गया है। बेशक, राजस और तामस त्यागी साधारण लोगों में ही आते हैं।

यहाँ प्रश्न होता है कि जब कर्मों का कर्त्ता आत्मा ही है, तो आसक्ति या फलों के त्याग मात्र से ही कर्मों के फलों से उसका पिंड कैसे छूट जाएगा? अगर कोई चोरी करे तो क्या आसक्ति और फलेच्छा के ही छोड़ देने से उसे चोरी का दंड भोगना न होगा? इसका उत्तर आगे के पाँच श्लोक देते हैं। उनका आशय यही है कि आत्मा कर्मों की करने वाली हई नहीं। करने-कराने वाले तो और ही हैं और हैं भी वे पूरे पाँच। ऐसी दशा में जो आत्मा को कर्त्ता मानता है वह नादान है, मूर्ख है। चोरी की बात और है। वहाँ जिस शरीर से वह काम करते हैं वही जेल-यंत्रणा भी भोगता है।

पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।

सांख्ये कृतांते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॥ 13

अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम्।

विवि धा श्च पृथक चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्॥ 14

शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।

न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतव:॥ 15

त्रै वं सति र्त्तार मात्मानं केवलं तु य:।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति:॥ 16

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हंति न निबध्‍यते॥ 17

हे महाबाहो, सभी कर्मों के पूरे होने के लिए सांख्य सिद्धांत में बताए इन (आगे लिखे) पाँच कारणों को मुझसे जान लो। (वे हैं) आश्रय या शरीर, आत्मा की संसर्गवाली बुद्धि, जुदी-जुदी इंद्रियाँ, प्राणों की अनेक क्रियाएँ और पाँचवाँ प्रारब्ध कर्म। शरीर, वचन या मन से मनुष्य जो भी कर्म - कायिक, वाचिक, मानसिक - शुरू करता है चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके यही पाँच कारण होते हैं। ऐसी दशा में अपरिपक्व समझ होने के कारण निर्लेप आत्मा को जो कोई कर्त्ता मानता है वह दुर्बुद्धि कुछ जानता ही नहीं। (इसलिए) जिसके भीतर 'हम करते हैं' ऐसा खयाल नहीं और जिसकी बुद्धि (कर्म या फल में) लिप्त नहीं होती, वह इन सभी लोगों को मार के भी न तो मारता है और न (कर्म में फलस्वरूप) बंधन में फँसता है। 13। 14। 15। 16। 17।

कर्त्ता का अर्थ है कर्तव्य का अभिमान जिसमें वस्तुगत्या रहे। दरअसल बुद्धि को ही कर्त्ता कहते हैं। मगर बिना आत्मा के संसर्ग के वह खुद जड़ होने के कारण कुछ कर नहीं सकती। इसीलिए आत्मा के संसर्ग या प्रतिबिंब से युक्त बुद्धि को ही कर्त्ता कहते हैं। इसी प्रकार दैव का अर्थ प्रारब्ध पहले ही कह चुके हैं। यह भी बता चुके हैं कि इसे दिव्य या दैव क्यों कहते हैं और यह क्यों कारण माना जाता है। यह भी जान लेना चाहिए कि कारण दो प्रकार के होते हैं - साधारण और असाधारण। साधारण उसे कहते हैं जो सबों को या अनेक कार्यों को पैदा करे। प्रारब्ध ऐसा ही है। वह समस्त संसार का कारण है। किंतु शरीर, बुद्धि, इंद्रियाँ तथा प्राण की क्रियाएँ या पाँच प्राण अलग-अलग कार्यों के कारण हैं। इसीलिए ये असाधारण या विशेष कारण कहे जाते हैं। अपने-अपने शरीर आदि से ही अपने-अपने कर्म होते हैं। प्राणों के निकल जाने पर या इंद्रियों के खत्म हो जाने पर भी क्रिया नहीं होती। बुद्धि की भी जरूरत हर काम में होती ही है। बिना जाने कुछ कर नहीं सकते।

आखिरी श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जैसे दूसरे की चोरी का माल अपने घर में रखने वाला नाहक अपराधी बनता है और परेशानी में पड़ता है, ठीक वही हालत आत्मा की है। कर्मों के करने वाले तो ठहरे शरीर आदि। मगर उनकी क्रिया को धोखे में, भूल से अपने भीतर मानने के कारण ही इस निर्लेप और निर्विकार आत्मा को फँसना पड़ता है। पुत्र के साथ ज्यादा ममता होने से कभी-कभी ऐसा होता है कि पुत्र की मौत का निश्चय होते ही पिता उससे भी पहले एकाएक चल बसता है। शरीर दुबला और मोटा होने से आत्मा को खयाल होता है कि हमीं दुबले या मोटे हैं। यही है गैर के साथ एकता या तादात्म्य-तदात्मा का अभिमान। इसे तादात्म्याध्यास भी कहते हैं। आत्मा का शरीर, इंद्रियादि के साथ तादात्म्याध्यास हो गया है। फलत: उनके कामों एवं गुणों को अपना मानने का स्वभाव इसका हो गया है। इसे ही मिटाने का अर्थ है अहंकार का त्याग, 'हमीं करते हैं' इस भावना और खयाल का त्याग।

लेकिन इसके होने पर भी कर्म में आसक्ति होने पर, आग्रह हो जाने पर और फल की भावना होने पर भी फँस जाता है। यह है दूसरा खतरा और भारी खतरा। इस पर पूरा प्रकाश पहले डाला जा चुका है। आत्मा का साक्षात्कार होने के बाद अहंकार वाला भाव मिट जाने पर भी यह खतरा बना रहता है। इसीलिए बुद्धि के लिप्त न होने की बात कह के इसी खतरे से बचने की हिकमत सुझाई गई है। फिर तो पौ बरह समझिए। इस तरह एक प्रकार से आत्मा को कर्म से निर्लिप्त और अलग बता के काम निकाल लिया है।

अब आगे दूसरे ढंग से भी आत्मा का कर्मों से असंसर्ग सिद्ध करते हैं। ऐसा भी होता है कि स्वयं कर्म न भी करें तो भी दूसरों से करवा सकते हैं। इसे ही प्रेरणा कहते हैं। इसी को शास्‍त्रों में चोदना कहा है। ऐसों को करने वाले तो नहीं, लेकिन कराने वाले मान के ही अपराधी बताते हैं और दंड देते हैं। हिंसा, चोरी आदि में ऐसा होता है कि ललकारने या राय देने वाले भी फँसते हैं और दंड भोगते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमने न तो चोरी की, न उसमें राय-सलाह ही दी और न ललकारा ही। यह भी नहीं जानते कि कहीं चोरी हुई या नहीं। मगर यदि किसी से शत्रुता हुई तो चुपके से चोरी का माल हमारे यहाँ रख के फँसा देता है। अकसर गैरकानूनी रिवॉल्वर वगैरह चुपके से किसी के घर में रख के फँसा देते हैं। यदि कर्म का प्रेरक ही आत्मा हो जाए, या वस्तुत: कर्म उसी में रहते हों, हर हालत में उसे उनके फलों में खामख्वाह फँसना होगा। इसीलिए आगे के पूरे ग्यारह श्लोकों में यह बताया है कि कर्म के प्रेरक भी दूसरे ही हैं और कर्म रहता भी अन्य ही जगह है। यहाँ कर्मचोदना का अर्थ है कर्म के प्रेरक और कर्मसंग्रह का अर्थ है जिनमें कर्म देखा जा सके - जिनके देखने से ही कर्म का पता लग सके।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म क र्त्ते ति त्रिविध: कर्मसंग्रह:॥ 18

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता यही तीन कर्मों के प्रेरक हैं। (और) करण (इंद्रियादि साधन) कर्म, (जो बने, जहाँ कुछ हो), कर्त्ता इन्हीं तीन में कर्म का संग्रह होता है। 18।

इस श्लोक में ज्ञाता और कर्त्ता का एक ही अर्थ है। इन दोनों में केवल उपाधि या काम करने के तरीके का फर्क है। जब किसी बात की जानकारी होती है तब वह ज्ञाता या जानकार कहा जाता है। जब जानकारी के बाद काम करने लगता है तो वही कर्त्ता कहा जाता है। अकेली बुद्धि एक चीज है और उसे बुद्धि ही कहते हैं भी। उसका विवेचन आगे आएगा। मगर जब वही आत्मा के संसर्ग के फलस्वरूप उसके आभास, उसके प्रकाश से युक्त हो जाती है, जैसी कि आईने की चमक पड़ने पर दीवार उतनी दूर तक चमक उठती तथा ज्यादा प्रकाशवाली बन जाती है जितनी दूर तक आईने की रोशनी का असर उस पर होता है, तो वही बुद्धि ज्ञाता और कर्त्ता दोनों ही कही जाती है। इसीलिए ज्ञाता और कर्त्ता को एक ही कहा है। अतएव आगे सात्त्विक आदि रूपों का विचार करने के समय कर्त्ता का ही विचार करके संतोष करेंगे। क्योंकि कर्म की दृष्टि से ज्ञाता तथा कर्त्ता दोनों का एक ही असर कर्म पर माना जाता है। चाहे ज्ञाता सात्त्विक हो या कर्त्ता - और जब एक होगा तो दूसरा भी होईगा, क्योंकि हैं तो दोनों एक ही - कर्म सात्त्विक ही होगा और उसकी सात्त्विकता में कमी-बेशी न होगी, चाहे दोनों का नाम लें, या एक का। यहाँ कर्म का विचार और ही दृष्टि से हो रहा है। इसीलिए दोनों का कहना जरूरी हो गया। जो जानता है वही करता भी है। जब तक हम यह न जान लें कि हल कैसे चलाया जाता है तब तक उसे चलाएँगे कैसे? जब तक जान जाएँ नहीं कि कपड़ा कैसे बनता है, उसे बनाएँगे तब तक क्योंकर?

इसी तरह ज्ञेय और कर्म की भी बात है। पूर्वार्द्ध के तीन में जो ज्ञेय और उत्तरार्द्ध के तीन में जो कर्म आया है ये दोनों भी एक ही हैं। ज्ञेय का अर्थ ही है जिसका ज्ञान हो, जिसके बारे में ज्ञान हो। कर्म का अर्थ है जो किया या बनाया जाए, जिस पर या जहाँ हाथ-पाँव चलें। पूर्व के ही दृष्टांत में हल या कपड़े को लीजिए। पहले उनकी जानकारी होती है, ज्ञान होता है। पीछे उन्हीं पर हाथ-पाँव आदि चलते हैं। फर्क इतना ही है कि हल पहले से ही मौजूद है और उसी पर क्रिया होती है। मगर कपड़ा मौजूद नहीं है। किंतु सूत वगैरह पर ही क्रिया शुरू करके उसे तैयार करते हैं। वह क्रिया के ही सिलसिले में तैयार होता है। इसीलिए क्रिया का विषय, उसका आधार वह भी बन जाता है। मगर कपड़ा बुनना शुरू करने के पहले उसकी जानकारी जरूरी है। इसलिए इस श्लोक में जो दो त्रिपुटियाँ या त्रिक - तीन-तीन (trinity) हैं उन दोनों के ज्ञेय और कर्म एक ही हैं। यह कर्म वही है जिसे पाणिनीयसूत्र ने 'कर्त्तारीप्सिततमं कर्म' (पा. 1। 4। 49) के रूप में बताया है। इन दोनों के सात्त्विक या राजस, तामस होने, न होने पर कर्म या क्रिया में कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसीलिए इन दोनों का आगे विचार नहीं किया गया है। हाँ, आगे जिस कर्म को तीन प्रकार का बताया है वह इस श्लोक के अंत के 'कर्म-संग्रह:' वाला कर्म ही है, जिसका विचार पहले से ही हो रहा है और जिसे काम, क्रिया (action) कहते हैं। वह जरूर सात्त्विक, राजस, तामस होता है। इन तीनों गुणों का उस पर असर जरूर होता है। इसीलिए उसका विचार आगे भी जरूरी हो गया है।

अब इन दोनों त्रिपुटियों में केवल ज्ञान और करण बच रहे। इनमें ज्ञान का आगे और भी विचार किया गया है। ज्ञान कहिए, जानकारी कहिए, इहसास (Knowledge) कहिए सब एक ही चीज है। इसके बिना कुछ होई नहीं सकता है। इस पर सत्त्वादि गुणों का असर भी होता है। साथ ही ज्ञान जैसा सात्त्विक, राजस या तामस होगा कर्म भी वैसा ही होगा। वह कर्म दरअसल किसमें है, किसमें नहीं इस निश्चय पर भी उसका असर खामख्वाह होगा। इसीलिए ज्ञान की तीन किस्मों का विवेचन इस कर्म-विवेचन के ही सिलसिले में आगे जरूरी हो गया है।

इस तरह करण कहते हैं कर्म या क्रिया के साधन को। जैसे कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरते हैं और बसूले से भी। इसीलिए लकड़ी चीरने की क्रिया में, कर्म में कुल्हाड़ी और बसूला करण हो गए। इंद्रियों की ही मदद से हम कोई भी क्रिया कर सकते हैं। इसीलिए हाथ-पाँव आदि कर्म-इंद्रियाँ भी कर्म में करण बन गईं। मगर इस करण के सात्त्विक, राजस, तामस होने पर भी कर्म के बारे में, कि वह दरअसल किसमें है, किसमें नहीं, कोई असर नहीं होगा। इसलिए आगे इस करण का और भी विचार जरूरी नहीं माना गया है।

बुद्धि और धृति या धैर्य का भी असर कर्म पर पड़ता है। ये जिस तरह की हों कर्म भी वैसे ही सात्त्विकादि बन जाते हैं। कम से कम उनके ऐसा होने में इन दोनों का असर पड़ता ही है। इंद्रियों की-सी बात इनकी नहीं है कि इंद्रियाँ चाहे कैसी भी हों और उनके करते काम पूरा या अधूरा भले ही रहे, फिर भी सात्त्विक राजस या तामस नहीं हो सकता है। ये दोनों तो कर्म पर उसके सात्त्विकादि बनने में ही बहुत बड़ा असर डालती है। पीछे इस निश्चय में भी कि वह वाकई आत्मा में है या नहीं, इनका काफी असर पड़ता है। बुद्धि का तो यह सब काम हई, यह सभी जानते हैं। धृति का भी यही काम है। जिसमें धैर्य या हिम्मत न हो वही दब्बू और डरपोक होने के कारण दबाव पड़ने पर अंट-संट कर डालता है। कमजोर ही तो दबाव पड़ने पर झूठा बयान देता है। हिम्मतवाला तो कभी ऐसा करता नहीं। इसलिए इस प्रसंग में इन दोनों का विचार भी उचित ही है।

अब रह गया अकेला सुख, जिसका त्रिविध विवेचन आगे आया है। वह उचित ही है। सुख के ही लिए तो सब कुछ करते हैं। स्वर्ग, धन, पुत्रादि के ही लिए सारी क्रियाएँ की जाती हैं। लोगों की जो धारणा है कि स्वयं ही - हमीं - भला-बुरा कर्म करते हैं वह है भी तो इसीलिए न, कि दूसरे के करने से दूसरे को सुख होगा कैसे? यदि इस सुख की फिक्र-चिंता छूट जाए तो मनुष्य की सारी विपदा और परेशानी ही कट जाए। तब तो वह रास्ता पकड़ के पार ही हो जाए। बुरे कर्म तथा दु:ख तो सुख की फिक्र के ही करते आ जाते हैं। सुख की लालसा के मारे हम इतने परेशान और बेहाल रहते हैं कि बुरे-भले की तमीज उस हाय-हाय में रही नहीं जाती। फलत: बुरे से भी बुरे सुख के ही लिए कर बैठते हैं।

सुख के विवेचन में भी जो सबसे पहले सात्त्विक सुख ही बताया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि असली सुख केवल बुद्धि की सात्त्विकता और निर्मलता से ही मिलता है, न कि कर्मों से । कर्मों से मानना भारी भूल है। वह सुख तो भीतर ही है, आत्मा में ही है, मौजूद ही है। केवल निर्मल बुद्धि चाहिए जो उसे देख सके, जान सके। उसे कहीं बाहर से लाना थोड़े ही है। इस तरह कर्मों को आत्मा में मानने की जरूरत रही नहीं जाती है। जिस तरह इन्हीं कर्मों के सिलसिले में पहले त्रिविध त्यागों का वर्णन आया है वैसे ही यह भी वर्णन है, न कि नए सिरे त्रिगुणात्मक सृष्टि का कोई खास वर्णन है। पहले ही कही गई बातों का कर्म के संबंध में यहाँ केवल उपयोग कर लिया गया है। इसीलिए ये 'न तदस्ति पृथिव्यां वा' (18। 40) में एक ही बार कह दिया है कि सभी भौतिक पदार्थ तो त्रिगुणात्मक ही हैं। इसीलिए यह कोई नई बात नहीं है।

इस तरह कई प्रकार से कर्मों का असंबंध आत्मा के साथ सिद्ध कर चुकने पर आगे के श्लोक प्रकारांतर से यही बात बताते हैं। इनका आशय केवल इतना ही है कि यदि ज्ञान, कर्म, कर्त्ता, बुद्धि और धृति सात्त्विक हों और सात्त्विक सुख की असलियत भी हम जान जाएँ, तो फिर वह नौबत आए ही नहीं जिससे इन कर्मों को जबर्दस्ती आत्मा पर थोपें। आत्मा में इनके दरअसल न रहने और उससे हजार कोस दूर रहने पर भी जो इनकी कल्पना और थोपा-थोपी आत्मा में हो जाती है उसकी असली वजह यही है कि हमारे ज्ञान, कर्म आदि सात्त्विक न हो के राजस या तामस ही होते हैं। यदि यह बात न रहे, यदि सबके सब ठीक हो जाएँ, सात्त्विक ही हो जाएँ और हम सात्त्विक सुख को बखूबी समझ के उसी की प्राप्ति में लग जाएँ, तो सारी आफतें मिट जाएँ। यह सही है कि सबों के ठीक होने पर भी यदि हमारी लगन सात्त्विक सुख में न रहे, तो सब किया-कराया चौपट ही समझिए। इसीलिए वह सबसे जरूरी है। अंत में वह आया भी है इसलिए। आगे के 22 श्लोकों का सारांश यही है।

ज्ञानं कर्म च कर्त्ता च त्रि धै व गुणभेदत:।

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥ 19

(तीनों) गुणों के भिन्न-भिन्न होने से ज्ञान, कर्म और कर्त्ता भी सांख्यशास्त्र में तीन प्रकार के कहे गए हैं। उन्हें भी ठीक-ठीक सुन लो। 19।

सर्वभूतेषु ऐनैकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥ 20

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥ 21

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अत त्त्वा र्थवदल्पं च त त्ता मसमुदाहृतम्॥ 22

जिस ज्ञान के फलस्वरूप सभी जुदे-जुदे पदार्थों में सर्वत्र एकरस, व्याप्त और अविनाशी वस्तु ही देखते हैं वही ज्ञान सात्त्विक समझो। सभी पदार्थों में भिन्न-भिन्न अनेक वस्तुओं की जो जुदी-जुदी जानकारी है वही ज्ञान राजस जानो। जो ज्ञान कुछ भौतिक पदार्थों तक ही सीमित, उन्हीं को सब कुछ मानने वाला, बेबुनियाद मिथ्या और तुच्छ है वही तामस कहा जाता है। 20। 21। 22।

नियतंसंगरहितमरागद्वेषत: कृतम्।

अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सा त्त्वि कमुच्यते॥ 23

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥ 24

अनु बंधं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ 25

फलेच्छा न रखने वाले के द्वारा जो कर्म निश्चित रूप से आसक्ति से शून्य हो के बिना रागद्वेष के ही किया जाए वही सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्म फलेच्छापूर्वक अहंकार या आग्रह के साथ किया जाए और जिसमें बहुत परेशानी हो वही राजस कहा जाता है। जो कर्म परिणाम, बीच के नफा-नुकसान, हिंसा और अपनी शक्ति का खयाल न करके भूल से ही किया जाए वही तामस कहा जाता है। 23। 24। 25।

यहाँ साहंकारेण शब्द का अर्थ है कर्म में हठ या आसक्ति। क्योंकि फल की इच्छा और कर्म की आसक्ति ये दो चीजें हैं जिन्हें पहले बखूबी समझाया जा चुका है। पहले श्लोक में दोनों का त्याग कहा गया है इसीलिए इसमें दोनों का आना जरूरी है। मगर 'कामेप्सुना' शब्द तो फलेच्छा को ही कहता है। इसीलिए 'साहंकारेण' का ऐसा अर्थ हमने किया है। ठीक भी है यही। जब जिद्द होती है तभी तो 'मैं जरूर ही कर डालूँगा' यह खयाल होता है। इसी प्रकार क्षय शब्द का भी अर्थ हमने चलती भाषा में 'नफा-नुकसान' किया है, जिसे घाटा या टोटा भी कहते हैं। मगर यह अंतिम घाटा नहीं है। क्योंकि उसके लिए तो अनुबंध शब्द आया ही है। इसीलिए दरम्यानी टोटा ही अर्थ ठीक है।

मुक्तसंगोऽनहंवादी धृ त्युत्साहसमन्वित:।

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्त्ता सात्त्विक उच्यते॥ 26

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि:।

हर्षशो कांवि त कर्त्ता राजस: परिकीर्तित:॥ 27

अयुक्त: प्राकृत स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस:।

विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते॥ 28

जो आसक्ति से शून्य हो, जो बहुत बहके न, जो धैर्य और उत्साहवाला हो (तथा) कर्म के पूर्ण होने, न होने में जो बेफिक्र हो वही कर्त्ता सात्त्विक कहा जाता है। रागयुक्त, फलेच्छुक, लोभी, हिंसा में लगा हुआ, नापाक और (कर्म के पूरे होने, न होने में) हर्ष और शोकाकुल कर्त्ता राजस है। बुद्धि को ठिकाने न रखने वाला, गँवार, अकड़ा हुआ, ठग, दूसरे की हानि करने वाला, आलसी, रोने-धोने वाला और असावधान कर्त्ता तामस कहा जाता है। 26। 27। 28।

बुद्धेर्भेदं धृ तेश्चैव गुणतस्त्रिवि धं शृणु।

प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥ 29

हे धनंजय, गुणों के भेद से बुद्धि और धृति के भी जो तीन प्रकार हैं उन्हें भी पूरा-पूरा अलग-अलग कहे देता हूँ, सुन लो। 29।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये

न्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विको॥ 30

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी॥ 31

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥ 32

हे पार्थ, जो बुद्धि कर्तव्य-अकर्तव्य, हो सकने, न हो सकने वाली चीज, डर-निडरता, बंधन और मोक्ष (इन सबों) को (बखूबी) जानती है वही सात्त्विक है। जिसे बुद्धि से धर्म-अधर्म तथा कार्य-अकार्य को ठीक-ठीक न जान सकें वही राजस है। हे पार्थ, तम से घिरी जो बुद्धि अधर्म को धर्म और सभी बातों को उलटे ही जाने वही तामसी है। 30। 31। 32।

यहाँ पहले श्लोक में जो प्रवृत्ति और निवृत्ति है उसी के अर्थ में शेष दो श्लोकों में धर्म-अधर्म शब्द आए हैं। इसीलिए हमने प्रवृत्ति-निवृत्ति का अर्थ कर्तव्य-अकर्तव्य किया है। धर्म-अधर्म का भी वही अर्थ है। कार्य-अकार्य के मानी यह हैं कि पहले से ही अच्छी तरह देख लेना कि यह काम हमसे हो सकता है, साध्‍य है या नहीं। कर्तव्य-अकर्तव्य के निश्चय के बाद भी साध्‍य-असाध्‍य का निश्चय जरूरी हो जाता है। क्योंकि जो कर्तव्य हो वह जरूर ही साध्‍य हो यह बात नहीं है। इसीलिए असाध्‍य काम में भी कर्तव्यता के निश्चय के बाद बिना सोचे-बूझे पड़ जाना ठीक नहीं है, नादानी है। बंध और मोक्ष तो प्रवृत्ति-निवृत्ति की कसौटी के रूप में ही लिखे गए हैं। जिसका चरम परिणाम बंधन और जन्म-मरण हो वही अकर्तव्य और जिसका मोक्ष हो वही कर्तव्य माना जाना चाहिए। अतएव 31वें श्लोक में न लिखे जाने पर भी इसे समझ लेना ही होगा। यही वजह है कि 32वें में कर्तव्य-अकर्तव्य को कह के एक ही साथ बाकियों के बारे में कह दिया है कि जो सभी बातें उलटे ही समझे। सभी बातों में बंध-मोक्ष, कार्य-अकार्य भी आ गए।

इन तीनों श्लोकों का सारांश यही है कि सात्त्विक बुद्धि सभी बातें ठीक-ठीक समझती है। वह मनुष्य का ठीक पथदर्शन करती है। मगर राजस बुद्धि में किसी भी बात का ठीक-ठीक निश्चय हो पाता नहीं। न तो यथार्थ निश्चय और न उलटा। हर बात में पसोपेश, दुविधा और घपला पाया जाता है, जिससे कर्त्ता किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। ऐन मौके पर उसका उचित पथप्रदर्शन नहीं हो पाता। दोनों के विपरीत तामस बुद्धि हर बात में उलटा ही निश्चय करती-कराती है और गलत रास्ते पर ही बराबर ले जाती है। इसमें न तो दुविधा होती है और न कभी यथार्थ निश्चय हो पाता है।

धृ त्या यया धारयते मन: प्राणेन्द्रियक्रिया:।

योगेनाव्यभिचारिण्या धृ ति: सा पार्थ सात्त्विकी॥ 33

यया तु धर्मकामार्था न्धृ त्या धारयतेऽर्जुन।

प्रसंगेन फलाकांक्षी धृ ति: सा पार्थ राजसी॥ 34

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।

न विमुंचति दुर्मेधा धृ ति: सा पार्थ तामसी॥ 35

हे पार्थ, योग से जिसका संबंध कभी टूटने वाला न हो ऐसी जिस धृति - विशेष प्रकार के यत्न - के बल से मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं को काबू में रखते हैं वही सात्त्विकी धृति है। हे अर्जुन, हे पार्थ, जिस धृति के बल से कर्म में आसक्त (एवं) फलेच्छुक (पुरुष) (केवल) धर्म, काम और अर्थ की ही बातें करता है वही राजसी है। जिस धृति के बल से आलस्य, डर, शोक, घबराहट, मद (इन सबों) को भ्रष्ट बुद्धिवाला (मनुष्य) छोड़ नहीं सकता वही तामसी मानी जाती है। 33। 34। 35।

कहीं-कहीं 'पार्थ तामसी' की जगह 'तामसी मता' पाठ है। शंकर ने यही पाठ माना है। हमने सम्मिलित अर्थ कर दिया है। क्योंकि 'मता' शब्द न देने पर भी उसका अर्थ तो यहाँ हई। उसके बिना तो काम चलता नहीं। यहाँ पहले श्लोक में जो योग है उसका अर्थ कर्मों में आसक्ति एवं फलेच्छा का न होना यह पहले ही कह चुके हैं। इसका मूलाधार आत्मदर्शन बता चुके हैं। सात्त्विक धृति का आधार यही बातें हैं। इन्हीं के बल से मन, प्राण और इंद्रियों को डँटा देते और जरा भी डिगने नहीं देते, चाहे हजार बलाएँ आएँ। ऐसी ही धृतिवाले मोक्ष तक को ध्‍यान में रखके ही कोई काम हिम्मत के साथ करते हैं। मगर राजसी धृति वाले मोक्ष को छोड़ के भटक जाते हैं। वे कर्मों में आसक्त एवं फलेच्छा के गुलाम बन जाते हैं। जहाँ सात्तिक धृतिवाले धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों की परवाह रख के ही कुछ भी करते हैं, तहाँ राजस धृतिवाले मोक्ष को भूल जाते और पूरे चतुर सांसारिक बन के धर्म, अर्थ, काम तीन की ही परवाह रखते हैं। यही बात दूसरे श्लोक में कही गई है। काम का अर्थ है वही आसक्ति और इच्छा। छोटी-सी बातों से लेकर स्वर्ग तक की कामना को ही काम कहते हैं। अर्थ कहते हैं धन को, संपत्ति को। संपत्ति के भीतर सभी पदार्थ आ गए। उनके धर्म, अर्थ और काम का परस्पर संबंध है - तीनों एक-दूसरे से मिले रहते हैं। फलत: यदि एक भी हट जाए तो तीनों गड़बड़ी में पड़ जाएँ। यह भी खास बात है कि उनके धर्म और अर्थ को एक साथ जोड़ने की बात यह काम ही करता है। किंतु सात्त्विक धृत्ति में यह बात नहीं है। उसमें तो काम आसक्ति के रूप में प्रबल न हो के मामूली इच्छा के ही रूप में नजर आता है। जिससे हरेक क्रिया में प्रगति मिलती है।

अब रही तामसी धृति की बात। ऐसी धृति को धृति कहना उसका निरादर ही माना जाना चाहिए। फिर भी हरेक पदार्थ त्रिगुणात्मक ही हैं। इसलिए लाचारी है। असल में तामसी धृतिवालों के मन, प्राण और इंद्रियों पर अपना काबू नहीं रहने से उनकी क्रियाएँ मनमानी चलती-बिगड़ती रहती हैं। ऐसे लोगों में हिम्मत तो होती ही नहीं। इसीलिए डर, अफसोस, मनहूसी में पड़े रहते हैं। एक तरह का नशा भी उन पर हर घड़ी चढ़ा रहता है। आलस्य का तो पूछिए मत। इसीलिए नींद का अर्थ हमने आलस्य किया है। स्वप्न का अर्थ गाढ़ी नींद तो संभव नहीं। जग के उठ बैठने को उनका जी नहीं चाहता। इसीलिए ऐसे लोग कुछ भी कर पाते नहीं।

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खांतं च निगच्छति॥36॥

हे भरतश्रेष्ठ, अब तीन प्रकार के सुखों को भी मुझसे सुन लो, (उन्हीं सुखों को), जिनके बार-बार के मिलने से उनमें मन रम जाता है और दु:ख भूल जाते हैं। 36।

जिस ढंग से इस श्लोक में शब्द दिए गए हैं उनसे भी यही स्पष्ट हो जाता है कि सभी कामों का आखिरी ध्‍येय यह सुख ही है। इसीलिए कहते हैं कि अब आखिर में उसे भी जरा सुन लो। नहीं तो बात अधूरी ही रह जाएगी। इसके बाद उत्तरार्द्ध में उसी सुख का सर्वसामान्य या साधारण रूप कह दिया है। इसमें दो बातें कही गई हैं। एक यह कि सुख वही है कि जिसके अभ्यास या देर तक के या बार-बार के अनुभव से ही उसमें मन रमता है। वह बिजली की चमक, नीलकंठ का दर्शन या तीर्थ के जल का स्पर्श नहीं है कि जरा से अनुभव या संसर्ग से ही काम चल जाता है। ऐसा होने से तो सुख के बजाए दु:ख ही होता है। जबान पर हलवा रख के फौरन उठा लें तो सुख तो कुछ होगा नहीं, झल्लाहट और तकलीफ भले ही होगी। ऐसा भी होता है कि बहुत-सी चीजों के प्रथम संसर्ग से कुछ मजा या सुख नहीं मिलता। किंतु निरंतर के अनुभव और संसर्ग से ही, प्रयोग और इस्तेमाल से ही उनमें मजा आने लगता है। जो लोग असभ्य हैं, जंगली हैं उन्हें सभ्यता की चीजों का चसका लगाना होता है। पहले तो वे उलटे झल्लाते हैं। मगर धीरे-धीरे उनकी आवृत्ति और अभ्यास होते-होते मन उनमें रम जाता है। क्योंकि मन के बिना रमे तो मजा आता ही नहीं। यही वजह है कि सुख निरंतर बना रहे, वह कम से कम बार-बार मिलता रहे, सो भी अल्प से अल्प विलंब के बाद ही, इसी खयाल से लोग उसी की हाय-धुन में लगे रहते और बुरा-भला सब कुछ कर डालते हैं। कर्म को आत्मा में घुसेड़ने का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

दूसरी बात है दु:ख के खात्मे को पा जाना, जिसे हमने दु:ख का भूल जाना लिखा है। सुख की इच्छा अधिकांश में कष्टों से ऊब के ही तो होती है। लोग आराम चाहते ही हैं इसीलिए कि वेदना और पीड़ा से पिंड छूटे। इसीलिए तकलीफ कम होते ही कहने लगते हैं कि आराम हो रहा है। बीमार लोगों के बारे में प्राय: ऐसा कहा जाता है। इसीलिए हितोपदेश में इसी रोग की कमी के दृष्टांत को ही ले के यहाँ तक कह दिया है कि दुनिया में सुख तो हई नहीं, केवल दु:ख ही है। इसी से बीमार की तकलीफ कम होने पर उसे ही सुख कह देते हैं, 'दु:खमेवास्ति न सुखं यस्मात्तदुपलक्ष्यते। दु:खार्त्तस्य प्रतीकारे सुखसंज्ञा विधीयते'। मगर हमें इतने गहरे पानी में यहाँ उतरना है नहीं और न इसकी जरूरत ही है। गीता का यह सिद्धांत है भी नहीं। वह तो स्वतंत्र आत्मानंद को मानती है। यह यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि सुख मिलते ही या तो दु:ख खत्म हो जाता है, वह रही नहीं जाता, या कम से कम वह भूल तो जरूर जाता है, जब तक सुख का अनुभव रहे। इसलिए भी सुखकर अभ्यास चाहते हैं। क्योंकि जब तक ऐसा रहेगा दु:ख भूला रहेगा। दु:ख के भूल जाने में दोनों बातें आ जाती हैं, दु:ख के खत्म हो जाना भी और खत्म न होने पर भी उसका अनुभव तत्काल न होना भी। इसीलिए हमने यही अर्थ किया है। यह दु:ख के भूलने की भी चाट ऐसी है कि हमें सभी तरह के कर्मों को करने को विवश करती है। साथ ही, आतुरतावश आत्मा को ही हम कर्मों का करने वाला तथा आधार मान लेते हैं। अतएव सुख के बारे में कही गई ये दोनों बातें बड़े काम की होने के साथ ही प्रसंग के अनुकूल भी हैं।

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सा त्त्वि कं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्॥ 37

विष येंद्रि यसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥ 38

यदग्रे चानु बंधे च सुखं मोहनमात्मन:।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं त त्ता मसमुदाहृतम्॥ 39

जो सुख अपने आरंभ के समय विष की तरह कड़वा और अंत में अमृत की तरह लगे, अपनी ही बुद्धि को निर्मलता मात्र से ही पैदा होनेवाला वही सुख सात्त्विक कहा गया है। विषयों के साथ इंद्रियों के संबंध से होनेवाला जो सुख शुरू में अमृत जैसा, (लेकिन) अंत में विष की तरह काम करे, वही राजस माना गया है। ज्यादा नींद, आलस्य और असावधानी में मालूम होने वाला जो मजा शुरू से लेकर अंत तक आत्मा को मोह में डालने - भटकाने - वाला ही होता है वही तामस कहा जाता है। 37। 38। 39।

यहाँ पहले श्लोक में आत्मानंद का ही वर्णन है। इसीलिए उसके वास्ते किसी और बात की जरूरत नहीं बताई गई है। केवल अपनी बुद्धि को ही निर्मल और स्वच्छ करने की आवश्यकता कही गई है। वह तो मौजूद ही है, पास ही है। सिर्फ बुद्धि को एकाग्र और समाधिस्थ करने की जरूरत है। बुद्धि का अर्थ मन, चित्त या अंत:करण है। ऐसा होते ही वह आनंद आप ही आप मिलने लगता है। कहा भी है कि 'दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गरदन झुकाई देख ली'। गरदन झुकाने का मतलब मन की एकग्रता से ही है। 'आत्मबुद्धि प्रसादजम्' में जो आत्म शब्द है वह इन्हीं बातों का सूचक है। यह मन की एकाग्रता और समाधि बहुत ही कष्टसाध्‍य है। इसीलिए उस सुख को शुरू में जहर जैसा कहा है। वह जहर जैसा है के मानी हैं कि उसके लिए जो कुछ करना होता है वह बहुत ही कठिन है।

विषय सुख को राजस कहा है। वह पहले तो बहुत ही अच्छा लगता है और मन को रमाता है। मगर परिणाम उसका बुरा होता है। क्योंकि बाल-बच्चों और सांसारिक पदार्थों में ही जिसे चसका हो गया वह परलोक और कल्याण की बात कुछ भी करी नहीं सकता। उससे समाजहित का भी कोई काम नहीं हो सकता है। मनोरथों की न कभी पूर्त्ति होती है और न इनसे और इनके करते होने वाले झंझटों से छुटकारा ही मिलता है। फिर और बात हो तो कैसे? इसीलिए सौभरि ऋषि के बारे में कहा जाता है कि उनने समाधि को त्यागकर पूरे पचास विवाह किए! फिर महल बना के सांसारिक सुख का भोग शुरू किया! बच्चे, पोते, परपोते आदि हो गए, भारी परिवार बढ़ गया और 'गीता फैल गई'! अंत में ऊब के उनने सबको लात मारी और कहा कि लाखों वर्षों में भी मनोरथों की, पूर्ति हो नहीं सकती, आदि-आदि - 'मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्षायुतेनापि तथाब्दलक्षै:। पूर्णेषु पूर्वेषु पुनर्नवानामुत्पत्तय: संति मनोरथानाम्। पद्भयां गता यौवनिनश्च याता दारैश्च संयोगमिता: प्रसूता:। दृष्ट्वा सुतं तत्तनयप्रसूतिं द्रुष्टुं पुनर्वांछति मेऽन्तरात्मा। आमृत्युतो नैव मनोरथानामंतोऽस्ति विज्ञातमिदं मयाऽद्य। मनोरथासक्तिपरस्य चित्ते न जायते वै परमात्मसंग:'। यही आशय इस श्लोक का है; न कि वेश्यागामियों या दूसरे कुकर्मियों से यहाँ मतलब है। उनका वर्णन तो तामस सुख में ही आया है। क्योंकि उस सुख का काम ही है आत्मा को भटकाना। प्रमाद से ही वह पैदा भी होता है। कुकर्म तो प्रमाद और भटकना ही है न? दिन-रात पड़े-पड़े ऊँघते रहें और आलस में दिन गुजारें यही तो तामसी वृत्ति है। ऐसे लोगों को इसी में मजा भी मिलता है। यहाँ निद्रा का अर्थ है ज्यादा निद्रा। क्योंकि साधारण नींद में तो सभी को मजा मिलता है। गाढ़ी नींद के बाद हरेक आदमी कहता भी है कि खूब आराम से सोए, ऐसा सोए कि कुछ मालूम ही न पड़ा - 'सुखमहमस्वाप्सन्न किंचिदवेदिषम्'।

इस प्रकार त्रिगुण रूप में सुख आदि का वर्णन कर दिया। इसका प्रयोजन हम पहले ही कह चुके हैं। शायद कोई कहे कि केवल सात्त्विक कर्म, ज्ञान, कर्त्ता आदि के ही वर्णन से काम चल सकता था और लोग सहज हो के आत्मा को कर्म से अलग मान सकते थे। फिर राजस, तामसों के वर्णन की क्या जरूरत थी? बात तो सही है। मगर जब सात्त्विक का नाम लेंगे तो खामख्वाह फौरन आकांक्षा होगी कि राजस, तामस क्या हैं। जरा उन्हें भी तो जानें। और अगर यह इच्छा पूरी न हो तो निरूपण बेकार जाएगा। बातें भी अच्छी तरह समझ में आ न सकेंगी। मन दुविधे में जो पड़ गया और समझना ठहरा उसे ही। एक बात और भी है। यदि राजस, तामस का पूरा ब्योरा और वर्णन न हो तो लोक चूक सकते हैं। वे दरअसल राजस या तामस को ही भूल से सात्त्विक मान बैठ सकते हैं। इसीलिए साफ-साफ तीनों को एक ही साथ रख दिया है; ताकि आईने की तरह देख लें और धोखे से बचें।

इस प्रकार सब कुछ कह चुकने के बाद इसका उपसंहार करते हुए, जैसा कि कहा है, अगला श्लोक बताए देता है कि यह तो आश्चर्य की कोई बात है नहीं। जमीन-आसमान कहीं भी जो चीज होगी उसमें तीनों गुण होंगे ही। इसीलिए केवल सजग होने की जरूरत है। नहीं तो इनके सिवाय औरों से भी धोखा हो सकता है।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:।

सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥ 40

भूमंडल में या आकाश और स्वर्ग के निवासी देवताओं तक में भी ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। 40।

पृथिवी के किसी पदार्थ का नाम न लेकर स्वर्ग के देवताओं का नाम लेने का प्रयोजन इतना ही है कि पार्थिव पदार्थों को तो सभी लोग त्रिगुणात्मक मानते-जानते हैं। अन्य स्वर्गीय पदार्थों को भी ऐसा शायद समझ सकते हैं। स्वर्ग में देवताओं के अलावे और भी पदार्थ यक्षादि होते ही हैं। साथ ही, दिव तो आकाश को भी कहते हैं और उसमें प्रेतादि भी रहते ही हैं। वे भी त्रिगुणात्मक हो सकते हैं। किंतु देवताओं को दिव्य या अलौकिक खयाल करके कोई शायद त्रिगुण न माने, इसीलिए उनको खास तौर से कह दिया। वजह भी दे दिया कि सभी तो प्रकृति से ही बने हैं। इसीलिए किसी पर भी भरोसा न करके अपनी बुद्धि की निर्मलता का ही सहारा लेना होगा।

इसी तरह सत्त्व का अर्थ पदार्थ है, न कि सत्त्व गुणमात्र। यह ठीक है कि सत्त्वगुण कहीं भी विशुद्ध नहीं है। उसमें भी रज और तम का मेल कभी कम, कभी ज्यादा रहता ही है। इसी से सत्त्व का अर्थ पदार्थ हो भी गया। क्योंकि किसी में कम और किसी में अधिक सत्त्व तो रहता यही है। आशय यही है कि खबरदार, विशुद्ध सत्त्व कहीं नहीं है। इसलिए सतर्क रहना ही होगा। नहीं तो बुद्धि की पूरी सफाई के बाद भी उस पर रज, तम का धावा हो सकता है।

अब प्रश्न पैदा होता है कि इसका उपाय क्या है कि सात्त्विक कर्म, ज्ञान, बुद्धि, सुख आदि ही रहें और राजस, तामस, रहने न पाएँ - लोग इन दोनों के फेर में न पड़ के सात्त्विक के ही पीछे लगे रहें? बिना उपाय जाने काम चलेगा भी कैसे? साथ ही, जो उपाय हो भी वह किस तरह काम में लाया जाए, जिसमें कभी गड़बड़ी की गुंजाइश न रहे, यह भी प्रश्न होना स्वाभाविक है। इसीलिए आगे के श्लोकों में इन्हीं दोनों का उत्तर देते हुए समूचा अध्‍याय पूरा करके गीता का भी उपसंहार कर दिया गया है। इसमें भी पहले के चार (41-44) श्लोकों में उपायों को बता के शेष श्लोकों में उन्हीं का प्रयोग बताया गया है। यह ठीक ही है कि दवा का प्रयोग निरंतर तो होता है नहीं। बीच-बीच में विराम तो करते ही हैं। कभी-कभी तो लंबी मुद्दत तक दवा छोड़ के देखते हैं कि मर्ज गया या नहीं। उस समय दवा का छोड़ देना ही दवा का काम करता है। नहीं तो आवश्यकता से अधिक दवा का प्रयोग कर देने का खतरा आ सकता है। ठीक यही बात कर्मों की है। वर्णों के कर्म तो उपाय के रूप में ही कहे गए हैं। मगर उन्हें छोड़ देने की भी जरूरत दवा की ही तरह हो जाती है। नहीं तो इनका जरूरत से ज्यादा प्रयोग हो जाने से ही हानि हो सकती और काम बिगड़ सकता है। इस प्रकार कर्मों के स्वरूपत: त्याग की भी बात इसी सिलसिले में आ जाती है, आ गई है और वह उचित ही है। जलचिकित्साशास्त्र का तो यह एक नियम ही है कि बीच-बीच में जरूर ही जलचिकित्सा बंद कर दी जानी चाहिए। नहीं तो वह मनुष्य का एक तरह का स्वभाव बन जाती है। फिर तो उसका कुछ भी असर नहीं होता है।

हाँ, तो आगे के चार श्लोकों में जो वर्णों के धर्म कहे गए हैं वह त्रिगुणों से बने विभिन्न स्वभावों के अनुसार ही माने गए हैं। बार-बार उन श्लोकों में यह बात कही गई है। यहाँ तक कि हरेक वर्ण के बारे में अलग-अलग उसका जिक्र किया है। पहले श्लोक में चारों के बारे में एक साथ भी कह दिया है कि ये कर्म स्वाभाविक होते हैं, प्रकृति के अनुसार ही होते हैं। हमने इस बात पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाल दिया है। इस प्रसंग में इनके कहे जाने का आशय यही है कि यदि गुण-तारतम्य के अनुसार बनी हुई मानव प्रकृति की जाँच करके उसी के अनुसार उसके कर्म निर्धारित किए जाएँ, तो राजस-तामस का झमेला खड़ा होगा ही नहीं। क्योंकि सात्त्विक प्रकृतिवाले तो उनसे यों ही बच जाएँगे। उन्हें दूसरे कर्म मिलेंगे ही नहीं। इसीलिए राजस-तामस सुखों का भी मौका ही उन्हें न लगेगा। उनकी बुद्धि और धृति भी वैसी ही होगी। यदि कुछ कसर भी रहेगी तो ये कर्म ही उसे ठीक कर देंगे।

रह गए राजस तथा तामस प्रकृति वाले। जब इन्हें भी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करने की विवशता होगी तो वे उसमें विशेषज्ञ और पारंगत हो जाएँगे। नतीजा यह होगा कि उनकी हकीकत और असलियत समझने लगेंगे। फिर तो धीरे-धीरे अपने भीतर ऐसी भावना और ऐसे संस्कार पैदा करेंगे कि स्वयमेव उनकी प्रकृति बदलेगी। फलत: इस जन्म में नहीं, तो आगे सात्त्विक मार्ग पर आई जाएँगे। विशेषज्ञता का तो मतलब ही है उसका रस-रेशा पहचान लेना। उसका सिर्फ यही मतलब नहीं होता कि उस पर अमल अच्छी तरह किया जाए। किंतु उसकी कमजोरियाँ, बुराइयाँ और हानियाँ भी मालूम हो जाया करती हैं, आँखों के सामने नाचने लगती हैं और यही चीज आगे का रास्ता साफ करती है। वर्णाश्रमों के धर्मों की इस तरह सख्ती के साथ पाबंदी की जो बात पहले जमाने में थी उसका यही मतलब था। हम यह पहले ही अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। आज जो श्रम-विभाजन (division of labour) का सिद्धांत बहुत व्यापक रूप में काम में लाया जाकर पराकाष्ठा को पहुँचा दिया गया है, वह कोई नई बात नहीं है। वर्णाश्रम धर्मों के विभाग के मूल में यही सिद्धांत काम करता है। इससे ही समाज की प्रगति पहले के ऋषि-मुनि मानते थे। आश्चर्य है कि आधुनिक विज्ञान भी यही बात रूपांतर में मानता है। डॉ. ऐडम स्मिथ ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जो एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में लिखी है और जिसका नाम है 'राष्ट्रों की संपत्ति' (The wealth of Nations by Dr. Adam Smith), उसके शुरू में, पहले ही परिच्छेद में, वह यही बात यों लिखते हैं -

"In the progress of society philosophy or speculation becomes, like every other employment, the principal or sole trade and occupation of a particular class of citizens. Like every other employment, too it is subdivided in to a great number of different branches each of which affords occupation to a peculiar tribe of class of philosophers; and this subdivision or employment in philosophy as well as in every other business, improves dexterity, and saves time. Each individual becomes more expert in his own peculiar branch, more work is done upon the whole, and the quantity of science is considrably increased by it."

इसका आशय यह है, 'समाज की प्रगति के सिलसिले में हरेक दूसरे कामों की ही तरह दर्शन या मनन-चिंतन भी नागरिकों के एक खास वर्ग का मुख्य या सोलहों आना काम और पेशा बन जाता है। फिर दूसरे कामों की ही तरह यह भी अनेक विलक्षण विभागों में बँट जाता है और हरेक विभाग एक विलक्षण वर्ग या जाति के दार्शनिकों और दिमागदारों के लिए काम दे देता है। दर्शन और चिंतन का यह विभाग हरेक दूसरे पेशों के विभाग की ही तरह कुशलता एवं विशेषज्ञता की प्रगति करता है और समय भी बचाता है। इस तरह हरेक व्यक्ति अपने खास विभाग या उसकी शाखा में अधिक कुशल हो जाता है, सब मिला के इस तरह काम भी ज्यादा होता है और विज्ञान के प्रसार में प्रगति ज्यादा हो जाती है।'

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥ 41

हे परंतप, स्वभाव को बनाने वाले तीनों गुणों के (तारतम्य के) फलस्वरूप ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के कर्म बिलकुल ही बँटे हुए हैं। 41।

शमो दमस्तप: शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 42

शम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, नम्रता या सिधाई, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता, (ये) ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म हैं। 42।

आस्तिकता का अर्थ श्रद्धा है।

शौर्यं तेजो धृ तिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षा त्रं कर्म स्वभावजम्॥ 43

शूरता, दब्बूपन का न होना, धैर्य (युद्ध शासनादि में) कुशलता, युद्ध से न भागना, दान और शासन की योग्यता, (ये) क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं। 43।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥ 44

खेती, पशुपालन (और) व्यापार (ये) वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। शूद्रों का भी स्वाभाविक कर्म सेवा-रूप ही है। 44।

यहाँ ब्राह्मणों और क्षत्रियों के स्वतंत्र रूप में विस्तृत कर्मों का जुदा-जुदा वर्णन और शूद्रों तथा वैश्यों के कर्मों का एक ही श्लोक में संक्षेप में ही वर्णन यह सूचित करता है कि उस समय वैश्य और शूद्र का दर्जा प्राय: समकक्ष, परतंत्र और छोटा माने जाने लगा था। मगर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय प्राय: समकक्ष होने के साथ ही ऊँचे एवं स्वतंत्र माने जाते थे। शूद्र के काम का तो खास नाम भी नहीं दिया है किंतु 'सेवा-रूप' कह दिया है। इससे खयाल होता है कि जरूरत होने पर उससे हर तरह का काम करवा के उस काम को सेवा का रूप दे दिया जाता था। इससे यह भी स्पष्ट है कि समाज के लिए वह फिर भी बहुत ही उपयोगी और जरूरी था। आखिर सेवा के बिना समाज टिकेगा भी कैसे? हमने इस पर पूरा प्रकाश पहले ही डाला है। इस श्लोक में 'शूद्रस्यापि' में शूद्र के साथ 'भी' के अर्थ में 'अपि' आया है। उससे यह भी साफ झलकता है कि उस समय सेवा धर्म शेष तीन वर्णों का भी था और आज उसे जितना बुरा मानते हैं, पहले यह बात न थी। इसी के साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि शूद्रों का कोई अपना खास पेशा या काम न था। जरूरत होने पर वह तीनों वर्णों का काम करते रहते थे। हमने इस पहलू पर भी पहले ही ज्यादा प्रकाश डाला है। शेष तीन के साथ 'अपि' न दे के केवल शूद्र के साथ ही देने का दूसरा आशय हो नहीं सकता। ऐसी दशा में शूद्रों को छोटे या नीच मानने का एक ही कारण हो सकता है और वह यह कि उनकी स्वतंत्र हस्ती न थी, जैसी कि शेष तीन की थी। क्योंकि उनका कोई निजी पेशा न था। और जान पड़ता है, उस समय निजी पेशे का होना जरूरी एवं प्रतिष्ठा का चिह्न माना जाता था। इसीलिए शूद्र छोटे समझे गए। वैश्यों के भी छोटे माने जाने की प्रवृत्ति शायद इसीलिए हुई कि खेती, व्यापार या पशुपालन की उस समय कोई खास जरूरत न थी। या तो इनके द्वारा होने वाला समाज का काम आसानी से चला जा रहा था और खेती, पशुओं या व्यापार की प्रचुरता थी; या यह कि अभी उस ओर समाज का विशेष ध्‍यान न गया था। फलत: ये बीज रूप में ही थे। भरसक यह दूसरी ही बात थी। मगर इस पर अधिक विचार यहाँ हो नहीं सकता।

फिर भी इतना तो जान ही लेना होगा कि जब तीन ही गुणों के अनुसार वर्णों के कर्म बँटे हैं और यह बँटवारा स्वाभाविक है, न कि जबर्दस्ती बना या बनावटी, तब तो दरअसल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीन वर्णों की संभावना रहती है, न कि चौथे की। यों तो हमने भी पहले इसी तरह के प्रसंग में चारों वर्णों का बँटवारा कर दिया है। मगर वह बात हमारी अपनी न हो के परंपरासिद्ध ही है। वहाँ हमने अपनी ओर से इस तीन या चार के बारे में कुछ न कह के उसी का उल्लेख कर दिया है। अपनी बात तो हमने अलग ही कही है। शूद्र नाम का कोई स्वतंत्र वर्ण न था, हमने यही लिखा है। लेकिन जब यहाँ इन श्लोकों के शब्दों और प्रसंगों को देखते हैं तो हमें साफ कहना ही पड़ता है कि शब्दों के अर्थ से भी तीन ही वर्ण सिद्ध होते हैं। अगर सत्त्व, रज, तम की मिलावट में कमी-बेशी करके चौथे का भी रास्ता निकाल लें, जैसा कि किया जाता है और हमने भी लिखा है, तो इस तरह चार से ज्यादा जानें कितनी ही वर्ण बन सकते हैं। क्योंकि मिलावट में जो कमी-बेशी होगी वह तो हजारों तरह की हो सकती है न? आधा, चौथाई, दशमांश, शतांश, सहस्रांश आदि के हिसाब से वह सम्मेलन, वह मिश्रण हजारों तरह का हो जाएगा। इसलिए हमारे जानते यह बात दार्शनिक युक्ति से शून्य है।

देखिए न, 41वें श्लोक में ही तो 'प्रविभक्तानि' लिखा है, जिसका अर्थ है कि सबों के कर्म बिलकुल ही जुदे-जुदे हैं। मगर जब सेवा सबों का धर्म बन गई और शूद्र के लिए दूसरा कुछ बताया ही नहीं, तो उसके कर्म को प्रविभक्त कहना कैसे उचित होगा? और अगर यह बात न हो तो उसे स्वतंत्र वर्ण कैसे माना जाए?

इसी 41वें श्लोक में ही एक मजेदार बात और है। आगे तो ब्राह्मण और क्षत्रिय को अलग-अलग श्लोकों में कह के शूद्र और वैश्य को एक ही में कह दिया और जैसे-तैसे काम चला लिया है। पहले भी 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:' (9। 32) में इसी तरह की बात आई है। हमने वहीं इसका इशारा भी कर दिया है। मगर 41वें श्लोक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों का एक ही समस्त पद बना के 'ब्राह्मण क्षत्रियविशां' कह दिया है। केवल शूद्र को अलग 'शूद्राणा' कहा है। समास करने पर श्लोक में अक्षर न बढ़ जाए और छंद में गड़बड़ न हो जाए इसके लिए वैश्य की जगह उसी अर्थ में विशब्द रखना पड़ा है। फिर भी चाहते तो 'विप्राणांक्षत्रियाणां च विट्शूद्राणां च भारत' ऐसा श्लोक बना दे सकते थे। किंतु ऐसा न करके तीनों को एक जगह जोड़ने में यही आशय प्रतीत होता है कि दरअसल विभक्त कर्म तीन के ही हैं और स्वतंत्र वर्ण भी यही हैं। हाँ, शूद्र भी माना जाता है। मगर उसके कर्म ऐसे नहीं हैं।

और जब सब चीजें तीन ही तीन गिनाई गई भी हैं तो वर्णों को एकाएक चार कह देना भी प्रसंग से अलग-सा हो जाता है। वैश्य के व्यापार को सत्यानृत या झूठ-सच की चीज कहते भी हैं और खेती भी हिंसामय ही है, और ये दोनों तामसी ही हैं। इसलिए उसे तामस, क्षत्रिय को राजस और ब्राह्मण को सात्त्विक मानना ही उचित है। यही बात खूब जँचती भी है। क्षत्रिय तो राजा भी कहा जाता है और उसकी राजसी ही बात मानी भी जाती है। ज्ञान तो सात्त्विक हई। बस, अधिक आगे के लिए।

अब आगे 45वें श्लोक से जो बात शुरू होती है वह यही कि जो उपाय कर्म के रूप में बताया गया है वह इष्टसिद्धि के लिए काम में लाया कैसे जाए।

स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विंद ति तच्छृणु॥ 45

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंद ति मानव:॥ 46

अपने-अपने कर्मों में लगे रहने वाला मनुष्य ही मन की शुद्धि - बुद्धि की निर्मलता - प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों में ही लगा हुआ (वह यह) शुद्धि जैसे प्राप्त करता है वह भी सुन लो। जिस भगवान से ही पदार्थों की सृष्टि हुई और जो संपूर्ण जगत में व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मों से ही - कर्मों के रूप में ही - उसी की पूजा करके (यह) सिद्धि - मन:शुद्धि - पा जाता है। 45। 46।

पहले जो 'यत्करोषि' (9। 27) आदि के द्वारा अपने-अपने कर्मों के करने को ही भगवान की पूजा कहा है। उसी से यहाँ मतलब है, न कि किसी और चंदन, अक्षत, घंटीवाली पूजा से। स्वकर्मणा शब्द से यह बात साफ है। ऐसा करने से कैसे मन की शुद्धि होगी अब यही बात कहना जरूरी था और 49वें श्लोक में यही कही भी गई है। लेकिन शायद लोग अपने-अपने कर्मों से डिग जाएँ और पूजा का दूसरा ही आरती, घंटीवाला रूप खड़ा कर दें; इसीलिए उधर से रोकने और स्वकर्म पर ही जोर देने की जरूरत आगे बढ़ने के पहले ही समझी गई। दो श्लोक में यही बात कह भी दी गई है। ठीक भी है न? पूजा तो और ही चीज मानी जाती है। यह निराली पूजा कैसी? लोगों को सहसा ताज्जुब हो सकता है। इसलिए उसकी सफाई कर देना जरूरी हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि शासन और युद्धादि के कामों को निर्दयता और हिंसा की चीज समझ लोग उससे हिचकें। इस तरह सारे गुड़ के गोबर हो जाने की शंका बनी रहेगी ऐसे कामों को तो खामख्वाह कोई भी पूजा मानने को जल्दी तैयार होगा ही नहीं। इसलिए फौरन ही ये बातें साफ कर दी गई हैं। निर्दयता और हिंसा की दलील का भी यही उत्तर दे दिया है कि सृष्टि के त्रिगुणात्मक होने के कारण सर्वत्र ही बुराइयाँ रहती ही हैं। भले-बुरे सभी मिले-जुले हैं। क्या साँस लेते और आरती-चंदन में हिंसा नहीं है? फिर इस वाहियात बात में क्या पड़ना?

श्रे यांस्व धर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥ 47

सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वा रंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥ 48

दूसरे के धर्म या स्वाभाविक कर्म को अच्छी तरह या आसानी से कर लेने पर भी उसकी अपेक्षा अपना अधूरा या दीखने में बुरा भी धर्म कहीं अच्छा है। (क्योंकि) स्वभाव के ही अनुसार निश्चित कर्मों के करने में (दरअसल) कोई पाप या बुराई नहीं होती। (इसीलिए) हे कौंतेय, (देखने में) दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म कभी न छोड़े। क्योंकि जैसे आग धुएँ से घिरी होती ही है वैसे ही सभी काम दोष से घिरे ही (नजर आते) हैं। 47। 48।

इन श्लोकों में एक तो 'विगुण:' 'स्वनुष्ठितात्' तथा 'सदोषम्' पदों के अर्थ जरा लंबे-चौड़े हैं। दोष में सभी तरह की छोटी-बड़ी बुराइयाँ, हानियाँ और त्रुटियाँ आ जाती हैं, न कि सिर्फ हत्या वगैरह पापों से यहाँ मतलब है। दूसरी बात यह भी है कि ऊपर से देखने में ही ऐसा मालूम होने से यहाँ तात्पर्य है। क्योंकि वाकई तो बुराई किसी में भी नहीं है। सबके-सब तो पूजा ही हैं। और अगर बुराई है तो सबों में है। यह ठीक है कि किसी में साफ दीखती है और किसी में नहीं। बस, यही आशय है। इसी तरह विगुण का अर्थ है अधूरा किया हुआ और देखने में दोषयुक्त। हमने ये दोनों ही अर्थ मिला के लिख दिए हैं। स्वनुष्ठितात् (सु+अनुष्ठितात) के भी दो मानी हैं, अच्छी तरह किया गया और आसानी से किया गया। सहज शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के जन्म के साथ ही जो कर्म पैदा हुए वही स्वाभाविक कर्म हैं, जैसे बत्तख का तैरना, न कि पीछे से सिखाए या बलात लादे गए। वर्णधर्म की यही बड़ी खूबी थी, न कि आज जैसी धक्कममुश्ती।

यों तो हमने कही दिया है कि वर्णव्यवस्था विशेषज्ञता संपादन के द्वारा आत्मा को कर्म से अलग करने या सात्त्विक कर्म में धीरे-धीरे लग जाने का रास्ता साफ करती है। मगर उतनी दूर न जा के भी यदि स्वाभाविक कर्मों को अनासक्ति के साथ करें तो भी काम बन जाए। यह अनासक्ति भी स्वाभाविक कर्मों में ही पूरी-पूरी हो सकती है, जैसे साँस लेने या मलादि के त्याग में। इनमें कौन-सी आसक्ति किसी को होती है? बनावटी कर्मों में यह बात या तो असंभव है या अत्यंत दु:साध्‍य। ऐसे कर्मवाले पथभ्रष्ट जो ठहरे। और पथप्रष्ट को रास्ते पर लाना तो कठिन हई। इस तरह अनासक्तिपूर्वक स्वधर्म करते हुए ही मन की पूर्ण शुद्धि हो जाती है। फिर तो फौरन समाधि की दशा आ जाने पर कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके पूरी निष्कर्मता प्राप्त हो जाती है। क्योंकि आसक्ति के त्याग से एक तरह का कर्म त्याग तो पहले से ही रहता है। मगर स्वरूपत: कर्मों के करते रहने से वह पूर्ण या परम कर्म-त्याग नहीं होता; किंतु अधूरा। वही परमत्याग हो गया, जब समाधि के लिए स्वरूपत: भी कर्म छोड़ दिए गए। यदि 'न कर्मणामनारंभात' (3। 4) श्लोक की मिलान हम इस 49वें से करें तो पता लग जाए कि वही नैष्कर्म्य और सिद्धि शब्द यहाँ भी हैं। मगर जो कमी वहाँ बताई गई है उसकी पूर्ति करके यहाँ परम नैष्कर्म्य का सच्चा रूप खड़ा कर दिया है।

असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥ 49

सभी चीजों में जिसकी बुद्धि आसक्ति शून्य है, काबू में है और जो सभी इच्छा से रहित है, (वही मनुष्य कर्मों के स्वरूपत:) संन्यास के द्वारा परम नैष्कर्म्य की प्राप्ति कर लेता है। 49।

इसीलिए हमने पहले भी कह दिया है कि इसी श्लोक में संन्यास शब्द का अर्थ है स्वरूपत: कर्मों का त्याग। नैष्कर्म्य का परम विशेषण भी इसी से संगत हो सकता है। इसके बाद तो 'संन्यस्य' शब्द एक ही बार 57वें श्लोक में आया है। मगर वहाँ कर्मों का स्वरूपत: त्याग अर्थ है नहीं। वह शब्द क्रियावाचक है और अर्पण, रखने या समर्पण के ही मानी में आया है। हाँ, तो इस तरह पूर्ण कर्म-त्याग हो जाने पर किस तरह ब्रह्मात्मा का साक्षात्कार होता है और उसमें कर्म की निर्लेपता प्रतीत होने लगती है, झलक जाती है, यही बात आगे के चार श्लोक (50-53) बताते हैं। इसी को समाधि कहते हैं, ध्‍यानयोग कहते हैं तथा ज्ञाननिष्ठा, समाधिनिष्ठा और ध्‍याननिष्ठा भी कहते हैं। इसी के चलते पूर्ण ज्ञान और आत्मदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिए ज्ञाननिष्ठा इसे कहा गया है। बिना ऐसा किए ज्ञान परिपक्व नहीं होता और न सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है। फिर कर्म छूटे कैसे और आत्मा निर्लेप दिखे कैसे?

इसके बाद 54वें श्लोक में उस ज्ञान या आत्मदर्शन का स्वरूप कहके 55वें में कारण बताया है कि क्यों उसे पूर्ण ज्ञान, ज्ञाननिष्ठा या आत्मदर्शन कहते हैं। उसका परिणाम भी कह दिया है कि आत्मा ब्रह्मरूप ही हो जाती है, उसी में मिल जाती है।

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।

समासेनैव कौंतेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥ 50

बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृ त्यात्मानं नियम्य च।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥ 51

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।

ध्‍यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥ 52

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रो धं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्मम: शांतो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ 53

(इस प्रकार पूर्ण नैष्कर्म्य की) सिद्धि प्राप्त कर लेने पर (मनुष्य) जिस तरह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है और जिसे परले दर्जे की ज्ञाननिष्ठा कहते हैं वह मुझसे जान लो। निर्मल सात्त्विक बुद्धिवाला (मनुष्य) (सात्त्विक) धैर्य के बल से मन को रोक के, शब्द आदि (इंद्रियों के) विषयों को छोड़ के और रागद्वेष को हटा के एकांत देश का सेवन करते, हलका भोजन करते तथा जबान, मन और शरीर को काबू में रखे हुए निरंतर ध्‍यानयोग में ही दत्तचित्त होता एवं वैराग्य को पक्का कर लेता है। (फलत:) अहंकार, बलप्रयोग, ऐंठ, काम, क्रोध और सभी लवाज़िम से नाता तोड़े हुए, ममतारहित (तथा पूर्ण) शांतियुक्त हो के ब्रह्म का रूप हो जाता है। 50। 51। 52। 53।

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ 54

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तद नंत रम्॥ 55

ब्रह्मस्वरूप निर्मल मनवाला (मनुष्य) न तो कोई चिंता रखता है, न इच्छा। वह सभी पदार्थों में समदृष्टि-रूप मेरी परमभक्ति पा जाता है। मुझ आत्मा-ब्रह्म का जो भी और जैसा भी स्वरूप है उसे इस समदर्शन रूप भक्ति के बल से अच्छी तरह जान जाता है (और) (इस तरह) मेरे तत्त्वज्ञान के बाद ही फौरन मुझमें प्रवेश कर जाता है। 54। 55।

यहाँ भक्ति को परा कहा है। इसका अर्थ है सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति, जिसे 'ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्' (7। 18) में पूर्ण ज्ञान कहा है और जिसका स्वरूप 'वासुदेव: सर्वमिति' (7। 19) बताया है। यदि परा भक्ति न हो तो वहाँ निचले दर्जे के तीन भक्त गिनाए हैं उन्हीं वाली भक्ति हो जाएगी। यहाँ भी उसका रूप 'सम: सर्वेषु भूतेषु' कह दिया है। इसीलिए उसका पूरा विवरण भी 'भक्त्या मामभिजानाति' में कर दिया है, जिसमें कोई शकशुभा रही न जाए। मुझमें प्रवेश करने का अर्थ कहीं जाना-आना नहीं। इसीलिए 'मयि विशते' न कह के 'मां विशते' कहा है। इसका ठीक-ठीक अर्थ 'समुद्रमाप: प्रविशंति' (2। 70) जैसा ही है। वहाँ भी वही द्वितीयांत है जैसा यहाँ।

इस प्रकार जब आत्मदर्शी और ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है तो उसकी क्या दशा होती है यह प्रश्न स्वभावत: उठता है और उसका उत्तर जरूरी हो जाता है। उसकी दोई हालतें हो सकती हैं। वह वामदेव, शुकदेव आदि की तरह बिलकुल ही मस्तराम हो सकता है। फिर तो कोई सुधबुध उसे रही न जाएगी। उसी की बात 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 16) में कही जा चुकी है। असल में ऐसे लोग एक तो कम होते ही हैं। क्योंकि जीते-जी मुर्दा बनना आसान नहीं। यह बड़ी ही दुर्लभ बात है। दूसरे व्यावहारिक दुनिया में आमतौर से न तो उन्हें लोग पहचानी सकते और न उनसे कोई फायदा ही उठा सकते । गीता को व्यावहारिक संसार की ही ज्यादा परवाह भी है। अर्जुन के लिए यही उपयुक्त भी था। प्रथमत: तो उसी को यह उपदेश दिया भी गया है। इसीलिए मस्तरामों की बात फिर कहने की कोई खास जरूरत रही नहीं गई थी, हालाँकि अगले श्लोक में उनकी भी बात है, यह आगे स्पष्ट हो जाएगा। उनके बारे में किसी को कोई शकशुभा भी तो नहीं हो सकता कि वह निर्वाण मोक्ष प्राप्त करेंगे या नहीं। मगर जिनकी दूसरी हालत होती है और जो लोकसंग्रह करते हैं उनका व्यवहार में पूरा उपयोग होने के साथ ही उनके बारे में यह खयाल हो सकना स्वाभाविक है कि जब वे जनसाधारण की ही तरह सब कुछ करते-धरते नजर आते हैं, तो उन्हें निर्वाण मुक्ति कैसे होगी? फलत: इन्हीं के बारे में अंत में स्पष्टतया कह देना जरूरी हो गया कि चाहे वह कहीं किसी भी दशा में रहें और कुछ भी करते रहें, फिर भी परम धाम, शाश्वत पद या निर्वाण मुक्ति उनके लिए धरी-धराई ही है। यही बात आगे के पाँच श्लोकों में कही गई है। अर्जुन को यह भी कह दिया गया है कि तुम्हारे जैसों के लिए तो यही रास्ता है। दूसरा हई नहीं। इसीलिए यदि तुमने नादानी की और दूसरा मार्ग लिया, तो चौपट हो जाओगे। यह भी बात है कि तुम ऐसा कर भी नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारी तो क्षत्रियवाली प्रकृति है। इसलिए वह तुम्हें युद्ध से अलग जाने न देगी। प्रत्युत इसी में तुम्हें जरूर जोत देगी।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय:।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥ 56

सदा सभी तरह के कर्मों को करता हुआ भी मेरा स्वरूप बना हुआ (ऐसा मनुष्य) मेरी कृपा से - आत्मसाक्षात्कार के फलस्वरूप - निर्विकार शाश्वत पद - मोक्ष - पा जाता है। 56।

इसीलिए अर्जुन को आगे स्पष्ट उपदेश दिया गया है कि तुम मोक्ष या परलोक की चिंता छोड़ के जैसा कहा जाता है करो और आत्मदर्शन, जिसे बुद्धियोग, ज्ञानयोग और सांख्ययोग भी कहते हैं, के बदले सभी कर्मों को भगवान को सौंप के उनकी जवाबदेही से अलग हो जाओ। अब तक जो तुम समझते थे कि आत्मा में ही कर्म हैं उसे गलत समझ कर्म को भगवान में फेंक के भस्म कर दो और आत्मा के सिवाय और कुछ देखो ही मत। इस तरह यहाँ कर्मों को आत्मा में न रहने देने या न मानने की बात का उपसंहार भी साफ-साफ हो जाता है। इस 57वें श्लोक का आशय पहले ही बताया जा चुका है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥ 57

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।

अथ चे त्त्व महंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि॥ 58

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥ 59

स्वभावजेन कौंतेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।

र्त्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥ 60

(इसी ज्ञानयोग की शरण जा के) मन और हृदय से सभी कर्मों को परमात्मा में समर्पित करो, उसी में चित्त लगाओ और उससे बढ़ के और कुछ न जानो। परमात्मा में चित्त लगाने से उसी की कृपा से - आत्मज्ञान के ही प्रताप से - सभी संकटों से पार हो जाओगे। लेकिन यदि घमंड में आ के (मेरी यह बात) न सुनोगे तो चौपट हो जाओगे। (इतना ही नहीं) अगर अहंकार में आ के तुमने नहीं ही लड़ने का निश्चय किया भी तो तुम्हारा यह उद्योग - यह निश्चय - झूठा होगा - व्यर्थ होगा (और) तुम्हारा स्वभाव तुम्हें (लड़ाई में) डाल के ही रहेगा। (क्योंकि) हे कौंतेय, अपने स्वाभाविक कर्म के साथ जकड़े होने के कारण यदि यह काम - युद्ध - भूल से नहीं भी करना चाहो तो भी मजबूरन तुम्हें इसे करना ही होगा। 57। 58। 59। 60।

कर्मों का भगवान में संन्यास या अर्पण क्या चीज है और इस तरह आत्मा से उनका कैसे संबंध छूट जाता है इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है।

वहाँ जो बार-बार 'मयि', 'मत' आदि शब्दों के द्वारा परमात्मा का उल्लेख किया गया है उससे शायद लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ईश्वर या परमात्मा कोई दूसरा पदार्थ है जो कहीं अन्यत्र रहता है। उसी में मन लगाने और उसे ही कर्मों को अर्पण करने की बात कही गई है। क्योंकि यदि वह आत्मा का स्वरूप ही हो तो कर्मों को आत्मा में ही रखना हो जाएगा न? संन्यस्य शब्द जो पहले 57वें श्लोक में आया है उसका तो अर्थ ही है धरोहर या थाती रखना। ऐसी दशा में अब तक का यह कहना व्यर्थ हो जाएगा कि आत्मा में कर्म रहता ही नहीं, उसका कर्म से ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए ईश्वर को अलग ही मानना ठीक है।

मगर ऐसा समझने वालों के सामने भी तो यह दिक्कत रही जाती है कि आत्मा या जीव का कर्म, या यों कहिए कि मनुष्यों का कर्म वहाँ कैसे रखा जाएगा? और जब पहले ही कह दिया है कि 'न च मां तानि कर्माणि' (9। 9) - 'इन कर्मों से मेरा कोई ताल्लुक हई नहीं', तो फिर कर्म उसमें रहने पाएँगे कैसे? यदि यह कहा जाए कि ईश्वर तो कर्मों के लिए अग्नि जैसा ही है, और भस्म हो जाने के लिए ही उसमें कर्म डाल दिए जाते हैं, तो यह बात तो 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा' (4। 37) के द्वारा पहले ही कह दी गई है कि आत्मज्ञान के द्वारा ही सभी कर्म दुग्ध हो जाते हैं। इसलिए एक तो ईश्वर में डालने का भी अर्थ समदर्शन ही होगा। दूसरे ईश्वर आत्मा से जुदा फिर भी सिद्ध न होगा। फिर तो वह शंका बेबुनियाद ही सिद्ध होगी।

असल बात यह है कि आत्मज्ञानी कर्मों की परवाह करता ही नहीं कि वे क्या चीज हैं और कब कैसे हो रहे हैं। उनका परिणाम क्या होगा यह भी खयाल उसके दिल में भूलकर भी नहीं आता है। वह तो यही जानता है कि सृष्टि का अर्थ ही है, क्रिया, कर्म (action)। इसलिए जो कुछ होता है वह तो सृष्टि के इसी के नियम के अनुसार ही हो रहा है। इसमें मुझे क्या लेना-देना है? मैं क्यों नाहक इस बला में फँसने जाऊँ? जिसने यह सब कुछ बनाया है वह जाने, उसका काम जाने। इस प्रकार आत्मा को निर्लेप समझ के लोकसंग्रह के कर्मों को करते रहना ही उन कर्मों का भगवान या ब्रह्मात्मा में संन्यास है, अर्पण है, डाल देना है।

इसलिए अगले श्लोक यही बात बताते हैं कि भगवान कहीं बाहर नहीं है। न तो वह बैकुंठ या ब्रह्मलोक में है और न तीर्थों या मंदिरों में। वह तो अपनी आत्मा ही है। फलत: हृदय में ही बसता है। हृदय में बसने का भी यह अर्थ नहीं है कि हृदय उसका घर है। उसका पहला आशय तो यही है कि वह आत्मा से अलग नहीं है। दूसरा आशय यह है कि वह तर्क-दलीलों और युक्तियों से न जाना जाकर हृदय-ग्राह्य ही है। 'ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम्' (13। 17) तथा 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:' (15। 15) में भी यही बात कही गई है। केवल तर्क-दलीलों का आश्रय लेना नास्तिकता और निरीश्वरवाद में पहुँचा देता है और केवल हृदय अंधपरंपरा का भक्त बना देता है। इसीलिए यहाँ हृदयग्राह्य करने का तात्पर्य यही है कि तर्क-युक्ति की सहायता से रास्ता साफ करने के बाद हृदय से ही आत्मा-परमात्मा का ग्रहण होता है। मनु ने भी कहा है कि 'यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतर:' (मनु. 12। 106) - 'जो तर्क से विचार करता है वही धर्म जानता है, दूसरा नहीं।' यहाँ उच्छृंखल तर्क रोक के हृदय का साथी तर्क ही माना गया है। मनु ने तो तर्क को 'वेदशास्त्र का अविरोधी' कहा है उसका यही तात्पर्य है। जिस हृदय ने ईश्वर को देख लिया उसमें अलौकिक शक्ति होती है, ऐसी कि दुनिया को हिला दे, डुला दे, चला दे। यह बात हम पहले बहुत विस्तार के साथ लिख चुके हैं। 61वें श्लोक का यही आशय है, न कि सचमुच हृदय में बैठ के ईश्वर मशीन की तरह चलाता है। इसलिए उसी हृदय को संपादित करना, हृदय को वैसा ही बनाना यही हमारा काम है।

इस श्लोक का यह भी आशय है कि हृदय में जिस परमात्मा का स्वरूप व्यक्त होता है वह मनुष्य को चलाता है उस हृदय के ही बल से। जहाँ हृदय जा लगा वहाँ पहुँचना टल नहीं सकता। हृदय में वह ताकत है जो और कहीं नहीं है। हिरण बाँसुरी का शब्द सुन के अपने आपको भूल जाता है। साँप भी सँपेरे की बीन की आवाज से मुग्ध हो जाता है। इसी से शिकारी और सँपेरा उन दोनों को आसानी से पकड़ लेते हैं। उनके हृदय के ही चलते यह बात हो जाती है। उसका स्वभाव ही है। और जब क्षत्रिय का हृदय स्वभावत: युद्ध में ही रहता है, वहीं फँसा होता है, तो फिर अर्जुन हजार कोशिश करे, मगर वह रुकेगा कैसे? वह तो युद्ध में जाएगा ही, लड़ेगा ही। भगवान ही हृदय में बैठ के ऐसा करता है इस कहने का आशय 'मयाऽध्यक्षेण प्रकृति:' (9। 10) में बताई चुके हैं। उनके बिना जब प्रकृति कुछ करी नहीं सकती, तो हृदय तो उसी का रूप है न? फिर वह बिना भगवान के कैसे करेगा? इस प्रकार हृदय में भगवान के रहने का बहुत विस्तृत आशय इस श्लोक में व्यक्त हो जाता है।

जो लोग 'अहं' 'मम' आदि शब्दों को आत्मा के अर्थ में न लगा के एक निराले ही ईश्वर में लगाते, उसे सर्वशक्तिमान मानते और जीव को उसका स्वरूप न मान के सेवक मानते हैं, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे बृहदारण्यक उपनिषद् के चौथे अध्‍याय का तीसरा ब्राह्मण पूरे का पूरा पढ़ जाएँ और देखें कि उसमें आत्मा का ही निवास हृदय में स्वयं-ज्योतिरूप में लिखा गया है या नहीं, सृष्टि का बनाने-बिगाड़ने वाला उसे कहा गया है या नहीं और उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु हई नहीं है, यह बार-बार दिखाया गया है या नहीं। वहीं यह भी लिखा गया है कि वह स्वयं-ज्योति है, उसका प्रकाशक कोई नहीं और जैसे ही सपने में वैसे ही जगने में सारी चीजें अपनी ही शक्ति से बनाता और देखता है, लीला करता है, सभी जगह विहरता-विचरता है, मौज करता है। यह भी वे लोग देखें। 'ध्यायतीव लेलायतीव' लिखा गया है जिसका अर्थ है, कि सभी लीलाएँ करता है।

जब उस ब्राह्मण के शुरू में ही जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा है कि इस आत्मा के मददगार प्रकाश कौन-कौन से हैं - 'किंज्योतिरयं पुरुष:'? (3। 1), तो याज्ञवल्क्य ने, जितने भी उजाला करने वाले या पथदर्शक संभव हैं उन्हीं सबों को पहले गिना के कहा है कि एके बाद दीगरे इन्हीं से उसका पथदर्शन होता है। सबसे पहले सूर्य की ही प्रचंड ज्योति से उनने शुरू किया है। मगर रात में तो वह ज्योति मिलती नहीं, ऐसा कहने पर चंद्रमा का नाम लिया है। लेकिन कृष्णपक्ष की अँधियारी और अमावस्या में? तब तो चंद्र होता नहीं। अत अग्नि के प्रकाश, दीपक आदि से ही काम चलता बताया है। तो निरे अँधेरे में, जहाँ दीपक भी न हो, क्या काम बिलकुल ही बंद हो जाता है? अँधेरे में भी तो लोग दूर से बातें सुन के ही जान जाते हैं कि कौन-सा आदमी है। जबान से रास्ते की बात सुनके वैसे ही चलते भी हैं। इसीलिए बात या शब्द को ही उस समय प्रकाशक और पथदर्शक मानना पड़ा है। मगर जब नींद के समय आत्मानंद का अनुभव करता है और उठने पर याद करता है कि बड़े आनंद से सोए थे, तब वहाँ कौन-सा प्रकाश रहता है, जो आनंद को दिखाता है? और अगर अनुभव न करता तो उठने पर फौरन ही उसे याद क्यों करता? जिसका अनुभव न हो उसका तो स्मरण होता नहीं। इसलिए शरीर के भीतर सुषुप्ति या गाढ़े नींद में आनंद का अनुभव मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार सपने में जानें क्या-क्या देखता-सुनता है। हजारों चीजें देखी जाती हैं, यह तो सभी मानते-जानते हैं। मगर वहाँ भी न तो शब्द ही हैं और न सूर्य आदि ही हैं। फिर वहाँ कौन-सा प्रकाश है, सो भी भीतर शरीर में? इसी का उत्तर दिया है कि 'आत्मैवास्य ज्योतिर्भवतीत्यात्मनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीति' (4। 3। 6)।

इसका आशय यही है कि 'उस समय मनुष्य की आत्मा ही ज्योति का काम करती है और वह उसी के बल से बैठने, जाने, आने-लौटने और अन्य सभी कामों में लग जाता है' इस पर प्रश्न हुआ है कि वह आत्मा है कौन-सा? 'कतमोऽयमात्मा?' (4। 3। 7)। क्योंकि शरीर के भीतर मन, बुद्धि, हड्डियाँ, मांस आदि हजार चीजें हैं न? इसी के उत्तर में कहना पड़ा है कि वह विज्ञानमय है, सभी इंद्रियादि को चलाता है और हृदय के भीतर रहता है, 'विज्ञानमय: प्राणेषु हृद्यंतज्योति: पुरुष' (4। 3। 7)। उसी के बारे में यह भी लिखा है कि जागरण और सपना इन्हीं दोनों हालतों में वह काम-धाम करता है, लीला करता है ऐसा जान पड़ता है। वह सर्वत्र एक ही है, एक-सा ही है, 'स समान: सन्नुभौलोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव' (4। 3। 7)। उसके तीन लोक या क्रीड़ास्थल माने गए हैं। इनमें सुषुप्ति में तो संसार रहता नहीं। वहीं से कभी सपने में जाता और चीजें बना के मौज करता है, तो कभी जाग्रत दशा में आ के, - 'तस्यवाएतस्यपुरुषस्यद्वे एवस्थानेभवत: इदं च परलोक स्थानं च संधयं तृतीयं स्वप्न स्थानं तस्मिन्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नेते उभे स्थाने पश्यति' (4। 3। 8)। यहाँ संधि-स्थान को स्वप्न-स्थान कहा है। स्वप्न का अर्थ है गाढ़ नींद या सुषुप्ति। यहीं से दोनों में पहुँचता है। जाग्रत को इहलोक और सपने को परलोक कहा है।

इसके बाद से लेकर 18वें ब्राह्मण के अंत तक सपने की सृष्टि के बनाने और बिगाड़ने की बात सविस्तार कही गई और लीला बताई गई है। आत्मा ही सब कुछ करती है यह भी बताया गया है। अनंतर गाढ़ नींद या सुषुप्ति का प्रसंग ला के उसका चित्र खींचा गया है। वहाँ यह प्रश्न उठा है कि सुषुप्ति में कोई पदार्थ आत्मा को मालूम क्यों नहीं होता है? पदार्थ तो हजारों हैं। शरीर के भीतर ही जाने कितने हैं। फिर उनका अनुभव वहाँ आत्मा को होता क्यों नहीं? इसी का उत्तर बहुत ही विस्तार के साथ 31वें ब्राह्मण के अंत तक दिया गया है और कहा गया है कि अगर सचमुच कोई दूसरा भी पदार्थ उसके अलावे हो तब न उसे देखे, सुने, सूँघे, छुए, खाए, पीए दरअसल तो आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं - 'न तु तद्द्वितीयमस्ति'। यही बात बीसियों बार कही गई है। सचमुच ही आश्चर्य है कि यदि इंद्रियों से देखे-सुने न भी तो मन से तो सोचे-विचारे। मगर वहाँ तो कुछ भी नहीं होता। मन को तो बाहर जाना भी नहीं कि इंद्रियों की मदद चाहिए। वह भीतर ही सोचता क्यों नहीं? आखिर सपने में तो मन ही सब कुछ करता है न? फिर सुषुप्ति में भी क्यों नहीं करता? इसीलिए मानना ही पड़ता है कि उस समय आत्मा के सिवाय और कुछ हई नहीं। ठीक ही है, जिसका ज्ञान नहीं उसके अस्तित्व में प्रमाण ही क्या? यदि कहा जाए कि जिसे नींद न हो उसे तो उस समय ज्ञान होता ही है; अतएव वही ज्ञान उन वस्तुओं के लिए प्रमाण होगा, तो प्रश्न होता है कि सुषुप्तिवाले को क्या मालूम कि किसी को ज्ञान होता है? और अस्तित्व का प्रश्न तो उसी के लिए है न? और अगर सभी को सुषुप्ति हो जाए तो? यह असंभव भी नहीं है। प्रलय की ही तरह वह भी हो सकती है। फलत: अद्वैत-तत्त्व को मानना ही पड़ता है।

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्राम यंस र्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया॥ 61

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥ 62

हे अर्जुन, सभी प्राणियों के हृदयस्थान में ईश्वर मौजूद रहता है, (और अपनी) मायाशक्ति से उन्हें कठपुतली की तरह घुमाता रहता है। हे भारत, समस्त संसार को उसी का स्वरूप जानो और इसी रूप में उसकी शरण जाओ। उसी की कृपा से परम शांति और शाश्वत स्थान पा जाओगे। 61। 62।

61वें श्लोक की पूरी व्याख्या पहले ही हो चुकी है। 62वें में जो 'सर्वभावेन' पद है ऐसा ही पद पहले भी 'स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत' (15। 19) में आया है। अंतर यही है कि वहाँ 'भजति' है और यहाँ 'शरणं गच्छ' है। मगर मानी दोनों के एक ही हैं। भजने या शरण जाने का ही रूप 'सर्वभावेन' कहा है। 'वासुदेव: सर्वमिति' की ही तरह सभी को आत्मा-परमात्मामय ही देखना यही शरण जाना है।

इस प्रकार उपदेश करके उसका उपसंहार करते हुए अर्जुन को मौका देते हैं कि वह खूब सोच-विचार ले, तभी कुछ करे। कहीं ऐसा न हो कि आवेश में आ के या बातों में पड़ के कुछ कर डाले। क्योंकि ऐसे कामों का नतीजा कभी अच्छा नहीं होता। लेकिन इसी के साथ उसे यह भी याद रखना होगा कि जो उपदेश दिए गए हैं वह ऐसे-वैसे नहीं हैं; किंतु दुर्लभ और गोपनीय से भी गोपनीय हैं। ऐसी बातें शायद ही सुनने को कभी मिलती हैं, कभी मिलें। इसलिए इन पर पूरा गौर करना होगा।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ 63

मैंने तुम्हें यह गोपीनय से भी गोपनीय अक्ल और सोचने-विचारने की बात कही है। इस पर खूब अच्छी तरह सोच-विचार के जो चाहो सो करे। 63।

श्लोक से स्पष्ट है कि जो कुछ उपदेश है वह ज्ञान ही है, न कि और कुछ। चाहे जितनी बातें भी शुरू से अंत तक आई हों सब ज्ञान के ही सिलसिले में आई हैं। गीतोपदेश का असली विषय ज्ञान ही है। उसी के भीतर विज्ञान भी आ जाता है। फिर भी जो यह कह दिया है कि समझ-बूझ के करो और जो चाहो सोई करो, उससे साफ हो जाता है कि आज्ञा या हुक्म की गुंजाइश गीता में है नहीं। यहाँ तो अपने दिल से ही चलने की बात है। यह ठीक है कि जो कुछ करना हो उसे बखूबी समझ-बूझ के करना चाहिए। मगर करना है अपनी ही मर्जी से, अपनी राय से ही, जिसे इच्छा कहते हैं। क्योंकि जवाबदेही तो अपने ही ऊपर आने को है न? फिर दूसरे के दबाव या हुक्म का क्या सवाल? वह क्यों माना जाए? और अगर माना गया तो जवाबदेही करनेवाले पर न हो के आज्ञा देनेवाले पर ही जो हो जाएगी। इस पर तो हमने पहले श्रद्धा के प्रसंग में बहुत लिखा है।

'अशेषेण विमृश्य' कहने का एक और भी अभिप्राय है। एक तो विमर्श ही व्यापक चीज है। इसके मानी ही हैं कि सभी पहलुओं पर अच्छी तरह गौर कर लिया जाए। लेकिन जब उसके साथ 'अशेषेण' भी जुटा है, तब तो कहने का मतलब साफ हो जाता है कि खबरदार, एक बात भी छूटने न पाए। शुरू से यहाँ तक जितनी बातें कही गई हैं सभी को सामने रख के अच्छी तरह उन पर सोचो-विचारो और गौर करो। उसके बाद जिस निश्चय पर पहुँचो उसी के अनुसार काम करो। असल में गीतोपदेश की पूर्वापर बातों को भूल जाने से ही ज्यादा गड़बड़ होती है और लोग कुछ का कुछ निश्चय कर बैठते हैं। दृष्टांत के लिए 'ईश्वर: सर्वभूतानां' को ही ले सकते हैं। जाने कितनों ने इसका सचमुच ही आत्मा से भिन्न ईश्वर अर्थ करके इस आत्मा को उसके चरणों में झुका दिया है, उसका सेवक और गुलाम बना दिया है। हम तो इसे आत्मा का पतन मानते हैं, न कि और कुछ भी। फिर भी ऐसा ही किया गया है; हालाँकि यदि गीता की ही पहले की बातें याद रहें तो यह बात कभी न हो। 'न कर्त्तृत्वं न कर्माणि (5। 14-15) श्लोकों में आत्मा के ही लिए प्रभु और विभु शब्द आए हैं, जो आमतौर से ईश्वर के ही लिए प्रयुक्त होते हैं। बल्कि इसी से बहुतेरे यहाँ भी धोखा खा गए हैं और ईश्वर ही अर्थ कर डाला है; हालाँकि हमने यह भूल वहीं सुझा दी है।

मगर इसे भी जाने दीजिए। क्योंकि यहाँ विवाद की गुंजाइश है। 'भर्त्ता भोक्ता महेश्वर: परमात्मेति चाप्युक्त:' (13। 22) में तो साफ ही जीवात्मा को ही ईश्वर क्या महेश्वर और परमात्मा तक कहा है, परम-पुरुष तक कहा है। कहा ही नहीं है, बल्कि ऐसा ही पहले से कहा जाता है यह बताया है। यहाँ विवाद की जगह हई नहीं। इसके बादवाले 'तिष्ठन्तं परमेश्वरम्' (13। 27) को हम छोड़ ही देते हैं; हालाँकि वहाँ भी परमेश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। मगर 'शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:' (15। 8) में तो साफ ही मरने-जीने के प्रसंग में ईश्वर शब्द जीवात्मा के ही लिए आया है। यहाँ तो संदेह के लिए जरा भी स्थान नहीं है। फिर भी 'ईश्वर: सर्वभूतानां' में अगर ईश्वर का अर्थ आत्मा न करके और कुछ किया जाए तो मानना ही होगा कि पूर्वापर विचार के बिना ही ऐसा होता है। फलत: 'विमृश्यैतदशेषेण' कहना जरूरी था। यही वजह है कि इतना कहने के बाद भी एक बार और यही बातें शब्दांतर में चलते-चलाते याद दिला देते हैं, ताकि धोखे की भी गुंजाइश रहने न पाए और अर्जुन का निश्चय सही और दुरुस्त हो के ही रहे।

इतना कहने पर भी स्वयं कृष्ण को संतोष न हुआ। क्योंकि परिस्थिति नाजुक थी। उनने उपदेश के शुरू में अर्जुन की आश्चर्यजनक मनोवृत्ति को भी खुद अनुभव किया था। वह देख रहे थे कि उसमें कितनी कमजोरी आ गई है। जिस बात के लिए वह सपने में भी तैयार न थे वही देख के वह एक तरह से दहल उठे थे। उन्हें अर्जुन का अनुभव बचपन से ही था। पाँचों भाइयों में उसे सबसे ज्यादा वह मानते भी थे। यही वजह थी कि सबों के बुरा मानने और लाख नाक-भौं सिकोड़ने पर भी अपनी बहन सुभद्रा से अर्जुन की शादी तक उनने करा दी थी। जिसे लँगोटियायारी कहते हैं वही ताल्लुक अर्जुन के साथ उनका था। फलत: उसका रगरेशा वह पहचानते थे, उसे रत्‍ती-रत्‍ती जानते थे। जानें कितने ही भीषण से भीषण संकट के समय पांडवों के सामने आए थे। बचपन में ही पिता के मर जाने से वे एक प्रकार से अनाथ जैसे हो गए थे। क्योंकि धृतराष्ट्र का रुख उनके प्रति आरंभ से ही खराब था और यह बात छिपी न थी। ऐसी दशा में विपदाओं के वज्रों के एके बाद दीगरे गिरने की बात जितनी न थी उतनी उनकी परेशानी, पामाली तथा असीम कष्ट की बात थी। कोई भी उनका पुर्सां हाल था जो नहीं। द्रौपदी की नग्नता के कांड से यह बात और भी साफ हो चुकी थी। भीष्म आदि की जबान तक पर ताला लग चुका था। ऐसे मौकों पर बड़े भाई युधिष्ठिर तक अधीर हो जाया करते थे। मगर अर्जुन ने न तो कभी हिम्मत हारी थी, न बुजदिली दिखाई थी और न आँसू बहाए थे! ऐसा था वह इस्पात और वज्र का बना! कृष्ण को यह बात बखूबी विदित थी। क्योंकि सबों के साथ छोड़ देने पर भी वही तो पांडवों के सदा के सच्चे साथी, पुर्सां हाल थे। फिर जानते क्यों नहीं?

लेकिन वही अर्जुन गीतोपदेश के पहले बच्चों जैसा रो रहा था। उसके हाथ-पाँवों में ही क्या, सारे अंग में जैसे लकवा मार गया था। वह खड़ा रह सका नहीं और, जैसे कोई कटा पेड़ हो, धड़ाम से रथ के बीच में पड़ गया था! गिर गया था! इसमें अनुमान की भी जरूरत न थी। उसने तो खुद ही कहा था कि मेरा मन जैसे चक्कर काट रहा है और मैं खड़ा रह सकता नहीं, 'न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:' (1। 30)। जिसका धनुष सदा साथ रहा, बगल में ही बाणों के साथ पड़ा रहा, वही कह चुका था कि हाथ से मेरा यहा गांडीव - सदा का प्यारा गांडीव - खसका जा रहा है, 'गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्' (1। 30)। ऐसी ही जानें कितनी बातें थीं जो अनहोनी थीं। अर्जुन के मन में जो ग्लानि थी, जो बेचैनी और घबराहट थी, सभी कामों में जो अनास्था हो गई थी, जो भीषण वैराग्य था और इन सबों के चलते जिस दीनता ने उस पर काबू कर लिया था वह तो सचमुच ही 'न भूतो न भविष्यति' का दृश्य था।

गीता की चार बातें अलौकिक थीं - ऐसी बातें जिनका उल्लेख गीता में पाया जाता है। वास्तव में ये बातें न कभी हुई थीं और न आगे हो सकती थीं। इनमें पहली थी अर्जुन की यह दशा जिसका उल्लेख हमने अभी-अभी किया है और जिसका सजीव और नग्न चित्र गीता के पहले अध्याय के बीस (28-47) तथा दूसरे के शुरू के नौ (1-9) श्लोकों में पाया जाता है। जो लोग उसे यों ही पढ़ जाते हैं वह क्या समझ पाएँगे, जब तक अर्जुन की समूची जीवनी अपने आँखों के सामने वैसे ही न रख लें जैसे कृष्ण के सामने थी? यही कारण था कि कृष्ण परिस्थिति की भीषणता को समझ सके थे।

गीता की ऐसी ही दूसरी चीज थी इतना देखने-सुनने के बाद कृष्ण की भावभंगी, उनकी उस समय की दशा, उनका रुख और चेहरा-मोहरा, जिसकी तरफ 'तमुवाच हृषीकेश:' (2।10) श्लोक का 'प्रहसन्निव' इशारा करता है। जो लोग इस समूचे श्लोक को इस पूर्व परिस्थिति को मद्देनजर रख के गौर से पढ़ें और उस पर दिमाग लगाएँ उन्हें उसके शब्दों में कृष्ण की इस अनोखी भावभंगी की झाँकी मिल सकती है। इस पूरे श्लोक में बहुत खूबी है और इसके हरेक पद कुछ न कुछ अर्थ व्यक्त करते हैं, जो निरे शब्दार्थ से निराली चीज है और जिसे ही काव्य की जान कहते हैं। इसे पूर्णरूपेण समझने में जो दिक्कत है उसे हल करने के लिए गीता के अंतिम श्लोक से पहले का 'तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:' (18। 77) श्लोक इसी के साथ पढ़ लेना चाहिए। गीतोपदेश के आरंभ करने के ठीक पहले का वह और अंत का यह - इन दोनों को - मिला के देखें कि सचमुच वह रूप अलौकिक था या नहीं, नायाब था या नहीं। संजय ने उसे 'अत्यद्भुतम्' कह दिया है। एक तो अद्भुत चीज ही निराली है। मगर उसे इतने से ही संतोष न हुआ और उसके साथ 'अति' भी जोड़ दिया। हम उस श्लोक के अर्थ के ही समय विशेष बातें लिखेंगे। यहाँ तो केवल दोनों को एक साथ पढ़ के कृष्ण की अलौकिक भावभंगी का चित्र दिमाग में बैठाने की ही बात कहनी है। वह ऐसी थी कि संजय का मन मानता न था। फलत: बार-बार उसे भीतरी आँखों के सामने ला खड़ा करता था। यह भी 'संस्मृत्य संस्मृत्य' शब्दों ने साफ ही कह दिया है। केवल साधारण स्मृति न थी। किंतु अलौकिक वस्तु की अलौकिक स्मृति थी, अनोखी याद थी। इसीलिए तो 'सम्' लगा के 'संस्मृत्य' कहना पड़ा। उसके साक्षात देखने पर क्या दशा हुई होगी, जब कि याद करने मात्र से ही बार-बार रोएँ खड़े हो जाते थे, हर्षातिरेक बह चलता था, 'हृष्यामि च पुन:-पुन:।' इसीलिए संजय को भी मामूली नहीं, किंतु महान विस्मय, पीछे तक बना हुआ था - 'विस्मयो मे महान'! जैसी अलौकिक वस्तु देखी थी और बार-बार याद की थी उसी हिसाब से ही तो आश्चर्यचकित होना भी था।

गीता की तीसरी चीज थी भगवान की विराट मूर्ति या विश्वरूप। वह भी वाकई में 'न भूतो न भविष्यति' ही था। इसमें भी स्वयं गीता के ही वचन प्रमाण हैं। वह रूप दिखा चुकने के बाद खुद कृष्ण ने दो बार कहा है कि 'तुमसे पहले यह रूप किसी ने देखा ही नहीं, किसी ने देख पाया ही नहीं' - 'यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्' (11। 47), और 'तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई भी, सभी प्रकार के यज्ञ, दानादि के द्वारा यत्न करके भी, इसे आगे देख न सकेगा' - 'एवं रूप: शक्य अहं नृलोके द्रुष्टुं त्वदन्येन कुरु प्रवीर' (11। 48)। इससे बढ़ के 'न भूतो न भविष्यति' की सफाई और क्या हो सकती है?

गीता की चौथी अलौकिक चीज है गीता धर्म या गीता के उपदेश। इसके बारे में हम काफी लिख चुके हैं। हमें विश्वास है कि यह बात निर्विवाद सिद्ध की जा चुकी है। इसीलिए अब यहाँ कुछ भी लिखने का प्रश्न हई नहीं।

हाँ, तो ऐसी नाजुक हालत में कृष्ण को भारी अंदेशा था कि कहीं इतने पर भी अर्जुन की वही हालत न हो और वह विचलित का विचलित ही न रह जाए। यही कारण है कि आगे की अंतिम बात के कहने पर भी उन्हें विश्वास नहीं हो पाया था। फलत: उनने अर्जुन से पूछ ही तो दिया कि 'अर्जुन, तुमने हमारी बातें ध्‍यान से सुनी तो हैं? और अगर हाँ, तो इससे तुम्हारी वह अज्ञानमूलक भूलभुलैयाँ मिटी क्या'? 'कच्चिदेतच्छृ तं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रणष्टस्ते धनंजय' (18। 72)। जब अर्जुन ने इसका स्पष्ट उत्तर दे दिया कि, 'भगवन, आपकी कृपा से अब मेरा वह मोह भाग गया, सभी बात की ठीक-ठीक स्मृति हो आई, मेरे सभी शक काफूर हो गए और आपकी बातें मानूँगा' - 'नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव' (18। 73), तब कहीं जा के उन्हें संतोष हुआ।

वही वजह है कि कृष्ण एक बार और भी उसे उपदेशों का निचोड़ कह देने को तैयार हो गए। ऐसी परिस्थिति न रहने पर भी प्रियजनों के संबंध में ऐसा होता ही है कि एक ही बात बार-बार कहते जाते हैं, खासकर ऐसे मौके पर जब उन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण काम करना या कहीं दूर देश जाना हो। यह अधिक प्रेम की पहचान है। यह बात इष्टोसि मे दृढमिति' शब्दों से साफ हो भी गई है। इसलिए लोग पुनरावृत्ति देख के ऊब न उठें।

एक बात और भी है। संन्यास के संबंध में अर्जुन के प्रश्न का पूरा उत्तर अभी तक दिया गया भी नहीं है। बेशक, यह कहा गया है जरूर कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग से पूर्ण नैष्कर्म्य हो जाता है, जिसकी अनिवार्य आवश्यकता समाधि या पूर्ण ज्ञाननिष्ठा के लिए जरूरी है। उसके बाद उस पूर्ण ज्ञाननिष्ठा का निरूपण भी किया है। मगर यह तो कहीं नहीं कहा है कि कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बिना काम चली नहीं सकता। अर्थत: यह बात सिद्ध जरूर हो गई है, हो जाती है। फिर भी साफ शब्दों में कहे बिना काम चलता नहीं। लोग खींचतान शुरू जो करेंगे और जोई मानी चाहेंगे शब्दों को पिन्हा जो देंगे। इसीलिए साफ-साफ कह देना जरूरी था कि बिना स्वरूपत: कर्मों का संन्यास या त्याग किए आत्मनिष्ठा होई नहीं सकती। अंत में ही इस बात का आ जाना भी सबसे अच्छा था। इसीलिए आगे के तीन श्लोकों में से पहले में तो पुनरपि यह बात कहने का कारण लिखा गया है, दूसरे में आत्मनिष्ठा का पूरा स्वरूप खड़ा कर दिया है और तीसरे में साफ कह दिया है कि बेफिक्र हो के सभी कर्मों के फंदों को तोड़ डालो। तभी एकमेवाद्वितीय आत्मतत्त्व में पूर्णतया लग सकते हो और तभी सारे झमेले खत्म हो सकते हैं।

सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥ 64

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥ 65

सर्वध र्मांप रित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ 66

सबों से अधिक गोपनीय मेरी यह आखिरी बात फिर सुन लो। तुम मेरे अत्यंत प्यारे हो, इसी से तुम्हारे हित की बात कहे देता हूँ। मुझ आत्मा में ही मन लगाओ, मेरा ही भजन करो, मेरा ही यजन करो। (और) मुझी को नमस्कार करो। (परिणामस्वरूप) मुझी को पा जाओगे। यकीन रखो, मेरे प्रिय हो, तुमसे सच कहता हूँ। सभी धर्मों को छोड़ के एक मेरी ही शरण जाओ। मैं (आत्मा) तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा, अफसोस मत करो। 64। 65। 66।

यहाँ भी 'वक्ष्यामि' का कहूँगा यह अर्थ न हो के अभी-अभी कहे देता हूँ यही अर्थ है। इसका कारण पहले ही बताया जा चुका है। दूसरे श्लोक में 'माम्' 'मत्' आदि शब्द 'अहं' के ही रूप हैं और 'अहं' का अर्थ आत्मा ही है यह सभी जानते हैं। इस पर बहुत कुछ कहा जा भी चुका है। 'सत्यं प्रतिजाने' का अर्थ है विश्वास करो, सच कहता हूँ। यहाँ 'प्रतिजाने' का सीधे 'प्रतिज्ञा करता हूँ' यह अर्थ कुछ बैठता-सा नहीं है। 'सर्वधर्मान्' श्लोक की तो लंबी-चौड़ी व्याख्या पहले ही की गई है। वहाँ जाने कितनी ही शंकाओं का उत्तर दिया जा चुका है। इसलिए वे बातें यहाँ फिर लिखना बेकार है। मगर दो-एक अन्य बातें लिख देना जरूरी है।

जो लोग 'सर्वधर्मान् परित्यज्य' का यह अर्थ करते हैं कि धर्मों के फलों का त्याग करके शरण में आओ उन्हें यह खयाल करना भी तो चाहिए कि जब धर्मों को करते ही रहेंगे तो फिर पाप का प्रश्न उठेगा ही कैसे? पाप की बात तो तभी आती है जब नित्य, नैमित्तिक कर्मों को ही छोड़ दिया जाए। यही धर्मशास्‍त्रों का निश्चित मत है। लेकिन यदि पाप की बात न होती तो उत्तरार्ध में यह क्यों कहते कि तुम्हें सभी पापों से छुटकारा दिला दूँगा? जिस तरह 'धर्मान्' यह बहुवचन लिखा है, ठीक वैसे ही 'पापेभ्य:' यह भी बहुवचन ही आया है, यह भी बात है। इससे दोनों का संबंध बखूबी जुट जाता है और आशय सिद्ध होता है कि धर्मों के छोड़ने से ही जो पापों का खतरा पैदा हो गया था उसी से छुटकारा दिलाने की बात यहाँ कही गई है।

इस पर ऐसा कहने का यत्न हो सकता है कि 'पापेभ्य:' का अर्थ है जन्म-मरण के सभी बंधनों से छुटकारा दिलाना ही। इसीलिए तो 'मोक्षयिष्यामि' क्रिया में मोक्ष की बात लिखी गई है। परंतु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि 'मोक्षयिष्यामि' कह देने से ही उसका अर्थ ही यह होता है कि सभी बंधनों से छुट्टी हो जाएगी। मोक्ष शब्द का अन्य अर्थ हई नहीं। फिर 'पापेभ्य:' शब्द से बंधन अर्थ लेना महज बेकार और निरर्थक है। इसके पहले इसी मोक्ष की बात 'परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्' (18। 62) तथा 'मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्' (18। 56) आदि के द्वारा कह के भी वहाँ पाप या बंधन से छुटकारे की बात नहीं लिखी है, हालाँकि मोक्ष शब्द न रहने से वहाँ ऐसा लिखने का मौका था भी। मगर यहाँ तो वह भी नहीं है। फिर 'पापेभ्य:' की क्या जरूरत थी? इससे तो मानना ही पड़ेगा कि अर्जुन को जो डर था कि कहीं नित्य-नैमित्तिक कर्मों के छोड़ देने से पाप न चढ़ बैठे, उसी के लिए उसे आश्वासन दिया गया है कि बेफिक्र रहो, ऐसा कुछ न होगा। 'मोचयिष्यामि' की जगह 'मोक्षयिष्यामि' कहने का साफ आशय यही है कि जैसे प्रायश्चित्तादि के द्वारा पापों से छुटकारा होता है वैसी बात यहाँ न हो के मुक्ति ही मिल जाएगी और सदा के लिए पाप से पिंड ही छूट जाएगा।

इस श्लोक में जो 'परित्यज्य' शब्द है उससे स्पष्ट हो जाता है कि अद्वैत आत्मा की शरण जाने के पहले सभी धर्मों को सोलहों आना छोड़ना ही होगा। उसके बिना काम चलने का नहीं। इसका अभिप्राय यही है कि इससे पूर्व के श्लोक में जो आत्मतत्त्व में ही मन को रमाना लिखा है और जिसे ही उसकी शरण जाना भी कहते हैं, उसके पहले ही सभी धर्मों को छोड़ना ही होगा। पहले उन्हें छोड़ लो, पीछे शरण जाने की बात सोचो, यही उसका निचोड़ है। पूर्वकालिक क्रिया का दूसरा मतलब नहीं है। जैसे कहा जाए कि सुनते ही विषाद में डूब गया 'श्रुत्वैव विषण्णो जात:', तो यहाँ जो पूर्वकालिक क्रिया 'श्रुत्वा' है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विषाद का कारण अप्रिय समाचार सुनना ही है। वैसे ही यहाँ भी शरण जाने का कारण सभी धर्मों का परित्याग है। त्याग न कह के परित्याग कहने का भी यही अभिप्राय है कि बखूबी त्याग करना होगा, न कि आधा-साझा करके 'आधा तीतर आधा बटेर' करना होगा। इसमें गुजर है नहीं। हाँ, एक बात और। कर्मों के स्वरूपत: त्याग के बाद जब ज्ञान निष्ठापूर्ण हो जाए तो उसके बाद क्या हो इस बारे में यहाँ कुछ नहीं कहा है। फलत: पूर्ववत दोनों बातें हो सकती हैं। जब वृत्ति ऊपर चढ़ जाए तो सब छूट जाएँ, न चढ़े तो लोकसंग्रह चालू हो। यही बात 'सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्व्वाण:' (18। 56) में कही गई है। क्योंकि वहाँ जो 'अपि' शब्द है उससे यही अर्थ निकलता है कि सभी कर्म करते हुए भी शाश्वत पद पा जाता है। यह 'भी' साफ ही बताता है कि कर्मों के न करने वाले भी होते हैं और उन्हे बेखटके शाश्वत पद प्राप्त होता ही है मगर कर्म करने वाले भी उसे प्राप्त करते ही हैं। यह बात बहुत साफ है।

बस, गीतोपदेश पूरा हो गया और जहाँ तक गीताधर्म के बताने का ताल्लुक है कुछ भी कहना शेष रहा नहीं। हाँ, एक बात रह गई जरूर। अर्जुन ने ही यह सुना है और स्वभावत: लोग कौतूहल से समय पा के उससे पूछेंगे ही कि कृष्ण ने आपसे क्या-क्या कहा, क्या-क्या उपदेश आपको दिया? और हो सकता है कि वह सबों से 'कुल धान साढ़े बाईस पंसेरी' के हिसाब से ये गोपनीय बातें कहने लग जाए। तब तो अनर्थ ही होगा। एक तो इनकी कीमत सब लोग कर सकते नहीं। हीरा-जवाहरात के जानकार और ग्राहक तो सभी होते नहीं। कहते हैं कि किसी नादान को कहीं हीरे के बड़े पत्थर की ठोकर लगी तो उसने उसे उठा के दूर गलीज में फेंक दिया, ताकि फिर ऐसी ठोकरें किसी को न लगें! यही बात गीताधर्म की भी हो जाएगी। दूसरे, जानकार लोग भी हिचक जाएँगे कि हो न हो यह कोई ऐसी ही वैसी चीज है। तभी तो अर्जुन सबों से कहता फिरता है। फलत: यह गीताधर्म पनप सकेगा ही नहीं। इसीलिए आगे के पाँच (67-71) श्लोकों में इसी बात की चेतावनी देते हैं कि कैसे लोगों से ये बातें कही जाएँ और कही जाएँ या नहीं। क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि खुद जानने के बाद इसकी चर्चा ही न की जाए और न इसकी जरूरत ही महसूस की जाए। मगर कृष्ण को तो फिक्र थी कि समाजहित के लिए इसका प्रचार निहायत जरूरी है। उन्हें केवल अर्जुन की ही फिक्र न थी। इसीलिए उपदेश करने वाले की भरपूर प्रशंसा भी कर दी है और उसका सुंदर फल सुना दिया है। निरंतर पढ़ते-पढ़ाते और सुनते-सुनाते ही इसे हृदयंगम किया जा सकता है, इसका प्रसार हो सकता है, इसीलिए उस पर भी जोर दिया गया है।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ 67

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥ 68

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥ 69

ध्ये ष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥ 70

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर:।

सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम॥ 71

यह (उपदेश) तुझे तपशून्य लोगों से कभी नहीं कहना होगा, जो न तो भक्त हों, न श्रद्धापूर्वक सुनने के लिए लालायित हों, (प्रत्युत) हमारी निंदा करते हों। (विपरीत इसके) जो कोई ये बातें मेरे भक्तों को सुनाएगा वह मुझमें (ज्ञानरूप) पराभक्ति करके निस्संदेह मुझे ही पाएगा। (इतना ही नहीं।) मनुष्यों में उससे बढ़ के मेरा प्रिय करने वाला और भूमंडल में उससे बढ़कर मेरा प्रिय कोई होगा भी नहीं। साथ ही, जो कोई हम दोनों के इस धर्मयुक्त संवाद को पढ़ेगा वह ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा ही करेगा, ऐसा मैं मानता हूँ। जो मनुष्य श्रद्धायुक्त हो तथा निंदा की भावना छोड़ के इसे (केवल) सुनेगा भी वह भी मरने पर पुण्यकर्मा लोगों के शुभ लोकों या समाजों में जा पहुँचेगा। 67। 68। 69। 70। 71।

यहाँ 'अतपस्क' से मतलब है जिसमें पूर्वोक्त कायिक, वाचिक, मानसिक तपों में कुछ भी पाएँ न जाएँ। वे तीनों प्रकार के तप ऐसे हैं कि उनसे ज्ञान की योग्यता होती है और मनुष्य गीताधर्म समझने के योग्य बन जाता है। इसीलिए उनकी आवश्यकता है। यही कारण है कि जिनमें वे या कम से कम उनमें के मुख्य तप न पाए जाएँ उसे गीताधर्म सुनाना 'भैंस के आगे बीन बजाए, सो बैठी पगुराये' को ही चरितार्थ करना होगा। इन श्लोकों में 'मां' या 'मद्' शब्द भगवान के वाचक न हो के आत्मा-परमात्मा के ही वाचक हैं, यह भूलने की बात नहीं है। भक्ति का अर्थ पहले श्लोक में अपराभक्ति या पूर्वोक्त चार भक्तियों में से जिज्ञासुवाली भक्ति ही है। इसीलिए चौथी या ज्ञानरूपा भक्ति आगे कही गई है। दूसरे श्लोक में भी 'भक्तेषु' का अर्थ जिज्ञासु ही है। जिज्ञासु को ये बातें सुनाना ही ज्ञान का अभ्यास और मनन हो जाता है। फलत: ज्ञान की पूर्णता में जो कमी रहती है वह पूरी हो जाती है। किंतु जिसका ज्ञान पूर्ण हो उसके संबंध में जब यह श्लोक लागू होगा तो 'भक्तिं मयि परां कृत्वा' पहले ही आएगा और अर्थ यह होगा कि जो मुझमें पराभक्ति करके मेरे भक्तों को यह सुनाएगा उसे भी मुक्ति होगी ही। यह सुनाना उसमें बाधक न होगा। यह कथन गीताधर्म के संप्रदाय के प्रचलित करने के ही खयाल से है।

इसके बाद के दो श्लोक गीता की प्रशंसा के लिए हैं। लोग इसमें प्रवृत्ति करें इसीलिए कह दिया है कि पठन-पाठन भी ज्ञानयज्ञ है, जिससे भगवान या आत्मा की पूजा ही होती है। फलत: धीरे-धीरे मनुष्य प्रगति की ओर चलते हुए पूर्ण ज्ञानी बनता है। जो पढ़ भी न सके उसे दूसरे पढ़ने वालों के मुख से सुनना ही चाहिए। अगर श्रद्धापूर्वक भक्ति से कोई सुने, तो आगे चल के उसका भी कल्याण हो के ही रहेगा। यहाँ अंतिम श्लोक में 'मुक्त:' शब्द का मुक्ति या मोक्ष अर्थ न होके प्रयाण, मरण या शरीर का त्याग ही अर्थ है। क्योंकि मुक्ति होने पर पुण्यकर्मियों के शुभ लोक में जाने का सवाल उठता ही नहीं। वह तो निर्वाणमुक्त हो जाता है। उसका आना-जाना कहीं होता नहीं। यह भी तो प्रश्न है कि केवल सुनने वाला मुक्त होगा भी कैसे? यह तो सबसे नीचे दर्जे का है न? लोक का अर्थ वह प्रगतिशील समाज ही है जहाँ ज्ञानचर्चा की अनुकूलता हो। स्वर्गादि लोकों की बात यहाँ उठाना गीताधर्म के अनुकूल नहीं है। गीता तो ज्ञानमार्ग की चीज है न? फिर भी यदि कोई लोक शब्द से स्वर्गादि भी समझ ले तो हमें उससे इनकार नहीं है। मगर केवल उसे ही न समझ प्रगतिशील समाज को भी लोक के अर्थ में लेना ही होगा।

इस तरह कृष्ण को जो कुछ कहना था कह दिया। गीताधर्म के उपदेश के बाद भविष्य में उसके प्रचार की व्यवस्था भी कर दी। इसे ही संप्रदाय कहते हैं और परंपरा भी, जैसी कि चौथे अध्‍याय के शुरू में ही विवस्वान, मनु आदि की परंपरा कही गई है। फिर भी वह परंपरा या संप्रदाय आज की तरह पेशा और दुकानदारी न बन जाए, इसीलिए पहले ही श्लोक में कह दिया है कि किन लोगों से ये बातें कहीं जाएँ। बाद के श्लोकों में तो कौन कहे, कौन न कहे आदि बंधन भी लगा दिए गए हैं।

अंत में जैसा, कि पहले ही कह चुके हैं, कृष्ण ने यह मुनासिब समझा कि जरा पूछ तो देखें कि इन बातों का अर्जुन पर क्या असर हुआ है। क्योंकि इससे भविष्य के बारे में भी उन्हें निश्चिंत हो जाने की बात थी। कम से कम यह तो समझ जाते जरूर ही कि हम एवं अर्जुन भी कितने गहरे पानी में हैं। इसीलिए उनने पूछा, और यह जान के उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा कि अर्जुन ने न सिर्फ गौर से उनके उपदेशों को सुना, बल्कि समझा भी पूरी तरह से और तैयार भी वह हो गया तदनुकूल ही। यही प्रश्न और उत्तर आगे के दो श्लोकों में क्रमश: आए हैं।

कच्चिदेतच्छ्रतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।

कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनंजय॥ 72

हे पार्थ, भला कहो तो कि आया तुमने यह उपदेश एकाग्र चित्त से सुना है (और अगर हाँ, तो) आया तुम्हारा (वह) अज्ञान से उत्पन्न हृदय का अंधकार मिटा है? 72।

कच्चित् शब्द वहीं बोला जाता है जहाँ उत्तर के बारे में संदेह हो और पूछनेवालों का मन खुद आगा-पीछा करता हो कि देखें क्या होता है। यहाँ 'अज्ञानसम्मोह:' में सम्मोह वही है जिसका वर्णन 'क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:' (2। 63) में आया है। वहाँ सम्मोह का परिणाम लिखा है स्मृति-विभ्रम या स्मृति का गायब हो जाना। अर्जुन ने इसी स्मृति-विभ्रम के फेर में ही तो न लड़ने का निश्चय कर लिया था। हम इसका अर्थ वहीं अच्छी तरह बता चुके हैं। कृष्ण का खयाल था कि यदि अर्जुन ने ठीक-ठीक सुना और समझा होगा तो फौरन वह यही उत्तर देगा कि हमें स्मृति मिल गई। सम्मोह कहने में कृष्ण का दूसरा मतलब था। साधारणत: दिल-दिमाग की सफाई की बात तो थी ही। मगर ऐसा भी तो हो सकता था कि अर्जुन उन्हें खुश करने के ही लिए कह देता कि हाँ, हमने सब कुछ समझ लिया। तब क्या होता? तब तो सब कुछ बेकार हो जाता। किंतु इसकी पहचान कैसे हो कि उसने आया सचमुच ही समझा है और मान लिया है, या केवल शिष्टाचार की बातें करता है? इसीलिए सम्मोह पद दिया। क्योंकि इसका संबंध स्मृति-विभ्रम से है। फलत: अगर अर्जुन ने ध्‍यान दे के सुना और समझा है तो जरूर ही कह देगा कि स्मृति प्राप्त हो गई। लेकिन यदि ऐसा न होगा तो कुछ और ही बोलेगा। और कृष्ण की प्रसन्नता का क्या ठिकाना रहा होगा जब उनने सुना कि अर्जुन ठीक वही 'स्मृतिर्लब्धा' ही बोल उठा? बस, उनने जान लिया कि अर्जुन ने यह उत्तर शिष्टाचार से न दे के सचमुच ही हृदय से दिया है और उसे हमने जो भी उपदेश दिया है उसका उस पर पूरा असर हुआ है। 'ध्यायतो विषयांपुंस:' तो आखिर उसी उपदेश का अमली और व्यावहारिक रूप ही था न?

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव॥ 73

(इस पर चट) अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे अच्युत, आपकी कृपा से (मेरा) मोह भाग गया, (वह) स्मृति (पुनरपि) जग उठी और मैं संदेह-रहित - स्थितप्रज्ञ हो गया हूँ। (इसलिए) आपकी बात मानूँगा। 73।

इसमें 'स्मृतिर्लब्धा' की ही तरह 'स्थित:' शब्द भी मार्के का है। क्योंकि द्वितीय अध्‍याय में स्मृति और सम्मोह की बातें स्थितप्रज्ञ के ही प्रसंग में आई हैं। इसलिए स्वाभाविक ही है कि सम्मोह हटने पर स्मृति फिर जग उठे और मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाए। फलत: अर्जुन ने जो उत्तर दिया उसमें स्थितप्रज्ञ का निर्देश भी जरूरी था और उसी के मानी में ही 'स्थितोऽस्मि' आया है। इसमें और स्थितप्रज्ञ कहने में जरा भी अर्थभेद या अंतर नहीं है। हमने यही अर्थ लिखा भी है। स्थितप्रज्ञ की पहचान पहले ही बताई गई है। उसकी सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि अपने लिए उसे कुछ करना रही नहीं जाता। फलत: जो कुछ भी वह करता है लोकसंग्रह की ही दृष्टि से। इसलिए अर्जुन ने यह कहने की अपेक्षा कि 'करिष्ये धर्ममात्मन:' - 'अपना धर्म करूँगा', यही कहना उचित समझा कि 'आपकी बातें मानूँगा' - 'आप जैसा कहते हैं वही करूँगा' - 'करिष्ये वचनं तव'। इससे कृष्ण को और भी पूरा यकीन हो गया कि अर्जुन ने अच्छी तरह हमारा उपदेश सुना है, समझा है और काम भी तदनुसार ही करेगा।

इस तरह कृष्ण और अर्जुन के संवाद को संजय ने धृतराष्ट्र से ज्यों का त्यों सुना दिया। यहाँ लोगों को यह खयाल हो सकता है कि उसने मनगढ़ंत बातें ही कही होंगी। क्योंकि भीषण संग्राम की स्थली से बहुत ज्यादा दूर बैठे-बैठे सारी बातें आखिर उसे मालूम कैसे हुईं? वहाँ तो कोई टेलीफोन या तार भी न था और न बेतार का तार ही। और अगर होता भी तो इससे क्या? संजय के साथ उसके जरिए कृष्ण और अर्जुन तो बातें करते जाते न थे और न माइक्रोफोन पर बैठके ही बातें करते थे कि संजय भी सुन लेता। और अगर संजय सुनता तो धृतराष्ट्र भी जरूर सुनता। फिर इस प्रश्नोत्तर की जरूरत दोनों के बीच क्यों होती कि कुरुक्षेत्र में क्या हुआ, क्या नहीं? लोगों के अलावे खुद धृतराष्ट्र को ही शक हो सकता था कि संजय बातें तो नहीं बना रहा है? यह ठीक है कि व्यास जी ने उससे कह दिया था कि संजय सारी बातें बैठे-बिठाए जान जाएगा। क्योंकि इसे मैं दिव्य दृष्टि (Television) दिए देता हूँ। इसीलिए दिन-रात में जब कभी धीरे या जोर से बातें होंगी या और भी जो काम होंगे, यहाँ तक कि लोगों के मन में भी जो कुछ बातें आएँगी सभी इसकी आँखों के सामने नाचने लगेंगी। फलत: अथ से इति तक युद्ध का सारा वृत्तांत तुम्हें ज्यों का त्यों सुना देगा, - 'एष ते संजयो राजन् युद्धमेतद्वदिष्यति। एतस्य सर्वसंग्रामे न परोक्षं भविष्यति॥ चक्षुषा संजयो राजंदिव्येनैव समंवित:। कथयिष्यति युद्धं च सर्वज्ञश्च भविष्यति॥ प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा दिवा वा यदिवा निशि। मनसाचिंतित मपि सर्वं वेत्स्यति संजय:॥' (महा. भीष्म. 6। 9-11)। लेकिन धृतराष्ट्र की बुद्धि तो उस समय मारी गई थी। वह ठिकाने न थी। वही बुरी तरह परेशान भी था। व्यास जी से भी उसने साफ ही यह बात स्वीकार की थी। इसलिए उसके मन में ऐसा खयाल होना असंभव न था। कुटिल तो था ही। और उसे चाहे भले ही शक हो, या न हो, किंतु लोगों को तो हो सकता था ही। क्योंकि व्यास का यह प्रबंध सब लोग तो जानते न थे। गीता में कहीं पहले यह बात आई भी नहीं है। महाभारत में लिखी होने पर भी गीता तो स्वतंत्र-सी चीज है न? फलत: केवल गीतापाठी को भी ऐसा खयाल न हो इसीलिए आगे के चार श्लोकों में से पहले दो में संजय ने खुद यही बात कही है कि व्यास जी की कृपा से ही मैंने यह सब कुछ सुना है। शेष दो में इस गीतोपदेश की अलौकिकता तथा कृष्ण की उस समय की अलौकिक भावभंगी का निरूपण किया है।

संजय उवाच

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन:।

संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्॥ 74

व्यासप्रसादाच्छ्रतवाने तद्गुह्यमहं परम।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्॥ 75

संजय ने कहा (कि) इस तरह वासुदेव कृष्ण और महात्मा अर्जुन का यह अद्भुत (एवं) रोमांचकारी संवाद मैंने (खुद-ब-खुद) सुना था। व्यास की कृपा से यह अत्यंत गोपनीय योग मैंने स्वयं योगेश्वर कृष्ण से साक्षात कहते हुए ही सुना था। 74। 75।

पार्थ का जो विशेषण महात्मा दिया गया है उससे भी सिद्ध हो जाता है कि अर्जुन ने आत्मतत्त्व और तन्मूलक कर्म-अकर्म का पूर्ण रहस्य अच्छी तरह हृदयंगम कर लिया था।

संजय ने यह बात धृतराष्ट्र से तब कही थी जब भीष्म आहत हो चुके थे, न कि कृष्ण के उपदेश के ही समय। इसीलिए भूतकाल के सूचक 'अश्रौषम्' तथा 'श्रुतवान्' पद आए हैं।

यह संवाद निराला है यह भी कह दिया है। ठीक ही निराला था।

रोमहर्षण का मतलब है आनंद के मारे ही रोंगटे खड़े कर देने वाला, न कि भय से। क्योंकि भय का कोई अवसर था नहीं।

गीताधर्म को भी योग कहा है। यों तो गीता के सारे विषय ही योग कहे गए हैं। इसीलिए कृष्ण योगेश्वर हैं। उनसे बढ़ के इस योग को और कौन जानता था?

सचमुच ऐसे योगेश्वर के मुख से ही सुनने में कितना आनंद आया होगा, जब कि पीछे पढ़ने में इतना ज्यादा मन आकर्षित होता और मजा मिलता है। इसीलिए तो संजय की उस समय भी अजीब हालत थी। सुनना तो पहले ही हो चुका था उस समय तो उसी की स्मृति मात्र थी। फिर भी रह रह के वह गद्गद हो जाता है, यह खुद स्वीकार करता हुआ कहता है कि -

राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।

केशवार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:॥ 76

हे राजन, केशव तथा अर्जुन के इस महान संवाद को (इस समय भी) बार-बार याद करके रह-रह के गद्गद हो जाता हूँ। 76।

यह संवाद ऐसा निराला है कि हमेशा ताजा ही मालूम पड़ता है। इसीलिए कुछ समय बीतने पर भी जब संजय उसे केवल याद कर पाता है, तो भी वह जैसे आँखों के सामने नाचता रहता है और ओझल नहीं होता। यही कारण है कि उसे 'तम्' न कह के 'इयम्' कहता है। 'तं' कहने से परोक्ष या ओझल जान पड़ता न? मगर सो तो है नहीं। यह ठीक है कि उसका वर्णन तो अभी-अभी हुआ है। इसीलिए पहले भी 'तत्' की जगह 'एतत्' ही आया है। मगर यह बात इनकार नहीं की जा सकती कि वह दिमाग में नाचता जरूर था। नहीं तो साधारण चीज होने पर कभी 'तम्' भी जरूर कह देते। सारा वर्णन ही यही सूचित करता है। इतने पर भी वह संवाद अलौकिक होता ही नहीं यदि अर्जुन की उस समय की अलौकिक मनोवृत्ति के साथ ही गीता धर्म के उपदेशक एवं प्रथमाचार्य कृष्ण की भावभंगी भी दिव्य और अलौकिक न होती। दरअसल सारी खूबी और सारा मजा तो उपदेशक को भावभंगी और प्रतिपादन शैली में ही होता है। इसलिए संजय स्वयमेव कृष्ण की उस निराली, भावभंगी की ओर इशारा करता हुआ कहता है कि -

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:।

विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुन: पुन:॥ 77

हे राजन, हरि का - कृष्ण का - वह अत्यंत अद्भुत रूप याद कर-करके मुझे महान विस्मय हो रहा है और बार-बार गद्गद हो जाता हूँ। 77।

इस श्लोक के संबंध में बहुत-सी बातें थोड़ी देर पहले कही जा चुकी हैं। फिर भी कितनी ही कहने को शेष हैं। बहुतों की यह धारणा है कि संजय यहाँ
भगवान के उस विश्वरूप के ही बारे में कह रहा है जिसका वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया है। प्राय: सभी भाष्यकारों और टीकाकारों ने यही अर्थ किया है। दर हकीकत मेरी नजर के सामने एक भी टीका अब तक ऐसी नहीं गुजरी हैं, जिसमें वैसा अर्थ न किया गया हो। हरि के रूप के अति, अद्भुत आदि विशेषणों से ही और भी आसानी से इस अर्थ की ओर लोग झुक पड़े हैं। मगर हमने तो पहले लिखा है कि यह बात नहीं है। इसका कारण भी काफी दिया है। इतना ही नहीं, हमने तो यह भी चित्रित करने का यत्न किया है कि जिस रूप का यहाँ उल्लेख है वह वस्तुत: किस तरह का था। रथ पर अर्जुन और कृष्ण दोनों ही खड़े थे। युद्ध में ऐसा ही होता था। कृष्ण घोड़ों की बाग पकड़े खड़े थे। मगर जब अर्जुन ने अपना रोना-गाना एकाएक शुरू कर दिया तो जो कृष्ण घोड़ों की ओर मुँह किए खड़े थे वह अचानक यह सुनते ही पीछे मुड़ पड़े और अर्जुन की बातें गौर से सुनने लगे। जैसे-जैसे बातें सुनते जाते थे उनका चेहरा-मुहरा बदलता जाता था। ऐसा होते-होते 'अशोच्यानंवशोचस्त्वं' (2। 11) शुरू करने के पहले तक उनकी जो अलौकिक भावभंगी हो चुकी थी हमने उसी का चित्र खींचने का यत्न किया है और उसी से यहाँ आशय है। भला विश्वरूप दर्शन से और गीतोपदेश से क्या ताल्लुक? वह तो गीतोपदेश के बीच की हजार बातों में केवल एक है। मगर यहाँ तो स्पष्ट ही गीता के समूचे संवाद का और योग का उल्लेख है। योग भी वह जिसे कृष्ण ने कहा था, जिसे वह कह रहे थे। क्योंकि साफ ही 'कथयत:' लिखा है। न कि जिसे दिखाया था। यह मार्के की बात है।

एक बात और भी है। विश्वरूप के बारे में ग्यारहवें अध्‍याय में स्पष्ट ही कहा है कि अर्जुन के अलावे पहले किसी ने भी उसे नहीं देखा था और न आगे कोई देख ही सकता है। यह बात हमने ग्यारहवें अध्‍याय के उन श्लोकों को उद्धृत करके थोड़ी ही देर पहले सिद्ध की है। किंतु यह बात झूठी हो जाती है यदि संजय उस विश्वरूप को याद करता है। क्योंकि स्मृति के पहले तो देखना जरूरी है न? बिना देखे स्मृति कैसी? अर्जुन या कृष्ण के मुख से जो कुछ वर्णन ग्यारहवें अध्‍याय में आया था केवल उसे वहाँ कह देना और बात हैं। वह जैसे का तैसा सुन के ही हो सकता था। मगर उसमें वह मजा स्वयं संजय को नहीं मिल सकता था जो देखने में मिलता। देखे हुए ही का प्रबलतम संस्कार होता है वही जग के उसे ला खड़ा करता है आँखों के सामने। सुने हुए के बारे में यह बात नहीं होती, नहीं हो
सकती। संजय को दिव्यदृष्टि मिलने पर भी ग्यारहवें अध्‍याय वाले कृष्ण के वचनों से ही सिद्ध है कि वह विश्वरूप न तो पहले किसी ने देखा था और न आगे कोई देख सकेगा। तब संजय उसे देख सकता था कैसे? यह बात मानी कैसे जा सकती है? लेकिन इस श्लोक के पदों को पढ़ के कोई भी कह सकता है कि आँखों देखे स्वरूप का ही उल्लेख संजय करता है। फलत: उपदेश के आरंभ वाले रूप से ही यहाँ तात्पर्य है।

इसके संबंध में इसी श्लोक में एक और भी प्रमाण मिल जाता है। हमने तो पहले ही कहा है कि विलक्षण और अलौकिक होने के नाते ही उस संवाद को आँखों के सामने बराबर नाचने वाला मान के उसे बार-बार 'एतत्' 'इमम्' कहा है। लेकिन कृष्ण का विश्वरूप तो और भी ज्यादा आँखों के सामने नाचने वाला था। फिर भी उसे इसी श्लोक में 'तच्च' कह दिया है। 'तत् च' में उसे 'तत्' या दूर का कहने के क्या मानी हो सकते हैं। यह तो उलटी-सी बात मालूम होती है, दरअसल 'एतत्' तो उसी को कहना उचित था। हाँ, उसमें एक खतरा जरूर था। कृष्ण के उपदेश के समय के रूप के बाद विश्वदर्शन के समय विश्वरूप आया था। फलत: उससे निकट का यही पड़ता था। इसलिए एतत् कहने से स्वभावत: लोग इसे ही समझ सकते थे। क्योंकि पहला रूप अपेक्षाकृत इससे दूर पड़ जाता था। इसीलिए संजय ने 'तत्' कह दिया और सारा झमेला ही खत्म हो गया। क्योंकि अब तो मौका ही न रहा कि विश्वरूप का खयाल भी किया जाए। मगर जो लोग फिर भी विश्वरूप को ही मानते हैं उनके लिए तत् का औचित्य बताना कठिन है।

गीतोपदेश की बातों का उपसंहार करते हुए अंत में संजय ने धृतराष्ट्र को धोखे में रखना उचित न समझ विजय तथा पराजय के संबंध में भी अपनी स्पष्ट राय दे दी कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा। इसका कारण भी धीरे से बता दिया। जिस पक्ष में योगेश्वर कृष्ण हों जो सभी युक्तियों के आचार्य हैं और जहाँ पार्थ जैसा धनुर्धर हो उस पक्ष की जीत न होगी तो होगी किसकी? यह तो मोटी-सी बात है। शायद धृतराष्ट्र के मन में कुछ आशा बँधी थी। क्योंकि एक तो वह अपने लड़कों के मोह में बुरी तरह फँसा था। दूसरे लोभ और मोह के करते उसकी विवेक-शक्ति नष्ट हो चुकी थी। ऐसी दशा में गीतोपदेश का युद्ध पर क्या असर होगा यह बात वह शायद ही समझ सकता था।

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ 78

जहाँ - जिस पक्ष में - योगेश्वर कृष्ण हैं (और) पार्थ (जैसा) धनुर्धर है वहीं लक्ष्मी, विजय, ऐश्वर्य और पक्की - अटल - नीति है, यही मेरा निश्चय है। 78।

अटल और पक्की नीति जहीं रहेगी वहीं विजय भी होगी और उसके बाद उसमें स्थिरता भी आएगी। इसीलिए तो भारवि ने किरातार्जुनीय में कहा है कि जिस चीज को दुर्योधन ने जैसे-तैसे जीत लिया था वह उसी को नीति के बल से सदा के लिए जीत लेना - उस विजय को स्थाई कर लेना - चाहता है, 'दुरोदरक्षद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधन:' (1। 7)। कहने का आशय यही है कि पांडवों की जीत भी होगी और वह स्थाई भी हो जाएगी।

लक्ष्मी या संपत्ति और ऐश्वर्य में अंतर है। ऐश्वर्य व्यापक चीज है। शासनादि भी इसमें आ जाते हैं। भूति का अर्थ विस्तार है, फैलाव है और हमने ऐश्वर्य इसी को कहा है ध्रुवा नीति कहने से कच्ची और बराबर बदलने वाली दुर्योधन की नीति घातक सिद्ध हो जाती है। चाहे जो हो। फिर भी नीति तो पक्की और स्थाई होनी चाहिए और गीता ने उसी पर जोर दिया है।

इस अध्‍याय का विषय मोक्षसंन्यासयोग लिखा है। इससे स्पष्ट है कि संन्यास से ही शुरू करके अंत में भी संन्यास ही आया है और उसी के साथ मोक्ष भी। यों तो शुरू में गीता में दूसरे ढंग के भी संन्यास का वर्णन आया है और अठारहवें अध्‍याय के शुरू में भी उसी को सभी कर्मों के सदा त्याग के रूप में लिखा है। मगर उससे मोक्ष तो होता नहीं। इसीलिए वह इस अध्‍याय का और गीता का भी विषय कभी हो नहीं सकता। हाँ, अंत के 66वें श्लोक में मोक्ष के साधन के रूप में जिस संन्यास का वर्णन किया है वही गीता को मान्य है और वही इस अध्याय का विषय है। चौथे अध्‍याय में भी संन्यास आया है। मगर एक तो वह ज्ञान के साथ आया है। दूसरे उस अध्‍याय का वही अकेला विषय नहीं है। हाँ, पाँचवें का विषय सिर्फ संन्यास ही है। फिर भी यहाँ उसी को स्पष्ट कर दिया है कि उससे केवल ज्ञान ही नहीं होता, किंतु मोक्ष भी मिलता है। इस प्रकार तीन अध्‍याय इस संन्यास के प्रतिपादन में लगे हैं।

इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशा स्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय:॥ 18

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपनिषद् रूपी ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक योगशास्त्र में जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका मोक्षसंन्यासयोग नामक अठारहवाँ अध्‍याय यही है।

कुछ लोगों ने 'इति' का अर्थ 'समाप्त हुआ' ऐसा किया है। मगर सच पूछिए तो उसका अर्थ है 'यह'। यह पहले कही गई बात की ही ओर इशारा करके उसी को याद कराता है। 'इत्यहं वासुदेवस्य' (18। 74) तथा 'इति ते ज्ञानमाख्यातम्' (18। 63) आदि में सर्वत्र यही अर्थ इति शब्द का माना गया है। हमने यही लिखा भी है। समाप्ति तो अर्थसिद्ध चीज है, न कि शब्दार्थ और वह भी कुछ जँचती नहीं है। इसी से हमने उसे छोड़ दिया है।


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