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					मुक्ति की तलाश है मुझे।पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुंड
 आलोकित हुआ है पूरा रात्रि-प्रदेश।
 सबसे अधिक चमक है मेरी अंतस् दृष्टि की
 और तुम हो दूर... पर हो भी क्या तुम ?
 मुक्ति की तलाश है मुझे।
 
 गूँज रहा है आकाश में तारों का समूहगान।
 अभिशाप दे रही हैं मानव पीढ़ियाँ।
 तुम्हारे लिए शिखरों पर
 जला रखे हैं, मैंने अग्निकुंड।
 पर तुम हो प्रपंच।
 मुक्ति की तलाश है मुझे।
 
 |गाते-गाते थक गए हैं तारे।
 चली जा रही है रात।
 लौटने लगी हैं शंकाएँ
 उन उज्ज्वल शिखरों से उतर रही हो तुम।
 खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा में।
 तुम्हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय।
 तुम्हीं में है मेरी मुक्ति !
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