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					रोते ही रहते हैं हम और तुम 
					अपने दयनीय इस जीवन पर, 
					ओ मित्रो, काश मालूम होता तुम्हें 
					आने वाले दिनों का शीत और अंधकार ! 
					 
					दबाते हो तुम अपनी प्रेमिका के हाथ, 
					खेलते, मजाक करते हो उसके साथ, 
					रो देते हो तुम झूठ या सच 
					उसके हाथ खंजर देखकर, 
					ओ निरीह शिशु ! 
					 
					सीमाएँ नहीं झूठ और फरेब की 
					पर मौत भी है अभी बहुत दूर। 
					और अधिक काला पड़ जाएगा यह संसार 
					और अधिक विवेकहीन हो जाएगा ग्रहों का चक्रवात, 
					पर शेष अभी कितने ही युग ! 
					 
					देखेंगे हम और तुम 
					अंतिम और सर्वाधिक भयानक वह युग 
					जब और अधिक पाप छिपाएगा आकाश, 
					जमी रह जाएगी जब हर होठ पर हँसी 
					अपना वजूद खोने का बहुत होगा हमें दुख... 
					 
					तुम शिशु, करते रहोगे अभी बहार का इंतजार, 
					बहार जो देगी सिर्फ धोखा, 
					तुम पुकारोगे आकाश पर सूर्य को 
					पर नहीं उठेगा वह। 
					चिल्लाने लगोगे जब लापता हो जाएँगी चीखें ! 
					 
					संतुष्ट हो लो 
					जल से भी शांत, घास से भी नम्र इस जीवन पर ! 
					ओ शिशुओ, काश मालूम होता तुम्हें 
					आने वाले दिनों का शीत और अंधकार। 
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