हम अपने खयाल को सनम समझे थे, अपने को खयाल से भी कम समझे थे! होना था - समझना न था कुछ भी, शमशेर, होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे !
(1945)
हिंदी समय में शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ
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