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कविता

रुबाई

शमशेर बहादुर सिंह


हम अपने खयाल को सनम समझे थे,
अपने को खयाल से भी कम समझे थे!
         होना था - समझना न था कुछ भी, शमशेर,
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे !

(1945)

 


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हिंदी समय में शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ



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