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कविता

शहर में आग-पक्षी

निकोलाइ असेयेव


गिलास में रखी टहनी की ताजा महक
कमरे के भीतर से सीधा ले गई खेत में
बाहर थी बारिश और ओले
और गाँव को घेंरे रात के गीत।

पुस्‍तकों और मित्रों के साथ
बहस में उलझ गई थी महक,
ताजगी ने टुकड़े-टुकड़े कर दिये घर और विवेक के
सड़कें शोर कर रही थी बेवजह
रात को समेट कर कोई फेंक आया था झाड़ में।

सहमे-सहमे बादलों के बीच चमक रही थी बिजली
खिड़कियों को लुभाती बुला रही थी पास :
'निकल आओ बाहर, ओ प्रिय,
मैं इतनी ऊँचाई पर हूँ नहीं
चाहो तो गिर सकती हूँ मेज पर तुम्‍हारे पास।

प्रिय, निकल आओ बाहर
घरों से, वाद-विवाद और जख्मों से
वरना हवाएँ घोंट डालेगी गला शहर का
रौंदे गये पुदीने के अपराध में।

अन्‍यथा चिमनियों को उगलना होगा धुआँ आकाश में
मुरझाना पड़ेगा सेवों को तुम्‍हारे उद्यान में,

तुमने मुझे पहचाना नहीं?
मैं ही हूँ वह आग-पक्षी
फँसूँगा नहीं आग के पिंजरे में।

शहर भरा पड़ा है धुएँ, कीचड़ और कड़वाहट से,
सेठों की दुकानों में फड़फड़ाहट है, पर पते नहीं।
ओ प्रिय, भाग आओ बाहर पहाड़ी की तरफ
जिस पर सीढ़ी से चढ़ सकती हो तुम।

श्‍वेत सागर की लहरों जैसे चौंधियाते आकाश में
लक्ष्‍य साधा है खड़िया से भी सफेद लहर ने
भाषा और शहर दोनों पड़ गये हैं गूँगे
सन से कहीं अधिक चमकती वह
सबको लगा रही है अपने गले।

पेटी को गियर पर रखने में सफल हुआ
भोंपू में से भाप.... साधारण-सी यह दंतकथा :
बारिश और ओलों के बीच टेढ़ी तीव्र गति से
अंगुलियों में सरासराहट पैदा करता है पूँछ का एक पर।

 


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