अवार भाषा में 'मिल्लत' शब्द के दो अर्थ हैं - जाति और चिंता। 'जो अपनी जाति की चिंता नहीं करता, वह सारी दुनिया की चिंता नहीं कर सकता,' मेरे पिता जी कहा करते थे।
'क्या जाति को उसकी चिंता करनी चाहिए जो जाति की चिंता नहीं करता?' अबूतालिब ने प्रश्न किया था।
'लगता है कि मुर्गे-मुर्गियों, कलहंसों और चूहों की जाति नहीं होती, किंतु लोगों की जाति होनी चाहिए।' मेरी अम्माँ कहा करती थीं।
एक जाति और दो जनतंत्र होते हैं, जैसे कि हमारे ओसेती पड़ोसियों के यहाँ एक जनतंत्र और उसमें चालीस जातियाँ भी होती हैं।
'भाषाओं और जातियों का पूरा ढेर ही है,' किसी राहगीर ने दागिस्तान के बारे में कहा था।
'एक हजार सिरोंवाला अजगर,' शत्रु दागिस्तान के संबंध में कहते थे।
'अनेक शाखाओंवाला पेड़,' दागिस्तान के बारे में मित्र कहते हैं।
'बेशक दिन के वक्त चिराग लेकर सारी दुनिया में ढूँढ़ आओ, कहीं भी ऐसी जगह नहीं मिलेगी जहाँ इतने कम लोग और इतनी अधिक जातियाँ हो,' पर्यटकों ने यह मत प्रकट किया।
अबूतालिब को यह मजाक करना पसंद था -
'हमने जार्जियाई संस्कृति के विकास में बड़ा योग दिया है।'
'यह तुम क्या कह रहे हो? उनकी संस्कृति हजारों साल पुरानी है। प्रसिद्ध जार्जियाई कवि शोता रूस्तावेली तो आठ सौ साल पहले हुए थे, जबकि हमने तो कुछ ही साल पहले लिखना सीखा है। भला हमने उनकी कैसे मदद की?'
'हमने ऐसे मदद की। हमारे हर गाँव की अपनी भाषा है। हमारे जार्जियाई पड़ोसियों ने इन भाषाओं का अध्ययन और उनकी तुलना करने का निर्णय किया। अनुसंधानकर्ताओं ने इनके बारे में लेख और वैज्ञानिक पुस्तकें लिखीं। वे विद्वान बन गए, उन्होंने पी-एच.डी. और डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कर लीं। अगर पूरी दागिस्तान में एक ही भाषा होती तो क्या उनके यहाँ भाषाशास्त्र के इतने डाक्टर हो सकते थे? तो ऐसे हमने उनकी मदद की।'
हाँ, दागिस्तान की भाषाओं के व्याकरण, वाक्य-विन्यास, उच्चारण और शब्द-कोश के बारे में सभी तरह की पुस्तकें लिखी जाती हैं। यहाँ काम करने के लिए बड़ी सामग्री है। विद्वानो, पधारिये, आपके तथा आपके बच्चों के लिए भी काफी काम है।
विद्वान आपस में बहस करते हैं। कुछ कहते हैं कि दागिस्तान में इतनी भाषाएँ हैं, दूसरों का कहना कि इतनी। कुछ कहते हैं कि इन भाषाओं का जन्म इस तरह से हुआ और दूसरों का मत है कि इस तरह से। इनके मतभेदों और प्रमाणों में बहुत-से विरोधाभास हैं।
लेकिन मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ कि हमारे यहाँ एक बैलगाड़ी में पाँच भाषाएँ बोलनेवाले लोग यात्रा करते देखे जा सकते हैं। अगर किसी चौराहे पर पाँच बैलगाड़ियाँ रुक जाती हैं तो वहाँ तीस भाषाएँ भी सुनी जा सकती हैं।
जब उल्लूबी बुइनाकस्की के नेतृत्व में पार्टी के गुप्त संगठन के सदस्यों को, जिनकी संख्या छह थी, गोलियाँ चलाकर मौत के घाट उतारा गया तो उन्होंने पाँच विभिन्न भाषाओं में दुश्मन को अभिशाप दिया -
उल्लूबी बुइनाकस्की ने कुमिक भाषा में।
सईद अब्दुलगालीमोव ने अवार भाषा में।
अब्दुल-वागाब गाजीयेव ने दारगीन भाषा में।
मजीद अली-ओगली ने कुमिक भाषा में।
अब्दुर्रहमान इसमाईलोव ने लेज्गीन भाषा में।
ओस्कार लेश्चीन्स्की ने रूसी भाषा में।
दागिस्तानी लेखक मुहम्मद सुलीमानोव ने दागिस्तान की पंद्रह विभिन्न जातियों के पंद्रह मुहम्मदों के बारे में पंद्रह दिलचस्प कहानियाँ लिखी हैं। इन कहानियों के संकलन का यही शीर्षक है - 'पंद्रह मुहम्मद'।
रूसी लेखक द्मीत्री त्रूनोव ने एक ऐसे सामूहिक फार्म के बारे में शब्दचित्र लिखा है, जहाँ बत्तीस जातियों-उपजातियों के लोग काम करते हैं।
एफ्फंदी कापीयेव की नोटबुक में यह लिखा हुआ है कि कैसे वह और तीन अन्य दागिस्तानी लेखक-सुलेमान स्ताल्स्की हमजात त्सादासा और अब्दुला मुहम्मदोव रेलगाड़ी के एक ही केबिन में सोवियत संघ के लेखकों की पहली कांग्रेस में भाग लेने के लिए मास्को गए। दागिस्तान के ये सभी जन-कवि तीन दिन-रातों तक गाड़ी में यात्रा करते रहे, मगर एक-दूसरे के साथ बातचीत नहीं कर पाए। हर किसी की अपनी भाषा थी। इशारों से एक-दूसरे को अपनी बात समझाते थे और बड़ी मुश्किल से एक-दूसरे को समझ पाते थे।
छापेमारों के साथ अपने जीवन की चर्चा करते हुए अबूतालिब ने लिखा है - 'दलिये के एक देग के गिर्द बीस भाषाएँ बोली जाती थीं। आटे की एक बोरी बीस जन-जातियों में बाँटी जाती थी।'
हमारे यहाँ नीज्नी जेनगुताई और वेर्खनी जेनगुताई नाम के गाँव हैं। उनके बीच तीन किलोमीटर का फासला है। नीज्नी जेनगुताई में कुमिक भाषा बोली जाती है और वेर्खनी जेनगुताई में अवार।
दारगीन जाति के लोगों का कहना है कि मेगेब में दारगीन रहते हैं और अवार जातिवाले कहते हैं कि वहाँ अवार रहते हैं। लेकिन खुद मेगेबवासियों का क्या कहना है? उनका कहना है कि हम न तो दारगीन हैं और न अवार। हम तो मेगेबी हैं। हमारी अपनी मेगेबी भाषा है। मेगेब से सात किलोमीटर दूर जाने पर हम चोख गाँव में पहुँच जाते हैं। मेगेबी भाषा के साथ वहाँ नहीं जाओ, क्योंकि चोख की अपनी विशेष भाषा है।
लोगों का कहना है कि कुबाची के सुनारों की कला इस कारण बहुत अरसे तक विश्वसनीय ढंग से गुप्त बनी रही कि कोई भी उनकी भाषा नहीं समझ सकता था। अगर कोई राज को खोलना भी चाहता तो किसके सामने ऐसा करता?
यह भी कहा जाता है कि खूँजह के खान ने इस उद्देश्य से गीदात्ली में अपना जासूस भेजा कि वह वहाँ की सभाओं और बाजारों में जाकर लोगों की सारी बातें सुने ताकि यह पता लगा सके कि गीदात्ली के लोग क्या सोचते हैं।
जासूस बहुत ही जल्दी वापस आ गया।
'सब कुछ मालूम कर आए?'
'कुछ भी मालूम नहीं कर सका।'
'क्यों?'
'वहाँ हर कोई अपनी भाषा में बोलता है। उनकी भाषाएँ हमारी समझ में नहीं आतीं।'
एक पहाड़िया अपने लिए लबादा खरीदने के विचार से आंदी गाँव में गया। उसने लबादा पसंद किया, कीमत पूछी और मोल-भाव करने लगा। मोल-भाव होता रहा, होता रहा और अचानक आंदी गाँव के दुकानदार अपनी भाषा में बोलने लगे। गाहक पहाड़िये ने एतराज करते हुए कहा -
'चूँकि मैं गाहक हूँ, इसलिए तुम्हें ऐसी भाषा में बात करनी चाहिए जो मेरी समझ में आ सके।'
'हम तुम्हारी समझ में आनेवाली भाषा में तब बात करेंगे, जब तुम हमारी कीमत मंजूर कर लोगे।'
हाँ, यह सच है कि आंदी गाँव के लोगों ने व्यापार में अभी तक कभी मार नहीं खाई।
किसी पहाड़िये को एक हसीना से मुहब्बत हो गई। उसने इस सुंदरी को ये पावन शब्द 'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ' लिखने का निर्णय किया, किंतु पत्र के रूप में नहीं, बल्कि उस जगह, जहाँ वह युवती आती-जाती थी और जहाँ वह उसकी प्रणय-स्वीकृति को देख सकती थी। उसने उक्त शब्दों को किसी चट्टान, चश्मे की ओर जानेवाली पगडंडी, उसके घर की दीवार, अपने पंदूरा बाजे पर लिखने का निर्णय किया। इसमें भी कोई बुरी बात नहीं थी। किंतु इस प्रेमी के दिमाग में यह सनक आ गई कि इन शब्दों को वह दागिस्तान की सभी भाषाओं में लिखे। इसी उद्देश्य से वह अपनी राह पर चल पड़ा। उसका ख्याल था कि उसकी यह यात्रा बहुत लंबी नहीं रहेगी। मगर वास्तव में उसने यह पाया कि हर गाँव में इन शब्दों को अपने ही ढंग से कहा जाता है... अवार भाषा में एक ढंग से, लेज्गीनी में दूसरे ढंग से, लाकस्की में तीसरे ढंग से, दारगीन्स्की में चौथे ढंग से, कुमिकस्की में पाँचवें ढंग से, ताबासारन्स्की में छठे ढंग से, तात्स्की में सातवें ढंग से, आदि, आदि।
लोगों का कहना है कि यह प्रेमी अभी तक पहाड़ों में भटकता फिर रहा है, उसकी प्रेमिका की शादी हुए एक जमाना बीत गया, वह बूढ़ी भी हो गई, लेकिन हमारा यह आशिक सूरमा अभी तक अपने प्रेम के शब्द लिखता जा रहा है।
'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, इन शब्दों को तुम्हारी भाषा में कैसे कहा जाता है, तुम्हें यह मालूम है या नहीं?' एक बुजुर्ग ने किसी नौजवान से पूछा।
नौजवान ने अपने करीब खड़ी युवती का आलिंगन करते हुए जवाब दिया -
'मेरी भाषा में ये शब्द इस तरह कहे जाते हैं।'
दागिस्तान में हर छोटे-से परिंदे, हर फूल, हर नद-नाले के दसियों नाम हैं।
संविधान के अनुसार हमारे यहाँ आठ मुख्य जातियाँ हैं - अवार, दारगीन, कुमिक, लेज्गीन, लाक, तात, ताबासारान और नोगाई।
हम पाँच भाषाओं में पाँच साहित्यिक संकलन निकालते हैं। उनके नाम हैं - 'दुस्तवाल,' 'दोसलूक', 'गालमागदेश', 'गुदूल्ली', 'दूसशीवू'। वैसे इन सबका एक साझा नाम है 'द्रूज्बा' यानी दोस्ती।
दागिस्तान में नौ भाषाओं में किताबें छपती हैं। लेकिन कितनी भाषाओं में गाने गाए जाते हैं? हर कालीन पर अपने अलग बेल-बूटे होते हैं। हर तलवार पर अपना आलेख होता है।
लेकिन यह कैसे हुआ कि एक हाथ पर इतनी अधिक उँगलियाँ हो गईं? यह कैसे हुआ कि एक दागिस्तान में इतनी अधिक भाषाएँ हो गईं?
विद्वान लोग अपने ढंग से इसे स्पष्ट करते हरें। लेकिन इस संबंध में मेरे पिता जी यह कहा करते थे -
'अल्लाह का भेजा हुआ एक दूत खच्चर पर सवार होकर इस पृथ्वी पर जा रहा था और बहुत बड़ी खुरजी में से भाषाएँ निकाल-निकालकर जनगण और राष्ट्रों को देता जाता था। चीनियों को उसने चीनी भाषा दे दी। अरबों के यहाँ गया और उन्हें अरबी भाषा दे दी। यूनानियों को उसने यूनानी, रूसियों को रूसी और फ्रांसीसियों को फ्रांसीसी भाषा दे दी। भाषाएँ भिन्न-भिन्न थीं - कुछ मधुर थीं तो कुछ कठोर, कुछ लच्छेदार, कुछ कोमल। जनगण ऐसे उपहार से बहुत खुश हुए और उसी वक्त सभी अपनी-अपनी भाषा में बोलने लगे। अपनी भाषाओं की बदौलत लोग एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह जानने-समझने लगे और जनगण दूसरे जनगण, पड़ोसी जनगण को ज्यादा अच्छी तरह जानने-पहचानने लगे।
'अपने खच्चर पर सवारी करते हुए यह आदमी हमारे दागिस्तान तक पहुँच गया। कुछ ही समय पहले उसने जार्जियाई लोगों को उनकी भाषा दी थी जिस भाषा में बाद में शोता रूस्तावेली ने अपना महाकाव्य रचा, कुछ ही समय पहले ओसेतियों पर कृपा करते हुए उन्हें उनकी भाषा दी थी जिस भाषा में बाद में कोस्ता हेतागूरोव ने साहित्य-सृजन किया। आखिर हमारी बारी भी आ गई।
'लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि दागिस्तान के पहाड़ों में उस दिन बर्फ का तूफान आ रहा था। दर्रों में बर्फ जोर से चक्कर काट रही थी और आकाश तक ऊपर उठ रही थी। कुछ भी नजर नहीं आ रहा था - न रास्ते और न घर-मकान। सिर्फ अँधेरे में हवा जोर से सीटियाँ बजाती सुनाई दे रही थी, कभी-कभी शिला-खंड टूटकर गिरते थे और हमारी चार नदियाँ, हमारी चार कोइसू शोर मचा रही थीं।
'नहीं', भाषाएँ बाँटनेवाले ने कहा, जिसकी मूँछों पर बर्फ जमने लगी थी, 'मैं इन चट्टानों पर नहीं चढ़ूँगा और सो भी ऐसे बुरे मौसम में।'
'उसने अपनी खुरजी ली जिसके तल में दो मुट्ठी भर वे भाषाएँ पड़ी हुई थीं जिन्हें अभी तक बाँटा नहीं गया था और इन सारी भाषाओं को उसने हमारे पहाड़ों पर बिखेर दिया।
'जिसे जो अच्छी लगे, वही भाषा ले ले,' उसने कहा और अल्लाह के पास वापस चला गया।
'इस तरह बिखरा दी गई भाषाओं को बर्फ के तूफान ने झपट लिया और उन्हें दर्रों तथा चट्टानों पर ले जाने और इधर-उधर फेंकने लगा। किंतु इसी समय सारे दागिस्तानी लपककर अपने घरों से बाहर आ गए। हड़बड़ी करते और एक-दूसरे को धकेलते हुए वे भाषाओं की इस सुखद तथा प्यारी सुनहरी वर्षा की ओर भागने लगे जिसका उन्हें एक मुद्दत से इंतजार था। वे अनाज के कीमती दानों को, जिन्हें जो भी मिल गए, बटोरने लगे। हर किसी ने तब अपनी मातृभाषा ले ली। अपनी-अपनी भाषा लेकर पहाड़ी लोग घरों में जाकर बर्फ के तूफान का अंत होने की प्रतीक्षा करने लगे।
'सुबह जब वे जागे तो धूप खिली हुई थी - हिमपात तो जैसे हुआ ही नहीं था। लोगों ने देखा - सामने पहाड़ है! यह तो अब 'पहाड़' था। उसे पहाड़ कहकर पुकारा जा सकता था। लोगों ने देखा - सामने समुद्र है! यह तो अब 'समुद्र' था। उसे समुद्र कहकर पुकारा जा सकता था। सामने आनेवाली हर चीज को ही अब कोई नाम दिया जा सकता था। कितनी खुशी की बात थी! यह रही रोटी, यह - माँ है, यह - पहाड़ी घर है, यह - चूल्हा है, यह - बेटा है, यह - पड़ोसी है, ये - लोग हैं।
'सभी लोग सड़क पर जमा हो गए, सभी मिलकर चिल्लाए - 'पहाड़।' उन्होंने कान लगाकर प्रतिध्वनि सुनी - सभी ने इस शब्द को अलग-अलग ढंग से कहा था। सभी मिलकर चिल्लाए - 'समुद्र!' सभी ने इस शब्द को अलग-अलग ढंग से कहा था। इसी वक्त से अवार, लेज्गीन, दारगीन, कुमिक, तात और लाक जातियाँ तथा भाषाएँ बन गईं... और उसी समय से यह सब कुछ दागिस्तान कहलाता है। लोग भेड़ों, भेड़ियों, घोड़ों और टिड्डों से अलग हो गए... कहते हैं कि 'घोड़े' के इनसान बनने में जरा-सी ही कसर है।'
लेकिन अल्लाह के भेजे हुए दूत! तुम उस वक्त बर्फ के तूफान और खड़े पर्वतों से क्यों घबरा गए? किसलिए तुमने सोचे-समझे बिना हमारे सामने भाषाएँ बिखरा दीं? यह तुमने क्या किया? जो लोग अपनी भावना, अपने दिल, आचार-व्यवहार, रस्म-रिवाज और जीवन के रंग-ढंग की दृष्टि से एक-दूसरे के इतने ज्यादा करीब हैं, तुमने उन्हें बाँट दिया, भाषाओं के कारण एक-दूसरे से अलग कर दिया।
खैर, इसके लिए भी शुक्रिया। बुरी भाषाएँ नहीं होतीं। बाकी चीजों के मामले में हम खुद ही सोच-समझ लेंगे। एक-दूसरे के निकट होने की राह ढूँढ़ लेंगे, ऐसा करेंगे कि विभिन्न भाषाएँ हमें अलग करने के बजाय सूत्रबद्ध करें।
बाद में लंगड़े तैमूर, अरबों और ईरान के शाह ने हमपर चढ़ाई की तथा हर किसी ने हम पर अपनी भाषा लादने की कोशिश की। लेकिन हमारे हाथ के झकझोरे जाने से हमारी उँगलियाँ टूटकर नहीं गिरीं, हमारे पेड़ के झकझोरे जाने से हमारी शाखाएँ नहीं टूटीं।
'भाषा की मातृभूमि की तरह रक्षा करनी चाहिए,' शामिल ने कहा था।
'शब्द-वे तो गोलियाँ हैं, उन्हें व्यर्थ बरबाद नहीं करो,' हाजी-मुरात ने जोड़ा था।
'जब बाप मरता है तो वह विरासत के रूप में बेटों के लिए घर, खेत, तलवार और पंदूरा छोड़ता है। लेकिन मरनेवाली पीढ़ियाँ आनेवाली पीढ़ियों के लिए विरासत के रूप में भाषा छोड़ती हैं। जिसके पास भाषा है, वह अपने लिए घर बना लेगा, खेत जोत लेगा, तलवार बना लेगा, पंदूरा को सुर में कर लेगा और उसे बजा लेगा,' मेरे पिता जी कहा करते थे।
मेरी प्यारी मातृभाषा। मैं नहीं जानता कि तुम मुझसे खुश हो या नहीं, लेकिन तुम मेरी हर साँस में बसी हुई हो और मैं तुम पर गर्व करता हूँ। जैसे चश्मे का निर्मल जल अँधेरी गहराइयों में से धूप-नहाए स्थान की ओर, जहाँ हरियाली है, जाने की कोशिश करता है, वैसे ही मातृभाषा के शब्द बड़ी तेजी से मेरे दिल की गहराई से मेरे कण्ठ की ओर बढ़ते हैं। होंठ फुसफसाते हैं। मैं अपनी फुसफुसाहट को बहुत ध्यान से सुनता हूँ, मेरी भाषा, मैं तुम पर कान लगा देता हूँ और मुझे लगता है कि कोई बहुत ही प्रबल पहाड़ी नदी अपने लिए रास्ता बनाने को दर्रे में दहाड़ रही है। मुझे पानी का शोर अच्छा लगता है। जब म्यान से निकले हुए दो खंजर आपस में टकराते हैं तो इस्पात की खनक भी मुझे अच्छी लगती है। मेरी भाषा में यह सब कुछ है। मुझे प्यार की फुसफसाहट भी बहुत अच्छी लगती है।
मेरी मातृभाषा, मेरे लिए यह कर पाना बहुत कठिन है कि सभी तुझे जान जाएँ। कितनी समृद्ध हो तुम ध्वनियों की दृष्टि से, कितनी अधिक ध्वनियाँ हैं तुममें, जो अवार जाति का व्यक्ति नहीं हैं, कितना कठिन है उसके लिए इन ध्वनियों का उच्चारण करना। किंतु जो इनका उच्चारण कर सकता है, उसके लिए वे कितनी मधुर हैं। मिसाल के तौर पर दस तक की मामूली गिनती - त्सो (एक), कीगो (दो), लाबग्गो (तीन), उन्क्गो (चार), श्चूगो (पाँच), अनल्गो (छह), मीक्गो (सात), इच्गो (आठ), अंत्स्गो (नौ)। जब कभी अवार भाषा में दस तक सही उच्चारण करनेवाले किसी व्यक्ति से मेरी भेंट होती है तो मैं उसके बहादुरी से इस कारनामे की उस व्यक्ति की वीरता से तुलना करता हूँ जो कंधे पर भारी पत्थर रखे हुए बाढ़ से उमड़ती नदी को एक तट से दूसरे तट तक पार कर ले। अगर कोई व्यक्ति दस तक सही गिनती कर सकता है तो वह आगे भी बढ़ता जा सकता है। वह तैरना भी जानता है। साहस से आगे बढ़ता जाए।
दूसरी जातियों के लोगों की तो बात ही क्या की जाए। हमारी अवार जाति के बालकों से भी बुजुर्ग लोग कहा करते थे - इस वाक्य को अटके बिना तीन बार दोहराओ तो - 'क्योदा ग्योर्क क्वेर्क क्वाक्वादाना' (पुल के नीचे मेढकी टरटरा रही थी)। अवार भाषा के इस वाक्य में केवल चार शब्द हैं, लेकिन बहुत बार ऐसा होता था कि गाँव के हम बालक इस वाक्य को सही ढंग से और जल्दी-जल्दी कह पाने के लिए सारा-सारा दिन अभ्यास करते रहते थे।
अबूतालिब अवार भाषा बोल लेता था। उसने अपने बेटे को त्सादा गाँव में हमारे यहाँ इसलिए भेजा कि वह भी अवार भाषा सीख ले। बेटे के घर लौटने पर अबूतालिब ने उससे पूछा -
'गधे पर सवारी की?'
'हाँ, की।'
'दस तक गिनती कर सकते हो?'
'कर सकता हूँ।'
'यह वाक्य तीन बार लगातार दोहराओ - क्योदा ग्योर्क क्वेर्क क्वाक्वादाना।'
बेटे ने दोहराया -
'ओह, यह माना जा सकता है कि तुमने असंभव को संभव कर दिखाया है।'
तो ऐसी हैं चट्टानों के बीच दबे हुए हमारे गाँवों की भाषाएँ-बोलियाँ। हमारे उच्चारण, हमारी कंठ्य और श्वास ध्वनियों को लिखने के लिए अर्थात् विद्वानों की भाषा में उनका लिप्यंतरण करने के लिए किसी भी वर्णमाला में अक्षर नहीं मिले। इसीलिए जब हमारी लिपि बनाई गई तो रूसी भाषा की वर्णमाला में विशेष अक्षर और अक्षर-संयोग जोड़ने पड़े। व्यंजनों के मामले में तो खास तौर पर ऐसे ही करना पड़ा।
शायद इन फालतू अक्षरों के कारण अवार भाषा की रूसी में अनूदित हर पुस्तक कहीं अधिक पतली लगती है। उसकी ऐसे पहाड़ी आदमी से तुलना की जा सकती है जिसने लगातार तीन महीनों तक रोजे (व्रत) रखे हों।
शामिल से किसी ने पूछा -
'दागिस्तान को इतनी अधिक जातियों की क्या जरूरत है?'
'इसलिए कि एक के मुसीबत में पड़ जाने पर दूसरी उसकी मदद कर सके। इसलिए कि अगर एक जाति कोई गाना शुरू कर दे तो दूसरी उसका साथ दे सके।'
'तो क्या सभी जातियाँ किसी एक की मदद को सामने आई?' अब मुझसे पूछा जाता है।
हाँ, आईं। हर जाति ने मदद की।'
'क्या एक ही सुर में गाना गाया गया?'
'हाँ, गाया गया। आखिर हमारी मातृभूमि तो एक ही है।'
अनेक धुनें हैं, किंतु वे मिलकर एक ही गाने का रूप लेती हैं। भाषाओं के बीच सीमाएँ हैं, लेकिन दिलों के बीच सीमाएँ नहीं हैं। विभिन्न लोगों के वीर-कृत्य अंत में एक ही वीर-कृत्य में घुल-मिल गए हैं।
'फिर भी विभिन्न जातियों में कुछ फर्क तो है? क्या फर्क है वह?'
'इस प्रश्न का जवाब देना बड़ा मुश्किल है।'
हमारी जातियों के बारे में कहा जाता है - कुछ लड़ने के लिए बनी हैं, कुछ हथियार बनाने के लिए, कुछ भेड़ें चराने के लिए, कुछ जमीन पर हल चलाने के लिए और कुछ बाग-बगीचे लगाने के लिए... मगर यह बेतुकी बात है। हर जाति के अपने सैनिक-सूरमा, चरवाहे, लुहार और बागवान हैं। हर किसी के अपने हीरो, गायक और कुशल कारीगर हैं।
अवारों के - शामिल हाजी-मुरात, हमजात, महमूद, मखाच।
दारगीनों के - बातीराय, बगातीरोव, अहमद मुंगी, राबादान नूरोव, कारा कारायेव।
लेज्गीनों के - सुलेमान, एमीन, ताहिर, अगासीयेव, अमीरोव।
कुमिकों के - इरची कजाक, अलीम-पाशा, उल्लूबी, सोल्तन-सईद, जाइनुलाबीद बातिरमुर्जायेव, नुखाई।
लाकों के - हारूँ सईदोव, सईद हाबीयेव, सफ्फदी कापीयेव, सुरखाई और मेरा दोस्त अबूतालिब।
अनेक जातियों में से मैंने केवल उन्हीं का उल्लेख किया है जो सबसे पहले मेरे दिमाग में आ गईं। प्रत्येक जाति में से मैंने केवल उन नामों का उल्लेख किया है जो सबसे पहले मुझे याद आ गए। लेकिन वैसे तो हमारे यहाँ अनेक जातियाँ हैं और अनेक जाने-माने नाम हैं।
कुछ जातियों के लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे चंचल स्वभाव के हैं, कुछ के बारे में यह कि बुद्धू-से हैं, कुछ के बारे में यह कि चोरटे हैं, कुछ के बारे में यह कि धोखेबाज हैं। संभवतः यह सब निंदा-चुगली है।
हर जाति में बढ़िया और घटिया, सुंदर और कुरूप लोग होते हैं। उसमें चोर और चुगलखोर भी मिल जाएँगे। लेकिन यह तो जाति नहीं, उसका कूड़ा-करकट होंगे।
मेरा एक अन्य मित्र ऐसे कहा करता था -
'मैं तो हमेशा पहले से ही यह जान लेता हूँ कि कोई व्यक्ति किस जाति का है।'
'यह कैसे?'
'बहुत ही आसानी से। दागिस्तान की एक जाति (हम उसका नाम नहीं लेंगे) के लोग मखाचकला में आते ही सबसे पहले यह ढूँढ़ते हैं कि यहाँ रेस्तराँ कहाँ हैं और किसी खूबसूरत लड़की से कहाँ जान-पहचान हो सकती है। इनके तीन आदमी शोर-गुल मचानेवाली पूरी मंडली या दावत की बड़ी मेज पर जमा होनेवाले लोगों का स्थान ले सकते हैं। दूसरी जाति (हम उसका नाम भी नहीं लेंगे) के लोग सिनेमाघर, थियेटर या कन्सर्ट हॉल की तरफ जाने की उतावली करते हैं। इनके तीन आदमी जहाँ होते हैं, वहाँ आर्केस्ट्रा बन जाता है, जहाँ पाँच होते हैं, वहाँ नाच-गानों की मंडली। तीसरी जाति के लोग पुस्तकालय की ओर दौड़ते हैं, इन्स्टीट्यूट में दाखिला लेने और शोध-प्रबंध का मंडन करने की कोशिश करते हैं। इस जाति के तीन आदमी जहाँ इकट्ठे हो जाते हैं, वहाँ विद्वान-परिषद बन जाती है और जहाँ पाँच जमा हो जाते हैं, वहाँ विज्ञान-अकादमी की शाखा बन जाती है। चौथी जाति (हम उसका नाम भी नहीं लेंगे) के लोग सिर्फ यही सोचते हैं कि किस तरह से कार खरीदी जाए या वे टैक्सी के ड्राइवर बन जाएँ और अगर और कुछ नहीं तो ट्रैफिक-कंट्रोल करनेवाले पुलिसमैन ही बन जाएँ। इस जाति के तीन आदमी जहाँ होते हैं, वहाँ मोटरों का अड्डा और जहाँ पाँच होते हैं, वहाँ टैक्सियों का बड़ा स्टैंड बन जाता है। पाँचवीं जाति के लोग सहकारी संघ, किसी दुकान, व्यापार-केंद्र, भोजनालय या कम से कम स्टाल को तरजीह देते हैं। इस जाति के तीन लोग जहाँ जमा हो जाते हैं, वहाँ डिपार्टमेंट स्टोर बन जाता है और जहाँ पाँच जमा हो जाते हैं, वहाँ कारखाना बन जाता है।
लेकिन यह सब तो मजाक के रूप में कहा जाता है। भला क्या कोई ऐसे जाति भी है जिसके मर्द लोग सुंदर युवतियों को न चाहते हों या रेस्तराँ में बैठने की इच्छा न रखते हों?
सभी जातियों के अपने थियेटर, अपने नाच, अपने गाने हैं। हमारे यहाँ तो सभी जातियों की एक साझी कला-मंडली 'जेज्गीन्का' भी है। सभी जातियों में 'वोल्गा' कार खरीदने या किसी दुकान पर काम करने के इच्छुक लोग भी मिल जाएँगे। किंतु क्या यह कोई जातीय लक्षण है? अबूतालिब ने एक बार एक ऐसी बीमारी का नाम लिया जिसके बारे में दागिस्तान में पहले किसी ने कभी सुना ही नहीं था। यह बीमारी थी - शराबनोशी।
अबूतालिब ने इस तरह से अपनी बात कही - 'पहले हमारे गाँव में एक शराबी था और वह इसी वजह से मशहूर था कि सारे इलाके में लोग उसे जानते थे। अब हमारे गाँव में शराब न पीनेवाला सिर्फ एक आदमी है। एक अजूबे के तौर पर उसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।'
इस सिलसिले में अबूतालिब को बहुत-से किस्से-कहानियाँ याद हैं। किंतु यदि हम उसके किस्से-कहानियों के फेर में पड़ेंगे तो मुझे डर है कि पूरी तरह से यह भूल जाएँगे कि किस बात की चर्चा कर रहे थे। हम इस चीज पर विचार कर रहे थे कि किन लक्षणों के आधार पर दागिस्तान की एक जाति के व्यक्ति को दूसरी जाति के व्यक्ति से अलग किया जा सकता है। शायद पोशाक के आधार पर? समूरी टोपी की बनावट और उसे पहनने के ढंग के आधार पर? लेकिन अब तो सभी एक जैसे कोट, एक जैसे पतलून, एक जैसे बूट और एक जैसी छज्जेदार टोपी या टोप पहनते हैं। अगर कोई ऐसी चीज रह गई है जो निर्णायक रूप से किसी जाति का विशेष लक्षण प्रस्तुत करती है और उसे दूसरी जाति से भिन्न बनाती है तो वह भाषा है। इस संबंध में यह बात भी बहुत दिलचस्प है कि जब लेज्गीन या तात, अवार या दारगीन जाति का कोई व्यक्ति रूसी भाषा बोलता है तो उसके लहजे से ही यानी रूसी भाषा के विकृत उच्चारण से ही कुमिक को लाक और लेज्गीन को कुमिक से फौरन अलग रूप में पहचाना जा सकता है।
मिसाल के तौर पर रूसी भाषा का हर शब्द जो 'स' अक्षर से शुरू होता है, अवार जाति के लोग उसका उच्चारण करते वक्त उसमें 'इ' जोड़ देते हैं। वे 'स्तंबूल' को 'इस्तंबूल', 'स्ताकान' (गिलास) को 'इस्ताकान', 'स्ताल्स्की' को 'इस्ताल्स्की', 'सोन' (स्वप्न) को 'इसोन' कहते हैं।
अगर किसी शब्द के मध्य में 'इ' की ध्वनि आ जाती है तो अवार जाति के लोग उसका उच्चारण नहीं करते हैं। इसलिए वे 'सीबीर' (साइबोरिया) की जगह 'स्बीर', 'बेलीबेर्दा' (बकवास) की जगह 'बेलबेर्दा' कहते हैं। 'त' की ध्वनि के बाद हम थोड़ा रुकते हैं मानो जरा ठोकर खाते हैं।
दारगीन जाति के लोगों के उच्चारण में 'ओ' की जगह अक्सर 'ऊ' और 'यू' की जगह भी अक्सर 'ऊ' की ध्वनि सुनाई देती है। वे 'पोचता' (डाकखाना) की जगह 'पूचता' और 'कोश्का' (बिल्ली) की जगह 'कूश्का' तथा ल्युबोव' (प्रेम) की जगह 'लुबोव' कहते हैं। किसी शब्द के अंत में वे 'इ' का तो उच्चारण ही नहीं करते।
इसी प्रकार लाक जाति के लोग 'ख' ध्वनि का कोमल उच्चारण करते हैं।
संक्षेप में यह कि कुछ जातियों के लोग व्यंजनों को लंबा खींचते हैं, दूसरे उन्हें छोटा करते हैं और कुछ छोड़ भी देते हैं, कुछ कठोर तथा कुछ कोमल उच्चारण करते हैं। कुछ कुछ 'फ' की जगह 'प' कहते हैं।
एक बार हम अबूतालिब की उपस्थिति में अपनी भाषाओं की चर्चा कर रहे थे और मेरा सहभाषी हमारे उच्चारणों की नकल करते हुए उनके अंतर को स्पष्ट कर रहा था। अबूतालिब शुरू में तो सुनता रहा, मगर बाद में उसने उसे टोक दिया और कहा -
'चुप होकर बैठ जाओ। तुम बहुत बोल चुके और अब मैं अपनी बात कहता हूँ। किसी एक व्यक्ति के दोषों-त्रुटियों को सारी जाति पर नहीं थोपना चाहिए। एक पेड़ से वन नहीं बनता, तीन पेड़ों से भी ऐसा नहीं होता। एक सौ पेड़ हो जाने पर भी वन नहीं बन जाता। हमारी भाषाओं का सवाल बड़ा पेचीदा सवाल है। यह तीन गाँठोंवाली गाँठ है जो उस वक्त बनती है, जब गीली रस्सी की बाँधा जाता है। एक वक्त ऐसा माना जाता था कि इस सवाल का बहुत सीधा-सादा हल यह दिखावा करना है कि इसका अस्तित्व ही नहीं है। इसकी चर्चा नहीं करो, इसे छुओ ही नहीं - मसला हल हो गया। लेकिन यह मसला कायम तो है। पुराने वक्तों में लोग सबसे ज्यादा तो जातीय या राष्ट्रीय मतभेदों के कारण ही तलवारें निकालकर एक-दूसरे के सामने आ जाते थे।'
मुझे मखाचकला में हुए एक पत्रकार-सम्मेलन की याद आ रही है। मास्को से उनतीस राज्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले अड़तीस प्रत्यावित संवाददाता दागिस्तान आए। शुरू में उन्होंने हमारे गाँवों का दौरा किया, हमारे पहाड़ी मर्दों-औरतों से बातचीत की और इसके बाद पत्रकार-सम्मेलन हुआ। फोटो-कैमरों की खट-खट और सिने-कैमरों की खरखर हुई। संवाददाताओं ने अपनी पेंसिलों की नोकें सँवारीं और कोरे कागज अपने सामने रख लिए।
एक बहुत बड़ी मेज के गिर्द हम सब बैठ गए। अबूतालिब हममें सबसे बुजुर्ग था। उससे ही इस सम्मेलन का उद्घाटन करने को कहा गया। अबूतालिब ने कहना शुरू किया -
'देवियो और सज्जनो, साथियो!... (हमने उसे यह सिखा दिया था कि इन शब्दों के साथ सम्मेलन का उद्घाटन करना चाहिए। इसके बाद उसने जो कुछ कहा, वह खुद ही कहा)। आइए, परिचय कर लें। यह हमारा घर है। ये हम हैं। ये हमारे मशहूर शायर हैं।' अबूतालिब ने दीवार पर लटके हुए छविचित्रों की ओर संकेत किया। दीवार पर बातीराय, कजाक, महमूद, सुलेमान, हमजात और एफ्फंदी के छविचित्र लटके हुए थे।
इन शायरों में से प्रत्येक के बारे में अबूतालिब ने कुछ शब्द कहे - कौन किस जाति का है, किसने किस भाषा में सृजन किया, किन भावनाओं से प्रेरित हुआ और कैसी ख्याति अर्जित की। जब खुद अबूतालिब के छविचित्र की बारी आई तो किसी तरह की झेंप महसूस किए बिना उसने कहा -
'यह मैं हूँ। कृपया यह नहीं सोचिए कि मैं दीवार से उतरकर मेज पर आ गया हूँ। मैं तो यहाँ से, मेज के पीछे से दीवार पर पहुँच गया हूँ।'
इसके बाद अबूतालिब ने अतिथियों को मेज के गिर्द बैठे कवियों का परिचय दिया और साथ ही यह भी कह दिया -
'मुमकिन है कि इनमें से कुछ को इस दीवार पर जगह मिल जाए। लीजिए, परिचय पाइए - अजमद खान अबुबकार, कुबाची के सुनार और दागिस्तान का जन-लेखक।
फाजू और मूसा। पत्नी और पति। एक परिवार में दो लेखक, दो उपन्यासकार, दो कवि, दो नाटककार। कभी-कभी एक साथ और कभी-कभी अलग-अलग लिखते हैं।
मुतालिब मितारोव - अवार जाति का दामाद, ताबासारान जाति का कवि।
शाह-एमीर मुरादोव - 'शांति-कपोत।' लेज्गीन जाति का कवि। हमेशा कपोतों या कबूतरों के बारे में लिखता है।
जामीदीन - हमारा व्यंग्कार, हमारा मार्क ट्वेन।
अनवर - दागिस्तान का जन-कवि, हमारे पाँच साहित्यिक संकलनों का प्रधान संपादक।
त्रूनोव - दागिस्तान में रहनेवाला रूसी लेखक।
हिजगिल अवशालूमोव - तात जाति का लेखक, अपनी मातृभाषा और रूसी में लिखता है।'
अतिथि-पत्रकारों को दागिस्तान के लेखकों का परिचय देना जारी रखते हुए अबूतालिब ने बादावी, सुलेमान, साशा ग्राच, इब्राहिम, अलीरजा, मेदजीद अशुगा रूतूल्स्की को उनके सामने पेश किया। उसने साहित्यिक संकलनों के संपादकों से मेहमानों को परिचित कराया और इसके बाद कहा -
'मेहमाननवाजी के उसूल हमें इस बात की इजाजत नहीं देते कि हम मेहमानों के नाम पूछें...'
मगर अबूतालिब के ऐसा कहने पर सभी मेहमान बारी-बारी से उठकर अपना परिचय देने और यह बताने लगे कि वे किस देश और किस पत्र या पत्रिका का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसके बाद, जैसा कि पत्रकार-सम्मेलन में होना चाहिए। प्रश्नोत्तर आरंभ हो गए।
प्रश्न - 'आपके यहाँ इतनी अधिक भाषाएँ, इतनी अधिक जातियाँ हैं कि उनका पूरा गड़बड़झाला है। आप एक-दूसरे को किस तरह से समझ पाते हैं?'
अबूतालिब का जवाब - 'जो भाषाएँ हम बोलते हैं - भिन्न हैं, किंतु हमारे मुँहों में जो जबानें हैं, वे एक जैसी हैं। (दिल पर हाथ रखकर) यह सब कुछ अच्छी तरह से समझता है। (अपने कानों को खींचते हुए) लेकिन ये बुरी तरह।'
प्रश्न - 'मैं बल्गारिया के अखबार का संवाददाता हूँ। यह बताइए कि दागिस्तान की विभिन्न भाषाओं में उसी तरह की निकटता है जैसे, उदाहरण के लिए बल्गारियायी और रूसी भाषा में?'
अबूतालिब का जवाब - 'बल्गारियायी और रूसी भाषा - सगी बहनों जैसी हैं। लेकिन हमारी भाषाएँ तो बहुत दूर के रिश्ते की चचेरी-ममेरी बहनों जैसी भी नहीं हैं। इनमें समान शब्द तो हैं ही नहीं। हमारे लेखकों में तो कुछ दलबंदी है, मगर हमारी भाषाओं में किसी तरह की दलबंदी नहीं। हर भाषा का अपना अलग रूप है।'
प्रश्न - 'आपकी भाषाएँ किन अन्य भाषाओं के साथ घनिष्ठता और किन भाषा-दलों से संबंध रखती हैं?'
अबूतालिब का जवाब - 'तात जाति के लोगों का कहना है कि वे ताजिक भाषा समझते हैं और हफीज का साहित्य पढ़ सकते हैं। लेकिन मैं उनसे पूछता हूँ कि अगर आप शेख सादी और उमर खय्याम की जबान समझते हैं तो उनके समान ही सृजन क्यों नहीं करते?
'पुराने वक्तों में सगाई करने के समय वर की प्रशंसा करते हुए कहा जाता था - 'वह कुमिक भाषा जानता है' - इसका मतलब यह होता था कि वर बहुत ही जानने-समझनेवाला व्यक्ति है, ऐसे व्यक्ति की पत्नी बड़ी सुखी रहेगी।
'वास्तव में ही कुमिक भाषा जाननेवाला आदमी तुर्की, आजरबाइजानी, तातारी, बल्कार, कजाख, उज्बेक, किर्गिज, बश्कीरी और आपस में मिलती-जुलती बहुत-सी ऐसी अन्य भाषाएँ भी समझ सकता है। अनुवाद के बिना हिकमत, काइसीन कुलीयेव और मुस्ताइ करीम की रचनाएँ पढ़ सकता है... लेकिन मेरी भाषा! हम लाकों के सिवा इसे वे विद्वान ही समझते होंगे जिन्होंने डी.लिट्. की उपाधि पाने के लिए इसके अध्ययन में अनेक साल लगाए होंगे।
'लाक जाति का एक प्रसिद्ध व्यक्ति सारी दुनिया में घूमकर इथोपिया पहुँच गया और वहाँ मंत्री बन गया। उसने इस बात पर जोर दिया कि अपनी इतनी लंबी यात्रा के दौरान उसका हमारी लाक भाषा से मिलती-जुलती एक भी भाषा से परिचय नहीं हुआ।'
ओमार-हाजी - 'हमारी अवार भाषा भी किसी अन्य भाषा के समान नहीं है।'
अबूतालिब - 'दारगीन, लेज्गीन और ताबासारान भाषाओं से मिलती-जुलती भाषाएँ भी नहीं हैं।'
प्रश्न - 'एक-दूसरी से कोई समानता न रखनेवाली ये सारी भाषाएँ आपने कैसे सीख लीं?'
अबूतालिब - 'किसी वक्त मैं दागिस्तान में बहुत घूमता रहा था। लोगों को गीतों-गानों और मुझे रोटी की जरूरत थी। जब कोई आदमी पराये गाँव में जाता है और वहाँ की भाषा नहीं जानता तो कुत्ते भी उस पर ज्यादा गुस्से से भूँकते हैं। जरूरत ने मुझे सारे दागिस्तान की भाषाएँ सीखने को मजबूर किया।'
प्रश्न - 'फिर भी क्या दागिस्तान की भाषाओं की समानता और असमानता के लक्षणों की अधिक विस्तार से चर्चा करना संभव नहीं? भला यह कैसे हुआ कि इतने छोटे-से देश में इतनी भिन्न भाषाएँ हैं?'
अबूतालिब - 'हमारी भाषाओं की समानता और असमानता के बारे में अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। मैं विद्वान या भाषाशास्त्री नहीं हूँ, किंतु जिस रूप में मैं इस समस्या की कल्पना करता हूँ, उसे आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ। हम यहाँ बैठे हुए हैं। हममें से कुछ का पहाड़ों में और कुछ का मैदानों में जन्म हुआ तथा हम वहीं बड़े हुए। कुछ गर्म क्षेत्रों और कुछ ठंडे क्षेत्रों में, कुछ नदी के तट और कुछ सागर के तट पर जन्मे और बड़े हुए। कुछ ने वहाँ जन्म लिया, जहाँ खेत है, मगर बैल नहीं, कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ बैल है, मगर खेत नहीं। कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ आग है, मगर पानी नहीं और कुछ वहाँ जन्मे, जहाँ पानी है, किंतु आग नहीं। एक जगह मांस है, दूसरी जगह अनाज और तीसरी जगह फल। जहाँ पनीर रखा जाता है, वहाँ चूहे हो जाते हैं, जहाँ भेड़ें चराई जाती हैं, वहाँ भेड़ियों की भरमार हो जाती है। इसके अलावा-इतिहास, युद्ध, भूगोल, विभिन्न पड़ोसियों और प्रकृति को भी ध्यान में रखना चाहिए।
'हमारे यहाँ 'प्रकृति शब्द के दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो है - भूमि, घास, पेड़, पर्वत और दूसरा अर्थ है - मानव का स्वभाव। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकृति ने विभिन्न नामों, नियमों और रीति-रिवाजों के प्रकट होने में योग दिया।
'अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग ढंग से समूरी टोपी पहनी जाती है, अलग-अलग ढंग से कपड़े पहने जाते हैं और मकान बनाए जाते हैं। पालने के करीब अलग-अलग लोरियाँ गाई जाती हैं। महमूद ने दो तारोंवाले पंदूरे पर अपने गाने गाए, इरची कजाक के पंदूरे में तीन तार थे। लेज्गीन जाति का सुलेमान स्ताल्स्की तारा नामक बाजा बजाता था। कुछ बाजों के लिए बकरी की अँतड़ियों और कुछ के लिए लोहे के तार बनाए जाते हैं।
'जातियाँ या जनगण अनेक हैं और हरेक के अपने रस्म-रिवाज हैं। सभी जगह पर ऐसा ही है। बच्चे का जन्म होता है। एक जाति में बच्चे को बपतिस्मा दिया जाता है, दूसरी में उसकी सुन्नत की जाती है और तीसरी में उसके जन्म का प्रमाणपत्र तैयार किया जाता है। लड़का जब बालिग होता है तो दूसरे रीति-रिवाज सामने आते हैं। किसी लड़की से उसकी सगाई की जाती है... वैसे, सगाई करना - यह भी एक रीति-रस्म ही है। मैं यह कहना चाहता था कि कोई नौजवान शादी करता है तो तीसरे ढंग के रीति-रिवाजों से वास्ता पड़ता है। दागिस्तान में विवाह के रीति-रिवाजों की चर्चा करने के लिए तो पूरा एक दिन भी नाकाफी रहेगा। अगर आपमें से कोई उनके बारे में जानना चाहेगा तो उसे हम 'दागिस्तान के जनगण के रीति-रिवाज' पुस्तक भेंट कर देंगे। आप घर लौटकर उसे पढ़ लीजिएगा।'
प्रश्न - 'रीति-रिवाज भी भिन्न-भिन्न हैं। ऐसी स्थिति में कौन-सी चीज आपके लोगों को निकट लाती है, सूत्रबद्ध करती है?'
अबूतालिब - 'दागिस्तान।'
प्रश्न - 'दागिस्तान... हमें यह बताया गया है कि दागिस्तान का अर्थ 'पर्वतों का देश' है। इसका मतलब तो यह हुआ कि दागिस्तान एक जगह का नाम है?'
अबूतालिब - 'जगह का नाम नहीं, बल्कि मातृभूमि, जनतंत्र का नाम है। जो पहाड़ों में रहते हैं और जो घाटियों में - सभी के लिए यह शब्द समान अर्थ रखता है। नहीं, दागिस्तान - यह केवल भौगोलिक धारणा नहीं है। दागिस्तान का अपना रंग-रूप है, उसकी अपनी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ और सपने हैं। उसका साझा इतिहास, साझा भाग्य, साझे सुख-दुख हैं। क्या एक उँगली का दर्द दूसरी उँगली महसूस नहीं करती? हमारे यहाँ 'अक्तूबर क्रांति', 'लेनिन' और 'रूस' जैसे साझे शब्द भी हैं। इन शब्दों का हर भाषा में अनुवाद करने की भी जरूरत नहीं। अनुवाद के बिना ही वे तो समझ में आ जाते हैं। हम लेखकों के बीच बहुत-से वाद-विवाद होते हैं। किंतु इन तीन शब्दों के बारे में हमारे बीच कोई मतभेद नहीं। आप समझ गए?'
प्रश्न - 'यह तो हम समझ गए। लेकिन मैं एक और बात पूछना चाहता हूँ। एक समाचारपत्र में मैंने आज अदाल्लो अलीयेव की कविता पढ़ी। अनातोली जायत्स ने उसका रूसी में अनुवाद किया है। वहाँ कहा गया है कि अनुवाद दागिस्तानी भाषा से किया गया है। यह कौन-सी भाषा है?'
अबूतालिब - 'यह भाषा तो मैं भी नहीं जानता। अदाल्लो अलीयेव से मेरी कल मुलाकात हुई थी और मैंने उससे बातचीत की थी। कल तक तो वह अवार था। मालूम नहीं कि उसमें ऐसा क्या परिवर्तन हो गया है। लेकिन आप इस मामले की तरफ कोई खास ध्यान नहीं दें, यह तो महज गलती है।'
प्रश्न - 'हमारे संयुक्त राज्य अमरीका में भी अनेक जातियाँ और भाषाएँ हैं। किंतु मूलभूत, राजकीय भाषा अंग्रेजी है। सारे काम-काज, उत्पादन के सभी मामलों और दस्तावेजों में इसी भाषा का उपयोग होता है। लेकिन आपके यहाँ? आपके यहाँ कौन-सी मूलभूत भाषा है?'
अबूतालिब - 'हर व्यक्ति के लिए उसकी मूलभूत भाषा उसकी माँ की भाषा है। जो आदमी अपने पहाड़ों को प्यार नहीं करता, वह पराये मैदानों को भी प्यार नहीं कर सकता। जो सुख घर पर नहीं मिला, वह बाहर सड़क पर भी नहीं मिलेगा। जो अपनी माँ की चिंता नहीं करता, वह परायी औरत की भी चिंता नहीं करेगा। जब हाथ में मजबूती से तलवार पकड़नी हो या किसी दोस्त के साथ तपाक से हाथ मिलाना हो तो हाथ की सभी उँगलियाँ मूलभूत होती हैं।'
प्रश्न - 'मैंने मुतालिब मितारोव की लंबी कविता पढ़ी है। उसमें उसने इस बात पर जोर दिया है कि वह न तो अवार, न तात, न ताबासारान और न दागिस्तानी ही है। आप इसके बारे में क्या कह सकते हैं?'
अबूतालिब (मितारोव को नजरों से ढूँढ़ते हुए) - 'सुनो मितारोव, तुम अवार, कुमिक, तात, नोगाई, लेज्गीन नहीं हो, यह तो मैं बहुत अरसे से जानता हूँ। लेकिन तुम ताबासारान भी नहीं हो, यह मैं पहली बार सुन रहा हूँ। आखिर तुम कौन हो? कल तुम शायद यह लिख दो कि मुतालिब भी नहीं हो और मितारोव भी नहीं। मिसाल के तौर पर मैं अबूतालिब गफूरोव हूँ। मैं सबसे पहले तो लाक जाति का हूँ, दूसरे दागिस्तानी हूँ, तीसरे सोवियत देश का शायर हूँ। या इसके उलट इस तरह कहा जा सकता है - सबसे पहले मैं सोवियत शायर हूँ, दूसरे यह कि मैं दागिस्तान-जनतंत्र में रहता हूँ और तीसरे यह कि लाक जाति का हूँ और लाक भाषा में लिखता हूँ। यह सब कुछ मेरे साथ अविछिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह मेरा सबसे कीमती खजाना है। मैं इनमें से किसी भी चीज से इनकार नहीं करना चाहता। इनके लिए मैं अपनी जान की बाजी भी लगा दूँगा।'
प्रश्न (जर्मन जनवादी जनतंत्र का संवाददाता) - 'मेरे हाथों में चिकित्साशास्त्र के पी-एच.डी. साथी अलीकिशीयेव की पुस्तक है। इसका शीर्षक है - 'दागिस्तान में लंबी उम्र'। इसमें लेखक ने एक सौ साल से ज्यादा उम्र के लोगों के बार में लिखा है और यह साबित किया है कि लंबी उम्र की दृष्टि से दागिस्तान का सोवियत संघ में पहला स्थान है। किंतु आगे उसने इस बात की भी पुष्टि की है कि यहाँ की जातियों में धीरे-धीरे एक-दूसरी के निकट होने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है और अंततः दागिस्तान में एक ही जाति हो जाने की भी संभावना है। कुछ सालों के बाद अवार, दारगीन और नोगाई जाति के लोग अपने को दागिस्तानी मानने लगेंगे और पासपोर्ट में भी ऐसा ही लिखेंगे। मैंने आपके एक अन्य विद्वान के लेख भी पढ़े हैं जो इस बात की पुष्टि करता है कि आपका साहित्य जातियों की सीमाएँ तोड़कर पूरे दागिस्तान का साहित्य बनता जा रहा है। अगर विज्ञान के पी-एच.डी. और डी.लिट्. अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे प्रश्न उठाते हैं तो इसका मतलब है कि ये प्रश्न महत्वपूर्ण और गहन हैं?'
अबूतालिब - 'साथी अलीकिशीयेव से भी मैं परिचित हूँ। वह हमारे ही इलाके का रहनेवाला है। यह विद्वान अनेक बुजुर्गों से इसलिए मिला कि वे उसे अपने जीवन के बारे में बताएँ। लेकिन सभी जातियों की एक जाति बनाने का विचार शायद ही किसी सम्मानित बुजुर्ग ने प्रकट किया हो। यह उसके अपने ही दिमाग की उपज है। मैं बहुत-से ऐसे 'मिचूरिनों' को जानता हूँ जिन्होंने अपनी 'प्रयोगशालाओं' में विभिन्न भाषाओं को मिलाकर तथा उन पर खरगोशों की भाँति तरह-तरह के प्रयोग करके एक संकरण भाषा बनाने की कोशिश की है। दागिस्तान के सात जातीय थियेटरों को मिलाकर एक थियेटर बनाने की कोशिश की गई। दागिस्तान के पाँच जातीय समाचार-पत्रों को मिलाकर एक पत्र बनाने का प्रयास किया गया। हमारे लेखक-संघ के अनेक विभागों को एक विभाग में मिलाने का यत्न किया गया, लेकिन ये सारी कोशिशें तो वैसी ही हैं जैसे कि अनेक शाखाओंवाले पेड़ को एक सीधे तने में बदलने की कोशिशें।'
प्रश्न - 'मैं भारतीय समाचार-पत्र का संवाददाता हूँ। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ हैं - हिंदी, उर्दू, बंगाली... कुछ राष्ट्रवादियों ने यह चाहा कि उनकी भाषा ही सारे भारत की राजकीय भाषा बन जाए। इसके कारण वाद-विवाद और खूनी दंगे-फसाद भी हुए। आपके यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ?'
अबूतालिब - 'एक बार दो लड़कों के बीच इस तरह का झगड़ा हुआ था। अवार और कुमिक जाति के दो लड़के एक गधे पर जा रहे थे। अवार जाति का लड़का चिल्ला रहा था - 'ख्आ! ख्आ! ख्आमा!' और कुमिक लड़का चिल्ला रहा था - 'एश! एश! एशेक!' इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ था - गधा। लेकिन लड़कों का झगड़ा इतना ज्यादा बढ़ गया कि दोनों ही गधे से नीचे गिर गए और 'ख्आमा' तथा 'एशेक' के बिना रह गए। संभवतः यह तो बच्चों का वाद-विवाद है। हम अपनी भाषाओं को भेड़िये नहीं बनाते हैं। वे हमें चीरते-फाड़ते नहीं हैं। हमारे यहाँ तो यह भी कहा जाता है - 'घरेलू मूर्ख अपने पड़ोसियों की निंदा करता है, गाँव का मूर्ख पड़ोस के गाँवों की निंदा करता है और राष्ट्रीय मूर्ख दूसरे देशों की निंदा करता है।' जो आदमी किसी दूसरी भाषा के बारे में कुछ बुरा कहता है, उसे हमारे यहाँ आदमी ही नहीं माना जाता।'
प्रश्न - 'तो आप यह कहना चाहते हैं कि इस सवाल को लेकर आपके यहाँ वाद-विवाद और किसी तरह की गलतफहमियाँ नहीं हुईं?'
अबूतालिब - 'वाद-विवाद तो हुए। किंतु हमारी भाषाओं के मामले में कभी और किसी ने भी गंभीर हस्तक्षेप नहीं किया। हमारे नामों के मामले में भी। हर कोई उस भाषा में लिख, पढ़, गा और बातचीत कर सकता है जिसमें चाहता है। यह साबित करते हुए बहस तो की जा सकती है कि फलाँ चीज अच्छी या बुरी, सही या गलत और सुंदर या कुरूप है। किंतु क्या पूरी की पूरी जातियाँ अथवा अल्प जातियाँ गलत, बुरी या कुरूप हो सकती हैं? इस विषय पर यदि वाद-विवाद हुए भी तो उनमें न तो किसी की जीत और न किसी की हार ही हुई।'
प्रश्न - 'फिर भी क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि दागिस्तान में एक ही जाति और एक ही भाषा हो?'
अबूतालिब - 'अनेक लोग ऐसे कहते हैं - 'काश, हमारी एक ही भाषा होती!' लंगड़े राजबादिन ने जार्जिया पर अपनी एक चढ़ाई के वक्त जार इराकली से यह कहा - 'इस सारी मुसीबत की जड़ यह है कि हम एक-दूसरे की भाषा नहीं जानते।' हाजी-मुरात ने हाइदाक-ताबासारान से अपने इमाम को यह लिखा - 'हम एक-दूसरे को नहीं समझे।'
'बेशक यह ज्यादा अच्छा रहता है, जब लोग आसानी और पहले ही शब्द से एक-दूसरे को समझ जाते हैं। तब बहुत कुछ अधिक आसान हो जाता, कहीं कम श्रम से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता। लेकिन अगर परिवार में बहुत बच्चे हों तो इसमें भी कुछ बुराई नहीं। परिवार को हर बच्चे की चिंता करनी चाहिए। बहुत कम माता-पिता ही बाद में इस चीज के लिए पछताते हैं कि उनके बहुत बच्चे हैं।
'कुछ लोग कहते हैं - 'देर्बेंत की सीमाओं से परे हमारी भाषा की किसे जरूरत है? हमें तो वहाँ कोई भी नहीं समझ पाएगा।'
'दूसरे कहते हैं - 'अराकान दर्रे के आगे हमारी भाषा किस काम की है?'
'कुछ अन्य शिकायत करते हैं - 'हमारे गीत तो सागर तक भी नहीं पहुँच सकेंगे।'
'लेकिन ऐसे लोग अपनी भाषाओं को अभिलेखागारों में भेजने की बहुत ही जल्दी कर रहे हैं।'
प्रश्न - 'समेकन या एकजुटता के बारे में आपकी क्या राय है?'
अबूतालिब - 'समेकन की पराये और बेगाने लोगों को जरूरत होती है। भाइयों को समेकन से क्या लेना-देना है।'
प्रश्न - 'फिर भी इसलिए कि भाई से बात कर सके, उनकी एक ही भाषा होनी चाहिए।'
अबूतालिब - 'हमारे यहाँ ऐसी एक भाषा है।'
प्रश्न - 'कौन-सी?'
अबूतालिब - 'वह भाषा जिसमें हम इस समय आपसे बातचीत कर रहे हैं। वह रूसी भाषा है। उसे अवार, दारगीन, लेज्गीन, कुमिक, लाक और तात, सभी जातियों के लोग समझते हैं। (अबूतालिब ने लेर्मोंतोव, पुश्किन और लेनिन के चित्रों की ओर संकेत किया।) इनके साथ तो हम एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं।'
प्रश्न - 'मैंने रसूल हमजातोव की दो खंडों में प्रकाशित रचनाएँ पढ़ी हैं। पहले खंड में 'मातृभाषा' नामक कविता में उन्होंने अवार भाषा का गुणगान किया है, लेकिन दूसरे खंड में इसी शीर्षक की कविता में उन्होंने रूसी भाषा की स्तुति की है। क्या एक साथ दो घोड़ों पर सवार हुआ जा सकता है? हम किस हमजातोव पर विश्वास करें - पहले या दूसरे खंडवाले हमजातोव पर?'
अबूतालिब - 'इस प्रश्न का स्वयं रसूल हमजातोव ही उत्तर दें।'
रसूल - 'में भी यही समझता हूँ कि एक साथ दो घोड़ों पर सवार नहीं हुआ जा सकता। लेकिन दो घोड़ों को एक ही गाड़ी या बग्घी में जरूर जोता जा सकता है। दोनों बग्घी को खींचें। दो घोड़े - दो भाषाएँ दागिस्तान को आगे ले जाती हैं। उनमें से एक रूसी है और दूसरी हमारी - अवार जातिवालों के लिए अवार, लाकों के लिए लाक। मुझे अपनी मातृभाषा प्यारी है। मुझे अपनी दूसरी मातृभाषा भी प्यारी है जो मुझे इन पर्वतों, इन पहाड़ी पगडंडियों से पृथ्वी के विस्तार, बहुत बड़ी और समृद्ध दुनिया में ले गई। सगे को ही मैं सगा कहता हूँ। मैं दूसरा कुछ कर ही नहीं सकता।'
प्रश्न - 'इस संबंध में मैं रसूल हमजातोव से कुछ और भी पूछना चाहता हूँ। अपनी कविता में उन्होंने लिखा है - 'अगर अवार भाषा के भाग्य में कल मरना बदा है तो मैं दिल के दौरे से आज ही मर जाऊँ।' लेकिन आपके यहाँ तो यह भी कहा जाता है कि 'जब बड़ा आए तो छोटे को उठकर खड़ा हो जाना चाहिए।' रूसी भाषा आ गई। क्या छोटी, स्थानीय भाषा को उसके लिए अपनी जगह नहीं छोड़नी चाहिए? आप लोगों के शब्दों में ही सिर पर दो टोपियाँ एक साथ नहीं ओढ़नी चाहिए। या किसलिए एक साथ ही दो सिगरेटें मुँह में ली जाएँ?'
रसूल - 'भाषाएँ न तो टोपियाँ हैं और न सिगरेटें। भाषा की भाषा से दुश्मनी नहीं होती। एक गीत दूसरे गीत की हत्या नहीं करता। पुश्किन के दागिस्तान में आ जाने पर महमूद को अपनी मातृभूमि नहीं छोड़नी चाहिए। लेर्मोंतोव किसलिए बातीराय की जगह ले। अगर कोई अच्छा दोस्त हमसे हाथ मिलाता है तो हमारा हाथ उसके हाथ में गायब नहीं हो जाता। वह अधिक गर्म और मजबूत ही हो जाता है। भाषाएँ सिगरेटें नहीं, जीवन के दीपक हैं। मेरे दो दीपक हैं। एक ने पैतृक घर की खिड़की से मेरा मार्ग रोशन किया। उसे मेरी माँ ने जलाया था ताकि मैं रास्ते से भटक न जाऊँ। अगर यह दीपक बुझ जाएगा तो सचमुच मेरा जीवन-दीप भी बुझ जाएगा। अगर मैं शारीरिक रूप से नहीं मरूँगा तो भी मेरा जीवन गहरे अँधेरे में डूब जाएगा। दूसरा दीपक मेरे महान देश, मेरी बड़ी मातृभूमि रूस ने जलाया है, ताकि मैं बड़ी दुनिया में अपनी राह न भूल जाऊँ। उसके बिना मेरा जीवन अंधकारमय और तुच्छ हो जाएगा।'
अबूतालिब - 'पत्थर को उठाना कैसे ज्यादा आसान है - एक हाथ से कंधे पर से या दो हाथों से छाती पर से?'
प्रश्न - 'फिर भी पहाड़ी लोग अपने उन घरों को छोड़कर जा रहे हैं जहाँ उनकी माताओं ने दीपक जलाए और जाकर मैदानों में बस रहे हैं?'
अबूतालिब - 'किंतु दूसरी जगहों पर जाकर बसने के समय वे अपनी भाषा और अपने नाम भी अपने साथ ले जाते हैं। वे अपनी समूरी टोपी ले जाना भी नहीं भूलते। उनकी खिड़कियों में रोशनी भी वही जगमगाती है।'
प्रश्न - 'लेकिन नई जगहों पर नौजवान लोग अक्सर दूसरी जातियों की युवतियों से शादियाँ कर लेते हैं। वे किस भाषा में बात करते हैं? और बाद में उनके बच्चे किस भाषा में बात करते हैं?'
अबूतालिब - 'हमारे यहाँ एक पुराना किस्सा है। एक नौजवान को किसी दूसरी जाति की युवती से मुहब्बत हो गई और उसने उससे शादी करने का फैसला किया। युवती ने कहा - 'मैं तुम्हारे साथ तब शादी करूँगी, जब तुम मेरी सौ इच्छाएँ पूरी कर दोगे।' नौजवान उसकी सनकें पूरी करने लगा। सबसे पहले तो उसने नौजवान को ऐसी चट्टान पर चढ़ने को मजबूर किया जिसमें पाँव टिकाने के लिए आगे को बढ़ा हुआ एक भी हिस्सा नहीं था। इसके बाद इस चट्टान से नीचे कूदने को कहा। नौजवान कूदा और उसकी टाँग में चोट आ गई। युवती ने तीसरी इच्छा यह प्रकट की कि वह लँगड़ाए बिना चले। खैर, नौजवान ने लँगड़ाना बंद कर दिया। युवती ने उसे तरह-तरह के कार्य भार सौंपे, जैसे कि खुरजी को भीगने न देकर तैरते हुए नदी को पार करे, सरपट दौड़े आते घोड़े को रोक दे, घोड़े को घुटने टेकने को मजबूर करे, यहाँ तक कि उस सेब को भी काट डाले जिसे युवती ने अपनी छाती पर रख लिया था... नौजवान ने युवती के निन्यानवे आदेश पूरे कर दिए। सिर्फ एक ही बाकी रह गया। तब युवती ने कहा - 'अब तुम अपनी माँ, पिता और भाषा को भूल जाओ।' यह सुनते ही नौजवान उछलकर घोड़े पर सवार हो गया और हमेशा के लिए उससे नाता तोड़कर चला गया।'
प्रश्न - 'यह सुंदर किस्सा है। मगर हकीकत क्या है?'
अबूतालिब - 'हकीकत तो यह है कि कोई नौजवान और युवती जब दांपत्य जीवन आरंभ करते हैं तो अपने ऊपर बहुत-सी जिम्मेदारियाँ लेते हैं। लेकिन कोई भी दूसरे से अपनी भाषा भूल जाने को नहीं कहता। इसके विपरीत, हर कोई दूसरे की भाषा जानने की कोशिश करता है।
'हकीकत तो यह है कि हम बड़ी उदासी से और भर्त्सना करते हुए ऐसे बच्चों की तरफ देखते हैं जो अपनी माता-पिता की भाषा नहीं जानते। खुद बच्चे ही माता-पिता की इसलिए भर्त्सना करने लगते हैं कि उन्होंने उन्हें अपनी भाषा नहीं सिखाई। ऐसे लोगों पर तरस आता है।
'हकीकत यह है कि हम आपके सामने बैठे हैं। ये रहीं हमारी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यासिकाएँ और पुस्तकें। ये हैं हमारी पत्र-पत्रिकाएँ। ये विभिन्न भाषाओं में छपती हैं और हर साल अधिकाधिक संख्या में छापी जाती हैं। विराट देश ने हमारी भाषाओं को पीछे नहीं धकेल दिया है। उसने उन्हें कानूनी मान्यता दी है, उनकी पुष्टि की है और वे सितारों की तरह जगमगा उठी हैं। 'और तारक तारिका से बात करता।' हम दूसरों को देखते हैं और दूसरे हमें देखते हैं। अगर ऐसा ने होता तो आपने भी हमारे बारे में कुछ न सुना होता, हममें कोई दिलचस्पी न ली होती। हमारी यह मुलाकात भी न हुई होती। तो हकीकत ऐसी है...'
प्रश्न - उत्तर, प्रश्न - उत्तर। अगर वक्त होता तो लगता है कि हमारा यह सम्मेलन कभी समाप्त न होता। सभी जनगण में लगातार भाषा के बारे में बातचीत होती रही है और हो रही है, किंतु इस बातचीत का कभी अंत होता नजर नहीं आता।
'हमारा यह पत्रकार-सम्मेलन झूमर नृत्य-गान के खेल के समान है जिसमें कुछ लोग प्रश्न पूछते हैं और दूसरे उत्तर देते हैं,' इस तरह के सम्मेलन के आदी न होने के कारण बुरी तरह से थके-हारे अबूतालिब ने अंत में कहा।
प्रश्न - वह तो कमान से छोड़ा हुआ तीर है जो कहीं भी जा गिरे। जवाब - वह तो निशाने पर जा लगनेवाला तीर है। प्रश्न - उत्तर। प्रश्नसूचक चिह्न - विस्मयबोधक चिह्न। अतीत - प्रश्न है, वर्तमान - उत्तर है।
पुराना दागिस्तान पत्थर पर बैठी हुई बुढ़िया के समान था। वह प्रश्नसूचक चिह्न था। आज का दागिस्तान - विस्मयबोधक चिह्न है। वह म्यान से बाहर निकली और तनी हुई तलवार है।
जब दागिस्तान में क्रांति पहुँची तो उससे आतंकित लोगों ने कहा कि जल्दी ही जातियाँ, भाषाएँ, नाम और रंग लुप्त हो जाएँगे। हमारी औरतों का मेसेदा नाम मारूस्या बन जाएगा और मर्दों का मूसा नाम वास्या हो जाएगा। यह भी कहा गया कि आदमी को यह तक सोचने की फुरसत नहीं होगी कि वह किस जाति और किस जगह का है। सभी को एक साझे कंबल के नीचे लिटा दिया जाएगा। बाद में अधिक शक्तिशाली लोग कंबल को अपनी ओर खींच लेंगे और अधिक दुर्बल लोग ठिठुरते रह जाएँगे।
दागिस्तान ने ऐसे लोगों की बातों पर कान नहीं दिया। पर्वतीय सरकार के सदस्य, गाइदार बामातोव ने उसे विदेश ले जानेवाले जहाज पर चढ़ते हुए कहा था - 'उनकी आत्माओं ने मेरे शब्दों को स्वीकार नहीं किया। देखेंगे कि आगे क्या होता है।'
आगे क्या हुआ, यह सभी देख रहे हैं। इसे पुस्तक में लिखा जा चुका है, गीतों में गाया जा चुका है। जिनके कान हैं - वे सुन लेंगे, जिनकी आँखें हैं - वे देख लेंगे।
एक पहाड़िये ने साझे कंबल से डरकर दागिस्तान छोड़ दिया और तुर्की चला गया। पचास साल बात वह दागिस्तान में यह देखने आया कि हमारे यहाँ जिंदगी का रंग-ढंग कैसा है। मैंने उसे मखाचकला में, जो पहले पोर्ट-पेत्रोव्स्क कहलाता था, घूमने के लिए आमंत्रित किया। रूसी जार का नामवाला शहर अब दागिस्तान के क्रांतिकारी मखाच का नाम धारण किए हुए है। मैंने मेहमान को दागिस्तान के सपूतों - बातीराय, उल्लूबी, कापीयेव - के सम्मान में उनके नामोंवाली सड़कें दिखाई। मेहमान सागर तटवर्ती चौक में सुलेमान स्ताल्स्की के स्मारक को देर तक देखता रहा। लेनिन सड़क पर उसने मेरे पिता-हमजात त्सादासा का स्मारक देखा। पता चला कि दागिस्तान छोड़कर जाने से पहले वह मेरे पिता जी से परिचित था।
विज्ञान अकादमी की शाखा के विद्वानों ने उससे भेंट की। उसने इतिहास, भाषा तथा साहित्य के वैज्ञानिक-अनुसंधान इन्स्टीट्यूट के सहकर्मियों से बातचीत की। उसने दागिस्तान के इतिहास और कला-संग्रहालय के हॉलों को देखा। वह विश्वविद्यालय में भी गया जहाँ पहाड़ी युवक-युवतियाँ पंद्रह विभागों में शिक्षा पाते हैं। शाम को हम राजकीय अवार थियेटर में गए। अवार जाति के नामवाले थियेटर में अवार लोग अवार लेखक का अवार युवती के बारे में लिखा हुआ नाटक देख रहे थे। यह हाजी जालोव द्वारा लिखा गया 'अनखील मारीन' नाटक था। जब रूसी संघ की जन-कलाकार पातीमात हिजरोयेवा ने, जो मारीन की भूमिका निभा रही थी, एक पुराना अवार गाना गाया तो हमारा मेहमान अपनी भावनाओं को वश में नहीं रख सका और उसकी आँखें छलछला आईं।
चौक में वह देर तक लेनिन के स्मारक के सामने खड़ा रहा। इसके बाद बोला -
'मैं यह सपना तो नहीं देख रहा हूँ?'
'इस सपने के बारे में आप तुर्की में रहनेवाले अवार जाति के लोगों को बताइए।'
'वे यकीन नहीं करेंगे। अगर मैंने अपनी आँखों से यह सब न देखा होता तो खुद भी यकीन न करता।'
अबूतालिब ने ऐसे कहा था - 'पहली बार मैंने नरकट काटा, उसकी मुरली बनाई और उसे बजाया। मेरे गाँव ने मेरी मुरली की आवाज सुनी। इसके बाद मैंने पेड़ की मोटी टहनी काटी, उसकी तुरही बनाई और उस पर दूसरा गाना बजाया। मेरी आवाज दूर पहाड़ों तक सुनी गई। इसके बाद मैंने पेड़ काटकर उसका जुरना बनाया और उसकी आवाज सारे दागिस्तान में गूँज गई। इसके बाद मैंने छोटी-सी पेंसिल लेकर कागज पर कविता लिख दी। वह दागिस्तान की सीमाओं से कहीं दूर उड़ गई।'
तो भाषाएँ बाँटनेवाले भगवान के दूत, तुम्हारा एक बार फिर से शुक्रिया, इस चीज के लिए शुक्रिया कि तुमने हमारे पर्वतों, हमारे गाँवों और हमारे दिलों की अवहेलना नहीं की।
उन सबका भी शुक्रिया जो अपनी मातृभाषाओं में गाते और सोचते हैं।