आग के साथ खिलवाड़ नहीं करो
मेरे पिता जी कहा करते थे।
पानी में कंकड़-पत्थर नहीं फेंको
अम्माँ अनुरोध किया करती थीं।
विभिन्न लोगों को उनकी माँ विभिन्न रूपों में याद आती है। मैं अपनी माँ को सुबह, दुपहर और शाम को याद करता हूँ।
सुबह को वह पानी से भरा हुआ घड़ा लेकर चश्मे से लौटती थीं। वह बहुत ही कीमती चीज की तरह उसे लेकर आती थीं। वह पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़तीं, घड़े को जमीन पर रख देतीं और चूल्हे में आग जलाने लगतीं। आग भी वह बहुत ही कीमती चीज की तरह जलातीं। वह कभी चिंता तो कभी मुग्ध भाव से उसकी ओर देखतीं। आग के अच्छी तरह से जल जाने तक अम्माँ पालना झुलाती रहतीं। उसे भी किसी बहुत ही कीमती चीज की तरह झुलातीं। दुपहर के वक्त अम्माँ खाली घड़ा लेकर पानी लाने को चश्मे पर जातीं। इसके बाद आग जलातीं, इसके बाद पालना झुलातीं। शाम को अम्माँ घड़े में पानी लातीं, पालना झुलातीं, आग जलातीं।
वह वसंत, गर्मी, पतझर और जाड़े में हर दिन ऐसा ही करतीं। वह धीरे-धीरे, बड़ी गंभीरता से ऐसा करतीं जैसे कि कोई अत्यधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण काम कर रही हों। वह पानी लाने जातीं, पालना झुलातीं, आग जलातीं। आग जलातीं, पानी लाने जातीं, और पालना झुलातीं। पालना झुलातीं, आग जलातीं, पानी लाने जातीं। मेरे मन में मेरी माँ की स्मृति इसी रूप में अंकित है। पानी लाने के लिए जाते वक्त वह हमेशा मुझसे कहती थीं - 'आग का ध्यान रखना।'
आग की चिंता करते हुए मुझे नसीहत देती थीं - 'इसे बुझने नहीं देना, पानी नहीं गिराना।' मुझे लोरी देते हुए वह यह भी कहा करती थीं - 'दागिस्तान के लिए आग पिता है, पानी माँ है।'
हमारे पर्वत तो सचमुच अश्मीभूत आग जैसे लगते हैं। तो आइए आग की चर्चा करें।
पत्थर से पत्थर टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
दो चट्टानों को टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
करतल से करतल टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
शब्द-शब्द को यदि टकराओ - निकलेगी उनसे चिनगारी।
जुरने के तारों को छेड़ो - निकलेगी उससे चिनगारी।
वादक, गायक की आँखों में झाँको, पाओगे चिनगारी।
मेमने की खाल से सिली हुई पहाड़ी आदमी की टोपी से भी चिनगारियाँ निकलती हैं, खास तौर पर जब उसे हाथ से सहलाया जाता है।
पहाड़ी आदमी समूर की ऐसी टोपी पहने हुए जब अपने घर की छत पर आता है तो पड़ोस के पहाड़ पर बर्फ पिघलने लगती है।
खुद बर्फ में से भी आग की चिनगारियाँ निकलती रहती हैं। पौ फटने के वक्त पहाड़ की चोटी पर खड़े पहाड़ी बकरे के सींग पर भी आग चमकती होती है। सूर्यास्त के समय पहाड़ी चट्टानें भी लाल-लाल आग में पिघलती होती हैं।
पहाड़ी कहावत और पहाड़ी औरत के आँसू में भी आग होती है। बंदूक की नली के सिरे और म्यान से निकाले गए खंजर की धार में भी आग होती है। किंतु सबसे अधिक दयालु और स्नेहपूर्ण आग माँ के हृदय और हर घर के चूल्हे में होती है।
पहाड़ी आदमी जब अपने बारे में कुछ अच्छे शब्द कहना चाहता है या केवल अपनी डींग हाँकना चाहता है तो कहता है - 'मुझे किसी से आग माँगने के लिए तो अब तक जाना नहीं पड़ा।'
पहाड़ी आदमी जब किसी बुरे, किसी अप्रिय व्यक्ति के बारे में कुछ कहना चाहता है तो कहता है - 'उसकी चिमनी से निकलनेवाला धुआँ चूहे की पूँछ से बड़ा नहीं है।'
जब दो पहाड़ी बूढ़ियाँ एक-दूसरे से झगड़ती हैं तो उनमें से एक चिल्लाकर कहती है - 'तुम्हारे चूल्हे में कभी आग न जले।' - 'तुम्हारे चूल्हे में वह आग बुझ जाए जो जल रही है,' दूसरी जवाब देती है।
किसी बहादुर-दिलेर आदमी की चर्चा करते हुए पहाड़ी लोग कहते हैं - 'वह तो आदमी नहीं, आग है।'
एक नौजवान की नीरस और ऊबभरी कविताएँ सुनने के बाद मेरे पिता जी बोले -'इन कविताओं में एक तरह से सब कुछ है। लेकिन ऐसा भी होता है कि घर है, चूल्हा है, लकड़ी है, देगची है और देगची में गोश्त भी है, मगर आग नहीं। घर में ठंडक है, देगची में कुछ उबलता नहीं, गोश्त जायकेदार नहीं। आग नहीं - जिंदगी नहीं! इसलिए तुम्हारी कविताओं को आग की जरूरत हैं!'
शामिल से एक बार पूछा गया - 'इमाम, यह बताओ, भला यह कैसे हुआ कि छोटा-सा और अधभूखा दागिस्तान सदियों तक बड़े-बड़े शक्तिशाली राज्यों के विरुद्ध जूझता और उनका मुकाबला करता रहा? कैसे वह पूरे तीस सालों तक बहुत ही शक्तिशाली गोरे जार के विरुद्ध संघर्ष करता रहा?'
शामिल ने जवाब दिया - 'अगर दागिस्तान की छाती में प्यार और नफरत की आग न जलती होती तो वह कभी भी ऐसा संघर्ष न कर पाता। इसी आग ने चमत्कार किए और बहादुरी के कारनामे कर दिखाए। यह आग ही दागिस्तान की आत्मा यानी खुद दागिस्तान है।'
'मैं स्वयं भी कौन हूँ,' शामिल कहता गया, 'गीमरी नाम के एक दूरस्थ गाँव के माली का बेटा। दूसरे लोगों के मुकाबले में मैं न तो लंबा और न चौड़ी छातीवाला हूँ। बचपन में मैं तो बहुत कमजोर और दुबला-पतला लड़का था। मुझे देखकर वयस्क लोग अफसोस से सिर हिलाते थे और कहते थे - बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रहेगा यह। शुरू में मेरा नाम आली था। जब मैं बीमार रहता तो यह उम्मीद करते हुए कि पुराने नाम के साथ मेरी बीमारी भी खत्म हो जाएगी, मेरा नाम दिलकर शामिल रख दिया गया। मैंने बड़ी दुनिया नहीं देखी थी, बड़े शहरों में मेरा लालन-पालन नहीं हुआ था। मेरे पास ज्यादा धन-दौलत नहीं थी। अपने गाँव के मदरसे में मैंने तालीम हासिल की। मेरे माता-पिता गधे पर गीमरी के आड़ू लादकर मुझे तेमीरखान-शूरा मंडी में बेचने के लिए भेजते थे। बहुत समय तक मैं गधे को हाँकते हुए पहाड़ी पगडंडियों पर आता-जाता रहा। एक दिन मेरे साथ एक घटना हुई। यह बहुत पुरानी बात है, मगर मैं इसे भूल नहीं सकता और भूलना भी नहीं चाहता। वह इस कारण कि उसी वक्त मेरी हिम्मत, मेरे अंदर आग जागी। उसी वक्त मैं शामिल बना।
'तेमीरखान-शूरा मंडी के नजदीक, एक गाँव के छोर पर मुझे कुछ शरारती लड़के मिले जिन्होंने मेरा मजाक उड़ाना चाहा। एक छोकरे ने मेरे सिर से समूरी टोपी उतारी और उसे लेकर भाग गया। जब तक मैं इस शैतान को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागता रहा, इसी बीच दूसरे लड़के मेरे गधे पर से फलों की टोकरियाँ उतारने लगे। मेरी असहाय और रोनी-सी सूरत देखकर वे सभी ठहाके लगाते थे, खूब मजे लेते थे। उनके ये मजाक मुझे अच्छे नहीं लगे और मेरे भीतर वह आग जल उठी जिससे मे अभी तक अनजान था। मैंने हड्डी के सफेद हत्थेवाला खंजर म्यान से बाहर निकाल लिया। उस लड़के को, जो मेरी समूरी टोपी लेकर भागा था, मैंने गाँव के फाटक पर जा पकड़ा। उसे गंदी नाली में गिराकर मैंने उसके गले पर तेज खंजर रख दिया। उसने माफी माँगी।
'तुम आग के साथ खिलवाड़ नहीं करो।'
'इस शरारती छोकरे को गंदी नाली में ही छोड़कर मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। मेरे आड़ुओं को जहाँ-तहाँ बिखरानेवाले विभिन्न दिशाओं में भाग गए। तब मैं एक घर की छत पर चढ़कर चिल्लाया -
'अरे, कान खोलकर सुनो! अगर मेरे खंजर की आग से अपने पेट नहीं जलाना चाहते तो सब कुछ वैसे ही कर दो, जैसे था।'
'मजाक करनेवाले इन छोकरों ने मुझे दूसरी बार अपने शब्द दोहराने को मजबूर नहीं किया।
'उसी दिन मैंने बड़े-बूढ़ों को मंडी में यह कहते सुना - 'यह लड़का अभी बहुत कुछ करके दिखाएगा।'
'मैंने अपनी समूरी टोपी को भौहों तक नीचे खींच लिया और अपने अच्छे गधे को हाँकते हुए आगे चल दिया। क्या मैंने शोर-शराबा और लड़ाई-झगड़ा चाहा था? उन्होंने ही मेरे सब्र का प्याला छलका दिया था, मेरे दिल की आग को बाहर आने के लिए मजबूर कर दिया था।
'इसके बाद कई साल बीत गए। एक सुबह को मैं बाग में काम कर रहा था। आस्तीनें चढ़ाकर मैं उपजाऊ मिट्टी को नीचे से ऊपर ले जा रहा था और उसे हर पेड़ के इर्द-गिर्द डाल रहा था। मैं पुरानी समूरी टोपी में मिट्टी भर-भरकर ले जाता था। इस वक्त तक मेरे बदन पर कई घाव हो चुके थे। ये घाव विभिन्न मुठभेड़ों में मेरे जिस्म पर हुए थे। तो दूसरे गाँवों के, बहुत दूर के गाँवों के हमारे पहाड़ी लोग मेरे पास आए और बोले कि मैं अपने घोड़े पर जीन कस लूँ तथा हथियार बाँध लूँ। मैं हथियार बाँधना नहीं चाहता था, मैंने इनकार कर दिया, क्योंकि लड़ाई के मुकाबले में मुझे बागवानी कहीं ज्यादा पसंद थी।
'तब विभिन्न गाँवों से आनेवाले ये पहाड़िये मुझसे बोले -
'शामिल! पराये घोड़े हमारे चश्मों से पानी पीते हैं, पराये लोग हमारे चिराग बुझाते हैं। तुम खुद घोड़े पर सवार होते हो या हम तुम्हारी मदद करें?'
'और मेरे दिल में उसी तरह से आग भड़क उठी, जैसे उस वक्त भड़की थी। जब लड़कों ने मेरे सिर पर से समूरी टोपी उतारकर और आड़ू बिखराकर मेरे दिल को ठेस लगाई थी। उसी तरह, बल्कि उससे भी ज्यादा जोर से मेरे दिल में आग भड़क उठी। मुझे अपने बाग और दुनिया की किसी चीज की सुध-बुध न रही। वह आग, जो पच्चीस सालों से मुझे पहाड़ों में जहाँ-तहाँ ले जा रही है, उसे न तो बारिश, न हवा और न ठंड ही बुझा सकती है। गाँव धू-धू जल रहे हैं, जंगलों से धुआँ उठ रहा है, लड़ाई के वक्त धुएँ में से आग की लपटें चमकती हैं, पूरा काकेशिया ही जल रहा है। तो ऐसी चीज है आग!'
हमारे लोग सुनाते हैं कि पुराने वक्तों में अगर दुश्मन दागिस्तान की सीमा में घुस आते थे तो सबसे ऊँचे पहाड़ पर मीनार जितनी ऊँची आग जला दी जाती थी। इसे देखते ही सभी गाँव अपने अलाव जला लेते थे। यही वह जोरदार पुकार होती थी जो पहाड़ी लोगों को अपने जंगी घोड़ों पर सवार होने को प्रेरित करती थी। हर घर से घुड़सवार रवाना होते थे, हर गाँव से तैयार दस्ते रवाना होते थे। आग के आह्वान पर घुड़सवार और पैदल लोग दुश्मन से लोहा लेने को चल पड़ते थे। जब तक पहाड़ों पर अलाव जलते रहते थे, गाँवों में पीछे रह जानेवाले बूढ़ों, औरतों और बच्चों को यह मालूम होता था कि दुश्मन अभी दागिस्तान की सीमाओं में ही है। अलाव बुझ जाते तो इसका मतलब होता कि खतरा टल गया है और पूर्वजों की धरती पर फिर से शांति का समय आ गया है। सदियों के लंबे इतिहास में पहाड़ी लोगों को बहुत बार पहाड़ों की चोटियों पर लड़ाई का संकेत देनेवाली इस तरह की आग जलानी पड़ी है।
इस तरह की आग लड़ाई का झंडा भी होती थी और उसका आदेश भी। पहाड़ी लोगों के लिए यह आधुनिक तकनीकी साधनों-रडियो, तार और टेलीफोन-का काम देती थी। पहाड़ी ढालों पर अभी भी ऐसी वनहीन जगहें देखी जा सकती हैं, जहाँ ऐसा लगता है मानो विराटकाय भैंसे लेटे हुए हों।
पहाड़ी लोगों का कहना है कि खंजर के लिए सबसे ज्यादा भरोसे की जगह म्यान है, आग के लिए - चूल्हा और मर्द के लिए - घर। लेकिन अगर आग चूल्हे से बाहर आकर पहाड़ों की चोटियों पर भड़कने लगती है तो म्यान में चैन से पड़ा रहनेवाला खंजर खंजर नहीं और घर के चूल्हे के करीब बैठा रहनेवाला मर्द-मर्द नहीं।
दागिस्तान के चरवाहों के कर्तव्य बड़ी कड़ाई से विभाजित होते हैं। कुछ चरवाहे दिन को भेड़ें चराते हैं, दूसरे रात के वक्त उनकी जगह ड्यूटी ले लेते हैं और भेड़ों के रेवड़ों की भेड़ियों से रक्षा करते हैं। किंतु उनके बीच एक ऐसा भी आदमी होता है जो न तो भेड़ों और न भेड़ियों से उन्हें बचाने की ही चिंता करता है। उसका काम आग की रक्षा करना, उसे जलाए रखना, उसे बुझने न देना होता है। उसे अग्नि-रक्षक, आग को जलाए रखनेवाला कहा जाता है। ऐसा कहना ठीक नहीं होगा कि किसी एक आदमी को विशेष रूप से यही काम सौंप दिया जाता है, कि यह आदमी सिर्फ आग की ही रक्षा करता है। किंतु रात होने से पहले चरवाहे अवश्य ही एक ऐसे आदमी को चुन लेते हैं और उसे आग की चिंता करने का काम सौंप देते हैं।
यह बहुत जरूरी और मुश्किल काम है! खाना पकाना, गर्माहट पाना, गीले कपड़ों को सुखाना, प्रकाश, अच्छी बातचीत तथा पुरुषों की गंभीर बातचीत के समय अत्यधिक आवश्यक धूम्रपान को जारी रख सकना - यह सभी कुछ आग पर निर्भर करता है।
चरवाहों के झोपड़ों में चूल्हे नहीं होते। आग बाहर जलती रहती है और उसके लिए खास दौड़-धूप तथा चिंता की आवश्यकता होती है। हथेलियों, समूरी टोपी, लबादे के पल्ले से आग को बुरे मौसम-बारिश, बर्फ और बर्फ के तूफान से बचाना पड़ता है।
क्या बहादुरों, कवियों, गीतकारों, कथाकारों, नर्तकों और संगीतज्ञों-स्वरकारों को अग्नि-रक्षक कहना ठीक नहीं होगा? हमारे यहाँ बहुत-से ऐसे लोग हैं, जिनके दिलों में कविता, समर्पण और मातृभूमि के प्रति प्यार की शाश्वत आग जलती है, जो उसे सहेजते हैं और दूसरे लोगों तक पहुँचाते हैं।
मैं भी अपने हृदय में इस शाश्वत आग को अनुभव करता हूँ। मैं भी इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ कि इस चिनगारी को बुझने न दूँ। इसे और अधिक तेज होने और ज्यादा रोशनी और गर्माहट देने के लिए मजबूर करना मेरा फर्ज है ताकि मेरे पीछे-पीछे आनेवाला व्यक्ति इस मशाल को मेरे हाथ से लेकर इसे आगे ले जाए।
अपने दिल में आग को उसी तरह से सहेजना चाहिए, जैसे हम बाहर की आम आग से अपने को सहेजते और बचाते हैं।
किसी जश्न के मौके पर गाँव में गानेके बाद हमेशा हँसी-मजाक होता है, संगीत और नाच के बाद-बातचीत होती है। समारोही शब्दों में अग्नि का गुणगान करने के बाद लोग यह सुनाते हैं कि कैसे हमारे दागिस्तान में हिम-मानव की खोज की गई।
मैं खुद उस बहुत बड़े तमाशे का साक्षी रहा हूँ, जो हिम-मानव की खोज करने के लिए हमारे यहाँ आनेवाले कुछ वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं के समय पहाड़ी लोगों ने देखा था।
अवार जाति के लोगों ने उनसे कहा - 'आप दारगीनों के यहाँ जाएँ, शायद वह, जिसे आप खोज रहे हैं, उनके यहाँ रहता हो।'
दारगीनों ने उन्हें लाक्तियों के यहाँ भेज दिया, लाक्तियों ने लेज्गीनों के यहाँ, लेज्गीनों ने कुमिकों के यहाँ, कुमिकों ने स्तेपी में रहनेवाले नोगाइयों के यहाँ, नोगाइयों ने ताबासारान्त्सियों के यहाँ। ये वैज्ञानिक कार्यकर्ता सारे दागिस्तान में भटकते रहे। बुरी तरह से थक-हारकर वे किकूनी गाँव में आकर ठहरे, जहाँ हमारा महाबली ओसमान अब्दुर्रहमानोव रहता है। मुमकिन है कि इन पंक्तियों को पढ़नेवाले कुछ लोगों ने ओसमान को 'खजानों का द्वीप' फिल्म में देखा हो। वहाँ वह तीन आदमियों को एक साथ ही पकड़कर जहाज के डेक से सागर में फेंक देता है।
कुछ ऐसा हुआ कि इन वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं की कार किकूरी गाँव के नजदीक एक छोटी-सी नदी में फँस गई। वैज्ञानिक उसे आगे-पीछे धकेलते रहे, मगर कार को नदी से निकाल नहीं पाए।
इस वक्त ओसमान अपने घर की छत पर बैठा था। उसने देखा कि कैसे असहाय लोग परेशान होते हुए कार के आस-पास कुछ कर रहे हैं। वह नीचे उतरा और महाबली की धीमी-धीमी चाल से उनके करीब गया। उसने उस तिलचट्टे की तरह, जो चर्बी पुते मिट्टी के प्याले से बाहर निकलने में असमर्थ हो, कार को ऊपर उठाया और तट पर ले जाकर रख दिया।
वैज्ञानिक आपस में खुसर-फुसर और कानाफूसी करने लगे कि कहीं हिम-मानव ही तो उनकी मदद को नहीं आया है? लेकिन ओसमान उनकी बातचीत समझ गया और बोला -
'व्यर्थ ही आप लोग उसे यहाँ ढूँढ़ते फिर रहे हैं। हम पहाड़ी लोग हिम के नहीं, बल्कि आग के बने हुए हैं। अगर मेरे भीतर आग न होती तो आपकी कार को मैं कीचड़ में से कैसे बाहर निकाल ले जाता?'
इसके बाद उसने बड़े इतमीनान से सिगरेट लपेटी, चैन से चकमक निकाला, उससे चिनगारी पैदा करके सिगरेट जलाई और मुँह से धुएँ का बादल निकाला। तब धुएँ के साथ ओसमान की चौड़ी छाती से बादल की गड़गड़ाहट जैसा ठहाका गूँज उठा। पहाड़ों में चट्टान के टूटकर गिरने पर ऐसी आवाज होती है, पत्थरों को लुढ़काता हुआ पानी ऐसा शोर पैदा करता है, पहाड़ों को झकझोरता हुआ भूकंप ऐसी गरज उत्पन्न करता है।
इस किस्से को सुनकर अबूतालिब ने इतना और कह दिया - 'व्यर्थ के ऐसे कामों में उलझनेवाले लोगों की कारें कीचड़ में फँसे बिना नहीं रह सकतीं।'
मैं रोशनियों के त्योहार (दीवाली) के अवसर पर भारत गया था। कितनी अच्छी बात है कि लोगों के यहाँ ऐसे पर्व-त्योहार भी हैं! मुझे वहाँ जलता हुआ दीपक भेंट किया गया और मैं उसे अपने पहाड़ी क्षेत्र के प्रति दूरस्थ देश के अभिवादन के रूप में अपने साथ ले आया। रूसी तथा हमारी कई अन्य भाषाओं में हम अक्सर कहते हैं - 'दहकता अभिवादन! उनका दहकता हुआ अभिवादन करें!' शायद कभी ऐसा भी वक्त रहा हो जब अभिवादन को शब्द के रूप में अभिव्यक्त करने के बजाय अग्नि, ज्वाला या मशाल भेजी जाती हो। शांतिपूर्ण ज्वाला। भस्म करनेवाली आग और लड़ाई की ज्वाला नहीं, बल्कि चूल्हे की आग, गर्माहट और प्रकाश की आग।
हमारे यहाँ एक परंपरा है - जाड़े के पहले दिन की शाम को (कभी-कभी वसंत के पहले दिन की शाम को भी) पहाड़ी गाँवों में चट्टानों पर अभिवादन करनेवाले अलाव जलाए जाते हैं। हर गाँव एक अलाव जलाता है। ये अलाव दूर तक दिखाई देते हैं। खड्डों, खाइयों और चट्टानों के बीच से गाँव एक-दूसरे को जाड़े या वसंत के आगमन की बधाई देते हैं। अग्निरूपी अभिवादन, अग्निरूपी शुभकामनाएँ भेजते हैं! खुद मैंने भी हमारे त्सादा गाँव के ऊपर खड़ी खामीरखो चट्टान पर अनेक बार ऐसा अलाव जलाया है।
यह संयोग की बात नहीं कि दागिस्तान के पहले कारखाने को 'दागिस्तान के दीपक' नाम दिया गया था। अब अलावों के अतिरिक्त अनेक अन्य नए प्रकाश-स्रोत सामने आ गए हैं। बिजली के खंभों पर पक्षी वैसे ही साधारण ढंग से बैठते हैं, जैसे वृक्षों पर। चट्टानों के ऊपर जलती बिजली की रोशनियों से कबूतर जरा नहीं डरते हैं।
एक बार मैंने कास्पी सागर को जलते देखा। पूरे एक हफ्ते तक लहरें उसे बुझा नहीं पाई। यह इज्बेरबाश नगर के करीब की बात है। आखिर जब आग बुझने लगी और धीरे-धीरे बुझ गई तो उसने डूबते हुए जहाज की याद ताजा कर दी।
सागर की आग बुझ सकती है, मगर दागिस्तान के दिल में दहकती आग कभी नहीं बुझ सकती। क्या आदमी के दिल में दहकती आग पानी से डरती है? वह तो पानी को ढूँढ़ती है, पानी माँगती है। भीतर की आग से सूखने, फटने, दहकने और जलनेवाले होंठ क्या यह नहीं फुसफुसाते - 'पानी, पानी!'
इसका मतलब यह है कि पानी और आग के बीच चोली और दामन का साथ है।
मेरी माँ कहा करती थीं कि चूल्हा घर का दिल है और चश्मा गाँव का दिल है।
पहाड़ों को आग चाहिए और घाटियों को पानी। दागिस्तान - वहाँ तो पहाड़ भी हैं और घाटियाँ भी, उसे आग भी चाहिए और पानी भी।
अगर कोई आदमी सफर के लिए रवाना होते वक्त या लौटते समय गाँव के छोर पर एक दर्पण की तरह चश्मे में झाँक लेता है तो इसका अर्थ होता है कि इस व्यक्ति के हृदय में प्यार है, आग है। पहाड़ी लोग ऐसा मानते हैं।
किंतु क्या सारा दागिस्तान ही कास्पी सागर के उजले दर्पण में अपने आपको नहीं देखता है? क्या वह अभी-अभी पानी में से बाहर आनेवाले सुघड़-सुडौल और उत्साही तरुण जैसा नहीं है?
मेरा दागिस्तान कास्पी सागर के ऊपर ऐसे झुका हुआ है जैसे पहाड़ी आदमी चश्मे के ऊपर। वह अपनी पोशाक ठीक-ठाक करता है, मूँछों पर ताव देता है।
पहाड़ी लोग एक बद्दुआ यह देते हैं - 'जो आदमी चश्मे को गंदा करता है, उसका घोड़ा मर जाए।' एक अन्य शाप यह है - 'तुम्हारे घर के आस-पास सारे चश्मे सूख जाएँ।' प्रशंसा करते हुए पहाड़िए कहते हैं, - 'शायद इस गाँव के वासी अच्छे हैं - यहाँ चश्मा और कब्रिस्तान अच्छी हालत में हैं, साफ-सुथरे हैं।'
हमारे यहाँ वीरगति को प्राप्त हुए लोगों के सम्मान में अनेक चश्मे और कुएँ खोदे गए हैं, उन्हें तो उनके नाम भी दिए गए हैं - अली का चश्मा, ओमार का चश्मा, हाजी-मुरात का कुआँ, महमूद का चश्मा।
युवतियाँ जब कंधों पर घड़े रखकर चश्मों की ओर जाती हैं तो युवक भी उन्हें देखने और अपने लिए दुलहन चुनने की खातिर यहाँ आते हैं। न जाने कितनी प्रेम-भावनाएँ जागी हैं इन चश्मों के पास, न जाने कितने भावी परिवारों के प्रणय और संबंध-सूत्र यहाँ बने हैं।
नहीं तुम्हें मालूम कि किसके बारे में यह गीत रचा?
चश्मे पर आकर खुद देखो, कौन गीत में छिपा हुआ।
हमारे शायर महमूद ने ऐसा लिखा है।
एक बार पर्वत की ओर जाते हुए मैं गोत्सात्ल गाँव के चश्मे के करीब रुका। मैंने क्या देखा कि एक राहगीर चश्मे पर झुका हुआ चुल्लू भर-भरकर निर्मल जल पी रहा है और कहता जा रहा है -
'ओह, मजा आ गया!'
'मग ले लीजिए,' मैंने प्रस्ताव किया।
'मैं दस्ताने पहनकर खाना नहीं खाता हूँ,' राहगीर ने जवाब दिया।
पिता जी को यह कहना अच्छा लगता था - बारिश तथा नदी के शोर से अधिक मधुर और कोई संगीत नहीं होता। बहते पानी की कल-छल सुनते और उसे देखते हुए कभी मन नहीं भरता।
वसंत में जब पहाड़ों में बर्फ पिघलने लगती थी तो मेरी अम्माँ घाटी में तेजी से बहती आनेवाली जल-धाराओं को घंटों तक देखती रह सकती थीं। वह तो जाड़े में ही लकड़ी के पीपे तैयार करने लगती थीं, ताकि गर्मियों में उन्हें परनालों के नीचे रखकर बारिश का पानी जमा कर सकें।
मेरा सबसे प्यारा शौक तो बारिश के पानी से भरे डबरों में नंगे पाँव छपछप करते फिरना था। बारिश से जरा भी डरे बिना हम जल-धाराओं को रोकनेवाले बाँध खड़े करते थे और इस तरह छोटे-छोटे ताल बनाते थे।
मैं कल्पना कर सकता हूँ कि परिंदे जब पथरीले प्यालों से बारिश का पानी पीते हैं तो उन्हें कैसा आनंद प्राप्त होता होगा!
शामिल अपने सूरमाओं से कहा करता था - 'कोई बात नहीं कि दुश्मन ने हमारे सारे गाँव, हमारे सारे खेतों पर कब्जा कर लिया। लेकिन चश्मा तो अभी हमारे पास है, हम जीतेंगे।'
दुश्मनों का हमला होने पर कठोर इमाम शामिल सबसे पहले तो गाँव के चश्मे की रखवाली करने का हुक्म देता था। जब खुद दुश्मनों पर हमला करता था तो सबसे पहले गाँव के चश्मे पर कब्जा करने का आदेश देता था।
पुराने वक्तों में अगर कोई आदमी अपने जानी दुश्मन को नदी में नहाते देखता था तो उसके पानी से बाहर आ जाने और अपने हथियार बाँध लेने से पहले वह कभी उस पर वार नहीं करता था।
किंतु अक्सर ही मुझे एक अत्यधिक शांतिपूर्ण प्रथा की याद आती है और वह भी पानी से ही संबंध रखती है। इसे 'नन्हा बारिशी गधा' कहा जाता था।
'दागिस्तानी घाटी की जलती दोपहरी में'(लेर्मोंतोव की एक कविता की पहली पंक्ति) - यह यों ही नहीं लिखा गया है। दुपहर की गर्मी हमारे यहाँ बड़ी भयानक और सब कुछ सुखा देनेवाली होती है। गर्मी से धरती फट जाती है, चट्टानों से धधकती हुई भट्ठी की तरह गर्म हवा के लहरे आते हैं। वृक्षों की शाखाएँ झुक जाती हैं, खेत सूख जाते हैं, सभी कुछ - पेड़-पौधे, पक्षी, भेड़ें और निश्चय ही लोग भी आसमान के पानी यानी बारिश के लिए तरसते हैं। उस समय गाँव के किसी छोकरे को पकड़कर धूप में मुरझाई तरह-तरह की घासों की पोशाक पहनाकर रेड इंडियन-सा बना देते हैं। यही है 'नन्हा बारिशी गधा'। उस बालक के समान दूसरे बालक उसे रस्सी बाँधकर गाँव में घुमाते हैं और यह भजन या प्रार्थना-गीत गाते हैं -
'अल्ला, अल्ला, जल्दी से बारिश भेजो
आसमान से धरती तक पानी कर दो!
परनालों में बारिश, जल का शोर मचे
पानी बरसाओ, हर कोई यही कहे।
बादल और घटाओ, नभ में छा जाओ
पानी की नदियाँ बन धरती पर आओ!
प्यारी, प्यारी सारी धरती धुल जाए
खेतों में फिर से हरियाली छा जाए!'
गाँव के बालिग लोग बाहर गली में आ जाते हैं, 'नन्हे बारिशी गधे' पर घड़े या चिलमची से पानी डालते हैं और बच्चों के उक्त गीत को दोहराते हुए 'आमीन! आमीन!' कहते हैं।
एक बार मैं भी 'नन्हा बारिशी गधा' बना। मुझ पर इतना पानी उड़ेला गया जो सचमुच आधी बारिश के लिए काफी होता।
किंतु अल्ला या आसमान हमारे ऐसे गानों को बहुत कम ही सुनते थे। सूरज आग बरसाता रहता था। वह मारे दागिस्तान पर मानो गर्म इस्तरी फेरता रहता था। वह दुख-कष्ट देता था। हम उसे दुखदायी सूरज ही कहते थे। सैकड़ों, हजारों सालों तक धरती दुखदायी सूरज की आग के नीचे झुलसती रही। अगर यूरोप को ध्यान में रखा जाए तो सबसे ज्यादा धूपवाले दिन दागिस्तान के गुनीब गाँव के ही हिस्से आते हैं। मेरा त्सादा गाँव भी उससे कुछ पीछे नहीं है। बाकी गाँवों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। व्यर्थ ही तो इन्हें 'पानी के प्यासे' नहीं कहा जाता।
मुझे अम्माँ का थका हुआ चेहरा याद आता है, जब वह पानी से भरा घड़ा पीठ पर लादे और गागर हाथ में लिये हुए लौटती थीं। पानी हमारे गाँव से तीन किलोमीटर दूर था।
मुझे अम्माँ का खुशी से खिला हुआ चेहरा याद आता है, जब बारिश होती थी, धरती भीग जाती थी और परनालों के नीचे रखे पीपों में पानी गिरता था, वे पानी से भर जाते थे और उनके किनारों से पानी छलककर नीचे गिरने लगता था।
मुझे याद आती है अपने गाँव की बूढ़ी, झुकी पीठवाली हबीबात की। हर सुबह को कंधे पर फावड़ा रखकर वह गाँव की सीमा से परे जाती और जहाँ-तहाँ जमीन खोदने लगती। उसके दिमाग में पानी ढूँढ़ने की सनक थी और वह लगातार उसे खोजती रहती थी।
सभी यह जानते थे कि वह व्यर्थ ही कोशिश करती है, लेकिन कोई भी उससे कभी कुछ नहीं कहता था। सिर्फ मैंने, नादान छोकरे ने ही एक बार उससे कहा -
'मौसी हबीबात, आप बेकार ही मेहनत करती रहती हैं, यहाँ पानी नहीं है।'
इस बात को लेकर मेरे पिता जी मुझ पर बहुत बिगड़ उठे।
'लेकिन वहाँ तो पानी है ही नहीं।'
'ऐसा भी होता है कि लोगों के पास रोटी नहीं होती। लेकिन क्या उन पर हँसा जाए? मेरे बेटे, इस बात को याद कर लो कि गरीबी और उन लोगों की कभी खिल्ली नहीं उड़ानी चाहिए जो पानी खोजते हैं।'
'किंतु आपने तो स्वयं ही इस बारे में एक विनोदपूर्ण कविता रखी थी कि कैसे इन्क्वाचूलीनियों ने इस उद्देश्य से पुल को लंबा करने की कोशिश की थी कि उन्हें ज्यादा पानी मिल सके।'
'इस मजाक में तो आँसू मिले हुए हैं। जवान लोग इसे नहीं समझ सकते। तुम अभी यह नहीं जानते कि दागिस्तान के लिए पानी का क्या महत्व है। तुम सोचो कि मौसी हबीबात के मन में कितनी तीव्र इच्छा होगी कि वह उस जगह पानी ढूँढ़ रही है जहाँ वह नहीं है। लेकिन खैर, अब यही अच्छा होगा कि तुम चुप रहो - बारिश आ रही है।'
इस समय वास्तव में ही हल्की-हल्की, सरसराती फुहार पड़ने लगी थी।
- किसलिए खामोश हो तुम भोर से ही पक्षियो?
- हो रही बारिश, उसे हम सुन रहे!
- किसलिए खामोश हो तुम शायरो, कवियो सभी?
- हो रही बारिश, उसे हम सुन रहे!
पिता जी हमेशा यह कहा करते थे कि उनके जीवन में सबसे अधिक खुशी का दिन वह था, जब दूरस्थ पर्वत से पाइपों में बहता पानी उनके गाँव में आया। इसके पहले पिता जी हर दिन कुदाल लेकर अन्य सभी लोगों के साथ पानी का नल बनाने के लिए काम करते रहते थे। हमारे गाँव में पानी आने का यह दिन मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है। जब पानी बहने लगा तो पिता जी ने उसमें फूल तक डालने से मना कर दिया।
गाँववालों ने सौ वर्षीया एक बुढ़िया को पानी का पहला घड़ा भरने के लिए चुना। बुढ़िया ने घड़ा भर लिया और उसमें से पानी का पहला मग भरकर वह उसे मेरे पिता जी के पास ले गई।
तमगों और पदकों से सम्मानित पिता जी ने कहा कि इतना कीमती पुरस्कार उनहें पहले कभी नहीं मिला था। उसी दिन उन्होंने पानी के बारे में एक कविता रची। इस कविता में उन्होंने पक्षियों को संबोधित करते हुए कहा कि वे अब अपनी डींग नहीं हाँकें, कि उनकी तुलना में अब हम भी कुछ बुरा पानी नहीं पीते हैं। उन्होंने कहा कि किसी शादी और किसी भी जश्न के मौके पर उन्होंने पानी की कल-कल से ज्यादा मधुर और प्यारा संगीत नहीं सुना। उन्होंने विश्वास दिलाया कि कदम-कदम चलनेवाला कोई घोड़ा या कोई जवान घोड़ी अब पानी लाने के लिए जानेवाली औरत की चाल से मुकाबला नहीं कर सकती। उन्होंने कुदाल और फावड़े तथा नल को धन्यवाद दिया। उन्होंने उस समय की याद दिलाई, जब पानी जमा करने के लिए चूल्हों के करीब बर्फ पिघलाई जाती थी। तब हर दिन पानी से भरे भारी घड़े लाने के कारण हमारी पहाड़ी औरतों की वक्त से पहले ही कमर झुक जाती थी। हाँ, पिता जी के लिए यह महान दिन था!
मुझे मखाचकला में जुलाई की भयानक गर्मी भी याद आ रही है। पिता जी सख्त बीमार थे, डाक्टरों और दवाइयों से घिरे रहते थे। वह बोले - 'मुझे बहुत तकलीफ हो रही है। दसियों चिमटियाँ और संडसियाँ मेरे बदन को विभिन्न दिशाओं में खींच रही हैं।'
वह यह मानते हुए कि दवाइयाँ पीने के मामले में बहुत देर हो चुकी है और उनसे कोई फायदा नहीं होगा, अब उन्हें नहीं पीते थे। वह तो तकिया ठीक करने में भी कोई तुक न देखते हुए उसे भी ठीक नहीं करने देते थे। जब उनकी तबीयत बहुत ही ज्यादा खराब हो गई तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा -
'एक ऐसी दवाई है जिसे पीने से मेरी तबीयत बेहतर हो जाएगी।'
'कौन-सी?'
'बुत्सराब खड्ड में एक छोटा-सा कुआँ है... एक चश्मा है... मैंने ही उसे ढूँढ़ा था... वहाँ से एक घूँट पानी मँगवा दो...'
अगले दिन एक पहाड़ी औरत उस चश्मे से पानी ले आई। पिजा जी ने आँखें मूँदकर उसे छककर पिया।
'शुक्रिया, मेरे डाक्टर।'
हमने उनसे यह नहीं पूछा कि उन्होंने किसे डाक्टर कहा था - पानी को, पानी लानेवाली पहाड़ी औरत को, दूर खड्ड के चश्मे या उस चश्मे को जन्म देनेवाली अपनी सारी मातृभूमि को।
अम्माँ मुझसे कहा करती थीं - हर किसी का वांछित स्रोत होना चाहिए। वह यह भी कहा करती थीं कि अगर खेत के करीब ठंडे पानी का चश्मा बहता हो तो फसल काटनेवाली औरत कभी नहीं थकेगी।
एक किस्सा आज तक सुनने को मिलता है कि जवानी के दिनों में ही शामिल और उसके उस्ताद काजी - मुहम्मद गीमरी खड्ड की एक बुर्जी में दुश्मनों से घिर गए थे। शामिल दुश्मनों की संगीनों के बीच बुर्जी से नीचे कूद गया और उसने खंजर चलाते हुए अपने निकल जाने का रास्ता बना लिया। तब उसके बदन पर उन्नीस घाव हुए थे, फिर भी वह बच निकला था, पहाड़ों में भाग गया था। पहाड़ी लोगों का ख्याल था कि वह मर गया। जब वह गाँव में लौटा तो उसकी माँ ने, जो मातमी पोशाक पहन चुकी थी, हैरान और खुश होते हुए पूछा -
'शामिल, मेरे बेटे, तुम जिंदा कैसे बच गए?'
'ऊपर पहाड़ों में मुझे एक चश्मा मिला था,' शामिल ने जवाब दिया।
और जब पहाड़ी लोगों ने यह सुना कि उनका इमाम, उनका बूढ़ा शामिल अरबी रेगिस्तान में ऊँट से गिरकर मर गया तो अपने गाँवों में घरों की दहलीजों पर बैठे हुए उन्होंने कहा -
'अफसोस, पास में कोई दागिस्तानी चश्मा नहीं था।'
नूहा में मैं हाजी-मुरात की कब्र पर हो आया हूँ, मैंने कब्र पर लगे पत्थर और उस पर लिखे हुए ये शब्द भी पढ़े हैं - 'यहाँ दागिस्तान का शेर बबर दफन है।' मैंने इस शेर बबर का कटा हुआ सिर भी देखा है।
'अरे सिर, तुम बदन से अलग कैसे हो गए?'
'दागिस्तान, अपनी मातृभूमि, अपने चश्मे का रास्ता भूल गया था, भटक गया था।'
मेरा गाँव पहाड़ के दामन में बसा हुआ है। उसके सामने समतल पठार है, जहाँ काफी दूरी पर खूँजह दुर्ग नजर आता है। दुर्ग के सभी ओर खासी दूरी पर बसे गाँव उसे घेरे हुए हैं। सभी दिशाओं में दुर्ग से गोलियाँ चलाने के लिए उसमें बनाए गए छेद नजर आते हैं - दुर्ग धमकाता-डराता, आगे बढ़ने से रोकता और सब कुछ देखता प्रतीत होता है। दुर्ग के छेदों में से चैन न जानने और किसी के सामने न झुकनेवाले पहाड़ी लोगों पर अक्सर गोलियाँ चली हैं। मेरे त्सादा गाँव के कबूतर इस दुर्ग की गोलियों की आवाज के कारण बहुत बार डरकर उड़े हैं और गाँव के ऊपर चक्कर काटते रहे हैं। 'किसकी सबसे खतरनाक नजर और ऊँची आवाज है?' पहाड़ी लोग पूछा करते थे। 'खूँजह दुर्ग की।'
किंतु मेरे जमाने में खूँजह दुर्ग की रौद्रता केवल किस्से-कहानियों में रह गई है। गोलियाँ चलाने के लिए बनाए गए उसके छेदों में से हम स्कूल के छात्र एक-दूसरे पर सेबों के टुकड़े या बर्फ के गोले फेंका करते थे अथवा बिगुल बजाया करते थे और ऐसा करते हुए हम भी इर्द-गिर्द की चट्टानों से कबूतरों को उड़ने के लिए विवश कर दिया करते थे। हाँ, खूँजह दुर्ग को स्कूल बना दिया गया था जहाँ मैंने सात साल तक तालीम हासिल की।
अब मैं कहीं भी क्यों न जाऊँ, किसी भी जगह पर क्यों न होऊँ, सिंफोनी की जोरदार गूँज और नाच की धुनों में मुझे अपने बचपन का मधुर संगीत सुनाई देता है, स्कूल की घंटी की प्यारी टनटन सुनाई देती है, खास तौर पर उस घंटी की सुखद आवाज जो पाठों की समाप्ति की सूचना देती थी। मैं अब भी उसे सुन रहा हूँ और वह मुझे दालान या गली की ओर नहीं, बल्कि, इसके विपरीत, स्कूल की ओर, कक्षा और छात्रावास की ओर बुलाती है।
हमारी कक्षा में हम तीस छात्र थे। महीने में एक बार हममें से हर किसी को पढ़ाई से मुक्त कर दिया जाता था और उसे पानी लाने का काम करना पड़ता था। सजा के रूप में दो दिन तक भी यह ड्यूटी बजारी पड़ सकती थी। वैसे मैं तो किसी अपराध के दंड के बिना भी हमेशा लगातार दो दिन तक पानी लाता था। वह इसलिए कि मेरा एवजी अब्दुलगफूर युसूपोव उसकी बारी आने पर हमेशा ही बीमार हो जाता था। मुझे याद आ रहा है कि हमेशा हर महीने की सातवीं-आठवीं तारीखों को ही मेरी बारी आती थी।
पानी का चश्मा दुर्ग से बाहर था। वहाँ जाना तो आसान होता था - सबसे पहले तो इसलिए कि बाल्टी खाली होती थी, दूसरे इसलिए कि पगडंडी सीधी नीचे जाती थी। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लौटते वक्त सब कुछ बेहद बदल जाता था। इसके अलावा एक तंग-सी गली में एल्युमीनियम के मग हाथों में लिए छात्रों की भीड़ मेरा इंतजार करती होती थी। वे पानी पीना चाहते थे। वे मेरी बाल्टी पर टूट पड़ते थे, आधा पानी पी जाते थे, आधा छलका देते थे - उनसे बचना आसान नहीं होता था। लेकिन मेरे लिए स्कूल तक पानी पहुँचाना जरूरी होता था।
इस चश्मे के बारे में बहुत से किस्से-कहानियाँ हैं। उनमें से एक हिस्सा मैं यहाँ उस रूप में दे रहा हूँ जिस रूप में मेरे पिता जी ने सुनाया था।
इस दुर्ग की दीवारें गोलियों के निशानों से छलनी हुई पड़ी हैं। इसकी बुर्जियों पर कई बार झंडे बदले हैं। गृहयुद्ध के दिनों में इस दुर्ग पर रह-रहकर कब्जा बदलता रहा था - कभी सफेद गार्ड तो कभी लाल सैनिक इस पर अधिकार कर लेते थे। छापेमारों ने छह महीनों तक इस दुर्ग की शत्रुओं से रक्षा की। किंतु हर दिन दो घंटों के लिए गोलाबारी बंद कर दी जाती थी। इन दो घंटों के दौरान दुर्ग-रक्षकों की पत्नियाँ पानी लाने के लिए दुर्ग से बाहर जाती थीं। एक दिन कर्नल अलीखानोव ने कर्नल जफारोव से कहा -
'आओ, हम औरतों को चश्मे पर जाने से रोक दें। अतायेव के दस्ते को प्यास से मरने दिया जाए।'
कर्नल जफारोव ने जवाब दिया -
'अगर हम पानी लाने के लिए जानेवाली औरतों पर गोलियाँ चलाएँगे तो सारा दागिस्तान हमसे मुँह फेर लेगा।'
तो इस तरह जब तक औरतें चश्मे से पानी लेकर वापस नहीं चली जाती थीं, दोनों पक्ष किसी समझौते के बिना शांति बनाए रहते थे।
जब मेरी अम्माँ को, जो उस वक्त बीमार थीं, यह बताया गया कि उनके बेटे को लेनिन पुरस्कार दिया गया है तो उन्होंने आह भरी और बोलीं - 'अच्छी खबर है। किंतु मुझे यह सुनकर ज्यादा खुशी होती कि मेरे बेटे ने किसी गरीब आदमी या यतीम की मदद की है। मैं तो यही चाहती हूँ कि वह पानी के लिए तरस रहे किसी गाँव में पानी पहुँचाने की खातिर यह रकम दे दे। लोग उसकी तारीफ करेंगे। उसके पिता जी को जब पुरस्कार मिला था तो उन्होंने उसकी सारी रकम नए चश्मों की तलाश के लिए दे दी थी। जहाँ चश्मा है, वहाँ पगडंडी है, जहाँ पगडंडी है, वहाँ रास्ता है। और रास्ते की सभी लोगों को, हर किसी को जरूरत है। रास्ते के बिना आदमी अपना घर नहीं ढूँढ़ पाएगा, किसी खड्ड-खाईं में लुढ़क जाएगा।'
मेरे पिता जी हमेशा दोहराया करते थे कि मेरा उस साल में जन्म हुआ था, जब दागिस्तान में पहली नहर खोदी गई थी। उसे सुलाक से मखाचकला तक बनाया गया था। 'पानी नहीं, जिंदगी नहीं' - प्लाईवुड की तख्ती पर लिखा हुआ यह नारा नहर खोदनेवाले अपने साथ लेकर आए थे।
पानी! लीजिए, अब चट्टानों से पानी बहता है मानो किसी का शक्तिशाली हाथ उन्हें निचोड़ रहा हो। लीजिए, जल-धाराएँ बड़ी तेजी से पर्वत से नीचे बहती हैं, पत्थरों के बीच से छलाँगें लगाती हैं, चट्टानों से नीचे कूदती हैं, जख्मी दरिंदे की तरह दर्रों में गरजती-दहाड़ती हैं और हरी-भरी घाटियों में मेमने की तरह उछलती-कूदती हैं।
मेरे दागिस्तान के गिर्द चार रुपहली पेटियाँ बँधी हुई हैं, चार कोइसू नदियाँ उसके गिर्द बहती हैं। सुलाक और सामूर नगर सगी बहनों की तरह उनका स्वागत करते हैं। इसके बाद ये सभी - दागिस्तान की नदियाँ - सागर की गोद में चली जाती हैं।
आग और पानी - जनगण का भाग्य हैं, आग और पानी - दागिस्तान के माता-पिता हैं, आग और पानी - वे खुरजियाँ हैं जिनमें हमारी सारी दौलत जमा है।
हमारे दागिस्तान में बुजु्र्ग और एकाकी लोगों के पास युवक-युवतियाँ आते हैं, ताकि घर-गिरस्ती के काम-काज में उनकी कुछ मदद कर दें। सबसे पहले वे क्या करते हैं? आग जलाने के लिए लकड़ी चीरते हैं और घड़ों में पानी लाते हैं। काले कौवे न जाने यह कैसे अनुभव कर लेते हैं कि किस पहाड़ी घर में आग बुझ गई है। वे फौरन उड़कर वहाँ जा बैठते हैं और काँय-काँय करने लगते हैं।
आग और पानी - ये दो हस्ताक्षर, दो प्रतीक हैं जो दागिस्तान की रचना के समझौते के नीचे अंकित हैं।
दागिस्तान की आधी लोक-कथाएँ उस दिलेर नौजवान के बारे में हैं जो अजगर की हत्या करके आग लाता है ताकि गाँव में गर्माहट और रोशनी हो।
दागिस्तान की लोक-कथाओं का दूसरा भाग - उस समझदार लड़की के संबंध में है जो चालाकी से अजगर को सुलाकर पानी लाती है ताकि गाँव के लोग जी भरकर पानी पी सकें और खेत सींचे जा सकें।
साहसी नौजवान और समझदार युवती द्वारा मारा गया अजगर पर्वत और कत्थई रंग के पर्वत-श्रृंगों में बदल गया।
दाग का अर्थ है पर्वत और स्तान का अर्थ है देश। दागिस्तान का मतलब है पर्वत का देश, पर्वत-देश, पहाड़ी मुल्क, गर्वीला देश - दागिस्तान।
हिज्जे जोड़-जोड़कर जैसे
पढ़ता है बालक,
उसी तरह से मैं दोहराऊँ
कभी न कहता थक पाऊँ -
दागिस्तान, दागिस्तान!
कौन और क्या? दागिस्तान।
किसके बारे में मैं गाऊँ, केवल उसके बारे में।
और सुनाऊँ यह मैं किसको? उसको, दागिस्तान को।
हमारे छोटे-से जनगण को इस हेतु कि उसके पास हमेशा आग और पानी हो, अनेक अजगरों को जीतना पड़ा। नदियाँ अब प्रकाश देती हैं, पानी आग का रूप लेता है। अनादिकाल के ये दो प्रतीक अब एक में बदल गए हैं।
चूल्हा और चश्मा - पहाड़ी लोगों के लिए ये दो शब्द सबसे प्यारे हैं। दिलेर आदमी के बारे में कहा जाता है - 'वह आदमी नहीं, आग है।' गुणहीन, नालायक आदमी के बारे में कहा जाता है - 'बुझा हुआ दीपक है।' बुरे आदमी के संबंध में कहा जाता है - 'वह उनमें से है जो चश्मे या स्रोत में थूक सकते हैं।'
मदिरा से भरा हुआ जाम हाथ में लेकर हम भी यही कहेंगे -
चूल्हा, चश्मा - दो अनादि आधारों का
जो गुणगान करें, हो उनकी कीर्ति अमर
अधिक बढ़े यश उनका, चैली एक जला दें जो केवल
और फावड़ा खोद सके जिनका निर्झर।
एक बुजुर्ग पहाड़ी आदमी ने जवान पहाड़िये से पूछा -
'तुमने अपनी जिंदगी में आग देखी है, कभी उसमें से गुजरे हो?'
'मैं उसमें ऐसे कूदा था जैसे पानी में।'
'बर्फ जैसे ठंडे पानी से कभी तुम्हारा वास्ता पड़ा है, कभी उसमें कूदे हो?'
'जैसे आग में।'
'तब तुम बालिग हो चुके पहाड़ी आदमी हो। अपने घोड़े पर जीन कसो, मैं तुम्हें पहाड़ों में ले चलता हूँ।'
दो पहाड़ी आदमियों के बीच झगड़ा हो जाने पर एक ने दूसरे से कहा -
'क्या मेरे घर की छत के ऊपर तुम्हारे घर की छत की तुलना में कम घना धुआँ है? क्या मैं कभी किसी से पानी माँगने गया हूँ? अगर तुम ऐसा समझते हो तो आओ, उस पहाड़ी के पीछे चलें और मामला तय कर लें।'
दरवाजों पर मैंने यह लिखा देखा है - 'चूल्हे में आग जल रही है, मेहमान भीतर आने की मेहरबानी करें।' बड़े अफसोस की बात है कि दागिस्तान में ऐसे फाटक नहीं हैं जिन पर ये शब्द लिखे जा सकें - 'चूल्हे में आग जल रही है, मेहमान भीतर आने की मेहरबानी करें।'
आग तो सचमुच जल रही है। केवल कहने के लिए, सुंदर शब्दाडंबर के रूप में ही आपको आने की दावत नहीं दी जा रही है - शरमाइए नहीं, भीतर आइए, चूल्हे में आग जल रही है और चश्मों में निर्मल जल है, स्वागत है आपका!