हमारे पहाड़ी लोग - चिर पथिक हैं। उनमें से कुछ धन-दौलत के लिए यात्रा पर जाते हैं, दूसरे नाम कमाने के लिए और तीसरे सचाई की खोज में।
और लीजिए, वे, जो धन-दौलत कमाने के लिए गए थे, उसे प्राप्त करके वापस आ गए और अब अपनी यात्रा के फलों से आनंदित हो रहे हैं।
और ये रहे वे, जो नाम कमाने के लिए गए थे, उन्होंने मशहूरी हासिल कर ली और अब यह समझते हुए जिंदगी बिता रहे हैं कि इसकी दो कौड़ी भी कीमत नहीं और व्यर्थ ही इसके लिए इतनी दौड़-धूप की।
किंतु जो सचाई की खोज में निकले थे, उनका रास्ता सबसे लंबा और अंतहीन रहा। सचाई की खोज करनेवाले ने अपने भाग्य को शाश्वत मार्ग को समर्पित कर दिया।
कोई पहाड़ी आदमी जब कहीं जाता है तो वह अपने गधे को अवश्य ही अपने साथ ले जाता है। इस दयालु जानवर की पीठ पर हमेशा तीन चीजें लदी दिखाई देती हैं - किसी चीज से भरी हुई बड़ी बोरी, उसके करीब ही खाल का बना शराब का छोटा-सा थैला और उसके पास ही गगरी।
सैकड़ों साल से पहाड़ी आदमी यात्रा कर रहा है, एक गाँव से दूसरे गाँव और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाता है। उसके आगे-आगे अनिवार्य रूप से उसका गधा चलता है और गधे की पीठ पर बोरी, खल का बना शराब का छोटा-सा थैला और गगरी होती है।
एक समृद्ध प्रदेश में पहाड़ी आदमी के गधे से कहीं दूर हट जाने पर अच्छे खाते-पीते निकम्मे लोगों ने बेचारे जानवर को तंग करना शुरू कर दिया। वह उसके बदन पर नुकीले डंडे और काँटे चुभोने लगे तथा उसे दुलत्ती चलाने को मजबूर करने लगे। इन बेहूदा लोगों को ऐसा प्रतीत हुआ कि गधा उनके द्वारा चुभोए जानेवाले इन काँटों के कारण उछलता-कूदता है।
पहाड़ी आदमी ने देखा कि उसके वफादार दोस्त यानी गधे की खिल्ली उड़ाई जा रही है और उसने खंजर निकाल लिया।
'पहाड़ी आदमी को चिढ़ाने के बजाय तुम किसी भालू को चिढ़ाते तो तुम्हारे लिए यह ज्यादा अच्छा होता,' उसने कहा।
लेकिन ये जवान काहिल लोग डर गए, उन्होंने माफी माँगी, तरह-तरह के मीठे शब्द कहे और इस प्रकार पहाड़ी आदमी को खंजर म्यान में रखने को राजी कर लिया। जब शांतिपूर्ण बातचीत शुरू हुई तो जवान लोगों ने पूछा -
'तुम्हारे गधे पर यह क्या बँधा हुआ है? तुम इसे हमें बेच दो।'
'तुम लोगों के पास इसे खरीदने के लिए न तो सोना और न चाँदी ही काफी होगी।'
'तुम अपनी कीमत बताओ और फिर देखा जाएगा।'
'इसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।'
'तुम्हारी बोरियों में ऐसा क्या है जिसकी कोई कीमत ही नहीं हो सकती?'
'मेरा वतन, मेरा दागिस्तान।'
'गधे की पीठ पर वतन लदा हुआ है!' जवान लोग ठठाकर हँस पड़े। 'तो जरा दिखाओ तो अपना वतन!'
पहाड़ी आदमी ने बोरी खोली और लोगों को उसमें आम मिट्टी दिखाई दी।
लेकिन यह आम मिट्टी नहीं थी। उसमें तीन-चौथाई कंकड़-पत्थर थे।
'बस, यही है इसमें? यही तुम्हारा खजाना है?'
'हाँ, यह मेरे पहाड़ों की मिट्टी है। यह मेरे पिता जी की पहली प्रार्थना है, मेरी माँ का पहला आँसू है, मेरी पहली कसम है, मेरे दादा द्वारा छोड़ी गई अंतिम चीज है, वह आखिरी चीज है जो मैं अपने पोते के लिए छोड़ दूँगा।'
'और यह दूसरी क्या चीज है?'
'पहले तो मुझे अपनी बोरी बाँध लेने दो।'
बोरी बाँधकर और उसे गधे की पीठ पर टिकाकर पहाड़ी आदमी ने गगरी का ढक्कन उतारा। सभी लोगों ने देखा कि उसमें मामूली पानी है। इतना ही नहीं, यह पानी तो कुछ-कुछ नमकीन भी था।
'तुम ऐसा पानी अपने साथ लिए घूमते हो जिसे पीना भी संभव नहीं!'
'यह कास्पी सागर का पानी है। कास्पी सागर में एक दर्पण की तरह दागिस्तान प्रतिबिंबित होता है।'
'और खाल के इस थैले में क्या है?'
'दागिस्तान के तीन हिस्से हैं : पहला - धरती, दूसरा - सागर और तीसरा - बाकी सब कुछ।'
'मतलब यह कि खाल के इस थैले में बाकी सब कुछ है?'
'हाँ, सब कुछ है।'
'किसलिए तुम यह बोझ अपने साथ लिए फिरते हो?'
'इसलिए कि मेरी मातृभूमि, मेरा वतन हमेशा मेरे साथ रहे। अगर कहीं रास्ते में ही मुझे मौत आ जाए तो मेरी कब्र पर यह मिट्टी डाल दी जाए और कब्र के ऊपर लगाए जानेवाले पत्थर को सागर के पानी से धो दिया जाए।'
पहाड़ी आदमी ने अपने वतन की चुटकी भर मिट्टी ली, उसे उँगलियों से मला और फिर उँगलियों को सागर के पानी से धो दिया।
'किसलिए तुमने ऐसा किया है?'
'इसलिए कि जिन हाथों का निकम्मे और काहिल लोगों के हाथों से स्पर्श हुआ हो, उन्हें इसी तरह से धोना चाहिए।'
पहाड़ी आदमी आगे चल दिया। उसका सफर अभी भी जारी है।
इस तरह दागिस्तान के तीन खजाने हैं - पर्वत, सागर और बाकी सब कुछ।
पहाड़ी लोगों के तीन ही गीत हैं। प्रार्थना करनेवालों की तीन ही प्रार्थनाएँ हैं। पथिक के तीन ही उद्देश्य हैं - धन-दौलत, मशहूरी और सचाई।
बचपन में अम्माँ मुझसे कहा करती थीं - दागिस्तान - यह एक पक्षी है और उसके पंखों में तीन बहुमूल्य रोएँ हैं।
पिता जी कहा करते थे - तीन कारीगरों ने तीन मूल्यवान वस्तुओं से हमारा दागिस्तान बनाया है।
किंतु वास्तव में तो जिन चीजों और पदार्थों से दागिस्तान की रचना हुई है, उनकी संख्या कहीं अधिक है। एक कटु अनुभव के आधार पर मुझे इसका विश्वास हुआ।
कोई पच्चीस साल पहले मुझे दागिस्तान के बारे में एक पटकथा लिखने को कहा गया और मैंने उसे लिखा। उसपर विचार-विमर्श होने लगा। उस वक्त बहुत-से लोगों ने अपने विचार प्रकट किए।
कुछ ने कहा कि फूलों की चर्चा नहीं की गई है, दूसरों ने आपत्ति की कि मधुमक्खियों का उल्लेख नहीं हुआ, कुछ अन्य ने मत प्रकट किया कि पेड़ों का जिक्र नहीं है। हर वक्ता ने किसी न किसी चीज की कमी का जिक्र किया। यह कहा गया कि अतीत पर कम रोशनी डाली गई है तो यह भी कहा गया कि वर्तमान पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डाला गया। आखिर बात यहाँ आकर खत्म हुई कि पटकथा में गधे तथा गधी को जगह नहीं दी गई और इनके बिना दागिस्तान की कल्पना ही कैसे की जा सकती है।
अगर फिल्म में वह सब कुछ दिखाया जाता जिसकी उस वक्त चर्चा की गई थी तो फिल्म की शूटिंग अब तक जारी रही होती।
फिर भी दागिस्तान के तीन ही भाग हैं - पर्वत (धरती), सागर (कास्पी) और अन्य सभी कुछ।
हाँ, धरती का मतलब है - पर्वत, खड्ड, पहाड़ी पगडंडियाँ और चट्टानें। फिर भी यह हमारी मातृभूमि है, हमारे पूर्वजों के खून-पसीने से सींची हुई। यह कहना कठिन है कि यहाँ पसीना ज्यादा बहा है या खून। लंबे युद्ध, छोटी-छोटी लड़ाइयाँ-मुठभेड़ें और खून का खून से बदला लेने की प्रथा... पहाड़ी लोगों की बगल में केवल सुंदरता के लिए ही सदियों तक खंजर नहीं लटकता रहा है।
एक लोक-गीत में ऐसा कहा गया है -
अन्न जहाँ पर तीन किलो पैदा होता
दसियों वीरों का उस भू पर खून बहा,
पंद्रह किलो उगाया जाए अन्य जहाँ
वहाँ सैकड़ों ही वीरों का अंत हुआ।
मेरे पिता जी ने हमारी धरती के बारे में यह लिखा था -
बहुत बड़ी संख्या में मुर्दे दफन यहाँ
मरे हुओं से मारे गए कही ज्यादा।
भूगोल की पाठ्यपुस्तक में सूचना देनेवाला यह आँकड़ा छपा हुआ है कि हमारी धरती का एक-तिहाई भाग बंजर चट्टानों का है।
मैंने भी इसके बारे में यह लिखा है -
धूमिल-धुँधली वहाँ घाटियाँ
पेड़ सींग से फलों बिना,
उँट पीठ से ऊँचे पर्वत
झरझर झरने बहें जहाँ,
मानो शेर दहाड़ रहे हों
गरजें यों पर्वत-नदियाँ,
जल-प्रपात मानो अयाल-से
विहग-नयन-से स्रोत वहाँ,
खड़ी हुई चट्टानों से ज्यों
पथ निकले पाषाणों से
और गीत गूँजे टीले से
छू ले दिल इनसानों के।
सुबह को रेडियो पर मौसम का हाल सुनते हुए यह पता चलता है कि खूँजह में बर्फ गिर रही है, आख्ता में बारिश हो रही है, देर्बेंत में खूबानियों के पेड़ों पर बौर आ रहा है और कुमुख में सख्त गर्मी है।
छोटे-से दागिस्तान में एक ही वक्त में जाड़ा, पतझर, वसंत और गर्मी होती है। पथरीले, शांत, गड़गड़ाते और ऊँचे-ऊँचे पर्वत साल के इन मौसमों को एक-दूसरे से अलग करते हैं।
अवार भाषा के 'मेएर' शब्द के दो अर्थ हैं - पर्वत और नाक।
मेरे पिता जी ने इन दोनों अर्थों के बीच इस तरह मेल बिठाया - पर्वत विश्व की हर घटना और मौसम के हर परिवर्तन की गंध लेते हैं।
मैदान यह देखने के लिए अपने पिछले पैरों पर खड़े हो गए कि कौन उनकी ओर आ रहा है। ऐसे पर्वतों का जन्म हुआ। हाजी-मुरात ऐसा कहा करता था।
अम्माँ मेरे पालने के ऊपर फुसफुसाकर कहा करती थीं कि मैं पर्वत की तरह बड़ा हो जाऊँ।
कैसे बुद्धू पर्वत-नदिया के पानी
नमी बिना चट्टानें यहाँ चटकती हैं,
क्यों तुम जल्दी-जल्दी उधर बहे जाते
लहरें बिना तुम्हारे जहाँ मचलती हैं?
बड़ी मुसीबत हो तुम मेरे दिल पागल
जो प्यारे हैं, उनको प्यार नहीं करते
खिंचे चले जाते हो तुम उस ओर सदा
जहाँ न नयन तुम्हारी राह कभी तकते।
मेरी अम्माँ जब कभी बल्हार जाति के लोगों को घड़े, मिट्टी के बर्तन और रकाबियाँ बेचते हुए देखतीं तो हमेशा यह कहतीं - 'इतनी मिट्टी बरबाद करते हुए क्या इन्हें अफसोस नहीं हुआ? मिट्टी बेचनेवाले तो मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते!'
इसमें तो जरा भी शक नहीं कि बल्हार लोग अपने फन के बड़े माहिर हैं। किंतु पहाड़ों में, जहाँ इतनी कम मिट्टी है, हमेशा यह माना जाता रहा है कि बल्हारों के घड़ों के मुकाबले में मिट्टी ज्यादा कीमती है।
पुराने जमाने की बात है कि एक हरकारा सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ गाँव में आया। उस वक्त सभी मर्द मसजिद में नमाज पढ़ रहे थे। घुड़सवार, जो चरवाहा था, जूते पहने हुए ही मसजिद में घुस गया।
'अरे बुद्धू, ओ काफिर,' मुल्ला ने चिल्लाकर कहा, 'क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि मसजिद में दाखिल होने से पहले जूते उतारने चाहिए?'
'मेरे जूतों पर लगी मिट्टी मेरी प्यारी घाटी की धूल है। वह इन कालीनों से ज्यादा कीमती है, क्योंकि इस मिट्टी पर दुश्मन टूट पड़ा है।'
पहाड़ी लोग भागकर मसजिद से बाहर आए और अपने घोड़ों को सरपट दौड़ाने लगे।
'दूर से आनेवाला मेहमान ज्यादा प्यारा होता है,' अबूतालिब को ऐसा कहना अच्छा लगता है। दूर-दराज से आनेवाला मेहमान बड़ी खुशी, बड़ा प्यार या बड़ा दुख-गम लेकर आता है। कोई उदासीन व्यक्ति दूर से नहीं आएगा।
ऐसी परंपरा भी है - अगर मेहमान को तुम्हारे घर में कोई चीज पसंद आ जाती है और वह उसकी प्रशंसा करता है तो बेशक तुम्हें आँसू बहाने पड़ें, लेकिन तुम वह चीज उसे भेंट कर दो। कहते हैं कि एक नौजवान ने अपनी मंगेतर तक, जिस पर गाँव के चश्मे के करीब उसके दोस्त की नजर टिक गई थी, उसे भेंट कर दी। किंतु यही मानना चाहिए कि वह नौजवान दो सौ प्रतिशत, उच्चतर पहाड़ी था।
बेहया किस्म का मेहमान हमेशा ही हमारे पुराने रीति-रिवाजों से फायदा उठा सकता है। लेकिन पहाड़ी लोग भी अब ज्यादा समझदार हो गए हैं - सुंदर चीजों को मेहमानों की नजरों से दूर हटा देते हैं।
तो बहुत पहले एक बार ऐसा हुआ कि कुमुख से एक मेहमान आया और सभी चीजों की तारीफ करने लगा। वे सारी चीजें ही, जिन्हें उसने ललचाई नजरों से देखा, उसे भेंट कर दी गईं। किंतु विदा करने के पहले उसे अपने बूटों पर से मिट्टी झाड़ने को मजबूर किया गया।
'मिट्टी भेंट नहीं की जाती,' पहाड़ी लोगों ने उससे यह भी कह दिया, 'मिट्टी की तो खुद हमारे यहाँ भी कमी है। लोग बूटों पर सारी मिट्टी ले जाएँगे तो हम अनाज कहाँ बोएँगे।'
एक विदेशी ने हमारी धरती को पथरीले बोरे की संज्ञा दी।
हाँ, हमारी धरती में कोमलता की कमी है। पहाड़ों पर पेड़ भी अक्सर नजर नहीं आते। हमारे पहाड़ मुरीदों के मुँड़े सिरों, हाथियों के सपाट, चिकने कंधों जैसे हैं। बुवाई के लिए जमीन थोड़ी है, उससे हासिल होनेवाली फसल भी बहुत कम होती है।
कभी हमारे यहाँ कहा जाता था - 'इस बेचारे की फसल तो पड़ोसी के नथुनों में ठोंसने के लिए भी काफी नहीं होगी।'
हाँ, हमारे पहाड़ी लोगों की नाकें भी खूब बड़ी-बडी़ बहुत गजब की हैं। दुश्मन खर्राटों की आवाज सुनकर ही बहुत दूर से यह जान जाते थे कि पहाड़ी लोग सो रहे हैं और इसी निशानी से कभी-कभी अचानक हमला कर देते थे।
किसी के चेहरे पर चेचक के ढेर सारे निशान देखकर अबूतालिब ने कहा - मेरे पिता जी के खेत में उगे अनाज के सारे दाने इस बेचारे के चेहरे पर जा चिपके ताकि उस पर अपने निशान छोड़ दें।
पहाड़ी लोगों के पास जमीन कम और कम उपजाऊ भी है। इसके बारे में एक किस्सा है जिसे शायद कई बार सुना गया हो, क्योंकि वह बहुत अरसे से एक भाषा से दूसरी भाषा में और एक सपाट छत से दूसरी सपाट छत तक सुनाया जाता रहा है। बेशक वे लोग मुझे कोसें जो इसे पहले सुन चुके हैं, फिर भी मैं उसे सुनाए बिना नहीं रह सकता।
किसी पहाड़िये ने अपना खेत जोतने का इरादा बनाया। उसका खेत गाँव से दूर था। वह शाम को ही वहाँ चला गया ताकि तड़के काम में जुट जाए। यह पहाड़ी आदमी वहाँ पहुँचा, उसने अपना लबादा वहाँ बिछाया और सो गया। वह सुबह ही जाग गया, ताकि खेत जोतना शुरू करे, लेकिन खेत तो कहीं था ही नहीं। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई, मगर खेत कहीं दिखाई नहीं दिया। गुनाहों की सजा देने के लिए क्या अल्लाह ने उसे छीन लिया या ईमानदार आदमी की खिल्ली उड़ाने के लिए शैतान ने उसे कहीं छिपा दिया।
कोई चारा नहीं था। पहाड़ी आदमी मन ही मन दुखी होता रहा और आखिर उसने घर लौटने का फैसला किया। उसने जमीन पर से लबादा उठाया और - हे भगवान! - यह रहा लबादे के नीचे उसका खेत!
पहाड़ी लोगों के लिए ऊँची पहाड़ी जमीन बहुत मूल्यवान है, यद्यपि वहाँ उनकी जिंदगी खासी मुश्किल है। राहगीर पर्वतों की ढालों और कभी-कभी तो चट्टानों पर खेतों के इन टुकड़ों, पत्थरों के बीच उगाए गए बाग-बगीचों और खड्ड के ऊपर पगडंडी पर जाती हुई भेड़ों को देखकर हैरान रह जाते हैं, जो रज्जुनटों की कुशलता-फुर्ती से खड़े गड्ढों-खड्डों को लाँघती हैं।
यह सब देखने में तो असाधारण रूप से सुंदर है, इसलिए बनाया गया है कि कविताओं में इसका गुणगान किया जाए, किंतु यहाँ काम करना और जीना कठिन है।
इसके बावजूद अगर किसी पहाड़ी आदमी को मैदानों में जाकर बसने को कहा जाए तो वह ऐसे प्रस्ताव को अपना अपमान मानेगा। लोग बताते हैं कि एक पहाड़ी आदमी का बेटा शहर से आया और अपने बूढ़े बाप को शहर चलने के लिए मनाने लगा।
'ऐसे शब्दों से मेरा दिल दुखाने के बजाय यही बेहतर होता कि तुम खंजर मारकर मेरा पेट चीर डालते,' बूढ़े पहाड़िये ने जवाब दिया।
यह समस्या विद्यमान है और काफी जटिल है। बहुत साल पहले ही पहाड़ी गाँवों में बहुत प्रभावपूर्ण यह नारा लगाया गया था - 'हम पथरीले बोरों से निकलकर फूलोंवाले मैदानों में जा बसेंगे।'
'पहाड़ों में धुएँवाले चूल्हे के करीब मैदान की बढ़िया भट्ठी से कहीं ज्यादा मजा है।' 'जिसे पेट की चिंता है, वह बेशक वहाँ चला जाए और जिसे दिल की चिंता है, वह यहाँ रहेगा।' 'हमने किसी की हत्या नहीं की, किसी के घर नहीं जलाए तो फिर किसलिए हमें जलावतन किया जा रहा है।' 'मशीनें तो यहाँ भी काम कर सकती हैं।' 'खंभों पर बत्तियाँ तो यहाँ भी लटक सकती हैं।' 'तार तो यहाँ से भी चला जाएगा।' 'मच्छरों और मक्खियों का पेट भरने के लिए हमने जन्म नहीं लिया है।' 'पेट्रोल की गंध से उपले का धुआँ कहीं बेहतर है।' 'पहाड़ी फूल ज्यादा चटकीले हैं।' 'नल के पानी से चश्मे का पानी कहीं ज्यादा मीठा है।' 'हम यहाँ से कहीं नहीं जाएँगे!'
'हम पथरीले बोरों से निकलकर फूलोंवाले मैदानों में जा बसेंगे,' इस नारे का हर पहाड़ी आदमी ने अपने ढंग से ऐसे जवाब दिया।
पहाड़ी लोग इसी सिलसिले में सलाह लेने के लिए मेरे पिता जी के पास भी आए कि वे कहीं दूसरी जगह जा बसें या यहीं रहें। कोई निश्चित जवाब देते हुए पिता जी ने झिझक महसूस की।
'अगर यहीं रहने की सलाह दे दूँगा और बाद में इन्हें पता चलेगा कि मैदानों में जिंदगी बेहतर है तो मुझे भला-बुरा कहेंगे। अगर यह सलाह देता हूँ कि नीचे जा बसें और वहाँ जिंदगी किसी काम की नहीं होगी तो भी मुझे कोसेंगे।'
'खुद ही तय कीजिए,' मेरे पिता हम्जात त्सादासा ने तब उन्हें जवाब दिया।
वक्त बदलता है और उसके साथ जिंदगी भी। सिर की टोपियाँ ही नहीं बदलीं, (फर की टोपियों की जगह छज्जेदार हल्की टोपियाँ) बल्कि टोपियों के नीचे जवान लोगों के दिमागों में विचार भी बदल गए हैं। तरह-तरह की जातियों, कबीलों और जनगण का आपस में मेल हो रहा है। हमारे बेटों की कब्रें पिताओं के गाँवों से अधिकाधिक दूर होती जा रही हैं... पत्थर, सिलें, बड़े-बड़े पत्थर, छोटे-छोटे कंकड़, गोल पत्थर, नुकीले पत्थर। इन पत्थरों पर कुछ उगाने के लिए पहाड़ के दामन से टोकरियाँ भर-भरकर मिट्टी ऊपर ढोई जाती है। पतझर और जाड़े में घास से ढँकी ढालों को जलाया जाता था ताकि ज्यादा अच्छी घास उगे। पहाड़ों में इन अनेक ज्वालाओं की मुझे याद है। पहली हल-रेखा के पर्व की भी मुझे याद है। वसंत। तब बूढ़े एक-दूसरे पर मिट्टी के गोले फेंकते थे।
काम-काजी आदमी के बारे में हमारे यहाँ कहा जाता है - 'बहुत-से पर्वत और चोटियाँ लाँघी हैं उसने।'
निकम्मे आदमी के बारे में कहा जाता है - 'उसने तो पत्थर पर एक बार भी कुदाल नहीं चलाई।'
'आपके खेत में फसलों की इतनी अधिक बालें हों कि उनके लिए जगह काफी न रहे,' पहाड़ी लोगों की यह सबसे अच्छी शुभकामना होती है।
'तुम्हारी जमीन सूख जाए, बंजर हो जाए,' सबसे बड़ा शाप होता है।
'इस धरती की कसम,' सबसे पक्की कसम यही होती है।
किसी पराये खेत में आ जानेवाले गधे की हत्या की जा सकती थी और इसके लिए कोई सजा नहीं होती थीं। एक पहाड़ी आदमी चिल्लाकर कहता रहा था - 'अगर हाजी-मुरात का गधा भी मेरी धरती पर आ जाएगा - तो उसकी भी खैर नहीं!'
हर गाँव के अपने नियम थे। किंतु सभी जगहों पर खेत या धरती को हानि पहुँचाने के लिए सबसे बड़ा जुर्माना वसूल किया जाता था।
सन 1859 के अगस्त महीन में गुनीब पर्वत पर इमाम शामिल अपने जंगी घोड़े से नीचे उतरा और उसने एक महान बंदी के रूप में खुद को प्रिन्स बर्यातीन्स्की के सामने पेश किया। बाएँ पाँव को थोड़ा आगे बढ़ाकर और उसे एक पत्थर पर टिकाकर तथा दाएँ हाथ को तलवार की मूठ पर रखकर और इर्द-गिर्द के पहाड़ों पर धुँधली-सी नजर डालकर शामिल ने कहा -
'हुजूर! इन पहाड़ों और इन पहाड़ी लोगों की इज्जत बचाते हुए मैं पच्चीस साल तक लड़ता रहा। मेरे उन्नीस घाव टीसते हैं और वे कभी नहीं भरेंगे। अब मैं कैदी के तौर पर अपने को पेश करता हूँ और अपनी धरती को आपके हवाले करता हूँ।'
'इसके लिए बहुत दुखी होने की क्या जरूरत है। खूब है तुम्हारी यह धरती भी - सिर्फ चट्टानें और पत्थर ही तो हैं!'
'हुजूर, यह बताएँ कि हमारी इस जंग में कौन ज्यादा सही था - हम, जो इस धरती को शानदार मानते हुए इसके लिए अपनी जानें कुर्बान करते रहे या आप लोग, जो इसे बुरी मानते हुए इसकी खातिर मरते रहे?'
कैदी शामिल को एक महीने तक का रास्ता तय करके पीटर्सबर्ग ले जाया गया।
पीटर्सबर्ग में सम्राट ने उससे पूछा -
'तुम्हें रास्ता कैसा लगा?'
'बड़ा मुल्क है। बहुत बड़ा मुल्क है।'
'इमाम, यह बताओ कि अगर तुम्हें यह पता चल जाता कि मेरा राज्य इतना बड़ा और इतना शक्तिशाली है तो क्या तुम इसके विरुद्ध इतनी देर तक लड़ते रहते या समझदारी दिखाते हुए ठीक वक्त पर ही हथियार डाल देत?'
'लेकिन आप भी तो यह जानते हुए कि हमारा देश इतना छोटा और कमजोर है, इतनी देर तक हमारे खिलाफ लड़ते रहे!'
मेरे पिता जी के पास शामिल का एक पत्र, अधिक सही तौर पर उसका विदा-पत्र सुरक्षित रहा है। यह है वह पत्र -
'मेरे पहाड़ी लोगो! अपनी नंगी और वीरान चट्टानों को प्यार करो! वे बहुत कम दौलत लाई हैं तुम्हारे लिए, लेकिन इन चट्टानों के बिना तुम्हारी धरती तुम्हारी धरती जैसी नहीं होगी और धरती के बिना बेचारे पहाड़ी लोगों के लिए आजादी नहीं होगी। इन चट्टानों के लिए जूझो, इनकी रक्षा करो। यही कामना है कि तुम्हारी तलवारों की टंकार मेरी कब्र की नींद को मधुर बना दे।'
शामिल ने पहाड़ी लोगों की तलवारों की टंकार और आवाज अनेक बार सुनी, यद्यपि पहाड़ी लोग अब एक अन्य ध्येय के लिए जूझते थे। दागिस्तानियों की मातृभूमि अब बड़ी हो गई है। उनकी कब्रें उक्रइना, बेलारूस, मास्को के उपांत, हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, कार्पेथिया तथा बाल्कान और बर्लिन के निकट तक बिखरी हुई हैं।
'एक गाँव के लोग पहले किस चीज के लिए लड़ते-भिड़ते थे?'
'दो पहाड़ी लोगों के खेतों के बीच की बालिश्त भर जमीन, छोटी-सी ढाल और पत्थर के लिए।'
'दो पड़ोसी गाँवों के लोग पहले किसलिए लड़ते-भिड़ते थे?'
'गाँवों के खेतों के बीच बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'दागिस्तान किसलिए दूसरे जनगण से लड़ता-जूझता था?'
'दागिस्तान की हदों पर बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'बाद में दागिस्तान किस चीज के लिए लड़ता-भिड़ता रहा?'
'महान सोवियत देश की हदों पर बालिश्त भर जमीन के लिए।'
'दागिस्तान अब किस चीज के लिए जूझ रहा है?'
'सारी दुनिया में शांति के लिए।'
शामिल के साथ उसके दो बेटे भी बंदी बनाए गए थे। उनके भाग्य अलग-अलग रहे। छोटा बेआ, मुहम्मद शफी जार का जनरल बन गया, जबकि बड़ा बेटा गाजी मुहम्मद तुर्की चला गया।
एक बार तुर्की पोशाक पहने एक बुजुर्ग औरत मेरे पास आई। जार्जियाई जाति की इस औरत ने जवानी के दिनों में ही एक तुर्क से शादी कर ली थी, चालीस साल तक इस्तंबूल में रह चुकी थी। बाद में पति की मृत्यु होने और अकेली रह जाने पर वह जार्जिया लौट आई थी। तो वह मेरे पास आई। उसके आने का कारण यह था - इस्तंबूल में रहते हुए शामिल के सबसे छोटे बेटे के वंशजों के साथ उसकी दोस्ती रही थी।
'कैसा हाल-चाल है उनका?' मैंने पूछा।
'बुरा हाल-चाल है।'
'किस कारण?'
'इस कारण कि उनका दागिस्तान नहीं है। काश! आपको मालूम होता कि कैसे वे वहाँ उदासी महसूस करते हैं! कभी-कभी सरकारी कर्मचारी यह धमकी देते हुए कि उनके पास जो जमीन है, वे उसे छीन लेंगे, उनका अपमान करते हैं। 'छीन लीजिए,' इमाम के वंशज जवाब देते हैं। 'दागिस्तान' तो हमारे पास है नहीं, दूसरी जमीन हमें प्यारी नहीं।' यह मालूम होने पर कि मैं मातृभूमि लौट रही हूँ,' जार्जियाई महिला कहती गई, 'उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं दागिस्तान जाऊँ, शामिल के जन्म-गाँव और उन पहाड़ों में भी जाऊँ, जहाँ वह लड़ता रहा था और आपसे भी मिलूँ। उन्होंने मुझे यह रूमाल दिया है कि आप इसमें दागिस्तान की थोड़ी-सी मिट्टी बाँधकर उन्हें भेज दें।'
मैंने रूमाल खोला। उस पर अरबी भाषा में 'शामिल' कढ़ा हुआ था।
जार्जियाई महिला ने जो कुछ बताया, उसने मेरे मर्म को छू लिया। मैंने मिट्टी भेजने का वचन दिया। इस संबंध में मैंने अनेक बुजुर्गों से सलाह-मशविरा किया।
'विदेश में रहनेवाले लोगों को हमारी मिट्टी भेजने में कोई तुक है?'
'दूसरों को भेजने की तो जरूरत नहीं थी, किंतु शामिल के वंशजों को भेज दो,' बुजुर्गों ने जवाब दिया।
एक बुजुर्ग ने शामिल के गाँव से मुट्ठी भर मिट्टी ला दी और हमने इस रूमाल में, जिस पर शामिल का नाम कढ़ा हुआ था, उसे लपेट दिया। बुजुर्ग ने कहा -
'उन्हें हमारी मिट्टी भेज दो, किंतु यह भी बता देना कि उसका प्रत्येक कण बहुत मूल्यवान है। उन्हें यह भी लिख देना कि हमारी इस धरती पर अब जिंदगी बदल गई है, यहाँ अब नया वक्त आ गया है। सभी कुछ के बारे में लिख देना ताकि उन्हें मालूम हो जाए।'
किंतु मुझे लिखना नहीं पड़ा। जल्दी ही मैं खुद तुर्की गया। मूल्यवान भेंट भी मैं अपने साथ ले गया।
मैंने शामिल के वंशजों को ढूँढ़ा, लेकिन उनसे मेरी मुलाकात नहीं हुई। मुझे बताया गया कि इमाम शामिल का परपोता शायद मक्का चला गया है। परपोतियाँ नजावत और नाजियात भी मुझसे मिलने नहीं आई। मुझे बताया गया कि एक के सिर में दर्द है और दूसरी को दिल का दौरा पड़ गया है। किसे मैं अपने वतन की मिट्टी दूँ? वहाँ अवार जाति के अन्य लोग भी थे, मगर वे अपनी इच्छा से दागिस्तान छोड़कर गए थे।
तब मैं समझ गया कि उनका शामिल और मेरा शामिल अलग-अलग शामिल हैं।
दूरस्थ तुर्की में मैं अपने प्यारे दागिस्तान की मुट्ठी भर मिट्टी हाथ में लिए था। इस थोड़ी-सी मिट्टी में मैं अपने गाँवों-गुनीब, चिरकोई, आख्ता, कुमुख, खूँजह, त्सादा त्सूंता और चारोदा की झलक पाता हूँ... यह सब मेरी धरती है। मैंने इसके बारे में बहुत कुछ लिखा है और लिखूँगा। इसे अब लबादे से नहीं ढका जा सकता, जैसा कि उस बदकिस्मत पहाड़ी आदमी के साथ हुआ था, जिसके बारे में मजाकिया किस्सा सुनाया जाता है।
दागिस्तान का दूसरा खजाना - सागर है।
मास्को और गुनीब गाँव के बीच टेलीफोन पर इस तरह की बातचीत होती है।
'हैलो, हैलो, गुनीब? ओमार, तुम बोल रहे हो? तुम मेरी आवाज सुन रहे हो? दिन कैसा है, मूड कैसा है?'
'सुन रहा हूँ। हमारे यहाँ सब कुछ ठीक-ठाक है। आज सुबह से सागर दिखाई दे रहा है...!'
या -
'हैलो, गुनीब? यह तुम बोल रही हो, फतिमा? क्या हाल-चाल हैं, मूड कैसा है?'
'मूड तो ऐसा-वैसा ही है। धुंध है। सागर दिखाई नहीं दे रहा।'
'अब्बा जान, समुंदर नजर नहीं आ रहा,' शामिल के बेटे जमालुद्दीन ने कहा।
वह जार का बंधक था - जार के फौजी कालेज में अफसर के तौर पर शिक्षा पा रहा था तथा मातृभूमि लौटने पर गोरे जार के विरुद्ध पिता और पहाड़ी लोगों के संघर्ष को बेकार मानता था।
'तुम समुंदर को देख सकोगे, मेरे बेटे,' शामिल ने जवाब दिया। 'लेकिन उसे मेरी आँखों से देखो।'
गुनीब पर्वत से सागर एक सौ पचास किलोमीटर दूर है। दिन कितना उजला, सागर कितना नीला और चमकता हुआ तथा नजरें कितनी तेज होनी चाहिए, पर्वत कितना ऊँचा होना चाहिए कि सहज भाव से यह कहा जा सके - 'सागर दिखाई दे रहा है।'
यहाँ तक कि उन गाँवों में, जहाँ से सागर देखना संभव नहीं, जब यह पूछा जाता है कि मूड कैसा है, तो कभी-कभी यह जवाब मिलता है - बहुत बढ़िया मूड है मानो सागर आँखों के सामने हो।
कौन किसकी शोभा बढ़ाता है - कास्पी सागर दागिस्तान की या दागिस्तान कास्पी सागर की? कौन किस पर गर्व करता है - पहाड़ी लोग सागर पर या सागर पहाड़ी लोगों पर?
जब मैं सागर को देखता हूँ तो सारे संसार को देखता हूँ। जब सागर में उथल-पुथल होती है तो लगता है कि सारी दुनिया में बेचैनी है, तूफानी मौसम है। जब वह शांत होता है तो लगता है कि सभी जगह शांति छाई है।
मैं लड़का ही था कि सागर से मेरा नाता जुड़ गया था। मैं खड़ी और टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों से नीचे उतरकर सागर के पास पहुँचा था। उस वक्त से मेरे घर की खिड़कियाँ सागर की ओर खुली हुई हैं। खुद दागिस्तान की खिड़कियाँ भी उधर ही देखती हैं।
मैं जब समुद्र-गर्जन नहीं सुनता हूँ तो मुझे कठिनाई से नींद आती है।
'लेकिन तुम क्यों नहीं सोते हो, दागिस्तान?'
'सागर शोर नहीं मचा रहा है, नींद नहीं आती है।'
बहुत चटक रंग के बारे में हम कहते हैं - सागर की रतह। बहुत तेज शोर के बारे में कहते हैं - सागर की तरह। कूटू के ऊँचे-ऊँचे और लहराते खेतों के बारे में कहते हैं - सागर की तरह।
बुद्धिमत्ता और आत्मा की गहराई के बारे में कहते हैं - सागर की तरह।
निर्मल आकाश तक के बारे में भी हम यही कहते हैं - सागर की तरह।
जब हमारी गाय बहुत दूध देती थी तो अम्माँ उसे 'मेरा सागर' कहा करती थीं।
मुझे खट्टी क्रीम का मटका हाथों में लिए छज्जे में खड़ी अपनी अम्माँ की याद आती है। वह अपने इर्द-गिर्द खेलते हम बच्चों को खिलाने के लिए उसमें से मक्खन निकाला करती थीं। उस मटके की गर्दन सागर की सीपियों की माला से सजी हुई थी।
'ताकि ज्यादा मक्खन निकले,' अम्माँ हमें माला का महत्व समझाती थीं। इसके अलावा वह यह भी कहा करती थीं कि सीपियाँ बुरी नजर से बचाती हैं।
दागिस्तान का पाषाणी वक्ष भी सीपियों की माला, तटवर्ती पत्थरों की माला, सागर-तरंगों की माला से सुसज्जित है।
दागिस्तान कास्पी सागर की लहरों के शोर का अभ्यस्त है, नीरवता-निस्तब्धता में उसे अचछी तरह से नींद नहीं आती और अगर वह सागर से वंचित हो जाता तो उसे बिल्कुल ही नींद न आती।
हिम-सी श्वेत-श्वेत सागर की लहरो, मुझे बताओ।
किस भाषा में बतियाती हो, मुझको यह समझाओ।
चट्टानों से टकराकर तुम शोर मचातीं ऐसे
गाँव-पैंठ में कोलाहल होता रहता है जैसे।
वहाँ दर्जनों भाषाओं की ऐसी खिचड़ी पकती
अल्ला भी चाहे तो उसके बात न पल्ले पड़ती।
जरा न गर्जन होता ऐसा कभी-कभी दिन आए
लहरें धीमे बहें कि मानो घास कहीं लहराए।
कभी-कभी लेने लगते हो ऐसी तेज उसाँसें
पुत्र-शोक में ज्यों माँ सिसके, ले ले भारी साँसें।
वारिस मर जाने पर बूढ़ा बाप भरे ज्यों आहें
जल में जैसे घोड़ा डोले, लहरें जिसे बहाएँ।
छलछल करते कभी, कभी तुम, ऊँचा शोर मचाते
अपनी भाषा में तुम सागर, मन की बात बताते।
तेरे-मेरे दिल की गहराई में है कुछ बंधन
और समझ सकता मैं तेरे सभी रूप-परिवर्तन।
क्या न कभी मेरे दिल में भी खून उबलने लगता
टकरा कटु जीवन-लहरों से वह अपना सिर धुनता?
किंतु बाद में धीरे-धीरे, शांत तुम्हीं हो जाते
शक्तिहीन हो ढालू तट को, क्या न तुम्हीं सहलाते?
गहराई में राज न तेरे, सागर छिपे हुए क्या?
क्या न एक सा रूप, हमारे दोनों के सुख-दुख का?
किंतु अलग है, खास दर्द, जो मेरा मैं बतलाऊँ,
पीना चाहूँ सागर, खारी, मगर नहीं पी पाऊँ।
मास्को से मखाचकला जानेवाली गाड़ी वहाँ तड़के पहुँचती है। रास्ते में बीतनेवाली यह रात मेरे लिए सर्वाधिक बेचैनी की रात होती है। मैं आधी रात को उठकर अँधेरे में लिपटी खिड़की से बाहर झाँकता हूँ। खिड़की के बाहर अभी स्तेपी-मैदान होता है। गाड़ी शोर मचाती होती है, गाड़ी के डिब्बे के बाहर बहुत जोर से हवा सरसराती होती है, मैं दूसरी बार उठकर खिड़की से बाहर देखता हूँ - फिर वही स्तेपी-मैदान। आखिर तीसरी बार उठकर बाहर नजर दौड़ाता हूँ - सागर दिखाई देता है। इसका मतलब है कि यह मेरा दागिस्तान है।
शुक्रिया तुम्हारा, नीले सागर, विराट जल-विस्तार! तुम ही मुझे सबसे पहले यह सूचना देते हो कि मैं अपने घर पहुँच गया हूँ।
मेरे पिता जी को यह कहना अचछा लगता था - 'जिसके यहाँ समुंदर है, उसका घर मेहमानों का घर है।'
जवाब में अबूतालिब कहा करता था - 'जिसके यहाँ समुंदर है, उसका जीवन सुंदर और समृद्ध है। पहाड़ ही समुंदर से ज्यादा खूबसूरत हो सकते हैं, लेकिन हमारे यहाँ तो वे भी हैं।'
ये दो बुजुर्ग - मेरे पिता जी और अबूतालिब पहले से ही कुछ तय किए बिना जब कभी मिलते तो अक्सर सागर की ओर चले जाते। ये उस टीले पर चढ़ जाते, जहाँ से बंदरगाह में आनेवाले सभी जहाज नजर आते। मछलियों और नमक की गंध इन दोनों बुजुर्गों तक पहुँचती रहती। ये दोनों केवल सागर को अपनी बात कहने की संभावना देते हुए घंटों तक यहाँ चुपचाप बैठे रहते।
सागर अपनी बात कहे, तुम साधे मौन रहो
अपनी खुशियाँ और न अपने मन का दर्द कहो।
वह महान कवि दांते भी उस रात मूक था रहता
कहीं पास में जब उसके नीला सागर था बहता।
भीड़ लगी हो सागर-तट पर या सुनसान वहाँ हो
मुँह से शब्द न एक निकालो, सागर को गाने दो।
वह बातों के फन का माहिर, पुश्किन भी चुप रहता
जब-जब सागर अपने दिल की, अपने मन की कहता।
मेरे पिता जी कहा करते थे कि सागर को सुनते हुए उसकी बात समझना सीखो। सागर ने बहुत कुछ देखा है, वह बहुत कुछ जानता है।
- सागर मुझको यह बतलाओ, क्यों है तेरा जल खारी?
- क्योंकि मिले हैं इसमें अक्सर, लोगों के आँसू खारी!
- सागर मुझे बताओ, किसने तेरा रूप सँवारा है?
- मूँगों और मोतियों ने ही मेरा रूप निखारा है!
- सागर मुझको यह बतलाओ, क्यों हो तुम इतने विह्वल?
- क्योंकि भँवर में डूब गए हैं कितने ही तो वीर प्रबल -
कुछ ने चाहा, सपना देखा, मीठा कर दें जल खारी
और दूसरों को मूँगों की खोज, चाह दिल में प्यारी!
पके बालोंवाले दो पहाड़ी बुजुर्ग, दो कवि, दो बूढ़े उकाबों की तरह टीले पर बैठे हैं। चुपचार और निश्चल बैठकर सागर को सुन रहे हैं। सागर शोर मचा रहा है, जीवन के बारे में, जो उसके समान ही है, सोचने को विवश करता है और उसके खुले तथा भयानक विस्तार में बेशक किसी भी तरह के मौसम का सामना न करना पड़े, उसके एक तट से दूसरे तट तक तो जाना ही होगा। किंतु सागर से भिन्न, जीवन में शांत बंदरशाह, शांत घाट नहीं हैं। कोई चाहे या न चाहे, जीवन-सागर के पार तो जाना ही होगा। सिर्फ एक, आखिरी बंदरशाह, केवल एक, अंतिम घाट ही होगा।
कास्पी सागर शोर मचाता रहता है, ख्वालीन्स्क सागर शोर मचाता रहता है। उसमें नदियाँ आकर गिरती हैं - एक ओर से वोल्गा, उराल और दूसरी ओर से कूरा, तेरेक, सुलाक। ये सभी आपस में घुल-मिल गई हैं और इन्हें एक-दूसरी से अलग नहीं किया जा सकता। उनके लिए सागर भी एक तरह से आखिरी घाट है। हाँ, यह सही है कि इनका पानी लुप्त नहीं होगा, जीवनहीन नहीं होगा, गतिहीन नहीं होगा, बहता रहेगा, नीली-नीली लहरों के रूप में ऊपर उठता रहेगा। इन लहरों पर दुनिया के विभिन्न कोनों तक बड़े-बड़े जहाज जाते रहेंगे।
पहाड़ी लोगो, दागिस्तान के बेटे-बेटियो, क्या आपका भाग्य भी इन नदियों के समान नहीं है? आप भी तो हमारे महान भ्रातृत्व के संयुक्त सागर में सम्मिलित होकर घुल-मिल गए हैं।
कास्पी सागर शोर मचा रहा है। पके बालोंवाले दो बुजुर्ग चुपचाप खड़े हैं और उनके साथ मैं, एक किशोर भी खड़ा हूँ। बाद में, जब हम घर की ओर रवाना हुए तो अबूतालिब ने मेरे पिता जी से कहा -
'तुम्हारा बेटा बड़ा होता जा रहा है। आज उसे उच्च भावना की अनुभूति हुई है।'
'जिस जगह पर हम खड़े थे, वहाँ किसी को भी छोटा नहीं होना चाहिए,' मेरे पिता जी ने अबूतालिब को जवाब दिया।
अब, जब कभी भी मैं सागर-तट पर जाता हूँ तो मुझे लगातार ऐसा लगता है कि पिता जी की बगल में खड़ा हूँ।
कहते हैं कि कास्पी साल-द-साल कम गहरा होता जा रहा है। जहाँ कभी पानी कल-छल करता था, वहाँ अब शहरी मकान खड़े हैं। शायद यह ठीक ही है कि सागर छिछला होता जा रहा है। किंतु मैं यह विश्वास नहीं करता कि सागर सागर नहीं रहेगा। संभव है कि वह कम गहरा होता जा रहा है, फिर भी उसमें तुच्छता नहीं आ रही है।
मैं तो लोगों से भी सदा यही कहता हूँ कि कम संख्यावाले होने पर भी तुममें तुच्छता नहीं आनी चाहिए।
पति विद्वान हिलाता है सिर दुख से व्याकुल होकर
कवि, लेखक भी व्यथित हो रहे दिल में दर्द सँजोकर,
इनकी पीड़ा यही कि कास्पी तट से हटता जाए
इसकी कम होती गहराई, उथला हो छिछलाए।
यह सब है बकवास मुझे तो कभी-कभी यह लगता
बूढ़ा कास्पी छिछला हो यह कभी नहीं हो सकता,
तुच्छ हो रहे कुछ लोगों के, दिल यह डर ही मुझको
और सभी चीजों से ज्यादा, चिंतित व्याकुल करता।
मखाच ने भी सागर की चर्चा की है। वह दागिस्तान की क्रांतिकारी कमेटी का पहला कमिसार था और हमारी राजधानी उसी के नाम पर मखाचकला कहलाती है। इसके पहले इसे पोर्ट-पेत्रोव्स्क कहा जाता था। गृह-युद्ध के समय में मखाच ने इसे अभेद्य दुर्ग बना दिया था।
तो सागर के बारे में मखाच ने कहा था - 'दुश्मन चाहे कितने ही क्यों न हों, हम उन सभी को सागर में फेंक देंगे। सागर गहरा है, उसके तल में सभी के लिए काफी जगह रहेगी।'
पहाड़ी लोग जब जिंदगी के मसलों पर सोच-विचार करने के लिए मसजिद के करीब या किसी पेड़ के नीचे जमा होते हैं तो ऐसी मजलिस को हमारे यहाँ गोदेकान का नाम दिया जाता है। ऐसी एक मजलिस में पहाड़ी लोगों से एक बार यह पूछा गया - कौन-सी आवाज आत्मा को सबसे ज्यादा प्यारी लगती है? पहाड़ी लोगों ने सोच-विचारकर जवाब देना शुरू किया -
'चाँदी की खनक।'
'घोड़े की हिनहिनाहट।'
'प्रेयसी का स्वर।'
'पहाड़ी दर्रे में घोड़े के नालों की गूँज।'
'बच्चे की हँसी।'
'माँ की लोरी।'
'पानी की कल-छल।'
लेकिन एक पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया -
'सागर की आवाज। कारण कि सागर में वे सब ध्वनियाँ सम्मिलित हैं जिनकी आपने गणना की है।'
किसी दूसरे मौके पर ऐसी ही एक मजलिस में पहाड़ी लोगों से यह पूछा गया -किस चीज का रंग आत्मा को सबसे अधिक प्यारा लगता है? पहाड़ी लोग कुछ देर सोचने के बाद जवाब देने लगे -
'निर्मल आकाश का।'
'श्वेत हिम से मढ़ित पर्वत-शिखरों का।'
'माँ की आँखों का।'
'बेटे के बालों का।'
'आड़ू के बौराए पेड़ का।'
'पतझर में सरपत का।'
'चश्मे के पानी का।'
लेकिन एक पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया -
'सागर का। कारण कि उसमें वे सभी रंग सम्मिलित हैं जिनकी आपने गणना की है।'
ऐसी ही मजलिसों में जब गंधों, पेयों या किसी अन्य चीज के बारे में पूछा गया तो हमेशा सागर पर आकर ही बात खत्म हुई।
सागर से प्रभावित होकर जनसाधारण ने नौजवान और समुद्री राजकुमारी और आसमानी रंग के उस पक्षी के बारे में किस्से गढ़ रखे हैं जो जहाँ भी चोंच मारता है, वहीं चश्मा फूट पड़ता है।
निश्चय ही मजलिस में हर कोई अपने घोड़े की तारीफों के पुल बाँधता है। अपने कास्पी सागर की तारीफ करते हुए क्या मैं भी यही नहीं कर रहा हूँ? कभी-कभी मुझसे कहा जाता है - कास्पी की क्या डींग मार रहे हो। यह तो सागर भी नहीं, बड़ी झील है। असली सागर तो काला सागर है।
हाँ, यह सही है कि कास्पी सागर काले सागर जैसा मखमली और कोमल नहीं है। अडरियाटिक या ईओनीचेस्की सागर जैसा भी नहीं है। किंतु वहाँ तो लोग मुख्यतः आराम करने या नहाने जाते हैं, जबकि कास्पी सागर पर मुख्यतः काम करने के लिए। कास्पी सागर-मछुओं, खनिज तेल निकालने वालों और मेहनतकशों का सागर है। इसलिए उसका मिजाज भी कुछ ज्यादा कठोर है। कोई कर ही क्या सकता है, हर साँड़ का अपना मिजाज, हर मर्द का अपना स्वभाव और हर सागर का अपना रवैया होता है... क्या दागिस्तान के पर्वत स्वभाव की दृष्टि से जार्जिया, अबखाजिया और अन्य स्थानों के पर्वतों से भिन्न नहीं हैं?
लेकिन सच कहूँ तो मुझे सभी सागर समान लगते हैं। जब जहाज पर काले सागर में यात्रा करता होता हूँ तो मुझे कास्पी की याद आती है, जब कास्पी में यात्रा करता होता हूँ तो महासागर को भी याद कर सकता हूँ। हमारा सागर दूसरे सागरों से किसी प्रकार भी उन्नीस नहीं है। अन्य सागरों की भाँति सभी लोग इस मान्यता के अनुसार उसमें भी इसीलिए कोई सिक्का फेंकते हैं कि फिर से इसी सागर पर आ सकेंगे।
पिता जी कहा करते थे कि अगर किसी व्यक्ति को सागर सुंदर नहीं लगता तो इसका यही मतलब है कि वह आदमी खुद सुंदर नहीं है।
किसी ने एक बार अबूतालिब से कहा -
'सागर आज बहुत बुरे ढंग से शोर मचा रहा है।'
'तुम मेरे कानों से सुनो।'
तो आप कास्पी सागर को दागिस्तान की नजरों से देखिए और तब वह आपको बहुत सुंदर दिखाई देगा।
दागिस्तान के मेगेब गाँव के रहनेवाले पनडुब्बी के दूसरी श्रेणी के विख्यात कप्तान मुहम्मद गाजीयेव के बहादुरी के कारनामों से सारा जंगी जहाजी बेड़ा परिचित है। उसने बाल्टिक, उत्तरी और बारेंत्सेव सागर में भी दुश्मन के खिलाफ लोहा लिया। मुहम्मद गाजीयेव के टारपीड़ों से अनेक फासिस्ट जंगी जहाजों की ठंडे पानी में कब्रें बनीं। महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के इतिहास में उसकी पनडुब्बी ने पहली बार फासिस्ट जंगी समुद्री बेड़े से आमने-सामने लड़ाई लड़ी थी। उसका एक नियम था - जब तक दुश्मन का कोई जंगी जहाज नहीं डुबो लो, तब तक मूँछें साफ नहीं करो।
मुहम्मद गाजीयेव से मेरी एक बार मुलाकात हुई। उस वक्त मैं बुईनाक्स्क शहर के अबाशीलोव नामक अध्यापक-प्रशिक्षण कालेज में पढ़ता था। मुहम्मद गाजीयेव छुट्टी पर था और हमने उसे अपने कालेज में निमंत्रित किया। हमने उससे पूछा -
'भला यह कैसे हुआ कि पहाड़ों-चट्टानों में जन्म लेनेवाले आप जहाजी बन गए?'
'बचपन में एक पर्वत के शिखर से मैंने कास्पी सागर देखा और हैरानी के कारण मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने मुझे पुकारा और मैं उसकी तरफ चल दिया। मैं सागर की पुकार की अवहेलना नहीं कर सकता था।'
पहाड़ों का रहनेवाला, सोवियत संघ का वीर, मुहम्मद गाजीयेव बारेंत्सेव सागर में वीरगति को प्राप्त हुआ। उसी का नाम धारण करनेवाले कारखाने के सामने मखाचकला में बना हुआ उसका स्मारक कास्पी के विस्तार पर ही नजर टिकाए है। सेवेरोमोर्स्क नगर में उसके नाम का एक स्कूल भी है।
दिलेर लोग ही सागर में काम करने जाते हैं, मगर सभी वहाँ से वापस नहीं आते। इसलिए पहाड़ी लोग वसंत के पहले फूल सागर को भेंट करते हैं और इस तरह सदा को सागर में ही रह जानेवाले सभी वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। मेरे फूल भी लहरों में अनेक बार तैरते थे।
बारेंत्सेव सागर में, उस जगह, जहाँ गाजीयेव और उसके साथी शहीद हुए, गाजीयेव की स्मृति को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जहाज रुक जाते हैं।
कास्पी सागर में भी ऐसी ही परंपरा है। जहाज वहाँ रुकते हैं, वीरगति को प्राप्त होने वालों की स्मृति में जहाजी तीन मिनट तक मौन धारण किए रहते हैं।
हमारा शहर मखाचकला एक जहाज की तरह घाट पर खड़ा है। तटबंध के पार्क से पुश्किन की मूर्ति और उसके करीब ही सुलेमान स्ताल्स्की की मूर्ति सागर की ओर देख रही है, तरुपथ से मेरे पिता जी का बुत कास्पी पर नजर टिकाए है।
कहते हैं कि सागर की जगह कभी उदास और वनस्पतिहीन मरुस्थल था। बाद में उसने पर्वतों को देखा और हर्षोल्लास से ओत-प्रोत होकर उनके दामन में अपना नीला विस्तार फैला दिया।
कहते हैं कि पर्वत कभी आपस में लड़नेवाले अजगर थे। बाद में उन्होंने सागर को देखा और चकित होकर बुत बने रह गए तथा पाषाणों में बदल गए।
अम्माँ मेरे पालने के ऊपर गाया करती थीं -
बेटे, बनो बड़े, कि पाओ
पर्वत की ऊँचाई,
बेटे, बनो बड़े, कि पाओ
सागर की चौड़ाई।
युवती ने अपने जवान प्रियतम के लिए यह गाया -
जन्म हुआ ऊँचे पर्वत पर
साफ नजर यह आता है,
टेढ़ी टोपी पहन घमंडी
अपनी अकड़ दिखाता है।
जवान जिगीत यानी सूरमा ने सुंदर पहाड़ी युवती के लिए यह गाया -
सागर-तल से क्या तुम आई
अरी, रूप लेखा?
कभी न पहले ऐसा यौवन
जीवन में देखा।
एक सभा में मैंने निम्न बातचीत सुनी -
'हम लोग हर वक्त सागर और पहाड़ों, पहाड़ों और सागर का ही क्यों राग अलापते रहते हैं? हमारे यहाँ कुछ दूसरे प्रकार के पहाड़ और सागर भी हैं जिनकी हमें चर्चा करनी चाहिए। हमारे यहाँ लेज्गीनी उपवनों का सागर है, मवेशियों का सागर है, ऊन के पहाड़ हैं।'
लेकिन ठीक ही कहा जाता है - 'तीनों गाने खुद ही नहीं गाओ, एक हमारे लिए भी रहने दो। तीनों नमाजें खुद नहीं अदा करो, एक हमारे लिए भी रहने दो।'
दागिस्तान जिन भागों का बना हुआ है, मैंने उनमें से दो मुख्य भागों का वर्णन किया है। बाकी सब कुछ - उसका तीसरा भाग है। क्या उसके रास्तों और नदियों, पेड़ों और घास-पौधों की कम चर्चा की जा सकती है! सभी कुछ का वर्णन करने के लिए तो पूरी जिंदगी भी काफी नहीं होगी।
गीतों-गानों के बारे में भी यही सही है। दुनिया में सिर्फ तीन गीत हैं - पहला - माँ का गीत, दूसरा - माँ का गीत और तीसरा गीत - बाकी सभी गीत।
पहाड़ी लोग यह कहते हुए किसी को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं - 'हमारे यहाँ पधारिए। हमारे पर्वत, हमारा सागर और हमारे दिल आपकी सेवा में उपस्थित हैं। हमारी धरती-धरती है, घर-घर है, घोड़ा-घोड़ा है, आदमी-आदमी है। उनके बीच तीसरा कुछ नहीं।'