अवार भाषा में इनसान और आजादी के लिए एक ही शब्द का उपयोग होता है। 'उज्देन' - इनसान, 'उज्देनली' - आजादी। इसलिए जब इनसान का उल्लेख किया जाता है तो यह अभिप्राय भी होता है कि वह आजाद है।
एक कब्र के पत्थर पर आलेख -
बुद्धिमान होने का उसने कभी न नाम कमाया,
बाँका वीर-सूरमा वह तो कभी नहीं कहलाया,
लेकिन उसके सम्मुख तुम सब अपना शीश झुकाओ
क्योंकि सही मानी में वह इनसान भला बन पाया।
खंजर पर आलेख -
शत्रु-भाव या मित्र-भाव से
कोई मिले कि जीवन में,
'वह इनसान', याद यह रखो
खंजरवाले, तुम मन में।
बहुत समय तक अनुपस्थित रहने के बाद एक पहाड़िया जब मातृभूमि लौटा तो उससे पूछा गया -
'यह बताओ कि वहाँ कैसा हाल-चाल है, वहाँ की जमीन कैसी है, वहाँ के तौर-तरीके कैसे हैं?'
'वहाँ इनसान रहते हैं,' पहाड़ी आदमी ने जवाब दिया।
जब हाजी-मुरात और शामिल के बीच झगड़ा हो गया तो कुछ लोगों ने नायब (सहायक) यानी हाजी-मुरात को खुश करने के लिए शामिल को भला-बुरा कहना शुरू किया। कठोर संकेत से उन्हें चुप कराते हुए हाजी-मुरात ने कहा -
'खबरदार, जो ऐसे कुशब्द मुँह से निकाले। वह इनसान है और अपने झगड़े को हम खुद निपटा सकते हैं।'
हाजी-मुरात बेशक शामिल को छोड़कर चला गया, फिर भी गुनीब पहाड़ पर आखिरी लड़ाई के वक्त अपने नायब की बहादुरी और दिलेरी को याद करते हुए शामिल ने कहा -
'अब वैसे लोग नहीं रहे। वह इनसान था।'
अनेक सदियों से पहाड़ी लोग पहाड़ों में रह रहे हैं और हमेशा ही उन्हें इनसान की जरूरत महसूस होती रही है। इनसान की जरूरत है। इनसान के बिना किसी तरह भी काम नहीं चल सकता।
पहाड़ी आदमी विश्वास दिलाता है - इनसान के रूप में पैदा हुआ हूँ - इनसान के रूप में ही मरूँगा!
पहाड़ियों का यह नियम है - खेत और घर बेच दो, सारी संपत्ति खो दो, किंतु अपने भीतर के इनसान को न बेचो और न गँवाओ।
पहाड़ी लोग अपने को यों शाप देते हैं - हमारे वंश में न इनसान हो, न घोड़ा। तो पहाड़ी लोग उसे बीच में ही टोककर कहते हैं -
'उसके बारे में अपने शब्द बरबाद नहीं करें। वह तो इनसान ही नहीं है।'
जब कभी किसी आदमी की भूल, दोष-अपराध, त्रुटि-कमजोरी का जिक्र शुरू किया जाता है तो पहाड़ी लोग बीच में ही टोककर कहते हैं -
'वह इनसान है और उसके इस अपराध को माफ किया जा सकता है।'
जिस गाँव में कोई व्यवस्था नहीं होती, जो तंग और गंदा होता है, जहाँ लड़ाई-झगड़ा होता रहता है तथा जो किसी काम का नहीं होता, उसके बारे में पहाड़ी लोग कहते हैं -
'वहाँ इनसान नहीं है।'
जिस गाँव में व्यवस्था और शांति होती है, उसके बारे में कहा जाता है -
'वहाँ इनसान है।'
इनसान - यह मुख्य लक्षण, अमूल्य आभूषण और महान चमत्कार है। दागिस्तान में इनसान कहाँ से प्रकट हुआ, पहाड़ी लोगों के अनूठे कबीले की कैसे शुरुआत हुई, उसकी जड़ें कहाँ हैं? इसके बारे में बहुत-से किस्से-कहानियाँ और दंत-कथाएँ हैं। इनमें से एक मैंने बचपन में सुनी थी।
धरती पर तरह-तरह के जानवरों और परिंदों का जन्म हो चुका था तथा उनके निशान देखने को मिलते थे, मगर इनसान के पाँवों के चिह्न ही कहीं नहीं थे। तरह-तरह की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन सिर्फ इनसान की आवाज सुनने को नहीं मिलती थी। इनसान के बिना धरती जबान के बिना मुँह और दिल के बिना छाती के समान थी।
इस धरती के ऊपर बड़े शक्तिशाली और बहादुर उकाब पक्षी आसमान में उड़ते रहते थे। जिस दिन की चर्चा चल रही है, उस दिन ऐसे जोर का हिमपात हो रहा था। मानो पृथ्वी के सारे पक्षियों के पंख नोचे जा रहे हों और वे हवा में उड़ रहे हों। काले बादलों ने आकाश को ढक दिया, धरती हिम से पट गई, सब कुछ गड्डमड्ड हो गया और यह समझ पाना कठिन था कि धरती कहाँ है तथा आकाश कहाँ। इस वक्त एक उकाब, जिसके पंख तलवारों जैसे और चोंच खंजर जैसी थी, अपने घोंसले की तरफ लौट रहा था।
या तो उकाब ऊँचाई के बारे में भूल गया या ऊँचाई उसके बारे में भूल गई, लेकिन उड़ते-उड़ते ही वह कठोर चट्टान से जा टकराया। अवार जाति के लोगों का कहना है कि गुनीब पर्वत पर ऐसा हुआ, लाक जातिवाले कहते हैं कि यह घटना तुर्चीदाग पर्वत पर घटी, लेज्गीन जाति के लोग विश्वास दिलाते हैं कि यह तो शाहदाग पर्वत पर हुआ था। किंतु यह घटना चाहे कहीं भी क्यों न घटी हो, चट्टान तो चट्टान है और उकाब उकाब है। व्यर्थ ही तो यह नहीं कहा जाता - 'परिंदे को पत्थर मारो - परिंदा मर जाएगा, परिंदे को पत्थर पर मारो - परिंदा मर जाएगा।'
संभवतः चट्टान पर गिरकर मरनेवाला यह पहला उकाब नहीं था। किंतु यह उकाब, जिसके पंख तलवारों जैसे थे और चोंच खंजर जैसी, चट्टान से टकराकर मरा नहीं। इसके पंख टूट गए, मगर दिल धड़कता रहा, तीखी चोंच और लोहे की तरह मजबूत पंजे ज्यों के त्यों बने रहे। इसे अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष करना पड़ा। पंखों के बिना खुराक हासिल करना मुश्किल है, पंखों के बिना दुश्मन से जूझना कठिन है। यह उकाब हर दिन एक पत्थर से दूसरे पत्थर और एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर अधिकाधिक ऊपर चढ़ता हुआ उसी चट्टान तक पहुँच गया जिसपर बैठकर इसे इर्द-गिर्द के पर्वतों पर नजर दौड़ाना अच्छा लगता था।
पंखों के बिना खुराक हासिल करना मुश्किल था, दुश्मन से अपने को बचाना कठिन था, ऊँचाई पर जाना और घोंसला बनाना आसान नहीं था। इन सभी कठिन कामों के दौरान उकाब की मांस-पेशियाँ बदल गईं और उसकी बाहरी शक्ल-सूरत भी बदलने लगी। जब घोंसला बन गया तो वह वास्तव में पहाड़ी घर ही था और पंखों के बिना उकाब पहाड़ी आदमी।
वह पाँवों पर खड़ा हो गया और टूटे हुए पंखों की जगह उसकी बाँहें निकल आईं। उसकी आधी चोंच सामान्य, लेकिन बड़ी नाक में बदल गई और बाकी आधी चोंच पहाड़ी आदमी की पेटी से लटकनेवाला खंजर बन गई। सिर्फ उसका दिल उसका दिल नहीं बदला, वह पहले की तरह उकाब का दिल ही बना रहा।
'तो देखा तुमने बेटे,' अम्माँ ने यह किस्सा खत्म करते हुए कहा - 'पहाड़ी आदमी बनने से पहले उकाब को कितनी अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। तुम्हें इस चीज के महत्व को समझना चाहिए।'
मैं नहीं जानता कि यह सब ऐसे ही हुआ था या नहीं, लेकिन एक बात निर्विवाद है कि परिंदों में पहाड़ी लोगों को उकाब ही सबसे ज्यादा प्यारा है। नेक और बहादुर आदमी को उकाब कहा जाता है। बेटे का जन्म होता है तो पिता यह घोषणा करता है - मेरे यहाँ उकाब का जन्म हुआ है। बेटी जब जल्दी-जल्दी और बड़ी फुर्ती से घर लौटती है तो माँ कहती है - मेरी उकाब बिटिया उड़ आई है।
महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के समय दागिस्तान के वीरों के बारे में एक किताब लिखी गई थी जिसका शीर्षक 'पहाड़ी उकाब' था।
पुराने घरों के दरवाजों, पालनों और खंजरों पर अक्सर पच्चीकारी के रूप में या किसी अन्य रूप में उकाब की आकृति बनी दिखाई देती है।
यह सही है कि इस सिलसिले में दूसरे किस्से-कहानियाँ भी हैं।
जब इस दुनिया में भाग्य के उलट-फेर के बारे में सोचा जाता है, जब पिता मातृभूमि से दूर दूसरी दुनिया को कूच करनेवाले बेटों को याद करते हैं या जब बेटे परलोक सिधार गए पिताओं को स्मरण करते हैं तो ऐसा मानते हैं कि पहाड़ी आदमी उकाब से नहीं, बल्कि उकाब पहाड़ी आदमियों से बने हैं।
- नदियों-चट्टानों के ऊपर तुम ऊँचे उड़नेवाले
कौन तुम्हारा वंश उकाबो, अरे, कहाँ से तुम आए?
- बहुत तुम्हारे बेटे-पोते, मातृभूमि के लिए मिटे
हम उनके दिल, पंख लगाकर इस धरती पर जो आए!
- दूर गगन के अँधियारे में तुम झिलमिल करते तारो।
कौन तुम्हारा वंश बताओ और कहाँ से तुम आए?
- खेत रहे हैं रण-आँगन में, युवक तुम्हारे वीर बहुत
उनकी ही आँखों की हम तो चमक, रोशनी बन आए।
तो यही कारण है कि दागिस्तान के लोग प्यार और आशा से आकाश को ताकते हैं। उड़कर आने और उड़कर जानेवाले पक्षियों को भी वे ऐसे ही देखते हैं। पहाड़ी लोग नीलाकाश को बहुत चाहते हैं!
1942 का साल याद आ रहा है। फील्ड-मार्शल क्लेइस्ट की सेनाओं ने काकेशिया के ऊँचे स्थलों पर अधिकार कर लिया था। फासिस्टों के हवाई जहाज ग्रोज्नी शहर के खनिज-तेल के ठिकानों पर बमबारी करते थे। हमारे दागिस्तान की ऊँचाइयों से आग का धुआँ नजर आता था।
उन दिनों काकेशिया के सभी जनगण के युवजन के प्रतिनिधि ग्रोज्नी में जमा हुए। दागिस्तान के प्रतिनिधिमण्डल में मैं भी शामिल था। हमारी मीटिंग में सोवियत संघ के वीर, लेज्गीन जाति के मशहूर हवाबाजवालेन्तीन अमीरोव ने भाषण दिया। मैं न तो मंच पर से दिया गया उसका भाषण और न मीटिंग के बाद उसके साथ हुई अपनी थोड़ी-सी बातचीत ही कभी भूल सकूँगा। वहाँ से जाते वक्त उसने आँखों से आकाश की तरफ इशारा करते हुए कहा -
'वहाँ जाने की उतावली में हूँ। धरती की तुलना में मेरी वहाँ ज्यादा जरूरत है।'
दो हफ्ते बाद उसकी मौत की खबर आ गई। दागिस्तान का प्रसिद्ध सुपुत्र मौत के मुँह में चला गया, जल गया। किंतु हर बार ही, जब मैं चीख के साथ अपने सिर के ऊपर से उकाब को उड़ते हुए जाते देखता हूँ तो यह विश्वास करता हूँ कि उसके सीने मेंवालेंतीन का दहकता हुआ दिल है।
सन 1945। मास्को। हम विद्यार्थी पहाड़ी इलाके, मखाचकला की खबरें जानने के लिए मास्को में दागिस्तान के प्रतिनिधि-भवन में जाते थे। हमारा जनतंत्र उस समय अपनी रजत-जयंती मनाने की तैयारी कर रहा था। एक बार वहाँ नबी अमीनतायेव से मेरी मुलाकात हो गई। दागिस्तान में उस समय शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो लाक ताति के नबी अमीनतायेव को न जानता हो। आकाश का छतरीबाज सूरमा, यह विनम्र व्यक्ति पैराशूट के सहारे अनेक बार शत्रु के क्षेत्र में उतरा था और हर बार ही सही-सलामात वापस आ गया था।
'अब तो जंग नहीं है, तुम दागिस्तान लौट आओ,' मैंने उससे कहा।
'आकाश तो है।'
कुछ दिनों के बाद 'प्राव्दा' समाचारपत्र ने उसका फोटो छापा। उसके नीचे यह लिखा था - 'नबी अमीनतायेव ने पैराशूट से छलाँगों का विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। नबी अमीनतायेव ने अपना रिकार्ड दागिस्तान को समर्पित किया है।'
कुछ दिनों के बाद मेरी फिर नबी से मुलाकात हुई।
'आओ, दागिस्तान चलें।'
'आकाश इतंजार कर रहा है। मैं आकाश के बिना नहीं रह सकता।'
लेकिन जिंदगी छोटी-सी है। एक बार पैराशूट ने दगा दे दिया और हमारा नबी मानो टूटे हुए पंखोंवाले उकाब की भाँति नीचे गिरकर मर गया। तब से अब तक अनेक वर्ष बीत चुके हैं, किंतु जब भी मैं आकाश में उकाब की चीख सुनता हूँ तो यही सोचता हूँ कि उसके सीने में नबी का दहकता हुआ दिल है।
सुंदर रेजेदा की भी मुझे याद आ रही है। दागिस्तान के आसमान से वह गुनीब पर्वत पर कूदी थी। उसकी खिड़की के नीचे तब कितने पंदूरा बाजे गूँज उठे थे। एक भी तो ऐसा जवान कवि नहीं था जिसने अपनी कविता उसे समर्पित न की हो। बुईनाक्स्क नगर में ईंटों का छोटा-सा पक्का घर है। उन दिनों कितनी नजरें उसकी खिड़की पर टिकी रही थीं! खूंजह, गुनीब और कुमुख गाँवों में घोड़ों पर जीन कसे गए ताकि लंबी चोटियोंवाली हसीना को अगवा कर लिया जाए। लेकिन एक लेनिनग्रादवासी आया और हमारी रेजेदा को हवाई जहाज में बिठाकर अपने साथ ले गया। उसने हवा में उड़ते हवाई जहाज से हाथ हिलाकर धरती पर रह जानेवाले अपने सभी प्रेम-दीवानों को अलविदा कह दिया। हमारे कवि मुँह बाए हुए उसे जाते देखते रहे और बाद में उस कबूतरी के बारे में कविताएँ रचने लगे जिसे उकाब अपने साथ उड़ा ले गया था...
दूसरे विश्व-युद्ध के समय रेजेदा लेनिनग्राद में थी। उसने लिखा - 'इस नगर में न केवल अब दूधिया रजत-रातें ही नहीं रहीं, बल्कि दिन भी काले हो गए। लेनिनग्राद आग की लपटों में है। मैं भी लपटों से घिरी हुई हूँ। धुएँ और आग में से आकाश को देखती हूँ। किंतु आकाश में भी लड़ाई चल रही है। मेरे पति सेईद अनेक बार दुश्मन के चंडावल में जा चुके हैं। अब मैं इस सूचना के तीन पत्र पा चुकी हूँ कि वह वीरगति को प्राप्त हो गए हैं। वह शत्रु के चंडावल में उतरने डाक्टर थे। मेरे पास वे लोग आते रहते हैं जिनकी उन्होंने जानें बचाईं।'
रेजेदा दागिस्तान लौट आई। अपने दागिस्तान के आकाश में जब वह उकाब की चीख सुनती है तो यही सोचती है कि उसके सीने में सेईद का दहकता हुआ दिल है।
मेरे भाई अखील्ची... तुम तो एकदम धरती से संबंधित, कृषि-संस्थान में शिक्षा पा रहे थे... किंतु युद्ध के समय तुमने आकाश को चुना, हवाबाज बन गए। काले सागर के ऊपर तुमने वीरगति पाई। उस वक्त तुम्हारी उम्र बाईस साल थी। मैं यह जानता हूँ कि तुम अपने जन्मस्थान के प्यारे पहाड़ी घर में अब कभी नहीं लौटोगे। किंतु हर बार ही जब मेरे ऊपर कहीं उकाब की चीख सुनाई देती है तो मैं यह मानता हूँ कि यह अखील्ची का दिल है जो मुझसे, अपने भाई से कुछ कह रहा है।
दागिस्तान के आकाश में उकाब उड़ते रहते हैं। बड़ी संख्या है उनकी। किंतु ऐसे वीरों की संख्या भी कुछ कम नहीं है जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपनी जानें कुर्बान की हैं। उकाब की हर चीख में बहादुरी और दिलेरी की ललकार होती है। हर चीख - यह लड़ाई में कूदने का आह्वान होती है।
मैं जानता हूँ कि यह सुंदर किस्सा, मनगढ़ंत कहानी है। लोग चाहते हैं कि ऐसा ही हो। किंतु एक व्यक्ति को, जो बहुत ऊँचाई पर चढ़ गया था, आंदी जाति के एक आदमी ने कहा -
'इनसान बनने के लिए उकाब तक धरती पर उतर आते हैं। तुम भी अपनी ऊँचाइयों से नीचे आओ। सभी लोगों का यहाँ, धरती पर जन्म हुआ है। पहाड़िया इसीलिए पहाड़िया कहलाता है कि वह पहाड़ों का, धरती का आदमी है। हमारे यहाँ 'उड़ना' शब्द बहुत पसंद किया जाता है। घुड़सवार सरपट घोड़ा दौड़ाता है तो हम कहते हैं - उड़ा आ रहा है। गीत या गाना उड़ रहा है। हमारे अधिकतर गीत-गाने उकाबों के बारे में हैं।'
अनेक बार मेरी इस बात के लिए आलोचना की गई है कि अपनी कविताओं में मैं अक्सर उकाबों का जिक्र करता हूँ। लेकिन अगर दूसरे पक्षियों की तुलना में मुझे उकाब ज्यादा अच्छे लगते हैं तो मैं क्या करूँ? वे दूर-दूर तक और ऊँची उड़ान भरते हैं, जबकि दूसरे पक्षी जुआर-बाजरे के दानों के पास ही दौड़-धूप करते और चहकते रहते हैं। उकाबों की आवाज भी ऊँची और साफ है। जैसे ही ठंड शुरू होती है, वैसे ही दूसरे पक्षी दागिस्तान के साथ गद्दारी करके पराये क्षेत्रों को उड़ जाते हैं। लेकिन उकाब तो कभी अपनी मातृभूमि को नहीं छोड़ते, चाहे कैसा भी मौसम क्यों न हो, गोलियों की कितनी ही ठाँय-ठाँय चाहे कैसी भी दहशत क्यों न पैदा करे। उकाबों के लिए गर्म, स्वास्थ्यप्रद स्थानों का अस्तित्व नहीं है। दूसरे पक्षी हर समय जमीन के साथ चिपके रहते हैं, एक छत से दूसरी छत और धुएँ की एक चिमनी से दूसरी पर, एक खेत से दूसरे में उड़ते रहते हैं। किसी छोटे-से दर्रे को हमारे यहाँ पक्षी का दर्रा कहते हैं।
किसी बहुत बड़ी चट्टान को हमारे यहाँ उकाब की चट्टान कहा जाता है।
इस धरती पर जन्म लेनेवाला हर आदमी इनसान नहीं होता। उड़नेवाला हर परिंदा उकाब नहीं होता।