दूसरों को क्या दोष दें, हम स्वयं बीसियों चीजों से चिढ़ते हैं - बंदगोभी, पनीर, कंबल, कॉफी, काफ्का, औरत का गाना, मर्द का नाच, गेंदे का फूल, इतवार का मुलाकाती, मुर्गी का गोश्त, पानदान, गरारा, खूबसूरत औरत का पति - इससे अधिक चिट्ठे बताने में मर्यादा टूटेगी कि पूरी सूची हमारे पापों से भी अधिक लंबी और हरी-भरी निकलेगी। गुनाहगार सही लेकिन मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग की तरह यह हम से आज तक न हुआ कि अपने पूर्वाग्रहों के करेलों पर औचित्य का नीम चढ़ाकर दूसरों को अपने अनानंद में बराबर का शरीक बनाने की कोशिश की हो। मिर्जा तो, जैसा किसी ने कहा है, गलत दलील प्रस्तुत करने के बादशाह हैं। उनके समर्थन और वकालत से सही से सही 'कार्य' निहायत लचर मालूम होने लगता है। इस लिए हम सब उन्हें धर्मप्रचार और शासन के समर्थन से बड़ी कड़ाई से रोके रहते हैं। उनकी एक चिढ़ हो तो बताएँ, सूची रंगारंग ही नहीं, इतनी दीनबंधुता से पूर्ण है कि इसमें हम जैसे बेकुसूर फकीर का नाम भी पर्याप्त ऊँची पोजीशन पर शामिल रह चुका है। बाद में हम से यह पोजीशन बैगन के भुर्ते ने छीन ली और उससे जैकलीन कैनेडी के दूल्हा ओनासिस ने हथिया ली। मिर्जा को जो चीज आज पसंद है कल वह दिल से उतर जाएगी और परसों तक यकीनन चिढ़ बन जाएगी। लोग हमें मिर्जा का हमदर्द और हमराज ही नहीं, साया भी कहते हैं लेकिन इस एकता और निकटता के बावजूद हम भरोसे से नहीं कह सकते कि मिर्जा ने आलू और अबुल कलाम आजाद को पहले-पहले अपनी चिढ़ कैसे बनाया और यह कि दोनों को तिहाई सदी से एक ही ब्रेकेट में क्यों बंद कर रखा है?
यासमन (चमेली) की खुश्बू बाकी है
मौलाना के बारे में मिर्जा को जितना खुरचा, पूर्वाग्रह की कलई के नीचे विशुद्ध तार्किकता की कई मोटी-मोटी तहें निकलती चली गईं। एक दिन कई वार खाली जाने के बाद बोले, 'एक विशिष्ट शैली के निबंधकार ने नदवातुल-उलेमा (देवबंदियों का गुरुकुल) के संस्थापक के बारे में लिखा है कि शिबली पहला यूनानी था जो मुसलमानों में पैदा हुआ। इस बात को मुझे उस कथन से पूरा करने दीजिए कि यूनानियों के इस इस्लामी अनुभाग में अबुल कलाम आखिरी लेखक था जिसने उर्दू लिपि में अरबी लिखी।' हमने कहा, 'उनके मोक्ष के लिए यही काफी है कि उन्होंने मजहब में दर्शन का रस घोला। उर्दू को अरबी का दर्द और गूँज प्रदान की।' फरमाया, 'उनके गद्य का अध्ययन ऐसा है जैसे दलदल में तैरना। इसीलिए मौलाना अब्दुल हक उन्हें सार्वजनिक रूप से उर्दू का दुश्मन कहते थे। बुद्धि और ज्ञान अपनी जगह मगर इसको क्या कीजिए कि वह अपने अहम और उर्दू पर आखिरी समय तक नियंत्रण नहीं रख पाए। कभी-कभार रमजान में उनकी कुरआन की व्याख्या पढ़ता हूँ तो (अपने दोनों गालों पर थप्पड़ मारते हुए, खुदा अपने कहर से बचाए) महसूस होता है जैसे कलामुल्लाह (अल्लाह की वाणी) के पर्दे में अबुल कलाम बोल रहा है।' हमने कहा, 'लानत। उस बुजुर्ग की की हुई और न की हुई सारी खताएँ तुम्हें सिर्फ इस आधार पर माफ कर देनी चाहिए कि तुम्हारी तरह वह भी चाय के रसिया थे। क्या नाम था, उनकी पसंदीदा चाय का? अच्छा-सा नाम था। हाँ, याद आया। व्हाइट जैसमीन। यासमन सफेद।'
खिल उठे। बोले, 'मौलाना अबुल कलाम 'आजाद' का पेय भी उनके प्रेय की तरह था। उन्होंने टूटी हुए मूर्तियों को जोड़-जोड़ कर ऐसा ईश्वर गढ़ने की कोशिश की जो सोमनाथ के भक्तों को भी मान्य हो। यूनानी दर्शन की ऐनक से जब उन्हें धर्म में संसार और ईश्वर में खेवनहार नजर आने लगा तो वह मुसलमान हो गए और सच्चे दिल से अपने-आप पर ईमान ले आए। इस तरह यह चीनी चाय महज इसलिए उनके दिल को भा गई कि इसमें चाय के बजाय चमेली के गजरे की लपट आती है। हालाँकि कोई आदमी जो चाय पीने का जरा भी सलीका रखता है, इस लिए चाय पीता है कि इसमें चाय की - फकत चाय की - महक आती है ना कि चमेली के तेल का भभका!'
हमने कहा, 'आश्चर्य तुम इस बाजारी जुबान में इस आनंददायक पेय का मजाक उड़ा रहे हो, जो मौलाना के कथनानुसार बागी प्रवृति को मस्ती की और दुखमय चिंता को चैन की दावत दिया करती थी।' इस जुमले से ऐसे भड़के कि भड़कते चले गए। लाल-पीले होकर बोले, 'तुमने लिप्टन कंपनी का प्राचीन विज्ञापन, चाय सर्दियों में गर्मी और गर्मी में ठंडक पहुँचती है, देखा होगा। मौलाना ने यहाँ इस वाक्य का अनुवाद अपने प्रशंसकों की आसानी के लिए अपनी जुबान में किया है!' बहस और दिल तोड़ने का यह सिलसिला काफी देर तक चलता रहा लेकिन और अधिक धर्म-विरुद्ध अभिव्यक्ति करके हम अपना 'इह' और 'उह' लोक नष्ट करना नहीं चाहते। इसलिए इस पूर्व कथन के बाद मिर्जा की दूसरी चिढ़ यानी आलू की ओर आते हैं।
यह दाँत सलामत हैं जब तक
मिर्जा का 'बॉस' दरअस्ल दस साल बाद पहली बार तीन दिन की छुट्टी पर जा रहा था और मिर्जा ने अपने सलाहकारों और शुभचिंतकों को मुक्तिउत्सव मनाने के लिए बीच-लक्जरी होटल में लंच पर न्योत रखा था। वहाँ हमने देखा कि समुद्री कछुए का शोरबा सुड़-सुड़ पीने के बाद मिर्जा मुसल्लम केकड़े (मुसल्लम का अर्थ है स्वर्गीय की पूरी टाँगें, खप्पर, आँखें और मूँछें प्लेट पर अपने प्राकृतिक रूप में दिखाई दे रही थीं) पर टूट पड़े। हमने कहा, 'मिर्जा! हमने तुम्हें खुरों के चटपटे सरेश में डुबो-डुबो कर, चहका मारती तंदूरी रोटी खाते देखा है जिसे तुम दिल्ली के निहारी पाए कहते हो। मुफ्त का मिल जाए तो सड़ा-सा गोश्त यूँ निगलते हो जैसे नाक तुम्हारे है ही नहीं और तो और रंगामाटी में चकमा जनजाति की एक नवयौवना के हाथ से नशीला कसैला जैकफ्रूट लपलप खाते हुए फोटो खिंचवा चुके हो और इस के बाद पेशावर में चिरौटों के पकौड़े खाते हुए भी पकड़े जा चुके हो। तुम्हारे खान-पान की नियम-संहिता में हर चीज खाने के लायक है सिवाय आलू के!'
खिल उठे, देववाणी की, 'हमने आज तक किसी मौलवी - किसी वर्ग के मौलवी की तंदुरुस्ती खराब नहीं देखी न किसी मौलवी का हार्ट फेल होते सुना। जानते हो क्या वज्ह है? पहली वज्ह तो यह है कि मौलवी व्यायाम नहीं करते दूसरी यह कि सादे आहार और सब्जी से दूर रहते हैं।'
फलाँ होटल और आलू का प्रसाद
तरकारी न खाने के लाभ हमें याद कराने के उद्देश्य से मिर्जा ने अपने प्रयोगमय जीवन के उन कुंजों के रहस्य से भी परदा उठाया जो आलू से रासायनिक रूप से प्रभावित हुए थे। कहानी आलू की है उन्हीं का मिथ्या-विवरण रुचिकर होगा -
तुम्हें तो याद होगा। मैं दिसंबर 1951 में मांटगुमरी गया था। पहली बार कराची से बाहर जाने की मजबूरी आ पड़ी थी। मांटगुमरी के प्लेटफार्म पर उतरते ही महसूस हुआ जैसे सर्दी से खून रगों में जम गया है। उधर चाय के स्टाल के पास एक बड़े मियाँ गर्म चाय के बजाय माल्टे का रस पिए चले जा रहे थे। उस खुदा के बंदे को देखकर आँख और दाँत बजने लगे। कराची की सदा की घुटन और बिना खिड़की वाला कमरा बहुत याद आए, कुली और तांगे वाले से परामर्श के बाद एक होटल में बिस्तरा लगा दिया, जिसका अस्ली नाम आज तक मालूम न हो सका लेकिन मैनेजर से लेकर मेहतर तक सभी उसे 'फलाँ होटल' कहते थे। कमरा सिर्फ एक था जिस पर कोयले से अंग्रेजी और उर्दू अक्षरों में 'कमरा नंबर - 1' लिखा था। फलाँ होटल में सिर्फ यह कि कोई दूसरा कमरा नहीं था बल्कि निकट या दूर भविष्य में उसके निर्माण की कोई संभावना भी दिखाई नहीं देती थी, क्योंकि होटल के तीन तरफ म्यूनिस्पैल्टी की सड़क थी और चौथी तरफ इसी संस्था की मुख्य नाली जो शहर की गंदगी को शहर में ही रखती थी, जंगल तक नहीं फैलने देती थी। इस प्रायदीप कमरा नं - 1 में अटैच्ड बाथरूम तो नहीं था, अलबत्ता एक अटैच्ड तंदूर जुरूर था जिससे कमरा इस कड़ाके की ठंड में ऐसा गर्म रहता था कि बड़े-बड़े 'सेंट्रली हीटेड' होटलों को मात देता था। पहली रात हम बनियान पहने सो रहे थे कि तीन बजे सुबह जो आँच से अचानक आँख खुली तो देखा इमामदीन बैरा हमारे सिरहाने हाथ भर लंबी रक्तरंजित छुरी लिए खड़ा है। हमने फौरन अपनी गरदन पर हाथ फेर कर देखा। फिर चुपके से बनियान में हाथ डाल कर पेट पर चिकौटी काटी और फिर कलमा पढ़ के इतनी जोर से चीख मारी कि इमामदीन उछल पड़ा और छुरी छोड़कर भाग गया। थोड़ी देर बाद दो-तीन बंदे समझा-बुझाकर उसे वापस लिवा लाए। उसके होश जब ठीक हुए तो मालूम हुआ कि छुरी से वह नन्हीं-नन्हीं 'बटेरें' हलाल कर रहा था। हमने गर्वीले स्वर में कहा, 'अक्लमंद आदमी। यह पहले क्यों नहीं बताया?' उसने फौरन अपनी भूल की क्षमा माँगी और वादा किया कि आगे से वह पहले ही बता दिया करेगा कि छुरी से बटेर की गरदन ही रेतना चाहता है। साथ ही साथ उसने आसान पंजाबी में यह भरोसा भी दिलाया कि आइंदा वह चीख सुन कर डरपोकों की तरह भयभीत नहीं हुआ करेगा।
हमने धीरे से पूछा, 'तुम इन्हें हलाल क्यों कर रहे थे!' बोला, 'जनाब! जिला मांटगुमरी में जानवर को हलाल करके खाते हैं। आप भी खाएँगे?' हमने थोड़ी कटुता से जवाब दिया, 'नहीं!' और रेलवे टाइमटेबिल से पंखा झलते हुए सोचने लगे कि जो लोग दूध-पीते बच्चों की तरह जल्दी सोते और जल्दी उठते हैं, वह इस रहस्य को क्या जानें कि नींद का अस्ली मजा और सोने का सही आनंद उस समय है जब आदमी उठने के निश्चित समय पर सोता रहे कि उसी मुहूर्त में नींद के मजे अवतरित होते हैं। इसलिए किसी जानवर को सुबह देर तक सोने की योग्यता प्रदान नहीं की गई। अपने सर्वोच्च प्राणी होने पर खुद को बधाई देते देते सुबह हो गई और हम पूरी और आलू-छोले का नाश्ता करके अपने काम पर चले गए। थोड़ी देर बाद आमाशय में गड़बड़ महसूस हुई। इसलिए दोपहर को आलू-पुलाव और रात को आलू और पनीर का कोरमा खाकर तंदूर की गरमाहट में ऐसे सोए कि सुबह चार बजे बैरे ने हमें अपने विशिष्ट ढंग से जगाया, जिसका विवरण आगे आएगा।
नाश्ते से पहले हम कमीज का बटन नोचकर पतलून में टाँकने की कोशिश कर रहे थे कि सुई खच से उँगली में 'भुँक गई।' बिलकुल बेइरादा ढंग से हमने उँगली अपनी कमीज की जेब पर रखकर जोर से दबाई मगर जैसे ही गलती का अहसास हुआ तो खून के गीले धब्बे पर सफेद पाउडर छिड़क कर छुपाने लगे और दिल में सोचने लगे कि अल्लाह ताला ने बीवी भी क्या चीज बनाई है लेकिन इनसान बड़ा ही कृतघ्न है। अपनी बीवी की कद्र नहीं करता। इतने में बैरा स्थानीय देशी घी में तली पूरियाँ ले आया। मांटगुमरी का अस्ली घी पाकिस्तान में सबसे अच्छा होता है। इसमें चार फीसदी घी होता है। बैरे ने नियमानुसार अपनी आलसी आँख के इशारे से हमें कुर्सी पर बैठने को कहा और जब हम इस पर '3' के अंक की तरह तिहरे हो कर बैठ गए तो हमारी जाँघों पर गीला तौलिया बिछाया और उस पर नाश्ते की ट्रे जमा कर रख दी।
मुमकिन है कुछ शक्की आदत के पाठकों के मन में यह प्रश्न उठे कि अगर कमरे में कोई मेज या स्टूल नहीं था तो बान की चारपाई पर नाश्ता क्यों न कर लिया। शिकायतन नहीं सूचनार्थ निवेदन है कि जैसे ही मांटगुमरी का पहला मुर्गा पहली बाँग देता, बैरा हमारी पीठ और चारपाई के मध्य से बिस्तर एक ही झटके में घसीट लेता था। अपने बाजुओं की ताकत और रोजमर्रा के अभ्यास से उसने इस काम में इतनी सफाई और महारत पैदा कर ली थी कि एक बार सिरहाने खड़े होकर जो बिस्तर घसीटा तो हमारी बनियान तक उतर कर बिस्तर के साथ लिपट कर चली गई और हम खुर्री चारपाई पर केले की तरह छिले हुए पड़े रह गए। फिर चारपाई को पाँयती से उठा कर हमें सर के बल फिसलाते हुए कहने लगा, 'साब! फर्नीचर खाली करो!' कारण यह कि इस फर्नीचर पर सारे दिन 'प्रोप्राइटर एंड मैनेजर फलाँ होटल' का दरबार लगा रहता था। एक दिन हमने इस असुविधा पर विरोध प्रकट किया तो होटल के मैनेजर ने नियम-कानून का एक पैंसिल लिखा घोषणापत्र हमें दिखाया गया जिसके मुख पृष्ठ पर 'जाब्ता फौजदारी फलाँ होटल' अंकित था। इसकी धारा नौ (9) के अंतर्गत सुबह की अजान के बाद 'पसिंजर' को चारपाई पर सोने का हक नहीं था। अलबत्ता मरणासन्न मरीज, जच्चा और ईसाई व यहूदी व्यक्तियों पर यह लागू नहीं था लेकिन आगे चलकर धारा 28 (ब) ने इनसे भी यह रिआयतें छीन ली थीं। उसके अनुसार जच्चा और मरणासन्न रोगी को जच्चगी और मौत से तीन दिन पहले तक, होटल में आने की अनुमति नहीं थी। 'अवहेलना करने वालों को बैरों के हवाले कर दिया जाएगा।'
हमने निगाह उठाकर देखा तो उसे झाड़न मुँह में ठूँसे बड़े अदब से हँसते हुए पाया। हमने पूछा, 'हँस क्यों रहे हो?' कहने लगा, 'वो तो मनेजर साब हँस रहे थे। बोलते थे, हमको लगता है कि कराची का पसिंजर बटेर को तिलियर समझकर नहीं खाता!'
हर चीज के दो पहलू हुआ करते हैं। एक अँधेरा दूसरा, अधिक अँधेरा। ईमान की बात है इस पहलू पर हमारी नजर भी नहीं गई थी और अब इस गलतफहमी को दूर करना हमारे लिए अनिवार्य हो गया था। फूली हुई पूरी का निवाला प्लेट में वापस रखते हुए हमने रुँधी हुई आवाज में इस धोखेबाज चिड़िया की कीमत पूछी। बोला, 'जिंदा या मुर्दा?' हमने जवाब दिया कि हम तो इस शहर में अजनबी हैं। फिलहाल मुर्दे को ही प्राथमिकता देंगे। कहने लगा, 'दस आने प्लेट मिलती है। एक प्लेट में तीन बटेरें होती हैं मगर जनाब के लिए तो एक ही रास काफी होगी।'
कीमत सुनकर हमारे मुँह में भी पानी भर आया। फिर यह भी था कि कराची में मवेशियों का गोश्त खाते-खाते जी भर गया था। लिहाजा मन ही मन यह प्रण कर लिया कि जब तक मांटगुमरी का दाना-पानी भाग्य में है, चिड़ियों के अलावा किसी चीज को हाथ नहीं लगाएँगे। लंच पर भुनी हुई बटेर, चाय के साथ तंदूर में सेंकी बटेर मुसल्लम, सोने से पहले बटेर का सूप। इस आवासीय तंदूर में ठहरे हुए हमें चौथा दिन था और तीन दिन से यही ठाठ थे। चौथी सुबह हम जाँघों पर तौलिया और तौलिए पर ट्रे रखे बटेर का नाश्ता कर रहे थे कि बैरे ने फिर झाड़न मुँह में ठूँस ली। हमने चमक कर पूछा, 'अब क्या बात है? कहने लगा, 'कुछ नहीं। मनेजर साब हँस रहे थे। बोलते थे कमरा नंबर एक के हाथ बटेर लग गई है।' हम ने व्यंग्य से अटैच्ड तंदूर की तरफ इशारा करते हुए पूछा, 'तुम्हारे फलाँ होटल में और कौन से जन्नत के खाने उतरते हैं?' बोला, 'हराम गोश्त (सूअर) के सिवा दुनिया भर की डिश मिलती हैं। जो चाहें आर्डर करे जनाब। ...आलू-मटर, आलू-गोभी, आलू-मेथी, आलू-गोश, आलू-मच्छी, आलू-बिरयानी और खुदा तुम्हारा भला करे आलू-कोफ्ता, आलू-बड़ियाँ, आलू-समोसा, आलू का रायता, आलू का भुरता, आलू-कीमा...', हमने रोक कर पूछा, 'और स्वीट डिश?' बोला, 'आलू की खीर' हमने कहा, 'भले आदमी तुमने आलू का पहाड़ा सुना दिया। तुम्हारे होटल में कोई ऐसी डिश भी है जिसमें आलू का नाम न आए।' विजयी मुस्कान के साथ उसने गर्वोक्ति की, 'क्यों नहीं। पोटेटो कटलेट हाजिर करूँ जनाब?'
किस्सा दरअस्ल यह था कि एक साल पहले उक्त होटल के मालिक ने हेडकांस्टेबिल के ओहदे से अवकाश प्राप्त करके, खेती की तरफ रुख किया और जमीन से भी पुलिसिया हथकंडों से सोना उगलवाना चाहा मगर हुआ यह कि आलू की खेती में पच्चीस साल की बुद्धिमत्ता से जमा की हुई रिश्वत ही नहीं बल्कि पेंशन और प्राविडेंट फंड भी डूब गए -
जमीं खा गई बेईमाँ कैसे कैसे
बचाए हुए आलुओं से होटल के धंधे का डोल डाला जिन्हें उनके बेहतरीन दोस्त भी ताजा नहीं कह सकते थे। सुना है बटेरें भी इसी जमाने में पास-पड़ोस के खेतों से पकड़ ली थीं।
आलू निंदा का संवाद
'मिर्जा यह बटेर-कथा अपनी जगह, मगर यह सवाल अभी बाकी है कि तुम आलू क्यों नहीं खाते?' हमने फिर सवाल किया।
'नहीं साहब! आलू खाने से आदमी आलू जैसा हो जाता है। कोई अंग्रेज औरत जिसे अपना 'फिगर' और फ्यूचर जरा भी प्यारा है, आलू को छूती तक नहीं। सामने स्विमिंग पूल में पैर लटकाए, यह मेम जो मिस्र का बाजार खोले बैठी है, इसे तुम आलू की एक हवाई भी खिला दो तो सेवक इसी हौज में डूब मरने को तैयार है। यह कॉफी में चीनी के चार दाने भी डालती है या कोई इसे मीठी नजर से भी देख ले, तो उसकी कैलोरीज का हिसाब अपनी धोबी की कॉपी में रखती है,' उन्होंने जवाब दिया।
'मिर्जा क्या मेमें भी धोबी की कॉपी रखती हैं?'
'हाँ! उनमें भी जो कपड़े पहनती हैं, वह रखती हैं।'
हमारी ज्ञानपिपासा बढ़ती देखकर मिर्जा ने आलू की निंदा में तर्कों और दृष्टांतों का ढेर लगा दिया। जहाँ कहीं तर्क के टाट में जरा-सा छेद दिखा वहाँ मिसाल की मखमल का पैवंद इस तरह लगाया कि जी चाहता था कुछ और सूराख होते। कहने लगे, 'कर्नल शेख कल रात ही यूरोप से लौटे हैं। कह रहे थे यूरोप की और हमारी महिलाओं में बड़ा अंतर होता है। यूरोप में जो लड़की दूर से सत्रह बरस की मालूम होती है वह पास पहुँच कर सत्तर बरस की निकलती है और हमारे यहाँ जो महिला दूर से सत्तर बरस की दिखलाई पड़ती है वह पास आने पर सत्रह बरस की निकलती है मगर यह रखरखाव इंग्लैंड में ही देखा कि जो उम्र दूर से नजर आती है वही पास से। चुनांचे कमर-कमर तक बालों वाली जो लड़की दूर से उन्नीस साल की नजर आती है वह पास जाने पर भी उन्नीस ही साल का 'हिप्पी' निकलता है। खैर, सुनी-सुनाई बातों को छोड़ो। इस मेम का मुकाबला अपने यहाँ की आलूखोर महिलाओं से करो। उधर फानूस के नीचे जो श्रीमतीजी लैटरबक्स बनी अकेले-अकेले गपागप गोश्त के स्टेक और आलू उड़ा रही हैं, अमाँ गँवारों की तरह उँगली से इशारा मत करो! हाँ हाँ! वही अरे साहब क्या चीज थी। लगता था एक अप्सरा सीधी अजंता की गुफाओं से चली आ रही है और क्या काया थी। कहते हुए जुबान भी सौ-सौ बल खाती है -
चलती तो कदम यूँ रखती थी दिन जैसे किसी के फिरते हैं
'पहले-पहल मार्च 1951 में देखा था। वो सुबह याद आती है तो कोई दिल पर दस्तक-सी देने लगता है और अब? अब तुम्हारी आँखों के सामने है। बारह साल पहले की Go-Go-Girl मांस के ढेर में कहीं खो गई है। इश्क और आलू ने इन हालों को पहुँचा दिया।'
हमने कहा, 'मारो घुटना फूटे आँख।' बोले, 'अहले-जबान के मुहावरे उन्हीं के खिलाफ अंधाधुंध इस्तेमाल करने से पहले पूरी बात को सुन लिया करो। हुमैरा वह आइडियल औरत थी, जिसके सपने हर स्वस्थ आदमी देखता है - यानी शरीफ खानदान, खूबसूरत और आवारा! उर्दू, अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन फर्राटे से बोलती थी, मगर किसी भी जुबान में 'न' कहने की योग्यता नहीं रखती थी। हुस्न और जवानी पर एकाधिकार था। यह आनंददायी विशेषताएँ जब स्वप्न बन गईं और पलकों के साये गहरे हो चले तो मजबूर होकर एक अदद शादी भी कर ली मगर एक महीने के अंदर ही दूल्हा ने मैरिजड्रेस के कमरबंद का फंदा गले में डाल कर आत्महत्या कर ली।'
जा तुझे कशमकशे-अक्द से आजाद किया
करिश्मे कार्बोहाइड्रेट के
इसी साल जून में मिर्जा अपने दफ्तर में आ गए। क्रिस्टी का नया नाविल पढ़ते-पढ़ते अचानक बेहोश हो गए। होश आया तो खुद को आरामदेह क्लिनिक में कंपनी के खर्च पर अकेला पाया। उन्हें इस बात से बहुत निराशा हुई कि जिस जगह पर उन्हें दिल का तीखा दर्द महसूस हुआ था, दिल उससे बालिश्त-भर दूर निकला। डॉक्टर ने उनका भ्रम दूर करने के लिए उँगली रखकर बताया कि दिल यहाँ नहीं, यहाँ होता है। उसके बाद उन्हें दिल का दर्द दिल ही में महसूस होने लगा।
जैसे ही उनके कमरे से 'रोगी से मिलना मना है' की प्लेट हटी, हम जीनिया का गुलदस्ता लेकर कुशल-क्षेम को पहुँचे। दोनों एक दूसरे की शक्ल देखकर खूब रोए। नर्स ने आकर दोनों को चुप कराया और हमें अलग ले जाकर चेतावनी दी कि इस अस्पताल में बीमार-पुर्सी करने वालों को रोना और कराहना मना है। हमने तुरंत स्वयं पर कृतिम प्रसन्नता ओढ़ के मिर्जा को परेशान होने से मना किया और नसीहत की कि मरीज को अल्लाह की कृपाओं से मायूस नहीं होना चाहिए। वह चाहे तो तिनके में जान डाल दे। हमारी नसीहत का वांछित बल्कि कुछ अधिक ही असर हुआ।
'तुम क्यों रोते हो पगले?', हमने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा।
'यूँ ही विचार आ गया कि अगर तुम मर गए तो मेरी खैरियत पूछने कौन आया करेगा!' मिर्जा ने अपने आँसुओं को नर्स के रूमाल में सुरक्षित करते हुए रोने का कारण बताया।
बीमारी का अस्ली कारण डॉक्टरों के विचार में चिंता की अधिकता थी जिसे मिर्जा की भाषाविद्वता ने कार्य की अधिकता बना दिया था। खैर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मिर्जा चाय के साथ आलू के चिप्स उड़ा रहे थे। हमने कहा, 'मिर्जा! आज तुम रंगे हाथों पकड़े गए।' बोले, और ऐसी आवाज में बोले जैसे किसी अंधे कुएँ के पेंदे से बोल रहे हैं, 'डॉक्टर कहते हैं तुम्हारा वज्न बहुत कम है। तुम्हें आलू और ऐसी चीजें खूब खानी चाहिए जिनमें 'स्टार्च' और 'कार्बोहाइड्रेट' की अधिकता हो। साहब! आलू एक वरदान है, कम-से-कम साइन्स के हिसाब से। हमने कहा 'तो दबादब आलू ही खाकर ठीक हो जाओ।' फरमाया, 'ठीक तो मुझे वैसे भी होना पड़ेगा। इसलिए कि यह नर्सें इस कदर बदसूरत हैं कि कोई आदमी जो अपने मुँह पर आँखें रखता है, यहाँ अधिक दिनों तक पड़ा नहीं रह सकता।'
वो नए गिले, वो शिकायतें, वो मजे-मजे की हिकायतें
क्लीनिक से निकलते ही मिर्जा ने अपनी तोपों का मुँह फेर दिया। निंदाप्रेमी के दिन-रात अब आलू के गुणगान और स्तुति में कटने लगे। एक समय था कि जब वियतनाम पर अमरीकी बमवर्षा की खबरें पढ़कर मिर्जा पछताते कि कोलंबस ने अमरीका की खोज करके बड़ी नादानी की मगर अब तरंग में आते तो आलू की गदराई हुई गोलाइयों पर हाथ फेरते हुए कहते, 'साहब! कोलंबस नर्क नहीं जाएगा। उसे वापस अमेरिका भेज दिया जाएगा। सभ्य जगत पर अमरीका के दो अहसान हैं! तंबाकू और आलू। सो तंबाकू का बेड़ा तो कैंसर ने डुबो दिया। मगर आलू का भविष्य बड़ा उज्ज्वल है। जो मुल्क जितनी गरीबी में घिरेगा, उतना ही उसमें आलू और धर्म का चलन बढ़ेगा।'
और कभी ऐसा भी होता कि अगर सामने वाला साइन्सी हथियारों से परास्त नहीं होता तो शायरी की मार से वहीं ढेर कर देते। 'साहब, ज्यों-ज्यों समय बीतता है, याद्दाश्त कमजोर होती जाती है। पहले अपना जन्मदिन भूले, फिर महीना और अब तो सन भी याद नहीं रहती। बेगम या किसी बुरा चाहने वाले से पूछना पड़ता है। अक्सर तुम्हारे लतीफे तुम्हें ही सुनाने बैठ जाता हूँ। वह तो जब तुम पेट पकड़ कर हँसने लगते हो तो शक होता है कि लतीफा तुम्हारा ही होगा। बेगम अक्सर कहती हैं कि काकटेल पार्टियों और डांस में तुम्हें यह तक याद नहीं रहता कि तुम्हारी शादी हो चुकी है। गरज यह कि याददाश्त बिल्कुल चौपट हो चुकी है। अब यह आलू की माया नहीं तो और क्या है कि आज भी किसी बच्चे के हाथ में भूभल में सिका हुआ आलू नजर आ जाए तो उसकी परिचित महक से बचपन की एक-एक घटना याद आ जाती है। मैं टकटकी बाँध कर उसे देखता हूँ। उससे फूटती हुई सोंधी भाप के पीछे से एक भूली बिसरी आकृति उभरती है। धूल से अटे बालों के पीछे शरारत से चमकती आँखें, कुर्ता बटनों से आजाद, गले में गुलेल। नाखून दाँतों से कुतरे हुए। पतंग उड़ाने वाली उँगली पर डोर की रक्तरंजित लकीर, बैरी समय हौले-हौले अपनी कैंचुली उतारता चला जाता है और मैं नंगे पाँव तितलियों के पीछे दौड़ता, रंग-बिरंगे बादलों में रेजगारी के पहाड़, परियों और आग उगलते अजगरों को बनते बिगड़ते देखता खड़ा रह जाता हूँ।'
'यहाँ तक कि आलू खत्म हो जाता है।', हमने साबुन के बुलबुले पर फूँक मारी।
सँभले। समय-चक्र को अपने बचपन के पीछे दौड़ाते-दौड़ते लगाम खींची और गाली देने के लिए गला साफ किया। बोले, '...खुदा जाने शासन आलू को कानून के बल पर राष्ट्रीय भोज बनाने से क्यों डरता है। सस्ता इतना कि आज तक किसी सेठ को इसमें मिलावट करने का ध्यान तक नहीं आया। स्कैंडल की तरह स्वादिष्ट और शीघ्र पच जाने वाला। विटामिन से भरपूर, सुस्वाद, साधुई रंगत, छिलका नारी के वसन जैसा यानी नाम भर - साफ इधर से नजर आता है उधर का पहलू
अपना हाथ, अपना मुँह
मिर्जा पर अब यह झक सवार थी कि अगर चंदन का घिसना और लगाना सरदर्द के लिए लाभकारी है तो उसे उगाना कहीं अधिक लाभकारी होना चाहिए। वैधत्व और खेती के जिन काँटों भरे रास्तों पर मस्ताना रूप में चल कर वह इस नतीजे पर पहुँचे, जिनका उल्लेख किया जाए तो आयुर्वेद पर एक पूरी पोथी तैयार हो सकती है। हम चूँकि हकीमों की लगी-लगाई रोजी पर हाथ डालना नहीं चाहते, इसलिए दो-चार चिनगारियाँ छोड़ कर दूर खड़े हो जाएँगे।
एक दिन हमसे पूछा, 'बचपन में खटमिट्ठे बेर, मेरा मतलब है झड़बेरी के बेर खाए हैं?' निवेदन किया, 'जी हाँ, हजार बार और इतनी ही बार खाँसी भी हुई है।' फर्माया, 'बस यही फर्क है खरीद के खाने और अपने हाथ से तोड़ कर खाने में। अनुभव की बात बताता हूँ। बेर तोड़ते समय उँगली में काँटा लग जाए और पोर पर खून की बूँद थरथराने लगे तो आस-पास की झाड़ियों के सारे बेर मीठे हो जाते हैं।'
'साइंटिफिक बुद्धि में यह बात नहीं आती।' हमने कहा। हमारा यह कहना था कि जियादा उबले हुए आलू की तरह तड़खते-बिखरते चले गए। कहने लगे, 'साहब! कई हकीम यह करते हैं कि जिसका मेदा (पाचाशय) कमजोर हो उसे ओझड़ी खिलाते हैं। जिसके गुर्दों की क्रिया ठीक न हो उसे गुर्दे और जो कमजोर जिगर का है उसे कलेजी खिलाते हैं। अगर मैं हकीम होता तो तुम्हें भेजा ही भेजा खिलाता।'
लेखक के कमजोर प्रत्यांग की तरफ संकेत करके आकाशवाणी की, 'अब आलू खुद पैदा करने का कारण भी सुन लो। पिछले साल उतरती बरसात की बात है। मैं टोबा टेक सिंह में काले तीतर की तलाश में कच्चे में बहुत दूर निकल गया मगर एक तीतर नजर न आया, जिसका कारण गाइड ने यह बताया कि शिकार के लिए आपके पास डिप्टी कलक्टर का परमिट नहीं है। वापसी में रात हो गई और हमारी 1945 मॉडल जीप पर दमे का दौरा पड़ा। कुछ क्षणों के बाद वह बुढ़िया तो एक गड्ढे में आखिरी हिचकी लेकर चुप हो गई मगर अपने पंचतत्व के पिंजरे में हमारी आत्मा के पंछी को फड़फड़ाता छोड़ गई। हम स्टेयरिंग पर हाथ रखे दिल ही दिल में खुदा का शुक्र अदा कर रहे थे कि तेरे करम से जीप गड्ढे में गिरी वरना अगर कहीं इसकी जगह कुआँ होता तो इस वक्त तेरा शुक्र कौन अदा करता?
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता
'हमारे ऋणदाताओं पर क्या गुजरती? हमारे साथ रकम के डूबने पर उन्हें कैसे सब्र आता कि अभी तो हमारे प्रोनोट की सियाही भी नहीं सूखी थी? हम अभी उनके और उनके छोटे-छोटे बच्चों के सर पर हाथ फेर ही रहे थे कि एक किसान बकरी का अबोध बच्चा गरदन पर मफलर की तरह लपेटे इधर से गुजरा। हमने आवाज देकर बुलाया। अभी हम इतनी ही भूमिका बाँध पाए थे कि हम कराची से आए हैं और काले तीतर की तलाश में थे कि वह गड्ढे की तरफ इशारा करके कहने लगा कि तहसील टोबा टेक सिंह में तीतर पानी में नहीं रहते। हमारे गाइड ने हमारी आपात्कालीन आवश्यकताओं को अभिव्यक्ति दी तो वह ऐसा पसीजा कि अपनी बैलगाड़ी लाने और उसे जीप में जोत कर अपने घर ले जाने पर अड़ गया, और वह भी बिना मजदूरी के। साहब! अंधा क्या चाहे...?'
'दो आँखें।' हमने झट बात उचक ली।
'गलत, बिल्कुल गलत अगर उसकी अक्ल भी दृष्टि के साथ नष्ट नहीं हुई है तो अंधा दो आँखें नहीं, एक लाठी चाहता है।' मिर्जा ने कहावत को संशोधित कर दिया।
हम हुंकारा भरते रहे, कहानी चलती रही, 'थोड़ी देर में वह बैलगाड़ी ले आया जिसके बैल अपनी जवानी को बहुत पीछे छोड़ आए थे। अदबान की रस्सी से जीप बाँधते हुए उसने बैलगाड़ी में अपने बराबर में अगली सीट पेश की और डेढ़ दो मील दूर किसी धुँधले बिंदु की ओर इंगित करते हुए तसल्ली देने लगा।
'ओ जेड़ी नवीं लालटैन बल्दी पई ए ना! ओ ही मेरा घर वे'
घर पहुँचते ही उसने अपनी पगड़ी उतार कर चारपाई के सेरवे वाले पाए को पहना दी। मुँह पर पानी के छपके दिए और गीले हाथ सफेद बकरी की पीठ से पोंछे। बरसात की चाँदनी में उसके कुर्ते पर बड़ा-सा पैवंद दूर से नजर आ रहा था और जब थूनी पर लटकी हुई नई लालटेन की लौ भड़की तो उस पैवंद में लगा हुआ एक और पैवंद नजर आने लगा जिसके टाँके अभी उसकी मुस्कुराहट की तरह उजले थे। उसकी घर वाली ने खुर्री चारपाई पर खाना चुनकर ठंडे मीठे पानी के दो धात के गिलास पट्टी पर बान छिदरा के जमा दिए। मेजबान के अनुरोध पर और भूख की पुकार का जवाब देने के लिए जो हमने सुखी चुनाई शुरू की तो यकीन मानो पेट भर गया मगर जी नहीं भरा। राल निगलते हुए हमने पूछा! 'चौधरी, इससे मजेदार आलू का साग हमने आज तक नहीं खाया। क्या तरकीब है इसे पकाने की?'
बोला, 'बादशाहो! पहले तो इक कल्ले जमीन विच पंज मन अमरीका दी खाद पाओ। फेर...'
किस्सा आलू की खेती का
बात अगर अब भी गले नहीं उतरी तो 'खुद उगाओ, खुद खाओ' सिलसिले की तीसरी कहानी सुनिए जिसका पाप-पुण्य मिर्जा की गरदन पर है कि वही इसके लेखक हैं और वही हीरो भी हैं। कथा इस तरह शुरू होती है -
साहब! बाजार से सड़े गले आलू खरीद कर खाने से तो यह बेहतर है कि आदमी चने भसकता फिरे। परसों शाम हम खुद आलू खरीदने गए। शुबराती की दुकान से। अरे साहब! वही अपना शुबराती जिसने चौदह-पंद्रह साल से वह साइन बोर्ड लगा रखा है :
मालिक दुकान शुबराती महाजिर
(अगर कोई दावा करे तो झूठा है)
बजगह ग्राम कांठ, बड़ी जामा मस्जिद के पीछे
पोस्ट आफिस व कस्बा - बागपत, जिला मेरठ
वर्तमान निवासी कराची
हमने एक आलू दिखाते हुए कहा, 'मियाँ शुबराती! वर्तमान निवासी कराची! तुम्हारे आलू तो पिलपिले हैं। खराब लगते हैं - बोला, 'बाउजी! खराब निकलें तो काले नाग (उसके गधे का नाम) के मूत से मूँछ मूँड़ देना। दरअस्ल में यह पहाड़ी आलू है।' हमने कहा, 'हमें तो कराची से पाँच सौ मील तक कोई पहाड़ नक्शे में दिखाई नहीं पड़ता, 'बाउजी! तुम्हारे नक्शे में और कौन सी, फल-फलारी कराची में दिखाई पड़े है? यह रुपए छटाँक का साँची पान जो तुम्हारे गुलाम के कल्ले में बताशे की तरियों घुल रिया है, बजगह बंगाल से आ रिया है। याँ क्या दम-दुरूद रखा है। हालियत तो यह है कि बाउजी! कराची में मिट्टी तलक मलीर से आवे है। किस वास्ते कि इसमें ढाका से मँगा के घास लगा देंगे। जवानी कसम बाउजी! पिशावर के चौक यादगार में मुर्गा अजान देवे है तो कहीं जाके कराची वालों को अंडा नसीब होवे है।'
और एक खानदानी रईस ने बगीचों के शहर वाटिका-प्रधान कराची के दिल यानी हाउसिंग सोसायटी में आलू की खेती शुरू कर दी। अगरचे तुरंत पाँच मन अमरीकी खाद का बंदोबस्त न हो सका लेकिन मिर्जा का जोशे-जुनूँ उन्हें उस स्तर पर पहुँचा चुका था जहाँ खाद तो खाद वह बिना खेत के भी खेती करने की सामर्थ्य रखते थे।
मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग और खेती बाड़ी! हमारा विचार है कि सारा खेत एयरकंडीशंड कर दिया जाए और ट्रैक्टर में राकिंग चेयर (झूला कुर्सी) डाल दी जाए तो मिर्जा शायद दो-चार घंटे के लिए खेती का व्यवसाय अपना लें जिसके बारे में उनका ज्ञानकोष बस इतना है कि उन्होंने सिनेमा के पर्दे पर क्लीनशेव एक्टरों को छाती पर नकली बाल चिपकाये, स्टूडियो के सूरज की धूप में, सिगरेट की पन्नी चढ़ी हुई दरांतियों से बाजरे के खेत में मक्का के भुट्टे काटते हुए देखा है। यह बताना शायद अनुचित न होगा कि इस कुछ साल पहले मिर्जा बागबानी का एक बहुत अतुलनीय और असफल प्रयोग करके हमें एक लेख का मसाला उपलब्ध करा चुके थे। उन्हें एक दिन अपने कोट का नंगा कालर देखकर अचानक ज्ञान प्राप्त हुआ कि होने को तो घर में अल्लाह का दिया सब कुछ है सिवाय रुपए-पैसे के लेकिन अगर बाग में गुलाब के गमले नहीं हैं तो जीवन बेकार है। उन्हें जिंदगी में अचानक एक कमी का अहसास होने लगा, जिसे सिर्फ अमरीकी खाद से पूरा किया जा सकता था।
अब जो आलू की खेती का जुनून सर पर सवार हुआ तो डेढ़-दो हफ्ते इस पर रिसर्च होती रही कि आलूबुखारे की तरह आलू के भी बीज होते हैं या कोयटा के गुलाब की तरह आलू की भी टहनी काट के साफ-सुथरे गमले में गाड़ दी जाती है। यह भी कि आलू पटसन की तरह घुटनों-घुटनों पानी माँगता है या अखरोट की तरह बिना मेहनत के जन्म-जन्मांतर तक फल देता रहेगा। अनुसंधान के बीच एक मुद्दा यह भी निकल आया कि बैंगन की तरह आलू भी डाल पर लटकेंगे या तुरई की बेल की तरह पड़ोसी की दीवार पर पड़े रहेंगे। प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस ने तो यह बिंदु भी उठाया कि अगर झगड़ा मिटाने के लिए यह मान लिया जाए कि आलू धरती से उपजते हैं तो डंठल का निशान कैसे मिटाया जाता है?
हौसले की पीछे मौत भी
फिर क्या था। कोयटा से पाक इंटरनेशनल एयरलाइन्स के माध्यम से सफेद गुलाब की कलमें मँगाई गईं। गमलों को खौलते पानी और फिनाइल से 'डिसइन्फैक्ट' किया गया। फिर कोयटा के नाजुक और नायाब गुलाब को कराची की दीमक और कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए दुरश्चरित्र बकरी की मेंगनी के गर्म खाद में इतना ही अमरीकी खाद और अमरीकी खाद में बराबर का डी.डी.टी. पाउडर डाला गया। फिर कलमें लगाकर उबले हुए पानी से सुबह-शाम सिंचाई की गई और यह तथ्य है कि इन गमलों में कभी कोई कीड़ा नजर नहीं आया, और न ही गुलाब!
प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस कुछ गलत तो नहीं कहते कि मिर्जा अगर बेवकूफी भी करते हैं तो इस कदर 'ओरीजनल' कि खुदा की कसम बिल्कुल आकाश से उतरी हुई मालूम होती है।
बहरहाल मिर्जा ने आलू की खेती के लिए जमीन यानी अपना लॉन (जिसकी अफ्रीकी घास की हरियाली ऐसी थी कि सिगरेट की राख झाड़ते हुए दिल दुखता था) तैयार किया। इस खेती के अनुभव के दौरान जहाँ बुद्धि ने साथ नहीं दिया वहाँ जोश से काम लिया। ऑफिस के चपरासियों, अपने पालतू खरगोश और मुहल्ले के लौंडे-लाढ़ियों की मदद से दो ही दिन में सारा लॉन खोद फेंका। बल्कि इसके बाद भी काम जारी रहा, यहाँ तक कि दूसरी मंजिल के किरायेदारों ने हाथ जोड़ के खुदाई रुकवाई, इसलिए कि मकान की नींव नजर आने लगी थी।
स + क X मोजा = कमर / 32
कोयटा के गुलाब की तरह आलू को भी कराची की नजर खा गई मगर पाँच बार रोजाना निराई, गुड़ाई और खुदाई से रग-पुट्ठों में जो चुस्ती और तबीयत में चोंचाली आ गई थी वह उसे आलू की करामात समझते थे। अबकी बार जो लंच पर हमें होटल इंटरकांटीनेंटल के चाँदनी लाउंज में ले गए तो हमने देखा कि बूफे मेज पर सिवाय उन रासायनिक प्रयोगों के जो यूरोपियन बावर्चियों ने आनुवांशिक रूप से आलू-वंश पर किए थे और कुछ न था। आलू मुसल्लम, टो-टुकड़े आलू, आलू सूखा व कोफ्ता, आलू छिलकेदार, आलू बड़ियाँ, आलू कम बड़ियों के साथ बल्कि कहीं वस्त्रहीन।
'मिर्जा
'यह क्या?'
'ट्रिपिल बी (Busy Businessmen's Buffet)'
'या अल्लाह! कराची के करोड़पति यह खाते हैं मगर हमने तो इन्कम की चोरी भी नहीं की। फिर यह सजा क्यों? भूखा ही मारना था तो हमें गज भर की टाई बंधवा कर नौ मंजिलें लाँघते-फलाँगते यहाँ काहे को लाए? नीचे ही नकद पैसे देकर चलता कर देते।'
'हमारे साथ रहते एक उम्र गुजरी, मगर रहे जंगली के जंगली। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि फाइवस्टार होटलों में खाने की कीमत नहीं दी जाती, उस स्वप्निल माहौल की दी जाती है जहाँ आप दूसरे संभ्रांत व्यक्तियों को अपनी तरह भूखा मरते देखते हैं। बिल में जो रकम लिखी होती है वह दुर्गंध उठते गोश्त और उबले चुकंदर की नहीं होती, दरअस्ल उसमें घर से भागने का जुर्माना, दूसरी मेजों पर बैठी हुई महिलाओं के फ्रेंच सेंट लगाने का आर्थिक-दंड, खिलखिलाती हुई होटल बालाओं के टूथपेस्ट की कीमत, बल्कि उसका पूरा भरण-पोषण शामिल करना पड़ता है तब जाके कहीं एक बिल बनता है और जहाँ तक स्वाद का सवाल है तो साहब हर रात आँगन में उतरने वाले स्वर्गीय आहार की तुलना में बाहर के प्याज की गंठी मजा दे जाती है। वरना देखा जाए तो चाय की पियाली घर की अँगीठी पर 'चराग तले' जलाकर भी बनाई जा सकती है और - और साहब! दस-दस रुपए के नोट जला कर भी। जैसा 'हाक्स-बे' की 'हट' में तुम्हारे उस बंबईया सेठ ने किया था। मिस्री बैली डांसर की खातिर।'
'मगर वह तो काफी PLUMP थी।'
'साहब मिस्र वाले तो इसी चीज पर जान देते हैं। जभी तो शाह फारुक (मिस्री बादशाह) मोटे बदन की रखैलें इस तरह इकट्ठा करता था जैसे बच्चे डाक के टिकट जमा करते हैं।'
बहस और हमें इस ढलान पर लाकर मिर्जा ने फिगर की (जैसे 35-24-37) जाँच-पड़ताल करने का स्वनिर्मित जो फॉर्मूला पेश किया वह पाठकों की खिदमत में काट-छाँट किए बिना प्रस्तुत है -
सुंदरी के सीने के नाप में कूल्हों का नाप जोड़ो, जोड़ को अपने साफ मोजे के नंबर से गुणा करो फिर इस गुणनफल को 32 से विभाजित करो। जो जवाब आए वह कमर का आदर्श नाप होगा। अब अगर कमर का घेर इससे अधिक निकले तो आलू का परहेज जुरूरी है अगर इससे कम है तो आलू खिला-खिला कर बदन को फॉर्मूले के साँचे में ढाला जा सकता है।
होटल के बिल के पीछे उन्होंने बालप्वांइट पेन से मर्लिन मुनरो, लोलो ब्रिगिडा, एलिजाबेथ टेलर, सोफिया लॉरेन और चयनित हसीनाओं को एक-एक करके अपने ग्यारह नंबर के मोजे में ऐसे उतारा कि हम भौंचक्के रह गए। इसमें आपको झूठ या अतिशयोक्ति का तनिक भी संदेह हो तो दो-चार अभ्यास-प्रश्न निकालकर आप भी अपनी परिचित सुंदरियों की परीक्षा ले लीजिए। हम तो इसे रानी विक्टोरिया की मूर्ति, कोकाकोला की बोतल और स्वयं पर आजमा कर अपनी संतुष्टि कर चुके हैं।
उनकी रातों का मीठा दुख
हमें डेढ़ महीने के लिए काम से ढाका जाना पड़ा और मिर्जा से मुलाकातों का सिलसिला टला रहा। पत्र-व्यवहार मिर्जा को रुचिकर नहीं। जैसे ही हम वापस आए, अनन्नास और मुंशीगंज के केलों से लदे-फदे मिर्जा के यहाँ पहुँचे। हमने कहा, 'अस्सलाम अलैकुम!' जवाब मिला, 'फल अंदर भिजवा दो, वअलैकुम-अस्सलाम!' गौर से उनकी सूरत देखी तो दिल पर चोट-सी लगी।
'यह क्या हाल बना लिया तुमने?'
'हमें जी भर कर देख लो। फिर इस सूरत को तरसोगे।
'भूख खत्म, दवाओं पर गुजारा है। दिन भर में तीन अंगूर खा पाता हूँ, वह भी छिलका उतार के। खाने के नाम से हौल उठता है। दिल बैठा जाता है। हर वक्त एक बेकली-सी रहती है। हर चेहरा उदास, हर चीज धुआँ-धुआँ। यह हौंकता सन्नाटा, यह चैत की उदास चाँदनी, यह...'
'मिर्जा! हम तुम्हें रोमांटिक होने से रोक तो नहीं सकते लेकिन यह महीना चैत का नहीं है।'
'चैत न सही, चैत जैसा जुरूर है, जालिम। तुम तो एक हिंदू लड़की से दिल भी लगा चुके हो। तुम्हीं बताओ ये कौन से महीने का चाँद है?' मिर्जा ने सवाल किया।
'इसी महीने का मालूम होता है।' हमने झिझकते हुए जवाब दिया।
'हमें भी ऐसा ही लगता है। साहब! अजीब आलम है। काम में जरा जी नहीं लगता और बेकारी से भी घबराहट होती है। जह्न परागंदा (उलझा-उलझा) बल्कि सच पूछो तो गंदा। तारों भरे आसमान के नीचे रात-रात भर आँखें फाड़े तुम्हारी मूर्खताएँ गिनता रहता हूँ। तन्हाई से दिल घबराता है और लोगों से मिलता हूँ तो जी चाहता है मुँह नोच लूँ और साहब!
एक दो का जिक्र क्या सारे के सारे नोच लूँ
'मिर्जा! हो न हो यह इश्क के आसार हैं!'
'ठीक। लेकिन अगर व्यक्ति-विशेष पर चालीस महावटें बरस चुकी हों तो यह आसार इश्क के नहीं 'अल्सर' के हैं। खाना खाते ही महसूस होता है गोया किसी ने गले से लेकर पेट तक तेजाब की फुरहरी फेर दी है। इधर खाया, उधर पेट फूल कर मशक हो गया। अब तो हँसी की गति भी अंदर की तरफ हो गई है। सारी हरकत आलू की है। मेदे में ऐसिड बहुत बनने लगा है। 'पेप्टिक अल्सर' हो गया है।' उनकी आँखें डबडबा आईं।
'इस में दिल छोटा करने की क्या बात है। आजकल किसी को हार्ट-अटैक या अल्सर नहीं हो तो लोग उस पर तरस खाने लगते हैं कि शायद बेचारा किसी जिम्मेदार पद पर आसीन नहीं है मगर तुम तो नौकरी को जूते की नोक पर रखते हो। अपने बॉस से टाँग पर टाँग रखकर बात करते हो। फिर यह कैसे हुआ? समय पर सोते हो। समय के बाद उठते हो। दादा के काल की चाँदी की पतीली में उबाले बिना पानी नहीं पीते। वजू भी पानी में लस्टरीन मिलाकर करते हो, जिसमें 26 प्रतिशत एल्कोहल होता है। समसामयिक परिस्थितियों से स्वयं को दूर रखते हो। बातों के अलावा किसी चीज में कड़वाहट पसंद नहीं करते। तेल भी तुम नहीं खाते। दस साल से तो हम देख रहे हैं, मांटगुमरी का शुद्ध दानेदार घी खा रहे हो।' हमने कहा।
'तुम्हें विश्वास नहीं होगा, यह सब उसी मनहूस की गड़बड़ है। अबकी बार जो सोने के कुश्ते से अधिक शक्तिवर्धक घी का सीलबंद कनस्तर अपने हाथ से अँगीठी पर तपाया तो मालूम है तह में क्या निकला? तीन-तीन उंगल आलू की दानेदार लुगदी। जभी तो मैं कहूँ कि मेरा बनियान तो तंग हो गया मगर वज्न क्यों नहीं बढ़ रहा है।' मिर्जा ने आखिर अपनी दस साल पुरानी बीमारी की जड़ पकड़ ली जो जिला मांटगुमरी तक फैली हुई थी।
क्या असीरी है, क्या रिहाई है
पहले मिर्जा दर्द को बिल्कुल सहन नहीं कर पाते थे। हमारे सामने की बात है, पहली बार पेट में दर्द हुआ तो डॉक्टर ने मार्फिया का इंजेक्शन तैयार किया मगर मिर्जा ने घिघिया कर मिन्नतें कीं कि उन्हें पहले क्लोरोफार्म सुँघा दिया जाए ताकि इंजेक्शन की पीड़ा न हो, लेकिन अब अपनी बीमारी पर इस तरह इतराने लगे थे जैसे ओछे अक्सर अपने स्वास्थ्य पर अकड़ते हैं। हमें उनकी बीमारी से इतनी चिंता नहीं हुई जितनी इस बात से कि उन्हें अपनी ही नहीं दूसरों की बीमारी में भी उतना ही रस आने लगा था। भाँति-भाँति की बीमारियों में पड़े मरीजों से इस तरह कुरेद-कुरेद कर संक्रामक विवरण पूछते कि रात तक उनकी सारी बीमारी अपना लेते। इस हद तक कि बुखार किसी को चढ़ता, बहकी-बहकी बातें वह करते। इस हमदर्दी-भरी मिजाजपुर्सी से मिर्जा ने स्वयं को जच्चगी के अलावा हर तरह के कष्टों में डाल लिया था। घर या दफ्तर की कैद नहीं, न अपने बेगानों का अंतर, हर मुलाकाती को अपनी आंतों के नाकारा क्रियाकलाप बताते और इस पारे जैसी विशेषता वाले वायु-विकार का शाब्दिक ग्राफ बनाते जो हाथ मिलाते वक्त थरथराहट पैदा कर देता था। फिर दाईं आँख के पपोटे में करेंट मारता, सूजन भरे जिगर को छेदता, टली हुई नाभि की तरफ बढ़ने लगा था कि पिछले पहर अचानक पलटा और पलट कर दिल में बुरे-बुरे विचार पैदा करने लगा और फिर मिर्जा हर बुरे विचार को इस तरह खोल कर बयान करते कि - मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
जिन लोगों ने मिर्जा को पहले नहीं देखा था वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यह बीमार बंदा जो फाइलों पर सर झुकाए 'अल्सर' की तपक मिटाने के लिए हर दूसरे घंटे एक गिलास दूध मुँह बनाकर पी लेता है, चार महीने पहले कोफ्ते में हरी मिर्च भरवा कर खाता था। यह मरणासन्न जो बिना मिर्च मसाले के रातब को 'इंगलिश फूड' कह कर सब्र और शुक्र के साथ खा रहा है, यह वही चटोरा है जो चार महीने पहले यह बात बता सकता था कि सुबह सात बजे से लेकर रात के नौ बजे तक कराची में किस 'स्वीट मर्चेंट' की कड़ाही से उतरती गर्म जलेबी मिल सकती है। हाउसिंग सोसायटी के कौन से चीनी रेस्तराँ में तले हुए झींगे खाना चाहिए जिनका चौगुना बिल बनाते वक्त रेस्तराँ के मालिक की बेटी इस तरह मुस्कुराती है कि कसम खुदा की, रुपया हाथ का मैल मालूम होता है। उन्हें न सिर्फ यह पता था कि लाहौर में जेवरात की कौन सी दुकान में निहायत खूबसूरत 'हीरा-तराश' कलाइयाँ देखने को मिलती हैं, बल्कि यह भी मालूम था कि मजंग में तिक्का कबाब की वह कौन सी दुकान है जिसका हेड आफिस गुजरांवाला में है और यह भी कि कड़कड़ाते जाड़ों में रात के दो बजे लालकुर्ती में किस पान की दुकान पर पिंडी के मनचले तरह-तरह के पानों से अधिक उनके रसीले नामों के मजे लूटने आते हैं। किस्साख्वानी के किस मुच्छड़ हलवाई की दुकान से काली गुलाबजामुन और नाजिमाबाद की कौन-सी दुकान से चौरंगी के करीब गुलाब में बसा हुआ कलाकन्द उधार मिल सकता है। यह सारी जानकारियाँ मिर्जा के देशव्यापी चटोरपन का निचोड़ है। उन्होंने सारी उम्र और किया ही क्या है। अपने दाँतों से अपनी कब्र खोदी है। सूचनार्थ निवेदन है कि मिर्जा पैसे देकर मिठाई खरीदना फुजूलखर्ची समझते हैं। भला कोई कैसे विश्वास कर सकता है कि यह आलू और कार्बोहाइड्रेट का शिकार वही है जिसने कल तक मनभाते खानों के कैसे-कैसे अलबेले जोड़े बना रखे थे - खड़े मसाले के पसंदे और बेसनी रोटी, कीमा भरे करेले और घी में तरतराते पराँठे, मद्रासी बिरयानी और पारसी कोफ्ते (वह भी एक लखनवी पड़ोसन के हाथ के), चुपड़ी रोटी और उरद की फरहरी दाल, भिंडी और - भिंडी! (भिंडी के साथ मिर्जा किसी और चीज को शामिल करने के लिए तैयार नहीं)।
मिर्जा को खाने का ऐसा हौका है कि एक मुँह उन्हें काफी नहीं। उनके नदीदेपन को देखकर एक बार प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस ने कहा था, 'मिर्जा तुम्हारा हाल गिरगिट जैसा है। उसकी जबान की लंबाई उसके जिस्म की आधी होती है।' मिर्जा की उदास आँखें एकदम मुस्कुरा उठीं। कहने लगे, 'साहब! खुदा ने गोश्त के एक टुकड़े को जाने कौन से स्वाद से परिचित करा दिया। अगर सारा शरीर इस को जान पाता तो इनसान इसे सहन नहीं कर सकता था। जमीन की छाती फट जाती।'
मिर्जा पाँच-छह सप्ताह में पलंग को लात मार कर खड़े हो गए। हम तो इसे उनकी इच्छाशक्ति का चमत्कार ही कहेंगे। हालाँकि वह स्वयं कुछ और कारण बताते थे। एक दिन उनके मेदे से खून कट-कट कर आने लगा, हमारी आँखों में आँसू देखकर हमें ढाँढ़स देने लगे, 'मैं मुसलमान हूँ। जन्नत को भी मानता हूँ मगर मुझे वहाँ जाने की जल्दी नहीं है। मैं मौत से नहीं डरता मगर मैं अभी मर नहीं सकता, मैं अभी मरना नहीं चाहता। इसलिए कि अव्वल तो तुम मेरी मौत का सदमा बरदाश्त नहीं कर सकोगे। दूसरे यह कि तुम मुझ पर लेख लिख दोगे।' खुदा बेहतर जानता है कि वह अपने रेखाचित्र के डर से स्वस्थ हुए या जैसा किसी ने कहा है मुर्गी के शव को स्नान देने वाले पानी से जिसे वह चिकनसूप कह कर रसपान कर रहे थे। बहरहाल बीमारी जैसे आई थी उसी तरह चली गई। फायदा यह हुआ कि आलू से जो विमुखता पहले अकारण थी अब उसका बहुत उपयुक्त कारण हाथ आ गया और यह सरासर उनकी नैतिक विजय थी।
रोग, ईश्वर की कृपा से दूर हो चुका था। परहेज अलबत्ता चल रहा था। वह इस तरह कि पहले मिर्जा दोपहर के खाने के बाद आधा सेर जलेबी अकेले खा जाते थे लेकिन अब डॉक्टरों ने मीठा बंद कर दिया था, लिहाजा आधा सेर इमरती पर गुजारा करते थे।
आलू का मुँह काला, भिंडी का बोल-बाला
जैसे ही मिर्जा का स्वास्थ्य सामान्य हुआ और तबीयत ठीक, बगदादी जिमखाने में यार लोगों ने स्वस्थ हो जाने के उपलक्ष्य में उनके स्तर के अनुरूप जश्न की व्यवस्था की। स्वागत समिति ने तय किया कि घिसे-पिटे डिनर के बजाय फैन्सी ड्रैस बॉल-डांस का इंतजाम किया जाए ताकि एक दूसरे पर हँसने का अवसर मिले। मुख्य अतिथि-मिर्जा ने, यह भनक मिलने पर, हमारे माध्यम से कहलाया कि नए हास्यास्पद कपड़े सिलवाने की बिल्कुल जुरूरत नहीं। मेंबर और उनकी बीवियाँ अगर ईमानदारी से वही कपड़े पहने जिमखाना चली आएँ, जो वह आमतौर से घर में पहने बैठे रहते हैं तो भी उद्देश्य पूरा हो जाएगा। डांस के लिए मिर्जा ने एक कड़ी शर्त लगा दी कि हर सदस्य सिर्फ अपनी बीवी के साथ नाचेगा और इस लपक और हुमक के साथ कि जैसे वह उसकी बीवी नहीं है। जश्न की रात जिमखाना को झंडियों और भिंडियों से दुल्हन बनाया गया। सात कोर्स के डिनर से पहले रूई और कागज से बने हुए एक आदमकद आलू की अर्थी निकाली गई, जिस पर मिर्जा ने अपने हाथ से ब्रांडी छिड़क कर माचिस दिखाई और स्वर्गवासी के डिंपल पर गोल्फक्लब मार के क्रियाकर्म किया। डिनर के बाद मिर्जा पर टॉयलट पेपर के फूल बरसाए गए और कच्ची भिंडियों में तोला गया, जिन पर अभी ठीक से सुनहरा रुवाँ भी नहीं निकला था। फिर यह भिंडियाँ उपयुक्त व्यक्तियों यानी पेट के लखपति मरीजों में बाँट दी गईं। शैंपेन से महकते हुए बॉल-रूम में गुब्बारे छोड़े गए। खाली बोतलों की कीमत का दान एक अनाथालय को देने की घोषणा की गई और स्वस्थ होने की खुशी में कार्ड-रूम वालों ने जुए के अगले पिछले सारे कर्जे माफ कर दिए।
मिर्जा बात-बेबात मुस्कुरा रहे थे। तीसरा डांस खत्म होते ही हम अपनी कुहनियों से रास्ता बनाते हुए उन तक पहुँचे। वो उस समय एक बड़े गुब्बारे में जलते हुए सिगरेट से सूराख करने चले थे कि हमने उसका जिक्र छेड़ दिया जिसकी शान में कोई गुस्ताखी कल तक उन्हें पसंद नहीं थी। 'मिर्जा! अगर आलू इतना ही नुकसानदेह है तो इंग्लैंड में इतना प्रिय क्यों है? क्यों एक अंग्रेज औसतन, दस आउंस आलू रोजाना खा जाता है। यानी साल में साढ़े-पाँच मन। सुन रहे हो? साढ़े पाँच मन!' बोले, 'साहब! अंग्रेज की क्या बात है। उसकी गरीबी से भी एक शान टपकती है। वह पिटता भी है तो एक हेकड़ी के साथ। लिन यू तांग ने कहीं लिखा है कि हम चीनियों के बारे में लोगों ने यह मशहूर कर रखा है कि अकाल पड़ता है तो हम अपने बच्चे तक को खा जाते हैं लेकिन खुदा का शुक्र है कि हम उन्हें उस तरह नहीं खाते जिस तरह अंग्रेज 'बीफ' खाते हैं, यानी कच्चा!' हम भी जवाब में कुछ कहना चाहते थे कि एक नोकीली एड़ी जो एक हसीन बोझ सँभाले हुए थी, हमारे पंजे में बरमे की तरह उतरती चली गई। हमारी मर्दाना चीख FOR HE JOLLY GOOD FELLOW के कोरस में दब गई और ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने का बर्मी सागवान का डांस-फ्लोर बहके-बहके कदमों तले चरचराने लगा।
(1965-1968)