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शर्मिंदा था मैं। इच्छा नहीं थी कुछ खाने की,
इच्छा नहीं थी सोने या मरने की।
इच्छा नहीं लिखे हुए को मिटाने की
पन्ने फाड़ने के भी इच्छा न थी।
कितने पैसे लगेंगे-इसका हिसाब किये बिना
इच्छा थी लंबी यात्रा का टिकट लेने की
हवाई जहाज से नहीं बल्कि रेलगाड़ी से…
और बीस साल बाद
कथा में नायक की तरह प्रवेश करने की।
मैं लेटा था दीवान पर
वचन दिया था बड़े रोब के साथ
कड़ी दिनचर्या का ठीक से पालने करने का।
मैं यह करूँगा-वह नहीं,
यह लिखूँगा-वह नहीं'''
बाद में एक दिन मूसलाधार बारिश में
मैं बिना ओवरकोट के निकल आया सड़क पर
जैसा कि करना होता है कवि को।
और फिर कोशिश की धो डालने की
वह सब कुछ
जो तंग कर सकता था
कर सकता था दुखी और परेशान
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