राजगृह में धन्य नाम का एक धनी और बुद्धिमान व्यापारी रहता था। उसके चार पतोहुएँ थीं, जिनके नाम थे उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी।
एक दिन धन्य ने सोचा, मैं अपने कुटुंब में सबसे बड़ा हूँ और सब लोग मेरी बात मानते हैं। ऐसी हालत में यदि मैं कहीं चला जाऊँ या मर जाऊँ, बीमार हो जाऊँ, किसी कारण से काम की देखभाल न कर सकूँ, परदेश चला जाऊँ, तो मेरे कुटुंब का क्या होगा? कौन उसे सलाह देगा और कौन मार्ग दिखाएगा?
यह सोचकर धन्य ने बहुत-सा भोजन बनवाया और अपने सगे-संबंधियों को निमंत्रित किया। भोजन के बाद जब सब लोग आराम से बैठे थे, तब धन्य ने अपनी पतोहुओं को बुलाकर कहा, 'देखो बेटियों, मैं तुम सबको धान के पाँच-पाँच दाने देता हूँ। इन्हें सँभाल कर रखना और जब मैं माँगूँ, मुझे लौटा देना।'
चारों पतोहुओं ने जवाब दिया, 'पिताजी की जो आज्ञा!' और वे दाने लेकर चली गईं।
सबसे बड़ी पतोहू उज्झिका ने सोचा, 'मेरे ससुर के कोठार में मनों धान भरे पड़े हैं, जब वे माँगेंगे, कोठार में से लाकर दे दूँगी।'
यह सोचकर उज्झिका ने उन दानों को फेंक दिया और काम में लग गई।
दूसरी पतोहू भोगवती ने भी यही सोचा कि मेरे ससुर के कोठार में मनों धान भरे हैं। उन दानों का छिलका उतारकर वह खा गई।
तीसरी पतोहू रक्षिका ने सोचा कि ससुरजी ने बहुत-से लोगों को बुलाकर उनके सामने हमें धान के जो दाने दिए हैं और उन्हें सुरक्षित रखने को कहा है, अवश्य ही इसमें कोई रहस्य होना चाहिए। उसने उन दानों को एक साफ कपड़े में बाँध, अपने रत्नों की पिटारी में रख दिया और उसे अपने सिरहाने रखकर सुबह-शाम उसकी चौकसी करने लगी।
चौथी पतोहू रोहिणी के मन में भी यही विचार उठा कि ससुरजी ने कुछ सोचकर ही हम लोगों को धान के दाने दिए हैं। उसने अपने नौकरों को बुलवाकर कहा, 'जोर की वर्षा होने पर छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर इन धानों को खेत में बो दो। फिर इन्हें दो-तीन बार करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर रोपो, और इनके चारों ओर बाड़ लगाकर इनकी रखवाली करो।'
नौकरों ने रोहिणी के आदेश का पालन किया और जब हरे-हरे धान पककर पीले पड़ गए, उन्हें एक तेज दँतिया से काट लिया। फिर धानों को हाथ से मला और उन्हें साफ करके कोरे घड़ों में भर, घड़ों को लीप-पोतकर उन पर मोहर लगाकर कोठार में रखवा दिया।
दूसरे साल वर्षा ऋतु आने पर फिर से इन धानों को खेत में बोया और पहले की तरह काटकर साफ करके घड़ों में भर दिया।
इसी प्रकार तीसरे और चौथे वर्ष किया। इस तरह उन पाँचों दानों के बढ़ते-बढ़ते सैकड़ों घड़े धान हो गए। घड़ों को कोठार में सुरक्षित रख रोहिणी निश्चिंत होकर रहने लगी।
चार वर्ष बीत जाने के बाद एक दिन धन्य ने सोचा कि मैंने अपनी पतोहुओं को धान के जो दाने दिए थे, उन्हें बुलाकर पूछना चाहिए कि उन्होंने उनका क्या किया।
धन्य ने फिर अपने सगे-संबंधियों को निमंत्रित किया और उनके सामने पतोहुओं को बुलाकर उनसे धान के दाने माँगे।
पहले उज्झिका आई। उसने अपने ससुर के कोठार में से धान के पाँच दाने उठाकर ससुर जी के सामने रख दिए।
धन्य ने अपनी पतोहू से पूछा कि ये वही दाने हैं या दूसरे।
उज्झिका ने उत्तर दिया, 'पिताजी, उन दानों को तो मैंने उसी समय फेंक दिया था। ये दाने आपके कोठार में से लाकर मैंने दिए हैं।'
यह सुनकर धन्य को बहुत क्रोध आया। उसने उज्झिका को घर के झाड़ने-पोंछने और सफाई करने के काम में नियुक्त कर दिया।
तत्पश्चात भोगवती आई। धन्य ने उसे खोटने, पीसने और रसोई बनाने के काम में लगा दिया। उसके बाद रक्षिका आई। उसने अपनी पिटारी से पाँच दाने निकाल कर अपने ससुर के सामने रख दिए। इस पर धन्य प्रसन्न हुआ और उसे अपने माल-खजाने की स्वामिनी बना दिया।
अंत में रोहिणी की बारी आई। उसने कहा, 'पिताजी, जो धान के दाने आपने दिए थे, उन्हें मैंने घड़ों में भरकर कोठार में रख दिया है। उन्हें यहाँ लाने के लिए गाड़ियों की आवश्यकता होगी।'
धानों के घड़े मँगाए गए। धन्य अत्यंत प्रसन्न हुआ।
रोहिणी को उसने सब घर-बार की मालकिन बना दिया।