बीसवीं सदी के अंग्रेजों की गुलामी के कुछ दशक भारतीय मंच पर तमाम ऐसी घटनाओं को फोकस करने में लगे रहे जिससे संपूर्ण जनमानस जागा और गुलामी के कलंक को माथे से मिटाने में जुट गया। आजादी का प्रयास इतना, महत्वपूर्ण हो उठा था कि तमाम धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक असमानताएँ भूल बस संघर्ष की आँच में कूद पड़ने का जनमानस बन चुका था। एकबारगी धर्म, साहित्य, कला (संगीत, नृत्य, चित्रकला) से जुड़े लोग भी कुछ ऐसी ही मानसिकता बना खुद को उसमें झौंकने को तत्पर थे। बीसवीं सदी की शुरुआत के वे चार दशक मैंने बड़ी बारीकी से पढ़े थे और उस वक्त की परिस्थितियों ने मेरे मन में अन्य किसी भी काल के इतिहास से अधिक जगह बना ली थी। मैं साहित्य में उतरी, फिल्मों को खँगाला, संगीत, चित्रकला और नाट्यकला के द्वार खटखटाए और इतनी असरदार तारीखों से गुजरी कि मुझे लगा अगर इन तारीखों पे मैंने नहीं लिखा तो मन की उथलपुथल कभी शांत नहीं हो सकती। मैंने आजादी के लिए सुलगते उन दशकों में एक प्रेम कहानी ढूँढी और खुद को उसमें ढालने लगी। यदि खुद को नहीं ढालती तो शायद न घटनाएँ सूझतीं, न शब्द...'। पूरे विश्व को अपने सम्मोहन में बाँधे भगवान कृष्ण को भी मुझे उन दशकों में जोड़ना था। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने वहाँ कृष्ण के विराट रूप को इस्कॉन के जरिए जीवंत होते देखा और बड़ी मेहनत से उस काल को इस काल तक जोड़ने की कोशिश की। सात वर्षों की मेरी अथक मेहनत, शोध... एक-एक पेज को बार-बार लिखने की धुन और हेमंत के शेष हो जाने के शून्य में खुद को खपाना… बहुत मुश्किल था ऐसा होना पर मैं कर सकी। अक्सर उसका भोला चेहरा कभी दाएँ से झाँकता, कभी बाएँ से... ''माँ, कलम मत रोको, लिखो न... ओर मैं जैसे जादू से बँधी बस लिखती चली जाती... तो मैं कह सकती हूँ कि हेमंत ने यह उपन्यास मेरी यादों में घुसपैठ कर मुझसे लिखवाया।
मेरी छोटी बहन कथाकार प्रमिला वर्मा ने हर अध्याय के बाद मेरे अंदर आत्मविश्वास जगाया और मेरे रचनात्मक श्रम को सहलाया, आगे बढ़ाया।
मेरी अभिन्न मित्र कथाकार सुधा अरोड़ा ने मेरी इस रचना को नाम दिया ''टेम्स की सरगम''। वे कई दिनों तक इसके शीर्षक पर विचार करती रहीं... । यह मेरी लिए ऐसी खुराक थी जिसने मेरे दिमाग को बड़ी राहत दी।
इस उपन्यास के रचना समय के दौरान तमाम आवश्यक अनावश्यक परिस्थितियों को खारिज करते हुए मैंने खुद को समेट कर रखा और इसके हर पात्र हर घटना को जीती रही। चाहती हूँ मेरी आवाज उन तक पहुँचे जो जिंदगी और प्रकृति के जरूरी तत्व प्रेम को भूलकर मात्र अपने लिए जी रहे हैं। और मनुष्यता को खत्म कर रहे हैं।
संतोष श्रीवास्तव