जैसे-जैसे मैं जीवन की गहराई में उतरता गया, वैसे-वैसे मुझे बाहर और भीतर के आचरण में फेरफार करने की जरूरत मालूम होती गई। जिस गति से रहन-सहन और खर्च में
फेरफार हुए, उसी गति से अथवा उससे भी अधिक वेग से मैंने खुराक में फेरफार करना शुरू किया। मैंने देखा कि अन्नाहार विषयक अंग्रेजी की पुस्तकों में लेखकों ने बहुत
सूक्ष्मता से विचार किया है। उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यक दृष्टि से अन्नाहार की छानबीन की थी। नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह सोचा कि
मनुष्य को पशु-पक्षियों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ है, वह उन्हें मारकर खाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षा के लिए है; अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरे का
उपयोग करते है, पर एक-दूसरे को खाते नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी उपयोग के लिए हैं, खाने के लिए नहीं। और, उन्होंने देखा कि खाना भोग के लिए नहीं, बल्कि जीने
के लिए ही है। इस कारण कइयों ने आहार में मांस का ही नहीं बल्कि अंडों और दूध का भी त्याग सुझाया और किया। विज्ञान की दृष्टि से और मनुष्य की शरीर-रचना को देखकर
कई लोग इस परिणाम पर पहुँचे कि मनुष्य को भोजन पकाने की आवश्यकता ही नहीं है, वह वनपक्व (झाड़ पर कुदरती तौर पर पके हुए फल) फल ही खाने के लिए पैदा किया गया है।
दूध उसे केवल माता का ही पीना चाहिए। दाँत निकलने के बाद उसको चबा सकने योग्य खुराक ही लेती चाहिए। वैद्यक दृष्टि से उन्होंने मिर्च-मसालों का त्याग सुझाया और
व्यावहारिक अथवा आर्थिक दृष्टि से उन्होंने बताया कि कम-से-कम खर्चवाली खुराक अन्नाहार ही हो सकती है। मुझ पर इन चारों दृष्टियो का प्रभाव पड़ा और अन्नाहार
देनेवाले भोजन-गृह में मैं चारों दृष्टिवाले व्यक्तियों से मिलने लगा। विलायत में इनका एक मंडल था और एक साप्ताहिक भी निकलता था। मैं साप्ताहिक का ग्राहक बना और
मंडल का सदस्य। कुछ ही समय में मुझे उसकी कमेटी में ले लिया गया। यहाँ मेरा परिचय ऐसे लोगों से हुआ, जो अन्नाहारियों में स्तंभ रूप माने जाते थे। मैं प्रयोगों
में व्यस्त हो गया।
घर से मिठाई-मसाले वगैरा जो मँगाए थे, सो लेने बंद कर दिए और मन ने दूसरा मोड़ पकड़ा। इस कारण मसालों का प्रेम कम पड़ गया, और जो सब्जी रिचमंड में मसाले के अभाव
में बेस्वाद मालूम होती थी, बह अब सिर्फ उबाली हुई स्वादिष्ट लगने लगी। ऐसे अनेक अनुभवों से मैंने सीखा कि स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं, पर मन है।
आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही। उन दिनों एक पंथ ऐसा था, जो चाय-कॉफी को हानिकारक मानता था और कोको का समर्थन करता था। मैं यह समझ चुका था कि केवल उन्हीं
वस्तुओं का सेवन करना योग्य है, जो शरीर-व्यापार के लिए आवश्यक है। इस कारण मुख्यतः मैंने चाय और कॉफी का त्याग किया और कोको को अपनाया।
भोजन-गृह के दो विभाग थे। एक में जितने पदार्थ खाओ उतने पैसे देने होते थे। इनमें एक बार में शिलिंग-दो शिलिंग को भी खर्च हो जाता था। इस विभाग में अच्छी स्थिति
के लोग जाते थे। दूसरे विभाग में छह पेनी में तीन पदार्थ और डबल-रोटी का एक टुकड़ा मिलता था। जिन दिनों मैंने खूब किफायतशारी शुरू की थी, उन दिनों मैं अक्सर छह
पेनीवाले विभाग में जाता था।
ऊपर के प्रयोगों के साथ उप-प्रयोग तो बहुत हुए। कभी स्टार्चवाला आहार छोड़ा, कभी सिर्फ डबल रोटी और फल पर ही रहा, कभी पनीर, दूध और अंडों का ही सेवन किया।
यह आखिरी प्रयोग उल्लेखनीय है। यह पंद्रह दिन भी नहीं चला। स्टार्च-रहित आहार का समर्थन करनेवालों ने अंडो की खूब स्तुति की थी और यह सिद्ध किया था कि अंडे मांस
नहीं है। यह तो स्पष्ट है कि अंडे खाने से किसी जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुँचता। इस दलील के भुलावे में आकर मैंने माताजी के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के रहते
भी अंडे खाए, पर मेरा वह मोह क्षणिक था। प्रतिज्ञा का नया अर्थ करने का मुझे कोई अधिकार न था। अर्थ तो प्रतिज्ञा करानेवाले का ही माना जा सकता था। मांस न खाने
की प्रतिज्ञा करानेवाली माता को अंडो का तो खयाल हो ही नहीं सकता था, इसे मैं जानता था। इस कारण प्रतिज्ञा के रहस्य का बोध होते ही मैंने अंडे छोड़े और प्रयोग
भी छोड़ा।
यह एक सूक्ष्म रहस्य है और ध्यान में रखने योग्य है। विलायत में मैंने मांस की तीन व्याख्याएँ पढ़ी थी। एक के अनुसार मांस का अर्थ पशु-पक्षी का मांस था। अतएव ये
व्याख्याकार उनका त्याग करते थे, पर मच्छी खाते थे, अंडे तो खाते ही थे। दूसरी व्याख्या के अनुसार साधारण मनुष्य जिसे जीव के रूप में जानता है, उसका त्याग किया
जाता था। इसके अनुसार मच्छी त्याज्य थी, पर अंडे ग्राह्य थे। तीसरी व्याख्या में साधारणतया जितने भी जीव माने जाते है, उनके और उनसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थों
के त्याग की बात थी। इस व्याख्या के अनुसार अंडों का और दूध का भी त्याग बंधनकारक था। यदि मैं इनमें से पहली व्याख्या को मानता, तो मच्छी भी खा सकता था। पर मैं
समझ गया कि मेरे लिए तो माताजी की व्याख्या ही बंधनकारक है। अतएव यदि मुझे उनके सम्मुख ली गई प्रतिज्ञा का पालन करना हो तो अंडे खाने ही न चाहिए। इस कारण मैंने
अंडों का त्याग किया। पर मेरे लिए यह बहुत कठिन हो गया, क्योंकि बारीकी से पूछताछ करने पर पता चला कि अन्नाहार भोजन-गृह में भी अंडोवाली बहुत चीजें बनती थी।
तात्पर्य यह कि वहाँ भी भाग्यवश मुझे तब तक परोसनेवालों से पूछताछ करनी पड़ी थी, जब तक कि मैं अच्छा जानकार न हो गया, क्योंकि कई तरह के 'पुडिंग' में और कई तरह
के 'केक' में तो अंडे होते ही थे। इस कारण एक तरह से तो मैं जंजाल से छूटा, क्योंकि थोड़ी और बिलकुल सादी चीजें ही ले सकता था। दूसरी तरफ थोड़ा आघात भी लगा,
क्योंकि जीभ से लगी हुई कई चीजों का मुझे त्याग करना पड़ा था। पर वह आघात क्षणिक था। प्रतिज्ञा-पालन का स्वच्छ, सूक्ष्म और स्थायी स्वाद उस क्षणिक स्वाद की
तुलना में मुझे अधिक प्रिय लगा।
पर सच्ची परीक्षा तो आगे होनेवाली थी, और वह एक दूसरे व्रत के निमित्त से। जिसे राम रखे, उसे कौन चखे?
इस अध्याय को समाप्त करने से पहले प्रतिज्ञा के अर्थ के विषय में कुछ कहना जरूरी है। मेरी प्रतिज्ञा माता के सम्मुख किया हुआ एक करार था। दुनिया में बहुत से
झगड़े केवल करार के अर्थ के कारण उत्पन्न होते है। इकरारनामा कितनी ही स्पष्ट भाषा में क्यों न लिखा जाए, तो भी भाषाशास्त्री 'राई का पर्वत' कर देंगे। इसमे
सभ्य-असभ्य का भेद नहीं रहता। स्वार्थ सबको अंधा बना देता है। राजा से रंक तक सभी लोग करारों के खुद को अच्छे लगनेवाले अर्थ करके दुनिया को, खुद को और भगवान को
धोखा देते हैं। इस प्रकार पक्षकार लोग जिस शब्द अथवा वाक्य का अपने अनुकूल पड़नेवाला अर्थ करते है, न्यायशास्त्र में उसे द्वि-अर्थी मध्यपद कहा गया है। सुवर्ण
न्याय तो यह है कि विपक्ष ने हमारी बात का जो अर्थ माना हो, वही सच माना जाए; हमारे मन में जो हो वह खोटा अथवा अधूरा है। और ऐसा ही दूसरा सुवर्ण न्याय यह है कि
जहाँ दो अर्थ हो सकते हैं वहाँ दुर्बल पक्ष जो अर्थ करे, वही सच माना चाहिए। इन दो सुवर्ण मार्गों का त्याग होने से ही अक्सर झगड़े होते है और अधर्म चलता है। और
इस अन्याय की जड़ असत्य है। जिसे सत्य के ही मार्ग पर जाना हो, उसे सुवर्ण मार्ग सहज भाव से मिल जाता है। उसे शास्त्र नहीं खोजने पड़ते। माता ने 'मांस' शब्द का
जो अर्थ माना और जिसे मैंने उस समय समझा, वही मेरे लिए सच्चा था। वह अर्थ नहीं जिसे मैं अपने अधिक अनुभव से या अपनी विद्वत्ता के मद मे सीखा-समझा था।
इस समय तक के मेरे प्रयोग आर्थिक और आरोग्य की दृष्टि से होते थे। विलायत में उन्होंने धार्मिक स्वरूप ग्रहण नहीं किया था। धार्मिक दृष्टि से मेरे कठिन प्रयोग
दक्षिण अफ्रीका में हुए, जिन की छानबीन आगे करनी होगी। पर कहा जा सकता है कि उनका बीज विलायत में बोया गया था।
जो आदमी नया धर्म स्वीकार करता है, उसमे उस धर्म के प्रचार का जोश उस धर्म में जन्मे हुए लोगों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है। विलायत में तो अन्नाहार एक नया
धर्म ही था। और मेरे लिए भी वह वैसा ही माना जाएगा, क्योंकि बुद्धि से तो मैं मांसाहार का हिमायती बनने के बाद ही विलायत गया था। अन्नाहार की नीति को
ज्ञानपूर्वक तो मैंने विलायत में ही अपनाया था। अतएव मेरी स्थिति नए धर्म में प्रवेश करने-जैसी बन गई थी, और मुझमें नवधर्मी का जोश आ गया था। इस कारण इस समय मैं
जिस बस्ती में रहता था, उसमें मैंने अन्नाहारी मंडल की स्थापना करने का निश्चय किया। इस बस्ती का नाम बेजवॉटर था। इसमे सर एडविन आर्नल्ड रहते थे। मैंने उन्हें
उपसभापति बनने को निमंत्रित किया। वे बने। डॉ. ओल्डफील्ड सभापति बने। मैं मंत्री बना। यह संस्था कुछ समय तक तो अच्छी चली, पर कुछ महीनों के बाद इसका अंत हो गया,
क्योंकि मैंने अमुक मुद्दत के बाद अपने रिवाज के अनुसार वह बस्ती छोड़ दी। पर इस छोटे और अल्प अवधि के अनुभव से मुझे संस्थाओं का निर्माण करने और उन्हें चलाने
का कुछ अनुभव प्राप्त हुआ।