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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
पहला भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम 18. लज्जाशीलता मेरी ढाल पीछे     आगे

अन्नाहारी मंडल की कार्यकारिणी में मुझे चुन तो लिया गया और उसमें मैं हर बार हाजिर भी रहता था, पर बोलने के लिए जीभ खुलती ही न थी। डॉ. ओल्डफील्ड मुझसे कहते, 'मेरे साथ तो तुम काफी बात कर लेते हो, पर समिति की बैठक में कभी जीभ ही नहीं खोलते हो। तुम्हें तो नर-मक्खी की उपमा दी जानी चाहिए।' मैं इस विनोद को समझ गया। मक्खियाँ निरंतर उद्यमी रहती हैं, पर नर-मक्खियाँ बराबर खाती-पीती रहती है और काम बिलकुल नहीं करतीं। यह बड़ी अजीब बात थी कि जब दूसरे सब समिति में अपनी-अपनी सम्मति प्रकट करते, तब मैं गूँगा बनकर ही बैठा रहता था। मुझे बोलने की इच्छा न होती हो सो बात नहीं, पर बोलता क्या? मुझे सब सदस्य अपने से अधिक जानकार मालूम होते थे। फिर किसी विषय में बोलने की जरूरत होती और मैं कुछ कहने की हिम्मत करने जाता, इतने में दूसरा विषय छिड़ जाता।

यह चीज बहुत समय तक चली। इस बीच समिति में एक गंभीर विषय उपस्थित हुआ। उसमे भाग न लेना मुझे अन्याय होने देने जैसा लगा। गूँगे की तरह मत देकर शांत रहने में नामर्दगी मालूम हुई। 'टेम्स आयर्न वर्कस' के मालिक हिल्स मंडल के सभापति थे। कहा जा सकता है कि मंडल उनके पैसे से चल रहा था। समिति के कई सदस्य तो उनके आसरे ही निभ रहे थे। समिति में डॉ. एलिन्सन भी थे। उन दिनों संतानोत्पत्ति पर कृमित्र उपायों से अंकुश रखने का आंदोलन चल रहा था। डॉ. एलिन्सन उन उपायों के समर्थक थे और मजदूरों में उनका प्रचार करते थे। मि. हिल्स को ये उपाय नीति-नाशक प्रतीत हुए। उनके विचार में अन्नाहारी मंडल केवल आहार के ही सुधार के लिए नहीं था, बल्कि वह एक नीति-वर्धक मंडल भी था। इसलिए उनकी राय थी कि डॉ. एलिन्सन के समान घातक विचार रखनेवाले लोग उस मंडल में नहीं रहने चाहिए। इसलिए डॉ. एलिन्सन को समिति से हटाने का एक प्रस्ताव आया। मैं इस चर्चा में दिलचस्पी रखता था। डॉ. एलिन्सन के कृमित्र उपायों-संबंधी विचार मुझे भयंकर मालूम हुए थे, उनके खिलाफ मि. हिल्स के विरोध को मैं शुद्ध नीति मानता था। मेरे मन में उनके प्रति बड़ा आदर था। उनकी उदारता के प्रति भी आदर भाव था। पर अन्नाहार-संवर्धक मंडल में से शुद्ध नीति के नियमों को न माननेवाले का उसकी अश्रद्धा के कारण बहिष्कार किया जाए, इसमें मुझे साफ अन्याय दिखाई दिया। मेरा खयाल था कि अन्नाहारी मंडल के स्त्री-पुरुष संबंध विषयक मि. हिल्स के विचार उनके अपने विचार थे। मंडल के सिद्धांत के साथ उनका कोई संबंध न था। मंडल का उद्देश्य केवल अन्नाहार का प्रचार करना था। दूसरी नीति का नहीं। इसलिए मेरी राय यह थी कि दूसरी अनेक नीतियों का अनादर करनेवाले के लिए भी अन्नाहार मंडल में स्थान हो सकता है।

समिति में मेरे विचार के दूसरे सदस्य भी थे। पर मुझे अपने विचार व्यक्त करने का जोश चढ़ा था। उन्हें कैसे व्यक्त किया जाए, यह एक महान प्रश्न बन गया। मुझमें बोलने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए मैंने अपने विचार लिखकर सभापति के सम्मुख रखने का निश्चय किया। मैं अपना लेख ले गया। जैसा कि मुझे याद है, मैं उसे पढ़ जाने की हिम्मत भी नहीं कर सका। सभापति ने उसे दूसरे सदस्य से पढ़वाया। डॉ. एलिन्सन का पक्ष हार गया। अतएव इस प्रकार के अपने इस पहले युद्ध में मैं पराजित पक्ष में रहा। पर चूँकि मैं उस पक्ष को सच्चा मानता था, इसलिए मुझे संपूर्ण संतोष रहा। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि उसके बाद मैंने समिति से इस्तिफा दे दिया था।

मेरी लज्जाशीलता विलायत में अंत तक बनी रही। किसी से मिलने जाने पर भी, जहाँ पाँच-सात मनुष्यों की मंडली इकट्ठा होती वहाँ मैं गूँगा बन जाता था।

एक बार मैं वेंटनर गया था। वहाँ मजमुदार भी थे। वहाँ के एक अन्नाहार घर में हम दोनों रहते थे। 'एथिक्स ऑफ डायेट' के लेखक इसी बंदरगाह में रहते थे। हम उनसे मिले। वहाँ अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गई। उसमें हम दोनों को बोलने का निमंत्रण मिला। दोनों ने उसे स्वीकार किया। मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में कोई दोष नहीं माना जाता। मैं देखता था कि अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे। मैंने अपना भाषण लिख लिया। बोलने की हिम्मत नहीं थी। जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ, तो पढ़ न सका। आँखों के सामने अँधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर काँपने लगे। मेरा भाषण मुश्किल से फुलस्केप का एक पृष्ठ रहा होगा। मजमुदार ने उसे पढ़कर सुनाया। मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ। श्रोतागण उनकी बातों का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से करते थे। मैं शरमाया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुखी हुआ।

विलायत में सार्वजनिक रूप से बोलने का अंतिम प्रयत्न मुझे विलायत छोड़ते समय करना पड़ा था। विलायत छोड़ने से पहले मैंने अन्नाहारी मित्रों को हॉबर्न भोजन-गृह में भोज के लिए निमंत्रित किया था। मैंने सोचा कि अन्नाहारी भोजन-गृहों में तो अन्नाहार मिलता ही है, पर जिस भोजन-गृह में मांसाहार बनता हो वहाँ अन्नाहार का प्रवेश हो तो अच्छा। यह विचार करके मैंने इस गृह के व्यवस्थापक के साथ विशेष प्रबंध करके वहाँ भोज दिया। यह नया प्रयोग अन्नाहारियों में प्रसिद्धि पा गया। पर मेरी तो फजीहत ही हुई। भोज मात्र भोग के लिए ही होते है। पर पश्चिम में इनका विकास एक कला के रूप में किया गया है। भोज के समय विशेष आडंबर की व्यवस्था रहती है। बाजे बजते है, भाषण किए जाते है। इस छोटे से भोज में भी यह सारा आडंबर था ही। मेरे भाषण का समय आया। मैं खड़ा हुआ। खूब सोचकर बोलने की तैयारी की थी। मैंने कुछ ही वाक्यों की रचना की थी, पर पहले वाक्य से आगे न बढ़ सका। एडीसन के विषय में पढ़ते हुए मैंने उसके लज्जाशील स्वभाव के बारे में पढ़ा था। लोकसभा (हाउस ऑफ कॉमन्स) के उसके पहले भाषण के बारे में यह कहा जाता है कि उसने 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', यों तीन वार कहा, पर बाद में आगे न बढ़ सका। जिस अंग्रेजी शब्द का अर्थ 'धारणा है', उसका अर्थ 'गर्भ धारण करना' भी है। इसलिए जब एडीसन आगे न बढ़ सका तो लोकसभा का एक मखसरा सदस्य कह बैठा कि 'इन सज्जन ने तीन बार गर्भ धारण किया, पर ये कुछ पैदा तो कर ही न सके!' मैंने यह कहानी सोच रखी थी और एक छोटा-सा विनोदपूर्ण भाषण करने का मेरा इरादा था। इसलिए मैंने अपने भाषण का आरंभ इस कहानी से किया, पर गाड़ी वहीं अटक गई। सोचा हुआ सब भूल गया और विनोदपूर्ण तथा गूढ़ार्थभरा भाषण करने की कोशिश में मैं स्वयं विनोद का पात्र बन गया। अंत में 'सज्जनो, आपने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया, इसके लिए मैं आपका आभार मानता हूँ,' इतना कहकर मुझे बैठ जाना पड़ा!

मै कह सकता हूँ मेरा यह शरमीला स्वभाव दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर ही दूर हुआ। बिलकुल दूर हो गया, ऐसा तो आज भी नहीं कहा जा सकता। बोलते समय सोचना तो पड़ता ही है। नए समाज के सामने बोलते हुए मैं सकुचाता हूँ। बोलने से बचा जा सके, तो जरूर बच जाता हूँ। और यह स्थिति तो आज नहीं है कि मित्र-मंडली के बीच बैठा होने पर कोई खास बात कर ही सकूँ अथवा बात करने की इच्छा होती हो। अपने इस शरमीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ; बल्कि अब तो मैं देख सकता हूँ कि मुझे फायदा हुआ है। पहले बोलने का यह संकोच मेरे लिए दुखकर था, अब वह सुखकर हो गया है। एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि मैंने शब्दों का मितव्यय करना सीखा।

मुझे अपने विचारों पर काबू रखने की आदत सहज ही पड़ गई। मैं अपने आपको यह प्रमाण-पत्र दे सकता हूँ कि मेरी जबान या कलम से बिना तौले शायद ही कोई शब्द कभी निकलता है। याद नहीं पड़ती कि अपने किसी भाषण या लेख के किसी अंश के लिए मुझे कभी शरमाना या पछताना पड़ा हो। मैं अनेक संकटों से बच गया हूँ और मुझे अपना बहुत-सा समय बचा लेने का लाभ मिला है।

अनुभव ने मुझे यह भी सिखाया है कि सत्य के प्रत्येक पुजारी के लिए मौन का सेवन इष्ट है। मनुष्य जाने-अनजाने भी प्रायः अतिशयोक्ति करता है, अथवा जो कहने योग्य है उसे छिपाता है, या दूसरे ढंग से कहता है। ऐसे संकटों से बचने के लिए भी मितभाषी होना आवश्यक है। कम बोलनेवाला बिना विचारे नहीं बोलेगा; वह अपने प्रत्येक शब्द को तौलेगा। अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर हो जाता है। 'मैं भी बोलना चाहता हूँ,' इस आशय की चिट्ठी किस सभापति को नहीं मिलती होगी? फिर उसे जो समय दिया जाता है वह उसके लिए पर्याप्त नहीं होता। वह अधिक बोलने देने की माँग करता है और अंत में बिना अनुमति के भी बोलता रहता है। इन सब लोगों के बोलने से दुनिया को लाभ होता है, ऐसा क्वचित ही पाया जाता है। पर उतने समय की बरबादी तो स्पष्ट ही देखी जा सकती है। इसलिए यद्यपि आरंभ में मुझे अपनी लज्जाशीलता दुख देती थी, लेकिन आज उसके स्मरण से मुझे आनंद होता है। यह लज्जाशीलता मेरी ढाल थी। उससे मुझे परिपक्व बनने का लाभ मिला। सत्य की अपनी पूजा में मुझे उससे सहायता मिली।


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