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लोककथा

पागल

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


आप पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? हुआ यों कि :

बहुत समय पहले, देवता भी जब पैदा नहीं हुए थे, एक सुबह मैं गहरी नींद से जाग उठा। मैंने देखा कि मेरे सारे मुखौटे चोरी हो गए हैं। सात मुखौटे जिन्हें मैं सात जनमों से पहनता आ रहा था। बिना किसी मुखौटे के जोरों से चिल्लाता हुआ मैं भीड़भरी गलियों में दौड़ने लगा - "चोर!… चोर… !!"

लोग मुझ पर हँसने लगे। कुछ मुझसे डरकर अपने घरों में घुस गए।

जब मैं बाजार में पहुँचा तो अपने घर की छत पर खड़ा एक नौजवान चिल्लाया - "देखो… ऽ… वह पागल है।"

उसकी झलक पाने के लिए मैंने ऊपर की ओर देखा। सूरज की किरणों ने उस दिन पहली बार मुखौटाहीन मेरे नंगे चेहरे को चूमा। मेरी आत्मा सूरज के प्रति प्रेम से दमक उठी। मुखौटों का ख्याल मेरे जेहन से जाता रहा; और मैं जैसे विक्षिप्त-सा चिल्लाया - "सुखी रहो, सुखी रहो मेरे मुखौटे चुराने वालो!"

इस तरह मैं पगल हो गया।

और अपने इस पागलपन में ही मैंने आज़ादी और सुरक्षा पाई हैं। अकेला रह पाने की आज़ादी और पहचान बना लेने के अहसास से मुक्ति। वे, जो हमें पहचानते हैं, कुछ-न-कुछ गुलामी हममें बो देते हैं।

लेकिन मुक्ति के इस अहसास पर मुझे घमण्ड नहीं करना चाहिए। जेल में पड़ा एक चोर भी बाहर रहने वाले दूसरे चोर से सुरक्षित रहता है।


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