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लोककथा

कथा कटोरे की

खलील जिब्रान

अनुवाद - बलराम अग्रवाल


एक सुनसान पहाड़ पर दो साधु रहते थे। वे ईश्वर का ध्यान करते और एक-दूसरे को बहुत प्रेम करते थे।

उनके पास एक कटोरा था और वही उन दोनों की पूँजी था।

एक दिन शैतान उनमें से बड़ी उम्र वाले के दिल में जा घुसा। वह कम उम्र वाले संन्यासी के पास आया और बोला, "साथ-साथ रहते हमें लम्बा अरसा बीत गया। अब अलग होने का समय आ गया है। इसलिए हमें इस कटोरे को बाँट लेना चाहिए।"

कम उम्र वाला संन्यासी यह सुनकर झटका खा गया। वह बोला, "यह सुनकर मुझे बड़ा दु:ख हुआ है मेरे भाई! लेकिन तुम अगर जाना चाहते हो, तो जाओ।"

यों कहकर वह कटोरे को उठा लाया और उसे देते हुए बोला, "इसे बाँटा नहीं जा सकता। अत: तुम ले जाओ।"

इस पर बड़ी उम्र वाले ने कहा, "मैं भीख नहीं लेता। मैं सिर्फ अपना हिस्सा लूँगा। इसलिए इसके टुकड़े करो।"

युवा संन्यासी ने कहा, "टूट जाने पर कटोरा न तुम्हारे मतलब का रहेगा न मेरे। अगर आपकी मर्जी हो तो हम लॉटरी डाल लेते हैं।"

लेकिन बुजुर्ग संन्यासी ने कहा, "डाल लो; लेकिन मैं अगर जीता तो सिर्फ अपना हिस्सा ही लूँगा और मैं अगर हारा तो भी अपना हिस्सा जरूर लूँगा। कटोरा तो अब टूटेगा ही।"

युवा संन्यासी ने आगे और बहस नहीं की। बोला, "अगर आपकी ऐसी ही इच्छा है और आप हर हाल मैं अपना ही हिस्सा लेना चाहते हैं तो ठीक है, आइए, कटोरे को तोड़ लेते हैं।"

इतना सुनना था कि बुजुर्ग संन्यासी का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया। वह चीखा, "अरे नीच! डरपोक!! तू मुझसे झगड़ा नहीं कर सकता?"


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