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आवारगी के अपने आर्कषण हैं
कभी कभी स्त्री सोचती है अपनी घर गृहस्थी से ऊबकर
उम्र के चालीसवें पड़ाव पर।
अतृप्त कामनाओं के प्रेत उसे डराते हैं
लिखी जो चिट्ठी उसने चालीसवें बरस में
पोस्ट कर दी थी गुमनाम पते पर
उस चिट्ठी की याद सताती है
कभी कभी
वह सोचती है फिर से लिखेगी एक चिट्ठी
ठीक मृत्यु से पहले
अबकी भेजेगी सही पते पर।
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