मेरा उक्त अधिकारी के यहाँ जाना अवश्य दोषयुक्त था। पर अधिकारी की अधीरता, उसके रोष और उद्धतता के सामने मेरा दोष छोटा हो गया। दोष का दंड चपरासी का धक्का न था। मैं उसके पास पाँच मिनट भी न बैठा होउँगा। उसे तो मेरा बोलना भी असह्य मालूम हुआ। वह मुझसे शिष्टातापूर्वक जाने को कह सकता था, पर उसके मद की कोई सीमा न थी। बाद में मुझे पता चला कि इस अधिकारी के पास धीरज नाम की कोई चीज थी ही नहीं। अपने यहाँ आनेवालों का अपमान करना उसके लिए साधारण बात थी। मर्जी के खिलाफ कोई बात मुँह से निकलते ही साहब का मिजाज बिगड़ जाता था।
मेरा ज्यादातर काम तो उसी की अदालत में रहता था। खुशामद मैं कर ही नहीं सकता था। मैं इस अधिकारी को अनुचित रीति से रिझाना नहीं चाहता था। उसे नालिश की धमकी देकर मैं नालिश न करूँ और उसे कुछ भी न लिखूँ, यह मुझे अच्छा न लगा।
इस बीच मुझे काठियावाड़ के रियासती षड्यंत्रों का भी कुछ अनुभव हुआ। काठियावाड़ अनेक छोटे-छोटे राज्यों का प्रदेश है। यहाँ मुत्सद्दियों का बड़ा समाज होना स्वाभाविक ही था। राज्यों के बीच सूक्ष्म षड्यंत्र चलते, पदों की प्राप्ति के लिए साजिशें होती, राजा कच्चे कान का और परवश रहता। साहबों के अर्दलियों तक की खुशामद की जाती। सरिश्तेदार तो साहब से भी सवाया होता; क्योंकि वही तो साहब की आँख, कान और दुभाषिए का काम करता था। सरिश्तेदार की इच्छा ही कानून थी। सरिश्तेदार की आमदनी साहब से ज्यादा मानी जाती थी। संभव है, इसमें अतिशयोक्ति हो, पर सरिश्तेदार के अल्प वेतन की तुलना में उसका खर्च अवश्य ही अधिक होता था। यह वातावरण मुझे विष-सा प्रतीत हुआ। मैं अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसकी चिंता बराबर बनी रहती। मैं उदासीन हो गया। भाई ने मेरी उदासीनता देखी। एक विचार यह आया कि कहीं नौकरी कर लूँ, तो इन खटपटों से मुक्त रह सकता हूँ। पर बिना खटपट के दीवान का या न्यायधीश का पद कैसे मिल सकता था?
वकालत करने में साहब के साथ झगड़ा बाधक बनता था।
पोरबंदर में एडमिनिस्ट्रेशन नाबालिगी शासन था। वहाँ राणा साहब के लिए सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न करना था। मेर लोगों से लगान उचित से अधिक वसूल किया था। इसके सिलसिले में भी मुझे वहीं एडमिनिस्ट्रेटर से मिलना था। मैंने देखा कि एडमिनिस्ट्रेटर यद्यपि हिंदुस्तानी हैं, तथापि उनका रोब-दाब तो साहब से भी अधिक है। वे होशियार थे, पर उनकी होशियारी का लाभ जनता को अधिक मिला हो, यह मैं देख न सका। राणा साहब को थोड़ी सत्ता मिली। कहना होगा कि मेर लोगों को तो कुछ भी न मिला। उनके मामले की पूरी जाँच हो, ऐसा भी मैंने अनुभव नहीं किया।
इसलिए यहाँ भी मैं थोड़ा निराश ही हुआ। मैंने अनुभव किया की न्याय नहीं मिला। न्याय पाने के लिए मेरे पास कोई साधन न था। बहुत करे तो बड़े साहब के सामने अपील की जा सकती है। वे राय देंगे, 'हम इस मामले में दखल नहीं दे सकते।' ऐसे फैसलों के पीछे कोई कानून-कायदा हो, तब तो आशा भी की जा सके। पर यहाँ तो साहब की मर्जी ही कानून है।
मैं अकुलाया।
इसी बीच भाई के पास पोरबंदर की एक मेमन फर्म का संदेशा आया : 'दक्षिण अफ्रीका में हमारा व्यापार है। हमारी फर्म बड़ी है। वहाँ हमारा एक बड़ा मुकदमा चल रहा है। चालीस हजार पौंड का दावा है। मामला बहुत लंबे समय से चल रहा है। हमारे पास अच्छे-से-अच्छे वकील-बारिस्टर है। अगर आप अपने भाई को भेजें, तो वे हमारी मदद करें और उन्हें भी कुछ मदद मिल जाए। वे हमारा मामला हमारे वकील को अच्छी तरह समझा सकेंगे। इसके सिवा, वे नया देश देखेंगे और कई लोगों से उनकी जान-पहचान होगी।'
भाई ने मुझ से चर्चा की। मैं सबका अर्थ समझ न सका। मैं यह जान न सका कि मुझे सिर्फ वकील को समझाने का ही काम करना है या अदालत में भी जाना होगा। फिर भी मैं ललचाया।
दादा अब्दुल्ला के साझी मरहूम सेठ अब्दुल करीम झवेरी से भाई ने मेरी मुलाकात कराई। सेठ ने कहा, 'आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी। बड़े-बड़े साहब से हमारी दोस्ती है। उनसे आपकी जान-पहचान होगी। आप हमारी दुकान में भी मदद कर सकेंगे। हमारे यहाँ अंग्रेजी पत्र-व्यवहार बहुत होता है। आप उसमें भी मदद कर सकेंगे। आप हमारे बँगले में ही रहेंगे। इससे आप पर खर्च का बिलकुल बोझ नहीं पड़ेगा।'
मैंने पूछा, 'आप मेरी सेवाएँ कितने समय के लिए चाहते हैं? आप मुझे वेतन क्या देंगे?'
'हमें एक साल से अधिक आपकी जरूरत नहीं रहेगी। आपको पहले दर्जे का मार्गव्यय देंगे और निवास तथा भोजन खर्च के अलावा 105 पौंड देंगे।'
इसे वकालत नहीं कह सकते। यह नौकरी थी। पर मुझे तो जैसे भी बने हिंदुस्तान छोड़ने था। नया देश देखने को मिलेगा और अनुभव प्राप्त होगा सो अलग। भाई को 105 पौंड भेजूँगा तो घर खर्च चलाने में कुछ मदद होगी। यह सोचकर मैंने वेतन के बारे में बिना कुछ झिक-झिक किए ही सेठ अब्दुल करीम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मैं दक्षिण अफ्रीका जाने के लिए तैयार हो गया।